अंतरराष्ट्रीय
-एंड्रियन हार्ट्रिक, डॉमिनिका ओज़िन्स्का
पूर्व में सोवियत संघ में शामिल रहे तुर्कमेनिस्तान के उत्तर में एक बड़ा-सा गड्ढा है जिसे 'गेट्स ऑफ़ हेल' यानी 'नरक का दरवाज़ा' कहा जाता है.
तुर्कमेनिस्तान के 70% हिस्से में काराकुम रेगिस्तान है. 3.5 लाख वर्ग किलोमीटर के इस रेगिस्तान के उत्तर की तरफ गेट क्रेटर यानी दरवाज़ा क्रेटर नाम का बड़ा-सा गड्ढा है.
इस गड्ढे के बारे में कनाडाई एक्सप्लोरर जॉर्ज कोरोनिस ने बीबीसी को बताया "जब मैंने पहली बार इसे देखा और इसके पास की ज़मीन पर मैंने पैर रखा तो इस गड्ढे से आने वाली गर्म हवा सीधे मेरे चेहरे पर लग रही थी. मुझे लगा कि ये ऐसी जगह है जिसमें से शैतान खुद हाथों में हथियार लिए निकला होगा."
69 मीटर चौड़े और 30 मीटर गहरे इस गड्ढे में बीते कई दशकों से आग धधक रही है, लेकिन इसका कारण शैतान नहीं बल्कि इससे निकलने वाली प्राकृतिक गैस (मीथेन) है.
साल 2013 में नेशनल जियोग्राफ़िक चैनल के लिए बनाए जा रहे एक कार्यक्रम के दौरान एक खोजी दल तुर्कमेनिस्तान के इस इलाक़े में पहुंचा था. जॉर्ज कोरोनिस इसी दल के सदस्य थे. वो ये जानने की कोशिश कर रहे थे कि इस गड्ढे में 'लगातार जलने वाली' आग वास्तव में शुरू कब से हुई.
लेकिन उनकी जाँच ने उनके सवालों के पूरे जवाब देने की बजाय और सवाल खड़े कर दिए.
कब लगी थी रहस्यमय आग
इस आग के बारे में कहानी शुरू होती है अस्सी के दशक की शुरूआत से. प्रचलित कहानी की मानें तो साल 1971 में सोवियत संघ के भूवैज्ञानिक काराकुम के रेगिस्तान में कच्चे तेल के भंडार की खोज कर रहे थे.
यहां एक जगह पर उन्हें प्रकृतिक गैस के भंडार मिले, लेकिन खोज के दौरान वहां का ज़मीन घंस गई और वहां तीन बड़े-बड़े गड्ढे बन गए.
इस गड्ढों से मीथेन के रिसने का ख़तरा था जो वायुमंडल में घुल सकता था. एक थ्योरी के अनुसार इसे रोकने के लिए भूवैज्ञानिकों ने उनमें से एक गड्ढे में आग लगा दी. उनका मानना था कि कुछ सप्ताह में मीथेन ख़त्म हो जाएगी और आग अपने आप बुझ जाएगी.
लेकिन कोरोनिस कहते हैं कि इस कहानी को सच माना जा सके इसके पक्ष में उन्हें कोई दस्तावेज़ नहीं मिले.
साल 2013 में अपने पहले दौरे के वक्त उन्होंने कई स्थानीय लोगों से इस बारे में बात की लेकिन उन्हें पता चला कि इस आग के बारे में कोई भी कुछ नहीं जानता.
वो कहते हैं, "इस गड्ढे के बारे में सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली बात ये थी कि इसके बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं थी. इस देश में जा कर भी आप इसके बारे में अधिक जानकारी नहीं पा सकते."
"मैंने इसके बारे में आधिकारिक रिपोर्ट और दस्तावेज़ ढूंढे. कुछ अख़बारों में इस घटना का ज़िक्र ज़रूर मिला लेकिन कहा जा सकता है कि कुछ नहीं मिला."
तुर्कमेनिस्तान के भूवैज्ञानिकों के अनुसार ये विशाल गड्ढा वास्तव में 1960 के दशक में बना था लेकिन 1980 के दशक में ही इसमें आग लगी.
कोरोनिस कहते हैं इसमें आग कैसे लगी इसे लेकर भी विवाद है. वो कहते हैं, "कुछ लोग कहते हैं कि इसमें जानबूझ कर आग लगाई गई, कई कहते हैं कि आग दुर्घटनावश लगी और कुछ का तो ये भी कहना है कि आग बिजली गिरने से लगी."
एक और थ्योरी के अनुसार भूवैज्ञानिकों से फ्लेयरिंग तकनीक का इस्तेमाल किया हो सकता है. प्राकृतिक गैस को निकालने की प्रक्रिया में आम तौर पर इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है. इसमें सुरक्षा के लिहाज़ से और गैस बचाने के लिए जानबूझ कर बचे गैस में आग लगा दी जाती है.
लेकिन जानकार मानते हैं कि अगर मामला ऐसा है तो चूंकि सोवियत संघ के लिए रणनीतिक तौर पर अहम मुद्दा था इसलिए इससे जुड़ी रिपोर्ट को टॉप सीक्रेट करार दिया गया होगा.
इतिहासकार जेरोनिम पेरोविक कहते हैं कि 'नरक के दरवाज़े' को लेकर जो रहस्य है वो बिल्कुल तार्किक है.
जेरोनिम ने बीबीसी से कहा, "ये इस बात की तरफ इशारा है कि सोवियत संघ के दौर में काम कैसे होता था. उस वक्त केवल उन अभियानों की जानकारी सार्वजनिक की जाती थी जो सफल रहते थे लेकिन नाकाम अभियानों के बारे में बताया नहीं जाता था. अगर स्थानीय लोगों ने कुछ ग़लत किया है तो वो नहीं चाहेंगे कि इसके बारे में औरों को पता हो."
आग का ये गड्ढा रेगिस्तान के बीच उभरा था ऐसे में इसके कारण जानोमाल के नुक़सान का कोई डर नहीं था और इसके असर भी न के बराबर ही था.
जानकार मानते हैं कि उस दौर में सोवियत संघ के पास प्राकृतिक गैस या ईंधन का कोई कमी नहीं थी, वो हर साल सात लाख क्यूबिक मीटर प्राकृतिक गैस का उत्पादन करता था. ऐसे में ये संभव है कि गैस को जला देना उनके लिए व्यावहारिक विकल्प रहा होगा.
वो कहते हैं, "स्विट्ज़रलैंड जैसा देश हर साल 15 हज़ार से 16 हज़ार क्यूबिक मीटर प्राकृतिक गैस का इस्तामेल करता था, लेकिन इसका चार गुना जला कर नष्ट कर देना सोवियत के लिए बड़ी बात नहीं थी. इसके लिए तर्कसंगत रूप से ये सोचने की बजाय कि इसे पाइपलाइन में डाल कर दूसरी जगह ले जाया जाए, उन्होंने इसे जलाने का फ़ैसला किया होगा. प्राकृतिक गैस को दूसरी जगह ले जाने के लिए उन्हें यहां बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य करना होता."
कोरोनिस के खोजी दल में शामिल रहे माइक्रोबायोलॉजिस्ट स्टीफ़न ग्रीन कहते हैं कि "मीथेन को अनियंत्रित तरीके से पर्यावरण में घुलने देना ग़लत विचार है" और इसे जला देने के फ़ैसले को समझा जा सकता है.
वो कहते हैं, "ये बेहद ख़तरनाक हो सकता था. क्योंकि जब तक आग लगी रहेगी मीथेन एक जगह पर जमा नहीं होगा, नहीं तो इसमें वक्त-वक्त पर बड़ा धमाका होने का ख़तरा बना रहता."
ये बात सच है कि वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड गैस छोड़ना हानिकारिक है लेकिन वातावरण में मीथेन गैस छोड़ना उसके मुक़ाबले अधिक हानिकारक है. इराक़, ईरान और अमेरिका जैसे कई देश भी इसे वातातरण में छोड़ने की बजाय इसे जला देते हैं.
जेरोनिम पेरोविक कहते हैं कि "दुर्भाग्य से ये एक ऐसी समस्या है जिसका अब तक कोई हल नहीं निकल पाया है"
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आग देखने जाते हैं कई लोग
तुर्कमेनिस्तान के अधिकरियों ने एक बार सोचा था कि वो लगातार जल रही इस आग को बुझा दे. लेकिन फिर उन्होंने सोचा कि ये पर्यटन को बढ़ावा देने का अच्छा रास्ता हो सकता है.
हर साल क़रीब छह हज़ार सैलानियों वाले इस देश के लिए मीथेन उगलने वाला ये गड्ढा देश का सबसे बड़े पर्यटन स्थलों में से एक बन चुका है.
काराकुम रेगिस्तान में ये गड्ढा रात को भी दूर से दिखाई देता है और कई सैलानी इसे देखने जाते हैं.
इस गड्ढे के पास खड़े होने के अपने अनुभव के बरे में जॉर्ज कोरोनिस बताते हैं, "मैं एक प्रोट्क्टिव सूट पहने खड़ा था और एक अंतरिक्षयात्री की तरह दिख रहा था. मेरे सामने एक स्टेडियम जितना बड़ा आग का ऐसा गड्ढा था जो आग उगल रहा था. मेरे लिए ये धरती में रहते हुए किसी दूसरी दुनिया में जाने जैसा अनुभव था." (bbc.com)