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पश्चिम बंगाल में कैसे चलती जा रही हैं कंगारू अदालतें
19-Jul-2024 12:23 PM
पश्चिम बंगाल में कैसे चलती जा रही हैं कंगारू अदालतें

पश्चिम बंगाल के चोपड़ा से हाल ही में वायरल हुए वीडियो के बाद से पुलिस और प्रशासन की सख्ती बढ़ी है. इसके बावजूद सवाल ये उठता है कि राज्य में सालिसी सभा यानी कंगारू अदालतों पर पूरी तरह अंकुश क्यों नहीं लग पा रहा है.

  डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारीकी रिपोर्ट- 

पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में तालिबानी तर्ज पर आयोजित की जाने वाली इन अदालतों में तमाम विवादों की सुनवाई कर मौके पर ही सजा दी जाती है. राज्य के ग्रामीण इलाकों में संपत्ति से पारिवारिक विवाद तक सबकुछ इन स्थानीय अदालतों में ही निपटाया जाता है.

ऐसी तमाम अदालतें टीएमसी के स्थानीय नेताओं की पहल पर ही आयोजित की जाती हैं. कुछ मामलों में गिरफ्तारी भी हुई है. लेकिन ऐसे बाहुबली नेताओं के आतंक के कारण कुछ लोग या तो इलाका छोड़ देते हैं या फिर अपना बयान बदल देते हैं. एक के बाद एक ऐसे मामले सामने आने के बाद विपक्ष ममता बनर्जी सरकार और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ हमलावर हो गया है.

सालिसी सभा के वायरल वीडियो से सामने आया मामला

भारत भर में कानून सबके लिए बराबर और सर्वोपरि है. लेकिन आज भी पश्चिम बंगाल के कुछ ग्रामीण इलाकों में सालिसी सभा यानी कंगारू अदालतें चलती हैं. इसके फैसले को किसी भी अदालत में नहीं पहुंचते. यह अदालत खुद फैसला करती है और खुद ही मौके पर सजा भी दे देती है. उत्तर दिनाजपुर जिले में इस्लामपुर सब-डिवीजन के चोपड़ा में बीते 30 जून को वायरल वीडियो इलाके में तेजी से फली-फूली इसी अदालत की ताकत की कहानी है. उसके बाद से कई इलाकों से ऐसे कम से कम आधा दर्जन मामले सामने आ चुके हैं. इनमें से एक में तो अपमान सहन नहीं कर पाने के कारण दोषी करार दी गई महिला ने आत्महत्या कर ली.

उत्तर दिनाजपुर की घटना में आतंक का पर्याय बने टीएमसी नेता ताजिमूल हुसैन उर्फ जेसीबी की पार्टी के स्थानीय विधायक हमीदुल रहमान से नजदीकी की खबरें आने के बाद पार्टी ने उनको कारण बताओ नोटिस जारी किया था. लेकिन अब यह मामला दब गया है. माना जाता है कि सत्तारूढ़ पार्टी के संरक्षण के कारण ही हत्या और अपहरण समेत दर्जन भर संगीन मामलों में नामजद होने के बावजूद पुलिस कभी जेसीबी पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी. अनानास व चाय की खेती के लिए मशहूर यह इलाका अब आतंक के कारण चर्चा में है.

जेसीबी के आतंक का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इस कंगारू अदालत में प्रेमी युगल की पिटाई का वीडियो सामने आने के बावजूद पीड़ितों ने उनके खिलाफ पुलिस में कोई शिकायत नहीं की थी. बल्कि तीन दिन बाद पीड़ितों ने उल्टे अपना बयान बदलते हुए वीडियो वायरल करने वालों के खिलाफ थाने में शिकायत करते हुए कड़ी कार्रवाई की मांग की.

क्या कर रहा है राज्य प्रशासन

उत्तर दिनाजपुर की उस घटना पर राजनीतिक और प्रशासनिक सक्रियता के बावजूद राज्य के विभिन्न इलाकों से लगातार ऐसी अदालतों के आयोजन की खबरें सामने आती रही हैं. इसी महीने मुर्शिदाबाद जिले की एक अन्य सालिसी सभा में स्थानीय नेताओं ने अशीफुल शेख उर्फ टोनी नामक एक युवक पर पांच हजार रुपए का जुर्माना लगाया था. उसके इंकार करने पर उसके साथ मारपीट की गई. उसने अस्पताल में दम तोड़ दिया. पुलिस ने इस मामले के मुख्य अभियुक्त अब्दुल रकीब को झारखंड के पाकुड़ से गिरफ्तार किया है.

बीते सप्ताह कोलकाता से सटे हावड़ा जिले के सांकराइल में भी ऐसी ही एक घटना घटी. यहां एक व्यापारी शहाबुद्दीन और उनकी पत्नी के बीच कुछ दिनों से जारी विवाद को निपटाने के लिए तृणमूल कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने एक सालिसी सभा बुलाई थी. उसमें उन दोनों के साथ मारपीट की गई. लेकिन पुलिस ने अब तक इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं की है. हावड़ा जिले के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी नाम नहीं छापने पर कहते हैं कि जब तक कोई शिकायत नहीं मिले, पुलिस कुछ नहीं कर सकती.

इसी सप्ताह कोलकाता से सटे दक्षिण 24-परगना जिले में तृणमूल कांग्रेस के एक स्थानीय नेता पर एक कथित दोषी महिला को घर में जंजीरों से बांध कर रखने और शारीरिक अत्याचार करने का मामला सामने आया था. फिलहाल अभियुक्त पुलिस की गिरफ्त में हैं. जलपाईगुड़ी जिले में ऐसे ही एक मामले में अपने प्रेमी के साथ फरार होने वाली महिला के गांव लौटने पर एक सालिसी सभा आयोजित की गई थी. उसमें महिला के साथ मारपीट की गई. अपमान नहीं सह पाने की वजह से उसने अगले दिन ही कीटनाशक पीकर जान दे दी. इस मामले में तृणमूल कांग्रेस की एक महिला पंचायत प्रमुख और उसके पति को गिरफ्तार किया गया है.

पुरानी परंपरा का हवाला

पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में विवादों के निपटारे के लिए सालिसी सभा के आयोजन की परंपरा बहुत पुरानी है. लेकिन हाल के वर्षों में इसके फैसलों के बेहद क्रूर होने की वजह से राजनीतिक और सामाजिक हलकों में चिंता बढ़ती जा रही है. वैसे, ज्यादातर मामलों में पुलिस या सत्तारूढ़ पार्टी के नेता ऐसे फैसलों को सालिसी सभा के फैसलों की बजाय गांव वालों का आपसी विवाद बता कर पल्ला झाड़ते रहे हैं.

तृणमूल कांग्रेस के महासचिव कुणाल घोष डीडब्ल्यू से कहते हैं, "यह समस्या राजनीतिक नहीं है. इसके पीछे इलाके पर वर्चस्व कायम करने की मंशा काम करती है. इसे पार्टी का समर्थन नहीं है. स्थानीय नेता शीर्ष नेताओं की सहमति के बिना ही अपनी ताकत दिखाते रहे हैं. सामने आने के बाद दोषियों के खिलाफ कार्रवाई होती रही है."

कैसे बदला सालिसी सभा का रूप

तृणमूल कांग्रेस का दावा है कि सालिसी सभाओं का आयोजन वाममोर्चा के शासनकाल के समय से ही होता रहा है. सीपीएम ने पंचायतों को राजनीतिक रंग दे दिया था. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सुकांत मजूमदार भी इस बात से सहमत हैं. वो डीडब्ल्यू से कहते हैं, "अब तृणमूल कांग्रेस के शासनकाल में सालिसी सभा का चेहरा बदल गया है. अब दोषियों को बचाने के लिए भी ऐसी सभाएं आयोजित की जाती हैं. पुलिस व प्रशासन की सहायता से पीड़ितों को ही क्रूर सजा दी जाती है."

लेकिन सीपीएम के प्रदेश सचिव मोहम्मद सलीम इन आरोपों को निराधार बताते हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "जो लोग वाममोर्चा को सालिसी सभा की शुरुआत का जिम्मेदार बता रहे हैं वो इतिहास को विकृत कर रहे हैं. ब्रिटिश शासन के दौरान यहां कर्ज सालिसी बोर्ड था. इसमें महाजन से कर्ज लेकर उसे नहीं चुकाने संबंधित तमाम विवाद गांव के गणमान्य लोग आपस में बैठ कर निपटाते थे. वाममोर्चा के दौर में तो पंचायती व्यवस्था के जरिए लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत करने की कवायद शुरू की गई थी. पार्टी ने इस गैरकानूनी गतिविधि को कभी प्रश्रय नहीं दिया."

मौके पर ही त्वरित न्याय देने वाली इन अदालतों के क्रूर फैसलों ने समाजशास्त्रियों को भी चिंता में डाल दिया है. जलपाईगुड़ी के एक कॉलेज में समाजशास्त्र के प्रोफेसर रहे डा. अनिर्वाण चटर्जी कहते हैं, "किसी दौर में बंगाल में छोटे-मोटे विवादों को निपटाने के लिए सालिसी सभा की शुरुआत हुई थी. इसका मकसद कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाए बिना वादी-प्रतिवादी दोनों को साथ बिठा कर ऐसा फैसला करना था जो दोनों पक्षों को स्वीकार्य हो. लेकिन अब इसका चेहरा बदल गया है." उनका कहना था कि अब सत्तारूढ़ नेताओं के संरक्षण के कारण इस सालिसी सभा ने तालिबानी अदालतों का रूप ले लिया है. यह सभाएं ग्रामीण इलाको में आतंक का पर्याय बनती जा रही हैं. समाज के हित में सरकार को इस पर रोक लगाने के लिए ठोस कानून बनाना होगा.(dw.com)
 

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