विचार/लेख
जगदीश्वर चतुर्वेदी
आज देश में जनता का एक बड़ा हिस्सा व्रत की उन्मादना में डूबा है। इस प्रसंग में मुझे अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रसिद्ध निबंध ‘बांगलार व्रत’ का ध्यान आ रहा है, इस प्रसिद्ध निबंध में उन्होंने लिखा है ‘‘व्रत मात्र एक इच्छा है। इसे हम चित्रों में देखतें हैं : यह गान और पद्य में प्रतिध्वनित होती है, नाटकों और नृत्यों में इसकी प्रतिक्रिया दिखाई देती है। संक्षेप में व्रत केवल वे इच्छाएं हैं जिन्हें हम गीतों और चित्रों में चलते-फिरते सजीव रूपों में देखते हैं।’’ जो लोग सोचते हैं कि व्रत-उपवास का संबंध धर्म से है ,धार्मिक क्रिया से है,वे गलत सोचते हैं। अवनीन्द्रनाथ ने साफ लिखा है ‘‘व्रत न तो प्रार्थना है न ही देवताओं को प्रसन्न करने का प्रयत्न है।’’
दर्शनशास्त्री देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘‘व्रत में निहित उद्देश्य अनिवार्यत: क्रियात्मक उद्देश्य होता है। इसका उद्देश्य देवी देवताओं के समक्ष दंडवत करके किसी वर की याचना करना नहीं है। बल्कि इसके पीछे दृष्टिकोण यह है कि कुछ निश्चित कर्म करके अपनी इच्छा पूर्ण की जाए। वास्तव में परलोक या स्वर्ग का विचार व्रतों से कतई जुड़ा हुआ नहीं है।’’
अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने साफ लिखा है व्रत-उपवास को धार्मिकता के आवरण में कुछ स्वार्थी तत्वों ने बाद में लपेटा था। अवनीन्द्रनाथ मानते हैं व्रत ‘‘संगीत के साथ समस्वर है।’’
व्रत की एक विशेषता यह है कि समान इच्छा को लेकर इसे अनेक लोगों को सामूहिक रूप में रखना होता है। यदि किसी व्यक्ति की कोई निजी इच्छा है और वह इसकी पूर्ति के लिए कोई कार्य करता तो इसे व्रत नहीं कहा जाएगा। यह केवल तभी व्रत बनता है जब एक ही परिणाम की प्राप्ति के लिए कई व्यक्ति मिलकर आपस में सहयोग करें।
अवनीन्द्रनाथ ने लिखा है ‘‘किसी व्यक्ति के लिए नृत्य करना संभव हो सकता है किंतु अभिनय करना नहीं। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के लिए प्रार्थना करना और देवताओं को संतुष्ट करना संभव हो सकता है, किंतु व्रत करना नहीं। प्रार्थना और व्रत दोनों का लक्ष्य इच्छाओं की पूर्ति है,प्रार्थना केवल एक व्यक्ति करता है और अंत में यही याचना करता है कि उसकी इच्छा पूरी हो। व्रत अनिवार्यत : सामूहिक अनुष्ठान होता है और इसके परिणामस्वरूप वास्तव में इच्छा पूर्ण होती है।’’
हम वैदिक जनों के पूर्वजों को देखें तो सहज ही समझ में आ जाएगा। वैदिकजनों के पूर्वज व्रत करते हुए गीत गाते थे। इनका लक्ष्य था इच्छाओं की पूर्ति करना। इन्हीं गीतों के सहारे वे जिंदा रहे। गीतों ने देवताओं को भूख और मृत्यु से बचाया और छंदों ने उन्हें आश्रय दिया।
अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस सवाल पर भी विचार किया है कि व्रत कितने पुराने हैं। लिखा है,ये व्रत पुराने हैं, वास्तव में बहुत पुराने ,निश्चित रूप से पुराणों से भी पहले के और हो सकता है कि वेदों से भी प्राचीन हों। एक और सवाल वह कि वेद और व्रत में अंतर है। अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा है वैदिक गीतों में जितनी भी इच्छाएं हैं वे विशेष रूप से पुरूषों की हैं जबकि व्रत पदों में व्यक्त इच्छाएं स्त्रियों की हैं: ‘‘वैदिक रीतियां पुरूषों के लिए थीं और व्रत स्त्रियों के लिए थे और वेद तथा व्रत के बीच, पुरूषों और स्त्रियों की इच्छाओं का ही अंतर है।’’
सवाल उठता है कि स्त्री की क्या इच्छा थी और पुरूष की क्या इच्छा थी ? इस पर अवनीन्द्न नाथ ठाकुर ने ध्यान नहीं दिया है। वैदिक जनों की आजीविका का प्रमुख साधन पशुधन की अभिवृद्धि करना था। उनकी सबसे बडी इच्छा अधिक से अधिक पशु प्राप्त करने की थी। जबकि व्रत करने वाली स्त्रियों की इच्छा थी अच्छी फसल। औरतों के द्वारा किए गए अधिकांश व्रत कृषि की सफलता की कामना पर आधारित हैं। वैदिकमंत्रों में कृषि की महत्ता और प्रधानता है। स्त्री-पुरूष दोनों का साझा लक्ष्य था सुरक्षा, स्वास्थ्य और समृद्धि। इन तीन चीजों का ही विभिन्न प्रार्थनाओं और मंत्रों में उल्लेख मिलता है।
शुभम किशोर
साल 2020 में अमेरिका की मध्यस्थता में संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने इसराइल के साथ ऐतिहासिक समझौता किया था जिसे ‘अब्राहम समझौता’ कहा जाता है।
इस समझौते के तहत यूएई और बहरीन ने इसराइल के साथ अपने रिश्तों को सामान्य किया था और राजनयिक रिश्तों को बहाल कर लिया था। खाड़ी के देशों के दशकों से चले आ रहे इसराइल के बहिष्कार का भी इसी के साथ अंत हो गया था।
ट्रंप प्रशासन के दौर में शुरू हुई इस पहल के तहत संयुक्त अरब अमीरात, मोरक्को, सूडान और बहरीन ने साल 2020 में ‘अब्राहम अकॉर्ड’ पर हस्ताक्षर किए थे। इसके बाद इन देशों ने इसराइल से राजनयिक रिश्ता कायम करने का फैसला किया था।
इसे इसराइल के साथ मुस्लिम देशों के बेहतर होते रिश्तों की तरह देखा जाने लगा।
लेकिन इसी साल जनवरी में इसराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू की सऊदी अरब की यात्रा कैंसल कर दी गई। इसके अलावा ईरान और सऊदी अरब के बीच नजदीकियां बढऩे लगीं।
ईरान-सऊदी अरब के बीच बढ़ती नजदीकियों का असर
सऊदी अरब और ईरान के शीर्ष राजनयिकों के बीच अगले कुछ दिनों में मुलाकात हो सकती है। इस दौरान दोनों देशों के बीच एक अहम समझौता होने की संभावनाएं हैं।
प्रेस एजेंसी एसपीए ने सोमवार को बताया कि सऊदी अरब के विदेश मंत्री प्रिंस फैसल बिन फरहान और उनके ईरानी समकक्ष हुसैन आमिर अब्दुल्लाहियन के बीच हफ्ते भर में दूसरी बार फोन पर बातचीत हुई है।
इस फोन कॉल में दोनों नेताओं ने रमज़ान खत्म होने से पहले आमने-सामने की मुलाक़ात करने का फैसला किया है।
अमेरिका के लिए चुनौती
2015 में सऊदी अरब में एक शिया धर्म-गुरु को फांसी दिए जाने के बाद ईरानी प्रदर्शनकर्मियों ने तेहरान स्थित सऊदी दूतावास में घुसकर विरोध प्रदर्शन किया था।
इसके बाद सऊदी अरब ने ईरान के साथ अपने राजनयिक संबंध तोड़ लिए थे। और पिछले कुछ सालों में दोनों देशों के बीच काफी तनाव देखा गया है।
लेकिन चीन की राजधानी बीजिंग में सऊदी अरब और ईरान के अधिकारियों के बीच चार दिन तक चली बातचीत के बाद दोनों देशों ने कूटनीतिक रिश्ते बहाल करने की अप्रत्याशित घोषणा की है।
विदेश मामलों के जानकार कमर आगा कहते हैं कि अरब के देश तेल से इतर विकास पर फोकस करना चाहते हैं, उनका एजेंडा बदल गया है और सुरक्षा मुख्य एजेंडा नहीं रहा।
बीबीसी से बात करते हुए वो कहते हैं, ‘इब्राहिम अकॉर्ड शायद चलता रहता, लेकिन जूडिशियल रिफॉर्म से जुड़े विरोध के बाद से लगता है कि अब मुश्किल हो गया है, क्योंकि काफी हद तक एजेंडा बदल गया है।’
वो कहते हैं, ‘पहले मुद्दा सुरक्षा का था। खाड़ी के देशों को लग रहा था कि अमेरिका ईरान का हल निकाल लेगा, सत्ता परिवर्तन उनकी पॉलिसी है। लेकिन अब मुद्दा बदल गया है। अब अरब देश एक-दूसरे से बेहतर रिश्ते बनाकर विकास के एजेंडे को लेकर आगे बढऩा चाहते हैं, सुरक्षा अब सेकेंडरी मुद्दा हो गया है।’
जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के नेल्सन मंडेला सेंटर फॉर पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट रिजोल्यूशन में असिस्टेंट प्रोफेसर प्रेमानंद मिश्रा कहते हैं, ‘अगर सऊदी अरब और ईरान के संबंध बेहतर हो जाते हैं, अगर ईरान के राष्ट्रपति रईसी रमजान के महीने में यूएई के किंग से मिलते हैं तो बदलाव आएगा।
इसराइल के साथ संबंधों में बेहतरी के पीछे एक बड़ा कारण था ईरान से खतरा। अगर ये ख़तरा कम हो जाता है और क्योंकि अब पहले की तरह अमेरिकी दबाव कारगर नहीं है, तो कह सकते हैं कि आने वाला वक्त इसराइल के लिए मुश्किल भरा होगा।
इसराइल में हो रहे विरोध का असर
इसराइल में नेतन्याहू सरकार के ख़िलाफ़ लोग सडक़ों पर विरोध कर रहे हैं। नेतन्याहू न्याय व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव चाह रहे हैं। हालांकि विरोध को देखते हुए उन्होंने इस योजना को फिलहाल टालने का फैसला किया है।
सोमवार को उन्होंने कहा कि वो उस बिल को फिलहाल रोक रहे हैं ताकि ‘लोगों के बीच पनपे आक्रोश और अलगाव को रोका जा सके।’
इसराइल बीते दिनों में उथलपुथल के दौर से गुजऱा है। इस राजनीतिक उथल-पुथल का असर इसराइल के दूसरे देशों के साथ रिश्तों पर असर पड़ सकता है।
प्रोफेसर प्रेमानंद मिश्रा कहते हैं, ‘मुस्लिम देश अमूमन सीधे तौर पर नहीं बताते कि वो किसी मुद्दे पर क्या सोच रहे हैं। अगर इसराइल में विरोध चलता रहता है और नेतन्याहू कमजोर होते हैं, तो रिश्तों पर इसका असर पड़ेगा।’
अमेरिका के लिए बदलते हालात
कमर आगा भी मानते हैं कि इसराइल के भीतर चल रही दिक्कतों का असर रिश्तों पर पड़ेगा।
‘ये रिश्ते सुरक्षा को लेकर आगे बढ़ रहे थे, उसके बाद व्यापार और सहयोग का मुद्दा था। उन्हें लग रहा था कि ईरान से सुरक्षा के लिए इसराइल से रिश्ते जरूरी हैं, क्योंकि अमेरिका मिडिल ईस्ट से वापस जा रहा है।’
‘अमेरिका भी चाहता था कि इन देशों के इसराइल से बेहतर रिश्ते हो जाएं, लेकिन ईरान के सऊदी के साथ रिश्तों से बदलाव आया है। यही नहीं इराक और सीरिया से भी उसके रिश्ते बेहतर हुए हैं।’
बिन्यामिन नेतन्याहू सत्ता में वापसी के बाद अमेरिका नहीं गए हैं।
प्रेमानंद मिश्रा कहते हैं, ‘ये पहला मौका है जब इसराइली सरकार के आने के इतने दिनों बाद तक पीएम की अमेरिका की यात्रा नहीं हुई है। बाइडन सरकार की ओर से उन्हें वो प्रतिक्रिया नहीं मिल रही जो वो उम्मीद कर रहे थे।’
‘अमेरिका के यहूदी समुदाय ने नेतन्याहू के ख़िलाफ़ एक चि_ी लिखी है। अमेरिका में जो होता है उसका इसराइल पर बहुत असर पड़ता है। इसका नेतन्याहू की सियासत और ईमेज पर भी असर पड़ेगा।’
‘अमेरिका का रुख बदला है। चीन की बदौलत ईरान के साथ सऊदी अरब के संबंध बेहतर हुए हैं। इन सबको मिला कर देखें तो नेतन्याहू की सरकार अगर बनी रहती है, उनका प्रतिनिधित्व करने वाले दक्षिणपंथी गुट बरकरार रहते हैं तो इब्राहिम अकॉर्ड जो उनके लिए एक ऐतिहासिक इवेंट था, खटाई में पड़ सकता है।’
फलस्तीनी क्षेत्र का मामला
फलस्तीनी क्षेत्र का मामला अभी भी अरब देशों के लिए महत्वपूर्ण है। वो दो देशों की थ्योरी में विश्वास रखते हैं।
लेकिन नेतन्याहू और उनके दक्षिणपंथी समर्थकों के रहते इस समस्या के समाधान की ओर जाने की संभावना कम ही नजर आ रही है। जनवरी महीने के बाद उनकी यूएई की यात्रा स्थगित कर दी गई थी।
इसराइल के वित्त मंत्री बेजालेल स्मॉचरिच ने अपने एक बयान में कहा, ‘फलस्तीन के लोग जैसा कुछ नहीं है।’ इसका अमेरिका और सऊदी अरब के देशों ने विरोध किया था।
प्रेमानंद मिश्रा कहते हैं, ‘फलस्तीन उनके लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। अगर वहां स्थिरता नहीं होती तो अरब देश या मुस्लिम देशों के साथ रिश्ते फिर से खराब हो सकते हैं। फलस्तीन का मुद्दा फिर से तूल पकड़ेगा। संयुक्त राष्ट्र में हाल के दिनों में इस मुद्दों को उठाया भी गया है।’
आर्थिक मोर्चे पर हालात
रविवार को इसराइल के विदेश मंत्रालय ने कहा कि इसराइल और संयुक्त अरब अमीरात ने रविवार को एक मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए। इसके तहत राष्ट्रों के बीच व्यापार किए जाने वाले लगभग 96 फीसदी सामानों पर टैरिफ को कम किया गया या हटा दिया गया।
मंत्रालय ने कहा कि सौदा इसरायली कंपनियों को संयुक्त अरब अमीरात में सरकारी निविदाओं में आवेदन करने का रास्ता साफ करेगा। इससे पहले भी संयुक्त अरब अमीरात ने कई मिलियन डॉलर निवेश करने का वालेकिन जानकार मानते हैं कि कुछ वक्त के लिए आर्थिक मोर्चों पर भी असर पड़ सकता है।
आग़ा कहते हैं, ‘यूएई के व्यापार बढ़े हैं तो जो रिश्ते बन गए हैं, वो बरकरार रहेंगे। हालांकि कुछ समय के लिए थोड़ी रुकावट आ सकती है। कुछ दिनों के लिए ऐसा लगता है कि यूएई ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया है। लेकिन इसराइल में हालात सामान्य हो गए, तो फिर से बातें शुरू होंगी।’
नेतन्याहू के करियर पर कितना असर
नेतन्याहू के करियर पर वहां के हालात और दूसरे देशों के बिगड़ते रिश्तों का बड़ा असर पडऩे की संभावना है।
आगा कहते हैं, ‘ये धुर दक्षिणपंथी गुट समझौता नहीं करेंगे। इनका कहना है कि जूडिशियल रिफॉर्म जरूरी हैं। इसके अलावा वो वेस्ट बैंक पर कब्जा चाहते हैं, गजा पट्टी के इसराइली सेना के पीछे हटने के ये खिलाफ हैं।’
नेतन्याहू अब धुर दक्षिणपंथियों के साथ नजर आ रहे हैं, इसलिए उनके लिए अब उदारवादियों के साथ सरकार बनाने में दिक्कतें आएंगी।
इसके अलावा मिश्रा का मानना है कि विदेश नीति की इसराइल के चुनावों में अहम भूमिका होती है। वो वहां के लोगों पर प्रभाव डालता है जो कि नेतन्याहू के खिलाफ जा सकता है। (bbc.com)
सनियारा खान
हिमालय के निचले हिस्से में बसा हुआ सिक्किम हमारे देश का ही एक अंग है। अंगूठे का आकार लिए इस राज्य में नेपाली संप्रदाय के लोग अन्य जातियों से ज़्यादा संख्या में हैं। जहां तक जनसंख्या और भूमि क्षेत्रपल का सवाल है तो सिक्किम बहुत ही छोटा राज्य है । ये गोवा से भी छोटा है। इसकी जनसंख्या भी भारत के राज्यों में न्यूनतम है। लेकिन छोटा सा राज्य हो कर भी ये राज्य देश के बाकी हिस्सों के लिए एक प्रेरणा बन गया है।
सिर्फ चार जिले और छह लाख से थोड़ी ही ज़्यादा जनसंख्या के बावजूद सिक्किम आज न सिर्फ पर्यटन बल्कि ऑर्गेनिक खेती को ले कर भी सभी तरफ चर्चित हो रहा है। अप्रतिम सौंदर्य से भरे इस राज्य में सन् 2014 तक हर साल करीब करीब छह लाख पर्यटक आते थे। फिर ऑर्गेनिक खेतों से ख्याति अर्जित करने के बाद यहां आने वाले पर्यटक और ज़्यादा बढ़ रहे हैं। 2014_15 के बीच 6.5 लाख, 2016 में 8.6 लाख, फिर 2017 में ये संख्या 14 लाख पहुंच गईं थी। आधुनिक कृषि की देख रेख करने वाले और कैश क्रॉप विभाग को पूरी तरह संभालने वाले खोरलो भूटिया जी कहते है कि ऑर्गेनिक खेत शुरू करने के बाद से ही सिक्किम में पर्यटक बढ़ रहे हैं। चार साल के अंदर ही पर्यटक दुगने हो गए। अब तो सिक्किम पर्यटन विभाग को 20 लाख तक पर्यटकों की उम्मीद है। कहते है कि नेपाल, भूटान और अन्य पड़ोसी राज्यों से अनेकों प्रतिनिधि आ कर सिक्किम से ऑर्गेनिक खेती के बारे में जानने की कोशिश कर रहे हैं। इस राज्य में पिछले कई सालों से रसायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं पर पूरी तरह प्रतिबंध है। अगर किसी किसान को रसायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं को इस्तेमाल करते पाया जाए तो कठोर सजा का भी प्रावधान है। किसानों को आधुनिक कृषि पद्धति के बारे में लगातार सिखाया जाता है। गंगटोक के बाजार में सिक्किम के किसान अपने सारे उत्पादों को खुद ही सीधे-सीधे उपभोक्ताओं को बेचते हैं। बिचौलियों को बीच में नहीं लाया जाता हैं। इसी कारण किसानों को फायदा होता है।
2019 की दिसंबर में इंडियन फार्मर्स फर्टिलाइजर कोऑपरेटिव ( इफको) और सिक्किम सरकार एक साथ मिल कर जैविक खेती के लिए पचास करोड़ लागत से प्रोसेसिंग यूनिट की शुरूवात की है। धीरे-धीरे सिक्किम अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी कदम रख रहा है। एक ही देश के एक राज्य की खेती किसानी बाकी राज्यों से इतनी आगे क्यों है, इस पर विचार करना जरूरी है। भारत का सिक्किम ही पूरी दुनिया का पहला राज्य है जहां 100 प्रतिशत ऑर्गेनिक खेती की जाती है। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र के खाद और कृषि संगठन ने सिक्किम को अपनी सर्वश्रेष्ठ नीतियों के लिए ऑस्कर पुरस्कार दिया। इस पुरस्कार को देते समय संयुक्त राष्ट्र ने सिक्किम को भूख, गरीबी और पर्यावरण समस्या से लडऩे के लिए ऑर्गेनिक खेती अपनाने पर खूब प्रशंसा भी की। सिक्किम से प्रभावित हो कर कई अन्य राज्यों ने जैविक खेती में रुचि लेना शुरू किया था। लेकिन कोई और राज्य इस हद तक कामयाब नहीं हो पाया। ऑर्गेनिक खेती करने से पर्यावरण शुद्ध रहता है, मिट्टी उपजाऊ बनी रहती है और कहा जाता है कि सूखे का सामना भी नहीं करना पड़ता है। ये बात तो है कि एक सम्पूर्ण राज्य को ऑर्गेनिक राज्य बनाने की राह आसान नहीं होती है। लेकिन सिक्किम सरकार और वहां के किसानों के बीच समन्वय और कड़ी मेहनत से ये संभव हो पाया। एक और बात ये है कि सिक्किम पहला राज्य है जहां किसानों के लिए पेंशन योजना भी शुरू की गई है।
फिराक साहेब पीने के बाद थोड़ा बहक जाते थे। एक बार हॉलैंड हॉल में फिराक साहेब को एक जिरह में बुलाया गया। चूँकि फिराक साहेब ने शराब पी थी तो उन्होंने जिरह के शुरुआत में ही उस समय के कुलपति अमर नाथ झा को उल्टा सीधा कहने लगे।
सुबह जब झा साहेब को पता लगा तो उन्होंने एक आदेश निकाला कि अगर फिराक साहेब को किसी आयोजन में बुलाया जाय तो दिन में ही और दिन ढलने के बाद उनको किसी भी आयोजन का निमंत्रण न दिया जाय। न फिराक ने कभी वो आदेश माना न किसी और ने। सबको फिराक को सुनना बहुत पसंद था।
एक किस्सा और है। 1950 में एक बार अली सरदार जाफरी साहेब एक मुशायरे में शिरकत करने इलाहाबाद आये। पहले तो फिराक साहेब और जाफरी ने पी और उसके बाद मुशायरे में पहुंचे। अली सरदार जब बोलने लगे तो फिराक साहेब उनको पीछे से गरियाने लगे। शायद कोई गजल पे मसला हो गया था। आयोजकों ने बहुत समझया फिराक साहेब को, माने नहीं और अंत में फिराक साहेब को घर छोड़ दिया गया। बहुत देर तक जब फिराक साहेब की आवाज जाफरी साहेब के कानो में नहीं आई तो उन्होंने आयोजकों से पूछा तो उन्हें बताया गया कि फिराक घर छोड़ दिया गया है।
उस समय माइक्रोफोन उनके हाथ में था और उन्होंने मंच से कहा ‘हरामजादों, वो मुझे गाली दे रहा था या तेरे माँ-बाप को, उसका हक है मुझे गाली देना, तुम बीच में कौन होते हो। तेरे मुशायरे की ऐसी कि तैसी मुझे मेरे फिराक पे पास ले चलो।’
जाफरी साहेब ने मुशायरा वहीं छोड़ दिया और फिराक के घर पहुंचे। फिराक साहेब अपने लॉन में टहल रहे थे। जाफरी साहेब उनके पास पहुंचते ही उनको गले लगा लिया। दोनों रोने लगे। जाफरी साहेब बोले ‘हरामजादे, न हम दोनों को गाली देने देते हैं , न हॅसने देते हैं न रोने देते हैं’। दोनों तब तक गले मिलते रहे जब तक पड़ोसी अपने घर से बाहर नहीं निकल आये।
( FIRAQ , The poet of pain and ecstasy -Ajay Mansingh )
डॉ. परिवेश मिश्रा
गंगाराम और शांता के परिवार में 1942 में जब तीसरी संतान के रूप में बेटे का जन्म हुआ तब वे सब टिटलागढ़ में रेल पटरियों के किनारे झुग्गी जैसा घर बनाकर रहते थे। यह स्थान छत्तीसगढ़ की सीमा के पास उड़ीसा के बलांगीर जि़ले में है।
बेटे को नाम दिया गया सत्यनारायण। घर में सत्यन कहा गया और बाहर सत्तू। दस वर्ष पहले जब कच्छ (गुजरात) में अकाल की परिस्थितियां बन जाने पर अपने गांव टीकर से पूर्णत: निरक्षर गंगाराम अपनी चौदह वर्षीया पत्नी को लेकर काम की तलाश में निकले थे तब उनकी उम्र थी सोलह वर्ष।
रायपुर से विशाखापट्टनम के बीच रेल लाइन बिछाने का काम चल रहा था और गंगाराम को यहां बीस रुपये प्रतिमाह के वेतन पर मजदूरी मिल गयी। परिवार के बढऩे के साथ गुजऱ कठिन हो चला था, सो गंगाराम वेतन-वृद्धि का अनुरोध ले कर ठेकेदार के पास पहुंचे। ठेकेदार ने दुत्कारते हुए अनुरोध ठुकरा दिया तो गुस्सा भी आया और आत्मसम्मान भी आहत हुआ। गंगाराम ने बस वहीं नौकरी छोडऩे की घोषणा कर दी और घर आ गये।
घोषणा तो कर दी पर घर पहुंच कर अहसास हुआ कि पत्नी और तीन छोटे बच्चों के पेट भरने की कोई व्यवस्था उनके पास नहीं थी। रेलवे के अलावा इलाके में रोजग़ार देने वाला कोई उद्यम नहीं था।
गंगाराम के पुरखे बढ़ई और लोहार का काम करते थे - विश्वकर्मा थे। सामाजिक वर्ण व्यवस्था में इनकी जाति - लुहार सुथार - सबसे निचली पायदान पर मानी जाती थी। पीतल से जुड़ा शब्द था ‘पितर’ सो इन्हें कुलनाम प्राप्त हुआ था ‘पितरोदा/पित्रोदा’।
पत्नी ने विवाह पर मिले आभूषण बेचकर लोहे के मोटे तारों का एक बंडल और एक मोटा हथौड़ा खरीदा और ऊंचे पूरे गंगाराम को थमा कर पुश्तैनी हुनर की याद दिलाई। दिन-रात एक कर गंगाराम ने तारों पर हथौड़ा चलाया और उनसे कील बनाईं। जब एक बाल्टी-नुमा बर्तन भर गया तो उसे लेकर रेलवे के अंग्रेज़ अधिकारी के पास बेचने पहुंचे।
यहां परेशानी पैदा हो गयी। अधिकारी को सिर्फ अंग्रेज़ी और टूटी-फूटी हिन्दी आती थी और गंगाराम को सिर्फ गुजराती और टूटी-फूटी उडिय़ा। काफ़ी प्रयास के बाद भी जब भाषा की समस्या नहीं सुलझी तो गंगाराम ने बाल्टी सामने रखकर दोनों हथेलियां फैला दीं। अफसर ने उस पर जो भी पैसे रखे, लेकर घर आ गये। जब तक उन्होंने कीलें बनाकर बेचीं यही व्यवस्था काम करती रही।आहत गंगाराम ने प्रण किया कि हर हालत में अपने बच्चों को अंग्रेज़ी की शिक्षा दिलाएंगे। जिसके हाथ में ताकत और सत्ता है उसकी भाषा का ज्ञान दिलाएंगे।
टिटलागढ़ में स्कूल नहीं था। इस तीसरे बच्चे को उसके बड़े भाई के साथ गुजरात भेजने का फ़ैसला हुआ। ट्रेन आयी। दरवाजे खिड़कियों से तो लोग लटके ही थे, छत पर भी सवार थे। बचपन भर ट्रेनों को आते-जाते देखते आ रहे ग्यारह वर्षीय सत्यन को पहली बार सफऱ का मौका मिला जब छोडऩे आये लोगों ने मिलकर भाई के बाद इन्हे भी एक खिडक़ी से अन्दर ठूंस दिया। तब थर्ड-क्लास की खिड़कियों में सलाखें नही होती थीं।
कुछ कट्टर गांधीवादी लोगों के द्वारा संचालित स्कूल में दोनों की पढ़ाई हुई। आर्थिक खर्च न्यूनतम था किन्तु कठोर अनुशासन और गांधी जी के उसूलों की शिक्षा भरपूर।
आज़ादी के बाद के दशकों में पं. जवाहरलाल नेहरू की नीतियों ने सत्यन के जीवन को प्रभावित किया। एक तरफ नेहरू जी ने तेजी से खुले नये प्राथमिक स्कूल से लेकर आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान शुरू किये वहीं देश भर में शिक्षा को नि:शुल्क कर दिया था। स्कूल के बाद कुशाग्र बुद्धि वाले मेहनती सत्यन को अच्छे नम्बरों के कारण बड़ौदा के विश्वविद्यालय में दाखिला मिला तो फीस चिंता नहीं बनी। ट्यूशन मिलने लगे तो कुछ समय के बाद दूसरे भाई बहनों को बुलाकर उन्हे भी शिक्षित कर दिया।
नेहरू जी ने आज़ादी के बाद की युवा पीढ़ी को बड़े सपने देखने के लिए खूब प्रोत्साहित किया था। भारत में अनुसंधान की सुविधा बहुत सीमित थी इसलिए पढ़े-लिखे युवाओं के विदेश जाने पर कोई रोक-टोक नहीं लगायी गयी थी। तब के कुछ नेहरू-निंदकों ने ‘ब्रेन-ड्रेन’ का नाम देकर इस नीति की बहुत आलोचना की थी। साठ के दशक में अमेरिका पहुंची भारतीय युवकों की प्रतिभाशाली पीढ़ी ने ही अमेरिका के मार्फत विश्व में भारतीय बौद्धिक क्षमताओं का डंका बजाया और आने वाले समय में अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का मुखिया बने भारतीयों के लिए आधार तैयार किया।
फि़जि़क्स में एम एस सी कर चुके सत्यन को अमेरिका के शिकागो में दाखिला मिल गया, रिसर्च और आविष्कार के मौके मिले और सत्यन ने अगले बीस वर्षों तक पीछे मुडक़र नहीं देखा।
पहले वेतन के लिए बैंक में खाता खोलना था। कम्पनी के अकाउंटेंट को इनका नाम बहुत लम्बा लगा सो उसने चेक पर ‘सैम’ लिख दिया और तब से सत्यनारायण गंगाराम पित्रोदा ‘सैम पित्रोदा’ के नाम से जाने जाते हैं।
अमेरिका में इनके अविष्कारों, शैक्षणिक उपलब्धियों, और उद्यमों ने धूम मचा दी। सफलता ने कदम चूमना शुरू किया तो उन्होंने अपने दोस्तों के बीच घोषणा की : ‘मैं चालीस की उम्र छूने से पहले मल्टी-मिलिनेयर बनना चाहता हूं। उसके बाद कमाऊंगा नहीं। बस वह सब करूंगा जो मुझे अपने देश भारत का ऋण लौटाने की दिशा में संतुष्टि दे।" आज इनके पास बीस विश्वविद्यालयों की मानद डॉक्टरेट और टेलीफ़ोन तथा टेलीकम्युनिकेशंस के क्षेत्र मे सौ से अधिक पेटेन्ट (उत्पाद, खोज, या डिज़ाईन पर कानूनी अधिकार) हैं। अनेक सफल कम्पनियां और प्रोजेक्ट्स स्थापित और संचालित कर चुके हैं।
1980 के दशक की शुरुआत में इन्होने अपने सफल व्यवसायों से बिदा ली और सपनों के विस्तार में भारत को शामिल किया। यह वह समय था जब टेक्नोलॉजी की बारीकियों और क्षमताओं को समझने वाले इनके हमउम्र राजीव गांधी का सार्वजनिक जीवन में पदार्पण हो चुका था।
इन्होने भारत की टेलीफ़ोन व्यवस्था के आधुनिकीकरण कर गांवों में इसके विस्तार का प्रोजेक्ट राजीव गांधी की मदद से प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी जी के सामने रखा। इन्दिरा जी ने कैबिनेट की स्वीकृति दिलाई। जब तक प्रोजेक्ट धरातल पर उतरता इन्दिरा जी जा चुकी थीं। संयोग था कि राजीव गांधी जी नये प्रधान मंत्री बने और इन दो युवाओं की जोड़ी ने भारत में टेलिकॉम और टेक्नोलॉजी क्रांति की नीव रखी। छह टेक्नोलॉजी मिशन शुरू हुए जिसमें सैम राजीव गांधी के पूर्णत: अवैतनिक सलाहकार थे।
इस जोड़ी के नेतृत्व में भारत ने "नम्बर प्लीज़" वाली टेलीफ़ोन व्यवस्था को ऑटोमेटिक डायल वाली एक्सचेन्ज व्यवस्था में बदलते देखा, ध्वनि गुणवत्ता में सुधार के साथ साथ टेलीफ़ोन के गांव-गांव में होते विस्तार को देखा, स्वास्थ्य कार्यकर्ता को सायकिल के कैरियर में थर्माकोल के डब्बे में वैक्सीन लेकर गांवों में टीकाकरण के लिए जाते देखा, कोल्ड-चेन से पोलियो जैसी अनेक बीमारियों का उन्मूलन देखा, सरकारी प्रोत्साहन पर आगे बढ़े सुलभ इंटरनेशनल के रूप में पहली बार साफ़-सुथरे सार्वजनिक शौचालय देखे। बहुत कुछ देखा। किन्तु यहां सिफऱ् एक काम का जि़क्र है जिसने तीन साल की अवधि में बीस लाख परिवारों को सीधे और इससे अधिक लोगों को अप्रत्यक्ष आर्थिक लाभ और रोजग़ार दिया। वह है गांव गांव में एसटीडी-पीसीओ की श्रृंखला।
छत्तीसगढ के वरिष्ठ पत्रकार हैं पत्थलगांव के श्री रमेश शर्मा। अस्सी के दशक में उन्होने रायपुर से प्रकाशित एक अखबार के लिये अपने जशपुर जि़ले के तपकरा से एक समाचार भेजा था। ईब नदी के बहते पानी से सोने के कण बीनने का काम सदियों से वहां के आदिवासी करते आये हैं। स्वर्ण-कण लेकर ये गांवों के साप्ताहिक हाट बाजार पहुंचते जहां सुनार वाला छोटा तराजू हाथ मे लिये व्यापारी मिलते। बाट के रूप में धान के दानों का इस्तेमाल होता और सोने का उस दिन का बाज़ार मूल्य जो व्यापारी घोषित करते उस पर सौदा हो जाता। ज़ाहिर है आदिवासियों की अज्ञानता और बाहरी दुनिया से उनके कटे होने के तथ्य का भरपूर दोहन हो रहा था।
लेकिन अस्सी के दशक में स्थिति रातों रात बदल गयी। अब आदिवासी पहले गांव से रांची, झारसुगुड़ा, रायगढ़ जैसे स्थानों पर फ़ोन लगा कर सोने का भाव पूछते और उसके बाद व्यापारी से सौदा करते। श्री शर्मा के अनुसार यह संभव हो पाया था गांव में एसटीडी पीसीओ के खुल जाने से। इसने देश में विकलांगों, सैनिकों की विधवाओं और बेरोजगारों जैसी श्रेणियों के लाखों लोगों को रोजग़ार दिया। देर रात और अलसुबह मिलने वाली सस्ती दर की प्रतीक्षा में इन बूथ पर लोग इक_ा होने लगे। धीरे-धीरे पीसीओ में कहीं चिप्स तो कहीं चाय की बिक्री भी होने लगी। कुछ बेरोजगारों को दौडक़र इनकमिंग कॉल वाले को घर से बूथ तक बुला कर बात कराने का काम मिल गया।
भारत के इतिहास में पीले रंग के बोर्ड वाले एसटीडी-पीसीओ की भूमिका की उतनी चर्चा कभी नहीं हो पायी जितनी होनी थी। सन 2009 में अपने चरम पर पहुंचने तक देश में एसटीडी पीसीओ की संख्या पचास लाख हो चुकी थी। 1994 में टेलीफ़ोन सेक्टर के निजीकरण से लेकर मोबाइल फ़ोन के आने की कहानी अपने लिये एक पूरे और स्वतंत्र चैप्टर की मांग करती है जिसे लेख की बढ़ती लम्बाई स्वीकृति नहीं देती। सो, बस।
कनक तिवारी
आज दूसरी किस्त।
जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज कुमार सिन्हा ने गांधी की पढ़ाई को लेकर एक निहायत नाजायज, गैरजरूरी, और झूठी बात कही है। गांधी के मामलों के एक बड़े जानकार, देश के एक प्रमुख और चर्चित लेखक कनक तिवारी ने इतिहास के इस पहलू पर मेहनत से शोध करके यह लंबा लेख लिखा है। इसे अखबार के पन्नों पर एक दिन में छापना मुमकिन नहीं है, इसलिए हम इसे दो किस्तों में दे रहे हैं, -संपादक
ब्रिटेन के छात्रों सहित बाहरी छात्रों को विश्वविद्यालय में नियमित पढऩे में कई तरह की कठिनाइयां महसूस हो रही थीं। अव्वल तो फीस और खर्च ज़्यादा होने से निम्न मध्यवर्ग के छात्र जाने की सोच नहीं सकते थे। फिर अन्य संस्थाओं/विधाओं के साथ कई तरह की बंदिशें और अतिरिक्त पढ़ाई भी होती थी। इन सब कारणों से जिन छात्रों को मुनासिब ज्ञान लेकर वकालत के पेशे में जाना होता था उनमें औपचारिक विश्वविद्यालयों के छात्रों का प्रतिशत बहुत ज्यादा नहीं था। 1828 में यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढ़ाई का पाठ्यक्रम शुरू किया गया था लेकिन वर्ष 1900 तक केवल 135 विद्यार्थी स्नातक परीक्षा पास कर पाए। यही वजह रही कि भारत सहित दुनिया के अन्य देषों के और अंगरेजी के भी होनहार छात्र विश्वविद्यालय के समानांतर कार्यरत इन इन्स में उसी गुुणवत्ता की पढ़ाई और ट्रेनिंग ले पाते थे। इनकी विश्वसनीयता दषकोंं बल्कि सदियों से व्यावहारिक, उपयोगी और प्रोन्नत होती रही थी। इन छात्रों को स्टूडेन्ट बैरिस्टर ही कहा जाता था।
जानना चाहिए कि भारत के बहुत मषहूर वकील मोहम्मद अली जिन्ना भी लिंकन इन्स के छात्र रहे थे। डॉ. शंकरदयाल षर्मा, जुल्फिकार अली भुट्टो और न जाने कितने! विष्व प्रसिद्ध जज लॉर्ड डेनिंग भी। दुनिया में ऐसे लाखों हजारों बैरिस्टर और वकील समय समय पर हुए जो इन्हीं इन्स में स्थानीय, सामाजिक और अकादेमिक कारणों से पढ़ते और प्रशिक्षण लेते रहे हैं। यह कहना कि गांधी के पास कोई कानून की कोई डिग्री नहीं थी, दुर्भावनापूर्ण वक्तव्य है। मनोज सिन्हा को समझाना चाहिए था गांधी 1888 में कानून की पढ़ाई करने इंग्लैंड गए। तब वहां समाज प्रतिष्ठित संस्थाएं इन्स ज्यादा वांछनीय होकर उपलब्ध थीं। उनमें वही पढ़ाई, वही ट्रेनिंग, और प्राप्त होने वाली सनद का ठीक वही महत्व था। उसे हासिल कर वकालत या बैरिस्टरी करनेे के लिए छात्र को काबिलियत और अधिकार पूरी तौर पर हासिल हो जाता था। इसी के तहत गांधी 6 नवंबर 1888 को इनर टेंपल की मानद सोसायटी के सदस्य बने। उन्हें 28 मई 1891 को वकालत की परीक्षा पास करने का प्रमाण मिला और 10 जून 1891 को उन्हें बैरिस्टरी और वकालत करने की अनुमति दी गई। गांधी 12 जून 1891 को वहां से भारत लौटे।
गांधी ने अपनी पढ़ाई बाबत ‘आत्मकथा’ में खुद लिखा है ‘‘बैरिस्टर बनने के लिए दो बातों की जरूरत थी। एक थी, ‘टर्म पूरी करना’ अर्थात् सत्र में उपस्थित रहना। वर्ष में चार सत्र होते थे। ऐसे बारह सत्रों में हाजिर रहना था। दूसरी चीज थी, कानून की परीक्षा देना। सत्रों में उपस्थिति का मतलब था, ‘दावतें खाना’, यानी हर एक सत्र मेंं लगभग चौबीस दावतें होती थीं, उनमें से छह में सम्मिलित होना। विद्यार्थियों के लिए एक प्रकार के भोजन की और ‘बेंचरों‘ (विद्या-मंदिर के बड़ों) के लिए अलग से अमीरी भोजन की व्यवस्था रहती थी। इस पुरानी प्रथा का बाद में कोई मतलब नहीं रह गया। फिर भी प्राचीनता के प्रेमी-धीमे-इंग्लैंड में वह बनी रही। कानून की पढ़ाई सरल थी। बैरिस्टर मजाक में ‘डिनर (भोज के) बैरिस्टर ही कहलाते थे। सब जानते थे कि परीक्षा का मूल्य नहीं के बराबर है। मेेरे समय में दो परीक्षायें होती थीं: रोमन लॉ की और इंग्लैंड के कानून की। परीक्षा वर्ष में एक बार नहीं, चार बार होती थी। ऐसी सुविधा वाली परीक्षा किसी के लिए बोझ रूप हो ही नहीं सकती थी। पर मैंने उसे बोझ बना लिया। मुझे लगा कि मुझे मूल पुस्तकें पढ़ ही लेनी चाहिये। न पढऩे में मुझे धोखेबाजी लगी। इसलिए मैंने मूल पुस्तकें खरीदने पर काफी खर्च किया। मैंने रोमन लॉ को लेटिन में पढ़ डालने का निश्चय किया। विलायत की मैट्रिक्युलेशन परीक्षा में मैंने लेटिन सीखी थी, वह यहां उपयोगी सिद्ध हुई। इंग्लैंड के कानून का अध्ययन मैं नौ महीनों में काफी मेहनत के बाद समाप्त कर सका। परीक्षायें पास करके मैं 10 जून, 1891 के दिन बैरिस्टर कहलाया। 11 जून को ढाई षिलिंग देकर इंग्लैंड के हाईकोर्ट में अपना नाम दर्ज कराया और 12 जून को हिन्दुस्तान के लिए रवाना हुआ।
यह कहना गलत है कि गांधी के पास केवल गुजरात से मैट्रिक पास करने का डिप्लोमा था। गांधी ने मैट्रिक की परीक्षा 1887 में पूरे इत्मीनान और अध्ययन से पास की थी। गांधी ने अंगरेजी, गुजराती, हिन्दी भाषाओंं सहित गणित और सामान्य ज्ञान की पढ़ाई भी की थी और सभी पर्चों में बैठे थे। उस मान्यता प्राप्त परीक्षा में पास होने से ही उन्हें लंदन में वकालत की पढ़ाई के लिए दाखिला मिला था। यह बताना महत्वपूर्ण के साथ साथ जरूरी भी है कि गांधी को वकालत की पढ़ाई सहज और सरल लगती थी कि उनके पास समय बचता था। तब उन्होंंने अपने एक मित्र की सलाह से लंदन में होने वाली मैट्रिक की परीक्षा भी अतिरिक्त रूप से पास की। इस तरह दो बार मैट्रिक की परीक्षा पास करने के साथ कानून की पढ़ाई करते रहे। उन्होंने लेटिन भाषा सीखी जबकि ऐसा करना ज़रूरी नहीं था। फ्रेंच में भी गांधी ने परीक्षा पास की। दरअसल उस वक्त के इंग्लैंड में 80 प्रतिशत से ज्यादा लोग तो इन्हीं इन्स में पढ़ते रहे क्योंकि वहां पढऩे की बेहतर सहूलियतें और सुविधाएं रही हैं और गुणवत्ता के साथ कोई समझौता भी नहीं होता था। वहां पढ़ाई और प्रमाणन की उतनी ही मान्यता थी जितनी तथाकथित रूप से लॉ की डिग्री जैसी कोई अकादेमिक प्रमाणन की बात हो सकती थी। जानना जरूरी है कि बार एसोसिएशन जैसी वकीलों की संस्थाएं औपचारिक यूनिवर्सिटी डिग्री को व्यावहारिक अनुभव सहित ट्रेनिंग और पढ़ाई के मुकाबले कमतर मानती थीं।
यह पूरी पृष्ठभूमि मनोज कुमार सिन्हा जी को मालूम रही है-ऐसा मुझे लगता है। इसे उन्होंने क्योंं छिपाया? उन्होंने छात्रों से कहा वे गांधी जी के बारे में बात कर रहे हैं, जो सत्य के बहुत बड़े प्रतीक हैं। इसलिए सच कह रहे हैं कि उनके पास कोई डिग्री नहीं थी। यह क्यों नहीं बताया कि गांधी को जो सनद मिली और हजारों छात्रों को भी जिनमें कई बड़े नाम हैं (वही तो लॉ की डिग्री समझी जाने से ये छात्र बैरिस्टरी करते गए)। ये सब भी तो इन्हीं चारों इन्स में से पढ़े हैं। तो वही तो लॉ डिग्री समझी और कही जाएगी। वह सदियों से व्यवहार में लागू रही है। शब्दों को इस तरह नहीं चबाना चाहिए जिससे पर्याय और अर्थ गायब हो जाएं और केवल छिलके की शैली की तरह दांतों में चिपके रहें। मैं मनोज सिन्हा से कहता हूं कि मनोज जी ने गांधी जी की उच्च शिक्षा को लेकर गलतबयानी की है। ऐसी उनसे उम्मीद नहीं थी। वे जिस वैचारिक यूनिवर्सिटी के छात्र हैं, वहां उनके पास तो अदृष्य और अजन्मी एंटायर पोलिटिकल साइंस की डिग्री भी होती है। कहां है मोदी जी की वह डिग्री जो अदालती रक्षा कवच के अंदर छिपी हुई है? उनके बारे में क्यों नहीं कहते? यदि गांधी के पास कानून की विश्वसनीय डिग्री नहीं होती तो दुनिया के सबसे बड़े जननेता के खिलाफ लोग चुप कैसे रह सकते थे। क्या यह नरेन्द्र मोदी को एंटायर पोलिटिकल साइंस की डिग्री के सवाल पूछने वालों से बचाने की कोई जुुगत है? या लेफ्टिनेंट गवर्नर मोदी की दृष्टि में अपने नंबर बढ़ाकर जम्मू कश्मीर से प्रोन्नत होकर अपनी रुखसती चाहते हैं।
कभी किसी महापुरुष के खिलाफ विशवमन नहीं करना चाहिए और न ही उसके चरित्र और लोकछवि पर थूकने की कोषिष करना चाहिए। ऐसा करने के पहले गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत याद रखना चाहिए कि आसमान की ओर देखकर थूकने से क्या हासिल होता है? कहना तो चाहिए था कि गांधी कानून और अंगरेजी गद्य के महारथी थे। उनके जैसा अंगरेजी गद्य तो भारत में बहुत कम लोग लिख पाए हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री आशीष नंदी ने कहा ही है कि गांधी की भाषा में बाइबिल जैसी सादगी और पवित्रता है। गांधी की स्तुति में तो बहुत कुछ कहा गया है। फिलवक्त उसकी जरूरत नहीं है। लेकिन संवैधानिक पद पर बैठा हुआ एक व्यक्ति जानबूझकर वक्तव्य देगा जिससे गांधी जैसे महामानव की अकादेमिक शिक्षा को लेकर भ्रम पैदा हो। क्या कहना चाहते हैं कि गांधी को मालूम था कि इनर टेम्पल की उनकी डिग्री बैरिस्टर बनने के लायक नहीं थी? फिर भी गांधी बैरिस्टर बन गए। अफवाहों और झूठ का बाजार तो भारत में एक सरगना के कारण महामारी की तरह फैल गया है। उस प्रदूषित कथानक में मनोज सिन्हा ने एक और कथा जोड़ दी। छात्रों ने उन्हें सुना। उनमें से कुछ के मन में सच के खिलाफ झूठ का प्रदूषण इंजेक्ट हो गया होगा। बेचारे छात्रों ने मनोज कुमार सिन्हा का क्या बिगाड़ा था जो उनका जीवन बर्बाद करने उन्हें झूठ सुनने मजबूर कर गए।
असल में बोलने में षब्दार्थ पर निहितार्थ की पकड़ होती है। क्या यह कहने का अर्थ हो सकता है कि गांधी जी पढ़े लिखे तो थे नहीं, फिर भी जबरिया वकालत कर रहे थे?
जम्मू कश्मीर के आतंकवाद से जूझते लेफ्टिनेंट गवर्नर साहब! हम आपके उद्गारों को क्या कह सकते हैं झूठ का आतंकवाद!
पुनश्च: यदि गलती हो गई हो, तो क्षमा करेंगे क्योंकि गांधी यही कहने सपने में आए थे कि किसी को परेशान मत करो!
-रुचिर गर्ग
एक माफिया अतीक अहमद के टीवी कवरेज के बारे में सुना तो आज कुछ पोस्ट्स बहुत तकलीफ के साथ लिख दीं।
ऐसी भाषा लिखना ,जिसके पक्षधर आप खुद भी न हों ,बहुत तकलीफ देता है। क्योंकि यह सब सस्ते कटाक्ष से ज्यादा कुछ नहीं होता पर अतीक अहमद के टीवी कवरेज ने जितना शर्मसार किया है वह अभूतपूर्व है।
रेटिंग की भूख कहें या अडानी से ध्यान बांटने की कोशिश या राहुल गांधी को स्पेस न देने की साजिश ...जो भी हो आज की यह पत्रकारिता लोकतंत्र के ताबूत को ढोने वाली बड़ी ताकत बन रही है।
मन में सवाल उठ रहा है कि हमने– आपने आजादी की लड़ाई तो नहीं लड़ी लेकिन क्या हम इस आजादी को गंवाने का जुर्म अपने सीने पर टांगने वाले हैं ?
गुलामी आज अंगरेज के नाम से नहीं आ रही है।
आज की गुलामी मूढ़ता और अवैज्ञानिकता के रास्ते, सांप्रदायिकता ,नफरत और अंधविश्वास पर सवार हो कर उन्माद के हथियार के साथ आ रही है।
इस गुलामी की मंजिल तानाशाही है और यह सामने दिख रही है ।
जी बिल्कुल सामने ही...आपके टीवी स्क्रीन पर !
आप न देख पा रहे हों तो यह निकट दृष्टि दोष है।
ये आर्यभट्ट और वराहमिहिर का देश है। ये सीवी रमन , होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई,अब्दुल कलाम जैसों का देश है।
ये जगदीश चंद्र बसु से लेकर जयंत नार्लीकर और सलीम अली तक का देश है।ये मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या का देश है।
ये रामानुजन और हरगोविंद खुराना का देश है।ये देश शांति स्वरूप भटनागर का है।
ये कबीर और रसखान का देश है।ये गांधी,नेहरू और टैगोर का देश है।
सूची इतनी लंबी है कि पढ़ते पढ़ते हमें अपने वर्तमान पर शर्म आयेगी ।
ये वो थे जिन्हें गर्व से हम अपनी वैज्ञानिक चेतना के पहरेदार कहते हैं –आज भी ।
दुर्भाग्य से आज इस सूची की चर्चा भी उस दिन हो रही है जब तीन साल पहले पूरे देश को कोरोना के दौरान ताली थाली बजाते हुए अवैज्ञानिकता के घूरे में धकेल दिया गया था ! हम सबने टीवी पर देखा ही था।
इस अवैज्ञानिकता के प्रसार में आज देश का मीडिया जितनी शिद्दत से लगा है उसकी मिसाल शायद ही दुनिया में कहीं मिले।
विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक के मामले में आज हिंदुस्तान तलहटी में जगह तलाश रहा है ,यही तो इस देश की पत्रकारिता का मूत्र–काल है!
आज भारतीय मीडिया की शिनाख्त सिर्फ अवैज्ञानिकता का ढोल पीटने वाले ढोलचियों में नहीं होती बल्कि सत्ता के सामने रेंगते ऐसे कॉरपोरेट मीडिया की तरह होती है जिस पर बाकायदा जनांदोलनों को कुचलने का , विपक्ष की आवाज को दबाने का, कॉर्पोरेट सेवा में लीन रहने का संगीन आरोप है।
ऐसा मीडिया ना लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा है ना देश के लिए,सच तो यह है कि किसी एक देश में मीडिया की दुर्दशा हर उस लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए हानिकारक है जो दुनिया में कहीं भी अस्तित्व में हो।
हमारी राजनीतिक पसंद,नापसंद अलग–अलग हो सकती है।
हम ढेर सारे मतभेदों के बीच सद्भाव के साथ जीने वाला समाज होना चाहते हैं।
हम मतभेदों का सम्मान करने वाले समाज हों तो यह देश की ताकत होगा।
लेकिन हमको कूढ़ मगज समाज बनाने की साजिशें हों तो सतर्क होना चाहिए और सोचना चाहिए कि ऐसी साजिशें क्या सिर्फ व्यवसायिक जरूरत हैं ? नहीं !
दरअसल ऐसी साजिशें देश को तानाशाही के रास्ते ढकलने का जतन हैं। दुर्भाग्य से आज मीडिया और खासतौर पर टीवी तो ऐसी साजिशों के लिए बड़ा औजार बन गया है।
आजादी के बाद तो लक्ष्य यही था कि देश ज्ञान के रास्ते आधुनिक समाज की नींव रखने के इरादे से आगे बढ़े लेकिन वो कौन हैं जो आज आधुनिक , वैज्ञानिक और नए नए आविष्कार करते समाज की जगह कूपमण्डूक समाज चाहते हैं ? और क्या मीडिया नासमझी में इस चाहत का साथी बन बैठा है ?
आपको आज के न्यूजरूम की कार्यप्रणाली को बहुत गंभीरता से समझना होगा।
अगर लोकतंत्र की ताजी हवा चाहिए तो आज के न्यूजरूम की घुटन को महसूस करना होगा और इस बारे में जागरूक भी होना होगा।
आज का न्यूजरूम आमतौर पर देश की एक ऐसी सरकार चला रही है जिसके इरादे साफ हैं।
छोटे, कम पूंजी के मीडिया हाउस फिर भी किसी तरह खुद को बचा कर रखे हुए हैं । पर बड़ी पूंजी और सत्ता–कार्पोरेट जुगलबंदी ने एक ऐसा मीडिया खड़ा कर दिया है जो देश को ,इस महान देश को,इस लोकतंत्र को,अभूतपूर्व शहदातों ,त्याग और बलिदान से हासिल इस महान लोकतंत्र को सीमित हाथों में सौंपने की साजिशों का कठपुतली बन गया है !
पूछिए अपने आप से कि इस मीडिया में अब खोजी पत्रकारिता की जगह हिंदू मुसलमान ने या दंगा भड़काऊ खबरों ने क्यों ले ली है?
इसी सवाल में आज के बहुत से, बल्कि अधिकांश बड़े न्यूजरूम की हकीकत की हकीकत छिपी है।
अपने आसपास , अपने परिचित या किसी रिश्तेदार से जो रिपोर्टर है,बड़े सपने के साथ पत्रकारिता करने आया है उसके सपनों का हश्र जानिए।
फर्स्ट हैंड सूचनाएं लीजिए,खुद एहसास होगा कि कैसे एक बड़े डिजाइन के आप भी टूल बनते जा रहे हैं ।
पढ़िए उन पत्रकारों को जो सीमित संसाधनों के बीच सोशल मीडिया पर पत्रकारिता को जिंदा रखे हुए हैं उसमें जी रहे हैं।
ऐसे ढेर सारे पत्रकार हैं जो हिंडनबर्ग रिपोर्ट से पहले ही अडानी की करतूतें खोल रहे थे लेकिन वो किसी बड़े न्यूज रूम का हिस्सा नहीं थे।हो नहीं सकते थे।
एक बड़े अखबार ने कोरोना काल में हौसला दिखाया था लेकिन उस हौसले पर बुलडोजर चल गया।बीबीसी का मामला तो ताजा है।
न्यूजरूम आज रेवेन्यू से अधिक एक देश की ताकतवर सत्ता के आगे दम तोड़ रहा है।
जैसे जैसे न्यूज रूम का दम निकलेगा, वैसे वैसे लोकतंत्र भी कमज़ोर ही होगा।
कमज़ोर न्यूज रूम लोकतांत्रिक आकांक्षाओं का कमरा नहीं रह जाता। वहां सिर्फ सत्ता की स्वर लहरियां और ईमानदार, पर बेबस पत्रकारों का रूदन ही गूंजता है।
यह सब आपको अंधेरे में रखने के लिए, आपको अंधेरे में रख कर हो रहा है।
राहुल गांधी जब लोकतंत्र की चिंता करते हैं और उस चिंता के मुकाबले अतीक अहमद का मूत्र विसर्जन जब सबसे बड़ी खबर बन जाए तो सबसे पहले चिंतित आपको होना चाहिए।
क्योंकि पत्रकारिता का यह मूत्र–काल लोकतंत्र के विनाश का काल बनने में पूरी मदद करेगा।
(लेखक एक भूतपूर्व पत्रकार हैं, वर्तमान में वे कांग्रेस पार्टी में हैं, और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार हैं।)
डॉ.संजय शुक्ला
कांग्रेस नेता राहुल गांधी को सूरत के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट द्वारा मानहानि से संबंधित मामले पर दो साल की सजा मुकर्रर करने के बाद उन्हें जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत लोकसभा की सदस्यता से अयोग्य ठहराए जाने के बाद देश में राजनीतिक भूचाल आ गया है। लोकसभा सचिवालय द्वारा लिए गए इस फैसले पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के निशाने पर सीधे तौर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी है।इस मामले पर तमाम विपक्षी दल फिलहाल राहुल गांधी के पक्ष में खड़े दिखाई दे रहे हैं जिससे राजनीतिक पंडितों सहित कांग्रेस का भी आंकलन है कि इस मामले से राहुल गांधी और उनकी पार्टी को काफी राजनीतिक लाभ मिलेगा। इन मंसूबों के साथ पार्टी इसे भुनाने में जुटी है कांग्रेस के पैरोकारों का मानना है कि इस फैसले से न केवल राहुल के प्रति लोगों की सहानुभूति उमड़ेगी वरन वे साल 2024 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी का सशक्त विकल्प भी होंगे। कांग्रेस सहित राजनीतिक विश्लेषकों को यह भी भान होने लगा है कि राहुल और कांग्रेस के अगुवाई में अब विपक्ष का एकजुट गठबंधन तैयार होगा जो अगले चुनाव में भाजपा गठबंधन को सत्ता से रुखसत कर देगा। बहरहाल इस मामले से विपक्ष को मोदी के खिलाफ एक मजबूत मुद्दा तो मिला ही है वहीं कांग्रेस कार्यकर्ताओं में भी भरपूर जोश पैदा हुआ है।
बहरहाल राहुल गांधी के खिलाफ सूरत कोर्ट के फैसले का आगे क्या हश्र होगा? राहुल के अयोग्यता संबंधी फैसले पर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट क्या रूख लेगी? ऐसे तमाम कानूनी सवालों को फिलहाल परे रखते हुए विपक्ष के भविष्य की रणनीति और इसमें राहुल और कांग्रेस की भूमिका पर विचार करना सामयिक होगा। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सहित सोशल मीडिया पर फिलहाल दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल तथा पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री व टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी इन दिनों राहुल गांधी और कांग्रेस के सबसे बड़े खैरख्वाह नजर आ रहे हैं।
हालांकि राहुल गांधी के साथ शिवसेना के उद्धव ठाकरे, एनसीपी के शरद पवार, नेशनल कांफ्रेंस के फारुख अब्दुल्ला, सपा के अखिलेश यादव, राजद के तेजस्वी यादव, नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू, एमके स्टालिन जैसे तमाम विपक्षी नेता भी खड़े दिखाई दे रहे हैं लेकिन यह तय नहीं है कि वे राहुल गांधी के साथ मोदी और भाजपा के खिलाफ संघर्ष में कितनी दूर तक चलेंगे और किस शर्त पर चलेंगे? दरअसल इस सवाल के मूल में राहुल गांधी का राजनीतिक कद है जो मोदी और भाजपा को चुनौती देने के मामले में उक्त नेताओं के कद से काफी ऊंचा है। इन परिस्थितियों में अहम सवाल यह भी है कि क्या हिंदी पट्टी के अरविंद केजरीवाल से लेकर अखिलेश यादव जैसे नेता राहुल गांधी को बतौर प्रधानमंत्री उम्मीदवार स्वीकार करेंगे?इन सवालों के परिप्रेक्ष्य में प्रतिप्रश्न कि क्या विपक्ष आगे भी आज की तरह एकजुट रहेगी?
बिलाशक आज मोदी, भाजपा और आरएसएस के खिलाफ पूरी मुखरता के साथ खिलाफत करने वाले में राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और कांग्रेस ही है लेकिन हाल के दिनों में अरविंद केजरीवाल भी मोदी और भाजपा का छाती ठोककर विरोध कर रहे हैं। दरअसल इसके पीछे प्रमुख कारण केजरीवाल मंत्रिमंडल के दो सबसे वरिष्ठ मंत्री मनीष सिसोदिया और सत्येन्द्र जैन के खिलाफ केंद्रीय जांच एजेंसियों की दबिश और उनकी गिरफ्तारी है लेकिन इसके बावजूद वे मोदी और भाजपा का विरोध उन सभी राज्यों में कर रहे हैं या किया है जहां बीते दौर में विधानसभा चुनाव हुए हैं अथवा होने वाले हैं। बेशक इस विरोध के पृष्ठभूमि में केजरीवाल की मंशा मोदी और भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के विकल्प को खारिज कर ‘आप’ को विकल्प के तौर पर उभारना है जिसमें वे सफल होते भी दिखाई दे रहे हैं।
दूसरी ओर बात ममता बनर्जी की करें तो उनकी सीधी अदावत भाजपा के साथ कांग्रेस से भी है लिहाजा वह पश्चिम बंगाल में किसी भी हाल में कांग्रेस को न तो जमीन तैयार करने देंगी और न ही वे कांग्रेस या राहुल गांधी की अगुवाई में अगले चुनाव में उतरने के लिए हामी भरेंगी। बीजू जनता दल सुप्रीमो नवीन पटनायक हमेशा की तरह सायलेंट ही रहेंगे, तेलंगाना में केसीआर के खिलाफ जाहिर तौर पर कांग्रेस ही है लिहाजा वे अपनी जमीन का बंटवारा करने किसी भी तौर पर सहमत नहीं होंगे। हालांकि उन्होंने उनके परिजनों के ठिकानों पर ईडी और अन्य एजेंसियों के दबिश के बाद कांग्रेस के सुर में सुर मिलाया है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मोदी और भाजपा के खिलाफ गैर कांग्रेसी गठबंधन बनाने की मुहिम में उनकी मुख्य भूमिका है। वाय.एस.जगनमोहन रेड्डी और कांग्रेस के पुराने अनुभव बेहद खराब रहे हैं लिहाजा वे भी कांग्रेस के झंडे तले नहीं आएंगे।
बहरहाल उपरोक्त तथ्यों पर गौर करें तो यह अनुमान लग रहा है कि राहुल गांधी के सदस्यता से अयोग्यता के मुद्दे पर फिलहाल अरविंद केजरीवाल,ममता बनर्जी, अखिलेश यादव जैसे नेताओं की कांग्रेस और राहुल के साथ दिखाए जा रहे हमदर्दी को बहुत ज्यादा गंभीरता से नहीं लेना चाहिए क्योंकि कांग्रेस के इन नेताओं के साथ अतीत के अनुभव कड़वाहट भरे ही रहे हैं। अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी जैसे नेता बेहद महत्वाकांक्षी हैं और उनकी मंशा राष्ट्रीय फलक पर उभरने की ही है ऐसे में फिलहाल यही लग रहा है कि इन दोनों का राहुल गांधी और कांग्रेस के प्रति सहानुभूति महज एक राजनीतिक रणनीति है जिसमें वे राहुल के कंधे पर सवार होकर मोदी और भाजपा पर प्रहार कर रहे हैं। हालिया परिदृश्य में केजरीवाल यह भी दिखाना चाह रहे हैं कि वे ही मोदी और भाजपा का राष्ट्रीय विकल्प है और वे ही एक ऐसे आदर्श राजनेता हैं जो देश के लोकतंत्र को बचाने के लिए कांग्रेस जैसे अपने परंपरागत विरोधी के साथ तमाम गिले शिकवे भूलाकर खड़े होने के लिए भी तैयार हैं।
बहरहाल कांग्रेस को अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी जैसे नेताओं पर फिलहाल ऐतबार करना जल्दबाजी होगी क्योंकि ये नेता इस राजनीतिक आपदा में अपने लिए ही अवसर ढूंढ रहे हैं। लिहाजा कांग्रेस को मुगालते में नहीं रहना चाहिए बल्कि उसको अपने ही भरोसे आगे की राजनीतिक लड़ाई लडऩी होगी। विपक्षी एकता के संबंध में पिछले दिनों पढ़ा गया एक लेख बार-बार याद आता है जिसका लब्बोलुआब यह कि राहुल गांधी जितना मजबूत होंगे विपक्षी एकता की संभावना उतनी ही धूमिल होते चली जाएगी। अलबत्ता जिस तरह राहुल गांधी मोदी और भाजपा के विरोध में वीर सावरकर को घेरते हैं उससे कभी कभी यह भी अंदेशा होता है कि कहीं राहुल जाने -अनजाने भाजपा के ही पिच पर तो बैटिंग नहीं कर रहे हैं? क्योंकि अतीत में कांग्रेस की ऐसी तमाम चूक से भाजपा को ही सीधे तौर पर फायदा हुआ था।
गौरतलब है कि शिवसेना के लिए वीर सावरकर सदैव आस्था के व्यक्तित्व रहे हैं और वह हर बार सावरकर विरोधी बयानों का कड़ा प्रतिवाद करती है। लिहाजा राहुल और उनकी पार्टी को ऐसे बयानों से परहेज करना चाहिए जिससे शिवसेना और उसके गठबंधन पर कोई असर पड़े। राहुल गांधी और कांग्रेस को यह बात भी जेहन में रखना होगा कि देश में आगे भी गठबंधन की राजनीति ही चलेगी लिहाजा उसे अपने गठबंधन के दलों के भावनाओं और अपेक्षाओं पर भी खरा उतरना होगा। इस सच्चाई के साथ ही अगली सच्चाई यह भी कि गैर कांग्रेसी गठबंधन के सहारे भाजपा और मोदी को हटाना असंभव ही है क्योंकि कांग्रेस ही एक ऐसी राजनीतिक पार्टी है जिसका राष्ट्रीय विस्तार है और इसकी जड़ें पूरे देश भर में फैली हुई है।
आज जरूरत कांग्रेस के इस सूखती जड़ों को फिर से ताकत देने की है जिसके लिए पार्टी के करोड़ों नेता और कार्यकर्ता जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं। यह तो वक्त तय करेगा कि लोकतंत्र बचाने के लिए राहुल गांधी और उसकी पार्टी द्वारा की जा रही तपस्या कितनी फलीभूत होती है? बहरहाल अभी सियासत के किताब में बहुत सारे पन्नों पर इबारत लिखनी बाकी है। बिलाशक इन पन्नों पर राहुल और कांग्रेस सहित मोदी और भाजपा की राजनीतिक तकदीर भी लिखी जाएगी। इन सबके बावजूद यह तय है कि अब कांग्रेस की राजनीति एक निर्णायक दौर पर है और पार्टी के लिए अभी नहीं तो कभी नहीं जैसी स्थिति है।
आज पहली किस्त।
जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज कुमार सिन्हा ने गांधी की पढ़ाई को लेकर एक निहायत नाजायज, गैरजरूरी, और झूठी बात कही है। गांधी के मामलों के एक बड़े जानकार, देश के एक प्रमुख और चर्चित लेखक कनक तिवारी ने इतिहास के इस पहलू पर मेहनत से शोध करके यह लंबा लेख लिखा है। इसे अखबार के पन्नों पर एक दिन में छापना मुमकिन नहीं है, इसलिए हम इसे दो किस्तों में दे रहे हैं, आज पहली किस्त। -संपादक
जम्मू कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज कुमार सिन्हा ने हालिया ग्वालियर की आई टी एम यूनिवर्सिटी में डॉक्टर राममनोहर लोहिया के जन्मदिन और भगतसिंह, सुखदेवराज और राजगुरु की शहादत के दिन (23 मार्च) को एक अजीबोगरीब विवाद पैदा कर दिया। मूल विषय डा0 राममनोहर लोहिया स्मृति व्याख्यान से भटकते हुए उन्होंने महात्मा गांधी को लेकर जानबूझकर विवादास्पद और दुर्भावना जैसी लगती अनावश्यक टिप्पणी कर दी। इसका देश के कई इलाकों में मुनासिब विरोध हो रहा है। होना तो उससे भी ज्यादा चाहिए। सिन्हा ने कह दिया गांधी के पास कोई लॉ डिग्री नहीं थी। यह जबान से फिसल गया कोई वाक्य नहीं था। फिर उसी वाक्य को चबा चबाकर उन्होंने दोबारा तिबारा विस्तारित करते कहा कि देष में लोगों को लगता है, और कई पढ़े-लिखे लोगों को भी भ्रम है कि गांधी जी के पास कानून की डिग्री थी, लेकिन ऐसा कतई नहीं है। उनके पास न तो कानून की कोई डिग्री थी और न ही योग्यता (क्वालिफिकेशन)। वे यहीं नहीं रुके। फिर गांधी जी की हाई स्कूल की पढ़ाई खंगालते कहा उनके पास कोई डिग्री (योग्यता) थी तो यही कि वे हाई स्कूल परीक्षा में डिप्लोमाधारक थे। अलबत्ता बाद में कटाक्ष सुधारने के नाम पर कहा कि डिग्री का रिश्ता ज्ञान से या ज्ञान का डिग्री से नहीं होता। गांधी जी और आइन्स्टाइन जैसे कई लोग बिना डिग्री के भी समाज के बड़े शिक्षक हुए हैं।
यह गोलमोल और मतिभ्रम पैदा करती बौद्धिक अदा मासूम या निर्दोष नहीं है। मनोज सिन्हा भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के काफी घिसे पिटे कार्यकर्ता केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में रहे हैं। उनमें प्रशासनिक दक्षता देखते या हटाने लेफ्टिनेंट गवर्नर बनाया गया। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्होंने एम. टेक. की परीक्षा पास की। उम्मीद होनी चाहिए कि उन्होंने गांधी जी के जीवन को शायद पढ़ा होगा। संघ विधारधारा गांधी का यष जतन से शोषित करती है, ताकि गांधी के विचार और कर्म पर अपनी वाहवाही कराने बल्कि वोट बैंक लूटने और गांधी की जगहंसाई कराने हमलावर हो सके। मनोज सिन्हा इस फितरत के बाहर नहीं हैं। वे इसी सम्प्रदाय-प्रयोजन का हिस्सा हैं। कार्यक्रम में गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशान्त और प्रख्यात कवि, कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल का नाम भी छपा था।
यह प्रश्न है मनोज सिन्हा ने ऐसा क्यों कहा? गांधी के नहीं रहने के लगभग 75 वर्ष बाद में संसार में मनोज सिन्हा अकेलेे हैं जिन्होंंने गांधी की अकादेमिक योग्यता पर द्विअर्थी फिफकरा कसा। गांधी के लगभग समकालीन भारत में लोग रहे हैं, जो ऐसी चूक पर चुप नहीं रह सकते थे। बेहद तीक्षण बुद्धि के डॉक्टर अम्बेडकर, गांधी से असहमत विनायक दामोदर सावरकर, गांधी को ‘नंगा फकीर’ कहने वाले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल और न जाने सैकड़ों हजारों लोग रहे हैं जो गांधी को विधि के उपाधिधारक नहीं होने के कारण चुप कैसे रहते? गांधी को इंग्लैंड में बैरिस्टरी की सनद मिली और उनकी वकालत का सिलसिला भारत और दक्षिण अफ्रीका में काफी सफलता के साथ चलता रहा। फ्रांस के मषहूर ज्योतिषी नास्त्रेदमस ने भी कहीं नहीं लिखा कि 23 मार्च 2023 को मनोज कुमार सिन्हा नाम का व्यक्ति गांधी की कानून की डिग्री को लेकर पेचीदा और अनोखा बयान करेगा जो इतिहास को भौंचक और कलंकित करेगा। लेकिन ऐसा हुआ तो।
मैं नहीं मानता मनोज सिन्हा को गांधी की वास्तविक शिक्षा के बारे में जानकारी नहीं होगी और उन्होंने फकत तुक्का चला। वे समझते रहे होंगे ऐसी खतरनाक बात करने का क्या परिणाम हो सकता है। उन्होंने गांधी के छात्र जीवन को खंगाला जरूर होगा कि सच्चाई का पता तो लगे। फिर अपनी संघी फितरत के अनुकूल उन्होंने आधे सच को आधे झूूठ के लिबास में लपेट दिया और यंू परोसा मानो पूरा सच है। लोगों को लगा इसमें झूठ का हिस्सा ज़्यादा कुलबुला रहा है और सच को कराहने छोड़ दिया गया है। क्या यह उन्होंने जान-बूझकर किया? सोच समझकर किया? क्या इसीलिए बार बार गंभीर, कठोर और पेचीदी मुख मुद्रा बनाकर तोहमत लगाने की षैली में वे गांधी के यषस्वी इतिहास को फतवा सुना रहे थे। मासूम मुखमुद्रा में कहते, तो शायद सरलता से समझा पाते कि दरअसल कहना क्या है। वे बाकायदा तैयार नोट्स भी बीच बीच मेंं देख रहे थे। इससे जाहिर होता है वे पढक़र तैयार होकर सोचा समझा ही बोलने आए थे। उनके पास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रिय कोई टेलीप्रॉम्प्टर भी नहीं था।
किस्सा है कि इंग्लैंड के सदियों के इतिहास में शुरू में वकालत का व्यवसाय जनदृष्टि में बहुत सम्मानजनक, प्रतिष्ठित, या लोकप्रिय नहीं रहा। वह अन्य व्यवसायों की तरह ही समाज में औसतन ही समझा जाता था। पिछली कुछ सदियों में कई समाज प्रवर्तक लोग वकालत का व्यवसाय अपनाना आदर्ष नहीं मानते थे। धीरे-धीरे जब एक औद्योगिक समाज बनने लगा। तब वकालत का पेशा उभर आया। कई कारणों से सामाजिक मूल्यों और समीकरण में बदलाव हुआ और कानून की व्यवसायिक पढ़ाई का सम्मान बढ़ा। गांधी के 1888 में लन्दन पहुंचने के पहले ही वकालत के प्रति ऐसी लगन बढ़ चली थी। भारत में ही गांधी परिवार के निकट रहे माव जी दवे ने समझाया था कि इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर बनना मोहनदास के लिए ठीक होगा। यही सलाह कारगर हुई। फिर भी इंग्लैंड की लोकप्रिय प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज में कानून की पढ़ाई को लेकर उतना उत्साह नहीं था जो अन्य विषयों के अकादेमिक ज्ञान को लेकर रहा है। समाज हर परिस्थिति में अपने विकल्प तलाश लेता है। जब वकालत के ज्ञान के लिए बदलते समाज में जरूरतें बढ़ीं, तब लंदन में वेस्टमिन्स्टर के आसपास ज्ञान पिपासु छात्रों ने अपने रहने के कई निजी ठीहे बना लिए। जिन्हें इन या सराय या छात्रावास या बोर्डिंग कहा जाने लगा। वहां अमूमन मध्य वर्ग के कई छात्र कम्यून की तरह रहते और उन्हें पढ़ाने के लिए कानून पारंगत लोग आया करते। विश्वविद्यालय या कॉलेज में औपचारिक पढ़ाई के सीमित विकल्प के साथ साथ यह समाज स्वीकार्य ज्यादा समानान्तर प्रथा चल पड़ी। इनमें से चार प्रमुख इन (सराय) रहे ग्रेज इन ;ळतंलष्े प्ददद्धए लिंकन्स इन, मिडिल टेंपल इन और इनर टेंपल, ट्यूडर और स्टुअर्ट वटा के वक्त इन्स का व्यापक प्रभाव हुआ। सरकारी संस्थाओं और शैक्षणिक संस्थाओं ने वकील और बैरिस्टर बनाने के लिए युवजन को प्रशिक्षण देने में हीला हवाला या आनाकानी की। तब इन चारों इन (छात्र निवासों) ने विशेषकर वकील/बैरिस्टर के षिक्षण प्रषिक्षण का काम अपने हाथ में ले ही लिया। इनमें से गांधी भी इनर टेंपल मेें भर्ती हुए और वहां उन्हें टे्रनिंग के बाद वकील/बैरिस्टर होने की सनद दी गई। नेहरू भी वकालत के लिए इनर टेम्पल में भरती हुए थे। ऐसे इन्स को ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज के बाद तीसरा विश्वविद्यालय भी कहा जाने लगा। वहां केवल विधि की शिक्षा या वकील बनने की टे्रनिंग नहीं दी जाती थी, बल्कि पूरा उपलब्ध समाज विज्ञान भविष्य की जरूरतों के फोकस को ध्यान रखते परोसा जाता था। उल्लेखनीय है कि विलियम शेक्सपियर के नाटक ‘ट्वेल्थ नाइट’ का प्रथम मंचन मिडिल टेंपल इन के हॉल में हुआ। उसमें दर्षकों के बीच इंग्लैंड की महारानी भी बैठी थीं। इनमें वकील/बैरिस्टर बनने के लिए छात्रों पर यह शर्त होती थी कि वे बारह सत्रों में अपनी हाजिरी देंगे, और वहां कुछ सत्रों में सहभोज में भी उपस्थित रहेंगे। कुल मिलाकर यह अध्ययन शिड्यूल तीन वर्षों का होता था और तिमाही परीक्षाएं होती थीं। परीक्षा और पढ़ाई के स्तर में कोई समझौता नहीं था। पहले इन इन्स में पांच वर्षों की टे्रनिंग/पढ़ाई का प्रावधान था जो बाद में कई कारणों से तीन वर्ष का किया गया क्योंकि इसी पढ़ाई के लिए ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयों में भी तीन वर्षों का लगभग समान पाठ्यक्रम निर्धारित हुआ था।
1846 में एक संसदीय अन्वेषण समिति ने कानून की पढ़ाई की समग्र जांच की। समिति ने पाया कि इंग्लैंड में पढ़ाई का स्तर यूरोपीय देशों और अमेरिका से कमतर है। प्रवेश परीक्षाओं के लिए सिफारिश की गई। एक नेषनल लॉ कॉेलेज की स्थापना करने पर भी जोर दिया गया। फिर भी वही ढाक के तीन पात।
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय नेे 1871 में और केम्ब्रिज विष्वविद्यालय ने 1873 में कानून की उच्चतर पढ़ाई का सुधार और नियमितीकरण कई दबावों के चलते किया।
(बाकी कल के अंक में)
जगतार सिंह
"मैं खु़द को भारतीय नहीं मानता. मेरे पास जो पासपोर्ट है ये मुझे भारतीय नहीं बनाता. ये यात्रा करने के लिए बस एक कागज़ात भर है."
ये शब्द 'वारिस पंजाब दे' संगठन के प्रमुख और खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह के हैं.
अमृतपाल सिंह ने हाल ही में खालिस्तान की मांग की और विवादों में हैं. फ़िलहाल कई क्रिमिनल केस दर्ज होने के बाद वो फ़रार हैं.
हाल के सामाजिक-राजनीतिक हलचल के बीच पंजाब से एक अहम सवाल सामने आया कि आख़िर खालिस्तान है क्या और कब पहली बार सिखों के लिए अलग देश की मांग उठी थी.
जब कभी सिखों की स्वायत्तता या खालिस्तान की मांग उठती है, तब सबका ध्यान भारतीय पंजाब की ओर खिंच जाता है.
गुरु नानक देव की जन्मस्थली ननकाना साहिब आज के पाकिस्तान में है. ये इलाक़ा अविभाजित भारत का हिस्सा था, इस वजह से इसे सिखों की मातृभूमि के तौर पर देखा जाता है.
भारत में सिख विद्रोह या सिखों के सशस्त्र संघर्ष की अवधि 1995 में ख़त्म हो गई थी.
हाल के समय में अकाली दल के सांसद सिमरनजीत सिंह मान और दल खालसा लोकतांत्रिक और शांति पूर्ण तरीके से इसकी मांग करते रहे हैं.
भारत के बाहर अमेरिका से काम करने वाले संगठन 'सिख फ़ॉर जस्टिस' ने भी खालिस्तान की मांग की है. हालाँकि, इन सभी संगठनों को भारतीय पंजाब में एक सीमित समर्थन ही हासिल है.
खालिस्तान की मांग पहली बार कब उठी?
खालिस्तान शब्द पहली बार 1940 में सामने आया था. मुस्लिम लीग के लाहौर घोषणापत्र के जवाब में डॉक्टर वीर सिंह भट्टी ने एक पैम्फ़लेट में इसका इस्तेमाल किया था.
इसके बाद 1966 में भाषाई आधार पर पंजाब के 'पुनर्गठन' से पहले अकाली नेताओं ने पहली बार 60 के दशक के बीच में सिखों के लिए स्वायत्तता का मुद्दा उठाया था.
70 के दशक की शुरुआत में चरण सिंह पंछी और डॉक्टर जगजीत सिंह चौहान ने पहली बार खालिस्तान की मांग की थी.
डॉक्टर जगजीत सिंह चौहान ने 70 के दशक में ब्रिटेन को बेस बनाया और अमेरिका और पाकिस्तान भी गए.
1978 में चंडीगढ़ के कुछ नौजवान सिखों ने खालिस्तान की मांग करते हुए दल खालसा का गठन किया.
क्या भिंडरावाले ने कभी खालिस्तान की मांग की थी?
सिख सशस्त्र आंदोलन का पहला चरण स्वर्ण मंदिर या श्री दरबार साहिब परिसर पर हमले के साथ समाप्त हुआ, जो परिसर के भीतर मौजूद उग्रवादियों को बाहर निकालने के लिए किया गया था. इसे 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के नाम से जाना जाता है.
सशस्त्र संघर्ष के दौरान ज़्यादातर उग्रवादियों ने जरनैल सिंह भिंडरावाले को नेता के तौर पर स्वीकार किया था. हालाँकि इस ऑपरेशन के दौरान जरनैल सिंह भिंडरावाले मारे गए थे.
उन्होंने कभी साफ़तौर से खालिस्तान की मांग या एक अलग सिख राष्ट्र की बात नहीं कही थी.
हालांकि उन्होंने ये ज़रूर कहा था कि, 'अगर श्री दरबार साहिब पर सैन्य हमला होता है तो यह खालिस्तान की नींव रखेगा.'
उन्होंने 1973 के श्री आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को अमल में लाने के लिए ज़ोर दिया था जिसे अकाली दल की वर्किंग कमिटी द्वारा अपनाया गया था.
क्या है आनंदपुर साहिब रिज़ॉल्यूशन ?
1973 का आनंदपुर साहिब रिज़ॉल्यूशन में अपने राजनीतिक लक्ष्य के बारे में इस प्रकार कहा गया है, "हमारे पंथ (सिख धर्म) का राजनीतिक लक्ष्य, बेशक सिख इतिहास के पन्नों, खालसा पंथ के हृदय और दसवें गुरु की आज्ञाओं में निहित है. जिसका एकमात्र उद्देश्य खालसा की श्रेष्ठता है. शिरोमणि अकाली दल की मौलिक नीति एक भू-राजनीतिक वातावरण और एक राजनीतिक व्यवस्था के निर्माण के माध्यम से खालसा की श्रेष्ठता स्थापित करना है."
अकाली दल भारतीय संविधान और भारत के राजनीतिक ढांचे के तहत काम करता है.
आनंदपुर साहिब रिज़ॉल्यूशन का उद्देश्य सिखों के लिए भारत के भीतर एक स्वायत्त राज्य का निर्माण करना है. ये रिज़ॉल्यूशन अलग देश की मांग नहीं करता है.
1977 में अकाली दल ने इस रिज़ॉल्यूशन को आम सभा की बैठक में एक नीति निर्देशक कार्यक्रम के हिस्से के रूप में अपनाया था.
अगले ही साल 1978 के अक्टूबर में अकाली दल लुधियाना सम्मेलन में इस प्रस्ताव को लेकर नरम पड़ गया.
इस सम्मेलन के वक़्त अकाली दल सत्ता में था. स्वायत्तता को लेकर रिज़ॉल्यूशन संख्या एक को शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष गुरचरण सिंह तोहड़ा ने पेश किया गया था और तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने इसका समर्थन किया था. रिज़ॉल्यूशन संख्या एक को आनंदपुर साहिब रिज़ॉल्यूशन के 1978 संस्करण के तौर पर जाना जाता है.
आनंदपुर साहिब रिज़ॉल्यूशन 1978
इस रिज़ॉल्यूशन में कहा गया है , "शिरोमणि अकाली दल को लगता है कि भारत विभिन्न भाषाओं, धर्मों और संस्कृतियों की एक संघीय और भौगोलिक इकाई है. धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए, लोकतांत्रिक परंपराओं की मांगों को पूरा करने के लिए और आर्थिक प्रगति की राह को आसान करने के लिए यह अनिवार्य हो गया है कि पहले से तय सिद्धांतों और उद्देश्यों के तर्ज पर केंद्र और राज्य के संबंधों और अधिकारों को फिर से परिभाषित करते हुए संवैधानिक ढांचे को संघीय आकार दिया जाए."
औपचारिक तरीके से खालिस्तान की मांग कब उठाई गई?
खालिस्तान की पहली औपचारिक मांग 29 अप्रैल 1986 को उग्रवादी संगठनों की संयुक्त मोर्चा पंथक समिति द्वारा की गई थी.
इसका राजनीतिक उद्देश्य इस प्रकार बताया गया था:- "इस विशेष दिन पर पवित्र अकाल तख़्त साहिब से हम सभी देशों और सरकारों के सामने यह घोषणा कर रहे हैं कि आज से 'खालिस्तान' खालसा पंथ का अलग घर होगा. खालसा सिद्धांतों के मुताबिक़ सभी लोग खु़श और सुख पूर्वक रहेंगे."
"ऐसे सिखों को शासन चलाने के लिए उच्च पदों की ज़िम्मेदारी दी जाएगी जो सबकी भलाई के लिए काम करेंगे और पवित्रता से अपना जीवन बिताएंगे."
भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व आईपीएस अधिकारी सिमरनजीत सिंह मान ने 1989 में जेल से रिहा होने के बाद इस मुद्दे को उठाया. लेकिन उनके रुख़ में कई विसंगतियां देखी जा सकती थीं.
वह अब संगरूर से सांसद हैं और उन्होंने भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने की शपथ ली है. हालाँकि संसद के बाहर इंटरव्यूज़ में उन्होंने खालिस्तान की वकालत की थी.
खालिस्तान को लेकर अकाली दल का रुख़ क्या है?
साल 1992 में इस मुद्दे को अकाली दल के प्रमुख नेताओं ने औपचारिक रूप से उठाया. इस विषय में उन्होंने 22 अप्रैल 1992 को संयुक्त राष्ट्र महासचिव को एक ज्ञापन भी सौंपा.
ज्ञापन के अंतिम पैराग्राफ़ में लिखा था, "सिखों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा और स्वतंत्रता की बहाली के लिए पंजाब का विऔपनिवेशीकरण एक महत्वपूर्ण क़दम है. दुनिया के सभी स्वतंत्र देशों की तरह सिख भी एक देश हैं."
"स्वतंत्रता से लोगों के जीने के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के मुताबिक़, सिखों को भी अपनी स्वतंत्र पहचान को बहाल करने के लिए भेदभाव, उपनिवेशवाद और गु़लामी और राजनीति विरोधी बंधनों से आज़ाद होने की ज़रूरत है."
इस ज्ञापन को सौंपने के दौरान सिमरनजीत सिंह मान, प्रकाश सिंह बादल और तत्कालीन शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष गुरचरण सिंह तोहड़ा मौजूद थे.
इसके बाद प्रकाश सिंह बादल और गुरचरण सिंह तोहड़ा ने कभी इस ज्ञापन का ज़िक्र नहीं किया.
अकाली दल की 75वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर प्रकाश सिंह बादल ने कहा कि अब से अकाली दल केवल सिखों का ही नहीं बल्कि पंजाब के सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करेगा. हालाँकि ये कोई औपचारिक रिज़ॉल्यूशन नहीं था.
क्या थी अमृतसर घोषणा - कैप्टन अमरिंदर सिंह और एसएस बरनाला का रुख़?
1994 में सिमरनजीत सिंह मान की अकाली दल (अमृतसर) ने राजनीतिक लक्ष्यों को फिर से स्थापित किया. जबकि कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी इस दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए थे. हस्ताक्षर करने वालों में प्रकाश सिंह बादल नहीं थे.
इस दस्तावेज़ को अमृतसर घोषणा के रूप में भी जाना जाता है जिस पर 1 मई, 1994 को श्री अकाल तख्त साहिब के संरक्षण में हस्ताक्षर किए गए थे.
इस दस्तावेज़ के मुताबिक़, "शिरोमणि अकाली दल का मानना है कि हिंदुस्तान (भारत) अलग-अलग संस्कृतियों का एक उप-महाद्वीप है. हरेक संस्कृति की अपनी विरासत और मुख्यधारा है."
"इस उप-महाद्वीप को एक संघात्मक संरचना के तहत फ़िर से गठित करने की आवश्यकता है ताकि हर संस्कृति फले-फूले और दुनिया के बगीचे में एक अलग सुगंध छोड़ सके."
"यदि इस तरह का संगठनात्मक पुनर्गठन भारत सरकार को मंज़ूर नहीं है तब शिरोमणि अकाली दल के पास खालिस्तान की मांग और संघर्ष के अलावा कोई विकल्प नहीं है."
इस दस्तावेज़ पर कैप्टन अमरिंदर सिंह, जगदेव सिंह तलवंडी, सिमरनजीत सिंह मान, कर्नल जसमेर सिंह बाला, भाई मनजीत सिंह और सुरजीत सिंह बरनाला ने हस्ताक्षर किए थे.
विश्व मानचित्र पर खालिस्तान की मांग
अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन जैसे देशों में रह रहे कई सिखों के द्वारा खालिस्तान की मांग उठाई जा रही है. हालाँकि उन देशों में रहने वाले सिखों के कई संगठन जो लगातार इस मुद्दे को उठाते रहे हैं, उन्हें पंजाब में ज़्यादा समर्थन नहीं है.
सिख फ़ॉर जस्टिस अमेरिका स्थित एक ग्रुप है. इसे भारत सरकार ने 10 जुलाई, 2019 को गै़रक़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत प्रतिबंधित कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि संगठन का अलगाववादी एजेंडा है.
इसके साल भर बाद 2020 में भारत सरकार ने खालिस्तानी समूहों से जुड़े 9 लोगों को आतंकवादी घोषित किया और लगभग 40 खालिस्तान समर्थक वेबसाइटों को बंद कर दिया.
सिख फ़ॉर जस्टिस के मुताबिक़, उनका उद्देश्य सिखों के लिए एक स्वायत्त देश बनाना है जिसके लिए ग्रुप सिख समुदाय के लोगों का सहयोग लेने की कोशिश कर रहा है.
सिख फ़ॉर जस्टिस की स्थापना वर्ष 2007 में अमेरिका में हुई थी. ग्रुप का प्रमुख चेहरा पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ से लॉ ग्रेजुएट गुरपतवंत सिंह पन्नू हैं. वो अमेरिका में लॉ की प्रैक्टिस कर रहे हैं.
गुरपतवंत सिंह पन्नू ग्रुप के क़ानूनी सलाहकार भी हैं. उन्होंने खालिस्तान के समर्थन में 'रेफ़रेंडम 2020' (जनमत संग्रह) कराने का अभियान शुरू किया था. इस संस्था ने कनाडा तथा अन्य कई भागों में जनमत संग्रह कराया परन्तु अन्तरराष्ट्री राजनीति में इसे कोई विशेष प्राथमिकता नहीं मिली.
अकाल तख़्त के जत्थेदारों की स्थिति
अमृतसर में स्वर्ण मंदिर परिसर में स्थित अकाल तख़्त सिख धर्म का सर्वोच्च स्थान है. इसके प्रमुख को जत्थेदार कहा जाता है और चार अन्य तख्तों के प्रमुखों के साथ वे सामूहिक रूप से सिख समुदाय से संबंधित महत्वपूर्ण मामलों पर फ़ैसले लेते हैं.
साल 2020 में ऑपरेशन ब्लू स्टार की बरसी के मौके़ पर अकाल तख़्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने कहा कि खालिस्तान की मांग जायज़ है.
उन्होंने पत्रकारों से बातचीत के दौरान कहा था, "सिखों को यह संघर्ष याद है. दुनिया में ऐसा कोई सिख नहीं है जो खालिस्तान न चाहता हो. भारत सरकार खालिस्तान देगी तो हम लेंगे." (bbc.com/hindi)
शंभूनाथ
आज पुणे विश्वविद्यालय में आया हुआ हूं। बड़ी इच्छा थी कि 1896-97 में सावित्री बाई फुले ने प्लेग महामारी के दौरान इलाज के लिए अपने डॉक्टर बेटे के साथ मिलकर जहां एक मेडिकल क्लिनिक खोला था, वह जगह देखूंगा। कम लोग जानते हैं कि सावित्री फुले का शिक्षा के प्रसार में योगदान के अलावा एक कठिन समय में मेडिकल क्लिनिक खोलने का भी श्रेय है। इसमें सभी जाति के लोग इलाज करा सकते थे। उस समय सामान्य चिकित्सा केंद्रों में छोटी समझी जाने वाली जातियों के बीमार प्रवेश नहीं कर सकते थे। दुखद यह है कि प्लेग के शिकार 10 साल के एक बच्चे को बचाने में खुद सावित्री बाई की जान प्लेग से ही गई थी, उनके बेटे की भी!यह मानव सेवा का एक विरल और मार्मिक उदाहरण है!
मैंने कई लोगों से पूछा, पर उस क्लिनिक का पुणे में कोई चिह्न न था। पुणे में उनके नाम के किसी मेडिकल अस्पताल का भी पता नहीं चला। हर 50 कदम पर मंदिर मिले, अपार भीड़। 19वीं सदी के चमत्कारी स्वामी समर्थ के आश्रम में भक्तों की लाइन देखें! फेसबुक पर आत्ममुग्ध विद्रोह से इस भीड़ का सामना कैसे करेंगे? चित्र देखें।
मैं अब सावित्री बाई द्वारा खोले गए लड़कियों के पहले स्कूल (1848) की खोज में निकला, जो विदेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। यह मुझे पुणे में विढुरी सेठ हलवाई के सबसे भव्य गणेश मंदिर के ठीक सामने अति जीर्ण-शीर्ण दशा में मिला। (देखें चित्र)। उसमें ऊपर जाने के लिए बस ढाई फुट की टूटी फूटी सीढ़ी है। किसी ने ऊपर फुले दंपति का चित्र स्मृति के तौर पर रख दिया है। देखें चित्र।
दरअसल सामने के हिस्सों पर दुकानदारों ने कब्जा कर रखा है। भारत में लड़कियों के इस पहले स्कूल को स्मारक बनाने की चिंता किसी को नहीं है। बाजार ने विरासत को ग्रस लिया है!
अभी 10 मार्च को सावित्री फुले की पुण्यतिथि पर फेसबुक पर उनकी काफी प्रशस्ति देखने को मिली थी, जयजयकार! लेकिन वास्तविकता देखकर लगता है कि हमारी स्मृति किस तरह एक सुंदर खंडहर से ज्यादा नहीं है!
फिर शनिवारवाड़ा गया, पेशवाओं का किला! इस बंद विराट दरवाजे को कैसे खोलूं ! ! देखिए, रोशनी नीचे से आ रही है!!!
मयूरेश कोन्नूर
कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की लोकसभा की सदस्यता रद्द होने की खबर से राजनीतिक गलियारों की हवा तेज हो गई है।
अदालत के इस फैसले के बाद ये चर्चा शुरू हो गई है कि दिल्ली से लेकर देशभर की राजनीति आगे कैसे बदलेगी।
इस निर्णय के राहुल गांधी के लिए क्या मायने हैं? अपने हाथ से निकल चुकी प्रतिष्ठा हासिल करने में जुटी कांग्रेस के लिए इसके क्या मायने हैं? इसे देखते हुए विपक्षी दलों के इक_ा आने का जो सपना है, क्या वह अब पूरा होगा? ऐसे कई सवाल उठने शुरू हो गए हैं।
2024 के लोकसभा चुनाव होने में अभी एक साल से ज्यादा का समय है पर उससे पहले कर्नाटक, राजस्थान और मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं।
इन तीनों राज्यों में कांग्रेस की टक्कर सीधे-सीधे भाजपा के साथ होनी है। ऐसे में ये सवाल भी उठ रहा है कि राहुल गांधी की सदस्यता जाने से क्या कांग्रेस यहां चुनावी माहौल अपने पक्ष में बना पाएगी?
क्या राहुल गांधी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से हासिल राजनीतिक प्रतिष्ठा को आगे बढ़ा पाएंगे या फिर ये माना जाए कि बीजेपी ने अपने प्रतिस्पर्धी को इस मौक़े पर मात दे दी है?
हमने देश के कुछ वरिष्ठ पत्रकारों से पूछा कि इस पूरे मामले के राजनीतिक मायने क्या हो सकते हैं।
‘राहुल को फायदा होने की संभावना ज़्यादा’
वरिष्ठ पत्रकार संजीव श्रीवास्तव का मानना है की राहुल गांधी समेत सभी विरोधी दलों के लिए अब जनता को ये बताने का एक मौका है कि उनको कैसे निशाने पर लिया जा रहा है।
वो कहते हैं, ‘अब यह कांग्रेस पर निर्भर रहेगा कि वह किस तरह राहुल गांधी की सदस्यता जाने पर ‘जन आंदोलन’ खड़ा करती है। लेकिन, एक बात तो साफ है कि सारे विरोधी दल इस मामले में राहुल गांधी के साथ खड़े हैं।’
‘यह राय बनती जा रही है कि यह लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है और विरोधी दलों के नेताओं को निशाना बनाया जा रहा है। इस पर सर्वसम्मति कैसे होती है, सारे दल इक_ा कैसे रह पाते हैं, किन मुद्दों पर और एकता बढ़ती है या बिखरती है, कांग्रेस अपने कैडर को किस तरह जोश दे पाती है, ये सब देखने वाली बात होगी।’
हालांकि, वो ये भी कहते हैं कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल अभी तक मतदाताओं को बीजेपी के खिलाफ खड़ा नहीं कर पाए हैं।
संजीव श्रीवास्तव कहते हैं, ‘इसकी वजह ये है कि विपक्षी दल अभी तक लोगों को प्रेरित नहीं कर सके हैं। हम उनके बारे मे विश्वास से कुछ नहीं कह सकते। हालांकि, एक चीज तो साफ दिख रही है कि इस फैसले से राहुल गांधी को फायदा होने की संभावना ज़्यादा है।’
लखनऊ में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान को लगता है कि जैसे आपातकाल के बाद जेल जाना इंदिरा गांधी ने एक मौके में बदला था, कुछ वैसा ही अवसर राहुल गांधी को मिला है। मगर क्या वह वैसा कर पाएंगे?
वो कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि इस निर्णय ने कांग्रेस में नई ऊर्जा डाल दी है। राहुल गांधी को एक तरीके का बूस्ट मिला है। सबको पता है कितने गलत तरीके से यह निर्णय हुआ है। जब बाबरी मस्जिद का फैसला आता है तो कहते हैं कि यह मोदीजी ने कराया है और जब ये फैसला आया है तो कह रहे हैं कि कोर्ट ने किया है, हमसे क्या मतलब है?’
‘यह कुछ ऐसा ही है जैसे इंदिरा गांधी को इमरजेंसी के बाद सताया गया था। इंदिरा गांधी ने आपातकाल लाकर ग़लती की थी। लेकिन बाद में जब उन्हें जेल भेज दिया गया तो उन्होंने सत्ता में वापसी की। मुझे लगता है कि राहुल गांधी के लिए यह ‘ब्लेसिंग इन डिसगाइज’ होगा। इससे पहले किसी को डिफेमेशन केस में दो साल की सज़ा नहीं हुई। तो यह सब ‘बाइ डिजाइन’ किया गया है।’
‘कांग्रेस को नया चेहरा सामने लाने का भी एक मौका’
महाराष्ट्र में ‘लोकसत्ता’ अखबार के संपादक गिरीश कुबेर को लगता है कि अब कांग्रेस के लिए ये नया चेहरा सामने लाने का भी एक मौका है।
वो कहते हैं, ‘यह कांग्रेस के लिए एक बढिय़ा अवसर है। अगर राहुल गांधी सामने नहीं है तो बीजेपी कैसे खड़ी रहेगी। राहुल हमेशा उनके लिए ‘पंचिंग बैग’ रहे हैं। भाजपा के ‘यश’ में हमेशा राहुल गांधी का ‘अपयश’ भी एक हिस्सा रहा है। अब वही दूर हो गया। इसलिए अगर कांग्रेस सोच-समझकर आगे जाती है और नया चेहरा सामने लाती है, तो भाजपा के सामने भी चुनौती खड़ी हो सकती है। उन्हें सहानुभूति भी मिलेगी।’
एक तरफ राहुल गांधी के लिए यह एक अच्छा मौक़ा हो सकता है पर लोग सोच रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी को कैसे फायदा होगा?
गिरीश कहते हैं कि कांग्रेस के साथ एक बुनियादी समस्या है। कांग्रेस महंगाई, बेरोजगारी, अडानी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे उठा रही है और उन्हें लोगों से प्रतिक्रिया मिल रही है। लेकिन कांग्रेस उस गति को बरकरार नहीं रख पा रही है और उस आंदोलन को जिंदा नहीं रख पा रही है।
संजीव श्रीवास्तव कहते हैं, ‘इसकी बड़ी वजह है कांग्रेस में संगठनात्मक खामियां। कांग्रेस ऐसी पार्टी भी रही है कि जन आंदोलन या जन भावनाओं के सैलाब पर सवार होकर सत्ता में आ जाए। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ऐसा माहौल बना था और राजीव गांधी 400 से ज़्यादा सीटें लेकर जीते थे। मगर फिलहाल लोगों का गुस्सा, भावनाएं और जनसैलाब जैसा माहौल तो नहीं दिख रहा है।’
संजीव श्रीवास्तव कहते हैं, ‘जो फैसला हुआ है उसे कांग्रेस के अलावा और कौन आंदोलन में बदल सकता है, जमीन से आवाज उठाकर आंदोलन को ईवीएम तक ले जाया जा सकता है, ये देखना होगा। ऐसी व्यवस्था फिलहाल कांग्रेस के पास नहीं दिखती इसलिए जहां उनकी भाजपा के साथ सीधी टक्कर है वहीं कांग्रेस सीटें हारती है।’
वो कहते हैं, ‘क्या ये परिस्थिति राहुल गांधी की सदस्यता जाने से एक दिन में बदल जाएगी? मुझे नहीं लगता वैसा होगा। मगर ऐसी स्थिति बनाने की कोशिश तो हो सकती है। यह एक अवसर है। अब तक कांग्रेस वह नहीं कर पाई है क्योंकि उनके पास संगठन नहीं है।’
वहीं शरत प्रधान को लगता है कि कांग्रेस आम लोगों से सीधी बात कर उनके साथ हुए अन्याय के बारे में बताए तो पार्टी को फायदा हो सकता है।
वो कहते हैं, ‘कांग्रेस अगर इस मामले को अच्छे तरीक़े से आम लोगों को बताए कि क्या हुआ है, तो उसे फायदा हो सकता है। पार्टी ने अब तक वापसी का कोई भी प्रयास नहीं किया है।
लोगों को ‘अन्याय’ के बारे में बताने में विपक्षी दलों की भी अहम भूमिका होगी। वो लोगों को बताएं कि आज राहुल गांधी के साथ जो हुआ है वह कल किसी के भी साथ हो सकता है।’
‘कर्नाटक चुनाव में इसकाकुछ असर नहीं होगा’
राजस्थान और मध्य प्रदेश से भी पहले अगले दो महीनों मे कर्नाटक में चुनाव होने वाले हैं। वहां फिलहाल भाजपा की सत्ता है, जो कांग्रेस से कुछ विधायक बाहर निकल जाने के बाद बनी है।
अब वहां कांग्रेस भाजपा को चुनौती दे रही है। लेकिन सवाल ये है कि क्या राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता खत्म होने का असर वहां के चुनाव पर पड़ सकता है?
प्रोफेसर मुजफ़्फ़ऱ असादी मैसुरू युनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं। उनका कहना है कि इस मुद्दे का असर नहीं पड़ेगा क्योंकि कर्नाटक की राजनीति स्थानीय नेताओं के इर्द-गिर्द घूमती है।
वो कहते हैं, ‘राहुल गांधी की सदस्यता जाने का जो फ़ैसला हुआ है वह बहुत ही अप्रत्याशित है। लेकिन कर्नाटक में चुनाव पर इसका कुछ अधिक असर होगा ऐसा मुझे नहीं लगता। क्योंकि, कर्नाटक में आप कांग्रेस की राजनीति देखें तो वो राहुल गांधी पर निर्भर नहीं है।’
वो कहते हैं, ‘यहां पर जो स्थानीय नेता हैं और वही पार्टी के लिए वोट जुटाते हैं। जैसे कि यहां सिद्धारमैया राहुल गांधी से ज़्यादा लोकप्रिय हैं। ख़ास तौर पर ओबीसी समुदायों से आने वाले नेता यहां पर पार्टी की ताक़त हैं।’
वो कहते हैं ‘इस बार चुनाव में यहां एंटी इंकम्बेंसी का मुद्दा है। यह मुद्दा जब हावी हो जाता है तो राहुल गांधी की सदस्यता जाने जैसे राष्ट्रीय मुद्दे यहां प्रभाव नहीं डालते। एक चीज़ हो सकती है कि यहां बीजेपी और कांग्रेस की विचारधाराओं की टक्कर हो। लेकिन राष्ट्रीय मुद्दे कर्नाटकचुनाव में कोई मायने नहीं रखते।’ (bbc.com)
कनक तिवारी
राहुल का मामला बतंगड़ के लायक नहीं है, जबकि बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है। मोदी उपनाम किसी व्यक्ति विशेष का नहीं होता और न वह किसी सामाजिक या वैधानिक जाति को संकेतित करता है। कई तरह के मोदी हैं। मारवाड़ी मोदी होते हैं। जैसे ललित मोदी का परिवार है। मुसलमानों में मोदी होते हैं, जैसे प्रसिद्ध बैडमिंटन खिलाड़ी सैयद मोदी थे। पारसियों में मोदी होते हैं जैसे प्रसिद्ध सांसद पीलू मोदी थे। कई अन्य जातियों, उप जातियों में मोदी होते होंगे। तो जो कुछ राहुल ने कहा वह तो हंसी ठ_ा था, ठिठोली थी। मजाक के लिए था। चुनावी माहौल या अन्यथा जन सभाओं के माहौल में हल्की फुल्की बातें कह दी जाती हैं। उनके कहने के बाद निश्चित रूप से वहां भृकुटियां नहीं तनी होंगी। लोग हंसे होंगे। मुस्कुराए होंगे। तालियां भी बजी होंगी। तो इस तरह यह मामला अपने आप हवा में उड़ गया । पता नहीं मजिस्ट्रेट साहब को इसमें कितनी गंभीरता क्यों दिखाई पड़ गई?
चुनाव लोकतंत्र की आत्मा और मतदाता का मूल अधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 तक चुनाव व्यवस्थाओं का वर्णन है। गवर्नमेन्ट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 और अन्य ब्रिटिश कानूनों में चुनाव का जिम्मा कार्यपालिका पर होने से केवल मजाक होता था। संविधान सभा में शुरू से ही आम राय उभरी कि वोट देना नागरिक का मूल अधिकार होना चाहिए और चुनाव के लिए स्वतंत्र मशीनरी की स्थापना करना होगा। विख्यात संविधानविद् जस्टिस वी.आर. कृष्णा अय्यर के अनुसार प्रजातंत्र का अर्थ चुनाव के प्रजातंत्र से है। इस प्रजातंत्र को धन शक्ति तथा चुनाव मशीनरी में उत्पन्न प्रदूषण आदि तबाह करते हैं। सरकार की ताकत और सत्ताधारी पार्टी को हासिल सुविधाएं चुनाव प्रक्रिया को दूषित करती हैं। सत्तारूढ़ पार्टी चुनाव आयोग के सदस्यों को नियुक्त करती है। तब निष्पक्ष चुनाव की कल्पना नहीं की जा सकती। अधिकारी यदि मंत्रिपरिषद के कृपापात्र हों, तो जाने अनजाने पक्षपात की आशंका होती ही है। चंदा उगाही और पुलिस बल प्रयोग करने में सत्ताधारी पार्टी को फायदा होता ही है।
लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 (1) तथा (2) में ऐसे अपराध वर्णित हैं जिनमें कम या ज्यादा सजा होने पर भी तत्काल प्रभाव से सदन की सदस्यता से अयोग्यता लागू हो जाती है। इनमें भारतीय दंड संहिता के तहत समुदायों के बीच सामाजिक विद्वेष, चुनाव संबंधी अपराध, बलात्कार, स्त्री के प्रति क्रूरता आदि सहित नागरिक अधिकार अधिनियम, कस्टम अधिनियम, गैर कानूनी गतिविधि प्रतिरोध अधिनियम, फेरा, मादक द्रव्य संबंधी अपराध, आतंककारी गतिविधियां, पूजा स्थल संबंधित अधिनियम के अपराध, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रीय प्रतीक चिन्हों का अपमान, सती प्रतिषेध अधिनियम, भ्रष्टाचार अधिनियम, मुनाफाखोरी तथा जमाखोरी तथा मिलावटखोरी के अपराध और दहेज संबंधी अपराध षामिल हैं। अन्य किसी अपराध के लिए भी दो वर्ष या अधिक की सजा किसी नागरिक को मिले, तो वह चुनाव लडऩे के लिए अयोग्य होता है। लेकिन ऐसी सजा मिलने के वक्त यदि वह सांसद या विधायक है तो उसे तब तक अपनी संसदीय आसंदी पर बैठे रहने का अधिकार होगा, जब तक कि उसके द्वारा की गई अपील या रिवीजन का अन्यथा कोई निर्णय नहीं हो जाए।
अधिनियम की धारा 8 (3) में लिखा है.......‘‘कोई व्यक्ति जो उपधारा (1) या उपधारा (2) में निर्दिष्ट किसी अपराध से भिन्न किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध ठहराया गया है और दो वर्ष से अन्यून के कारावास से दण्डित किया गया है, ऐसी दोषसिद्धि की तारीख से अयोग्य होगा और उसे छोड़े जाने से छह वर्ष की अतिरिक्त कालावधि के लिए अयोग्य बना रहेगा। ‘‘आशय यह है कि देश का कोई नागरिक यदि दो वर्ष या अधिक की सजा पाता है तो वह चुनाव लडऩे के लिए तत्काल प्रभाव से अयोग्य हो जाता है। अपराधिक फैसले के विरुद्ध नागरिक अपील करता रहे और भले छूट जाए। शुरुआती तौर पर तो कम से कम 6 वर्ष के लिए उसके चुनाव लडऩे पर प्रतिबंध लग जाता है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी करने से एक मजिस्ट्रटेट के विवेक से वंचित नागरिकों की सुप्रीम कोर्ट तक मदद नहीं कर सकता।
इसके बरक्स अधिनियम की धारा 8 (4) कहती है......‘‘उपधारा (1), उपधारा (2) या उपधारा (3) में किसी बात के होते हुए भी दोनों उपधाराओं में से किसी के अधीन निरर्हता उस व्यक्ति की दषा में जो दोषसिद्धि की तारीख को संसद का या राज्य के विधान मण्डल का सदस्य है, तब तक प्रभावशील नहीं होगी जब तक उस तारीख से तीन मास न बीत गए हों, अथवा, यदि उस कालावधि के भीतर उस दोषसिद्धि या दण्डादेश की बाबत अपील या पुनरीक्षण के लिए आवेदन किया गया है तो जब तक न्यायालय द्वारा उस अपील या आवेदन का निपटारा न हो गया हो।‘‘सांसद या विधायक दो वर्ष या अधिक की सजा पाए तो उस फैसले के खिलाफ बड़ी अदालत में अपील या रिवीजन पेश कर देने भर से वे तब तक के लिए अपने पदों पर काबिज रह सकते हैं, जब तक अपील या रिवीजन न्यायालयों का अंतिम फैसला नहीं आ जाए। यदि छूट गए तो शुरू से पौ बारह है। सजा मिली तो संसदीय जीवन से नौ दो ग्यारह हो गए। 1989 में प्रोफेसर शिब्बनलाल सक्सेना के संशोधन प्रस्ताव की भाषा का दोहराव करते हुए लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (4) को ऊपर लिखे अनुसार पहली बार गढ़ा गया।
उक्त प्रावधान के मूल प्रारूप अनुच्छेद 83 के संविधान सभा की बहस में आने पर प्रो. शिब्बनलाल सक्सेना ने दो आशंकाएं जाहिर की थीं। एक तो यह कि निर्वाचित सांसद या विधायक को दो वर्ष या अधिक की अदालती सजा पाने पर यदि संबंधित अपील के निराकरण होने तक सदन के सदस्य के रूप में यथावत कायम नहीं रखा गया तो विधायिका को असुविधाओं का सामना करना पड़ेगा। प्रो. सक्सेना ने भविष्य की संसदों द्वारा जनप्रतिनिधियों की अयोग्यता संबंधी कानून बनाने की निष्कपटता पर भी षक किया था। इसका कड़ा प्रतिवाद पंजाबराव देशमुख और अन्य सदस्यों ने किया, तथा सदन के लिए निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को किसी तरह की सुविधा देने का विरोध करते हुए भविष्य की संसदों द्वारा लोकतांत्रिक विधायन करने को लेकर विष्वास भी जाहिर किया। प्रो. सक्सेना ने अपना संषोधन प्रस्ताव वापस ले लिया।
जो सुविधा संविधान सभा ने देने से इंकार किया था, उसे 1989 में (राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में) लगभग उन्हीं शब्दों में देने में संसद ने कोताही नहीं की। उसने लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 8 (4) के अनुसार दो वर्ष या अधिक के लिए दोषसिद्ध होकर सजा प्राप्त सांसदों और विधायकों को तब तक के लिए अपनी कुर्सी पर बैठे रहने का अभयदान दे दिया, जब तक उनके अपराधिक प्रकरणों से संबंधित अपीलों का आखिरी निपटारा नहीं हो जाता। इस संशोधित प्रावधान के कोई सोलह वर्ष बाद लोक प्रहरी नामक संस्था की ओर से एस. एन. षुक्ला तथा अन्य याचिका द्वारा अधिवक्ता लिली थॉमस ने जनहित याचिकाओं के रूप में चुनौती दी। आठ वर्षों तक सुप्रीम कोर्ट में लंबित इन याचिकाओं को 10 जुलाई 2013 को न्यायमूर्तिद्वय ए. के. पटनायक और एस. जे. मुखोपाध्याय की बेंच ने निराकृत करते हुए उपरोक्त धारा 8 (4) को असंवैधानिक करार दिया।
भारत सरकार की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल सिद्धार्थ लूथरा तथा पारस कुहद ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि पहले ही के. प्रभाकरन वाले प्रकरण में यह माना गया है कि धारा 8 (4) के अनुसार दोषसिद्ध सांसद या विधायक को कोई लाभ नहीं मिलता है। उसका मकसद केवल सदन की संरचना की सुरक्षा है। सुप्रीम कोर्ट ने प्रभाकरन के प्रकरण की कंडिका 58 में माना है कि सांसद या विधायक की दोषसिद्ध होने पर सदन से बर्खास्तगी से दो असुविधाएं होंगी:-एक तो यह कि सदन की सदस्य संख्या घट जाएगी तथा बराएनाम बहुमत वाली पार्टी को सरकार का संचालन करने में कठिनाई होगी। दूसरे यह कि उपचुनाव की स्थिति आ सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि दोषसिद्ध जनप्रतिनिधि को अपराध से मुक्ति देने का संसद का इरादा नहीं था। वह केवल सजा की तिथि को स्थगित करने से संबंधित है। इन अधिवक्ताओं का यह भी तर्क था कि अपराधिक अपीलीय न्यायालय केवल सजा को स्थगित कर सकते हैं, दोषसिद्धि के तर्क को नहीं। इसके बरक्स नरीमन ने जोर दिया कि नवजोत सिंह सिद्धू बनाम पंजाब राज्य (2007), रमा नारंग बनाम रमेष नारंग (1995) तथा रविकांत एस. पाटिल बनाम सर्वभौम एस. बागली (2007) जैसे प्रकरणों में सुप्रीम कोर्ट ने साफ -साफ कहा कि मुनासिब प्रकरणों में दोषसिद्धि के प्रभाव को भी अपील न्यायालय तथा हाईकोर्ट द्वारा अपील के निराकरण तक स्थगित किया जा सकता है। कई प्रकरणों में ऐसे आदेश पारित भी हुए हैं।
उक्त प्रावधान का उल्लेख करते सुप्रीम कोर्ट ने रमा बनाम रमेश नारंग वाले मुकदमे में 1995 में कह दिया था कि जिसे भी अपनी दोषसिद्धि को स्थगित कराना है, उसे निश्चित रूप से वैसा उल्लेख करना पड़ेगा और कारण बताने पड़ेंगे कि वह ऐसा क्यों कराना चाहता है। उसके बाद कोर्ट को इस बात की जानकारी देनी होगी और तब कोर्ट आदेश दे सकेगा कि सजा के अलावा और भी जो आदेश हैं जिनमें दोषसिद्धि का आदेश है, उसको भी स्थगित रखा जाता है। यदि विशेष रूप से उल्लेखित नहीं किया जाएगा तो दोषसिद्धि स्थगित हो गई नहीं माना जाएगा। सामान्य तौर पर मजिस्ट्रेट के दंडादेश या आदेश के विरुद्ध दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 374 में अपील की जाती है । अपील पेश करने के बाद धारा 389 के अंतर्गत अपील लंबित रहने तक दंडादेश या अन्य आदेश का निलंबन और अपीलार्थी को जमानत पर छोड़े जाने के आवेदन किए जा सकते हैं। रमा नारंग के प्रकरण में फैसले के पैरा 19 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि अपील न्यायालय को धारा 389 के तहत दंडादेश को स्थगित करने का जो अधिकार है उससे दोष सिद्धि को स्थगित करने का अधिकार भी मिल जाता है। अपील न्यायालय को धारा 389 में बहुत सीमित अधिकार नहीं मिलते। उसकी संकीर्ण व्याख्या नहीं होनी चाहिए। हालांकि इसके अतिरिक्त रिवीजन न्यायालय को और हाईकोर्ट को धारा 482 के तहत पूरे अधिकार हैं कि वह दंडादेश और दोष सिद्धि के दंड को स्थगित कर दें।
नवजोत सिंह सिद्धू का मुकदमा बहुत दिलचस्प है। 27 दिसंबर 1988 को नवजोत सिंह सिद्धू ने किसी से मारपीट की थी। उस प्रकरण के बाद बात अखबारों में छपी तो यह हुआ कि सिद्धू ने सांसद रहते हुए इस तरह का अपराध किया। सिद्धू ने नैतिकता के आधार पर संसद से इस्तीफा दे दिया और कहा कि एक सांसद रहते हुए वह इस तरह के मामले को अपने खिलाफ प्रचारित होने देना पसंद नहीं करेंगे कि मैं किसी तरह का फायदा ले रहा हूं। बाद में सुप्रीम कोर्ट गए इस बात को लेकर कि उन्हें अगला चुनाव लडऩे से उपरोक्त अधिनियम के तहत 6 वर्षों के लिए अगर प्रतिबंधित कर दिया जाना उनके साथ अन्याय है। उन्होंने तो अपनी सांसदी पहले ही छोड़ दी है। मामले का फैसला जो भी हो। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि सांसद सिद्धू के लिए संसद से इस्तीफा देना आवश्यक नहीं था लेकिन उन्होंने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे दिया। तो ऐसी हालत में उससे प्रभावित होकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उन्हें चुनाव लडऩे की पात्रता मिलनी चाहिए। सिद्धू को हालांकि बाद में फौजदारी मामले में सुप्रीम कोर्ट से एक साल की सजा हो गई और अभी भी वह जेल में हैं। चुनाव लडऩे की घटना का उससे कोई संबंध नहीं था। राहुल ने भी तो नैतिकता का पक्ष लेते अपनी पार्टी की ही सरकार का संशोधन अध्यादेष फाडक़र फेंक दिया था, राहुल सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान ही तो खुलकर कर रहे थे। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 कहती है कि अपील न्यायालय ऐसे कारणों से जो उसके द्वारा अभिलिखित किए जाएंगे, आदेश दे सकता है कि उसे दंडादेश या आदेश का निष्पादन जिसके विरुद्ध अपील की गई है, दोषसिद्ध व्यक्ति द्वारा की गई अपील के लंबित रहने तक निलंबित किया जाए और यदि वह व्यक्ति परिरोध में है, तो यह भी आदेश दे सकता है कि उसे जमानत पर या उसके अपने बंधपत्र पर छोड़ दिया जाए।
न्यायमूर्ति पटनायक ने पाया कि विचित्र विरोधाभास है कि दोषसिद्धि तथा सजा के जिन कारणों से कोई व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता, तब ऐसी ही अयोग्यताएं धारण करते हुए विधायिका का सदस्य बने रहने की संवैधानिक सहूलियत प्रदान की जा सकती है। उपरोक्त धारा 8 (4) का संषोधन कर सांसदों ने खुद को सुरक्षित कर लिया है। यह भी विचित्र है कि अपराधिक न्यायालय द्वारा दिए गए दंडादेष के कायम रहते और संभवत: स्थगन आदेष मिले बिना भी सांसद और विधायक मात्र अपील पेष करने की औपचारिकता का निर्वाह करके सुरक्षित रूप से विधायिका के सदस्य बने रह सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने 2013 के मसले में अलबत्ता मौजूदा सांसदों और विधायकों को छूट देते कहा कि चूंकि उन्हें भविष्य में होने वाले ऐसे किसी फैसले की उम्मीद नहीं रही होगी। इसलिए वे अपील या रिवीजन प्रस्तुत करके निष्चिंत बैठे होंगे। भविष्य में संबंधित अपीलों और रिवीजऩ का कोई परिणाममूलक फैसला आएगा तो स्वाभाविक ही उसका असर उनकी सदस्यता संबंधी स्थिति पर पड़ सकता है। यह फैसला राजनीतिक दलों को रुचा नहीं। अधिकांष राजनीतिक पार्टियों में एक तिहाई से लेकर आधे सदस्य तक सिद्ध अपराधी होते हैं। संविधान के अंतर्गत संसद एक सर्वशक्तिमान संस्था है। वह सुप्रीम कोर्ट के आदेशों से बचने के लिए आत्मरक्षा का विधायन करती रहती है। प्रकरणों को संविधान पीठों की ड्योढ़ी तक पहुंचा देने में सिद्धहस्त है। न्यायिक निर्णयों के पुनर्विलोकन का शोशा भी छोड़ती है। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे तिलिस्म से अप्रभावित रहकर सांसदों और विधायकों को नागरिक-जमीन पर खड़ा किया।
सांसद संविधान को अजीबो-गरीब बीजक, रहस्य-पुस्तिका या बौद्धिक तंत्रशास्त्र भी बनाते रहे हैं। यह पोथी ईमानदार, देशभक्त लेकिन ज्यादातर पारंपरिक ब्रिटिश-बुद्धि का समर्थन करने वाले हस्ताक्षरों ने लिखी थी। उन्हें अन्दाज नहीं था कि अंगरेजी सल्तनत से लोहा लेने वाली पीढ़ी के वंशज लोकतंत्र और आईन के सामने इतनी पेचीदगियां पेश करेंगे कि संविधान को ही पसीना आ जाएगा। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला और उस पर संसद द्वारा लगभग संवैधानिक आक्रमण की कोषिष नागरिकों के लिए खतरनाक संकेत-पर्व लाई थी। तह में जाने पर दिखता है कि सिद्धांतों को विधायिका के बहुमत के जरिए ठेंगा दिखाया जा सकता है।
बुद्धिजीवी वर्ग उम्मीद कर रहा था कि केन्द्र सरकार के पास दो ही विकल्प हैं। एक तो यह कि सरकार सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करे कि उसके फैसले से लोकतंत्र के संचालन में अनपेक्षित दिक्कतें आएंगी। स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने वाली सरकारों के दौर में संसद या विधानमंडलों को चलाना वैसे ही मुश्किल है। दूसरा विकल्प था कि संसद धारा 8 (4) को संशोधित कर दे कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के दंश का सांप मर जाए और जनप्रतिनिधियों की सुरक्षा की लाठी भी नहीं टूटे। सरकार ने एक के बाद एक दोनों काम किए। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की पुनर्विचार याचिका यह कहते ठुकरा दी कि उसके पहले के फैसले में कानून की दृष्टि से कोई तात्विक गलती नहीं है। अलबत्ता सुप्रीम कोर्ट ने माना कि वह उस फैसले पर पुनर्विचार करेगा जिसमें कहा गया था कि जनप्रतिनिधि जेल में रहते हुए चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। पुनर्विचार याचिका खारिज होने के बाद केन्द्र सरकार ने संसद को विश्वास में लेकर धारा 8 (4) को बदलकर अध्यादेश के अनुसार संशोधित करना चाहा। सरकार ने तमाम राजनैतिक दलों को विश्वास में लेकर यह पास किया कि दो वर्ष या अधिक की सजा पाने के तत्काल बाद अपील या रिवीजन दायर करने की स्थिति में अपील न्यायालय से स्थगन पाने के बाद सजा का फैसला प्रभावशील नहीं होगा,
जब तक अपील या रिवीजऩ का अंतिम फैसला नहीं आता। तब तक संबंधित सांसद या विधायक वेतन तथा भत्ते अलबत्ता नहीं ले सकेंगे तथा विधायिका की कार्यवाही में वोट भी नहीं दे सकेंगे।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण सज़ायाफ्ता जनप्रतिनिधियों की मुश्कें तो बंधीं। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का मूल आषय यह था कि जो संवैधानिक अधिकार या सुविधाएं जनप्रतिनिधियों को उपलब्ध कराई गई हैं, वे सुविधाएं भारत के आम नागरिकों को भी मिलें।
राहुल गांधी के कथित लोकतंत्रीय साहस के कारण अध्यादेष को सबके सामने फाडक़र फेंक देने की घटना को कांग्रेस मतदाताओं को यह कैसे समझा पाएगी कि अधिनियम 1951 की धारा 8 (4) में सांसदों और विधायकों को महामानव बनाने का संषोधन कांग्रेस षासन काल में क्यों रचा गया। इस प्रावधान के कारण कितने दागी सांसदों और विधायकों को संवैधानिक लाभ मिल गया होगा। इस मामले में कांग्रेस की बगलगीर बनी भारतीय जनता पार्टी के नरेन्द्र मोदी भी क्या देष की जनता को बताएंगे कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में धारा 33 (ख) 2 मई 2002 से क्यों जोड़ी? उसे भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने दूसरे फैसले में नोचकर फेंक दिया। इस धारा के अनुसार भाजपाई सरकार का इरादा था कि देष की किसी भी अदालत या चुनाव आयोग को राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों के चरित्र के संबंध में सवाल करने का अधिकार नहीं है। ऐसा अधिकार केवल संसद को है। दोनों बड़ी पार्टियां एक दूसरे को कोसती रही हैं कि मेरी कमीज़ तेरी कमीज़ से ज़्यादा उजली है। बाकी पार्टियां सहायक भूमिका में तालियां बजाती रही हैं। बेचारा लोकतंत्र गफलत, सांसत और हैरानी में है। क्या कांग्रेस और भाजपा की चुनावी भ्रष्टाचार में पार्टनरषिप रही है? 1999 में एसोसिएषन फॉर डेम्रोक्रेटिक रिफॉम्र्स नामक स्वैच्छिक संस्था ने दिल्ली उच्च न्यायालय से यह परमादेष मांगा कि केन्द्र षासन को आदेष दिया जाए कि वह चुनाव कानूनों में उचित संषोधन के ज़रिए केन्द्रीय विधि आयोग की 170 वीं रिपोर्ट में सुझाए गए सुधारों को लागू करने के लिए मुनासिब कदम उठाए। केन्द्र षासन के गृह मंत्रालय द्वारा बनाई गई वोहरा कमेटी की रिपोर्ट भी चुनाव सुधारों को लेकर विचारण ली जाए। दिल्ली उच्च न्यायालय ने केन्द्र षासन को निर्देष तो नहीं लेकिन केन्द्रीय चुनाव आयोग को अलबत्ता निर्देष दिए कि उम्मीदवारों की अपराधिक पृष्ठभूमि, आर्थिक स्थिति, षैक्षणिक तथा अन्य प्रतिनिधिक योग्यताओं आदि के बारे में जानकारी दिया जाना सुनिष्चित करे। पी. यू. सी. एल. ने सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर कर समानान्तर मांगें कीं तथा कोर्ट से संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत उसे कानूनी ज़ामा पहनाने की पहल की। दिलचस्प है कि वाजपेयी सरकार ने जनहित याचिकाओं का विरोध किया। कांग्रेस ने भी हस्तक्षेप करते कहा कि संविधान सभा ने ही उम्मीदवारों की आर्थिक हालत और षैक्षणिक योग्यता को जरूरी नहीं माना तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा विचारण में कैसे लिया जाए। निर्वाचन आयोग ने अलबत्ता याचिकाओं को समर्थन दिया। लंबी चौड़ी बहस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कानून बनाने केन्द्र षासन को निर्देषित तो नहीं किया, लेकिन चुनाव आयोग को उसकी संवैधानिक षक्तियों के तहत कार्रवाई करने निर्देष दिए। इनमें उम्मीदवारों का अपराधिक रिकॉर्ड, आर्थिक स्थिति और षैक्षणिक योग्यता से संबंधित निर्देष षामिल थे।
(14) उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध 2001 में केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। 2001 में केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एन.डी.ए. की सरकार थी, कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. की सरकार नहीं। सॉलिसिटर जनरल हरीष साल्वे ने सुप्रीम कोर्ट से कहा जब तक केन्द्र सरकार सभी कानूनों में संषोधन करना ज़रूरी नहीं समझती, हाईकोर्ट को किसी भी तरह के निर्देष देने का अधिकार नहीं है क्योंकि लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम तथा नियमों में पर्याप्त प्रावधान हैं। राजनीतिक दलों को सोचना है कि चुनाव कानूनों में संषोधन किए जाएं अथवा नहीं। उम्मीदवारों द्वारा आर्थिक स्थिति तथा अपराधिक वृत्ति की सूचना नहीं देने पर प्रचलित कानूनों के चलते अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता। आष्चर्यजनक तो हुआ कि कांग्रेस ने भी सरकारी तर्क से गलबहियां करते हुए अपने वकील अष्विनी कुमार के ज़रिए मौसेरे भाई की कथा का पाठ किया कि आर्थिक और षैक्षणिक स्थिति आदि के आधारों पर संविधान सभा ने भी विचार किया था। उन्हें चुनाव कानून में षामिल करना ज़रूरी नहीं समझा। उन्होंने जोर देकर कहा ऐसा निर्णय केवल संसद के अधिनियम बनाकर ही लागू किया जा सकता है। हाईकोर्ट को अधिकार नहीं कि चुनाव आयोग को निर्देष दे। (15) मैं जब भोपाल में मध्य प्रदेश गृह निर्माण मंडल का अध्यक्ष था । तब एक बार मेरे घर पूर्व विधायक शिव कुमार श्रीवास्तव और रामचंद्र वाजपेई आए। अक्सर मेरे पास आते थे। बातों बातों में रामचंद बाजपेई ने शिव कुमार श्रीवास्तव से कहा तुम जानते हो मैं किस जिले का रहने वाला हूं! मेरे विंध्य प्रदेश के बड़े नेता हैं यमुना प्रसाद शास्त्री और अर्जुन सिंह। तुम्हारे सागर मं क्या है ? शिव कुमार श्रीवास्तव ने मुस्कुरा कर कहा कि यह तो ठीक है लेकिन एक बात समझ नहीं आई कि आपके इलाके के सब नेता अंधे क्यों होते हैं? जाहिर है शास्त्री जी नेत्रहीन थे और यह बात अर्जुन सिंह को सुना कर उन्होंने कही थी! इस तरह की हंसी ठिठोली तो राजनीति के जीवन में चलती है। अब यह किस्सा तो भारत के सामाजिक जीवन में फैला दिया गया है ।अक्सर लोग कहते हैं हम मानते हैं कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान तो होता है। अब क्या इसको लेकर भी मुसलमान कोई मुकदमा करें? बचपन में हम लोग कुछ दोस्तों को यूं चिढ़ाते थे ‘सड़ी मछली, गीला भात, उसको खाए बंगाली जात।‘ तो क्या बंगाली भाई मुकदमा कर सकते थे? जीवन में हास्य विनोद भी तो हो।
(16) भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में है कि अभिव्यक्ति की आजा़दी पर प्रतिबंध लग सकता है। यदि वहां लिखे हुए कुछ आधारों के खिलाफ हो। उसमें एक आधार मानहानि का भी है कि यदि उसके लिए अगर सरकार कोई अधिनियम बनाए। सरकार ने कोई अधिनियम नहीं बनाया है लेकिन भारतीय दंड संहिता इस संबंध में लागू है। भारतीय दंड संहिता की धारा 499 में मानहानि की परिभाषा दी गई है विस्तार से और उसके अपवाद भी दिए गए हैं। धारा 500 में 2 वर्ष की सजा या जुर्माने का प्रावधान है, केवल जुर्माने का भी है। पहली बार में तो अमूूमन सजा दी नहीं जाती। थोड़ा सा जुर्माना लगा दिया जाता है। लेकिन राहुल गांधी के प्रकरण में मजिस्ट्रेट बहुत उत्साह में पाए गए हैं। एक वाक्य के ऊपर 2 बरस की सजा दे दी। जो भारत के इतिहास में शायद अनोखी है। फिर भी मानहानि का मुकदमा पुलिस के हस्तक्षेप के लिए नहीं बनाया गया अर्थात उसमें वारंट ट्रायल नहीं होगा। जहां 3 वर्ष से अधिक की सजा का प्रावधान होता है, वहां पुलिस हस्तक्षेप कर सकती है । इसीलिए जानबूझकर भारतीय दंड संहिता में 1860 से अभी तक अधिकतम 2 वर्ष की सजा का प्रावधान है और विकल्प में जुर्माना भी है। इससे प्रकरण की गंभीरता समझ में आती है कि कानून बनाने वालों ने उसको बहुत महत्वपूर्ण नहीं माना है। गुजरात की अदालत में तो सब कुछ महत्वपूर्ण होता है क्योंकि गुजरात सारी दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण है। धारा 504 का प्रकरण बनाना तो रबर के बदले केंचुए को खींचकर बढ़ाने जैसा है।
राहुल प्रकरण से एक चिंताजनक वैधानिक स्थिति पैदा हो रही है। मजिस्ट्रेट की क्या हालत होती है पूरे देश में। हम सब जानते हैं। इन अदालतों से कैसे भी आदेश किसी के खिलाफ भी हो जाते हैं या ले लिए जाते हैं। यदि किसी मजिस्ट्रेट को कोई अपने प्रभाव में ले ले और किसी निर्वाचित विधायक या सांसद के खिलाफ 2 बरस की सजा दिला दे। तो उसके बाद तो उस मजिस्ट्रेट के फैसले के कारण बवंडर मचेगा। राजनीति में उथल-पुथल होगी। किसी का भाग्य या उसका भविष्य खराब भी हो सकता है। अंग्रेज ने जब कानून बनाया था तब चुनाव कहां होते थे। तब मजिस्ट्रेट को केवल सजा देनी होती थी या छोडऩा होता था। अब उस सजा से चुनाव के अधिनियम को जोड़ दिया गया। तब तो हंगामा होना स्वभाविक है। ऐसे कई फैसले जानबूझकर कराए जा सकते हैं। जब देश के नेताओं के और बड़े अन्य निर्वाचित प्रतिनिधियों के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय उर्फ ईडी, इन्कम टैक्स, सीबीआई सब का हंगामा है। अब तो किसी को भी 2 वर्ष की सजा दिलाना कठिन नहीं होगा। कई मुकदमों में हो चुका है। लालू यादव का मुकदमा सबको याद रखना चाहिए। ऐसी हालत में संशोधन लोक प्रतिनिधित्व कानून में होना बहुत ज़रूरी है। जब तक कोई विशेष न्यायाधिकरण किसी वरिष्ठ जज का नहीं बने तब तक उनके भाग्य को भारतीय दंड संहिता के तरह तरह के अपराधों के लिए छोड़ नहीं देना चाहिए। इसी तरह अश्लीलता को लेकर भारतीय दंड संहिता में धारा 292 294 आदि हैं। वहां किसी भी लेखक की कृति को, पुस्तक को, कविता को, उपन्यास को, चित्रकला को, नाटक को लेकर कोई भी रिपोर्ट कर सकता है पुलिस में कि यह रचना अश्लील है और पुलिस उसमें हस्तक्षेप कर सकती है। एक थानेदार कविता में अश्लीलता कैसे ढूंढ लेगा? लेकिन ढूंढ लेता है। मुकदमे हो जाते हैं और अगर सजा हो गई तो वह निर्वाचित प्रतिनिधि हुआ तो एक थानेदार के विवेक पर किसी जन नेता या निर्वाचित प्रतिनिधि का पूरा भविष्य सलीब पर हो सकता है। यह अनुमति कैसे भारतीय संविधान देता है? भारतीय अपराध व्यवस्था में बहुत झोल है। सबकुछ बहुत गंभीरता से सोचा जाना चाहिए और अब तो राजनेता इस तरह के हो गए हैं कि दूसरे की गर्दन मरोडऩे में, गड्ढे में डालने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती। उनके अंदर ईमान और परस्पर सहानुभूति का तो दौर खत्म हो गया है। आगे और बुरा दौर आने वाला है। तैयार रहिए। गुजरात के ही एक मजिस्ट्रेट ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के खिलाफ जमानती वारंट षायद निकाल दिया था न?
दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन की मॉडल मारिके का कहना है कि अक्सर लोग उन्हें ड्रिंक, लंच और इवेंट में साथ आने का ऑफर देते हैं।
क्यों? इसके जवाब में वो सादगी से कहती हैं कि ये उनकी सुंदरता की वजह से है।
लंबी, पतली और भूरे बालों वाली ये मॉडल बीबीसी बिजनेस के रेडियो कार्यक्रम डेली में कहती हैं, ‘हो सकता है कि कुछ लोगों को ऐसा लगे कि ये ठीक नहीं हैं।’
‘लेकिन आप जैसे दिखते हैं और अपने उस रूप को बनाए रखने के लिए आप बहुत मेहनत करते हैं, तो फिर आपको ये सभी अतिरिक्त चीजें फ्री में मिलती रहती हैं। मुझे लगता है कि जो मिल रहा है उसे लेना चाहिए और मौज करनी चाहिए।’
चाहें हम इसे स्वीकारोक्ति को पसंद करें या नहीं, लेकिन सौंदर्य को लेकर पूर्वाग्रह हॉलीवुड, सोशल मीडिया और विज्ञापनों की दुनिया तक सीमित नहीं है, इस दिशा में हो रहे शोधों से पता चलता है कि आकर्षक लोगों के लिए जीवन अधिक आरामदायक और शानदार होता है।
लेकिन सुंदर लोग आखिर दूसरों की तुलना में कितनी बेहतर स्थिति में होते हैं? चलिए पता करते हैं।
सोशल मीडिया की ताकत
दुनियाभर में लोग इस विषय पर चर्चा कर रहे हैं, ‘सुंदर दिखने’ वाले लोग उन स्टोरीज को स्वैप कर रहे हैं जिनमें कहा जा रहा है कि उन्हें सुंदर दिखने की वजह से मुफ्त में उत्पाद मिलते हैं। एक महिला ने तो यहां तक कह दिया है कि एक कंपनी ने उन्हें उस नौकरी के लिए इंटरव्यू के लिए बुला लिया जिसके योग्य वो थी हीं नहीं क्योंकि कंपनी को वह बहुत सुंदर लगीं थीं।
सोशल मीडिया ने जाहिर तौर पर कई लोगों को सशक्त किया है, पुरुष और महिला दोनों ही अपने घर से बाहर निकलने बिना ही सिर्फ अपने लुक्स के दम पर पैसा कमा रहे हैं।
मारिके तर्क देती हैं, ‘सुंदर लोगों को मिलने वाली प्राथमिकता वास्तव में बढ़ रही है, इसके पीछे इंस्टाग्राम को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।’ ब्रांड सोशल मीडिया पर मौजूद युवा ग्राहकों तक पहुंचने के लिए एक दूसरे से संघर्ष कर रहे हैं। ये युवा अब पारंपरिक मीडिया नहीं देखते हैं।
मारिके बताती हैं, ‘एक ब्रांड आपके इतने सारे उत्पाद भेजता है और आपके उसके लिए इंस्टाग्राम पर उस उत्पाद को शेयर कर बस लोगों को प्रभावित करना होता है।’
मारिके कहती हैं कि उन्हें बहुत से आयोजनों, जैसे किसी रेस्त्रां का उद्घाटन में भी आमंत्रित किया जाता है।
‘आपको बस वहां पहुंचना होता है और मस्ती करनी होती है। आयोजकों के ये अच्छा लगता है क्योंकि उनके रेस्त्रां में कई सारी सुंदर लड़कियां मस्ती करते हुए तस्वीरों में दिख जाती हैं।’
मारिके स्वीकार करती हैं कि निजी तौर पर उन्हें मुफ़्त की चीज़ें लेना और लोगों का उनकी तरफ़ आकर्षित होना अच्छा लगता है।
वो कहती हैं, ‘एक मॉडल होने और ख़ूबसूरत होने की वजह से इस तरह के मुफ़्त के अनुभव और मौकों का होना अपने आप में शानदार है। जब आप बड़े शहर में रह रहे होते हैं तो आपको बहुत ख़र्च भी उठाने पड़ते हैं।’
सुंदर लोग कितनी बेहतर स्थिति में होते हैं?
यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सस के डेनियल हेमरमेश एक अर्थशास्त्री हैं और कई सालों से ‘सौंदर्य पूर्वाग्रह’ कही जाने वाली इस अवधारणा का अध्ययन कर रहे हैं।
वो कहते हैं कि खूबसूरत लोगों को अधिक वेतन मिलता है, बैंक से लोन लेने में कम दिक्कतें आती हैं और आमतौर पर उन्हें बेहतर नौकरी और संसाधनों का प्रस्ताव मिलता है।
‘ये यूनिवर्सिटी शिक्षण के क्षेत्र में भी है, जो कि सुंदरता पर निर्भरता के लिए बहुत चर्चित नहीं है। यहां तक कि अर्थशास्त्र जैसे विषय में भी, कुछ शोध से ये पता चला है कि सुंदर दिखने वाले अर्थशास्त्री अधिक कमाते हैं।’
वो अनुमान लगाते हैं कि दिखने में अधिक सुंदर एक कर्मचारी अपने जीवनकाल में औसतन 230,000 डॉलर दूसरों की तुलना में अतिरिक्त कमाता है। उनकी ये गणना प्रति घंटा 20 डॉलर के वेतनमान पर आधारित है।
वो कहते हैं कि अगर इस आर्थिक मॉडल को किसी हेज फंड के मैनेजर पर लागू किया जाए तो बहुत आकर्षक दिखने वाले मैनेजर और कम आकर्षक दिखने वाले मैनेजर की आय में बहुत बड़ा फासला नजऱ आएगा।
वो ये भी मानते हैं कि लैंगिक वेतन भेद सुंदर दिखने वाले लोगों पर भी लागू होता है। हेमरमेश को पता चला है कि आकर्षक दिखने वाले पुरुष आकर्षक दिखने वाली महिलाओं की तुलना में अधिक पैसा कमाते हैं। उन्होंने पाया है कि कम आकर्षक दिखने वाला पुरुष आकर्षक दिखने वाले पुरुष के मुकाबले में 10 प्रतिशत कम कमाता है।
हेमरमेश स्वीकार करते हैं कि अन्य कारक जैसे कि व्यक्तित्व, बुद्धिमत्ता, शिक्षा, उम्र और नस्ल आदि भी मायने रखते हैं लेकिन उनका तर्क है कि सुंदरता इन सबसे अलग एक कारक है।
‘अगर आप लोगों के बीच में इन सभी भेदों को भी शामिल कर लें तब भी सुंदरता एक ऐसा कारक है जो श्रम बाजार या नौकरी को प्रभावित करता है।’
सुंदरता की परिभाषा क्या है?
कई लोग ये तर्क देते हैं कि सुंदरता को परिभाषित करना मुश्किल है, लेकिन हेमरमेश इससे सहमत नहीं हैं। वो कहते हैं कि अधिकतर लोग इस बात पर सहमत हो सकते हैं कि कौन अच्छा दिख रहा है और कौन कम आकर्षक है।
‘अगर मैं और आप सडक़ पर चलते हैं और दस लोगों को देखते हैं और उनमें से एक दो ऐसे हैं जो बहुत सुंदर दिखते हैं। तो कौन सुंदर दिख रहा है इसे लेकर हमारी राय एक जैसी हो सकती है।’
वो ये तर्क भी देते हैं कि नस्ल से सौंदर्य पूर्वाग्रह पर कोई फर्क नहीं पड़ता है।
‘नस्ल आज चाहें जो भी हो लेकिन सुंदरता को लेकर हमारे विचार लगभग एक जैसे हैं। एक अफ्रीकी जो आकर्षक है, उसे पूरी दुनिया में आकर्षक महिला के रूप में ही देखा जाएगा। किसी एशियाई महिला या कॉकेशस क्षेत्र की महिला के बारे में भी ऐसा ही होगा।’
खूबसूरत चेहरे और मोटापे से डर
चेहरे को खास रूप से आकर्षक बनाने के लिए अब बोटोक्स और लिप फिलिंग जैसे कॉस्मेटिक उपचार सामान्य होते जा रहे हैं।
लेकिन हेमरमेश मानते हैं कि ऐसा ज़रूरी नहीं है कि इस तरह की प्रक्रिया के बाद व्यक्ति ख़ूबसूरत हो ही जाए।
‘लोगों को लगता है कि इससे उन्हें मदद मिल है। वो अच्छे कपड़े, बेहतर कॉस्मेटिक और बाल ले सकते हैं। लेकिन शंघाई में हुए एक शोध से पता चला है कि जो लोग अधिक ब्यूटी उत्पाद इस्तेमाल करते हैं और सुंदर दिखने पर अधिक ख़र्च करते हैं वो उनसे बहुत ज़्यादा सुंदर नहीं समझे गए जो कम पैसे ख़र्च करते हैं।’
और जब बात सुंदरता और नौकरी की होती है- लेखिका एमिली लॉरेन डिक तर्क देती हैं कि वजन को लेकर भेदभाव बहुत अधिक होता है।
हालांकि, अधिकतर देशों में श्रम क़ानून नौकरी से संबंधित कारकों के अलावा किसी भी कारण, जैसे नस्ल, लिंग, विकलांगता या उम्र आदि के आधार परभेदभाव को प्रतिबंधित करते हैं, एमिली कहती हैं कि शारीरिक रूप को लेकर कोई सुरक्षा कवच नहीं। वो कहती हैं कि कार्यस्थल नीतियों में बदलाव होना चाहिए और इस भेदभाव के खिलाफ लोगों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
वो तर्क देती हैं, ‘फैट फोबिया, यानी मोटे होने को लेकर और नफरत एक तरह का नस्लवाद ही है।’
कनाडा की लेखिका एमिली कहती हैं, ‘जब गुलामी का दौर शुरू हुआ तो गोरी महिलाओं काली महिलाओं से अपने आप को अलग दिखाने के लिए अपना शरीर पतला रखती थीं।’
वो ये भी कहती हैं कि विज्ञापन और फिल्में मोटे लोगों ‘नापसंदीदा और बेवकूफ’ की तरह पेश करते हैं। वो कहती हैं कि ये ऐसी धारणा है जिसकी वजह से आम जीवन में मोटे लोगों को शोषण और उत्पीडऩ का सामना करना पड़ सकता है।
वो कहती हैं, ‘पतले शरीर वाले कर्मचारियों की तुलना में मोटे लोगों की कमाई कम हो सकती है और ये धारणाओं और उनकी हैसियत क्या है, इससे भी जुड़ा होता है।’ लगता है विज्ञान भी उनकी इस अवधारणा का समर्थन करता है। ब्रिटेन के शेफील्ड की हैलम यूनिवर्सिटी में हुआ एक शोध तो यही इशारा करता है।
नियोक्ताओं को एक जैसे बायोडाटा दिए गए थे। पहले मोटे लोगों की तस्वीर लगाकर और फिर बाद में पतले लोगों की फोटो लगाकर। नतीजा स्पष्ट रूप से पतले लोगों की तरफ झुका रहा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के मुताबिक दुनियाभर में मोटे लोगों की संख्या सौ करोड़ को पार कर गई है। अब लगता है कि सुंदरता और वजऩ को लेकर हमारे अपने अचेतन पूर्वाग्रहों को चुनौती देने का सही समय आ गया है।
सुंदरता की तरफ झुकाव कोई नई बात नहीं है और यह ना सिर्फ हॉलीवुड बल्कि समान्य लोगों को भी पीढ़ी दर पीढ़ी प्रभावित करता रहा है।
म़ॉडल मारीके कहते हैं कि समाज में रंग-रूप के लिए पागलपन पर अब ग़ौर किया जा रहा है और फैशन उद्योग में अब अपेक्षाएं बदल रही हैं।
‘आज कल लोग उन कलाकारों और अभीनेताओं में दिलचस्पी लेते हैं जिनके पास कोई कहानी है, जो अभिनय के अलावा भी कुछ करते हैं या अन्य क्षेत्रों में भी रूची रखते हैं। इसलीए अब व्यकितत्व बहुत मायने रखता है।’
यह उद्योग के भीतर बढ़ती हुई ट्रेंड है जो कि बेहद शानदार चिज़ है। (bbc.com)
यह सत्य प्रेम कथा है सारस क्रेन पक्षी और अमेठी जिले युवक आरिफ के बीच। सारस पक्षी को संस्कृत में क्रौंच पक्षी कहा जाता है। रामायण के शुरुआत में क्रौंच वध प्रसंग है। क्रौंच पक्षी ताउम्र साथ रहते हैं। यदि एक मरा तो दूसरा है तो दूसरा वियोग में दम तोड़ देता है पर जोड़ा नहीं बदलता।
प्रसंग के मुताबिक शिकारी सारस के जोड़ें में एक का शिकार करता है तो दूसरा करुण विलाप करते हुए उड़ता है। इस विलाप से महर्षि वाल्मीकि के मुंह से अनायास सँस्कृत का प्रथम श्लोक फूट पड़ा और इसके बाद महाग्रन्थ रामायण की रचना हुई।
सारस भारतीय पक्षी है और यूपी हरियाणा के खेतों में जोड़े के संग विचरण कर पेट भरता है दिखता है। यह सारस क्रेन घायल पड़ा हुआ आरिफ को अपने खेत में मिला था। उसकी टांग टूट गईं थी।
आरिफ ने सारस घर लकर उसका देसी इलाज किया और जो खुद खाता वह उसे देता। लगभग पांच फीट ऊंचा यह सारस चंगा हो गया तब उड़ कर कहीं गया नहीं। आरिफ को अपना दोस्त मान मान उसके सँग रहने लगा।
आरिफ जब कहीं बाइक जाता तो वह भी पीछे उड़ते जाता। इसका वीडियो एक माह से वायरल हो रहा था। बीबीसी ने भी आरिफ और सारस की इस प्रेम कथा पर फ़िल्म बनाई है। जिसमें सारस और आरिफ़ का साथ खाना कहते और उसकी बाइक के पीछे ऊपर उड़ते जाना दिखाया गया है।
कभी कभी सारस अपने पुराने साथियों से मिलने जाता उनके साथ खेतों में चरता पर शाम घर लौट आता। इस प्रेम का दुश्मन यूपी का वन विभाग निकला है और वह आरिफ के घर से सारस को ले गया है।
वाइल्ड लाइफ एक्ट में इसे पालना जुर्म है। पर यह मामला वैसा नहीं सारस खुद संग रह रहा था उसके पंख नहीं काटे गए थें। वह अपनी पसंद की आजाद जिंदगी आरिफ के साथ जी रहा था।
मेरे विचार में आजाद पक्षी को अलग वन विभाग अब यदि पिंजरे में कैद रखता है तो वह नैतिक अपराध होगा।
देखिये क्या सारस के इस अधिकार के लिये यूपी या फिर देश के पक्षी प्रेमी वन विभाग के लिए खिलाफ क्या कदम उठाते हैं।
अभी इस प्रेम कथा का उपसंहार नहीं हुआ है।शो अभी बाकी है। सीएम श्री योगी को हस्तक्षेप करना चाहिए जिसे आदमी और मनुष्य में दोस्ती की अभूतपूर्व मिसाल बनी रहे।
सारस भारत का सबसे ऊंचा पक्षी है उसका विलाप महर्षि वाल्मीकि को द्रवित कर सकती है तो इसकी हाय भी देखे क्या गुल खिलाती है,तत्सम्बन्ध में भविष्य की खिड़की खुलना अभी बाकी है।
कई लोग सपने में देखे गए दृश्यों को वास्तव में अंजाम देते हैं। यह एक समस्या है जो अक्सर नींद के रैपिड आई मूवमेंट (आरईएम) चरण में होती है। इसे आरईएम निद्रा व्यवहार विकार (आरबीडी) कहते हैं और यह लगभग 0.5 से लेकर 1.25 प्रतिशत लोगों, खासकर वयस्क पुरुषों, को प्रभावित करता है। विश्लेषण से पता चला है कि आरबीडी तंत्रिका-क्षति रोगों का पूर्वाभास हो सकता है। खास तौर से सिन्यूक्लीनोपैथी का अंदेशा होता है जिसमें मस्तिष्क में अल्फा-सिन्यूक्लीन नामक प्रोटीन के लोंदे जमा हो जाते हैं। वैसे सोते हुए किए जाने वाले सारे व्यवहार आरबीडी नहीं होते। जैसे नींद में चलना या बड़बड़ाना गैर-आरईएम निद्रा के दौरान होते हैं और इन्हें आरबीडी की क्षेणी में नहीं रखा जा सकता। इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि सारे आरबीडी का सम्बंध सिन्यूक्लीनोपैथी से नहीं होता। और तो और, यह स्थिति अन्य कारणों से भी बन सकती है।
अलबत्ता, जब आरबीडी के साथ ऐसी कोई अन्य स्थिति न हो तो भविष्य में बीमारी अंदेशा होता है। कुछ अध्ययनों का निष्कर्ष है कि सपनों में हरकतें भविष्य में तंत्रिका-क्षति रोग पैदा होने की 80 प्रतिशत तक भविष्यवाणी कर सकती हैं। हो सकता है कि यह ऐसी बीमारी का प्रथम लक्षण हो।
आरबीडी से जुड़ा सबसे प्रमुख रोग पार्किंसन रोग है। इसमें व्यक्ति क्रमश: अपने मांसपेशीय क्रियाकलापों पर नियंत्रण गंवाता जाता है। एक अन्य रोग है लेवी बॉडी स्मृतिभ्रंश। इसमें मस्तिष्क में लेवी बॉडीज़ जमा होने लगती हैं और व्यक्ति का अपनी हरकतों और संज्ञान पर नियंत्रण नहीं रहता। एक तीसरे प्रकार की सिन्यूक्लीनोपैथी व्यक्ति की ऐच्छिक हरकतों के अलावा अनैच्छिक क्रियाओं (जैसे पाचन) में भी व्यवधान पहुंचाती है। शोधकर्ताओं का मत है कि जीर्ण कब्ज़ और गंध की संवेदना के ह्रास की अपेक्षा आरबीडी सिन्यूक्लीनोपैथी का बेहतर पूर्वानुमान देता है।
वैसे तो सपनों को चेष्टाओं में बदलना और पार्किंसन के आपसी सम्बंध के बारे में काफी समय से लिखा जाता रहा है। स्वयं जेम्स पार्किंसन ने 1817 में इसके बारे में लिखा था। सपनों और पार्किंसन रोग के बारे में कई रिपोर्ट्स के बावजूद इनकी कडिय़ों को जोड़ा नहीं जा सका था। लेकिन हाल ही में खुद एक मरीज़, जिसे आरबीडी की शिकायत थी, ने अपने डॉक्टर से आग्रह किया कि उसका ब्रेन स्कैन करके पार्किंसन के बारे में शंका की जांच करें। उस मरीज़ की आशंका सही निकली - उसे पार्किंसन रोग था।
हाल के वर्षों में आरबीडी और सिन्यूक्लीनोपैथी के बीच कार्यकारी सम्बंध की समझ बढ़ी है। आम तौर पर आरईएम निद्रा के दौरान कुछ क्रियाविधि होती है जो ऐसी चेष्टाओं पर रोक लगाकर रखती है। लेकिन आरबीडी पीडि़त व्यक्ति में यह क्रियाविधि काम नहीं करती और वे शारीरिक चेष्टाएं करते रहते हैं। 1950 व 1960 के दशक में किए गए प्रयोगों से पता चला था कि आरईएम निद्रा के दौरान ऐसी हरकतें कितनी ऊटपटांग हो सकती हैं। जैसे कुछ बिल्लियों पर प्रयोग के दौरान उनके ब्रेन स्टेम के कुछ हिस्सों को काटकर निकाल दिया गया। ऐसा करने पर आरईएम निद्रा के दौरान मांसपेशियों की हरकतों पर जो रुकावट लगी थी वह समाप्त हो गई और आरईएम निद्रा के दौरान वे बिल्लियां ऐसे हाथ-पैर मारती रहीं जैसे सपने देखकर उसके अनुसार हरकतें कर रही हों।
फिर 1980 के दशक में एक मनोचिकित्सक कार्लोस शेंक और उनके साथियों ने आरबीडी को लेकर पहले केस अध्ययन प्रकाशित किए। ये मरीज़ वैसे तो शांत स्वभाव के थे किंतु उनका कहना था कि वे हिंसक सपने देखते हैं और आक्रामक व्यवहार करने लगते हैं। शेंक की टीम ने 29 आरबीडी मरीज़ों का अध्ययन किया। सभी 50 वर्ष से अधिक उम्र के थे। शेंक की टीम ने रिपोर्ट किया है कि इनमें से 11 में आरबीडी की शुरुआत के औसतन 13 वर्षों बाद तंत्रिका-क्षति रोग उभरे। आगे चलकर, कुल 21 मरीज़ों में ऐसे रोग प्रकट हुए।
इन परिणामों की पुष्टि एक ज़्यादा व्यापक अध्ययन से भी हुई है। दुनिया भर के 21 केंद्रों के 1280 आरबीडी मरीज़ों में से 74 प्रतिशत में 12 वर्षों के अंदर तंत्रिका-क्षति रोग का निदान किया गया। धीरे-धीरे आरबीडी और तंत्रिका-क्षति रोगों के बीच की कडिय़ों को स्वीकार कर लिया गया है। लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि इन कडिय़ों का कार्यिकीय आधार क्या है।
कई वैज्ञानिकों का मत है कि आरबीडी इस वजह से होता है क्योंकि सिन्यूक्लीन ब्रेन स्टेम के उस हिस्से में जमा होने लगता है जो हमें आरईएम निद्रा के दौरान निष्क्रिय करके रखता है। अपने सामान्य रूप में यह प्रोटीन तंत्रिकाओं के कामकाज में भूमिका निभाता है। लेकिन जब यह असामान्य ढंग से तह हो जाता है तो यह विषैले लोंदे बना सकता है। ऑटोप्सी परीक्षणों से पता चला है कि आरबीडी से पीडि़त 90 प्रतिशत मरीज़ों की मृत्यु मस्तिष्क में सिन्यूक्लीन जमाव के लक्षणों के साथ होती है। अभी तक ऐसी कोई तकनीक उपलब्ध नहीं है जिससे जीवित व्यक्ति के मस्तिष्क में सिन्यूक्लीन के थक्कों की जांच की जा सके। अलबत्ता, वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि शरीर के अन्य हिस्सों (खासकर सेरेब्रो-स्पायनल द्रव) में गलत तरह से तह हुए सिन्यूक्लीन का पता लगाया जा सके। ऐसे एक अध्ययन में आरबीडी पीडि़त 90 प्रतिशत व्यक्तियों में गलत ढंग से तह हुआ सिन्यूक्लीन मिला है।
इतना तो सभी मान रहे हैं कि आरबीडी पार्किंसन तथा अन्य तंत्रिका-क्षति रोगों का प्रारंभिक लक्षण है। इस समझ के साथ वैज्ञानिक यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि ऐसा हानिकारक सिन्यूक्लीन शरीर में किस तरह फैलता है। इस बात के काफी प्रमाण मिले हैं कि यह विकार आंतों में शुरू होता है और वहां से मस्तिष्क तक पहुंचता है। उदाहरण के लिए चूहों पर किए गए प्रयोगों से पता चला है कि आंतों से मस्तिष्क तक यह वैगस तंत्रिका के ज़रिए पहुंचता है। मनुष्यों में भी देखा गया है कि वैगस तंत्रिका को काट दें (जो जीर्ण आमाशय अल्सर के इलाज के लिए किया जाता है), तो पार्किंसन होने का जोखिम कम हो जाता है।
कुछ शोधकर्ताओं का मत है कि पार्किंसन दो प्रकार का होता है। कुछ में यह आंतों में पहले शुरू होता है और कुछ में पहले मस्तिष्क में। जैसे डेनमार्क के आर्हुस विश्वविद्यालय के पर बोर्गहैमर का कहना है कि आरबीडी मस्तिष्क-प्रथम पार्किंसन का एक शुरुआती लक्षण हो सकता है लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि आरबीडी के हर मरीज़ को अंतत: पार्किंसन रोग होगा ही। मात्र एक-तिहाई मरीज़ों में ऐसा होता है।
इस संदर्भ में एक और अवलोकन महत्वपूर्ण है। सॉरबोन विश्वविद्यालय की इसाबेल आर्नल्फ ने पार्किंसन के मरीज़ों के स्वप्न के समय के व्यवहार में कुछ अजीब बात देखी। ये मरीज़ जागृत अवस्था में तो शारीरिक क्रियाओं में दिक्कत महसूस करते थे, लेकिन सोते समय इन्हें हिलने-डुलने में कोई परेशानी नहीं होती थी। इस तरह के व्यवहार के रिकॉर्डिग की मदद से आर्नल्फ की टीम को आरबीडी मरीज़ों के सपनों की कुछ विशेषताएं देखने को मिलीं जिनके आधार पर शायद यह समझने में मदद मिलेगी कि हमें सपने कैसे और क्यों आते हैं।
(स्रोत फीचर्स)
लंदन की मेट्रोपॉलिटन पुलिस में 34,000 से ज्यादा अधिकारी हैं। लेकिन ब्रिटेन की सबसे बड़ी पुलिस फोर्स पर नस्लभेद, महिलाओं के प्रति दुर्भावना और होमोफोबिया जैसे गंभीर आरोप लग रहे हैं। एक युवती से बलात्कार और फिर उसकी हत्या के बाद आई स्वतंत्र समीक्षा आयोग की रिपोर्ट में ये दावे किए गए हैं।
मंगलवार को जारी हुई आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि लंदन पुलिस को ‘खुद को बदलना होगा’ या टूटने का जोखिम उठाना होगा। आयोग की अगुवाई करने वाली लुइजे कैसी कहती हैं, ‘जनता होने के नाते खुद को पुलिस से सुरक्षित रखना हमारा काम नहीं है। आम जनता के तौर पर हमें सुरक्षित रखना पुलिस का काम है।’
लुइजे कैसी, पीडि़तों के अधिकार और समाज कल्याण की एक्सपर्ट हैं। उनके मुताबिक, ‘बहुत ज्यादा लंदनवासी पुलिसिंग पर भरोसा खो चुके हैं।’
इस रिपोर्ट के बाद मेट्रोपॉलिटन पुलिस में बड़े और व्यापक सुधार करने का दबाव बन रहा है। बीते बरसों में ऐसे कई मामले आए हैं, जहां महिलाओं और अल्पसंख्यकों के प्रति पुलिस का बेहद बुरा रवैया सामने आया। अक्टूबर 2022 में आयोग की प्राथमिक रिपोर्ट आई थी। उसमें भी कहा गया था कि पुलिस, अपने अधिकारियों को अच्छी तरह प्रशिक्षित करने में नाकाम रही है। घरेलू हिंसा और नस्लभेदी शोषण का आरोप झेलने वाले पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई करने के बजाए, उन्हें सर्विस में बनाए रखा गया। रिव्यू में कहा गया कि मेट्रोपॉलिटन पुलिस में खुद पर लगे आरोपों को नकारने की संस्कृति पसरी है। पुलिस हमेशा ‘हमें सब मालूम है’ जैसी मानसिकता में जीती है।
पुलिस पर लगे संगीन आरोप
मार्च 2021 में लंदन में एक युवती सारा एवरार्ड की हत्या हुई। मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव की जॉब करने वाली सारा, साउथ लंदन में अपने दोस्त के घर से पैदल लौट रही थी। तभी रास्ते में एक पुलिस अधिकारी ने उसे अगवा किया और शहर से बाहर ग्रामीण इलाके में सारा से बलात्कार किया और फिर उसकी हत्या कर शव को वहीं दफना दिया। सीसीटीवी कैमरों के फुटेज से मामले की परतें खुलने लगीं। इस वारदात के बाद लोगों का गुस्सा भडक़ उठा। देश भर में प्रदर्शन होने लगे। कई महिलाएं सामने आईं जिन्होंने पुलिस अधिकारियों पर इससे मिलते जुलते आरोप लगाए।
कुछ ही महीने बाद दिसंबर 2021 में दो पुलिस अधिकारियों को दो ब्लैक महिलाओं की आपत्तिजनक तस्वीरें लेने और शेयर करने के लिए जेल की सजा हुई। फिर एक पुलिस अधिकारी को 48 बलात्कारों का दोषी करार दिया गया। उस पर 17 साल तक कई महिलाओं से बलात्कार करने के आरोप सिद्ध हुए।
मेट्रोपॉलिटन पुलिस के अधिकारियों पर समलैंगिकों और अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत भरा रुख अपनाने के आरोप भी लगते रहे हैं। एक मामले में जांच अधिकारी ने चार समलैंगिक युवाओं की हत्या करने वाले सीरियल किलर को ढील दी।
पुलिस की मुश्किलें
आयोग की 363 पेज की विस्तृत रिपोर्ट में कहा गया है कि फंडिंग में कटौती, स्थानीय पुलिस स्टेशनों को बंद करने के फैसले और असरदार तरीके से कम्युनिटी पुलिसिंग को खत्म करने से भी हालात खराब हुए हैं। रिपोर्ट का एक अंश कहता है कि मेट्रोपॉलिटन पुलिस में कोई तालमेल नहीं दिखाई पड़ता है और उसकी कई पहलें बहुत कम समय तक चलती हैं।
रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि किस तरह ट्रेनिंग, पैसे और सुविधाओं की कमी से पुलिसिंग का काम प्रभावित हुआ है। जांच में ऐसे कई मामले सामने आए जब पुलिस के पास फॉरेसिंग सबूत जुटाने के न तो साधन थे और ना ही क्षमता। रेप के कई मामलों में कामचलाऊ तरीके से सबूत जमा किए गए। बाद में ऐसे सबूत खराब हो गए और उन्हें कोर्ट में भी पेश नहीं किया गया।
पुलिस अधिकारी भी भेदभाव का शिकार
लंदन की आबादी में काले, एशियाई और मिश्रित नस्ल वाले लोगों की संख्या 40 फीसदी है, लेकिन पुलिस फोर्स व्हाइट मर्दों से भरी पड़ी है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक मेट्रोपॉलिटन पुलिस ने 31 फीसदी महिलाएं काम कर रही है। स्वतंत्र समीक्षा आयोग की रिपोर्ट कहती है, ‘महिला अधिकारी और स्टाफ, रूटीन की तरह सेक्सिज्म और महिलाओं के प्रति दुर्भावना का सामना करती हैं।’ (डायचे वैले)
महेन्द्र पांडेय
प्लास्टिक के कचरे से पूरी दुनिया भर गयी है। हिमालय की चोटियों से लेकर महासागर की गहराइयों तक प्लास्टिक पहुंच चुका है। प्लास्टिक का कचरा महासागर के जीवों से लेकर वन्यजीवों के पेट तक पहुंच रहा है। इन सबकी खूब चर्चा भी की जाती है। एक अनुसंधान यह बताता है कि एक औसत मनुष्य प्रतिवर्ष भोजन के साथ और सांस के साथ प्रतिवर्ष लगभग सवा लाख प्लास्टिक के टुकड़े को अपने शरीर के अन्दर पहुंचा रहा है। यह अनुसंधान एनवायर्नमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया था।
प्लास्टिक प्रदूषण और मानव स्वास्थ्य पर चर्चा के बीच लंदन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के वैज्ञानिकों ने प्लास्टिक युक्त भोजन खाने के कारण समुद्री पक्षियों में पनपने वाली बीमारी के बारे में बताया है और इस बीमारी को प्लास्टिकोसिस का नाम दिया है। यह अनुसंधान ऑस्ट्रेलिया के लार्ड हॉवे आइलैंड पर मिलने वाले ‘फ्लेश-फूटेड शियरवाटर्स’ नामक पक्षियों पर किया गया है और समुद्री पक्षियों के स्वास्थ्य पर प्लास्टिक के प्रभाव से सम्बंधित पहला व्यापक अध्ययन है। इस अध्ययन को जर्नल ऑफ हेजार्दस मटेरियल में प्रकाशित किया गया है।
अध्ययन के अनुसार प्लास्टिक खाने वाले पक्षियों के आंतों के शुरुआती भाग, प्रोवेंटरीक्युलस, में सूजन आ जाती है और इसके टूब्युलर ग्लैंड्स काम करना बंद कर देते हैं। इससे पक्षी दूसरी बीमारियों से और परजीवियों से आसानी से संक्रमित हो जाते हैं, इनकी भोजन अवशोषित करने की क्षमता प्रभावित होती है और कुछ विटामिनों के अवशोषण पर भी असर पड़ता है। इसके बाद आंतें अपना आकार बदलने लगती हैं और इनपर घाव हो जाता है। इन पक्षियों की सामान्य वृद्धि प्रभावित होती है और इनका जीवन खतरे में पड़ जाता है।
नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के वैज्ञानिक डॉ अलेक्स बांड और सहयोगी डॉ जेनिफर लावेर्स के अनुसार इन पक्षियों में प्लास्टिक की मात्रा का ग्रहण और इससे पनपने वाली बीमारी के स्तर का आकलन किया गया, जिसके अनुसार इन दोनों का सीधा सम्बन्ध है। महासागरों और द्वीपों पर प्लास्टिक कचरा इतना सामान्य है कि इन पक्षियों में मादा अपने बच्चों को भी चोंच से जो खाना खिलाती है, उसमें भी प्लास्टिक मौजूद रहता है। इस कारण बच्चे पक्षी भी इस रोग का शिकार हो रहे हैं। अनुसंधान के दौरान यह तथ्य स्पष्ट हुआ कि इन पक्षियों के भोजन में दूसरे पदार्थों, जैसे पुमिक स्टोन या रेत की उपस्थिति से पक्षियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह प्रभाव केवल प्लास्टिक से ही पड़ता है, इसीलिए इस रोग को प्लास्टिकोसिस का नाम दिया गया है।
सवाल यह है कि प्लास्टिक के ये टुकड़े आते कहां से हैं? प्लास्टिक अपशिस्ट, जो इधर-उधर बिखरा पड़ा होता है वह समय के साथ और धूप के कारण छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो जाता है, फिर और छोटे टुकड़े होते हैं और अंत में पाउडर जैसा हो जाता है। यह हल्का होता है, इसलिए हवा के साथ दूर तक फैलता है और अंत में खाद्य-चक्र का हिस्सा बन जाता है। यह हवा में मिलकर श्वांस के साथ फेफड़े तक भी पहुंच जाता है। प्लास्टिक के छोटे टुकड़ों को माइक्रो-प्लास्टिक कहा जाता है, जबकि बहुत छोटे टुकड़े जो आँखों से नहीं दिखाते हैं, वे नैनो-प्लास्टिक हैं। यही नैनो-प्लास्टिक सारी समस्या की जड़ हैं और ये अब पूरी दुनिया की हवा और पानी तक पहुँच चुके हैं। यही खाद्य पदार्थों में, पानी में और हवा में फैल गए हैं। अब इनसे मुक्त न तो हवा है, न ही पानी और ना ही खाने का कोई सामान।
हाल में ही पलोस वन नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार महासागरों में तैरने वाले प्लास्टिक के टुकडों की संख्या 170 खराब से भी अधिक है और इनका सम्मिलित वजन 20 लाख टन से भी अधिक है। इस अध्ययन के अनुसार इस समय महासागरों को प्लास्टिक-मुक्त करने के लिए किनारों की सफाई पर जोर दिया जा रहा है, पर यह बेकार की कवायद है क्योंकि जब तक वैश्विक स्तर पर प्लास्टिक का उत्पादन कम नहीं किया जाएगा तबतक या समस्या ऐसे ही विकराल रहेगी।
इस अध्ययन के लिए महासागरों में वर्ष 1979 से 2019 तक बहने वाले प्लास्टिक का आकलन किया गया है, और इसके अनुसार वर्ष 2005 के बाद से महासागरों में यह समस्या तेजी से बढी है। अनुमान है कि, यदि दुनिया इसी तरह प्लास्टिक का उपयोग करती रही तो वर्ष 2040 तक महासागरों में प्लास्टिक की मात्रा 2.6 गुना बढ़ जायेगी। एक दूसरे अध्ययन के अनुसार केवल कोविड 19 के दौर में ही महासागरों में 26000 तक प्लास्टिक कचरा पहुंच गया। कोविड 19 से बचाव के लिए उपयोग में आने वाले अधिकतर उपकरण – फेसमास्क और ऐप्रेन इत्यादि – प्लास्टिक से ही बने थे, जिन्हें एक बार उपयोग में लाकर फेंकना था।
साइंस नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार महासागरों में प्लास्टिक का अबतक का आकलन सटीक नहीं था, और प्लास्टिक की मात्रा अबतक के आकलन से कहीं अधिक है। अनेक वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार महासागरों में प्रति वर्ष 80 लाख टन प्लास्टिक मिलता है, पर साइंस में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार यह मात्रा 1 करोड़ 10 लाख टन से भी अधिक है। अनुमान है कि अगले 20 वर्षों में इसकी मात्रा तीन गुना बढ़ जायेगी और तब वैश्विक स्तर पर हरेक मीटर सागर तट पर औसतन 50 किलो से अधिक प्लास्टिक कचरा होगा।
दुनिया जितना प्लास्टिक कचरे को कम करने की बात करती है, प्लास्टिक कचरा उतना ही बढ़ता जा रहा है, और अब केवल प्लास्टिक के सेवन से पक्षियों में बीमारियां भी पनप रही हैं। यह एक खतरनाक संकेत है, क्योंकि प्लास्टिक से मनुष्य भी बीमार हो सकता है। (navjivanindia.com)
इमरान कुरैशी
जफर खान कहते हैं कि जब उन्होंने अपनी मां के बारे में फिल्म देखी तो उनकी आंखों में आंसू आ रहे थे, लेकिन उनके पास बैठे श्रीधरन लगातार रो रहे थे।
ये फिल्म एक धार्मिक मुसलमान महिला थेननदन सुबैदा के बारे में है जिन्होंने श्रीधरन और उसकी दो बहनों रमानी और लीला को अपने तीन सगे बच्चों की तरह पाल कर बड़ा किया। लेकिन इस दौरान सुबैदा ने कभी भी उनसे इस्लाम अपनाने के लिए नहीं कहा।
मलयालम फि़ल्म ‘एन्नु स्वाथम श्रीधरन’ या हिंदी में कहें तो ‘मेरा अपना श्रीधरन’ पर काम तब शुरू हुआ जब ओमान में काम कर रहे श्रीधरन ने 17 जून 2019 को सोशल मीडिया पर एक पोस्ट लिखी।
सरल शब्दों में इस पोस्ट में कहा गया था, ‘मेरी उम्मा को अल्लाह ने बुला लिया है। कृपया उनके लिए दुआ करें ताकि जन्नत में उनका शानदार स्वागत हो।’ केरल में मुसलमान मं के लिए अम्मा या उम्मा शब्द का प्रयोग करते हैं।
इस पोस्ट से एक मूल सवाल उठा था कि ‘तुम श्रीधरन हो, तुम अपनी मां को उम्मा क्यों कह रहे हो?’
कोझीकोड से कऱीब 70 किलोमीटर दूर कालीकावू में बीबीसी से बात करते हुए श्रीधरन कहते हैं, ‘लोग पूछ रहे थे कि तुम कौन हो, वो शायद इसलिए पूछ रहे थे क्योंकि मेरा नाम श्रीधरन है, इसलिए ही लोगों के मन में शक़ था और ये सामान्य बात है।’
SHREEDHARAN
‘धर्म परिवर्तन के लिए कभी नहीं कहा’
श्रीधरन ने बताया कि उम्मा ने उन्हें कैसे पाला।
‘मेरी मां, उम्मा और उप्पा (पिता) के घर में काम करती थी। मेरी मां (चक्की) और उम्मा के संबंध बहुत अच्छे थे। गर्भावस्था के दौरान मेरी मां गुजऱ गई।’
अपनी पोस्ट के अंत में श्रीधरन ने लिखा कि उन्हें अपनाने वाले उम्मा और उप्पा ने कभी भी उनसे धर्म बदलने के लिए नहीं कहा।
वो कहते हैं, ‘ये मेरे लिए दर्दनाक था क्योंकि मुझे पालने वाली मेरी मां और पिता ने हमें कभी धर्म जाति के बारे में नहीं बताया था। उन्होंने बताया था कि हमें अच्छाई की जरूरत है।’
अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाले श्रीधरन सवाल करते हैं, ‘मैंने उम्मा से पूछा था कि उन्होंने हमें इस्लाम में धर्म परिवर्तन क्यों नहीं कराया। उन्होंने जवाब दिया था कि चाहे इस्लाम हो, ईसाई धर्म हो या फिर हिंदू धर्म, सभी एक ही बात सिखाते हैं। वो ये कि सभी से प्यार करो और सबका सम्मान करो।’
उनकी बहन लीला कहती हैं, ‘मेरी उम्मा मुझे मंदिर जाने देती थीं और भगवान की पूजा करने देती थीं। जब भी हमारा मन करता हम मंदिर जाते। हमें मंदिर जाने तो दिया जाता था, लेकिन उस समय यातायात की सुविधाएं बहुत खराब थीं, इसलिए हमें अकेले नहीं जाने दिया जाता था। ऐसे में हम सिफऱ् त्योहारों या ख़ास मौकों पर ही मंदिर जाते थे और वो हमें लेकर जाती थीं।’
C V LENIN
जब वो सुबैदा के घर आए तो क्या हुआ?
अब्दुल अजीज हाजी और सुबैदा के सबसे बड़े बेटे शाहनवाज कहते हैं, ‘मैं तब सात साल का था। मुझे पता था कि उम्मा उनके घर गई हैं क्योंकि सुबह उनकी मौत हो गई थी। वो शाम को घर लौटीं तो श्रीधरन उनकी बाहों में था।
वो कऱीब दो साल का था। लीला मेरी उम्र की थी और रमानी 12 साल की थी। लीला और रमानी उनके पीछे-पीछे आ रही थीं। उन्होंने बस इतना कहा था कि अब इन बच्चों का कोई नहीं है, ये हमारे घर में रहेंगे।’
शाहनवाज कहते हैं, ‘जब उम्मा घर के भीतर आ गईं तो लीला भी पीछे आ गई, लेकिन रमानी बाहर खड़ी रही। वो हम सबसे थोड़ी बड़ी थी, ऐसे में वो झिझक रही थी। मेरी दादी ने मुझसे कहा कि जाओ उसे घर के अंदर ले आओ।
मैं बाहर गया और हाथ पकडक़र उसे घर में ले लाया। उसके बाद से हम साथ ही पले-बढ़े। हम सब नीचे फर्श पर सोते थे। सिर्फ जफर खान और श्रीधरन को छोडक़र, वे दोनों बहुत छोटे थे और वे उम्मा और उप्पा के साथ ही सोते थे। दादी मां बिस्तर पर सोती थीं और हम तीनों नीचे सोते थे। हमारी छोटी बहन जोशीना का जन्म इसके चार साल बाद हुआ था।’
SIDDIK PARAVOOR
जब बच्चे बड़े हो रहे थे तो श्रीधरन और जफर खान जुड़वा लगते थे। दोनों की उम्र अब 49 साल है। वो साथ में स्कूल जाते और घर पर भी साथ में ही खेलते थे। जफर नहीं चाहते थे कि स्कूल में उनकी शैतानियों के बारे में श्रीधरन घर पर आकर उम्मा को बताए तो उन्होंने स्कूल में अलग भाषा की पढ़ाई की और दोनों की क्लास अलग हो गई।
जफर खान कहते हैं, ‘उम्मा श्रीधरन की हर बात पर यकीन करतीं, वो उनके बहुत कऱीब था। मां उससे जो भी कहतीं वो मानता और मैं काम करने से बचता रहता।’
‘जब हम स्कूल जाते थे तो रमानी हमें छोडक़र अपने स्कूल चली जाती थी जो कुछ और दूर था। जब उम्मा बाहर होतीं और हम स्कूल से आते तो लीला हमें खाना देती।’
C V LENIN
क्या शाहनवाज और जफर को जलन होती थी?
शाहनवाज और जफर दोनों ही ये बात मानते हैं कि श्रीधरन मां के सबसे पसंदीदा बेटे थे।
क्या शाहनवाज को कभी जलन हुई?
‘नहीं’ बस एक बात मुझे याद आती है कि उम्मा जब उन्हें लेकर घर आई थीं तो मैंने अपनी नानी से पूछा था कि मां गोरे रंग के बच्चों को घर लेकर क्यों नहीं आई हैं। मेरी नानी ने अपनी उंगली होठों पर रखते हुए कहा था कि तुम्हें कभी भी ऐसी बात नहीं करनी है। रंग हमें अल्लाह देता है। मैं खाड़ी के देशों में काम करने के बाद जब घर वापस लौटता था तो मेरी नानी कहती थीं कि मैं विदेश में रहकर गोरा हो गया हूं और वो घर में रहकर काली रह गई हैं।’
जफर खान याद करते हैं कि जुमे की नमाज़ के बाद जब वो कब्रिस्तान में अपने मां-बाप और दादी की कब्र के पास जाते हैं तो जगह हमेशा साफ मिलती है। वो कहते हैं, श्रीधरन हमेशा उसे साफ कर देते हैं।
तो श्रीधरन आपके लिए क्या हैं? जफऱ ख़ान कहते हैं, ‘ऐसे तो वो भाई है, लेकिन हमारे लिए वो उससे भी ज़्यादा है। वो हमेशा मेरे साथ रहा है। वो मेरा साथी है।’
SHAHNAWAZ
‘श्रीधरन को सबसे ज़्यादा पसंद करती थीं’
परिवार के मित्र अशरफ़ कहते हैं, ‘उम्मा को श्रीधरन सभी बच्चों में सबसे ज़्यादा पसंद था। इसलिए वो जानता था कि इस बात का फायदा कैसे उठाना है। मैंने एक बार अपनी आंखों से ये देखा था। उम्मा स्कूल जाने से पहले बच्चों को दस-दस रुपये देती थीं, जफऱ दस रुपए लेकर बाहर चला गया और श्रीधरन वापस उम्मा के पास आया और बोला कि उसे दस रुपये और चाहिए और उम्मा उसे हर बार दे देतीं।’
लीला उम्मा को कैसे याद करती हैं?
अपने आंसू पोंछते हुए लीला कहती हैं, ‘उन्होंने हमें बिना किसी परेशानी के बढ़ा किया। मैं यहीं इसी घर में उन्हें माता-पिता मान कर बढ़ी हुई हूं। मेरे पास उम्मा के बारे में बात करने के लिए सिफऱ् अच्छी यादें ही हैं और ये अनगिनत हैं। मैं आपको बता नहीं सकती कि उनके जाने के बाद मैंने कैसा महसूस किया। जब भी उम्मा की याद आती है मैं बहुत उदास हो जाती हूं।’
श्रीधरन भी उम्मा को याद करते हुए रोने लगते हैं और कहते हैं, ‘हर किसी के पास अपनी मां के बारे में बताने के लिए अच्छी यादें ही होती हैं, मेरे पास भी सिर्फ अच्छी यादें ही हैं।’
SHAHNAWAZ
शाहनवाज ने बताई एक अलग बात
शाहनवाज के पास अपनी उम्मा के बारे में बताने के लिए एक अलग अनुभव भी है।
वो बताते हैं, ‘उनकी मौत के बाद ही हमें पता चला कि उन्होंने कितने लोगों की मदद की थी और किस हद तक की थी। मैं शुरुआत में काम करने खाड़ी गया था और बाद में वहां अपना कारोबार शुरू किया। मुझे पता चला था कि उम्मा ने अपनी 12 एकड़ ज़मीन में से कुछ बेचनी शुरू कर दी है। ये जम़ीन उम्मा को उनके पिता से मिली थी। वो देनदारों का कर्ज चुकाने के लिए ज़मीन बेच रही थीं।’
कोई भी सुबैदा के पास आकर शिक्षा, शादी या इलाज के लिए पैसे मांग लेता था। वो जान-पहचान वाले कारोबारियों को फोन करतीं और मदद करने के लिए कह देतीं। कारोबारी भी इस मदद में अपना हिस्सा जोड़ देते थे और सुबैदा बाद में पैसे चुका देती थीं। वो उधार लेकर भी मदद करती थीं और बाद में उधार चुकाने के लिए ज़मीन का हिस्सा बेच देती थीं।
एक समय ऐसा आया जब स्थानीय मंदिर समिति ने अब्दुल अजीज से कहा कि वो अपनी पत्नी से कहें कि एक साल तक चंदा देने के बारे में चिंता ना करें क्योंकि उन्हें पता है कि अब सुबैदा के पास पैसे नहीं हैं।
शाहनवाज़ कहते हैं, ‘वो मंदिर, मस्जिद और चर्च को बराबर चंदा देती थीं।
घर के पास भी ज़मीन का एक हिस्सा था जिसे वो बेचना चाहती थीं। मैंने उनसे पूछा कि कितनी क़ीमत है तो उन्होंने कहा 12 लाख। मैंने कहा मुझसे पंद्रह लाख रुपए ले लो और मुझे दे दो। लेकिन उन्होंने मना कर दिया क्योंकि वो खरीदार से 12 लाख रुपए में जमीन देने का वादा कर चुकी थीं।’
शाहनवाज कहते हैं, ‘हमारी मां ने हम भाई बहनों में से किसी को जमीन में कोई हिस्सा नहीं दिया। जिस जमीन पर हमारा ये घर बना है वो हमारे पिता की है।’
शाहनवाज़ साल 2018 में खाड़ी से वापस लौटे तब सुबैदा बीमार पड़ गई थीं। जल्द ही शाहनवाज़ ने जफर खान से भी वापस लौटने के लिए कहा क्योंकि वो अकेले मां की देखभाल नहीं कर पा रहे थे। सुबैदा ने अपने बेटों से कहा था कि श्रीधरन को मेरी बीमारी के बारे में मत बताना वरना वो ओमान में अपनी नौकरी छोडक़र घर आ जाएगा।
‘हमने ये सुनिश्चित किया कि वो अपनी पत्नी के साथ पास ही रहे, लेकिन उम्मा से दूर।’
फिर शाहनवाज कहते हैं, ‘जब उम्मा का इंतेकाल हो गया और हमने श्री का फ़ेसबुक पर रिऐक्शन देखा तो हमें एहसास हुआ कि लोग हममें फर्क देखते हैं, लेकिन वास्तव में हम अब भी एक ही हैं।’
फिल्म कैसे बनी?
इस फिल्म को सिद्दीक परवूर ने बनाया है जिनकी पिछली फिल्म ‘थाहीरा’ गोवा में भारत के 51वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित हुई थी।
सिद्दीक को श्रीधरन की पोस्ट के बारे में पता चला और उन्होंने उसी वक्त ‘एन्नु स्वाथम श्रीधरन’ बनाने का फैसला किया।
बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने बताया, ‘इस कहानी में मानवता को दर्शाने की कोशिश की गई है। हमारे समाज को इसके बारे में जानने की बहुत ज़रूरत है।’
उन्होंने कहा कि कोई देश तभी विकसित हो सकता है जब वहां मानवता को महत्व दिया जाए।
सिद्दीक को इस फिल्म का निर्माता ढूंढने में काफी समय लगा। लेकिन अब जब फिल्म की काफी तारीफ हो रही है, तो उन्हें ऐसे व्यक्ति का इंतजार है जो फिल्म को थियेटर तक पहुंचा सके। (bbc.com)
भरत डोगरा
भारत समेत दुनिया-भर में युवाओं के लिए अमेरिकी युवाओं की जीवन-शैली आकर्षण का एक बड़ा केन्द्र रही है। एक तो धनी देश, तिस पर अनेक तरह के बंधनों से मुक्त समाज, अति विख्यात शिक्षण संस्थान- ऐसे देश और समाज के प्रति युवाओं का आकर्षण समझा जा सकता है। पर इससे अलग भी एक तस्वीर है जिसे देखना जरूरी है और इसे देखने-समझने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रमुख स्वास्थ्य एजेंसी ‘सेंटर्स फॉर डिजीज कन्ट्रोल एंड प्रेवेन्शन’ ने सरकारी आंकड़ों पर आधारित यूथ रिस्क बिहेवियर सर्वे 2011-2021 की रिपोर्ट जारी की है।
इस रिपोर्ट में संयुक्त राज्य अमेरिका के हाई स्कूल छात्रों में हुए सर्वेक्षण के आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2011 में 28 प्रतिशत अमेरिकी हाई स्कूल छात्र अधिक समय तक दुख और आशाविहीनता की स्थिति से त्रस्त थे, जबकि 2021 में यह प्रतिशत 42 तक पहुंच गया। छात्राओं में यह स्थिति 57 प्रतिशत तक वर्ष 2021 में देखी गई। वर्ष 2021 में सभी छात्रों में 29 प्रतिशत में ‘पूअर मैन्टल हैल्थ’ यानि कम गुणवत्ता की चिंताजनक मानसिक स्वास्थ्य स्थिति देखी गई जबकि छात्राओं में यह स्थिति 41 प्रतिशत पाई गई।
वर्ष 2011 के सर्वेक्षण में पाया गया कि 16 प्रतिशत अमेरिकी हाई स्कूल छात्र (लडक़े-लड़कियों दोनों को मिलाकर) आत्महत्या प्रयास के बारे में गंभीरता से सोच रहे थे जबकि वर्ष 2021 में यह प्रतिशत 22 तक पहुंच गया। छात्राओं में यह प्रतिशत 30 पाया गया। दूसरे शब्दों में वर्ष 2021 में लगभग एक तिहाई अमेरिकी हाई स्कूल छात्राओं ने गंभीरता से आत्महत्या करने के बारे में सोचा। वर्ष 2011 में 8 प्रतिशत अमेरिकी हाई स्कूल विद्यार्थियों ने वास्तव में आत्महत्या का प्रयास किया। वर्ष 2021 में यह प्रतिशत बढक़र 10 तक पंहुच गया।
दूसरे शब्दों में वर्ष 2021 में हर 10 में से 1 अमेरिकी हाई स्कूल छात्र ने आत्महत्या का प्रयास किया। यह एक बहुत चौंकाने वाला आंकड़ा हे। तिस पर यदि छात्राओं संबंधी आंकड़ों की देखें तो उनमें यह प्रतिशत और भी अधिक 13 प्रतिशत पाया गया।
इन आंकड़ों से पता चलता है कि अमेरिकी युवाओं और विशेषकर हाई स्कूल छात्रों के जीवन की बाहरी चमक-दमक के पीछे उनकी वास्तविक स्थिति बहुत चिंताजनक है। उनके जीवन में गहरा दुख और अवसाद है। इतना ही नहीं, छात्राओं में यह प्रवृत्तियां और भी अधिक है। इस संदर्भ में अमेरिकी समाज को गहराई से विचार करना चाहिए कि अधिक आय और उपभोग के बावजूद वहां के युवाओं में इतना दुख-दर्द क्यों पाया जाता है।
इतना ही नहीं, संयुक्त राज्य अमेरिका के शीर्ष के बाल स्वास्थ्य संस्थानों ने यह चेतावनी दी है कि बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से देखें तो अमेरिका में इस समय आपातकालीन स्थिति या मैंटल हैल्थ इमरजेंसी की स्थिति मौजूद है। इस तरह के आंकड़ों और चेतावनियों को ध्यान में रखते हुए निश्चय ही अमेरिका को बाहरी आक्रमकता त्याग कर अपने समाज के आंतरिक दुख-दर्द को कम करने पर कहीं अधिक ध्यान देना चाहिए।
पूरी तरह संयुक्त राज्य अमेरिका के सरकारी स्तर के आंकड़ों पर आधारित सर्वेक्षण रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि बाहरी चमक-दमक के पीछे कितना दुख-दर्द छिपा है और इस संदर्भ में विकासशील देशों के युवाओं के लिए बाहरी चमक-दमक के भ्रमजाल से बचना भी कितना जरूरी है। (navjivanindia.com)
तरहब असगर
शनिवार को पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के लाहौर के जमान पार्क स्थित घर पर पंजाब पुलिस के ऑपरेशन और राजधानी इस्लामाबाद में तोशाखाना केस में पेशी के दौरान पीटीआई (पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ) के कार्यकर्ताओं और पुलिस में झड़प हुई।
इसके बाद एक बार फिर इन अफवाहों में तेजी आई है कि चुनावी मुहिम से पहले दर्जनों जगहों में से किसी एक में इमरान खान को गिरफ्तार किया जा सकता है।
हालांकि सत्तारूढ़ गठबंधन पीडीएम (पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट) ने इमरान खान की गिरफ्तारी से संबंधित कोई साफ बयान नहीं दिया है, लेकिन गृह मंत्री राना सनाउल्लाह ने पिछले दिनों एक निजी टीवी चैनल से बात करते हुए कहा था, ‘हम गिरफ्तारी की सोचें भी तो उन्हें (इमरान खान को) जमानत मिल जाती है। हम कौन हैं जो उन्हें गिरफ्तार करने की योजना बनाएं।’
तहरीक-ए-इंसाफ के अध्यक्ष इमरान खान अपनी गिरफ्तारी से बारे में कई बार भविष्यवाणी करते रहे हैं और पिछले दिनों उन्होंने ‘लंदन प्लान’ का दावा करते हुए कहा था कि जमान पार्क ऑपरेशन का मकसद ‘मेरी अदालत में पेशी सुनिश्चित करना नहीं बल्कि मुझे इस्लामाबाद में गिरफ्तार कर जेल भेजना है।’
इससे पहले जब बीते मंगलवार को पुलिस ने जमान पार्क के इलाके में ऑपरेशन किया तो इमरान खान ने अपने कार्यकर्ताओं को संदेश दिया, ‘पुलिस मुझे जेल ले जाने के लिए आई है। उन्हें लगता है कि इमरान खान जेल चला जाएगा तो राष्ट्र सो जाएगा। आपको उन्हें गलत साबित करना है।’
साथ ही साथ इमरान खान अपनी गिरफ्तारी से जुड़े तर्क भी देते हैं। उनके शब्दों में, ‘वह यह इसलिए करना चाहते हैं कि मैं इलेक्शन की मुहिम न चलाऊं। वह मैच खेलना चाहते हैं, लेकिन कप्तान के बिना। वो समझते हैं कि अगर मैं जेल चला जाऊं या अयोग्य करार दिया जाऊं तो उनके मैच जीतने की संभावनाएं बेहतर हो जाएंगी।’
इन दावों की सच्चाई एक तरफ है, लेकिन यह बहस भी धीरे-धीरे जोर पकड़ रही है कि अगर इमरान खान को गिरफ्तार किया गया तो इसका राजनीतिक लाभ आखिर किसे होगा।
अतीत में जब अविश्वास प्रस्ताव सफल होने के करीब था तो इमरान खान ने खुद ही कहा था कि वह सरकार से निकल जाने के बाद ‘ज्यादा खतरनाक’ हो जाएंगे।
जानकारों के मुताबिक, उन्होंने बतौर विपक्षी नेता अपने इस दावे को कुछ हद तक सही भी साबित किया है।
अब सवाल यह है कि अगर इमरान खान जेल जाते हैं तो क्या वह अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के लिए पहले से ज्यादा ‘खतरनाक’ साबित हो सकते हैं और क्या सरकार की सोच के उलट उनकी गिरफ्तारी उनके दल की लोकप्रियता और समर्थन में और इजाफे की वजह बनेगी?
इस पर तहरीक-ए-इंसाफ के नेता फवाद चौधरी का कहना है कि पिछले 11 महीनों में सरकार और इस्टैब्लिशमेंट के तहरीक-ए-इंसाफ विरोधी हर कदम ने इमरान खान को जनता में और लोकप्रिय बनाया है। ‘इमरान खान के गिरफ्तार होने के बाद उनकी लोकप्रियता का ग्राफ अगर अभी 70 प्रतिशत है तो वह 100 प्रतिशत पर चला जाएगा।’
फवाद चौधरी का यह भी कहना है, ‘इस समय सरकार एजेंसियां चला रही हैं। इमरान खान का मुकाबला ताकत से हो रहा है और इसी वजह से देश में राजनीतिक खालीपन पैदा हो रहा है और सरकार का ग्राफ हर दिन नीचे जा रहा है।’
उन्होंने कहा कि इस समय इस्टैब्लिशमेंट जितनी अलोकप्रिय है उतनी अतीत में कभी नहीं थी और ऐसा पहली बार हो रहा है कि सैन्य प्रतिष्ठान की रेटिंग राजनीतिक लोगों से नीचे है।
तहरीक-ए-इंसाफ की राजनीतिक विरोधी मुस्लिम लीग-नून के केंद्रीय नेता अहसन इकबाल फवाद चौधरी के इस दावे को रद्द करते नजर आते हैं।
उनका कहना है कि तहरीक-ए-इंसाफ वह दल है जिसमें बहुत अंदरूनी मतभेद हैं। ‘इमरान ख़ान के रहते उन समस्याओं पर पर्दा डालना आसान होता है। अगर वह नहीं होंगे तो यह मतभेद खुलकर सामने आ जाएंगे।’
उन्होंने यह भी कहा कि इमरान खान की गिरफ्तारी से जनता के बीच वह राय भी गलत साबित होगी जो इमरान खान ने अपने कार्यकर्ताओं के बीच बनाई है यानी ‘मैं वह शख्स हूं जिसने कभी कोई गलती नहीं की।’
सीनेटर डॉक्टर अफऩान उल्लाह ने बीबीसी उर्दू को बताया कि यह एक कानूनी प्रक्रिया है और इसको सरकार के फायदे या नुकसान से हटकर कानून को लागू करने के तौर पर देखना चाहिए।
उनके अनुसार, ‘अगर नवाज शरीफ 200 से अधिक पेशियां भुगत सकते हैं, कैद काट सकते हैं तो कोई भी कानून से ऊपर नहीं है।’
जनता कैसे देखती है और चुनाव पर क्या असर पड़ेगा?
राजनीतिक विश्लेषक अहसन इकबाल की इस राय से सहमत दिखाई नहीं देते। वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक सलमान गऩी का कहना है कि इमरान खान की गिरफ्तारी के नतीजे में पीडीएम को राजनीतिक तौर पर नुकसान होगा।
‘राजनीतिक गिरफ्तारियां कार्यकर्ताओं और राजनीतिक दलों में अधिक उत्साह पैदा करती हैं जिसका चुनाव पर असर पड़ता है।’
उनका कहना है कि अब तक जो पार्टियां सत्ता में आई हैं, उनकी लीडरशिप की लोकप्रियता दो जगहों पर नोट होती है, एक जनता के बीच और दूसरी इस्टैब्लिशमेंट में।
वह कहते हैं कि इमरान ख़ान ने दूसरी जगह पर अपने आप को रक्षात्मक मोर्चे पर खड़ा कर रखा है। ‘पाकिस्तान की इस्टैब्लिशमेंट पाकिस्तान की एक बड़ी राजनीतिक सच्चाई भी है और उनकी स्वीकार्यता के बिना किसी भी दल का सत्ता में आना मुश्किल है।’
‘दूसरी ओर उनका राजनीतिक पक्ष इस हिसाब से जनता में मजबूत है कि वह सरकार को टारगेट करते हैं।’
इमरान खान के अदालत में पेश न होने के मामले पर तहरीक-ए-इंसाफ का यह कहना है कि एक और जहां उनके नेता की जान को खतरा है, वहीं सरकार की ओर से उन पर झूठे मुकदमों की भरमार कर दी गई है और यह संख्या इतनी अधिक है कि किसी इंसान के लिए उतने मामलों में अदालतों में पेश होना मुमकिन नहीं है।
जानकारों के विचार में तहरीक-ए-इंसाफ के अपने कार्यकाल में भी विपक्ष के प्रति सत्ता का रवैया कुछ ऐसा ही रहा था। इसलिए यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि क्या मुस्लिम लीग-नून वही कर रही है जो तहरीक-ए-इंसाफ ने अतीत में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के साथ किया?
इमरान और नवाज शरीफ के मामलों में क्या अंतर है?
इस बारे में तहरीक-ए-इंसाफ के नेता फवाद चौधरी कहते हैं कि यह कहना सही नहीं कि जो हमारे दौर में नून लीग के साथ हुआ वही अब तहरीक-ए-इंसाफ के साथ हो रहा है क्योंकि नवाज शरीफ तो पनामा केस में अयोग्य घोषित हुए और जेल गए जो कि एक अंतरराष्ट्रीय स्कैंडल था।
‘वह करप्शन के केस में अंदर गए जबकि इमरान खान के खिलाफ फर्जी मामले बनाए गए हैं। यह लेवल प्लेइंग फील्ड नहीं है, जो हम मांगते हैं। जहां तक रही बात इस्टैब्लिशमेंट की तो उनकी भूमिका तो संविधान और कानून से भी बहुत अधिक बनी हुई है, जो अलोकतांत्रिक है।’
इस बारे में अहसन इकबाल का कहना है कि इमरान ख़ान का इस समय सिर्फ ये कहना है कि फौज उनका साथ दे। अहसन इकबाल के अनुसार, ‘वह यह नहीं कहते हैं कि फौज न्यूट्रल रहे। वह चाहते हैं कि फौज उनकी सत्ता की राह दोबारा आसान करे।’
विश्लेषक हबीब अकरम का कहना है कि साफ़ तौर पर यही लगता है कि जो मुस्लिम लीग नून के साथ बतौर विपक्षी पार्टी हुआ, वही अब ‘पीटीआई’ के साथ हो रहा है।
वह कहते हैं, ‘लेकिन यहां यह बात बेहद महत्वपूर्ण है कि जनता इन दोनों दलों की लड़ाई को कैसे देखती है।’
हबीब अकरम के अनुसार, मुस्लिम लीग-नून की जिस बात के लिए आलोचना हो रही है वह करप्शन है, जबकि इमरान ख़ान पर जो मामले हैं उनमें कोई महत्वपूर्ण केस करप्शन से संबंधित नहीं है।
‘केवल एक केस है वह भी तोशाख़ाना का। जनता के लिए यह बहुत बड़ा अंतर है।’ (bbc.com)
पढ़ें डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा-
लगातार बहुमत के साथ दो लोक सभा चुनाव जीतने वाली बीजेपी के नेताओं में हाल तक कहीं भी सरकार बना लेने की काबिलियत का दंभ नजर आता था। पार्टी केंद्र में ही नहीं बल्कि हर राज्य में भी एक के बाद चुनाव जीतती जा रही थी।
कई राज्यों में तो पार्टी ने चुनाव हारने के बाद भी सरकार बना ली और चुनावी हार और जीत के बीच के अंतर को खत्म ही कर दिया। मध्यप्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र के घटनाक्रम इसके बड़े उदाहरण हैं। लेकिन इन दिनों जिस तरह पार्टी के नेताओं, सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों ने अपनी पूरी ऊर्जा विपक्ष के सिर्फ एक नेता की आलोचना में झोंक दी है, उससे बीजेपी में असुरक्षा के संकेत मिल रहे हैं।
मौजूदा बीजेपी सरकार के तहत भारत में लोकतंत्र का हाल इस समय पूरी दुनिया में चर्चा का विषय है। दूसरे देशों की सरकारें इस पर भले कुछ ना कहती हों, लेकिन दुनिया भर के कई प्रतिष्ठित संस्थान लगातार भारत की तरफ देख रहे हैं।
लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल
पत्रकारों की स्वतंत्रता हो या एक्टिविस्टों द्वारा आलोचना करने की आजादी, ब?ती सांप्रदायिकता हो या इंटरनेट पर अंकुश, जांच एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल हो या विपक्ष के नेताओं की गैर कानूनी जासूसी, आए दिन किसी न किसी अंतरराष्ट्रीय संस्था की इन विषयों पर रिपोर्ट आती रहती है और हर रिपोर्ट में भारत पर सवालिया निशान होता है।
भारत के अंदर सरकार का अंधा समर्थन करने वाले मीडिया संस्थानों के मायाजाल के परे जो लोग देख पा रहे हैं उन्हें भी जो हो रहा है वो साफ नजर आ रहा है। ऐसे में विपक्ष के किसी नेता ने विदेश जा कर यही बातें दोहरा दीं तो क्या गलत किया?
बीजेपी के इस ताजा अभियान की शुरुआत में एक केंद्रीय मंत्री ने राहुल गांधी के इन बयानों की आलोचना करते हुए उन्हें च्च्पप्पूज्ज् कहा था। और अब अचानक वही च्च्पप्पूज्ज् बीजेपी के लिए इतना खतरनाक हो गया है कि पार्टी चाहती है उसे संसद से निकाल बाहर किया जाए।
दिलचस्प यह है कि संसद से तो राहुल गांधी को जनता ने ही लगभग निकाल बाहर कर दिया था। उनके नेतृत्व में ल?े गए लगातार दो लोक सभा चुनावों में देश की जनता ने उनकी पार्टी को नहीं चुना। और 2019 में तो राहुल गांधी खुद भी वो सीट हार बैठे थे जहां से ना सिर्फ उनकी मां, उनके पिता और उनके चाचा दशकों तक बल्कि वो खुद 15 सालों तक सांसद रहे।
विपक्षी एकता की पहेली
उस साल अगर उन्होंने केरल के वायनाड से भी चुनाव ना ल?ा होता तो वो लोक सभा से बाहर ही होते। जिस राहुल गांधी को जनता ने इस हाल में पहुंचा दिया था उन पर इस तरह का संगठित हमला करके बीजेपी उन्हीं की मदद कर रही है।
2024 का लोक सभा चुनाव सर पर है और इस बार अपने अस्तित्व की ल?ाई का सामना करने वाली भारत की अनेकों विपक्षी पार्टियों को एकजुटता रास नहीं आ रही है। पश्चिम बंगाल में उपचुनाव होता है तो कांग्रेस और लेफ्ट मिल कर तृणमूल कांग्रेस को हरा देते हैं।
फिर दिल्ली में जब कांग्रेस सभी पार्टियों का साझा कार्यक्रम आयोजित करती है वो उसमें तृणमूल कांग्रेस शामिल नहीं होती। आम आदमी पार्टी के ब?े नेता को जेल हो जाती है तो खुद भी एजेंसियों की गर्मी झेल रही कांग्रेस इसका विरोध नहीं करती।
ममता बनर्जी हों या नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल हों या चंद्रशेखर राव, विपक्ष में कई कई नेता है जो बीच बीच में विपक्ष का चेहरा बनने की दावेदारी सामने रखते रहते हैं। ऐसे में बीजेपी का इन सब को छो? कर राहुल गांधी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर से अभियान शुरू कर देना राहुल को विपक्ष में एक विशेष स्थान देने का काम कर रहा है।
राहुल की पदयात्रा की भूमिका
कई समीक्षकों का कहना है कि यह च्भारत जो?ो यात्राज् का असर हो सकता है। उनका कहना है कि दक्षिण से उत्तर भारत तक 4000 किलोमीटर पैदल चल कर राहुल ने अपनी छवि काफी मजबूत कर ली है और यही बीजेपी की चिंता का कारण बन गया है।
कांग्रेस पार्टी घोषणा कर चुकी है कि राहुल जल्द ही पश्चिम से पूर्वी भारत तक भी ऐसी ही एक और पदयात्रा करेंगे। समीक्षकों का कहना है कि ऐसे में बीजेपी उनकी छवि बिगा?ने में अपना पूरा जोर लगा रही है।
कांग्रेस और राहुल की चुनावी संभावनाओं को मजबूत करने का काम यात्रा ने किया है या नहीं इसका जवाब तो चुनावों में ही मिलेगा, लेकिन यह स्पष्ट है कि राहुल पर इस तरह संगठित हमला कर के बीजेपी उनका और उनकी पार्टी का भाव जरूर ब?ा रही है। अब वो ऐसा जान बूझ कर कर रही है या नहीं, यह तो बीजेपी ही जाने।
लेकिन इस पूरी कवायद की वजह से कांग्रेस विपक्ष की सबसे वजनदार पार्टी और राहुल विपक्ष के सबसे आक्रामक छवि वाले नेता बन कर उभर सकते हैं। विपक्षी एकता की पहेली की कुछ गांठें इस घटनाक्रम से सुलझ सकती हैं। (डायचे वैले)
-रेहान फजल
अपने जीवन के शुरुआती सालों में ही मौलाना अबुल कलाम आजाद ने इतना नाम कमा लिया था कि सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में कहा था, ‘आजाद जिस दिन पैदा हुए थे उसी दिन वो 50 साल के हो गए थे।’
जब वो बच्चे थे तो वो एक ऊंचे मंच पर खड़े होकर भाषण देते थे और अपनी बहनों से कहते थे कि वो उन्हें घेरकर उनके भाषण पर ताली बजाएं। फिर वो मंच से उतरकर नेताओं की तरह धीरे-धीरे चलते थे।
आजाद का पूरा नाम था- अबुल कलाम मोहिउद्दीन अहमद।
उनका जन्म सऊदी अरब में मक्का में हुआ था। उनके पिता खैरुद्दीन 1857 के विद्रोह से पहले सऊदी अरब चल गए थे। वहां उन्होंने 30 साल बिताए थे। वो अरबी भाषा के बहुत बड़े जानकार और इस्लामी धर्मग्रंथों के विद्वान बन गए थे।
सऊदी अरब में उन्होंने एक नहर की मरम्मत में मदद की थी, अरबी में एक कि़ताब लिखी थी और अरब की ही एक महिला आलिया से शादी की थी।
खैरुद्दीन अपने परिवार सहित 1895 में भारत वापस लौटकर कलकत्ता में बस गए थे। आजाद ने किसी स्कूल, मदरसे या विश्वविद्यालय में शिक्षा नहीं ली थी। उन्होंने सारी पढ़ाई घर पर ही की थी और उनके पिता उनके पहले शिक्षक थे। जब आजाद 11 साल के थे तभी उनकी माँ का देहांत हो गया था और उसके 11 साल बाद उनके पिता भी चल बसे थे।
मुस्लिम नेता कहलाना पसंद नहीं था आजाद को
आजाद बहुत बड़े राष्ट्रवादी थे। महात्मा गाँधी से उनकी पहली मुलाकात 18 जनवरी, 1920 को हुई थी। आजादी की लड़ाई में उनकी भूमिका की शुरुआत खिलाफत आंदोलन से हुई थी। साल 1923 में उन्हें पहली बार कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया।
1940 में वो एक बार फिर कांग्रेस के अध्यक्ष बने।
हाल ही में आजाद की जीवनी लिखने वाले सैयद इरफान हबीब लिखते हैं, ‘आजाद, हकीम अजमल खाँ, डॉक्टर एमए अंसारी, खान अब्दुल गफ्फार खान और हसरत मोहानी जैसे नेताओं की श्रेणी मे आते थे जो अपने-आप को मुस्लिम नेता कहलाना पसंद नहीं करते थे।’
सैयद इरफान हबीब लिखते हैं, ‘निजी जीवन में ये सभी समर्पित मुस्लिम थे लेकिन खिलाफत आंदोलन के अलावा उन्होंने सार्वजनिक जीवन में अपने धर्म को कभी सामने नहीं आने दिया।’
अबुल कलाम आजाद ने कुरान का उर्दू में अनुवाद करने का बीड़ा उठाया। 1929 तक उन्होंने कुरान के 30 अध्यायों में से 18 का उर्दू में अनुवाद कर डाला था।
आजाद के प्रति मोहम्मद अली जिन्ना की तल्खी
जब आजाद दूसरी बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने, तब तक मोहम्मद अली जिन्ना की अलग मुस्लिम राष्ट्र बनाने की मांग जोर पकड़ चुकी थी। जिन्ना ने मुसलमानों से कहना शुरू कर दिया था कि वो गोरे हुक्मरानों को हिंदू हुक्मरानों से बदलने की गलती न करें।
जिन्ना को समझाने की जिम्मेदारी आजाद को सौंपी गई कि हिंदुओं और मुसलमानों के सैकड़ों सालों तक साथ रहने के बाद अलग होने की मांग सकारात्मक नहीं होगी।
आज़ाद के प्रति जिन्ना की तल्खी इतनी थी कि उन्होंने उन्हें पत्र लिखकर कहा, ‘मैं आपके साथ न तो कोई बात करना चाहता हूँ और न ही कोई पत्राचार। आप भारतीय मुसलमानों का विश्वास खो चुके हैं। क्या आपको इस बात का अंदाजा है कि कांग्रेस ने आपको दिखावटी मुसलमान अध्यक्ष बनाया है? आप न तो मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं और न ही हिंदुओं का। अगर आप में जरा भी आत्मसम्मान है तो आप कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दीजिए।’
आजाद ने जिन्ना के पत्र का सीधा जवाब नहीं दिया लेकिन उन्होंने जिन्ना के इस तर्क का प्रतिवाद जरूर किया, ‘हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग सभ्यताएं हैं और उनके महाकाव्य और नायक अलग-अलग हैं और अक्सर एक समुदाय के नायक दूसरे समुदाय के खलनायक हैं।’
महादेव देसाई ने आजाद की जीवनी में लिखा, ‘आज़ाद ने कहा कि हजार साल पहले नियति ने हिंदुओं और मुसलमानों को साथ आने का मौका दिया। हम आपस में लड़े जरूर लेकिन सगे भाइयों में भी लड़ाई होती है। हम दोनों के बीच मतभेदों पर जोर देने से कोई फल नहीं निकलेगा क्योंकि दो इंसान एक जैसे ही तो होते हैं। शांति के हर समर्थक को इन दोनों के बीच समानता पर जोर देना चाहिए।’
आजाद और जिन्ना: दो अलग-अलग व्यक्तित्व
आजाद के राजनीतिक जीवन के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी थे मोहम्मद अली जिन्ना।
राजमोहन गांधी अपनी कि़ताब ‘एट लाइव्स: अ स्टडी ऑफ द हिंदू-मुस्लिम इनकाउंटर' में लिखते हैं, ‘जिन्ना हमेशा पश्चिमी ढंग के महंगे सूट पहनते थे जबकि आजाद की पोशाक शेरवानी, चूड़ीदार पाजामा और फैज टोपी हुआ करती थी।’
वो लिखते हैं, ‘आजाद और जिन्ना दोनों लंबे कद के थे। दोनों सुबह जल्दी उठ जाया करते थे। दोनों चेन स्मोकर्स थे। दोनों को आम लोगों से मिलना-जुलना पसंद नहीं था लेकिन दोनों ही अक्सर बड़ी भीड़ के सामने भाषण दिया करते थे। जब जिन्ना अकेले होते थे तो वो अपनी राजनीतिक योजनाएं बनाया करते थे जबकि आजाद कई भाषाओं में इतिहास की किताबें पढऩे में अपना वक्त बिताते थे।’
महात्मा गांधी के सचिव रहे महादेव देसाई का मानना था कि आजाद के पास कभी भी सही शब्दों की कमी नहीं रहती थी और कांग्रेस की बैठकों में सबसे ज्यादा बोलने वालों में आजाद ही हुआ करते थे।
मौलाना आजाद का मानना था कि जिन्ना को राष्ट्रीय नेता बनाने में गांधी की भूमिका थी।
आजाद अपनी आत्मकथा ‘इंडिया विंस फ्रीडम’ में लिखते हैं, ‘बीस के दशक में कांग्रेस छोड़ देने के बाद जिन्ना अपनी राजनीतिक महत्ता खो चुके थे। लेकिन गांधी जी की वजह से जिन्ना को भारतीय राजनीति में वापस आने का मौका मिल गया। भारतीय मुसलमानों के एक बहुत बड़े वर्ग को जिन्ना की राजनीतिक क्षमता के बारे में संदेह था लेकिन जब उन्होंने देखा कि गांधीजी जिन्ना के पीछे भाग रहे हैं तो जिन्ना के लिए उनके मन में नया सम्मान पैदा हो गया।’
आजाद लिखते हैं, ‘गांधी जी ने ही जिन्ना के लिए अपने पत्र में’ शब्द का प्रयोग किया। ये पत्र तुरंत ही अखबारों में छपवा दिया गया। जब मुसलमानों ने देखा कि गांधी जी जिन्ना को ‘कायद-ए-आजम’ कहकर संबोधित कर रहे हैं तो जरूर उनमें खास बात होगी।’
आजाद और नेहरू में मतभेद
1937 के चुनावों के बाद आजाद को उत्तरी राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनवाने की जिम्मेदारी सौंपी गई।
उत्तर प्रदेश में आजाद ने विधानसभा में मुस्लिम लीग के दो सदस्यों खलीकुज्जमा और नवाब इस्माइल खाँ को कांग्रेस के कैबिनेट में शामिल होने की दावत दी। वो इसके लिए तैयार भी थे लेकिन उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने तय किया कि मुस्लिम लीग को कैबिनेट में सिर्फ एक जगह ही दी जा सकती है।
राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘आजाद के कहने पर महात्मा गांधी ने भी मुस्लिम लीग के दो सदस्यों को उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में शामिल करने की सिफारिश की लेकिन नेहरू ने अपना फैसला नहीं बदला। मुस्लिम लीग भी एक स्थान के लिए राजी नहीं हुई। इस तरह मौलाना आजाद का उत्तर प्रदेश में कांग्रेस- लीग गंठबंधन का प्रयास विफल हो गया।’
बाद में आजाद ने अपनी आत्मकथा ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में लिखा, ‘नेहरू के रवैए की वजह से जिन्ना लीग के उत्तर प्रदेश घटक का समर्थन बनाए रखने में कामयाब हो गए जो कि एक समय जिन्ना का साथ छोडऩे के लिए तैयार था। नेहरू के इस कदम से मुस्लिम लीग को उत्तर प्रदेश में नई जान मिल गई। जिन्ना ने इसका पूरा फ़ायदा उठाया और आखिर में इसका नतीजा ये हुआ कि पाकिस्तान बन गया।’
चौधरी खलीकुज्जमाँ ने अपनी किताब ‘पाथवे टू पाकिस्तान’ में भी लिखा, ‘आजाद का ये सोचना गलत नहीं है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लीग-कांग्रेस की बातचीत नाकाम होने के बाद ही पाकिस्तान की नींव रखी गई थी।’
वो लिखते हैं, ‘हालात बदल गए होते अगर आज़ाद अपनी बात पर अड़े रहते और इस मुद्दे पर अपने पद से इस्तीफा देने की धमकी दे देते लेकिन ऐन मौक़ै पर आज़ाद पीछे हट गए।’
आजाद फिर बने कांग्रेस के अध्यक्ष
जब 1938 में कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर सुभाषचंद्र बोस का कार्यकाल समाप्त हुआ तो मौलाना आजाद का नाम सबकी जुबान पर था।
महादेव देसाई मौलाना की जीवनी में लिखते हैं कि महात्मा गांधी ने उनसे ये पद ग्रहण करने के लिए कहा था लेकिन बोस एक और वर्ष के लिए कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहते थे, आज़ाद ने गांधी के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया क्योंकि वो बंगाल में अपने कई प्रशंसकों को निराश नहीं करना चाहते थे। तब तक बोस बंगाल के हीरो बन चुके थे। उस वर्ष हुए चुनाव में सुभाषचंद्र बोस एक बार फिर कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को हराया जिन्हें गांधीजी का समर्थन हासिल था।
साल 1939 में गांधी जी ने एक बार फिर मौलाना से कांग्रेस का नेतृत्व करने के लिए कहा। इस बार आज़ाद राजी हो गए। उन्हें कुल 1854 वोट मिले जबकि उनके प्रतिद्वंदी एमएन रॉय सिर्फ 183 वोट ही हासिल कर सके।
विभाजन योजना का पुरजोर विरोध
नौ अगस्त, 1942 को जब महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया तो मौलाना आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे। उन्हें कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं के साथ गिरफ्तार कर अहमदनगर किले में ले जाया गया और कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
32 महीने बाद अप्रैल, 1945 में उनकी रिहाई हुई। जब सितंबर, 1946 में अंतरिम सरकार का गठन किया गया तो शुरू में गांधी और नेहरू के अनुरोध के बावजूद आजाद केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं हुए।
गांधी और नेहरू के बार-बार जोर देने पर उन्होंने चार महीने बाद शिक्षा मंत्री का पद संभाला। माउंटबेटन ने पद संभालने के बाद जब भारत के विभाजन की प्रक्रिया शुरू की जो मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने उसका पुरजोर विरोध किया। एक भारतीय के रूप में उन्हें देश के टुकड़े होना मंजूर नहीं था।
उस समय मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा था, ‘जब हिंदु बहुल देश में लाखों मुसलमान जागेंगे तो वो पाएंगे कि अपने ही देश में पराए और विदेशी बन गए हैं। आजाद ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, मैं एक क्षण के लिए भी पूरे भारत को अपनी मातृभूमि न मानने और उसके एक-एक हिस्से मात्र से संतुष्ट होने के लिए तैयार नहीं था।’
मार्च 1947 आते-आते सरदार पटेल भारत के विभाजन के लिए तैयार हो गए थे और नेहरू ने भी इस सत्य को करीब-करीब स्वीकार कर लिया था।
आजाद लिखते हैं, ‘मुझे बहुत दुख और आश्चर्य हुआ जब सरदार पटेल ने अंतरिम सरकार में ध्रुवीकरण से तंग आकर मुझसे स्वीकार किया, ‘हम इसे पसंद करें या न करें, भारत में दो राष्ट्र हैं।’ नेहरू ने भी मुझसे दुखी स्वर में कहा कि मैं विभाजन का विरोध करना बंद कर दूं।’
31 मार्च को जब गांधी पूर्वी बंगाल से दिल्ली लौटे तो आजाद ने उनसे मुलाकात की।
आजाद ने लिखा, ‘गांधी ने मुझसे कहा कि विभाजन अब एक बड़ा खतरा बन गया है। ऐसा लगता है कि वल्लभभाई पटेल और यहां तक कि जवाहरलाल ने भी हथियार डाल दिए हैं। क्या तुम मेरा साथ दोगे या तुम भी बदल गए हो? मैंने जवाब दिया विभाजन के प्रति मेरा विरोध इतना मजबूत कभी नहीं रहा जितना आज है। मेरी एकमात्र आशा आप हैं।’
‘अगर आप भी इसे मान लेते हैं तो ये भारत की हार होगी। इस पर गांधी बोले, ‘मेरे मृत शरीर पर ही कांग्रेस विभाजन स्वीकार करेगी।’ लेकिन दो महीने बाद गांधी जी ने मेरे जीवन का सबसे बड़ा झटका मुझे दिया जब उन्होंने कहा कि विभाजन को अब रोका नहीं जा सकता।’
मुसलमानों को समझाने की कोशिश
आजादी के बाद जब भारतीय मुसलमानों का पाकिस्तान जाने का सिलसिला शुरू हुआ तो आज़ाद ने उन्हें नसीहत देने की कोशिश की।
सैयदा सैयदेन हमीद ने अपनी किताब ‘मौलाना आजाद, इस्लाम एंड द इंडियन नैशनल मूवमेंट’ में लिखा, ‘मौलाना ने उत्तर प्रदेश से पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों से कहा, आप अपनी मातृभूमि को छोडक़र जा रहे हैं। क्या आपको पता है कि इसका परिणाम क्या होगा? इस तरह आपका जाना भारत के मुसलमानों को कमज़ोर करेगा।’
वो लिखती हैं, ‘एक समय ऐसा भी आएगा जब पाकिस्तान के अलग-अलग क्षेत्र अपनी अलग पहचान बताना शुरू कर देंगे। हो सकता है कि बांग्ला, पंजाबी, सिंधी और बलोच अपने आपको अलग राष्ट्र घोषित कर दें। पाकिस्तान में आपकी स्थिति क्या बिन बुलाए मेहमान की नहीं होगी। हिंदू आपके धार्मिक प्रतिद्वंद्वी हो सकते हैं लेकिन क्षेत्रीय और राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वी कतई नहीं।’
सिगरेट और शराब के शौकीन
आजाद के मन में महात्मा गांधी के लिए अपार श्रद्धा थी लेकिन वो उनके सभी विचारों को नहीं मानते थे। वो गांधी जी की उपस्थिति में खुलेआम सिगरेट पिया करते थे जबकि ये जगजाहिर था कि गांधी जी को धूम्रपान करने वाले लोग पसंद नहीं थे। आजाद शराब पीने के भी शौकीन थे।
नेहरू के सचिव रहे एमओ मथाई अपनी किताब ‘रेमिनिसेंसेज ऑफ नेहरू एज’ में लिखते हैं, ‘मौलाना आजाद विद्वान मुस्लिम अध्येता तो थे ही लेकिन उन्हें दुनिया की अच्छी चीज़ें भी पसंद थीं। जब वो शिक्षा मंत्री के रूप में पश्चिमी जर्मनी की यात्रा पर गए थे तो वहां भारत के राजदूत एसीएन नाम्बियार ने उन्हें अपने घर में ठहराया। उन्हें पता था कि मौलाना शराब के शौकीन हैं, इसलिए उन्होंने उनके लिए अपने घर में एक छोटा बार बनाया।’
वे लिखते हैं, ‘मौलाना विदेश यात्रा के दौरान शैंपेन पीना पसंद करते थे। वो अकेले शराब पीते थे और नहीं चाहते थे कि इस दौरान दूसरा कोई उनके साथ हो।
नाम्बियार ने मौलाना के सम्मान में कई जर्मन मंत्रियों को आमंत्रित किया था लेकिन जैसे ही भोज समाप्त हुआ आजाद डायनिंग रूम छोडक़र अपने कमरे में आकर अकेले शैंपेन पीने लगे।’
शाम के बाद कोई काम नहीं
मथाई लिखते हैं ‘दिल्ली में मौलाना कभी भी रात्रि भोज पर नहीं जाते थे। नेहरू के आवास पर भी विदेशी मेहमानों के सम्मान में दिए गए दिन के भोज में ही शामिल होते थे। मंत्रिमंडल की बैठक में भी जिसका आम तौर से समय पांच बजे शाम का होता था, मौलाना ठीक छह बजे उठ खड़े होते थे चाहे कितने ही महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा चल रही हो, अपने घर पहुंचकर वो विस्की, सोडा और समोसे की एक प्लेट मंगवा लेते थे।’
शराब पीते समय कुछ ही लोगों को उनसे मिलने की इजाजत थी। उनमें शामिल थे प्रधानमंत्री नेहरू, अरुणा आसफ अली और आज़ाद के निजी सचिव हुमायूँ कबीर जो बाद में केंद्रीय मंत्री बने।
नेहरू शाम को उनसे मिलने में कतराते थे और तभी उनसे मिलते थे जब कुछ बहुत जरूरी काम आ पड़ा हो।
आजादी के बाद आजाद, नेहरू के मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री बने। शुरू से ही कई मुद्दों पर नेहरू और सरदार पटेल के बीच मतभेद रहे।
राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘ऐसे कई मौके आए जब मौलाना ने नेहरू और पटेल के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई। आजाद और पटेल दोनों को नेहरू के ऊपर कृष्णा मेनन का प्रभाव पसंद नहीं था। सरदार और आजाद कई मुद्दों पर एक दूसरे से अलग राय रखते थे लेकिन कृष्णा मेनन के बारे मे दोनों की राय एक थी। सरदार की मौत के बाद नेहरू ताकतवर होते चले गए और उनके लिए आज़ाद का महत्व घटता चला गया। वो अभी भी उनके साथी और दोस्त बने रहे लेकिन कृष्णा मेनन का महत्व बढ़ता चला गया और आज़ाद का असर घटता चला गया।’
बदरुद्दीन तैयबजी जो 50 के दशक में नेहरू और आजाद के लगातार संपर्क में रहे, अपनी आत्मकथा ‘मेमॉएर्स ऑफ एन इगोटिस्ट’ में लिखते हैं, ‘पंडितजी और आजाद के बीच मुलाकातें कम होने लगीं, जबकि कैबिनेट में न रहते हुए भी कृष्णा मेनन नेहरू के मुख्य सलाहकार के रूप में काम करने लगे।’
बाथरूम में गिरने से हुई मौत
मौलाना आजाद हमेशा स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझते रहे। उन्हें कसरत करना और यहां तक कि सुबह टहलना कतई नापसंद था। वो हमेशा किताबों से चिपके रहते थे। वो न ही अपने घर से बाहर निकलते थे और न ही किसी को अपने घर बुलाते थे।
कसरत न करने की वजह से उनके पैरों में अकडऩ आ गई थी। वो थोड़ा लंगड़ा कर चलते थे और दो बार अपने बाथरूम में गिर भी पड़े थे।
19 फऱवरी, 1958 को वो एक बार फिर अपने बाथरूम में गिरे। इस बार उनकी कमर की हड्डी टूट गई और वो बेहोश हो गए।
थोड़ी देर के लिए उन्हें होश आया। जब नेहरू उन्हें देखने आए तो उन्होंने उन्हें देखते ही कहा, ‘जवाहर, खुदा हाफिज।’
बहुत कोशिशों के बाद भी वो इस चोट से उबर नहीं पाए और 22 फरवरी, 1958 को सुबह दो बजे उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। (Bbc.com)
बहुत दिनों गर्मी पडऩे के बाद जब बरसात की पहली फुहार आती है। उससे किसान के खेत या बागीचे तो नहीं लहलहाते। लेकिन लहलहाने वाली फसल की उम्मीद जगने लगती है। वर्षों से निढाल, अनुकूल और सहमते हुए सत्तासमर्थक लगते सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग संबंधी एक फैसला देकर उम्मीदों की बौछार तो की है। मौसम के बदलने का इशारा भी उसमें छिपा हो सकता है। भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग में रूढ़ अवधारणा पैठ गई है कि संविधान तो सिर माथे लगाने लायक है। उसे लेकर कोई विपरीत बहस, निंदा, आलोचना या पुर्नमूल्यांकन की बात भी नहीं करनी चाहिए। इसके बरक्स कुछ लोग संविधान को कुचल, बदल और खारिज कर ‘एक निशान, एक विधान, एक प्रधान’ जैसा गैरलोकतंत्रीय नारा लगाते हिन्दू राष्ट्र बनाने का ऐलान संविधान में दर्ज कर देना चाहते हैं। संविधान बनने के 70 वर्ष से ज्यादा हो जाने पर भी उसके विकल्प, विश्वसनीयता और भविष्यमूलकता को लेकर वक्त ने संदेह करने का मौका नहीं दिया। फिर भी लगातार परिवर्तन और पुनरीक्षण संविधान के लिए वे बौद्धिक चुनौतियां हैं, जिनका तार्किक उत्तर देना लोकतांत्रिक समझ के लिए बेहद जरूरी है। इस नजरिए से देखने पर सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला संविधान के गर्भगृह में पैदा हुई लेकिन अनदेखी कर दी गई उन घटनाओं और परिस्थितियों को उकेरना चाहेगा कि कहीं कोई चूक पहले ही हो गई है। उसके कारण भारतीय लोकतंत्र को केन्द्र सरकार की दादागिरी या बपौती का लगातार सामना करना पड़ता रहता है। अगर सुप्रीम कोर्ट इसी तरह सभी बुनियादी संवैधानिक मसलों को ऐसे ही लेकर अपनी संभावित भूमिका को कारगर ढंग से समझता रहे। तो भारतीय संविधान की पोथी को केवल बांचने के अलावा उसके प्रति श्रद्धा कायम रहनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने 378 पृष्ठ के अपने लंबे फैसले में मामले से जुड़े सभी पक्षों, इतिहास, संभावनाओं और सरकारी कारनामों वगैरह पर विचार किया है। इसके बावजूद जाहिर कारणों से सुप्रीम कोर्ट ने उन कई बातों का स्पर्ष नहीं किया जिन्हें लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे के सिलसिले में आजाद खयाल नागरिकों द्वारा विचार करना जरूरी है। यह आमफहम है कि संविधान निर्माता महान देषभक्त थे और जो कुछ उन्होंने कहा रचा, उस पर बहस मुबाहिसा करने के बाद उसे विवेक के माथे पर लीप लेना चाहिए। यह समझाइष ही वह रहस्यलोक है जहां सच की हिफाजत करना पुरखों की इज्जत करने से ज्यादा महत्वपूर्ण और आवष्यक संवैधानिक आचरण है। स्वतंत्र चुनाव आयोग की परिकल्पना लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है। यह दुनिया के सभी लोकतंत्रों में है। भारत की संविधान सभा में 15 और 16 जून 1949 को इस विषय पर जीवंत बहस हुई। दिलचस्प है कि संविधान के कई महत्वपूर्ण हिस्सों पर बहस के वक्त सबसे बड़ेे नेता जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, मौलाना आजाद आदि की गैरहाजिरी या चुप्पी के कारण भी कई अपूर्णताएं बल्कि गलतफहमियां रह गईं। उनके कारण भविष्य में सुप्रीम कोर्ट तक में पेचीदी स्थितियां पैदा होती रहीं। संविधान बनाने के लिए गठित मूल अधिकारों, अल्पसंख्यक अधिकारों आदि की कुछ उपसमितियों में नागरिकों को वोट डालने की आजादी मूल अधिकार के रूप में देने की पेशकश हुई। बाद में उसके सामने आने पर संविधान सभा ने इसे बहुत महत्वपूर्ण समझते हुए तय किया कि मूल अधिकारों की फेहरिश्त में चुनाव में भाग लेने के अधिकार का उल्लेख भर कर देने से बात बनेगी नहीं। इसलिए पूरे चुनाव प्रबंधन को एक नए परिच्छेद में अलग से लिखकर उसका खुलासा किया जाए।
यही वजह है कि प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा. अंबेडकर ने पहले के प्रस्तावित प्रावधानों को अंतिम बहस के ठीक पहले बदल दिया। इस बदलाव के कारण लोकतंत्र की जवाबदेही की प्रतिनिधि भावना को राज्यों की सूची से हटाकर केन्द्र सरकार के जिम्मे कर दिया गया। संविधान सभा में षिब्बनलाल सक्सेना, हरिविष्णु पाटस्कर, हृदयनाथ कुंजरू और कुलाधर चालिहा आदि ने प्रस्तावित प्रावधान का कड़ा विरोध किया था। इन पुरखों के साथ ऐसा भी था कि वे कई बार बौद्धिक बहस करने के बदले अपने परस्पर कटाक्षों के लिए समय और नीयत निकाल लेते थे। कई बार डा. अंबेडकर अनावश्यक रूप से तल्ख होकर सदस्यों पर टिप्पणियां कर देते थे। ऐसे सदस्य भी पलटकर जवाबी हमला करने में कोताही नहीं करते थे। शिब्बनलाल सक्सेना ने बुनियादी बात यही कही कि मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राज्यसभा और लोकसभा दोनों के दो तिहाई के बहुमत से ही होनी चाहिए। इससे सत्ताधारी पार्टी अपनी दादागिरी नहीं कर सकेगी। कुछ अन्य पार्टियों को भी अपनी बात कहने का अवसर मिलेगा। इससे पारदर्षिता आएगी। सक्सेना ने यह जोर देकर कहा था कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति केवल केन्द्र सरकार या प्रधानमंत्री की सिफारिशपर राष्ट्रपति द्वारा किए जाने पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। उनकी नियुक्ति से लेकर अन्य सभी आनुशंगिक विषयों के लिए संसद में अधिनियम पारित कराना जरूरी होगा। अपने लंबे भाषण में हरिविष्णु पाटस्कर ने कहा कि डा. अंबेडकर ने यक ब यक सारे अधिकार राष्ट्रपति के नाम से केन्द्र सरकार अर्थात प्रधानमंत्री को दे दिए हैं जबकि मूल प्रस्तावना उपसमितियों में यही थी कि प्रदेषों के लिए प्रादेषिक चुनाव आयोग वहां के राज्यपालों के नाम से गठित किए जाएंगे। इससे संवैधानिक मर्यादाओं का विकेन्द्रीकरण होना जरूरी होगा। केन्द्र को एकाधिकार देते समय सक्सेना ने टोका था कि आज जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री हैं। वे एक आदर्ष डेमोक्रेट हैं। वे अपनी पसंद का चुनाव आयुक्त बहुमत के दम पर नहीं थोपेंगे। आगे कभी ऐसा प्रधानमंत्री आ सकता है जो अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए चुनाव आयोग को बंधुआ मजदूर बना ले और अपनी सियासी सेवाटहल कराने की उम्मीद में हुक्मबजाऊ चुनाव आयुक्तों को नियुक्त करे। प्रदेशों की पहले प्रस्तावित स्वायत्तता को छीनने का कड़ा विरोध कुलाधर चालिहा ने भी किया। उनका कहना हुआ कि दिल्ली या भारत के अन्य किसी कोने में बैठकर अपना हुक्म चलाने वाले चुनाव आयोग से प्रदेशों के हित की कैसे उम्मीद की जा सकती है? उन्होंने नाम लेकर कहा कि गोविन्दवल्लभ पंत, एन बी खेर और रविशंकर शुक्ल जैसे मुख्यमंत्रियोंं के रहते प्रदेशों के नेतृत्व पर भरेासा क्यों नहीं किया जा सकता? उन्होंने इस बात पर भी ऐतराज किया कि मुख्य चुनाव आयोग को तो सुरक्षा है कि वह सुप्रीम कोर्ट जज की तरह महाभियोग लाए जाने पर ही सेवा से पृथक किया जा सकता है। बाकी चुनाव आयुक्तों को मुख्य चुनाव आयुक्तों के परामर्श ये हटाया जा सकता है। वास्तव में यह एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सुप्रीम कोर्ट के अन्य जजों को सेवा से अलग नहीं कर सकते। द्विसदस्यीय या बहुसदस्यीय बेंच में बैठने पर हर एक जज की राय का बराबर मत होता है। डॉ. अंबेडकर, के. एम. मुंशी, आर. के. सिधवा, नजीरुद्दीन अहमद जैसे सदस्यों की अपनी समझ की जिद के कारण बाकी चुनाव आयुक्तों की वह हालत कर दी गई जैसी मंत्रिपरिषद में बाकी मंत्रियों की होती है। उन्हें प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री अपने विवेक से हटा सकते हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त प्रधानमंत्री की सिफारिश पर नियुक्त होता है और वैसा ही बाकी अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर होता है। तो फिर उनकी अनिश्चित सेवा शर्तें किस तरह संवैधानिक होंगी? यही सवाल हाल में सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनाव आयोग संबंधी अपने फैसले में भी दुहराया है।
संविधान सभा में कश्मीर जैसा बहुत महत्वपूर्ण मसला जेरे बहस आया। तब सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू जैसे जिम्मेदार लोग हाजिर नहीं थे। श्यामाप्रसाद मुखर्जी को बाद में उनकी मृत्यु के कारण षेरे कष्मीर और षहीद वगैरह के संबोधन ढूंढे गए। कश्मीर की बहस में उन्होंने हाजिरी देकर उस वक्त क्यों कुछ नहीं कहा। जवाब संविधान सभा की फाइलों में दर्ज नहीं है। केन्द्र सरकार, प्रधानमंत्री और फिर मुख्य चुनाव आयुक्त आदि के एकतरफा एकाधिकार की संभावित पक्षधरता के खिलाफ कुछ संविधान पुरखों ने अपनी सयानी समझ का पोचारा फेरा। उनके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कुछ भी नहीं कहा। भारत पाक विभाजन की खतरनाक घटना के कारण संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने संविधान को ही केन्द्राभिमुखी बना दिया। उन्हें भय रहा था कि मजबूत केन्द्र के बिना खंडित भारत की अखंडता कैसे बचेगी। नागरिकों के संवैधानिक अधिकार और लोकतंत्र का उद्भव और विकास राजनीतिक दुर्घटनाओं पर निर्भर हो जाएं। तो संविधान की आत्मा की हेठी होती है। तुर्रा यह कि यदि भारत पाक विभाजन हुआ भी तो उसकी अगुवाई की जिम्मेदारी तो केन्द्रीय नेताओं की ही रही है। भारत के प्रदेषों का नेतृत्व इस सिलसिले में हाषिए पर ही रहा है। तब भी प्रदेशों का अधिकार छीनकर केन्द्र को दे दिया गया। इसीलिए पाटस्कर ने याद दिलाया कि अपने पहले प्रस्तावित भाषण में संविधान की रूपरेखा समझाते हुए 4 नवंबर 1948 को अंबेडकर ने कहा ही था कि भारत प्रदेशों का एक फेडरेशन बनेगा। बाद में लगातार अलग अलग विषयों पर विधायन करते हुए राज्यों के अधिकार कम किए जाते रहे और एक मजबूत केन्द्र की अवधारणा के नाम पर लगभग अत्याचारी केन्द्र की हैसियत बना दी गई।
मौजूदा वक्त में मुख्य चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति संविधान की पीठ पर छुरा भोंकने का वीभत्स उदाहरण है। पंजाब के आईएएस काडर के इस अधिकारी ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का आवेदन किया। वे अपने कारणों से नौकरी करने की स्थिति में नहीं थे। उन्होंने लगभग उसी दिन मुख्य चुनाव आयुक्त बनने की अर्जी लगा दी और उनका इस्तीफा भी आनन-फानन में मंजूर हो गया। एक अनिच्छुक नौकरशाह काफी बड़े पद पर इच्छुक मुख्य चुनाव आयुक्त बन गया। संविधान कहता है कि इन्हें बनाया तो प्रधानमंत्री ने। तो प्रधानमंत्री और अरुण गोयल की साठगांठ का यह उदारण नहीं तो क्या है? ऐसे में अगले 6 वर्षों तक मुख्य चुनाव आयुक्त की हैसियत में एक पक्षपाती और आत्ममुग्ध व्यक्ति से संविधान और लोकतंत्र क्या उम्मीद करेंगे? प्रधानमंत्री की चुप्पी तो किसी रहस्य महल या भुतहा महल की कहानियों जैसी अवाम विरोधी कथा ही तो कहलाएगी। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय तभी लागू होगा जब मौजूदा चुनाव आयुक्तों का कार्यकाल खत्म हो जाए। ऐसा भी क्यों हो? जब नियुक्ति करने वाले अधिकारी अर्थात प्रधानमंत्री का विवेक ही प्रदूषित सिद्ध हो जाए। तो उसके उत्पाद अपनी कुर्सियों पर क्यों बैठे रहें। अन्यथा कुछ वर्षों का समय बीत जाने पर केन्द्र सरकार बहुमत की ताकत के कारण कोई न कोई जुगत बिठाना चाहेगी, जिससे सुप्रीम कोर्ट का यह बहुचर्चित फैसला ठंडा पड़ जाए। संविधान सभा में कई मौकों पर सबसे बड़ेे नेताओं की चुप्पी संविधान के लोकयष के लिए मतिभ्रम पैदा करती रही है। आदिवासी अधिकारों को लेकर भी डॉ. अंबेडकर ने प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में बहस के दिन ही पूरा ड्रॉफ्ट बदल दिया और आदिवासी अधिकारों में बेतरह कटौती हो गई। तब भी सबसे बड़ेे नेता जवाहलाल नेहरू आजादी की लड़ाई के सबसे बड़े सेनापति भी थे। वे मौन रहे। ऐसे और भी उदाहरण हैं। इसलिए भारतीय लोकतंत्र की मौजूदा पीढ़ी भक्तिभाव में अभिभूत होकर वैज्ञानिक सच को नहीं समझ पाएगी। लोकतंत्र की बुनियाद नेता, सरकार या राष्ट्रपति और उनके द्वारा नियुक्त संवैधानिक पदाधिकारी नहीं हैं। हम भारत के लोग अर्थात नागरिक बुनियाद का पत्थर हैं। हम पर लोकतंत्र के भवन की मजबूती निर्भर हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐतिहासिक कहा जाता है। भले ही वह परिणाम ऐतिहासिक नहीं भी हो। वह चुनाव सुधारों के लिए एक कोशिश के रूप में जरूर दर्ज होगा। पहले चुनाव आयुक्त रहे टी. एन. शेषन और बाद में डॉ. एम. एस. गिल ने कई सुझाव दिए थे। वे सुप्रीम कोर्ट तक गए थे लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट ने भी टालमटोल किया। वरना तब ही ऐसे सवाल हल किए जा सकते थे। विख्यात संविधानविद जस्टिस वी. आर. कृष्ण अय्यर ने तो इस संबंध में काफी लिखा है। अन्य कई विचारकों का भी इसमें योगदान है। यह तो पिछले 70 वर्षों में एक के बाद एक प्रधानमंत्रियों ने इस मुद्दे की अनदेखी की। वे चाहे जैसे रहे हों लेकिन नरेन्द्र मोदी नाम के प्रधानमंत्री ने संविधान की एक-एक आयत का कचूमर निकालने में अपने अनोखे अभियान का परिचय दिया है। यदि वह कायम रहा तो आगे पूरे संविधान का क्या होगा? उसकी भयावहता केवल उनको हो सकती है जो संविधान का तटस्थ और वस्तुपरक मूल्यांकन करने में भरोसा करते हैं।
-सुब्रतो चटर्जी
अमरीकी साम्राज्यवाद को चीन के विरुध्द भारत को खड़ा करने के लिए नाटू-नाटू जैसे थर्ड क्लास गाने को ऑस्कर देने की जरूरत है। मूर्खों को बाद में समझ आएगा। अभी नाचो।जिंदगी में जब भी प्रशंसा मिले सबसे पहले यह देखिए कि कौन कर रहा है और क्यों कर रहा है। बिना निहित स्वार्थ की पहचान किए आप बहक जाएँगे।
दूसरी जरूरी बात है आत्म विश्लेषण। अगर मेरी किसी घटिया कृति पर बहुत वाहवाही मिलती है तो मैं उसे मिटा देता हूँ। हाल में ही रेत समाधि जैसे औसत से नीचे दर्जे की किताब को भी बुकर पुरस्कार मिल गया। ये घटनाएँ मुझे उन दिनों की याद दिलातीं हैं जब भारत के नए बाजार में कॉस्मेटिक बेचने के लिए सुस्मिता सेन को ब्रह्मांड सुंदरी के खिताब से नवाजा गया।
वह नब्बे के दशक का दौर था। आगे की कहानी आपको मालूम है । हर छोटे बड़े शहर की गलियों में कुकुरमुत्ते की तरह ब्यूटी पार्लर उग आए। हर दूसरी भारतीय लडक़ी खुद को कुरुप मानते हुए वहाँ जाने लगीं। यहाँ तक कि सुंदरता के पैमाने भी बदल गए। उबटन और मुल्तानी मिट्टी से चमकते हुए, अच्छी साड़ी में लिपटी वधू अब किसी को पसंद नहीं। सबको फेशियल, आई ब्रो, पैडिक्योर, मैनिक्योर, वैक्सिंग की हुई मोम की गुडिय़ा पसंद है। हम भूल गए कि बाजार पहले आपकी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए साधन उपलब्ध कराता है और जता देता है कि आप एक बहुत ही घटिया जिंदगी जी रहे हैं । आपको लगता है कि सरकारी स्कूल और अस्पताल बेकार हैं और प्राइवेट बेहतर हैं।
नतीजा यह होता है कि आप सरकार पर बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए दबाव बनाना छोड़ देते हैं और धीरे-धीरे कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को आपकी सहमति से ही फासिस्ट लोगों द्वारा खत्म किया जाता है।
ठीक इसी तरह से प्राईवेट क्षेत्र के कुछेक उच्च सैलरी पाने वाले लोगों को प्रचारित कर आपको बताया जाता है कि कैसे निजी क्षेत्र सरकारी क्षेत्र से बेहतर सुख सुविधाएँ देता है। आपको ये सोचने की फुर्सत नहीं है कि इतने बड़े देश और इतनी बड़ी जनसंख्या को रोजगार देने के लिए निजी क्षेत्र के पास कितनी बड़ी पूँजी और संसाधन हैं। आप ये भी नहीं समझते हैं कि सैलरी नौकरी का एक हिस्सा है, सामाजिक सुरक्षा, मान सम्मान, देश की प्रगति से सीधे तौर पर जुडऩे का जो मौका एक सरकारी कर्मचारी के पास है वह किसी सत्य नाडेला के पास भी नहीं है ।
नतीजतन, आप अपने बच्चों को कॉरपोरेट ग़ुलाम बनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और वे पैसों से भरपूर एक नाकामयाब जिंदगी जीते रहते हैं। इस तरह से आप शोषण और युद्ध आधारित पूँजीवादी व्यवस्था के कल्पतरु की जड़ों में अपने खून को पानी समझ कर सींचते रहते हैं ।
आज की परिस्थितियों में मैं देश की राजनीतिक व्यवस्था पर मध्यम वर्ग की चुप्पी के बारे बहुत कुछ सुनता रहता हूँ। यह मध्यम वर्ग कौन है और क्या है इसका राजनीतिक, सामाजिक चरित्र? यह वही वर्ग है जिसकी आधी आबादी ब्यूटी पार्लर के आसरे है खूबसूरत दिखने के लिए और बाकी महानगरों में एक फ्लैट खरीदने को अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मान कर सारे गलत सही काम निर्विकार भाव से करती है।
अब एक नई चाल चली गई है । हमारे हजारों साल पुराने शास्त्रीय संगीत पर कोई भी गीत उनको ऑरिजिनल नहीं लगता, लेकिन एक सी ग्रेड फि़ल्म की डी ग्रेड गाने को पुरस्कार मिलता है । वे जानते हैं कि राष्ट्रवाद के इस घिनौने दौर में अधिकांश भारतीयों के दिमाग को यह कितना सुकून पहुँचाएगा और गधों को नाचते देखना मजेदार तो होता ही है।
समाज और देश के पतन के लिए सबसे ज्यादा जि़म्मेदार विचारों का पतन होता है । हो सके तो इसे बचा लीजिए। चलते चलते बता दूँ कि हाथी पर बनी डॉक्यूमेंट्री को मिले पुरस्कार के लिए उनके निर्माता वाकई बधाई के पात्र हैं। आपको ये विरोधाभास लग रहा होगा, लेकिन लोहे के पंजे मखमल के दस्तानों में ही छुपे रहते हैं....