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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : धर्म और लोकतंत्र का सहअस्तित्व नामुमकिन
18-Jul-2024 4:56 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : धर्म और लोकतंत्र का  सहअस्तित्व नामुमकिन

दुनिया में धर्म का इतिहास कुछ हजार साल या हजारों सालों का है, और लोकतंत्र का इतिहास शायद उतनी ही सदियों का है। संसदीय परंपरा वाले आधुनिक लोकतंत्र की पहली शकल कोई चार सौ बरस पहले बनी, और अभी महज पौन सदी पहले हिन्दुस्तान ने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली की तर्ज पर भारत की संसदीय व्यवस्था कायम की। ब्रिटेन शायद स्वाभाविक मिसाल इसलिए भी था कि अंग्रेजों का गुलाम रहते हुए हिन्दुस्तान के कुलीन तबकों ने अंग्रेजी ही पढ़ी थी, और ब्रिटिश व्यवस्था को ही करीब से देखा था जो कि बहुत हद तक हिन्दुस्तान में भी लागू रही। उसी वक्त के चले आ रहे कानून अभी कुछ महीने पहले तक इस देश में लागू थे। लेकिन हम अंग्रेजी राज या ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था पर बात करना नहीं चाहते। हमारा यह सोचना है कि हजारों बरस के संगठित धर्म से एक किस्म से उबरकर लोकतंत्र ने अपना अस्तित्व पिछले कुछ सौ सालों में बनाया था, और आज हिन्दुस्तान सहित दुनिया के कई देशों में धर्म एक बार फिर लोकतंत्र पर काबिज हो रहा है। हिन्दुस्तान की बात तो खुलासे से होते ही रहती है, अमरीका को अगर देखें, तो वहां पर चर्च के असर वाली, महिलाओं को गर्भपात के हक से वंचित करने वाली रिपब्लिकन पार्टी की जीत का आसार एक बार फिर दिख रहा है। योरप के बहुत से देशों में यूरोपीय संसद के चुनावों में धर्म के अधिक करीब रहने वाले दक्षिणपंथियों को कामयाबी मिली है, और इनसे परे का इजराइल अपने अस्तित्व की आज की सबसे अधिक संकीर्णतावादी पार्टी के गठबंधन वाली सरकार से चल रहा है।

हम कुछ अधिक करीब और हिन्दुस्तान की बात करें, तो पिछले दस बरस से अधिक का वक्त हो गया है, हिन्दुस्तान के संसदीय चुनाव, और राज्यों के विधानसभा चुनावों में से अधिकतर का हाल धार्मिक जनमत संग्रह किस्म का रहा है। भाजपा की अगुवाई में एनडीए ने खुलकर एक धर्म का राज कायम करने की कोशिश की, उसके लिए सब कुछ किया, देश में हिन्दुओं को असल नागरिक जैसा आत्मविश्वास दिया, और मुस्लिमों से, ईसाईयों से, और हिन्दू समाज के भीतर भी दलित-आदिवासियों से भारत का नागरिक होने का गौरव एक किस्म से छीन लिया। भारत के अल्पसंख्यकों को हाल के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री ने घुसपैठिया करार दिया, और आज जगह-जगह सवर्ण हिन्दुओं को छोडक़र अधिकतर दूसरे लोगों में तरह-तरह की बेचैनी और असुरक्षा गहरे बैठी हुई दिखती है। सत्तारूढ़ भाजपा के बहुत से नेता हिन्दू राष्ट्र का फतवा देते हैं, और कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि हाल के लोकसभा चुनाव में भाजपा को एक बड़ा नुकसान इसलिए भी झेलना पड़ा कि वोटरों के बीच यह आशंका फैल गई थी कि चार सौ-पार सीटें पाकर भाजपा संविधान बदल देना चाहती है। जिस आजादी की 75वीं सालगिरह का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है उस आजादी की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद ही धार्मिक ध्रुवीकरण से खोखली कर दी जा रही है। आज स्कूलों के पाठ्यक्रम से लेकर विश्वविद्यालयों की पढ़ाई तक, सडक़ और शहर के नामकरण से लेकर संसद के नए भवन के उद्घाटन के रीति-रिवाज तक, भारत के एक हिन्दू राष्ट्र होने का अहसास कदम-कदम पर, पल-पल पर करवाया जा रहा है।

अब अगर हम पाकिस्तान में लोकतंत्र पर धर्म के दबदबे को देखें, अफगानिस्तान में नामौजूद लोकतंत्र पर हावी धार्मिक कट्टरता को देखें, एक वक्त के आधुनिकता में जीने वाले ईरान में धार्मिक कट्टरता को देखें, या अमरीका में सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जजों द्वारा महिलाओं से गर्भपात के अधिकार को छीनना देखें, तो यह लगता है कि हजारों बरस की अपनी सत्ता को धर्म कुछ सौ बरस लोकतंत्र के हाथ कुछ हद तक छिन जाने के बाद अब फिर लौटकर उस पर हावी हो रहा है। कुछ उसी तरह कि मानो ट्रेन का कोई मुसाफिर दो स्टेशन पार होने के बाद अपनी पिछली सीट पर लौटे, और वहां बैठ गए मुसाफिर को धकियाकर फिर काबिज हो जाए। इतने किस्म की मिसालें दुनिया में जगह-जगह देखने मिल रही हैं कि धर्म की वापिसी का एक ऐसा दौर आया हुआ है जो लोकतंत्र को परदेसिया की तरह धकेलकर बाहर करना चाहता है। और लोकतंत्र को बाहर करने के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं को पूरी तरह से खत्म करना भी जरूरी नहीं रहता, बल्कि यह एक अलग इज्जत की नौबत रहती है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं के ढांचे खड़े रहें, और उनकी आत्मा पर बहुसंख्यक तबके के धर्म का कब्जा हो जाए। संविधान की प्रति बनी रहे, लेकिन संसद में राजशाही के दौर के प्रतीक सेंगोल को भी स्थापित कर दिया जाए।

दुनिया में जाने कितनी ही ऐसी मिसालें हैं जो बताती हैं कि जब लोकतंत्र पर धर्म को हावी होने दिया जाता है, तो कैसी तबाही होती है। दुनिया के कई देश अपनी धर्मान्धता के चलते भुखमरी की कगार पर पहुंचे हुए हैं, अंतरराष्ट्रीय मदद से उसकी आबादी का एक हिस्सा जिंदा रह पा रहा है, लेकिन वहां पर धार्मिक आतंक का राज कायम है। और इसमें हैरानी की भी कोई बात नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र कायम होने के बाद भी अगर देश पर, सरकार पर धर्म का बोलबाला कायम रहता है, तो वह लोकतंत्र को खत्म करने की कीमत पर ही हो सकता है। बात कहने में कुछ लोगों को अटपटी लग सकती है, लेकिन जब कभी कोई नाजुक नौबत आती है, और किसी धार्मिक मुद्दे, और किसी लोकतांत्रिक मुद्दे के बीच टकराव होता है, तो यह बात साफ समझ पड़ती है कि धर्म और लोकतंत्र का सहअस्तित्व टकराव की नौबत के पहले तक ही चल सकता है। आज का हिन्दुस्तान इस बात की बेहतरीन मिसाल बना हुआ है कि लोकतंत्र पर हावी धर्म किस रफ्तार से न सिर्फ लोकतंत्र को कुचलता है, बल्कि ऐसे लोकतंत्र में जीने वाले लोगों की वैज्ञानिक समझ को भी कुचलता है। धर्म और लोकतंत्र की यह बहस बड़ी जटिल है, और हम इस सीमित जगह में इस पर बड़ी लंबी बहस नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन जहां कहीं धर्म हावी होगा वह उस देश-प्रदेश को लोकतंत्र के पहले के दिनों में ले जाएगा, जैसे तालिबान ने अफगानिस्तान को हजारों बरस पहले के दिनों में पहुंचा दिया है। धर्म के सामने इंसाफ, औरत-मर्द की बराबरी, धर्म, जाति, रंग, नस्ल के भेदभाव से मुक्ति जैसी कोई नैतिक चुनौती नहीं रहती है। धर्म इन्हीं तमाम बातों की लाशों की बुनियाद पर खड़ी इमारत रहता है। दुनिया के लोकतंत्र को यह सोचना चाहिए कि वे लोकतंत्र के साथ आगे बढऩा चाहते हैं, या धर्म के साथ रिवर्स गियर में गुफाओं में लौटना चाहते हैं?

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