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![किसानों की आय दोगुनी करने का पीएम मोदी का वादा कैसे होगा पूरा? किसानों की आय दोगुनी करने का पीएम मोदी का वादा कैसे होगा पूरा?](https://dailychhattisgarh.com/2020/article/1611840362gri_1.jpg)
-निखिल इनामदार
लॉकडान के दौरान जब 2020-21 की पहली तिमाही में जीडीपी 23.9 प्रतिशत और दूसरी तिमाही में 7.5 प्रतिशत गिरी तो कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था को राहत देने वाला क्षेत्र था. लेकिन इससे भारत के अधिकतर किसानों की आमदनी पर कोई फर्क नहीं पड़ा.
महाराष्ट्र के नासिक के नयागांव में अपनी दो एकड़ ज़मीन पर लाल प्याज़ उगाने वाले भरत दिघोले के लिए बीता साल मुश्किलों भरा था. भारी पैदावार की वजह से दाम गिर गए थे और फिर सितंबर में सरकार ने प्याज़ के निर्यात पर रोक लगा दी थी.
दिघोले महाराष्ट्र प्याज़ उत्पादक एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं. अपने खेत के पास बने छोटे से घर के आंगन में चाय पीते हुए दिघोले कहते हैं, "अप्रैल 2020 में मैंने प्याज़ उसी भाव में बेची जिस भाव पर मेरे पिता ने साल 1995 और 1997 में बेची थी. मैं पैसा कैसे कमाऊंगा? हमारी लागत बढ़ गई है और सरकार की नीतियों ने व्यापार बहुत मुश्किल कर दिया है."
सरकार ने नए साल के पहले दिन प्याज़ का निर्यात फिर से शुरू किया जिसके बाद एक क्विंटल प्याज़ के दाम 500 रुपये तक चढ़कर 1,800-2,000 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गए. ये किसानों के लिए अच्छी ख़बर है लेकिन अब दिघोले के सामने एक और चुनौती है- बोमौसम बरसात से फसल बचाने की.
दिघोले के खेत से करीब बीस किलोमीटर दूर दीपक पाटिल के खेतों में बारिश से हुई बर्बादी साफ़ नज़र आती है.
उन्हें आशंका है कि 15 प्रतिशत तक फसल बर्बाद हो गई है. उन्हें 25 लाख का क़र्ज़ चुकाना है और बीते चार-पांच सालों से उनकी किस्मत भी बहुत अच्छी नहीं रही है. ये ऐसी परिस्थिति है जिसके लिए पाटिल तैयार नहीं हैं.
"2016 के बाद से हमें एक के बाद एक झटका लग रहा है. पहले नोटबंदी हुई जिसमें सरकार ने 80 प्रतिशत तक मुद्रा बाज़ार से वापस ले ली. उस साल कोई ख़रीदार ही नहीं था क्योंकि एजेंटों का पैसा घिर गया था. उसके अगले साल फसल अच्छी नहीं हुई, फिर इस साल लॉकडाउन लग गया जिसने सप्लाई चेन को तोड़ दिया और अब ये बेमौसम बरसात. हमारी आय ख़त्म हो गई है."
क्या होगा प्रधानमंत्री के वादे का?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का साल 2016 में किसानों की आय दोगुनी करने का वादा और ज़मीनी सच्चाई एक दूसरे के ठीक उलट हैं. अब लगता है कि ये वादा पूरा होना आसान नहीं होगा.
साल 2012-13 के बाद से किसानों की आय से जुड़ा एनएसएसओ का डाटा उपलब्ध नहीं है. लेकिन बीबीसी रियलिटी चैक के मुताबिक साल 2014 और 2019 के बीच कृषि से जुड़ी मज़दूरी की दर में गिरावट आई है.
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के स्कूल ऑफ़ डेवलपमेंट स्टडीज़ में नाबार्ड के चेयर प्रोफ़ेसर आर रामकुमार मानते हैं कि साल 2016 और 2020 के बीच वास्तव में खेती से जुड़ी आय में बढ़ोत्तरी के बजाए गिरावट आई होगी. वो इसके लिए कृषि के ख़िलाफ़ व्यापारिक शर्तों में बदलाव और सरकार की तर्कहीन नीतियों को ज़िम्मेदार मानते हैं.
कोविड महामारी ने हालात और ख़राब ही किए हैं. बीते साल अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की तरफ से किए गए एक सर्वें में पता चला था कि बड़ी तादाद में किसान या तो अपनी फसल बेच ही नहीं पाए थे या उन्हें कम दाम में बेचने को मजबूर होना पड़ा था.
किसानों के साथ हमारी बातचीत में भी सर्वे के इन नतीजों की पुष्टि हुई. किसानों का कहना था कि वो दोहरी मार झेल रहे हैं क्योंकि महामारी की वजह से सप्लाई चेन टूटने से मज़दूरी और लागत पर होने वाला ख़र्च बढ़ गया है.
प्रोफ़ेसर रामकुमार कहते हैं कि मौजूदा हालात को देखते हुए किसानों की आय का साल 2024 तक दोगुना होना संभव नहीं दिखता. सरकार ने अपने वादे को पूरा करने के लिए 2024 तक की नई समयसीमा तय की है.
नए कृषि क़ानूनों से क्या होगा?
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण 1 फ़रवरी को बजट पेश करेंगी. कृषि की आय बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार को कृषि से जुड़ी नीतियों में सुधार करना होगा.
प्रोफ़ेसर रामकुमार कहते हैं, "सरकार को कृषि से जुड़ी सब्सिडी के लिए सकारात्मक रवैया अपनाना होगा और ये सुनिश्चित करना होगा कि छोटे और मझोले किसानों के लिए उत्पादन लागत ना बढ़े. इसके साथ ही सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी बढ़ाना होगा."
किसान तीन नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ दो महीनों से दिल्ली में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी हासिल करना उनकी प्रमुख मांगों में से एक है. इस मुद्दे पर सरकार और किसानों के बीच विश्वास बिलकुल टूट गया है.
रामकुमार कहते हैं, "सरकार को बजट में कम से कम अगले पांच साल के लिए तीन हज़ार से पांच हज़ार मंडियों में निवेश करने का वादा करना चाहिए ताकि किसानों का विश्वास फिर से हासिल किया जा सके."
ये वो मुद्दा है जिस पर नीति निर्माता भी विभाजित हैं. मुक्त बाज़ार का समर्थन करने वाले अर्थशास्त्री तीन कृषि क़ानूनों को पुरानी व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए ज़रूरी मानते हैं. वे कृषि क्षेत्र में निजी सेक्टर के दख़ल की वकालत करते हैं.
फिलहाल इस पर बिचौलियों का प्रभुत्व है. लेकिन रामकुमार और देवेंद्र शर्मा जैसे कृषि नीति विशेषज्ञ मानते हैं कि मौजूदा व्यवस्था को कमज़ोर करने और किसानों को बाज़ार के हवाले करने से पहले से कमज़ोर कृषक समुदाय संकट के समय और भी कमज़ोर होगा.
वित्त मंत्री के हाथ में मुश्किल काम है. फ़रवरी 2019 में केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि शुरू की थी जिसके तहत किसानों को सालाना छह हज़ार रुपये की मदद दी जाती है. केयर रेटिंग एजेंसी के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस कहते हैं किसानों के प्रदर्शन को देखते हुए 'किसानों को दी जाने वाली सालाना आर्थिक मदद में इज़ाफ़े' की उम्मीद है.
भारत की 1.3 अरब आबादी में से आधे लोग जीवनयापन के लिए खेती पर निर्भर हैं. इन्हें अस्थायी आर्थिक सहयोग देना अपने उत्पाद के व्यापार के बेहतर मौके देने का विकल्प नहीं हो सकता. भारतीय अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के लिए भी ये ज़रूरी है. (bbc.com)