विचार/लेख
- सलमान रावी
पूर्वोत्तर राज्य मिज़ोरम का अपने दो पड़ोसी राज्यों से तनाव के कारण केंद्र सरकार को हस्तक्षेप करने की नौबत आ पड़ी.
अब दावा किया जा रहा है कि हालात क़ाबू में हैं.
मिज़ोरम के दो पड़ोसी राज्य हैं असम और त्रिपुरा, जिनके साथ उसका विवाद है.
केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला ने सोमवार को असम और मिज़ोरम के मुख्य सचिवों के साथ वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के ज़रिये बातचीत की.
दोनों ही मामलों में राज्यों की सीमा को लेकर ही विवाद है जो अभी तक निर्धारित नहीं है और जिसे लेकर समय-समय पर तनाव बढ़ जाता है.
असम के साथ विवाद
असम और मिज़ोरम की सरकारों का कहना है कि वो बातचीत से संतुष्ट हैं और हालात को सामान्य बनाने की दिशा में दोनों ही राज्य पूरी कोशिश कर रहे हैं.
असम और मिज़ोरम के बीच बस एक छोटी सी बात ने बड़े तनाव का रूप ले लिया था जिसके बाद शनिवार की देर शाम हिंसक वारदातों की ख़बर आने लगी.
दक्षिण असम के पुलिस उप-महानिरीक्षक दिलीप कुमार डे के अनुसार असम के लैलापुर में मिज़ोरम के सरकारी अधिकारियों ने कोविड-19 की जाँच के लिए एक शिविर बनाया ताकि राज्य में प्रवेश करने से पहले ट्रक चालकों और अन्य कर्मचारियों के साथ-साथ राज्य में प्रवेश करने वाले आम लोगों की कोरोना जाँच हो सके.
असम सरकार को इसपर आपत्ति थी कि अपने राज्य की बजाय दूसरे राज्य में कोई सरकार ऐसा कैसे कर सकती है?
लैलापुर के ज़िलाधिकारी एच लाथिंगा के अनुसार जब असम के प्रशासनिक अधिकारियों ने इसका विरोध किया तो "कुछ मिज़ो युवक" वहां पहुँचे और उन्होंने ट्रकों में तोड़ फोड़ के साथ-साथ कुछ मकानों और दुकानों को नुक़सान भी पहुँचाया. उनके अनुसार इस घटना में सात लोगों के घायल होने की बात कही जा रही है.
घटना को तूल पकड़ना ही था
मिज़ोरम सरकार द्वारा जारी किये गए बयान में कहा गया है कि असम की पुलिस ने मुख्य राजमार्ग के 'तीन पॉइंट' पर नाकेबंदी कर दी और आवश्यक वस्तुएं लेकर आने वाले वाहनों को रोक दिया.
मिज़ोरम सरकार ने अपने बयान में उन तीन स्थानों को चिन्हित किया जहां असम की सरकार ने वाहनों का आवागमन रोका था. ये स्थान हैं थिन्घलुन, साईहाईपुई और वायरेंगटे.
इसपर मिज़ोरम की सरकार के मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाई गई जिसके बाद मुख्यमंत्री ज़ोरामथांगा ने असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल से फ़ोन पर बात भी की. बाद में उन्होंने अपनी बातचीत को कारगर बताया और सोनोवाल की तरफ़ से की गई पहल की तारीफ़ भी की. सोनोवाल ने भी ट्वीट कर ऐसा ही किया.
असम में एक मुस्लिम दंपति मंदिरों और रास्तों को संवार रहा है
असम के वन और पर्यावरण मंत्री परिमल सुकला ने हिंसा वाले इलाक़े का दौरा किया और वहां मौजूद पत्रकारों से बातचीत में कहा कि हालात पूरी तरह से सामान्य हो गए हैं.
त्रिपुरा के साथ विवाद
मिज़ोरम का जो विवाद त्रिपुरा के साथ हुआ उसकी जड़ में भी सीमा का विवाद ही है.
त्रिपुरा के अतिरिक्त गृह सचिव अनिन्दिया भट्टाचार्य के अनुसार मामित ज़िले में मिज़ोरम के कुछ जनजातीय युवक एक मंदिर बनाने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन ज़िला प्रशासन ने इसकी अनुमति नहीं दी.
घटना को लेकर बढ़ रहे तनाव को देखते हुए मिज़ोरम की सरकार ने इलाक़े में धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लगा दी. लेकिन सीमा का सही तरीक़े से रेखांकन नहीं होने की वजह से मिज़ोरम ने त्रिपुरा के मामित ज़िले में भी इसे लागू करने का अध्यादेश निकाल दिया.
इसपर दोनों राज्यों के बीच ठन गई और बाद में वरिष्ठ अधिकारियों के हस्तक्षेप से ये मामला फ़िलहाल शांत हो गया है, ऐसा सरकारें दावा कर रही हैं.
असम के साथ मिज़ोरम की सीमा लगभग 165 किलोमीटर की है. लेकिन इसको सही तरीक़े से चिन्हित नहीं किया गया है जिसको लेकर समय-समय पर बड़े विवाद पैदा हो जाते हैं. सरकारी सूत्र कहते हैं कि सीमा को चिन्हित करने का प्रयास वर्ष 1995 से ही चल रहा है जो अब तक लंबित है.
असम का लैलापुर ज़िला भी इसमें से एक है जिसके बड़े इलाक़े पर मिज़ोरम दावा करता रहा है. स्थानीय लोगों के लिए ये परेशानी का ज़रिया बन गया है क्योंकि बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो सीमा निर्धारण नहीं होने की वजह से कई सरकारी सुविधाओं से वंचित हैं.
असम सरकार के एक अधिकारी ने नाम नहीं लिखने की शर्त पर कहा, "भारत में भी कई लद्दाख हैं, जहां सीमाओं का विवाद सदियों से चला रहा है. और, पता नहीं कब तक चलता रहेगा."(bbc)
अपने बच्चों को भी किसान बनते देखना चाहते हैं 34 फीसदी किसान, जबकि 51 फीसदी ने माना उनके लिए फायदेमंद है खेती
- Lalit Maurya
किसान और किसान संगठनों का एक वर्ग नए कृषि कानूनों का पुरजोर विरोध कर रहा है। इन नए अधिनियमों पर किसानों की राय जानने के लिए गांव कनेक्शन ने एक सर्वेक्षण किया था, जिसके नतीजे 'द एग्रीकल्चर फार्मर्स पर्सेप्शन ऑफ द न्यू एग्री लॉज' नामक रिपोर्ट के रूप में आज प्रकाशित किए हैं| इन कानूनों में अन्य बातों के साथ-साथ किसानों को खुले बाजार में अपनी फसल बेचने की आजादी देने का वादा किया गया है| आइये जानते हैं इस सर्वेक्षण में क्या कुछ निकलकर सामने आया है|
सर्वे के अनुसार हर दूसरा किसान इन तीनों कानूनों का विरोध करता है, जबकि 35 फीसदी किसानों ने इन कानूनों का समर्थन किया है| हालांकि जिन 52 फीसदी किसानों ने इन कानूनों का विरोध किया है उसमें से 36 फीसदी को इन कानूनों के बारे में जानकारी ही नहीं है| इसी तरह इस कानून का समर्थन करने वाले 35 फीसदी किसानों में से 18 फीसदी को इनके बारे में कोई जानकारी नहीं है| ऐसे में उनकी राय कितनी मायने रखती है यह सोचने का विषय है| यह सर्वेक्षण 3 से 9 अक्टूबर के बीच देश के 16 राज्यों के 53 जिलों में किया गया था।
57 फीसदी किसानों को डर है कि इन नए कानूनों के चलते वे अपनी उपज को कम कीमत पर खुले बाजार में बेचने को मजबूर हो जाएंगे| जबकि 33 फीसदी किसानों को डर है कि कहीं सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को ख़त्म तो नहीं कर देगी| वहीं 59 फीसदी किसानों की मांग है एमएसपी पर एक अनिवार्य कानून बनाया जाना चाहिए| एक और जहां छोटे और सीमान्त किसान (जिनके पास पाँच एकड़ से कम भूमि है) इन कानूनों का समर्थन करते हैं, वहीं दूसरी ओर बड़े किसान इन कानूनों के विरोध में हैं|
28 फीसदी ने माना किसान विरोधी है मोदी सरकार
इस सर्वे में एक दिलचस्प बात यह सामने आई की जहां आधे से अधिक (52 फीसदी) किसान इन कानूनों के विरोध में हैं लेकिन उनमें से 36 फीसदी को यह नहीं पता की यह कानून क्या हैं| मोदी सरकार के विषय में 44 फीसदी किसानों की राय थी कि वो किसानों के हितेषी हैं जबकि 28 फीसदी का कहना था कि यह सरकार 'किसान विरोधी' है। एक अन्य सवाल के जवाब में जहां अधिकांश (35 फीसदी) किसानों ने माना कि मोदी सरकार को किसानों की चिंता है, जबकि लगभग 20 फीसदी ने कहा कि सरकार ने व्यापारिक घरानों और निजी कंपनियों का समर्थन किया है।
क्या हैं वो तीनों विवादित कानून
गौरतलब है कि संसद के पिछले मानसून सत्र में तीन नए कृषि बिल पारित किए थे, जिसे बाद में 27 सितंबर को राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के हस्ताक्षर के बाद कानून का दर्जा दे दिया गया था| इसमें पहला कानून किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020 है| इस कानून के तहत किसान अपनी उपज को कृषि उपज बाजार समिति (एपीएमसी) द्वारा निर्धारित बाजार यार्ड के बाहर भी बेच सकते हैं| यह नियम किसानों को उनकी उपज को बेचने की आजादी देता है|
दूसरा कानून किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) अनुबंध मूल्य एश्योरेंस एंड फार्म सर्विसेज एक्ट, 2020 किसानों को पहले से ही तय मूल्य पर भविष्य की उपज को बेचने के लिए कृषि व्यवसायी फर्मों, प्रोसेसर, थोक विक्रेताओं, निर्यातकों और बड़े खुदरा विक्रेताओं के साथ अनुबंध करने का अधिकार देता है। जबकि तीसरे कानून, आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 का उद्देश्य अनाज, दलहन, तिलहन, प्याज, और आलू जैसी वस्तुओं को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाना और स्टॉक होल्डिंग सीमा को लागू करना है।
सर्वेक्षण से पता चला है कि करीब 67 फीसदी किसानों को नए कृषि कानूनों के बारे में जानकारी है। जबकि दो-तिहाई को देश में चल रहे किसानों के विरोध के बारे में पता है। इस तरह के विरोध के विषय में उत्तर-पश्चिम क्षेत्र के किसान कहीं अधिक जागरूक हैं| जहां इस बारे में 91 फीसदी किसानों को जानकारी है| जिसमें पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश शामिल हैं। वहीं पूर्वी क्षेत्र (पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़) में इस बारे में बहुत कम जागरूकता है| वहां 46 फीसदी से कम किसान इस बारे में जानकारी रखते हैं।
इन कानूनों का समर्थन करने वाले 47 फीसदी किसानों का मानना है कि इन कानूनों की वजह से उन्हें देश में कहीं भी अपनी उपज बेचने की आजादी मिल जाएगी| जबकि इसके विपरीत इसका विरोध करने वाले 57 फीसदी किसानों का मानना है कि इन कानूनों की वजह से उन्हें खुले बाजार में कम कीमत पर अपनी फसल बेचने के लिए मजबूर किया जाएगा|
39 फीसदी किसानों का मत है कि नए कृषि कानूनों के चलते देश में मंडी / एपीएमसी प्रणाली पूरी तरह ध्वस्त हो जाएगी| वहीं 46 फीसदी किसानों का मानना है कि इन कानूनों के चलते किसानों का शोषण करने वाली बड़ी और निजी कंपनियों को बढ़ावा मिलेगा। जबकि 39 फीसदी का कहना है कि इन कानूनों के चलते भविष्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली पूरी तरह ख़त्म हो जाएगी|
लगभग 63 फीसदी किसानों का कहना है कि वो अपनी फसल को एमएसपी पर बेचने में कामयाब रहे थे| यह आंकड़ा दक्षिण क्षेत्र (केरल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश) में 78 फीसदी था| वहीं उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र (पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश) में 75 फीसदी रहा| 36 फीसदी किसानों के लिए सरकारी मंडियां और एपीएमसी उपज बेचने का सबसे पसंदीदा माध्यम है। उत्तरपश्चिम क्षेत्र में करीब 78 फीसदी किसान इनके माध्यम से अपनी उपज बेचना पसंद करते हैं|
जहां 36 फीसदी किसानों का मानना है कि नए कृषि कानूनों से उनकी स्थिति में सुधार आएगा, वहीं 29 फीसदी किसानों ने बताया कि उन्हें विश्वास है कि यह कानून 2022 तक उनकी आय को दोगुना करने में मदद करेंगे। (downtoearth)
प्रकाश दुबे
महाराष्ट्र नाम है। काम भी राष्ट्र से बड़ा होता है। विश्व मराठी सम्मेलन अगले वर्ष 28 से 31 जनवरी तक अमेरिका में होगा। सम्मेलन में भारत के मराठी संगठनों के साथ 27 देशों के महाराष्ट्र मंडल आयोजक हैं। अमेरिका के साठ राज्यों के संगठनों का सहयोग है। महाध्यक्ष, महासंरक्षक और महा स्वागताध्यक्ष के साथ पर्याप्त संख्या में विभिन्न देशों के अध्यक्ष, संरक्षक और स्वागताध्यक्ष हैं।
परमाणु वैज्ञानिक डा अनिल काकोडक़र महासम्मेलनाध्यक्ष हैं। साथ में नौ महानुभावों का अध्यक्ष मंडल है। सुमित्रा महाजन से गत वर्ष लोकसभाध्यक्ष का पद और लोकसभा की उम्मीदवारी छिन चुकी है। राज्यपाल की पात्रता पर किसी ने गौर नहीं किया। महासम्मेलन की महास्वागताध्यक्ष का जिम्मा संभालने की पूरी फुर्सत है। 25 स्वागताध्यक्ष की टीम साथ है। भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ था। तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को कुछ नहीं करना पड़ा। सरकार के सहयोगी संगठन और स्वयंसेवकों ने मिलकर आप ही पूरी व्यवस्था संभाली थी। मराठी सम्मेलनों में सरकार की भूमिका कम है। वर्तमान और भूतपूर्व बत्तीदार भी गिने चुने हैं। महासम्मेलन के पीछे महा-मेधा को पहचानें। किसी को अमेरिका जाने की जरूरत नहीं है। सब कुछ आन लाइन है। है न, आम के आम और गुठली के दाम।
रंगे पत्रकार
भारत (आप चाहें तो आर्यावर्त कहें) के पत्रकारों और उनके संगठनों की गिनती की हिमाकत करना नासमझी है। अधिकृत तौर पत्रकार संगठन किसी राजनीतिक दल से संबद्ध नहीं होते।कर्ताधर्ताओं की बंदर कूदनी से रंग की पहचान हो जाती हैं। कोई लाल है, कोई नारंगी। मौसम के अनुसार रंग बदलने वालों की कमी नहीं है। पहली बार श्रमजीवी पत्रकारों के एक संगठन ने खुल्लमखुल्ला राजनीतिक दल के मजदूर संगठन से संबद्धता का दावा करते हुए उपराष्ट्रपति को पत्र लिखा है। आपका अनुमान गलत है। यह विक्रम उस आजीवन अध्यक्ष के नाम नहीं है, जो अपने आप को भाई का चंद बरदाई तथा नायडू का हमभाषी बताकर गर्वित होता है।
राज्यसभा टीवी से तीन दर्जन पत्रकारों को हाल में नौकरी से अलग कर दिया गया है। वर्किंग जनर्लिस्ट शब्द वाले संगठन ने राज्यसभा के पदैन सभापति वेंकैया नायडू को पत्र लिखा। नारंगी पहचान बतलाते हुए संगठन ने निकाले गए पत्रकारों पर दया की मांग की। कई सुझाव दे डाले। राज्यसभा टीवी और लोकसभा टीवी को मिलाकर एक करने या दोनों की जगह नया संसद टीवी बनाने की कोशिश है या महामारी मी मार? उपराष्ट्रपति जानते होंगे।
सडक़ चलते वोट
घुमावदार मार्ग पर संकेतक पढ़ा था-हम सडक़ बनाते हैं ताकि आप जल्दी पहुंचें। असावधानी और हड़बड़ी करने पर गंतव्य फिसल सकता है। केन्द्रीय सडक़ परिवहन सहित कुछ मंत्रालयों की कमान नितीन गडकरी संभालते हैं। गडकरी ने असम में ब्रह्मपुत्र और बिहार में गंगा पर पुल के काम तेजी से कराए। हिमाचल प्रदेश और लद्दाख के बीच सीमा पर महत्वपूर्ण सडक़ आवागमन शुरु कराने सुरंग का काम पूरा किया। उद्घाटन, शिलान्यास आदि का गुरुतर दायित्व प्रधानमंत्री ने संभाला।
इन सब कामों में तेजी लाने वाले नितीन गडकरी को इन दिनों शिलान्यास या उद्घाटन में हाजिर रहने का कष्ट नहीं करना पड़ा। बिहार में कुछ विधानसभा क्षेत्रों में सडक़ और पुल के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं। यही हाल मध्यप्रदेश के दो दर्जन क्षेत्रों में उपचुनाव का है। बिहार विधानसभा चुनाव, मप्र, उत्तरप्रदेश आदि के उपचुनाव के लिए प्रमुख प्रचारकों की सूची में सडक़ बनवाने वाले का नाम शामिल नहीं है। कोरोना से बचाव को इसका कारण मान सकते हैं। यह भी सोच सकते हैं कि गडकरी की जरूरत चुनाव घोषणा के पहले तक ही थी।
शक्तिरूपेण संस्थिता
राजनीति समेत समाज के हर वर्ग में बदलाव की रफ्तार सुस्त होती है। राजेन्द्र माथुर जैसे समतावादी संपादक की पहल के फलस्वरूप देश के संपादकों की जानी-मानी और एकमात्र संस्था एडिटर्स गिल्ड में करीब तीन दशक पहले मृणाल पांडे महासचिव बनीं। नेताओं को मुफ्त सलाह देना विद्वान संपादक अपना विशेषाधिकार मानते हैं। कभी-कभार स्वयं भी पालन करने का इरादा करते हैं। सो, कोशिश हुई कि इस बार एडिटर्स गिल्ड के सारे पद महिलाएं संभालें। बात नहीं बनी। आम राय की परंपरा टूटी। पहली बार मतदान की नौबत आई।
सच्चे झूठे वादों, जोड़ तोड़ और अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद लोकसभा चुनाव का आंकड़ा 40 प्रतिशत के पार ले जाने में राजनीतिकों की नाक में दम आता है। कोरोना की कृपा से संपादकों का किसी जगह जमा होकर प्रत्यक्ष मतदान करना संभव नहीं था। गहमागहमी के बावजूद ठीकठाक मतदान में संशय था। 70 प्रतिशत के आसपास मतदान हुआ। नवरात्र के दिन मतगणना हुई। संपादकों के वोट से या देवी संपादकेषु शक्तिरूपेण संस्थिता कथन प्रमाणित हुआ। लगभग 75 प्रतिशत संपादकों ने समता तथा के विचार को समर्थन दिया। सीमा मुस्तफा पहली महिला अध्यक्ष निर्वाचित हुईं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
इकबाल अहमद
पाकिस्तान से छपने वाले उर्दू अखबारों में इस हफ़्ते इमरान खान के खिलाफ विपक्षी महागठबंधन की पहली रैली, और कोरोना से जुड़ी खबरें सुर्खियों में थीं।
पाकिस्तान में इमरान खान की सरकार के खिलाफ विपक्ष ने एक साथ मिलकर मोर्चा खोल दिया है।
20 सितंबर को पाकिस्तान की सभी विपक्षी पार्टियों ने इस्लामाबाद में मिलकर पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) का गठन किया था और इमरान खान की सरकार के खिलाफ पूरे पाकिस्तान में विरोध-प्रदर्शन करने की घोषणा की थी।
प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने विपक्षी पार्टियों की एकजुटता पर हमला करते हुए उन्हें ‘डाकुओं की एकता’ करार दिया था।
लेकिन विपक्षी पार्टियों ने शुक्रवार को (16 अक्टूबर) को पंजाब प्रांत के गुजरानवाला में एक शानदार रैली कर अपने सरकार विरोधी अभियान की शुरुआत की।
इस मौके पर पूर्व प्रधानमंत्री और मुस्लिम लीग (नून) के नेता नवाज शरीफ ने भी वीडियो लिंक के जरिए रैली को संबोधित किया।
नवाज शरीफ भ्रष्टाचार के मामले में दोषी करार दिए जा चुके हैं लेकिन इन दिनों अपनी खराब सेहत का इलाज कराने के लिए लंदन में हैं।
इमरान खान और सेना प्रमुख
पर निशाना
एक्सप्रेस अखबार ने लिखा है, ‘विपक्षी महागठबंधन का सरकार विरोधी पहला पावर शो।’ नवाज शरीफ पिछले कुछ दिनों से पाकिस्तानी सेना पर जमकर हमले कर रहे हैं। इस्लामाबाद के भाषण में भी उन्होंने कहा था, ‘मेरी लड़ाई इमरान खान से नहीं है, बल्कि उनको सत्ता में बिठाने वालों (सेना की तरफ इशारा करते हुए) से है।’
शुक्रवार को गुजरानवाला में भी उन्होंने सेना पर निशाना लगाना जारी रखा।
नवाज शरीफ ने पाकिस्तान के स्थानीय समयानुसार रात के साढ़े ग्यारह बजे अपने भाषण की शुरुआत की लेकिन उस वक़्त भी गुजरानवाला का जिन्ना स्टेडियम लोगों से भरा हुआ था।
अखबार के अनुसार नवाज शरीफ ने मौजूदा सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा पर बाज़ाब्ता नाम लेकर निशाना साधा।
उनका कहना था, ‘हमारी अच्छी भली चलती सरकार को आपने रुखसत करवाया। मुल्क और कौम को अपनी इच्छाओं की भेंट चढ़ाया, सांसदों की खरीद-फरोख्त आपने दोबारा शुरू करवाई, जजों से जोर जबरदस्ती से आपने फैसले लिखवाए।’
जनरल बाजवा पर निशाना साधते हुए नवाज़ शरीफ़ ने कहा, ‘आप ने चुनाव में जनता के जनादेश को रद्द करके, अपनी मर्जी के निकम्मे गिरोह को देश पर थोप दिया।’
नवाज शरीफ ने मौजूदा सेना प्रमुख पर तो हमला किया ही, पूरी पाकिस्तानी सेना की संस्था और उसके इतिहास पर भी नवाज शरीफ जमकर बरसे।
उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में सिविल सरकारों को अपना कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया जाता और जनता के ज़रिए चुने गए नेताओं को ‘गद्दार’ कहा जाता है।
इस पर नवाज शरीफ ने कहा, ‘ढाका में जनरल नियाज़ी ने दुनिया की तारीख में पहली मरतबा खुले आम अपमानजनक तरीके से हथियार डाले, लेकिन गद्दार कौन है? राजनेता। गद्दार कौन है? नवाज शरीफ। गद्दार कौन है? बेनज़ीर भुट्टो। पाकिस्तान में देशभक्त वो लोग कहलाते हैं जिन्होंने संविधान के खिलाफ काम किया और देश तोड़ा।’
इमरान खान ने नवाज शरीफ के पहले दिए गए बयान पर कहा था कि नवाज शरीफ के सेना के खिलाफ बयान पर भारत में खुशियां मनाई जा रहीं हैं।
विपक्षी गठबंधन के एक प्रमुख नेता मौलाना फजलुर्रहमान ने इमरान खान के इस बयान का जवाब गुजरानवाला में दिया।
रैली को संबोधित करते हुए मौलाना ने कहा, ‘भारत ने उस वक्त खुशियां मनाई थीं, जब पाकिस्तान के चुनाव में धांधली हुई थी, जब एक नकली प्रधानमंत्री को देश पर थोपा गया था। आप पाकिस्तान के एजेंडे पर सत्ता में नहीं आए हैं, आप इसराइल या अमरीका के एजेंडे पर सत्ता में आए हैं।’
इमरान खान ने भी किया पलटवार
सेना के बारे में मौलाना फजलुर्रहमान ने कहा, ‘सेना से हमारी कोई लड़ाई नहीं है। लेकिन अगर आप देश की सरहदों की सुरक्षा की जि़म्मेदारी से हटकर राजनीति में हस्तक्षेप करते हैं, संविधान के खिलाफ काम करते हैं, धांधलियां करवाते हैं तो फिर आपके खिलाफ आवाज उठाना हमारा नहीं तो फिर किसका काम है।’
पीडीएम का दूसरा जलसा पाकिस्तान के सबसे बड़े शहर कराची में रविवार (18 अक्टूबर) को होगा।
अखबार जंग ने लिखा है, ‘पीडीएम का दूसरा पावर शो आज कराची में होगा।’
इसके लिए सारी तैयारियाँ कर ली गईं हैं। नवाज शरीफ इस रैली को भी वीडियो लिंक के जरिए संबोधित कर सकते हैं लेकिन पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (पीपीपी) के आसिफ अली जरदारी बीमार होने की वजह से रैली में शामिल नहीं होंगे। हालांकि उनकी पार्टी ही इस रैली की मेज़बानी कर रही है।
इमरान खान ने भी नवाज शरीफ़ पर पलटवार किया है।
उन्होंने कहा, ‘नवाज शरीफ एक गीदड़ की तरह दुम दबाकर भाग गया और वहां बैठकर सेना प्रुमख और आईएसआई (पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी) के खिलाफ बातें कर रहे हैं। नवाज शरीफ ने सिर्फ जनरल कमर जावेद बाजवा पर नहीं, पूरी पाकिस्तानी फौज पर हमला किया है।’
इमरान खान ने कहा कि नवाज शरीफ के इस भाषण के बाद आप एक नए इमरान खान को देखेंगे।
अख़बार नवा-ए-वक़्त के अनुसार इमरान ख़ान ने कहा कि ‘कभी-कभी सोचता हूं, विपक्षी नेताओं को माफ कर दूं, मेरी जि़ंदगी आसान हो जाएगी। लेकिन ये पाकिस्तान के लिए तबाही का रास्ता है। जिंदगी में कभी-कभी मुश्किल फैसले करने पड़ते हैं और वही फैसले आपको ऊपर ले जाते हैं।’ (बीबीसी)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
फ्रांस में मजहब के नाम पर कितनी दर्दनाक खूंरेजी हुई है। एक स्कूल के फ्रांसीसी अध्यापक सेमुअल पेटी की हत्या इसलिए कर दी गई कि उसने अपनी कक्षा में पैगंबर मुहम्मद के कार्टूनों की चर्चा चलाई थी। मुहम्मद के कार्टून छापने पर डेनमार्क के एक प्रसिद्ध अखबार के खिलाफ 2006 में सारे इस्लामी जगत में और यूरोपीय मुसलमानों के बीच इतने भडक़ाऊ आंदोलन चले थे कि उनमें लगभग 250 लोग मारे गए थे। 2015 में इन्हीं व्यंग्य-चित्रों को लेकर फ्रांसीसी पत्रिका ‘चार्ली हेब्दो’ के 12 पत्रकारों की हत्या कर दी गई थी। यह पत्रिका इस घटना के पहले सिर्फ 60 हजार छपती थी लेकिन अब यह 80 लाख छपती है। इस व्यंग्य-पत्रिका में ईसाई, यहूदी और इस्लाम आदि मजहबों के बारे में तरह-तरह के व्यंग्य छपते रहते हैं।
सेमुअल पेटी की हत्या छुरा मारकर की गई। हत्यारे अब्दुल्ला अज़ारोव की उम्र 18 साल है और वह चेचन्या का मुसलमान है। रुस का चेचन्या इलाका मुस्लिम-बहुल है। वहां अलगाववाद और आतंकवाद का आंदोलन कुछ वर्ष पहले इतना प्रबल हो गया था कि रूसी सरकार को अंधाधुंध बम-वर्षा करनी पड़ी थी। अब फ्रांसीसी पुलिस को अब्दुल्लाह की भी हत्या करनी पड़ी, क्योंकि वह आत्मसमर्पण नहीं कर रहा था। अब्दुल्लाह के परिवार समेत नौ लोगों को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है, क्योंकि या तो उन्होंने उसे भडक़ाया था या वे उसके इस अपराध का समर्थन कर रहे थे। इस घटना के कारण अब यूरोप में मुसलमानों का जीना और भी दूभर हो जाएगा।
यूरोप के लेाग मजहब के मामले में अपने ढंग से जीना चाहते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग करते हुए वे इस्लाम, कुरान और मुहम्मद की भी उसी तरह कड़ी आलोचना करते हैं, जैसी कि वे कुंआरी माता मरियम, मूसा और ईसा की करते हैं। वे पोप और चर्च के खिलाफ क्या-क्या नहीं बोलते और लिखते हैं। मैं अपने छात्र-काल में अमेरिकी विद्वान कर्नल रॉबर्ट इंगरसोल की किताबें पढ़ता था तो आश्चर्यचकित हो जाता था। वे एक पादरी के बेटे थे। उन्होंने ईसाइयत के परखच्चे उड़ा दिए थे। इसी प्रकार महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने विलक्षण ग्रंथ ‘सत्यार्थप्रकाश’ के 14 अध्यायों में से 12 अध्यायों में भारतीय धर्मों और संप्रदायों की ऐसी बखिया उधेड़ी है कि वैसा पांडित्यपूर्ण साहस पिछले दो हजार साल में किसी भारतीय विद्वान ने नहीं किया लेकिन उसकी कीमत उन्होंने चुकाई। उन्हें जहर देकर मारा गया। उनके अनुयायी पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानंद, महाशय राजपाल आदि की हत्या की गई। महर्षि दयानंद ने बाइबिल और कुरान की भी कड़ी आलोचना की है लेकिन उनका उद्देश्य ईसा मसीह या पैगंबर मुहम्मद की निंदा करना नहीं था बल्कि सत्य और असत्य का विवेक करना था।
मैं थोड़ा इससे भी आगे जाता हूं। मैं मूर्ति-पूजा का विरोधी हूं लेकिन विभिन्न समारोहों में मुझे तरह-तरह की मूर्तियों और फोटुओं पर माला चढ़ानी पड़ती है। मैं चढ़ा देता हूं, इसलिए कि जिन आयोजकों ने वे मूर्तियां वहां सजाई हैं, मुझे उनका अपमान नहीं करना है। क्या यह बात हमारे यूरोपीय नेता और पत्रकार खुद पर लागू नहीं कर सकते लेकिन उनसे भी ज्यादा दुनिया के मुसलमानों को सोचना होगा। उन्हें खुद से पूछना चाहिए कि इस्लाम क्या इतना छुई-मुई पौधा है कि किसी का फोटो छाप देने, आलोचना या व्यंग्य या निंदा कर देने से वह मुरझा जाएगा ? अरब जगत की जहालत (अज्ञान) दूर करने में इस्लाम की जो क्रांतिकारी भूमिका रही है, उसको देश-काल के अनुरुप ढालकर और अपना और दूसरा का भी भला करना मुसलमानों का लक्ष्य होना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
- चिंकी सिन्हा
वो ज़्यादा नहीं बोलती. बोले भी तो कैसे? जब भी कोई पत्रकार, उनकी अविश्वसनीय कहानी के बारे में पता करने के लिए पहुँचता है, उनके पिता आसपास ही मौजूद रहते हैं.
आने वालों से ज़्यादातर उनके पिता ही बात करते हैं. वो ख़ुद ज़्यादा कुछ नहीं बोलतीं और कई बार तो वो बातचीत के बीच में ही अचानक उठ कर चल देती हैं.
लेकिन, आज वो दुबली-पतली लड़की एक सेलिब्रिटी है. लोग उन्हें 'साइकिल गर्ल' कहते हैं.
बतियाते हुए कभी-कभार वो मुस्कुरा देती हैं. और फिर वो वही जुमला दोहरा देती हैं, जो उन्होंने मिलने आने वाले लगभग सभी लोगों को बोला होगा. लड़की का नाम है ज्योति पासवान है.
15 बरस की ये लड़की तब सुर्ख़ियों में आई थी, जब वो लगभग 1200 किलोमीटर साइकिल चला कर, गुरुग्राम से बिहार के अपने पुश्तैनी गाँव पहुँची थी. ज्योति का गाँव बिहार के दरंभगा ज़िले में है.
ये बात इस साल के मई महीने की है, जब पूरे देश में लॉकडाउन लगा हुआ था. अपने गाँव से शहर जाकर काम कर रहे मज़दूरों पर संकट छाया हुआ था. लॉकडाउन के दौरान शहरों में फँसे बड़ी संख्या में मज़दूर पैदल चल कर, साइकिल से या फिर गाड़ियों से लिफ़्ट लेकर अपने गाँव पहुँच रहे थे.
मार्च महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने से रोकने के लिए अचानक पूरे देश में लॉकडाउन लगाने की घोषणा की थी.
इसी दौरान ज्योति पासवान अपने बीमार पिता मोहन पासवान को साइकिल पर बैठा कर गाँव ले आईं थीं. उसके बाद से ही, ज्योति के घर पर उनसे मिलने आने वालों का तांता लग गया था.
बिहार के दरभंगा ज़िले के सिंघवारा ब्लॉक में पड़ता है सिरहुल्ली गाँव. मोहन पासवान अब इस गाँव के बहुत ख़ास आदमी हैं. इसकी वजह उनकी बेटी ज्योति पासवान हैं.
लौटने के सिवा कोई चारा नहीं था
मोहन पासवान के घर पर लोगों का तांता लग गया था. न जाने कौन-कौन से लोग उनके घर आए थे. वो ज्योति से मिलना चाहते थे. उसे तोहफ़े देते थे. तमाम तरह के प्रस्ताव आ रहे थे. कोई अपने प्रोडक्ट बेचने के लिए ज्योति को ब्रांड एम्बैसडर बनाना चाहता था, तो कोई कुछ और प्रस्ताव लेकर आया था.
दरअसल अपने बीमार पिता को साइकिल पर बैठा कर गुरुग्राम से अपने गाँव पहुँचने की ज्योति पासवान की कहानी एक त्रासदी है. भले ही इसे साहसिक क़दम बता कर आज इसका जश्न मनाया जा रहा हो. हालांकि, ये अपने आप में साहसिक क़दम भी है.
लेकिन असली साहस तो वो था कि उन्होंने ऐसा करने का फ़ैसला किया. अगर रास्ते में क़िस्मत ने साथ दिया तो बहुत बेहतर और अगर नियति पूरे सफ़र के दौरान रूठी रही, तो वो भी उनके फ़ैसले का ही हिस्सा था. लेकिन, असली बहादुरी इसी बात में थी कि ज्योति पासवान ने उस मुश्किल वक़्त में साइकिल से गाँव तक का सफ़र तय करने का फ़ैसला किया.
लेकिन ज्योति को गाँव क्यों वापिस आना पड़ा?
हाई टेक शहर गुरुग्राम में एक झोपड़ी में बसर करने वाली ज्योति के सामने अचानक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई थी.
अचानक तालाबंदी हो जाने से इतने बड़े शहर में उनके पास गुज़ारा करने का कोई ज़रिया ही नहीं था. सब कुछ अचानक बंद हो गया. काम का कोई ठिकाना नहीं बचा. ज्योति के पिता बीमार थे और अब बाप-बेटी के पास एक ही चारा बचा था. किसी न किसी तरह अपने गाँव पहुँचा जाए.
लॉकडाउन के चलते न तो ट्रेनें चल रही थी और न ही बसें. तो, बहुत से आप्रवासी मज़दूरों ने तय किया कि वो पैदल या साइकिल से यूपी, बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के अपने गाँवों तक जाएँगे. ये वो सूबे हैं, जहाँ से काम की तलाश में बड़े पैमाने पर लोग शहरों की ओर जाते हैं.
केंद्रीय श्रम और रोज़गार मंत्रालय के आँकड़े कहते हैं कि लॉकडाउन के दौरान 32 लाख से ज़्यादा आप्रवासी कामगार शहरों से उत्तर प्रदेश लौटे थे. वहीं, बिहार वापस आने वाले मज़दूरों की संख्या 15 लाख के आसपास थी.
'ये बिहार है बाबू. जात ही यहाँ की हक़ीक़त है.'
अगर आप ज्योति के गाँव सिरहुल्ली पहुँचें, तो सड़क से ही उनका घर दिख जाता है. ये गाँव के बाक़ी मकानों से काफ़ी ऊँचा है. तीन मंज़िल का ये मकान, ज्योति और उनके पिता के गाँव लौटने के बाद तीन महीने में बन कर तैयार हुआ था.
अभी भी इस पर रंग-रोगन नहीं हुआ है. लेकिन, घर में एक टॉयलेट बना है. बिहार के इस ग्रामीण क्षेत्र में घर में शौचालय होना बड़ी बात है. घर का बरामदा सामने की सँकरी गली में निकला हुआ है. बरामदे में प्लास्टिक की कुर्सियाँ पड़ी हैं, जिन्हें हाल ही में ख़रीदा गया है.
सिरहुल्ली का भी वही हाल है, जो आपको बिहार के किसी और गाँव में देखने को मिलेगा. ये गाँव भी जात-बिरादरी के हिसाब से टोलों-मोहल्लों में बँटा हुआ है. ऐसे में किसी दलित लड़की को अचानक मिली शोहरत और दौलत को पचा पाना गाँव के बहुत से लोगों के लिए मुश्किल है.
जुलाई महीने में 14 बरस की एक लड़की से बलात्कार के बाद उसकी हत्या की ख़बर ने सुर्ख़ियां बटोरी थीं. वो भी दरभंगा ज़िले की ही रहने वाली थी. इस दलित लड़की को एक बाग़ से आम चुराने की सज़ा दी गई थी. ये ख़बर वायरल हो गई थी.
पेशे से ड्राइवर, प्रेम प्रकाश कहते हैं, "मुझे लगता है कि असल में ये दलितों को दी गई एक वार्निंग थी. ये बताने की कोशिश की गई कि अपनी औक़ात से ज़्यादा मत उछलो. ये बिहार है बाबू. जात ही यहाँ की हक़ीक़त है."
अब एक सेलेब्रिटी हैं, ज्योति
लेकिन ज्योति अपनी उपलब्धि को लेकर बिंदास है, उन्हें कोई संकोच नहीं है. वो जींस और शर्ट पहनती हैं. स्थानीय मीडिया की ख़बरों की मानें, तो ज्योति ने अपनी बुआ की शादी का ख़र्च भी उठाया है. किसी भी आम दिन आप सिरहुल्ली पहुँचें, तो आप उन्हें गाँव की सड़क पर बेतकल्लुफ़ी से साइकिल चलाते देख सकते हैं.
लोग उन्हें जानते हैं. उनके बारे में सबने सुन रखा है. अब ज्योति की ज़िंदगी बिल्कुल अलग है.
साइकिल गर्ल ज्योति का शोहरत का सफ़र
पासवान परिवार ने अब अपना पक्का मकान बना लिया है, जिसमें चार कमरे हैं. पहले पूरा परिवार एक कच्ची झोपड़ी में रहा करता था. वो झोपड़ी अब भी घर के पिछवाड़े दिखती है. उधर, ज्योति के दादा के भाई अपने परिवार के साथ वैसी ही झोपड़ी में रहते है.
उस झोपड़ी के बगल में थोड़ी-सी जगह है. जहाँ आठ साइकिलें खड़ी की गई हैं. उसमें एक लाल रंग की साइकिल भी है, जो दीवार के सहारे खड़ी की गई है. ये साइकिल ज्योति की बड़ी बहन पिंकी की है. पिंकी को वो साइकिल, बिहार के मुख्यमंत्री की बालिका साइकिल योजना के तहत मिली थी.
इस योजना की शुरुआत, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साल 2006 में की थी. उनका मक़सद था कि नौवीं कक्षा में लड़कियों के दाखिले की तादाद बढ़ाई जाए. अब वो साइकिल एक प्रतिमा की तरह घर के पिछवाड़े स्थापित है.
गुरुग्राम से गाँव पहुँचने के बाद ज्योति अब एक सेलेब्रिटी बन गई हैं.
पत्रकार, फ़िल्म निर्माता, राजनेता, एनजीओ और भारत की साइकिलिंग फ़ेडरेशन के सदस्यों ने ज्योति के घर आकर, उन्हें चेक, साइकिलें, कपड़े और यहाँ तक कि फल और तमाम तरह के प्रस्ताव दिए थे.
ज्योति को अमरीका में एक दत्तक पिता भी मिल गए, जिन्होंने उन्हें गोद लेने की चाहत जताई. क्योंकि, उनकी अपनी कोई बेटी नहीं है. वो अक्सर ज्योति को अमरीका आने के लिए कहते हैं. लेकिन ज्योति अपने गाँव में ही ख़ुश हैं.
ज्योति की बड़ी बहन पिंकी को स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी थी. दो बरस पहले उनकी शादी हो गई थी. ज्योति का दावा है कि ख़ुद उन्हें आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी थी. क्योंकि, परिवार उसकी फ़ीस भर पाने की हालत में नहीं था.
ज्योति बताती हैं कि उन्होंने 13 बरस की उम्र में साइकिल चलाना सीख लिया था. वो अक्सर अपनी बहन की लाल रंग वाली साइकिल गाँव में चलाया करती थीं. यानी ज्योति की साइकिल का सफर इस तरह शुरू हुआ था.
सितंबर में जब हमारी ज्योति से मुलाक़ात हुई थी, तब वो अपना नाम नौवीं कक्षा में लिखवाने के लिए नीले रंग की साइकिल चलाते हुए पास के पिंडारुच गाँव गई थीं.
ये नीले रंग वाली साइकिल, ज्योति को गिफ़्ट में मिली है. वो कहती हैं, "दरभंगा के डीएम एसएम त्याराजन ने मेरा नाम दोबारा स्कूल में लिखवाया है. मैं पढ़ना चाहती हूँ."
'साइकिल गढ़' बना सिरहुल्ली गांव
जब आप दरभंगा हाइवे से गुज़रते हैं, तो आपको कोई भी सिरहुल्ली गाँव का रास्ता बता देगा. अब वो पहले जैसा छोटा-सा ग़ुमनाम गाँव नहीं रहा. अब लोग उसे 'साइकिल गढ़' के नाम से जानते हैं.
आपको किसी से बस ये पूछना होगा कि क्या सामने वाले को उस गाँव का रास्ता मालूम है, जहाँ की लड़की गुरुग्राम से साइकिल चलाकर अपने गाँव पहुँची थी.
अब सिरहुल्ली वैसा मामूली गाँव नहीं, जहाँ के ज़्यादातर बाशिंदे काम की तलाश में दूसरे ठिकानों की ओर कूच कर जाते हैं और अपने पीछे बस परिवार के बुज़ुर्गों को छोड़ जाते हैं.
लेकिन, गाँव में 'ख़ास' लोगों की आमद के बावजूद, अब तक यहाँ आप्रवासी कामगारों के लिए कोई सरकारी मदद नहीं पहुँची है. 30 बरस के गणेश राम, सड़क किनारे बने मंदिर के बरामदे में बैठे युवाओं की तरफ इशारा करते हैं. गणेश राम यानी लॉकडाउन से पहले ही मुंबई से अपने गाँव लौटे थे.
गणेश राम मुंबई की एक फ़ैक्टरी में काम करते थे, जहाँ उन्हें हर महीने 14 हज़ार रुपये पगार मिलती थी.
गणेश कहते हैं, "यहाँ बहुत टेंशन है. पर करें तो क्या करें? यहाँ करने को कुछ है ही नहीं. हम खाने का जुगाड़ करने के लिए साहूकार से क़र्ज़ ले रहे हैं. हम जहाँ नौकरी करते थे, वो अब हमारा फ़ोन ही नहीं उठा रहा है. हमें समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें? यहाँ हमारी मदद के लिए कोई नहीं आया."
मंदिर परिसर में बैठे लोग अपनी उम्मीदें और डर बयां करते हैं. वो सब के सब सारा दिन यहीं बैठे रहते हैं. इस उम्मीद में कि कभी तो दिन फिरेंगे. जितेंद्र कुमार प्रसाद की उम्र 26 साल है. वो गुरुग्राम में एक एक्सपोर्ट हाउस में काम करते थे.
जितेंद्र ने 16 बरस की उमर में ही गाँव छोड़ दिया था. वो कहते हैं, "इस गाँव में हर आदमी कमाने के लिए बाहर जाता है. गाँव में बस बुज़ुर्ग लोग बच जाते हैं. यहाँ कुछ है ही नहीं. जब वहाँ हमारा पैसा ख़त्म हो गया, तो जैसे-तैसे हम लोग गाँव लौटे. यहाँ हम बस दिन गिन रहे हैं. गाँव में तो किसी को हमारी बात सुनने की भी फ़ुरसत नहीं."
जितेंद्र कुमार के मन में उम्मीद अभी ज़िंदा है, लेकिन खीझ और ग़ुस्सा भी है. वो कहते हैं- "हमको समझ में आ गया है, गाँव में हमसे किसी को कोई मतलब नहीं."
ज्योती कुमारी की ज़िंदगी कैसे और कितनी बदली?
मोहन पासवान के ताज़ा-ताज़ा अमीर बनने से इन लोगों के ज़ेहन में सवाल उठ रहे हैं. सरकार आख़िर ग़रीबों के लिए क्या कर रही है?
जितेंद्र कहते हैं, "हम भी तो शहर से गाँव लौटे. हम भी तो इतनी दूरी तक पैदल चल के अपने घर आए. लेकिन, लोग बस उस लड़की के बारे में पूछने आते हैं. किसी ने हमसे नहीं पूछा कि हमें किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं."
जितेंद्र, उसी रोज़ गाँव पहुंचे थे, जिस दिन ज्योति घर पहुँची थी. बल्कि, ख़ुद जितेंद्र ने ही मदद के लिए एक स्थानीय पत्रकार को फ़ोन किया था.
ज्योति के पिता मोहन पासवान के मुताबिक़, "गाँव में दलितों की आबादी एक हज़ार के आस-पास होगी. मौजूदा जाति व्यवस्था में दलित निचले पायदान पर आते हैं. ख़ास तौर से बिहार में दलितों की स्थिति काफ़ी ख़राब है."
वहीं मोहन कहते हैं कि अब उनके पास चार पैसा आ गया है, तो पूरा गाँव उनसे जलने लगा है.
मीडिया में कैसे फैली ज़्योति की ख़बर?
साइकिल से लंबा सफर तय कर 15 बरस की ज्योति के गाँव पहुंचने की ख़बर को सबसे पहले स्थानीय पत्रकार अलिंद्र ठाकुर ने एक हिंदी अख़बार के लिए कवर किया था. जल्द ही उनकी ख़बर पूरे देश में ही नहीं, बल्कि विदेश तक फैल गई.
अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बेटी इवांका ने ट्विटर पर लिखा कि ये सहनशक्ति और प्यार की ख़ूबसूरत उपलब्धि है.
ज्योति, 16 मई को सिरहुल्ली के सार्वजनिक पुस्तकालय पहुँची थीं. वहाँ, बाहर से गाँव लौटे मज़दूरों ने पनाह ले रखी थी. वो सभी, सुबह-सुबह ट्रक से सिरहुल्ली के पास मब्बी बेलौना गाँव पहुँचे थे.
वहाँ से उन्होंने अलिंद्र ठाकुर को फ़ोन किया था. उन्होंने अलिंद्र से गुज़ारिश की कि वो बाहर से आए लोगों के लिए कोई क़रीबी क्वारंटीन सेंटर खोजने में मदद करें.
अगली सुबह, अलिंद्र ठाकुर एक सरकारी स्कूल पहुँचे, जिसे रातों-रात तब अस्थायी क्वारंटीन सेंटर में तब्दील कर दिया गया था. जब उन्होंने गाँव पहुँचे मज़दूरों के बारे में सिंघवारा ब्लॉक के अधिकारियों को ख़बर दी थी, उससे पहले वाली रात ही ज्योति और मोहन पासवान भी गाँव पहुँचे थे.
ठाकुर ने ज्योति और उसके पिता से मुलाक़ात की और उस लड़की के लंबे सफ़र पर एक स्टोरी लिखी. ये ख़बर एक बड़ी न्यूज़ एजेंसी ने भी उठा ली. फिर ज्योति की कहानी मुख्यधारा के मीडिया में तेज़ी से फैल गई.
संकट के उस दौर में ये एक फ़ील-गुड स्टोरी थी. लेकिन, ज़्यादातर लोगों ने ज्योति की कहानी बताने के चक्कर में मज़दूरों को लेकर सरकार के उपेक्षा भाव की अनदेखी कर दी थी.
गाँव पहुंचते ही ज्योति को उसके घर में ही क्वारंटीन कर दिया गया. लेकिन, वो रोज़ स्थानीय नेताओं और दूसरे लोगों से मिलती थी, जो दूर दराज़ से उनसे मिलने आया करते थे. सुपर 30 नाम के कोचिंग सेंटर के संस्थापक आनंद कुमार ने ज्योति को IIT-JEE में दाखिले के इम्तिहान के लिए मुफ़्त में कोचिंग देने का प्रस्ताव रखा.
आनंद कुमार ने ही उन्हें 'साइकिल गर्ल' ज्योति कुमारी कह कर बुलाना शुरू किया. अब ज्योति, भारत के साइकिलिंग फ़ेडरेशन के लिए तैयारी कर रही है. फ़ेडरेशन ने दिल्ली के इंदिरा गांधी इनडोर स्टेडियम में ज्योति का फ़्री ट्रायल करने का प्रस्ताव दिया है.
ज्योति की माँ फूलो देवी पहले गाँव में मज़दूरी करती थी और दिहाड़ी मज़दूर के तौर पर रोज़ 180 रुपये कमाती थी. लेकिन, जब से ज्योति की कहानी सुनकर उनके घर कुछ लोग ज्योति का सम्मान करने के लिए पहुँचे, तब से वो खेतों की ओर नहीं गई हैं.
फूलो कहती हैं, "हमारी ज़िंदगी अब बदल गई है." ज्योति के परिवार ने एक माइक्रो फाइनेंस संस्था से एक लाख रुपए का लोन ले रखा था. इसके अलावा उन्होंने मोहन पासवान के इलाज के लिए गाँव के साहूकारों से भी उधार पैसे लिए हुए थे.
मोहन पासवान अब भी लंगड़ाकर चलते हैं. लेकिन उन्हें उम्मीद है कि सरकार उन्हें नौकरी देगी, जिससे वो परिवार चला सकेंगे.
सबसे पहले इंडो तिब्बत बॉर्डर पुलिस के कुछ अधिकारी ज्योति के घर आए थे. उन्होंने परिवार को पाँच हज़ार रुपये का चेक सौंपा था.
फूलो देवी, गाँव में बच्चों के लिए बने आंगनबाड़ी केंद्र में काम करती हैं. भारत सरकार ने इस योजना की शुरुआत 1975 समेकित बाल विकास सेवा कार्यक्रम के तहत की थी. इसका मक़सद बच्चों में कुपोषण की समस्या का समाधान निकालना था. अपनी ज़िंदगी में अचानक आए इस बदलाव से ख़ुद फूलो देवी भी हैरान रह गई थीं.
अपनी आमदनी बढ़ाने और बीमार पति के इलाज के लिए वो अक्सर गाँव के खेतों में और आसपास होने वाले निर्माण कार्य में मज़दूरी करती थीं.
बिहार के एक स्थानीय नेता पप्पू यादव ने ज्योति को गाँव पहुँचने के एक हफ़्ते के भीतर 20 हज़ार रुपए का चेक भेंट किया था. इसके बाद बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने उन्हें 50 हज़ार का चेक दिया. फिर, लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग पासवान ने भी ज्योति को 51 हज़ार रुपये दिए.
राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने ज्योति की पढ़ाई और शादी का पूरा ख़र्च उठाने का वादा किया. वहीं, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने ज्योति को एक लाख रुपये देने का एलान किया. ज्योति के मां-बाप पहले ही भीम आर्मी के सदस्य बन चुके हैं.
भीम आर्मी आंबेडकर की विचारधारा वाला एक दलित अधिकार संगठन है. भीम आर्मी ने एलान किया है कि वो बिहार में 100 से अधिक विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगी.
दो फ़िल्म निर्माताओं, विनोद कापड़ी और शाइन कृष्णा ने ज्योति को फ़िल्मों में काम करने का प्रस्ताव दिया. उनकी फ़िल्म आप्रवासी मज़दूरों के बारे में है. बाप-बेटी ने दोनों ही फ़िल्मों में काम करने के प्रस्ताव पर दस्तख़त कर दिए हैं. जिससे गफ़लत पैदा हो गई है और इस पर क़ानूनी लड़ाई भी शुरू हो गई है.
शाइन कृष्णा गोवा में रहने वाले फ़िल्मकार हैं. उन्होंने दरभंगा आकर ज्योति के परिवार से मुलाक़ात की थी और उन्होंने परिवार को फ़िल्म साइन करने के लिए कुछ पैसे भी दिए थे. वहीं, विनोद कापड़ी का कहना है कि परिवार को इस बात का फ़ैसला करना होगा कि वो किसकी फ़िल्म में काम करना चाहते हैं.
विनोद कापड़ी ने एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाने के लिए ख़ुद भी आप्रवासी मज़दूरों के साथ यात्रा की थी. वो कहते हैं, "ज्योति, साहस की प्रतीक हैं. ये पूरा क़िस्सा इतना लंबा सफ़र साइकिल से करने के फ़ैसले का है. मैं ये समझना चाहता था कि ज्योति ने ये फ़ैसला किस वजह से लिया."
लेकिन, ज्योति पर वो एक फ़ीचर फ़िल्म बनाना चाहते हैं. ज्योति के पिता मोहन पासवान कहते हैं कि फ़िल्म निर्माता ने उन्हें, एडवांस के तौर पर 51 हज़ार रुपये दिए थे, जिसे उन्होंने घर बनवाने में ख़र्च कर दिया. वहीं ज्योति कहती हैं, "मैं पढ़ना चाहती हूँ और अपनी ज़िंदगी में कुछ करना चाहती हूं."
दावे और उनपर उठते सवाल
मोहन पासवान के साथ इस साल जनवरी महीने में हादसा हो गया था. वो गुरुग्राम में अपने ई-रिक्शा से कहीं जा रहे थे. उन्हें देखने के लिए ही ज्योति भी अपनी माँ और जीजा के साथ गुरुग्राम पहुँची थी. ये 30 जनवरी की बात है.
10 दिन बाद उनकी माँ गाँव लौट आई थी. उन्होंने ज्योति को देखभाल के लिए पिता के पास छोड़ दिया था. क्योंकि, मोहन की हालत सफ़र के लायक़ नहीं थी.
मोहन पासवान ई-रिक्शा चलाते थे और रोज़ क़रीब 400-500 रुपए कमा लेते थे. लेकिन, एक्सीडेंट के बाद परिवार के पास कमाई का कोई और ज़रिया नहीं बचा था. अकेले फूलो देवी की कमाई से आठ लोगों के परिवार का ख़र्च चलाना पहले ही मुश्किल था. ऊपर से उस महीने तनख़्वाह आई भी नहीं.
25 मार्च को अचानक पूरे देश में लॉकडाउन लगा दिया गया. ज्योति कहती है कि ये उनके लिए दिल तोड़ने वाला था. उनके पास न दवा के पैसे थे, न खाने-पीने के. वो खाने के लिए उस लाइन में खड़ी हो जाती थी, जहाँ पर लोग खाना बाँटने आते थे. कई बार तो उसका नंबर आने से पहले ही खाना ख़त्म हो जाता था और उन्हें ख़ाली हाथ लौटना पड़ता था. ख़ाली पेट वक़्त गुज़ारना पड़ता था.
तभी, मई महीने में किराने की एक दुकान में ज्योति की मुलाक़ात कुछ आप्रवासी कामगारों से हुई. वो सभी साइकिल से गाँव लौटने की योजना बना रहे थे. तब ज्योति ने एक हज़ार रुपए की गुलाबी रंग की एक साइकिल ख़रीदी. उन्होंने दुकानदार को 500 रुपए दिए. दुकानदार के 500 रुपए उस पर अब भी उधार हैं.
फिर, उन्होंने अपनी माँ को फ़ोन करके बताया कि वो दोनों घर आ रहे हैं. माँ बहुत परेशान हो गई. उन्होंने ज्योति से पूछा भी कि वो ठीक-ठाक गाँव तो पहुँच जाएगी? लेकिन, ज्योति कहती हैं कि उन्हें पता था कि वो क्या करने जा रही हैं.
ख़बरों के मुताबिक़, बाप-बेटी 10 मई की रात 10 बजे गुरुग्राम से रवाना हुए थे.
सफर के पहले दो दिन तो ज्योति के लिए बेहद मुश्किल भरे थे. लगातार साइकिल चलाने से उनके शरीर में बहुत तकलीफ़ होती थी. जब वो आगरा से होकर गुज़रे, तो उन्होंने बड़ी दूर से ही ताजमहल का चमकता हुआ गुम्बद देखा था. उन्हें आज भी याद है कि ताजमहल को देख कर वो दोनों मुस्कुराए थे.
ज्योति कहती हैं, "ये सफ़र बहुत मुश्किल था. न हम ठीक से खा पाते थे और न ही सो पाते थे. लेकिन अब मैं बहुत ख़ुश हूँ."
वो रास्ते में सड़क किनारे सो जाया करते थे और अपना खाना दूसरों से बाँट कर खाते थे.
मोहन पासवान बताते हैं कि उनके साथ मुसलमानों का एक परिवार था. जिसमें छह लोग थे. वो बिहार के ही अररिया ज़िले के रहने वाले थे.
हालाँकि कई स्थानीय लोग ज्योति और उनके पिता के दावे पर सवाल भी उठाते हैं. कई लोग ये भी दावा करते हैं कि ज्योति और उनके पिता ने रास्ते में कई बार लिफ़्ट ली.
ज्योति की कहानी सबसे पहले छापने वाले अलिंद्र ठाकुर कहते हैं कि भले ही रास्ते में उन्होंने लिफ़्ट ली हो. लेकिन पिता को बिठाकर इतनी दूर साइकिल चलाना कोई मामूली बात नहीं है.
उस सुबह, ज्योति के पिता ने हमें उनसे स्कूल में नहीं मिलने दिया. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि हमें ज्योति के स्कूल से घर लौटने का इंतज़ार करना होगा.
'सब पैसे का खेल है, पैसा ही जात है'
उससे एक रात पहले, ज्योति का परिवार अपने नए मकान की पहली मंज़िल पर इकट्ठा हुआ था. अब निचली जाति का होने के बावजूद गाँव में उनका बहिष्कार नहीं होता. बल्कि, फूलो देवी तो ये कहती हैं कि अब तो बाबू साहब लोग हमारे घर चाय पीने आना चाहते हैं. ये सब तो पैसे का खेल है. फूलो देवी कहती हैं कि "पैसा ही जात है."
फूलो देवी को आज भी वो दिन याद है, जब दोनों गाँव पहुँचे थे. बेटी तो सूख कर काँटा हो गई थी. उनके हाथ और पैर में घाव थे. वो थकी-थकी रहती थी. उस समय बहुत से लोग ज्योति से मिलने आते रहते थे. लेकिन, अब कोई नहीं आता. मीडिया ने अब दूसरी कहानियाँ तलाश ली हैं. शोहरत की वो चकाचौंध ग़ायब है.
अब सुर्ख़ियाँ बटोरने वाले वो पल इतिहास बन चुके हैं. पिता और बेटी को एक मशहूर टीवी शो सारेगामा में भी बुलाया गया था. मोहन पासवान को अब सरकारी नौकरी चाहिए. मोहन को पता है कि बैंक में जमा पैसे समय से पहले भी ख़त्म हो सकते हैं.
'गांव का कोई फ़ायदा नहीं हुआ'
अब ज्योति के पास ख़ुद अपने नाम से बैंक में फ़िक्स्ड डिपॉजिट हैं. अब वो दरभंगा में पढ़ाई करना करना चाहती हैं. ज्योति अब एक स्थानीय कोचिंग सेंटर में भी पढ़ने जाया करती हैं. ज्योति की बहन मानसी और उनके दो छोटे भाइयों को पढ़ाने के लिए एक अध्यापक घर भी आते हैं. तीनों भाई-बहन पास के ही एक स्कूल में पढ़ते हैं.
अब पिता को इस बात की फ़िक्र ज़्यादा है कि घर का प्लास्टर और रंगाई-पुताई कैसे हो.
अब लोग ज्योति को उसके साहस के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से नामांकित करने की बातें भी कर रहे हैं. ज्योति को वो दिन याद आते हैं, जब लोग उनसे मिलने के लिए क़तार लगाए रहते थे.
जब मैंने चलते हुए उनकी ओर देख कर हाथ हिलाया, तो वो एक कोने में खड़ी थी.
मकान के दूसरे छोर पर 30 बरस के गणेश राम खड़े थे. वो मुंबई में काम करते थे और लॉकडाउन से पहले ही मुंबई से गाँव लौटे थे. वो तब से गाँव में ही अटके हैं.
गणेश राम कहते हैं, "अगर लॉकडाउन से किसी को फ़ायदा हुआ है, तो वो ज्योति का परिवार है. ज्योति ने हमारे गाँव को मशहूर बना दिया. लेकिन इससे ज़्यादा हमारी ज़िंदगी में कुछ नहीं बदला."(bbc)
- पवन वर्मा
आज़ादी के समय भारत के अलग-अलग हिस्सों और समुदायों के बीच तकरीबन 30 तरह के कैलेंडर/पंचांग प्रचलित थे. इतने कैलेंडर होने की वजह से अमूमन तीज-त्यौहार की तिथियां अलग-अलग हो जाने से अक्सर उन्हें मनाए जाने की तारीख को लेकर भ्रम की स्थिति बनी रहती थी. इसका असर प्रशासनिक व्यवस्थाओं पर भी पड़ता था. तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू इतने सारे कैलेंडरों को सांस्कृति समृद्धि की निशानी तो स्वीकार करते थे लेकिन वे यह भी मानते थे कि इतनी तरह के कैलेंडर देश के एकीकरण में बाधक हैं. देश के लिए एकीकृत कैलेंडर की ज़रूरत महसूस करते हुए 1952 में उन्होंने विज्ञान और प्रौद्योगिकी अनुसंधान परिषद के अंतर्गत एक कैलेंडर सुधार समिति का गठन किया था.
देश के प्रसिद्ध खगोल विज्ञानी मेघनाद साहा इसके अध्यक्ष थे. एकीकृत कैलेंडर के निर्माण में इस समिति के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि यहां प्रचलित कुछ कैलेंडरों का आधार नितांत धार्मिक था. इसलिए समिति को डर हुआ कि एक राष्ट्रीय कैलेंडर की बात लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचा सकती थी. नेहरू जी के इस बात का एहसास था, इसलिए उन्होंने शुरूआत में ही डॉ साहा को एक पत्र लिखकर स्पष्ट कर दिया कि जिस ग्रिगोरियन कैलेंडर का इस्तेमाल दुनिया के तमाम देशों में सरकारी स्तर पर होता है, उसमें भी कई वैज्ञानिक खामियां हैं. इसलिए हमारे राष्ट्रीय कैलेंडर के निर्माण में यह ध्यान रखा जाएगा कि यह पूरी तरह से विज्ञानसम्मत हो. नेहरू जी की इस बात के प्रचार-प्रसार से इस मसले पर विवाद की गुंजाइश खत्म हो गई.
कैलेंडर सुधार समिति ने 1955 में अपनी रिपोर्ट दी और राष्ट्रीय कैलेंडर के निर्माण के लिए कुछ सिफारिशें कीं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश थी कि कैलेंडर का आधार शक संवत (78 ईसवी से शुरू) होगा और इसका पहला दिन ग्रेगोरियन कैलेंडर के हिसाब से 22 मार्च (21 मार्च को सूर्य विषुवत रेखा पर ठीक सीधा चमकता है) से शुरू होगा. चैत्र इस कैलेंडर का पहला और फाल्गुन आखिरी महीना होगा. इन सिफारिशों के आधार पर बना कैलेंडर 22 मार्च, 1957 को सरकारी स्तर पर ग्रेगोरियन कैलेंडर के साथ स्वीकार कर लिया गया.
आमतौर पर सरकारी गजट, आकाशवाणी, सरकार द्वारा आम जनता के लिए जारी संदेशों/प्रपत्रों में इस कैलेंडर की तिथि का उल्लेख किया जाता है, लेकिन यह कैलेंडर वैज्ञानिक नजरिए से अधिक शुद्ध होने के बाद भी प्रचार-प्रसार के अभाव में कभी आम जनता के बीच प्रचलित नहीं हो पाया.(satyagrah)
- Swati Singh
रीमा (बदला हुआ नाम) और आदित्य (बदला हुआ नाम) ने लव मैरिज की थी। यूपी की रीमा और बिहार के आदित्य की मुलाक़ात कॉलेज के टाइम पर हुई थी। उनके रिश्ते के बारे में घर वालों को मालूम था। आदित्य तथाकथित ऊँची जाति से था और रीमा पिछड़ी जाति से। इसलिए मान-प्रतिष्ठा के नामपर शादी में आदित्य के घरवाले शामिल नहीं हुए। पर दोनों परिवारों में संबंध अच्छे थे। रीमा से ससुराल के लोगों की बात होती और अक्सर ननदोई का भी फ़ोन आता, लेकिन मज़ाक़ के नामपर उनकी यौनिक टिप्पणियाँ रीमा को हमेशा परेशान करती और वो हमेशा चुप हो जाती। रीमा की चुप्पी से ननदोई का मन बढ़ता और मज़ाक़ निचले स्तर पर जाने लगा। आख़िरकार रीमा ने आदित्य को इसके बारे में बताया जिसके बाद से आदित्य के घरवालों ने रीमा से बात करना बंद कर दिया, ये कहते हुए कि ‘पिछड़ी जात से है। ज़्यादा नाज़ुक बन रही है। आख़िर सरहज और ननदोई तो मज़ाक़ के रिश्ते होते है।’
आजकल हमलोग आए दिन समाज में बलात्कार और यौन उत्पीड़न की बढ़ती घटनायें देख रहे है। क्या गाँव और क्या शहर, महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा मानो अपनी संस्कृति का हिस्सा बनता जा रहा है। हर बार हाथरस और निर्भया रेप जैसी घटनाओं के बाद हम सरकार को घेरते है और क़ानून-व्यवस्था व प्रशासन पर ऊंगली उठाते है, लेकिन इसमें अपनी भागीदारी कभी नहीं देखते या देखना ही नहीं चाहते है। कई रिपोर्ट में सामने आया है कि यौन हिंसा से जुड़े अधिकतर मामलों में किसी जान-पहचान और कई बार परिवारवालों का हाथ होता है। ऐसे में ‘परिवार’ जो समाज की पहली इकाई है उसकी संरचना, व्यवस्था और वैचारिकी ही समाज की दिशा और दशा तय करती है, क्योंकि यौन हिंसा करने वाले पुरुष किसी प्रशासन या सरकारी योजना से नहीं बल्कि हमारे अपने परिवार-समाज में तैयार किए जाते है और ये तैयारी होती है हमारे आसपास के माहौल में। वो माहौल जिसकी हवा में पितृसत्ता बहती है, जो हमेशा महिला-पुरुष में भेद करना और पुरुष को सत्ताधारी बताने का काम करती है।
रीमा कोई अकेली नहीं जिसे रिश्ते के नामपर यौनिक हिंसा का सामना करना पड़ा। हमारे समाज में ‘जीजा-साली’ और ‘देवर-भाभी’ जैसे तमाम ऐसे रिश्ते है जिनको ‘मज़ाक़ का रिश्ता’ कहा जाता है। यानी वो रिश्ते जहां पुरुषों की तरफ़ से किया जाने वाले किसी भी तरह के बात-व्यवहार को बुरा मानना या उनका इनकार करना रिश्तों की तौहीन समझा जाता है। जब भी हम समाज में बलात्कार की संस्कृति की बात करते है तो ज़रूरी है कि हम ऐसे रिश्तों के नामपर होने वाली यौन हिंसाओं को उजागर कर उनका विश्लेषण करें। क्योंकि ये रिश्ते ही तो है जो पुरुष की यौन कुंठाओं वाले भद्दे-फूहड़ मज़ाक़-व्यवहार को सामान्य और महिला की सहमति उसकी ‘ना’ को बग़ावत के रूप में परिभाषित कर, उन्हें ‘बुरी औरत’ के पाले में खड़े कर देते है।
ऐसे रिश्तों का सबसे वीभत्स रूप अक्सर शादी के बाद देखने को मिलता है, जब महिला शादी होकर अपने ससुराल जाती है और उसके ऊपर हर पल ख़ुद को आदर्श बहु साबित करने का दबाव बनाया जाता है तो ऐसे में ‘मज़ाक़ वाले रिश्ते’ के नामपर यौन कुंठित पुरुष अपनी कुंठा को मिटाने के लिए सबसे ज़्यादा हाथ धोते है। उन्हें ये मालूम होता है कि महिला ‘इज़्ज़त’ और ‘रिश्ते’ के नामपर ‘ना’ नहीं कह सकती, किसी से शिकायत नहीं कर सकती और अगर कह भी दिया तो दोष उसी पर दिया जाएगा, ये कहते हुए कि उसने किसी कुंठित इंसान का नहीं बल्कि परिवार के दमाद, बेटे या भतीजे का अपमान किया है। हो सकता है ये आपको सामान्य लगे, तो बता दें इसकी दो वजहें हो सकती है – एक तो ये कि आप विशेषाधिकारी है, जिन्हें कभी भी ऐसे किसी रिश्तेदार का सामना नहीं करना पड़ा। और दूसरा – आप इन ‘मज़ाक़’ के इतने अभ्यस्त हो है कि इसमें कोई बुराई नहीं लगती आपको, बल्कि ये आपको संस्कृति लगती है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी परिवार में ऐसे रिश्तेदार का व्यवहार परिवार में यौन हिंसा से पीड़ित महिला को ही नहीं बल्कि बच्चों के भी ऊपर बुरा असर डालता है, क्योंकि जाने-अनजाने उनके मन में भी उस रिश्ते के नामपर छवि बन रही होती है, जिसका मूल होता है – नकारात्मक मर्दानगी। यानी कि पुरुष जो भी चाहे और जैसे भी चाहे महिला के साथ व्यवहार करे ये उसका अधिकार है और महिला उसको ‘ना’ नहीं कह सकती है। अगर वो ऐसा करती है तो वो अच्छी औरत नहीं होगी।
ज़रूरी है ऐसे हर ‘मज़ाक़ के रिश्ते और उसके व्यवहार’ का विरोध किया जाए, जो महिलाओं के विरुद्ध यौनिक हिंसा को सामान्य बनाते है।
जिस रिश्ते में सम्मान नहीं वो स्वीकार नहीं
अगर आप वाक़ई में महिला के ख़िलाफ़ बढ़ती यौन हिंसा से परेशान है और इसे रोकना चाहते है तो इसकी शुरुआत अपने घर-परिवार और रिश्तों से कीजिए। क्योंकि हो सकता है छोटे देवर के नामपर एक पुरुष ने अपनी भाभी के साथ जो भी यौनिक टिप्पणियाँ और व्यवहार किया हो उसका ज़वाब भाभी ने अपनी चुप्पी से दिया, जिसे पुरुष ने उनकी सहमति मान ली और महिलाओं के प्रति ऐसा व्यवहार उसके लिए सामान्य होता गया, जो बलात्कार की संस्कृति का हिस्सा है। इसी संस्कृति का नतीजा इसलिए ज़रूरी है ऐसे हर ‘मज़ाक़ के रिश्ते और उसके व्यवहार’ का विरोध किया जाए, जो महिलाओं के विरुद्ध यौनिक हिंसा को सामान्य बनाते है। इसी संस्कृति का नतीजा है कि पुरुषों के लिए यौन उत्पीड़न करना सामान्य होता जाता है और जैसे ही उन्हें कोई महिला ‘ना’ कहती है तो वो बलात्कार और एसिड अटैक जैसे घटनाओं जैसे अपराधों को भी अंजाम देते है। इसके साथ ही, महिला की सहमति उसके ‘हाँ’ या ‘ना’ कहने के अधिकार को समझे और स्वीकारें।
क्योंकि जब हम महिलाओं के विरुद्ध होने वाली यौनिक हिंसाओं का विश्लेषण करते है तो अक्सर यही पाते है कि ये हिंसा ‘बदले’ की भावना से की जाती है और ‘बदला’ इस बात का उसने मुझे ‘ना’ कैसे कह दिया। ये विचार ही हर यौन हिंसा का मूल है, जिसे हमलोगों ने अपने पितृसत्तात्मक भारतीय समाज के पुरुषों को बनाते समय उनकी संरचना में शामिल किया है। इसलिए पुरुषों को महिला की ‘सहमति’ न तो सुनाई देती है और न समझ में आती है। इसलिए ज़रूरी है कि ‘सहमति’ के विचार को समझकर उसे अपने व्यवहार में लागू किया जाए और अपने घर-परिवार में भी इसे लागू किया जाए। इसके साथ ही, जब कभी भी कोई महिला (बहु, बेटी या बहन) के रूप में किसी भी रिश्ते से होने वाली यौन हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाए तो उसका साथ दीजिए, क्योंकि आपका साथ ही उन्हें बल देता है, ‘ग़लत के ख़िलाफ़’ खड़े होने का। सच कहने का और हिंसा न सहने का।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत अब शादियों के मामले में क्रांतिकारी कदम उठाने वाला है। अभी तक भारतीय कानून के मुताबिक वर की आयु 21 वर्ष और वधू की आयु 18 वर्ष है। इससे कम आयु के विवाह अवैध माने जाते हैं। यह कानून मुसलमानों पर लागू नहीं होता है। वे शरिया के मुताबिक विवाह की आयु तय करते हैं। देश में विवाहों के आंकड़े अगर सही तौर पर इक_े किए जा सकें तो हमें पता चलेगा कि देश में ज्यादातर विवाह कम आयु में ही हो जाते हैं। उनमें ज्यादातर ग्रामीण, पिछड़े गरीब और अशिक्षित परिवारों के युवा लोग ही होते हैं। भारतीय शास्त्रों में 25 वर्ष की आयु तक ब्रह्मचारी रहने का विधान है लेकिन इस परंपरा के भंग होने के कई कारण रहे हैं। उनमें एक कारण तो यह भी रहा है कि अपनी कुंवारी बेटियों को विदेशी हमलावरों के बलात्कार से बचाने के लिए उनके शैशव-काल में ही उनका विवाह घोषित कर दिया जाता था। गरीबी से बचने के लिए बेटियों को शादी के नाम पर बेच देने का अपकर्म भी शुरू हो गया है लेकिन अब सरकार की मंशा है कि शादी के लिए कन्या की उम्र को 18 साल से बढ़ाकर 21 साल कर दिया जाए। वधू की आयु वर के बराबर कर दी जाए।
यह अच्छा होगा लेकिन भारत सरकार से उम्मीद है कि वह इससे भी बेहतर करेगी। थोड़ा आगे बढ़ेगी। भारत में वर और वधू की न्यूनतम आयु 25-25 साल क्यों नहीं कर दी जाती ? दुनिया के वे देश काफी पिछड़े हैं, जिनमें कम आयु के लोग शादी करते हैं। जो देश संपन्न है, शक्तिशाली हैं और जिनमें आम आदमियों का जीवन-स्तर बेहतर है, उनमें वर-वधू की आयु प्राय: 30 वर्ष के आस-पास होती है। वहां भी छोटी उम्र में कुछ विवाह हो जाते हैं और विवाहरहित यौन-संबंध तो होते ही हैं, फिर भी देर से शादी करने के कई फायदे राष्ट्रीय और व्यक्तिगत स्तर पर भी दिखाई पड़ते हैं। एक तो स्त्रियां रोजगार में ज्यादा स्थान पाती हैं। दूसरा, गृहस्थ आत्म-निर्भर बन जाता है।
तीसरा, प्रजनन में मृत्यु-दर घट जाती है। चौथा, जनसंख्या नियंत्रण स्वत: हो जाता है। पांचवां, वर-वधू दीर्घजीवी हो जाते हैं। इसीलिए मैं शादी की न्यूनतम आयु 25 वर्ष रखने पर जोर देता हूं। वर-वधू की आयु समान रखना स्त्री-पुरुष समानता का भी प्रमाण है। इस संबंध में जो भी कानून बने, वह सब नागरिकों पर समान रूप से और सख्ती से लागू होना चाहिए। जो सरकार कानून बनाकर तीन तलाक की कुप्रथा को समाप्त कर सकती है, वह वर-वधू की आयु को 25 वर्ष क्यों नहीं कर सकती ? सरकार करे या न करे, जनता को इस राह पर चलने से किसने रोका है ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनक तिवारी
कल स्मिता पाटिल की पुण्यतिथि थी। कल लिख नहीं पाया। आप पढ़ लेंगे तो अच्छा लगेगा।
सत्तर के दशक से मैंने दुर्ग सिविल न्यायालय में वकालत करनी शुरू की थी। बमुश्किल दो तीन बरस हुए होंगे हबीब तनवीर से आत्मीय परिचय होने के कारण उनकी खबर आई कि, वे कुछ लोगों के साथ मेरे दफ्तर आ रहे हैं। नाम नहीं बताए। स्टेशन रोड में एक किराए के मकान में प्रथम तल पर मेरा ऑफिस था। हबीब साहब तीन लोगों के साथ आए थे। श्याम बेनेगल को मैं जानता था। उन्होंने आते ही तपाक से मुझसे हाथ मिलाया। ऐसे मिले मानो वर्षों से जानते हैं। मुझे मालूम था कि दुर्ग के निकट स्थित ग्राम चंदखुरी के स्थानीय चर्म कारीगरों द्वारा बनाई गई पूरी छत्तीसगढ़ी नस्ल की सैंडिलें जिन्हें भदई या भदही कहते हैं, पहनने में उन्हें बहुत सुख मिलता था। उस दिन भी पहने हुए थे। वे दरअसल एक फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में आए थे। जहां तक याद है शायद चरणदास चोर की। मुझसे कुछ स्पॉट या बाह्य स्थल दुर्ग के निकट जानने चाहे जहां उनके बताए कथानक के अनुरूप दृश्य की शूटिंग की जा सके। जो कुछ मेरी समझ थी, वे सब जगहें मैंने उन्हें विस्तार से बता दीं।
सामने बालकनी में जाकर श्याम बेनेगल ने नीचे देखा। सडक़ की दूसरी ओर पटरी (प्लैटफार्म) पर एक धोबी कपड़ों पर इस्तरी कर रहा था। वह दृश्य उन्हें बहुत अच्छा लगा और उनका कैमरा तुरंत खिल उठा। दुर्ग की सबसे मशहूर कचौरियां मिलने वाली जलाराम की दूूकान ठीक सामने थी। उन सबको कचैरियां और मशहूर पेड़े खिलाए गए। मेरी पत्नी भी साथ थीं। उन्हें फिल्मों में मुझसे ज्यादा रुचि हैै। एक खूबसूरत महिला साथ आई थी। जैसे कुछ भूलते हुए याद करते हबीब तनवीर ने परिचय कराया ये सबा जै़दी हैं। तब मुझे उनकी रचनात्मकता, कला के प्रति उनकी लगन और समझ तथा तब तक की उनकी भूमिका के बारे में कुछ मालूम होने का सवाल ही नहीं था। यह तो बाद में पता चला कि वे मशहूर शायर हाली की वंशज हैं और उन्होंने काफी सार्थक रचनात्मक काम किया है। उनसे बातें करना खुशगवार मौसम बुनने जैसा था। उनमें भी हमारी जिज्ञासाओं को शांत करने की ललक थी।
एक और युवती आई थी। सांवले नाकनक्श, तीखी बोलती हुई आंखें, नीले रंग की जींस और मटमैले जामुनी रंग की टी शर्ट पहने हुए। नजरें तीखी थीं लेकिन चेहरे पर कोई मेकअप नहीं किया था। चलताऊ ढंग से हबीब साहब ने परिचय कराया ये स्मिता पाटिल हैं। उन्हें लगा हमने नाम तो सुन रखा होगा। लेकिन तब तक स्मिता पाटिल से प्रभावित होने का अंकुर मुझमें फूटा नहीं था। उनकी लगभग अनदेखी करते सबा जैदी से बतियाने में ज्यादा सौंदर्यात्मक सार्थक कला क्षण महसूस होता रहा था। ठीक वैसा जैसे मसालेदार कचैरियां और स्वादिष्ट पेेड़े खाने में मिलता हैं। वे सीढिय़ां उतर गए, चले गए।
बाद के वर्षों में स्मिता पाटिल के अभिनय के समुद्र में ज्वार आया। तब कोफ्त हुई और अब तक हो रही है कि वह मनहूस दिन हमें क्यों नहीं समझा पाया कि स्मिता पाटिल से बहुत देर तक गुफ्तगू करनी चाहिए थी। बल्कि उनका पता भी ले लेना चाहिए था। स्मिता बीच बीच में अपनी ओर से पहल करने कुछ कहतीं भी तो हम उनकी तरफ मुनासिब ध्यान नहीं देकर बेअदबी भी दिखा रहे थे। हमें ऐसा भी लगता यह महिला हमारे और सबा ज़ैदी के वार्तालाप के बीच हस्तक्षेप है। हमारी वह बेरुखी आज हमारे चेहरे पर विद्रूप की फसल उगा रही है। हमने ऐसा क्यों किया? वह हमें नहीं करना चाहिए था। एक संभावना की भ्रूण हत्या हमने ही कर दी। भ्रूण हत्या तो स्मिता के कलात्मक जीवन की भी हो गई जो परवान चढ़ते-चढ़ते कुदरत के कहर से नीचे मौत के मुंह में ढहा दिया गया।
स्मिता की आंखें आज सवाल पूछ रही हैं। वे कितनी बोलती हुई थीं। वे आवाज़ में उस दिन भी हमें देख रही थीं। आज भी देख रही हैं। हीरे को पत्थर समझा!
.- मनीष कुमार
बिहार पिछले कई सालों से गठबंधन की राजनीति का बेहतर प्रयोग स्थल साबित हुआ है. यहां क्षेत्रीय दल बड़े तो राष्ट्रीय दल छोटे भाई की भूमिका में रहे हैं. इस साल हो रहे चुनावों से पहले गठबंधनों में हलचल दिख रही है.
बिहार में 28 अक्टूबर, तीन व सात नवंबर को तीन चरणों में होने वाले विधानसभा चुनाव में एक बार फिर कई पार्टियों के गठबंधन एक-दूसरे के सामने हैं. कुछ ने पुराने साथियों को छोड़ दूसरे का दामन थामा है तो कुछ नए गठबंधन भी अस्तित्व में आए हैं. ऐसा तकरीबन पिछले चुनावों में भी होता रहा है लेकिन इस बार गठबंधन के घटक दल भी एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोंकते नजर आएंगे. दरअसल, इस बार चुनाव के बाद के परिदृश्य पर सियासत की नजर है जिसने चुनाव को कुछ ज्यादा ही दिलचस्प बना दिया है.
राज्य में एक तरफ महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस व वामपंथी पार्टियां हैं तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), जनता दल यूनाइटेड (जदयू) व लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) हैं. सत्तारूढ़ एनडीए में जदयू बड़े भाई की भूमिका में है तो महागठबंधन में राजद बड़े भाई की भूमिका निभा रहा है. चुनाव की घोषणा होने के पहले तक महागठबंधन के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा), पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) व मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) थी. किंतु विधानसभा चुनाव के लिए कोर्डिनेशन कमिटी नहीं बनाए जाने के नाम पर हम और रालोसपा महागठबंधन से अलग हो गई. एक भी सीट नहीं दिए जाने के कारण वीआइपी ने भी साथ छोड़ दिया. उपेंद्र कुशवाहा ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के साथ गठबंधन बना लिया तो मांझी अपने पुराने साथी एनडीए के साथ जा मिले वहीं मुकेश सहनी अपना ठिकाना तलाशने में जुटे हैं.
यह टूट-फूट तो सामान्य थी जो हर बार चुनाव के मौके पर देखने को मिलती है. सबसे अप्रत्याशित तो एनडीए में हुआ. जैसे ही मांझी आए, उन्होंने कहा कि हमारा गठबंधन जदयू से है. उसी तरह लोजपा ने कहा, हम जदयू नहीं भाजपा के साथ हैं. यानी गठबंधन के अंदर गठबंधन. सीटों के बंटवारे पर तो स्थिति ऐसी बिगड़ी कि लोजपा ने एनडीए के साथ रहते हुए जदयू के खिलाफ लड़ने का एलान कर दिया.
मणिपुर फार्मूले पर लड़ेगी लोजपा
लोजपा बिहार में भाजपा के साथ तो रहेगी लेकिन गठबंधन में उसके घटक दल जदयू के खिलाफ प्रत्याशी खड़े करेगी. मणिपुर फार्मूला यानि कि जैसे दिल्ली विधानसभा का चुनाव भाजपा-लोजपा ने मिलकर लड़ा, लेकिन झारखंड व मणिपुर में उनमें गठबंधन नहीं था. हालांकि चुनाव परिणाम के बाद भाजपा ने लोजपा के साथ मिलकर मणिपुर में सरकार बनाई. इसी फार्मूले के तहत भाजपा के साथ मिलकर लोजपा चुनाव बाद बिहार में सरकार बनाएगी. संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद लोजपा प्रमुख चिराग पासवान ने यह कहकर एनडीए से नाता तोड़ा कि लोजपा बिहार फर्स्ट-बिहारी फर्स्ट के नारे के तहत अपने विजन डाक्यूमेंट के साथ चुनाव मैदान में उतरेगी. उसका गठबंधन भाजपा से है न कि जदयू या हम से. वैचारिक मतभेद के कारण जदयू के साथ चल पाना संभव नहीं है. चुनाव के बाद भाजपा के साथ मिलकर लोजपा सरकार बनाएगी.
बिहार राजनीति के जानकार बताते हैं कि जिस तरह पिछले कुछ दिनों से चिराग सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा होते हुए नीतीश सरकार पर कोरोना के खिलाफ लड़ाई या फिर लॉक डाउन के दौरान मजूदरों की वापसी जैसे मुद्दे पर हमलावर थे, उससे यह आभास हो रहा था कि वे गठबंधन धर्म का निर्वहन अब शायद ही कर पाएंगे. नीतीश को तो वे घेरते रहे किंतु भाजपा पर कभी कुछ नहीं बोला. चिराग ने एनडीए से नाता तोड़ने के दो दिन पहले पीएम मोदी की तस्वीर के साथ एक ट्वीट किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि नरेंद्र मोदी के कुशल नेतृत्व पर मुझे गर्व है. नरेंद्र मोदी से प्रेरणा लेकर ही लोजपा ने बिहार के चार लाख लोगों के सुझाव पर बिहार फर्स्ट-बिहारी फर्स्ट विजन डॉक्यूमेंट 2020 तैयार किया है.
लोजपा के बहाने जदयू को सबक सिखाने की कोशिश
एनडीए के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, "भाजपा के शह के बिना चिराग इस कदर एक सोची-समझी रणनीति के तहत हमलावर नहीं हो सकते. कहीं न कहीं भाजपा बड़े भाई की भूमिका में आने के लिए जदयू को सबक सिखाना चाहती है." ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है. इससे पहले 2005 के चुनाव में कांग्रेस ने तटस्थ रहकर लोजपा के बहाने राजद को सबक सिखाया था ठीक उसी तरह इस बार भाजपा कर रही है. तभी तो जदयू के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी कहते हैं, "लोकसभा चुनाव के दौरान प्रचार के लिए मुख्यमंत्री को ले गए तब मतभेद नहीं था तो क्या एससी-एसटी समुदाय के व्यक्ति की हत्या पर परिवार के सदस्य को नौकरी दिए जाने पर मतभेद है या फिर दलितों के उत्थान का बजट चालीस गुणा बढ़ाने पर मतभेद है."
जदयू का कहना है, "भाजपा ने मुख्यमंत्री के कार्यों को समझते हुए उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने की घोषणा की है. उन्हें भाजपा पर पूरा भरोसा है. दरअसल बिहार में दलितों की आबादी 17 प्रतिशत के करीब है और इनमें दुसाध जाति का करीब पांच फीसद वोट है. यही पांच फीसद वोट लोजपा का अपना वोट बैंक है, जो लगभग हर चुनाव में लोजपा के साथ रहा है. पत्रकार एस पांडेय कहते हैं, "लोजपा के अलग होने से जदयू को पांच प्रतिशत वोट का नुकसान उठाना पड़ सकता है. जबकि भाजपा को अपनी सीट पर जदयू व लोजपा, दोनों का ही सहयोग मिलेगा. यह स्थिति भाजपा के लिए तो फायदेमंद हो सकती है किंतु नुकसान तो अंतत: एनडीए को ही पहुंचाएगी." इधर, लोजपा प्रमुख चिराग पासवान ने प्रदेश की जनता के नाम एक पत्र जारी कर खुलेआम नीतीश कुमार को वोट नहीं देने की अपील की है. कहा है, "जदयू के खिलाफ लड़ने का फैसला बिहार पर राज करने नहीं, बल्कि नाज करने के लिए लिया गया है. वे पीएम मोदी के सपनों को साकार करने के लिए बिहार में अकेले चुनाव लड़ रहे हैं. यदि आपने जदयू को वोट दिया तो आपके बच्चे पलायन को मजबूर होंगे."
सभी पार्टियों को घात-प्रतिघात का अंदेशा
महागठबंधन की अगुवाई कर रहे राजद के कर्ता-धर्ता तेजस्वी यादव ने चुनाव के बाद के परिदृश्य का गंभीरता से आकलन किया. तभी तो छोटे दलों की बजाय उन्होंने अपने पुराने साथियों पर भरोसा किया. परिणाम यह हुआ कि रालोसपा व वीआइपी जैसी छोटी पार्टी उनका साथ छोड़ गई. वीआइपी प्रमुख मुकेश सहनी का तो कहना है कि तेजस्वी यादव ने उनके साथ धोखा किया जबकि सबकुछ तय हो चुका था. राजनीतिक विश्लेषक प्रो. वाईके सिंह कहते हैं, "चुनाव बाद विधायकों को तोड़फोड़ से बचाने की रणनीति ने ही वीआइपी व रालोसपा को बाहर का रास्ता दिखाया. एक तो ये दोनों पार्टी बमुश्किल दो अंक का आंकड़ा पातीं और अगर पा भी जातीं तो एनडीए के लिए इन्हें तोड़ना ज्यादा कठिन नहीं होता. इनके विधायक हमेशा सॉफ्ट टारगेट ही बने रहते."
बिहार में कांग्रेस को बचाने की कोशिश
शायद यही वजह रही कि राजद ने बड़ा दिल दिखाते हुए अपने पास 144 सीटें रखीं तो कांग्रेस को 70 और वामपंथी दलों को 29 सीटें (माले-19, सीपीआई-6, सीपीएम-4) दे दीं. सीट बंटवारे के बाद तेजस्वी ने कहा भी कि हम ठेठ बिहारी हैं, जो वादा करते हैं उसे निभाते हैं. जबकि कांग्रेस की स्क्रीनिंग कमेटी के अध्यक्ष अविनाश पांडेय का कहना था, "कुछ मुद्दों पर हममें मतांतर हो सकता है, परंतु बिहार को बचाने के मुद्दे पर हम पूरी तरह से एकजुट हैं." राजद ने प्रथम चरण के 32 सीटों पर प्रत्याशी तय कर लिए हैं और सिंबल देना भी शुरू कर दिया है. दिलचस्प यह कि राजद के घोर विरोधी रहे बाहुबली विधायक अनंत सिंह को पार्टी ने मोकामा से अपना उम्मीदवार घोषित किया है. वामदलों ने भी अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं.
जवाहर लाल नेहरू (जेएनयू) विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व महासचिव संदीप सौरभ को माले ने पटना के पालीगंज विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया है. कांग्रेस ने भी प्रत्याशी तय कर लिए हैं किंतु घोषणा नहीं की गई है. जदयू द्वारा पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को एनडीए में शामिल कराए जाने व लोजपा के निकल जाने के बाद भाजपा वीआइपी प्रमुख मुकेश सहनी पर डोरे डाल रही है. सूत्रों के अनुसार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से उनकी मुलाकात हो चुकी है और शायद बात बन भी गई है. वैसे अभी कोई औपचारिक बयान नहीं आया है.
बिहार में किसान बने फिल्ममेकर
मुकेश रालोसपा और पप्पू यादव द्वारा बनाए गए गठबंधन प्रगतिशील डेमोक्रेटिक एलायंस (पीडीए) के भी संपर्क में बताए जाते हैं. जानकार बताते हैं कि महागठबंधन में सीट शेयरिंग मामले का आसानी से सुलझ जाने से एक नया समीकरण बनने से पहले ही समाप्त हो गया. अगर कांग्रेस को मनोनुकूल सीट नहीं मिलती तो वह वीआइपी जैसी छोटी पार्टी को लेकर जदयू के साथ जा सकती थी. कांग्रेस को पता था कि चिराग के कारण जदयू असहज चल रही है. यही वजह है कि लोजपा ने जदयू के खिलाफ लड़ने की घोषणा भी देर से की. इधर, जदयू ने भी प्रथम चरण की अपनी 32 सीटों के लिए प्रत्याशियों की घोषणा करते हुए उन्हे सिंबल देना शुरू कर दिया. पार्टी ने जर्नादन मांझी, सुबोध राय व ददन पहलवान को छोड़ सभी सिटिंग एमएलए को टिकट दे दिया है.
तेजस्वी-तेजप्रताप पर हत्या का मुकदमा
चुनावी रंजिश में आरोप-प्रत्यारोप आम है, किंतु ऐसा संभवत: पहली बार हुआ है जब किसी राजनेता के खिलाफ चुनाव में टिकट के लिए पैसे नहीं दिए जाने पर हत्या का आरोप लगाया गया हो. ऐसा मामला पूर्णिया में सामने आया है जहां खंजाची हाट थाने में राजद के एससी-एसटी प्रकोष्ठ के पूर्व प्रदेश सचिव शक्ति मलिक की हत्या के आरोप में लालू प्रसाद के दोनों बेटों तेजस्वी यादव व तेजप्रताप यादव समेत छह के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई है. शक्ति की पत्नी खुशबू ने पुलिस को बताया कि शक्ति रानीगंज (सुरक्षित) सीट से राजद टिकट के दावेदार थे. राजद नेता तेजस्वी यादव और एससी-एसटी प्रकोष्ठ के अध्यक्ष अनिल कुमार उर्फ साधु यादव ने टिकट देने के लिए 50 लाख रुपये मांगे थे. शक्ति ने करीब दस दिन पहले एक वीडियो वायरल कर आरोप लगाया कि राजद में टिकट के लिए पैसे मांगे जाते हैं. उसने राजद नेताओं द्वारा अपनी हत्या की आशंका भी जताई थी.
इस संबंध में पूर्णिया के एसपी विशाल शर्मा ने कहा है कि जरूरत पड़ने पर इस मामले से जुड़े हर व्यक्ति से पूछताछ की जाएगी. वहीं इस हत्याकांड को लेकर प्रदेश की राजनीति गर्म हो गई है. भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा व संजय मयूख ने कहा है कि तेजस्वी-तेजप्रताप इस मामले पर चुप क्यों हैं. राजद को इसका जवाब देना होगा. दलित नेता की पत्नी ने दोनों पर साफ तौर से उगाही के आरोप लगाए हैं. वहीं राजद ने इसे तेजस्वी से डरे हुए लोगों की साजिश करार दिया है. इसे सत्ता पक्ष की साजिश बताते हुए सांसद मनोज झा ने कहा है कि जिस नंबर से पैसा मांगने का आरोप है वह चार साल से बंद है. तेजस्वी के सीएम उम्मीदवार घोषित होने से विपक्ष बौखला गया है.
दो दिन पहले तक एकतरफा दिख रहा चुनावी परिदृश्य काफी हद तक बदल गया है. ऐसी कई सीटें जहां पिछले चुनावों में सीधा मुकाबला था, वहां त्रिकोणात्मक संघर्ष की स्थिति बन जाएगी. यह तो 10 नवंबर को पता चलेगा कि कितनी सीटों पर लोजपा वोटकटवा की भूमिका में रही या फिर कांग्रेस ने एनडीए की राह आसान की. किंतु इतना तय है कि सोशल इंजीनियरिंग के सिद्धहस्त खिलाड़ी नीतीश कुमार ने जिस तरह से राजद, वामदल या फिर लोजपा के वोट बैंक में लगातार सेंधमारी कर अपना जनाधार तेजी से बढ़ाया, वे इतनी आसानी से बाजी अपने हाथ से जाने नहीं देंगे.(dw)
- मनीष कुमार
बिहार विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया जैसे-जैसे आगे बढ़ रही है वैसे-वैसे सभी राजनीतिक दलों को बगावत से जूझना पड़ रहा है. कभी उनके अपने रहे ये बागी चुनौती का सबब बनते जा रहे हैं.
बिहार में तीन चरणों में विधानसभा चुनाव के चुनाव हो रहे हैं. सभी पार्टियों में टिकट वितरण का कार्य पूरा हो चुका है. प्रत्याशियों के नाम सामने आते ही लगभग सभी बड़ी पार्टियों में टिकट के दावेदार रहे बगावत का झंडा उठा ले रहे हैं. भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) हो या राजद की अगुवाई वाला महागठबंधन, सभी दलों के लिए बागी परेशानी का कारण बन गए हैं. कांग्रेस भी इस समस्या से दो-चार हो रही है.
विकल्पों की भरमार
दरअसल, इस बार के चुनाव में एक तरह से विकल्पों की भरमार है. इस बार राज्य में चार गठबंधन प्रमुख भूमिका में हैं. एनडीए व महागठबंधन के अलावा पूर्व सांसद राजेश रंजन यादव व पप्पू यादव की अगुवाई वाला प्रगतिशील डेमोक्रेटिक एलायंस (पीडीए) व पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा वाला ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट भी चुनाव मैदान में है. इनके अलावा एनडीए से दोस्ताना लड़ाई की मुद्रा में पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वर्गीय रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) भी वहां ताल ठोक रही है जहां जदयू के उम्मीदवार हैं. ऐसे तो कोई पार्टी किसी दल के बागी को टिकट देने से गुरेज नहीं कर रही, यदि उस व्यक्ति की जीत की संभावना किसी भी समीकरण के अनुरुप थोड़ी सी भी शेष रह गई हो. संभावनाओं के इस खेल में जिसे जहां टिकट की संभावना दिख रही, वह वहां चला जा रहा है. लोजपा बागियों के लिए पनाहगार बन गई है. बागियों के लिए भी यह पहली पसंद है जिसकी वजह इस पार्टी के पास इसका अपना पांच प्रतिशत पुख्ता वोट बैंक का होना है.
भाजपा से आए नौ तथा जदयू से आए दो लोगों को लोजपा ने अपना उम्मीदवार बनाया है. लोजपा में आए बागियों में सबसे प्रमुख नाम भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे राजेंद्र सिंह व पूर्व विधायक रामेश्वर चौरसिया का है. सब्र की परीक्षा में आखिरकार ऐसे प्रमुख सिपहसलारों की राजनीतिक आस्था भी जवाब दे गई. इनके अलावा राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) नीत गठबंधन ने जदयू के दो बागी नेताओं को तो राजद ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) व रालोसपा के एक-एक बागी नेताओं को अपना प्रत्याशी घोषित किया है. जदयू के वरिष्ठ नेता व पूर्व मंत्री श्रीभगवान सिंह कुशवाहा व चंद्रशेखर पासवान को लोजपा ने टिकट दिया है तो रालोसपा ने जदयू के रणविजय सिंह तथा भाजपा के अजय प्रताप सिंह को उम्मीदवार बनाया है. इसी तरह राजद के अति पिछड़ा प्रकोष्ठ के पूर्व महासचिव सुरेश निषाद को लोजपा ने टिकट दिया है.
गठबंधनों ने बदला परिदृश्य
दरअसल इस बार गठबंधनों के बदले परिदृश्य के कारण ही यह स्थिति उत्पन्न हुई है. हर हाल में जीत के समीकरणों को ध्यान में रखते हुए सभी पार्टियां अपने-अपने प्रत्याशी तय कर रही है. 2015 में भाजपा 157 सीटों पर लड़ी थी लेकिन इस बार महज 110 पर ही लड़ेगी. इस परिस्थिति में तो 47 नेताओं को टिकट से स्वाभाविक तौर पर वंचित होना ही था. जदयू के साथ भी कमोबेश यही स्थिति है. राजद ने भी अपने कोटे की 144 सीटों में 18 विधायकों को टिकट से वंचित कर दिया है. आंकड़ों में देखा जाए तो 2015 की तुलना में इस बार राजद में 29 नए चेहरे दिखेंगे. इसी चक्कर में सभी बड़े राजनीतिक दलों ने अच्छी-खासी संख्या में वर्तमान विधायकों का टिकट काट दिया है. किसी भी दल का दामन थामने के अलावा अच्छी-खासी संख्या उन उम्मीदवारों की भी है जो बतौर निर्दलीय मैदान में हैं. इनमें विधायक रहे सुनील पांडेय (तरारी,भोजपुर), गुलजार देवी (फुलपरास, मधुबनी), ददन पहलवान (डुमरांव, बक्सर), अनिल शर्मा (बिक्रम, पटना),श्रीकांत निराला (मनेर, पटना) तथा हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष रहे धीरेंद्र कुमार मुन्ना व बछवाड़ा (बेगूसराय) के दिवंगत विधायक रामदेव राय के पुत्र शिव प्रकाश प्रमुख हैं जो बिना किसी दल के अपने बूते चुनाव मैदान में हैं.
इनके अलावा भी कई पार्टियों के संगठन के लोग भी बगावत कर मैदान में कूद चुके हैं. कहा जा रहा है कि केवल कोसी क्षेत्र (सीमांचल के साथ) में ही भाजपा के करीब दो दर्जन नेता उन सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं जो समझौते के तहत जदयू के खाते में चली गई हैं. ऐसा नहीं है कि पार्टियों ने इनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की है. इन्हें निलंबित या निष्कासित कर दिया गया है किंतु कार्रवाई का डर भी महत्वाकांक्षा पर भारी नहीं पड़ रहा. कई जगहों पर पार्टियों ने मान-मनौव्वल के बाद बागी हुए अपनों को मनाने में कामयाबी भी पाई है. कुछ जगहों पर पार्टियों ने भी विरोध के बाद उम्मीदवार बदला है. हालांकि अंतिम चरण के मतदान के लिए नामांकन अवधि पूर्ण होने तक बगियों की संख्या में इजाफा ही होने के आसार हैं. फिलहाल पहले चरण की करीब चालीस से अधिक सीटों पर बागी उम्मीदवारों की उपस्थिति से जर्बदस्त चुनावी मुकाबला होने की संभावना है.
बदस्तूर जारी रहा पाला बदल का खेल
प्रदेश की सभी पार्टियां दल-बदल के खेल का शिकार हुईं. दरअसल ध्येय तो किसी भी कीमत पर टिकट पाने का होता है, इसलिए इसमें किसी भी तरह का संशय उन्हें पाला बदलने के लिए प्रेरित करता है. तब दलीय प्रतिबद्धता या राजनीतिक आस्था महज दिखावे की वस्तु रह जाती है. इस खेल में कई लोगों को तो मुकाम मिल जाता है जबकि कई दल बदलने के बाद भी उद्देश्य में कामयाब नहीं हो पाते और जिन्हें क्षेत्र में किए काम से अपनी जीत का पूरा भरोसा होता है वे बिना किसी दल के ही रणभूमि में उतर जाते हैं. चूंकि पार्टियों का लक्ष्य भी येन-केन-प्रकारेण चुनाव में विजय श्री हासिल करना होता है, इसलिए उन्हें भी दल-बदल के खेल से गुरेज नहीं होता. स्थिति तो यहां तक आ जाती है कि पिता किसी दल में होता है और पुत्र किसी और पार्टी में. खगड़िया के लोजपा सांसद चौधरी महबूब अली कैसर के पुत्र मो. युसूफ सलाउद्दीन ने राजद का दामन थाम लिया है. कांग्रेस को छोड़कर बाहुबली नेता आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद अपने पुत्र चेतन आनंद के साथ राजद में शामिल हो गईं. मां-बेटे, दोनों को राजद ने अपना प्रत्याशी भी बना दिया. देखा जाए तो 2015 में चुनाव जीत चुके एक दर्जन से अधिक विधायकों ने अपना घर बदल लिया. अब जो किसी न किसी वजह से पार्टी बदलकर चुनाव लड़ेंगे वे तो बागी की ही संज्ञा पाएंगे.
पटना के बिक्रम विधानसभा क्षेत्र से एक बार लोजपा से तथा दो बार भाजपा से विधायक रहे अनिल शर्मा कहते हैं, "जब विधायक रहा तब तो काम किया ही इसलिए तीन टर्म चुना गया किंतु 2015 में जब पराजित होने के बाद भी पूरे पांच साल तक भाजपा के प्रतिनिधि के रूप में क्षेत्र की जनता के हर सुख-दुख में भागीदार बना, तन-मन-धन से लगा रहा. इसके बावजूद पार्टी ने मेरा टिकट काटकर पैराशूट उम्मीदवार को प्रत्याशी घोषित कर दिया. इससे जनता बौखला गई और उन्हीं की मांग पर मैं निर्दलीय चुनाव मैदान में आया." वहीं मधुबनी जिले के फुलपरास से जदयू विधायक रही गुलजार देवी कहतीं हैं, "पार्टी ने अंतिम समय तक आश्वासन के बाद टिकट नहीं दिया जबकि मैंने क्षेत्र पार्टी का मान बढ़ाया और जनता का विश्वास जीता है. इसलिए अब जनता की मांग पर ही निर्दलीय लड़ रही हूं."
हर हाल में जीतने की रणनीति
पत्रकार रवि रंजन कहते हैं, "दरअसल राजनीतिक दलों द्वारा टिकट वितरण में अपने आधार मतों के नेताओं को प्राथमिकता देने तथा दूसरी पार्टी के वोट बैंक में सेंध लगाने की प्रवृति दल-बदल को बढ़ावा देती है." यह काफी हद तक सही है. सिद्धातों की पार्टी होने का दावा करने वाले जदयू ने भी शायद इसी वजह से टिकट बांटने में अपने लव-कुश (कुर्मी-कोईरी) के साथ राजद के माई (मुस्लिम-यादव) समीकरण को भी ध्यान में रखा. इसी को ध्यान में रखकर मंत्रियों तक के चुनाव क्षेत्र में भी बदलाव किया गया.
रणक्षेत्र में हर हाल में विजय प्राप्त करना ही किसी सेनापति का उद्देश्य होता है किंतु बागियों की मौजूदगी भीतरघात की संभावना को भी बढ़ा देती है. वैसे भी छोटे-छोटे गठजोड़ों ने भी चुनाव में पार्टियों की मुश्किलें और मतदाताओं के लिए फैसले की जटिलता बढ़ा ही दी है. चुनाव के नंबर गेम में कौन आगे होगा और कौन पीछे यह तो समय बताएगा किंतु बिहार के इस महासंग्राम में उन प्रत्याशियों के लिए जीत की राह उतनी भी आसान नहीं रह जाएगी जहां बागी उन्हें ललकार रहे हैं.(dw)
- Eesha
इस हफ़्ते ज्यूलरी ब्रैंड ‘तनिष्क’ का एक विज्ञापन बहुत चर्चा में है। लगभग एक मिनट लंबे इस विज्ञापन में कहानी है एक हिंदू औरत की जिसकी शादी एक मुस्लिम परिवार में हुई है। औरत अपनी मुस्लिम सास के साथ अपने ससुराल में किसी उत्सव की तैयारियां होते देखती है, फिर जब वह बाहर बगीचे में आती है तो पता चलता है कि उसी की गोद-भराई की तैयारियां हो रही हैं। भावुक होकर वह अपनी सास से पूछती है, “मां, यह रस्म तो आपके यहां होती भी नहीं होगी न?” इस पर सास जवाब देती है, “बेटी को खुश रखने का रस्म तो हर घर में होता है न?” विज्ञापन तनिष्क के नए ‘एकत्वम’ कलेक्शन का है।
यह विज्ञापन बेहद खूबसूरत है और बड़ी संजीदगी से एक महत्वपूर्ण सामाजिक संदेश भेजता है। हम इस समय एक ऐसे राजनीतिक वातावरण में जी रहे हैं जहां सुनियोजित तरीके से दो समुदायों के बीच घृणा फैलाई जा रही है और हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे में इस तरह के सामाजिक संदेश बहुत ज़रूरी हैं जो हमें सद्भाव और सहिष्णुता जैसे मूल्यों के बारे में याद दिलाएं, और एक बेहतर समाज का निर्माण करने के लिए हमें प्रोत्साहित करें।
अफ़सोस की बात यह है कि हमारे समाज के एक विशेष तबके को यह बात नहीं पची। मिनटों में ट्विटर पर #BoycottTanishq ट्रेंड होना शुरू हो गया। इन लोगों का कहना यह था कि यह विज्ञापन हिंदू-विरोधी है और हिंदू लड़कियों को ‘लव जिहाद’ या मुस्लिम लड़कों के साथ प्रेम संबंध बनाने के लिए प्रेरित करता है। बात इस हद तक पहुंच गई कि ट्रोल्स ने तनिष्क के ब्रैंड मैनेजर मंसूर ख़ान का नाम और पता तक ढूंढ निकाला और उन्हें और तनिष्क के अन्य कर्मचारियों को धमकियां भी देने लगे। नतीजा यह हुआ कि तनिष्क ने यह विज्ञापन हटा लिया और ट्विटर पर एक बयान दिया जिसमें यह कहा गया कि कंपनी अपने कर्मचारियों और सहयोगियों की निजी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए यह विज्ञापन वापस ले रहा है। गुजरात में तनिष्क के एक शोरूम ने भी इस विज्ञापन के लिए क्षमा मांगते हुए अपने दरवाज़े पर एक नोटिस लगाया।
‘लव जिहाद’ की आलोचना हम पहले भी कर चुके हैं। यह कुछ भी नहीं बल्कि समाज द्वारा महिलाओं को नियंत्रित करने और सांप्रदायिक नफ़रत बनाए रखने के लिए एक काल्पनिक हौवा है। यह हमें दूसरे समुदाय को नफ़रत की नज़र से देखने के लिए मजबूर करता एक राजनीतिक कौशल मात्र है। इसके पीछे की मानसिकता इस्लामोफोबिक के साथ साथ स्त्री-द्वेषी भी है क्योंकि यह महिलाओं की निजी स्वतंत्रता, उनके साथी चुनने के अधिकार पर हस्तक्षेप करता है।
इस पूरे विवाद से जो एक अच्छी चीज़ निकली है वह यह है कि अंतरधार्मिक विवाहित दंपतियों ने इस विज्ञापन के लिए समर्थन जताते हुए सोशल मीडिया पर अपने प्रेम और विवाह की कहानियां साझा की हैं। उन सबका यही कहना रहा है कि प्रेम धर्म और जाति की सीमाओं से परे है
विरोधियों से यह बात हज़म नहीं होती कि विज्ञापन की नायिका एक ऐसी औरत है जो अपनी मर्ज़ी से अपने धर्म, अपने समुदाय के बाहर वैवाहिक संबंध बनाकर बेहद खुश है। एक ऐसी औरत जो अपने हिसाब से अपनी निजी ज़िंदगी जीती है और खुद को इन स्वघोषित धर्मरक्षकों के रचे झूठे प्रोपगैंडा की शिकार नहीं बनने देती। ऐसी औरतें ही धार्मिक कट्टरवाद के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन जाती हैं क्योंकि इस कट्टरवाद के नस-नस में भरी है सदियों पुरानी पितृसत्तात्मक सोच। जब धर्म के ठेकेदार महिलाओं को काबू में नहीं रख पाते, तब उनकी खोखली मर्दानगी को गंभीर चोट पहुंचती है। तब शुरू होता है ट्विटर पर ‘बॉयकॉट’ वाले हैशटैग ट्रेंड करना, धमकियां देना, तोड़फोड़ और अराजकता मचाना, और छिछली भाषा में महिलाओं पर टिप्पणी करना। विषैली मर्दानगी का सबसे घिनौना चेहरा तब देखने को मिलता है जब धर्म ‘संकट में’ आता है।
ऐसी कट्टरवादी सोच रखनेवाले कई लोग यह कह रहे हैं कि फ़िल्मों और विज्ञापनों में सिर्फ़ मुस्लिम मर्दों के साथ हिंदू औरतें क्यों नज़र आती हैं? कभी किसी हिंदू मर्द के साथ कोई मुस्लिम औरत क्यों नहीं दिखती? इसके पीछे भी वही पुरुषवादी सोच काम करती है जो महिलाओं को संपत्ति और संसाधन से ज़्यादा कुछ नहीं समझती। अपने घर की औरत दूसरे समुदाय के मर्द के साथ चली जाए तो इसे अपमान से कम नहीं माना जाता, और इसका हिसाब बराबर उस समुदाय की किसी महिला से संबंध बनाने की इच्छा आए दिन सोशल मीडिया पर प्रकट की जाती है। वैसे तो यह बात सच है कि हर समुदाय के लोगों को सामाजिक नियमों की परवाह किए बिना एक दूसरे से रिश्ते बनाने का अधिकार होना चाहिए, पर जब इसे मर्दानगी साबित करने और अपने समुदाय में वृद्धि लाने की प्रतियोगिता बना दिया जाता है, समस्या तब होती है।
इस पूरे विवाद से जो एक अच्छी चीज़ निकली है वह यह है कि अंतरधार्मिक विवाहित दंपतियों ने इस विज्ञापन के लिए समर्थन जताते हुए सोशल मीडिया पर अपने प्रेम और विवाह की कहानियां साझा की हैं। उन सबका यही कहना रहा है कि प्रेम धर्म और जाति की सीमाओं से परे है और विपरीत संस्कृतियों और समुदायों के लोग एक-साथ मिल-जुलकर रह सकते हैं अगर उनमें प्यार और दोस्ती का भाव बना रहे। और इसका विरोध सिर्फ़ वही लोग करेंगे जो हमारे देश की एकता और अखंडता को तोड़ना चाहते हों।
‘लव जिहाद’ के नामपर डर वही लोग फैला रहे हैं जो हिंसा और द्वेष का माहौल बनाकर अपने राजनैतिक मकसद सिद्ध करना चाहते हों। इस पीढ़ी को, खासकर औरतों को ऐसे प्रोपगैंडा से बचकर रहना चाहिए और अपने प्रेम जीवन में धर्म या जाति को बाधा नहीं बनने देना चाहिए। उम्मीद है हम सिर्फ़ विज्ञापनों में ही नहीं बल्कि असल ज़िंदगी में भी ऐसे संबंध देखें जहां धर्म या जाति कोई मायने नहीं रखते।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
- Shweta Chauhan
नोबेल प्राइज विजेताओं में साहित्य की दुनिया में सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वालों में इस साल एक महिला शामिल है जिनका नाम है लुईस ग्लिक। इनके बारे में नोबेल सम्मान देने वाली स्वीडिश अकादमी ने कहा “ग्लिक की कविताएं ऐसी हैं जिनमें कोई ग़लती हो ही नहीं सकती और उनकी कविताओं की सादगी भरी सुंदरता उनके व्यक्तिगत अस्तित्व को भी सार्वभौमिक बनाती है।” बता दें कि लुइस ग्लिक कविता के लिए नोबेल पाने वाली पहली अमेरिकी महिला भी हैं। एक बेमिसाल कवियित्री लुइस ग्लिक जिन्हें दुख और अकेलेपन के भावों को बड़ी ही सरलता से कविता के रूप में पेश करने की महारत हासिल है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो उनके जीवन के अनुभव ही कुछ ऐसे रहें है जिसके कारण वे साल दर साल परिपक्वता की सीढ़ी चढ़ती चली गई और यह मुकाम हासिल किया।
नोबेल पुरस्कार से पहले भी ग्लिक को कई पुरस्कारों से नवाजा गया है जिनमें साल 1993 में पुलित्जर पुरस्कार उनकी रचना ‘द वाइल्ड आइरिश’ के लिए नेशनल ह्यूमैनिटीज मेडल और अन्य पुरस्कारों में नेशनल बुक अवार्ड, नेशनल बुक क्रिटिक्स सर्कल अवार्ड और बोलिंगेन अवार्ड शामिल है। इतना ही नहीं वे साल 2003 से साल 2004 के बीच वह अमेरिका की ‘पोएट लारिएट’ भी रहीं हैं।
दुनियाभर में अपनी सादगी भरी कविताओं के लिए जानी जाने वाली ग्लिक का जन्म 22 अप्रैल 1943 को न्यूयॉर्क में हुआ था। वे डेनियल ग्लिक और वीटराइस ग्लिक की तीन बेटियों में सबसे बड़ी बेटी हैं। उनकी मां रूसी यहूदी हैं, जबकि उनके पिता का संबंधघ हंगरी से था। ग्लिक के पिता एक लेखक बनना चाहते थे, लेकिन किसी कारणवश उन्हें खुद का काम शुरू करना पड़ा। उनकी मां वेलस्ली कॉलेज से ग्रेजुएट थी। लुइस ग्लिक ने अपने माता-पिता से यूनानी पौराणिक कहानियां सुनकर अपना बचपन गुज़ारा। ग्लिक ने बहुत छोटी सी उम्र में कविताएं लिखनी शुरू कर दी थी। समय के साथ उनकी लेखनी में निखार आता गया फिर यही निखार उनकी तरक्की का कारण बना।
लुइस ने अपने बचपन और किशोरावस्था के बाद भी कई तरह के बड़े संकटों का उन्होंने सामना किया जिसने उन्हें भीतर से झकझोर कर रख दिया। बड़ी बहन की मौत, पिता की मौत और फिर पति से तलाक जैसी घटनाओं ने उनकी कलम में दुख और अकेलेपन की स्याही भरी फिर यही स्याही उन्हें बुलंदियों पर ले गई।
किशोरावस्था में लुइस ग्लिक को ‘एनोरेक्सिया नर्वोसा’ नामक एक बीमारी ने घेर लिया जो कई सालों तक उनके जीवन में एक बाधा बनी रही इस बीमारी ने उनकी पढ़ाई और सामान्य व्यवहार में कई अड़चनें पैदा की। उन्होंने एक मौके पर अपने हालत को कुछ इस तरह बयां किया, ‘उस वक़्त मैं समझ रही थी कि किसी मोड़ पर मैं मरने वाली हूं, मैं बहुत अच्छे से यह जानती थी कि मैं मरना नहीं चाहती हूं।’ जीने की इसी चाह ने ग्लिक को आगे बढ़ने का एक हौसला दिया शायद यही वजह रही कि उनकी कवितायेँ दुःख और अकेलेपन को बखूबी बयां करती हैं जिसमें लोग कहीं न कहीं अपने जीवन की परेशानियों को जोड़कर उसे पढ़ना पसंद करते है। बrमारी से लड़ते हुए जब किसी भी तरह उनकी पढ़ाई संभव न हो पाई तो उन्होंने सारा लॉरेंस कॉलेज में काव्य लेखन की क्लास लेना शुरू कर दिया। इसी समय ग्लिक की मुलाक़ात लिओनी एडम्स और स्टेनली कुनित्ज से हुई। इस बारे में वह कहती हैं कि उन्हें एक कवियित्री के रूप में आकार लेने में इन दोनों ने काफी मदद की।
लुइस ने अपने बचपन और किशोरावस्था के बाद भी कई तरह के बड़े संकटों का उन्होंने सामना किया जिसने उन्हें भीतर से झकझोर कर रख दिया। बड़ी बहन की मौत, पिता की मौत और फिर पति से तलाक जैसी घटनाओं ने उनकी कलम में दुख और अकेलेपन की स्याही भरी फिर यही स्याही उन्हें बुलंदियों पर ले गई। लुईस की कविताएं अधिकतर बाल्यावस्था, पारिवारिक जीवन, माता-पिता और भाई-बहनों के साथ गहरे संबंधों पर आधारित रहीं हैं। उन्हें एक आत्मकथात्मक कवयित्री के रूप में जाना जाता है। अवसाद, भावनाओं और प्रकृति के विभिन्न पहलुओं से जुड़ी लुईस की वो कल्पनाएं जीवन की सच्चाई पर केंद्रित रहती है जो पढ़ने वाले को दुख और अकेलेपन के सफर पर ले जाती हैं जिस सफर में रिश्तों के कई पड़ाव भी हैं और जिंदगी से जुड़े उतार-चढ़ाव भी।
नोबेल साहित्य समिति के अध्यक्ष एंडर्स ओल्सन ने इस मौके पर कहा कि ग्लिक के 12 कविता संग्रहों में शब्दों का चयन और स्पष्टता सभी को अपनी ओर खींचती हैं। नोबेल एकेडमी ने कहा कि न्यूयॉर्क में जन्मी ग्लिक ने 1968 में अपनी पहली रचना ‘फर्स्टबॉर्न’ लिखी और वह जल्द ही अमेरिकी समकालीन साहित्य के प्रसिद्ध कवियों में गिनी जाने लगी। इसके बाद उनकी लिखी रचनाओं ‘डिसेंडिंग फिगर’ और ‘द ट्राइंफ ऑफ एकिलेस’ , ‘द हाउस आफ मार्शलैंड’ और ‘एवर्नो’ को भी काफी लोकप्रियता मिली। पिता की मृत्यु के बाद उनके संग्रह ‘अरारात’ को अमेरिका की सबसे दुखभरी रचनाओं में से एक माना जाता है। फिलहाल 77 वर्षीय ग्लिक येल यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र का लेख
पूर्वी एशिया के साथ भारत के संबंधों में म्यांमार की भूमिका पुल की है। इलाके में चीन के इरादों को देखते हुए भारत के लिए म्यांमार जैसे पड़ोसियों के साथ रिश्तों को मजबूत करना जरूरी है।
म्यांमार न सिर्फ भारत का एक महत्वपूर्ण पड़ोसी देश है बल्कि सुरक्षा और कूटनीति की दृष्टि से भी यह भारतीय विदेश नीति में महत्वपूर्ण स्थान रखता रहा है। भारत को, खास तौर से इसके पूर्वोत्तर के प्रदेशों को, म्यांमार दक्षिणपूर्व एशिया से जोड़ता है और इस लिहाज से आर्थिक और जनसंपर्क के दृष्टिकोण से भी यह बहुत महत्वपूर्ण है।
इस बात की पुष्टि एक बार फिर तब हुई जब इसी हफ्ते भारतीय विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला और थलसेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवने एक साथ म्यांमार के दौरे पर पहुंचे। भारतीय विदेशनीति और राजनय में ऐसा अवसर भूले भटके ही आता है जब सेना और विदेश सेवा के शीर्ष अधिकारी साथ साथ दिखे हों।
हाल के वर्षों में अमेरिका और जापान सहित कई प्रमुख देशों के साथ 2+2 सचिव और मंत्रिस्तरीय संवाद शुरू होने की वजह से ऐसे अवसर आए हैं लेकिन ऐसा कुछ खास देशों के साथ ही और पूर्व-सहमति के आधार पर संस्थागत तरीके से हुआ है।
यह भारत के इतिहास में पहली बार हुआ है कि देश के विदेश मंत्रालय और थलसेना के शीर्षाधिकारी एक साथ विदेश यात्रा पर गए हैं। इसलिए यह तो साफ है कि इन दोनों अधिकारियों का कोरोना महामारी के बीच हुआ म्यांमार दौरा यूं ही नहीं हुआ है, और यह भी कि म्यांमार का भारत के सामरिक और कूटनीतिक विचार-व्यवहार में बड़ा स्थान है, खास तौर पर जब भारत की एक्ट ईस्ट और नेबरहुड फस्र्ट नीतियों की बात हो।
भरोसेमंद और मदद के लिए तत्पर म्यांमार
यहां यह समझना भी जरूरी है कि कोरोना महामारी के दौर में, इस यात्रा से पहले विदेश सचिव श्रृंगला सिर्फ बांग्लादेश की यात्रा पर गए थे और उस वक्त भी यात्रा के पीछे खास कूटनीतिक मकसद थे। दो दिन की अपनी म्यांमार यात्रा के दौरान श्रृंगला-नरवने आंग सान सू ची, सीनियर जनरल मिन आंग-लाइ और कई मंत्रियों और अधिकारियों से मिले। भारत म्यांमार के बीच सैन्य और सामरिक सहयोग संभावनाओं से भरा है। उम्मीद की जाती है कि नरवने की यात्रा ने इनमें से कुछ पर प्रकाश डाला होगा।
सुरक्षा, आतंकवाद और अलगाववाद से लडऩे में भारत के लिए म्यांमार बहुत महत्वपूर्ण है। भारत की सीमा से सटे इलाकों में 2015 की ‘हाट पर्सूट’ की कार्यवाही हो या अलगाववादियों का प्रत्यर्पण, म्यांमार ने एक भरोसेमंद और मदद के लिए तत्पर पड़ोसी की भूमिका अदा की है। इसकी एक और झलक मई 2020 में तब देखने को मिली जब म्यांमार के अधिकारियों ने 22 उत्तरपूर्वी अलगाववादियों को भारत को प्रत्यर्पित कर दिया। पूर्वोत्तर के कुछ अलगाववादी गुटों के चीन से संबंधों और भारत-चीन सीमा विवाद के बीच भी नरवने का जाना महत्वपूर्ण हो जाता है।
अरबों डॉलर की पेट्रोलियम रिफायनरी
एनएससीएन के साथ शांति समझौते में हो रही देरी, अन्य नागा अलगाववादी धड़ों और उल्फा की गतिविधियों के मद्देनजर भी यह यात्रा महत्वपूर्ण है। हाल ही में एनएससीएन ने भारत सरकार से कहा है कि बातचीत की जगह थाईलैंड के अलावा किसी और तीसरे देश में हो।
चीन के म्यांमार में बढ़ते निवेश को लेकर भी भारत की चिंताएं बढ़ी हैं। खास तौर पर ऊर्जा के क्षेत्र में चीन ने काफी निवेश किया है। भारत भी ऊर्जा क्षेत्र में म्यांमार के साथ सहयोग का फायदा उठाना चाहता है और शायद यही वजह है कि कभी म्यांमार की राजधानी और अभी भी व्यापार और वाणिज्य का केंद्र माने जाने वाले यांगून के नजदीक भारत 6 अरब डॉलर की एक पेट्रोलियम रिफायनरी प्रोजेक्ट लगाना चाहता है। इस संदर्भ में भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने अपनी मंशा म्यांमार सरकार के समक्ष रखी है।
यदि इस प्रस्ताव पर सहमति बनती है तो इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन भारत की तरफ से इसमें हिस्सेदार होगा। इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन के अलावा जीएआईएल और ओएनजीसी भी म्यांमार के ऊर्जा सेक्टर में सक्रिय हैं।
मिजोरम पर भी बढ़ा ध्यान
भारत और म्यांमार में अभी भी अधिसंख्य जनसंख्या कृषि पर निर्भर और गरीब तबके से है। लिहाजा कृषि सहयोग दोनों देशों के बीच अहम स्थान रखता है। इस सहयोग में चाहे वह म्यांमार से डेढ़ लाख टन बीन्स और दलहन आयात करने की सहमति हो या मिजोरम और चिन प्रांत (म्यांमार) की सीमा के पास बयान्यू/सरसीचौक में बॉर्डर हाट बनाने के लिए 20 लाख डॉलर का अनुदान, भारत ने पारस्परिक सहयोग को बढ़ावा देने की कोशिश की है। म्यांमार भारत को सबसे ज्यादा बीन्स और दलहन निर्यात करने वाले देशों में है।
म्यांमार के साथ कनेक्टिविटी बढ़ाने में मणिपुर को हमेशा से खास दर्जा मिला है। मोदी की एक्ट ईस्ट नीति में मिजोरम पर भी ध्यान बढ़ा है। मणिपुर के मोरेह की तरह मिजोरम में जोखावथार लैंड कस्टम स्टेशन की स्थापना और अब बॉर्डर हाट इसी का परिचायक है। बरसों के इंतजार के बाद सितवे पोर्ट के मार्च 2021 तक तैयार हो जाने की संभावना है। अगर ऐसा होता है तो यह एक बड़ा कदम होगा। सितवे पोर्ट भारत के म्यांमार और दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य देशों से भारत के आर्थिक व्यापारिक सहयोग को बढ़ाने में मददगार होगा। हालांकि सितवे रखाइन प्रदेश में है जहां रोहिंग्या अल्पसंख्यकों की काफी संख्या है।
म्यांमार में नवंबर में चुनाव
इसके अलावा भारत ने म्यांमार को रेमडेसिविर के 3000 वाइल भी उपलब्ध कराने का वादा किया है। कोविड महामारी की शुरुआत में म्यांमार में बहुत कम संक्रमित लोग पाए गए और लगा कि शायद म्यांमार इस महामारी की चपेट में पूरी तरह नहीं आएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और हाल के दिनों में म्यांमार में भी संक्रमण के मामले तेजी से बढ़े हैं। म्यांमार में 8 नवंबर को चुनाव भी होने हैं। वैसे तो औपचारिक स्तर पर कोई विशेष बात नहीं हुई लेकिन भारत में इस बात की दिलचस्पी कम नहीं है कि चुनावों के परिणाम क्या होंगे।
म्यांमार भारत की नेबरहुड फस्र्ट और एक्ट ईस्ट दोनों ही का हिस्सा है। यह दुर्भाग्य ही है कि इन तमाम बातों और आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक समानताओं के बावजूद म्यांमार अभी भी भारत के लिए उतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं रखता जितना उसे रखना चाहिए। म्यांमार और उसके जैसे पड़ोसी देशों पर ध्यान देना और उनसे पारस्परिक सहयोग के रास्ते निकालना भारत की मजबूरी नहीं, जिम्मेदारी है। जब तक देश के नीति निर्धारक इस बात पर ध्यान नहीं देंगे भारत अपने पड़ोसियों का विश्वासपात्र सहयोगी नहीं बन पाएगा। (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कश्मीर की छह प्रमुख पार्टियों ने कल यह तय किया कि जम्मू कश्मीर और लद्दाख की जो हैसियत 5 अगस्त 2019 के पहले थी, उसकी वापसी के लिए वे मिलकर संघर्ष करेंगे। इस संघर्ष का निर्णय 4 अगस्त 2020 को हुआ था, जिसे गुपकार घोषणा कहा जाता है। इस संघर्ष के लिए उन्होंने नया गठबंधन बनाया है, जिसे ‘पीपल्स एलायंस’ या जनमोर्चा नाम दिया गया है। जम्मू-कश्मीर की कांग्रेस पार्टी के नेता किसी निजी कारण से इस जनमोर्चा की बैठक में हाजिर नहीं हो सके। वैसे कांग्रेस ने भी गुपकार-घोषणा का समर्थन किया था।
यहां मुख्य प्रश्न यही है कि अब कश्मीर में क्या होगा? क्या वहां कोई बड़ा जन-आंदोलन खड़ा हो जाएगा या हिंसा की आग भडक़ उठेगी? हिंसा पर तो हमारी फौज काबू कर लेगी। तो क्या भारत सरकार धारा 370 और 35 को वापिस ले आएगी? मुझे लगता है कि यदि मोदी सरकार ऐसा करेगी तो उसका जनाधार खिसक जाएगा। वह खोखली हो जाएगी। हां, वह यह तो कर सकती है कि आंदोलनकारी नेताओं की साख बनाए रखने के लिए जम्मू-कश्मीर को फिर से राज्य का दर्जा दे दे, जैसा कि गृहमंत्री अमित शाह ने भी संसद में संकेत दिया था। नेताओं को क्या चाहिए ? सत्ता और सिर्फ सत्ता ! उसके लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। फारुक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस और महबूबा मुफ्ती की पीडीपी ने किस-किस से हाथ नहीं मिलाया ? कांग्रेस से और भाजपा से भी। उन्होंने एक-दूसरे के विरुद्ध आग उगलने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। अब दोनों की गल-मिलव्वल पर क्या कश्मीरी लोग हंसेगे नहीं ? यदि राज्य का दर्जा फिर से घोषित हो गया तो इन नेताओं की सारी हवा निकल जाएगी। यों भी धारा 370 के प्रावधानों में पिछली कांग्रेसी सरकारों ने इतने अधिक व्यावहारिक संशोधन कर दिए थे कि कश्मीर की स्वायत्ता सिर्फ नाम की रह गई थी।
इन नेताओं को सत्ता का और खुली लूट-पाट का मौका क्या मिलेगा, ये कश्मीर की मूल समस्या को दरी के नीचे सरका देंगे। 73 साल से चला आ रहा तनाव बना रहेगा और कश्मीर समस्या के दम पर पाकिस्तान की फौज असहाय पाकिस्तानियों की छाती पर सवारी करती रहेगी। इस समय जरुरी है कि मोदी और इमरान मिलकर कश्मीर पर बात करें और इस बात में हमारे और पाकिस्तानी कश्मीरियों को भी शामिल करें। अटलजी और डॉ. मनमोहनसिंह ने जनरल मुशर्रफ के साथ जो प्रक्रिया शुरु की थी, उसे आगे बढ़ाया जाए। डर यही है कि हमारी सरकार के पास दूरदृष्टिपूर्ण नेता नहीं हैं। वह नौकरशाहों पर उसी तरह निर्भर है, जैसे पाकिस्तानी नेता उनके फौजी जनरलों पर निर्भर हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
आज भारत की संसद में हंगामा है. देश को चलाने वाले नेता एक दूसरे पर लांछन लगा रहे हैं. वे भूल रहे हैं कि लोकतंत्र को चलाना उनका दायित्व है. पहले संसद का, फिर लोकतंत्र का मखौल उड़ाकर, प्रतिष्ठा गिराकर उनका भी लाभ नहीं होगा.
लोकतंत्र में जनता सार्वभौम है और नेता जनता के प्रतिनिधि हैं, जिन्हें मतदाता एक खास अवधि के लिए चुनता है और अपना सार्वभौम अधिकार सौंप देता है. इन नेताओं पर ही लोकतंत्र को चलाने की जिम्मेदारी होती है. अगर ये नेता लोकतंत्र की रक्षा न कर सकें तो उन्हें सार्वभौम अधिकार लेने का कोई हक नहीं. लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाना उनका मकसद नहीं होना चाहिए. संसद में जाने वाली देश की प्रमुख पार्टियां हैं, जो बदल बदल कर सरकार चलाती हैं. उन्हें संसद में और संसद के बाहर अपने आचरण पर विचार करना चाहिए. देश में ही नहीं विदेशों में भी उनकी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है.
कृषि बिल पर राज्यसभा में जो कुछ हुआ वह किसी सच्चे लोकतंत्र को शोभा नहीं देता. संसद बहस के लिए है, नए कानूनों पर देश के विभिन्न हिस्सों के प्रतिनिधियों के तौर पर अपने मतदाताओं की आवाज पहुंचाने के लिए ताकि नया कानून पुख्ता हो और सबके हित में हो. भारत का चुनाव कानून यूं भी बहुमत मतदाताओं को नजरअंदाज करता है. निर्वाचन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा वोट पाने वाले की जीत का मतलब अक्सर ये होता है कि न जीतने वाले उम्मीदवारों को पड़े वोट बेकार हो जाते हैं. सरकार बनाने का जिम्मा संसद या विधानसभा में बहुमत पाने वाली पार्टी का होता है. यहां भी चलती सिर्फ सरकारी पार्टी की है. संसद या विधानसभाओं में भी अगर विपक्ष की सुनी नहीं गई तो देश के ज्यादातर कानून लोगों के लाभ के लिए नहीं होंगे.
धरने पर बैठे निलंबित सांसद
आजादी के बाद के दशकों के कानूनों या सरकारी फैसलों को लें तो जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी की सरकार उनमें से ज्यादातर को बदल रही है, वह इस बात का सबूत है कि देश का नया बहुमत उन कानूनों के साथ जुड़ाव महसूस नहीं करता. इसलिए लोकतंत्र में विपक्ष को साथ लेना जरूरी है. नागरिक और पेशेवर संगठनों के माध्यम से चुनाव में हारे उम्मीदवारों के समर्थकों को साथ लेना जरूरी है. यह काम एक दूसरे को दुश्मन समझ कर नहीं हो सकता.
राज्यसभा में बैठे नेता एक दूसरे को जानते हैं, एक दूसरे के दोस्त हैं. पार्टी बदलकर इधर अधर आते जाते रहते हैं. किसी न किसी राज्य में उनकी पार्टियां सरकार में हैं या थीं. उन्हें संसद का इस्तेमाल अखाड़े के तौर पर नहीं करना चाहिए बल्कि सार्वभौमिक सत्ता के केंद्र के तौर पर. उप सभापति के साथ जो बर्ताव हुआ अच्छा नहीं हुआ. लेकिन विपक्ष के आठ सांसदों को जिस तरह निलंबित कर दिया गया है वह भी ठीक नहीं है. एक लोकतांत्रिक व्यवहार एक दूसरे को सजा देने में नहीं हो सकता. लोकतंत्र के रक्षकों को व्यवहार में भी लोकतांत्रिक मिजाज दिखाना चाहिए.
क्या एक परिपक्व परिवार में पिता हमेशा बेटे-बेटियों की पिटाई करता रहेगा, क्योंकि वे छोटे है. या फिर क्या ताकतवर हमेशा कमजोर को दबाता रहेगा. इन्हीं कमियों से निबटने के लिए लोकतंत्र की स्थापना हुई थी. और भारत में तो बिहार के वैशाली में लोकतंत्र की लंबी परंपरा रही है. सरकार भी देश की रक्षा के लिए बनी संस्थाओं से ताकत लेती है. उसे इस ताकत का इस्तेमाल विपक्ष या विरोधी आवाजों को दबाने के लिए नहीं बल्कि उनकी आवाज को शामिल करने के लिए करना चाहिए. लोकतंत्र की यही पहचान है. अगर संसदों के पास अपने सदस्यों को सजा देने के अधिकार है तो वे आज के जमाने से मेल नहीं खाते. संसद में विरोध करने वाले सदस्य अपराधी नहीं, उन्हें सजा देकर उन्हें अपराधी का दर्जा भी नहीं दिया जाना चाहिए.
आज की संसद किसी अंग्रेजी सरकार की संसद नहीं वह सार्वभौम भारत के नागरिकों द्वारा चुनी और सरकार बनाने और उस पर कंट्रोल करने वाली संसद है. उसे नई परंपराएं गढ़ने का हक है. जन प्रतिनिधि सभाओं के सदस्यों को भी मर्यादा को समझना होगा या साथ मिल बैठकर नई मर्यादाएं तय करनी चाहिए. हरिवंश एक प्रतिष्ठित पत्रकार रहे हैं, वे अगर ब्रिटिश परंपराओं को तोड़ पाते हैं, या तोड़ने में मदद दे पाते हैं, तो राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की तरह उन्हें भी लंबे समय तक याद किया जाएगा. (dw.com)
कश्मीर में जिसे नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और पीडीपी का अभूतपूर्व गठबंधन बताया जा रहा है वो असल में यहां की छह मुख्य पार्टियों की ओर से अगस्त 2019 में शुरू की गई साझा मुहिम है का ही विस्तार है.
फर्क यह आया है कि 2019 में जब इस अभियान की घोषणा हुई थी तब इसका लक्ष्य पूर्ववर्ती जम्मू और कश्मीर राज्य के विशेष दर्जे और अनुच्छेद 35 ए और अनुच्छेद 370 को बचाना और राज्य के विभाजन को रोकना था, जो कि अब हो चुका है. गुपकार घोषणा के अगले दिन ही केंद्र सरकार ने जम्मू और कश्मीर का राज्य का दर्जा ही खत्म कर इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया. इन पार्टियों ने 2019 की गुपकार घोषणा को बरकरार रखा है और इस गठबंधन को नाम दिया है "पीपल्स अलायंस फॉर गुपकार डेक्लेरेशन." एनसी और पीडीपी के अलावा इसमें सीपीआई(एम), पीपल्स कांफ्रेंस (पीसी), जेकेपीएम और एएनसी शामिल हैं.
अभियान की घोषणा करते हुए जम्मू और कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने कहा, "हमारी लड़ाई एक संवैधानिक लड़ाई है. हम चाहते हैं कि भारत सरकार जम्मू और कश्मीर के लोगों को उनके वो अधिकार वापस लौटा दे जो उनके पास पांच अगस्त 2019 से पहले थे." अब्दुल्ला ने यह भी कहा, "जम्मू, कश्मीर और लद्दाख से जो छीन लिया गया था हम उसे फिर से लौटाए जाने के लिए संघर्ष करेंगे." 2019 की 'गुपकार घोषणा' वाली बैठक की तरह यह बैठक भी अब्दुल्ला के श्रीनगर के गुपकार इलाके में उनके घर पर हुई.
इस एक साल में जम्मू और कश्मीर में जो बदलाव आए हैं वो प्रशासनिक तौर पर पूरी तरह से लागू हो चुके हैं. ऐसे में यह स्पष्ट नजर नहीं आता कि ये पार्टियां पुरानी व्यवस्था की बहाली का लक्ष्य कैसे हासिल करने की उम्मीद रखती हैं. इनके अभियान में भी किसी काम की योजना के बारे में नहीं बताया गया है. कश्मीर मामलों के जानकार बताते हैं कि अभी तो इन पार्टियों का लक्ष्य है जम्मू, कश्मीर और लद्दाख इलाकों में जनता के बीच जाना, उनसे संवाद स्थापित करना और फिर उनके समर्थन से आगे की योजना बनाना.
क्या उम्मीद है इस अभियान से?
श्रीनगर में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार जफर इकबाल ने डीडब्ल्यू से कहा कि इस अभियान के तहत एक दूसरे की विरोधी रही इन पार्टियों का "साथ आना और एक साझा लक्ष्य के लिए अपने मतभेदों को एक ओर रख देना एक अच्छा कदम है." उन्होंने यह भी कहा कि"यह अभियान टिकेगा और कम से कम कुछ समय तक तो चलेगा ही."
वरिष्ठ पत्रकार और कश्मीर मामलों के जानकार उर्मिलेश का मानना है कि इस अभियान की अगुआई जो पार्टियां कर रही हैं (एनसी और पीडीपी) "एक दौर में जम्मू और कश्मीर की आवाम की निगाहों में उनकी साख गिर गई थी क्योंकि उन दोनों ने लोगों को एक तरह से निराश किया है." हालांकि वो यह भी कहते हैं कि अब जब कश्मीर को भारत का हिस्सा मानने वाले सारी कश्मीरी पार्टियां इन दोनों पार्टियों के साथ आ गई हैं तो हो सकता है कि जनता में इनकी प्रति विश्वास एक बार फिर बनना शुरू हो. वो मानते हैं कि संभव है कि जनता इस गठबंधन को एक मौका देने के बारे में सोंचे.
कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि एक साल से भी ज्यादा से सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक हर तरह के लॉकडाउन में पड़े जम्मू और कश्मीर में इस गठबंधन के बनने की वजह से राजनीतिक गतिविधि की वापसी हुई है. वरिष्ठ पत्रकार संजय कपूर कहते हैं कि यह उम्मीद की जा सकती है कि अब कश्मीर मुद्दे पर "केंद्र का विरोध और बढ़ेगा" और "मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण की संभावना भी बढ़ेगी." उनका यह भी मानना है कि अगर अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप अमेरिका में आने वाले चुनावों में हार जाते हैं तो डेमोक्रैटिक पार्टी भी इस अभियान को समर्थन दे सकती है.
कांग्रेस की अनुपस्थिति
गुपकार घोषणा और गुपकार घोषणा 2.0 में एक फर्क यह भी है कि इस बार कांग्रेस इस गठबंधन में शामिल नहीं हुई है. 2019 में अब्दुल्ला के निवास पर हुई बैठक में प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष ताज मोहिउद्दीन शामिल हुए थे. इस बार ना मोहिउद्दीन ने बैठक में हिस्सा लिया ना प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गुलाम अहमद मीर ने. बैठक के बाद की घोषणाओं में भी सिर्फ बाकी छह पार्टियों का जिक्र है, और कांग्रेस का नहीं है. मीर ने कहा कि उन्हें बैठक में शामिल होने का निमंत्रण मिला था लेकिन वो स्वास्थ्य कारणों से शामिल नहीं हो सके.
कश्मीर में स्थानीय कांग्रेस नेताओं के लिए शायद यह एक असमंजस की स्थिती है. कश्मीरी कांग्रेस नेता सलमान सोज ने एक ट्वीट में कहा कि भले ही कांग्रेस इस गठबंधन का हिस्सा ना हो, लेकिन व्यक्तिगत रूप से इस पहल का समर्थन करते हैं.
उर्मिलेश कहते हैं कि यह कश्मीर को लेकर कांग्रेस की पुरानी झिझक का नतीजा है. वो कहते हैं कि कांग्रेस को हमेशा से यह लगता रहा है कि इस तरह के मुद्दों पर अगर वो कश्मीरी पार्टियों के साथ जाएगी तो देश के बाकी इलाकों में उसकी परेशानी बढ़ जाएगी, क्योंकि कश्मीर को लेकर शेष भारत में जो राय है वो भारत के सत्ता के ढांचे से प्रेरित रहा है. वो यह भी कहते हैं कि अनुच्छेद 370 को कमजोर करने का काम कांग्रेस ने ही किया था और अब तो बस उसका कंकाल बचा था जिसे बीजेपी ने बस जमीन के नीचे दफन करने का काम किया है.
उत्तर प्रदेश में 1500, हरियाणा में 1700 और पंजाब में 1800 रुपए प्रति क्विंटल हुआ बासमती का भाव
- Bhagirath Srivas
पानीपत जिले के हल्दाना गांव में रहने वाले नवाब सिंह अगले साल से बासमती नहीं उगाने का मन बना चुके हैं। बासमती की खेती में हर साल हो रहे घाटे को देखते हुए उन्होंने फैसला किया है कि आगे से वह मोटा चावल (साधारण चावल) उगाएंगे। नवाब सिंह ने इस साल 11 एकड़ में बासमती उगाया है। इसमें से 4 एकड़ खेत उनका खुद का है और शेष उन्होंने 41 हजार रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से पट्टे पर लिया है। उन्होंने 7 एकड़ के खेत में बासमती-1718 और साढ़े चार एकड़ में बासमती-1121 वैरायटी उगाई है। बासमती से मोहभंग होने की वजह बताते हुए वह कहते हैं, “मैं समालखा मंडी में जब बासमती-1718 लेकर पहुंचा तो 2,151 रुपए प्रति क्विंटल का भाव मिला। मंडी में बासमती-1121 का भाव भी 2,300-2,400 रुपए प्रति क्विंटल के बीच है। इस भाव पर लागत भी नहीं निकल पा रही है।” वह बताते हैं कि 2015 से बासमती के भाव लगातार गिर रहे हैं। इस साल भाव अब तक के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गए हैं। ऐसी स्थिति में बासमती की खेती करने का कोई मतलब नहीं रह गया है।
पानीपत जिले के डिंडवाड़ी गांव के रहने वाले शमशेर सिंह भी बासमती के गिरते भाव से इस कदर निराश हो चुके हैं कि बासमती की खेती से तौबा कर सकते हैं। पानीपत अनाज मंडी में तीन दिन से वह अपनी उपज बेचने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उन्हें अब तक कामयाबी नहीं मिली है। उन्होंने अपने तीन के एकड़ के खेत में बासमती धान की 1509 वैरायटी उगाई थी। वह बताते हैं कि बासमती-1509 का बाजार भाव 1,700 रुपए प्रति क्विंटल है। यह भाव एमएसपी पर बिकने वाले साधारण चावल से भी कम है। इतने कम भाव पर भी खरीद नहीं हो पा रही है। व्यापारी कभी नमी तो कभी खराब गुणवत्ता का बहाना बनाकर उपज खरीद से इनकार कर रहे हैं। वह बताते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में बासमती का इतना कम भाव नहीं देखा है।
हरियाणा की तरह ही पंजाब, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में भी बासमती का भाव औंधे मुंह गिर गया है। दिल्ली की नजफगढ़ मंडी में बासमती 2,300-2,400 रुपए, पंजाब में 1,800-2,000 और उत्तर प्रदेश में 1,500-1,600 रुपए के भाव पर बिक रहा है। दिल्ली के घुम्मनहेड़ा गांव के किसान दयानंद बताते हैं, “एक एकड़ में बासमती की खेती की लागत करीब 40 हजार रुपए बैठती है। यह लागत साल दर साल बढ़ रही है, जबकि भाव लगातार कम होता जा रहा है।” साल 2014 में बासमती का अधिकतम भाव 4,500 रुपए प्रति क्विंटल था। उसके बाद से भाव हर साल गिर रहा है। आशंका है कि जैसे-जैसे मंडी में बासमती की आवक बढ़ेगी, भाव और कम हो सकता है। दयानंद बासमती की खेती को घाटे का सौदा मानते हैं। वह बासमती केवल इसलिए उगाते हैं क्योंकि उनके खेत में कोई दूसरी फसल नहीं होती। उनके घर के खर्चे डेरी फार्मिंग से पूरे हो रहे हैं।
दिल्ली के ढांसा गांव के रहने वाले सुखवीर के लिए भी बासमती की खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है। कम उपज, बढ़ती लागत और गिरते भाव को देखते हुए वह साधारण चावल की खेती करना चाहते हैं, लेकिन वह चाहकर भी ऐसा नहीं पा रहे हैं क्योंकि दिल्ली में एमएसपी पर खरीद 2014 के बाद से बंद है। खुले बाजार में साधारण चावल का भाव न मिलने के चलते वह मजबूरी में बासमती की खेती कर रहे हैं।
बासमती उगाने वाले इन राज्यों और किसानों का यह हाल तब है जब दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश समेत 7 राज्यों के बासमती को जीआई (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) टैग हासिल है। इस टैग केवल उन्हीं उत्पादों को हासिल होता है जो किसी विशेष क्षेत्र में विशेष खूबियों वाले होते हैं।(downtoearth)
-शिवप्रसाद जोशी
टाटा समूह का तनिष्क भले ही गहनों का स्वेदशी ब्रांड हो लेकिन हिंदुत्ववादियों की वक्र दृष्टि पड़ते ही उसे अंतरधार्मिक परिवार की रस्म दिखाता विज्ञापन हटाना पड़ा. उसकी मंशा क्या विवाद से लाभ उठाने की थी, ये सवाल भी उठे हैं.
भारत के अलावा अंतरराष्ट्रीय विज्ञापन संगठनों ने भी तनिष्क के विज्ञापन का समर्थन किया है. इंटरनेशनल एडवर्टाइजिंग एसोसिएशन (आईएए) की भारतीय शाखा ने कहा कि अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को दबाने की कोशिश की कड़े शब्दों में भर्त्सना की जानी चाहिए. ईएए ने सरकार से कड़ी कार्रवाई की मांग भी की. अन्य दो विज्ञापन एजेंसियों- एडवर्टाइजिंग एजेंसीज एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एएएआई) और द एडवर्टाइजिंग क्लब (टीएसी) ने भी इस बात पर चिंता जतायी कि तनिष्क और उसके कर्मचारियों को धमकियां मिलने के बाद विज्ञापन हटाना पड़ा. टीएसी के मुताबिक विज्ञापन ने आचार संहिता का पालन किया है, वो किसी व्यक्ति, संगठन या धर्म के खिलाफ अभद्र नहीं है और न ही उसने राष्ट्रीय भावना को चोट पहुंचायी है. विज्ञापन जगत की नियामक संस्था एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्स काउंसिल ऑफ इंडिया (एएससीआई) ने भी अपनी जांच में पाया कि विज्ञापन में कुछ भी अश्लील, अशोभनीय या घृणास्पद नहीं था.
क्या तनिष्क ने अपना विज्ञापन कंटेंट जानबूझ कर ऐसा चुना था, उसे तत्काल वापस लेकर क्या उसने सही किया, या इसके भी कुछ कारोबारी और राजनीतिक निहितार्थ थे, इस बारे में कयास लग रहे हैं. वैसे पिछले कुछ वर्षों के दौरान हिंदू-मुस्लिम मिलाप और घनिष्ठता का संदेश देने वाले विज्ञापन आते रहे हैं, खूब सराहे भी गए हैं लेकिन अधिकांश कट्टरपंथियों के क्रोध का निशाना भी बने हैं. यूनीलीवर कंपनी के डिटर्जेंट ब्रांड सर्फ एक्सेल का बच्चों की होली का विज्ञापन ‘रंग लाए संग' पिछले साल आया था और सोशल मीडिया पर खूब वायरल भी हुआ था. 2014 में कौन बनेगा करोड़पति के, पड़ोसी एकता और भाईचारा दिखाने वाले विज्ञापन ने भी ध्यान खींचा था. ब्रुक बॉन्ड रेड लेबल चाय के ‘स्वाद अपनेपन का' विज्ञापन में गणेश की मूर्तियां बनाने वाले मुस्लिम कलाकार और हिंदू ग्राहक के बीच मार्मिक संवाद है. 2014 का इसी ब्रांड का एक और विज्ञापन दो पड़ोसी परिवारों को धर्म और पहनावे से पहले चाय की महक से जोड़ने की कोशिश करता है. 2012 में आइडिया कंपनी का संवाद रहित आकर्षक विज्ञापन आया था जिसमें एक मुस्लिम युवा दिवाली पर अपनी महबूबा को एक गिफ्ट भेजना चाहता है. क्या इस तरह के विज्ञापन सिर्फ ग्राहकों का और आलोचकों का ध्यान खींचने के लिए बनाए जाते हैं या सामाजिक उद्देश्य भी निहित होता है, इस बारे में भी जानकारों की राय बंटी हुई है.
विज्ञापनों में इंसानों को जोड़ने वाला कंटेंट
बेस्टमीडियाइंफो वेबसाइट की एक रिपोर्ट में प्रकाशित कैन्को एडवर्टाइजिंग और एशियन फेडरेशन ऑफ एडवर्टाइजिंग एसोसिएशंस के सदस्य रमेश नारायण का कहना है, "ओगिल्वी के बनाये भारत पाकिस्तान भाईचारे और अपनी जड़ों की तलाश पर बने गूगल ऐड को चौतरफा सराहा गया था. तनिष्क को मिली ये प्रतिक्रिया हमारे समय का एक संकेत है और ट्विटर जैसे मंचों के बढ़ते प्रताप का भी.” इसी रिपोर्ट में मीडिया मॉन्क्स इंडिया के क्रिएटिव हेड करन अमीन कहते हैं कि "स्क्रिप्ट लिखने के लिए धर्म का इस्तेमाल लोगों को मौका दे रहा है इस बारे में बात करने के लिए, ये सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी, खासकर भारत जैसे देश में जहां धार्मिक विभाजन है.” उनके मुताबिक, "ब्रांड और एजेंसियों को धर्म से रहित कंटेट बनाना चाहिए.” ऐसा कंटेंट जो बगैर किसी धार्मिक पहचान के, किसी भी मनुष्य को प्रभावित करने वाला हो.
पिछले साल जुलाई में भोजन डिलीवर करने वाली ऑनलाइन कंपनी जोमाटो के एक ग्राहक ने ये कहते हुए अपना ऑर्डर कैंसल कर दिया था कि पैकेट डिलिवर करने वाला लड़का गैर-हिंदू था. जोमाटो का काबिलेगौर जवाब था कि खाने का कोई धर्म नहीं होता. कहा जा सकता है कि तनिष्क ने भी अपने कर्मचारियों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कदम उठाया. लेकिन तनिष्क कोई साधारण ब्रांड नहीं है और टाटा समूह जैसा दिग्गज औद्योगिक घराना उसके पीछे है. और तमाम विज्ञापन एजेंसियों और संस्थाओं ने उसका खुलकर समर्थन भी किया है. सेलेब्रिटी वर्ग और जागरूक समाज भी पीछे नहीं रहा. जानकारों का मानना है कि जाने अनजाने तनिष्क के फैसले से अराजक तत्वों को और बल मिलता है. सिने जगत पर तो ट्रॉल्स पांव जमाकर बैठे ही हैं, सुशांत रिया मामले से पहले भी हाल के वर्षों में दुनिया इसे देखती आयी है.
नफरती एजेंडा के नाम पर विज्ञापन रोका
एक तरफ तनिष्क कथित रूप से एक साफसुथरे ऐड पर पीछे हट रहा था दूसरी तरफ बजाज ऑटो और पार्ले बिस्किट जैसे समूह नफरती एजेंडा चलाने वाले टीवी चैनलों को आइंदा विज्ञापन न देने का ऐलान कर रहे थे. हो सकता है आने वाले दिनों में कुछ और नाम इस बहिष्कार में शामिल हो जाएं. लेकिन इन घटनाओं के साथ साथ कुछ और तथ्य भी देखने चाहिए जो विज्ञापन, मानहानि, अभिव्यक्ति की आजादी और मीडिया राजनीति से जुड़े हैं. सुशांत मामले पर ‘हाइपर' कवरेज कर रहे एक टीवी समाचार चैनल पर एक ओर अभिनेता सलमान खान के बारे में गरजती टिप्पणियां की जा रही थीं, तो दूसरी ओर दर्शक हैरान थे कि उसी चैनल पर फिल्मी दुनिया के ‘भाई' अपने शो बिगबॉस के विज्ञापन में चिरपरिचित आवाज में लहरा रहे हैं.
न्यूजलॉन्ड्री वेबसाइट में विस्तारपूर्वक बताया गया कि किस तरह प्रमुख टीवी समाचार चैनल जब अपनी रिपोर्टों और स्टूडियो बहसों में चीन की क्लास ले रहे थे उसी दौरान उनकी स्क्रीनों के कोने पर चीनी उत्पादों या चीनी कंपनियों से भागीदारी वाले ब्रांडों के विज्ञापन धड़ल्ले से चल रहे थे. यहां तक कि टीवी चैनलों को विज्ञापनों से पाट देने वाले पतंजलि के बाबा रामदेव भी चीनी सामान के बहिष्कार के साथ अपने उत्पादों का प्रछन्न विज्ञापन करते देखे गए. स्टैटिस्टा वेबसाइट के एक आंकड़े के मुताबिक भारत में विज्ञापन राजस्व 878 अरब रुपये का है. 2022 तक एडवर्टाइजिंग से एक खरब रुपये का कुल राजस्व जमा हो जाने का भी अनुमान है. चीनी सामान के विज्ञापन न दिखें तो शायद कुछ अंतर पड़े. लेकिन सबसे ज्यादा राजस्व कमाने वाला माध्यम टीवी ही है.
विज्ञापन से जुड़ी आचार नीति के कुछ घोषित, अघोषित, बाध्यकारी और कुछ स्वैच्छिक बिंदु हैं. मिसाल के लिए फेयर ऐंड लवली फेसक्रीम को लंबे विवाद के बाद अपना नाम बदलना पड़ा लेकिन नया विज्ञापन भी कमोबेश दिखाता वही है जिसे लेकर इसकी आलोचना होती रही है. आचार नीति पर पूरी तरह से अमल की हिचकिचाहट और अभिव्यक्ति की आजादी पर तंग नजरिये के बीच नीति-नियमों का अनुपालन सुनिश्चित कराने के लिए जिम्मेदार सरकारी, स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस मामले में लाचार ही नजर आती हैं. ये तो हम जानते ही आए हैं कि विज्ञापन का सिर्फ उत्पाद या माध्यम से ही संबंध नहीं होता, ऑडियंस से भी होता है. लेकिन आज ऑडियंस सिर्फ विंडो शॉपर, खरीदार या उपभोक्ता नहीं, ऑडियंस उन समूहों की भी बन रही है जो खुद को समाज और नैतिकता का ठेकेदार कहते फिरते हैं. विज्ञापन की राजनीति, सफलता या नैतिकता के आकार पर उठते सवालों के बीच ये भी देखना होगा कि उस पर नजर रखने वाली स्वयंभू नैतिक पुलिस का आकार कैसे बढ़ रहा है!(DW)
भारत डोगरा
हाल ही में केन्द्रीय सरकार ने विदेशी देन नियंत्रण अधिनियम (एफसीआरए) में जो संशोधन किए हैं उनका व्यापक विरोध हुआ है। इन संशोधनों ने स्वैच्छिक संस्थाओं के संचालन में सरकार के अनावश्यक दखल को इस हद तक बढ़ा दिया गया है कि अनेक स्वैच्छिक संस्थाओं के लिए भविष्य में अपना अस्तित्व बनाए रखना भी कठिन हो सकता है। विशेषकर अनेक छोटी स्वैच्छिक संस्थाओं के लिए व पैरवी/जन-अभियान के कार्य में लगी स्वैच्छिक संस्थाओं के लिए अधिक कठिनाईयां उपस्थित हुई हैं।
इसे सभी स्वीकार करते हैं कि विदेशी अनुदानों के मामले में पारदर्शिता होनी चाहिए पर यह एनजीओ के संदर्भ में पहले से मौजूद थी और विभिन्न एनजीओ को इस बारे में पूरी जानकारी सरकार को पहले ही नियमित उपलब्ध करवानी पड़ती थी कि कहां से कितने संसाधन प्राप्त हुए हैं। कोई भी अतिरिक्त जानकारी सरकार को प्राप्त करनी हो तो इसके लिए भी उसके पर्याप्त व्यवस्था मौजूदा थी।
यदि सरकारी जांच में विदेशी धन का कोई दुरुपयोग नजर आए तो उसके विरुद्ध कार्यवाही करने की व्यवस्था भी सरकार के पास मौजूद थी। अत: इन संशोधनों का कोई औचित्य अभी स्पष्ट नजर नहीं आ रहा है।
किसी भी लोकतंत्र में एनजीओ क्षेत्र के महत्वपूर्ण योगदान को मान्यता मिलती है और इस लोकतांत्रिक भूमिका को निभाने के लिए स्वैच्छिक संस्था को अपने कार्य स्वतंत्र रूप से करने के लिए पर्याप्त जगह मिलनी चाहिए। पर जो संशोधन हाल में किए गए हैं वे स्वैच्छिक संस्थाओं के कार्य करने की स्वतंत्रता को अवरुद्ध करते हैं और इसके लिए ऐसे तौर-तरीके अपनाते हैं जिनका मकसद कतई स्पष्ट नहीं है कि इससे किस तरह का राष्ट्रीय हित प्राप्त होगा।
उदाहरण के लिए, संशोधन द्वारा यह कहना कि विदेशी देन प्राप्त करने वाली संस्था को दिल्ली के किसी विशिष्ट बैंक की इकाई में अपना खाता खोल कर यह देन प्राप्त करनी होगी। आधुनिक बैंकिंग की आज की व्यवस्था में कोई धनराशि देश में कहीं भी स्थित बैंक में प्राप्त की गई हो इसका विवरण कहीं भी प्राप्त हो सकता है। तिस पर सारी जानकारी सरकार को उपलब्ध करवाने का प्रावधान तो पहले से मौजूद है। अत: यह स्पष्ट नहीं है कि इस तरह के संशोधन से सरकार किस तरह के ‘राष्ट्रीय हित’ को प्राप्त करना चाहती है।
इसी तरह स्वैच्छिक संस्थाओं को यह कहना कि प्रशासनिक खर्च में वह इतने प्रतिशत से अधिक व्यय नहीं कर सकती है या वह आगे अन्य संस्थाओं को संसाधन उपलब्ध नहीं करवा सकती है (रीग्रांट), यह सब स्वैच्छिक संस्था के कार्य में एक अनावश्यक दखल है। इससे यह तथ्य सामने आता है कि एक खुले लोकतांत्रिक माहौल में अपनी लोकतांत्रिक भूमिका को निभाने की जगह स्वैच्छिक संस्थाओं को नहीं दी जा रही है या उनसे छीनी जा रही है।
यह ध्यान में रखना चाहिए कि कुछ वर्ष पहले तक भारत की चर्चा यहां की अनेक स्वैच्छिक संस्थाओं के रचनात्मक योगदान के रूप में विश्व स्तर पर होती थी और इस दृष्टि से भारत को एक समृद्ध लोकतंत्र माना जाता था। भारत की यह प्रतिष्ठा बनी रहे, इसके लिए केन्द्रीय सरकार को हाल के संशोधन वापस ले लेने चाहिए।
यदि सरकार को किसी संशोधन की जरूरत अनुभव होती है, तो उसे स्वैच्छिक संस्थाओं से इस बारे में पहले व्यापक विमर्श करना चाहिए।
ऐसे विमर्श से ही पता चल सकता है कि इस बारे में स्वैच्छिक संस्थाओं का क्या विचार है, उन्हें किस तरह की कठिनाईयां आ सकती हैं। हो सकता है कि जितनी कठिनाईयां आज स्वैच्छिक संस्थाओं को इन संशोधनों से आ रही हैं, उसका पूरा अंदाजा उन सरकारी अधिकारियों को भी न रहा हो जिन्होंने इन संशोधनों का मसौदा तैयार किया। अत: जरूरी है कि सरकार पहले स्वैच्छिक संस्थाओं से व्यापक और निष्ठापूर्वक विमर्श करे, तभी कानूनों को बदले।
ध्यान रहे कि इन नए संशोधनों के बिना भी यदि सरकार किसी भी संस्था को राष्ट्रीय हित के विरुद्ध कार्य करता हुआ पाती है तो वह सदा उसकी जांच कर सकती है और जांच में दोषी पाए जाने पर आगे कार्यवाही कर सकती है। पर यह सब कार्यवाही किसी बदले या उत्पीडऩ या लोकतंत्र के दमन की तरह की नहीं होनी चाहिए।
एमनेस्टी संस्था से यदि सरकार की राय मेल नहीं रखती थी तो लोकतांत्रिक विमर्श में सरकार लोगों के सामने स्पष्ट कह सकती थी कि एमनेस्टी ने क्या गलत किया है और उसे आगे अति सावधान रहने चाहिए। पर सरकार ने इतनी कड़ी कार्यवाही की कि एमनेस्टी को भारत में अपना कार्य ही बंद करना पड़ा और इस स्थिति की दुनिया के अनेक देशों में निंदा हुई। अब तो आगे के लिए बस उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में स्वैच्छिक संस्थाओं की लोकतांत्रिक भूमिका के प्रति सरकार अधिक सम्मान दर्शाएगी। सरकार को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि देश के अनेक प्रतिष्ठित समाचार पत्रों ने इन संशोधनों को अनुचित बताया है और इस विरोध के स्पष्ट कारण भी बताए हैं। (navjivanindia.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हम भारतीय लोग अपने पड़ोसी देशों के बारे में सोचते हैं कि वे हम से बहुत पिछड़े हुए हैं। हमसे क्षेत्रफल और जनसंख्या में तो वे छोटे हैं ही लेकिन वे शिक्षा, चिकित्सा, भोजन, विदेश-व्यापार आदि के मामलों में भी भारत की तुलना में बहुत पीछे हैं। खास तौर से बांग्लादेश के बारे में तो यह राय सारे देश में फैली हुई है, क्योंकि बांग्लादेशी मजदूरों को तो भारत के कोने-कोने में देखा जा सकता है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की ताजा रपट तो हमारे सामने दूसरा नक्शा पेश कर रही है। उसके अनुसार इस वर्ष बांग्लादेश का प्रति व्यक्ति समग्र उत्पाद (जीएसटी) भारत से थोड़ा ज्यादा है। 2020-21 में बांग्लादेश का प्रति व्यक्ति समग्र उत्पाद 1888 डालर होगा जबकि भारत का 1877 डालर रहेगा। पिछले कुछ वर्षों में बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था निरंतर आगे बढ़ती रही है। 2019 में वह 8.2 बढ़ी थी। इस वर्ष भी बांग्ला अर्थव्यवस्था 3.8 प्रतिशत बढ़ेगी जबकि भारतीय अर्थ व्यवस्था 10.3 प्रतिशत घटेगी।
कोरोना की महामारी का उल्टा असर तो भारत को पीछे खिसका ही रहा है, मोदी सरकार की नोटबंदी जैसी अन्य कई भूलें भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। इसमें शक नहीं है कि पिछले छह वर्षों में भारत की अर्थ-व्यवस्था ने कई छलांगें भरी हैं और वह पड़ोसी देशों के मुकाबले काफी आगे रही है लेकिन आज बांग्लादेश कई मामलों में हमसे कहीं आगे है। जैसे बांग्लादेशी नागरिकों की औसत आयु भारतीयों से 3 वर्ष ज्यादा है। जनसंख्या बढ़ोतरी के लिए मुसलमानों को बदनाम किया जाता है लेकिन बांग्लादेश में जन्म—दर की रफ्तार सिर्फ 2 है जबकि भारत में वह 2.2 है। इसी तरह कई अन्य मामलों में बांग्लादेश हमसे आगे हैं। बांग्लादेश की इस प्रगति से इष्र्या करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था उससे लगभग 11 गुना बड़ी है लेकिन उससे हमें कुछ सीखने की जरूरत जरूर है। बांग्लादेश ने अभी अभी बलात्कार के लिए मृत्युदंड का कानून बनाया है। वह आतंकियों के साथ भी काफी सख्ती से पेश आता है।
बांग्लादेशी लोग बेहद मेहनतकश हैं। वहां हमारे समाज की कमजोरियां कम ही हैं। वहां के लोग जातिवाद से उतने ग्रस्त नहीं हैं, जितने हम हैं। बौद्धिक कामों के मुकाबले वहां शारीरिक कामों को एक दम घटिया नहीं माना जाता। बांग्लादेश के कपड़े सारी दुनिया में गर्म पकौड़े की तरह बिकते हैं। ढाका की मलमल सारी दुनिया में प्रसिद्ध हुआ करती थी। भारत के साथ बांग्लादेश के संबंध अन्य पड़ोसी देशों के मुकाबले ज्यादा अच्छे हैं लेकिन चीन भी वहां हर क्षेत्र में घुसपैठ की पूरी कोशिश कर रहा है। बांग्लादेश की प्रगति से सबसे ज्यादा सबक पाकिस्तान को लेना चाहिए, जिसका वह 1971 तक मालिक था। (नया इंडिया की अनुमति से)
-चैतन्य नागर
जब हम सुनते हैं कि किसी कम शिक्षित इंसान ने घरेलू हिंसा की, अपनी पत्नी या पति, या सहकर्मियों के साथ बदसलूकी की, राह चलते लोगों के साथ दुव्र्यवहार किया तो हमें उतना आश्चर्य नहीं होता, पर जब यही काम कोई डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर या बड़ा अधिकारी करता है तो लोगों को बड़ा ताज्जुब होता है। ऐसा क्यों?
हमारी शिक्षा व्यक्ति का एकतरफा विकास करने पर ही जोर देती है। व्यक्ति का समेकित, सर्वांगीण, सम्पूर्ण विकास इसके उद्देश्यों में शामिल नहीं रहा है। इनका उल्लेख स्कूलों के विज्ञापनों और पत्रिकाओं में जरूर होता है, पर जमीनी हकीकत एक अलग कहानी कहती है। जब शिक्षा समेकित विकास की बात भी करती है, तो वह कई क्षेत्रों में प्रतिभा विकसित करने की बात करती है। वह छात्र को कई अलग-अलग गतिविधियों में उलझा कर रखने को ही उनका समेकित विकास मान लेती है। वह छात्र के और अधिक करने, कुछ और अधिक बनने पर जोर देती है। हमारी शिक्षा बौद्धिक उपलब्धि या ‘इंटेलीजेंट कोशेंट’ (आईक्यू ) पर अधिक जोर देती है जबकि बुद्धि या विचारणा समूचे मस्तिष्क के एक बहुत ही सीमित क्षेत्र में होने वाली घटना है।
सिर्फ विचार और बुद्धि के संवर्धन पर जोर देने वाली शिक्षा, पुस्तकों में उपलब्ध लिखित शब्द को ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत मानने वाली शिक्षा ऐन्द्रिक बोध को कमजोर और भोथरा कर देती है। यह एक बहुत बड़ा कारण है कि हमारे सामने एक असंवेदनशील पीढ़ी निर्मित हुए जा रही है और हम इसके कारणों की तह तक नहीं जा पा रहे। जहाँ पुस्तक से मिलने वाला शाब्दिक ज्ञान कीमती हो जाए, वहां उसी अनुपात में संवेदनशीलता घटेगी। संवेदनशीलता का संबंध है संवेदनाओं, इन्द्रियों की सक्रियता से। जब विचार और बौद्धिकता पर अधिक जोर दिया जाएगा, वहां इन्द्रियों की क्षमता घटनी ही है।
समेकित शिक्षा को बुद्धि के साथ भावनाओं और इन्द्रियों की तीव्रता को विकसित करने और उसे कायम रखने की जिम्मेदारी भी लेनी होगी। ‘आईक्यू’ के साथ एक भावनात्मक स्तर भी होता है जिसे ‘इमोशनल कोशेंट’ या ‘ईक्यू’ कहते हैं। क्या हम सिर्फ बुद्धि के संवर्धन पर जोर दे रहे हैं? क्या बच्चों के भावनात्मक विकास, उनके आपसी संबंधों, घरेलू रिश्तों वगैरह को पूरी तरह अनदेखा नहीं कर रहे? विचार अक्सर पूरी तरह बौद्धिक हो जाते हैं, या पूरी तरह भावुक और इस तरह का एकतरफा जीवन हमारे लिए कई बाधाएं खड़ी करता है।
इससे जुड़ा दूसरा मुद्दा है गलत मूल्यों के सम्प्रेषण का। एक अच्छा पेशा या नौकरी इंसान की मूलभूत आवश्यकताओं के क्षेत्र में आते हैं। बुनियादी सुरक्षा देह, मन और मस्तिष्क के लिए जरुरी है और इसके बगैर अस्तित्व ही संभव नहीं, पर यदि कुछ लोग बहुत अधिक सफल होना चाहते हैं और उनका बिल्कुल भी ख्याल नहीं रखते जो तथाकथित रूप से ‘असफल’ हैं तो इसका मतलब हम लगातार एक रुग्ण समाज की ओर बढ़ रहे हैं, प्रतिस्पर्धात्मक मूल्यों को पोषित कर रहे हैं। एक बहुत ही शिक्षित और संवेदनशील पश्चिमी महिला के साथ हाल ही में हुई बातचीत याद आती है। उसने कहा कि मैं जीवन में बहुत सफल हो सकती हूँ, धन और शोहरत कमा सकती हूँ, पर मुझे अपनी बहन से बहुत प्यार है और मेरी बहन ज्यादा प्रतिभाशाली नहीं, न ही सामान्य अर्थ में ज्यादा शिक्षित है; मैं सोचती हूँ कि मैं सफल हो जाऊं तो उसे बहुत दु:ख होगा!
ऐसी उदात्त भावना सबमें होगी यह अपेक्षा करना अवास्तविक होगा पर यह तो सच है कि जब हम सफलता के पीछे भागते हैं तो उन लोगों का ख्याल नहीं करते जो अक्सर इस व्यवस्था के कारण ही असफल रह जाते हैं। वे बेहतर इंसान हैं, पर उनमें प्रतिभा नहीं है, या जो प्रतिभा है, वह समाज के मूल्यों के हिसाब से ज्यादा महत्व नहीं रखती। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या शिक्षा का उद्देश्य समाज के मूल्यों के हिसाब से सिर्फ सफल होना है? क्यों हम समझ और शालीनता, स्नेह और करुणा की तुलना में सफलता को ज्यादा महत्व देते हैं?
जाने-अनजाने में हमारी शिक्षा व्यवस्था सफलता की उपासना पर जोर दे रही है। कोई सफल होने के साथ धनी हो तो उसे बहुत ऊंचा दर्जा दिया जाता है। स्कूलों के समारोहों में कलेक्टर या आयुक्त को बुलाया जाता है; कोई स्टार क्रिकेटर मिल सके, फिर तो क्या बात है! इससे बच्चों को यह साफ संदेश मिलता है कि उन्हें बड़े होकर वैसा ही बनना है। ऐसे समारोहों में किसी स्कूल के बहुत ही ईमानदार या समर्पित शिक्षक को क्यों नहीं बुलाया जा सकता? या किसी बच्चे से ही इन कार्यक्रमों का उद्घाटन वगैरह क्यों नहीं करवाया जा सकता?
एक भूखे-प्यासे, वंचित समाज में सफलता की पूजा आपत्तिजनक इसलिए भी है क्योंकि इसे हासिल करने के अवसर सबके पास नहीं हैं। जिन परिवारों में पहले से ही लोग उच्च पदों पर हैं, उनके बच्चों के लिए बेहतर अवसर होते हैं और वे दूसरे बच्चों की तुलना में ज्यादा आगे निकलने की संभावना रखते हैं, भले ही दूसरे बच्चे ज्यादा मेहनती और प्रतिभावान हों। उनके आर्थिक और सामाजिक दबाव उन्हें उन्हीं कामों तक सीमित रखते हैं जिनसे उनका जीवन चल भर सके। बहुत ऊंचे सपने देखना उनके लिए वर्जित है। वंचित तबकों तक पहुँचते-पहुँचते पानी सूख जाता है, समृद्धि और सफलता की नदियाँ कहीं ऊंचाई पर ही रुक जाया करती हैं।
गांधी जी ह्रदय के संवर्धन या ‘कल्चर ऑफ द हार्ट’ की बात करते थे। इमोशनल कोशेंट को महत्व देते थे। यह बात उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में टॉलस्टॉय फार्म में शिक्षा सम्बन्धी प्रयोगों के दौरान ही अप्रत्यक्ष रूप से कह दी थी। बौद्धिक ताकत, सफलता, प्रतिष्ठा और आर्थिक समृद्धि प्राप्त करना जीवन का एकमात्र उद्देश्य नहीं हो सकता और शिक्षक को प्राथमिक स्तर से ही यह बात समझनी और समझानी होगी। इससे उसमें अपना आत्म-सम्मान भी बढ़ेगा, क्योंकि अभी भी हमारे समाज में शिक्षक को एक निरीह प्राणी के रूप में देखा जाता है। अक्सर लोग समझते हैं कि जब कोई, किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो पाता तो वह शिक्षक बन जाता है। शिक्षक को समाज की समूची तस्वीर बच्चों के सामने रखनी चाहिए। यह सिखाना चाहिए कि सफलता और धन ही जीवन का अकेला मकसद नहीं हो सकता। खासकर ऐसे समाज में जहाँ ये सबके लिए उपलब्ध न हो।
यह भी जरूरी है कि इन मूल्यों को परंपरागत अर्थ में व्याख्यायित न किया जाए, बल्कि उन्हें आज के सन्दर्भ में, आधुनिक परिस्थितियों में स्पष्ट किया जाए। बच्चों को संसार के उन अरबपतियों के भी उदाहरण दिए जाने चाहिए जिन्होंने जीवन के आखिर में खुदकुशी कर ली। धन और प्रसिद्धि के गहरे निहितार्थ उनकी समग्रता में समझाने चाहिए। जार्ज बर्नार्ड शॉ ने इस संबंध में बहुत अच्छी बात कही थी कि ‘एक धनी व्यक्ति और कोई नहीं, बस एक पैसे वाला गरीब इंसान होता है।‘ सही शिक्षा में धन और सफलता के बखान करने के अलावा आतंरिक समृद्धि, सृजनशीलता, समझ, तार्किक सोच और स्नेह से भरे एक ह्रदय की आवश्यकता बच्चों को किसी भी तरह समझाई जानी चाहिए। इसमें शिक्षक की स्वयं की शिक्षा भी शामिल है क्योंकि यह सब वह ईमानदारी के साथ तभी बता सकता/सकती है जब वह खुद भी उन मूल्यों को थोड़ा बहुत जीता हो।
इसमें माता-पिता की भी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। घर पर ऐसी बातें ही नहीं की जानी चाहिए जिनसे बच्चों के मन पर इस तरह के झूठे मूल्य अंकित हो जाएं कि उन्हें बस धन और शोहरत के लिए अपने जीवन को न्योछावर कर देना है। समेकित विकास का सौंदर्य ही इस बात में है कि उसमें देह, बुद्धि, धन और प्रेम के साथ-साथ जीवन के गहरे प्रश्न पूछने की क्षमता विकसित हो। अंधाधुंध धन कमाने के अलावा सुरुचिपूर्ण साहित्य, कला, संगीत वगैरह के प्रति भी बच्चे का ध्यान आकर्षित किया जाए। अपने दैहिक स्वास्थ्य के बारे में भी वह उतना ही सजग हो सके। समूची धरती और छोटे-से-छोटे जीव-जंतुओं की फिक्र करने की सीख देना शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्यों में शामिल होना चाहिए। सर्वांगीण विकास इसी में निहित है। (सप्रेस)
श्री चैतन्य नागर स्वतंत्र लेखक है।
-अमिताभ पाण्डेय
दुनिया भर में महामारी की तरह फैल चुकी कोरोना की बीमारी लोगों के मन में तनाव को बढ़ावा दे रही है। कोरोना का नाम सुनते ही लोग भयभीत हो जाते हैं। कई बार तो इसका जिक्र करते ही लोगों को इतना अधिक मानसिक तनाव होने लगता है कि उनके मन में आत्महत्या के विचार आने लगते हैं। ऐसे लोगों की मानसिक स्थिति को समय रहते पहचान कर उसका उपचार शुरू न किया जाये तो जानलेवा घटनाएँ हो सकती हैं। पिछले कुछ महीनों में इंदौर तथा दिल्ली के चिकित्सालयों में भर्ती कोरोना संक्रमित मरीजों ने अस्पताल की ऊँची बिल्डिंगों से कूदकर आत्महत्या कर ली। कोरोना से संक्रमित आधा दर्जन लोग उपचार के दौरान अस्पताल से भाग गए जिनको बाद में पकड़ा गया। कुछ लोग ऐसे भी देखने-सुनने में आए जिन्होंने कोरोना पॉजिटिव रिपोर्ट की बात सुनते ही बिस्तर पकड़ लिया। वे बीमारी से ज्यादा डर के कारण बीमार हो गए।
कोरोना की बीमारी का डर ऐसा फैल गया है कि जिस घर-परिवार में कोई व्यक्ति कोरोना संक्रमित हो, उसके परिवारजन भी कई बार दूर होने लगते हैं। मोहल्ले, पड़ोस के लोगों के मन में भी ऐसा डर बैठ जाता है कि लोग कोरोना पॉजीटिव मरीज के घर से गुजरने में भी डरते हैं। कोरोना का भय, कोविड -19 बीमारी से भी बड़ा हो गया है। यह डर लोगों की जान ले रहा है। लोग निराशा के माहौल में डूबकर आत्महत्या करने की कोशिश करते देखे गए हैं। लोग बचाव और उपचार पर अपना ध्यान केंद्रित करने की बजाय इस बीमारी से ज्यादा भयभीत हो रहे हैं।
कोरोना का असर शरीर से ज्यादा मन-मस्तिष्क पर देखा जा रहा है। दरअसल आम जनता के मन में कोविड-19 को लेकर जो डर है वह अचानक नहीं आया है। इन दिनों हम अक्सर हमारे आसपास ऐसे शब्दों का प्रयोग बहुत बार बोलने-सुनने-देखने में कर रहे हैं जो सीधे कोरोना की बीमारी से जुड़े हैं। कोरोना पॉजिटिव, आइसोलेशन वार्ड, होम आईसोलेशन, सेल्फ आईसोलेशन, कोरनटाईन, कोविड वॉर्ड, कोविड सेंटर, मास्क, पीपीई किट, सायरन, एंबुलेंस, पुलिस, डॉक्टर जैसे शब्दों को बार-बार सुनकर लोग भयभीत हो रहे हैं। उनके मन में इतना गहरा डर है कि कोरोना पॉजिटिव का नाम सुनते ही लोग घर छोडक़र भाग जाने को तैयार हैं। कई लोग तो कोरोना पॉजिटिव रिपोर्ट आते ही अपना घर छोड़ कर भाग गए ऐसे लोगों को बमुश्किल पकडक़र अस्पताल भेजा गया।
अस्पताल में भी डरे हुए लोग कोविड वार्ड में ही आत्महत्याएँ कर रहे हैं। ऐसी घटनाएं मध्यप्रदेश के कुछ जिलों में देखी गयी हैं। कुछ मामलों में तो यह भी देखा गया है कि कोरोना संक्रमण पाए जाने पर पीडि़त का उपचार करने की बजाय उसे ही घर से बाहर निकाल दिया गया। कोरोना के कारण घर-परिवार-समाज में लोगों के रिश्ते बिगड़ रहे हैं। कोरोना की महामारी नौकरी, व्यापार-व्यवसाय, अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने के साथ ही सामाजिक बहिष्कार और सामाजिक भेदभाव का कारण भी बन गई है। कोरोना के बारे में आम जनता के मन में सोशल मीडिया, झूठी खबरों, अफवाहों के कारण जो डर बढ़ रहा है इस पर तत्काल प्रभावी रोक लगाने की आवश्यकता है।
सोशल मीडिया पर कोरोना के बारे में आने वाली सकारात्मक, उत्साहवर्धक खबरों से ज्यादा चर्चा नकारात्मक खबरों की होती है। नकारात्मक, निराशाजनक और डर को बढ़ाने वाली खबरों को फेसबुक, व्हाट्सएप्प, इंस्टाग्राम, लिंक्डइन, ट्विटर पर पढ़े-लिखे लोग बिना पढ़े ही फारवर्ड कर रहे हैं। इस पर तत्काल रोक लगाने की जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं समाज की भी है। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (डब्यएमएचओ), भारत सरकार के ‘स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय,’ राज्य सरकारों के स्वास्थ्य विभागों से जुड़े वरिष्ठ डॉक्टरों ने कई बार यह कहा है कि कोरोना का संक्रमण हो जाने पर उसका समुचित और त्वरित उपचार शुरू कर दें तो कोरोना को हराना आसान है। कोरोना से लड़ाई मुमकिन है और इससे जीत भी संभव है। सच यह है कि हमारे देश में कई लोग अपनी मजबूत इच्छाशक्ति और बेहतर आत्मविश्वास के दम पर कोरोना को हरा चुके हैं। ऐसे लोग स्वस्थ होकर फिर से अपने काम-काज पर लौट आए हैं।
अब समय आ गया है कि क?र?नॉ के विरोध में प्रभावी जागरूकता अभियान चलाया जाए। कोरोना संक्रमण से संघर्ष कर जीतने वाले लोगों को समाचार पत्रों, सोशल मीडिया के सामने आकर यह बताना चाहिए कि कोरोना से आत्मविश्वास के दम पर, चिकित्सकों की सलाह और बेहतर उपचार के दम पर आसानी से विजय पाई जा सकती है। कोरोना काल का यह समय हम सभी के लिए सामूहिक संकल्प लेने का है कि हम सब मिलकर कोरोना से लड़ेंगे और जीतेंगे। (सप्रेस)
श्री अमिताभ पाण्डेय मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विषय पर लगातार आलेख लिखते रहते हैं।
-नरेन्द्र चौधरी
एक खबर के अनुसार बीटी बैगन की दो किस्मों को ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग अनुमोदन समिति’ (जीईएसी) की मई 2020 की बैठक में मैदानी परीक्षण की अनुमति देने का निर्णय लिया गया है। आशंका है कि सरकार कभी भी नोटिफिकेशन लाकर इस निर्णय को लागू कर सकती है। जिस ताबड़तोड़ तरीके से केन्द्र सरकार तरह-तरह के कानून पारित कर रही है, उसमें यदि कोई ऐसा नोटिफिकेशन आ भी जाता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। अक्टूबर 2009 में भी ‘जीईएसी’ ने बीटी बैगन की खेती करने की अनुमति दी थी, लेकिन चौतरफा विरोध देखते हुए 10 फरवरी 2010 को इस अनुमति को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया था।
बीटी बैगन आनुवांशिक रूप से परिवर्तित फसल है। इसमें मिट्टी के एक जीवाणु ‘बैसिलस थुरिजिएंसिस’ (बीटी) का जीन बायो-इंजिनियरिंग द्वारा बैगन के बीज में डाल दिया जाता है। इसके कारण बैगन का पौधा ही एक कीटनाशक प्रोटीन का निर्माण करने लगता है। यह प्रोटीन एक जहर है, जो बीटी बैगन को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को मार डालता है।
इस संदर्भ में बीटी कपास, जिसकी फसल भारत में उगाते हुए लगभग 20 वर्ष हो गए हैं, का अनुभव हमारे लिए उपयोगी हो सकता है। बीटी कपास भारत में 2002 में लाया गया था। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, बीटी कपास में भी ‘बैसिलस थुरिजिएंसिस’ नामक जीवाणु का जीन बायो-इंजिनियरिंग के जरिए डाला गया है। यह जीवाणु कपास के पौधे में कीटनाशक उत्पन्न करता है, जो कपास के पौधे को नुकसान पहुंचाने वाले ‘बालवर्म’ नाम के कीट को मार डालता है। दावा किया गया कि इससे कपास की अधिक पैदावार होगी और नहीं के बराबर या कम मात्रा में कीटनाशक छिडक़ने की आवश्यकता पड़ेगी। प्रारंभ के कुछ वर्षों के अध्ययन में यह कुछ हद तक सच भी साबित हुआ। विशेषकर उन लोगों के अध्ययन में जो इसे सच साबित करना चाहते थे। हालांकि उस समय भी कुछ पर्यावरणविदों व कृषि-विशेषज्ञों ने लंबे समय में इससे होने वाले नुकसान के प्रति चेताया था और उपज बढने के दावों पर संदेह व्यक्त किया था। बाद के वर्षों में यह आशंका सच साबित हुई।
इस वर्ष मार्च में एक वैज्ञानिक पत्रिका ‘नेचर प्लांट’ ने के.आर. क्रांति और ग्लेन डेविस स्टोन का भारत में बीटी कपास की फसल के दो दशकों के अनुभवों पर आधारित एक विस्तृत अध्ययन प्रकाशित किया है। इस अध्ययन के निष्कर्ष हमें यह निर्णय लेने में सहायक हो सकते हैं कि क्या उत्पा दन बढऩे के दावे सच थे एवं क्यों हमें बीटी बैंगन की खेती करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
यह अध्ययन पैदावार में वृद्धि के बारे में किये गए दावों की कुछ विसंगतियों को उजागर करता है। उदाहरणार्थ सन् 2003-2004 की पैदावार में 61 प्रतिशत और 2005 की पैदावार में 90 प्रतिशत वृद्धि का श्रेय कपास की बीटी नस्ल को दिया गया था। इस अध्ययन के अनुसार यह उचित नहीं था, क्योंकि 2003 में कपास उगाने वाले कुल क्षेत्र के केवल 3.4 प्रतिशत भाग में ही बीटी कपास उगाया जा रहा था तथा 2005 में भी बीटी कपास का क्षेत्र केवल 15.7 प्रतिशत हिस्से में ही था। लेकिन 2007 के बाद बी.टी. कपास के क्षेत्र में निरंतर वृद्धि के बावजूद उत्पादन में ठहराव आ गया था।
आंकड़ों के राज्यवार विश्लेषण भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि कपास के उत्पादन में वृद्धि का बीटी कपास से कोई सीधा संबंध नहीं था। जैसे कि 2003 में गुजरात में कपास के उत्पादन में 138 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गई, जबकि उस अवधि में गुजरात के कपास उत्पादन के कुल क्षेत्र के केवल 5 प्रतिशत हिस्से में बी.टी. कपास लगाया जा रहा था। आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, और राजस्थान में भी बीटी कपास लगाने व कपास के उत्पादन में वृद्धि के बीच कोई संबंध नहीं पाया गया।
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार कपास के उत्पादन में वृद्धि देश में सिंचाई सुविधाओं में सुधार और उर्वरकों के अधिक उपयोग के कारण संभव हुई, कपास की किसी विशेष प्रजाति के उपयोग से इसका कोई संबंध नहीं था। सन् 2007 से 2013 के बीच उर्वरकों का उपयोग लगभग दुगना हो गया। सन् 2003 में जहां औसत 98 किलो प्रति हेक्टेयर उर्वरक का प्रयोग हो रहा था, वह 2013 में बढक़र औसतन 224 किलो प्रति हेक्टेयर हो गया। राज्यवार अध्ययन में भी इस संबंध की पुष्टि होती है।
जहां तक कीटनाशक का संबंध है, इसके उपयोग में 2006 से 2011 के बीच जरूर उत्तरोत्तर कमी दर्ज की गई, लेकिन बाद के वर्षों में कीटनाशक के उपयोग में तेज बढ़ोत्तरी देखी गयी। ‘पिंक-बालवर्म’ कीट में कीटनाशक के प्रति प्रतिरोध भी उत्पन्न हो गया। चीन में हुए अध्ययन में भी ‘पिंक-बालवर्म’ में प्रतिरोध उत्पन्न होना पाया गया। जैसे-जैसे बीटी कपास की उपज का क्षेत्र बढ़ता गया, वैसे-वैसे कीटनाशक पर होने वाला खर्च भी बढ़ता गया। देश में बीटी कपास आने के पहले किसान जितना कीटनाशक पर खर्च कर रहे थे, बीटी कपास आने पर प्रारंभिक गिरावट के बाद 2018 तक, वे कीटनाशक पर उससे 37 प्रतिशत अधिक खर्च करने लगे।
यह अध्ययन बताता है कि बीटी कपास से होने वाले फायदे उतने नहीं थे, जितने दिखाए गए थे एवं वे भी एक सीमित अवधि तक ही रहे। पिछले तेरह सालों में कपास के उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं हुई है। भारी मात्रा में उर्वरक और कीटनाशकों के उपयोग, सिंचाई सुविधा एवं बीटी कपास प्रजाति लगाने के बावजूद विश्व के कपास उत्पादन में भारत का 36वां स्थान है। यह अफ्रीका के उन देशों के राष्ट्रीय औसत से भी कम है, जो संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं और बीटी कपास नहीं लगाते। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि सन् 2000 के बाद कपास उत्पादन में संसाधनों (उर्वरक, सिंचाई, कीटनाशक) की जो वृद्धि हुई उसने इसकी खेती को बहुत मंहगा बना दिया है (अन्य फसलों में भी ऐसा हुआ है) और किसान के कौशल का महत्व घटा दिया है। जलवायु परिवर्तन और बाजार की अनियमितता ने इसे और जटिल बना दिया है। इस प्रकार की मंहगी खेती को विकसित देशों में सरकार से सुरक्षा प्राप्त है, जो भारत में नहीं है। इससे किसान कर्ज के जाल में फंस रहे हैं।
भारत प्राचीन काल से कपास उगा रहा है। 20वीं शताब्दी तक भारत में देसी कपास उगाया जाता था और अनेक देशों में निर्यात होता था। अध्ययनकर्ताओं के हिसाब से भारत देसी बीजों की उपेक्षा के परिणाम भुगत रहा है। देसी प्रजाति पर अनेक कीटों का प्रभाव नहीं पड़ता, संसाधनों की अधिक आवश्यकता नहीं होती और वे जलवायु परिवर्तन का बेहतर मुकाबला कर सकती हैं। इसको बढावा देने के लिए सरकार का सहयोग आवश्यक है।
इस अध्ययन से स्पष्ट है कि बीटी कपास के संदर्भ में अधिक उत्पावदन और कीटनाशकों के उपयोग में कमी के दोनों बड़े दावे सही नहीं हैं। इसके अलावा बीटी फसलों का स्वास्थ्य और पर्यावरण पर भी प्रभाव पड़ता है। इस संबंध में भी अनेक अध्ययन हुए हैं। साथ ही बीटी कपास तो खाने के रूप में प्रयुक्त नहीं होता, जबकि बैगन को हम सब्जी के रूप में उपयोग करते हैं। अभी तक भारतीय भोजन में किसी भी प्रकार के अनुवांशिक रूप से परिवर्तित खाद्य पदार्थ के उपयोग की अनुमति नहीं है। भारत में बैगन की सैकड़ों किस्में हैं। देश के विभिन्न क्षेत्रों की मिट्टी, जलवायु स्थानीय कीट से लडऩे की क्षमता के अनुसार देसी प्रजाति का चुनाव किया जा सकता है। बीटी कपास के दो दशकों के हमारे इन अनुभवों की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए हमें बीटी बैगन को पूर्णत: नकार देना चाहिए। बीटी बैगन की खेती की अनुमति अन्य बीटी खाद्य फसलों के लिए भी दरवाजे खोल देगी, जो न सिर्फ हानिकारक हैं, वरन् अनावश्यक भी हैं। (सप्रेस)
श्री नरेन्द्र चैधरी जैविक खेती से जुड़े वरिष्ठ स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं।