विचार/लेख
जानकारी मिली है कि 25 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में प्लास्टिक की करीब 615 अवैध यूनिट चल रही हैं
- Susan Chacko, Lalit Maurya
कूड़े और प्लास्टिक कचरे की समस्या से निपटने के लिए, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को जरुरी और उचित कदम उठाने के लिए कहा है। साथ ही उसके लिए एक संस्थागत तंत्र स्थापित करने का आदेश दिया है। जानकारी मिली है कि 25 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में प्लास्टिक की करीब 615 अवैध यूनिट चल रही हैं।
इस कचरे से निपटने के लिए 22 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में विशेष पर्यावरणीय दस्तों की स्थापना की गई है। जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि सार्वजनिक स्थानों, नालियों, नदियों और समुद्र में प्लास्टिक कचरे की डंपिंग न की जा सके। इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जा सके की प्लास्टिक कचरे को खुले में न जलाया जाए।
इसके साथ ही यदि प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट से जुड़े नियमों का उल्लंघन हो तो उस मामले में सीपीसीबी द्वारा निर्धारित पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति के नियम को लागु किया जाए। जिसे पर्यावरण मंत्रालय द्वारा ईपीआर फ्रेमवर्क को अंतिम रूप देने के बाद लगाया जा सकता है।
इस मामले में 25 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों ने जो रिपोर्ट सीपीसीबी को सबमिट की है उसमें जानकारी दी है कि उन्होंने 50 माइक्रोन से कम मोटाई वाले कैरी बैग और प्लास्टिक शीट्स के उत्पादन पर रोक लगा दी है।
सीपीसीबी द्वारा यह रिपोर्ट 12 अक्टूबर एनजीटी के सामने पेश की गई है।(downtoearth)
आंकड़ों के मुताबिक एशिया में 2000-2019 के दर्मियान 3,068 सबसे अधिक आपदा की घटनाएं हुई, इसके बाद अमेरिका में 1,756 और फिर अफ्रीका में 1,192 घटनाएं हुई हैं।
- Dayanidhi
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि पिछले 20 वर्षों (2000-2019) से हो रही प्राकृतिक आपदाओं के लिए बहुत हद तक जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार है। यूनाइटेड नेशंस ऑफिस फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन के अनुसार पिछले दो दशकों के दौरान दुनिया भर में 7,348 प्रमुख आपदाओं की घटनाएं हुईं। इन घटनाओं में लगभग 12.3 लाख (1.23 मिलियन) लोग मारे गए, 420 करोड़ लोग प्रभावित हुए और वैश्विक अर्थव्यवस्था को लगभग 2.97 ट्रिलियन डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ। इसमें एशियाई देश सर्वाधिक प्रभावित हुए।
आंकड़ों के मुताबिक एशिया में 2000-2019 के दर्मियान 3,068 सबसे अधिक आपदा की घटनाएं हुई, इसके बाद अमेरिका में 1,756 और फिर अफ्रीका में 1,192 घटनाएं हुई हैं। वहीं, 1980 से 1999 के मुकाबले सबसे अधिक आपदा की घटनाएं साल 2000 से लेकर 2019 तक दर्ज की गईं। अगर प्रभावित देशों के हिसाब से देखें तो आंकड़ों के मुताबिक चीन कुल 577 घटनाओं के साथ शीर्ष पर है, अमेरिका दूसरे स्थान पर रहा जहां 467 घटनाएं हुई, इसके बाद भारत में 321, फिलीपींस में 304 और इंडोनेशिया में 278 आपदा से जुड़ी घटनाएं दर्ज की गईं।
यूनाइटेड नेशंस ऑफिस "द ह्यूमन कॉस्ट ऑफ डिजास्टर्स 2000-2019" नामक एक नई रिपोर्ट में कहा गया कि 1980 से 1999 के दर्मियान 4,212 प्राकृतिक खतरों से 11.9 लाख (1.19 मिलियन) लोगों की मृत्यु हुई थी, जिसमें 300 करोड़ (तीन बिलियन) से अधिक लोग प्रभावित हुए और 1.63 ट्रिलियन डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ था।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 2019 में वैश्विक औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक अवधि के मुकाबले 1.1 डिग्री सेल्सियस अधिक था। बढ़ता तापमान जलवायु संबंधी आपदाओं में वृद्धि के लिए जिम्मेदार है, जिसमें बाढ़, सूखा, तूफान और जंगल की आग सहित चरम मौसम की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। साथ ही अत्यधिक गर्मी विशेष रूप से घातक साबित हो रही है।
यूनाइटेड नेशंस ऑफिस फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन (यूएनडीआरआर) प्रमुख मामी मिजुतोरी ने दुनिया भर की सरकारों पर जलवायु खतरों को रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाने का आरोप लगाया और आपदाओं को कम करने के लिए बेहतर तैयारी का आह्वान किया। उन्होंने कहा जब हम वैज्ञानिकों द्वारा सुझाए गए उपायों पर कार्रवाई करने में विफल होते हैं, जब वैज्ञानिकों द्वारा जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और आपदा जोखिम में कमी के लिए शुरुआती चेतावनियां दी जाती हैं, तो हम कुछ नहीं करते है और यह हमारे खिलाफ आपदा बनकर खड़ी हो जाती है।
मिजुतोरी ने कहा इस सचाई के बावजूद कि पिछले 20 वर्षों में चरम मौसम की घटनाएं इतनी नियमित हो गई हैं, तब भी केवल 93 देशों ने राष्ट्रीय स्तर पर आपदा जोखिम रणनीतियों को साल के अंत से पहले लागू किया है।
रिपोर्ट में कोरोनोवायरस महामारी जैसी जैविक खतरों और बीमारी से संबंधित आपदाओं को नहीं छुआ गया है, जिसने पिछले नौ महीनों में लाखों लोगों की जान ले ली है और करोड़ों लोग संक्रमित हुए हैं।
रिपोर्ट में बताया गया है कि सदी के अंत तक 6,681 जलवायु से जुड़ी घटनाओं को दर्ज किया गया था। जबकि बाढ़ की प्रमुख घटनाएं दोगुनी से अधिक 3,254 थी, 2,034 बड़े तूफान आए पूर्व की अवधि में जिनकी संख्या 1,457 थी।
मिजुतोरी ने कहा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिकारी और बचाव कर्मचारी "चरम मौसम की बढ़ती घटनाओं के खिलाफ एक कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं। जबकि बेहतर तैयारी और शुरुआती चेतावनी प्रणालियों ने कई प्राकृतिक आपदाओं में मौतों की संख्या को कम करने में मदद की, फिर भी जलवायु आपातकाल से काफी लोग प्रभावित हो रहे हैं।
शोधकर्ताओं ने जोर देकर कहा कि जलवायु संबंधी आपात स्थितियों में वृद्धि के कारण बाढ़ से संबंधित आपदाओं में 40 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। तूफान के कारण 28 प्रतिशत, भूकंप 8 प्रतिशत और अत्यधिक तापमान से 6 प्रतिशत लोग प्रभावित हुए हैं।
पिछले 20 वर्षों में सबसे घातक आपदा 2004 में हिंद महासागर की सुनामी थी, जिसमें 226,400 मौतें हुईं, इसके बाद 2010 में हैती में आए भूकंप जिसमें 222,000 लोगों की जान चली गई थी।
जबकि एक गर्म होती जलवायु इस तरह की आपदाओं की संख्या और गंभीरता को बढ़ाती हुई दिखाई दे रही है, वहीं भूकंप और सुनामी जैसी भूभौतिकीय घटनाओं में भी वृद्धि हुई है जो जलवायु से संबंधित नहीं हैं लेकिन घातक हैं।(downtoearth)
हाथरस कांड में जो कुछ हुआ या हो रहा है वह शर्मनाक है। बेशर्मी की हद तक सरकारी लीपापोती के साथ ही इस कांड ने हमारे सभ्य समाज की समझ पर सवालिया निशान लगा दिया है कि हमने निर्भया के बाद से अभी तक खुद को बदला नहीं है।
- ओबेदुल्लाह नासिर
उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले के एक छोटे से गांव में एक युवती के साथ हुई दरिंदगी ने हमारे सामने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या हम एक सभ्य समाज का हिस्सा हैं? क्या हमारी नज़र में एक महिला केवल एक जिस्म है एक भोग की वस्तु है? आज जब दुनिया के हर देश में महिलाएं मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिला कर अपने देश और अपने समाज की सेवा कर रही हैं, हम ऐसा माहौल क्यों पैदा कर रहे हैं जहां महिलाएं घर से निकलने में ही खुद को असुरक्षित महसूस करें?
जिस समाज में 90 वर्ष की पोपली बुढ़िया से लेकर 9 साल तक की मासूम बच्ची मर्दों की हवस का शिकार बन जाती हो उसे सभ्य समाज तो कतई नहीं कहा जा सकताI इस मामले में सरकारों, अदालतों और प्रशासन तंत्र की लापरवाही और गैर ज़िम्मेदारी की चाहे जितना निंदा की जाए, उनकी गलतियों और कोताहियों की ओर चाहे जितना ध्यान आकर्षित किया जाए, लेकिन जरूरत है अपने गिरेबान में झांकने की कि आखिर समाज इतना असभ्य हुआ कैसे? कानून, अदालत, प्रशासन मुजरिमों को सजा दिला सकता है, लेकिन समाज की सोच बदले बगैर इस तरह के शर्मनाक कांडों को रोकना बहुत मुश्किल होगाI
दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद पूरे देश में जो सजगता, निर्भया के प्रति हमदर्दी और मुजरिमों के प्रति नफरत का उबाल आया था, उससे लगा था कि समाज की सोच में कुछ बदलाव ज़रूर आएगा और बेटियां किसी हद तक महफूज़ हो जायेंगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआI निर्भया कांड के बाद जस्टिस वर्मा कमेटी के सुझावों पर तत्कालीन मनमोहन सरकर ने बलात्कार के सिलसिले में नया और सख्त कानून बनाया, फांसी की सजा तक का प्रावधान किया गया, बलात्कार की परिभाषा बदली गई, चार पांच साल के मुक़दमें के बाद निर्भया के मुजरिमों को फांसी पर लटका भी दिया गया, लेकिन समस्या जस की तस बनी हुई है, जिसका नवीनतम उदाहरण हाथरस की शर्मनाक और अफसोसनाक घटना है I
लेकिन, हाथरस की घटना का एक और शर्मनाक और अफसोसनाक पहलू है, और वह है इतना भयावह कांड हो जाने के बाद जिला प्रशासन और प्रदेश सरकार द्वारा उसे वह महत्व न देना जो निर्भया कांड में मनमोहन सरकार ने दिया था। हाथरस कांड में शुरु से ही जिला प्रशासन का रवैया अभियुक्तों को बचाने और इस केस को कमज़ोर करने की कोशिश करने वाला रहा हैI
पूरा माजरा यह है कि हाथरस की इस युवती के साथ 14 सितंबर को कथित बलात्कार होता है और बुरी तरह मारे पीटे-जाने से उसे गंभीर चोटें आती हैं। पुलिस ने एफआईआर तो लिख ली थी, लेकिन उस में बलात्कार की धारा नहीं लगाई, जबकि युवती खुद कह रही थी कि उसके साथ दुषकर्म हुआ है। लगभग 10 दिन बाद मीडिया और विपक्ष के दबाव में बलात्कार की धारा जोड़ी जाती है लेकिन इतना लंबा समय बीत जाने के बाद उसकी मेडिकल जांच न होने के कारण बलात्कार के सुबूत करीब-करीब समाप्त हो जाते हैं I
फिर उस युवती के इलाज में घोर लापरवाही बरती जाती है। ऐसा लगता था कि जिला प्रशासन खुद चाहता था कि यह युवती मर जाए। उसे पहले जिला अस्पताल भेजा गया, फिर अलीगढ मेडिकल कालेज भेजा गया और वहां से दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां उस ने आखिरी सांस लीI अगर जिला प्रशासन इतनी बुरी तरह ज़ख़्मी और कथित बलात्कार का शिकार युवती को सीधे दिल्ली के एम्स में भर्ती करा देता तो शायद उसकी जान बचाई जा सकती थीI
आपको याद होगा की निर्भया को पहले आल इंडिया इंस्टिट्यूट में ही भर्ती कराया गया था और जब वहां उसकी हालत नहीं सुधरी तो उसे एयर एम्बुलेंस से सिंगापुर भेजा गया था। निर्भया की जान बचाने की भरपूर कोशिश की गयी थी जबकि हाथरस की युवती की जान लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी थी। भले ही प्रशासन की मंशा जान लेने की न रही हो, लेकिन उसके इलाज में जो घोर लापरवाही की गयी उसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता और ऐसे हालात में यह इलज़ाम लगाना नाजायज़ भी नहीं होगाI यही नहीं उस युवती के माता-पिता भाइयों और परिवार के अन्य सदस्यों को उसकी अर्थी उठाने तक की इजाज़त नहीं दी गयी और रात के अंधेरे में पेट्रोल डाल कर उसकी लाश ही जला दी गयी। ऐसी क्रूरता की मिसाल मिलना मुश्किल हैI
याद कीजिए कि निर्भया का शव जब जनवरी की कड़कड़ाती सर्द रात में दिल्ली पहुंचा था तो तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी एयरपोर्ट पर मौजूद थे। लेकिन, आज हमारे प्रधानमंत्री को उस युवती से हमदर्दी जताने और पीड़ित परिवार से संतावना के दो बोल बोलने की भी तौफीक नहीं हुई। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यूं तो मृतका के परिवार को 25 लाख की सहायता का ऐलान किया है, लेकिन वहां जा कर पीड़ित परिवार को सांत्वना देने का कष्ट उन्होंने नहीं उठाया। इतना ही नहीं उसके पिता से यह ज़रुरु लिखवा लिया की वह सरकार की कार्रवाई से संतुष्ट हैं। यह तहरीर कैसे ली गयी होगी यह हम आप सब जानते समझते हैं लिखने की आवश्यकता नहीं I
इस कांड के बाद जब जिला प्रशासन की घोर लापरवाही और सरकार की लीपा पोती सामने आई तो मीडिया और विपक्ष का इस ओर ध्यान जाना स्वाभाविक था। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार और पुलिस ने हाथरस के उस गांव को छावनी में बदलकर मीडिया और विपक्ष पर पहरे लगा दिए। महिला पत्रकारों को तो गांव पहुंचने के लिए पुलिस और प्रशासनिक अफसरों के अभद्र व्यवहार से दो-चार होना पड़ा। कांग्रेस नेता राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और उनके साथ गए अन्य नेताओं को पहले दिन बलपूर्वक वहां जाने से रोका गया। उन पर बल प्रयोग किया गया। आखिरकार दूसरे दिन राहुल गांधी और प्रियंका गांधी और अन्य कांग्रेसी नेताओं को गांव जाने की इजाजत दी गई। यही सुलूक राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी के साथ किया गया, उन पर और उनके साथियों पर तो ऐसे लाठियां बरसाई गईं कि अगर कार्यकर्त्ता जयंत को अपने घेरे में न ले लेते तो शायद उनकी हत्या ही हो जाती I
बात यहीं नहीं रुकी। अब असल कांड से लोगों का ध्यान हटाने के लिए नित नए प्रकार के प्रपंच रचे जा रहे है I खुद योगी ने विपक्ष के साथ-साथ पीएफआई ( पापुलर फ्रंट आफ इंडिया ) नामी एक संगठन पर मारीशस रूट से मुस्लिम देशों द्वारा एक करोड़ रुपया वसूल कर प्रदेश में सांप्रदायिक और जातीय दंगा कराने की साजिश का आरोप लगाया है। इस दौरान दिल्ली से हाथरस जा रहे चार मुस्लिम व्यक्तियों को गिरफ्तार करने और उनके पास से भारत विरोधी लिटरेचर आदि मिलने की बात कही जा रही है, जबकि गिरफ्तार तीनो व्यक्ति कथित तौर से पत्रकार हैं और एक उनका ड्राईवर है। इनमें से एक सिद्दीक कप्पन हैं जो केरल की एक न्यूज़ पोर्टल के पत्रकार होने के साथ-साथ केरल वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन के महामंत्री भी हैं। उनकी गिरफ्तारी के बाद केरल पत्रकार यूनियन ने मुख्यमंत्री को एक पत्र भी लिखा है और सुप्रीम कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (हैबियस कॉर्पस) भी दायर की है। दो अन्य गिरफ्तार लोग भी पत्रकार हैं।
इन आरोपों में कितना दम है इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट ने जांच के बाद पाया की इन लोगों को कोई पैसा विदेश से नहीं मिला है। ईडी के इस खुलासे के बाद योगी को ठीक उसी प्रकार जनता के बीच आकर कहना चाहिए को उन्होंने गलत इलज़ाम लगाया था,लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को समझना चाहिए कि जब आप इलज़ाम लगाने के लिए मीडिया के माध्यम से जनता के बीच आते हैं तो इलज़ाम गलत साबित होने पर भी जनता के बीच आ कर उसका खंडन करना भी आपकी नैतिक ज़िम्मेदारी है I
इसके अलावा यह बातें भी फैलाई जा रही हैं कि मृतका के पिता और भाई आदि ने ही उसे उन लड़कों के साथ आपत्तिजनक स्थित में देख कर उसकी हत्या कर दी, और यह ऑनर किलिंग का मामला है I योगी सरकार द्वारा इस प्रकार पीड़ित पक्ष को ही निशाना बनाने और कथित बलात्कारियों को बचाने की कोशिश का यह कोई नया मामला नहीं है। इस से पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के वरिष्ठ नेता स्वामी चिन्मयानंद और उन्नाव के बीजेपी विधायक कुलदीप सेंगर को भी बचाने की कोशिश की गयी थीI क्या यह केवल संयोग है कि स्वामी चिन्मयानन्द कुलदीप सेंगर और हाथरस के चारों अभियुक्त योगी के सजातीय अर्थात ठाकुर हैंI
अभी भी लगभग एक महीना होने को है। उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा था कि मामले की जांच सीबीआई करेगी, और एसआईटी एक सप्ताह में जांच पूरी कर लेगी। लेकिन एसआईटी का कार्यकाल अब 10 दिन और बढ़ा दिया गया है, वहीं सीबीआई ने अब जाकर मामले को हाथ में लिया है।
सवाल है कि आखिर उत्तर प्रदेश सरकार इस मामले की लीपापोती क्यों कर रही है? लेकिन ध्यान रखना होगा की सत्ता के नशे पीड़ित पक्ष को धर्म-जाति आदि के नाम पर न्याय से महरूम करने का अंजाम बहुत दुखद और कष्टदायक होता है और नाइंसाफी पर खड़े सत्ता के किले के गिरने में ज्यादा समय नहीं लगता। हर कंस के लिए कृष्ण और हर रावण के लिए राम ज़रूर पैदा होते हैं, यही कुदरत का नियम है I(navjivan)
कृष्ण कांत
नेता फोकट में फोटो खिंचवा रहा था तो फ्रंट पेज पर छप रहा था। साफ जगह पर कूड़ा डालकर कूड़ा उठाने का नाटक कर रहा था और दिन भर मीडिया में छाया हुआ था। उस नौटंकी के पहले भी सफाईकर्मी गटर में डूबकर मर रहे थे। उस नौटंकी के बाद भी वे गटर में डूबकर मर रहे हैं।
सफाईकर्मी की जान की कीमत उस तमाशे के बराबर भी नहीं है, जिसमें साफ सडक़ पर झाड़ू लगाई जाती है। आजकल कोई झाड़ू लेकर फोटो नहीं खिंचवा रहा है। अभियान चला और खतम हो गया। करोड़ों अरबों के उस अभियान से इन गरीबों की जिंदगी पर क्या असर पड़ा?
दिल्ली के बदरपुर में कल दो लोगों की सेप्टिक टैंक में दम घुटकर मौत हो गई। सतीश चावला नाम के एक 60 वर्षीय बुजुर्ग ने मनोज और देवेंद्र नाम के दो लोगों को टैंक साफ करने के लिए बुलाया था। देवेंद्र टैंक में घुसा ओर बेहोश हो गया। उसे बचाने के लिए मनोज और सतीश भी टैंक में कूद गए। मनोज बच गए, बाकी दोनों की मौत हो गई।
ऐसी घटनाएं आए दिन होती हैं। छोटी सी खबर छप जाती है। जो असली सफाईकर्मी हैं, उन्हें कोई सुरक्षा नहीं मिली। जो नंगे बदन सीवर में घुसकर सफाई करते हैं, उन्हें सुरक्षा उपकरण नहीं मिले। वे गटर में घुसते हैं और जहरीली गैसों से दम घुट जाता है, उनकी मौत हो जाती है।
यह भी सोचिए कि कोई गटर में घुसकर सफाई क्यों करता है? क्योंकि उसे रोटी चाहिए, काम चाहे जो करना पड़े।
स्वच्छता अभियान के दौरान ये सवाल उठाने पर भक्त ट्रोल करते थे कि तुम लोग मोदी से जलते हो, इसलिए हर अच्छे काम में बुराई खोजते हो। हम बुराई नहीं खोजते, हम सिर्फ ये सवाल आपके सामने रखते हैं कि अगर कोई गरीब हमारे लिए 100-50 रुपये में अपनी जान की बाजी लगाता है, तो हमें भी उनके बारे में सोचना चाहिए।
यह कैसा राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान था जो कुछ लोगों को भी गटर से नहीं बचा सकता? हम 1947 में नहीं हैं। हम सुविधा और साधन संपन्न देश हैं। हम 21वीं सदी में हैं। अगर कोई योजना लोगों की जिंदगी नहीं बदलती है, उन्हें राहत नहीं पहुंचाती है तो वह योजना नहीं है, वह स्कैम है। स्कैम सिर्फ वह नहीं होता जिसमें पैसा लूट लिया जाए। स्कैम वह भी होता है जिसके जरिये लोगों को उल्लू बनाया जाए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
डॉ. राममनोहर लोहिया और राजमाता विजयाराजे सिंधिया का कल 12 अक्टूबर को जन्मदिन था। डॉ. लोहिया अगर होते तो 110 साल के हो जाते और राजमाता होतीं तो यह उनका 100वां साल होता। मेरा सौभाग्य है कि दोनों महान हस्तियों से मेरा घनिष्ट संबंध रहा। इनसे पत्रकार की तरह नहीं, मेरा संबंध शुरू हुआ एक छात्र-नेता के रुप में ! जनवरी 1961 में याने अब से 59 साल पहले उज्जैन में अंग्रेजी हटाओ सम्मेलन हुआ। डॉ. लोहिया उसके मुख्य प्रेरणा-स्त्रोत थे। मैं उन दिनों क्रिश्चियन कालेज इंदौर में पढ़ता था।
मैंने डॉ. लोहिया को अपने कॉलेज में आमंत्रित किया। हमारे प्राचार्य डॉ. सी. डब्ल्यू. डेविड कांग्रेसी थे। उन्होंने कहा कि लोहिया तो नेहरुजी को गाली बकता है। तुमने उसे यहां कैसे बुला लिया ? मैंने कहा कि वे तो आएंगे ही और ब्रॉनसन हॉल में उनका भाषण होगा ही। आपको जो करना है, कीजिए। डेविड साहब ने उस दिन की छुट्टी ले ली और डॉ. लोहिया का भाषण मेरे कॉलेज में जमकर हुआ। तब से डॉ. लोहिया के साथ 1967 में उनकी अंत्येष्टि तक मेरा घनिष्ट संबंध रहा। 1965 में जब मैं इंडियन स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में पीएच.डी. करने आया तो लोहियाजी से उनके 7, गुरुद्वारा रकाबगंज रोड वाले बंगले पर अक्सर भेंट हुआ करती थी। उन्होंने मेरे हिंदी में अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोधग्रंथ लिखने को लेकर संसद ठप्प कर दी थी। उनके असंख्य संस्मरण फिर कभी लिखूंगा। आज के दिन मैं यही कह सकता हूं कि स्वतंत्र भारत में डॉ. लोहिया जैसा प्रखर बौद्धिक, निर्भय, त्यागी और महान विपक्षी नेता कोई दूसरा नहीं हुआ। उन्हें ‘भारत रत्न’ देने की मांग करनेवाले मित्रों से मैंने कहा कि यह सरकारी सम्मान ऐसे-ऐसे लोगों को मिल चुका है कि जो लोहियाजी के पासंगभर भी नहीं हैं।
राजमाता विजयाराजे सिंधिया से भी मेरा परिचय 1967 में ही हुआ। गुना से आचार्य कृपालानी ने संसद का चुनाव लड़ा। उनकी पत्नी सुचेताजी ने मुझसे कहा कि दादा (आचार्यजी) और राजमाताजी, दोनों ने कहा है कि आप चुनाव-प्रचार के लिए मेरे साथ गुना चलें। इंदौर में सारे मध्यप्रदेश के छात्र पढऩे आते थे। मैं छात्र आंदोलनों में कई बार जेल काट चुका था। मालवा के लोग मुझे जानने लगे थे।
दिल्ली में मैं सप्रू हाउस में रहता था और कृपालानीजी सामने ही केनिंग लेन में रहते थे। लगभग रोज उनसे मिलना होता था। गुना में मुझे देखकर राजमाताजी बहुत खुश हुईं। उसके बाद उनके साथ मेरे संबंध निरंतर बने रहे। वे मेरे पुराने घर (प्रेस एनक्लेव) और पीटीआई (दफ्तर) भी अपने आप आ जाया करती थीं। मेरे घर पर राम मंदिर को लेकर मुस्लिम नेताओं से कई गोपनीय भेटें भी उन्होंने की।
वे मुझे कहती थीं कि मेरे लिए आप माधव (उनके बेटे) की जगह ही हैं। उनके कई संस्मरण फिर कभी। यहां इतना ही कह दूं कि भारत और पड़ोसी देशों के कई नरेशों, शाहों और बादशाहों से मेरे संपर्क रहे हैं, लेकिन जैसी सादगी, सज्जनता और आत्मीयता मैंने राजमाता में देखी, वह सचमुच दुर्लभ है। कई अन्य राज परिवारों की महिलाओं ने भी भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है लेकिन राजमाता विजयाराजे ने भारत के गैर-कांग्रेसी विपक्ष को मजबूत बनाने में जो योगदान किया है, वह अप्रतिम है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
देश की 14 फीसदी आबादी अभी भी कुपोषण का शिकार है, जबकि पांच वर्ष से कम आयु के करीब 35 फीसदी बच्चों का विकास अवरुद्ध है।
ललित मौर्य
2020 के लिए छपे ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने भारत को 107 देशों में 94 वें स्थान पर रखा है, जो स्पष्ट तौर पर दिखाता है कि भारत में खाद्य सुरक्षा की स्थिति कोई ज्यादा बेहतर नहीं है।हालांकि 2019 के मुकाबले स्थिति में कुछ सुधार जरूर आया है।गौरतलब है कि इससे पहले 2019 में छपे ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत को 117 देशों में 102 वें स्थान पर जगह दी गई थी।रिपोर्ट के अनुसार जहां 2000 में भारत को 38.9 अंक दिए गए थे।उनमें सुधार के देखा गया है और वो 2020 में 27.2 पर पहुंच गए हैं।इसके बावजूद अभी भी देश में भुखमरी की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है।
जबकि यदि दक्षिण एशिया में भारत के सबसे करीबी पड़ोसियों को देखें तो उसमें श्रीलंका की स्थिति सबसे बेहतर है जिसे 64 वें स्थान पर रखा गया है।इसके बाद नेपाल को 73, बांग्लादेश को 75 और पाकिस्तान को 88 वां स्थान दिया गया है।इन सभी देशों में हालात भारत से बेहतर हैं।
रिपोर्ट के अनुसार देश की 14 फीसदी आबादी अभी भी कुपोषण का शिकार है।जबकि यदि स्टंटिंग की बात करें तो स्थिति सबसे ज्यादा ख़राब है।आंकड़ों के अनुसार पांच वर्ष से कम आयु के करीब 35 फीसदी बच्चे स्टंटिंग से ग्रस्त हैं।गौरतलब है कि स्टंटिंग के शिकार बच्चों में उनकी कद-काठी अपनी उम्र के बच्चों से कम रह जाती है। हालांकि पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर में पिछले कुछ वर्षों में काफी सुधार आया है और वो 2020 में घटकर 3.7 फीसदी रह गई है।जबकि यदि वेस्टिंग की बात करें तो पांच वर्ष से छोटे करीब 17.3 फीसदी बच्चे अभी भी उसका शिकार हैं।
भारत में पोषण की स्थिति कोई बहुत ज्यादा अच्छी नहीं है। भले ही हम विकास के कितनी बड़ी बातें करते रहें, पर सच यही है कि आज भी भारत में लाखों लोगों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पा रहा है, वो आज भी दाने-दाने के लिए मोहताज हैं। हाल ही में छपी यूनिसेफ रिपोर्ट के अनुसार भारत में 50 फीसदी बच्चे कुपोषित है।
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, आईसीएमआर और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रेशन की ओर से 18 सितंबर 2019 को कुपोषण पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में देश में कम वजन वाले बच्चों के जन्म की दर 21.4 फीसदी थी। जबकि जिन बच्चों का विकास नहीं हो रहा है, उनकी संख्या 39.3 फीसदी, जल्दी थक जाने वाले बच्चों की संख्या 15.7 फीसदी, कम वजनी बच्चों की संख्या 32.7 फीसदी, अनीमिया पीड़ित बच्चों की संख्या 59.7 फीसदी, 15 से 49 साल की अनीमिया पीड़ित महिलाओं की संख्या 59.7 फीसदी और अधिक वजनी बच्चों की संख्या 11.5 फीसदी पाई गई थी।
पांच साल की उम्र से छोटे हर तीन में दो बच्चों की मौत का कारण कुपोषण
हालांकि पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत के कुल मामलों में 1990 के मुकाबले 2017 में कमी आई है। 1990 में यह दर 2,336 प्रति एक लाख थी, जो 2017 में 801 पर पहुंच गई है, लेकिन कुपोषण से होने वाली मौतों के मामले में मामूली सा अंतर आया है। 1990 में यह दर 70.4 फीसदी थी जोकि 2017 में 2.2 फीसदी घटकर, 68.2 पर ही पहुंच पाई है। यह चिंता का एक बड़ा विषय है, क्योंकि इससे पता चलता है कि पिछले सालों में किए जा रहे अनगिनत प्रयासों के बावजूद देश में कुपोषण का खतरा कम नहीं हुआ है।
जबकि भारत सरकार द्वारा किये गए राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण (2016 - 18) में जो आंकड़ें प्रस्तुत किए गए तो वो गंभीर स्थिति की ओर इशारा करते हैं।इसके अनुसार देश में 58 फीसदी नौनिहालों (6 से 23 माह के बच्चों) को भरपेट भोजन नहीं मिलता है।वहीं 93.6 फीसदी नौनिहालों के भोजन में पोषक तत्वों की कमी है।भारत में बच्चों की एक बड़ी आबादी कुपोषण का शिकार है, जिसके पीछे की बड़ी वजह बच्चों के आहार में विविधता की कमी है। आंकड़ें दर्शाते हैं कि भारत में 79 फीसदी नौनिहालों के भोजन में विविधता की कमी है। जबकि 91.4 फीसदी के भोजन में है आयरन की गंभीर कमी है।
इस रिपोर्ट में विश्व की जो तस्वीर सामने आई है वो सचमुच भयावह है।आंकड़ों के अनुसार दुनिया में 69 करोड़ लोग कुपोषित हैं। जबकि 14.4 करोड़ बच्चे स्टंटिंग यानी ऐसे बच्चे जिनका विकास अवरुद्ध हो जाता है। वहीं 4.7 करोड़ बच्चे वेस्टिंग का शिकार है जो निश्चित तौर पर कुपोषण की स्थिति को बयां करने के लिए काफी है। वहीं 2018 के आंकड़ों के अनुसार करीब 53 लाख बच्चों की मौत उनके पांचवे जन्मदिन से पहले हो गई थी।रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि जो स्थिति है उसको देखते हुए लगता है कि 2030 तक जीरो हंगर के लक्ष्य को हासिल करना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर है। रिपोर्ट के अनुसार 37 देश ऐसे हैं जो इस लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएंगे।
क्या सुधार के लिए नीतियों में बदलाव की है जरूरत
विडम्बना देखिए जहां एक और सरकार लगातार यह कहती रही है कि भारत में जो खाद्य उत्पादन हो रहा है वो देश में सभी का पेट भरने के लिए पर्याप्त है।इसके बावजूद देश की एक बड़ी आबादी आज भी खाली पेट सोने को मजबूर हैं।बच्चे कुपोषित हैं और महिलाएं अनीमिया का शिकार हैं।यदि देश में सब कुछ सही है तो कुपोषण की समस्या इतनी गंभीर क्यों है।बार-बार रिपोर्ट इस और इशारा क्यों करती है कि देश में खाद्य सुरक्षा की स्थिति बदतर है।क्या कहीं इसके पीछे हमारी नीतियां तो जिम्मेवार नहीं हैं जिनमें वास्तविकता में जरूरतमंदों को नजरअंदाज कर दिया जाता है।या फिर यह बदलती मानसिकता का नतीजा है जिसमें पोषण से ज्यादा पेट भरने को तवज्जो दी जाने लगी है, क्योंकि कुपोषण की यह समस्या सिर्फ गरीब तबके तक ही सीमित नहीं है।इसका शिकार देश का समृद्ध वर्ग भी है।
इसी को देखते हुए मार्च 2018 में नेशनल न्यूट्रिशन मिशन की स्थापना की गई थी।सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) भी ऐसी ही एक पहल थी, जिसका लक्ष्य देश के गरीब तबके को सस्ते दर पर भोजन मुहैया कराना था। हाल ही में सितम्बर 2020 को राष्ट्रीय पोषण माह के रूप में मनाया गया था।जबकि सरकार द्वारा खाद्य सुरक्षा की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए कृषि में सुधार लाने की बात कही जा रही है, लेकिन इन सबके बावजूद आंकड़े दिखाते हैं कि अभी भी हम 2030 तक जीरो हंगर के लक्ष्य को हासिल करने के काफी पीछे हैं। (downtoearth.org.in)
चंदन शर्मा
लंबी लड़ाई के बाद 1947 में जब भारत को आजादी मिली तो एक तरफ उम्मीदें थीं और दूसरी तरफ कई आशंकाएं। पश्चिमी दुनिया के एक बड़े हिस्से को लगता था कि भारत लोकतंत्र की राह पर ज्यादा दूर तक नहीं चल पाएगा। इसकी एक वजह तो उसकी असाधारण विविधता थी जिसके चलते कहा जाता था कि इस एक देश में कई देश हैं। दूसरा कारण यह था कि जिस मजबूत विपक्ष को लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के लिए बेहद जरूरी माना जाता है वह यहां नदारद दिखता था। इसी दौरान देश में कुछ हस्तियां हुईं जिन्होंने सत्ता का मोह छोडक़र उससे लोहा लिया और यह कमी पूरी की। इन व्यक्तित्वों ने तब सर्वशक्तिमान कहे जाने वाले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के कई निर्णयों को चुनौती दी। इनमें राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण या जेपी का नाम लिया जाता है।
जेपी तो 1953 से ही सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर दलविहीन लोकतंत्र और ‘सर्वोदय’ का प्रयोग कर रहे थे। ऐसे में वे लोहिया ही थे जिन्होंने विपक्ष क्या होता है और उसे क्या करना चाहिए, का पाठ भारतीय लोकतंत्र को सिखाया। अपने प्रयासों से उन्होंने आजादी के बाद एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस को अपनी मौत से ठीक पहले यानी 1967 तक पानी पीने पर मजबूर कर दिया। लेकिन ऐसा करने के लिए उन्होंने अपने मूल सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। राम मनोहर लोहिया की रचनात्मक राजनीति और अद्भुत नेतृत्व क्षमता का प्रभाव इतना दूरगामी रहा कि उनके जाने के करीब 20 सालों बाद ही उनके सिद्धांतों को मानने वाली कई पार्टियां भारतीय लोकतंत्र के पटल पर छाने लगीं। ‘सामाजिक न्याय’ की उनकी संकल्पना तो आज राजनीति का मूल सिद्धांत बन चुकी है। यह राम मनोहर लोहिया की ही दूरदर्शिता थी कि तमाम वंचित जातियों और वर्गों की धीरे-धीरे ही सही, सभी क्षेत्रों में हिस्सेदारी बढ़ रही है।
बताया जाता है कि लोहिया शुरू में नेहरूवादी थे और गांधीवादी वे बाद में बने। मतलब यह है कि शुरू में वे गांधी की तुलना में नेहरू से ज्यादा प्रभावित थे। बाद में नेहरू से उनका मोहभंग होता गया और गांधी के सिद्धांतों और कार्यनीतियों पर उनका भरोसा बढ़ता गया।
उच्च शिक्षा के दौरान जर्मनी में राम मनोहर लोहिया की राजनीतिक सक्रियता की जानकारी कांग्रेस के नेताओं विशेषकर तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को भी थी। इसलिए 1933 में पीएचडी करने के बाद देश लौटने पर नेहरू ने उन्हें कांग्रेस की विदेश मामलों की समिति में रखा था। अगले दो सालों तक उन्होंने भविष्य के भारत की विदेश नीति तय करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसलिए उन्हें भारत का पहला गैर-आधिकारिक विदेश मंत्री भी कहा जाता है। आजादी के बाद देश ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसे निर्धारित करने में लोहिया का महत्वपूर्ण योगदान था।
कांग्रेस मॉडल के तहत कांग्रेस का सदस्य रहते हुए कोई किसी अन्य संगठन का भी सदस्य बन सकता था। इसलिए समाजवादी विचारधारा से प्रभावित जयप्रकाश नारायण जैसे कई कांग्रेसी नेताओं ने मई 1934 में ‘कांग्रेस समाजवादी पार्टी’ की नींव डाली। लोहिया का इसमें महत्वपूर्ण योगदान था। लेकिन नेहरू से लोहिया के संबंध 1939 के बाद खट्टे होने लगे। संबंधों के खराब होने की शुरुआत दूसरे विश्वयुद्ध में भारत के शामिल होने के सवाल पर हुई। लोहिया चाहते थे कि अंग्रे्रजोंं की कमजोर स्थिति को और कमजोर करने के लिए भारत को युद्ध में शामिल नहीं होना चाहिए। उधर, नेहरू चाहते थे? कि भारतीय सेना इस महायुद्ध में अंग्रेजों का साथ दे।
भारत छोड़ो आंदोलन में भूमिका
9 अगस्त 1942 को जब भारत छोड़ोंं आंदोलन छेड़ा गया तो अंग्रेजों ने पूरे देश में कांग्रेस के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। ऐसा लगा अब यह आंदोलन विफल हो जाएगा। लेकिन कांग्रेस के भीतर जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेताओं ने आंदोलन का अगले दो सालों तक सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। आंदोलन की घोषणा होते ही मुंबई में एक भूमिगत रेडियो स्टेशन से आंदोलनकारियों को दिशा-निर्देश दिए जाने लगे थे। ऐसा करने वाले कोई और नहीं लोहिया थे। अंग्रेज जब तक उस रेडियो स्टेशन को ढूंढ़ पाते तब तक लोहिया कलकत्ता जा चुके थे। वहां वे पर्चे निकालकर लोगों का नेतृत्व करने लगे। उसके बाद वे जयप्रकाश नारायण के साथ नेपाल पहुंच गए। वहां पर ये लोग ‘आजाद दस्ता’ बनाकर आंदोलनकारियों को सशस्त्र गुरिल्ला लड़ाई का प्रशिक्षण देने लगे।
अंग्रेजों को दो सालों तक छकाने के बाद जेपी और लोहिया मई 1944 में पकड़ लिए गए। इन दोनों पर मुकदमा चला और वे लाहौर जेल में बंद कर दिए गए। यहां से वे लोग अप्रैल 1946 में ही छूट पाए। जेल में अंग्रेजों ने लोहिया को जमकर यातनाएं दी थीं जिससे उनका स्वास्थ्य बिगडऩे लगा था।
‘विभाजन के गुनहगार गांधी नहीं नेहरू’
लोहिया ने अपनी किताब ‘विभाजन के गुनहगार’ में बताया है कि दो जून 1947 की बैठक में वे और जेपी विशेष आमंत्रित सदस्य थे। बैठक का नजारा ऐसा था मानो नेहरू और पटेल पहले से सब कुछ तय कर आए हों। महात्मा गांधी के विरोध करने के बाद नेहरू और पटेल ने कांग्रेस के सभी पदों से इस्तीफा दे देने की धमकी दे दी। लोहिया लिखते हैं कि तब गांधी के पास विभाजन के प्रस्ताव पर मौन सहमति देने और विभाजन के गुनहगारों में शामिल हो जाने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प नहीं बच गया था।
सोशलिस्ट पार्टी का गठन और दमदार विपक्ष की भूमिका
गांधी के मरने के बाद कांग्रेस मॉडल को नेहरू ने 1948 में खत्म कर दिया। कांग्रेस के समाजवादी नेताओं को पार्टी का विलय कांग्रेस में करने या कांग्रेस छोडऩे का विकल्प दिया गया। लोहिया को तो नेहरू ने कांग्रेस पार्टी का महासचिव बनाने का प्रस्ताव दिया। लेकिन उन्होंने अन्य समा?जवादियों जिनमें जेपी भी शामिल थे, के साथ कांग्रेस छोडऩे का विकल्प चुना। यह समझते हुए भी कि कांग्रेस की छवि देशवासियों के दिलोदिमाग पर छप चुकी है और उसे हटाना आसान नहीं है, खासकर तब जब कोई स्थापित संगठन न हो और न ही मजबूत आर्थिक समर्थन। लेकिन लोहिया और उनके साथियों ने लोकतंत्र के हित मेंं विपक्ष की आवाज बनने और उसे बुलंद करने का फैसला लिया।
इसका परिणाम 1948 में ‘सोशलिस्ट पार्टी’ के गठन के रूप में हुआ। फिर 1952 में जेबी कृपलानी की ‘किसान मजदूर पार्टी’ के साथ विलय करके ‘प्रजा सोशलिस्ट पार्टी’ का निर्माण किया गया। हालांकि मतभेदों के चलते लोहिया ने 1955 में पीएसपी छोडक़र फिर से ‘सोशलिस्ट पार्टी’ को जिंदा करने का निर्णय किया।
लोहिया से सोशलिस्ट पार्टियों की इस टूट-फूट पर किसी ने पूछा तो उन्होंने व्यंग्य के लहजे में कहा था, ‘समाजवादी विचारधारा की पार्टियों और अमीबा में एकरूपता है। मतलब जैसे ही पार्टी मजबूत होकर बड़ी बनती है, अमीबा की तरह टूटकर फिर पहले की तरह छोटी हो जाती है।’ उनका यह कथन आज भी खुद को उनकी विरासत का उत्तराधिकारी कहने वाली पार्टियों पर लागू होता दिखता है।
लोकतंत्र को लोहिया की देन
लोहिया और अन्य समाजवादियों की पहले आम चुनाव में हार हुई। लेकिन यह हार इन नेताओं की अलोकप्रियता की वजह से नहीं बल्कि उनके संगठन के कांग्रेस की तुलना में कमजोर होने और कमतर आर्थिक संसाधन होने के चलते हुई थी। इसे मजबूत कांग्रेस को नियंत्रण में रखने की जिजीविषा ही कहेंगे कि इस हार के बाद कई सोशलिस्ट पार्टियां एकजुट हो गईं। इसी समय लोहिया के सिद्धांत पार्टी के अन्य नेताओंं को पच नहीं रहे थे। वे जैसे भी हो केरल में सत्ता में बने रहना चाहते थे। इसी बात पर लोहिया ने 1955 में पीएसपी छोडक़र फिर से सोशलिस्ट पार्टी को जिंदा करने का निर्णय लिया। इसके बाद वे घूम-घूमकर तमाम पिछड़ी जातियों के संगठनों को जोडऩे लगे। इसी सिलसिले में उन्होंने बीआर अंबेडकर से मिलकर उनके ‘ऑल इंडिया बैकवर्ड क्लास एसोसिएशन’ के सोशलिस्ट पार्टी में विलय की बात शुरू की। बातचीत पक्की हो गई थी कि दिसंबर 1956 में अंबेडकर का निधन हो गया। और उन्हें अपने साथ जोडऩे की उनकी मुहिम अधूरी रह गई। फिर भी ऐसे दूसरे संगठनों को जोडऩे का उनका प्रयास जारी रहा।
राम मनोहर लोहिया के ऐसे प्रयासों का ही नतीजा रहा कि 1967 कांग्रेस पार्टी सात राज्यों में चुनाव हार गई और पहली बार विपक्ष उसे टक्कर देने की हालत में दिखने लगा। इस चुनाव के बाद लोहिया ने तय किया कि वे जेपी को मुख्यधारा में वापस लाकर विपक्ष को और मजबूत बनाएंगे। पर वे अक्टूबर में चल बसे।
हालांकि राम मनोहर लोहिया का प्रयास करीब एक दशक बाद रंग लाया जब 1975 में जयप्रकाश नारायण राजनीति की मुख्यधारा में वापस लौटे। आपातकाल के बाद हुए 1977 के चुनाव में विपक्षी पार्टियों की एकजुटता रंग लाई और 25 सालों से केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी को हार का सामना करना पड़ा।
गांधी के बाद सबसे मौलिक चिंतक राजनेता
राम मनोहर लोहिया ने जर्मनी में रहते कार्ल माक्र्स और एंगेल्स को खूब पढ़ा। लेकिन उन्होंने पाया कि भारत के संदर्भ में कम्युनिस्ट विचारधारा अपूर्ण है। माक्र्सवाद ने साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के संबंधों की जो व्याख्या की थी लोहिया उससे असहमत थे। बल्कि वे तो उसे उल्टा मानते थे। मार्क्सवाद मानता था कि पूंजीवाद के विकास से साम्राज्यवाद पनपता है। इसलिए पूंजीवाद के खात्मे से ही साम्राज्यवाद का विनाश होगा। लोहिया ने बताया कि मामला असल में उल्टा है। वह साम्राज्यवाद ही है जिससे पूंजीवाद का विकास हुआ। इसलिए पूंजीवाद का नाश करने के लिए जरूरी है कि साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंका जाए। उन्होंने ब्रिटेन के उदय को भारत जैसे उपनिवेशों के शोषण से जोड़ दिया और कहा कि भारत को आजाद किए बगैर पूंजीवाद की जड़ें कमजोर नहीं हो सकती। इस तरह लोहिया ने पूंजीवाद के विनाश के लिए भारत जैसे उपनिवेशों की आजादी को सबसे महत्वपूर्ण बताया।
लोहिया ने माक्र्स के वर्ग-सिद्धांत की भारत के संदर्भ में नई व्याख्या दी। उनके अनुसार भारत का समाज औद्योगिक समाज नहीं है। इस समाज में असमानता की मुख्य वजह जाति रही है। यहां पर शोषण का कारण जाति व्यवस्था रही है। इसलिए यहां पर ‘बुर्जुआ’ और ‘सर्वहारा’ वर्गों की मौजूदगी मार्क्सवाद के सिद्धांतों की तरह नहीं है।
राम मनोहर लोहिया का मानना था कि भारत की सवर्ण जातियों को बुर्जुआ माना जाना चाहिए और तमाम वंचित वर्गों, जिनमें आदिवासी, दलित, अन्य पिछड़ी जातियां और यहां तक कि सभी समुदायों की महिलाएं भी शामिल हैं, को सर्वहारा माना जाना चाहिए। भारत के संदर्भ में माक्र्सवाद की लोहिया की यह व्याख्या और इसके परिणाम क्रांतिकारी रहे।
आलोचकों का भी मानना है कि साठ के दशक से भारत में समाजवादी विचारधारा के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों के मजबूत होने के पीछे लोहिया की इस अनूठी व्याख्या का ही योगदान रहा है। इसने जातिगत पहचानों को तो मजबूती दी ही है, राजनीति में वंचित जातियों की पैठ भी बढ़ाई है।
सप्तक्रांति सिद्धांत
हर तरह की विषमता को खत्म करने की दिशा में सप्तक्रांति सिद्धांत को भी राम मनोहर लोहिया की अनूठी देन माना जाता है। इस सिद्धांत में सात बिंदु थे। मसलन रंगभेद खत्म हो, जातिगत भेदभाव बंद हो, औरत और मर्द में कोई अंतर नहीं है,
राष्ट्रवाद को संकुचित नहीं व्यापक तरीके से समझा जाए, समाजवादी आर्थिक मॉडल श्रेष्ठ है, सभी देश निरशस्त्रीकरण के रास्ते चलें और भेदभाव से लडऩे का तरीका सत्याग्रह ही होना चाहिए।
नेतृत्व खड़ा करने में सफल
लोहिया के प्रयासों का ही असर रहा कि तमाम पिछड़ी जातियों में आत्मविश्वास विकसित हुआ। उन्होंने कमोबेश सभी पिछड़ी जाति के नेताओं को आगे बढ़ाया। उनके जाने के बाद उत्तर भारत के कई राज्यों में समाजवादी विचारधारा की सरकार बनी। इससे सामाजिक न्याय को अभूतपूर्व मजबूती मिली। किसी जानकार ने कहा है कि गांधी को छोड़ दिया जाए तो लोहिया का अनुसरण करने वाली पार्टियों और नेताओं की संख्या देश के इतिहास में सबसे ज्यादा है। (satyagrah.scroll.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया श्री मोहन भागवत के इस कथन पर बड़ी बहस चल रही है कि ‘‘दुनिया में सबसे ज्यादा संतुष्ट कोई मुसलमान हैं तो भारत के मुसलमान हैं।’’ यही बात किसी मुसलमान नेता या आलिम-फाजिल के मुंह से निकलती तो उसकी बात ही कुछ और होती लेकिन ऐसी बात निकले तो कैसे निकले ? यदि निकल जाती तो हमारे कई मुसलमान नेता उस पर काफिराना हरकत का फतवा जारी कर देते।
अब से करीब 10 साल पहले जब दुबई में मेरे एक भाषण के दौरान मेरे मुंह से यह वाक्य अचानक निकल पड़ा कि हमारे मुसलमान दुनिया के बेहतरीन मुसलमान हैं तो श्रोताओं के बीच बैठे अनेक अरब शेखों के चेहरों पर मैंने तीखा तनाव देखा तो मुझे तर्क देना पड़ा कि इस्लाम की नई विचारधारा के साथ-साथ उनकी धमनियों में हजारों साल की भारतीय संस्कृति रवां है। दोनों का सम्मिश्रण ही उन्हें सर्वश्रेष्ठ मुसलमान बनाता है लेकिन मोहन भागवत के तर्क का आधार दूसरा है और वह भी ध्यान देने लायक है। उनका तर्क है कि भारतीय मुसलमान भारत में अल्पसंख्यक हैं। जरा उन देशों के मुसलमानों से इनकी तुलना करो, जहां ये अल्पसंख्यक हैं।
मुसलमान तो ईसाई, बौद्ध, यहूदी और कम्युनिस्ट देशों में भी रहे हैं। सुन्नी देशों में शिया और शिया देशों में सुन्नी भी रहे हैं। पिछले 50 वर्षों में मुझे ऐसे दर्जनों देशों में पढऩे-पढ़ाने और रहने का मौका मिला है। उनकी स्थानीय भाषाएं भी जानता रहा हूं। उनसे अत्यंत आत्मीय और घनिष्ट संवाद भी होते रहे हैं। आपको सच कहता हूं कि जहां-जहां भी मुसलमान अल्पसंख्या में हैं, उनका जीना दूभर होता है। उसका एक कारण तो है मुसलमानों का पिछड़ापन और गरीबी लेकिन उससे भी बड़ा कारण है उनके प्रति उन-उन देशों के बहुसंख्यक लोगों में गहरी नफरत और अलगाव का भाव! चीन के शिनच्यांग प्रांत में उइगर मुसलमानों को खुलेआम नमाज़ नहीं पढऩे दी जाती और लाखों मुसलमान यातना-शिविरों में सड़ रहे हैं। मैं कई बार सोवियत संघ के उजबेकिस्तान आदि पांचों मुस्लिम गणतंत्रों में गया। वहां मैं देखता था कि उजबेक, ताजिक, कजाक, किरगीज और तुर्कमान लोगों को रुसी आकाओं की गुलामी करनी पड़ती थी। फ्रांस के मुसलमानों पर तरह-तरह की पाबंदियों का जिक्र मैंने पहले किया ही था। स्पेन की महारानी ईसाबेला ने 1501 में वहां के 5-6 लाख मुसलमानों को या तो ईसाई बना लिया या देश-निकाला दे दिया या कत्ल कर दिया।
जापान में एक-डेढ़ लाख मुसलमान हैं लेकिन वहां भी धर्म-परिवर्तन पर कड़ी नजर रखी जाती है। इन गैर-मुस्लिम देशों में कोई भी राष्ट्राध्यक्ष कभी कोई मुसलमान नहीं बना लेकिन भारत ऐसा एकमात्र गैर-मुस्लिम राष्ट्र है, जिसमें कई राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राज्यपाल, मंत्री और मुख्यमंत्री मुसलमान रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि भारत का प्रधानमंत्री भी किसी दिन कोई मुसलमान बन जाए। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत का औसत मुसलमान बेहद खुशहाल है। उसका हाल भी वही है, जो किसी गरीब हिंदू या ईसाई या सिख का है। किसी की बदहाली उसके मजहब की वजह से नहीं है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
हिमालय के चिपको आंदोलन की तरह कर्नाटक के पश्चिमी घाट में अप्पिको आंदोलन मशहूर हुआ।
-बाबा मायाराम
हिमालय के चिपको आंदोलन की तरह कर्नाटक के पश्चिमी घाट में अप्पिको आंदोलन मशहूर हुआ। वनों की कटाई के खिलाफ यह आंदोलन काफी हद तक सफल रहा। इसे न केवल लोगों का समर्थन हासिल हुआ बल्कि मीडिया में अच्छा कवरेज मिला, सरकारी महकमे में मान्यता मिली। वनों की कटाई पर तो रोक लगी, जो अब तक भी जारी है। पर्यावरण के बारे में व्यापक चेतना जागृत हुई। यह अस्सी के दशक की बात है।
पश्चिमी घाट में वनों की कटाई होने लगी थी। यह वन जैव विविधता के लिए जाने जाते हैं। लेकिन सरकार की वननीति के चलते यहां की जैव विविधता व पर्यावरण पर विपरीत असर पड़ रहा था। न केवल यहां के लोगों का जीवन कठिन हुआ बल्कि यहां के पीने के पानी और खेती की सिंचाई का भी संकट बढ़ने लगा। अप्पिको आंदोलन में पांडुरंग हेगड़े प्रमुख थे। हाल ही में मेरी उनसे छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में मुलाकात हुई। जहां हम दोनों वन अधिकार के सम्मेलन में शामिल होने पहुंचे थे। इस दौरान बातचीत की और उन्होंने मुझे अप्पिको आंदोलन की प्रेरणादायक कहानी सुनाई।
पांडुरंग हेगड़े ने दिल्ली विश्वविद्यालय से सामाजिक कार्य में गोल्ड मेडल हासिल किया। पढ़ाई के दौरान वे हिमालय के चिपको आंदोलन में शामिल हुए और कई गांवों में घूमे, कार्यकर्ताओं से मिले। चिपको के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा से मिले। उत्तराखंड में चिपको आंदोलन की शुरूआत पेड़ों से चिपककर उन्हें कटने से बचाया था। यह आंदोलन राष्ट्रीय – अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना। इसके प्रभाव से ही सरकार ने उत्तराखंड के बड़े क्षेत्र में हरे पेड़ों के कटान पर रोक लगाई गई।
पांडुरंग हेगड़े कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ा जिले के रहनेवाले हैं। सिरसी तालुका में उनका गांव कालगुंडीकोप्पा है। इस इलाके में अच्छा जंगल है। जब वे पढ़ाई के बाद उनके गांव लौटे तब तक घने जंगल उजाड़ में बदल रहे थे। हरे पेड़ कट रहे थे। इससे पांडुरंग व्यथित हो गए, उन्हें उनका बचपन याद आ गया। बचपन में वे खुद घर के मवेशी जंगल में चराते थे, तब बहुत घना जंगल देखा था। जंगल में कई फल, फूल, हरी पत्तीदार सब्जियां व कंद-मूल और औषधीय पौधे मिलते थे। जंगल से जलाऊ लकड़ी, चारा और पानी मिलता था। खेतों को उपजाऊ बनाने जैव खाद मिलती थी। हरे पेड़, शेर, हिरण,जंगली सुअर,जंगली भैंसा, बहुत से पक्षी और तरह- तरह की रंग-बिरंगी चिड़ियाएं देखी थीं। पर कुछ सालों के अंतराल में इसमें कमी आई।
उन्होंने ग्रामीणों के साथ मिलकर हस्तक्षेप करनी की सोची। सलकानी गांव से विरोध शुरू हुआ और फैला। यहां के करीब डेढ़ सौ जंगल तक पदयात्रा की, जिनमें महिलाएं व युवा शामिल थे। जंगल की कटाई हो रही थी। वनविभाग के आदेश से पेड़ों को कुल्हाड़ी से काटा जा रहा था। इसे रोकने में सफलता मिली। यह आंदोलन जल्द ही पड़ोसी सिद्दापुर तालुका तक फैल गया। तत्कालीन वनविभाग का कहना था कि वनों की कटाई पूरी तरह वैज्ञानिक है। लेकिन असल में यह विविध वनों की जगह सागौन व यूकेलिप्टस लगाने की योजना मुनाफा कमाने की दृष्टि से थी।
उत्तराखंड में चिपको आंदोलन की तर्ज पर यहां भी अप्पिको आंदोलन उभरा और फैला। सरकार व वनविभाग ने इसे रोकने की पूरी कोशिश की लेकिन इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। पांडुरंग हेगड़े ने इसमें सभी तबके को जोड़ा, राजनीतिक पार्टियों को भी शामिल किया। उनका कहना था कि हमारा मुख्य उद्देश्य वनों की रक्षा करना है, जो हमारे और सभी जीव-जगत के जीवन का आधार हैं। हमें इसमें सबकी भागीदारी की जरूरत है, पर किसी का एकाधिकार नहीं होना चाहिए।
हम वननीति में बुनियादी बदलाव चाहते हैं, जो कृषि में मददगार हो। जिस पर देश की बड़ी आबादी आश्रित है। ग्रामीणों का कहना था कि कृषि उपज घट रही है, क्योंकि जंगल कट रहे हैं। फसलों में रोग लग रहे हैं। आर्थिक हालत खराब हो रही है। कर्ज बढ़ रहा है। यहां 900 एकड़ का विविध वन था, जिसमें से लगभग आधा कट चुका था। और उसकी जगह सागौन व यूकेलिप्टस लगाया था। जलस्रोत सूख गए थे। बारिश भी कम हो रही थी। जंगल से फल, चारा, ईंधन, जैव खाद और रेशा मिलते थे, उनमें कमी आ रही थी। अप्पिको आंदोलन से वनों को फिर से हरा-भरा करने में मदद मिली और लोगों की आजीविका से इससे जुड़ी।
इस आंदोलन का असर हुआ कि कर्नाटक के पश्चिमी घाट में हरे पेड़ों को कटने पर सरकार ने रोक लगाई, जो अब भी जारी है। यह अहिंसक व गांधीवादी तरीके का आंदोलन था। पेड़ों से लोग चिपक गए थे। यह प्रतीकात्मक ही नहीं था, वास्तव में वनों की कटान रोकने के लिए वनों से लोग चिपक गए। बिलकुल उत्तराखंड के चिपको आंदोलन की तरह। कन्नड़ के अप्पिको का अर्थ भी चिपको होता है। इस आंदोलन से नया नारा निकला। उलीसू, बेलासू और बालूसू। यानी जंगल बचाओ, पेड़ लगाओ और उनका किफायत से इस्तेमाल करो। यह आंदोलन आम लोगों और उनकी जरूरतों से जुड़ा है, यही कारण है कि इतने लम्बे समय तक चल रहा है।
पर्यावरण संरक्षण के आंदोलन को आजीविका की रक्षा से जोड़ा। अप्पिको आंदोलन कई और इलाके में फैला। इसके कारण इस इलाके में आई कई विनाशकारी परियोजनाओं को रोकने में सफलता मिली। बड़े बांध, परमाणु बिजलीघर और पश्चिमी घाट में पर्यावरण व पारिस्थितिकीय बचाने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।
अगर हम आंदोलन पर नजर डालें तो 1983 से 1989 तक अप्पिको आंदोलन चला। 1986-87 में सीमेंट फैक्ट्री के खिलाफ आंदोलन चला, जो सफल हुआ। वर्ष 1992-94 तक शहद बनानेवाली मधुमक्खी को बचाने का आंदोलन चला और सफल रहा। इसके अलावा, बांध का विरोध, काली नदी बचाओ आंदोलन, पश्चिमी घाट बचाओ आंदोलन आदि हुए। इनमें कभी पूरी व कभी आंशिक सफलता मिली, और कभी सफलती नहीं भी मिली।
पांडुरंग हेगड़े का कहना है कि यह आंदोलन किसी संस्था, व्यक्ति का काम नहीं, यह जनसाधारण का आंदोलन था, जो आज भी कई रूपों में जारी है। गांव-गांव संपर्क, पदयात्राएं, रैली और जुलूस निकले, लेकिन यह सभी स्थानीय लोगों के सहयोग, संसाधन व भागीदारी से हुए। अप्पिको आंदोलन अहिंसक पर्यावरण का आंदोलन था, जो आज भी अलग- अलग तरह से जारी है। इस आंदोलन ने पर्यावरण रक्षा को लोगों की आजीविका की रक्षा से जोड़ा। गांव के टिकाऊ विकास, गांवों की आजीविका और दीर्घकालीन दृष्टि से पर्यावरण बचाने की राह अपनाई। अप्पिको आंदोलन का पर्यावरण रक्षा में एक महत्वपूर्ण योगदान है, जो अनुकरणीय व प्रेरणादायक है। (www.downtoearth.org.in)
कनक तिवारी
देश फिर 1974 जैसी परिस्थितियों से गुजर रहा है जिसके बाद जयप्रकाश नारायण की अगुआई में बगावती तेवर का एक सार्थक जन आंदोलन भूचाल बनकर आया था। उसे आज़ादी का दूसरा जनयुद्ध भी कहा गया था। आज देश कमजोर, अकुशल तथा फिसड्डी हो रहे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्रित्व में महंगाई और भ्रष्टाचार के कैंसर से जूझ रहा है। इतिहास, समझ और संस्कार का जाहिराना कारणों से अभाव है। हम सदियों से अन्याय सहन करने के इतने आदी हो गए हैं कि अत्याचारी शासकों के खिलाफ आंदोलन करने उठ खड़े नहीं होते। इक्कीसवीं सदी संविधान निर्माताओं की निष्कपट कमजोरियों के कारण जनजीवन को ध्वस्त करने की अभिशप्त सदी हो रही है। फिलहाल भ्रष्टाचार के खिलाफ जिच में महंगाई का बड़ा मुद्दा जुड़ सकता है। जनविरोध के अरुणोदय और सूर्योदय के बीच भी कई बार काले बादल क्षितिज पर छाए हैं। जन आंदोलनों की भ्रूण हत्याओं का भी एक इतिहास है। सरकारें तो अंधेरे में ही वार करती हैं।
विवेकानंद और गांधी के लेखे तथाकथित कुलीन वर्ग कायर, दब्बू, यथास्थितिवादी और अजगर की तरह सदियों से लेटा रहा है। यह भी सच है कि मध्य वर्ग और बुद्धिजीवियों ने देश के चरित्र में स्वतंत्रता के अणु का आविष्कार किया। गांधी और विवेकानंद उसी वर्ग के प्रतिनिधि रहे हैं। औपचारिक संगठन के बिना प्रस्तावित जनयुद्ध कैसे लड़ा जा सकता है? कृष्ण का क्रोध नहीं होता या पांडवों का या तिलक, गांधी और भगतसिंह का तो बार-बार इतिहास महाभारत कैसे देखता।
जनयुद्ध नकारात्मक घटित नहीं होता। बीमारी के उन्मूलन के लिए दवा ईजाद करना और सर्वसुलभ भी बनाना होगा। आज जनआंदोलनकारियों के पास वैकल्पिक राजनीतिक सोच का क्या दस्तावेज है? सत्ता संचालन का दुखद पहलू है कि गद्दीनशीन पार्टी के ईमानदार सदस्य भी अनुशासन के भय से बेईमान सरकार के खिलाफ मुंह नहीं खोल सकते। सत्ता की मूल्यहीनता के खिलाफ जंग एकांगी हो जाती है क्योंकि उसे व्यवस्था के अंदरूनी तत्वों का सहारा नहीं मिलता।
जे.पी. का नवनिर्माण आंदोलन मूलत: और शुरुआत में छात्रों की मुहिम के बतौर था। करोड़ों बेरोजगार नौजवान उन घरों और झोपडिय़ों में हैं जहां भुखमरी, गंदगी और जीवन की निराश सड़ांध है। ये चिकने चुपड़े ‘बाबा‘ लोग नहीं हैं जो आई. आई. एम., आई. आई. टी. अमेरिका, आस्ट्रेलिया, डिस्को, पब, वगैरह से परिचित हैं। इनका हाथ नहीं लगेगा तो देश को कुछ सैकड़ा लोग अपनी ईमानदारी और देशभक्ति के बावजूद खड़ा कर पाएंगे। छात्रों और युवजनों का फकत इस्तेमाल नहीं किया जाए। युवजनों को जनप्रतिनिधित्व क्यों नहीं सौंपा जाता? संविधान के मकसदों, मूल अधिकारों, नीति निदेशक तत्वों, नागरिक कर्तव्यों वगैरह की रोशनी में बड़ा वैकल्पिक फलक बनाये जाने की भी जरूरत है। उसकी शुरुआत जयप्रकाश नारायण ने की तो थी। उम्र और सेहत ने उनका साथ नहीं दिया।
‘हिंद स्वराज‘ के सपनों का भारत कैसे बनेगा? विवेकानंद का भगवा चोला धर्म गुरुओं को बहुत सुहाता है और संघ परिवार को भी। उनके धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को संविधान की समझ से समायोजित करने में घिग्गी बंध जाती है।
अकाली दल और कांग्रेस भगत सिंह के समाजवाद और धार्मिक नास्तिकता से कतराते हैं। कुछ चमकीली छवि के लोग आलिम फाजिल कहलाएं। हताश जनता का मनौवैज्ञानिक शोषण करें। बुद्धिजीवी स्वतंत्रता आंदोलन के रोल मॉडलों को सितारे कहकर स्कूली पाठ्यक्रम में टांकते रहें। तो ये मसीहा सूर्योदय जैसी रोशनी कहां बिखेर पाएंगे? भ्रष्टाचार का रिश्ता तो भारत की अणु नीति, अमेरिका, युवकों का विदेश पलायन, टैक्स भुगतती जनता की छाती पर विशेष आर्थिक क्षेत्र की मूंग का दलना, प्रधानमंत्री का भविष्यवक्ता नहीं होने का क्रूर दंभ, सेना में भ्रष्टाचार की सेंध, विकास की जनविरोधी अवधारणाओं, ऑपरेशन ग्रीन हंट, वेदांता वगैरह मौसेरे भाई बनकर मदद, झुग्गियों को चेचक कहती ‘एन्टीलिया‘, किसानों की आत्महत्याओं, श्रमिक यूनियनों का सफाया-सभी से है।
क्या भारत बदल सकता है? भ्रष्टाचार से घिरे केन्द्र ने आनन फानन में लोकपाल अधिनियम बनाया। वह इतना निरर्थक, लिजलिजा और परिणामविहीन है कि उसे नहीं लाया जाना ही बेहतर होता। केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सी.बी.आई और लोकायुक्तों आदि के कारण कोई नेता या बड़ा अफसर जेल नहीं जाता। इन संस्थाओं की गीदड़ भभकी से छोटे मोटे लोकसेवकों को कुर्बानी के बकरों की तरह जिबह कर दिया जाता है। जाल कमज़ोर होता है। मगरमच्छ फंसते ही नहीं हैं। सेवानिवृत्त जजों को लोकायुक्त या आयोगों के अध्यक्ष बनने के लिए मंत्रियों के बंगलों में जूते घिसते देखा जा सकता है। लोकायुक्त अधिनियम में शपथ पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाना होता है। भ्रष्टाचार तो बंद कमरों में अंजाम दिया जाता है। बेचारा शिकायतकर्ता सही भी हो लेकिन सबूत नहीं कर पाए तो उसे जुर्माना और जेल भुगतने के अतिरिक्त हत्या हो जाने का भय भी झेलना पड़ता है। महंगाई से जनता की कमर टूट गई है। अंगरेज हुक्मरानों की वारिस सरकार असहमति को राजद्रोह में तब्दील कर देती है। न्यायपालिका की नकचढ़ी प्रवृत्तियां नागरिक को अवमानना के चाबुक से मारना चाहती हैं। पुलिस झूठे एनकाउंटर में किसी भी भले आदमी को दीवार पर टंगने वाली तस्वीर में तब्दील कर देती है। सरकारी निजाम संयुक्तराष्ट्रसंघ सहित अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जाकर विनयशील भाषा में प्रलाप करता है कि हम दुनिया की सबसे बड़ी जम्हूरियत चला रहे हैं। 135 करोड़ से ज्यादा इंसानी पुर्जे बमुश्किल मानवीय सुख सुविधा और गरिमा से जीता जागता हिंदुस्तान हैं।
पता नहीं जनयुद्ध की ललकारों का क्या होगा? सरकारें अमरबेलों की तरह हर व्यक्ति और संस्था को चूस रही हैं। मीडिया मुगल सरकार के सहोदर बन गए हैं। कोयले की दलाली, बिजली के कारखाने, व्यापारिक कृषि और तरह तरह के लाइसेन्सशुदा तत्व मीडिया की दुनिया के सरताज हैं। कोई कितना भी ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग‘ लिखे या ‘हिन्द स्वराज‘ या ‘भारत की खोज‘ या ‘देशेर हालत‘ मीडिया तो जनसंवाद का विरोधी किरदार बन ही रहा है। एक मशहूर पत्रकार ने खबरिया चैनलों और अखबारी कॉलमों के लेखकों को पत्रकार नहीं स्टेनोग्राफर कहा है। सुपाड़ी लेकर कत्ल करा देना, वैचारिक विरोधियों को नक्सली करार देना, सत्ता प्रतिष्ठान के चुनौतीकारों को अपराध प्रक्रिया संहिता की अमूर्त धारा 151 में बांध देना, शराबखोरी का मुकाबला करती ग्रामीण और कस्बाई महिलाओं को उनके ही पतियों से पिटवाना भारतीय पुलिस और प्रशासन की इन्द्रधनुषी फितरतें हैं। अमेरिका जैसा दोमुंहा, क्रूर, लगभग असभ्य देश विकास‘ का नया विश्वविद्यालय है। संविधान, संसद, नौकरशाही, प्रधानमंत्री, अर्थतंत्र, न्याय प्रणाली और जनयुद्ध को भी यह फलसफा कभी न कभी तो समझना होगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान के वर्षों विदेश मंत्री रहे डॉ अब्दुल्ला अब्दुल्ला आजकल अफगानिस्तान की राष्ट्रीय मेल-मिलाप परिषद के अध्यक्ष हैं। वे अफगानिस्तान के लगभग प्रधानमंत्री भी रहे हैं। वे ही दोहा में तालिबान के साथ बातचीत कर रहे हैं। वे भारत आकर हमारे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री से मिले हैं। क़तर की राजधानी दोहा में चल रही इस त्रिपक्षीय बातचीत-अमेरिका, काबुल सरकार और तालिबान में इस बार भारत ने भी भाग लिया है।
हमारे नेताओं और अफसरों से उनकी जो बात हुई है, उसकी जो सतही जानकारी अखबारों में छपी है, उससे आप कुछ भी अंदाज नहीं लगा सकते। यह भी पता नहीं कि इस बार अब्दुल्ला दिल्ली क्यों आए थे ? अखबारों में जो कुछ छपा है, वह वही घिसी-पिटी बात छपी है, जो भारत सरकार कुछ वर्षों से दोहराती रही है याने अफगानिस्तान में जो भी हल निकले, वह अफगानों के लिए, अफगानों द्वारा और अफगानों का ही होना चाहिए? हमारी सरकार से कोई पूछे कि यदि ऐसा ही होना चाहिए तो आप और अमेरिका बीच में टांग क्यों अड़ा रहे हैं ? मुझे डर है कि हम अमेरिका की वजह से अड़ा रहे हैं। ट्रंप ने कह दिया है कि हमारी फौजें क्रिसमस तक अफगानिस्तान से लौट आएंगी तो फिर ट्रंप यह बताएं कि काबुल में क्या होगा? क्या उन्होंने तालिबान से गुपचुप हाथ मिला लिया है ?
तालिबान तो आज तक अड़े हुए हैं। दोहा में बातें चल रही हैं तो चलती रहें। तालिबान बराबर हमला और हल्ला बोल रहे हैं। आए दिन दर्जनों लोग मारे जा रहे हैं। तालिबान अपने मालिक खुद हैं। उनके कई गुट हैं। उनमें से ज्यादातर गिलज़ई पठान हैं। हर पठान अपना मालिक खुद होता है। जऱा याद करें, अब से लगभग पौने दो सौ साल पहले प्रथम अफगान-ब्रिटिश युद्ध में क्या हुआ था ? 16 हजार की ब्रिटिश फौज में से हर जवान को पठानों ने कत्ल कर दिया था।
सिर्फ डॉ. ब्राइडन अपनी जान बचाकर छिपते-छिपाते काबुल से पेशावर पहुंचा था। पठानों से भिडक़र पहले रुसी पस्त हुए और अब अमेरिकियों का दम फूल रहा है। अमेरिका अपनी जान छुड़ाने के लिए कहीं भारत को वहां न फंसा दे ? अमेरिका तो चाहता है कि भारत अब चीन के खिलाफ भी मोर्चा खोल दे और एशिया में अमेरिका का पप्पू बन जाए। जब तक पाकिस्तान से अमेरिका की छन रही थी, उसने भारत की तरफ झांका भी नहीं लेकिन उसके और हमारे नीति-निर्माताओं को पता होना चाहिए कि यदि भारत ने अफगानिस्तान में अमेरिका की जगह लेने की कोशिश की तो हमारा हाल वही होगा, जो 1838-42 में ब्रिटेन का हुआ था। 1981 में प्रधानमंत्री बबरक कारमल ने चाहा था कि रुसी फौजों का स्थान भारतीय फौजें ले लें। हमने विनम्रतापूर्वक उस आग्रह को टाल दिया था। अब भी हमें सावधान रहना होगा। आज भी अफगान जनता के मन में भारत का बहुत सम्मान है। भारत ने वहां अद्भुत सेवा-कार्य किया है। अमेरिकी वापसी के दौरान भारत को अपने कदम फूंक-फूंककर रखने होंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ओम थानवी
सिरफिरे हत्यारे नाथूराम गोडसे के लम्बे-चौड़े अदालती बयान को संघ परिवार ने ‘मैंने गांधी को क्यों मारा’ शीर्षक से खूब प्रचारित किया है। बयान गोडसे के कुकृत्य-बोध और विक्षिप्त सोच का प्रलाप भर है : ‘गांधीजी की अहिंसा उस शेर की अहिंसा है जो उस समय अहिंसा का पुजारी हो जाता है, जब वह हजारों गायों को खा-पीकर थक जाता है।’
मित्रवर अशोक कुमार पांडे ने अपनी किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ (राजकमल प्रकाशन) में गोडसे के प्रलाप को ज़्यादा तवज्जोह दिए बगैर गांधीजी की हत्या के पीछे के फिरकापरस्त सोच और षड्यंत्र की पड़ताल की है। दो अदालती जाँचों के अनेकानेक ब्योरे पेश करते हुए, जिनमें बाद में ‘वीर’ सावरकर को भी हत्या के षड्यंत्र में शरीक पाया गया। उन्होंने विभिन्न संदर्भों, बयानों और उद्धरणों से साबित किया है कि गांधीजी विभाजन के लिए कहीं से जिम्मेदार नहीं थे, न कभी उसके हक़ में रहे।
अनेक जरूरी सवाल लेखक ने संकीर्ण हिंदू संगठनों के सामने रखे हैं : बँटवारे के लिए मजबूर करने वाले जिन्ना पर कभी हमला क्यों नहीं किया? सावरकर ने हिंदू-मुसलमानों को दो अलग राष्ट्र कहा, उनका मुँह क्यों बंद नहीं किया गया? मुसलिम लीग की सरकार में श्यामाप्रसाद मुखर्जी कैसे शामिल हो गए? मुसलिम लीग के साथ हिंदू महासभा कैसे सरकार चला सकी? भारत छोड़ो आंदोलन के दमन में हिंदू महासभा के नेता आगे कैसे थे? वन्दे मातरम् की इतनी बात करते हो, गोडसे और आप्टे वह नारा लगाते हुए क्यों नहीं चढ़े फाँसी पर? वन्दे मातरम् को छोड़ संघ ने अपना न्यारा गीत प्रार्थना के लिए क्यों अपनाया?
कश्मीर के मामले में प्रचारित झूठ और भगत सिंह को बचाने के गांधीजी के प्रयासों के अनेक प्रामाणिक हवालों के साथ पांडे का (उचित) निष्कर्ष है : इस देश को बाँटने का कलंक तुम लोगों (कट्टर हिंदूवादी संगठनों) पर है, या मोहम्मद अली जिन्ना पर?
किताब में तसवीरें भी हैं, हालाँकि उनके विवरण पता नहीं क्यों नहीं दिए हैं। किताब पर विख्यात अमरीकी फ़ोटो-पत्रकार मार्गरेट बर्क-वाइट की लाइफ़ पत्रिका में छपी जानी-मानी तसवीर है; मार्गरेट का श्रेय भी रह गया है।
गोडसे का नाम मराठी में नथुराम, मराठी-हिंदी में नथूराम और हिंदी में नाथूराम रूढ़ है। यों तो मूल ही प्रमाण होता है, पर जब-तब ‘सुधार’ अधिक प्रचलित हो जाता है। पांडे ने नथूराम लिखा है। मेरा मानना है कि कभी-कभी रूढ़ हुए चलन को भी स्वीकार कर लेना चाहिए; लंदन, मास्को, व्ही. शांताराम, नाथूराम जैसे नामों की वर्तनी पीछे देखते तो वही नहीं, पर चलन को देखते बहुत स्वीकार्य है।
जरूरी बात : ऐसी किताबें आपके घर में रहनी चाहिए। मंगा लीजिए, जैसे मैंने मंगाई।
- Sonali Khatri
हाल ही में मध्य प्रदेश के आईपीएस अधिकारी पुरुषोत्तम शर्मा का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ जिसमें वह अपनी पत्नी की पिटाई करते नज़र आ रहे थे। वीडियो के वायरल होने के बाद और सोशल मीडिया के बढ़ते हुए दबाव की वजह से मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें निलंबित कर दिया है। जबकि वीडियो सामने आने के बाद पहले राज्य सरकार ने पुरुषोत्तम शर्मा का सिर्फ स्थानांतरण ही किया था। इस पूरे मामले में जब मीडियाकर्मियों ने उनसे बात कि तो उन्होंने कहा कि साल 2008 में उनकी पत्नी ने उनके खिलाफ पहली शिकायत की थी, बावजूद इसके वे इतने सालों से उनके साथ क्यों रह रही है? वह उनके पैसों पर सारी सुविधाओं का इस्तेमाल कर रही थी? जब उनसे उनके द्वारा अपनी पत्नी के साथ की गई मार-पीट के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने उसे नकारा नहीं, बल्कि ये कहकर सही ठहराया कि घर में तो इस प्रकार की छोटी-मोटी बातें होती रहती है। वह आगे यह भी कहते हैं कि यह हमारा पारिवारिक मामला है और वह कोई अपराधी थोड़े ही हैं।
अपनी पत्नी के साथ मार-पीट करना हमारे देश में कोई नई बात नहीं है। अपनी पत्नी को मारना और घरेलू हिंसा को हमारे देश के अधिकतर घरों में एक सामान्य बात समझी जाती है। पुरुषोत्तम शर्मा का यह मामला तो बस हमें यह याद दिला रहा है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ घरेलू हिंसा हमारे घरों में कितनी आम बात है। साल 2014 की यूनाइटेड नेशंस पापुलेशन फंड (UNFPA) की स्टडी बताती है हर दो में से एक भारतीय पुरुष यह मानता है कि परिवार को साथ रखने के लिए औरतों को घरेलू हिंसा झेलनी ही चाहिए। इस स्टडी में यह बात भी सामने आई कि 76.9 फ़ीसद पुरुष यह मानते हैं कि अगर औरत कुछ गलत करती है, तो मर्द के पास उसे पीटने का अधिकार है।
पुरुषोत्तम शर्मा का तर्क भी कुछ यही कहता हुआ नज़र आता है। उन्हें लगता है कि दूसरी औरतों के साथ हिंसा करना अपराध है और अपनी पत्नी के साथ हिंसा करना अपराध नहीं है। हमारे देश में महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा को अक्सर पारिवारिक मामला कहकर बात रफा-दफा कर दी जाती है। साल 2014 की टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस की क़्वेस्ट फॉर जस्टिस रिपोर्ट के अनुसार भारतीय पुलिस और कोर्ट, दोनों ही औरतों को कानूनी उपायों की मदद लेने की जगह, मामले को ‘सेटल’ करवाने की कोशिश करते है। ऐसे में मन में यह सवाल उठता है कि ऐसे क्यों? क्यों हमारे देशवासियों को यह लगता है कि अपनी पत्नी पर हाथ उठाना गलत नहीं है ? बावजूद इसके कि यह एक कानूनन अपराध है और घरेलू हिंसा को रोकने के लिए हमारे देश में घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 मौजूद है।
घरेलू हिंसा के सामान्यीकरण के पीछे कई वजहें हैं। एक बहुत बड़ी वजह है हमारे घर का माहौल और जिस तरीके से बच्चों को भारतीय घरों में बड़ा किया जाता है। भारतीय परिवारों में आमतौर पर यही माना जाता है कि पारिवारिक फैसले मुख्य रूप से पुरुष ही लेंगे। पैसा कमाने की जिम्मेदारी लड़कों/ पुरुषों की ही होती है, जबकि लड़कियों को यह सिखाया जाता है कि उनकी जिम्मेदारी बच्चों और पति का ख्याल रखने की है। इस प्रकार की व्यवस्था में लड़कियों/महिलाओं की आवाज़, उनके विचारों की कोई कदर नहीं होती। वे परिवार के पुरुषों के खिलाफ अपनी आवाज़ नहीं उठा सकती, फिर भले ही उनके खिलाफ होने वाली हिंसा का मुद्दा ही क्यों न हो और अगर वे आवाज़ उठाना भी चाहे तो उसके लिए उन्हें आर्थिक रूप से सक्षम होना बेहद जरूरी है, क्योंकि आवाज़ उठाने का मतलब है दुर्व्यवहार, परित्याग और अपमान के लिए तैयार रहना। इसी प्रकार के बर्ताव से बचने के लिए कई बार लड़कियां/ महिलाएं आवाज नहीं उठाना उचित समझती है। नतीजन, उनकी चुप्पी इस हिंसा को और बढ़ावा देती है। उनकी इस चुप्पी का मतलब पुरुष ये समझने लगते है कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है, जबकि वास्तव में इस चुप्पी की वजह महिलाओं/ लड़कियों की लाचारी होती है।
अपनी पत्नी को मारना, घरेलू हिंसा को हमारे देश के अधिकतर घरों में एक सामान्य बात समझी जाती है। पुरुषोत्तम शर्मा का यह मामला तो बस हमें यह याद दिला रहा है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ घरेलू हिंसा हमारे घरों में कितनी आम बात है।
हमारे घरों में लड़कियों/ औरतों को विनम्रता की आड़ में चुप रहना सिखाया जाता है। वहीं, दूसरी और लड़कों/ पुरुषों को मर्दानगी की आड़ में हावी होना और आक्रामक होना सिखाया जाता है। इस प्रकार के मूल्यों के साथ जब हमारे बच्चे बड़े होंगे, तो वे हिंसा को सामान्य ही समझेंगे न। इसके अतिरिक्त, भारतीय समाज में लड़कों को लड़कियों की तुलना में ज्यादा ध्यान और महत्व मिलता है। इस प्रकार का विशेष बर्ताव उनके अहंकार को बढ़ावा देता है। वे यह तक मानने लगते हैं कि वे जो भी करते हैं, वह सही ही होता है, फिर भले ही वह अपनी पत्नी पर हिंसा ही क्यों न हो। सार में कहे तो लड़कों को मिलने वाला ख़ास महत्व, लैंगिक भेदभाव लड़कों के अहंकार को बढ़ावा देता है। और जब भी कोई महिला/ लड़की उनके इस अहंकार को चुनौती देती है, तो वे उन पर हिंसा करके जवाब देते है।
ये कुछ कारण होते हैं जिस वजह से घरों में होने वाली हिंसा को सामान्य समझा जाता है। वजह चाहे कुछ भी हो, बात सिर्फ इतनी सी है कि कोई भी लड़की/ महिला के साथ घरेलू हिंसा करना एक कानून अपराध है। इसके अगर पुरुष ऐसा करते है तो वो दिन दूर नहीं जब देश की हर महिला/ लड़की घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ सड़कों पर नज़र आएगी। हमारे देश में घरेलू हिंसा को रोकने के लिए एक सामाजिक और जन आंदोलन की बेहद जरूरत है, तभी कुछ बदलाव हो सकता है। ज़रूरत है हमारे घरों में पलने वाले पितृसत्तात्मक और लैंगिक भेदभाव को खत्म करने की क्योंकि घरेलू हिंसा की जड़ वही हैं।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
- Eesha
11 अक्टूबर को ‘कमिंग आउट डे’ मनाया जाता है। ‘कमिंग आउट’ का मतलब है एलजीबीटीक्यू समुदाय के व्यक्तियों का बाहर की दुनिया के सामने अपनी लैंगिकता या लैंगिक पहचान का खुलासा करना। ‘कम आउट’ करना एक एलजीबीटीक्यू इंसान के जीवन का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि यही वो पल है जब ज़िंदगीभर अपना परिचय, अपना अस्तित्व छुपाए रखने के बाद हम दुनिया के सामने आकर यह बोलने की हिम्मत जुटा पाते हैं कि, “हां, मैं एलजीबीटीक्यू हूं और हम सम्मान और बराबर अधिकार की उम्मीद करते हैं।” इस दिन कई एलजीबीटीक्यू लोग दुनिया को अपनी पहचान बताते हैं या वह दिन याद करते हैं जब उनका यह राज़-राज़ नहीं रहा था।
‘कमिंग आउट’ आसान नहीं है और ऐसा करते हुए हम कई जोखिम उठाते हैं। आज भी कई देशों में एलजीबीटीक्यू होना गैरकानूनी है या कानूनन वैधता मिलने के बावजूद समाज को यह स्वीकार नहीं है। हर रोज़ एलजीबीटीक्यू व्यक्तियों पर जानलेवा हमले होते हैं, घर या नौकरी से निकाल दिया जाता है, उनका शोषण किया जाता है और मौलिक अधिकारों से वंचित किया जाता है। इन हालातों में अपनी पहचान दुनिया को बताना खतरे से खेलने से कम नहीं है।
इतना बड़ा और मुश्किल कदम उठाने के लिए आसपास के लोगों का साथ चाहिए होता है। उनकी सहानुभूति चाहिए होती है। हमारे ‘होमोफोबिक’ समाज और प्रशासन से यह सहानुभूति तो मिलने से रही, पर कई प्रगतिशील स्ट्रेट व्यक्ति जो खुद को एलजीबीटीक्यू के ‘साथी’ कहते हैं, वे भी कई पूर्वाग्रहों से ग्रसित होते हैं और एक कम आउट करनेवाले व्यक्ति के प्रति उनकी प्रतिक्रिया उस व्यक्ति को असहज या मानसिक तौर पर विचलित महसूस करवा सकती है।
अगर आप एक हेटरोसेक्शुअल व्यक्ति हैं जो अपने एलजीबीटीक्यू दोस्तों, परिवारवालों या सहकर्मियों का साथ देना चाहता है, आपका लक्ष्य यह होना चाहिए कि वे आप पर भरोसा कर पाएं और आप उन्हें भावनात्मक सहारा दे पाएं। इसके लिए अपने शब्द ध्यान से चुनने की बहुत ज़रूरत है ताकि आप जिन्हें समर्थन दे रहे हैं उनकी भावनाएं आहत न हों। यहां पर हम कुछ चीज़ों की बात करेंगे जो एक ‘कमिंग आउट’ एलजीबीटीक्यू व्यक्ति को बिल्कुल नहीं बोली जानी चाहिएं। ये हैं:
1. “ओह, तुम तो एलजीबीटीक्यू लगते ही नहीं हो!”
यह कहने का कोई मतलब ही नहीं होता। एलजीबीटीक्यू कोई भी हो सकता है और ऐसा ज़रूरी नहीं है कि उसे देखकर पता चले कि वो एलजीबीटीक्यू है। गैर-एलजीबीटीक्यू लोगों के मन में यह धारणा बना दी गई है कि सभी एलजीबीटीक्यू लोगों के चलने, बोलने और पहनावे का एक ही तरीका होता है जो कि बिल्कुल गलत है। एलजीबीटीक्यू एक विविध समाज है और इस परिचय का हर इंसान अपने में अलग और अनोखा है। इस पूरे समुदाय के बारे में मन में एक विशेष छवि बना लेना ठीक नहीं है। यह ध्यान में रखना बहुत ज़रूरी है कि एलजीबीटीक्यू कोई भी हो सकता है और किसी को देखकर बताया नहीं जा सकता कि वो है या नहीं।
2. “तुम सेक्स कैसे करते हो?”, “तुम शादी किससे करोगे?”, “तुम्हारे बच्चे कैसे होंगे?”
सबसे पहली बात तो यह है कि इस तरह के सवाल व्यक्तिगत प्रकृति के हैं। दूसरों की सेक्स लाइफ, उनके प्रेम या पारिवारिक जीवन से आपको कोई मतलब नहीं होना चाहिए, खासकर अगर वे आपके सहकर्मी हो। दूसरी बात यह है कि ऐसे सवाल आप किसी हेटरोसेक्शुअल से तो नहीं करेंगे। आप किसी हेटरोसेक्शुअल विवाहित दंपति से उनकी सेक्स लाइफ के बारे में तो नहीं पूछते होंगे। उम्मीद है कि आप एलजीबीटीक्यू व्यक्तियों से भी इसी शालीनता से पेश आएं। कई एलजीबीटीक्यू लोग अपने शरीर को लेकर असहजता महसूस करते हैं और इस तरह के सवाल उन्हें मानसिक पीड़ा पहुंचा सकते हैं, इसलिए अपने शब्दों को सावधानी से चुनना और ज़रूरी हो जाता है।
3. “तुम ऑपरेशन कब करवा रहे हो?” या “तुम ऑपरेशन के बाद अच्छे दिखोगे”
एक ट्रांस व्यक्ति सेक्स रीअसाइनमेंट सर्जरी कब करवाएंगे या करवाना चाहते भी हैं या नहीं यह उनका खुद का निर्णय है। क्योंकि यह उनके शरीर से संबंधित है, यह एक बहुत ही व्यक्तिगत मामला है और आपको इस बात पर टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं कि वे अपने शरीर के साथ क्या करते हैं। आपको यह मांग करने का भी कोई अधिकार नहीं कि वे आपके द्वारा तय किए गए सुंदरता के पैमानों के मुताबिक अपने शरीर का ऑपरेशन करवाएं।
4. “तुम बाईसेक्शुअल हो? क्या तुम ग्रुप सेक्स करना चाहोगी?” या “एक बार किसी मर्द के साथ रहकर तो देखो” जैसी अश्लील प्रस्तावनाएं
हेटरोसेक्शुअल पुरुष अक्सर लेस्बियन और बाईसेक्शुअल महिलाओं से इस तरह के प्रस्ताव करते हैं। उनके अनुसार हर बाईसेक्शुअल औरत हर वक़्त ग्रुप सेक्स के लिए तैयार रहती है और औरतें लेस्बियन सिर्फ़ किसी मर्द के अभाव के कारण ही होती हैं। यह धारणाएं ग़लत हैं और किसी महिला से इस तरह की बातें करना यौन उत्पीड़न के दर्जे में आता है। दूसरों का सम्मान करना सीखें और इस तरह की अश्लीलता से उन्हें शर्मिंदा या असहज महसूस न कराएं।
5. ट्रांसजेंडर व्यक्तियों से उनका ‘असली नाम’ पूछना, उन्हें ‘मिसजेंडर’ करना इत्यादि
एक ट्रांस व्यक्ति को उनके जन्म के समय जो नाम दिया गया था, वे उसका प्रयोग नहीं करते। बल्कि वे अपने लिए ऐसा नाम चुनते हैं जो उनके लैंगिक परिचय से मिलता-जुलता हो। उनके जन्म पर दिया गया नाम ‘डेडनेम’ कहलाता है क्योंकि उन्होंने उस नाम को नकार दिया है और वे उस नाम और परिचय से ताल्लुक नहीं रखना चाहते। ऐसे में उनसे उनका डेडनेम पूछना सरासर नाइंसाफ़ी है क्योंकि वे उस नाम को भुला देना चाहते हैं। उनका ‘असली नाम’ वही नाम है जो उन्होंने अपने लिए चुना है और आपको बताया है। उनके डेडनेम को उनका असली नाम कहना यह दिखाता है कि आप उनके ट्रांस परिचय को स्वीकार नहीं करते।
‘मिसजेंडर’ करने का मतलब है एक ट्रांस व्यक्ति को उस लैंगिक परिचय से जोड़ना जो उन्होंने नकार दिया है। अगर कोई ट्रांस व्यक्ति खुद को महिला बताते हैं पर उनके शरीर के आधार पर आप उन्हें पुरुष कहते हैं और बात करते वक़्त उनके लिए पुल्लिंग सर्वनामों और संज्ञाओं का प्रयोग करते हैं तो यह बेहद अपमानजनक और निंदनीय है और आपको यह नहीं करना चाहिए।
एक कमिंग आउट इंसान के लिए एक सुरक्षित माहौल बनाना आपकी ज़िम्मेदारी है ताकि वे बिना किसी डर और असहजता से अपनी ज़िंदगी जी सकें। एक सच्चे साथी की तरह एक सरल और सम्मानपूर्वक जीवन जीने में उनकी मदद कीजिए ताकि और एलजीबीटीक्यू व्यक्ति कम आउट करने की हिम्मत कर पाएं और सर उठाकर जी पाएं।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
विवेक मिश्रा
कैग ने कहा कि रिजर्व फंड की उदासीनता वित्त मंत्रालय की विफलता है। भारत की संचित निधि में रह जाने वाले उपकरों की राशि लोगों के भलाई वाली योजनाओं तक नहीं पहुंच रही है।
सरकार ने वित्त वर्ष 2018-19 में 35 अलग-अलग तरीके के उपकरों (सेस), लेवी और शुल्क से कुल 2,74,592 करोड़ रुपये वसूले लेकिन इस राशि का सही इस्तेमाल जिस तयशुदा काम के लिए होना चाहिए था, वह नहीं किया। केंद्रीय महालेखा एवं परीक्षक नियंत्रक (कैग) ने अपनी ताजा रिपोर्ट में यह बात कही है।
कुल वसूले गए 2,74,592 करोड़ उपकर में 35 फीसदी यानी 95,028 करोड़ रुपए वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के हर्जाने का है। 22 फीसदी यानी 59,580 करोड़ रुपए हाई स्पीड डीजल तेल और मोटर स्प्रिट में अतिरिक्त उत्पाद शुल्क है। वहीं, 51,273 करोड़ रुपए यानी 19 फीसदी सड़क एवं संरचना उपकर है। साथ ही 41,177 करोड़ यानी 15 फीसदी स्वास्थ्य एवं शिक्षा का उपकर भी शामिल है, जबकि सरकार ने इसमें से 1,64,322 करोड़ रुपये ही खास मकसद के उपयोग वाले रिजर्व फंड में डाले गए और शेष राशि भारत की संचित निधि में ही रह गए।
उपकर क्या हैं? दरअसल कर के ऊपर लगने वाले कर को ही उपकर कहते हैं। इन्हें सरकार वसूलती है ताकि इसका इस्तेमाल लोगों की भलाई, कल्याण या उन्नति से जुड़ी योजनाओं को बेहतर और मजबूत बनाने में किया जा सके। इसलिए उपकर के पैसे को योजना से जुड़े खास मकसद वाले रिजर्व फंड में संसद की अनुमति से डाला जाता है, ताकि संबंधित मंत्रालय, विभाग रिजर्व फंड का इस्तेमाल आसानी से कर सके।
कैग की रिपोर्ट करीब दो दशक से यह बात दोहराती रही है कि इन उपकरों का इस्तेमाल तय की गई जगह पर ही किया जाना चाहिए और इसके बावजूद सरकार उपकर की रकम का बहुत थोड़ा सा हिस्सा ही तयशुदा योजनाओं में खपाती है।
यह बात और हैरानी में डाल सकती है कि जिन 17 उपकरों की पहचान खत्म करके उन्हें 1 जुलाई, 2017 को वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में शामिल कर दिया गया, उनमें से कई उपकरों को सरकार आगे के वर्ष (2018-19) में भी वसूलती रही। इनमें किसान कल्याण कोष, स्वच्छ ऊर्जा, स्वच्छता अभियान जैसे कुल 9 उपकर शामिल हैं। इनको भी संचित निधि में ही रखा गया और रिजर्व फंड में नहीं डाला गया।
संचित निधि से रिजर्व खाते में उपकर के पैसे को ट्रांसफर न करने को लेकर कैग ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि इससे न सिर्फ राजस्व घाटे का, बल्कि यह भान भी होता है कि वित्त मंत्रालय खास मकसद वाले जरूरी रिजर्व फंड को संचालित करने में विफल है।
अव्वल तो उपकर को समाप्त किए जाने के बाद इसे जीएसटी से अलग वसूला नहीं जाना चाहिए था। वहीं, दूसरा यह कि यदि पीछे का हिसाब भी देखें तो इन उपकरों को सही ठिकाने पर नहीं पहुंचाया जाता, जिसे हम उदासीन रहने वाले रिजर्व खातों पर कैग की टिप्पणी से समझ सकते हैं।
सिंतबर,2020 में जारी कैग की रिपोर्ट यह बताती है कि योजना के तहत वसूले गए उपकर और लेवी को सबसे पहले तय रिजर्व फंड में डालना चाहिए ताकि उसका इस्तेमाल संसद द्वारा विशिष्ट मकसद के लिए किया जाए। बावजूद इसके करीब 2.75 लाख करोड़ में से 1,64,322 करोड़ रुपये ही रिजर्व फंड में डाले गए।
कैग ने यह भी कहा है कि रिजर्व फंड की उदासीनता यह यकीन करने में कठिनाई पैदा करती है कि सेस यानी उपकर और लेवी का इस्तेमाल उसी विशिष्ट काम के लिए किया गया जो कि संसद द्वारा निर्धारित की गई है।
1 जुलाई, 2017 को जीएसटी में शामिल किए जाने वाले कई उपकरों में कुल 9 ऐसे उपकर थे, जिन्हें 2018-19 में भी वसूला गया और जिनका इस्तेमाल नहीं किया गया। यानी इन्हें संचित निधि में रहने दिया गया। (नीचे देखें सारिणी)
संसद की इजाजत के बिना तिजोरी से निकला पैसा :
भारत की संचित निधि (सीएफआई) सरकार के समस्त आय-व्यय की पूंजी वाली तिजोरी है। और इस तिजोरी से पैसे बिना संसद की अनुमति के नहीं निकाले जा सकते। यह प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 114 की उप धारा 3 में वर्णित है। इसके बावजूद प्रावधान के विपरीत और संसद की इजाजत के बिना 2018-19 में सेंट्रल बोर्ड आफ डायरेक्ट टैक्सेस ने 20,566.33 करोड़ रुपए की निकासी की। - (कैग रिपोर्ट, पैरा 3.14)
1 जुलाई, 2017 को जीएसटी में मिलाए गए उपकर वर्ष 2018-19 में वसूली गई राशि (करोड़ रुपए)
कृषि कल्याण कोष 168.89
स्वच्छ ऊर्जा 4.88
संरचना 6.36
जूट 0.16
तंबाकू 0.07
रबड़ 4.27
चीनी 13.40
ऑटोमोबाइल 0.08
स्वच्छ भारत 216.40
कुल राशि 414.51
स्रोत : कैग रिपोर्ट, सितंबर 2020
दो दशक में 8,122 करोड़ में सिर्फ 10.82 फीसदी राशि भेजी
रिसर्च एंड डेवलपमेंट एक्ट, 1986 के तहत तकनीकी के आयात में वसूली गई लेवी की हालत और ज्यादा खराब है। इसे अप्रैल, 2017 में ही समाप्त कर दिया गया था, इसके बावजूद 2017-18 में 191.41 करोड़ और 2018-19 में 45.34 करोड़ रुपये वसूले गए।
तकनीकी आयात के तहत वसूले जाने वाले इस लेवी को टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट बोर्ड (टीडीबी) को भेजा जाना चाहिए था। जैसे कृषि कल्याण कोष का पैसा किसानों के हित वाली योजनाओं मे जाना चाहिए। हालांकि, सीएजी ने गौर किया कि 1996-97 से लेकर 2018-19 तक कुल 8122 करोड़ रुपये में महज 10.82 फीसदी यानी 879 करोड़ रुपये ही टीडीबी को भेजे गए।
सीएजी ने कहा कि कई वर्षों से रिपोर्ट में यह दोहराया जा रहा है लेकिन यह मुद्दा अब तक अनसुलझा है।
कैग ने अपनी रिपोर्ट में वित्त मंत्रालय को इन उपकरों को इनके मकसद वाली योजनाओं के ठिकाने पर ही भेजने की एक बार और सिफारिश की है। (downtoearth.org.in)
-ए जे प्रबल
प्रधानमंत्री मोदी को लेकर कहा जाता है कि वह चाहे जो भी निर्णय लेते हों, पर अब एक अच्छे श्रोता हैं, लेकिन योगी में सामने वाले की बात सुनने का जरा भी धैर्य नहीं है। उनके इसी स्वभाव के कारण मंत्रियों, अफसरों से लेकर पार्टी कार्यकर्ता तक उनसे दूर होते गए हैं।
अभी हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को फोन किया। तब मौर्य कोरोना से संक्रमित होने की वजह से क्वारंटाइन में थे और सरसरी तौर पर यही लगा कि प्रधानमंत्री ने उनका हाल-चाल जानने के लिए फोन किया होगा। लेकिन यूपी के राजनीतिक हालात पर नजर रखने वाले इस तर्क को बेमानी मानते हैं। वे बड़ा ही मौजूं सवाल करते हैं कि अगर ऐसा ही था तो मोदी ने संक्रमित होने वाले यूपी के अन्य मंत्रियों को फोन क्यों नहीं किया? वाकई, इसमें दम है, क्योंकि यूपी के दो मंत्रियों की कोविड से मौत हो चुकी है, लेकिन पीएम का फोन उनके परिवार वालों को नहीं गया।
फिर माजरा क्या था? साफ है, यह एक विशुद्ध सियासी कदम था और उद्देश्य मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उर्फ अजय सिंह बिष्ट को संदेश देना था। कभी मुख्यमंत्री पद के दावेदार रह चुके मौर्य ने भी इस बात को जगजाहिर करने में जरा भी देर नहीं लगाई कि प्रधानमंत्री ने उन्हें फोन किया। उन्होंने फौरन ही ट्वीट कियाः “इतने व्यस्त होने के बाद भी आदरणीय प्रधानमंत्री ने आज फोन कर मेरा हाल-चाल जाना और स्वास्थ्य की दृष्टि से जरूरी सलाह दी। मुझे हमारे सर्वोच्च नेता पर अभिमान है। जब उन्होंने मेरा हाल पूछा तो मेरे शरीर में ऊर्जा की नई लहर दौड़ गई।”
बहरहाल, इस संदर्भ में कुई जानकारों का तो स्पष्ट मानना है कि मुख्यमंत्री के रूप में योगी के दिन अब गिनती के रह गए हैं। हालांकि, कुछ लोग सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि बेशक एक के बाद एक तमाम मीडिया घराने योगी आदित्यनाथ को ‘सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री’ बता रहे हैं, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि योगी न तो सबसे अच्छे मुख्यमंत्री हैं और न ही सबसे सक्षम, फिर भी 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए बीजेपी के लिए योगी को हटाना आसान नहीं होगा।
आईआईटी इंजीनियर और जाने-माने लेखक चेतन भगत ने योगी के मुख्यमंत्री बनने पर टिप्पणी की थी कि यह तो ऐसा ही है जैसे क्लास के सबसे बदमाश बच्चे को क्लास का मॉनीटर बना दिया जाए। वैसे, यह जानी हुई बात है कि योगी 2017 में मुख्यमंत्री पद की दौड़ में कहीं नहीं थे। हकीकत तो यह है कि केंद्रीय मंत्री मनोज सिन्हा को शपथ लेने के लिए तैयार रहने को कह दिया गया था। लेकिन तब योगी की धमकियों के आगे बीजेपी ‘हाईकमान’ झुक गया था। आज भी गोरखपुर के बाहर उनका कोई खास निजी रसूख नहीं लेकिन अगर उन्हें कुर्सी छोड़ने को कहा गया तो वह बीजेपी के भीतर मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं।
महत्वाकांक्षी योगी की उम्र 48 साल है और वह खुद को भावी प्रधानमंत्री मानते हैं। स्वभाव से अक्खड़। लगता तो नहीं, पर प्रधानमंत्री मोदी को लेकर कहा जाता है कि वह अच्छे श्रोता हैं लेकिन योगी में सामने वाले की बात सुनने का जरा भी धैर्य नहीं। उनके इसी स्वभाव के कारण मंत्रियों, अफसरों से लेकर पार्टी कार्यकर्ता तक उनसे दूर हो गए हैं। उनके प्रशासन के अधिकारी कहते हैं कि योगी किसी की नहीं सुनते और जो चाहते हैं, वही करते हैं।
उनके व्यवहार से आजिज एक अधिकारी कहते हैं, “वह दिन-रात कभी भी, किसी भी समय, किसी को भी बुला सकते हैं। सारे फैसले वह खुद लेते हैं। हर चीज को अपने ही तरीके से सोचते हैं।” एक अन्य अफसर कहते हैं कि योगी चाहते हैं कि लोग उनके पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लें, लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में तो वह एकदम ही बेकार रहे हैं। योगी धर्मांध, धुर मुसलमान विरोधी और प्रतिशोधी व्यक्ति हैं, जो अपने दामन के दाग को मिटाने के लिए सत्ता का दुरुपयोग तो करते ही हैं, डॉ. कफील खान-जैसे निर्दोष व्यक्ति को फंसा दतेे हैं।
हाथरस गैंगरेप पीड़िता की घटना से पहले योगी ने विशेष सुरक्षा बल के गठन की घोषणा की है। इस बारे में पूरा विवरण अभी आना बाकी है, लेकिन अधिकारियों का कहना है कि यह मुख्यमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट है। यूपी पुलिस में पहले से ही एसटीएफ है और ऐसे में एक नए विशेष बल के गठन को लेकर तमाम तरह की आशंकाएं जताई जा रही हैं। कांग्रेस नेता द्विजेंद्र त्रिपाठी का मानना है कि इस बल का इस्तेमाल पार्टी और पार्टी से बाहर उनके खिलाफ मुंह खोलने वालों को डराने-धमकाने में भी किया जाएगा।
बहरहाल, योगी जो भी कहें, कानून-व्यवस्था के लिहाज से यूपी देश के चंद सबसे बुरे प्रदेशों में है। योगी ने मुख्यमंत्री बनने से पहले से लेकर बाद भी हिंदुत्व ब्रिगेड को बढ़ावा दिया, लेकिन वह अपने चहेतों को भी बचा नहीं पा रहे। आरएसएस सदस्य और बागपत के पूर्व बीजेपी अध्यक्ष संजय खोखर की अगस्त में गोली मारकर हत्या कर दी गई। फरवरी में हजरतगंज में मोटरसाइकिल सवार लोगों ने विश्व हिंदू महासभा अध्यक्ष रंजीत बच्चन की गोली मारकर जान ले ली। हिंदू महासभा नेता और हिंदू समाज पार्टी के अध्यक्ष को पिछले साल अक्तूबर में लखनऊ में उनके कार्यालय में गोली मार दी गई। एक-डेढ़ दशक पहले योगी ने जिस हिंदू युवा वाहिनी का गठन किया था, उसके नेता संजय सिंह की पिछले सितंबर में बरेली में चाकू गोदकर हत्या कर दी गई।
और तो और, योगी के गढ़ गोरखपुर में ही 14 साल के बच्चे की अपहरण के बाद हत्या कर दी गई। उसके पिता के पास जमीन बेचने से मिले पैसे थे और अपहरणकर्ताओं ने बच्चे के बदले फिरौती में एक करोड़ रुपये मांगे थे। जुलाई में 56 साल की महिला सोफिया बेगम ने मुख्यमंत्री आवास के बाहर खुद को आग लगी ली और बाद में उसकी मृत्यु हो गई। उस महिला की जमीन कुछ लोगों ने हड़प ली थी और वह पुलिस की निष्क्रियता की ओर मुख्यमंत्री का ध्यान खींचना चाह रही थी।
योगी सरकार में पुलिस की गाड़ियों पर तो जैसे भूत सवार हो जाता है जो अपराधियों की जान लेकर ही शांत होता है। गैंगस्टर विकास दुबे को गिरफ्तार कर कानपुर ला रही पुलिस की तीन गाड़ियों के काफिले में वही गाड़ी पलटती है, जिसमें विकास दुबे होता है और उसके बाद पुलिसिया कहानी के मुताबिक वह भागने की कोशिश करता है और पुलिस की गोली से मारा जाता है। गौरतलब है कि एक ही दिन पहले विकास दुबे के साथी कार्तिकेय की भी ‘मुठभेड़’ में मौत हुई थी। उसे भी गिरफ्तार करके पुलिस कानपुर ला रही थी कि रास्ते में टायर पंक्चर हो जाने से गाड़ी पलट गई और पुलिस की पिस्तौल छीनकर भाग रहे कार्तिकेय की मुठभेड़ में मौत हो जाती है। पूरी फिल्मी कहानी!
हालत यह है कि बीजेपी कार्यकर्ता भी मानते हैं कि योगी एक सामंतवादी शासक जैसा व्यवहार करते हैं। लंबे समय से बीजेपी के लिए काम करने वाले दो कार्यकर्ता दिल पर हाथ रखकर कहते हैं कि योगी के कामकाज से उन्हें बेहद निराशा हुई। वे भी इन अटकलों की पुष्टि करते हैं कि पार्टी के भीतर योगी को चलता किए जाने की बात हो रही है। हाथरस कांड में तो राज्य सरकार ने अपने आप को हंसी का पात्र ही बना लिया है।
पहले सरकार दावा करती है कि पीड़िता के साथ गैंगरेप की बात झूठी है। फिर पीड़िता के परिवार को मुआवजे की पेशकश की जाती है और लड़की ने जिन चार लोगों के नाम लिए, उन्हें पुलिस गिरफ्तार कर लेती है और अदालत में मामले की सुनवाई से पहले ही इन गिरफ्तार लोगों को बेकसूर बता दिया जाता है। जिस अमानवीय तरीके से पुलिस ने परिवारवालों के विरोध के बावजूद रात के अंधेरे में पीड़िता के शव का अंतिम संस्कार कर दिया, वह रहस्य को और गहरा देता है।
योगी की पुलिस राष्ट्रीय लोकदल नेता जयंत चौधरी और उनके समर्थकों की पिटाई कर देती है जब वे मीडिया से मुखातिब थे। वह आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह को स्याही हमले का शिकार होने से नहीं बचा पाती। जब उत्तर प्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट में यह दावा करती है कि यूपी और इसके मुख्यमंत्री को बदनाम करने के लिए अंतरराष्ट्रीय साजिश के तहत हाथरस कांड को अंजाम दिया गया, तो जैसे सारी हदें टूट जाती हैं। योगी खुद जाति से ठाकुर हैं और उनपर अक्सर अपनी जाति के लोगों की तरफदारी और समाज को जातीय आधार पर बांटने के आरोप लगते हैं।
जड़ की बात यह है कि 21वीं सदी में उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री के तौर पर सामंतवादी सोच वाले अनाड़ी की तुलना में एक योग्य व्यक्ति द्वारा शासित होना चाहता है। तो क्या योगी के लिए चला-चली की बेला है! (navjivanindia.com)
-अपूर्व भारद्वाज
चिराग ने बिहार के चुनाव में आग लगा दी है 15 दिन पहले लगभग एक तरफा लग रहे मुकाबले को खोल दिया है पूरे बिहार चुनाव को दिलचस्प बना दिया है बीजेपी शुरू से जानती थी कि इस बार नीतिश उसके कोर वोटबैंक की भरोसे चुनाव लड़ रहे है इसलिए उसने नीतीश को हराने के लिए यह गेम प्लान किया है 10 तारीख को जब चुनाव परिणाम आएंगे तो हो सकता है कि नीतीश बाबू की पार्टी सत्ता से वंचित हो जाए।
बिहार में नीतीश कुमार के विरुद्ध जबरदस्त हवा है लोग नीतीश से नाराज है वो सही विकल्प की तलाश कर रहे है इस बात को बीजेपी के थिंक टैंक ने भाप लिया है उसका मानना है कि उसका वोट ट्रांसफर जद (यू) के उम्मीदवारों की जीत के लिए जरूरी है, उसका दाँव सवर्णों के वर्चस्व वाली कई सीटों पर हैं। 2010 के विधानसभा चुनाव में, जब भाजपा और जद (यू) ने एक साथ चुनाव लड़ा, तो जद (यू) ने में 22.61 फीसदी वोट हासिल किए। 2015 में, जब जद (यू) ने राजद के साथ चुनाव लड़ा तो 17 फीसदी मत मिले इन दो विधानसभा चुनावों से पता चलता है कि जेडी (यू) ने एनडीए के साथ बेहतर प्रदर्शन किया है क्योंकि भाजपा के वोट उसे ट्रांसफर हो गए थे।
बेरोजगारी, शिक्षा, कानून व्यवस्था और खुद नीतीश कुमार बिहार में बड़ा मुद्दा है इस बात की झलक डिजिटल सर्च डाटा के ट्रेंड एनालिसिस से मिलती है यह विश्लेषण यह नही बताता की वोटर कौनसी पार्टी को वोट दे रहा है बल्कि यह बताता है कि कौनसी पार्टी उसके दिमाग में बार बार आ रही है और इसलिए वो उसको बार बार सर्च करता है इसे साइकोग्राफिकल विश्लेषण भी कहा जाता है जिसमे हर यूजर की एक प्रोफाइल बनाई जाती है जो उसका डिजिटल बिहेवियर बताती है।
पोस्ट में लगे ग्राफ का तुलनात्मक विश्लेषण करेंगे तो आपको पता चलेगा अप्रैल 2019 में में राजद को औसत 10 से कम प्रतिशत लोगों को सर्च किया था और सितंबर 2020 में राजद की ग्रोथ अचानक से बढ़ गई है अब उसे लगभग औसत 40 फीसदी लोग सर्च कर रहे है औऱ पिछले एक महीने का विश्लेषण करे तो राजद ने जबरदस्त छलांग लगाई है उसकी सर्च में 70 फीसदी उछाल आया है जो बहुत ही चौकाने वाला है क्योकि राजद का अधिकांश वोटर ग्रामीण है इसके विपरीत जद (यू) ने 90 प्रतिशत गिरावट देखी है इस विश्लेषण से साफ पता चलता है इस चुनाव में एक पार्टी और एक व्यक्ति का ग्राफ बहुत बुरी तरह नीचे जा रहा है
बिहार को जानने वाले जानते है कि वहां भ्रष्टाचार अब कोई मुद्दा नहीं रहा है इसलिए लालू को चारा चोर कहने वाला जुमला इस बार नहीं चलेगा। लोग नीतीश से ऊब चुके हैं और शायद यह बात नीतीश भी जान चुके हैं वो बीजेपी का चिराग दाँव भी जान चुके हैं इसलिए वो आक्रमक चुनाव प्रचार भी नहीं कर रहे हैं जब सारी पार्टियां चुनाव जीतने के लिए लड़ रही है वो चुनाव हारने के लिए लड़ रहे हैं क्योंकि उनकी अगली राजनीति इस हार से ही शुरू होगी और क्योंकि इसी से उनके अंदर का पुराना सपना जगेगा इसलिए इस चुनाव में सब जीतेंगे केवल नीतीश हारेगा!!
प्रेरणा
इन दिनों देशभर के किसान संसद द्वारा पारित तीन कानूनों को लेकर बेचैन हैं। इन कानूनों के विरोध में जगह-जगह धरना, प्रदर्शन जारी हैं और इनकी मार्फत सरकार से कहा जा रहा है कि वह इन कानूनों को वापस ले ले। क्या हैं, ये कानून? और किसानों पर किस तरह इनका असर होगा? क्या गांधी के ‘ताबीज’ से भी इन कानूनों का कुछ लेना-देना है? प्रस्तुत है, इस विषय की गहरी छानबीन करता प्रेरणा का यह लेख।
-संपादक
बात नवंबर 2019 की है। पिछले सात सालों से 16 देशों के बीच आार्थिक भागीदारी की संभावनाएं टटोलने के लिए वार्ता चल रही थी। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस पर पर्दा गिराते हुए कहा कि यह संधि न उनकी अंतरात्मा को कबूल है और न महात्मा गांधी का ‘ताबीज’ उन्हें इसकी इजाजत देता है। बस, हंगामा मच गया! हंगामा यह नहीं था कि नरेंद्र मोदी ने संधि से भारत को अलग क्यों कर लिया, ऐसा तो अब पूरी दुनिया में हो रहा है। हंगामा यह हुआ कि इस महात्मा गांधी का दुनिया के आर्थिक जगत से क्या लेना-देना और उनका ‘ताबीज’ आखिर क्या है? गांधी और उनका ‘ताबीज’ कुछ समय के लिए चर्चा में आ गया!
दुनिया के बाजार में गांधी का सिक्का भले न चलता हो, भारत में यह आज भी खोटा सिक्का तो नहीं ही बना है। यह सरकार देश-दुनिया के सामने गांधी का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करती है, लेकिन इस सिक्के के साथ एक बड़ी दिक्कत है। इसका जब भी इस्तेमाल करते हैं, लोग पूछने लगते हैं कि गांधी का यह सिक्का चलाने की योग्यता कितनी है? यही सवाल नरेंद्र मोदी को भी और उनके भारत को भी परेशान कर रहा है।
गांधी का ‘ताबीज’ कहता है कि यदि अपने किसी कदम के औचित्य के बारे में तुम्हें कोई संदेह हो तो जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसे याद करो और फिर अपने आप से पूछो कि जो कदम तुम उठाने जा रहे हो वह उस गरीब व कमजोर आदमी के हित में है क्या?
गांधी का यह ‘ताबीज’ यूं तो सभी सरकारी नीतियों पर लागू होता है, पर अब किसान और किसानी का बचे रहना इसी ‘ताबीज’ पर निर्भर करता है। अर्थशास्त्री कहते हैं कि 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में जिस स्तर के परिवर्तन हुए थे, उसी स्तर के परिवर्तन कृषि क्षेत्र में 2020 में हुए हैं। दोनों परिवर्तनों में एक समानता यह है कि ये दोनों निर्णय संसद द्वारा नहीं लिए गए हैं।
आज भी भारत की लगभग तीन चौथाई जनता पूरी या आंशिक रूप से कृषि पर निर्भर है। कृषि-क्षेत्र में आप कोई भी कदम उठाएंगे तो उसका सीधा असर इस आखिरी आदमी पर पड़ेगा ही, जो अपने या भाड़े के आधे एकड़ की खेती के आधार पर जीता या मरता है। तब यह जांचना जरूरी हो जाता है कि जो बदलाव किए गए हैं, क्या उनसे वह आखिरी आदमी अपने जीवन और भाग्य पर काबू कर पाएगा? क्या उस जैसे करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है?
पहले होता यह था कि किसान अपनी उपज बेचने के लिए ‘कृषि उत्पाद बाजार समिति’ (एपीएमसी) या मंडी में जाता था। सरकार भी यहीं न्यूनतम दर पर उसके उत्पाद खऱीदती थी। अब इन मंडियों को ख़त्म किया जा रहा है तथा किसान को छूट दे दी गई है कि देश में कहीं भी अपना उत्पाद बेचे। मंडी अब किताबों में तो रहेगी, लेकिन वहां लगनेवाले टैक्स की वजह से। वहां अब से कोई व्यापार नहीं होगा।
इसका क्या असर होगा, यह जानने के लिए जरूरी है, किसान अपनी फ़सल बेचता कैसे है-की जानकारी हो। गांवों में दलाल छोटे-मंझोले किसानों से फसल खरीद कर, अपना मुनाफा जोडक़र मंडी में बेचते हैं। बड़े किसान ही सीधे मंडी में पहुंचते हैं। जब तक आपके पास बहुत सारा अनाज न हो, तब तक उसे यहां-से-वहां ले जाने में जो नुकसान होता है, इसे उदाहरण से समझाती हूं। कोई आपसे एक किलो आलू खरीदे तो आप बीस रुपए किलो बेचेंगे, कोई थोक में 500 टन खरीदे तो आप उसे 10 रुपए किलो दे देंगे।
बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया भर में हज़ारों टन का व्यापार इसी नियम से करतीं हैं। ‘एक देश-एक बाज़ार’ भी ऐसे ही व्यापारियों के लिए बना है। ‘एपीएमसी’ ख़त्म होने का दूसरा असर यह होगा कि खेती-किसानी राज्यों के हाथ में नहीं रह जाएगी। कहीं का भी व्यापारी जब किसान से सीधे अनाज खरीदने लगेगा, तो न्यूनतम मूल्य के बोझे से भी सरकार पल्ला झाड़ लेगी।
कांट्रैक्ट खेती की चर्चा लंबे समय से हवा में है। सरकार ने इसे भी क़ानूनी शक्ल दे दी है। अब खऱीदने और बेचने वाले के बीच पहले ही अनुबंध हो जाएगा कि कैसी फसल की, किसान को क्या कीमत मिलेगी। सुनने में यह बहुत ही न्यायप्रद बात लगती है, लेकिन एक किसान और एक बड़ी व्यापारिक कंपनी या सेठ के बीच कोई समतापूर्ण अनुबंध हो सकेगा? बहुत कम किसान इस व्यवस्थाएं का लाभ ले सकेंगे। यह खेती विशेष प्रकार के टमाटर या आलू या फिर धान की ही होगी और उसे भी वे ही किसान उगा पायेंगे जिनके पास बड़ी ज़मीन होगी और सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था होगी। इनका अनुबंध व्यापारी के हित के खिलाफ न जाए, इसकी सावधानी वे अनुबंध में पहले से कर रखेंगे। किसान यहां भी हार जाएगा। सारी बातें किसान के लिहाज से इतनी जटिल हैं कि उसकी गर्दन फंस कर रह जाएगी।
सरकार ने ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम-1955’ को भी ढीला कर दिया है। इस अधिनियम से अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य-तेल, प्याज़, आलू जैसे आवश्यक उत्पादों के संग्रह पर सरकार को रोक लगाने का अधिकार था। संशोधित कानून में सरकार सूखा या बाढ़ जैसी आपात अवस्था में ही इसका उपयोग कर सकेगी।
बहस के लिए मान भी लें कि कानून को ढीला करने से कृषि क्षेत्र को फ़ायदा होगा, तो यह सवाल बचा ही रहता है कि फायदा किसे और कैसे होगा? उत्पादन-संग्रह की आजादी किसे होगी और उस आजादी का फायदा उठा सकने की क्षमता किसके पास होगी? खेती-किसानी का किस्सा तो यही है न कि फसल बहुत अच्छी होती है, तो दाम गिर जाते हैं - इतना गिर जाते हैं कि किसान अपना खर्च भी नहीं निकाल पाता। उसी गिरावट में व्यापारी मनचाहा संग्रह कर लेता है। फिर दाम ऊपर जाता है तो वह अपना स्टॉक बेच कर मनमाना कमा लेता है। इस नये कानून से किसान का संरक्षण कैसे होगा? ‘किसान उत्पामदक संगठन’ (एफपीओ) के माध्यम से संग्रह करने पर किसान को फायदा होगा? जरूर होगा, लेकिन उसमें इस कानून का योगदान तो नहीं है। तब यह कानून किसके लिए बदला गया? निश्चित ही उनके लिए जो जमाखोर हैं।
क्या फिर हम यह मानें कि ये सारे बदलाव बेकार हैं? ऐसा कभी होता है क्या? हर बदलाव के कुछ फायदे होते हैं। देखना यह होता है कि उस बदलाव की कीमत कौन चुकाता है और उसका फायदा किसे मिलता है? मुझे कोई शंका नहीं है कि यह बदलाव छोटे और मंझोले किसानों के हाथ से खेती को निकालने के लिए बनाया गया है। अगला कदम जमीन की मालिकी के कानून में बदलाव का होगा ! फिर उद्योग और किसानी के बीच की रेखा भी समाप्त हो जाएगी और हमारी कृषि-संस्कृति भी !
(सप्रेस)
सुश्री प्रेरणा राष्ट्रीय युवा संगठन से संबंद्ध हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के टीवी चैनलों की दुर्दशा पर कुछ दिन पहले मैंने लिखा था कि अमेरिका में 50 साल पहले मैंने पहली बार जब टीवी देखा था तो किसी अमेरिकी महिला ने मुझे कहा था कि ‘यह मूरख-बक्सा’ है। इसे मैं नहीं देखती। अब भारत के कुछ टीवी चैनल ऐसे खटकरम में रंगे हाथों पकड़े गए हैं कि अमेरिकियों का यह ‘मूर्ख-बक्सा’ हमारा ‘धूर्त-बक्सा’ कहलाएगा। मुंबई की पुलिस ने दावा किया है कि उसने ऐसे तीन टीवी चैनलों को पकड़ा है, जिन्होंने अपनी दर्शक संख्या (टीआरपी) बढ़ाकर दिखाने के लिए बड़ी धूर्तता की है। ये चैनल हैं ‘रिपब्लिक टीवी’, ‘फ़ख्त मराठी’ और ‘बॉक्स सिनेमा’।
इन तीनों टीवी चैनलों पर आरोप है कि इन्होंने अपनी दर्शक-संख्या को फर्जी तौर पर बढ़ाया है और इस धोखाधड़ी के जरिए मोटी कमाई की है। किसी चैनल की दर्शक-संख्या जितनी बड़ी हो, उन्हें उतना मोटा विज्ञापन मिलता है। जिस ‘हंसा एजेंसी’ के जरिए इन चैनलों ने यह धूर्तता की है, उसके कर्मचारियों के पास से पुलिस ने 28 लाख रु. नकद बरामद किए हैं। यह रकम उन दर्शकों को मिलनी थी, जो अपने टीवी बक्सों को 24 घंटे चालू रखें, चाहे वे उन्हें देखें या न देखें। ऐसे कई घरों को 400 रु. से 700 रु. प्रति माह के हिसाब से रिश्वत दी जाती रही। कई उन घरों में अंग्रेजी टीवी ‘रिपब्लिक’ चौबीसों घंटों चलता रहा, जिनमें कोई भी अंग्रेजी नहीं जानता। ये रहस्य उन दर्शकों ने स्वयं खोले हैं। मुंबई पुलिस ने ‘फख्त मराठी’ और ‘बॉक्स सिनेमा’ चैनलों के मालिकों को गिरफ्तार कर लिया है। आश्चर्य है कि अभी तक ‘रिपब्लिक टीवी’ के मालिक अर्णब गोस्वामी को गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया है ? अर्णब का कहना है कि ‘रिपब्लिक टीवी’ पर लगे आरोप झूठे हैं। इन चैनलों पर धारा 120, 409 और 420 लगेगी और यदि आरोप सिद्ध हो गए तो उन्हें सात-सात साल की जेल होगी। हो सकता है कि विज्ञापनदाता भी इन चैनलों से अपने पैसे वसूल करने के लिए इन पर मुकदमा चला दें। यह पत्रकारिता पर बड़ा भारी कलंक है।
पत्रकारिता की प्रतिष्ठा पर एक तथ्य से और आंच आई है। वह है, कुछ चैनलों द्वारा मार्च के महिने में तबलीगी जमात के खिलाफ बेलगाम विष-वमन! सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर भारत सरकार की तगड़ी खिंचाई कर दी है। अदालत का कहना है कि कोरोना महामारी को फैलाने के लिए तबलीगी जमात को जिम्मेदार ठहराने में टीवी चैनलों ने सारी हदें पार कर दीं।
भारत सरकार इन चैनलों की हिमायत किसलिए कर रही है ? इन चैनलों ने देश के सारे मुसलमानों को बदनाम करने की कोशिश की है और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का दुरुपयोग किया है। जमीयते-उलेमाए-हिंद की याचिका के विरुद्ध सूचना मंत्रालय ने अदालत के सामने अपनी सफाई पेश की थी। भारत के कुछ टीवी चैनलों का काम ठीक-ठाक है लेकिन ज्यादातर टीवी चैनल अपनी दर्शक-संख्या बढ़ाने के लिए कुछ भी दिखाने पर उतारु हो जाते हैं। यदि वे आत्म-नियंत्रण नहीं रखेंगे तो संसद को मजबूर होकर इस अभिव्यक्ति की अराजकता के विरुद्ध कठोर कानून बनाना पड़ेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
अखिलेश प्रसाद
अर्णब गोस्वामी हाथ हिलाकर दूसरे को ललकारते हैं। अरे फलाने अरे चिलाने! कहाँ छुपे हो? सामने आओ। कहाँ मुंह छुपाकर बैठे हो, तुम जहां भी हो हम खोज ले आएंगे। मेरे साथ पूरा भारत तुमको खोज रहा है। क्यों दुम दबाकर छिप गए। पूछता है अर्णब! और हम चुप नहीं बैठेंगे, जबतक आरोपी को बेनकाब नही कर देंगे।
अब उसी के चैनल का सीएफओ महाराष्ट्र पुलिस से छुपता फिर रहा है। महराष्ट्र पुलिस के समन ने उसे छुपने पर मजबूर कर दिया। सुप्रीम कोर्ट में अर्जी डाली है कि उसे महाराष्ट्र पुलिस के सामने पेश न होना पड़े। पुलिस को चिट्ठी लिखकर बता रहा है उसे 16 अक्टूबर तक पेश न होने की छूट दी जाए।
आखिर क्यों, भाई? दूसरे को अंगुली नचा नचा कर पलक झपकते ही अपने स्टूडियो में बुलाने वाले को आखिर सांप क्यों सूंघ गया। क्या हो गया! इसी को कहते हैं हवा टाइट होना। पुलिसिया कार्रवाई अच्छे अच्छे को तोड़ देता है। एक कहावत है। पुलिस से न दोस्ती अच्छी और न ही दुश्मनी भली।
सुप्रीम कोर्ट जाना, रिपब्लिक टीवी का अधिकार है, उसे जाना ही चाहिए। इसमे कोई गलत बात नहीं है। कोर्ट में सभी जाते हैं।
लेकिन, लेकिन!
यही जब दूसरे आरोपी जाते हैं तो अर्णव किस मुंह से गला फाड़ते हैं। उसे ललकारते हैं। आपके स्टूडियो आने की क्या बाध्यता है। कोई इतना मजबूर क्यों होगा कि तुम्हारे सामने पेश होगा। और तुम सिर्फ बकवास करोगे।
यह देश भारत है और यहाँ का कानून लोकतंत्र के माध्यम से चलता है। अर्णव गोस्वामी या कोई भी और पत्रकार जो स्टूडियो में बैठकर चीखता चिल्लाता है, वो एक किसी कंपनी का कर्मचारी है। तो फिर भारत का कानून मानने वाला नागरिक एक कम्पनी के कर्मचारी के सामने क्यों जवाब देने के लिए बाध्य होगा?
देश आजाद है, अब कंपनी राज नही चलेगा। अब चलेगा लोकतंत्र का राज्य। अब कानून का राज देश का संसद तय करेगा। किसी स्टूडियो चैनल का मालिक या कर्मचारी नहीं।
जिस तरह से आज यह चैनल पुलिस से आंख मिचौली खेल रहा है और अपने ऊपर लगे आरोप को बेबुनियाद बता रहा है। सभी आरोपी का शुरुआत में यही वर्जन रहता है। बाकी इंसाफ मिलने में सालों साल लग जाते हैं। हो सकता है कि यहाँ भी पुलिस सत्ता के दबाव में यह सब कर रही हो, लेकिन यही बात तो दूसरे के वक्त में भी आपको सोचना चाहिए। यही चैनल है जो पीड़िता के खिलाफ ही जहर उगलता है। शोषकों के पक्ष में इंटरव्यू करता है। आज जब इनको सामना हुआ तो भभक रहे हैं।
-गिरीश मालवीय
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के कोरोना पॉजिटिव होने से ज्यादा उनके इतने जल्दी ठीक होने से दुनियाभर में लोग हैरान हैं। लगभग हफ्ते भर में ही वह रिकवरी कर गए लोगो के मन मे सवाल है कि नॉर्मल कोरोना मरीज को ठीक होने में कम से कम तीन हफ्ते का समय लग रहा है तो आखिरकार ट्रंप एक ही हफ्ते में कोरोना से कैसे रिकवर हो गए ?
मैं शुर से ही कोरोना में बिग फार्मा के रोल के बारे में आपको आगाह कर रहा हूँ....... ट्रम्प के जल्द ठीक होने का संबंध भी बिग फार्मा के हितरक्षण से ही जुड़ा हुआ है ट्रम्प ने स्वंय एक वीडियो के जरिए यह बताया कि किस दवाई की वजह से वह कोरोना से इतनी जल्द रिकवर हो गए। ट्रंप के मुताबिक, 'कोरोना के इलाज के लिए कई दवाओं के साथ Regeneron की REGN-COV2 एंटीबॉडी ड्रग भी दी गई। उन्होंने बताया कि यह सबसे अहम थी और इससे उन्हें काफी अच्छा महसूस हुआ। राष्ट्रपति ने वीडियो में कहा, 'मैं चाहता हूं कि आपको भी वही दवा मिले जो मुझे मिली और मैं उसे मुफ्त में उपलब्ध कराना चाहता हूं। हम इसे जल्द से जल्द अस्पताल में उपलब्ध कराएंगे।'
बिल गेट्स भी इस तरह की एंटीबॉडी दवाओ को प्रमोट कर रहे हैं कह रहे हैं कि ये दवाएं कोविड -19 से मृत्यु दर को काफी कम कर सकती हैं।
अब यह नयी दवा क्या है यह भी समझ लीजिए....इस दवा में चूहे और कोरोना से रिकवर हुए मरीज की एंटीबॉडी का इस्तेमाल किया गया है। कम्पनी का दावा है, दोनों एंटीबॉडी मिलकर कोरोना को न्यूट्रिलाइज करने में मदद करेंगी। यह एक तरह से आर्टिफिशियल एंटीबॉडी है। जो शरीर की कोशिकाओं में मौजूद कोरोना वायरस से चिपकर कर उसपर आत्मघाती हमला करती है. इससे कोरोनावायरस की वो शक्ति खत्म हो जाती है, जिससे वह स्वस्थ्य कोशिकाओं को संक्रमित कर सके. दोनों एंटीबॉडी कोरोना वायरस से बाहरी हिस्से में लगे कांटेदार प्रोटीन को पिघला कर अंदर के आरएनए को खत्म कर देती हैं.
अभी तक कोरोना का सबसे कारगर इलाज कोवैलेसेंट प्लाज्मा थेरेपी को माना जाता है लेकिन प्लाज्मा थेरेपी को जानबूझकर पीछे किया जा रहा है, ICMR भी प्लाजा थेरेपी के बारे में अपने रिजल्ट घोषित नही कर रहा है, WHO भी प्लाज्मा थेरेपी के फायदों के बारे में पूछे जाने पर टाल जाता है
प्लाज्मा थेरेपी में कोरोना की बीमारी से ठीक हुए इंसान के शरीर से प्लाज्मा यानी एंटीबॉडी लेकर बीमार व्यक्ति को दिया जाता है, ताकि कोविड19 वायरस से बचाने वाली एंटीबॉ़डी उसके शरीर में भी पैदा हो और वह बीमारी को हरा सके.
इस नयी ऐंटीबॉडी दवा का मूल भी यही है बिग फार्मा चाहता है कि कोरोना के इलाज में प्लाज्मा थेरेपी को हतोत्साहित किया जाए लेकिन उसी तकनीक से बनी ऐंटीबॉडी दवा का खूब प्रमोशन किया जाए ताकि बिग फार्मा कंपनियों को जबरदस्त फायदा पुहंचे.....
इस दवा पर भी सवाल उठे है डेलीमेल की एक रिपोर्ट के अनुसार जिन दो मरीजों का ट्रीटमेंट इस REGN-COV2 ड्रग से हुआ है, उनमें साइडइफेक्ट दिखे हैं। लेकिन, अमेरिकी कम्पनी रीजेनेरन ने यह जानकारी सार्वजनिक नहीं की।
इस नई एंटीबॉडी कॉकटेल थेरेपी के लिए अमेरिका पहले ही जुलाई में ऑपरेशन वार्प स्पीड के तहत इस दवा की निर्माता कंपनी रीजेनेरॉन फार्मा के साथ करार कर चुका है. अमेरिका ने इस दवा कंपनी के साथ 450 मिलियन डॉलर्स यानी करीब 3367 करोड़ रुपए की डील की है. यानी डील भी पहले ही की जा चुकी है
अब असली बात समझिए यानी बिग फार्मा से जुड़े
दरअसल इस दवा को बनाने वाली कम्पनी रीजेनेरॉन का ज्यादातर काम फ्रांसीसी दवा कंपनी सनोफी के साथ साझेदारी में रहा है। ‘न्यूयार्क टाइम्स’ के मुताबिक सनोफी में राष्ट्रपति ट्रम्प से जुड़े शेयरधारक और वरिष्ठ कार्यकारी अधिकारी भी हैं स्वंय ट्रम्प का भी फ्रांस की दवा कंपनी सनोफी में थोड़ा निजी वित्तीय हित है........
साफ है कि जहाँ से ओर जिससे बिग फार्मा कंपनियों को फायदा पुहंचे उसी का मीडिया ओर राजनेता ओर परोपकारी लोग प्रमोशन करते हैं महँगी दवाओं को ही बढ़ावा दिया जाता है.
-राकेश दीवान
लोकतंत्र, संविधान, विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, मीडिया सरीखे अच्छे-अच्छे शब्दों से पहचानी जाने वाली अच्छी-अच्छी संस्थाओं की एन नाक के नीचे लोकतंत्र की लुटिया डूब रही है। आठ-सवा आठ महीने पहले ज्ञात-अज्ञात कारणों से पाला बदलने और नतीजे में विधायिकी गंवाने वाले राजनेताओं को अब फिर से चुनाव का सामना करना पड रहा है। सन् 1950 की 26 जनवरी को लागू किए गए संविधान के बाद शायद यह पहला ही मौका है जब खुल्लमखुल्ला लालच देकर बहुमत की सरकार डुबोई गई है। कथित खटपाटी लेकर राज्य के बाहर के होटलों, रिसार्टों में डेढ-दो हफ्ते मजा लूटने के बाद जब कांग्रेस छोडकर भाजपा में समाहित हुए विधायक वापस भोपाल लौटे थे तो उनमें से कई के खींसे में मंत्रीपद और कुछ के पास सरकारी निगमों, मंडलों की मुखियागिरी के अलावा कांग्रेस के खिलाफ गालियां थीं।
मजा यह है कि कोविड-19 महामारी तक को अनदेखा करके मार्च में करीब दो दर्जन विधायकों को ‘लोकतंत्र की रक्षा करने’ की खातिर अपने अल्पमत के पाले में मिलाने वाली ‘भारतीय जनता पार्टी’ और बहुमत गंवाकर गद्दी से उतारी जाने वाली ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस,’ दोनों राजनीतिक जमातें कुछ इस अदा और उत्साह से फिर चुनाव-चुनाव खेलने में लग गई हैं, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। जाहिर है, राज्य की गद्दी पर चढती-उतरती भाजपा-कांग्रेस के लिए एकमात्र सत्य चुनाव है जिसे राजनैतिक जमातें बहु-विध व्याख्यायित करती रहती हैं। इनमें एक व्याख्या यह है कि अधिकांश सीटों पर होने वाले चुनावों में पिछली बार के ही प्रतिद्वंद्वी होने और उनकी सिर्फ पार्टियां और झंडे बदलने के बावजूद वे संविधान की नाक के नीचे चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जी-जान से जुटे हैं। इनमें से कई ऐसे भी हैं जिन्होंने विधायिकी की खातिर कई-कई बार राजनीतिक पाला बदला है और कईयों ने तीन-तीन बार एक ही पार्टी से चुनाव लडकर जीतने के बाद मंत्रीपद के लालच में अब समूची पार्टी ही बदल ली है।
लेकिन इस लोकतांत्रिक धतकरम में कुछ ऐसा भी हुआ है जिसने संसदीय लोकतंत्र की नींव हिलाकर रख दी है। सरल, सीधी नजरों से देखें तो अव्वल तो हमें यही दिखाई देता है कि कोई भी तुर्रमखां कुछ करोड रुपयों की रकम लुटाकर किसी भी अच्छी –खासी, बहुमत सम्पन्न सरकार को कुलटइयां खिला सकता है। आखिर चार्टर्ड हवाई जहाज, एसी-वॉल्वोे बसों और बेंगलुरु के मंहगे रिसार्ट में ठहरने जैसे ज्ञात और कई कारणों से अब तक अज्ञात खर्चों की दम पर ही तो कमलनाथ की बहुमत की कांग्रेसी सरकार डुबोई गई थी? याद रखिए, यह कमाल केवल भाजपा ही जानती और वापर सकती है, ऐसा नहीं है। ठीक यही करने में कांग्रेसियों और दूसरी पार्टियों ने भी खासी वर्जिश कर रखी है और भाजपा की तर्ज पर वे भी इसे ‘लोकतंत्र की रक्षा’ और ‘दम घुटने के नतीजे’ आदि कहकर कभी भी आजमा सकते हैं। वैसे भी राज्य के मौजूदा चुनावों में आपस में लडती दिखती किसी भी पार्टी ने पाला बदलकर लोकतंत्र की लुटिया डुबोने का अप्रिय प्रसंग शिद्दत से नहीं उछाला है। तो क्या बडी मेहनत-मशक्कत के बाद जमाई जाने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था को यूं ही, चंद रुपयों की खातिर मटिया-मेट करने दिया जा सकता है?
लोकतंत्र के संविधान में माना जाता है कि पैसों की दम पर सत्ता हथियाने के इस खुले-खेल-फर्रुख्खाबादी के बावजूद राजनेताओं को चुनाव की मार्फत अपने बहुमत की तस्दीेक करनी ही पडती है। जाहिर है, दस महीनों के अंतराल में होने वाले गैर-जरूरी चुनावों में आम नागरिकों से वसूली जाने वाली टैक्स की राशि बर्बाद होती है। पैट्रोल, डीजल जैसी जरूरी और शराब जैसी गैर-जरूरी जिन्सों की आसमान छूती कीमतें गैर-जरूरी चुनावों में होने वाले खर्चों की वजह से भी बढती हैं। सवाल है कि क्या कांग्रेस की जगह भाजपा के आने से आम नागरिकों के दैहिक-दैविक-भौतिक तापों में कोई विशेष बदलाव आ सकेगा? क्या कमलनाथ की जगह आई शिवराजसिंह की सरकार राज्य के नागरिकों की न्यूनतम, बुनियादी जरूरतों को पूरा कर पाएगी?
मध्यप्रदेश विधानसभा की अट्ठाइस सीटों के मौजूदा चुनाव में शिवराजसिंह तीन-साढे तीन हजार करोड के विकास कार्यों की घोषणा कर चुके हैं, लेकिन 2014 में लोकसभा चुनावों में इसी तरह के वायदों को ‘चुनावी जुमले’ बताकर खुद उनकी पार्टी के सरगनाओं ने ऐसे वायदों की भद्द पीट दी थी। कमलनाथ ने भी अपने सवा साल के राज में शिवराजसिंह से भिन्न कोई खास तीर मारे हों, ऐसा दिखाई तो नहीं देता।
पिछले साल भर चली मध्यप्रदेश की राजनीति बताती है कि असल में आज हम जिस परिस्थिति में पहुंच गए हैं उसमें लोकतंत्र और उसकी मार्फत लोकहित खतरे में पड गया है। हीब्रू विश्वविद्यालय के दार्शनिक मोशे हालबर्तल कहते हैं कि ‘राजनीति में मूल्यों, तत्थ्यों और ऐसे नेताओं की जरूरत है जो अपने फैसले राजनीतिक बढत की बजाए लोकहित के लिए लें।’ लेकिन क्या चुनावों, खासकर आने वाली तीन नवंबर को होने वाले मध्यप्रदेश विधानसभा की 28 सीटों के चुनाव, किसी भी तरह से लोकहित में होते दिखाई देते हैं? क्या ‘लोकतंत्र की रक्षा,’ ‘जनता की सेवा’ और छोडी गई पार्टी में ‘दम घुटने’ की फर्जी बहाने-बाजी की दम पर शुद्ध निजी आर्थिक लाभ की खातिर सार्वजनिक बेशर्मी से पाला बदलने वाले लोकतंत्र और लोकहित की रत्ती भर भी परवाह करेंगे? और यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो नागरिक या वोटर की तरह हमारी क्या जिम्मेदारी है? संयोग से इन 28 सीटों के वोटरों को इतिहास ने ऐसा मौका दे दिया है कि वे तीन नवंबर को होने वाले चुनाव में अपनी भागीदारी से भारत में लोकतंत्र का भविष्य तय कर सकें। क्या वे इस भारी-भरकम जिम्मेदारी का बोझ उठाना चाहेंगे?
कहा जाता है कि वोटर का मन एन बटन दबाने तक उजागर नहीं होता, लेकिन माहौल का गणित और चुनाव लडते नरपुंगवों की साख कुछ रुझान तो फिर भी बता ही देती है। इस बार भी पहले की तरह सिर्फ चुनाव जीतने की गारंटी देने वालों को ‘टिकट’ दी गई है और इसमें उस बेशर्मी का कोई खयाल नहीं रखा गया है जो कुछ महीनों पहले बिलकुल विपरीत झंडे-डंडे वाली पार्टी, उसके कार्यकर्ता और समाज की नजर के रू-ब-रू आनी चाहिए थी। जाहिर है, राजनैतिक जमातों के लिए यह चुनाव भी, पिछले सालों में हुए अन्य चुनावों की तरह ‘रुटीन’ ही है। तो क्या वे लोग कुछ करिश्मा कर पाएंगे जिन्हें देश के लोकतंत्र और संविधान की परवाह है?
अपने वोटर अवतार में उतरे ऐसे नागरिकों को हमेशा के जाति, धर्म, हिन्दू–मुस्लिम और शराब-साडी-पैसा के धतकरमों को बरकाकर इस बार यह तय करने के लिए वोट देना होगा कि क्या लोकतंत्र में पैसा देकर पार्टी और बहुमत की सरकार बदली जाना मुनासिब हो सकताा है? लोकतंत्र को मखौल में तब्दील करने वाले ऐसे विधायकों, पार्टियों को क्यों चुना जाना चाहिए? लोकतंत्र की यह मिट्टी-पलीती सिर्फ चुनावरत 28 विधानसभा सीटों के मतदाताओं भर का सरोकार नहीं है। इसमें समूचे मध्यप्रदेश और देश को अपने-अपने काम-धंधे, राजनीतिक-आर्थिक प्रतिबद्धताएं और पारंपरिक लगाव को छोडकर कूदना चाहिए। याद रखिए, कितनी भी बुराइयां हों, लोकतंत्र हमारे जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश के लिए एकमात्र कारगर शासन पद्धति है और उसकी बदहाली हम सभी को भुगतना पड सकती है।
-ध्रुव गुप्त
हिन्दी सिनेमा की सबसे ग्लैमरस, सबसे विवादास्पद, सबसे संवेदनशील अभिनेत्रियों में एक रेखा की अभिनय-यात्रा और उसका रहस्यमय आभामंडल समकालीन हिंदी सिनेमा के सबसे चर्चित मिथक रहे हैं। तमिल फिल्मों के एक सुपर स्टार जेमिनी गणेशन और अभिनेत्री पुष्पवल्ली के अविवाहित संबंधों की उपज रेखा का दुर्भाग्य था कि बाप ने उसे अपनी संतान मानने से इंकार किया और मां ने अपना कज़ऱ् उतारने के लिए बचपन में ही उसे सी ग्रेड की फिल्मों में धकेल दिया।
दर्जनों तमिल फिल्मों के बाद1970 में ‘सावन भादों’ से उसका हिंदी फिल्मों में पदार्पण हुआ। यह फिल्म तो चली, लेकिन मामूली और अनगढ़-सी दिखने वाली सांवली और मोटी रेखा का मज़ाक भी कम नहीं उड़ा। अपने कैरियर की शुरुआत में वह अभिनय के लिए नहीं, उस दौर के आधा दर्जन से ज्यादा अभिनेताओं के साथ अपने अफेयर और अभिनेता विनोद मेहरा और व्यवसायी मुकेश अग्रवाल के साथ दो असफल शादियों के लिए जानी जाती थी। वर्ष 1976 की फिल्म ‘दो अनजाने’ के नायक अमिताभ बच्चन से जुडऩे के बाद व्यक्ति और अभिनेत्री के तौर पर भी रेखा का रूपांतरण शुरू हुआ।
देखते-देखते सावन भादो, धरम करम, रामपुर का लक्ष्मण जैसी फिल्मों की भदेस, अनगढ़ रेखा उमराव जान, सिलसिला, आस्था, इजाज़त, आलाप, घर, जुदाई और कलयुग की खूबसूरत, शालीन, संज़ीदा अभिनेत्री में बदल गई। रेखा के व्यक्तित्व और अभिनय में यह बदलाव किसी चमत्कार से कम नहीं था।
अपनी परवर्ती फिल्मों के किरदारों में रेखा ने अभिनय के कई प्रतिमान गढ़े। यह वह दौर था जब उन्हें दृष्टि में रखकर फिल्मों की कहानियां लिखी जाती थी! रेखा को अभिनेत्रियों का अमिताभ बच्चन कहा गया। लंबे अरसे से फिल्मों में वे कम ही दिख रही हैं, लेकिन चरित्र भूमिकाओं में ही सही, आज भी रूपहले परदे पर उनकी उपस्थिति एक जादूई सम्मोहन छोड़ जाती है। पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है और कितनी कल्पना, लेकिन अमिताभ बच्चन-रेखा के रहस्यमय प्रेम का शुमार राज कपूर-नर्गिस, दिलीप कुमार-मधुबाला, देवानंद -सुरैया के बाद हिंदी सिनेमा की सबसे चर्चित प्रेम-कथाओं में होता है। 66 बरस की चिर युवा और चिर एकाकी रेखा को उनके जन्मदिन की शुभकामनाएं, मेरे एक शेर के साथ!
जिस एक बात पे दुनिया बदल गई अपनी
सुना है आपने हमसे कभी कहा भी नहीं !
-दिनेश श्रीनेत
उन दिनों गोरखपुर में बंगाली समाज की मौजूदगी वैसी ही थी, जैसे अहाते में खिले खुशबूदार फूल। हमारी कॉलोनी के छोर पर तीन बंगाली परिवार थे। शाम उमस से भरे धुंधलके में एक घर की रोशनी जलने के साथ शास्त्रीय गायन गूंजने लगता था। घर की लड़कियां शाम होते संगीत के रियाज पर बैठ जाती थीं।
उनके सामने की तरफ जो परिवार रहता था वे हमारे पारिवारिक मित्र थे। परिवार का एक लडक़ा रंगमंच से जुड़ा था, उनकी बहन बहुत अच्छी आर्टिस्ट थी। वहीं तीसरा मकान दो प्लॉट लेकर बना था और वहां रहने वाले लोग रहस्मय लगते थे, क्योंकि वे किसी से मिलते-जुलते नहीं थे। तीनों घरों में एक समानता थी-खूब हरे-भरे पौधे और बागवानी।
छठवीं-सातवीं क्लास में सबसे पहले मेरा एक बंगाली दोस्त बना। उसका नाम था बिप्लव मैत्र। सुंदर, बेहद हंसमुख, किसी से अपशब्द न कहने वाला और ईमानदार लडक़ा। दु:ख कि मेरा उसका साथ बहुत कम समय का रहा।
गोरखपुर के ठेठ पुरबिया और बिहारी समुदायों में बंगाली लोग नमक की तरह रचे-बसे थे। वे न होते तो हम अपने बचपन की कितनी सुंदर चीजें गंवा देते। जब दुर्गा पूजा का वक्त आता तो जाने कहां से बुजुर्ग बंगाली, सुंदर बंगाली स्त्रियां और युवतियां सजे-धजे निकल पड़ते। दशहरे में कालीबाड़ी नहीं गए तो वो साल बेकार गया समझो।
कुछ वर्ष तो बेहद खूबसूरत थे। हम तब तक नवीं क्लास में पहुँच चुके थे। विसर्जन से एक दिन पहले सडक़ों पर जगह-जगह बैरिकेटिंग लग जाती थी। रात की जगमगाती रोशनी में कई-कई किलोमीटर तक लोग पैदल चलते थे। लोग उमड़ते जाते थे। हमने नया-नया अकेले निकलना शुरू किया था। देर शाम घर से निकलने की इजाजत मिल गई थी। हमारे उत्साह का कोई ओर-छोर नहीं रहता था। हर तरफ रोशनी, हर कहीं संगीत, चहुंओर सुंदरता बिखरी, अगरबत्ती और फूलों की खुशबू से सराबोर रास्ते। हम अकबकाए कितने ही चक्कर लगा डालते, घर से मिले जेब-खर्च से गोलगप्पे और गरम-सोंधी खुशबू वाली टिक्की खाते। एक बार मेरी सैंडल टूट गई। घर पर डांट न पड़े तो मेरे दोस्तों ने अपनी जेब से पैसे देकर उसे मोची से सिलवाया।
जिस रेलवे कॉलोनी में मेरा स्कूल था, वहां पर एक पूरी लेन कैलकटा कालोनी कहलाती थी। क्योंकि वहां पर ज्यातार बंगाली परिवार थे। जाहिर तौर पर वह लेन फूलों से सजी और साफ-सुथरी थी।
जब मैं ग्रेजुएशन में पहुँचा तो फिर से एक बंगाली मेरा दोस्त बन गया। हम दोनों ने साथ में पढऩा शुरू किया। उसके पिता शहर के सबसे पुराने स्टूडियो चलाने वालों में से थे। वे आर्टिस्ट भी थे। किसी जमाने में पेंटर हुआ करते थे फिर फोटोग्राफी सीखी। एक वक्त ऐसा था कि मेरा पूरा दिन वहीं बीत जाया करता था। हम गप्पें मारते, पोर्टेट की बारीकियां समझते, संगीत सुनते और पढ़ते भी। उसकी मां हमारे लिए कुछ स्पेशल बनाती रहतीं, केले के फूल की सब्जी से लेकर करेले के पत्तों की चटनी तक। हम दोनों ने अंग्रेजी साहित्य ले रखा था। मेरा दोस्त क्योंकि कारोबार में हाथ भी बंटाता था तो वो अपनी पढ़ाई को लेकर बड़ा चिंतित रहता था। हमने तय किया कि मिलकर अंगरेजी की ट्यूशन पढ़ते हैं।
हमें रेलवे के एक रिटायर्ड ओएस मिले। वे एक बुजुर्ग बंगाली थे। बिल्कुल टिपिकल बंगाली, जैसे हम फिल्मों में देखते हैं। मेरा दोस्त तो बहुत दिनों तक साथ नहीं रहा पर मैंने टुकड़ों-टुकड़ों में अपने तीन साल उनके सान्निध्य में गुजारे। उनसे मुझे बहुत सीखने को मिला। जब उन्होंने पहली बार मुझे कीट्स की पोएम ‘ओड़ टु ए नाइटिंगेल’ पढ़ाई तो मैं हतप्रभ रह गया। वे बिल्कुल कविता में डूब जाते थे। जीके चेस्टरटन और फ्रांसिस बेकन को भी वे बहुत मन से पढ़ाते। उन्होंने परंपरागत अलंकरण वाली अंग्रेजी भाषा की सुंदरता से मेरा परिचय कराया।
वे बहुत मेहनत से पढ़ाते और नोट्स तैयार कराते थे। उनका एक वाक्य जो शायद जीके चेस्टरटन के लिए था, मुझे आज भी याद है, ‘एन अंडरकरेंट आफ पैथॉस रन पैरलल आल इन हिज़ कंपोजिशंस’। मेटाफिजिकल पोएट्स में उन्होंने जो दिलचस्पी जगाई वो आज तक बनी हुई है। उनके भीतर बंगाली होने का दर्प कूट-कूटकर भरा था। वे बताते थे कि गोरखपुर के एक सिनेमाहाल में जब बंगाली फिल्म का एक शो चला करता था तो अगले दिन तक सिनेमाघर इत्र की खुशबू में डूबा रहता था।
जब पोस्ट ग्रेजुएशन में पहुँचा तो कुछ बंगाली लड़कियां सहपाठी बनीं। मेरी एक सीनियर थीं जो बेहद जहीन, कॅरियर के प्रति कांशस थीं और बहुत सुंदर गाती थी। सीनियर्स के फेयरवेल में मैने ‘वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी’ पहली बार स्टेज से गाते उनसे ही सुना था। मैं अपनी मित्र के साथ एक बार उनके घर गया तो यह देखकर हैरान रह गया कि रेलवे के छोटे से चर्टर में उन्होंने पूरे आंगन को सैकड़ों पौधों से भर दिया था, ऐसा लगता था कि हम किसी नर्सरी में आ गए हों।
बंगाली भाषा और संस्कृति से मेरा रिश्ता यहीं नहीं खत्म होता। मेरी मां को बंगाली उपन्यासकार बहुत पसंद थे। उनकी लाइब्रेरी में शरतचंद्र और रवींद्रनाथ टैगोर के लगभग सभी उपन्यास मौजूद थे। उन्होंने बंकिंग समग्र भी खरीद रखा था। लाइब्रेरी से मैं उनके लिए बिमल मित्र और ताराशंकर बंद्योपाध्याय की किताबें लेकर आया करता था। मैंने खुद बचपन में टैगोर और विभुतिभूषण बंद्योपाध्याय की ‘पाथेर पांचाली’ पढ़ी तो मेरे मन पर उनका गहरा असर पड़ा था। सत्यजीत रे और सुकुमार रे की कहानियां भी किशोर वय में बड़ी दिलचस्प लगती थीं।
बड़ा हुआ तो दूरदर्शन ने मृणाल सेन और सत्यजीत रे के सिनेमा से परिचय कराया। टैगोर की सादगी से भरी कविताओं ने मेरी दिलचस्पी कविता पढऩे कहने में जगाई। बचपन में मुझे बांग्ला सीखने का शौक भी लगा था और मैंने बांग्ला लिपि सीख ली थी। अभी भी मैं बांग्ला जोड़-जोडक़र पढ़ लेता हूँ।
जैसा कि मैंने पहले लिखा था कि बंगाली संस्कृति फूलों की तरह अपनी खुशबू बिखेरती चलती है। एक उच्चवर्गीय और मिडिल क्लास बंगाली को अपनी भाषा से जितना प्रेम होता है, भाषा से उतना प्रेम कम भी देखा है मैंने। हर काम को सुरिचिपूर्ण तरीके से करना भी उनसे सीखा जा सकता है। बाद के बरसों में मेरे बंगाली दोस्त नहीं बने, मिले भी तो वैसी बात नहीं दिखी जैसे कि उन दिनों परिवारों में हुआ करती थी। शायद बदलते समय का असर हो या गोरखपुर की कुछ तासीर ही ऐसी थी...
जब इस सारी बातों को याद करता हूँ तो मुझे लगता है कि जीवन में कितना कुछ सुंदर है जिसका कर्ज कहीं न कहीं जाने कितने अनजान लोगों पर होता है, जो बस थोड़े से वक्त के लिए आपकी जिंदगी में आते हैं।
न मैं बंगाली हूँ न इस भाषा में मेरा जन्म हुआ है... पर अनजाने में मेरे अस्तिव के हिस्से में उस खूबसूरत संस्कृति की सुगंध समाहित है।
टैगोर की ही कुछ पंक्तियों से बात समाप्त करता हूँ -
आमार शोनार बांग्ला,
आमि तोमाए भालोबाशी
चिरोदिन तोमार आकाश,
तोमार बताश,
अमार प्राने बजाए बाशी
(फेसबुक से)
अर्जेंटीना ने जिस जीएम गेहूं की फसल को मंजूरी दी है उसे एचबी 4 नाम दिया है| इसे अर्जेंटीना की बायोटेक्नोलॉजी कंपनी बायोसीरस ने तैयार किया है
- Lalit Maurya
अर्जेंटीना जेनेटिक मॉडिफाइड गेहूं को उगाने और उसकी खपत को मंजूरी देने वाला पहला देश बन गया है| यह जानकारी अर्जेंटीना के कृषि मंत्रालय द्वारा जारी विज्ञप्ति में सामने आई है| जिसके अनुसार अर्जेंटीना ने सूखे से निपटने में सक्षम जीएम गेहूं की फसल को मंजूरी दे दी है| गौरतलब है कि दुनिया भर में अर्जेंटीना गेहूं का चौथा सबसे बड़ा निर्यातक देश है|
अर्जेंटीना के राष्ट्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी आयोग ने एक बयान जारी कर कहा है कि "दुनिया भर में यह पहला मौका है जब किसी देश ने जेनेटिक मॉडिफाइड गेहूं को उगाने और उसकी खपत को मंजूरी दी है|"
अर्जेंटीना ने जिस जीएम गेहूं की फसल को मंजूरी दी है उसे एचबी 4 नाम दिया है इसे अर्जेंटीना की बायोटेक्नोलॉजी कंपनी बायोसीरस और नेशनल यूनिवर्सिटी ने राष्ट्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी आयोग की मदद से विकसित किया गया है| इस फसल (एचबी 4) पर एक दशक तक किए गए परीक्षण से पता चला है कि सूखे की स्थित में यह फसल, अन्य की तुलना में 20 फीसदी ज्यादा उपज देती है| हालांकि, विशेषज्ञों के अनुसार इसका भविष्य क्या होगा उसपर अभी संदेह है क्योंकि जिस तरह से जीएम फसलों को स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए खतरा माना जाता है उसके चलते उपभोक्ता इसे आसानी से नहीं अपनाएंगे| ऐसे में इनको उगाना और बेचना चिंता का एक बड़ा विषय है|
क्या होती हैं जेनेटिक मॉडिफाइड फसलें, स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से कितनी हैं सुरक्षित
जीएम फसलें या आनुवांशिक रूप से संशोधित फसलें वो फसलें होती हैं, जिनके जीन (डीएनए) में बदलाव कर दिया जाता है| जिससे फसलों के उत्पादन और उसमें मौजूद आवश्यक तत्वों की मात्रा में वृद्धि की जा सके| साथ ही वो प्रकृति की विषम परिस्थितयों को भी झेलने में सक्षम हो सकें|
जीएम फसलों पर सबसे बड़ा सवाल उसके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर को लेकर है| यह खाद्य पदार्थ कितने सुरक्षित हैं, इस पर अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया जा सका है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जीएम फसलों में विभिन्न जीवों और पौधों से जीन (डीएनए) लेकर उन्हें खाद्य फसलों में डाला जाता है| ऐसे में सबसे बड़ी चिंता का विषय है कि “विदेशी” डीएनए विषाक्तता, एलर्जी, पोषण और अनायास प्रभावों जैसे जोखिम पैदा कर सकते हैं, जोकि स्वास्थ्य के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। जीएम फसलों के साथ एक समस्या यह भी है कि इसमें इच्छित परिवर्तनों के साथ अनचाहे परिवर्तनों के होने की सम्भावना भी बनी रहती है|
इसी खतरे को देखते हुए भारत समेत दुनिया के अधिकांश देशों ने जीएम फूड के लिए “सावधानीपूर्ण” दृष्टिकोण अपनाने का फैसला किया है। उन्होंने इसके अनुमोदन और लेबलिंग के लिए कड़े नियम निर्धारित किए हैं। यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, ब्राजील और दक्षिण कोरिया ने जीएम फूड को लेबल करना अनिवार्य कर दिया है ताकि उपभोक्ताओं के पास खाने का चुनाव करते समय विकल्प मौजूद हों|(downtoearth)