विचार/लेख
प्रकाश दुबे
अर्जुन सिंह से लेकर कपिल सिब्बल तक उच्च शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों को आमंत्रित करने के लालायित रहे। उनके दिमाग की सूझ मंत्रालय में भ्टकती रही। यह संभव हो सका, कवि निशंक यानी मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल के कार्यकाल में। नई शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा को विश्व स्तरीय बनाने का नुस्खा पेश किया। दुनिया के सौ नामी विश्वविद्यालय भारत की शिक्षा में निवेश कर सकेंगे। आत्मनिर्भर भारत में निवेश शब्द फिट नहीं होता। लेकिन क्या करें?
पिछले शिक्षा मंत्री, क्षमा करें, तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री ने बड़े कारपोरेट घराने को गुणवत्ता विवि बनाने की अनुमति दी। खज़ाना उंड़ेला। उसके कामकाज पर कोई अंगुली उठाने का दुस्साहस नहीं कर सकता। इससे साबित हुआ कि सरकार के भरोसे शिक्षा- सुधार संभव नहीं लगता। नई शिक्षा नीति में विदेशी विवि को बुलाने की मंशा का मतलब समझें। निजी क्षेत्र के देसी घरानों पर भरोसा कम हुआ है। शिक्षा नीति बर्र का छत्ता साबित हो सकती है। शिक्षा मंत्री तब तक निशंक हैं, जब तक ऑक्सफ़ोर्ड रिटर्न डा सुब्रमण्यम स्वामी चुप हैं।
सुरक्षित दूरी से चेहरा दर्शन
संसद और विधान सभाओं के अधिवेशन के साथ अजीब पेंच फंसा है। सुरक्षित दूरी बनाकर सदन में बैठें या तकनीक के भरोसे दूर से वार्तालाप करें? संसदीय समितियों की बैठक में मौजूद व्यक्तियों के संक्रमित होने के बाद घबराहट बढ़ी है। पिछले कुछ दिनों से संसदीय समितियों की बैठकों में कोरम का अभाव रहता है। तृणमूल कांग्रेस के सांसद बैठक में शामिल होने दिल्ली नहीं पहुंचेंगे। तृणमूल कांग्रेस के नेता डेरिक ब्रायन ने दोनों सदनों को इसकी जानकारी दी। तृणमूल कांग्रेस ने वेब कांफ्रेंस की तरह आभासी बैठकें करने की मांग की थी। उनकी मांग खारिज कर दी गई।
दिलचस्प संयोग है कि लाक डाउन की घोषणा होने और आपदा प्रबंधन कानून लगने से पहले डेरिक ने संसद का अधिवेशन तुरंत समाप्त करने की मांग की थी। लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति उनकी और उनकी पार्टी की मांग से सहमत नहीं थे। कोरोना-कोप के चलते देश की राजधानी दिल्ली सहित कई शहरों से कोलकाता की विमान सेवाएं बंद करा दी गई हैं। डेरिक ब्रायन संभवत: अकेले सांसद हैं, जिन्होंने महामारी का प्रकोप होते ही ऐलानिया अपनी जांच कराई। यही नहीं,विलगन यानी सबसे दूरी बनाकर रहने का पालन किया।
जय शंकर से आगे पराजय शंकर
जय शंकर को सेवानिवृत्ति के बाद प्रधानमंत्री ने ठोंक बजाकर परखा। उसके बाद सुषमा स्वराज जैसी प्रतिभाशाली नेता की जगह विदेश मंत्रालय की जिममेदारी सौंपी। चीन में राजदूत रहना जयशंकर को भारी पड़ रहा है। रक्षा मंत्रालय से अधिक आरोप उन पर और उनके मंत्रालय पर लग रहे हैं। पराजय का पिता नहीं होता। अवैध संतान की मां की तरह विदेश मंत्री पर दोष मढ़ा जा रहा है। वाहवाही का छोटा सा मौका आया। किसी ने ध्यान नहीं दिया। अटल बिहारी वाजपेयी ने पूर्व की ओर देखने की रणनीति बनाई। थाइलैंड-म्यांमार से भारत को जोडऩे के लिए मणिपुर राज्य के इंफाल तक सडक़ बनाने की योजना बनी। वर्ष 2016 में म्यांमार करार हुआ। नवंबर 2020 में सडक़ और साठ से अधिक पुल-पुलिया बनकर तैयार होने थे। भारत की फुर्ती का मखौल उड़ता है। जमीन को लेकर मामला अदालत में अटका था। मखौल उडऩे से परेशान विदेश मंत्रालय को उच्चतम न्यायालय सुप्रीम कोर्ट ने राहत देते हुए ठेकेदार की याचिका खारिज की। कोई तो कहे-जय शंकर।
चोप्प, कह दिया, आज़ाद हो
जानना चाहेंगे- पूर्व केन्द्रीय मंत्री प्रोफेसर सैफुद्दीन सोज ने ईद कैसे मनाई? उनके परिवार ने कैद से प्रो सोज की रिहाई के लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया। जम्मू-कश्मीर केन्द्र शासित प्रदेश की तरफ से अदालत को बताया गया कि प्रो सोज को न कैद किया, न नजऱ बंद। वे आज़ाद हैं। अदालत ने सरकार की बात पर भरोसा कर अर्जी खारिज कर दी।
नामी संपादक राजेन्द्र माथुर कहा करते थे कि मुख्य न्यायाधीश के फैसले और पत्रकार की रपट में अंतर होता है। पत्रकार को बार बार जांच-पड़ताल करना चाहिए। बेताब पत्रकारों ने अदालत के फैसले पर यही नुस्खा अपनाया। अदालत के फैसले के बाद टीवी चैनल वालों ने घर घेरा। चारदीवारी के पीछे से सोज़ ने कुछ कहना चाहा। पुलिस वालों ने धकियाकर कर पीछे किया। पत्रकार उनककी बात नहीं सुन पाए।
पांच अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त होने के साथ ही प्रो सोज अपने घर में कै़द हैं। वहीं बकरीद मनाई। वहीं घर में रहने की सालगिरह मनाएंगे। देश की सबसे बड़ी अदालत को इसकी भनक लगी? हम तो इतना जानते हैं कि सैफुद्दीन का मतलब धर्म की तलवार होता है और सोज़ का अर्थ है, सूजन। जलन।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजस्थान में कांग्रेस पार्टी की राजनीति शायद फिर पटरी पर लौट सकती है। खास तौर से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के ताज़ा बयान से ऐसी संभावना बन रही है। गहलोत का कहना है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व यदि सचिन पायलट-गुट को क्षमा कर दे तो वे उसे फिर स्वीकार कर लेंगे। ऐसा कहकर गहलोत ने एक तीर से तीन शिकार कर लिए। पहला, उन्होंने कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को सर्वोच्च महत्व दे दिया। उनकी गिरती हुई छवि में टेका लगा दिया। दूसरा, उन्होंने सचिन पायलट को जो निकम्मा और नाकारा कहा था, उन कठोर शब्दों पर पोंछा लगा दिया और अपनी छवि एक उदार और बुजुर्ग नेता की बना ली। तीसरा, जो उन्होंने कहा है, वह यदि हो जाए तो उनकी सरकार तो बची-बचाई ही है। उन्हें अपने विधायकों को जेसलमेर में छिपाकर रखने की जरुरत नहीं होगी। वे सब जयपुर लौट सकते हैं और सरकार की तीन हफ्तों से बंद दुकान फिर खुल पड़ेगी। विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाने की भी जरुरत नहीं होगी। सभी पार्टियों के विधायक मिलकर कोरोना से युद्ध लड़ेंगे और लडख़ड़ाती अर्थ-व्यवस्था को सम्हालेंगे।
लेकिन यदि ऐसा नहीं होता है और सचिन-गुट अपनी टेक पर अड़ा रहता है तो अगले 10-12 दिन राजस्थान की राजनीति के लिए काफी उलझनभरे हो सकते हैं। भाजपा कोशिश करेगी कि विरोधी विधायकों की संख्या एक सौ से ज्यादा हो जाए। वह सचिन-गुट को तो उकसाएगी ही, वह अन्य कांग्रेसी विधायकों को भी तोडऩे की पूरी कोशिश करेगी। गहलोत ने आरोप लगाया है कि दल-बदल करने का मेहनताना आजकल पहले से भी बढ़ गया है। अपुष्ट खबर यह है कि कांग्रेसी विधायकों को दल-बदल के लिए अब 25-30 करोड़ रु. तक देने का प्रस्ताव है। इसी डर के मारे उन्हें जैसलमेर के दड़बे में बंद किया गया है लेकिन भाजपा के लिए निराशा के भी कुछ संकेत आ रहे हैं। सचिन पायलट ने राजस्थान के नए कांग्रेस अध्यक्ष को बधाई दी है। सचिन ने अपनी कुर्सी पर बैठनेवाले नए अध्यक्ष का स्वागत किया है, इसका अर्थ क्या है ? सचिन में परिपक्वता आ रही है और वह कांग्रेस में टिके रहना चाहते हैं। राजस्थान के विधानसभा अध्यक्ष को उनके जन्मदिन पर भी सचिन ने बधाई दी है। ये सब संकेत हैं, कांग्रेस में उनके टिके रहने के। यदि राजस्थान की सरकार गिरेगी तो वह प्रदेश में नई अस्थिरता को जन्म देगी और भारतीय लोकतंत्र के माथे पर काला टीका लगा देगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-जेपी सिंह
वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने अपने विरुद्ध अवमानना मामले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में याचिका दाखिल की है। याचिका में अवमानना मामले की सुनवाई का आदेश वापस लेने की मांग की गई है। याचिका में यह भी कहा गया है कि महक माहेश्वरी ने अवमानना याचिका दायर करने के लिए अटॉर्नी जनरल की अनुमति नहीं ली है।
महक माहेश्वरी द्वारा याचिका के आधार पर अवमानना कार्रवाई शुरू की गई है, जो कि अवैध है और उसे रद्द किया जाए। याचिका में कहा गया है कि सेक्रेटरी जनरल की कार्रवाई ‘अवैध’ है और ‘रोस्टर के मास्टर’ के रूप में भारत के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका को हथिया लेने सरीखी है।
याचिका में कहा गया है कि चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के बाद उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट रूप से घोषित किया था कि भारत के चीफ जस्टिस रोस्टर के मास्टर हैं और उनके पास बेंच का गठन करने और बेंच को मामले सौंपने के लिए अनन्य विशेषाधिकार हैं।
याचिका में कहा गया है कि सेक्रेटरी जनरल की कार्रवाई मुख्य न्यायाधीश की शक्तियों को हथिया लेने सरीखी है और इसलिए गैरकानूनी है और इस प्रकार यह व्यवस्थित कानून के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट नियम 2013 के विपरीत है। याचिका वकील कामिनी जायसवाल द्वारा दायर की गई है और वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे भी इसमें शामिल हैं।
याचिका में इन दोनों आदेशों को वापस लिए जाने, या वैकल्पिक रूप से अदालत की नियमित सुनवाई फिर से शुरू होने पर सुने जाने की मांग की गई है। याचिका में कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय के नियम 2013 के तहत माहेश्वरी को दोषपूर्ण अवमानना याचिका को वापस करने की आवश्यकता थी।
इसके बजाय सेक्रेटरी जनरल ने मामले को जस्टिस मिश्रा, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस कृष्ण मुरारी की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध कर दिया। सेक्रेटरी जनरल की कार्रवाई असंवैधानिक, अवैध और शून्य है।
याचिका में यह भी कहा गया है कि माहेश्वरी द्वारा दायर अवमानना याचिका ‘दोषपूर्ण’ है, क्योंकि इसके लिए अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल की पूर्व सहमति नहीं थी, क्योंकि न्यायालय अधिनियम 1971 की धारा 15 तथा रूल्स टू रेगुलेट प्रोसिडिंग फार कंटेम्प्ट ऑफ़ सुप्रीम कोर्ट 1975 के नियम 3 के तहत ऐसा करना अनिवार्य है।
याचिका में कहा गया है कि सेक्रेटरी जनरल ने न केवल न्यायालय अवमान अधिनियम की अवहेलना का उल्लंघन किया है, बल्कि उनके कार्यों ने याची प्रशांत भूषण को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त गरिमा और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का भी उल्लंघन किया है।
याचिका में कहा गया है कि अदालत ने उस याचिका का स्वत: संज्ञान लिया है जो दोषपूर्ण थी और इसलिए, जो प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया जा सकता था, वह अप्रत्यक्ष रूप से किया गया।
श्री माहेश्वरी की याचिका का स्वत: संज्ञान लेकर इस न्यायालय ने अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल की सहमति लेने की आवश्यकता को नजऱंदाज़ किया जो कि कानून का व्यक्त और गैर-अपमानजनक जनादेश है।
योगेंद्र यादव ने द प्रिंट में प्रकाशित अपने लेख में प्रशांत भूषण के विरुद्ध अवमानना की कार्रवाई पर सवाल उठाया है और कहा है कि बहस का मुद्दा प्रशांत भूषण नहीं हैं। मामला ये नहीं है कि क्या प्रशांत भूषण ने अपनी बात कहने में किसी मर्यादा का उल्लंघन किया है। मामला तो दरअसल ये है कि क्या देश की सर्वोच्च अदालत में सर्वोच्च आसन पर बैठे कुछ पदाधिकारियों के हाथों निहायत बुनियादी किस्म के संवैधानिक, कानूनी और नैतिक मान-मूल्यों को चोट पहुंची है।
बीते तीन दशक से प्रशांत भूषण लगातार जनहित के मुद्दे पर बोलते रहे हैं, उन्होंने अपनी बात पर्याप्त जिम्मेदारी के भाव से कही है और ऐसा कहते हुए उन्होंने पेशेवर तथा निजी जिन्दगी के जोखिम उठाए हैं। अवमानना के मामले से एक अवसर मिला है कि प्रशांत भूषण ने जो मसले उठाए हैं, उन पर चर्चा हो।
उच्चतम न्यायालय ने प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना के 11 साल पुराने मामले को फिर से उठाने का तय किया है तो सुनवाई से उस गंभीर मसले का उत्तर क्या मिलेगा जो प्रशांत भूषण ने तहलका के अपने मूल इंटरव्यू में उठाया था।
जब साल 2009 में अवमानना के मामले में पहली बार अदालती प्रक्रिया शुरू हुई तो प्रशांत भूषण ने अपने आरोपों के साथ अदालत को तीन हलफनामे सौंपे थे। नमें आरोपों की पुष्टि में दस्तावेजी प्रमाण दिए गए थे।
हलफनामे में साल 1991 से 2010 के बीच भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर विराजमान रहे 18 जजों में से आठ का नाम लिया गया था और उनके विरुद्ध भ्रष्टाचार (जरूरी नहीं कि ये मामले घूसखोरी या फिर रुपयों के लेन-देन से जुड़े हों) के विशिष्ट मामलों का उल्लेख किया गया था और इन मामलों के पक्ष में यथासंभव दस्तावेजी साक्ष्य संलग्न किए गए थे, लेकिन अदालत कभी इन साक्ष्यों की परीक्षा के लिए बैठी ही नहीं।
मामले में आखिरी सुनवाई आठ साल पहले हुई थी और तब से मामले पर एकदम से चुप्पी है। अवमानना के मामले में उच्चतम न्यायालय में होने जा रही सुनवाई एक ऐतिहासिक अवसर है जब लंबे समय से उपेक्षित रहे कुछ अहम मसलों पर सार्वजनिक रूप से बहस का मौका होगा।
योगेंद्र यादव ने कहा है कि प्रशांत भूषण के ट्विट पर स्वत: संज्ञान लेते हुए अदालत ने जो मामला हाथ में लिया है, वो भी स्वागतयोग्य है। मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे से संबंधित ‘मोटरसाइकिल ट्वीट’ के विरुद्ध एक लचर सी याचिका को संज्ञान में लेना अदालत की प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं है।
फिर भी इससे एक महत्वपूर्ण बात उभर कर सामने आई है कि अदालत का कामकाज इतने लंबे समय तक बंद रहा, देश में तो अनलॉक की प्रक्रिया लगातार जारी है लेकिन नागरिकों की पहुंच अभी तक इंसाफ के मंदिर तक दूभर बनी हुई है।
इस सिलसिले की आखिरी बात ये है कि हमें अवमानना के मामले में होने जा रही सुनवाई से उम्मीद रखनी चाहिए कि उससे कानून और लोकतंत्र से जुड़े एक बुनियादी सवाल का उत्तर मिलेगा। सवाल ये कि सच्चाई अगर अदालत के लिए असहज करने वाली हो तो क्या ऐसी सच्चाई को अदालत की अवमानना माना जाएगा?
क्या अदालत के बारे में कोई साक्ष्य-पुष्ट विधिवत दर्ज राय, जिसकी परीक्षा होनी शेष है, अदालत की अवमानना के तुल्य समझ ली जाए? क्या अदालत के आंगन के अनैतिक आचार के खिलाफ बोलने से पहले किसी व्यक्ति को अपने हर आरोप की सच्चाई साबित करके कदम बढ़ाना चाहिए? और, इसी सिलसिले का सवाल है कि क्या किसी व्यक्ति को अवमानना के लिए दंडित करने से पहले अदालत को ये साबित करना होता है कि उस व्यक्ति ने जो कुछ भी कहा है वो सब गलत है?
योगेंद्र यादव ने कहा है कि ऐसी सुनवाई खुली अदालत में होनी चाहिए, चंद लोगों की पहुंच वाले कंप्यूटर स्क्रीन तक उसे सीमित रख कर चलना ठीक नहीं। साक्ष्यों को प्रस्तुत करने और उनकी जांच के लिए पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए, जैसा कि निचली अदालतों की सुनवाई में होता है।
सुनवाई पांच वरिष्ठतम जजों (या भावी मुख्य न्यायाधीशों) की पीठ करे, इसमें मौजूदा मुख्य न्यायाधीश को शामिल न किया जाए (क्योंकि ट्वीट में उनका नाम है) तथा जस्टिस अरुण मिश्र को भी ऐसी सुनवाई में शामिल ना किया जाए, क्योंकि प्रशांत भूषण के पास ये मानने के पर्याप्त कारण है कि जस्टिस अरुण मिश्र के होते उनके साथ इंसाफ नहीं हो सकता।
योगेंद्र यादव ने कहा है कि प्रशांत भूषण ने अपने शपथपत्र में जो कुछ कहा है वो साबित होती है तो फिर क्या अदालत बहु-प्रतीक्षित आत्म-परीक्षण के काम में लगेगी और अपने भीतर दूरगामी संस्थानिक सुधार के बाबत सोचेगी?
अगर ऐसा नहीं होता तो प्रशांत भूषण पर चला अदालत की अवमानना का मामला एडीएम जबलपुर जैसा ही एक अन्य मामला साबित होगा जो भारतीय अदालत की आत्मा को आने वाले लंबे वक्त तक कचोटेगा। (janchowk)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)
-चारु कार्तिकेय
24 मार्च को जब कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने के लिए भारत में लोगों ने अपने घरों के दरवाजे बंद किए थे, उस समय शायद ही किसी ने यह अनुमान लगाया होगा कि कई लोग ये दरवाजे अगले चार महीनों तक नहीं खोल पाएंगे. आम हालात में किसी को 120 दिन घर में बंद करने की कल्पना कीजिए. वो बौरा नहीं जाएगा? हालांकि मैं अभी तक बौराया नहीं हूं. कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है. कोई अगर मुझसे पूछे कि बौराने से कैसे बचा रहा, तो मैं समझता हूं इसके तीन कारण हैं - सैलरी का नियमित आते रहना, परिवार का सहारा और इंटरनेट.
यूं तो मैं तालाबंदी के पहले भी इंटरनेट का बहुत इस्तेमाल करता था. वेब पत्रकार होने के नाते, तनख्वाह तो इंटरनेट की बदौलत आती है ही, लेकिन मैं खाली समय में भी इंटरनेट से जुड़ा रहता था. घर और दफ्तर के बीच सफर के दौरान कभी अमेजॉन प्राइम पर कोई सीरीज साथ होती, तो कभी यूट्यूब पर कोई पुरानी फिल्म, कभी किंडल पर कोई किताब तो कभी स्पॉटीफाई पर कोई पॉडकास्ट.
तालाबंदी में इंटरनेट पर निर्भरता और बढ़ गई. घर से बाहर जाना नहीं, दोस्तों-रिश्तेदारों से मिलना नहीं, सिनेमा घर भी बंद पड़े हैं और हाल तक घूमने-फिरने की भी सभी जगहें बंद थीं. ऐसे में कोई दिल को बहलाए भी तो कैसे? दिल को बहलाने और दिमाग को स्थिर रखने के लिए मैंने भी कई लोगों की तरह इंटरनेट का ही सहारा लिया. लेकिन मैंने पाया की इस बार इंटरनेट से जुड़ी मेरी गतिविधियां सिमट गईं.
इंटरनेट पर निर्भरता
पिछले चार महीनों में मैंने ना कोई पॉडकास्ट सुना और ना कोई किताब पढ़ी. दिन भर की आपा-धापी में जो समय खुद के लिए चुरा पाया, उसमें सिर्फ फिल्में और स्ट्रीमिंग सेवाओं पर सीरीज देखीं. पिछले एक महीने से तो एक ही सीरीज से चिपका हुआ हूं. कम्बख्त पीछा ही नहीं छोड़ती. अब जा कर तीसरे और आखरी सीजन पर पहुंचा हूं और उम्मीद कर रहा हूं की हफ्ते भर में इससे पीछा छूटेगा.
कभी कभी मुझे लगता है कि ये इंटरनेट कंपनियों की साजिश है. इस समय तो भारत का टेलीकॉम क्षेत्र इस हाल में है जैसे कोई छेद वाली नाव हो. अब डूबी कि तब डूबी. लेकिन कुछ ही सालों पहले यह क्षेत्र इस कदर फल-फूल रहा था कि जिसकी वजह से लोग आज भी जेबों में 100-200 जीबी डाटा लिए घूम रहे हैं. घर और दफ्तर में वाई-फाई अलग से है. ऐसे में भला कोई स्ट्रीमिंग के अलावा और कुछ क्यों करेगा?
क्या होता अगर मेरे पास इतना इंटरनेट नहीं होता? मुझे ऐसा लगता है कि तब मैं वो किताबें पढ़ता जो या तो लंबे समय से अलमारी की रौनक बढ़ा रही हैं या जिनका ख्याल मेरे जहन में रह रह कर आता है और फिर फिल्म या सीरीज के वजन के नीच दब जाता है. लेकिन ऐसा मुझे सिर्फ लगता है. मैं ऐसा पुख्ता रूप से कह नहीं सकता हूं. इंटरनेट का ना होना अब अकल्पनीय हो गया है, तो ऐसा अगर हो जाए तो क्या होगा, ये संभावनाएं भी कल्पना के परे हैं.
इंटरनेट के बिना
मेरा भाई हाल ही में इस अहसास से गुजरा. वो अफ्रीका के इथियोपिया में रहता है, जहां वैसे भी अच्छा इंटरनेट उपलब्ध नहीं है और उसने खुद को इंटरनेट के चस्के से बचाए रखने के लिए घर पर सीमित इंटरनेट का ही इंतजाम किया हुआ है. इस से उसे काम के बाद इतना खाली समय मिलता है कि वो बागीचे में झूले पर लेट कर धूप सेकता है और एक साथ चार-चार किताबें पढ़ता है. लेकिन हाल ही में उसे अपनी पसंद से नहीं, बल्कि मजबूरन कई हफ्तों तक इंटरनेट से दूर रहना पड़ा.
इथियोपिया में भारी नस्लीय हिंसा फैल गई, जिसमें करीब 350 लोग मारे गए. अफवाहों से और हिंसा ना फैले इस वजह से पूरे देश में इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गईं और वो कई हफ्तों तक बंद रहीं. इस दौरान हमारा उस से संपर्क भी सीमित हो गया. अपने घर में बिना इंटरनेट के बंद वो किसी तरह रोज बस एक बार जरूरी फोन कॉल कर पाता और अपना हाल चाल बता कर फोन रख देता. जान बूझकर जीवन में सीमित इंटरनेट रखने वाला मेरा भाई मजबूरन कई हफ्तों तक इंटरनेट ना मिलने से परेशान हो गया.
वहां भी तालाबंदी और कोरोना वायरस का प्रकोप है, तो दिल बहलाने के लिए घूमने तो कहीं जा नहीं सकता. परिवार से दूर, अकेला और अब इंटरनेट से भी कटा हुआ मेरा भाई बस यही कह पाता है कि कोरोना ने हमारी जिंदगी के कई बहुमूल्य महीने छीन लिए. परिवार और 200 जीबी इंटरनेट से घिरा मैं यह नहीं कह पाता हूं. मैं शुक्रगुजार हूं इंटरनेट का कि उसने इस मुश्किल घड़ी में मेरा साथ दिया, वरना मैं शायद... बौरा भी सकता था.(dw)
कनुप्रिया
एक स्त्री महज माँ, बहन, पत्नी, बहू, भाभी ही नहीं होती अगर वो यही बनने के लिए पाली न गई हो, अगर उसकी शिक्षा महज ब्याह की उम्र आने तक किया जाने वाला टाईमपास न हो, उसका अपना व्यक्तित्व, सोच, सपने, महत्वाकांक्षाएँ भी होती हैं जैसे किसी भी आदमी के लिए। माँ बनना जहाँ एक नए इंसान और भविष्य के विश्व नागरिक के सृजन का अवसर होता है वहीं व्यक्ति के रूप में खुद को स्थगित करने का भी। स्त्री का समय, मानसिक शारीरिक और भावनात्मक ऊर्जा बच्चे के पालन-पोषण में लग जाती है, सामाजिक रूप से उससे यही अपेक्षा भी होती है, वहीं बच्चे के समुचित विकास के लिए कहीं न कहीं ये जरूरी भी, स्वयं को ही दूसरे पायदान पर रखना इतना आसान भी नहीं होता अगर आप इसी के लिए प्रशिक्षित न हों।
आजकल कार्यक्षेत्रों में मातृत्व अवकाश, क्रेच आदि की सुविधा की बात होती है, मगर व्यक्तिगत अनुभव से जानती हूँ कि स्त्री अधिकार की बात करने वाली विश्व संस्थाएँ भी ऐसी स्त्री को नया अपॉइंटमेंट नहीं देना पसंद करतीं। को प्रेग्नेंट हों, भले आप इंटरव्यू में सेलेक्ट ही क्यों न हो गए हों क्योंकि ऐसी स्थिति में स्त्री उतना वर्क आउटपुट नही दे पाएगी, इसके अलावा मातृत्व अवकाश का ख़र्च और काम की हानि कोई कम्पनी या संस्था जानबूझकर यह भार उठाना पसंद नहीं करती, ख़ासकर आजकल की गलाकाट प्रतियोगिता में जहाँ ढेरों विकल्प उपलब्ध हैं। करियर ग्रोथ के लिहाज से भी माँ बनना एक भीतरी द्वंद्व का समय होता है।
खुद बच्चे भी माँ से पिता की तुलना में ज़्यादा अपेक्षा करते हैं, पिता का काम, महत्वाकांक्षा उनके लिये सहज स्वीकार्य होती है, वो उनकी व्यस्तता के लिये उन्हें अपेक्षाकृत आसानी से माफ़ कर देते हैं, मगर स्त्रियों के लिये ऐसा नही होता। मुझे याद है कि हम अपनी कामकाजी माँ से कई बार उनके काम से अवकाश लेने की शिकायत करते थे, काफी बड़े होने तक भी, तब वो दुखी होकर हमसे यही पूछती थीं कि यह बात तुम कभी पापा से क्यों नही कहते और तब हमें ये अजीब लगता था कि पापा से यह बात की जाए क्योंकि ऐसी अपेक्षा तो माँ से ही की जा सकती है.
बच्चे होने के बाद कामकाजी स्त्री खुद भी अपने काम को लेकर गिल्ट में रहती है, कई बार यह अपराधबोध परिवार, एक्सटेंटेड फैमिली, दोस्तों परिचितों की तरफ़ से भी मिलता है, कई बार बच्चे ख़ुद यह गिल्ट भी बढ़ा देते हैं. ख़ुद को लगातार दोयम स्थान पर रखने के लिये जो शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक ऊर्जा लगती है, इसके सिवा करियर लॉस, अवसरों की कमी, ख़ुद की प्रतिभा और महत्वाकांक्षाओं को सीमित रखने से जो निराशा होता है उसे मातृत्व के त्याग, बलिदान और महानता जैसे शब्दों से ढँक भले लिया जाए, मगर उस मानसिक द्वंद्व से स्त्रियाँ लगातार गुजरती हैं जब तक बच्चे कुछ हद तक अपनी सार सम्भाल करने लायक नही हो जाते।
यही द्वंद्व एक विलक्षण प्रतिभा की धनी और अत्यंत सफल स्त्री में किस हद तक हो सकता है ‘शकुंतला देवी’ में यह दिखाया गया है. फिल्म शकुंतला देवी की बेटी की नजर से कही गई है जो अपनी माँ के विराट व्यक्तित्व की छाया से निकलने के लिए लगातार कोशिश करती नजर आती है, उसके लिए माँ उसके प्रति एक अपराधी है जिसने उसे अपने पिता से दूर रखा और एक साधारण बचपन नहीं जीने दिया।
वह अपनी माँ को एक स्त्री की तरह नही देखती जिसकी प्रतिभा निर्विवाद है, जो लगातार एक गणितज्ञ, एक लेखक के तौर पर खुद की ग्रोथ के लिये काम करती रहती है और अत्यंत सफल है बल्कि ऐसी माँ की तरह देखती है जो उसके प्रति पजेसिव है और सब कुछ करने के प्रयासों के बाद भी अपनी संतान के लिए सही साबित नहीं हो पाती। फिल्म में एक डायलॉग माँ के अच्छी माँ न बन पाने से जुड़े गिल्ट पर है, हर माँ एक बुरी माँ ही होती है, वो बहुत प्यार करे बच्चों को तब भी बच्चों को खराब कर सकती है, कम करे तब भी।
अंत मे उनकी नाराज बेटी उन्हें तब समझ पाती है जब वो खुद माँ बनती है और शकुंतला देवी भी तब अपनी बेटी को समझ पाती हैं जब वो खुद पूरी उम्र अपनी माँ से नाराज रहने के बाद माँ को माफ कर देती हैं। इस फिल्म को अगर शकुंतला देवी की बायोपिक के तौर पर देखेंगे तो थोड़ी निराशा हो सकती है क्योंकि विद्या बालन एक आजाद खय़ाल, घोर आत्मविश्वासी, किसी से न डरने वाली, प्रतिभाशाली और सफल स्त्री को तो उकेरने में कामयाब रही हैं मगर वो शकुंतला देवी नही लगतीं, उन्होंने इसे कई जगह ओवरप्ले किया है, शकुंतला देवी के वीडियो देखेंगे तो यह फर्क साफ नजर आता है।
एक बायोपिक के तौर पर फिल्म और बेहतर बन सकती थी, मगर शकुंतला देवी के हवाले से एक सफल कामकाजी स्त्री और उसके माँ होने के बीच के संघर्ष को दिखाने में कामयाब रही है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नई शिक्षा नीति बनाकर सरकार ने सराहनीय कार्य किया है लेकिन ऐसा करने में उसने छह साल क्यों लगा दिए ? उसके छह साल लग गए याने शिक्षा के मामले में उसका दिमाग बिल्कुल खाली था ? शून्य था ? क्या सचमुच ऐसा था ? नहीं ! भाजपा पहले दिन से भारत की शिक्षा-प्रणाली के सुधार पर जोर दे रही है। भाजपा के पहले जनसंघ और जनसंघ के पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मैकाले की शिक्षा-प्रणाली का डटकर विरोध करता रहा है और कांग्रेस सरकारों की शिक्षा-नीति में कई बुनियादी सुधार सुझाता रहा है। लेकिन इस नई शिक्षा नीति को मोटे तौर पर देखने से यह पता नहीं चलता कि हमारी शिक्षा-व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन कैसे होंगे ? कुछ संशोधन और परिवर्तन तो शिक्षा के ढांचे को अवश्य सुधारेंगे लेकिन देखना यह है कि यह नई शिक्षा-व्यवस्था ‘इंडिया’ और ‘भारत’ के बीच अब तक जो दीवार खड़ी की गई है, उसे तोड़ पाएगी या नहीं ?
देश के निजी स्कूलों और कालेजों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़े छात्र ‘इंडिया’ हैं और सरकार के टाटपट्टी स्कूलों में पढ़े हुए ग्रामीणों, गरीबों, पिछड़ों के बच्चे ‘भारत’ हैं। इस भारत की छाती पर ही इंडिया सवार रहता है। इस दोमुंही शिक्षा नीति का खात्मा कैसे हो ? इसका आसान तरीका तो यह है कि देश के सारे गैर-सरकारी स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालयों पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। संपूर्ण शिक्षा का सरकारीकरण कर दिया जाए। ऐसा करने के कई दुष्परिणाम हो सकते हैं। इसमें कई व्यावहारिक कठिनाइयां भी हैं लेकिन देश में शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने का एक नायाब तरीका मैंने 5-6 साल पहले सुझाया था, जिसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बाद में अपने फैसले की तौर पर घोषित कर दिया था। वह सुझाव यह है कि राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक जितने भी लोग सरकारी तनखा पाते हैं, उनके बच्चों की पढ़ाई अनिवार्य रुप से सरकारी स्कूलों और कालेजों में ही होनी चाहिए। देखिए, फिर क्या चमत्कार होता है ? रातोंरात शिक्षा के स्तर में सुधार हो जाएगा। यदि हमारा शिक्षा मंत्रालय कम से कम इतना ही करे कि यह बता दे कि हमारे कितने न्यायाधीशों, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, पार्षदो, अफसरों और सरकारी कर्मचारियों के बच्चे सरकारी शिक्षा-संस्थाओं में पढ़ते हैं ? ये आंकड़े ही हमारी आंखें खोल देंगे। यदि हमें भारत को महान और महाशक्ति राष्ट्र बनाना है तो इस दोमुंही शिक्षा नीति को ध्वस्त करना होगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-तारण प्रकाश सिन्हा
यह निर्विवाद ऐतिहासिक तथ्य है कि, छत्तीसगढ़ ही प्राचीन दक्षिण कोसल है। यह भी सत्य है कि वर्तमान बस्तर ही प्राचीन दण्डकारण्य है। यही दो प्राचीन नाम रामकथा के दो ऐसे बिंदु है, जिसमें से एक से उसका उद्गम होता है और दूसरे से वह अपने चरम की ओर अग्रसर होती है।
पौराणिक उल्लेखों के अनुसार राजा दशरथ के समय में दो कोसल थे। एक कोसल था, जो विंध्य पर्वत के उत्तर में था, जिसके राजा दशरथ ही थे। दूसरा कोसल विंध्य के दक्षिण में था, जिसके राजा भानुमंत थे, दशरथ ने इन्हीं भानुमंत की पुत्री से विवाह किया था जो कौशल्या कहलाई। भानुमंत का कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उनका राज्य भी दशरथ ने ही प्राप्त किया। इस तरह दोनों कोसल संयुक्त हो गए। राम का जन्म कौशल्या की कोख से उसी संयुक्त कोसल में हुआ, कालांतर में उन्होंने इसी संयुक्त कोसल के राजा हुए।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जब कहते है कि यहां के कण-कण में राम बसे हुए हैं, तब उनका यह कथन दार्शनिक और आध्यात्मिक तथ्यों से कहीं ज्यादा ऐतिहासिक, पुरातात्विक और सांस्कृतिक तत्वों की ओर ईशारा कर रहा होता है।
छत्तीसगढ़ न केवल राम-जन्म की पृष्ठ-भूमि है, बल्कि उनके जीवन-संघर्षो की साक्षी भी है। उन्होंने अपने 14 वर्षो के वनवास में से ज्यादातर समय यहीं पर बिताए। वे वर्तमान छत्तीसगढ़ की उत्तरी-सीमा, सरगुजा से प्रविष्ट होकर दक्षिण में स्थित बस्तर अर्थात् प्राचीन दण्डकारण्य तक पहुंचे थे। राम ने जिस मार्ग से यह यात्रा की, उन्होंने जहां प्रवास किया, पुराणों में उल्लेखित उनके भौगोलिक साक्ष्य आज भी विद्यमान है।
करीब डेढ़ साल पहले छत्तीसगढ़ की नयी सरकार ने अपनी जिन प्राथमिकताओं की घोषणा की थी, उनमें प्रदेश का सांस्कृतिक पुर्नउत्थान शीर्ष पर था। सरकार की यह सोच रही है कि मूल्य-विहीन विकास न तो मनुष्यों के लिए कल्याणकारी हो सकता है और न ही प्रकृति के लिए। इसलिए छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक परंपराओं में शामिल मूल्यों को सहेजने उन्हें पुर्नस्थापित करने का काम शुरू किया गया। पूरी दुनिया जिस राम कथा को मानवीय मूल्यों के सबसे बड़े स्त्रोत के रूप में जानती-मानती आयी है। छत्तीसगढ़ का यह सौभाग्य है कि यहीं पर उसका उद्गम है और यहीं पर वह प्रवाहित होती है।
सरगुजा से लेकर बस्तर तक राम गमन मार्ग में बिखरे पड़े साक्ष्यों को सहेजना छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक मूल्यों को ही सहेजना है। इसलिए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस पूरे मार्ग को नए पर्यटन-सर्किट के रूप में विकसित करने की योजना तैयार करवायी है। 137.45 करोड़ रूपए की लागत वाली उनकी इस महत्वाकांक्षी परियोजना में कोरिया जिले का सीतामढ़ी-हरचैका, सरगुजा का रामगढ़, जांजगीर का शिवरीनारायण, बलौदाबाजार का तुरतुरिया, रायपुर का चंदखुरी, गरियाबंद का राजिम, धमतरी का सिहावा, बस्तर का जगदलपुर और सुकमा का रामाराम शामिल है।
नए पर्यटन-सर्किट का कार्य रायपुर जिले के चंदखुरी से शुरू हो चुका है। यहीं वह स्थान है जहां भगवान राम की माता कौशिल्या का जन्म हुआ था, जहां भानुमंत का शासन था। चंदखुरी में स्थित प्राचीन कौशिल्या माता मंदिर के मूल स्वरूप को यथावत रखते हुए, पूरे परिसर के सौदर्यीकरण और विकास के लिए लगभग 16 करोड़ रूपए की योजना के लिए दिसम्बर माह में भूमि पूजन हो चुका है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बीते जुलाई माह के अंतिम सप्ताह में सपरिवार चंदखुरी जाकर मंदिर के दर्शन किए और इस स्थल को उसके महत्व और गरिमा के अनुरूप विकसित करने के निर्देश दिए है।
-महेन्द्र पांडे
स्वच्छ पर्यावरण का मौलिक अधिकार हमें संविधान देता है और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण भी लगातार इसकी वकालत करता रहा है। हमारे प्रधानमंत्री पर्यावरण सुरक्षा को 5000 साल पुरानी परंपरा बताते नहीं थकते। इन सबके बीच हकीकत यह है कि इसी देश के नए संस्करण, ‘न्यू इंडिया’ में अवैध खनन, जंगलों के कटने, बांधों के विरुद्ध आवाज उठाने वाले, साफ पानी और साफ हवा की मांग करने वालों पर पुलिस, भूमाफिया और सरकारी संरक्षण प्राप्त हत्यारे गोली चलाते हैं, कभी ट्रैक्टर चढाते हैं या फिर सड़क दुर्घटना करवाते हैं। इस न्यू इंडिया में यह सब इतने बड़े पैमाने पर किया जा रहा है की दुनिया भर में 21 देशों की उस सूची में जहां पर्यावरण संरक्षण करने वालों की हत्या की गई, उसमें भारत भी शामिल है।
साल 2012 से ब्रिटेन के एक गैर-सरकारी संगठन, ग्लोबल विटनेस ने हरेक वर्ष पर्यावरण के विनाश के विरुद्ध आवाज उठाने वालों की हत्या के सभी प्रकाशित आंकड़ों को एकत्रित कर एक वार्षिक रिपोर्ट को तैयार करने का काम शुरू किया था। साल 2019 की हाल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में हर सप्ताह चार से अधिक पर्यावरण संरक्षकों की हत्या कर दी जाती है।
साल 2019 के दौरान दुनिया में कुल 212 पर्यावरण संरक्षकों की हत्या कर दी गई। मारे गए लोगों की यह संख्या किसी भी वर्ष की तुलना में सर्वाधिक है। सबसे अधिक ऐसी हत्याएं, कोलंबिया में 64, फिलिपिन्स में 43, ब्राजील में 24, मेक्सिको में 18, होंडुरास में 14, ग्वाटेमाला में 12, वेनेजुएला में 8 और भारत में 6 हत्याएं की गईं।
भले 21 देशों की इस सूची में भारत का स्थान 6 हत्याओं के कारण 8वां हो, पर पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों पर पैनी नजर रखने वाले इन आंकड़ों पर कभी भरोसा नहीं करेंगे। पर्यावरण संरक्षण का काम भारत से अधिक खतरनाक शायद ही किसी देश में हो। यहां के रेत और बालू माफिया हर साल सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं, जिसमें पुलिस वाले और सरकारी अधिकारी भी मारे जाते हैं। पर, इसमें से अधिकतर मामलों को दबा दिया जाता है और अगर कोई मामला उजागर भी होता है तो उसे पर्यावरण संरक्षण का नहीं बल्कि आपसी रंजिश या सड़क हादसे का मामला बना दिया जाता है।
इसी तरह, अधिकतर खनन कार्य जनजातियों या आदिवासी क्षेत्रों में किये जाते हैं। स्थानीय समुदाय जब इसका विरोध करता है, तब उसे माओवादी, नक्सलाइट या फिर उग्रवादी का नाम देकर एनकाउंटर में मार गिराया जाता है। बड़े उद्योगों से प्रदूषण के मामले को उजागर करने वाले भी किसी न किसी बहाने मार डाले जाते हैं। इन सभी हत्याओं में सरकार और पुलिस की सहमति भी रहती है।
ग्लोबल विटनेस की रिपोर्ट के अनुसार कुल 212 हत्याओं का आंकड़ा दरअसल वास्तविक आंकड़ा नहीं है। हत्याएं इससे बहुत अधिक होती हैं, पर आंकड़े प्रकाशित नहीं किये जाते। यदि हत्या न भी हो, तब भी ऐसे लोगों को बिना किसी जुर्म के जेल में डाल देना या फिर देशद्रोही करार देना सामान्य है। भारत समेत अनेक देशों में ऐसे लोगों को आतंकवादी तक करार देने में सरकारें पीछे नहीं रहतीं। सबसे अधिक हत्याएं खनन, बांध, हाइड्रोकार्बन प्रोजेक्ट और कृषि आधारित उद्योगों के विरोध करने पर की जाती हैं।
रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में सबसे अधिक, 50 हत्याएं, अवैध खनन का विरोध करने वालों की की गई। इसके बाद सबसे अधिक हत्याएं कृषि-आधारित उद्योगों का विरोध करने वालों की हुई और इन हत्याओं में से 80 प्रतिशत से अधिक एशिया, विशेष तौर पर फिलीपींस में की गईं। दुनिया में पर्यावरण संरक्षण करने वालों की जितनी हत्याएं होतीं हैं, उनमें से आधे से अधिक केवल दो देशों- कोलंबिया और फिलीपींस में की जाती हैं, जबकि कुल हत्याओं में से दो-तिहाई से अधिक दक्षिण अमेरिका में की जात हैं। पिछले साल अकेले कोलंबिया में 64 पर्यावरण संरक्षकों की हत्या की गई, जो 2012 से रिकॉर्ड रखने के समय से किसी भी देश के सन्दर्भ में सर्वाधिक आंकड़ा है।
पर्यावरण संरक्षण के लिए अपनी जान गंवाने वालों में सबसे अधिक वनवासी और जनजातियों के लोग रहते हैं। पिछले साल कुल हत्याओं में से 40 प्रतिशत से अधिक ऐसे लोगों की हत्या की गई। ब्राजील में तो अब कई जनजातियां विलुप्तीकरण के कगार पर हैं। सबसे कम प्रभावित महाद्वीप यूरोप है, जहां रोमानिया में परंपरागत जंगल को बचाते हुए 2 लोगों की हत्या की गई। ये दोनों ही वन विभाग की रक्षा करने वाले सरकारी अधिकारी थे। दुनिया भर में कुल 19 ऐसी हत्याएं हुईं जिसमें जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा करने वाले सरकारी कर्मचारी मारे गए।
दक्षिण अमेरिका के अमेजन क्षेत्र में कुल 33 हत्याएं की गईं और ब्राजील में होने वाली कुल हत्याओं में से 90 प्रतिशत से अधिक इसी क्षेत्र में की गईं। दक्षिण अमेरिकी देश होंडुरास में साल 2018 में पर्यावरण को बचाने वाले 4 लोगों की हत्या की गई थी, पर साल 2019 में यह संख्या बढ़कर 14 पहुंच गई। प्रति व्यक्ति उपलब्ध भूमि के सन्दर्भ में दुनिया के किसी भी देश की तुलना में होंडुरास में सर्वाधिक लोग मारे गए।
रिपोर्ट के अनुसार, जब जलवायु परिवर्तन विकराल स्वरुप ले रहा है और पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है, तब पर्यावरण संरक्षण अधिक महत्वपूर्ण होता है, पर सरकारें और पूंजीपति उनके महत्व को लगातार अनदेखा कर रहे हैं। बड़ी संख्या में जनजातियों के लोग मारे जा रहे हैं या फिर जेलों में डाले जा रहे हैं, धमकाए जा रहे हैं, पर संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार जनजातियां हमेशा से ही जंगलों को संरक्षित करती रही हैं।
दुनिया भर में जनजातियां जितने जंगल बचा रही हैं, उसमें प्रतिवर्ष पूरी दुनिया से कार्बन का जितना उत्सर्जन होता है, उसका 33 गुना से अधिक इन जंगलों में अवशोषित है। यानि जनजातियां जलवायु परिवर्तन रोकने में और तापमान वृद्धि कम करने में सबसे प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। इसके बाद भी दिसंबर 2015 के जलवायु परिवर्तन रोकने के पेरिस समझौते के बाद से हरेक सप्ताह औसतन 4 पर्यावरण संरक्षकों की हत्या की जा रही है।
साल 2019 में जितने लोगों की हत्या पर्यावरण संरक्षण के नाम पर की गई, उसमें 10 प्रतिशत से अधिक महिलाएं हैं। महिलाएं हमेशा से ही प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करती रही हैं। बड़ी संख्या में महिलाओं की हत्या तो होती ही है, उनको बलात्कार और हिंसक झड़पों का सामना भी करना पड़ता है। अनेक महिला पर्यावरण संरक्षकों का चरित्र हनन कर उन्हें चुप कराने की साजिश की जाती है।
ग्लोबल विटनेस की राचेल कॉक्स के अनुसार वैश्विक स्तर पर भ्रष्टाचार, हत्यारे पूंजीवाद का प्रसार और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट ने मानवाधिकारों का लगातार हनन किया है और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करने वालों को अपना दुश्मन समझा है। यही कारण है कि सरकारें और पूंजीपति ही ऐसी हत्याओं को बढ़ावा देते हैं। दुखद तथ्य यह है कि महामारी के इस दौर में भी यह सिलसिला थमा नहीं है, जबकि तमाम अध्ययन इस महामारी की जड़ में प्राकृतिक विनाश को ही रखते हैं। प्रदूषण और पर्यावरण के विनाश से दुनिया भर में लोग मर रहे हैं, पर पर्यावरण संरक्षण भी कम जानलेवा नहीं है।(navjivan)
-एसपी सत्ती
भारत सरकार द्वारा चारधाम राजमार्गों के सुधारीकरण के लिये विशेष योजना का शिलान्यास और 12 हजार करोड़ का आर्थिक पैकज जारी करना निश्चित ही एक प्रशंसनीय कदम था। किन्तु इसके सफल क्रियान्वयन के लिये बहुत बड़ी जिम्मेदारी इसके शिल्पकारों के ऊपर थी जिन्हें भूस्खलन, भू-धंसाव और भूकंप संवेदी अति-संवेदनशील चारधाम हिमालयी घाटियों में परियोजना के स्वरुप को तैयार करना था।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर गठित हाई पावर कमिटी ने अपनी रिपोर्ट के 10 अध्यायों में एक-मत रूप से विभिन्न पर्यावरणीय प्रभावों जैसे पहाड़ी ढालों के कटान और भूस्खलन, जल-श्रोतों पर प्रभाव, वन्यजीवों के संज्ञान, सामाजिक जन-जीवन पर प्रभाव, वन-क्षेत्र और मलबा निस्तारण के प्रभाव और आपदा प्रबंधन से सम्बंधित तमाम तथ्य उजागर किये हैं।
नये उभरे भू-स्खलन क्षेत्रों और भारी मलबे के अवैज्ञानिक निस्तारण से उत्पन्न खतरे की विभीषिका पर भी निर्माणकारी संस्थाओं और सड़क मंत्रालय को समय समय पर तत्काल सुरक्षात्मक कार्यों के लिये भी कहते रहे।
आजकल बरसात शुरू होते ही तमाम वो समस्याएं भूस्खलन और गलत रूप से निस्तारित मलबे के कारण मुखर होने लगी हैं। आए दिन चारधाम मार्ग तमाम जगहों पर भूस्खलनों के सक्रिय होने से बाधित हो रहा है और भारी मलबा स्थानीय जनमानस के जान-माल की हानि का सबब बन रहा है।
चारधाम सड़क चौड़ीकरण की परियोजना में तत्कालीन समय (2015-16) में अपनाये मानक (डीएल-पीएस, 12 मीटर) चारधाम घाटियों के पहाड़ी ढालों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। यह बात राजमार्ग मंत्रालय की प्लानिंग ज़ोन ने भी वर्ष 2018 में स्वीकार ली थी तथा मार्च-2018 में एक सर्कुलर निकाल पहाड़ी क्षेत्रों के लिए इन्हे संशोधित कर दिया था।
संशोधित मानकों के अनुसार पर्वतीय क्षेत्रों में राष्ट्रीय राजमार्ग की चौड़ाई के मानक इंटरमीडिएट लेन (7-8 मीटर) कर दिए गए थे, किन्तु फिर भी चारधाम योजना में पुराने हानिकारक मानकों (डीएल-पीएस) के तहत ही चौड़ीकरण जारी रखा गया। इस नए सर्कुलर को न्यायालय तथा कमिटी के संज्ञान में भी अंत तक नहीं लाया गया।
चारधाम घाटियों में स्थानीय जरुरत, यात्रा काल तथा सेना वाहनों की आवाजाही के लिए राजमार्ग सुधारीकरण में तीन बातें महत्व की हैं:-
1- मार्ग का आपदा के नजरिये से सुरक्षित होना।
2- मार्ग के किनारे हरित क्षेत्र/पेड़ों का रहना ताकि जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और भूस्खलनरोधी दृष्टि से भी मार्ग अनुकूल बने।
3- स्थानीय जनों, तीर्थयात्रियों के लिए परम्परागत पैदल यात्रा/आवागमन की अनुकूलता का ध्यान रखा जाए।
पुराने मानक के अनुसार अत्यधिक चौड़ीकरण के लिए बहुत अंदर तक (आम तौर से 24 मीटर तक) पहाड़ी ढलानों का कटान करने के कारण कई भूस्खलन क्षेत्र पैदा हो गए हैं। पहाड़ी कटान अधिक होने से मलबा भी अधिक पैदा हो रहा है और इसका निस्तारण घाटियों में ही होने के चलते मलबे के बड़े-बड़े ढेर भी आपदा का सबब बने हुए हैं।
स्थानीय जरुरत, सेना वाहनों तथा यात्रा की जरुरत हेतु इन घाटियों में 7-8 मीटर चौड़ी सड़क पर्याप्त है। इसमें कोई दो राय नहीं कि डबल लेन-पीएस अर्थात 12 मीटर चौड़ी सड़क (10 मीटर काली सतह के साथ) बनाने के लिए भारी तादात में पहाड़ी के कटान की जरुरत होती है और वही सड़क के मानक यदि इंटरमीडिएट लेन अर्थात 8 मीटर (5.5 मीटर काली सतह के साथ) कर दिये जायें तो लगभग 70-80 प्रतिशत नुकसान कम कर और अधिकांश भाग में तो बिना किसी कटिंग के उक्त सड़क का सुधारीकरण अधिक गुणवत्ता, कम लागत और पर्यावरणीय अनुकूल ढंग से किया जा सकता है।
चारधाम परियोजना के लिए आवंटित राशि में तो आधुनिक तकनीक द्वारा पहाड़ी ढालों को कम से कम छेड़ते हुए घाटी की तरफ से दीवारें, पुलनुमा संरचनाएं बना कटान व भरान तरीके से इंटरमीडिएट मानक के अंतर्गत सुरक्षित रूप से सड़क का उच्चीकरण किया जा सकता था। पैदल यात्रियों, साधुओं, तीर्थयात्रियों, स्थानीय जनों के लिए साथ में एक सुन्दर आस्था-पथ का निर्माण भी 8 मीटर सड़क के भीतर कर हरा-भरा मार्ग तैयार हो सकता था।
किन्तु पुराने मानक (डीएल-पीएस) के अनुसार 12 मीटर चौड़ाई प्राप्त करने के लिए एक तरफ़ा पहाड़ी कटान का तरीका अपनाया गया, क्योंकि घाटी की तरफ से इतनी अधिक चौड़ाई आम तौर से प्राप्त करना बहुत कठिन, खर्चीला और कम-गुणवत्ता युक्त काम होता। परिणामस्वरूप उत्पन्न मलबे की डम्पिंग के लिए भी भूमि का अधिग्रहण अलग से करना पड़ा और घाटियों में नदियों, जलधाराओं के मार्ग में बड़े-बड़े डम्पिंग ज़ोन तैयार हो गए जो बरसात में कई स्थानों पर आपदा का सबब बने हुए हैं।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन करते हुए परियोजना के उचित क्रियान्वयन के लिए गठित उच्च स्तरीय समिति में भी परियोजना में अपनाए गए चौड़ाई के मानक को लेकर ही विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना होने के चलते अधिकांश सदस्य बिना सड़क मंत्रालय की संस्तुति के परियोजना के स्वरुप पर कोई टिप्पणी देने से बचने लगे, अंत में मूक रहकर अधिकांश ने पुराने मानकों के पक्ष में ही मत-दान कर दिया।
इस सम्बन्ध में समस्या के मूल को इंगित करती उच्चस्तरीय कमेटी की अंतरिम रिपोर्ट में समस्त सदस्यों द्वारा एकमत होकर स्वीकारी एक उक्ति में कहा गया है किसड़क की उचित चौड़ाई का मानक तय करना ही पर्यावरणीय नुकसान की सीमा निर्धारित करेगा। और यही कमेटी के सामने सबसे बुनियादी बात थी कि सड़क की चौड़ाई का जो मानक सड़क पर्यावरण मंत्रालय ने तय किया है उसका सम्यक परीक्षण किया जाये?
सड़क चौड़ीकरण के बुनियादी मुद्दे के निर्धारण के तमाम पहलुओं पर विचार करता हुआ पहला ही अध्याय अंतरिम रिपोर्ट में तैयार कर मंत्रालय को भेजा गया था। जब सड़क चौड़ीकरण से संबधित अध्ययन एक ड्राफ्ट अध्याय के रूप में कमिटी के सामने अंतिम रिपोर्ट में निर्णय हेतु रखा गया तो सारे आंकड़े और बुनियादी अध्ययनों के बावजूद कमिटी में कार्यदायी संस्था से जुड़े सदस्य और राज्य सरकार के अधिकारियों ने अंत में सड़क मंत्रालय के चौड़ाई के मानक का यह कहते हुए बचाव करना शुरू कर दिया कि सड़क चौड़ी करने वाली कमेटी तय नहीं कर सकती और यह टर्म ऑफ रेफरेंस (टीओआर) के दायरे से बाहर है। (10 वीं बैठक के मिनट रिकॉर्ड और कार्यदायी संस्था के एक नामित सदस्य द्वारा सौंपा लिखित नोट के मुताबिक)
इसका प्रमाण यह भी है कि किसी भी विशेषज्ञ ने डीएल-पीएस के पक्ष में कोई वैज्ञानिक, व्यावहारिक अथवा पर्यावरणीय तथ्य पेश नहीं किये जो यह बताते हों कि क्यों यह मानक चारधाम परियोजना में लागू होना चाहिए ? सभी सदस्यों को सड़क मंत्रालय द्वारा अप्रूव मानक पर आपत्ति न उठाने को लेकर प्रभावित किया गया, उनको यह विश्वास दिलाया गया कि सड़क की चौड़ाई तय करना आपके दायरे के बाहर की बात है। क्योंकि अंतिम दौर की बैठकों में देहरादून में प्रभावी जमावड़ा परियोजना से जुड़े महकमे वाले लोगों का ही हो पाता था तथा अधिकांश सदस्य दूर से विडियो कांफ्रेस से सीमित भागीदारी ही कर पाते थे, इसलिए गलत प्रभाव खड़ा कर यह वोटिंग डीएल-पीएस मानक के पक्ष में सफल बनायी गयी।
इसलिए अन्य 10 अध्यायों में परियोजना के पर्यावरणीय प्रभावों की विभीषिका को एकमत रूप से दर्ज करने वाले सदस्य अंत में आश्चर्यजनक रूप से निर्णायक अध्याय में खुद ही समस्या के मूल डीएल-पीएस मानक के पक्ष में वोट कर बैठे। यह विरोधाभास और विडम्बना कमिटी की रिपोर्ट में स्पष्ट होता है। इसलिए सड़क चौड़ाई की इस बुनियादी बात को बहुमत से तय करना न्यायसंगत नहीं माना जा सकता, क्योंकि बहुमत का डीएल-पीएस के पक्ष में कोई वैज्ञानिक आधार न होकर केवल यह भ्रामक सोच है कि सड़क की चौड़ाई तय करना उनके दायरे से बाहर की बात है।
परियोजना कार्यों में संलग्न संस्थाओं और भारी भरकम धन-राशि जो इस परियोजना के लिये आवंटित हो चुकी थी, उसे खर्च करने के लिये ही निर्माणकारी कंपनियों के प्रतिनिधि इस गलत और घातक मानक को तमाम पर्यवरणीय दुष्प्रभावों के चलते भी लागू करवाना चाहते हैं। पर्यावरणीय स्वीकृति के बगैर और शर्तों के सरेआम उल्लंघन के साथ कई क्षेत्रों में काम चल रहा है, अवैध डम्पिंग हों रही है, नये-नये क्षेत्र भी ईआईए के पूरा हुए बिना ही खोद डाले गये। सब सदस्यों ने एक मत होकर यह सत्य और तथ्य स्वीकारें हैं।
यदि इस मानक को जारी रखा गया तो पहाड़ी क्षेत्रों विशेषकर संवेदनशील हिमालयी घाटियों को अपूरणीय क्षति पहुंचना तय है। सीमा सुरक्षा की दृष्टि से भी ये मानक सुरक्षित नहीं है। चारधाम परियोजना के शिल्पकारों ने इस मानक में एक किलोमीटर सड़क को अपग्रेड करने की निर्माण लागत 8-10 करोड़ रुपये रखी है, जिसमे वनभूमि को हुए नुकसान और मलबे के निस्तारण की कीमत शामिल नहीं है। इतनी भारी भरकम कीमत को खर्च करने में जुटी निर्माणकारी कंपनियां, ठेकेदार और उनकी पैरवी करने वाले इंजीनीयर, अधिकारी लोग डीएल-पीएस डिजाइन मानक को इतने भारी भरकम पर्यावरणीय नुकसान के बावजूद भी लागू करने पर उतारू हैं।
जब स्वयं केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय की प्लानिंग ज़ोन ने 2018 में यह स्वीकार कर लिया था कि यह मानक पहाड़ी क्षेत्रों के लिये हानिकारक है और इसे संशोधित कर इंटरमीडिएट लेन का मानक जारी कर दिया था, तो भी चारधाम के प्रोजेक्टों में यही डीएल-पीएस का घातक मानक अपनाया गया। मंत्रालय के चारधाम परियोजना प्रभारी ने इस सवाल के लिखित जवाब में जो बताया, उससे यही निकल के आता है कि चूंकि चारधाम परियोजना में धन-आवंटित हों चुका था इसलिए यह मानक चारधाम राजमार्गों के लिये नहीं बदला गया।
यदि केंद्रीय मंत्रालय के प्लानिंग जोन ने अपना निष्कर्ष चारधाम पर तभी लागू कर सुधार कर दिया होता तो देश के हजारों करोड रुपये ऐसे पानी में बहने से बचते, अपेक्षाकृत काफी कम खर्च पर बेहतरीन चारधाम राजमार्ग सुधारीकरण और अपग्रेड होता तथा सैकड़ों हेक्टेयर वन भूमि तथा हजारों हिमालयी वृक्ष कटने से बचते और न ही सर्वोच्च न्यायालय को यह कमिटी बनाने की जरुरत पड़ती।
अब भी जहां काम नहीं हुआ है वहाँ इंटरमीडिएट लेन मानक के अनुसार अपग्रेड कर देश का काफी धन, पर्यावरण संरक्षित कर एक उत्तम और आपदाओं में कम नुकसान पहुंचाने वाला राजमार्ग बनाया जा सकता है। ज्ञात हों कि चारधाम घाटियों की वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं के लिये इंटरमीडिएट लेन राजमार्ग पर्याप्त और सर्वथा अनुकूल है। फिर क्यों डीएल-पीएस जैसे हानिकारक मानक को भागीरथी इको ज़ोन में तक घुसाने की घातक पैरवी की जा रही है ?
चारधाम राजमार्ग में बद्रीनाथ, यमुनोत्री, केदारनाथ राजमार्ग आये दिन भूस्खलन और मलबे की समस्याओं से प्रभावित हो रहे हैं। गंगोत्री राजमार्ग में केवल भागीरथी इको जोन के भीतर की कोई ऐसी खबर देखने में नहीं मिलेगी, क्योंकि अधिसूचना के चलते यहां के पहाड़ी ढाल अभी सुरक्षित हैं और स्थान विशेष को छोड़कर यहां ऐसी घटनाएं बरसात में न के बराबर हैं।
अन्य चारधाम राजमार्गों की अपेक्षा बरसात में सर्वाधिक सुरक्षित राजमार्ग आज की तिथि में भागीरथी इको जोन के भीतर का राजमार्ग का हिस्सा है। यदि यहां भी डीएल-पीएस मानक थोपा गया जो कि वैसे भी अधिसूचना से मेल नहीं खाता तो फिर इको ज़ोन के नियमों का तार-तार होना और गंगोत्री घाटी का भी अशांत और आपदामय होना तय है।
डीएल-पीएस मानक वर्ष 2015 से प्रयोग में आना शुरू हुआ। टोल-टैक्स में लाभ हेतु नई नीति के तहत सड़क मंत्रालय ने यह नया मानक बनाया, जिसके अंतर्गत डबल लेन के राष्ट्रीय राजमार्गों को टोल-टैक्स के दायरे में लाया जा सके। यह मैदानी भागों के लिये तो ठीक था, किन्तु पर्वतीय मार्गों में भारी पर्यावरणीय हानि निहित है, जब केंद्रीय परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय को भी यह ज्ञात हो गया तो उन्होंने 2018 में इसे पर्वतीय मार्गों के लिये संशोधित कर इसके स्थान पर इंटरमीडिएट लेन का प्रावधान कर दिया। किन्तु दुर्भाग्यपूर्ण रूप से चारधाम परियोजना में यह लागू रखा, जिसका खामियाजा आज संवेदनशील हिमालयी घाटियां भुगत रही हैं।
इसके शिल्पकारों से परियोजना के बुनियादी ढांचे (डीएल-पीएस मानक) के चयन में हुई चूक तथा अब इसकी असफलता और हानि को ढकने और उसी स्वरुप को आगे बढ़ाने पर आमादा रहने के अनुचित प्रयास से आहत और विवश हो, आज आपके संज्ञान में विषय को लाने पर हमें विवश होना पड़ रहा है।
विवशता और विडम्बना: गलती समझ आने और सामने दिखने पर भी हम उसे सुधारने के प्रति खुले नहीं हैं। जैसे ही बात इस बुनियादी सुधार की होने लगी तो इसे हमारे दायरे से बाहर की बात बताकर परियोजना कार्यों से जुड़ा तबका सीधे विरोध के स्वर में आ गया। सबसे बड़ा दुर्भाग्य और विडम्बना तो यह रहा है कि परियोजना के इस घातक स्वरुप के पक्षकारों (ठेकेदारों, कंपनी के अधिकारियों, निर्माणकारी एजेंसियों के प्रतिनिधियों) के प्रभाव में हमारा वैज्ञानिक तबका भी तमाम वैज्ञानिक दलीलों को दरकिनार कर डीएल-पीएस के पक्ष में खड़ा हो गया है।
एक पूर्व-निर्धारित मानक में सुधार की बात के विरोध में असहिष्णुता और हमलावर होने का रूप यहां उजागर हो गया है। और चूंकि सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना है तो गलती को न मान उसे जारी रखना ही परियोजना शिल्पकार अपना कायदा बना चुके हैं। हमारी सड़कें अच्छी हों भला इसमें कोई कैसे दो राय रख सकता है, मुद्दा परियोजना के पक्ष/विपक्ष का नहीं अपितु परियोजना के अनुकूल और उचित स्वरुप के क्रियान्वयन से जुड़ा है किन्तु इसे अनावश्यक पक्ष/विपक्ष का रूप देकर सत्य को धूमिल किया जा रहा है, और इस अनुचित प्रयासों को तथाकथित वैज्ञानिक दल का मूक बहुमत प्राप्त है ।
अपील: आशा है उपरोक्त तथ्यों को आप पूर्णतः आत्मसात कर पर्यावरण मूल्यों का विकास योजना में स्थान सुनिश्चित करवा विकास को अनुकूल स्वरुप देकर सतत बनाने में अपनी अमूल्य भूमिका निभाएंगे। पर्वतीय क्षेत्रों में और खासकर संवेदनशील हिमालयी घाटियों में डीएल-पीएस मानक को खारिज करने और इंटरमीडिएट लेन मानक को लागू करवाने को लेकर हिमालयी घाटियों के संरक्षण के मद्देनजर सरकार में सम्यक निर्णय हेतु संवेदनशीलता जगा सकें। (downtoearh)
By Lalit Maurya
एक नए शोध से पता चला है कि यदि शैशव अवस्था में बच्चे के शरीर में आयरन की कमी हो तो वो भविष्य में टीकों के प्रभाव को कम कर सकती है। यह जानकारी ईटीएच ज्यूरिख द्वारा किये शोध में सामने आई है। यह शोध जर्नल फ्रंटियर्स इन इम्म्युनोलॉजी में प्रकाशित हुआ है।
हालांकि पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक टीकाकरण कार्यक्रम में तेजी आई है और यह पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बच्चों तक पहुंच रहा है। इसके बावजूद अब भी हर साल करीब 15 लाख बच्चे उन बीमारियों के कारण मर जाते हैं जिनके टीके उपलब्ध हैं। इनमें से ज्यादातर मौतें कम आय वाले देशों में ही होती हैं। लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया था कि आखिर क्यों टीकाकरण के बावजूद इन गरीब देशों के बच्चे इन बीमारियों का शिकार बन जाते हैं। यह एक बड़ी चिंता का विषय है कि आखिर क्यों इन देशों में टीकाकरण सफल नहीं हो पा रहा है। एक ही तरह की वैक्सीन होने के बावजूद इन देशों में टीके क्यों प्रभावी नहीं होते?
एनीमिया से पीड़ित हैं 42 फीसदी बच्चे और 40 फीसदी गर्भवती महिलाएं
वैज्ञानिकों के अनुसार इसके पीछे की एक बड़ी वजह शिशुओं में आयरन की कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार दुनियाभर में 5 वर्ष से कम उम्र के करीब 42 फीसदी बच्चे और 40 फीसदी गर्भवती महिलाओं में आयरन की कमी है और वो एनीमिया से पीड़ित हैं। इसके पीछे की वजह उनके खाने में आयरन की कमी है। यदि भारत के आंकड़ों पर गौर करें तो नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के अनुसार देश में 5 वर्ष से कम आयु के 58 फीसदी से ज्यादा बच्चे एनीमिया से ग्रस्त हैं। जबकि दूसरी और 15 से 49 वर्ष की करीब 53 फीसद महिलाओं में खून की कमी है।
क्या कहता है अध्ययन
हाल ही में किए दो अध्ययनों से यह बात साबित हो गई है कि बचपन में आयरन की कमी भविष्य में वैक्सीन के प्रभाव को कम कर सकती है। इसे समझने के लिए वैज्ञानिकों ने पहले शोध में केन्या के बच्चों पर अध्ययन किया है। शोधकर्ताओं के अनुसार स्विट्ज़रलैंड में जो बच्चे जन्म लेते हैं उनके शरीर में पर्याप्त मात्रा में आयरन होता है जो आमतौर पर उनके जीवन के पहले 6 महीनों के लिए पर्याप्त होता है। वहीं दूसरी ओर केन्या, भारत, और अन्य पिछड़े देशों में जन्में शिशुओं में आयरन की कमी होती है। विशेषरूप से जिन बच्चों की माताओं में आयरन की कमी होती है, उनके बच्चे भी आयरन की कमी के साथ पैदा होते हैं। साथ ही उन बच्चों का वजन भी कम होता है। इस वजह से उनमें संक्रमण और खूनी दस्त जैसी समस्याएं होती हैं। इस कारण उनके शरीर में मौजूद आयरन भंडार दो से तीन महीनों में ख़त्म हो जाता है।
शोध से पता चला है कि जिन बच्चों के शरीर में खून की कमी थी, उनके कई टीकाकरण के बावजूद डिप्थीरिया, न्यूमोकोकी और अन्य बीमारियों से ग्रस्त होने की सम्भावना अधिक थी, क्योंकिं उनके शरीर में इन बीमारियों के प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता कम विकसित थी। इनमें गैर एनेमिक शिशुओं की तुलना में बीमारियों का जोखिम दोगुना था। इस शोध में आधे से भी अधिक बच्चे 10 सप्ताह की उम्र में एनीमिया से पीड़ित थे। वहीं 24 सप्ताह तक, 90 फीसदी से अधिक हीमोग्लोबिन और रेड सेल्स की कमी का शिकार थे।
रोगाणुओं से निपटने में ज्यादा सक्षम था आयरन सप्लीमेंट पाने वाले बच्चों का शरीर
दूसरे अध्ययन में शोधकर्ताओं ने रोजाना चार महीने तक छह माह के 127 शिशुओं को सूक्ष्म पोषक तत्वों वाला एक पाउडर दिया। 85 बच्चों के पाउडर में आयरन था, बाकि 42 बच्चों को आयरन सप्लीमेंट नहीं दिया गया। जब बच्चों को 9 माह की आयु में खसरे का टीका लगाया गया तो जिन बच्चों को आयरन दिया गया था, उनके शरीर में रोगाणुओं के खिलाफ ज्यादा प्रतिरक्षा विकसित हुई। 12 महीने की उम्र में इन बच्चों का शरीर ने केवल खसरे के रोगाणुओं से बेहतर तरीके से लड़ने में सक्षम था, बल्कि उनके शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली रोगाणुओं को बेहतर ढंग से समझने के भी काबिल थी।
डब्ल्यूएचओ भी आहार में आयरन की पर्याप्त मात्रा लेने की सलाह देता है। शोधकर्ताओं के अनुसार इसको अपनाना महत्वपूर्ण है, क्योंकि छोटे बच्चों के शरीर में मौजूद पर्याप्त मात्रा में आयरन से टीकाकरण कार्यक्रम में भी सफलता मिलेगी। साथ ही इसकी मदद से 15 लाख से भी ज्यादा बच्चों की जिंदगी बचाई जा सकेगी, जिनकी जान हर साल उन बीमारियों से चली जाती है जिन्हें टीकाकरण की मदद से रोका जा सकता है।(downtoearth)
By Rajeshwari Sinha, Amit Khurana, Divya Khatter
हरियाणा के फतेहाबाद जिले में रहने वाले डेरी किसान खैरातीलाल चोकरा अपनी गाय या भैंसों के बीमार पड़ने पर उन्हें एंटीबायोटिक की तगड़ी खुराक देते हैं। एक सिलसिला हफ्ते में दो या तीन जारी रहता है। उत्तर प्रदेश के झांसी में रहने वाले अन्य डेरी किसान सौरभ श्रीवास्तव भी अपने पशुओं को लगातार तीन दिन तक एंटीबायोटिक का इंजेक्शन लगाते हैं। संक्रमण से पशुओं के स्तन ग्रंथि में आई सूजन को दूर करने के लिए वह ऐसा करते हैं। एंटीबायोटिक देने के बाद दूध का रंग बदल जाता है और उससे अजीब सी दुर्गंध आने लगती है। श्रीवास्तव बताते हैं, “दूध का रंग ऐसा हो जाता है जैसे उसमें खून मिल गया हो।” चूंकि दूध बेचकर ही उनका जीवनयापन होता है, इसलिए पशुओं को स्वस्थ रखना उनके लिए बहुत जरूरी होता है। चोकरा के पास 20 गाय व भैंस है, जबकि श्रीवास्तव के पास कुल 92 गाय व भैंस हैं। ये पशु ही उनके जीवन का आधार हैं।
भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने 2018 में देशभर के संगठित और असंगठित क्षेत्र के दूध के नमूनों की जांच की थी। जांचे गए 77 नमूनों में एंटीबायोटिक के अवशेष स्वीकार्य सीमा से अधिक पाए गए थे। लेकिन खाद्य नियामक ने यह नहीं बताया कि ये कौन से एंटीबायोटिक थे या किस ब्रांड के थे। दिल्ली स्थित गैर लाभकारी संगठन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने इस संबंध में सूचना के अधिकार के तहत आवेदन किया, लेकिन लगातार फॉलोअप और अपील के बाद भी स्पष्ट जानकारी नहीं मिली। एंटीबायोटिक के दुरुपयोग और दूध में इसकी मौजूदगी के कारणों का पता लगाने के लिए सीएसई ने प्रमुख दूध उत्पादक राज्यों-पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और तमिलनाडु के किसानों समेत तमाम हितधारकों से बात की।
बीमारी का बोझ
किसान सबसे अधिक परेशान थनैला रोग से होते हैं। पशुओं को होने वाला यह सामान्य रोग है। गलत कृषि पद्धति और दूध दुहने में साफ-सफाई की कमी के कारण पशुओं को यह रोग हो जाता है। अगर कोई पशु दूध दुहने के बाद गंदी जगह बैठ जाता है तो सूक्ष्मजीव थनों के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर पशु को बीमार कर देते हैं। दूध दुहने वाला अगर साफ-सफाई से समझौता कर ले या दूध दुहने में गंदे उपकरणों का इस्तेमाल करे, तब भी थनैला रोग हो सकता है। यह बीमारी विदेशी नस्ल के दूधारू पशुओं और क्रॉसब्रीड पशुओं में बहुत सामान्य होती है।
किसान अस्पतालों के चक्कर काटकर समय बर्बाद नहीं करना चाहते, इसलिए आमतौर पर इस बीमारी का इलाज खुद ही करते हैं। कर्नाटक में कौशिक डेरी फार्म के संचालक पृथ्वी कहते हैं, “अधिकांश मौकों पर सरकारी चिकित्सक उपलब्ध नहीं होते। कंपाउंडर फार्म में आते हैं लेकिन उन्हें बीमारी या उपचार की बहुत कम जानकारी होती है।” वह अन्य किसानों से वाट्सऐप के माध्यम से समस्या पर चर्चा करते हैं और चिकित्सक से फोन पर ही बात कर लेते हैं। निजी चिकित्सकों की फीस भी बहुत ज्यादा होती है। इसके अलावा दवाएं बिना चिकित्सक के परामर्श पर आसानी से मिल जाती हैं।
पशुपालन विभाग (डीएडीएच) का किसान मैन्युअल पशुओं के लिए केवल पेनिसिलिन, जेंटामाइसिन, स्ट्रेप्टोमाइसिन और एनरोफ्लोसेसिन के इस्तेमाल की सुझाव देता है। हालांकि श्रीवास्तव सेफ्टीओफर, अमोक्सीसिलिन, क्लोक्सासिलिन और सेफ्ट्रीएक्सोन-सलबैक्टम का इस्तेमाल करते हैं। उनकी तरह चोकरा भी सेफ्टीजोजाइन या सेफ्ट्रीएक्सोन-टेकोबैक्टम का प्रयोग करते हैं। ये एंटीबायोटिक पशुओं की मांसपेशियों या नसों से उनके शरीर में पहुंचाई जाती हैं। कई बार पशुओं की स्तनग्रंथि में यह इंजेक्शन के जरिए सीधे पहुंचा दी जाती है।
करनाल स्थित नेशनल डेरी रिसर्च इंस्टीट्यूट में वेटरिनरी अधिकारी जितेंदर पुंढीर बताते हैं, “ कौन-सी एंटीबायोटिक कितनी मात्रा में दी जानी चाहिए, किसान यह जाने बिना इंजेक्शन लगा देते हैं। नतीजतन, वे या तो पशुओं को एंटीबायोटिक की कम खुराक देते हैं या अधिक।” बहुत से चिकित्सक भी रोग के कारणों को पता लगाए बिना दवाएं देते हैं। वह आगे कहते हैं, “अगर एंटीबायोटिक अप्रभावी है तो उसे बदला जा सकता है।”हरियाणा के सिरसा में स्थित फरवाई कलां गांव के संदीप कुमार के पास पांच डेरी पशु हैं। वह बताते हैं, “जब किसी पशु को थनैला रोग हो जाता है तो उसका पूरी तरह ठीक होना मुश्किल होता है। उसे लगातार संक्रमण होता रहता है।” कुछ बड़े किसान थनैला बीमारी की रोकथाम के लिए “ड्राई काऊ थेरेपी” का अभ्यास करते हैं। जब कोई पशु दूध नहीं देता, तब बीमारी की रोकथाम के लिए उसकी स्तनग्रंथि में लंबे समय तक असर डालने वाली एंटीबायोटिक डाली जाती है। सोनीपत में रहने वाले डेरी किसान नरेश जैन बताते हैं कि उनके फार्म का हर पशु नियमित रूप से इस प्रक्रिया से गुजरता है।
डेरी पशु बैक्टीरिया से होने वाले रोगों जैसे हेमोरहेजिक सेप्टीसेमिया, ब्लैक क्वार्टर, ब्रूसेलोसिस और मुंह व खुरों के वायरल रोग के संपर्क में आते हैं। सरकार इन रोगों से बचाव के लिए टीके लगाती है लेकिन किसानों की उसमें दिलचस्पी नहीं होती। श्रीवास्तव कहते हैं कि मुझे मुफ्त सरकारी टीकों से अधिक निजी टीकों पर भरोसा है। थनैला रोग का कोई टीका नहीं है। 100 से अधिक सूक्ष्मजीव इस बीमारी का कारण बनते हैं, इसलिए इसका टीका बनाने में मुश्किलें आ रही हैं। हालांकि राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड थनैला रोग को नियंत्रित करने की परियोजना चला रहा है। किसान जब एंटीबायोटिक का जरूरत से अधिक प्रयोग करते हैं तो जिस दूध को हम स्वास्थ्य के लिए लाभदायक मानकर पीते हैं, वह हानिकारण हो जाता है।
दूध की हकीकत
भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश है। 2018-19 में यहां 187.7 मिलियन टन दूध का उत्पादन किया गया। भारत का शहरी क्षेत्र 52 प्रतिशत दूध का उपभोग करता और शेष उपभोग ग्रामीण क्षेत्र के हिस्से आता है। शहरी क्षेत्रों में असंगठित क्षेत्र (दूधिया और ठेकेदार) से 60 प्रतिशत दूध की आपूर्ति होती है। यह दूध क्या वास्तव में अच्छा है?
बहुत बार यह दूध उन बीमार पशुओं से प्राप्त होता है जिन्हें एंटीबायोटिक की भारी खुराक दी जाती है। सीएसई ने जिन किसानों से बात उनमें से अधिकांश को विदड्रोल पीरियड की जानकारी नहीं थी। यह एंटीबायोटिक के अंतिम इस्तेमाल और दूध बेचने से पहले की अवधि होती है। किसानों को इस अवधि में दूध कभी नहीं बेचना चाहिए क्योंकि इस दौरान दूध में एंटीबायोटिक के अंश मिल जाने का खतरा बना रहता है।
हरियाणा के फरीदाबाद जिले में स्थित बादौली गांव में 12 मुर्रा भैसों को पालने वाले सुभाष बताते हैं, “मैं एंटीबायोटिक के प्रयोग के दौरान भी दूध बेचता हूं।” नोएडा में डेरी चलाने वाले जितेंदर यादव कहते हैं कि 7-15 दिन के विदड्रोल पीरियड और उपचार के दौरान अगर किसान दूध नहीं बेचेंगे तो उनकी जिंदगी कैसे चलेगी। धौलपुर में रहने वाले मोहन त्यागी मानते हैं कि वह राज्य के कॉऑपरेटिव ब्रांड पराग को दूध बेचते हैं। अर्जुन भी पशुओं के इलाज के दौरान दूध निकालते हैं। उन्होंने राजस्थान के कोऑपरिटव ब्रांड सरस को दूध बेचा है। हालांकि सरस ने उन्हें ऐसा करने से मना किया है।
विदड्रोल पीरियड के दौरान निकाला गया दूध पीने का नतीजा एंटीबायोटिक रजिस्टेंस के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि एंटीबायोटिक आंतों के बैक्टीरिया पर चयन का दबाव बढ़ाते हैं। अध्ययन बताते हैं उबालकर या पाश्चुरीकरण के द्वारा एंटीबायोटिक को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सकता। वर्ष 2019 में बांग्लादेश एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के शोध में पाया गया है कि दूध को 20 मिनट तक 100 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर उबालकर भी एमोक्सीसिलिन, ऑक्सीटेट्रासिलिन और सिप्रोफ्लोसेसिन के स्तर में परिवर्तन नहीं होता। वेस्ट बंगाल यूनिवर्सिटी ऑफ एनिमल एंड फिशरीज साइंस इन इंडिया के अध्ययन में भी पाया गया है कि पाश्चुरीकरण से दूध में मौजूद क्लोसासिलिन के अवशेषों पर असर नहीं होता।
कंपनियों की जांच
सीएसई ने इस सिलसिले में दूध कोऑपरेटिव संघों से भी बात की और पाया कि अधिकांश डेरी कोऑपरेटिव कभी-कभी ही दूध में एंटीबायोटिक की जांच करते हैं। उपभोक्ताओं को पैकेटबंद और फुटकर दूध की 80 प्रतिशत आपूर्ति कोऑपरेटिव के माध्यम से होती है। इन कोऑपरेटिव में थ्रीटियर व्यवस्था काम करती है। गांवों में डेरी कोऑपरेटिव सोसायटी होती हैं, जिला स्तर पर दूध यूनियन होती हैं और अंत में सर्वोच्च इकाई के रूप में राज्य स्तरीय दूध महासंघ होते हैं। किसानों से डेरी कोऑपरेटिव सोसायटी के माध्यम से दूध लिया जाता है और उसे बड़े-बड़े कूलरों में इकट्ठा किया जाता है। फिर इसे टैंकरों में भरकर जिला स्तरीय प्रोसेसिंग प्लांट में भेजा जाता है।
अब तक दूध महासंघों का ध्यान दूध से यूरिया, स्टार्च और डिटर्जेंट हटाने पर ही केंद्रित रहा है। एंटीबायोटिक की मौजूदगी पता लगाना उनकी प्राथमिकता में शामिल नहीं है। पराग में क्वालिटी एश्योरेंस की इंचार्ज शबनम चोपड़ा ने ईमेल के जवाब में बताया कि कंपनी में अब तक एंटीबायोटिक की मौजूदगी का कोई मामला सामने नहीं आया है। ईमेल के जवाब में वह लिखती हैं, “हमने प्रमुख डेरी प्रयोगशालाओं को अपग्रेड किया है। इनको एंटीबायोटिक जांच किट उपलब्ध कराई गई हैं। यहां आने वाले दूध की रूटवार जांच की जाती है। हर छह महीने में हम अपने दूध और उससे बने उत्पादों की जांच करते हैं। यह जांच पोषण मूल्यों, जीवाणुओं, एंटीबायोटिक के अवशेष और पशु दवा के अवशेषों का पता लगाने के लिए होती है।”
नंदिनी दूध ब्रांड तैयार करने वाले कर्नाटक दूध महासंघ के अडिशनल डायरेक्टर तिरुपथप्पा ने सीएसई को बताया, “छह महीने में एक बार दूध में एंटीबायोटिक की जांच की जाती है। यह जांच एनएबीएल से अधिकृत प्रयोगशाला में आईएसओ मानकों के मुताबिक होती है।” राजस्थान में सरस, पंजाब में वेरका और हरियाणा में वीटा दूध बेचने वाले महासंघ के अधिकारियों ने भी ऐसी ही जांच की बात की। ग्वालियर सहकारी दुग्ध संघ के एक प्रतिनिधि ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया, “जगह-जगह से लाए गए दूध में एंटीबायोटिक की जांच हमारे पास मौजूद प्रयोगशालाओं से संभव नहीं है।” यह संघ मध्य प्रदेश राज्य कोऑपरेटिव डेरी महासंघ से संबद्ध है जो सांची नामक दूध का ब्रांड बेचता है। वह बताते हैं, “जांच के लिए प्रयोगशालाओं से प्रमाणित अत्यंत आधुनिक उपकरणों की जरूरत है।”
हालांकि कुछ कोऑपरेटिव ने माना कि वे नियमित जांच करते हैं। उदाहरण के लिए देशभर में सबसे लोकप्रिय अमूल दूध बेचने वाले गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड को ही लीजिए। अमूल में क्वालिटी एश्योरेंस के वरिष्ठ प्रबंधक समीर सक्सेना ने कहा, “सभी टैंकरों में आने वाले दूध में एंटीबायोटिक के अंश पता लगाने के लिए प्रतिदिन जांच की जाती है। हालांकि एफएसएसएआई इतनी जांच का सुझाव नहीं देता। रोजाना लगभग 700 नमूनों की जांच की जाती है।” अमूल प्रतिदिन करीब 23 मिलियन टन दूध जुटाता है। वह बताते हैं, “विभिन्न सोसायटी द्वारा इकट्ठा और टैंकरों के माध्यम से भेजे गए दूध के सैंपलों में एंटीबायोटिक नहीं पाया गया है।” हालांकि, जब सीएसई ने अमूल से परीक्षण रिपोर्ट साझा करने के लिए कहा तो कंपनी ने कोई जवाब नहीं दिया।
मालाबार क्षेत्रीय सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ (एमारसीएमपीयू ), जो केरल सहकारी दुग्ध विपणन महासंघ के तहत काम करता है, का दावा है कि वे तीन स्तरों पर परीक्षण करते हैं। टैंकर के नमूनों की दैनिक जांच के अलावा हर दो महीने में किसानों की व्यक्तिगत एवं सामुदायिक जांच की जाती है ताकि समस्या के मूल कारणों का पता लगाया जा सके। यह पूछे जाने पर कि परीक्षण किए गए नमूनों में एंटीबायोटिक्स का पता लगने पर क्या किया जाता है, एमारसीएमपीयू के वरिष्ठ प्रबंधक जेम्स केसी ने कहा, “हमारे पास किसान का पता लगाने के लिए एक ट्रेसबिलिटी तंत्र है।”
सांची में संयंत्र संचालन प्रभाग के एक अधिकारी का कहना है, “गांवों में हमारे कार्यकर्ता प्रदूषण के संभावित स्रोत से वाकिफ होते हैं। दोषी पाए जाने पर किसान को चेतावनी दी जाती है। यदि वह गलती दोहराता है, तो उसे पंजीकृत किसानों की सूची से हटा दिया जाता है।” इससे यह साफ जाहिर होता है कि परीक्षण केवल तभी किए जाते हैं जब संदेह उत्पन्न होता है।
सीएसई ने अन्य प्रमुख ब्रांडों जैसे मदर डेरी के अलावा नेस्ले और गोपालजी जैसे निजी ब्रांडों से भी इस विषय में जानकारी ली। नेस्ले ने दावा किया कि उनके द्वारा प्रोसेस करके बेचे गए दूध का परीक्षण सरकारी मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं में गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों तरीकों से किया जाता है। जब कंपनी से लैब परीक्षण रिपोर्ट दिखाने का अनुरोध किया गया, तो कंपनी के प्रतिनिधि ने कहा कि वह रिपोर्ट साझा नहीं करते। मदर डेरी और गोपालजी ने तो इस पर कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी। एफएसएसएआई ने हाल ही में एंटीबायोटिक का पता लगाने और डेरी प्रसंस्करण के लिए दूध के परीक्षण और निरीक्षण (स्कीम ऑफ टेस्टिंग एंड इंस्फेक्शन यानी एसटीआई) की तीन किटों को मंजूरी दी है। एसटीआई के अनुसार, एंटीबायोटिक्स और पशु चिकित्सा दवाओं के अवशेषों की निगरानी दो निरीक्षण बिंदुओं पर की जाएगी। लेकिन निरीक्षण की आवृत्ति त्रैमासिक है, जिसके कारण इसका कोई खास फायदा नहीं मिल पाता।
बड़े पैमाने पर दुरुपयोग
अज्ञानी डेरी फार्म वाले इंसानों के लिए आवश्यक एंटीबायोटिकों का इंजेक्शन पशुओं को बिना कुछ सोचे विचारे लगाते जा रहे हैं
* डिपार्टमेंट ऑफ ऐनिमल हज़्बन्ड्री के फार्मर मैनुअल ने मैस्टाइटीस के उपचार के लिए इसकी सिफारिश की है। एंथ्रेक्स और ब्लैक क्वार्टर के उपचार के लिए पेनिसिलिन और गायों के तपेदिक के लिए स्ट्रेप्टोमाइसिन
सेफटीओफर एवं एनरोफलोक्सासीन का पशुओं के इलाज में इस्तेमाल होता है जिसके फलस्वरूप इसी श्रेणी की अन्य दवाइयों, जो मानवों के लिए अति महत्वपूर्ण हैं, के प्रति जीवाणुओं में प्रतिरोध विकसित हो सकता है
हम पर असर
भारतीय डेरी क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमारे पास पशुधन रोगों के लिए कोई मानक उपचार दिशानिर्देश नहीं हैं। अतः पशु चिकित्सक किसी एक मानक दस्तावेज को आधार मानकर एंटीबायोटिक्स नहीं लिख सकते। किसान अपने पशुओं पर उन एंटीबायोटिक दवाओं का अंधाधुंध उपयोग करते हैं जो मनुष्यों के लिए भी जरूरी हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार गैर-मानव स्रोतों से होने वाले बैक्टीरिया जनित मानव संक्रमण के इलाज के लिए कुछ खास उपचार हैं, क्रिटिकली इम्पॉर्टेन्ट एंटीमाइक्रोबियल्स (सीआईएए ) जिनमें से एक हैं। इनमें से कुछ को हाईएस्ट प्रायोरिटी क्रिटिकली इम्पॉर्टेन्ट एंटीमाइक्रोबियल (एचपीसीआइए) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारत में तीसरी पीढ़ी के सेफलोस्पोरिन के विरुद्ध जीवाणु प्रतिरोध पहले से ही उच्च है, उदाहरण के लिए एस्चेरिचिया कोलाई और क्लेबसेला निमोनिया 75 प्रतिशत से अधिक प्रतिरोध दिखा रहे हैं । ये दोनों बैक्टीरिया कई आम संक्रमणों के लिए जिम्मेदार हैं।
नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल के नेशनल एएमआर सर्विलांस नेटवर्क द्वारा 2018 में एकत्रित आंकड़ों के मुताबिक, ई कोलाई में एम्पीसिलीन के विरुद्ध 86 से 93 प्रतिशत और सेफोटैक्सिम के विरुद्ध 82 से 87 प्रतिशत का प्रतिरोध दिखाया गया है। इसी तरह, के. निमोनिया में सेफोटैक्सिम के विरुद्ध प्रतिरोध 81 से 89 प्रतिशत था। 2019 में साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक अध्ययन में मध्य प्रदेश के एक ग्रामीण क्षेत्र में एक और तीन साल के बीच के 125 बच्चों के एक समूह में कॉमेन्सल (सहजीवी) ई कोलाई के विरुद्ध उच्च स्तर के प्रतिरोध की सूचना मिली थी। एम्पीसिलिन के लिए सबसे अधिक प्रतिरोध देखा गया, जबकि प्रत्येक बच्चे में सेफलोस्पोरिन के विरुद्ध 90 प्रतिशत से अधिक प्रतिरोध देखा गया ।
हम लगातार वातावरण में एंटीबायोटिक दवाएं उत्सर्जित कर रहे हैं और यह चिंता का विषय है। जानवरों को दी जाने वाली एंटीबायोटिक दवाओं में से लगभग 70 प्रतिशत बिना पचे निकल जाती हैं। चूंकि गाय और भैंस के गोबर का उपयोग कृषि फार्मों में खाद के रूप में किया जाता है, इसलिए यह मिट्टी के जीवाणुओं को प्रतिरोधी और पर्यावरण को रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एंटीमाइक्रोबिअल रेजिस्टेंस) का भंडार बना सकता है। भोजन के अलावा डेरी पशुओं के कचरे के प्रत्यक्ष संपर्क में आने से भी मनुष्यों को दवा प्रतिरोधी संक्रमण हो सकता है। इसके अलावा, यह संक्रमण पर्यावरण के माध्यम से भी फैल सकता है।
समाधान
भारत में दूध देने वाले पशुओं की संख्या लगभग 30 करोड़ के बराबर है। जाहिर है कि सीआईए भी विशाल पैमाने पर उपयोग में लाए जाते हैं। एंटीबायोटिक प्रतिरोध के भारी बोझ को कम करने के लिए एचपीसीआइए के इस्तेमाल पर रोक लगाने और सीआईए के दुरुपयोग को कम करने के लिए विस्तृत एवं सुपरिभाषित रोडमैप की आवश्यकता है। डीएएचडी को एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग को कम करने के लिए मानक उपचार दिशानिर्देश विकसित करने चाहिए। पशु चिकित्सा विस्तार प्रणाली को भी मजबूत किए जाने की आवश्यकता है। डीएएचडी को अपने कार्यक्रमों के माध्यम से बीमारियों के लिए वैक्सीन कवरेज का विस्तार करना चाहिए। साथ ही किसानों के लिए जागरुकता अभियान चलाना चाहिए ताकि वे दूध बेचने से पहले “विदड्रोल पीरियड” का पालन करें। थनैला जैसे रोगों को रोकने के लिए अच्छे खेत प्रबंधन और स्वच्छता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
अब समय आ चुका है जब एफएसएसएआई एंटीबायोटिक दवाओं जैसे एमोक्सिसिलिन, केफटरियाजोन और जेंटामाइसिन के लिए टोलेरेन्स लिमिट का निर्धारण करे। ये दवाइयां डेरी जानवरों के उपचार के लिए इस्तेमाल की जाती हैं किन्तु एफएसएसएआई द्वारा सूचीबद्ध नहीं है। बिना किसी टोलरेंस लिमिट वाले एंटीबायोटिक्स का उपयोग पशुओं पर करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। नियामक संस्था को राज्य के खाद्य और औषधि प्रशासन को दूध में मिलने वाले एंटीबायोटिक की निगरानी को मजबूत करने और आंकड़ों को सार्वजनिक करने में मदद करनी चाहिए। एफएसएसएआई को एसटीआई के मानकों के अनुरूप दूध के परीक्षण की आवृत्ति को बढ़ाने और इसके कार्यान्वयन में राज्यों की मदद करने की भी आवश्यकता है। केंद्रीय औषध मानक नियंत्रण संगठन को एंटीबायोटिक दवाओं की ओवर-द-काउंटर बिक्री को विनियमित करना चाहिए। राज्य स्तर के अधिकारियों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है कि बिना डॉक्टर के पर्चे के एंटीबायोटिक की बिक्री न हो।
इसके अलावा इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च को प्रारंभिक रोग निदान के लिए कम लागत वाले डायग्नोस्टिक्स का भी विकास करना चाहिए और सभी स्तरों पर एंटीबायोटिक अवशेषों की निगरानी करनी चाहिए चाहे वे खेत, पशु चिकित्सा केंद्र या दूध संग्रह केंद्र हो। डेरी फार्म कचरे के साथ एएमआर के पर्यावरण प्रसार के लिंकेज को ध्यान में रखते हुए, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि डेरी फार्मों और गौशालाओं के पर्यावरण प्रबंधन के लिए बनाए गए इसके दिशानिर्देशों का पालन किया जाए।
आखिर क्या करें किसान
जीवाणु संक्रमण कम कैसे हो और एंटीबायोटिक के दुरुपयोग पर कैसे लगाम लगे
पशु शेड को साफ, सूखा रखें
पशु को दुहने के पहले और बाद उसके थनों को साफ करें
स्वच्छ उपकरणों का उपयोग करें एवं पशुओं को दुहने के लिए सही और स्वच्छ तरीकों का पालन करें
दूध देने के कम से कम 30 से 45 मिनट बाद पशु को बैठने से रोकें
क्रोनिक थनैला वाले पशुओं को सबसे अंत में दुहें
बीमार अथवा संक्रमित पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग रखें एवं उनके संपर्क में आए चारे को नष्ट कर दें
उपचार के लिए एथनोवेटेरिनरी दवाओं को प्रयोग में लाएं
नियमित रूप से पशुओं का टीकाकरण करें
एंटीबायोटिक का विवेकपूर्ण तरीके से उपयोग करें
शीघ्र रोग नियंत्रण के लिए अधिकारियों को सूचित करें(downtoearth)
-नवीन सिंह खड़का
बीबीसी पर्यावरण संवाददाता
लेड पॉइज़निंग यानी सीसे के ज़हर से संबंधित एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार बच्चों में लेड यानी सीसे के ज़हर के मामले में दुनिया भर में भारत सबसे आगे है.
यूनिसेफ़ और प्योरअर्थ नाम के एक संगठन द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में हर तीन बच्चे में से एक लेड पॉइज़निंग का शिकार है जिसके कारण उसकी सेहत को गंभीर नुक़सान पहुंच सकता है.
रिपोर्ट के अनुसार विश्व में 80 करोड़ बच्चे लेड पॉइज़निंग से प्रभावित हैं और इनमें से अधिकांश गरीब और कम आय वाल देशों में हैं. इतनी बड़े पैमाने पर लेड के असर को पहले माना नहीं गया था.
इतनी बड़ी संख्या का आधा हिस्सा अकेले दक्षिण एशिया में हैं जबकि भारत में सीसा से 27.5 करोड़ बच्चे प्रभावित हैं.
'मेरे बेटे की उल्टियां नहीं रुक रहीं'
साल 2009 में चार साल के सरबजीत सिंह को लगातार उल्टियां हो रही थीं. उनके पिता मनजीत सिंह को समझ नहीं आ रहा था कि उनके बेटे की उल्टियां रुक क्यों नहीं रहीं.
उत्तर प्रदेश में रहने वाले मनजीत सिंह अपने बेटे को लेकर डॉक्टर के पास पहुंचे. शुरूआती जांच में डॉक्टर ने उनसे कहा कि सरबजीत के अनीमिया है यानी ख़ून की कमी है. हालांकि इसका कारण डॉक्टर नहीं बता पाए.
अगले कुछ महीनों तक सरबजीत सिंह की तबीयत में कुछ अधिक सुधार नहीं हुआ, उसे बार-बार उल्टियां होती रहीं.
जब सरबजीत के ख़ून की जांच हुई तो पता चला कि उसके ख़ून में सीसा की मात्रा जितनी होनी चाहिए उससे चालीस फीसदी अधिक थी.
सीसा के जोखिम के संबंध में हुए वैश्विक शोध के अनुसार सरबजीत दुनिया के उन 80 करोड़ बच्चों में से एक है जो घातक सीसा के संपर्क में आया है और जिसके कारण उसके स्वास्थ्य को गंभीर क्षति पहुंची है.
इस रिपोर्ट में यूनिवर्सिटी ऑफ़ वॉशिंगटन के किए आकलन ग्लोबल बर्डन ऑफ़ डिज़ीज़ेज़ और इंस्टीट्यूट ऑफ़ हेल्थ एंड इवेल्युएशन के आंकड़ों के विस्तार से विश्लेषण किया गया है.
लेड पॉइज़निंग का असर बच्चों के मस्तिष्क, उनके दिमाग़, दिन, फेफड़ों और गुर्दे पर होता है.
रिपोर्ट में कहा गया है, "लेड एक शक्तिशाली न्यूरोटॉक्सिन है यानी दिमाग़ की नसों को पर असर करने वाला ज़हर है. कम एक्सपोज़र के मामलों में बच्चों में बुद्धिमत्ता की कमी यानी कम आईक्यू स्कोर, कम ध्यान देना और जीवन में आगे चल कर हिंसक व्यवहार और यहां तक कि आपराधिक व्यवहार का कारण भी बन सकता है."
"अजन्मे बच्चों और 5 साल से कम उम्र के बच्चों को सीसा के कारण अधिक जोखिम हो सकता है. उनमें इस कारण हमेशा के लिए मानसिक और कॉग्निटिव समस्याएं यानी समझ और बुद्धिमत्ता की कमी और पर्मानेंट शारीरिक हानि भी हो सकती है. लेड पॉइज़निंग के कारण कई बच्चों में मौत का भी ख़तरा हो सकता है."
भारत के बाद जो देश बच्चों में लेड पॉइज़निंग से सबसे बुरी तरह प्रभावित हैं वो हैं, अफ्रीका और नाइजीरिया. वहीं इस सूची में तीसरे और चौथे स्थान पर पाकिस्तान और बांग्लादेश का नाम है.
किन कारणों से हो सकती है लेड पॉइज़निंग
रिपोर्ट के अनुसार लेड पॉइज़निंग का प्रमुख कारण लेड एसिड बैटरी का असुरक्षित तरीके से री-साइक्लिंग करना है.
लेकिन इसके साथ ही इलेक्ट्रॉनिक कचरा, ख़नन और मसालों में इसके इस्तेमाल, पेंट, बच्चों के खिलौने भी सीसा के अहम स्रोत हो सकते हैं.
रिपोर्ट के प्रमुख लेखक निकोलस रीस ने बीबीसी को बताया, "साल 2000 के बाद से गरीब औऱ कम आय वाले देशों में गाड़ियों की संख्या में भारी इज़ाफा हुआ है और इस कारण लेड एसिट बैटरी के इस्तेमाल और इनकी रीसाइक्लिंग में भी इज़ाफा हुआ है. इनकी री-साइक्लिंग कई बार असुरक्षित तरीके से की जाती है."
रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में लेड का जितना कुल उत्पादन होता है उसके 85 फीसदी हिस्से का इस्तेमाल लेड एसिड बैटरी बनाने में होता है. इसका एक बड़ा हिस्सा गाड़ियों में इ्तेमाल होने वाले लेड बैटरी की रीसाइक्लिंग से आता है.
रिपोर्ट के अनुसार, "नतीजा ये होता है कि इस्तेमाल की जा चुकी लेड एसिड बैटरी में से कम से कम बैटरियां अनौपचारिक अर्थव्यवस्था तक पहुंचती हैं."
"अनियंत्रित तरीके से और अधिकतर अवैध रूप से होने वाले इस रीसाइक्लिंग के काम में लेड बैटरी को असुरक्षित तरीके से खोला जाता है. इस कारण एसिड और लेड डस्ट ज़मीन पर गिरता है, खुली भट्टियों में लेड को पिघलाया जाता है जिससे इसका ज़हरीला धुंआ हवा में फैलता है और आस पास के पूरे इलाक़े को प्रदूषित करता है."
घरों में बैटरी रीसाइक्लिंग का काम
जानकार कहते हैं कि भारत में ये चिंता का विषय है.
रिपोर्ट के सह-प्रकाशक प्योरअर्थ की प्रोमिला शर्मा कहती हैं, "हमने पूरे भारत में मौजूद 300 लीड-दूषित जगहों का आकलन किया है, इनमें से ज़्यादातर अनौपचारिक बैटरी रीसाइक्लिंग की जगहें हैं और अलग-अलग तरह के कारखानों वाले ओद्योगिक इलाक़े हैं."
इकट्ठा किए तथ्यों का आकलन अलग से उनकी संस्था ने किया था जो एक स्वयंसेवी संगठन है और पार्यावरण के मानव और धरती पर असर पर काम करती है.
प्रोमिला कहती हैं, "हमारा आकलन इस पहाड़ जैसी मुश्किल समस्या का छोटा-सा हिस्सा है."
वो कहती हैं "ऐसी कई जगहें हैं जहा लेड एसिड बैटरी की अवैध रीसाइक्लिंग होती है, लेकिन अक्सर इन जगहों पर काम छिप कर किया जाता है. कई बार घरों के पिछवाड़े में लोग ये काम करते हैं और इससे उस इलाके में रहने वालों के लिए ख़तरा बढ़ जाता है."
उनके संगठन ने पाया कि पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में इस तरह के अनियमित लेट-एसिड बैटरी रीसाइक्लिंग का काम सबसे अधिक होता है.
"हमने यह भी पाया कि इन जगहों पर अब बांग्लादेश और नेपाल से आयात की गई पुरानी बैटरियों की री-साइक्लिंग का काम भी अधिक हो रहा है."
दस साल पहले तक उत्तर प्रदेश के रहने वाले मनजीत सिंह बैटरियों की रीसाइक्लिंग का काम कर अपने परिवार के पेट भर रहे थे. वो ये बैटरी अपने घर पर ही रखा करते थे.
मनजीत कहते हैं, "मुझे इस बात के बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि मेरे काम के कारण मेरे बेटे की तबीयत इस कदर बिगड़ जाएगी."
बेटे का स्वास्थ्य बिगड़ने के बाद मनजीत ने ये काम तुरंत छोड़ दिया. कई साल तक सरबजीत का इलाज चलता रहा, उसके शरीर में कई बार ख़ून चढ़ाया गया. सरबजीत के शरीर के निचले अंग विकृत हो गए थे और उसे चलने के लिए ख़ास जूतों की ज़रूरत पड़ने लगी.
इस बात को दस साल बीत चुके हैं और अब सरबजीत की सेहत में सुधार दिखने लगा है. सरबजीत सिंह अब 16 साल का है और स्कूल में उसकी पढ़ाई भी ठीक चल रही है.
लेकिन उसके परिवार को उसकी फिक्र रहती हैं क्योंकि उसके ख़ून में अब भी सीसा की मात्रा अधिक है.
मनजीत सिंह कहते हैं, "अब उसे एनीमिया नहीं है लेकिन उसे हाइपरएक्टिविटी जैसी दूसरी स्वास्थ्य समस्याएं हैं."
इन्वर्टर से लेड लीक होने की समस्या
भारत में लेड के संपर्क में आने की एक बड़ी वजह इन्वर्टर को भी बताया जाता है, जिसका इस्तेमाल बिजली कटौती के दौरान घरों या दुकानों में बिजली की आपूर्ति के लिए किया जाता है.
लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में बायोकेमिस्ट्री विभाग के प्रमुख डॉक्टर अब्बास मेहदी कहते हैं, "उत्तर प्रदेश में हमने एक ऐसा ही मामला देखा जिसमें इन्वर्टर से लीक होने वाले लेड का बुरा असर बच्चे के स्वास्थ्य पर पड़ने लगा था."
"बच्चे के माता-पिता इस बात से बिल्कुल अनजान थे कि इन्वर्टर से गिरने वाला तरल पदार्थ, जिसको वो पोंछे से साफ कर रहे हैं वो असल में ऐसा कर के उसे पूरे फर्श पर फैला रहे हैं. इसी फर्श पर उनका बच्चा खेला करता था और उसके शरीर में लेड जाने लगा."
भारत में इलेक्ट्रॉनिक के कचरे और खनन के उत्पादों के अनियमित संचालन से भी लेड पॉइज़निंग का ख़तरा हो सकता है.
मानव शरीर में सीसा पहुंचने का एक और स्रोत कुछ मसाले और हर्बल दवाइयां भी हो सकती हैं.
डॉक्टर अब्बास मेहदी कहते हैं, "हल्दी और लाल मिर्च के पावडर में सीसा प्रिज़र्वेटिव के रूप में इस्तेमाल किया जाता है और कुछ मामलों में उनका रंग बढ़ाने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता है."
यूनिसेफ़ की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 27.5 करोड़ बच्चों के ख़ून में सीसा की मात्रा पांच माइक्रोग्राम प्रति डेसीलिटर तक है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन और अमरीका के सेन्टर ऑफ़ डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रीवेन्शन के अनुसार सीसा का ये स्तर ख़तरनाक है और इसे सरकारों के इस माममे में कदम उठाने की ज़रूरत है.
बच्चों के लिए क्यों है अधिक जोखिम?
रिपोर्ट के अनुसार शिशुओं और पांच साल से कम उम्र के बच्चों के लिए लेड पॉइज़निंग का जोखिम अधिक है क्योंकि ये उनके मस्तिष्क को पूरी तरह बनने से पहले ही नुक़सान पहुंचाना शुरू कर देता है. इस कारण उन्हें हमेशा के लिए मानसिक और कॉग्निटिव समस्याएं पैदा कर सकता है. उनके किसी अंग में इस कारण विकृति भी आ सकती है.
जानकार कहते हैं कि शरीर के वजन के अनुपात की तुलना में वयस्कों के मुकाबले बच्चे पांच गुना अधिक खाना खाते हैं, पानी पीते हैं और हवा भीतर लेते हैं.
निकोलस रीस कहते हैं, "इसका मतलब ये है कि वो ज़मीन, पानी या हवा में फैले इस घातक न्यूरोटॉक्सिन को भी बड़ों के मुकाबले अधिक मात्रा में शरीर में अवशोषित कर सकते हैं."
रिपोर्ट के अनुसार कम उम्र में लेड के संपर्क में आने के ख़तरे के मामले में सबसे बड़ी चुनौती ये है कि इसके लक्षण कई साल तक दिखाई नहीं देते. ख़ास कर जब एक्पोज़र का स्तर कम हो और ख़ून में इसकी मात्रा कम हो.
डॉक्टर मेहदी कहते हैं, "इस मामले में जागरूकता की कमी अभी भी बड़ा मुद्दा है, लेकिन धीरे-धीरे स्थिति में सुधार हो रहा है."
वो कहते हैं "भारत में साल 2000 में लीड वाले ईंधन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. अब देश में इस्तेमाल होने वाले पेंट्स में भी लीड की मात्रा सीमित कर 90 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) करने की ज़रूरत है."
लेकिन ये सवाल अभी भी जस का तस है कि क्या लेड एसिड बैटरी, इलेक्ट्रॉनिक कचरा और मसालों में लेड के इस्तेमाल को नियंत्रित किया जाएगा?(bbc)
-प्रदीप कुमार
बीबीसी संवाददाता
राज्य सभा सांसद अमर सिंह का लंबी बीमारी के बाद शनिवार को सिंगापुर के एक अस्पताल में निधन हो गया. वे 64 वर्ष के थे.
अमर सिंह की कहानी भारतीय राजनीति में बीते दो दशक के दौरान किसी अमर चित्र कथा की तरह रही. वे एक दौर में समाजवादी पार्टी के सबसे प्रभावशाली नेता रहे, फिर पार्टी से बाहर कर दिये गए जिसके बाद भी उन्होंने ज़ोरदार वापसी की.
इस दौरान गंभीर बीमारी और राजनीतिक रूप से हाशिए पर चले जाने के चलते वे कुछ समय तक राजनीतिक पटल से ग़ायब ज़रूर हुए लेकिन अपने पुराने रंग को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा.
इसी वजह से यह सवाल हमेशा उठता रहा कि 'आख़िर अमर सिंह में ऐसा क्या है जिसके चलते मुलायम सिंह का उन पर भरोसा हमेशा बना रहा?'
कुछ लोग हमेशा यह दावा करते रहे कि भारतीय राजनीति में संसाधनों की बहुत ज़रूरत होती है और अमर सिंह इन्हें जुटाने में 'मास्टर' थे. वहीं राजनीतिक गलियारों में दबे-छिपे जो अटकलें लगायी जाती रही, वो ये कि 'मुलायम सिंह की किसी कमज़ोर नस को अमर सिंह बखूबी जानते थे.'
पर इसकी सही वजह क्या थी? और अमर सिंह की दमदार वापसी आख़िर कैसे हुई?
2016 में यूपी विधानसभा चुनाव से पहले इन सवालों के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार अंबिकानंद सहाय ने कहा था, "सबसे बड़ी वजह तो ये थे कि मुलायम सिंह अमर सिंह पर बहुत भरोसा करते थे. राजनीति में जिस तरह की ज़रूरतें रहती हैं, चाहे वो संसाधन जुटाने की बात हो या जोड़ तोड़ यानी नेटवर्किंग का मसला हो, उन सबको देखते हुए वे अमर सिंह को पार्टी के लिए उपयुक्त मानते थे. ये बात अपनी जगह बिल्कुल सही है कि अमर सिंह 'नेटवर्किंग के बादशाह' आदमी थे."
समाजवादी पार्टी में वापसी से पहले क़रीब छह साल तक अमर सिंह सक्रिय राजनीति से दूर रहे.
उस समय वे गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे. हालांकि उस दौर में उन्होंने अपने लिए दूसरे दरवाज़े भी देखे. ख़ुद की राजनीतिक पार्टी भी बनाई लेकिन राष्ट्रीय लोक मंच के उम्मीदवारों की 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान ज़मानत ज़ब्त हो गई.
2014 में वे राष्ट्रीय लोक दल से लोकसभा का चुनाव लड़े, पर बुरी तरह हारे.
इतना ही नहीं, उन्होंने कांग्रेस में शामिल होने की भी ख़ूब कोशिश की, लेकिन कहीं उनकी दाल नहीं गली और आख़िर में उन्हें ठिकाना उसी पार्टी में मिला जिसके रंग ढंग को अमर सिंह ने बदल दिया था.
मुलायम का भरोसा
कभी 'धरती-पुत्र' कहे जाने वाले मुलायम सिंह और किसानों व पिछड़ों की पार्टी - समाजवादी पार्टी को आधुनिक और चमक-धमक वाली राजनीतिक पार्टी में तब्दील करने वाले अमर सिंह ही थे.
चाहे वो जया प्रदा को सांसद बनाना हो, या फिर जया बच्चन को राज्य सभा पहुँचाना हो, या फिर संजय दत्त को पार्टी में शामिल करवाना रहा हो, ये सब अमर सिंह का करिश्मा था. उन्होंने उत्तर प्रदेश के लिए शीर्ष कारोबारियों को एक मंच पर लाने का भी प्रयास किया.
एक समय में समाजवादी पार्टी में अमर सिंह की हैसियत ऐसी थी कि उनके चलते आज़म ख़ान, बेनी प्रसाद वर्मा जैसे मुलायम के नज़दीकी नेता नाराज़ होकर पार्टी छोड़ गए थे.
लेकिन मुलायम का भरोसा अमर सिंह पर बना रहा. दरअसल, मुलायम-अमर के रिश्ते की नींव एचडी देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने के साथ शुरू हुई थी.
देवेगौड़ा हिंदी नहीं बोल पाते थे और मुलायम अंग्रेजी. ऐसे में देवेगौड़ा और मुलायम के बीच दुभाषिए की भूमिका अमर सिंह ही निभाते थे. तब से शुरू हुआ ये साथ, लगभग अंत तक जारी रहा.
अमर-मुलायम के रिश्ते के बारे में वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार शरद गुप्ता कहते हैं, "अमर सिंह की बात मुलायम कितना मानते थे, इसका उदाहरण है कि अखिलेश और डिंपल की शादी के लिए मुलायम पहले तैयार नहीं थे, लेकिन ये अमर सिंह ही थे जिन्होंने मुलायम को इस शादी के लिए तैयार किया."
अंबिकानंद सहाय कहते हैं, "दरअसल मुलायम कभी अपना कोई काम ख़ुद से किसी को करने के लिए नहीं कह सकते. इतने लंबे राजनीतिक जीवन में उनकी ऐसी आदत ही नहीं रही. वे मंझे हुए राजनेता हैं, लेकिन राजनीति में उन्हें ढेरों काम करवाने भी होते हैं. एक दौर ऐसा भी था कि जिस किसी के काम को मुलायम करवाना चाहते थे, तो बस यही कहते थे कि अमर सिंह को बोल दूंगा, हो जाएगा."
राजनीतिक हैसियत
उसी दौर में देश में गठबंधन की राजनीति का दौर चला और इसमें समाजवादी पार्टी जैसी 20 से 30 सीटों वाली पार्टियों की अहमियत बढ़ी और जानकार मानते हैं कि इसके साथ ही अमर सिंह की भूमिका भी ख़ूब बढ़ी.
इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं. एक वाकया तो यही है कि 1999 में सोनिया गांधी ने 272 सांसदों के समर्थन का दावा कर दिया था, लेकिन उसके बाद समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को अपना समर्थन नहीं दिया और सोनिया गांधी की ख़ूब किरकिरी हुई.
इसके बाद 2008 में भारत की न्यूक्लियर डील के दौरान वामपंथी दलों ने समर्थन वापस लेकर मनमोहन सिंह सरकार को अल्पमत में ला दिया. तब अमर सिंह ने ही समाजवादी सांसदों के साथ-साथ कई निर्दलीय सांसदों को भी सरकार के पाले में ला खड़ा किया था.
विवादों में
संसद में नोटों की गड्ढी लहराने का मामला भी देश ने देखा और इस मामले में अमर सिंह को तिहाड़ जेल भी जाना पड़ा था.
उस दौर में मीडिया के सामने वो टेप भी आये जिनमें कथित तौर पर बिपाशा बसु का नाम लेकर की गई अमर सिंह की बातों ने उनके व्यक्तित्व की एक और परत को बंद दरवाज़ों के पीछे चर्चा का विषय बना दिया था.
संसदीय राजनीति को कवर करने वाले वरिष्ठ टीवी पत्रकार मनोरंजन भारती कहते हैं, "अमर सिंह वो शख़्स थे जिनके सभी पार्टियों में शीर्ष स्तर पर क़रीबी दोस्त थे. चाहे वो भारतीय जनता पार्टी हो या फिर कांग्रेस हो या फिर वामपंथी पार्टियाँ ही क्यों ना हों. अमर सिंह का व्यक्तित्व पानी जैसा था जो हर किसी में मिल जाता या मिल सकता था."
अमर सिंह अपने इन्हीं गुणों के चलते केवल राजनीतिक गलियारों तक सीमित नहीं रहे.
वे एक ही समय में बॉलीवुड के स्टार कलाकारों के साथ उठने-बैठने लगे थे और देश के शीर्षस्थ कारोबारियों के साथ नज़र आने लगे थे.
बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन के साथ अमर सिंह की इतनी बनने लगी थी कि दोनों एक दूसरे को परिवार का सदस्य बताते थे. हालांकि 2010 में जब समाजवादी पार्टी से अमर सिंह निकाले गए और उनके कहने पर भी जया बच्चन ने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा नहीं दिया, तो दोनों को अलग होते देर नहीं लगी.
उद्योग जगत में अनिल अंबानी और सुब्रत राय सहारा जैसे कारोबारियों के साथ भी अमर सिंह की गाढ़ी दोस्ती रही.
नेटवर्किंग
अमर सिंह के व्यक्तित्व के बारे में अंबिकानंद सहाय कहते हैं, "अमर सिंह की सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि वे सामने वाले को किस चीज़ की किस समय पर जरूरत है, इसे भांप लेते थे. अगर सामने वाला मुसीबत में हो, तो वो सीमा से आगे जाकर भी उसकी मदद करते थे. इस गुण के चलते उन्हें लोगों का भरोसा मिलता रहा."
"जब अमिताभ बच्चन की एबीसीएल कंपनी कर्जे़ में डूब गई थी और अमिताभ अपने करियर के सबसे मुश्किल दौर से गुज़र रहे थे और कोई उनकी मदद के लिए तैयार नहीं था, तब अमर सिंह ही थे जो कथित तौर पर दस करोड़ की मदद लिए अमिताभ के साथ खड़े नज़र आये थे."
अमर सिंह को नज़दीक से जानने वाले लोगों की मानें तो कोई भी बड़ी समस्या और मुश्किल का हल अमर सिंह चुटकियों में निकाल सकते थे.
शरद गुप्ता कहते हैं, "हम लोगों ने ऐसा भी देखा कि जिस काम को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल मंत्री कराने से इनकार कर देते, अमर सिंह उस काम को करा देते थे."
अमर सिंह समाजवादी पार्टी के लिए ही नेटवर्किंग का काम करते रहे हों, ऐसा नहीं था.
वे दरअसल 1996 में राज्यसभा में आने से पहले ही दिल्ली की सत्ता के गलियारों में अपनी जगह बना चुके थे.
नेताओं और उद्योगपतियों से नज़दीकियां
मूल रूप से आज़मगढ़ के कारोबारी परिवार में जन्मे अमर सिंह का बचपन और युवावस्था के दिन कोलकाता में बीते थे, जहाँ वे बिड़ला परिवार के संपर्क में आये, और केके बिरला का भरोसा हासिल करने के बाद दिल्ली पहुँच गये.
बिड़ला और भरतिया परिवार की नज़दीकियों के चलते एक समय में अमर सिंह 'हिंदुस्तान टाइम्स' के निदेशक मंडल में भी रहे.
उस दौर में अमर सिंह राजनीति में भी सक्रिय हो गये थे. वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हुआ करते थे और उन्हें पूर्व केंद्रीय मंत्री माधव राव सिंधिया ने मध्य प्रदेश के कोटे से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सदस्य बनवाया था.
गठबंधन सरकारों के दौर में मार्क्सवादी नेता हरकिशन सिंह सुरजीत से भी अमर सिंह के घनिष्ठ संबंध रहे थे.
हालांकि उत्तर प्रदेश की राजनीति को लंबे समय से देखने वाले ये मानते हैं कि मुलायम सिंह यादव से पहले 1985 से 1988 के बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वीर बहादुर सिंह से भी अमर सिंह की काफी घनिष्ठता रही थी और जब-जब वीर बहादुर सिंह नोएडा के सिंचाई विभाग गेस्ट हाउस आते थे, अमर सिंह वहीं पाये जाते थे. जबकि कई लोग उन्हें 'रिलायंस मैन' के तौर पर भी देखते रहे.
नज़दीकियां दूरियां बनीं और दूरियां नज़दीकियां
ये महज़ संयोग की बात हो सकती है, पर अमर सिंह का एक अतीत ये भी रहा कि वे जिनके साथ रहे, उनका घर ज़रूर टूटा. बच्चन भाईयों के अलावा अंबानी भाईयों में भी अमर सिंह से नज़दीकी के बाद बंटवारा हो गया. बाद में मुलायम के बेटे अखिलेश यादव और उनके छोटे भाई शिवपाल में भी झगड़ा हुआ.
बहरहाल, अमर सिंह राजनीति की बयार को खूब समझ लेते थे और वे किस तरह से हर पार्टी में पहुंच रखते थे इसका अंदाज़ा लोगों को 29 जुलाई, 2018 में लखनऊ में हुआ.
योगी आदित्यनाथ सरकार की ग्राउंड सेरेमनी में अमर सिंह भगवा कुर्ता में फ़िल्मकार बोनी कपूर के साथ पहुंचे थे. लेकिन बात यहीं तक नहीं रुकी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में उनका नाम ले लिया. पीएम मोदी ने कहा, अमर सिंह यहां बैठे हैं, सबकी हिस्ट्री निकाल देंगे.
जिसका विरोध उसी का समर्थन
मोदी ने कहा इतना ही लेकिन इस एक लाइन में बहुत कुछ था. मोदी उस वक्त राजनेताओं और उद्योगपतियों के गठजोड़ पर बोल रहे थे. मोदी ने जब अमर सिंह का जिक्र किया तो अमर सिंह हाथ जोड़कर शुक्रिया जताया. खास बात यह थी कि इस आयोजन में अमर सिंह की कुर्सी बीजेपी के कई नेताओं से आगे थी.
वे तब भी समाजवादी पार्टी के महासचिव भी थे. लेकिन लखनऊ के इस आयोजन में मोदी ने जिक्र करके जो संकेत दिया था उसके तुरंत बाद अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी से अपना नाता तोड़ते हुए एलान कर दिया कि उनका जीवन अब मोदी के लिए समर्पित है.
तब अनुमान ये लगाया जा रहा था कि अमर सिंह शायद 2019 में चुनाव लड़ें लेकिन उन्होंने ना तो बीजेपी ज्वाइन किया और ना चुनाव लड़ा. लेकिन उन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी के टिकट पर आजम ख़ान के ख़िलाफ़ जया प्रदा को उम्मीदवार ज़रूर बनवा लिया. जय प्रदा के चुनाव प्रचार में तबियत ख़राब होने के बाद भी वे जुटे रहे. इस दौरान हुई एक मुलाकात में जया प्रदा ने कहा था कि साहब इतनी मेहनत कर रहे हैं लग रहा है कि मैं आसानी से चुनाव जीत जाऊंगी. जया प्रदा चुनाव हार गईं लेकिन आज़म खान को चुनाव जीतने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी.
फिर अमर सिंह की तबियत भी लगातार बिगड़ रही थी लेकिन गाहे बगाहे सोशल मीडिया पर वे प्रधानमंत्री मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तारीफ़ करते नज़र आए.
जिस कांग्रेस की बैसाखी से अमर सिंह राजनीति आए, उसी कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी को 272 सीटों के समर्थन को लेकर अमर सिंह ने किरकिरी करवाई, फिर वहां से समाजवादी पार्टी के रास्ते वह भारतीय जनता पार्टी में शामिल भले नहीं हुए लेकिन पार्टी के शीर्ष नेताओं तक उनकी सीधी पहुंच ज़रूर रही. इसलिए पीएम मोदी ने उन्हें श्रदांजलि देते हुए उनकी कई तबके के लोगों की फ्रेंडशिप को याद किया है.
अंबिकानंद सहाय कहते हैं, "अमर सिंह की कमज़ोरी कहिये या फिर ख़ासियत, वे ग्लैमर के बिना नहीं रह सकते थे. इसके लिए वे मीडिया का इस्तेमाल करना भी जानते थे. पहले वे हिंदुस्तान टाइम्स के निदेशक रहे, फिर सहारा मीडिया के निदेशकों में भी रहे. अंतिम दिनों में ज़ी समूह के मुखिया से भी उनकी नज़दीकियाँ रहीं."
इस लिहाज़ से देखें तो अमर सिंह राजनीति, ग्लैमर, मीडिया और फ़िल्म जगत को एक कॉकटेल बना चुके थे. इसलिए जब वे कहते कि 'मेरा मुँह मत खोलवाइए, कोई नहीं बचेगा', तो सब वाक़ई चुप रहना बेहतर समझते थे.(bbc)
सुनील कुमार मिश्रा
एक आयकर अधिकारी ने एक वृद्ध करदाता को अपने कार्यालय में बुलाया। करदाता ठीक समय पर अपने वकील के साथ पहुँच गया। आयकर अधिकारी बोला,‘आप तो रिटायर हो चुके हैं। हमें पता चला है कि आप बड़े ठाट-बाट से रहते हैं। आपको इसके लिए पैसे कहाँ से आते हैं? करदाता बोला, ‘जुएं में जीतता हूँ।’ आयकर अधिकारी बोला, ‘हमें यकीन नहीं’। करदाता बोला?‘मैं साबित कर सकता हूँ। क्या आप एक ष्ठद्गद्वश देखना चाहते हैं?’ आयकर अधिकारी बोला, अच्छी बात है, जरा हम भी देखें। शुरू हो जाइये..
करदाता बोला? एक हज़ार रुपये की शर्त लगाने के लिए क्या आप तैयार हैं? मैं यह दावा कर रहा हूँ कि मैं अपनी ही एक आँख को अपने दाँतों से काट सकता हूँ। आयकर अधिकारी? क्या!! नामुमकिन, लग गई शर्त, करदाता ने अपनी शीशे की एक कृत्रिम आँख निकालकर, अपने दाँतों से काटा। आयकर अधिकारी ने हार मान ली है और एक हज़ार रुपया उस वृद्ध करदाता को दिया।
करदाता कहता है?अब दो हज़ार की शर्त लगाने के लिए तैयार हो? मैं अपनी दूसरी आँख को भी काट सकता हूँ। आयकर अधिकारी ने सोचा, जाहिर है कि यह अँधा तो नहीं है। इसकी दूसरी आँख शीशे की नहीं हो सकती। कैसे कर पाएगा, देखते हैं। फिर कहा ‘लग गई शर्त’। करदाता ने अपनी नकली दाँत मुँह से निकालकर, अपने आँख को हलके से काटा। आयकर अधिकारी हैरान हुआ पर कुछ कह नहीं सका। चुपचाप दो हज़ार रुपये अदा किए।
करदाता ने आगे कहा?चलो एक और मौका देता हूँ तुम्हें। दस हज़ार की शर्त लगाने के लिए तैयार हो?‘आयकर अधिकारी ने कहा ‘अब कौनसी बहादुरी का प्रदर्शन करोगे’? करदाता ने कहा? वो आपके कमरे में कोने में कूड़े का डिब्बा रक्खा है, देख रहे हो? मेरा दावा है कि मैं यहाँ आपके मेज के सामने खड़े होकर, सीधे उस डिब्बे के अंदर थूक विसर्जन कर सकता हूँ। आपके टेबल पर एक बूँद भी नहीं गिरेगी’। वकील चिल्लाया मत लगाओ, मत लगाओ, पर आयकर अधिकारी नहीं माना। आयकर अधिकारी ने देखा कि दूरी 15 फुट से भी ज्यादा है और कोई भी यह काम नहीं कर सकेगा और अवश्य इस वृद्ध से तो यह हो ही नहीं सकेगा। बहुत सोचकर, अपने खोए हुए पैसे को वापस जीतने की उम्मीद से, शर्त लगाने के लिए राजी हो गया। वकील ने माथा ठोक लिया करदाता मुंह नीचे करके, शुरू हो गया पर उसकी कोशिश नाकामयाब रही।
आयकर अधिकारी की टेबल को थूक से खराब कर दिया और आयकर अधिकारी बहुत खुश हुआ, पर उसने देखा करदाता का वकील रो रहा है। आयकर अधिकारी ने वकील से पूछा ‘क्या बात है, वकील भाई आप क्यो रो रहे है?’ वकील ने कहा?
आज सुबह इस शैतान ने मुझसे पचास हज़ार की शर्त लगाई थी?वह इनकम टैक्स वालों के टेबल पर थूंकेगा और वो बजाय नाराज होने के इससे खुश होंगे। जब इस देश मे ऐसै वृद्ध कुरीच करदाता है, जो आयकर अधिकारी को जुआं खिलवा दे, फिर गहलौत साहब तो राजनीति के काफी मंझे खिलाड़ी है और जादूगर भी है। कब कौन से झोले से कबूतर निकाल के गायब कर दे, कहना मुश्किल है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नई शिक्षा नीति में मातृभाषाओं को जो महत्व दिया गया है, कल मैंने उसकी तारीफ की थी लेकिन उसमें भी मुझे चार व्यावहारिक कठिनाइयां दिखाई पड़ रही हैं। पहली, यदि छठी कक्षा तक बच्चे मातृभाषा में पढ़ेंगे तो सातवीं कक्षा में वे अंग्रेजी के माध्यम से कैसे निपटेंगे ? दूसरी, अखिल भारतीय नौकरियों के कर्मचारियों के बच्चे उनके माता-पिता का तबादला होने पर वे क्या करेंगे ? प्रांत बदलने पर उनकी पढ़ाई का माध्यम भी बदलना होगा। यदि उनकी मातृभाषा में पढऩेवाले 5-10 छात्र भी नहीं होंगे तो उनकी पढ़ाई का माध्यम क्या होगा? तीसरी, क्या उनकी आगे की पढ़ाई उनकी मातृभाषा में होगी ? क्या वे बी.ए., एम.ए. और पीएच.डी. अपनी भाषा में कर सकेंगे ? क्या उसका कोई इंतजाम इस नई शिक्षा नीति में है ? चौथी बात, जो सबसे महत्वपूर्ण है। वह यह है क्या ऊंची सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियां भारतीय भाषाओं के माध्यम से मिल सकेंगी? क्या भर्ती के लिए अंग्रेजी अनिवार्य होगी? यदि हां, तो माध्यम का यह अधूरा बदलाव क्या निरर्थक सिद्ध नहीं होगा ? अर्थात पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा या राष्ट्रभाषा हो और नौकरी का, रुतबे का, वर्चस्व का माध्यम अंग्रेजी हो तो लोग अपने बच्चों को मातृभाषा, प्रादेशिक भाषा या राष्ट्रभाषा में क्यों पढ़ाएंगे ? वे अपने बच्चों को कान्वेन्ट में भेजेंगे। कई राज्य अपनीवाली चलाएंगे। वे कहेंगे कि शिक्षा तो संविधान की समवर्ती सूची में है।
हम अपने बच्चों को नौकरियों, बड़े ओहदों और माल-मत्तों से वंचित क्यों करेंगे ? हमारे देश में आज भी लगभग 50 प्रतिशत बच्चों को लोग निजी स्कूलों में क्यों पढ़ाते हैं ? शिक्षा की ये मोटी-मोटी दुकानें क्यों फल-फूल रही हैं ? ये स्कूल लूट-पाट के अड्डे क्यों बने हुए हैं ? क्योंकि ऊंची जातियों, शहरियों और मालदारों के बच्चे इन स्कूलों की सीढिय़ों पर चढक़र शासक-वर्ग में शामिल हो जाते हैं। देश के 80-90 प्रतिशत लोगों को अवसरों की समानता से ये स्कूल ही वंचित करते हैं। लोकतंत्र को इस मु_ीतंत्र से मुक्ति दिलाने में क्या यह नई शिक्षा नीति कुछ कारगर होगी ? मुझे शक है। इस नीति में मुझे एक खतरा और भी लग रहा है। यह विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में जमने की भी छूट दे रही है। ये विश्वविद्यालय हमारे विश्वविद्यालयों में क्या हीनता-ग्रंथि पैदा नहीं करेंगे? क्या ये अंग्रेजी के वर्चस्व को नहीं बढ़ाएंगे ? क्या ये देश में एक नए श्रेष्ठि वर्ग को जन्म नहीं देंगे ? मैं अफगानिस्तान, ब्रिटेन, सोवियत रुस और अमेरिका के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में अपनी पीएच.डी. के लिए पढ़ता और शोध करता रहा हूं और कई अन्य देशों में पढ़ाता भी रहा हूं लेकिन मैंने हमेशा महसूस किया कि यदि उन राष्ट्रों की तरह हम भी अपने उच्चतम शिक्षा, शोध और नौकरियों का माध्यम स्वभाषा ही रखें तो भारत भी शीघ्र ही महाशक्ति बन सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-चन्द्र प्रकाश बाजपेयी
संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 300 से ज़्यादा सदस्यों वाली संविधान सभा की पहली बैठक में 9 दिसंबर 1946 को कहा था ‘एक संविधान चाहे जितना अच्छा हो वह बुरा साबित हो सकता है यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों।‘
संविधान की प्रभावशीलता पूरी तरह उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं है। संसदीय प्रजातंत्र अर्थात् जनता के द्वारा, जनता के लिये जनता का शासन। क्या यह मूलाधार राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर विराजमान और राजनीति के क्षेत्र में लगभग 50 वर्षों से अधिक अनुभव प्राप्त व्यक्ति के संज्ञान में नहीं है? यह प्रश्न बार-बार विचार में आता है और ऐसा विश्वास भी नहीं होता। तब क्या यह विश्वास योग्य है जो राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में इन दिनों देश में न केवल चर्चा में, अपितु समाचार पत्रों एवं मीडिया में भी सुनाई दे रहा है कि राजस्थान के राज्यपाल पर ऊपर का दबाव है? हालांकि राजनीति के जानकार इस उजागर लेकिन छिपे सच को जानते ही हैं।
राज्यपाल के पद पर विराजमान व्यक्ति भारत के संविधान जिसका मूलाधार गवर्नमेंट आँफ इंडिया एक्ट 1935 है, के तहत केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा के लिये नियुक्त किया जाता है। उससे यह अपेक्षा की जाती है कि यदि राज्यों में संविधान के प्रावधानों का पूर्ण तरह पालन नहीं हो रहा हो तथा यदि कोई असंवैधानिक कार्य होता दिखे तो वह समुचित कार्रवाई करें, किंतु आश्चर्यजनक है कि जिन पर संविधान की रक्षा का दायित्व है, उन पर ही संविधान के प्रावधानों का मखौल उड़ाने के आरोप लग रहे हैं।
संविधान सभा में संसदीय प्रणाली के उपरोक्त मूलभूत सिद्धांत की पूर्ति के लिये विस्तृत विचार विमर्श हुआ और सिद्धांततः क्योंकि राजनीतिक कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है, जवाब देह होती है अतः विधानसभा सत्र बुलाने का अधिक़ार राजनीतिक कार्यपालिका के प्रमुख मुख्यमंत्री में निहित किया गया। वह जब भी आवश्यक समझे अपनी जवाबदेही या उत्तरदायित्व की पूर्ति के लिये विधानसभा के सत्र आहूत कर सकें और जनता के प्रति उत्तरदायित्व को सुनिश्चित कर सके।
संविधान के अनुच्छेद 174 में राज्य के विधान मंडल के सत्र सत्रावसान और विघटन के प्रावधान किये गये है। इसमें उल्लेखित है कि राज्यपाल समय- समय पर राज्य के विधान मण्डल के सदन या प्रत्येक सदस्य को ऐसे समय और स्थान पर जो ठीक समझे अधिवेशन के लिये आहूत करेगा किंतु उसके एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिये नियत तारीख़ के बीच 6 माह से अधिक का अंतर नहीं होगा।
संविधान सभा में जब सत्र को आहूत करने के संबंध में इस अनुच्छेद पर चर्चा हो रही थी तब संविधान सभा के सदस्य के टी शाह और क़ुछ अन्य सदस्यों ने संशोधन के प्रस्ताव भी रखे। संशोधन क्रमांक 1473 और 1478 संविधान की कार्यवाही दिनांक 18 मई 1940 /9 पार्ट-2 में एक आशंका भी ज़ाहिर की गई। वह यह थी कि यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल साधारण अथवा असामान्य समय में इस अनुच्छेद के अंतर्गत प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री की सलाह को न मानते हुए यदि सत्र आहूत नहीं करते हैं तो ऐसी स्थिति में संविधान में यह भी प्रावधान करना चाहिये कि प्रधान मंत्री या मुख्यमंत्री विधानमण्डल के अध्यक्ष या परिषद् के सभापति से सलाह कर सत्र आहूत कर सकें। इससे यह स्पष्ट है कि विधानसभा का सत्र बुलाना कार्यपालिका के प्रमुख अर्थात मुख्यमंत्री के अधिकार क्षेत्र की बात है और मुख्यमंत्री तथा मंत्रिपरिषद यह निर्णय लेती है कि विधान सभा का सत्र आहूत किया जाना है। यह राज्यपाल के विचार क्षेत्र की बात नहीं कि वह मुख्य मंत्री के प्रस्ताव को रोके।
राज्यपाल को केवल विधान सभा द्वारा पारित विधेयकों के मामलो में ही, विचार करने और कारण बताते हुए पुनः विधानसभा को भेजने का अधिकार संविधान के अन्तर्गत है। विधानसभा का सत्र आहूत करने के प्रस्ताव पर विचार करने अथवा वापस करने या अस्वीकृत करने जैसा कोई भी प्रावधान संविधान में नहीं है। अपितु इस अनुच्छेद पर चर्चा के समय बाबा साहब अंबेडकर ने यहां तक कहा कि- यदि ऐसा होता है राष्ट्रपति या राज्यपाल उनके कर्तव्यों का पालन नहीं करते हैं स्वच्छ्न्दता पूर्ण व्यवहार करते हैं, यह तो संविधान का उल्लंघन होगा। जाहिर है राजस्थान विधानसभा सत्र बुलाने के मामले को संविधान की धाराओं के बीच उलझाने की राजनीतिक कोशिश करते हुए ये अनदेखी तो की ही जा रही है। (संदर्भ:- संविधान सभा की कार्यवाही दिनांक 18 मई 1949 संशोधन 1473, 1474)
(लेखक कांग्रेस सेवादल के राष्ट्रीय सचिव हैं। पूर्व विधायक हैं तथा म. प्र. विधान सभा के उत्कृष्ट विधायक रह चुके हैं।)
सत्याग्रह ब्यूरो
हिंदू और मुसलमान दोनों एक हज़ार वर्षों से हिंदुस्तान में रहते चले आये हैं. लेकिन अभी तक एक-दूसरे को समझ नहीं सके. हिंदू के लिए मुसलमान एक रहस्य है और मुसलमान के लिये हिंदू एक मुअम्मा (पहेली). न हिंदू को इतनी फुर्सत है कि इस्लाम के तत्वों की छानबीन करे, न मुसलमान को इतना अवकाश है कि हिंदू-धर्म-तत्वों के सागर में गोते लगाये. दोनों एक दूसरे में बेसिर-पैर की बातों की कल्पना करके सिर-फुटौव्वल करने में आमादा रहते हैं.
हिंदू समझता है कि दुनियाभर की बुराइयां मुसलमानों में भरी हुई हैं : इनमें न दया है, न धर्म, न सदाचार, न संयम. मुसलमान समझता है कि हिंदू, पत्थरों को पूजने वाला, गर्दन में धागा डालने वाला, माथा रंगने वाला पशु है. दोनों बड़े दलों में जो बड़े धर्माचार्य हैं, मानो द्वेष और विरोध ही उनके धर्म का प्रधान लक्षण है.
हम इस समय हिंदू-मुस्लिम-वैमनस्य पर कुछ नहीं कहना चाहते. केवल ये देखना चाहते हैं कि हिंदुओं की, मुसलमानों की सभ्यता के विषय में जो धारणा है, वह कहां तक न्यायी है.
जहां तक हम जानते हैं, किसी धर्म ने न्याय को इतनी महत्ता नहीं दी, जितनी इस्लाम ने दी है. इस्लाम धर्म की बुनियाद न्याय पर रखी गयी है. वहां राजा और रंक, अमीर और गरीब के लिए केवल एक न्याय है. किसी के साथ रियायत नहीं, किसी का पक्षपात नहीं. ऐसी सैकड़ों रवायतें पेश की जा सकती हैं जहां बेकसों ने बड़े-बड़े बलशाली अधिकारियों के मुक़ाबले में न्याय के बल पर विजय पायी है. ऐसी मिसालों की भी कमी नहीं है जहां बादशाहों ने अपने राजकुमार, अपनी बेग़म, यहां तक कि स्वयं को भी न्याय की वेदी पर होम कर दिया.
हज़रत मोहम्मद ने धर्मोपदेशकों को इस्लाम का प्रचार करने के लिए देशांतरों में भेजते हुए उपदेश दिया था : जब लोग तुमसे पूछें कि स्वर्ग की कुंजी क्या है, तो कहना कि वह ईश्वर की भक्ति और सत्कार्य में है.
जिन दिनों इस्लाम का झंडा कटक से लेकर डेन्यूब तक और तुर्किस्तान से लेकर स्पेन तक फहराता था, मुसलमान बादशाहों की धार्मिक उदारता इतिहास में अपना सानी नहीं रखती थी. बड़े-बड़े राज्य-पदों पर ग़ैर मुस्लिमों को नियुक्त करना तो साधारण बात थी.
महाविद्यालयों के कुलपति तक ईसाई और यहूदी होते थे. इस पद के लिए केवल योग्यता और विद्वता ही शर्त थी, धर्म से कोई संबंध नहीं था. प्रत्येक विद्यालय के द्वार पर ये शब्द खुदे होते थे : पृथ्वी का आधार केवल चार वस्तुएं हैं - बुद्धिमानों की विद्वता, सज्जनों की ईश प्रार्थना, वीरों का पराक्रम और शक्तिशालियों की न्यायशीलता.
मुहम्मद के सिवा संसार में और कौन धर्म प्रणेता हुआ है जिसने ख़ुदा के सिवा किसी मनुष्य के सामने सिर झुकाना गुनाह ठहराया हो? मुहम्मद के बनाये हुए समाज में बादशाह का स्थान ही नहीं था. शासन का काम करने के लिए केवल एक ख़लीफा की व्यवस्था कर दी गयी थी, जिसे जाति के कुछ प्रतिष्ठित लोग चुन लें. इस चुने हुए ख़लीफा को कोई वजीफ़ा, कोई वेतन, कोई जागीर, कोई रियासत न थी. यह पद केवल सम्मान का था. अपनी जीविका चलाने के लिए ख़लीफ़ा को भी दूसरों की भांति मेहनत-मज़दूरी करनी पड़ती थी. ऐसे-ऐसे महान पुरुष, जो एक बड़े साम्राज्य का संचालन करते थे, जिनके सामने बड़े-बड़े बादशाह अदब से सिर झुकाते थे, वे जूते सिलकर या कलमी किताबें नक़ल करके या लड़कों को पढ़ाकर अपनी जीविका अर्जित करते थे.
हज़रत मुहम्मद ने स्वयं कभी पेशवाई का दावा नहीं किया, खज़ाने में उनका हिस्सा भी वही था, जो एक मामूली सिपाही का था. मेहमानों के आ जाने के कारण कभी-कभी उनको कष्ट उठाना पड़ता था, घर की चीज़ें बेच डालनी पड़ती थीं. पर क्या मजाल कि अपना हिस्सा बढ़ाने का ख्याल कभी दिल में आए.
जब नमाज़ पढ़ते समय मेहतर अपने को शहर के बड़े-से-बड़े रईस के साथ एक ही कतार में खड़ा पाता है, तो क्या उसके हृदय में गर्व की तरंगें न उठने लगती होंगी. इस्लामी सभ्यता को संसार में जो सफलता मिली वह इसी भाईचारे के भाव के कारण मिली है.(satyagrah)
हरिशंकर परसाई
प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं, पर घनी मूँछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं।
पाँवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बँधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं।
दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है।
मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ—फोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी—इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है।
मैं चेहरे की तरफ़ देखता हूँ। क्या तुम्हें मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अँगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका जऱा भी अहसास नहीं है? जऱा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अँगुली ढक सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब ‘रेडी-प्लीज़’ कहा होगा, तब परंपरा के अनुसार तुमने मुसकान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएँ के तल में कहीं पड़ी मुसकान को धीरे-धीरे खींचकर उपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फोटोग्राफर ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा। विचित्र है यह अधूरी मुसकान। यह मुसकान नहीं, इसमें उपहास है, व्यंग्य है!
यह कैसा आदमी है, जो खुद तो फटे जूते पहने फोटो खिचा रहा है, पर किसी पर हँस भी रहा है!
फोटो ही खिचाना था, तो ठीक जूते पहन लेते, या न खिचाते। फोटो न खिचाने से क्या बिगड़ता था। शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम, ‘अच्छा, चल भई’ कहकर बैठ गए होंगे। मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’ है कि आदमी के पास फोटो खिचाने को भी जूता न हो। मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पडऩा चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आँखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है।
तुम फोटो का महत्व नहीं समझते। समझते होते, तो किसी से फोटो खिचाने के लिए जूते माँग लेते। लोग तो माँगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं। और माँगे की मोटर से बारात निकालते हैं। फोटो खिचाने के लिए तो बीवी तक माँग ली जाती है, तुमसे जूते ही माँगते नहीं बने! तुम फोटो का महत्व नहीं जानते। लोग तो इत्र चुपडक़र फोटो खिचाते हैं जिससे फोटो में खुशबू आ जाए! गंदे-से-गंदे आदमी की फोटो भी खुशबू देती है!
टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पाँच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे। जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। अब तो जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियाँ न्योछावर होती हैं। तुम भी जूते और टोपी के आनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे। यह विडंबना मुझे इतनी तीव्रता से पहले कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है, जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूँ। तुम महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में भी तुम्हारा जूता फटा हुआ है!
मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है। यों उपर से अच्छा दिखता है। अँगुली बाहर नहीं निकलती, पर अँगूठे के नीचे तला फट गया है। अँगूठा ज़मीन से घिसता है और पैनी मिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है। पूरा तला गिर जाएगा, पूरा पंजा छिल जाएगा, मगर अँगुली बाहर नहीं दिखेगी। तुम्हारी अँगुली दिखती है, पर पाँव सुरक्षित है। मेरी अँगुली ढँकी है, पर पंजा नीचे घिस रहा है। तुम परदे का महत्त्व ही नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहे हैं!
तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहने हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता। फोटो तो जि़ंदगी भर इस तरह नहीं खिचाउँ, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दे।
तुम्हारी यह व्यंग्य-मुसकान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है इसका? कौन सी मुसकान है यह?
—क्या होरी का गोदान हो गया?
—क्या पूस की रात में नीलगाय हलकू का खेत चर गई?
—क्या सुजान भगत का लडक़ा मर गया; क्योंकि डॉक्टर क्लब छोडक़र नहीं आ सकते?
नहीं, मुझे लगता है माधो औरत के कफऩ के चंदे की शराब पी गया। वही मुसकान मालूम होती है।
मैं तुम्हारा जूता फिर देखता हूँ। कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?
क्या बहुत चक्कर काटते रहे?
क्या बनिये के तगादे से बचने के लिए मील-दो मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?
चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं है, घिस जाता है। कुंभनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था। उसे बड़ा पछतावा हुआ। उसने कहा- ‘आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरि नाम।’
और ऐसे बुलाकर देने वालों के लिए कहा था—‘जिनके देखे दुख उपजत है, तिनको करबो परै सलाम!’
चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं। तुम्हारा जूता कैसे फट गया?
मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज़ को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज़ जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आज़माया।
तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे। टीलों से समझौता भी तो हो जाता है। सभी नदियाँ पहाड़ थोड़े ही फोड़ती हैं, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है।
तुम समझौता कर नहीं सके। क्या तुम्हारी भी वही कमज़ोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही ‘नेम-धरम’ वाली कमज़ोरी? ‘नेम-धरम’ उसकी भी ज़ंजीर थी। मगर तुम जिस तरह मुसकरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद ‘नेम-धरम’ तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी!
तुम्हारी यह पाँव की अँगुली मुझे संकेत करती-सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पाँव की अँगुली से इशारा करते हो?
तुम क्या उसकी तरफ़ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?
मैं समझता हूँ। तुम्हारी अँगुली का इशारा भी समझता हूँ और यह व्यंग्य-मुसकान भी समझता हूँ।
तुम मुझ पर या हम सभी पर हँस रहे हो, उन पर जो अँगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो—मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अँगुली बाहर निकल आई, पर पाँव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अँगुली को ढाँकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे?
मैं समझता हूँ। मैं तुम्हारे फटे जूते की बात समझता हूँ, अँगुली का इशारा समझता हूँ, तुम्हारी व्यंग्य-मुसकान समझता हूँ!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नई शिक्षा नीति का सबसे पहले तो इसलिए स्वागत है कि उसमें मानव-संसाधन मंत्रालय को शिक्षा मंत्रालय नाम दे दिया गया। मनुष्य को ‘संसाधन’ कहना तो शुद्ध मूर्खता थी। जब नरसिंहरावजी इसके पहले मंत्री बने तो मैंने उनसे शपथ के बाद राष्ट्रपति भवन में कहा कि इस विचित्र नामकरण को आप क्यों स्वीकार कर रहे हैं ? उनके बाद मैंने यही प्रश्न अपने मित्र अर्जुनसिंह जी और डॉ. मुरलीमनोहर जोशी से भी किया लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार को बधाई कि उसने इस मंत्रालय का खोया नाम लौटा दिया। पिछले 73 वर्षों में भारत ने दो मामलों की सबसे ज्यादा उपेक्षा की। एक शिक्षा और दूसरी चिकित्सा। उसका परिणाम सामने है। भारत की गिनती अभी भी पिछड़े देशों में ही होती है, क्योंकि शिक्षा और चिकित्सा पर हमारी सरकारों ने बहुत कम ध्यान दिया और बहुत कम खर्च किया। इनमें से एक बुद्धि को दूसरी शरीर को बुलंद बनाती है। तन और मन को तेज करनेवाली दृष्टि तो मुझे इस नई शिक्षा नीति में दिखाई नहीं पड़ती। इस नई नीति में न तो शारीरिक शिक्षा पर मुझे एक भी शब्द दिखा और न ही नैतिक शिक्षा पर। यदि शिक्षा शरीर को सबल नहीं बनाती है और चित्तवृति को शुद्ध नहीं करती है तो यह कैसी शिक्षा है ? बाबू बनाने, पैसा गांठने और कुर्सियां झपटना ही यदि शिक्षा का लक्ष्य है तो ये काम तो सर्वथा अशिक्षित लोग भी बहुत सफलतापूर्वक करते हैं।
इसका अर्थ यह नहीं कि इस नई शिक्षा नीति में नया कुछ नहीं है। काफी कुछ है। इसमें मातृभाषा को महत्व मिला है। छठी कक्षा तक सभी बच्चों को स्वभाषा के माध्यम से पढ़ाया जाएगा। यह अच्छी बात है लेकिन हमारी सरकारों में इतना दम नहीं है कि वे दो-टूक शब्दों में कह सकें कि छठी कक्षा तक अंग्रेजी या किसी विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ाने पर प्रतिबंध होगा। यदि ऐसा हो गया तो शिक्षा के नाम पर चल रही निजी दुकानों का क्या होगा ? त्रिभाषा-व्यवस्था जिस तरह से की गई है, ठीक है लेकिन अंग्रेजी की पढ़ाई को स्वैच्छिक क्यों नहीं किया गया ? यदि भाजपा की सरकार भी कांग्रेसी ढर्रे पर चलेगी तो उसे अपने आप को राष्ट्रवादी कहने का अधिकार कैसे सुरक्षित रहेगा ?
क्या इस नई शिक्षा नीति के अनुसार सभी विषयों की एम.ए. और पीएच.डी. की शिक्षा भी भारतीय भाषाओं के माध्यम से होगी ? आज से 55 साल पहले मैंने जवाहरलाल नेहरु विवि में अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने की लड़ाई लड़ी थी। पूरी संसद ने मेरा समर्थन किया। मेरी विजय हुई लेकिन आज भी लगभग सारा शोध अंग्रेजी में होता है। इस अंग्रेज के बनाए ढर्रे को आप कब बदलेंगे ? ये तो मेरे कुछ प्रारंभिक और तात्कालिक प्रश्न हैं लेकिन नई शिक्षा नीति का जब मूल दस्तावेज हाथ में आएगा, तब उस पर लंबी बहस की जाएगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ऋतिका पाण्डेय
‘चुनौती स्वीकार' कर जो "महिलाएं महिलाओं के साथ" अपनी एकजुटता दिखाने के लिए हाल के दिनों में सोशल मीडिया पर अपनी ब्लैक एंड वाइट फोटो डाल रही हैं, उनमें से ज्यादातर पोस्ट में इसके पीछे की असल वजह का कोई जिक्र नहीं मिल रहा है. असल में यह अभियान तुर्की से शुरु हुआ है जहां आए दिन किसी दोस्त, जानकार या परिजनों के हाथों जान से मारे जानी वाली महिलाओं की ब्लैक एंड वाइट फोटो अखबारों में छपा करती है.
हाल ही में जब एक व्यक्ति पर एक 27 साल की छात्रा पिनार गुलतेकिन की बहुत ही क्रूर तरीके से हत्या करने का आरोप लगा तो देश की महिलाएं इन आए दिन होने वाली हत्याओं और हमेशा महिलाओं के सिर पर लटकने वाली ऐसी तलवार के विरोध में सड़कों पर उतरीं. गुलतेकिन के लिए न्याय की मांग और ऐसे अपराधों के खिलाफ महिलाओं के विरोध प्रदर्शनों से ही यह फोटो चैलेंज उपजा. इसमें हर महिला को अपनी एक ब्लैक एंड वाइट तस्वीर लगानी है और कुछ अन्य महिलाओं को टैग करके प्रेरित करना है कि वे भी तुर्की की महिलाओं के इस अहम आंदोलन को आगे बढ़ाए.
एक और समझने वाली बात ये है कि इस तरह अपनी ब्लैक एंड वाइट फोटो लगा कर महिलाएं असल में यह संदेश दे रही हैं कि अगर कुछ नहीं किया गया तो ऐसे ही किसी दिन शायद कोई उनकी भी जान ले सकता है और फिर वे केवल अखबार में छपी एक काली-सफेद तस्वीर जितनी ही रह जाएंगी.
इतने अहम और खौफनाक संदेश को तुर्की के अलावा भी विश्व के कई देशों में समर्थन मिला. जहां अमेरिका तक में कई मशहूर हस्तियों ने इसे आगे बढ़ाया वहीं यह भारत में भी खूब लोकप्रिय हुआ. लेकिन इस बीच भारत में इसका मूल संदेश कहीं खो जाने के कारण अब यह केवल अपनी सुंदर दिखने वाली तस्वीर डालने तक सिमटता दिख रहा है. ऐसे में एक बार फिर तुर्क महिलाएं सोशल मीडिया पर ही इस गलतफहमी को दूर करने की कोशिश कर रही हैं.
फेमिसाइड यानि महिलाओं की हत्या का विरोध
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, फेमिसाइड शब्द उन तमाम महिलाओं की हत्या के लिए इस्तेमाल किया जाता है जिनकी उनके पार्टनर ही हत्या कर देते हैं. कई मामलों में पति के हाथों पत्नियों को घरेलू हिंसा का शिकार बनना पड़ता है और आगे चलकर वे महिलाओं को मौत के घाट भी उतार देते हैं. साल 2019 में तुर्की में कम से कम 474 महिलाओं की ऐसे ही हत्या हुई मानी जाती है. इस साल इस संख्या में और बढ़ोत्तरी का अनुमान है क्योंकि कोरोना वायरस की महामारी के कारण घरों में दुर्व्यवहार और हिंसा झेलने वाली महिलाओं की संख्या और ज्यादा मानी जा रही है.
इसके बावजूद, तुर्की में राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोआन की सरकार ‘इस्तांबुल कन्वेन्शन' से बाहर निकलने या कम से कम कुछ बड़े बदलाव लाने की कोशिश कर रही है, जो कि महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाने वाली विश्व के सबसे महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय समझौतों में आता है. देश की महिलाएं सरकार के इस प्रयास का भी विरोध कर रही हैं और मांग कर रही हैं कि लैंगिक आधार पर होने वाली हिंसा से बचाने के लिए इसे बरकरार रखा जाए.
कैसा है तुर्की में महिलाओं का हाल
महिलाओं के विरोध प्रदर्शनों के दौरान पुलिस ने कई सामाजिक कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया और हिरासत में भी उनके साथ मारपीट किए जाने की खबरें हैं. महिलाओं की शिकायत है कि देश में परिवार में हिंसा या दुर्व्यवहार की शिकायत करने वाली महिलाओं की कोई मदद नहीं करता. वी विल स्टॉप फेमिसाइड अभियान से जुड़ी मेलेक ओन्देर ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा कि तुर्की की पुलिस, सरकार और सरकारी अधिकारियों को महिलाओं के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है.
हालांकि राष्ट्रपति एर्दोआन ने गुलतेकिन की हत्या की खबर के अगले दिन ही ट्विटर पर खेद जताया था लेकिन कई महिला अधिकार समूह उनके शब्दों को खोखला मानते हैं. उनका आरोप है कि 2011 से जारी ‘इस्तांबुल कन्वेन्शन' के नियमों को लागू करने में सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं है बल्कि वे तो इसे खत्म करने की कोशिश में लगे हैं. एक साल बाद ही इसमें सुधार करने वाला तुर्की पहला देश था और एक बार फिर वे इससे असंतुष्ट हैं. सरकार के दकियानूसी और धार्मिक धड़े का मानना है कि इससे तलाक को बढ़ावा मिलता है और परंपराएं टूटने का खतरा बढ़ता है. इसके पहले भी जब 25 नवंबर 2019 को इस्तांबुल में करीब 2,000 महिलाओं ने इकट्ठे होकर महिलाओं के खिलाफ लक्ष्यित हिंसा को खत्म करने की मांग उठाई थी, तो उन्हें तितर बितर करने के लिए देश की पुलिस ने महिलाओं पर आंसू गैस छोड़ी थी और रबर की गोलियों से उन्हें निशाना भी बनाया था.(DW)
राजकुमार सिन्हा
भरपूर उत्पादन और तीखी भुखमरी के बीच की उलटबासी के मैदानी अनुभवों की एक बड़ी वजह हर साल होती अनाज की बर्बादी और उसके लिए जरूरी भंडारण का अभाव है। अनाज की बर्बादी हमारे यहां सालाना होने वाली एक शर्मनाक दुर्घटना है, लेकिन इसी वजह से 2001 में सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई खाद्य-सुरक्षा याचिका के बावजूद ना तो सरकारें भंडारण को लेकर सचेत हुई हैं और न ही समाज और निजी-क्षेत्र। प्रस्तुत है, इसी साल के अनुभवों पर लिखा गया राजकुमार सिन्हा का यह लेख।
-संपादक
देश भर में इस साल तीन करोड़ 36 लाख हैक्टेयर जमीन पर गेहूँ की बुआई हुई थी और मध्यप्रदेश में 55 लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि पर। गेहूं उत्पादन के क्षेत्र में मध्यप्रदेश ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए और पंजाब को भी पीछे छोड़ दिया है। इस साल 4529 खरीदी केन्द्रों के माध्यम से एक करोड़ 29 लाख 34 हजार 588 मीट्रिक टन गेहूं खरीदी किया गया है। सरकार का दावा है कि 15 लाख 93 हजार 793 किसानों के खाते में 24 हजार 899 करोड़ रुपए जमा भी कर दिए हैं, परन्तु जुलाई में ही समाचार आया कि 450 करोड़ का 2.25 लाख टन गेहूं खरीदी केंद्रों और गोदामों के बाहर रखे-रखे भीग गया है। गेहूं भीगने को लेकर खरीद करने वाली सहकारी समितियां और गोदाम संचालक आमने- सामने आ गए हैं। दोनों संस्थाएं इसकी जिम्मेदारी एक-दूसरे पर थोप रहे हैं।
ये पूरी समस्या परिवहन में देरी के चलते उपजी है। सवा दो लाख टन से ज्यादा गेहूं गोदामों में भंडारण के लिए स्वीकार नहीं किया गया है। इसकी मुख्य वजह खराब गुणवत्ता और गेहूं में अनुपात से कई गुना अधिक नमी बताई गई है। खरीदा गया गेहूं गोदामों में स्वीकृत नहीं होने से अभी 400 करोड़ से अधिक की राशि किसानों के खाते में ट्रांसफर नहीं की गई है। जब तक गोदामों में पूरा गेहूं स्वीकृत नहीं होता, तब तक किसानों का भुगतान होना मुश्किल है। अब इसके लिए जिम्मेदार कौन है? एक खबर इंदौर से है कि 85 लाख टन गेहूं उत्पादन की तुलना में भंडारण क्षमता लगभग 22 लाख टन ही है। इस कारण 25 करोड़ से ज्यादा कीमत का गेहूं जून की बरसात में भीगकर खराब हो गया है। इसके बाद भी 'ओपन कैंपÓ में रखा छह करोड़ रूपये से ज्यादा का लगभग 65 हजार टन गेहूं और खराब हुआ है। किसानों के लिए तो यह साल जैसे काल बन कर आया है। कोरोना ने उन्हें फसल को खेत से निकाल कर मंडी तक ले जाने में काफी परेशान किया है।
'नियंत्रक महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि नियोजन नहीं होने के कारण 2011-12 से 2014 -15 के बीच 5060.63 मीट्रिक टन अनाज सड़ गया है जिसमें 4557 मीट्रिक टन गेहूं था। एक समाचार पत्र के अनुसार 21 मार्च 2017 को 'केन्द्रीय उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय ने संसद में दिए जवाब में बताया है कि मध्यप्रदेश के सरकारी गोदामों में 2013-14 और 2014-15 में करीब 157 लाख टन सड गया है जिसकी अनुमानित कीमत 3 हजार 800 करोड़ रुपए है। इसमें 103 लाख टन चावल और 54 लाख टन गेहूं शामिल है। बताया जाता है कि मिलीभगत के चलते अनाज को जान-बूझकर सडऩे दिया जाता है ताकि शराब कंपनियां बीयर व अन्य मादक पेय बनाने के लिए सड़े हुए अनाज, खासकर गेहूँ को औने-पौने दाम पर खरीद सके।
भारत में जनसंख्या के लिए पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन होता है। इसके बावजूद लाखों लोगों को दो वक्त का भोजन नहीं मिल पाता। आए दिन 'भूख से मौत के समाचार भी सुनने मिलते हैं। इसके विपरीत भारत में लगभग 60 हजार करोड़ रूपये का खाद्यान्न प्रति वर्ष बर्बाद हो जाता है, जो कुल खाद्यान्न उत्पादन का सात प्रतिशत है। इसका मुख्य कारण देश में अनाज, फल व सब्जियों के भंडारण की सुविधाओं का घोर अभाव है। दूसरी तरफ, 'संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) की 'भूख सबंधी सलाना रिपोर्ट कहती है कि दुनिया में सबसे ज्यादा भुखमरी के शिकार भारतीय हैं। 'यूएनओ के 'खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट 'द स्टेट आफ फूड इनसिक्यूरिटी इन द वल्र्ड-2015 के मुताबिक 'यह विचारणीय और चिंतनीय है कि खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर होकर भी भारत में भूख से जूझ रहे लोगों की संख्या चीन से ज्यादा है। वजह हर स्तर पर होने वाली अन्न की बर्बादी है। इसका बङ़ा खामियाजा हमारी आने वाली पीढ़ी को भुगतना पडेगा। सवाल है कि अगले 35 वर्षों में, जब हमारी आबादी 200 करोड़ होगी, तब हम सबको अन्न कैसे उपलब्ध करा पाएंगे? 'कृषि मंत्रालय का कहना है कि पिछले दशक में जनसंख्या वृद्धि की तुलना में देश में अन्न की मांग कम बढ़ी है। यह मांग उत्पादन से कम है। यानी भारत अब अन्न की कमी से उठकर 'सरप्लस (अतिरिक्त) अन्न वाला देश बन गया है। देश में इस समय विश्व के कुल खाद्यान्न का करीब पंद्रह फीसद खपत होता है, लेकिन आज भी हमारे देश में अनाज का प्रति व्यक्ति वितरण बहुत कम है। यह विडम्बना नहीं, उसकी पराकाष्ठा है कि सरकार किसानों से खरीदे गए अनाज को खुले में छोड़कर अपना कर्तव्य पूरा समझ लेती है ! (सप्रेस)
श्री राजकुमार सिन्हा बरगी बांध विस्थापित संघ के वरिष्ठ कार्यकत्र्ता हैं।
डॉ. गोल्डी एम. जार्ज
अठारवीं सदी में अंग्रेजों ने जब से वन क्षेत्र में घुसपैठ करनी शुरू कर दी जो आदिवासियों के वास स्थल थे और इस कारण उनके बीच सीधा टकराव शुरू हुआ। भारत में आदिवासी विद्रोहों के पहले 100 सालों (1760 के दशक से लेकर 1860 के दशक तक) में वन कानून नहीं थे और इस दौरान जंगलों से इमारती लकड़ी और अन्य संसाधनों का अनियंत्रित दोहन हुआ। इस सौ साल के दरमियान सैकड़ों आदिवासी विद्रोह हुए। इसमें से तिलका मांझी (1770-85) के नेतृत्व में जो विद्रोह हुआ उसके बाद अंग्रेजों के सामने वन क्षेत्र के रहने वाले आदिवासियों के संदर्भ में गंभीर सवाल खड़ा हुआ।
अंग्रेजों द्वारा उन्नीसवीं सदी में वन विभाग की स्थापना करने और वनों से संबंधित कानून बनाने के समय से ही दो महत्वपूर्ण पहलुओं को नजरअंदाज किया गया। पहला, आदिवासियों और अन्य मूलनिवासी समुदायों द्वारा वनों के संरक्षण और उनके धारणीय उपयोग के लिए सदियों पुरानी सुस्थापित पारंपरिक प्रणालियां और वनों की पर्यावर्णीय, सामाजिक और सांस्कृतिक भूमिका। इसमें 1855 में सिदो-कान्हु के नेतृत्व में हुए हूल विद्रोह सबसे निर्णायक था जिसके बाद अंग्रेजों ने एक सख्त वन कानून की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया।
सन् 1855 के संथाल विद्रोह के मद्देनजर, 1856 में गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने एक स्थाई वन नीति बनाने पर जोर दिया। 1864 में अंग्रेजों ने इम्पीरियल फॉरेस्ट डिपार्टमेंट की स्थापना की। सन् 1865 में भारत के पहले वन कानून आया, जिसका संशोधन 1876 में किया गया और नये संशोधनों के साथ फॉरेस्ट एक्ट, 1878 लागू किया गया। इसके बाद सन् 1894 में ब्रिटिश सरकार ने अपनी वन नीति बनायी। अंत में सन् 1927 में ब्रिटिश सरकार ने इंडियन फॉरेस्ट एक्ट को बनाया जो सन 1878 में वनों के दोहन के लिए बनाई गई नीति के अनुरूप था। कुल मिलाकर आदिवासी अपने ही वन क्षेत्र में ही बाहरी व्यक्ति के रूप में स्थापित हो गए।
वन विभाग की स्थापना से पहले, अर्थात 1864 से पूर्व, जो प्रमुख विद्रोह हुए उन्हें केवल किसानों का अंग्रेजों या ज़मींदारों या साहूकारों से जुड़े मुद्दों को लेकर विद्रोह नहीं कहा जा सकता। उन्हें हमें बाहरी शक्तियों द्वारा आदिवासियों के वासस्थलों, जो मुख्यत: जंगल और पहाड़ थे, में जबरदस्ती घुसने के प्रयासों के संदर्भ में समझना होगा। इन विद्रोहों और आंदोलनों के पृष्ठभूमि और इतिहास के गहराई से अध्ययन से हमें यह पता लगेगा कि सिर्फ जमीन और जंगलों के आर्थिक और परंपरागत महत्व को नजरअंदाज करना या लोगों से इन संसाधनों को छीनन ही इन विद्रोहों के पीछे का कारण नहीं था। इनके पीछे था वह अघोषित सांस्कृतिक युद्ध जिसमें एक ओर थे आदिवासी तो दूसरी ओर गैर-आदिवासी निहित स्वार्थी तत्त्व, जिन्हें सरकार का समर्थन और सहयोग हासिल था।
वनभूमि से संबंधित कानून के आने से पहले के दौर में हुए आदिवासी विद्रोहों में प्रमुख थे, तिलका मांझी के नेतृत्व में संथाल विद्रोह (1770-85), हल्बा डोंगर (हल्बा), बस्तर (1774-79), महादेव कोली, महाराष्ट्र (1784-85), तमर, छोटानागपुर (1781; 1894-95), पंचेट एस्टेट सेल (1798), कुरुचि, वायनाड (1812), सिंघ्पो, आसाम (1825; 28; 43; 47), कोल विद्रोह (हो और मुंडा सहित) (1832), खोंड, ओडिशा (1850), संथाल, छोटानागपुर (1855), सोनाखान, छत्तीसगढ़ (1856-57), भील, गुजरात (1857-58), अंडमानीज़, अंडमान (1859), लुशाई, त्रिपुरा (1860), सिंतेंग, जैंतिया हिल्स (1860-62), जुआंग, ओडिशा (1861) और कोय, आंध्रप्रदेश (1862)।
सन् 1855 में संथाल परगना के भगनाडीह गांव के चार मुर्मू भाईयों, सिदो, कान्हु, चंद और भैरव के नेतृत्व में हूल विद्रोह पहाड़ी और मैदानी इलाकों में हुआ था। यद्यपि ऐसे कहा जाता है कि इस विद्रोह का कारण महाजनों और ज़मींदारों की ज्यादतियां थीं, परन्तु शायद आदिवासियों को यह भी महसूस हो रहा था कि उनकी ज़मीनों और जंगलों पर कब्ज़ा किया जा रहा है। 1857 का सोनाखान विद्रोह, इसी वर्ष कुछ समय बाद हुए एक और बहुचर्चित विद्रोह से पहले हुआ था। इसका नेतृत्व आदिवासी राजा नारायण सिंह ने किया था और इस विद्रोह के मुद्दे भी 1855 के संथाल विद्रोह से मिलते-जुलते थे। सोनाखान एक वनक्षेत्र है और इसके पास बार नवापारा के घने जंगल भी हैं। 1852 में बम्बई और उसके आसपास के इलाकों में रहने वाले कोल और अन्य वन-आधारित समुदायों में बड़े पैमाने पर पेड़ों को काटने को लेकर भारी गुस्सा था, परन्तु वह विद्रोह में परिवर्तित नहीं हुआ।
सन् 1864 के बाद से, ब्रिटिश ने भारत में केन्द्रीयकृत राजनैतिक-प्रशासनिक व्यवस्था लागू कर दी और इसके साथ ही वनों और वनवासियों के बीच विभाजक की रेखा खींच दी गई। औपनिवेशिक सरकार ने वनों पर अपने स्वामित्व को क़ानूनी जामा पहना दिया। इसका सीधा सा मतलब यह था कि वनों में रहने वाले समुदाय गैरकानूनी कब्जाधारी हैं और उन्होंने सरकार की भूमि पर अतिक्रमण किया हुआ है। इसका एक दूसरा परिणाम यह था कि वनक्षेत्र में रहनेवाले आदिवासी और मूलनिवासियों पर शिकार करने का प्रतिबन्ध लगा गया, लेकिन अंग्रेज़ अधिकारियों. ज़मींदारों, जागीरदारों को शिकार की खुली छूट थी।
इस दौर में अनेक आदिवासी विद्रोह हुए। जब भी आदिवासियों के जीवन में बेजा हस्तक्षेप करने की कोशिश हुई, जब भी उन्हें उनकी भूमि या जंगलों से बेदखल करने के प्रयास हुए, जब भी उनकी पारंपरिक संस्कृति, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, नागरिक अधिकारों या न्याय व्यवस्था का उल्लंघन या तिरस्कार किया गया, उन्होंने इसका तीव्र, त्वरित और आक्रामक प्रतिरोध किया। इस दौर में हुए महत्वपूर्ण विद्रोहों धनबाद में संथालों (1869-70), उत्तरपूर्व में नागाओं (1879), तम्मनडोरा के नेतृत्व में ओडिशा के मलकानगिरी में कोयायों (1880), अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में सेंटिनेलियों (1883), छोटानागपुर में मुंडाओं (1889), लुशाईयों (1892), बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडाओं का उलगुलान (1895), बस्तर के आदिवासियों का भूमकाल और गुंडा धुर के नेतृत्व (1910-11), गोविन्द गुरू के नेतृत्व में संप सभा और गुजरात व राजस्थान के मानगढ़ पहाडिय़ों में भीलों (1913-16), मणिपुर में कुकियों (1917-19), रम्पा में कोयायों (1922), उत्तरपूर्व में नागाओं (1932), तेलंगाना के आदिलाबाद में गोंड और कोलम जनजातियों (1941) और लक्ष्मण नायक के नेतृत्व में कोरापुट, ओडिशा में आदिवासियों (1942) का विद्रोह शामिल थे।
हूल विद्रोह के बाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण आदिवासी आंदोलनों में से एक है उलगुलान (महान हलचल)। उलगुलान बिरसा मुंडा के नेतृत्वि में उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशक में किया गया मुंडा विद्रोह है, जो झारखंड का सबसे बड़ा आदिवासी विप्लव था, जिसमे हजारों की संख्या में मुंडा आदिवासी शहीद हुए।
धरती आबा के नाम से जाने जाने वाले बिरसा मुंडा, 1 अक्टूबर 1894 को सभी मुंडाओं को एकत्र कर अंग्रेजो से लगान (कर) माफी के लिये आन्दोलन किया। यह अंग्रेजों का आदिवासी जीवन में हस्तक्षेप के खिलाफ सशस्त्र संग्राम था। बिरसा मुंडाओं के बीच अंग्रेजी सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लोगों को जागरूक करना शुरू कर चुके थे। जब सरकार द्वारा उन्हें् रोका गया और गिरफ्तार कर लिया तो उन्होंने मुंडा समुदाय में धर्म व समाज सुधार के कार्यक्रम शुरू किए और तमाम कुरीतियों से मुक्ति का प्रण लिया।
1895 में उन्हें गिरफ्तार कर हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीडि़त जनता की सहायता करने की ठान रखी थी। 1897 से 1900 के बीच अंग्रेज के हर हस्तक्षेप के खिलाफ मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे। बिरसा और उसके साथियों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन इसके बाद उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारी हुई।
1898 में डोम्ब री पहाडिय़ों पर मुंडाओं की विशाल सभा हुई, जिसमें आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार हुई। आदिवासियों के बीच राजनीतिक चेतना फैलाने का काम चलता रहा। अंत में 24 दिसम्बर 1899 को बिरसापंथियों ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। 5 जनवरी 1900 तक पूरे मंडा अंचल में विद्रोह की चिंगारियां फैल गई। 9 जनवरी 1900 को डोम्बार पहाड़ी पर अंग्रेजों से लड़ते हुए सैंकड़ों मुंडाओं ने शहादत दी। ब्रिटिश फौज ने आंदोलन को बेरहमी से कुचल दिया। गिरफ्तार किए गए मुंडाओं में से दो को फांसी, 40 को आजीवन कारावास, 6 को चौदह वर्ष की सजा, 3 को 4 से 6 बरस की जेल और 15 को तीन बरस की जेल हुई।
बिरसा मुंडा काफी समय तक पुलिस की पकड में नहीं आये थे, लेकिन एक स्थानीय गद्दार की वजह से 3 मार्च 1900 को वे गिरफ्तार हुए। लगातार जंगलों में भूखे-प्यासे भटकने की वजह से वह कमजोर हो चुके थे। जेल में उन्हें हैजा हो गया और 9 जून 1900 को रांची जेल में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन जैसा कि बिरसा कहते थे, व्यक्ति को मारा जा सकता है, उसके विचारों को नहीं। बिरसा के विचार मुंडाओं और पूरी आदिवासी कौम को संघर्ष की राह आज भी दिखाती है।
(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता है, तथा वर्तमान में फॉरवर्ड प्रेस नई दिल्ली में सलाहकार संपादक है।)
-कनक तिवारी
भीमा कोरेगांव के मामले में अनावश्यक रूप से गिरफ्तार मानव अधिकार कार्यकर्ताओं में एक सुधा भारद्वाज के बारे में मैं शुरू से बता दूं सुधा और मेरा बहुत पुराना परिचय है। दुर्ग जिले में राजहरा में श्रमिक आंदोलन के बहुत बड़े नेता शंकर गुहा नियोगी आपातकाल के पहले ही मेरे बहुत करीब आए। मैं लगातार उनकी मदद करता रहा और उनकी यूनियन की, उनकी सहकारी समितियों की। नियोगी से तो घरोबा जैसा हो गया था। उनकी हत्या कर दी गई। इसका दुख और क्रोध आज तक हम लोगों को है। उन्हीं दिनों उनके सहयोगी सुधा भारद्वाज, अनूप सिंह, विनायक सेन, जनकलाल ठाकुर तथा कई और मित्र वहां हुए। सबसे आत्मीय रिश्ता परिवार की तरह होता गया। वह अनौपचारिकता आज तक कायम है।
सुधा मेरे साथ वकालत में भी मेरे ऑफिस में जूनियर रहीं। हमने कई मुकदमे साथ में किए। मेरे एक और जूनियर रहे गालिब द्विवेदी बंटी ने एक दिलचस्प टिप्पणी की ‘जैसे हम लोग आपकी डांट से डरते थे वैसे ही सुधा दीदी भी डरती थीं। बहुत सी फाइलों के बीच में काम करते करते थककर सोफे पर कुछ देर सो जाती थीं और कहती थीं देखना सर आएंगे तो डांट पड़ेगी कि यह काम नहीं किया। वह काम नहीं किया। वी लव यू सर हम सबका सौभाग्य है कि हमें आपका साथ एवं आपका सानिध्य प्राप्त हुआ है।’
बस्तर में टाटा और एस्सार स्टील के लगने वाले कारखानों को चुनौती देने वाली हमने जनहित याचिका दायर कीं। कई जनहित के मामले भी बस्त के आदिवासियों के पक्ष में हिमांशु कुमार की पहल पर किए। जस्टिस राजेंद्र सच्चर और वकील कन्नाबिरन, राजेंद्र सायल, विनायक सेन और सुधा भारद्वाज के कारण मैं कई बार पीयूसीएल के कार्यक्रमों में गया हूं। मैं विनायक सेन का वकील रहा हूं। उन्हें नक्सलवादी कहा गया। बहुत मुश्किल से उनकी सुप्रीम कोर्ट में जमानत हुई। कुछ और वकील, पत्रकार, छात्र पिछले वर्ष आंध्रप्रदेश से तेलंगाना से छत्तीसगढ़ में गिरफ्तार किए गए। उनके मामले की भी मैंने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में पैरवी की।
जिसे नक्सलवादी साहित्य कहते हैं उसमें से बहुत सा तो सरकारी अधिनियमों के तहत ही छपता है। उसे कोई जप्त नहीं कर सकता। मामलों में पुलिस उल्टा ही कहती रहती है। छत्तीसगढ़़ जनसुरक्षा विशेष अधिनियम में डॉक्टरों, कलाकारों, लेखकों, दर्जियों को पकड़ लिया जाता रहा है। छत्तीसगढ़ में सरकार के प्रोत्साहन से तथाकथित सलवा जुडूम नाम का कांग्रेस द्वारा समर्थित वितंडावाद हुआ था। उसकी हम सब ने मुखालफत की थी। अदालत तक गए थे। सुप्रीम कोर्ट ने उस सलवा जुडूम के पूरे सरंजाम को ध्वस्त कर दिया। नंदिनी सुंदर ने इस संबंध में महत्वपूर्ण काम किया है । मेधा पाटकर ने भी, अरुंधती राय ने, सुधा भारद्वाज ने, बहुत लोगों ने। अब ब्रह्मदेव शर्मा से कई मामलों में इसी तरह के मामलों में सक्रिय संबंध हम लोगों का रहा है।
सुधा चाहती तो बहुत ऐशोआराम का जीवन व्यतीत कर सकती थी। चाहती तो बहुत से शहरी लोगों की तरह आंदोलन करतीं। शोहरत भी पाती, दौलत भी पाती। फिर भी गरीबों की नेता बनी रहती। लेकिन उसने वैभव और शहरी ठाटबाट की जिंदगी छोड़ दी। उसने गरीबी से अपनी जिंदगी, जो तारीफ के काबिल है, चलाई है। छत्तीसगढ़ से दिल्ली चली गईं अपने निजी कारणों से। कुछ पारिवारिक कारण भी थे। उन्होंने एक बच्ची को गोद लिया है। उसका जीवन संवार रही हैं। उसके पहले से बहुत बीमार चल रहा था। बहुत भावुक होकर मैंने फोन भी किया था। लिखा था। मेरी छोटी बहन की तरह काश छत्तीसगढ़ से नहीं जाती। सुधा भारद्वाज की तरह के उदाहरण हिंदुस्तान में उंगलियों पर गिने जाएंगे। इससे ज्यादा मैं क्या कहूं।
सुधा भारद्वाज की अर्णब गोस्वामी के रिपब्लिक गोदी मीडिया द्वारा या ट्रोल आर्मी के द्वारा कोई चरित्र हत्या की कोशिश की जाती रही है। कुछ बातें और बताऊंगा। कुछ वर्षों पहले छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस और कुछ जजों ने सुधा को लेकर मुझसे बात की थी। वे चाहते थे कि सुधा छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में जज बनने के लिए अपनी स्वीकृति दे दें। सुधा ने विनम्रतापूर्वक इंकार किया। मैंने सुधा से पूछा भी था तो हंसकर टाल गई। उसने कहा आप जानते हैं यह काम मैं नहीं कर पाऊंगी। मुझे जो काम करना है। वह मैं ठीक से कर रही हूं। मैं भी जानता था। वह इस काम के लिए नहीं बनी है। फिर भी उनकी योग्यता और क्षमता को देखकर मैंने सिफारिश करने की कोशिश जरूर की थी।
सुधा एक आडंबररहित सीधा सादा जीवन जीती है। उनमें दुख और कष्ट सहने की बहुत ताकत है। यूनियन में संगठन में मतभेद भी होते थे। बहुत से मामलों को सुलझाने में मैं खुद भी शरीक रहा हूं। बहुत अंतरंग बातें मुझे बहुत सी कई मित्रों के बारे में मालूम है। कुल मिलाकर सब एक परिधि के अंदर रहते थे। उसके बाहर नहीं जाते थे। जैसे बर्तन आपस में रसोई घर में टकरा जाते होंगे। लेकिन एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ते। ऐसे बहुत से साथियों के बारे में भ्रम फैलाया जाता रहा है। अफवाह फैलाने वाले खराब किस्म के घटिया लोग हैं। मैं तो कांग्रेस पार्टी का पदाधिकारी रहकर भी कांग्रेस की सत्ता के जमाने में नियोगी के कंधे से कंधा मिलाकर सरकारी आदेशों और व्यवस्था के विरोध करने सहयोग करता था। मुझे किसी का भय नहीं था। कांग्रेस पार्टी ने भी कभी मुझे काम करने से नहीं रोका। यह ईमानदार मजदूर लोगों का एक संगठन है, पारदर्शी लोगों का। जब से यह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बिकाऊ हो गया है, घटिया हो गया है, सड़ा हो गया है। तब से इस तरह की हरकतें वह कर रहा है। न्याय व्यवस्था भी सड़ गई है। जस्टिस कृष्ण अय्यर ने तो न्यायपालिका नामक संस्था को ही अस्तित्वहीन कह दिया है।
-शुभनीत कौशिक
वर्ष 1932 में भारतीय क्रिकेट टीम इंग्लैंड के दौरे पर गई. पोरबंदर के महाराजा की कप्तानी में भारतीय क्रिकेट टीम ने इस दौरे में कुल 37 मैच खेले. इनमें से 26 प्रथम श्रेणी के मैच थे. प्रथम श्रेणी के नौ मैचों में भारतीय क्रिकेट टीम ने जीत हासिल की. उसकी इस सफलता का श्रेय दिग्गज बल्लेबाज सी.के. नायडू और दो तेज गेंदबाजों अमर सिंह और मोहम्मद निसार को दिया गया. इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने क्रिकेट के इतिहास पर लिखी गई अपनी चर्चित किताब ‘अ कॉर्नर ऑफ अ फॉरेन फ़ील्ड’ में भारतीय क्रिकेट टीम के इस इंग्लैंड दौरे के बारे में विस्तार से लिखा है. साथ ही, रामचंद्र गुहा ने सी.के. नायडू को ‘पहला महान भारतीय क्रिकेटर’ भी कहा है.
इसी संदर्भ में, उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद ने भी 12 अक्तूबर 1932 को ‘जागरण’ में छपे एक संपादकीय में भारतीय क्रिकेट टीम के इंग्लैंड दौरे का विवरण लिखा था. प्रेमचंद ने इसमें लिखा कि भारतीय क्रिकेट टीम को भारतीय हॉकी टीम जितनी सफलता भले ही न मिली हो, लेकिन फिर भी उसकी सफलता महत्त्वपूर्ण है. भारतीय क्रिकेट टीम की सफलता पर ख़ुशी जाहिर करते हुए प्रेमचंद ने लिखा था : ‘भारतीय क्रिकेट टीम दिग्विजय करके लौट आयी. यद्यपि उसे उतनी शानदार कामयाबी हासिल नहीं हुई, फिर भी इसने इंग्लैंड को दिखा दिया कि भारत खेल के मैदान में भी नगण्य नहीं है. सच तो यह है कि अवसर मिलने पर भारत वाले दुनिया को मात दे सकते हैं, जीवन के हरेक क्षेत्र में. क्रिकेट में इंग्लैंड वालों को गर्व है. इस गर्व को अबकी बड़ा धक्का लगा होगा. हर्ष की बात है कि वाइसराय ने टीम को स्वागत का तार देकर सज्जनता का परिचय दिया.’
जैसे आज भारत में आईपीएल का क्रेज बना हुआ है, बीसवीं सदी के तीसरे दशक में मार्लेबन क्रिकेट क्लब (एमसीसी) के क्रिकेट मैचों की धूम थी. उस समय एक ओर भारत की ब्रितानी हुकूमत द्वारा आर्थिक मंदी का रोना रोया जा रहा था, वहीं दूसरी ओर एमसीसी के मैचों का पूरे धूम-धाम से आयोजन हो रहा था. इस पर टिप्पणी करते हुए प्रेमचंद ने ‘जागरण’ में लिखा था कि क्रिकेट मैचों के लिए ‘रेल ने कन्सेशन दे दिए, एक्सप्रेस गाड़ियां दौड़ रही हैं, तमाशाई लोग थैलियां लिए कलकत्ता भागे जा रहे हैं. और इधर गुल मचाया जा रहा है कि मंदी है और सुस्ती है. मंदी और सुस्ती है मजदूरी घटाने के लिए, नौकरों का वेतन काटने के लिए, ऐसे मुआमिलों में हमेशा तेजी रहती है.’
प्रेमचंद ने 15 जनवरी 1934 को ‘जागरण’ में ही लिखे एक संपादकीय में इस भयावह स्थिति की तुलना फ्रेंच क्रांति के समय के फ्रांस से की. उन्होंने लिखा : ‘कहते हैं कि फ्रेंच क्रांति के पहले जनता तो भूखों मरती थी और उनके शासक और जमींदार और महाजन नाटक और नृत्य में रत रहते थे, वही दृश्य आज हम भारत में देख रहे हैं. देहातों में हाहाकार मचा हुआ है. शहरों में गुलछर्रे उड़ रहे हैं. कहीं एमसीसी की धूम है, कहीं हवाई जहाज़ों के मेले की. बड़ी बेदर्दी से रुपए उड़ रहे हैं.’
क्रिकेट खिलाड़ियों के चयन में आज भारत में चयनकर्ताओं द्वारा जो मनमानी की जाती है, ठीक वैसी ही स्थिति तब भी थी. प्रेमचंद ने ‘जागरण’ में 1 जनवरी 1934 को लिखे संपादकीय में खिलाड़ियों के चयन पर टिप्पणी करते हुए लिखा : ‘यहां जिस पर अधिकारियों की कृपा है, वह इलेविन में लिया जाता है. यहां तो पक्का खिलाड़ी वह है, जिसे अधिकारी लोग नामजद करें. भारत की ओर से वाइसराय बधाई देते हैं, भारत का प्रतिनिधित्व अधिकारियों ही के हाथ में है. फिर क्रिकेट के क्षेत्र में क्यों न निर्वाचन अधिकार उनके हाथ में रहे.’
संपत्तिशाली वर्ग, राजे-महाराजों द्वारा क्रिकेट में दिखाई जा रही रुचि का कारण भी प्रेमचंद बख़ूबी समझते थे. वे लिखते हैं : ‘सुना है वाइसराय साहब को क्रिकेट से बड़ा प्रेम है. जवानी में अच्छे क्रिकेटर थे. अब खेल तो नहीं सकते मगर आंखों से देख तो सकते हैं. और जिस चीज में हुज़ूर वाइसराय को दिलचस्पी हो उसमें हमारे राजों, महाराजों, नवाबों और धनवानों को नशा हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं.’ उसी दौरान बनारस में हुए एक क्रिकेट मैच में पांच हजार दर्शक जमा हुए थे, जिनसे टिकट के रूप में पच्चीस हजार रुपए वसूले गए थे. इस पर टिप्पणी करते हुए प्रेमचंद ने लिखा कि ‘कम-से-कम पच्चीस हजार रुपए केवल टिकटों से वसूल हुए और दिया किसने, उन्हीं बाबुओं और अमीरों ने जिनसे शायद किसी राष्ट्रीय काम के लिए कौड़ी न मिल सके.’
उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद ने अपनी साहित्यिक कृतियों में भी क्रिकेट के बारे में लिखा है. उपन्यास ‘वरदान’ में प्रेमचंद ने अलीगढ़ और प्रयाग के छात्रों के बीच हुए क्रिकेट मैच का जीवंत वर्णन किया है. ‘वरदान’ का एक अहम किरदार प्रतापचंद्र हरफ़नमौला क्रिकेटर है. अलीगढ़ की टीम द्वारा रनों का अंबार खड़ा किए जाने के बाद प्रयाग की टीम प्रतापचंद्र की बल्लेबाजी पर पूरी तरह निर्भर हो जाती है.
प्रेमचंद ने ‘वरदान’ में उल्लिखित इस मैच में प्रतापचंद्र की बल्लेबाजी का जो रोमांचक वर्णन किया है, उसे पढ़ें : ‘तीसरा गेंद आया. एक पड़ाके की ध्वनि हुई और गेंद लू की भांति गगन भेदन करता हुआ हिट पर खड़े होने वाले खिलाड़ी से सौ गज आगे गिरा. लोगों ने तालियां बजाईं. सूखे धान में पानी पड़ा. जाने वाले ठिठक गए. निराशों को आशा बंधी. चौथा गेंद आया और पहिले गेंद से 10 गज आगे गिरा. फील्डर चौंके, हिट पर मदद पहुंचाई. पांचवां गेंद आया और कट पर गया. इतने में ओवर हुआ. बॉलर बदले, नए बॉलर पूरे वधिक थे. घातक गेंद फेंकते थे. पर उनके पहिले ही गेंद को प्रताप ने आकाश में भेजकर सूर्य से स्पर्श करा दिया. फिर तो गेंद और उसकी थापी में मैत्री-सी हो गई. गेंद आता और थापी से पार्श्व ग्रहण करके कभी पूर्व का मार्ग लेता, कभी पश्चिम का, कभी उत्तर का और कभी दक्षिण का. दौड़ते-दौड़ते फील्डरों की सांसें फूल गईं.’
इसी तरह प्रेमचंद ने क्रिकेट पर एक कहानी भी लिखी थी, जिसका शीर्षक ही है ‘क्रिकेट मैच’. यह कहानी प्रेमचंद के निधन के बाद कानपुर से छपने वाले उर्दू पत्र ‘ज़माना’ में जुलाई 1937 में छपी थी. डायरी शैली में लिखी गई यह कहानी जनवरी 1935 से शुरू होती है. इस कहानी के मुख्य पात्र हैं भारतीय क्रिकेटर जफर और इंग्लैंड से डॉक्टरी की पढ़ाई कर भारत लौटी हेलेन मुखर्जी. जफर को भारतीय टीम के मैच हारने का दुख है और वह इसका कारण भी जानता है – चयनकर्ताओं की मनमानी. जफर अपनी डायरी में दर्ज करता है ‘हमारी टीम दुश्मनों से कहीं ज़्यादा मजबूत थी मगर हमें हार हुई और वे लोग जीत का डंका बजाते हुए ट्रॉफी उड़ा ले गए. क्यों? सिर्फ़ इसलिए कि हमारे यहां नेतृत्व के लिए योग्यता शर्त नहीं. हम नेतृत्व के लिए धन-दौलत ज़रूरी समझते हैं. हिज़ हाइनेस कप्तान चुने गए, क्रिकेट बोर्ड का फैसला सबको मानना पड़ा.’
इस कहानी में प्रेमचंद ने औपनिवेशिक काल में भारतीय क्रिकेट की दशा को बिलकुल स्पष्टता से अभिव्यक्त कर दिया है. यह वह समय था, जब योग्य क्रिकेटरों की उपेक्षा होती थी और राजा-महाराजा अपनी अयोग्यता के बावजूद क्रिकेट टीम का नेतृत्व करते थे. ऐसी ही हालत में जफर की मुलाक़ात हेलेन मुखर्जी से होती है, जो योग्यता और कौशल के आधार पर हिंदुस्तानी क्रिकेटरों की एक टीम बनाना चाहती है. जफर के साथ मिलकर हेलेन लखनऊ, अलीगढ़, दिल्ली, लाहौर और अजमेर से खिलाड़ियों को चुनती है और एक क्रिकेट टीम तैयार करती है. कहानी में यह क्रिकेट टीम जफर के नेतृत्व में बंबई में आस्ट्रेलिया की क्रिकेट टीम से एक मैच खेलती है और उसे पराजित भी करती है.(satyagrah)
-चैतन्य नागर
कुछ महीने पहले तक हमारी बहस का मुद्दा यह था कि हमारी शिक्षा प्रणाली में क्या खामियां हैं और वे कैसे दूर होंगी| महामारी ने हमें इस हालत में पहुंचा दिया है कि अब हमें यह भी नहीं मालूम कि शिक्षा के नाम पर जो कुछ हमारे पास है, उसका भी भविष्य क्या होगा | कोरोना वायरस से फैली बीमारी और उसके भय ने शिक्षा की दुनिया को महासंकट में डाल दिया है| देश में करीब 32 करोड़ छात्र और छात्राएं इस समय अपनी पढ़ाई-लिखाई को लेकर पशोपेश में हैं| यह संख्या अमेरिका की पूरी आबादी से थोड़ी ही कम है! इसके अलावा पूरी दुनिया में तो 193 देशों में 157 करोड़ बच्चों को लेकर असमंजस बना हुआ है| उनके स्कूल कब खुलेंगे, और खुलेंगें भी तो कैसे| एक वैश्विक महामारी के साए में अब किस तरीके से उन्हें पढ़ाया जाएगा? ये सवाल नेताओं, शिक्षाविदों, नीति निर्धारकों, शिक्षकों और छात्रों को लगातार परेशान कर रहे हैं|
शिक्षा के सम्बन्ध में फिलहाल कोई भी फैसला सही नहीं लग रहा रहा| हर जवाब के साथ कई सवाल, हर समाधान के साथ अगिनत समस्याएं भी सामने आ रही हैं| स्कूल और कॉलेज फिर से खोलने या न खोलने का फैसला संभवतः अब वायरस के गम्भीर वैज्ञानिक अध्ययन से आने वाले परिणामों पर ही निर्भर करेगा| आने वाले समय में वायरस की हरकतें कैसी होगी, क्या उसे किसी टीके की खोज के बाद काबू में कर लिया जाएगा, क्या ये टीके इस स्तर पर लोगों को उपलब्ध होंगें कि देश भर के स्कूल जाने वाले बच्चों, उनके सम्पर्क में आने वाले शिक्षकों और अन्य स्कूल कर्मियों को ये लगाये जा सकें और उन्हें सुरक्षित घोषित किया जा सके?
इस बात का फिलहाल अंदाजा नहीं कि स्कूल खुलेंगे कब| मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल ने थोड़े दिन पहले कहा कि स्कूल 15 अगस्त के बाद ही शायद खुल पायेंगें| केंद्र सरकार सभी राज्य सरकारों के साथ विचार विमर्श करने के बाद ही स्कूलों को खोलने का फैसला कर सकेगी| गौरतलब है कि इस सम्बन्ध में अंतिम फैसला राज्य सरकारों को ही लेना होगा| देश में कई अभिभावक संघों का मानना है कि वर्ष 2020-21 को ‘शून्य शैक्षणिक वर्ष’ घोषित कर दिया जाना चाहिए| मौजूदा हालात को देखते हुए यह बात काफी तर्कसंगत भी लगती है| रोज़-रोज़ नए फैसले करने और छात्रों को भ्रमित करने से बेहतर है कि इस बारे में एक बार स्पष्ट फैसला किया जाए| किसी भी वैज्ञानिक और बड़े चिकित्सक ने स्पष्ट तौर पर अभी तक यह नहीं कहा है कि ये महामारी कब इस हद तक नियंत्रित हो जायेगी कि छोटे बच्चों को लेकर कोई फैसला किया जा सकेगा| कई जगहों पर अभिभावकों ने कहा है कि जब उनके जिले में पिछले 21 दिनों में संक्रमण का एक भी मामला नहीं आएगा, तभी वे बच्चों को स्कूल वापस भेजने पर विचार करेंगें| कइयों ने कहा कि पूरे राज्य और देश में भी तीन हफ्ते तक एक भी मामला न आने पर वे बच्चों को स्कूल भेजेंगें| बड़ी संख्या में अभिभावकों ने साफ़-साफ कहा है कि जब तक टीका नहीं आएगा, और सभी को नहीं लगा दिया जाएगा, वे बच्चों को स्कूल नहीं भेजने वाले| शिक्षा में बच्चों के साथ अभिभावकों की भी समान हिस्सेदारी है| उनकी सहमति के बगैर न ही सरकार स्कूल खोल सकती है और न ही शिक्षा बोर्ड इस मामले में कोई निर्देशावाली जारी कर सकेंगें| इजराइल का उदाहरण सामने है| वहां स्कूल खुलने के दो हफ्तों बाद महामारी ने फिर से हमला किया और एक ही स्कूल में 130 संक्रमित मामले सामने आये| सरकार ने फिर स्कूल बंद किये, और नए निर्देशों के अनुसार जैसे ही किसी स्कूल में कोविड-19 संक्रमण का एक भी मामला आएगा, उसे बंद कर दिया जाएगा| स्कूलों को खोलने के फैसले के तुरंत बाद इजराइल में करीब 6800 छात्रों और शिक्षकों को क्वारंटाइन किया गया| चीन के शंघाई में बच्चों को स्कूल आने के समय और उसके बाद भी बार-बार थर्मल स्कैनर से जांच करवानी पड़ी है और पूरे स्कूल में जगह जगह पोस्टरों के माध्यम से बच्चों को संक्रमण से बचने के तरीके बताये गए हैं| स्कूल के डाइनिंग हॉल में हर बच्चे के पास एक स्क्रीन लगाई गयी जिससे वह बिलकुल भी दूसरे बच्चे के संपर्क में न आ पाए| हमारे देश के स्कूलों में इतनी जगह कहाँ कि इस तरह के नियमों का पालन हो सकेगा| एक कक्षा में कम से कम सत्तर बच्चे बैठते हैं, वहां कैसे शारीरिक दूरी के नियमों का पालन होगा? बहुत महंगे रिहायशी स्कूलों में भी इतनी जगह कहाँ है कि बच्चों को डाइनिंग हॉल में भोजन के समय दो या तीन मीटर की दूरी पर बैठाया जाए|
जीवन का प्रश्न शिक्षा से ज्यादा बड़ा प्रश्न है| जान है तो पढ़ाई-लिखाई है| सरकार को माता पिता,शिक्षकों और समूचे स्कूल समुदाय को पहले आश्वस्त करना होगा कि बच्चों, शिक्षकों और संस्थान में काम करने वाले बाकी लोगों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को कोई खतरा नहीं होगा| क्या स्कूल से संक्रमण फ़ैल सकता है, क्या वहां सफाई के लिए पर्याप्त व्यवस्था है? वहां काम करने वाले बाहर से भी आयेंगें, उनकी साफ़ सफाई और स्वच्छता पर कैसे निगरानी रखे जाएगी? क्लास रूम के आकार को कैसे बदला जायेगा, जिससे वहां सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों को माना जा सके? स्कूल को किस तरह की मानसिक और मनोवैज्ञानिक सहायता की जरूरत पड़ेगी और वह कैसे मुहैया करवाई जायेगी? हर देश में, और देश के भी हरेक राज्य में स्थितियां अलग-अलग हैं और उनको ध्यान में रखते हुए इन सवालों का जवाब ढूंढना होगा, तभी स्कूल-कॉलेज खोलने पर समेकित ढंग से विचार किया जा सकता है| यह एक ऐसा मामला है जिसमे स्वास्थ्य मंत्रालय और शिक्षा मंत्रालय को बहुत गहरा सामंजस्य और तालमेल बनाकर काम करना होगा, नहीं तो भविष्य में स्थितियां और भी ज्यादा बिगड़ने की संभावना है|
स्कूलों को भी इस बात पर विचार करना होगा कि क्या वे बदली हुई परिस्थितियों का सही तरीके से प्रबंधन करने के लिए प्रस्तुत हैं| क्या उसके पास पर्याप्त कर्मी हैं, इतने शिक्षक हैं कि वह इन तमाम शर्तों को पूरा करते हुए शिक्षा संस्थान खोल पायेंगें? यदि स्कूलों को दो शिफ्ट में चलाना पड़ा, तो क्या प्रबंधन और शिक्षक इस स्थिति के लिए तैयार होंगें? क्या सरकार को बड़े पैमाने पर अब होम स्कूलिंग, या घर से बच्चों को पढ़ाने को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए, जिससे कि बच्चे घरों में पढ़ सकें, और स्कूल के जरिये अपना पंजीकरण करवा कर इम्तहान दे सकें? इस विषय पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए| मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए यह एक विचारणीय विकल्प होगा, पर यह सभी वर्ग के बच्चों पर लागू नहीं किया जा सकता|
अब जब स्कूल खुलेंगें तो उनका खुलने और बंद होने का समय भी बदलना पड़ सकता है| साथ ही रोज़ की समय-सारणी में भी बड़ा बदलाव लाना पड़ सकता है| स्कूल बसों से आने-जाने वाले बच्चों के लिए एक और सवाल सामने खड़ा हो जाएगा, और वह यह कि स्कूल क्षमता से आधे बच्चों को लेकर बसें कैसे चलाएगा| इस तरह की व्यवस्था से उसका खर्च बढ़ेगाऔर वह इस खर्च को अभिभावकों से फीस के रूप में वसूलने की कोशिश करेगा| अभिभावक फीस बढ़ाये जाने का विरोध करेंगें, क्योंकि उन्हें लगेगा कि किसी अजीबोगरीब आपदा के लिए उन्हें सज़ा दी जा रही है| इस तरह दोनों असहाय पक्षों के बीच अनावश्यक मनोमालिन्य बढेगा| बच्चों को किताब-कापियों और पानी की बोतलों के साथ सैनिटाइज़र और फेस मास्क भी सम्भालने पड़ेंगें| स्कूलों में शौचालयों की सफाई का विशेष ध्यान देना पड़ेगा और लगातार उनकी निगरानी करनी पड़ेगी| ये सारी बातें इतनी जरुरी है कि इनकी कल्पना से ही मन परेशान हो रहा है| स्कूल पढ़ाई-लिखाई की जगह कम और अस्पताल जैसे ज्यादा दिखेंगें| यह कितना भयावह है!
हाल ही में भारतीय जन स्वास्थ्य फाउंडेशन के अध्यक्ष के श्रीनाथ रेड्डी ने बताया कि अब यह समझ आ रहा है कि बच्चों में भी संक्रमण फैलने के खतरे बहुत अधिक हैं| उनके जल्दी ठीक होने की संभावना भी अधिक है, पर वे दूसरों में यह संक्रमण फैला सकते हैं| ख़ास कर स्कूलों में वे वयस्क शिक्षकों और अन्य कर्मियों के लिए खतरा बन सकते हैं| घर जाकर वे अपने परिवार वालों के लिए भी संक्रमण का स्रोत बन सकते हैं| यह खतरा इसलिए भी बड़ा है क्योंकि बच्चे शारीरिक दूरी के नियमों का पालन उतनी गंभीरता के साथ नहीं कर पाते| इस अनिश्चित स्थिति से निपटने के लिए सी बी एस ई ने पाठ्यक्रम को हल्का करने का निर्णय लिया पर जिन अध्यायों को हटाने के लिए उसने सिफारिश की वे लोकतान्त्रिक अधिकारों, संघीय ढाँचे, और धर्म निरपेक्षता से सम्बंधित थे| इसे लेकर एक राजनीतिक विवाद खड़ा हो रहा है| पाठ्यक्रम को हल्का करने के नाम पर ग़ालिब, अमीरखुसरो और टैगोर को भी किताबों से हटाने की चर्चा हुई है, और यह निर्णय भी आगे चल कर एक नया बवाल पैदा करेगा, इसकी पूरी आशंका है| इस तरह के फैसले शिक्षा विदों को लेने चाहिए, न कि सरकारी अफसरों को| और ये शिक्षाविद किसी ख़ास पार्टी से जुड़े नहीं होने चाहिए| तमाम उलझनें बनी हुईं हैं; प्रश्न आक्रामक मुद्रा में हैं, झेंपते हुए उत्तर बगलें झांक रहे हैं|