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राजपथ-जनपथ : पत्रकारों की बारी
28-Mar-2024 4:37 PM
राजपथ-जनपथ : पत्रकारों की बारी

पत्रकारों की बारी 

सरकारी संस्थानों में पद पाने के लिए दिग्गजों में होड़ मची है। इसमें मीडियाकर्मी भी पीछे नहीं है। करीब दर्जनभर से अधिक पत्रकारों ने सूचना आयुक्त के लिए आवेदन किए हैं। भूपेश सरकार ने मीडिया के दो लोगों को सूचना आयुक्त बनाया भी था। मगर साय सरकार ने फिलहाल दो अफसरों को सूचना आयुक्त बनाया है। बाकी खाली दो पद के लिए नियुक्ति आचार संहिता निपटने के बाद हो सकती है। ऐसे में दावेदार पत्रकार उम्मीद से हैं। 

इसी तरह कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय के कार्यपरिषद सदस्य के लिए भी आधा दर्जन से अधिक पत्रकारों के आवेदन आए हैं। इनमें से तीन पत्रकार एक ही संस्थान से जुड़े रहे हैं। हालांकि कार्यपरिषद सदस्य को कोई सुविधाएं नहीं मिलती। हर तीन महीने में होने वाली कार्यपरिषद की बैठक के लिए 15 सौ रुपए भत्ता मिलता है। मगर कार्यपरिषद के सदस्य का पद प्रतिष्ठा पूर्ण माना जाता है। और व्यक्तिगत प्रोफाइल में जुड़ जाता है। यही वजह है कि कार्यपरिषद में जगह पाने के लिए दिग्गज मेहनत कर रहे हैं। 

संगठन प्रभारी से राज्यपाल?

प्रदेश भाजपा संगठन की कमान अब पूरी तरह नितिन नबीन को सौंप दी गई है। पार्टी ने उन्हें चुनाव प्रभारी नियुक्त किया है। जबकि विधानसभा चुनाव में ओम माथुर को प्रभारी बनाया गया था। नितिन नबीन सह प्रभारी थे। हाल ही में बिहार सरकार में मंत्री पद का दायित्व मिलने के बाद भी नितिन नबीन को संगठन की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया गया, बल्कि उन्हें और मजबूत किया गया है। ओम माथुर एक तरह से छत्तीसगढ़ के दायित्व से मुक्त हो गए हैं। चर्चा है कि लोकसभा चुनाव के बाद उन्हें राज्यपाल बनाया जा 
सकता है। 

बीमारी से उबर जाना बेहतर 

आयोग मतदान की जागरूकता के लिए कई उपाय करते रहा है लेकिन इस तकलीफ का कोई उपाय अब तक नहीं कर सका। इसलिए चुनाव ड्यूटी से बचने के लिए  अधिकारी कर्मचारी, खासकर कर्मचारी क्या क्या यत्न नहीं करते। कई अलग अलग  कारण बताकर ड्यूटी निरस्तीकरण का आवेदन देते हैं। वे इसलिए बचना चाहते हैं कि मतदान सामग्री वितरण और मतदान उपरांत जमा करने में लगने वाले समय और कष्ट असहनीय होता है। जो मतदान से ज्यादा कठिन होता है । इस बार भी अब तक 279 ने ड्यूटी निरस्त करने कलेक्टर को आवेदन दिया है। इनमें से 110 ने स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्या और अन्य विभिन्न कारणों से छुट्टी मांगी है। स्वास्थ्य संबंधी कारणों के लिए कलेक्टोरेट में ही जिला मेडिकल बोर्ड बिठा दिया गया है। जहां तुरंत फैसला होगा। इसलिए ध्यान रखिए, समस्या फेक निकली तो कहीं आवेदन ही आत्मघाती न हो जाए। पांच वर्ष पूर्व दो व्याख्याता, एक प्रधान पाठक ने कई गंभीर कारण लिखकर चुनाव ड्यूटी करने में असमर्थता जताई थी। तत्कालीन कलेक्टर ने इतनी गंभीर बीमारियों से ग्रसित इन चारों को शासकीय सेवा यानी नौकरी करने में असमर्थ पाते हुए डीईओ को जीएडी के नियमानुसार अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे, अवगत कराने की सिफारिश कर दी। इस आदेश के पालन को लेकर हमने पड़ताल की लेकिन इन पांच छह वर्ष में कई डीईओ बदले गए, सो पता नही चला। लेकिन नि:संदेह इस पत्र के बाद तो सभी चंगे हो गए होंगे।
इसलिए चुनाव ड्यूटी कटवाने के लिए ऐसा कोई भी कारण लिखित में न दें जो आपकी सेवा के लिए आत्मघाती हो जाए ...यह आदेश पुराना है पर हर समय प्रभावी है।

भरोसा कायम नहीं रह पाया 

अपनी दूसरी पारी के लिए भाजपा के एक नेताजी बड़े ही आश्वस्त थे। इसलिए पूरी बिंदासी से  काम करते रहे। राजनीतिक पंडित पूछते तो यही कहते अपनी टिकट को कोई दिक्कत नहीं है। इसलिए टिकट घोषणा के  दिन तक  सरकारी बैठकें कर आगामी प्लानिंग करते रहे। बैठक खत्म होने के बाद उम्मीदें,दावे सब कुछ काफुर हो गए। वे यह भूल गए कि यह भाजपा है। 11 के 11 बदल देती है। फिर क्या इनकी भी कट गई। अब पूछने पर कहते हैं कि मेरे से विकल्प पूछा गया था। सो मेरे कारण ही मिली है। वैसे नेताजी ने, एक महामहिम की तरह, पांच वर्ष न काहू से दोस्ती ..न बैर की नीति पर कार्य किया । नहीं किया तो किसी का भी काम। हां एक ही काम किया वह कारोबारियों के लिए। इसके अलावा वे पांच साल तक संसदीय कार्य में व्यस्त रहे। संसद की समितियों की हर बैठक, दौरे में गए। पांच-पांच समिति में सदस्य जो रहे।

साहबों की छोड़ी गंदगी 

गांव-शहर, प्रदेश की आबोहवा को शुद्ध रखने बाग बगीचे को साफ सुथरा रखने के लिए एक बड़ा अमला है। जिसमें सौ से अधिक अभा स्तर और राज्य कैडर के हजारों अधिकारी कर्मचारियों का लाव-लश्कर है। ये हर खासो आम को बगीचे,जंगल सरकारी रिजॉर्ट मोटल को साफ सुथरा रखने की ट्रेनिंग भी देते है। लोग गंदगी न फैलाएं इसलिए सरकारी स्मृति वन किसी निजी और सार्वजनिक कार्यक्रम के लिए नहीं दिए जाते। यहां तक कि लाफ्टर क्लब, मॉर्निंग वॉकर और भजन या स्मृति पूर्ण आयोजन के लिए भी इसके गेट नहीं खोले जाते। मगर कल होली मिलन के नाम पर साहबों ने जो गंदगी फैलाई वह देखते ही बनती है। सफाई प्रेमी अफसरों की इस पार्टी का वीडियो जमकर वायरल है। बिसलेरी से लेकर वाइन की बोतलें पूरे स्मृति वन में बिखरी पड़ी है। इसके अलावा स्नैक्स के टुकड़े प्लेट,टिशु पेपर आदि आदि। यह सब देखकर कुत्तों का भी जमावड़ा लगना स्वाभाविक है।

फ्लॉप हुई द नक्सल स्टोरी

लोकसभा चुनाव के पहले कई ऐसी फिल्में रिलीज हुई हैं, जिसका भाजपा के पक्ष में मतदाताओं पर प्रभाव पड़ता है। इनमें आर्टिकल 370, मैं अटल हूं, जेएनयू-जहांगीर नेशनल यूनिवर्सिटी, गोधरा-एक्सीडेंट या कंस्परेन्सी, साबरमती रिपोर्ट, जैसी फिल्में शामिल हैं। इमरजेंसी नाम की एक फिल्म जल्द रिलीज होने वाली है। छत्तीसगढ़ से संबंधित एक फिल्म बस्तर- द नक्सल स्टोरी भी देश भर में हाल ही में रिलीज हुई। फिल्म का जोर-शोर से प्रचार किया गया था। आकर्षण यह था कि इस फिल्म की हीरोइन अदा शर्मा की द केरला स्टोरी जबरदस्त हिट हुई थी। उस फिल्म ने करीब 200 करोड़ रुपए का बिजनेस किया था। मगर 15 मार्च को रिलीज हुई बस्तर-द नक्सली स्टोरी मल्टीप्लेक्स से बहुत जल्दी उतर गई। कोरबा, चांपा आदि शहरों में अभी यह चल रही है। 

अनेक रिपोर्ट्स बता रहे हैं कि यह फिल्म लागत भी नहीं निकाल पा रही है। वीकेंड्स में भी यह दर्शक जुटाने में सफल नहीं रही। नक्सल हिंसा देश का बड़ा संकट है ही, छत्तीसगढ़ के लोगों का तो इस मानवीय त्रासदी से गहरा सरोकार है। फिल्म के गुण दोष पर जाना ठीक नहीं है। हालांकि द केरला स्टोरी के कथानक को लेकर बहुत विवाद हुआ था। बस्तर स्टोरी में भी एक जगह पर संवाद है कि जब 75 जवान मारे गए थे, तब जेएनयू दिल्ली में जश्न मनाया गया था। इस बात में कितना दम है, नहीं कहा जा सकता। मगर शायद यह फिल्म इसलिए फ्लॉप हुई है, क्योंकि एक ही तरह की स्टोरी के कई फिल्म लगातार देखकर दर्शक ऊब गए होंगे।

कांग्रेस का जातीय जागरण

विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने ऊंची जाति के 15 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, जिन में से 13 हार गए। राघवेंद्र सिंह और अटल श्रीवास्तव ही चुनाव जीतने में कामयाब रहे। दोनों के सामने भाजपा ने भी सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों को उतारा था। दिग्गज टीएस सिंहदेव, रविंद्र चौबे, जय सिंह अग्रवाल, अमितेश शुक्ल और अरुण वोरा आदि अपनी सीट नहीं निकाल पाए। हालांकि हारने वालों में ओबीसी ताम्रध्वज साहू और अनुसूचित जाति के डॉक्टर शिवकुमार डहरिया भी शामिल थे, जो लोकसभा भी लड़ रहे हैं। 

इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने इस बात का ध्यान रखा है कि उसके ओबीसी प्रेम में भाजपा के मुकाबले कोई कमी नजर नहीं आनी चाहिए। बिलासपुर लोकसभा सीट से जाति समीकरण की परवाह किए बगैर पिछली बार अटल श्रीवास्तव को टिकट दे दी गई थी। इसके पहले भाजपा के ओबीसी उम्मीदवार के सामने करुणा शुक्ला को उतारा गया था। दोनों बार कांग्रेस को करारी हार मिली। इस बार भाजपा ने लगातार तीसरी बार साहू उम्मीदवार दिया। लखन लाल साहू और अरुण साव के बाद तोखन साहू को। कांग्रेस ने शायद यह तय कर लिया था कि इस बार सामान्य वर्ग से प्रत्याशी खड़ा करना पराजय के सिलसिले को जारी रखना होगा। इसलिए उसने भिलाई के विधायक देवेंद्र यादव को बिलासपुर से उतार दिया है। बस, लोग यह कह रहे हैं कि क्या बिलासपुर लोकसभा सीट से कोई स्थानीय ओबीसी कांग्रेस को नहीं मिला?

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