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![पंडितों के लिए ऐसा था जैसे- 'वे यहूदियों को मार रहे थे और मैं यहूदी नहीं था' पंडितों के लिए ऐसा था जैसे- 'वे यहूदियों को मार रहे थे और मैं यहूदी नहीं था'](https://dailychhattisgarh.com/2020/article/1610952538509b7228656f7573b99c63823b265d1.jpg)
-शेख कयूम
श्रीनगर, 18 जनवरी | घाटी के कश्मीरी पंडित समुदाय के साथ जो हुआ उसमें और हिटलर द्वारा यहूदियों के साथ किए गए उत्पीड़न में एक भयावह समानता है।
उनके लिये 1990 में हुई हत्याओं से खुद को अलग रखने के लिए यह वैसा ही था जैसे 'वे यहूदियों को मार रहे थे लेकिन मैं यहूदी नहीं था', लिहाजा मुझे कुछ नहीं होगा।
स्थानीय पंडितों की हत्या की शुरूआत 14 सितंबर, 1989 को टीका लाल तपलू की दिन-दहाड़े हुई हत्या के साथ शुरू हुई थी। उन्हें श्रीनगर शहर में उनके घर में ही आतंकवादियों ने मार डाला था। तपलू की हत्या ने चौंका तो दिया था, लेकिन स्थानीय पंडितों को गहरा आघात नहीं पहुंचाया था। बल्कि उन्होंने यह कहकर एक-दूसरे को सांत्वना देने की कोशिश की थी कि तपलू को इसलिए मार दिया गया क्योंकि वह कश्मीर में भाजपा के नेता थे।
इस हत्या के बाद 4 नवंबर 1989 को पूर्व न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई थी। वे श्रीनगर के व्यस्त हरि सिंह हाई स्ट्रीट बाजार में जम्मू-कश्मीर बैंक की शाखा से अपनी पेंशन लेने गए थे, उसी समय आतंकवादियों ने उन पर हमला किया और मौके पर ही उनकी मौत हो गई थी।
गंजू वही जज थे जिन्होंने जेकेएलएफ के संस्थापक मकबूल भट को फांसी की सजा सुनाई थी। कश्मीरी पंडितों ने फिर तर्क दिया कि यह हत्या बदला लेने के लिए की गई।
वर्तमान में जम्मू में रहने वाले राजिंदर सप्रू (बदला हुआ नाम) कहते हैं, "इन 2 हत्याओं के बाद मैं इसी भरोसे में था कि 'वे यहूदियों को मार रहे थे और मैं यहूदी नहीं था'। आतंकवादियों की 'आजादी' की मुहिम को रोकने में मेरी कोई भूमिका नहीं थी। ऐसे में वे मुझे नुकसान पहुंचाकर उन्हें क्या हासिल होगा? 1990 की शुरूआत तक मैं यही सोचता रहा।"
इसके बाद भी दूरसंचार विभाग के एक कर्मचारी और बाद में खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के सहायक निदेशक की हत्या कर दी गई। ये सप्रू के समुदाय के थे लेकिन तब भी उन्हें लगा कि उनकी जान को खतरा नहीं है। लेकिन 1990 की शुरूआत से गंभीर और परेशान करने वाली खबरें सामने आने लगीं।
सशस्त्र कट्टरपंथी लोग ऐसे इस्लामिक राज्य की स्थापना की लड़ाई में व्यस्त थे, जहां गैर-मुस्लिमों के लिए कोई जगह नहीं थी। हालांकि स्थानीय मुसलमानों ने अपने पंडित पड़ोसियों को निशाना बनाए जाने का विरोध किया, लेकिन वे मुस्लिम सशस्त्र आतंकवादियों के कट्टरपंथी विश्वास के आगे असहाय थे।
वैसे तो कश्मीर पंडितों का पलायन पहले ही शुरू हो गया था, जब श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज की स्टाफ नर्स सरला भट का अपहरण कर हत्या कर दी गई थी। उनके शव को श्रीनगर के करन नगर इलाके में सड़क पर फेंक दिया गया था, साथ ही उसके साथ एक सूचना लिखकर रखी गई कि वह एक पुलिस मुखबिर थी। नर्स के परिजनों ने कहा कि उसकी हत्या होने से पहले उसके साथ दुष्कर्म किया गया था। यह कश्मीर पंडित के लिए स्पष्ट संदेश था कि इस धर्म के लोग यहां से चले जाएं।
सरकार उनकी रक्षा करने में असमर्थ थी। वह यहां अपना अधिकार जमाने के लिए जूझ रही थी क्योंकि आतंकियों ने वहां हालात बिगाड़ रखे थे।
सप्रू कहते हैं, "हमारी तुलना में शहरों में रहने वाले पंडितों के लिए यह तुलनात्मक रूप से आसान था कि वे अपना सामान पैक करें और कश्मीर छोड़ दें। लेकिन हम ग्रामीण इलाकों में रहने वाले पंडितों के पास मवेशी थे, खेती की जमीन और बाग थे। सब कुछ इतनी जल्दी नहीं छोड़ा जा सकता था। मेरे मुस्लिम पड़ोसियों ने मेरी मदद करने की पूरी कोशिश की, लेकिन वे बंदूक की नोंक पर रखे युवाओं के आगे असहाय थे। मैंने अपनी संपत्ति पड़ोसी को सौंप दी और अपनी पत्नी, दो बेटियों और एक बेटे के साथ गांव छोड़ दिया।"
कश्मीर के एक गांव में रहने वाले अवतार कृष्ण रैना कहते हैं, "हम जम्मू शहर में प्रवासी पंडितों के लिए बने शिविर में से एक में एक तम्बू में रहते थे। मेरे घर में 10 कमरे थे, जबकि जिस तम्बू में हम रह रहे थे उसमें हमारे पैर फैलाने के लिए भी पर्याप्त जगह नहीं थी।"
कश्मीर यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र पढ़ाने वाली डॉ. फराह कहती हैं, "प्रवासी पंडितों की पहली पीढ़ी और उनके बाद की पीढ़ी के लोगों में अपनी मातृभूमि पर वापस लौटने को लेकर विचार अलग हैं। जिस पंडित ने चोट सही, अपना घर छोड़ा वह आज भी स्थानीय मुसलमानों और पंडितों के बीच के सौहार्द को समझता है। लेकिन पंडितों की युवा पीढ़ी वहां पर्यटकों की तरह जा सकती है, वहां के निवासी की तरह नहीं।"
खैर घर लौटने का इंतजार कर रहे अधिकतर कश्मीरी और उनके दोस्त-पड़ोसी अब उस उम्र के पार हो गए हैं, जिसमें वे एक-दूसरे को शायद ही पहचान सकें। (आईएएनएस)