विचार/लेख
अकेलेपन और अवसाद पर इन दिनों बहुत कुछ पढऩे को मिल रहा है। मेरे मन में अक्सर ये ख्याल आता है कि जो अवसाद की तरफ ले जाए उस अकेलेपन की शुरुआत कैसे होती है? जाहिर सी बात है कि इसका कोई बना-बनाया जवाब नहीं है। संसार में जितने मनुष्य हैं उससे भी कई गुना ज्यादा रिश्तों की जटिलताएँ हैं। जब में रिश्तों की बात कर रहा हूँ तो यह मनुष्य से मनुष्य के बीच ही नहीं, मनुष्य से प्रकृति, उसके अपने समय और वातावरण से भी उसके रिश्तों को शामिल कर रहा हूँ। इनके बीच कैसे कोई खुद को संतुलित रख सकता है?
क्षमा मांगना, भूल स्वीकार और धन्यवाद देना। जीवन में ये बड़े काम की तीन बातें हैं। जैसे-जैसे हम ज्ञानी, सफल और लोकप्रिय होते जाते हैं इन तीनों से दूर होते जाते हैं या कई बार इनका प्रयोग महज कूटनीतिक तरीके से करते हैं। छोटी-छोटी बातों के लिए ईश्वर को धन्यवाद देना लगभग हर धर्म का आधार रहा है। जैसे हिंदू और ईसाई धर्म में भोजन से पहले ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना।
जिसे हम नीतिशास्त्र या धर्म की भाषा में अंत:करण कहते हैं वही मनोविज्ञान की भाषा में आपका अवचेतन है। जब हम झूठ बोलते हैं तो सामने वाले के लिए तो वह सच ही होता है मगर हमारा अंत:करण दो खंडों में विभाजित हो चुका होता है। एक वो जो यह जानता है कि आप झूठ बोले रहे हैं और एक वो जो उसे सत्य की तरह स्टैब्लिश कर रहा होता है। हमारे अंवचेतन में ऐसे न जाने कितने विरोधाभासों की तलछट जमा होती जाती है। जब आप किसी के प्रति गलत होते हैं तब भी इसी अंत:करण के विभाजन का शिकार होते हैं। क्षमा का हर शब्द आपके भीतर के इस विभाजन को मिटाता है और खंडित अवचेतन मन को फिर से जोड़ता है।
भूल-स्वीकार भी इसी की एक कड़ी है। गलतियां हमसे होती हैं और हम उन पर शर्मिंदा होते हैं। हमने अपनी एक सामाजिक छवि का निर्माण किया होता है जिसे हम खुद अपने लिए भी सच मान लेते हैं। जैसे कि किसी नामी इतिहासकार से तथ्यात्मक भूल नहीं हो सकती या फिर किसी टीम का लीडर कभी गलत फैसले नहीं लेगा। क्योंकि हमने खुद के लिए एक भ्रामक छवि का निर्माण किया है तो हर ऐसी चीज जो उसे चोट पहुंचाए हमें असह्य होती है। गलतियां स्वीकार न करने की शायद यही सबसे बड़ी वजह होती होगी। जैसे आप खुद से अपना चेहरा नहीं देख सकते वैसे ही आप खुद अपने व्यक्तित्व का आँकलन नहीं कर सकते। जब कोशिश करेंगे तो यह झूठा होगा। कोई आपमें ईर्ष्यावश कमियां गिनाएगा तो कोई चाटुकारिता में तारीफ करेगा।
गलतियां स्वीकार करने की आदत धीरे-धीरे हमें हमारे स्वाभाविक व्यक्तित्व की तरफ ले जाती है। आपने अनजाने में जो सामाजिक मुखौटे लगा रखें है गाहे-बगाहे वो उतरते रहते हैं। आपको उतना ही सरल होने की दिशा में बढऩा है जैसे कोरे कागज पर एक सीधी लकीर होती है। हालांकि याद रखें मनुष्य का स्वभाव बहुत सारे भुलावे रचता है। वो दुनिया के साथ बाद में छल करता है पहले आपके साथ ही आपका मन खेलता है। तो काम की बात है कि मन को अपने साथ खेलने न दें। आप उसके साथ छल करेंगे तो वो आपके साथ बहुत गहरे छल करेगा। बेहतर होगा कि मन को अपना दोस्त बनाएँ और उससे सच्चे दिल से बातें करें।
आखिरी बात है शुक्रिया अदा करना। इसकी जरूरत क्यों पड़ती है? यह भी आपके इगो का कवच तोड़ता है। धन्यवाद देना यह तय करता है कि आप अपने जीवन की खुशियों और उपलब्धियों के अकेले कर्ता नहीं हैं यह सबकी साझेदारी है। आप शुक्रिया के रूप में अपनी खुशियों में उनकी साझेदारी को लौटाने का प्रयास करते हैं। यानी धन्यवाद के रूप में उन्हें एक प्रतीकात्मक खुशी देना चाहते हैं। सिर्फ पाना और देना कुछ नहीं आपके अंत:करण की तलछट में और कीचड़ भरता जाता है। पाना और बदले में देना आपको बदले में फिर-से एक सुकून देता है।
अब एक बात और अकेलापन क्या डराने वाली चीज है? हम जैसे-जैसे अपनी मौलिकता की तरफ बढ़ते हैं अकेले होते जाते हैं। लेकिन यह अकेला होना आपको ऊर्जावान बनाता है। जिस अकेलेपन को हम अवसाद का जनक मानते हैं दरअसल वो अकेलापन है ही नहीं वो आपके अहंकार से निर्मित छवि से किया जा रहा संघर्ष है। वो आपका खंडित मन है। खंडित व्यक्तिव है।
आपके व्यक्तित्व में द्वैत हो सकता है मगर विभाजन नहीं होना चाहिए। द्वैत एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। संसार के सभी महान विचारकों में यह द्वैत था। रवींद्रनाथ टैगोर, विवेकानंद, गांधी, बर्टेंड रसेल। उन्होंने मन के विरोधाभासों से कुछ नया रचा और दुनिया को एक नया दर्शन दिया। इसलिेए कि उनके मन के विरोधाभासों में सतत संवाद संभव था। अहंकार निर्मित छवि आपके मौलिक मन से संवाद नहीं करना चाहती। क्षमा, गलतियों का स्वीकार और धन्यवाद ही हमें उस अहंकारी छवि के ताप से बचाता है।
नोट: इन बातों का कोई सुचिंतित वैज्ञानिक आधार नहीं है। कुछ मेरे अनुभव और सामान्य सी तर्क-श्रृंखला है। इस लिहाज से ये बातें मनोवैज्ञानिक सत्य के करीब होने की बजाय नीति या दर्शन शास्त्र के ज्यादा करीब हैं।
पिछले हफ्ते ‘प्राइम टाइम’ वाले रवीशकुमार को इंटरव्यू देते हुए नोबुल-पुरस्कार विजेता प्रोफेसर अभिजीत बनर्जी ने एक बार फिर अपनी पुरानी कहानी दोहरा दी है। अर्थ-व्यवस्था में ‘कोविड-19’ की ‘कृपा’ से छाई मुर्दनी को भगाने के लिए उन्होंने ‘इन्फ्लेेशन’ यानि मंहगाई जैसी व्याधियों को ठेंगे पर मारते हुए नोट छापकर बांटने की तजबीज पेश की है। उनके मुताबिक इस कारनामे से लोगों के पास रुपया जाएगा, रुपया लेकर वे खरीदने जाएंगे, नतीजे में बाजार में मांग बढेगी, मांग बढने से कारखानों में काम चालू होगा, कारखानों में काम चालू होने से रोजगार बढेंगे, रोजगार बढने से हाथ में वेतन यानि रुपया आएगा और इस रुपए को लेकर लोग फिर बाजार का रुख कर लेंगे। यानि बाजार जाने-आने की कसरत हमारी और इसी तरह दुनियाभर की कोरोना-प्रभावित अर्थ-व्यवस्थाओं को वापस पटरी पर पहुंचा देगी। गौर करें, इस शेखचिल्ली जैसे बाजार-पुराण में पेट, पर्यावरण और जरूरत या तो सिरे से गायब हैं या फिर बाजार-तंत्र के किसी कोने-कुचारे में पडे अपनी बोली लगने का इंतजार कर रहे हैं।
अभिजीत बनर्जी या उन जैसे दर्जनों आधुनिक अर्थशास्त्रियों की अर्थ-व्य वस्था की कुंजी शेखचिल्ली की अपनी देसी कहानी से ही प्रेरित-प्रभावित तो दिखाई देती है, लेकिन इसमें नया क्या है? पेट भरने, पर्यावरण बचाए रखने और जरूरत के लिए बाजार जाने की पुरानी, पारंपरिक पद्धतियां इस नए ताने-बाने में पानी भर रही हैं। पिछले अनेक और खासकर नब्बे के दशक की शुरुआत के भूमंडलीकरण के सालों से अर्थ-व्यवस्था को ‘चलायमान’ रखने के लिए यही तजबीज तो बदल-बदलकर पेश की जाती रही है। ‘कोविड-19’ सरीखे सर्दी-जुकाम में हलाकान हुई यही वैश्विक अर्थ-व्यवस्था फिर से उसी राह पर चलकर आखिर क्या हासिल कर लेगी? क्या यह समय कोविड-पूर्व की अर्थ-व्यवस्थाओं की गहराई से पडताल करने का नहीं है? आखिर उस आर्थिक ताने-बाने से दुनिया को हासिल क्या हुआ था?
‘दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ फिल्म में काजोल-शाहरुख के फिल्मी? रोमांस के लिए चुने गए स्विट्जरलेंड के शहर दावोस में अभी जनवरी 2020 में दुनियाभर के अमीरों का पांच दिन का 50 वां सालाना जमावडा हुआ था। ‘वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम’ नामक इस जमावडे के ठीक पहले वैश्विक ‘गैर-सरकारी संगठन’ (एनजीओ) ‘ऑक्सफोर्ड कमिटी फॉर फेमिन रिलीफ’ (ऑक्सफैम) ने इसी शहर में दुनियाभर के अध्ययन की अपनी रिपोर्ट ‘टाइम टु केयर’ को जारी करते हुए बताया था कि भारत में महज 63 अरबपतियों के पास सालाना केन्द्रीय बजट (वर्ष 2018-19 में 24 लाख 42 हजार दो सौ करोड रुपए) से ज्यादा धन है और ‘ऊपर’ के एक फीसद लोगों के पास ‘नीचे’ की 70 फीसद आबादी (95 करोड 30 लाख) की कुल सम्पत्ति का चार गुना धन है। इसी रिपोर्ट में गैर-बराबरी का खुलासा करने की गरज से बताया गया था कि किसी घरेलू कामगार महिला को 106 रुपए/प्रति सेकेन्डस् कमाने वाले उसके मालिक की बराबरी करने में 22 हजार 277 साल लगेंगे।
गैर-बराबरी की यह भयानक अश्लीलता दुनियाभर में मौजूद है जहां विश्व के 2153 अरबपतियों के पास कुल आबादी के 60 प्रतिशत, यानि 4.6 अरब लोगों की सामूहिक सम्पत्ति से अधिक सम्पत्ति है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 62 अमीरों, जिनमें नौ महिलाएं हैं, के पास 50 प्रतिशत गरीबों की सम्पत्ति के बराबर सम्पत्ति है। वर्ष 2010 में इतनी ही सम्पत्ति 388 अमीरों के पास थी, 2011 में 177 के पास, 2012 में 159 के पास, 2013 में 92 के पास और 2014 में 80 अमीरों के पास हो गई थी। अमेरिका के ‘हॉउस ऑफ रिप्रेजेन्टेटिव्स’ की ‘वेज एण्ड मीन्स कमिटी’ के सामने गवाही देते हुए 14 अप्रेल को ‘ईकॉनॉमिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट’ के अर्थशास्त्री एलिस गॉल्डमन ने बताया था कि अमरीका की ‘ऊपरी’ 0.1 प्रतिशत आबादी की कमाई (343.2 फीसदी), ‘नीचे’ के 90 प्रतिशत की कमाई (22.2 फीसदी) से 15 गुना तेजी से बढी है।
यानि समूचे संसार में फैली गैर-बराबरी की यह गहरी और खासी चौडी खाई बाजार-केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था अर्थात शेखचिल्ली की कहानी की ‘मेहरबानी’ से ही खोदी जाती रही है। डॉनाल्ड ट्रम्प, ऐंजेला मर्केल, इमरान खान जैसे अनेक राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी में जारी अपनी रिपोर्ट में ‘ऑक्सफैम’ ने भी दावोस में कहा था कि गैर-बराबरी की यह खाई भारी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संकट की कगार पर पहुंच गई है। कोरोना-बाद की अर्थ-व्यवस्था की बात करते हुए क्या हमें इन तत्थ्यों पर गौर नहीं करना चाहिए? खासकर तब, जब नामधारी अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों और ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्टों के आधार पर कुछ लोग ‘कोविड-19’ को इस अश्ली?ल गैर-बराबरी को बरकाने की जुगत बता रहे हैं।
कोरोना-बाद की अर्थ-व्यवस्था का ताना-बाना खडा करते हुए हमें सिर्फ बाजार, मांग और उत्पादन के अलावा कई अन्य बातों का ध्यान भी रखना चाहिए। मसलन-पर्यावरण, जिसने कोरोना-लॉकडाउन के कुल ढाई-तीन महीनों में कमाल के पुनर्जीवन का प्रदर्शन किया है। दुनियाभर से रिपोर्टें आ रही हैं कि जगह-जगह नदियां आपरूप साफ, निर्मल और पीने योग्य हो गई हैं और तरह-तरह के पशु-पक्षी अब बे-धडक बस्तियों में चहल-पहल कर रहे हैं। क्या जीने लायक जीवन के लिए खडे किए जाने वाले आर्थिक ढांचे में ये प्राकृतिक उपादान जरूरी नहीं माने जाने चाहिए? और यदि माना जाना चाहिए तो क्या ऐसा कोई आर्थिक ताना-बाना नहीं बनाया जा सकता जिसमें जिन्दा रहने के लिए जरूरी विकास के साथ-साथ पर्यावरण का भी कोई संतुलन हो?
कोरोना के दौरान भारत सरीखे देशों में सरकारी क्षेत्र की अहमियत फिर से स्थापित हुई है। यानि भूमंडलीकरण के बाद के सालों में सरकारों के सगे रहे निजी क्षेत्र ने अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड लिया है। ऐसे अनेक सरकारी, गैर-सरकारी उदाहरण और रिपोर्टें सामने आ रही हैं।
जब ठेठ देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली और औद्योगिक राजधानी मुम्बई समेत कई शहरों में निजी अस्पतालों ने सामने खडे बीमार को हकाल दिया था। क्या अर्थ-व्यवस्था की पुनर्रचना करते हुए एक बार फिर हमें ‘कल्याणकारी राज्य’ और उसके मुसीबत में हाथ बंटाने-बढाने वाले सरकारी क्षेत्र की अहमियत मंजूर नहीं करनी चाहिए? उन सरकारी डॉक्टरों, मेडिकल-स्टाफ, पुलिस और व्यवस्था संभालने वाले अनेकानेक कर्मचारियों का महत्व तो हर कोई ने देखा और उसका लाभ उठाया है जो समय और शरीर की सीमाओं को अनदेखा करते हुए अपने-अपने मोर्चे पर डटे रहे।
एक और बेहद महत्वपूर्ण सवाल उन करोडों प्रवासी माने जाने वाले मजदूरों का भी है, जो अपने-अपने गांव-देहात लौटकर अब वापस उद्योगों की तरफ लौटने में संकोच कर रहे हैं। इनके लिए जिस उद्यम का सहारा है, वह कृषि-क्षेत्र है, लेकिन हमारे नोबुल, गैर-नोबुल अर्थशास्त्रियों के लिए यह क्षेत्र ‘बोझ’ से अधिक की हैसियत नहीं रखता। लॉकडाउन में घर लौटते प्रवासियों ने अर्थशास्त्रियों की बनाई यह पोल-पट्टी भी उजागर कर दी है कि कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था ‘बोझ’ है और उसके इस ’बोझ’ को घटाने के लिए इससे जुडे ‘अतिरिक्त‘ श्रम और संसाधन उद्योगों की ओर खदेड दिए जाने चाहिए।
वित्तमंत्री चाहे डॉ. मनमोहन सिंह, पी.चिदम्बंरम, या प्रणव मुखर्जी रहे हों या फिर अरुण जेटली, पीयूष गोयल और निर्मला सीतारमण, सभी ने कृषि-क्षेत्र को सौतेला मानकर उसमें जरूरी निवेश से हमेशा कन्नी काटी है। अब खुद साक्षात मजदूरों ने थोक में गांव लौटना चुनकर वित्तमंत्रियों और अर्थशास्त्रियों के इस सौतेले व्य्वहार की भद्द पीट दी है। जाहिर है, सर्वांगीण विकास को केवल आर्थिक विकास में तब्दीेल करने की चालाकी में लगे अर्थ-शास्त्रियों और सत्ताधारियों को इन बातों का महत्व समझ में नहीं आएगा। अलबत्ता, कोरोना वायरस से उपजी ‘कोविड-19’ बीमारी के लॉकडाउन के बाद हमारे अर्थशास्त्रियों, राजनेताओं और नौकरशाहों के साथ हमें भी इस अर्थशास्त्र को जानना-समझना तो होगा, वरना जैसा कहा जाता है, ‘गाडी छूट जाएगी।’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली में कोरोना-संकट से निपटने के लिए गृहमंत्री अमित शाह ने पहले दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री से बात की और आज उन्होंने सर्वदलीय बैठक बुलाई। इन दोनों बैठकों में स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्द्धन, दिल्ली के उप-राज्यपाल अनिल बैजल और कई उच्च अधिकारी शामिल हुए। सबसे अच्छी बात यह हुई कि प्रमुख विरोधी दल कांग्रेस का प्रतिनिधि भी इस बैठक में शामिल हुआ।
यह क्या बताता है ? इससे पता चलता है कि भारत का लोकतंत्र कितनी परिपक्वता से काम कर रहा है। यह ठीक है कि कांग्रेस के बड़े नेता अपनी तीरंदाजी से बाज नहीं आ रहे हैं। वे हर रोज़ किसी न किसी मुद्दे पर सरकार की टांग खींचते है और जनता के नजऱों में नीचे की तरफ फिसलते जा रहे हैं लेकिन उन्होंने यह सराहनीय काम किया कि गृहमंत्री की बैठक में अपना प्रतिनिधि भेज दिया।
गृहमंत्री की इन दोनों बैठकों में कुछ बेहतर फैसले किए गए हैं, जिनके सुझाव मैं पहले से देता रहा हूं। सबसे अच्छी बात तो यह है कि दिल्ली के अधिक संक्रमित इलाकों में अब घर-घर में कोरोना का सर्वेक्षण होगा। कोरोना की जांच अब आधे घंटे में ही हो जाएगी। रेल्वे के 500 डिब्बों में 8 हजार बिस्तरों का इंतजाम होगा। गैर-सरकारी अस्पतालों में 60 प्रतिशत बिस्तर कोरोना मरीजों के लिए आरक्षित होंगे। कोरोना-मरीजों को सम्हालने के लिए अब स्काउट-गाइड, एन.सी.सी., एन.एस.एस. आदि संस्थाओं से भी मदद ली जाएगी।
मैं पूछता हूं कि हमारे फौज के लाखों जवान कब काम आएंगे ? कोरोना का हमला किसी दुश्मन राष्ट्र के हमले से कम है क्या ? यदि सिर्फ दिल्ली में कोरोना मरीजों की संख्या 5-6 लाख तक होनेवाली है तो उसका सामना हमारे कुछ हजार डॉक्टर और नर्स कैसे कर पाएंगे ? मुंबई में कोरोना की प्रांरभिक जांच सिर्फ 25 रु. में हो रही है। कोरोना की इस जांच के लिए मुंबई की स्वयंसेवी संस्था ‘वन रुपी क्लीनिक’ की तर्ज पर हमारे सरकारी और गैर-सरकारी अस्पताल काम क्यों नहीं कर सकते ? सरकार का यह फैसला तो व्यावहारिक है कि गैर-सरकारी अस्पतालों को सिर्फ कोरोना अस्पताल बनने के लिए मजबूर न किया जाए लेकिन हमारे सरकारी और गैर-सरकारी अस्पतालों में कोरोना-मरीजों के इलाज में लापरवाही और लूटमार न की जाए, यह देखना भी सरकार का कर्तव्य है। गृहमंत्री शाह खुद लो.ना. जयप्रकाश अस्पताल गए, यह अच्छी बात है। वहां के वीभत्य दृश्य टीवी पर देखकर करोड़ों दर्शक कांप उठे थे।
यह आश्चर्य की बात है कि अभी तक सरकार ने कोरोना के इलाज पर होनेवाले खर्चों की सीमा नहीं बांधी है। मैं तो चाहता हूं कि उनका इलाज बिल्कुल मुफ्त किया जाना चाहिए। हमारे देश में मामूली इलाज से ठीक होनेवालों की संख्या बीमार होने वालों की संख्या से कहीं ज्यादा है। जिन्हें सघन चिकित्सा (आईसीयू) और सांस-यंत्र (वेंटिलेटर) चाहिए, ऐसे मरीजों की संख्या कुछ हजार तक ही सीमित है। कांग्रेस ने गृहमंत्री से कहा है कि गंभीर रोगियों को सरकार 10 हजार रु. की सहायता दे। जरुर दे लेकिन जरा आप सोचिए कि जो सरकार मरीजों का इलाज मुफ्त नहीं करा पा रही है, वह उन्हें दस-दस हजार रु. कैसे देगी ? (नया इंडिया की अनुमति से)