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अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 1999 में कैसे एक वोट से गिराई गई?
30-Jan-2021 4:43 PM
अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 1999 में कैसे एक वोट से गिराई गई?

-रेहान फ़ज़ल

16 अप्रैल, 1999 को जब डेढ़ बजे ठंडा तरबूज़ का जूस पीते हुए ओमप्रकाश चौटाला ने घोषणा की कि वो राष्ट्र हित में वाजपेयी सरकार को दोबारा समर्थन दे रहे हैं तो सरकार के खेमें में खुशी की एक लहर सी दौड़ गई.

धोखा देने के खेल में सरकार के चेहरे पर वक्त से पहले ही मुस्कान आ गई थी. लेकिन कुछ लोगों ने नोट किया कि किसी ने लोकसभा के सेक्रेट्री जनरल एस गोपालन की तरफ़ एक चिट बढ़ाई है. गोपालन ने उस पर कुछ लिखा और उसे टाइप कराने के लिए भेज दिया.

उस टाइप हुए कागज़ में लोकसभाध्यक्ष जीएमसी बालयोगी द्वारा दी गई रूलिंग थी जिसमें काँग्रेस साँसद गिरधर गोमाँग को अपने विवेक के आधार पर वोट देने की अनुमति प्रदान की गई थी.

दरअसल गोमाँग फ़रवरी में ही ओडिशा के मुख्यमंत्री बन गए थे लेकिन उन्होंने अपनी लोकसभा की सदस्यता से तब तक इस्तीफ़ा नहीं दिया था.

'लाल बटन दबाओ'
वरिष्ठ पत्रकार स्वप्न दासगुप्ता ने इंडिया टुडे के 10 मई, 1999 के अंक में लिखा था, "उस रात कोई भी नहीं सोया. सरकार की तरफ़ से बीजेपी साँसद रंगराजन कुमारमंगलम ने मायावती को यहाँ तक आश्वासन दे दिया कि अगर उन्होंने पहले से तय स्क्रिप्ट पर काम किया तो वो शाम तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन सकती हैं. उनके खेमें में गतिविधि देख तब विपक्ष के नेता शरद पवार उनके पास पहुँचे. मायावती उनसे जानना चाहती थीं कि अगर उन्होंने सरकार के ख़िलाफ़ वोट दिया तो क्या सरकार गिर जाएगी? पवार का जवाब था 'हाँ.' जब वोट देने का समय आया तो मायावती अपने साँसदों की तरफ़ देख कर ज़ोर से चिल्लाईं 'लाल बटन दबाओ.''

इलेक्ट्रॉनिक स्कोरबोर्ड पर जब सबकी नज़र गई तो पूरा सदन अचंभित रह गया. वाजपेई सरकार के पक्ष में 269 और विपक्ष में 270 मत पड़े थे.

शक्ति सिन्हा की किताब


वाजपेयी को नहीं मिला हनीमून पीरियड
प्रधानमंत्री के तौर पर वाजपेयी सरकार की सबसे बड़ी ट्रेजेडी रही कि उनकी सरकार को कभी हनीमून पीरियड नहीं मिला.

वाजपेयी पर हाल ही में एक किताब 'वाजपेयी द ईयर्स दैट चेंज्ड इंडिया' लिखने वाले शक्ति सिन्हा बताते हैं, "एक तो सरकार बनने में बहुत तकलीफ़ हुई. बन भी गई तो पहले दिन से ही मंत्रालयों को ले कर पार्टियों के बीच झंझट शुरू हो गया. हफ़्ते भर के अंदर दो मंत्रियों को इस्तीफ़ा देना पड़ा. इससे काफ़ी हार्टबर्निंग हुई."

"जयललिता ने पहले दिन से ही उनकी नाक में दम कर दिया. उन्होंने कहा कि दूसरे जिन मंत्रियों के ख़िलाफ़ भष्टाचार के आरोप हैं उनको भी हटाइए. फिर स्पीकर के चुनाव को ले कर झंझट हुआ. बहस में जिस भाषा का इस्तेमाल किया गया, वो असंसदीय था."

"अमेरिका में भी जब नए राष्ट्रपति सत्ता सँभालते हैं तो उन्हें 100 दिन का ग्रेस पीरियड दिया जाता है. महीना दो महीने उस सरकार के बारे में जोश रहता है और लोग उसकी आलोचना कम करते हैं. अटल बिहारी वाजपेयी इससे वंचित रहे. उनको ये नहीं नसीब हुआ."

जयललिता की माँगें मानने को तैयार नहीं हुए वाजपेयी

जयललिता और वाजपेई
जयललिता चाहती थीं कि उनके ख़िलाफ़ सभी मुकदमे वापस लिए जाएं और तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार को बर्ख़ास्त किया जाए. इसके अलावा वो सुब्रमण्यम स्वामी को वित्त मंत्री बनवाने पर भी ज़ोर दे रही थीं. वाजपेयी इसके लिए तैयार नहीं हुए.

शक्ति सिन्हा कहते हैं, जयललिता चाहती थीं कि उनके ख़िलाफ़ चल रहे इन्कम टैक्स केसों में उन्हें मदद मिले. सराकार ने भी क़ानूनन जितना संभव था उनकी मदद की. उनके ख़िलाफ़ आरोपों को विशेष कोर्ट से हटा कर सामान्य अदालत में ले जाया गया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे ख़ारिज कर दिया. वो ये भी चाहती थीं कि वाजपेयी अगर स्वामी को वित्त मंत्रालय न दें तो कम से कम राजस्व राज्य मंत्री वित्त मंत्रालय के अंतर्गत काम न करें.'

उन्हीं दिनों आउटलुक के संपादक विनोद मेहता उनसे मिलने उनके निवास स्थान पर गए. मेहता अपनी आत्मकथा 'एडीटर अनप्लग्ड मीडिया, मेग्नेट्स, नेताज़ एंड मी' में लिखते हैं, "जब मैंने उनको देखा तो वो मुझे गहरी सोच में दिखाई दिए. वो बहुत चुप चुप से थे. जब मुझसे नहीं रहा गया तो मैंने पूछ ही डाला, आपको क्या चिंता सता रही है ? हाज़िरजवाब वाजपेयी ने हँसी दबाते हुए जवाब दिया आपके बाद जयललिता से मिलने का नंबर है."

6 अप्रैल को जयललिता के सभी मंत्रियों ने वाजपेयी को अपने इस्तीफ़े भेज दिए. दो दिनों के बाद उन्होंने वो इस्तीफ़ा राष्ट्रपति को बढ़ा भी दिया. एक दिन बाद अन्नाडीएमके ने समन्वय समिति से अपने सदस्यों को बाहर बुला लिया.

कुछ दिनों बाद जयललिता दिल्ली आईं और दिल्ली के एक पाँच-सितारा होटल में ठहरीं. उनके साथ उनके 48 सूटकेसों का सामान भी आया. अगले कुछ दिनों तक दिल्ली में राजनीतिक गतिविधियाँ तेज़ हो गईं. 11 अप्रैल को 11 बजे राष्ट्रपति से मिलकर उन्होंने वाजपेयी सरकार से समर्थन वापसी का पत्र दे दिया.

हाँलाकि अगले संसद के बजट सत्र की बैठक होनी थी लेकिन राष्ट्रपति नारायणन ने वाजपेयी से विश्वास मत लेने के लिए कहा. शक्ति सिन्हा कहते हैं कि मेरी नज़र में तब भी और अब भी ये ग़ैर-ज़रूरी फ़ैसला था.

'चूँकि संसद का सत्र चल रहा था, सही तरीक़ा ये होता कि वाजपेयी सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता या फिर ये देखते हुए कि ये बजट सत्र है उसमें धन विधेयक को गिरा कर सरकार को हराया जा सकता था. वाजपेयी के विरोधियों ने 1990 और 1997 के उदाहरण ज़रूर पेश किए लेकिन दोनों समय संसद की अगली बैठक अगले दिन के लिए तय नहीं थी. ऐसा इसलिए नहीं किया गया क्योंकि विपक्ष के पास वाजपेयी के किसी विकल्प के बारे में आम सहमति नहीं थी और इसके पीछे ये सोच भी थी कि अगर किन्हीं कारणों से अविश्वास प्रस्ताव गिर जाता है तो वो नियमानुसार अगले छह महीनों तक अविश्वास प्रस्ताव दोबारा नहीं ला सकते थे. '

स्पीकर ने गिरधर गोमाँग के वोट करने का फ़ैसला उनके विवेक पर छोड़ा
जहाँ तक गिरधर गोमाँग के मतदान करने की बात है लोकसभा के सेक्रेट्री जनरल एस गोपालन की सलाह पर लोकसभाध्यक्ष बालयोगी ने पूरा मामला गोमाँग के विवेक पर छोड़ दिया. उनके विवेक ने उन्हें बताया कि वो अपनी पार्टी के आदेश का पालन करें और विश्वास मत के ख़िलाफ़ वोट दें.

बाद में बहुत से साँसदों ने लोकसभाध्यक्ष के फ़ैसले की आलोचना की और कुछ ने तो गोपालन की सलाह को राजनीतिक तराज़ू के मापदंड पर यह कहते हुए तोला कि गोपालन की नियुक्ति पूर्व लोकसभाध्यक्ष पूर्नो संगमा ने की थी.

दिलचस्प बात ये है कि वाजपेयी सरकार गिराने वाले गिरधर गोमाँग ने बाद में भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली. सरकार की तरफ़ से फ़्लोर मैनेजमेंट में भी बड़ी चूक हुई. अरुणाचल प्रदेश के साँसद राज कुमार जनवरी में पार्टी में विभाजन के बाद पूर्व मुख्यमंत्री गेगोंग अपाँग के खिलाफ़ हो गए थे. उनकी पार्टी में विभाजन हो गया.

लेकिन सरकार की तरफ से किसी ने उनसे अपने पक्ष में वोट करने की अपील नहीं की. नतीजा ये हुआ कि उन्होंने सरकार के ख़िलाफ़ वोट किया. शक्ति सिन्हा का मानना है कि उन्हें बहुत संदेह है कि राज कुमार के अस्तित्व के बारे में भी भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को पता रहा होगा

जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री फ़ारुख़ अब्दुल्लाह ने अपने बेटे ओमर अब्दुल्लाह को बढ़ावा देते हुए बारामूला से वरिष्ठ साँसद सैफ़ुद्दीन सोज़ की घोर अवहेलना की. हर वर्ष भारत सरकार सऊदी अरब के लिए एक हज प्रतिनिधिमंडल भेजती है. सोज़ ने इसके लिए कुछ लोगों की सिफ़ारिश की लेकिन जब फ़ारुख अब्दुल्लाह को इसके बारे में पता चला तो उन्होंने उन लोगों के नाम कटवा दिए.

सोज़ ने इस सबका बदला वाजपेयी सरकार के ख़िलाफ़ वोट दे कर निकाला. पूर्व प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल अकालियों के समर्थन से लोकसभा में पहुंचे थे लेकिन उन्होंने उसी सरकार के ख़िलाफ़ मतदान किया जिसका कि अकाली एक हिस्सा थे.

बहस के दूसरे दिन वाजपेयी ने खुद काँशी राम से फ़ोन पर बात की थी. उन्होंने उन्हें बताया था कि वो दिल्ली से बाहर जा रहे हैं. उनकी पार्टी उनका समर्थन तो नहीं कर सकती लेकिन उनके ख़िलाफ़ वोट नहीं करेगी.

इस प्रकरण का पूरा विवरण देते हुए स्वप्नदास गुप्ता और सुमित मित्रा ने इंडिया टुडे के 10 मई, 1999 में छपे अपने लेख 'द इनसाइड स्टोरी इज़ इंडिया हेडिंग फॉर अ टू पार्टी सिस्टम' में लिखा था, 'मतदान से एक दिन पहले काँशीराम पटना में थे. आधी रात से पहले अर्जुनसिंह ने काँशीराम को फ़ोन किया. उन्होंने काँशीराम को दिल्ली आने के लिए मना लिया.उनको लाने के लिए कमलनाथ का स्पैन रिसॉर्ट विमान तैयार रखा गया. लेकिन काँशीराम ने कहा कि वो अलायेंस एयरलाइंस की नियमित उड़ान से दिल्ली आएंगे जो दिल्ली 9 बज कर 40 मिनट पर पहुंचेगी. अर्जुन सिंह की चिंता ये थी कि अगर सरकार को इसकी भनक लग गई तो वो उड़ान में देरी करवा देगी. इसलिए स्टैंडबाई के तौर पर राबड़ी देवी सरकार का विमान भी तैयार रखा गया. देर रात बीएसपी के साँसद आरिफ़ मोहम्मद ख़ाँ और अकबर डंपी ने मायावती को फ़ोन कर कहा कि अगर उन्हें बीजेपी की सरकार को बचाते हुए देखा गया तो उनके मुस्लिम मतदाता इसे पसंद नहीं करेंगे. मायावती ने रात दो बजे डंपी और आरिफ़ को फ़ोन कर बताया कि वोट करते समय उनकी चिंता को ध्यान में रखा जाएगा. वो दोनों 9 बजे उनके घर पहुंच जाएं. इस बीच सोनिया गाँधी ने भी मायावती को खुद फ़ोन किया और वाजपेयी सरकार को गिराने का ख़ाका तैयार हो गया.'

शक्ति सिन्हा बताते हैं कि भावी प्रधानमंत्री के रूप में वाजपेयी की बात बहुत दिनों से हो रही थी. इतनी मुश्किल से वो प्रधानमंत्री बने लेकिन तेरह महीने में गाड़ी कभी संभल कर नहीं चली. हमेशा डाँवाडोल ही रही. और उस पर उनका एक वोट से हारना. झटका ज़रूर लगा था वाजपेयी को. वोटिंग के बाद जब वाजपेयी अपने कमरे में लौटे हैं तो मैंने उन्हें बेहद निराश देखा. उनकी आँखों में आँसू थे. जो सदमा उन्हें लगा था वो उनके चेहरे पर दिखाई दे रहा था. लेकिन पाँच सात मिनटों के अंदर ही उन्होंने अपनेआप को नियंत्रित कर लिया था और वो अपना इस्तीफ़ा देने राष्ट्रपति भवन रवाना हो गए थे.

21 अप्रैल को सोनिया गाँधी ने राष्ट्रपति नारायणन से मिलकर दावा किया कि उन्हें 272 साँसदों का समर्थन प्राप्त है. लगभग उसी समय मुलायम सिंह यादव ने एक बार फिर ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव आगे किया.

1996 के विपरीत इस बार सीपीएम इसके लिए तैयार भी दिखी लेकिन काँग्रेस इस बार किसी दूसरी पार्टी को नेतृत्व देने के लिए राज़ी नहीं हुई. बाद में मुलायम सिंह ने काँग्रेस का साथ देने से साफ़ इंकार कर दिया.

इस फैसले में बहुत बड़ी भूमिका रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडिस की रही.

लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब 'माई कंट्री, माई लाइफ़' में इसका ब्योरा देते हुए लिखा है, '21 या 22 अप्रैल को देर रात मेरे पास जॉर्ज फ़र्नांडिस का फ़ोन आया. उन्होंने कहा लालजी मेरे पास आपके लिए अच्छी ख़बर है. सोनिया गाँधी अगली सरकार नहीं बना सकतीं. विपक्ष के एक बड़े नेता आपसे मिलना चाहते हैं. लेकिन ये बैठक न तो आपके घर पर हो सकती है और न ही मेरे घर पर."

आडवाणी ने लिखा, "तय हुआ कि ये मुलाकात जया जेटली के सुजान सिंह पार्क वाले घर में होगी. जब मैं जया जेटली के घर पहुंचा तो वहाँ मैंने मुलायम सिंह यादव और जॉर्ज फ़र्नांडिस को बैठे हुए पाया. फ़र्नांडिस ने मुझसे कहा कि मेरे दोस्त ने मुझे आश्वस्त किया है कि उनके 20 साँसद किसी भी हालत में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने के प्रयास को समर्थन नहीं देंगे. मुलायम सिंह यादव ने भी ये बात मेरे सामने दोहराई. लेकिन उन्होंने ये भी कहा कि आडवाणी जी इसके लिए मेरी एक शर्त है. मेरी इस घोषणा के बाद कि हमारी पार्टी सोनिया गांधी को सरकार बनाने में मदद नहीं करेगी, आपको ये वादा करना होगा कि आप दोबारा सरकार बनाने का दावा पेश नहीं करेंगे. मैं चाहता हूँ कि अब नए चुनाव करवाएं जाएं."

लोकसभा भंग
तब तक एनडीए के घटक दलों का भी मन बन चुका था कि फिर से सरकार बनाने के बजाए मध्यावधि चुनाव का सामना किया जाए. राष्ट्रपति नारायणन ने वाजपेयी को राष्ट्रपति भवन तलब किया और उनको सलाह दी कि वो लोकसभा भंग करने की सिफ़ारिश करें.

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने लोकसभा भंग करने की सिफ़ारिश की लेकिन इस सिफ़ारिश में साफ़ लिखा गया कि वो ऐसा राष्ट्रपति नारायणन की सलाह पर कर रहे हैं. राष्ट्रपति भवन इससे खुश नहीं नज़र आया लेकिन तब तक वाजपेयी को इस बात की फ़िक्र नहीं रह गई थी कि राष्ट्रपति इस बारे में क्या सोच रहे हैं. (bbc.com)
 

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