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मानसिक स्वास्थ्य की सलाह पर भरोसा क्यों नहीं करते कई भारतीय
06-Jun-2023 11:57 AM
मानसिक स्वास्थ्य की सलाह पर भरोसा क्यों नहीं करते कई भारतीय

भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ने के साथ साथ इससे जुड़ा स्वास्थ्य उद्योग भी बढ़ रहा है. हालांकि सामाजिक मानदंडों को नहीं मानने वाले कई लोगों का कहना है कि मदद मांगने पर उन्हें गलत साबित करने की कोशिश की गई.

   डॉयचे वैले पर तनिका गोडबोले की रिपोर्ट-

मुंबई में रहने वाली एक छात्रा ने परिवार के सामने लेस्बियन के तौर पर अपनी पहचान जाहिर करने के बाद इलाज कराने की मांग की. अलीना (बदला हुआ नाम) ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह मेरे जीवन का एक भयानक समय था. मेरे पिता ने मुझे अपनाने से इनकार कर दिया था और मैं हर समय खुद को दोषी मानती थी. मुझे लगा कि मैं अपने परिवार को नीचा दिखा रही हूं. उनके सम्मान पर चोट पहुंचा रही हूं.”

25 वर्षीय अलीना ने कहा कि मदद मांगने के बाद उसे ऐसा महसूस हुआ कि वह गलत है, उसका आत्म-सम्मान कम हुआ, और उसका भविष्य अनिश्चित है. अलीना ने कहा, "मेरे चिकित्सक ने उस समय मुझसे कहा था कि मेरे पिता केवल वही चाहते हैं जो मेरे लिए अच्छा है और मुझे उनसे माफी मांगनी चाहिए. इससे मुझे ऐसा लगा जैसे मुझे अपनी सेक्सुअलिटी यानी यौन रुझान पर शर्म आनी चाहिए.” कुछ सेशन के बाद अलीना ने चिकित्सक से मिलना बंद कर दिया.

उन्होंने बताया, "मुझे अब सौभाग्य से क्वियर समुदाय का सहयोग मिलने लगा है. साथ ही, एक बेहतर चिकित्सक मिल गया है. कई काउंसलर और चिकित्सक विज्ञापन देते हैं कि वे क्वियर समुदाय के लोगों के साथ दोस्ताना व्यवहार करते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है. यह बहुत से लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए काफी खतरनाक है. खासकर ऐसे लोगों के लिए जो रूढ़िवादी या पारंपरिक विचार वाले परिवारों से आते हैं.”

एक ओर जहां भारत की शीर्ष अदालत में समलैंगिक विवाह पर बहस जारी है, वहीं दूसरी ओर भारतीय मनोरोग सोसायटी ने समान अधिकारों के लिए अपना समर्थन बढ़ाया है. 2018 में इस सोसायटी ने एक बयान जारी कर कहा कि समलैंगिकता सामान्य लैंगिक रुझान की तरह ही है, किसी तरह की बीमारी नहीं है. एलजीबीटीक्यूआईए+ (लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर, क्वियर, इंटरसेक्स, एसेक्सुअल) समुदाय के सदस्यों के प्रति समान व्यवहार किया जाना चाहिए.

भारत में समलैंगिक विवाह पर बहस
हालांकि, कुछ चिकित्सकों का यौन रुझान के प्रति अब भी पुराना विचार ही है. मारीवाला हेल्थ इनिशिएटिव की निदेशक राज मारीवाला कहती हैं, "मनोवैज्ञानिक व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से सामाजिक मानदंडों पर आधारित है और इलाज का इस्तेमाल लोगों को सही करने या उन्हें दंडित करने के लिए किया जाता था.” उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "महिलाओं में हिस्टीरिया का इलाज किया

जाता था. अब भी कुछ जगहों पर ऐसा किया जाता है. सामान्य तौर पर माना जाता है कि कोई भी व्यक्ति अपने जन्म के आधार पर विषमलिंगी और शारीरिक रूप से सक्षम होता है. इस व्यवस्था की वजह से चिकित्सकों ने यह नहीं समझा कि शारीरिक संरचना के बावजूद किसी का लैंगिक रुझान अलग हो सकता है. यही वजह रही कि उपलब्ध कराई जाने वाली चिकित्सा में काफी अंतर है.”

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के अनुसार, 5.6 करोड़ भारतीय अवसाद से ग्रसित हैं और लगभग 3.8 करोड़ लोग चिंता से जुड़े लक्षणों से पीड़ित हैं. धीरे-धीरे भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ रही है, खासकर शहरी इलाकों में. यूनिवडाटोस मार्केट इनसाइट्स के एक अध्ययन से पता चलता है कि 2022 से 2028 तक मानसिक स्वास्थ्य उद्योग हर साल 15 फीसदी की दर से बढ़ सकता है.

मानसिक स्वास्थ्य को लेकर बढ़ रही जागरूकता
30 वर्षीय श्रीराम ने अपने मनोचिकित्सक के साथ बच्चे न होने के कारणों को साझा किया. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "कुछ सेशन बाद जब इस बात पर फिर से चर्चा हुई, तो उस मनोचिकित्सक ने मुझसे कहा कि मैं स्वार्थी हूं, इसलिए बच्चे नहीं चाहता. मुझे समझ नहीं आया कि उस समय मुझ पर इस बात का क्या प्रभाव पड़ा. जब मैं दूसरे चिकित्सक के पास गया तब जाकर मुझे समझ आया कि मेरा अनुभव कितना भयानक था.”

उन्होंने आगे कहा, "उस मनोचिकित्सक ने पोर्न देखने की मेरी लत को भी गंभीरता से नहीं लिया. मैं किसी को भी उसके पास जाने की सलाह नहीं दूंगा. वह अक्सर दूसरे रोगियों की कहानियां मेरे साथ साझा करती थीं. इसका मतलब यह है कि वह मेरी कहानी भी दूसरों के साथ साझा करती होंगी.”

चिन्मय मिशन अस्पताल में मनोचिकित्सक हरिनी प्रसाद ने डॉयचे वेले को बताया, "अविवाहित रहना और बच्चे न पैदा करने का फैसला लेना ऐसे विकल्प हैं जिनका चिकित्सकों को सम्मान करना चाहिए. हालांकि, अगर किसी काउंसलर को यह पता नहीं हो कि वह किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित है और ऐसी स्थिति में किसी को परामर्श देता है, तो उसके फैसले पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकते हैं.”

मीडिया क्षेत्र में काम करने वाली ऋतिका ने एक वयस्क के तौर पर अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएचडी) के लिए जांच कराने का फैसला किया. इसके लिए वह एक मानसिक स्वास्थ्य क्लिनिक में गईं. वहां व्यवहार से जुड़े लक्षणों का आकलन करने के लिए काफी महंगी जांच की गई, जिसमें काफी समय भी लगा.

हालांकि, जांच के बाद उन्हें ऐसी रिपोर्ट दी गई जिसमें उस डिसऑर्डर का जिक्र ही नहीं था. इसमें सिर्फ यह बताया गया कि उन्हें सामान्य चिंता और हल्का अवसाद था, जिसके लिए वह पहले से ही इलाज करा रही थीं और दवा ले रही थीं.

'हानिकारक' सलाह
ऋतिका ने कहा, "मैंने अपने पूरे जीवन में न्यूरोडाइवर्जेंसी के साथ संघर्ष किया है और आखिरकार जब मेरी जिंदगी पूरी तरह से प्रभावित होने लगी, तब मैंने जांच कराने का फैसला किया. हालांकि, जिस मनोचिकित्सक से मैंने परामर्श लिया उसे उस स्थिति का कोई व्यवहारिक ज्ञान ही नहीं था. इसके अलावा, इस जांच के दौरान मेरे व्यवहार का आकलन उस तरीके से करने का प्रयास किया गया जो अपमानजनक और मुझे दुखी करने वाला था.”

उन्होंने आगे कहा, "मुझे किसी से बातचीत करने में परेशानी होती थी और इस वजह से किसी के साथ ज्यादा लंबे समय के लिए मेरे बेहतर संबंध नहीं बन पाते थे. मैंने कम्युनिकेशन के क्षेत्र में काम किया है, मेरे पास बेहतर सपोर्ट सिस्टम है और दशकों से मैं अपने पार्टनर के साथ रह रही हूं. इसलिए, मुझे नहीं पता था कि वे किस आधार पर मेरा आकलन कर रहे थे. वे सिर्फ मुझसे बात करके मेरे बारे में ज्यादा जान सकते थे. उनकी जांच की प्रक्रिया न सिर्फ बेकार थी, बल्कि हानिकारक भी थी.”

जब ऋतिका ने इस बात पर सवाल उठाया कि एडीएचडी का जिक्र क्यों नहीं किया गया, तो उन्हें बताया गया कि वह इसके लिए ‘योग्य नहीं' थीं. उन्होंने कहा कि उस पूरी प्रक्रिया से वह गुस्सा हो गई.

बाद में उन्होंने किसी अन्य की सलाह पर दूसरे पेशेवर से परामर्श मांगा जिसके पास बेहतर अनुभव था. उन्होंने कहा, "अब मैं केवल उन पेशेवरों की सलाह लेती हूं जिनकी सिफारिश मेरे किसी भरोसेमंद व्यक्ति ने की हो.”

भारतीय मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 के तहत, लोगों को यह अधिकार मिलता है कि अगर उन्हें सेवाओं के दौरान किसी तरह की कमी महसूस होती है, तो वे इसकी शिकायत कर सकते हैं.

मारीवाला हेल्थ इनिशिएटिव (एमएचआई), क्वियर अफर्मेटिव काउंसलिंग प्रैक्टिस कोर्स आयोजित करता है. इसके माध्यम से इसने भारत में अब तक लगभग 500 मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों को प्रशिक्षित किया है. यह अपनी वेबसाइट पर उन पेशेवरों का नाम जारी करता है जिन्होंने इस पाठ्यक्रम को पूरा कर लिया है.

मारीवाला हेल्थ इनिशिएटिव की निदेशक राज मारीवाला ने डॉयचे वेले से कहा, "क्वियर, किसी जाति या दिव्यांगों के प्रति दोस्ताना व्यवहार अपनाना किसी एक पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं है. इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को दोस्ताना व्यवहार अपनाने की कोशिश करनी चाहिए. साथ ही, उन्हें खुद को नियमित तौर पर लगातार अपडेट करना चाहिए.”

जब ‘खराब चिकित्सा' की बात आती है, तो पेशेवरों का कहना है कि लोगों को इससे निराश होने की जरूरत नहीं है. चिन्मया मिशन अस्पताल की हिरानी प्रसाद कहती हैं, "क्लाइंट को यह विश्वास करना होगा कि वे चिकित्सक, काउंसलर या मनोचिकित्सक के आसपास कैसा महसूस करते हैं. एक ही व्यक्ति उन सभी के लिए काम का नहीं हो सकता जिन्हें सहायता की जरूरत है. लोगों को काउंसलर से पूछना चाहिए कि वे इलाज के लिए किन तरीकों का इस्तेमाल करते हैं और सहमति से जुड़ी उनकी नीति क्या है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्लाइंट खुद को सम्मानित महसूस करें, आपकी पसंद का सम्मान किया जाता है और सम्मानजनक तरीके से बातचीत की जानी चाहिए.” (dw.com)

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