महासमुन्द
महिला हेल्प लाइन की इन्हें जरूरत नहीं पड़ती
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
महासमुंद, 8 मार्च। शुक्रवार को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है। जिले भर में कई स्थानों पर महिलाओं को समर्पित कई कार्यक्रम जारी हैं। ऐसे में शहर के बीच से गुजरने वाली राष्ट्रीय राजमार्ग किनारे आधा दर्जन महिलाएंं प्लाास्टर ऑफ पेरिस से मूर्तियां बनाकर उसमें रंग भर रही हैं। ये मूलत: राजस्थान की हैं, लेकिन इनका डेरा भिलाई में मौर्या टाकीज के पास है। अभी ये मूर्तियां बेचने महासमुंद पहुंची हैं।
किरण, श्वेता, भवानी, कल्पना, मिची, धारी नाम की इन महिलाओं के साथ बच्चों को छोडक़र कोई भी पुरुष सदस्य नहीं है। सडक़ किनारे बने फूटपाथ पर आत्मानंद स्कूल के ठीक सामने इन्होंने अपना डेरा डाल रखा है। यह महिला ब्रिग्रेड किसी भी स्थिति-परिस्थिति से निपटने के लिए सक्षम हैं। वुमेन पॉवर महिला हेल्प लाइन की उन्हें जरूरत नहीं पड़ती। इनसे महिला दिवस के बारे में ‘छत्तीसगढ़’ ने कुछ सवाल किए, जिनसे इनको कोई मतलब ही नहीं है।
गुरुवार की सुबह 10 बजे स्कू ल के मुख्य दरवाजे से बच्चे प्रवेश कर रहे थे, तब इनके बच्चे मूर्तियों में रंग भरने का काम कर रहे थे। इन महिलाओं से बातचीत में पता चला कि महिला दिवस के बारे में ये जानती नहीं। मुझे लगा कि महिलाओं की स्थिति में कोई भारी सकारात्मक फेरबदल आया हो, ऐसी स्थिति अभी नहीं आई है। ये भी दुनिया की आबादी का आधा हिस्सा हैं। महिला अधिकारों के बारे में उनसे पूछने पर कहती हैं-आंख खुलते ही परिवार के बारे में सोचना, उनके लिए खाना एकत्र करना, कपड़े लत्ते आदि दिमाग में रहता है। बच्चों को स्कूल नहीं भेजते। एक जगह ठौर ठिकाना नहीं है इसलिए। घर के पुरुष अलग काम पर निकल जाते हैं। महीने-दो महीने बाद उनसे मुलाकात होती है। शाम को हम सभी महिलाएं जहां जगह मिली, खाना खाते हैं, जहां जगह मिली सो जाते हैं। समाज के मूल्यों, महिलाओं की पीड़ा, दोयम दर्जे का नागरिक जैसे सवाल इनसे नहीं पूछ सकी।
उन्होंने कहा-मेहनतकश महिलाओं की अपनी परिस्थितियां होती हैं। आर्थिक स्वतंत्रता होती है। रोजाना मिले पैसे पास रखते हैं, पर बचा नहीं सकते। हमारी यह महिला ब्रिग्रेड किसी भी स्थिति-परिस्थिति से निपटने के लिए सक्षम हैं। ये खुद ही अपने सामानों और बच्चों की सुरक्षा कर लेती हैं। अनौपचारिक रूप से ये महिलाएं परिवार चलाने में अपने घर के पुुरुषों का साथ दे रही हैं।
किरण बताती हैं-राजस्थान में हमारा गांव है बनस्थली। वहां हमने प्लास्टर आफ पैरिस से मूर्तियां बनाने का काम सीखा और मूर्तियों को दूूसरे शहर में ले जाकर बेचने का काम शुरू किया। परिवार समेत हम इस तरह एक शहर से दूूसरे शहर जाते रहे। ऐसा करते-करते हम छत्तीसगढ़ आ गए। यहां हमारे काम को अच्छा पैसा मिलना शुरू हुआ। हमने मौर्या टाकीज के पास की खाली जमीन पर झोपडिय़ां तान दी। दस सालों से वहीं रहते हैं। बारिश में परिवार के साथ रहता है। जैसे ही बारिश बंद होती है, परिवार की महिलाएं बच्चों को लेकर शहरों की ओर निकल जाती हैं और पुरुष अन्य सामान लेकर दूसरे शहरों में चले जाते हैं। दीपावली से हमारा काम अच्छा पैसा देता है। गर्मी भर चलता है। बारिश शुरू होते ही वाापस हम अपनी झोपडिय़ों में चले जाएंगे।
बातचीच के बीच ही धारी एक बच्ची के साथ लौटी तो उसने बताया-कोतवाली में मुसाफिरी दर्ज कराने गई थी, सभी महिलाओं और बच्चों का आईडी दे आई हैं। सामान ठीकठाक बिका तो कुछ दिन यहां ठहर कर अगले शहर की ओर चली जाएंगी।
धारी ने बताया कि कुल सात महिलाएं, अपने पांच बच्चियों के साथ यहां हैं। सभी एक ही गांव से हैं। परदेश (दूसरे स्थान) में एक परिवार जैसा रहते हैं। परिवार के लडक़े अपने पिता के साथ जाते हैं। महिलाएं लड़कियों को अपने साथ ले आती हैं। जहां पानी, शौचालय आदि नजदीक में हो, वहां पड़ाव होता है। दिन भर बिखरे सामानों को समेटकर रात में वहीं पर गुदड़ी डालकर सो जाते हैं ...और इस तरह जिंदगी चलती रहती है।
जब समाचार तैयार हो रहा था, ये महिलाएं अपने बच्चों के साथ मूर्तियां बनाने, उसमें बारीकी से रंग भरने में लगी हुई थीं। इनके पास तीन सौ से लेकर तीन हजार रुपए कीमती मूर्तियां हैं। मूर्तियों में रंग ऐसा भरा होता है कि अच्छे-अच्छे कलाकार तक फेल हो जाए। बगैर पढ़े लिखे होकर भी सौदेबाजी की इनकी शक्ति विचारणीय है। हमारा तंत्र इनके योगदान को माने या मत माने, लेकिन कोई भी इस तथ्य को अस्वीकार नहीं कर सकते कि जिन महिलाओं के पास जमीन है, बेहतर आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा है, ठीक वैसे ही ये भी मजबूत हैं। इनके श्रम को, परिस्थितियों को बदलने के लिए कोशिशें हों, चाहे न हों लेकिन ये निरंतर चल रही हैं, एक शहर से दूसरे शहर की ओर, खाना बदोश की मानिंद।