विचार/लेख
इन दिनों यूरोप में ‘योग-जीवनदायी शक्ति’ नाम की एक ऐसी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म चल रही है जिसे योग से अपना लकवा ठीक करने वाले एक फ्रांसीसी पत्रकार ने बनाया है
-राम यादव
स्तेफान अस्केल एक फोटोग्राफर पत्रकार हैं। उस समय उनकी उम्र करीब 40 साल रही होगी जब वे अचानक गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। चलना-फिरना बहुत मुश्किल हो गया। डॉक्टरों ने कहा, रीढ़ का ऑपरेशन करना पड़ेगा। ऑपरेशन हुआ। लेकिन ऑपरेशन के बाद कमर से नीचे के पूरे शरीर को लकवा मार गया। डॉक्टरों से जो कुछ बन पड़ा, सब कुछ किया।कोई लाभ नहीं हुआ। अंतत: उन्हें कहना पड़ा कि अब तो जीवनपर्यंत लकवे के साथ ही जीना पड़ेगा।
फोटो-पत्रकार होने के नाते स्तेफान अस्केल बीमारी से पहले घूमने-फिरने के आदी थे। स्वाभाविक ही था कि शेष जीवन बिस्तर में पड़े-पड़े या पहियाकुर्सी में बैठे-बैठे निठल्ले बिताना उन्हें कतई स्वीकार नहीं था। संयोग से उन्हें योग करने के लाभकारी प्रभावों का पता चला और वे यौगिक-उपचार तथा योगाभ्यास द्वारा काफ़ी कुछ ठीक भी हो गये। ठीक होते ही उन्होंने लगभग आधी दुनिया की यात्रा की। हर जगह उनका ऐसे लोगों से मिलना-जुलना हुआ, जो योग और ध्यान के माध्यम से अपनी बीमारियों से या तो मुक्त हो गये थे या अपनी शारीरिक बाधाओं को पूरी तरह या काफी कुछ साध कर सामान्य जीवन बिता रहे थे।
दस वर्षों के विश्वभ्रमण का निचोड़
स्तेफान अस्केल की डेढ़ घंटे की फि़ल्म 'योग-जीवनदायी शक्ति' दस वर्षों तक चले उनके विश्वभ्रमण का सिनेमा के पर्दे के लिए आत्मकथा जैसा सांस्कृतिक-आध्यात्मिक चित्रण है। फिल्म अंतरराष्ट्रीय योग दिवस से ठीक पहले 13 जून से यूरोप के कई देशों में एक साथ दिखायी जा रही है।
अस्केल की यात्रा का अंतिम पड़ाव इसराइल का येरुसलेम शहर था। इस लंबी यात्रा ने एक समय लकवे से पंगु हो गये इस शख्स को जीवन को समर्पणभाव से जीने और दुनिया को सकारात्मक ढंग से देखने की एक नयी दृष्टि दी। फि़ल्म में वे कहते हैं, 'दस साल पहले मैं एक दूसरी दुनिया में बंधक था।' शराब की लत के कारण पत्नी छोड़कर चली गयी। 2006 में पैर संज्ञाशून्य हो गये। ऑपरेशन हुआ तो कमर से नीचे के अंगों को लकवा मार गया। जीवन घृणा और ईष्र्या से भर गया था।'
इन्हीं परिस्थितियों में स्तेफान अस्केल जब फ्रांस के एक प्रसिद्ध अस्पताल 'ओस्पिताल दे ला सालपेत्रियेर' में अपना इलाज करवा रहे थे तो वहां के एक डॉक्टर जौं-पियेर फार्सी ने उन्हें सलाह दी कि वे आज की आधुनिक चिकित्सा पद्धति से ठीक नहीं हो सकते। यौगिक उपचार की शरण लें, शायद ठीक हो जायेंगे। यह सलाह अत्यंत असामान्य थी क्योंकि आधुनिक चिकित्सापद्धति (एलोपैथी/ अंग्रेज़ी चिकित्सा) के फ्रांसीसी डॉक्टर हर प्रकार की वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति को केवल कोसना-धिक्कारना ही जानते हैं।
योगगुरू बीकेएस अयंगर से प्रेरणा
अस्केल ने जब इस दिशा में खोजबीन की, तो उन्हें पता चला कि भारत के योगगुरू बीकेएस अयंगर ने फिसलन-रोधी चटाइयों, रस्सियों, पट्टों और पीठ के बल लेटने लायक अर्धवृत्ताकार लकड़ी की काठियों की मदद से, गंभीर किस्म की शारीरिक बाधाओं वाले लोगों के लिए भी, योगासन संभव बनाने की विधियां विकसित की हैं। अस्केल ने पहली बार जब इन चीजों को देखा, तो वे सोचने लगे कि ये सब उपचार-सामग्रियां हैं या यातना-विधियां! तब भी उन्होंने अपना उपचार करवाया और जर्मनी में व्युत्र्सबुर्ग शहर के पास के एक ईसाई मठ में ध्यान साधना (मेडिटेशन) की जापानी 'जेन' विधि भी सीखी। 2003 से एक जर्मन ईसाई फादर विलीगिस यैगर बेनेडिक्ट पंथ के इस मठ में यह जापानी विधि सिखाते हैं।
उपचार के दौरान मिल रही राहतों से योग में स्तेफान अस्केल की रुचि बढ़ती गयी। उनका लकवा जब काफी कुछ ठीक हो गया, तो उन्हें विचार आया कि उन्हें योगविद्या के असीम और कई बार चमत्कारिक लाभों और अपने अनुभवों के बारे में एक फि़ल्म बनानी चाहिये। लकवे से उबरने के अपने कष्टमय संघर्ष की हल्की-सी झलक देने के बाद अस्केल दर्शक को सीधे अमेरिका में सैन फ्रांसिस्को के पास सेंट च्ेन्टिन की एक उच्चसुरक्षा जेल में ले जाते हैं। वहां गंभीर अपराध कर चुके कुछ ऐसे क़ैदियों से बातचीत करते हैं, जो कसरतों आदि के साथ-साथ योगाभ्यास भी करते थे। उन्हें मौत की सज़ा सुनायी गयी थी। अपने अंतकाल की प्रतीक्षा कर रहे उनमें से एक ने कहा, 'योग तनावमुक्त करने के साथ-साथ नये अनुभवों का धनी भी बनाता है।'
सफ़ारी करने गईं, योग सिखाने लगीं
एक दूसरे दृश्य में अमेरिका की पेज एलेन्सन बताती हैं कि वे अफ्रीकी वन्यजंतुओं को देखने के लिए अपने माता-पिता के साथ कीनिया की सफ़ारी-यात्रा पर गई थीं और वहीं रह गयीं। अब वे वहां राजधानी नैरोबी की गंदी बस्तियों के बच्चों और मसाई कबीले के लोगों को योग सिखाती हैं। इसराइल में अस्केल को कट्टरपंथी यहूदियों के शहर बेत शेमेह में एक ऐसा यहूदी दंपति मिला, जो पहले धार्मिक नहीं था, पर योग करने से उसमें अपने धर्म के प्रति नई आस्था जाग उठी। येरूसलेम में अस्केल ने देखा कि वहां तो फिलस्तीनी गृहणियां भी यहूदियों के साथ मिल कर योगाभ्यास करती हैं!
स्तेफ़ान अस्केल का कहना है कि योग हर प्रकार की संस्कृतियों, आयुवर्गों और शारीरिक बाधाओं वाले लोगों को लाभ पहुंचाता है। अमेरिका की पेज एलेन्सन नैरोबी के बधिर बच्चों को योग सिखाने के लिए सांकेतिक भाषा वाले एक नि:शब्द तरीके से काम लेती हैं, जबकि सामान्य बच्चों के लिए उनका अलग तरीका है। 80 साल के एरिक स्माल कई दशकों से 'मल्टिपल स्क्लेरोसिस' से पीडि़त हैं। यह बीमारी केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम) की एक बीमारी है, जो मस्तिष्क, रीढ़ की हड्डी और आंखों में प्रकाश ग्रहण करने वाली ऑप्टिक तंत्रिका (नर्व) को दुष्प्रभावित करती है। भारत के बीकेएस अयंगर द्वारा विकसित विधि को आधार बना कर एरिक स्माल ने इस बीमारी से पीडि़त लोगों का जीवन आसान बनाने का अपना एक अलग तरीका विकसित किया है। इससे स्वयं उनका अपना जीवन तो आसान बना ही, दूसरों का जीवन भी आसान बन रहा है।
अयंगर ने योग से असाध्य रोग भी साधे
बीकेएस अयंगर का 2014 में इस दुनिया से चले गये। उन्होंने लगभग 70 वर्षों तक स्वयं योगाभ्यास किया और अनगिनत लोगों को सिखाया भी। फिल्म में उनके साथ बातचीत का एक दृश्य भी है। असाध्य समझे जा रहे रोगों को भी योग द्वारा ठीक करने या उनसे काफी हद तक राहत दिलाने की उनकी विधियां आज ऐसे कई अस्पतालों आदि में अपनाई जाती हैं, जहां वैकल्पिक चिकित्सा की सुविधा भी है।
स्तेफान अस्केल मूलत: फ्रेंच भाषा में बनी अपनी फिल्म में योग के न केवल शारीरिक स्वास्थ्य संबंधी लाभों के ही उदाहरण दिखाते हैं, उसके अदृश्य, पर उतने ही सकारात्मक सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक पक्ष पर भी प्रकाश डालते हैं। वे विभिन्न देशों के ऐसे लोगों के मुंह से उनके अनुभव सुनाते हैं, जो जीवन से निराश हो चले थे, पर योग और ध्यान ने जिन्हें उनका खोया जीवन वापस लौटा दिया।
आध्यात्मिक अनुभूति
इन भुक्तभोगियों की आपबीतियां बताती हैं कि जब भी किसी के घोर कष्टमय जीवन में कोई सुखद चमत्कार होता है, तो इससे उसे जो आत्मिक तृप्ति मिलती है, वह सभी धर्मों-पंथों से परे एक अलौकिक आध्यात्मिक अनुभूति बने बिना नहीं रहती। इसीलिए आसन, प्रणायाम और ध्यान के रूप में अपने तीनों अंगों वाला योगाभ्यास, खुशहाल लोगों की 'वेलनेस' कहलाने वाली खुशफहमी से कहीं अधिक, भारत का दिया एक ऐसा अनुभवसिद्ध विज्ञान बनता जा रहा है जिस पर अनगिनत शोधकार्य हो रहे हैं और जिसे सुख, स्वास्थ्य और संतोष की सर्वांगीण कुंजी माने जाने लगा है।
योग से डीएनए की 'मरम्मत'
विज्ञान पत्रिका 'फ्रंटियर्स इन इम्यूनोलॉजी' में जुलाई 2017 में प्रकाशित एक खोज में यहां तक सिद्ध हुआ पाया गया है कि योग में तन और मन को जिस तरह जोडऩे का प्रयास किया जाता है, उससे हमारे डीएनए की शब्दश: 'मरम्मत' तक हो सकती है।
नॉर्वे में कुछ समय पहले हुए एक अध्ययन में दस लोगों को एक सप्ताह तक हठयोग के तीनों अंगों-यानी आसनों, प्राणायाम और ध्यानधारण का अभ्यास कराया गया। चार-चार घंटे चलने वाले अभ्यास-सत्रों से पहले और बाद में प्रतिभागियों के रक्त-नमूने लिये गए और प्रयोगशाला में उनकी तुरंत गहराई से जांच की गई। दस दिन बाद पाया गया कि इन लोगों की रोगप्रतिरक्षण प्रणाली की 'टी' कोशिकाओं के 111 जीन पहले की अपेक्षा बदले हुए थे। तुलना के लिए जो लोग दौड़ लगाते हैं या कोई पश्चिमी नृत्य करते हैं, उनमें ऐसे 38 जीन ही बदले हुए मिलते हैं।
योग यदि विज्ञान-सम्मत न होता, तो यूरोप-अमेरिका में हर साल योग पर सिनेमा फिल्में नहीं बनती और लाखों-करोड़ों की संख्या में ऐसे लोग योग-ध्यान सीख नहीं रहे होते, जिन्हें हिंदू धर्म में कोई रुचि नहीं है।(satyagrah.scroll.in)
पड़ोसी देशों से आए अल्पसंख्यकों को नागरिकता
नागरिकता कानून के पास हो जाने के बाद पाकिस्तान से आए हिंदू परिवार यहां ज्यादा खुश हैं. उनके मुताबिक वे अब आजादी से अपने धर्म का पालन कर सकते हैं.
सात साल पहले धर्मवीर सोलंकी, पाकिस्तान के हैदराबाद शहर में अपने घर को छोड़कर भारत आ गए और उन्होंने पलटकर वापस जाने के बारे में दोबारा कभी नहीं सोचा. सोलंकी बताते हैं कि जब उनकी ट्रेन सीमा पार करते हुए भारतीय जमीन में दाखिल हुई तो उन्हें इससे ज्यादा खुशी अब तक कभी नहीं हुई थी. बाहरी दिल्ली स्थित रिफ्यूजी कॉलोनी में सोलंकी और उनके जैसे सैकड़ों हिंदू मुस्लिम-बहुल पाकिस्तान से आकर यहां रह रहे हैं. सोलंकी कहते हैं, "मुझे ऐसा लगता है कि मेरा दोबारा जन्म हुआ है." पाकिस्तान से आए हिंदू परिवारों ने रिफ्यूजी कॉलोनी में अपना नया घर बना लिया है.
सोलंकी की तरह भारत में शरण चाहने वाले लोगों को पिछले साल पारित कानून के तहत सबसे ज्यादा लाभ मिला है. नए नागरिकता कानून के तहत हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाई समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता मिलेगी, जो साल 2015 के पहले भारत आए थे. अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में अल्पसंख्यक माने जाने वालों के लिए ही पिछले साल यह कानून बना था. हालांकि इस सूची में मुसलमानों को शामिल नहीं किया गया था. धर्म के आधार पर नागरिकता देने को लेकर भारत में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे. आलोचकों का कहना है कि यह कानून मुसलमानों के साथ भेदभाव और भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान को कमजोर करता है.
पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों की बस्ती.
लेकिन पाकिस्तान के हिंदुओं के लिए भारत में शरण देने की मोदी सरकार की प्रतिबद्धता के पहले से ही अधिक से अधिक हिंदू भारत आ रहे हैं. यह सिलसिला नया कानून बनने के पहले से ही जारी है. पिछले 15 महीनों में भारतीय गृह मंत्रालय को 16,121 पाकिस्तानी नागरिकों से लंबी अवधि के वीजा के लिए आवेदन मिले. इसके पहले के सालों में सैकड़ों आवेदन मिलते रहे हैं जो कि बढ़ते-बढ़ते हजारों में पहुंच गए.
इस बीच शरणार्थियों का भारत आना अस्थायी रूप से थम गया है, क्योंकि कोरोना वायरस से संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए सीमा सील कर दी गई है. सोलंकी कहते हैं कि कई लोग अब भी भारत आने के लिए बेताब हैं. पाकिस्तान से आने वाले अक्सर धार्मिक यात्रा का वीजा लेकर आते हैं और उसके बाद नागरिकता मिलने तक रुक जाते हैं. सोलंकी को अब भी भारतीय नागरिकता मिलने का इंतजार है. हालांकि कोरोना वायरस के कारण प्रक्रिया में विलंब हो चुका है.
मजनू का टीला में स्थित अपने घर पर बैठे सोलंकी समाचार एजेंसी रॉयटर्स से कहते हैं, "नागरिकता कानून पास हो चुका है. हमारे लोगों को जमीन मिलनी चाहिए और आम नागरिकों की तरह सुविधाएं भी मिलनी चाहिए." सोलंकी जहां रहते हैं वहां ईंट और बल्लियों के कच्चे मकान या फिर झोपड़ी है. कॉलोनी में ना तो बिजली और ना ही पानी की सप्लाई है. इस रिफ्यूजी बस्ती में 600 लोग इसी तरह से रहते हैं. कई युवा फेरी लगाने का काम करते हैं तो कुछ सोलंकी की तरह मजदूरी करते हैं. कई लोगों का कहना है कि वे पाकिस्तान में इससे बेहतर हालात में रहते थे लेकिन वे भारत में सुरक्षित महसूस करते हैं.
इस शरणार्थी कैंप से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर एक और कैंप है. सिग्नेचर ब्रिज के पास एक नई कॉलोनी हाल के सालों में बसी है. पिछले साल जुलाई तक यहां कुछेक ही झोपड़ियां थीं लेकिन अब यहां सैकड़ों लोग रहते हैं. आसपास के पेड़ों से इकठ्ठा की गई लकड़ी की मदद से झुग्गी तैयार की गईं. यहां भी बिजली और पानी की सप्लाई नहीं है. परिवार लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाते हैं. 35 साल की निर्मा बागरी कहती हैं, "कम से कम हमारी बेटियां तो यहां सुरक्षित हैं और हम यहां आजादी के साथ अपने धर्म को मान सकते हैं."
कई संस्थाएं इनकी मदद के लिए खाना, कपड़े, सोलर लालटेन और अन्य घरेलू सामान दान करती हैं.
एए/सीके (रॉयटर्स) (www.dw.com/hi)
सरकार की 50,000 करोड़ की योजना
लॉकडाउन के बाद कारखाने बंद हो गए, दिहाड़ी मजदूरों का काम छिन गया और उन्हें शहरों से पलायन कर गांवों की ओर जाना पड़ा. गांवों में रोजगार के अवसर पहले भी कम थे.
- आमिर अंसारी
भारत सरकार प्रवासी श्रमिकों को गांवों में आजीविका का साधन मुहैया करवाने के लिए 20 जून को 50,000 करोड़ रुपये के फंड के साथ "गरीब कल्याण रोजगार अभियान" की शुरुआत करने जा रही है. रोजगार की इस मेगा योजना की शुरुआत बिहार के खगड़िया जिले के एक गांव से होगी. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के मुताबिक यह योजना देश के छह राज्यों के 116 जिलों में शुरू की जाएगी. यह ऐसे जिले हैं जहां कोरोना काल के दौरान शहरों से वापस आने वाले मजदूरों की संख्या 25,000 से ज्यादा है.
वित्त मंत्री ने बताया कि इन 116 जिलों में बिहार के 32 जिले और उत्तर प्रदेश के 31 जिले शामिल हैं. सबसे ज्यादा श्रमिक उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर में लौटे हैं. सरकार के मुताबिक इस योजना के तहत प्रवासी मजदूरों को 125 दिनों तक रोजगार के अवसर मुहैया करवाए जाएंगे और इन सभी जिलों में रोजगार के इच्छुक श्रमिकों को काम मिलेगा. वित्त मंत्री के मुताबिक, "गरीब कल्याण रोजगार अभियान" के तहत 25 तरह के कार्यो को शामिल किया गया है.
वित्त मंत्री ने गुरुवार को कहा कि इस योजना के तहत जहां प्रवासी श्रमिकों को आजीविका का साधन मिलेगा वहीं दूसरी ओर आकांक्षी जिलों में बुनियादी संरचनाओं का विकास होगा. इसके तहत जल जीवन मिशन, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना समेत गांवों में संचालित कई योजनाएं शामिल हैं.
कोविड-19 के संक्रमण को रोकने के लिए शहरों से बड़े पैमाने पर लोग गांवों की तरफ पलायन कर गए थे. इनमें कुशल और अकुशल श्रमिक दोनों शामिल हैं. भारत सरकार ने राज्य सरकारों के साथ मिलकर उन जिलों को मैप किया है जहां पर ये प्रवासी श्रमिक बहुत हद तक लौट कर आ चुके हैं और यह पाया गया कि बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड और ओडिशा जैसे 6 राज्यों में लगभग 116 जिलों में घर लौटने वालों की संख्या पर्याप्त मात्रा में है, जिसमें 27 आकांक्षी जिले भी शामिल हैं.
केंद्र सरकार का कहना है कि उसने संबंधित राज्य सरकारों के साथ मिलकर इन प्रवासी श्रमिकों की कौशल मैपिंग की और उनमें से अधिकांश को किसी न किसी प्रकार के कार्य में कुशल पाया गया है. इसके आधार पर और 4 महीनों के दौरान उनकी कठिनाइयों को कम करने के लिए, भारत सरकार ने वापस लौटने वाले प्रवासी श्रमिकों और ग्रामीणों को आजीविका का अवसर मुहैया करने के इरादे से ग्रामीण लोक निर्माण योजना "गरीब कल्याण रोजगार अभियान" शुरू करने का फैसला किया.
गरीबों को कितना लाभ
125 दिनों तक चलने वाला यह अभियान मिशन मोड के रूप में काम करेगा, जिसमें एक ओर प्रवासी श्रमिकों को रोजगार देने और दूसरी ओर देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचा तैयार करने के लिए अलग-अलग तरह के 25 कार्यों का तेज और केंद्रित कार्यान्वयन किया जाएगा. इस योजना पर 50,000 करोड़ रुपये खर्च होंगे. सरकार का अनुमान है कि इस योजना से करीब एक तिहाई प्रवासी मजदूर लाभान्वित होंगे.
सरकार को उम्मीद है कि इस योजना से ग्रामीण इलाकों में रोजगार के अवसर तो पैदा होंगे ही साथ ग्रामीण क्षेत्र में बुनियादी ढांचा भी तैयार होगा. हालांकि यह आने वाले वक्त में देखने होगा कि इस तरह की योजना से गरीब अपने गांव ही में रहते हैं या फिर अधिक कमाई के लिए पहले की तरह शहरों की ओर रुख करते हैं.(www.dw.com/hi)
कोविड 19 महामारी फैलने के बाद केन्द्र सरकार ने देश में बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट्स के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये प्रोत्साहन देने की घोषणा की है। जिसके तहत केन्द्र सरकार 9,940 करोड़ रुपये खर्च करने जा रही है। केन्द्र सरकार देश के तीन राज्यों में तीन मेगा बल्कड्रग पार्क बनाने जा रही है जिसमें से हर एक में करीब 3000 करोड़ रुपये अगले 5 सालों में खर्च किये जायेंगे।
चीनी वस्तुओं के बहिष्कार की खबरों के बीच यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत आवश्यक तथा जीवनरक्षक दवाओं के उत्पादन के लिये चीन पर अत्यधिक निर्भर है। भारतीय दवा कंपनियां तकरीबन 60 ऐक्टिव फॉर्मास्युटिकल्स इनग्रेडियेंट या एपीआई चीन से मंगाती रही हैं, जो चीन के हेनान, हुबेई, गुआनडोंग, हुनान, वुहान, झेजेंग में बनते हैं। यह दिगर बात है कि बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट के लिए चीन पर निर्भर होने के बावजूद भारत यूरोप, इटली, अमरीका जैसे दुनिया के करीब 200 देशों को दवाओं की सप्लाई करता है तथा ‘फॉर्मेसी ऑफ वल्र्ड’ के नाम से जाना जाता है।
यदि भारतीय दवा कंपनियां चीन की बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट का बहिष्कार तुरंत कर दें तो भारत में दवाओं की आपूर्ति बाधित हो जायेगी। हालांकि, हाल ही में केन्द्र सरकार ने भारत में बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट के देश में ही उत्पादन के लिये कई कदम उठाए हैं लेकिन उसके बावजूद तुरंत ही इससे कोई नतीजा नहीं निकलने वाला है। इस कारण से जीवनरक्षक तथा आवश्यक दवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये सावधानी से कदम उठाने की जरूरत है न कि उन्माद में आकर बहिष्कार-बहिष्कार का नारा दिया जाए खासकर दवाओं के मामले में।
भारत सरकार के द्वारा जारी आकड़ों के अनुसार साल 2018-19 में देश में दवाओं का वार्षिक कारोबार 2 करोड़ 58 लाख 5 हजार 3 सौ 41 करोड़ रुपयों का था जिसमें से 1 करोड़ 28 लाख 2 सौ 82 करोड़ रुपयों के दवाओं तथा एंटरमीडियेट का निर्यात किया गया। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इससे देश को कितनी विदेशी मुद्रा की आय होती है।
चीन पर दवाओं के लिए निर्भरता का मामला साल 2016 में संसद में उठा था। भारतीय दवा कंपनियां दवा उत्पादन में लगने वाली 84 फीसदी बल्कड्रग का आयात करती हैं, जिसमें से 65 से 70 फीसदी चीन से आयात किया जाता है। दरअसल, इन बल्क ड्रग से ही जीवन रक्षक तथा आवश्यक दवाएं बनाई जाती हैं। दो साल पहले जब चीन की सरकार ने पर्यावरणीय कारणों से चीन के कई उत्पादन इकाई को बंद कर दिया था तब भारत में बल्क ड्रग के दाम बढ़ गए थे। मसलन बुखार की दवा पैरासीटामॉल के बल्कड्रग का दाम 45 फीसदी, एंटीबायोटिक एजिथ्रोमाइसिन का दाम 36 फीसदी, सिप्रोफ्लाक्सासिन का दाम 28 फीसदी बढ़ गया था।
इसके अलावा भी अल्सर की दवा रैबीप्राजॉल, इशमोप्रजॉल, पैन्टाप्रजॉल, नसों की दवा मिथाइलकोबाल्मिन, उच्च रक्तचाप की दवा लोसारटन, टेल्मीसारटान, हृदयरोग की दवा सिल्डनाफिल तथा सिफोलोस्पोरिन ग्रुप की दवा सीफेक्सिन, सैफपोडक्सोमिन और सेफ्युरोक्सिन के बल्क ड्रग की कीमत बढ़ गई थी। इससे यही साबित होता है कि आप लाख वैश्वीकरण के गुणों का बखान करे परन्तु जिस देश से आयात किया जाता है वहां पर होने वाली हर हलचल से हम प्रभावित हो जाते हैं। बता दें कि हमारे देश में दवाओं पर ढीला-ढीला ही सही, मूल्य नियंत्रण लागू है। ऐसी हालात में कौन सी निजी कंपनी घाटा सहकर जनता को दवा बेचेगी इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
मोदी सरकार-1 के समय वाणिज्य मंत्रालय और बीजिंग स्थित भारतीय दूतावास ने संयुक्त रूप से एक अध्ययन करवाया था। जिसे तत्कालीन वाणिज्य मंत्री सुरेश प्रभु ने जारी किया था जिसमें कहा गया था कि भारत दवाओं के एक्टिव फॉर्मास्युटिकल्स एंडग्रीडियेंट या एपीआई तथा एंडरमीडियेट्स के लिए चीन पर निर्भर है। इसके अनुसार भारत अपने पड़ोसी देशों से करीब 80 फीसदी (मात्रा के आधार पर) एक्टिव फॉर्मास्युटिकल्स एंडग्रीडियेंट या एपीआई तथा एंडरमीडियेट्स का आयात करता है।
इसी अध्ययन में पाया गया कि चीनी सरकार वहां की एक्टिव फॉर्मास्युटिकल्स एंडग्रीडियेंट या एपीआई तथा एंडरमीडियेट्स बनाने वाली निजी कंपनियों को भरपूर मदद करती तथा बैंकों से भी कम ब्याज पर कर्ज दिया जाता है। आश्चर्यचकित करने वाली बात यह है कि चीन की दवाओं को भारत में रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए 2-5 माह का समय लगता है जबकि चीन में भारतीय दवाओं को रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए -5 साल का समय लगता है। जाहिर है कि इस मामले में भारत कुछ ज्यादा ही खुला हुआ देश है।
दवाओं के लिये चीन पर अति निर्भरता पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने आगाह भी किया था। उसके बाद कटोच समिति का गठन किया गया, जिसने अपनी अनुशंसा में कहा कि देश में बल्कड्रग के उत्पादन को फिर से पुनर्जीवित करने के लिए निर्माताओं को कर सहित कई रियायतें दी जाए पर उसके बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है।
दो-ढाई दशक पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। तब बल्कड्रग का हमारे यहां उत्पादन होता था तथा उसे विदेशों को निर्यात भी किया जाता था। पर वैश्वीकरण की जंग में भारत इसमें पिछड़ गया, क्योंकि चीन से मंगाये जाने वाले बल्कड्रग सस्ते होने लगे।
दुखद यह है कि पिछले कई दशकों से सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियां सरकारी नीतियों के कारण बीमार हो गई हैं। सरकारों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया कि देश का आत्मनिर्भर दवा उद्योग विदेशों पर निर्भरशील होता जा रहा है। पूरी दुनिया में भारत को ‘फॉर्मेसी ऑफ वल्र्ड’ माना जाता है। करीब 200 देशों को भारत से दवाओं का निर्यात किया जाता है। यहां तक कि जब से अमरीका में भारतीय कंपनियों ने एड्स की दवा सस्ते दामों में उपलब्ध कराई, तो मजबूरन वहां की दवा कंपनियों को भी अपनी दवाओं के दाम कम करने पड़े। इसका सीधा लाभ मरीजों को हुआ। दवा उद्योग की देश की जीडीपी में 1।75 फीसदी की भागीदारी है।
कोविड-19 महामारी फैलने के बाद केन्द्र सरकार ने देश में बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट्स के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये प्रोत्साहन देने की घोषणा की है। (बाकी पेज 8 पर)
जिसके तहत केन्द्र सरकार 9,940 करोड़ रुपये खर्च करने जा रही है। केन्द्र सरकार देश के तीन राज्यों में तीन मेगा बल्कड्रग पार्क बनाने जा रही है जिसमें से हर एक में करीब 3000 करोड़ रुपये अगले 5 सालों में खर्च किये जायेंगे। इन बल्कड्रग पार्को में कॉमन सॉल्वेंट रिकवरी प्लांट, डिस्टीलाइजेशन प्लांट, बिजली तथा भाप की व्यवस्था रहेगी। यहां पर बनाने के लिये 53 बल्कड्रग, 26 फरमेंटेशन बेस्ड बल्कड्रग तथा 27 केमिकल सिंथेसिस बेस्ड बल्कड्रग को चिन्हित किया गया है। इनके उत्पादन पर भारतीय बल्कड्रग कंपनियों को इसेंटिव भी दिया जायेगा।
जाहिर है कि बल्कड्रग के उत्पादन के मामलें में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिये मोदी सरकार द्वारा उठाये गये कदम सराहनीय हैं लेकिन जैसा कि घोषणाओं से ही जाहिर है कि यह योजना अगले 5 सालों के लिये बनाई गई है तथा इसमें एक-दो साल का समय लगने वाला है। तब तक बहिष्कार-बहिष्कार का नारा देने वालों को दिल थामकर बैठना पड़ेगा। आखिरकार दिल की दवाईयों के लिये भी हम वर्तमान में चीन पर ही निर्भर हैं।
विरोध के बावजूद प्रधानमंत्री ने 41 कोयला खदानों में खनन की नीलामी प्रक्रिया शुरू की और इस मौके पर सरकार की पीठ ठोकते हुए इसे कोयला क्षेत्र को ‘दशकों के लॉकडाउन’ से बाहर निकालने जैसा बताया जबकि इन कोयला खदानों के पास रहने वाले लाखों लोगों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को 41 कोयला खदानों के वाणिज्यिक खनन की नीलामी प्रक्रिया शुरू कर दी। सरकार के इस कदम से देश का कोयला क्षेत्र निजी कंपनियों के लिए खुल जाएगा। प्रधानमंत्री ने इसे आत्मनिर्भर भारत बनने की दिशा में एक बड़ा कदम बताया है। हालांकि देश के विभिन्न हिस्सों में इस कदम का विरोध हो रहा है। छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य क्षेत्र के 9 सरपंचों ने नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर खनन नीलामी पर गहरी चिंता जाहिर की है और कहा कि यहां का समुदाय पूर्णतया जंगल पर आश्रित है, जिसके विनाश से यहां के लोगों का पूरा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
ग्राम प्रधानों ने कहा था कि एक तरफ प्रधानमंत्री आत्मनिर्भरता की बात करते हैं, वहीं दूसरी तरफ खनन की इजाजत देकर आदिवासियों और वन में रहने वाले समुदायों की आजीविका, जीवनशैली और संस्कृति पर हमला किया जा रहा है। हालांकि इन चिंताओं को दरकिनार करते हुए नरेंद्र मोदी ने खनन नीलामी प्रक्रिया शुरू करने की मंजूरी दी है। उन्होंने कहा कि देश कोरोना वायरस संक्रमण से अपनी लड़ाई जीत लेगा और इस संकट को एक अवसर में बदलेगा। यह महामारी भारत को आत्मनिर्भर बनाएगी।
विवादास्पद निर्णय पर
कई सवाल उठे...
प्रधानमंत्री के भाषण से यह समझ में न आया कि यह महामारी देश को आत्मनिर्भर कैसे बनाएगी? उनका यह कहना कि कोयले की खदानों को अदानी, अंबानी, वेदांता जैसे कॉर्पोरेट को सौंपना कोरोना संकट को अवसर में बदलना कैसे है? बल्कि इस मामले में तो सरकार ने लॉकडाउन का भरपूर फायदा उठाया है। इतने बड़े निर्णय को बिना संसद की स्वीकृति के लॉकडाउन की आड़ लेकर निजी कंपनियों के लिए खोल दिया, क्या नीतिगत निर्णय लेने के पहले उन्हें देश के लोगों को विश्वास पर नहीं लेना चाहिए था?
सरकार को एक दिन
जवाब देना पड़ेगा?
जब देश में कोल इण्डिया जैसा पब्लिक सेक्टर मुनाफे में अच्छा काम कर रहा था तो बड़े कार्पोरेट हाउस को इस क्षेत्र में भी उपकृत करने की क्यों सूझी? इस नीलामी में जाहिर है कई विदेशी कंपनिया भी बोली लगाएंगी। और यहाँ खनन कर अपनी कमाई भी तो देश से बाहर ले जाएंगी। इसके अलावा सबसे बड़ा सवाल इतने बड़े पैमाने पर खनन से जंगल उजड़ जाएँगे और लाखों लोग बेदखल हो जाएँगे जो इन 42 खदानों के आसपास रह रहे है खेती-किसानी कर रहे... ऐसे कई वाजि़ब सवाल जो अभी लॉक हो गए हैं जरूर एक दिन उठेंगे और सरकार को पीएम मोदी को उनका जवाब देना पड़ेगा।
कोयला क्षेत्र को ‘दशकों के लॉकडाउन’ से बाहर निकालने
के उनके निहितार्थ...?
पीएम मोदी ने अपने भाषण में कहा कि नीलामी प्रक्रिया की शुरुआत होना देश के कोयला क्षेत्र को ‘दशकों के लॉकडाउन’ से बाहर निकालने जैसा है। उन्होंने कहा कि आज हम सिर्फ वाणिज्यिक खनन के लिए कोयला ब्लॉकों की नीलामी प्रक्रिया की शुरुआत नहीं कर रहे हैं, बल्कि कोयला क्षेत्र को ‘दशकों के लॉकडाउन’ से भी बाहर निकाल रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘जो देश कोयला भंडार के हिसाब से दुनिया का चौथा सबसे बड़ा देश हो और जो दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक हो। वो देश कोयले का निर्यात नहीं करता, बल्कि हमारा देश दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कोयला आयातक है। बड़ा सवाल ये है कि जब हम दुनिया के सबसे बड़े उत्पादक बन रहे हैं तो हम सबसे बड़े निर्यातक क्यों नहीं बन सकते?’
मोदी ने कहा, ‘वाणिज्यिक कोयला खनन के लिए निजी कंपनियों को अनुमति देना चौथे सबसे बड़े कोयला भंडार रखने वाले देश के संसाधनों को जकडऩ से निकालना है।’ प्रधानमंत्री ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से नीलामी प्रक्रिया का उद्घाटन किया। वेदांता समूह के चेयरमैन अनिल अग्रवाल और टाटा संस के चेयरमैन एन। चंद्रशेखरन भी इस कार्यक्रम में शामिल हुए।
किसकी और कैसी आत्मनिर्भरता?
वन-पर्यावरण नष्ट होने का खतरा?
अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने कोयला क्षेत्र को बंद रखने की पुरानी नीतियों पर सवाल उठाते हुए कहा कि कोयला नीलामी में पहले बड़े घोटाले हुए, लेकिन अब प्रणाली को ‘पारदर्शी’ बनाया गया है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि इन कोयला खदानों की नीलामी प्रक्रिया का शुरू होना ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ के तहत की गई घोषणाओं का ही हिस्सा है। यह राज्य सरकारों की आय में सालाना 20,000 करोड़ रुपये का योगदान करेगा।
केंद्र सरकार का दावा है कि इस नीलामी प्रक्रिया का लक्ष्य देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए आत्मनिर्भरता हासिल करना और औद्योगिक विकास को तेज करना है।मोदी ने कहा कि कोयला और खनन क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा, पूंजी और प्रौद्योगिकी लाने के लिए इसे पूरी तरह खोलने का बड़ा फैसला किया गया है।
(लेखक भोपाल स्थित पत्रकार हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले चार दिन से मैं सोच रहा हूं कि क्या वजह है कि हमारे प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री ने चीन के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोला जबकि भारत के आम लोगों का खून गरमाया हुआ है ? वे जगह-जगह चीन-विरोधी प्रदर्शन कर रहे हैं, मोदी के मित्र चीनी राष्ट्रपति शी चिन फिंग के पुतले जला रहे हैं, चीनी माल के बहिष्कार की मांग कर रहे हैं और चीन को सबक सिखाने की बात कह रहे हैं।
हमारे 20 जवानों की अंतिम-यात्रा के दृश्य टीवी चैनलों पर देखकर दिल दहल उठता है। हमारे नेताओं ने उनकी बहादुरी को सलाम किया और उन्हें श्रद्धांजलि दी, यह अच्छा किया लेकिन अभी तक सरकार ने स्पष्ट रुप से यह नहीं बताया कि भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच यह झड़प ठीक-ठाक कहां हुई, नियंत्रण रेखा से कितनी दूरी पर हुई और दोनों तरफ के सैनिकों के बीच ऐसी कौनसी बातें या कार्रवाइयां हुईं, जिनके कारण ऐसा कुछ हुआ, जैसा कि इस 3500 किमी की सीमा-रेखा पर पिछले 45 साल में कभी नहीं हुआ।
भारत-चीन सीमांत की इस शांति या मर्यादा की मिसाल मैं हमेशा पाकिस्तान के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और जनरलों को देता रहा हूं। उनसे कहता रहा हूं कि कश्मीर के मामले में भी हम इस परंपरा का पालन क्यों नहीं करें ? अब संतोष की बात यही है कि दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने एलान किया है कि सीमा पर शांति बनाए रखी जाएगी और सारे मामले बातचीत से हल किए जाएंगे।
इससे भी बड़ी पहेली यह है कि 15 जून की रात को शुरु हुआ यह खूनी संघर्ष सुबह 4 बजे तक चलता रहा और सुबह 7.30 बजे दोनों देशों के जनरल बातचीत करने बैठ गये। यह बड़ा रहस्य है। होना तो यह चाहिए था कि हमारे निहत्थे फौजियों की हत्या के बाद हमारी बंदूकें, तोपें और मिसाइल दगने शुरु हो जाने चाहिए थे। यदि चीनियों ने लाठियों में लोहे के कांटे लगाकर हमारे सैनिकों की हत्या की और सीमांत पर निहत्थे रहकर बात करने का समझौता भंग किया तो हमारी फौज क्या कर रही थी ? वह भी उसी तरह की लाठियां लेकर और कवच पहनकर वहां क्यों नहीं गई ? हमारे सैनिकों को चीनियों ने गिरफ्तार किया तो कहां से किया ? उनके क्षेत्र से किया या हमारे क्षेत्र से किया ? संसद में यह सब मांगें की जानी चाहिए और सरकार को पूरी जांच करके इसकी रपट देश के सामने पेश करनी चाहिए। हमारे एक-एक सैनिक की जान अमूल्य है। अभी ठीक से यह भी पता नहीं कि कितने चीनी सैनिक मारे गए ? चीन प्राय: अपने मृत सैनिकों की संख्या बताता कम, छिपाता ज्यादा है।
एक अमेरिकी जासूसी स्त्रोत के मुताबिक 40 चीनी सैनिक मारे गए हैं लेकिन एक भारतीय उपग्रह-बिम्ब विशेषज्ञ (सेटेलाइट इमेजेरी एक्सपर्ट) कर्नल भट्ट के अनुसार 15 जून को जहां यह मुठभेड़ हुई है, वह जगह चीन की तरफ 40 किमी अंदर थी, वास्तविक नियंत्रण रेखा (एल.ए.सी.) से ! यह सच है या झूठ ? इन सब रहस्यों के अनावरण के बाद ही हमें आगे की रणनीति बनानी होगी। भारत को यह रहस्य भी पता करना जरुरी है कि यह एक स्थानीय और अचानक घटना थी या यह चीनी नेताओं की सहमति से किया गया, ऐसा दुष्कर्म है, जिसके पीछे गहरी साजिश है। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
‘इंडियन डिफेन्स रिव्यू’ में 7 मार्च, 2015 को एक लेख छपा। यह लेख मेजर जनरल अफसिर करीम द्वारा लिखा गया था। इसमें उन्होंने भारत को चीन से होने वाले संभावित खतरों की ओर इशारा किया था। उन्होंने लिखा था, ‘अब समय आ गया है जब भारत को अपनी सैन्य क्षमताओं और नीतियों में सुधार करते हुए चीन को जवाब देने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।’
15 जून की रात को पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में जो हुआ उसे देखते हुए लगता है कि मेजर करीम ने खतरे को भांप लिया था। उस दिन भारत और चीन के सैनिकों के बीच हुई एक मुठभेड़ में 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए। चीन के भी 43 सैनिकों के मारे जाने या गंभीर रूप से घायल होने की खबरें आईं। हालात फिलहाल तनावपूर्ण बने हुए हैं।
लेकिन यदि भारत और चीन के राजनीतिक संबंधों को देखें तो स्थिति कुछ अलग नजर आती है। अपने 6 साल के कार्यकाल के दौरान अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ 18 बार मुलाकात कर चुके हैं। इनमें से कुछ तो बेहद गर्मजोशी भरे माहौल में हुई हैं।
ऐसा ही कुछ 1962 में भी हुआ था। उस वक्त भी हालात कमोबेश आज जैसे ही थे। सीमा पर जो क्षेत्र तब विवादास्पद थे वे आज भी वैसे ही हैं। तब भी कुछ सैन्य विशेषज्ञ चीन से संभावित खतरों के लिए चेतावनी दे रहे थे, जिन्हें तब भी नजरअंदाज किया जा रहा था। राजनीतिक यात्राएं और वार्ताएं तब भी जारी थीं। बल्कि उस दौर में तो ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ जैसे नारे भी खूब गूंजा करते थे। लेकिन तभी चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। इसीलिए 1962 का वह युद्ध आज तक एक रहस्य ही बनकर रह गया है।
बीते पचास सालों में आई कई रिपोर्टों और किताबों के जरिये 1962 के युद्ध को समझने में थोड़ी बहुत मदद जरूर मिलती है। लेकिन पक्के तौर पर आज भी नहीं कहा जा सकता कि चीनी हमले की वजह क्या थी। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में काफी विस्तार से उन परिस्तिथियों का जिक्र किया है जिनके चलते पंडित जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ की दोस्ती धीरे-धीरे फीकी पड़ी और अंतत: दोनों देश युद्ध में उलझ गए। भारत और चीन के बीच तिब्बत का मसला कैसे आया
तिब्बत के धर्म गुरू 1956 में भारत की आधिकारिक यात्रा पर आए थे और माना जाता है इस यात्रा ने उनके और नेहरू के बीच समझ बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
इन परिस्थितियों की शुरुआत गुहा ने 1950 के दशक के तिब्बत से की है। तिब्बत में चीनी सैनिकों का हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा था। इसके विरोध में 1958 में पूर्वी तिब्बत के खम्पा लोगों ने सशत्र विद्रोह छेड़ दिया। शुरुआत में खम्पा लोगों को कुछ सफलता भी मिली लेकिन अंतत: चीनी सैनिकों ने विद्रोहियों को समाप्त कर दिया। इसके बाद दलाई लामा को भी धमकियां मिलने लगीं। उन पर खतरा बढ़ गया था। ऐसे में उन्होंने भारत में शरण लेने का मन बनाया। भारत उन्हें शरण देने को तैयार हो गया। प्रधानमंत्री नेहरू से मिलकर दलाई लामा ने उन्हें खम्पा विद्रोह के बारे में जानकारी दी। नेहरू ने दलाई लामा को बताया कि भारत तिब्बत की आजादी के लिए चीन से युद्ध नहीं कर सकता। साथ ही नेहरू ने यह भी कहा कि ‘सारी दुनिया मिलकर भी तिब्बत को आजाद नहीं करवा सकती जब तक कि चीन ही पूरी तरह से नष्ट न हो जाए।’
इस वक्त तक भारत और चीन के संबंध और कारणों से भी बिगडऩे लगे थे। इसी समय भारत सरकार को सूचनाएं मिलने लगीं कि चीन सीमा के नजदीक बड़े पैमाने पर सडक़ निर्माण कर रहा है। जुलाई, 1958 में चीन की एक सरकारी पत्रिका ‘चाइना पिक्टोरिअल’ में कुछ विवादास्पद नक़्शे छापे गए। इन नक्शों में नेफा (नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी यानी आज का अरुणाचल प्रदेश) और लद्दाख के बड़े इलाके को चीन का हिस्सा दिखाया गया था। दिसंबर 1958 में जवाहरलाल नेहरू ने चीनी प्रधानमंत्री को इस संबंध में एक पत्र लिखा। इन नक्शों में जिस तरह से भारतीय इलाकों को चीन का हिस्सा दिखाया गया था उस पर नेहरू ने अपना विरोध दर्ज करते हुए लिखा था जब 1956 में उन दोनों की मुलाकात हुई थी तो चीनी प्रधानमंत्री ने मैकमोहन लाइन को स्वीकारते हुए मान्यता देने की बात कही थी। तब दोनों इस बात पर भी सहमत थे कि भारत और चीन के बीच कोई भी बड़ा सीमा विवाद नहीं है।
भारत के प्रधानमंत्री को एक महीने बाद ही जवाबी पत्र मिल गया। जवाब में चाऊ इन लाइ ने कहा कि मैकमोहन लाइन ब्रितानी हुकूमत की विरासत है जिसे चीन कभी भी मान्यता नहीं दे सकता। साथ ही उन्होंने कहा कि भारत और चीन के बीच हमेशा से रहे सीमा विवाद को कभी सुलझाया नहीं गया था। 22 मार्च, 1959 को नेहरू ने एक और पत्र लिखकर इस बात के कई प्रमाण दिए कि चीनी नक्शों में दर्शाए गए इलाके दरअसल भारत के अभिन्न अंग हैं। साथ ही उन्होंने अपने इस पत्र में यह भी उम्मीद जताई कि जल्द ही दोनों देशों इन मसलों पर किसी सहमति पर पहुंच जाएंगे। नेहरू के इस पत्र का जवाब आ पाता उससे पहले ही दलाई लामा भारत आ गए।
यहां से भारत और चीन के रिश्ते और भी ज्यादा बिगडऩे लगे। चीन ने आरोप लगाया कि भारत-चीन संबंधों को बिगाडऩे की पहल भारत की ओर से की जा रही है। भारतीय जनता का चीन के खिलाफ होना और सेना का असमंजस इसी दौरान मुंबई में भी एक घटना हुई जिसके कारण चीन को भारत पर निशाना साधने के कुछ और कारण मिल गए। मुंबई स्थित चीनी महावाणिज्य दूतावास के कार्यालय की दीवार पर कुछ प्रदर्शनकारियों ने माओ त्से तुंग की तस्वीर टांगकर उस पर अंडे और टमाटर फेंके। चीन ने इस घटना पर नाराजगी जताते हुए चेतावनी दी कि यदि भारत इस घटना पर उचित कार्रवाई नहीं करता तो इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं।
सेना के अधिकारियों के साथ जवाहरलाल नेहरू
भारत-चीन संबंध जिस तेजी से सीमा पर बिगड़ रहे थे लगभग उसी गति से भारतीय जनता में भी चीन के खिलाफ माहौल बन रहा था। विपक्षी पार्टियों के दबाव में भारत सरकार ने सितंबर, 1959 को एक श्वेत पत्र जारी किया। इसमें पिछले पांच वर्षों में चीन से हुए पत्राचार का पूरा ब्यौरा था। इस श्वेतपत्र के सार्वजनिक होने से भारतीय जनता को चीन द्वारा सीमा पर की जा रही गतिविधियों की पूरी जानकारी मिल गई।
रामचंद्र गुहा अपनी किताब में लिखते हैं, ‘यदि यह श्वेतपत्र जारी नहीं हुआ होता तो भारत-चीन सीमा विवाद को राजनीतिक या कूटनीतिक स्तर पर भी सुलझाया जा सकता था। लेकिन इनके सार्वजनिक होने के बाद जनता में चीन के प्रति आक्रोश था और तब राजनीतिक हल ढूंढना चीन के सामने घुटने टेकने जैसा हो गया था।’
उस दौर में वीके कृष्णा मेनन केन्द्रीय रक्षा मंत्री थे। वे प्रधानमंत्री के काफी करीबी माने जाते थे। लेकिन तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल केएस थिमैया से उनके संबंध अच्छे नहीं थे। जनरल थिमैया का मानना था कि उनकी सेना को चीन से होने वाले हमले के लिए तैयार रहना चाहिए। लेकिन रक्षामंत्री मेनन उनकी बात को नजरंदाज करते रहे। मेनन को लगता था कि भारत को असल खतरा चीन से नहीं बल्कि पकिस्तान से है इसीलिए सेना का बड़ा हिस्सा पाकिस्तानी सीमाओं पर ही तैनात था। रक्षामंत्री और सेनाध्यक्ष के बीच यह तनाव आगे जा कर और बढ़ गया। अगस्त, 1959 में मेनन ने बीएम कौल नाम के एक अधिकारी को लेफ्टिनेंट जनरल नियुक्त कर दिया। कौल को इस पद पर लाने के लिए उनसे वरिष्ठ 12 अधिकारियों को नजरंदाज किया गया था। जनरल थिमैया ने इसके विरोध में प्रधानमंत्री को अपना इस्तीफ़ा भेज दिया। हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू ने जनरल थिमैया को इस्तीफा देने से तो रोक लिया लेकिन इस घटना से सारे देश में रक्षामंत्री के खिलाफ माहौल बन गया। उन पर पहले से भी वामपंथी समर्थक होने के कारण चीन के प्रति सहानुभूति रखने के आरोप लगते रहते थे।
1959 में भी भारत-चीन सीमा पर दोनों सेनाओं के बीच झड़प की कई घटनाएं हुईं। इस समय दोनों देशों के बीच पत्राचार भी लगातार चल रहा था। 1960 में नेहरू ने चाऊ एन लाई को भारत आने का न्योता दिया। इससे पहले जब 1956 में चीनी प्रधानमंत्री भारत आ चुके थे। तब उनका बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया गया था। लेकिन 1960 में हालात बिलकुल अलग थे। हिन्दू महासभा ने चाऊ एन लाई के विरोध में काले झंडे दिखाए। जहां 1956 में उनकी भारत यात्रा के दौरान ‘हिंदी-चीनी भाई भाई’ जैसे नारे दिए गए थे वहीं इस बार यह नारे बदलकर ‘हिंदी-चीनी बाय बाय’ हो चुके थे। चाऊ एन लाई की इस यात्रा के बाद भी भारत-चीन सीमा विवाद जस का तस ही बना रहा। दोनों देश इस यात्रा और बातचीत के बाद भी किसी सहमति तक नहीं पहुंच पाए। युद्ध की शुरुआत और अंत 1962 के मई-जून में अचानक सीमा पर गोलीबारी की घटनाएं बढ़ गईं। चीनी सेना की कई टुकडिय़ां भारतीय सीमा के भीतर घुस आईं। भारतीय सेना के पास इनका मुकाबला करने के लिए न तो पर्याप्त हथियार थे और न ही सैनिक। युद्ध के बीच में ही जनरल कौल छाती में दर्द होने के कारण सीमा से लौट कर दिल्ली आ गए। बिना किसी नेतृत्व के सेना के जवान पांच दिनों तक लड़ते रहे जिसके बाद नेफा के तवांग के इलाके पर भी चीन कब्ज़ा हो गया। रक्षामंत्री मेनन को आखिरकार मंत्रिमंडल से निकाल दिया गया और भारत अब अमरीकी मदद लेने की दिशा में बढऩे लगा।
अब तक चीनी सैनिक नेफा में इतना आगे बढ़ चुके थे कि जल्द ही असम के भी उनके हाथ में जाने का खतरा पैदा हो गया। उधर दिल्ली और मुंबई के भर्ती केन्द्रों पर हजारों युवा सेना में भर्ती होने को तैयार थे। लेकिन 22 नवंबर को अचानक ही चीन ने युद्धविराम की घोषणा कर दी। इस युद्ध का अंत भी इसकी शुरुआत की ही तरह एक रहस्य था। नेफा में चीन ने अपने सैनिकों को मैकमोहन लाइन से पीछे कर लिया और लद्दाख क्षेत्र में भी वह उस स्थिति में वापस लौट गए जो युद्ध से पहले थी।
चीन ने अचानक ही अपने सैनिकों को वापस बुलाकर युद्धविराम की घोषणा क्यों की? इस सवाल के जवाब में भी सिर्फ कयास ही लगाए जाते रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि चीन इसलिए घबरा गया था कि अब वामपंथी पार्टियों समेत भारत की सभी विपक्षी पार्टियां सरकार के साथ एकजुट होकर चीन का विरोध कर रहीं थी। अमरीका और ब्रिटेन का भारत को समर्थन करना और हथियार भेजना भी एक कारण माना जाता है जिसने चीन को युद्धविराम पर मजबूर कर दिया था। वहीं एक तर्क यह भी दिया जाता रहा है कि सर्दियों में वह सारा इलाका बर्फ से ढक जाता है। ऐसे में चीन ज्यादा समय तक अपने सैनिकों को मदद नहीं पहुंचा सकता था इसलिए उसके पास लौट जाने का ही विकल्प बचा था।
रामचंद्र गुहा के अनुसार, ‘इस युद्ध के अंत को तो फिर भी कुछ हद तक समझा जा सकता है लेकिन इसकी शुरुआत को समझना बेहद जटिल है। चीन की तरफ से कभी-भी कोई श्वेतपत्र जारी नहीं किया गया। लेकिन इस युद्ध के बारे में यह जरूर कहा जा सकता है कि इतने सुनियोजित आक्रमण के पीछे कई साल का अभ्यास रहा होगा। इस युद्ध का समय भी चीन के लिए बिल्कुल सटीक था। उस वक्त विश्व की दोनों महाशक्तियां-सोवियत संघ व अमेरिका और इनके साथ ही संयुक्त राष्ट्र, क्यूबा के मिसाइल संकट में उलझे हुए थे। इस कारण चीन को बिना किसी डर के कुछ दुस्साहसिक करने की छूट मिल गई थी।’ (satyagrah.scroll.in)
युद्व को फैटेंसाइज, ग्लैमराइज मत कीजिए। पाकिस्तान, चीन या हम खुद भी मोहल्लों के गैंग नहीं हैं कि थोड़े ज्यादा लडक़े ले जाकर उन्हें पीटकर आ गए। या कभी वे ज्यादा हुए तो हम पिट गए।
दूध मांगोगे तो खीर देगे, कश्मीर मांगोगो तो चीर देंगे या हम एक सिर के बदले दस सिर लेकर आएंगे। ये जुमले और डायलॉग सिनेमा और चुनावी रैलियों में रोंगटे खड़े करने के लिए अच्छे हैं लेकिन इन्हें आप असली मत मान लीजिए। आप ये मानिए कि सनी देओल और नरेंद्र मोदी उस समय एक किरदार में थे, और एक किरदार के डायलॉग बोल रहे थे। सिनेमा और चुनाव युद्ध को भरपूर भुनाते हैं। उसमें एक थ्रिल इलीमेंट होता है आप उनका मजा लीजिए। लेकिन सच में युद्ध के करीब जहां तक संभव हो खुद को ले जाने से बचा लीजिए। सरकारों का अपना एक किरदार होता है, वे कभी युद्ध नहीं चाहती, आप भी मत चाहिए।
फस्र्ट और सेकेंड वल्र्ड वॉर की ज्यादातर वजहें उपनिवेश के विस्तार की और अपनी नस्ल को श्रेष्ठ साबित करने में छिपी हुई हैं। दूसरी नस्ल के लिए घृणा भी युद्ध की एक वजह रही है। शासकों ने युद्व इसलिए लड़े क्योंकि जनता युद्ध के लिए तैयार थी। जनता उसे अपने स्वाभिमान के साथ जोड़ चुकी थी। तो आपको युद्ध के लिए तत्पर दिखना सरकार के लिए युद्व में जाने के रास्ते खोलेगा।
युद्धों के परिणाम से आप वाकिफ हैं। ब्रिटेन जैसा मुल्क जिसके उपनिवेश हर महाद्वीप में फैले थे वह हमेशा के लिए खोखला हो गया। एक सनकी की सनक पर नाच रहा जर्मनी अपनी छाती पर दशकों तक एक दीवार लिए जीता रहा। कई सारे ताकतवर देश हमेशा के लिए किसी दूसरे देश पर आश्रित हो गए। कुछ देशों में अब तक अपाहिज नस्लें पैदा हो रही हैं। इन युद्वों के मुख्य किरदार जर्मनी और ग्रेट ब्रिटेन से आज पूछिए कि उन्हें युद्व में क्या हासिल हुआ?
हो सके तो सेकेंड वल्र्ड वॉर से जुड़ी तमाम सारी डाक्यूमेंट्रीज देखिए। उस पर रचे गए सिनेमा को देखिए। उससे जुड़ा साहित्य पढि़ए। अंतत: युद्व देश को खोखला करने और परिवारों को उजाड़ देने वाला ही साबित होता है। वाट्सअप पर मैसेज आते हैं कि हमारे 20 सैनिक मरे और चीन के 34। एक पल के लिए इस गणतीय जीत से हटकर उन 20 परिवारों के नजरिए से चीजों को देखिए। पता नहीं परिवार के मुखिया को हमेशा के लिए खो देने के कष्ट से आप निजी तौर पर कितना वाकिफ हैं लेकिन उस दर्द को महसूस करने की कोशिश कीजिए।
भारत, पाकिस्तान से लड़े या चाइना से भारत अकेले इन देशों से नहीं लड़ेगा। उसे परोक्ष रुप से कई देशों से भी लडऩा होगा। कोरोना की वजह से सिर्फ दो महीने ठप्प रही अर्थव्यवस्था से हम यह सहज अनुमान लगा सकते हैं कि यदि किसी देश को पूरी तरह से युद्व में जाना पड़ा तो सरकार की प्राथमिकताओं में हम कहां पर होंगे? नौकरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सडक़ जैसी बुनियादी जरूरतें कितनी पीछे दुबककर खड़ी हो जाएंगी। सेकेंड वल्र्ड वॉर के अंतिम तीन सालों में ब्रिटेन की हर फैक्ट्री में जहां तक संभव था सिर्फ युद्व से जुड़ी हुई चीजों का निर्माण होता था।
इन दिनों पाकिस्तान नहीं, चीन हमारे निशाने पर है। चीन का सामान आप खरीदें या ना खरीदें इसे वाट्सअप फॉरवर्ड में तो भेजना अच्छा या कुल लग सकता है लेकिन जब अपना मुल्क चीन से आयात और निर्यात बंद नहीं कर कर रहा है और ना ही इसकी संभावनाएं हैं तो चीनी उत्पादों को बंद करने का फैसला ना सिर्फ बचकाना है बल्कि यह एक किस्म की मनोरंजक प्रैक्टिस भर है।
ब्रिटेन को सेकेंड वर्ल्ड वॉर में जीत दिलाने वाले वेस्टन चर्चिल अपना अगला चुनाव हार गए थे। अमेरिका ने इसी युद्ध के बाद ब्रिटेन को हमेशा के लिए पीछे कर दिया। जर्मनी की सरकारें उन लोगों पर खोज खोजकर मुकदमा कर रही हैं जो उस समय यहूदियों की हत्या में परोक्ष रूप से शामिल थे। उसमें ज्यादातर लोग मर चुके हैं लेकिन उनके उत्ताराधिकारी कोर्ट में उनका पक्ष रखने के लिए पहुंचे। आप इन देशों से सीखिए।
कहा जाता है कि वो लोग समझदार होते हैं जो अनुभव से सीखते हैं, और वह लोग बहुत समझदार होते हैं जो दूसरों के अनुभव से सीखते हैं। हो सके तो आप सेकेंड वल्र्ड वॉर के ताकतवर देशों से सीखिए, इनके अनुभव से सीखिए।
कोई सरकार युद्ध नहीं चाहती। आप उसे चाभी मत लगाइए। सीमा के विवाद हर देश की स्वाभाविक समस्या हैं। ये गांव के नाली और गलियारे के जैसे मामले हैं। जब तब उखड़ आते हैं और कभी खत्म नहीं होते। लेकिन वह लोग मूर्ख कहलाते हैं जो नाली के विवाद में किसी की हत्या करके अपनी पूरी उम्र जेल में बिताते हैं। उसकी अगली ही बरसात नाली अपना रास्ता खुद बना लेती है...पर वे जेल में रहते हैं।
सेना और सरकार शरहदों के इस उबड़ खाबड़पन से वाकिफ होते हैं, वो इसे हैंडल कर लेंगे, प्लीज़ आप एक प्रेशर ग्रुप की तरह काम मत कीजिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत आठ साल बाद फिर आठवीं बार सुरक्षा परिषद का सदस्य चुन लिया गया है। यह पहले भी सात बार उसका सदस्य रह चुका है। यह सदस्यता दो साल की होती है। सुरक्षा परिषद में कुल 15 सदस्य हैं। उनमें से पांच-अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस-स्थायी सदस्य हैं। इनमें से प्रत्येक को वीटो का अधिकार है। शेष दस अस्थायी सदस्य किसी भी प्रस्ताव पर अपने निषेधाधिकार (वीटो) का इस्तेमाल नहीं कर सकते। लेकिन सुरक्षा परिषद की इस अस्थाई सदस्यता का भी काफी महत्व है, क्योंकि ये 10 अस्थायी सदस्य अपने-अपने महाद्वीपों- अफ्रीका, एशिया, लातीनी अमेरिका, यूरोप आदि का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारत की इस सदस्यता का समर्थन पाकिस्तान और चीन ने भी किया है। भारत को 192 वोटों में से 184 वोटों का प्रचंड बहुमत मिला है। जनवरी 2021 से भारत सुरक्षा परिषद का औपचारिक सदस्य बन जाएगा।
इस बार भारत का सुरक्षा परिषद का सदस्य बनना विशेष महत्वपूर्ण है। चीन और पाकिस्तान दोनों ने उसका समर्थन किया है। इन दोनों पड़ोसी देशों से आजकल जैसे संबंध चल रहे हैं, उन्हें देखते हुए यह भारत की विशेष उपलब्धि है। भारत को अपने राष्ट्रहितों की रक्षा तो करनी ही है लेकिन एशिया और प्रशांत क्षेत्र के प्रतिनिधि होने के नाते इस इलाके के सभी देशों का भी हित संवर्धन करना है। सबसे पहले, इस अपनी आठवीं बारी में उसकी कोशिश होनी चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र के मूल ढांचे में ही परिवर्तन हो। भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसे राष्ट्रों को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता मिल। यदि सुरक्षा परिषद के ढांचे में यह मूल परिवर्तन हो गया तो यह विश्व राजनीति को नई दिशा दे देगा। भारत को चाहिए कि अपने इस नए पद का इस्तेमाल वह कम से कम दक्षिण एशिया महासंघ बनाने के लिए करे, जैसा कि यूरोपीय संघ है। उससे भी बेहतर महासंघ हमारा बन सकता है, क्योंकि दक्षिण और मध्य एशिया के राष्ट्र सैकड़ों वर्षों से एक विशाल कुटुम्ब की तरह रहते रहे हैं। दक्षिण एशिया में भारत की जो स्थिति है, वैसी किसी भी क्षेत्रीय संगठन में किसी अन्य देश की स्थिति नहीं है। यदि महासंघ की यह प्रक्रिया शुरू हो जाए तो चीन और पाकिस्तान के साथ चल रहे विवाद भी अपने आप शांत हो सकते हैं। कश्मीर, तिब्बत, पख्तूनिस्तान और बलूचिस्तान की समस्याएं भी अपने आप हल होने लगेंगी। करोड़ों दुखी और वंचित लोगों को स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की अपूर्व सुविधाएं मिलने लगेंगी। 21 वीं सदी की दुनिया को भारत चाहे तो नई दिशा दिखाने की कोशिश कर सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से) (www.nayaindia.com)
सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट भारत के बजाय चीन को मिल गई थी?
भारत आठवीं बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य चुन लिया गया है और इसके साथ ही एक पुरानी बहस फिर जिंदा हो गई है
- राम यादव
भारत आठवीं बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य चुना गया है. इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्व समुदाय के प्रति आभार जताया है. एक ट्वीट में उन्होंने कहा कि भारत सभी सदस्यों के साथ मिलकर दुनिया में शांति, सुरक्षा और बराबरी के लिए काम करेगा. सुरक्षा परिषद की अस्थायी सदस्यता के लिए बुधवार को हुए मत परीक्षण मेें भारत के साथ मैक्सिको, आयरलैंड और नॉर्वे को भी चुना गया. ये सभी देश दो साल तक सुरक्षा परिषद में रहेंगे.
इस खबर के बाद एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी दावेदारी को लेकर सोशल मीडिया पर बहस गर्म हो गई. फिलहाल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी और 10 अस्थायी सदस्य हैं. स्थायी सदस्य हैं अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन. हर साल संयुक्त राष्ट्र महासभा दो साल के कार्यकाल के लिए पांच अस्थायी सदस्यों को चुनती है. भारत काफी समय से स्थायी सदस्यता की मांग कर रहा है. अमेरिका और फ्रांस जैसे कई देश उसका समर्थन कर चुके हैं.
उधर, एक बड़ा वर्ग सुरक्षा परिषद में भारत के न होने को देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की गलती मानता है. उसके मुताबिक अगर नेहरू ने खुद पीछे हटकर चीन को तरजीह नहीं दी होती तो भारत आज सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होता. तब उसका एक अलग रसूख तो होता ही, मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी बनाने में इतनी अड़चन भी नहीं आती.
सवाल उठता है कि यह बात कितनी सच है. जवाब जानने के लिए बात को शुरू से ही शुरू करते हैं.
भारत संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य है. जनवरी 1942 में बने पहले संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र (चार्टर) पर हस्ताक्षर करने वाले 26 देशों में उसका भी नाम था. 25 अप्रैल 1945 को सैन फ्रांसिस्को में शुरू हुए और दो महीनों तक चले 50 देशों के संयुक्त राष्ट्र स्थापना सम्मेलन में भारत के भी प्रतिनिधि भाग ले रहे थे. 30 अक्टूबर 1945 को भारत की ब्रिटिश सरकार ने इस सम्मेलन में पारित अंतिम घोषणापत्र की विधिवत औपचारिक पुष्टि भी की थी.
इस सारी प्रक्रिया के दौरान स्वतंत्रता के बाद भारत को भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिये जाने की चर्चा हुई थी. हवा का रुख भारत के अनुकूल ही था. लेकिन तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस संभावना पर पूर्णविराम लगा दिया. आइए, इस ऐतिहासिक चूक की कहानी जानते हैं.
चीन की सीट ताइवान को मिली
चीन उस समय च्यांग काई शेक की कुओमितांग पार्टी और माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच चल रहे गृहयुद्ध से लहूलुहान था. कम्युनिस्टों से घृणा करने वाले अमेरिका और उसके साथी ब्रिटेन तथा फ्रांस, किसी साम्यवादी चीन को सुरक्षा परिषद में नहीं चाहते थे. चीन के नाम की सीट 1945 में च्यांग काई शेक की राष्ट्रवादी चीन सरकार को दी गयी. लेकिन, गृहयुद्ध में अंततः चीनी कम्युनिस्टों की विजय हुई. एक अक्टूबर 1949 को चीन की मुख्य भूमि पर उन्हीं की सरकार बनी. च्यांग काई शेक को अपने समर्थकों के साथ भाग कर ताइवान द्वीप पर शरण लेनी पड़ी. वहां उन्होंने अपनी एक अलग सरकार बनायी. तभी से ताइवान, कम्युनिस्ट चीन के विरोधी चीनियों का ही एक अलग देश है.
इन्हीं परिस्थितियों के बीच 15 अगस्त 1947 को भारत जब स्वतंत्र हुआ तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अंतरिम सरकार को भी सबसे पहले देश के बंटवारे वाली उथल-पुथल से निपटना पड़ा. नेहरू ही भारत के प्रथम विदेशमंत्री भी थे. समाजवाद की रूसी और चीनी अवधारणाओं से काफ़ी प्रभावित उनके निजी आदर्श और विचार देश की विदेशनीति हुआ करते थे. यही कारण था कि चीन में माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट सरकार बनते ही उसे राजनयिक मान्यता देने वाले देशों की पहली पांत में भारत भी खड़ा था. जवाहरलाल ऩेहरू को आशा ही नहीं अटल विश्वास था कि ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ बनेंगे.
चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता देने के एक ही साल के भीतर, 24 अगस्त 1950 को, नेहरूजी को अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित का एक पत्र मिला. कुछ समय पहले तक वह अज्ञात था. विजयलक्ष्मी पंडित उस समय अमेरिका में भारत की राजदूत थीं.
विजयलक्ष्मी पंडित का पत्र
इस पत्र में विजयलक्ष्मी पंडित ने अपने भाई को लिखा था, ‘अमेरिका के विदेश मंत्रालय में चल रही एक बात तुम्हें भी मालूम होनी चाहिये. वह है, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट पर से (ताइवान के राष्ट्रवादी) चीन को हटा कर उस पर भारत को बिठाना. इस प्रश्न के बारे में तुम्हारे उत्तर की रिपोर्ट मैंने अभी-अभी रॉयटर्स (समाचार एजेंसी) में देखी है. पिछले सप्ताह मैंने (जॉन फ़ॉस्टर) डलेस और (फ़िलिप) जेसप से बात की थी... दोनों ने यह सवाल उठाया और डलेस कुछ अधिक ही व्यग्र लगे कि इस दिशा में कुछ किया जाना चाहिये. पिछली रात वॉशिंगटन के एक प्रभावशाली कॉलम-लेखक मार्क़िस चाइल्ड्स से मैंने सुना कि डलेस ने विदेश मंत्रालय की ओर से उनसे इस नीति के पक्ष में जनमत बनाने के लिए कहा है. मैंने हम लोगों का उन्हें रुख बताया ओर सलाह दी कि वे इस मामले में धीमी गति से चलें, क्योंकि भारत में इसका गर्मजोशी के साथ स्वागत नहीं किया जायेगा.’
जॉन फ़ॉस्टर डलेस 1950 में अमेरिकी विदेश मंत्रालय के एक शांतिवार्ता-प्रभारी हुआ करते थे. 1953 से 1959 तक वे अमेरिका के विदेशमंत्री भी रहे. फ़िलिप जेसप एक न्यायविद और अमेरिकी राजनयिक थे जो नेहरू से मिल चुके थे. विजयलक्ष्मी पंडित का यह पत्र और 30 अगस्त 1950 को जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिया गया उसका उत्तर कुछ ही समय पहले नयी दिल्ली के ‘नेहरू स्मृति संग्रहालय एवं पुस्तकालय’ (एमएमएमएल) में मिले हैं.
प्रथम प्रधानमंत्री का उत्तर
अपने उत्तर में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा, ‘तुमने लिखा है कि (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट पर से चीन को हटा कर भारत को उस पर बिठाने का प्रयास कर रहा है. जहां तक हमारा प्रश्न है, हम इसका अनुमोदन नहीं करेंगे. हमारी दृष्टि से यह एक बुरी बात होगी. चीन का साफ़-साफ़ अपमान होगा और चीन तथा हमारे बीच एक तरह का बिगाड़ भी होगा. मैं समझता हूं कि (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय इसे पसंद तो नहीं करेगा, किंतु इस रास्ते पर हम नहीं चलना चाहते. हम संयुक्त राष्ट्र में और सुरक्षा परिषद में चीन की सदस्यता पर बल देते रहेंगे. मेरा समझना है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा के अगले अधिवेशन में इस विषय को लेकर एक संकट पैदा होने वाला है. जनवादी चीन की सरकार अपना एक पूर्ण प्रतिनिधिमंडल वहां भेजने जा रही है. यदि उसे वहां जाने नहीं दिया गया, तब समस्या खड़ी हो जायेगी. यह भी हो सकता है कि सोवियत संघ और कुछ दूसरे देश भी संयुक्त राष्ट्र को अंततः त्याग दें. यह (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय को मनभावन भले ही लगे, लेकिन उस संयुक्त राष्ट्र का अंत बन जायेगा, जिसे हम जानते हैं. इसका एक अर्थ युद्ध की तरफ और अधिक लुढ़कना भी होगा.’
सोवियत संघ की अमेरिका से नाराज़गी
लेकिन नेहरू को तत्कालीन सोवियत संघ द्वारा संयुक्त राष्ट्र से मुंह फेर लेने और युद्ध की ओर लुढ़कने की आशंका क्यों थी? शायद इसलिए कि सोवियत संघ जनवरी 1950 से क़रीब आठ महीनों तक सुरक्षा परिषद की बैठकों में भाग नहीं ले रहा था. ऐसा उसने चीन के गृहयुद्ध में कम्युनिस्टों की विजय, और एक अक्टूबर 1949 को वहां उनकी सत्ता स्थापित होने के बाद भी, संयुक्त राष्ट्र में चीन वाली सीट उसे नहीं मिलने के प्रति अपना विरोध जताने के लिए किया था.
सोवियत संघ में उस समय तानाशाह स्टालिन का शासन था. चीन में माओ त्से तुंग की तानाशाही भी कुछ कम निर्मम नहीं थी. दोनों के बीच मतभेद तब तक आरंभिक अवस्था में थे. 25 जून 1950 को चीन के पड़ोसी और उसी के जैसे कम्युनिस्ट देश उत्तर कोरिया ने, ग़ैर-कम्युनिस्ट दक्षिण कोरिया पर हमला कर कोरिया युद्ध छेड़ दिया. सोवियत संघ द्वारा सुरक्षा परिषद का बहिष्कार उस समय भी चल रहा था. उसकी अनुपस्थिति में उसके वीटो का डर नहीं रहने से अमेरिका ने उत्तर कोरिया की निंदा का प्रस्ताव बड़े आराम से पास करवा लिया.
अमेरिका ने भारत में अपना समर्थक देखा
भारत भी उत्तर कोरिया द्वारा यु्द्ध छेड़ने का समर्थन नहीं कर सकता था, इसलिए उसने अमेरिका के प्रस्ताव को अपना समर्थन दिया. अमेरिका को यह बात पसंद आई. उसे लगा कि अन्यथा तटस्थता की पैरवी करने वाले नेहरू कम्युनिस्टों के होश ठिकाने लगाने के प्रश्न पर उसके निकट आ रहे हैं. कोरिया युदध छिड़ने से कुछ ही दिन पहले नेहरू दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ देशों में गये थे. वहां कही उनकी बातें भी अमेरिका को अच्छी लगी थीं.
जनसंख्या की दृष्टि से भारत उस समय भी संसार का दूसरा सबसे बड़ा देश था जो बहुदलीय लोकतंत्र के रास्ते पर चल रहा था. उधर, चीन के नाम वाली सीट पर बिठाया गया छोटा-सा ताइवान एक द्वीप देश था. समझा जाता है कि इन्हीं सब बातों को नापने-तौलने के बाद अमेरिका, सुरक्षा परिषद में ताइवान वाली सीट भारत को दिलवाने का कोई औपचारिक प्रस्ताव रखने से पहले, आश्वस्त होना चाहता था कि भारत भी यही चाहता है या नहीं.
‘चीन की क़ीमत पर नहीं’
अमेरिका को यह सावधानी भी बरतनी थी कि पाकिस्तान को कहीं यह न लगने लगे कि उसके सिर पर से अमेरिका का वरदहस्त उठने जा रहा है और उसके क़ब्ज़े वाला कश्मीर भी शायद उसके हाथ से निकल जायेगा. यह सब सोचे बिना प्रधानमंत्री नेहरू का अनौपचारिक उत्तर था, ‘भारत कई कारणों से सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के सुयोग्य है. किंतु हम इसे चीन की क़ीमत पर नहीं चाहते.’ कहा जाता है कि सोवियत और चीनी साम्यवाद की रोकथाम के लिए बने अमेरिकी सैन्य संगठनों ‘सीएटो’ (साउथ एशिया ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन) और ‘सेन्टो’ (सेन्ट्रल ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन) में 1954-55 में पाकिस्तान की भर्ती के पीछे भी जवाहरलाल नेहरू का यही रुख एक बड़ा कारण था.
नेहरू ने काफ़ी समय तक चीन के प्रति अपनी निजी भावनाओं और अपने निजी आदर्शों को देशहित से ऊपर रखा. उनका कहना था कि चीन एक ‘महान देश’ है, इसलिए उसे उसका उचित स्थान मिलना चाहिये. पता नहीं उन्होंने यह कैसे मान लिया कि महान चीन इतना दीन-हीन भी है कि अपने उचित स्थान के लिए स्वयं लड़ नहीं सकता! यह भला भारत का नैतिक कर्तव्य क्यों होना चाहिये था कि वह स्वयं भूखा रह कर भी चीन को न्याय दिलाने की लड़ाई लड़ता? भारत के स्वतंत्रता संग्राम में चीन ने ऐसा कोई ऐसा योगदान भी नहीं दिया था कि भारत पर उसके प्रति कृतज्ञता जताने का कोई नैतिक दायित्व रहा होता.
तिब्बत पर चीनी आक्रमण
नेहरू और अमेरिका में भारत की राजदूत उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित के बीच यह पत्रव्यवहार जब हुआ था, लगभग उन्हीं दिनों चीन तिब्बत पर आक्रमण की भूमिका रच रहा था. सितंबर 1950 में दलाई लामा का एक प्रतिनिधिमंडल दिल्ली में था. 16 सितंबर के दिन वह दिल्ली में चीनी राजदूत से मिला था. राजदूत ने कहा कि तिब्बत को चीन की प्रभुसत्ता स्वीकार करनी ही पड़ेगी. कुछ ही दिन बाद, सात अक्टूबर को चीनी सेना ने तिब्बत पर धावा बोल दिया. तिब्बत के साथ हुई ज़ोर-ज़बरदस्ती को जानते हुए भी नेहरू मान रह रहे थे कि भारत की चुप्पी-भरी भलमनसाहत का बदला चीन भलमनसाहत से ही देगा.
होना तो यह चाहिये था कि भारत के प्रति अमेरिकी सद्भावना की आहट पाते ही नेहरू एक अभियान छेड़ देते. कहते कि उपनिवेशवाद पीड़ितों, नवस्वाधीन देशों, अविकसित ग़रीब देशों तथा गुटनिरपेक्ष देशों का सुरक्षा परिषद में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है; भारत उनकी आवाज़ बनेगा. वे कहते कि ब्रिटेन और फ्रांस के रूप में अमेरिका के दो यूरोपीय साथी पहले ही सुरक्षा परिषद में विराजमान हैं, सोवियत संघ कम्युनिस्ट देशों के हितरक्षक की भूमिका निभा रहा है, इसलिए एक और कम्युनिस्ट देश चीन के बदले, उससे कुछ ही कम जनसंख्या वाले, कल तक ब्रिटेन का उपनिवेश रहे और अब विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बन रहे भारत को सुरक्षा परिषद की सदस्यता पाने का कहीं अधिक औचित्य बनता है. इसके बदले भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की रट बनी रही कि ‘पहले चीन’, तब भारत.
‘पहले चीन’, तब भारत’
यही रट उन्होंने 1955 में तब भी लगाई, जब तत्कालीन सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन ने, अमेरिका की ही तरह, उनका मन टटोलने के लिए सुझाव दिया कि भारत यदि चाहे तो उसे जगह देने लिए सुरक्षा परिषद में सीटों की संख्या पांच से बढ़ा कर छह भी की जा सकती है. नेहरू ने बुल्गानिन को भी यही जवाब दिया कि कम्युनिस्ट चीन को उसकी सीट जब तक नहीं मिल जाती, तब तक भारत भी सुरक्षा परिषद में अपने लिए कोई स्थायी सीट नहीं चाहता.
बुल्गानिन और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता निकिता ख्रुश्चेव, नवंबर 1955 में पहली बार, एक लंबी यात्रा पर एकसाथ भारत आये थे. दिल्ली के बाद वे पंजाब, कश्मीर, तत्कालीन बंबई, कलकत्ता, मद्रास, बंगलौर और दक्षिण भारत के प्रसिद्ध हिल स्टेशन ऊटी भी गये. बुल्गानिन कोयम्बटूर के एक निकटवर्ती गांव में नारियल-पानी पीने के लिए रुके. उस गांव का नाम ‘बुल्गानिन थोट्टम’ पड़ गया. भारत के प्रति सोवियत लगाव का उस समय इससे बड़ा कोई दूसरा प्रमाण नहीं हो सकता था.
भारत के लिए छठीं सीट
बुल्गानिन ने एक सम्मेलन में कहा, ‘हम सामान्य अंतरराष्ट्रीय स्थिति और तनावों में कमी लाने के बार में बातें कर रहे हैं और यह सुझाव देना चाहते हैं कि भारत को छठे सदस्य के रूप में सुरक्षा परिषद में शामिल किया जा सकता है.’ इस पर नेहरू की प्रतिक्रिया थी, ‘बुल्गानिन शायद जानते हैं कि अमेरिका में कुछ लोग सुझाव दे रहे हैं कि सुरक्षा परिषद में चीन की सीट भारत को दी जानी चाहिये. यह तो हमारे और चीन के बीच खटपट करवाने वाली बात होगी. हम इसके सरासर ख़िलाफ़ हैं. हम कोई आसन पाने के लिए अपने आप को इस तरह आगे बढ़ाने के विरुद्ध हैं, जो परेशानी पैदा करने वाला है और भारत को विवाद का विषय बना देगा.’
नेहरू ने जोर देकर कहा, ‘भारत को यदि सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाया जाता है तो पहले संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संशोधन करना होगा. हमारा समझना है कि ऐसा तब तक नहीं किया जाना चाहिये, जब तक पहले चीन की और संभवतः कुछ दूसरों की सदस्यता का प्रश्न हल नहीं हो जाता. मैं समझता हूं कि हमें पहले चीन की सदस्यता पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिये. (संयुक्त राष्ट्र) चार्टर में संशोधन करने के बारे में बुल्गानिन का क्या विचार है, हमारे विचार से इसके लिए सही समय अभी नहीं आया है.’
स्वयं एक कम्युनिस्ट नेता बुल्गानिन ने जब देखा कि नेहरू अब भी चीन समर्थक राग ही अलाप रहे हैं, तो वे इसके सिवाय और क्या कहते कि ‘हमने सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता का प्रश्न इसलिए उठाया, ताकि हम आपके विचार जान सकें. हम भी सहमत है कि यह सही समय नहीं है, सही समय की हमें प्रतीक्षा करनी होगी.’
नेहरू के उत्तर से अमेरिकी प्रस्ताव की पुष्टि हुई
बुल्गानिन को दिये गये नेहरू के उत्तर से इस बात की फिर पुष्टि होती है कि अमेरिका ने कुछ समय पहले सचमुच यह सुझाव दिया था कि सुरक्षा परिषद में चीन वाली सीट, जिस पर उस समय ताइवान बैठा हुआ था, भारत को दी जानी चाहिये. पुष्टि इस बात की भी होती है कि पहले अमेरिकी सुझाव और बाद में सोवियत सुझाव को भी साफ़-साफ़ ठुकरा कर नेहरू ने उस देशहितकारी दूरदर्शिता का परिचय नहीं दिया, जिसकी अपेक्षा तब वे स्वयं ही करते, जब देश का प्रधानमंत्री उनके बदले कोई दूसरा व्यक्ति रहा होता.
भारत में जो गिने-चुने लोग संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के बारे में अमेरिका और सोवियत संघ के इन दोनों सुझावों को जानते हैं, वे उस समय की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में जवाहरलाल नेहरू की प्रतिक्रिया को सही ठहराते हैं. पर देखा जाए तो नेहरू के जीवनकाल में ही घटी अंतरराष्ट्रीय घटनाओं ने चीन के प्रति उनके मोह या उसके साथ टकराव से बचने की उनकी भयातुरता को अतिरंजित ही नहीं, अनावश्यक भी ठहरा दिया. चीन ने नेहरू के सामने ही न केवल तिब्बत को हथिया लिया और वहां भीषण दमनचक्र चलाया, खुद अपने यहां भी ‘लंबी छलांग’ और उनके निधन के बाद ‘सांस्कृतिक क्रांति’ जैसे सिरफिरे अभियान छेड़ कर अपने ही करोड़ों देशवासियों की अनावश्यक बलि ले ली.
चीन ने भारत को कड़वा सबक सिखाया
नेहरू तो चीन की महानता का गुणगान करते रहे जबकि1962 में उसने भारत पर हमला कर भारत को करारी हार का कड़वा ‘सबक सिखाया.’ इस सबक का आघात डेढ़ साल के भीतर ही नेहरू की मृत्यु का भी संभवतः मुख्य कारण बना. लद्दाख का स्विट्ज़रलैंड जितना बड़ा एक हिस्सा तभी से चीन के क़ब्ज़े में है. अरुणाचल प्रदेश को भी वह अपना भूभाग बताता है. क्षेत्रीय दावे ठोक कर सोवियत संघ और वियतनाम जैसे अपने कम्युनिस्ट बिरादरों से युद्ध लड़ने में भी चीन ने कभी संकोच नहीं किया और अब तो वह ताइवान को भी बलपूर्वक निगल जाने की धमकी दे रहा है.
जो लोग यह कहते हैं कि 1955 में सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन का यह सुझाव हवाबाज़ी था कि भारत के लिए सुरक्षा परिषद में छठीं सीट भी बनाई जा सकती है, वे भूल जाते हैं या नहीं जानते कि चीन में माओ त्से तुंग की तानशाही शुरू होते ही उस समय के सोवियत तानाशाह स्टालिन के साथ भी चीन के संबंधों में खटास आने लगी थी.
रूस और चीन के सैद्धांतिक मतभेद
माओ और स्टालिन कभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हुआ करते थे. स्टालिन की पांच मार्च 1953 को मृत्यु होते ही माओ त्से तुंग अपने आप को कम्युनिस्टों की दुनिया का ‘सबसे वरिष्ठ नेता’ मानने और सोवियत संघ को ही उपदेश देने लगे. दूसरी ओर सोवियत संघ के नये सर्वोच्च नेता निकिता ख़्रुश्चेव, स्टालिन के नृशंस अत्याचारों का कच्चा चिठ्ठा खोलते हुए उस स्टालिनवाद का अंत कर रहे थे जो अब चीन में माओ की कार्यशैली बन चुका था.
1955 आने तक माओ और ख्रुश्चेव के बीच दूरी इतनी बढ़ चुकी थी कि चीन उस समय के पूर्वी और पश्चिमी देशों वाले गुटों के बीच ख्रुश्चेव की ‘शांतिपूर्ण सहअस्तित्व’ वाली नीति को आड़े हाथों लेने लगा था. चीन इसे मार्क्स के सिद्धान्तों को भ्रष्ट करने वाला ‘संशोधनवाद’ बता रहा था. दोनों पक्ष एक-दूसरे की निंदा-आलोचना के नए-नए शब्द और मुहावरे गढ़ रहे थे. एक-दूसरे को ‘पथभ्रष्ट,’ ‘विस्तारवादी’ और ‘साम्राज्यवादी’ तक कहने लगे थे.
भारत में सोवियत संघ को अपना भला दिखा
इस कारण सोवियत नेताओं को इस बात में विशेष रुचि नहीं रह गयी थी कि सुरक्षा परिषद में चीन के नाम वाली स्थायी सीट भविष्य में माओ त्से तुंग के चीन को ही मिलनी चाहिये. वे चीन वाली सीट पर से ताइवान को हटा कर भारत को बिठाने के अमेरिकी प्रयास का या तो विरोध नहीं करते या कुछ समय के लिए विरोध का केवल दिखावा करते.
ताइवान को मिली हुई सीट भारत को देने पर संयुक्त राष्ट्र का चार्टर बदलना भी नहीं पड़ता. संयुक्त राष्ट्र महासभा में दो-तिहाई बहुमत ही इसके लिए काफ़ी होता. चार्टर में संशोधन की बात तभी आती, जब सीटों की संख्या बढ़ानी होती. बुल्गानिन के कहने के अनुसार, सोवियत संघ 1955 में इसके लिए भी तैयार था. यह संशोधन क्योंकि भारत के लिए होता, जिसे अमेरिका खुद ही 1953 तक सुरक्षा परिषद में देखना चाहता था, इसलिए बहुत संभव था कि वह भी संशोधन का ख़ास विरोध नहीं करता.
1950 वाले दशक में संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संशोधन भी, आज की अपेक्षा, आसान ही रहा होता. उस समय आज के क़रीब 200 की तुलना में आधे से भी कहीं कम देश संयुक्त राष्ट्र के सदस्य थे. उन्हें मनाना-पटाना आज जितना मुश्किल नहीं रहा होता. सोवियत नेता भी ज़रूर जानते रहे होंगे– जैसा कि नेहरू ने 1955 में बुल्गानिन से स्वयं कहा भी– कि अमेरिका और उसके छुटभैये ब्रिटेन व फ्रांस भी कुछ ही साल पहले ताइवान को हटा कर उसकी सीट भारत को देना चाहते थे. अतः यह मानने के पूरे कारण हैं कि सोवियत नेता भारत की सदस्य़ता को लेकर गंभीर थे, न कि हवाबाज़ी कर रहे थे.
हेनरी किसिंजर की गुप्त यात्रा
ताइवान 1971 तक चीन वाली सीट पर बैठा रहा. उस साल अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर पाकिस्तान होते हुए नौ जुलाई को गुप्त रूप से बीजिंग पहुंचे. घोषित यह किया गया कि वे अगले वर्ष राष्ट्रपति निक्सन की चीन यात्रा की तैयारी करने गये हैं. बीजिंग में वार्ताओं के समय तय हुआ कि निक्सन की यात्रा से पहले ताइवान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट से हटा कर उसकी सीट कम्युनिस्ट चीन को दी जायेगी. इस निर्णय से यह भी सिद्ध होता है कि अमेरिका 1970 वाले दशक में भी सुरक्षा परिषद को अपनी पसंद के अनुसार उलट-पलट सकता था.
चीन को लाने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में 25 अक्टूबर 1971 को मतदान हुआ. संयुक्त राष्ट्र के उस समय के 128 सदस्य देशों में से 76 ने चीन के पक्ष में और 35 ने विपक्ष में वोट डाले. 17 ने मतदान नहीं किया. दो-तिहाई के अवश्यक बहुमत वाले नियम से प्रस्ताव पास हो गया. ताइवान से न केवल सुरक्षा परिषद में उसकी सीट छीन ली गयी, संयुक्त राष्ट्र की उसकी सदस्यता भी छिन गयी. उसकी सीट पर 15 नवंबर 1971 से चीन का प्रतिनिधि बैठने लगा.
नेहरू ने देशहित की चिंता की होती, तो कम से कम 60 वर्षों से भारत का प्रतिनिधि भी वीटो-अधिकार के साथ वहां बैठ रहा होता. कश्मीर समस्या भी शायद कब की हल हो चुकी होती. सोवियत संघ को भारत की लाज बचाने के लिए दर्जनों बार अपने वीटो-अधिकार का प्रयोग नहीं करना पड़ता.
सुनहरा अवसर हाथ से निकला
आज स्थिति यह है कि भारत चाहे जितनी एड़ी रगड़ ले, वह तब तक सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं बन सकता, जब तक इस परिषद का विस्तार नहीं होता और चीन भी उसके विस्तार तथा भारत की स्थायी सदस्यता की राह में अपने किसी वीटो द्वारा रोड़े नहीं अटकाता. चीन भला क्यों चाहेगा कि वह एशिया में अपने सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी भारत के लिए सुरक्षा परिषद में अपनी बराबरी में बैठने का मार्ग प्रशस्त करे? 1950 के दशक जैसा सुनहरा मौका अब शायद ही दोबारा आए. (satyagrah.scroll.in)
आज भी सीमा विवाद कमोबेश उसी स्थिति में है और यह रहस्य भी...
-राहुल कोटियाल
‘इंडियन डिफेन्स रिव्यू’ में सात मार्च, 2015 को एक लेख छपा. यह लेख मेजर जनरल अफसिर करीम द्वारा लिखा गया था. इसमें उन्होंने भारत को चीन से होने वाले संभावित खतरों की ओर इशारा किया था. उन्होंने लिखा था, ‘अब समय आ गया है जब भारत को अपनी सैन्य क्षमताओं और नीतियों में सुधार करते हुए चीन को जवाब देने के लिए तैयार हो जाना चाहिए.’
15 जून की रात को पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में जो हुआ उसे देखते हुए लगता है कि मेजर करीम ने खतरे को भांप लिया था. उस दिन भारत और चीन के सैनिकों के बीच हुई एक मुठभेड़ में 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए. चीन के भी 43 सैनिकों के मारे जाने या गंभीर रूप से घायल होने की खबरें आईं. हालात फिलहाल तनावपूर्ण बने हुए हैं.
लेकिन यदि भारत और चीन के राजनीतिक संबंधों को देखें तो स्थिति कुछ अलग नजर आती है. अपने छह साल के कार्यकाल के दौरान अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ 18 बार मुलाकात कर चुके हैं. इनमें से कुछ तो बेहद गर्मजोशी भरे माहौल में हुई हैं.
ऐसा ही कुछ 1962 में भी हुआ था. उस वक्त भी हालात कमोबेश आज जैसे ही थे. सीमा पर जो क्षेत्र तब विवादास्पद थे वे आज भी वैसे ही हैं. तब भी कुछ सैन्य विशेषज्ञ चीन से संभावित खतरों के लिए चेतावनी दे रहे थे, जिन्हें तब भी नजरअंदाज किया जा रहा था. राजनीतिक यात्राएं और वार्ताएं तब भी जारी थीं. बल्कि उस दौर में तो ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ जैसे नारे भी खूब गूंजा करते थे. लेकिन तभी चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया. इसीलिए 1962 का वह युद्ध आज तक एक रहस्य ही बनकर रह गया है.
बीते पचास सालों में आई कई रिपोर्टों और किताबों के जरिये 1962 के युद्ध को समझने में थोड़ी बहुत मदद जरूर मिलती है. लेकिन पक्के तौर पर आज भी नहीं कहा जा सकता कि चीनी हमले की वजह क्या थी. इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में काफी विस्तार से उन परिस्तिथियों का जिक्र किया है जिनके चलते पंडित जवाहरलाल नेहरु और तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ की दोस्ती धीरे-धीरे फीकी पड़ी और अंततः दोनों देश युद्ध में उलझ गए. भारत और चीन के बीच तिब्बत का मसला कैसे आया
तिब्बत के धर्म गुरू 1956 में भारत की आधिकारिक यात्रा पर आए थे और माना जाता है इस यात्रा ने उनके और नेहरू के बीच समझ बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
इन परिस्थितियों की शुरुआत गुहा ने 1950 के दशक के तिब्बत से की है. तिब्बत में चीनी सैनिकों का हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा था. इसके विरोध में 1958 में पूर्वी तिब्बत के खम्पा लोगों ने सशत्र विद्रोह छेड़ दिया. शुरुआत में खम्पा लोगों को कुछ सफलता भी मिली लेकिन अंततः चीनी सैनिकों ने विद्रोहियों को समाप्त कर दिया. इसके बाद दलाई लामा को भी धमकियां मिलने लगीं. उन पर खतरा बढ़ गया था. ऐसे में उन्होंने भारत में शरण लेने का मन बनाया. भारत उन्हें शरण देने को तैयार हो गया. प्रधानमंत्री नेहरू से मिलकर दलाई लामा ने उन्हें खम्पा विद्रोह के बारे में जानकारी दी. नेहरू ने दलाई लामा को बताया कि भारत तिब्बत की आज़ादी के लिए चीन से युद्ध नहीं कर सकता. साथ ही नेहरू ने यह भी कहा कि ‘सारी दुनिया मिलकर भी तिब्बत को आज़ाद नहीं करवा सकती जब तक कि चीन ही पूरी तरह से नष्ट न हो जाए.’
इस वक्त तक भारत और चीन के संबंध और कारणों से भी बिगड़ने लगे थे. इसी समय भारत सरकार को सूचनाएं मिलने लगीं कि चीन सीमा के नजदीक बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण कर रहा है. जुलाई, 1958 में चीन की एक सरकारी पत्रिका ‘चाइना पिक्टोरिअल’ में कुछ विवादास्पद नक़्शे छापे गए. इन नक्शों में नेफा (नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी यानी आज का अरुणाचल प्रदेश) और लद्दाख के बड़े इलाके को चीन का हिस्सा दिखाया गया था. दिसंबर 1958 में जवाहरलाल नेहरू ने चीनी प्रधानमंत्री को इस संबंध में एक पत्र लिखा. इन नक्शों में जिस तरह से भारतीय इलाकों को चीन का हिस्सा दिखाया गया था उस पर नेहरू ने अपना विरोध दर्ज करते हुए लिखा था जब 1956 में उन दोनों की मुलाकात हुई थी तो चीनी प्रधानमंत्री ने मैकमोहन लाइन को स्वीकारते हुए मान्यता देने की बात कही थी. तब दोनों इस बात पर भी सहमत थे कि भारत और चीन के बीच कोई भी बड़ा सीमा विवाद नहीं है.
भारत के प्रधानमंत्री को एक महीने बाद ही जवाबी पत्र मिल गया. जवाब में चाऊ इन लाइ ने कहा कि मैकमोहन लाइन ब्रितानी हुकूमत की विरासत है जिसे चीन कभी भी मान्यता नहीं दे सकता. साथ ही उन्होंने कहा कि भारत और चीन के बीच हमेशा से रहे सीमा विवाद को कभी सुलझाया नहीं गया था. 22 मार्च, 1959 को नेहरू ने एक और पत्र लिखकर इस बात के कई प्रमाण दिए कि चीनी नक्शों में दर्शाए गए इलाके दरअसल भारत के अभिन्न अंग हैं. साथ ही उन्होंने अपने इस पत्र में यह भी उम्मीद जताई कि जल्द ही दोनों देशों इन मसलों पर किसी सहमति पर पहुंच जाएंगे. नेहरू के इस पत्र का जवाब आ पाता उससे पहले ही दलाई लामा भारत आ गए.
यहां से भारत और चीन के रिश्ते और भी ज्यादा बिगड़ने लगे. चीन ने आरोप लगाया कि भारत-चीन संबंधों को बिगाड़ने की पहल भारत की ओर से की जा रही है. भारतीय जनता का चीन के खिलाफ होना और सेना का असमंजस इसी दौरान मुंबई में भी एक घटना हुई जिसके कारण चीन को भारत पर निशाना साधने के कुछ और कारण मिल गए. मुंबई स्थित चीनी महावाणिज्य दूतावास के कार्यालय की दीवार पर कुछ प्रदर्शनकारियों ने माओ त्से तुंग की तस्वीर टांगकर उस पर अंडे और टमाटर फेंके. चीन ने इस घटना पर नाराजगी जताते हुए चेतावनी दी कि यदि भारत इस घटना पर उचित कार्रवाई नहीं करता तो इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं.
सेना के अधिकारियों के साथ जवाहरलाल नेहरू
भारत-चीन सम्बन्ध जिस तेजी से सीमा पर बिगड़ रहे थे लगभग उसी गति से भारतीय जनता में भी चीन के खिलाफ माहौल बन रहा था. विपक्षी पार्टियों के दबाव में भारत सरकार ने सितंबर, 1959 को एक श्वेत पत्र जारी किया. इसमें पिछले पांच वर्षों में चीन से हुए पत्राचार का पूरा ब्यौरा था. इस श्वेतपत्र के सार्वजनिक होने से भारतीय जनता को चीन द्वारा सीमा पर की जा रही गतिविधियों की पूरी जानकारी मिल गई. रामचंद्र गुहा अपनी किताब में लिखते हैं, ‘यदि यह श्वेतपत्र जारी नहीं हुआ होता तो भारत-चीन सीमा विवाद को राजनीतिक या कूटनीतिक स्तर पर भी सुलझाया जा सकता था. लेकिन इनके सार्वजनिक होने के बाद जनता में चीन के प्रति आक्रोश था और तब राजनीतिक हल ढूंढना चीन के सामने घुटने टेकने जैसा हो गया था.’
उस दौर में वीके कृष्णा मेनन केन्द्रीय रक्षा मंत्री थे. वे प्रधानमंत्री के काफी करीबी माने जाते थे. लेकिन तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल केएस थिमैया से उनके सम्बन्ध अच्छे नहीं थे. जनरल थिमैया का मानना था कि उनकी सेना को चीन से होने वाले हमले के लिए तैयार रहना चाहिए. लेकिन रक्षामंत्री मेनन उनकी बात को नज़रंदाज़ करते रहे. मेनन को लगता था कि भारत को असल खतरा चीन से नहीं बल्कि पकिस्तान से है इसीलिए सेना का बड़ा हिस्सा पाकिस्तानी सीमाओं पर ही तैनात था. रक्षामंत्री और सेनाध्यक्ष के बीच यह तनाव आगे जा कर और बढ़ गया. अगस्त, 1959 में मेनन ने बीएम कौल नाम के एक अधिकारी को लेफ्टिनेंट जनरल नियुक्त कर दिया. कौल को इस पद पर लाने के लिए उनसे वरिष्ठ 12 अधिकारियों को नज़रंदाज़ किया गया था. जनरल थिमैया ने इसके विरोध में प्रधानमंत्री को अपना इस्तीफ़ा भेज दिया. हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू ने जनरल थिमैया को इस्तीफ़ा देने से तो रोक लिया लेकिन इस घटना से सारे देश में रक्षामंत्री के खिलाफ माहौल बन गया. उन पर पहले से भी वामपंथी समर्थक होने के कारण चीन के प्रति सहानुभूति रखने के आरोप लगते रहते थे.
1959 में भी भारत-चीन सीमा पर दोनों सेनाओं के बीच झड़प की कई घटनाएं हुईं. इस समय दोनों देशों के बीच पत्राचार भी लगातार चल रहा था. 1960 में नेहरू ने चाऊ एन लाई को भारत आने का न्योता दिया. इससे पहले जब 1956 में चीनी प्रधानमंत्री भारत आ चुके थे. तब उनका बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया गया था. लेकिन 1960 में हालात बिलकुल अलग थे. हिन्दू महासभा ने चाऊ एन लाई के विरोध में काले झंडे दिखाए. जहां 1956 में उनकी भारत यात्रा के दौरान ‘हिंदी-चीनी भाई भाई’ जैसे नारे दिए गए थे वहीं इस बार यह नारे बदलकर ‘हिंदी-चीनी बाय बाय’ हो चुके थे. चाऊ एन लाई की इस यात्रा के बाद भी भारत-चीन सीमा विवाद जस का तस ही बना रहा. दोनों देश इस यात्रा और बातचीत के बाद भी किसी सहमति तक नहीं पहुंच पाए. युद्ध की शुरुआत और अंत 1962 के मई-जून में अचानक सीमा पर गोलीबारी की घटनाएं बढ़ गईं. चीनी सेना की कई टुकड़ियां भारतीय सीमा के भीतर घुस आईं. भारतीय सेना के पास इनका मुकाबला करने के लिए न तो पर्याप्त हथियार थे और न ही सैनिक. युद्ध के बीच में ही जनरल कौल छाती में दर्द होने के कारण सीमा से लौट कर दिल्ली आ गए. बिना किसी नेतृत्व के सेना के जवान पांच दिनों तक लड़ते रहे जिसके बाद नेफा के तवांग के इलाके पर भी चीन कब्ज़ा हो गया. रक्षामंत्री मेनन को आखिरकार मंत्रिमंडल से निकाल दिया गया और भारत अब अमरीकी मदद लेने की दिशा में बढ़ने लगा.
अब तक चीनी सैनिक नेफा में इतना आगे बढ़ चुके थे कि जल्द ही असम के भी उनके हाथ में जाने का खतरा पैदा हो गया. उधर दिल्ली और मुंबई के भर्ती केन्द्रों पर हजारों युवा सेना में भर्ती होने को तैयार थे. लेकिन 22 नवंबर को अचानक ही चीन ने युद्धविराम की घोषणा कर दी. इस युद्ध का अंत भी इसकी शुरुआत की ही तरह एक रहस्य था. नेफा में चीन ने अपने सैनिकों को मैकमोहन लाइन से पीछे कर लिया और लद्दाख क्षेत्र में भी वह उस स्थिति में वापस लौट गए जो युद्ध से पहले थी.
चीन ने अचानक ही अपने सैनिकों को वापस बुलाकर युद्धविराम की घोषणा क्यों की? इस सवाल के जवाब में भी सिर्फ कयास ही लगाए जाते रहे हैं. कुछ लोगों का मानना है कि चीन इसलिए घबरा गया था कि अब वामपंथी पार्टियों समेत भारत की सभी विपक्षी पार्टियां सरकार के साथ एकजुट होकर चीन का विरोध कर रहीं थी. अमरीका और ब्रिटेन का भारत को समर्थन करना और हथियार भेजना भी एक कारण माना जाता है जिसने चीन को युद्धविराम पर मजबूर कर दिया था. वहीं एक तर्क यह भी दिया जाता रहा है कि सर्दियों में वह सारा इलाका बर्फ से ढक जाता है. ऐसे में चीन ज्यादा समय तक अपने सैनिकों को मदद नहीं पहुंचा सकता था इसलिए उसके पास लौट जाने का ही विकल्प बचा था.
रामचंद्र गुहा के अनुसार, ‘इस युद्ध के अंत को तो फिर भी कुछ हद तक समझा जा सकता है लेकिन इसकी शुरुआत को समझना बेहद जटिल है. चीन की तरफ से कभी-भी कोई श्वेतपत्र जारी नहीं किया गया. लेकिन इस युद्ध के बारे में यह जरूर कहा जा सकता है कि इतने सुनियोजित आक्रमण के पीछे कई साल का अभ्यास रहा होगा. इस युद्ध का समय भी चीन के लिए बिलकुल सटीक था. उस वक्त विश्व की दोनों महाशक्तियां - सोवियत संघ व अमेरिका और इनके साथ ही संयुक्त राष्ट्र, क्यूबा के मिसाइल संकट में उलझे हुए थे. इस कारण चीन को बिना किसी डर के कुछ दुस्साहसिक करने की छूट मिल गई थी.’(satyagrah.scroll.in)
लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी सैनिकों के साथ संघर्ष में भारतीय जवानों की मौत के ख़िलाफ़ बुधवार को भारत के अलग-अलग राज्यों में विरोध प्रदर्शन हुए।
पश्चिम बंगाल के एक प्रमुख औद्योगिक शहर सिलीगुड़ी में स्थानीय व्यापारियों ने मशहूर हॉन्गकॉन्ग मार्केट का नाम बदलने का भी फैसला किया।
यही हाल गुजरात के अहमदाबाद शहर का भी रहा। सोशल मीडिया पर एक वीडियो तेजी से वायरल हो रहा है जिसमें जनता चीन की कंपनी के टीवी को तोड़ते दिखाई दे रही है।
दिल्ली में कॉन्फ़ेडरेशन ऑफ आल इंडिया ट्रेडर्स ने भारतीय सामान हमारा अभिमान के नाम से नया कैंपेन लॉन्च कर दिया। इसके साथ ही फिल्मी सितारों से अपील की गई है कि वो चीनी सामान के विज्ञापन ना करें।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार चीनी मोबाइल कंपनी ओपो ने बुधवार को भारत में ऑनलाइन लॉन्चिंग कार्यक्रम रद्द कर दिया।
चीनी सामान को बाय-बाय कहना कितना संभव
क्या मेड इन चाइना को एक झटके में ऐसे बाय-बाय बोला जा सकता है?
इसको जानने और समझने के लिए ये जानना ज़रूरी है कि चीन, भारत को क्या बेचता है। और चीन भारत से क्या खऱीदता है।
चीन, भारत को जो चीज़ें बेचता है, वो हैं-
मशीनरी, टेलिकॉम उपकरण, बिजली से जुड़े उपकरण, ऑर्गैनिक केमिकल्स यानी जैविक रसायन और खाद।
भारत के रसोई घर, बेडरूम में, एयर कंडीशनिंग मशीनों की शक्ल में, मोबाइल फोन और डिजिटल वैलेट के रूप में चीन कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में मौजूद है।
कुछ नया मिला, कुछ सस्ता मिला और बहुत सुंदर मिल जाए जब हर ग्राहक की माँग ये होती है, तो व्यापारी के पास चीनी सामान के अलावा दूसरा विकल्प नहीं होता।
इसलिए चाहे दिल्ली का सदर बाजार हो या पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी का हॉन्गकॉन्ग मार्केट, सभी चीनी सामान से पटे पड़े होते हैं।
एक सच्चाई ये भी है कि चीनी स्मार्टफ़ोन ओप्पो, श्याओमी जैसे ब्रैंड्स भारत में हर दस में से आठ बिकने वाले स्मार्टफोन हैं।
ऐसे में जब भारतीय मीडिया में केंद्र सरकार के सूत्रों के हवाले से ये ख़बर चलती है कि बीएसएनएल और एमटीएनएल को आदेश दिया गया है कि 4 फीसदी के लिए चीनी उपकरणों का इस्तेमाल रोका जाए, तो एक सवाल तो उठता है कि वास्तव में ये कितना संभव है। इसलिए जान लीजिए कि चीन का भारत में निवेश कितना है।
चीनी निवेश
चीन ने भारत में छह अरब डॉलर से भी ज़्यादा का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कर रखा है जबकि पाकिस्तान में उसका निवेश 30 अरब डॉलर से भी ज़्यादा का है।
मुंबई के विदेशी मामलों के थिंक टैंक गेटवे हाउसने भारत में ऐसी 75 कंपनियों की पहचान की है जो ई-कॉमर्स, फिनटेक, मीडिया/सोशल मीडिया, एग्रीगेशन सर्विस और लॉजिस्टिक्स जैसी सेवाओं में हैं और उनमें चीन का निवेश है।
इसकी हालिया रिपोर्ट में जानकारी सामने आई है कि भारत की 30 में से 18 यूनिकॉर्न में चीन की बड़ी हिस्सेदारी है। यूनिकॉर्न एक निजी स्टार्टअप कंपनी को कहते हैं जिसकी कीमत एक अरब डॉलर है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि तकनीकी क्षेत्र में निवेश की प्रकृति के कारण चीन ने भारत पर अपना कब्जा जमा लिया है।
उदाहरण के लिए, बाइटडांस, टिकटॉक की मूल कंपनी है, जो चीन की है और यह यूट्यूब के मुकाबले भारत में काफी लोकप्रिय है।
सामरिक चीनी निवेश पर भारत सरकार थोड़ा सतर्क थी। हाल ही में उसने अपनी नई प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) नीति को यह कहकर टाल दिया कि भारत के साथ ज़मीनी सीमा से जुड़े देशों के सभी निवेशों को निवेश से पहले मंजूरी की आवश्यकता होगी।
कारोबार में चीन को ज़्यादा फ़ायदा
भारत और चीन के बीच कारोबार में किस तरह बढ़ोतरी हुई है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इस सदी की शुरुआत यानी साल 2000 में दोनों देशों के बीच का कारोबार केवल तीन अरब डॉलर का था जो 2008 में बढक़र 51.8 अरब डॉलर का हो गया।
इस तरह सामान के मामले में चीन अमरीका की जगह लेकर भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया।
2018 में दोनों देशों के बीच कारोबारी रिश्ते नई ऊंचाइयों पर पहुँच गए और दोनों के बीच 95.54 अरब डॉलर का व्यापार हुआ।
कारोबार बढ़ रहा है, इसका यह मतलब नहीं है कि फ़ायदा दोनों को बराबर हो रहा है।
भारतीय विदेश मंत्रालय के वेबसाइट के मुताबिक, 2018 में भारत चीन के बीच 95.54 अरब डॉलर का कारोबार हुआ लेकिन इसमें भारत ने जो सामान निर्यात किया उसकी क़ीमत 18.84 अरब डॉलर थी।
इसका मतलब है कि चीन ने भारत से कम सामान खऱीदा और उसे चार गुने से भी ज़्यादा सामान बेचा। ऐसे में इस कारोबार में चीन को फ़ायदा अधिक हुआ है।
चीन में भारत का सामान
भारत चीन को मुख्य रूप से जो चीज़ें बेचता है, वो हैं- कॉटन यानी कपास, कॉपर यानी तांबा, हीरा और अन्य प्राकृतिक रत्न, दवाइयां, आईटी सेवाएं, इंजीनियरिंग सेवाएं।
इसके अलावा चावल, चीनी, कई तरह के फल और सब्जिय़ां, मांस उत्पाद, सूती धागा और कपड़ा भी भारत बेचता है।
यहाँ एक और बात जो ध्यान देने वाली है वो ये कि कई सामान जो हम दूसरे देशों को बेचते हैं उनके लिए कच्चा माल भी हम चीन से खऱीदते हैं जैसे दवाइयाँ।
लेकिन ये भी सच है कि चीन और भारत के व्यापार में संतुलन की कमी है। भारत को अगर किसी देश के साथ सबसे ज़्यादा कारोबारी घाटा हो रहा है तो वह चीन ही है।
यानी भारत, चीन से सामान ज़्यादा खऱीद रहा है और उसके मुक़ाबले बेच बहुत कम रहा है।
2018 में भारत को चीन के साथ 57.86 अरब डॉलर का व्यापारिक घाटा हुआ।
साफ़ है कि चीनी सामान को बाय-बाय करने के पहले भारत को उनके दूसरे सस्ते विकल्प तलाशने पड़ेंगे। (बीबीसी)
आजकल चीन के उत्पादों के बहिष्कार का अभियान चल रहा है। कहा जा रहा है कि भारत के बाजार चीन के सस्ते उत्पादों से भरे हुए हैं और यह हमारे देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान कर रहे हैं। इसी प्रसंग पर मुझे याद आ गया कि एक जमाना वह भी था जब हम चीन को सॉफ्टवेयर यानी जीने का तरीका निर्यात किया करते थे। और मुझे याद आ गए विमलकीर्ति जिन्हें उनके शहर में भी बहुत कम लोग जानते हैं।
यह तस्वीर विमलकीर्ति की है। देखकर समझा जा सकता है कि इसे किसी चीनी पेंटर ने तैयार किया है। चीनी और जापान में उनके लिखे निर्देश सूत्र काफी पॉपुलर हैं। महायान और जेन बुद्धिज्म पर उनके शून्यवाद की गहरी छाप है। और तो और वहां के मठ के कमरे भी उसी आकार के बनते हैं, जिस आकार का कमरा विमलकीर्ति का था।
ह्वेनसांग जब भारत की यात्रा पर आए थे तो खास तौर पर विमलकीर्ति का घर देखने के लिए वैशाली गए थे। वहां ध्वस्त पड़े उनके कमरे का आकार उन्होंने मापा था और तभी से चीन में बौद्ध भिक्षु इसी आकार का यानी 10 बाई 10 फुट का कमरा बनाने लगे। जबकि मुझे नहीं लगता कि वैशाली में भी विमलकीर्ति को लोग ठीक से जानते होंगे।
विमलकीर्ति कोई बौद्ध भिक्षु नहीं थे। वे बुद्ध के समकालीन एक समृद्ध गृहस्थ थे। एक बार जब वे बीमार पड़े तो बड़ी संख्या में लोग उनकी बीमारी का हाल चाल पूछने उनके घर पहुंचने लगे। इस अवसर का लाभ उठाकर वे मिलने वालों को बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को अपने तरीके से बताने लगे। उनके निर्देशों में मौन का बड़ा महत्व बताया जाता है। कहते हैं इसी से शून्यवाद का जन्म हुआ। खासकर बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने इसे दुनिया भर में प्रतिष्ठा दिलाई। उनके निर्देशों की खासियत यह थी कि यह मठों में रहने वाले बौद्धों के साथ साथ गृहस्थों के लिए भी उतनी ही उपयोगी थी। इसी वजह से चीन और जापान के आम पारिवारिक बौद्धों ने इसे अपनाया।
जब विमलकीर्ति उपदेश दे रहे थे तब बुद्ध ने अपने दस प्रमुख शिष्यों को उन्हें सुनने के लिये बारी बारी से भेजा। मगर दसों ने उनके निर्देशों को अपूर्ण बताया। बाद में उन्होंने बौद्ध साधिका मंजूश्री को भेजा। उन्हें विमलकीर्ति की बातें पसंद आईं। विमलकीर्ति और मंजूश्री का वार्तालाप काफी महत्वपूर्ण माना जाता है।
विमलकीर्ति के अलावा नागार्जुन, कुमारजीव, बोधिधर्म जैसे कई भारतीय बौद्ध दार्शनिकों का चीन की संस्कृति पर गहरा प्रभाव रहा है। बोधिधर्म तो वहां के मार्शल आर्ट के भी संस्थापक माने जाते हैं। भले ही आज चीन में बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या 20 फीसदी से कम ही है। मगर फिर भी यह काफी बड़ी संख्या है। और जो लोग बौद्ध धर्म को नहीं मानते उनपर भी इस धर्म और इसके बहाने भारतीय दर्शन का गहरा प्रभाव है।
दिलचस्प है कि जिस बौद्ध धर्म ने पूरे एशिया में भारतीय विचारों को स्थापित किया, जिसे लाइट ऑफ एशिया कहा जाता है, वह भारत में ही धीरे धीरे क्षीण हो गया। आज हम ताइवान द्वारा बनाये गए राम और ड्रेगन की तस्वीर को देख कर खुश होते हैं। मगर सम्राट अशोक के धम्म विजय अभियान को भूल जाते हैं। जिनकी वजह से पूरे एशिया में हमारे विचारों की जीत हुई थी। उसे स्वीकारा गया था। कहते हैं चीन के शासकों ने भारत से बौद्ध भिक्षुओं का अपहरण करवा लिया था, ताकि वे बुद्ध के विचारों से अवगत हो सकें।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जैसा कि मैंने कल ही लिखा था कि गलवान घाटी में हुए हमारे सैनिकों के हत्याकांड पर हमारी सरकार चुप क्यों है ? वह अभी तक चुप है। देर रात सिर्फ यह बताया गया कि हमारे 20 फौजी मारे गए और कुछ घायल भी हुए। चीनी सैनिक कितने हताहत हुए, इसके बारे में कोई आधिकारिक आंकड़ा अभी तक सामने नहीं आया है लेकिन भारतीय चैनल और अखबार अंदाज लगा रहे हैं कि चीन के 40 से अधिक फौजी मारे गए हैं।
मरने वाले चीनियों की संख्या दुगुनी है, इस खबर से हमारे घावों पर थोड़ा मरहम जरुर लग सकता है लेकिन एक बात पक्की है। वह यह कि सीमांत पर डटे हुए दोनों देशों के फौजियों के सोच में और दोनों देशों के नेताओं के सोच में काफी फर्क मालूम पड़ रहा है। हमारे नेता तो चुप हैं लेकिन चीनी नेता भी कुछ नहीं बोल रहे हैं। दोनों तरफ के प्रवक्ता जरुर बोल रहे हैं। दोनों एक-दूसरे के फौजियों पर सीमा के उल्लंघन का आरोप लगा रहे हैं।
यदि यह घटना बिल्कुल ऐसी ही है तो दोनों देशों की सरकारें इसे दुर्भाग्यपूर्ण दु:संयोग कह कर आपस में बातचीत शुरू कर सकती हैं। यह मामला इतना गंभीर है कि भारत के प्रधानमंत्री और चीन के राष्ट्रपति को कल ही बात कर लेनी चाहिए थी। यदि कोरोना या अन्य छोटे-मोटे अवसरों के बहाने विदेशी नेताओं से हमारी बातें होती रहती हैं तो यह मुद्दा ऐसा है कि इस पर पूरा भारत उबलने लगा है।
कोरोना के संकट में सरकार पहले से ही बेहाल है, अब विपक्ष को 56 इंच के सीने पर हमला बोलने का नया बहाना मिल गया है। यदि सरकार यह मानती है कि गलवान घाटी के इस कांड के पीछे चीन के शीर्ष नेतृत्व का हाथ है और उसे इसका कोई पश्चाताप नहीं है तो अब उसे विदेश नीति पर एक नई धार चढ़ाने की जरुरत है। चीन से सरकारी स्तर पर व्यापारिक और कूटनीतिक संबंध तो ज्यों के त्यों बनाए रखे जाएं लेकिन जनता सोच-समझकर चीनी माल का बहिष्कार शुरु करे। हम हांगकांग, तिब्बत, ताइवान और सिंक्यांग (उइगर मुसलमानों) का मामला भी उठाएं। ब्रिक्स, एससीओ और आरआईसी जैसे तीन-चार राष्ट्रों के संगठनों में भी, जहां भारत और चीन उनके सदस्य हैं, भारत अपना तेवर तीखा रखे।
पड़ौसी राष्ट्रों को ‘रेशम महापथ’ के जाल में फंसने और चीन के कर्जदार होने से बचाए। दलाई लामा पर लगे सभी प्रतिबंध हटाए। चीन यदि अरुणाचल को खुद का बताता है तो हम तिब्बत, सिंक्यांग और इनर मंगोलिया को आजाद करने की बात क्यों नहीं कहें? चीन यदि हमारे अरुणाचलियों को वीज़ा नहीं देता है तो हम तिब्बत, सिंक्यांग और इनर मंगोलिया के हान चीनियों को वीजा देना बंद करें। भारत में चीन ने 26 बिलियन डॉलर की पूंजी लगा रखी है। उसे हतोत्साहित किया जाए। लेकिन इस तरह के उग्र कदम उठाने के पहले हमारे विदेश मंत्रालय को चीन के असली इरादों की पहचान जरूर होनी चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत और चीन के सैनिकों की बीच हुई मुठभेड़ और उसके कारण हताहतों की खबर ने देश के कान खड़े कर दिए। यह मुठभेड़ में तीन भारतीय फौजी मारे गए और माना जा रहा है कि चीन के चार या पांच फौजी मारे गए। आश्चर्य की बात यह है कि ये मौतें तो हुईं लेकिन उन जवानों के बीच हथियारों का इस्तेमाल नहीं हुआ, गोलियां नहीं चलीं, तोपें नहीं दागी गईं लेकिन दोनों तरफ के जवान मारे गए। तो क्या उन लोगों के बीच हाथापाई हुई ?
क्या उन लोगों ने एक-दूसरे का दम घोट दिया या गलवान घाटी में धक्का दे दिया। आखिर हुआ क्या, यह शाम तक पता नहीं चला। यह मुठभेड़ 5-6 मई को धक्का-मुक्की से ज्यादा खतरनाक सिद्ध हुई है। भारतीय टीवी चैनलों को चीनी सैनिकों के मरने की खबर चीनी अखबार ‘ग्लोबल टाईम्स’ से मिली। उसके संपादक ने ट्वीट करके यह बताया और यह खबर भी दी कि चीन इस मामले को तूल नहीं देना चाहता है। वह बातचीत जारी रखेगा।
वैसे ‘ग्लोबल टाईम्स’ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का ऐसा अखबार है, जो बेहद आक्रामक और बड़बोला है लेकिन आज उसका स्वर थोड़ा नरम मालूम पड़ रहा है ? इससे क्या अंदाज लगता है? क्या यह नहीं कि गलवान घाटी के आसपास जो दुखद घटना घटी है, उसमें ज्यादती चीन की तरफ से हुई होगी। यह घटना रात को घटी है। अभी तक पता नहीं चला है कि यह कितने बजे हुई, ठीक-ठाक कहां हुई और उसका तात्कालिक कारण क्या था ?
इतने घंटे बीत जाने पर भी भारत सरकार की कोई दो-टूक प्रतिक्रिया इस घटना पर अभी तक क्यों नहीं आई ? हमारे रक्षामंत्री, विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री अभी आपस में विचार कर रहे हैं कि इस घटना के बारे में सार्वजनिक रूप से क्या कहा जाए ? इससे जाहिर होता है कि दोनों देशों की सरकारें इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर संयत रुख अपनाना चाह रही हैं। दोनों देशों की सरकारें अपने-अपने राजदूतों से अब तक सारा विवरण ले चुकी होंगी।
शायद दोनों सरकारें बहुत ही सम्हलकर अपनी प्रतिक्रियाएं देना चाह रही होंगी, क्योंकि पिछले कई दशकों से भारत-चीन सीमा पर ऐसी हिंसक घटनाएं नहीं घटीं, जबकि दोनों देशों के सैनिक एक-दूसरे की सीमाओं में भूल-चूक से आते-जाते भी रहे।
दोनों तरफ के फौजियों और राजनयिकों के बीच बातचीत से जो मामला सुलझता हुआ लग रहा था, वह अब थोड़ा मुश्किल में जरूर पड़ जाएगा लेकिन दोनों देश इस दुर्घटना को किसी बड़ी मुठभेड़ का रुप नहीं देना चाहेंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
भारत और चीन के सैनिकों के बीच इससे पहले कोई बड़ी झड़प सितंबर 1967 में हुई थी। सिक्किम के नाथूला में हुई इस झड़प में 88 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे जबकि चीन के 300 से भी ज्यादा सैनिक मारे गए थे। इसके बाद से दोनों देशों के बीच सीमा पर अपेक्षाकृत शांति ही रही। लेकिन 15 जून की रात यह स्थिति बदल गई। पूर्वी लद्दाख में दोनों देशों के सैनिकों बीच खूनी झड़प हुई। इसमें 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए। 43 चीनी सैनिकों के भी हताहत होने की खबरें आईं।
इस खबर ने सबको चौंका दिया। इसकी वजह यह थी कि इससे ठीक पहले तक दोनों देशों की सेनाओं के बीच पीछे हटने पर आपसी सहमति की खबरें आ रही थीं। सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवणे ने भी कहा था कि हालात काबू में हैं। लेकिन ताजा घटना ने हालात फिर गरमा दिए हैं।
असल में भारत और चीन के बीच लद्दाख से सटी सीमा को लेकर पिछले कुछ समय से तनाव चल रहा था। इससे पहले भी इस इलाके में दोनों पक्षों के बीच हिंसक झड़पों की खबर आई थी। लेकिन उसके बाद शांति बहाली के प्रयास शुरू हुए और कुछ ही दिन पहले चीन का बयान आया कि दोनों देश सीमा विवाद को लेकर एक सकारात्मक सहमति तक पहुंच गए हैं। इसके बाद पूर्वी लद्दाख के कई सीमाई इलाकों में दोनों देशों की सेनाओं के आपसी सहमति से दो से ढाई किमी पीछे हटने की भी खबर आई थी।
चीन ने आरोप लगाया है कि दो भारतीय सैनिक उसके इलाके में घुस गए थे जिसके बाद तनाव शुरू हुआ। उसका यह भी कहना है कि भारत को कोई एकपक्षीय कार्रवाई करते हुए माहौल बिगाडऩे की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उधर, भारत ने चीन के आरोप को खारिज किया है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने कहा है कि चीनी सेना यथास्थिति को एकपक्षीय तरीके से बदलने की कोशिश कर रही थी।
भारत और चीन के बीच करीब साढ़े तीन हजार किलोमीटर लंबी सीमा है। बीते कुछ समय से लद्दाख में दोनों देशों की सेनाओं का जमावड़ा बढ़ा है। सैटेलाइट तस्वीरों से पता चला है कि चीन लद्दाख के पास एक एयरबेस का विस्तार कर रहा है। तस्वीरों से यह भी खुलासा होता है कि चीन ने वहां लड़ाकू विमान भी तैनात किए हैं। इसके बाद भारत ने भी इस इलाके में अपनी सैन्य मौजूदगी बढ़ाई है।
मई से इस इलाके में लगातार दोनों पक्षों के बीच झड़पों की खबरें आ रही थीं। इसके साथ-साथ दोनों की तरफ से शांति बहाली की कोशिशें भी चल रही थीं। ले। जनरल स्तर तक के अधिकारी आपस में बात कर रहे थे। इसके बाद सहमति बन गई थी कि दोनों तरफ से सैनिक टकराव वाली जगहों से पीछे हटेंगे और बीच में एक बफर जोन रहेगा। इसे नो मैन्स लैंड भी कहा जाता है। इसके बाद सैनिकों के पीछे हटने की शुरुआत भी हो गई थी।
शांति की इसी प्रक्रिया के तहत सोमवार सुबह दोनों देशों के कमांडिंग अफसर स्तर के अधिकारियों की बातचीत हुई थी। भारत की तरफ से कर्नल संतोष बाबू इसमें शामिल हुए थे। शाम को कर्नल दो जवानों के साथ गलवान नदी के किनारे पीपी-14 नाम के उस इलाके में पहुंचे जहां से आपसी सहमति के मुताबिक चीनी सैनिकों को पीछे हटना था। सूत्रों के हवाले से चल रही कुछ खबरों में बताया गया है कि यहां उन्होंने देखा कि गलवान नदी के इस दक्षिणी किनारे पर चीनी सैनिक एक नई पोस्ट बना रहे थे।
कर्नल ने इसका विरोध किया क्योंकि यह जगह बफर जोन के लिए तय हुई थी। तनातनी बढ़ गई। इसके बाद दोनों तरफ के और भी सैनिक मौके पर आ गए और हिंसक टकराव शुरू हो गया। खबरों के मुताबिक इस दौरान कुछ भारतीय सैनिकों को नदी में धक्का दे दिया गया तो कुछ बुरी तरह घायल हो गए। इन सैनिकों के शव नदी से बरामद कर लिये गए हैं। सेना के मुताबिक 17 घायल सैनिकों की हालत सर्द मौसम में पड़े रहने से और खराब हो गई थी और उन्हें नहीं बचाया जा सका। इस टकराव में 43 चीनी सैनिकों के हताहत होने की बात भी कही जा रही है, लेकिन चीनी सेना की तरफ से अभी इस पर कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है। चीन के रक्षा मंत्रालय ने अपने सैनिकों की मौतों की बात मानी है लेकिन इसे लेकर उसने कोई आंकड़ा जारी नहीं किया है।
फिलहाल दोनों पक्ष पीछे हट गए हैं। अब सैन्य और कूटनीतिक स्तर पर संवाद जारी है ताकि हालात को और बिगडऩे से रोका जा सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने वरिष्ठ मंत्रियों और सेना प्रमुख के साथ देर रात बैठक कर स्थिति पर चर्चा की है। संयुक्त राष्ट्र ने दोनों पक्षों से अपील की है कि वे संयम बरतें। उधर, अमेरिका ने उम्मीद जताई है कि भारत और चीन इस स्थिति को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझा लेंगे। (satyagrah.scroll.in)
साझा प्रयास से निकलेगा कोरोना का हल
कोरोना काल में केंद्र अपनी तमाम राज्य सरकारों को भरोसे में ले। उनकी गौर से सुने। अपने ही देश के मुख्यमंत्रियों के साथ सिर्फ ऐसे वर्चुअल सम्मेलन न बुलवाए जाएं जिनमें अक्सर प्रधान वक्ता के अलावा बाकी मुख्यमंत्री खामोश श्रोता दिखते हैं।
पहले बुद्धि से कुछ नया रचने वाले हर शख्स को कवि कहा जाता था। ब्रह्मा को भी कवि कहा गया है। इस व्याख्या का मतलब यह कि लेखक, साहित्यकार, कवि या पत्रकार जो भी हों, सब कवि हैं। प्रशासनिक अपारदर्शिता के बीच मुझको कवि बहुत याद आते हैं। प्रशासन की सटीक जमीनी रपट देना पत्रकारों का काम है जो कवि होने के कारण वहां जा सकते हैं, जहां रवि यानी सूरज की रोशनी नहीं जाती। पर हमारी बेपनाह ताकतों से लैस नौकरशाही की गति नाना कारणों से दो दिन चले अढ़ाई कोस की होती आई है। इसलिए अब जब रोग-शोक से घिरी जनता की जरूरतें तात्कालिक हों तो मीडिया की रिपोर्ट का महत्व बढ़ जाता है। कई बार किस तरह उसे आसन्न अनहोनी का आभास नौकरशाही से पहले मिल जाता है। यह पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त एक अमेरिकी पत्रकार लॉरेंस राइट की रचना ‘दि एंड ऑफ अक्टोबर’ (प्रकाशन: नॉफ, अमेरिका) के अंश पढ़ते हुए दिखता रहा।
अप्रैल, 2020 में छपे इस उपन्यास में एक (काल्पनिक) घातक वायरस कॉन्गोली, इंडोनेशिया से निकल कर एक टैक्सी चालक के हज पर जाने से पहले मध्य एशिया और फिर पूरी दुनिया में अकल्पनीय तेजी से छा जाता है। उपन्यास का नायक एक वायरो लॉजिस्ट है जो विश्व में आने वाले समय में महामारी फैलाने वाले वायरसों पर शोध कर रहा है। उसने खुद इंडोनेशिया की यात्रा के दौरान उस चालक की टैक्सी में सफर किया था। अब अमेरिका वापिस अपनी लैब और राजकीय चिकित्सा तंत्र में वह गंभीर खामियां पाता है। और जैसे-जैसे कथा वस्तु आगे बढ़ती है तो यह लगातार साफ होता जाता है कि कॉन्गोली वायरस का टीका बनने से पहले यह दुनिया में लाखों जानें ले लेगा। हर देश अपने नेतृत्व और सामर्थ्य के आधार पर जब इस अनजान दुश्मन से घरेलू स्तर पर लड़ेगा तो वहां राज-समाज में पहले से मौजूद कई तरह की संस्थाओं और प्रशासनकी खामियां, छुपा नस्लवाद, अमीरों के खिलाफ गरीबों का आक्रोश और राष्ट्रवादी तानाशाहों की साम्राज्यवादी सोच यह सब राज सतह पर खुल जाएंगे। जब यह होगा तब दुनिया में हर जगह महायुद्ध, अकाल और स्वास्थ्य सेवाओं के तार-तार होने की खबरें मिलेंगी। और बेरोजगार युवा और अभिभावक हीन बच्चों की भीड़ सड़क पर उतर कर दंगा फसाद करने लगेगी।
उपन्यास यह भी साफ दिखाता है कि ऐसे ग्लोबल आपातकाल में तमाम राष्ट्रीय- अंतराष्ट्रीय संस्थाएं भी लाचार नजर आएंगी। और उनपर सालों से काबिज बड़े देश और नौकरशाह दार्शनिक बयानबाजी और परस्पर दोषारोपण से अपना बचाव करेंगे। उपन्यास में अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा संस्था होम लैंड सिक्योरिटी की एक उप-सचिव महोदया जब बाबुओं की तरह प्रेसवार्ता में पत्रकारों को महामारी पर ब्रीफ करने नाम पर दुश्मन देशों के खतरनाक मंसूबों पर बात छेड़ देती हैं, तो एक पत्रकार उनको टोक कर कहता है कि मोहतरमा सबको पता है कि इस महामारी का कारक एक नया वायरस है, यह भी, कि निरोधक टीका बनने में अभी साल भर लग जाएगा। युद्ध जब होगा तब होगा, पर आपकी नादानी से लाखों लोग आपके उस कल्पित युद्ध से नहीं, महामारी से मर चुके होंगे।
भारत में भी जब कोविड के ताजा ब्योरों और उनसे निबटने की सरकारी व्यवस्था पर चर्चा हो, बीच में सरकारी नुमाइंदे और प्रवक्ता लोग वास्तविक स्थिति की बजाय भारत की नियंत्रण रेखाओं पर पाकिस्तानी या चीनी अतिक्रमण के गड़े मुर्दे उखाड़कर अपने पूर्व वर्ती निजाम को अपने से बदतर साबित करने में जुट जाते हैं। जनता के लिए इस समय कहीं बड़ा जरूरी घरेलू मसला बचे रहने का है। अपने परिजनों की गंभीर बीमारी के बीच उनके लिए हस्पताली बिछौनों और आयातित चिकित्सा उपकरणों तथा सुरक्षा कवचों को पाना है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे आठ जून को खुल गए हैं, पर रोगियों के लिए अधिकतर हस्पतालों के द्वार अभी तक बंद हैं। ऐसे में इकतरफा लॉकडाउन को लागू करने के बाद तालाबंदी खुलवाई का सारा दारोमदार राज्य सरकारों पर डाला जा रहा है। हमेशा की तरह कुछेक राज्यों के राज्यसभा के चुनाव भी सर पर हैं। लिहाजा बीमारी के साथ भीषण तूफान से गुजरे बंगाल और महाराष्ट्र की प्रदेश सरकारों को मदद की राशि बढ़ाने की बजाय विपक्ष द्वारा राज्य के प्रबंधन पर सवाल उठाए जाने लगे हैं। प्रतिपक्षियों का भोंपू बना मीडिया का एक भाग तो सिर्फ राज्य सरकारों की नाकामी के पुराने प्रकरण उजागर कर रहा है। उधर, गरीबी के बीच भी वहां बेहद खर्चीली वर्चुअल रैलियों के आयोजन किए जा रहे हैं। कड़े सवाल उठाने वाले कई कवियों पर तो राष्ट्रद्रोह की धाराओं के तहत विस्मयकारी क्रिमिनल मुकदमों की बाढ़ आ गई है। उधर, भीतर से बंट गए मीडिया में जब शाम को बतकही का अनर्गल सिलसिला शुरू होता है, तो प्रतिपक्ष शासित राज्यों की दुर्दशा के बखिये ऐसी तटस्थ निर्ममता से उधेड़े जाते हैं जैसे वे भारतीय संघ के सदस्य नहीं, शत्रु इलाके हों।
यह सिर्फ भ्रम है कि इस महामारी से शेष विश्व से पहले उबर आया चीन अमेरिका से कमतर बना रहेगा। यह ठीक है कि एशिया हो कि यूरोप, अमेरिका हर धड़े को भारत जैसे महादेश की दोस्ती की बहुत जरूरत है। लेकिन अंत में जाकर हमारी दोस्ती की कीमत हर देश हमारी आर्थिक और सामरिक ताकत तथा घरेलू स्थिरता के पैमानों पर ही जांचेगा। उन सबकी अपनी माली हालत महामारी से जूझने में बहुत तेजी से बिगड़ी है और वे पाई-पाई दांत से पकड़ रहे हैं। इस समय हम उनको अपने चिरंतन, ‘भारत विश्वगुरु रहा है’, ‘बुद्ध, महावीर और गांधी का भारत शांतिदूत है’, ‘सस्ता, सुंदर और टिकाऊ माल तैयार करने में हमारी बड़ी आबादी हमारी सबसे बड़ी ताकत होगी’ जैसे जुमलों-दावों से नहीं रिझा सकेंगे। वे सब महाजनी संस्थाएं पहले भारतीय अर्थव्यवस्था की अपनी भरोसेमंद संस्थाओं की रेटिंग्स देखेंगी, जो बहुत उजली नहीं दिखतीं। लिहाजा दुनिया के देश अपनी पूंजी हमारे यहां तुरंत रोप देंगे, इसका भरोसा नहीं। राजनय में भी यह अस्पष्ट है कि सीमा विवाद पर रूठे हुए नेपाल या चीन बिना कोई छूट पाए हमारी तरफ झुक जाएंगे। वजह यह नहीं, कि पड़ोसी आजकल विश्वासघाती बनगए हैं, बल्कि यह कि दुनिया में मनुष्य हों कि देश, उनकी असमर्थता के क्षणों में साया भी साथ छोड़ देता है। भारत की सकल उत्पाद दर की रेटिंग्स को सुधारने के लिए जरूरी है कि हमारा नेतृत्व ठकुरसुहाती करने में पटु बाबूशाही या खुशामदी नेताओं की बजाय बिना बदले की भावना के, बगैर चिड़चिड़ाए उपेक्षित पत्रकारों, अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का स्थिति का विश्लेषण भी गौर से सुने। वे सब मनसे भारतीय हैं और वे भी अपने देशवासियों का हित चाहते हैं उनका अहित नहीं। आज मुख्यधारा मीडिया को अपने बस में कर लेना बहुत दूर नहीं ले जाता। खुले सोशल मीडिया पर कही बातें और दिखाई गई छवियां भी दुनिया भर में चुटकी बजाते वायरल हो रही हैं। और उनकी मदद से अमेरिका से एशिया तक किसी भी सरकारी स्वांग का सच दुनिया तुरंत पकड़ सकती है। इसलिए सरकार के बाबू लोग, प्रतिनिधि और दलीय प्रवक्ता इस भारत नामक घर के भांडे चौराहों पर न फोड़ें। कम से कम अभी तो रोजाना पोस्टर, होर्डिंग या वर्चुअल रैली से आगामी चुनाव जीतने के आकर्षण से बचा जाए और विपक्षी राज्य सरकारों के महामारी से निपटने की अक्षमता, उनकी विपन्नता, और कानून-शासन की पालना प्रयासों पर अमानवीय गाज न गिराई जाए। यह करना जिस शाख पर हम सब बैठे हैं उसी पर कुल्हाड़ी चलाना साबित होगा। कहीं बेहतर हो, इस समय केंद्र अपनी तमाम राज्य सरकारों को भरोसे में ले। उनकी गौर से सुने। अपने ही देश के मुख्यमंत्रियों के साथ सिर्फ ऐसे वर्चुअल सम्मेलन न बुलवाए जाएं जिनमें अक्सर प्रधान वक्ता के अलावा बाकी मुख्यमंत्री खामोश श्रोता दिखते हैं।
कोविड की चुनौती का सकारात्मक नतीजा तभी निकलेगा जब हम नई प्राथमिकताओं को समझ कर संयुक्त कोशिशों से अपनी सारी आर्थिक, प्रशासनिक और समाज कल्याण से जुड़ी सरकारी संस्थाओं को सिरे से बदलेंगे। हमारे अपने पैर तले जमीन मजबूत हो, तभी हम अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन का मध्य बिंदु बनकर दुनिया से सीधे आंख मिला कर बात कर सकते हैं।(www.navjivanindia.com)
अकेलेपन और अवसाद पर इन दिनों बहुत कुछ पढऩे को मिल रहा है। मेरे मन में अक्सर ये ख्याल आता है कि जो अवसाद की तरफ ले जाए उस अकेलेपन की शुरुआत कैसे होती है? जाहिर सी बात है कि इसका कोई बना-बनाया जवाब नहीं है। संसार में जितने मनुष्य हैं उससे भी कई गुना ज्यादा रिश्तों की जटिलताएँ हैं। जब में रिश्तों की बात कर रहा हूँ तो यह मनुष्य से मनुष्य के बीच ही नहीं, मनुष्य से प्रकृति, उसके अपने समय और वातावरण से भी उसके रिश्तों को शामिल कर रहा हूँ। इनके बीच कैसे कोई खुद को संतुलित रख सकता है?
क्षमा मांगना, भूल स्वीकार और धन्यवाद देना। जीवन में ये बड़े काम की तीन बातें हैं। जैसे-जैसे हम ज्ञानी, सफल और लोकप्रिय होते जाते हैं इन तीनों से दूर होते जाते हैं या कई बार इनका प्रयोग महज कूटनीतिक तरीके से करते हैं। छोटी-छोटी बातों के लिए ईश्वर को धन्यवाद देना लगभग हर धर्म का आधार रहा है। जैसे हिंदू और ईसाई धर्म में भोजन से पहले ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना।
जिसे हम नीतिशास्त्र या धर्म की भाषा में अंत:करण कहते हैं वही मनोविज्ञान की भाषा में आपका अवचेतन है। जब हम झूठ बोलते हैं तो सामने वाले के लिए तो वह सच ही होता है मगर हमारा अंत:करण दो खंडों में विभाजित हो चुका होता है। एक वो जो यह जानता है कि आप झूठ बोले रहे हैं और एक वो जो उसे सत्य की तरह स्टैब्लिश कर रहा होता है। हमारे अंवचेतन में ऐसे न जाने कितने विरोधाभासों की तलछट जमा होती जाती है। जब आप किसी के प्रति गलत होते हैं तब भी इसी अंत:करण के विभाजन का शिकार होते हैं। क्षमा का हर शब्द आपके भीतर के इस विभाजन को मिटाता है और खंडित अवचेतन मन को फिर से जोड़ता है।
भूल-स्वीकार भी इसी की एक कड़ी है। गलतियां हमसे होती हैं और हम उन पर शर्मिंदा होते हैं। हमने अपनी एक सामाजिक छवि का निर्माण किया होता है जिसे हम खुद अपने लिए भी सच मान लेते हैं। जैसे कि किसी नामी इतिहासकार से तथ्यात्मक भूल नहीं हो सकती या फिर किसी टीम का लीडर कभी गलत फैसले नहीं लेगा। क्योंकि हमने खुद के लिए एक भ्रामक छवि का निर्माण किया है तो हर ऐसी चीज जो उसे चोट पहुंचाए हमें असह्य होती है। गलतियां स्वीकार न करने की शायद यही सबसे बड़ी वजह होती होगी। जैसे आप खुद से अपना चेहरा नहीं देख सकते वैसे ही आप खुद अपने व्यक्तित्व का आँकलन नहीं कर सकते। जब कोशिश करेंगे तो यह झूठा होगा। कोई आपमें ईर्ष्यावश कमियां गिनाएगा तो कोई चाटुकारिता में तारीफ करेगा।
गलतियां स्वीकार करने की आदत धीरे-धीरे हमें हमारे स्वाभाविक व्यक्तित्व की तरफ ले जाती है। आपने अनजाने में जो सामाजिक मुखौटे लगा रखें है गाहे-बगाहे वो उतरते रहते हैं। आपको उतना ही सरल होने की दिशा में बढऩा है जैसे कोरे कागज पर एक सीधी लकीर होती है। हालांकि याद रखें मनुष्य का स्वभाव बहुत सारे भुलावे रचता है। वो दुनिया के साथ बाद में छल करता है पहले आपके साथ ही आपका मन खेलता है। तो काम की बात है कि मन को अपने साथ खेलने न दें। आप उसके साथ छल करेंगे तो वो आपके साथ बहुत गहरे छल करेगा। बेहतर होगा कि मन को अपना दोस्त बनाएँ और उससे सच्चे दिल से बातें करें।
आखिरी बात है शुक्रिया अदा करना। इसकी जरूरत क्यों पड़ती है? यह भी आपके इगो का कवच तोड़ता है। धन्यवाद देना यह तय करता है कि आप अपने जीवन की खुशियों और उपलब्धियों के अकेले कर्ता नहीं हैं यह सबकी साझेदारी है। आप शुक्रिया के रूप में अपनी खुशियों में उनकी साझेदारी को लौटाने का प्रयास करते हैं। यानी धन्यवाद के रूप में उन्हें एक प्रतीकात्मक खुशी देना चाहते हैं। सिर्फ पाना और देना कुछ नहीं आपके अंत:करण की तलछट में और कीचड़ भरता जाता है। पाना और बदले में देना आपको बदले में फिर-से एक सुकून देता है।
अब एक बात और अकेलापन क्या डराने वाली चीज है? हम जैसे-जैसे अपनी मौलिकता की तरफ बढ़ते हैं अकेले होते जाते हैं। लेकिन यह अकेला होना आपको ऊर्जावान बनाता है। जिस अकेलेपन को हम अवसाद का जनक मानते हैं दरअसल वो अकेलापन है ही नहीं वो आपके अहंकार से निर्मित छवि से किया जा रहा संघर्ष है। वो आपका खंडित मन है। खंडित व्यक्तिव है।
आपके व्यक्तित्व में द्वैत हो सकता है मगर विभाजन नहीं होना चाहिए। द्वैत एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। संसार के सभी महान विचारकों में यह द्वैत था। रवींद्रनाथ टैगोर, विवेकानंद, गांधी, बर्टेंड रसेल। उन्होंने मन के विरोधाभासों से कुछ नया रचा और दुनिया को एक नया दर्शन दिया। इसलिेए कि उनके मन के विरोधाभासों में सतत संवाद संभव था। अहंकार निर्मित छवि आपके मौलिक मन से संवाद नहीं करना चाहती। क्षमा, गलतियों का स्वीकार और धन्यवाद ही हमें उस अहंकारी छवि के ताप से बचाता है।
नोट: इन बातों का कोई सुचिंतित वैज्ञानिक आधार नहीं है। कुछ मेरे अनुभव और सामान्य सी तर्क-श्रृंखला है। इस लिहाज से ये बातें मनोवैज्ञानिक सत्य के करीब होने की बजाय नीति या दर्शन शास्त्र के ज्यादा करीब हैं।
पिछले हफ्ते ‘प्राइम टाइम’ वाले रवीशकुमार को इंटरव्यू देते हुए नोबुल-पुरस्कार विजेता प्रोफेसर अभिजीत बनर्जी ने एक बार फिर अपनी पुरानी कहानी दोहरा दी है। अर्थ-व्यवस्था में ‘कोविड-19’ की ‘कृपा’ से छाई मुर्दनी को भगाने के लिए उन्होंने ‘इन्फ्लेेशन’ यानि मंहगाई जैसी व्याधियों को ठेंगे पर मारते हुए नोट छापकर बांटने की तजबीज पेश की है। उनके मुताबिक इस कारनामे से लोगों के पास रुपया जाएगा, रुपया लेकर वे खरीदने जाएंगे, नतीजे में बाजार में मांग बढेगी, मांग बढने से कारखानों में काम चालू होगा, कारखानों में काम चालू होने से रोजगार बढेंगे, रोजगार बढने से हाथ में वेतन यानि रुपया आएगा और इस रुपए को लेकर लोग फिर बाजार का रुख कर लेंगे। यानि बाजार जाने-आने की कसरत हमारी और इसी तरह दुनियाभर की कोरोना-प्रभावित अर्थ-व्यवस्थाओं को वापस पटरी पर पहुंचा देगी। गौर करें, इस शेखचिल्ली जैसे बाजार-पुराण में पेट, पर्यावरण और जरूरत या तो सिरे से गायब हैं या फिर बाजार-तंत्र के किसी कोने-कुचारे में पडे अपनी बोली लगने का इंतजार कर रहे हैं।
अभिजीत बनर्जी या उन जैसे दर्जनों आधुनिक अर्थशास्त्रियों की अर्थ-व्य वस्था की कुंजी शेखचिल्ली की अपनी देसी कहानी से ही प्रेरित-प्रभावित तो दिखाई देती है, लेकिन इसमें नया क्या है? पेट भरने, पर्यावरण बचाए रखने और जरूरत के लिए बाजार जाने की पुरानी, पारंपरिक पद्धतियां इस नए ताने-बाने में पानी भर रही हैं। पिछले अनेक और खासकर नब्बे के दशक की शुरुआत के भूमंडलीकरण के सालों से अर्थ-व्यवस्था को ‘चलायमान’ रखने के लिए यही तजबीज तो बदल-बदलकर पेश की जाती रही है। ‘कोविड-19’ सरीखे सर्दी-जुकाम में हलाकान हुई यही वैश्विक अर्थ-व्यवस्था फिर से उसी राह पर चलकर आखिर क्या हासिल कर लेगी? क्या यह समय कोविड-पूर्व की अर्थ-व्यवस्थाओं की गहराई से पडताल करने का नहीं है? आखिर उस आर्थिक ताने-बाने से दुनिया को हासिल क्या हुआ था?
‘दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ फिल्म में काजोल-शाहरुख के फिल्मी? रोमांस के लिए चुने गए स्विट्जरलेंड के शहर दावोस में अभी जनवरी 2020 में दुनियाभर के अमीरों का पांच दिन का 50 वां सालाना जमावडा हुआ था। ‘वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम’ नामक इस जमावडे के ठीक पहले वैश्विक ‘गैर-सरकारी संगठन’ (एनजीओ) ‘ऑक्सफोर्ड कमिटी फॉर फेमिन रिलीफ’ (ऑक्सफैम) ने इसी शहर में दुनियाभर के अध्ययन की अपनी रिपोर्ट ‘टाइम टु केयर’ को जारी करते हुए बताया था कि भारत में महज 63 अरबपतियों के पास सालाना केन्द्रीय बजट (वर्ष 2018-19 में 24 लाख 42 हजार दो सौ करोड रुपए) से ज्यादा धन है और ‘ऊपर’ के एक फीसद लोगों के पास ‘नीचे’ की 70 फीसद आबादी (95 करोड 30 लाख) की कुल सम्पत्ति का चार गुना धन है। इसी रिपोर्ट में गैर-बराबरी का खुलासा करने की गरज से बताया गया था कि किसी घरेलू कामगार महिला को 106 रुपए/प्रति सेकेन्डस् कमाने वाले उसके मालिक की बराबरी करने में 22 हजार 277 साल लगेंगे।
गैर-बराबरी की यह भयानक अश्लीलता दुनियाभर में मौजूद है जहां विश्व के 2153 अरबपतियों के पास कुल आबादी के 60 प्रतिशत, यानि 4.6 अरब लोगों की सामूहिक सम्पत्ति से अधिक सम्पत्ति है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 62 अमीरों, जिनमें नौ महिलाएं हैं, के पास 50 प्रतिशत गरीबों की सम्पत्ति के बराबर सम्पत्ति है। वर्ष 2010 में इतनी ही सम्पत्ति 388 अमीरों के पास थी, 2011 में 177 के पास, 2012 में 159 के पास, 2013 में 92 के पास और 2014 में 80 अमीरों के पास हो गई थी। अमेरिका के ‘हॉउस ऑफ रिप्रेजेन्टेटिव्स’ की ‘वेज एण्ड मीन्स कमिटी’ के सामने गवाही देते हुए 14 अप्रेल को ‘ईकॉनॉमिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट’ के अर्थशास्त्री एलिस गॉल्डमन ने बताया था कि अमरीका की ‘ऊपरी’ 0.1 प्रतिशत आबादी की कमाई (343.2 फीसदी), ‘नीचे’ के 90 प्रतिशत की कमाई (22.2 फीसदी) से 15 गुना तेजी से बढी है।
यानि समूचे संसार में फैली गैर-बराबरी की यह गहरी और खासी चौडी खाई बाजार-केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था अर्थात शेखचिल्ली की कहानी की ‘मेहरबानी’ से ही खोदी जाती रही है। डॉनाल्ड ट्रम्प, ऐंजेला मर्केल, इमरान खान जैसे अनेक राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी में जारी अपनी रिपोर्ट में ‘ऑक्सफैम’ ने भी दावोस में कहा था कि गैर-बराबरी की यह खाई भारी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संकट की कगार पर पहुंच गई है। कोरोना-बाद की अर्थ-व्यवस्था की बात करते हुए क्या हमें इन तत्थ्यों पर गौर नहीं करना चाहिए? खासकर तब, जब नामधारी अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों और ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्टों के आधार पर कुछ लोग ‘कोविड-19’ को इस अश्ली?ल गैर-बराबरी को बरकाने की जुगत बता रहे हैं।
कोरोना-बाद की अर्थ-व्यवस्था का ताना-बाना खडा करते हुए हमें सिर्फ बाजार, मांग और उत्पादन के अलावा कई अन्य बातों का ध्यान भी रखना चाहिए। मसलन-पर्यावरण, जिसने कोरोना-लॉकडाउन के कुल ढाई-तीन महीनों में कमाल के पुनर्जीवन का प्रदर्शन किया है। दुनियाभर से रिपोर्टें आ रही हैं कि जगह-जगह नदियां आपरूप साफ, निर्मल और पीने योग्य हो गई हैं और तरह-तरह के पशु-पक्षी अब बे-धडक बस्तियों में चहल-पहल कर रहे हैं। क्या जीने लायक जीवन के लिए खडे किए जाने वाले आर्थिक ढांचे में ये प्राकृतिक उपादान जरूरी नहीं माने जाने चाहिए? और यदि माना जाना चाहिए तो क्या ऐसा कोई आर्थिक ताना-बाना नहीं बनाया जा सकता जिसमें जिन्दा रहने के लिए जरूरी विकास के साथ-साथ पर्यावरण का भी कोई संतुलन हो?
कोरोना के दौरान भारत सरीखे देशों में सरकारी क्षेत्र की अहमियत फिर से स्थापित हुई है। यानि भूमंडलीकरण के बाद के सालों में सरकारों के सगे रहे निजी क्षेत्र ने अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड लिया है। ऐसे अनेक सरकारी, गैर-सरकारी उदाहरण और रिपोर्टें सामने आ रही हैं।
जब ठेठ देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली और औद्योगिक राजधानी मुम्बई समेत कई शहरों में निजी अस्पतालों ने सामने खडे बीमार को हकाल दिया था। क्या अर्थ-व्यवस्था की पुनर्रचना करते हुए एक बार फिर हमें ‘कल्याणकारी राज्य’ और उसके मुसीबत में हाथ बंटाने-बढाने वाले सरकारी क्षेत्र की अहमियत मंजूर नहीं करनी चाहिए? उन सरकारी डॉक्टरों, मेडिकल-स्टाफ, पुलिस और व्यवस्था संभालने वाले अनेकानेक कर्मचारियों का महत्व तो हर कोई ने देखा और उसका लाभ उठाया है जो समय और शरीर की सीमाओं को अनदेखा करते हुए अपने-अपने मोर्चे पर डटे रहे।
एक और बेहद महत्वपूर्ण सवाल उन करोडों प्रवासी माने जाने वाले मजदूरों का भी है, जो अपने-अपने गांव-देहात लौटकर अब वापस उद्योगों की तरफ लौटने में संकोच कर रहे हैं। इनके लिए जिस उद्यम का सहारा है, वह कृषि-क्षेत्र है, लेकिन हमारे नोबुल, गैर-नोबुल अर्थशास्त्रियों के लिए यह क्षेत्र ‘बोझ’ से अधिक की हैसियत नहीं रखता। लॉकडाउन में घर लौटते प्रवासियों ने अर्थशास्त्रियों की बनाई यह पोल-पट्टी भी उजागर कर दी है कि कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था ‘बोझ’ है और उसके इस ’बोझ’ को घटाने के लिए इससे जुडे ‘अतिरिक्त‘ श्रम और संसाधन उद्योगों की ओर खदेड दिए जाने चाहिए।
वित्तमंत्री चाहे डॉ. मनमोहन सिंह, पी.चिदम्बंरम, या प्रणव मुखर्जी रहे हों या फिर अरुण जेटली, पीयूष गोयल और निर्मला सीतारमण, सभी ने कृषि-क्षेत्र को सौतेला मानकर उसमें जरूरी निवेश से हमेशा कन्नी काटी है। अब खुद साक्षात मजदूरों ने थोक में गांव लौटना चुनकर वित्तमंत्रियों और अर्थशास्त्रियों के इस सौतेले व्य्वहार की भद्द पीट दी है। जाहिर है, सर्वांगीण विकास को केवल आर्थिक विकास में तब्दीेल करने की चालाकी में लगे अर्थ-शास्त्रियों और सत्ताधारियों को इन बातों का महत्व समझ में नहीं आएगा। अलबत्ता, कोरोना वायरस से उपजी ‘कोविड-19’ बीमारी के लॉकडाउन के बाद हमारे अर्थशास्त्रियों, राजनेताओं और नौकरशाहों के साथ हमें भी इस अर्थशास्त्र को जानना-समझना तो होगा, वरना जैसा कहा जाता है, ‘गाडी छूट जाएगी।’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली में कोरोना-संकट से निपटने के लिए गृहमंत्री अमित शाह ने पहले दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री से बात की और आज उन्होंने सर्वदलीय बैठक बुलाई। इन दोनों बैठकों में स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्द्धन, दिल्ली के उप-राज्यपाल अनिल बैजल और कई उच्च अधिकारी शामिल हुए। सबसे अच्छी बात यह हुई कि प्रमुख विरोधी दल कांग्रेस का प्रतिनिधि भी इस बैठक में शामिल हुआ।
यह क्या बताता है ? इससे पता चलता है कि भारत का लोकतंत्र कितनी परिपक्वता से काम कर रहा है। यह ठीक है कि कांग्रेस के बड़े नेता अपनी तीरंदाजी से बाज नहीं आ रहे हैं। वे हर रोज़ किसी न किसी मुद्दे पर सरकार की टांग खींचते है और जनता के नजऱों में नीचे की तरफ फिसलते जा रहे हैं लेकिन उन्होंने यह सराहनीय काम किया कि गृहमंत्री की बैठक में अपना प्रतिनिधि भेज दिया।
गृहमंत्री की इन दोनों बैठकों में कुछ बेहतर फैसले किए गए हैं, जिनके सुझाव मैं पहले से देता रहा हूं। सबसे अच्छी बात तो यह है कि दिल्ली के अधिक संक्रमित इलाकों में अब घर-घर में कोरोना का सर्वेक्षण होगा। कोरोना की जांच अब आधे घंटे में ही हो जाएगी। रेल्वे के 500 डिब्बों में 8 हजार बिस्तरों का इंतजाम होगा। गैर-सरकारी अस्पतालों में 60 प्रतिशत बिस्तर कोरोना मरीजों के लिए आरक्षित होंगे। कोरोना-मरीजों को सम्हालने के लिए अब स्काउट-गाइड, एन.सी.सी., एन.एस.एस. आदि संस्थाओं से भी मदद ली जाएगी।
मैं पूछता हूं कि हमारे फौज के लाखों जवान कब काम आएंगे ? कोरोना का हमला किसी दुश्मन राष्ट्र के हमले से कम है क्या ? यदि सिर्फ दिल्ली में कोरोना मरीजों की संख्या 5-6 लाख तक होनेवाली है तो उसका सामना हमारे कुछ हजार डॉक्टर और नर्स कैसे कर पाएंगे ? मुंबई में कोरोना की प्रांरभिक जांच सिर्फ 25 रु. में हो रही है। कोरोना की इस जांच के लिए मुंबई की स्वयंसेवी संस्था ‘वन रुपी क्लीनिक’ की तर्ज पर हमारे सरकारी और गैर-सरकारी अस्पताल काम क्यों नहीं कर सकते ? सरकार का यह फैसला तो व्यावहारिक है कि गैर-सरकारी अस्पतालों को सिर्फ कोरोना अस्पताल बनने के लिए मजबूर न किया जाए लेकिन हमारे सरकारी और गैर-सरकारी अस्पतालों में कोरोना-मरीजों के इलाज में लापरवाही और लूटमार न की जाए, यह देखना भी सरकार का कर्तव्य है। गृहमंत्री शाह खुद लो.ना. जयप्रकाश अस्पताल गए, यह अच्छी बात है। वहां के वीभत्य दृश्य टीवी पर देखकर करोड़ों दर्शक कांप उठे थे।
यह आश्चर्य की बात है कि अभी तक सरकार ने कोरोना के इलाज पर होनेवाले खर्चों की सीमा नहीं बांधी है। मैं तो चाहता हूं कि उनका इलाज बिल्कुल मुफ्त किया जाना चाहिए। हमारे देश में मामूली इलाज से ठीक होनेवालों की संख्या बीमार होने वालों की संख्या से कहीं ज्यादा है। जिन्हें सघन चिकित्सा (आईसीयू) और सांस-यंत्र (वेंटिलेटर) चाहिए, ऐसे मरीजों की संख्या कुछ हजार तक ही सीमित है। कांग्रेस ने गृहमंत्री से कहा है कि गंभीर रोगियों को सरकार 10 हजार रु. की सहायता दे। जरुर दे लेकिन जरा आप सोचिए कि जो सरकार मरीजों का इलाज मुफ्त नहीं करा पा रही है, वह उन्हें दस-दस हजार रु. कैसे देगी ? (नया इंडिया की अनुमति से)