अंतरराष्ट्रीय
कोरोना महामारी की शुरुआत को दो साल से ज़्यादा वक़्त हो चुका है. दुनिया भर में विमानन उद्योग महामारी के झटके से उबरने की कोशिश में है.
इसी बीच, पिछले महीने यानी जुलाई 2022 में दुनिया के सबसे बड़े हवाई अड्डों में से एक 'हीथ्रो' के सीईओ जॉन हॉलैंड के ने एक ऐसा आदेश जारी किया जिसने कई लोगों को हैरान कर दिया.
उन्होंने हीथ्रो एयरपोर्ट इस्तेमाल करने वाली एयरलाइन कंपनियों से कहा कि वो 'गर्मी के मौजूदा सीजन के दौरान हवाई यात्रा के टिकट नहीं बेचें.'
जॉन हॉलैंड ने कहा कि यात्री सुरक्षित और भरोसेमंद तरीके से सफर करें और अपने बैग के साथ मंज़िल तक पहुंच सकें, ये तय करना ज़रूरी है.
उन्होंने तय किया कि अब हीथ्रो एयरपोर्ट से हर दिन अधिकतम एक लाख यात्री ही उड़ान भर सकेंगे. आमतौर पर यहां से हर रोज़ पांच लाख यात्री रवाना होते हैं.
दूसरे एयरपोर्ट मसलन एम्सटर्डम के स्कीपल, जर्मनी के फ्रैंकफर्ट और ब्रिटेन के गैटविक एयरपोर्ट ने भी ऐसी सीमा तय कर दीं.
बीते कई महीनों से तमाम हवाई अड्डों पर अफरातफरी की स्थिति देखी जा रही है.
उड़ानों का आखिरी मिनट पर रद्द होना, लंबी कतारें और यात्रियों के सामान पहुंचने में देरी आम बात हो गई है.
दुनिया भर के प्रमुख एयरपोर्ट और एयरलाइन कंपनियां बढ़ती मांग के साथ तालमेल बिठाने में नाकाम साबित होने लगे.
कई देशों में छुट्टियों की शुरुआत के साथ ये आशंका थी कि अफरातफरी और बढ़ सकती है.
अब सवाल है कि क्या हवाई सफ़र फिर से सामान्य स्थिति में आ पाएगा यानी सफ़र से जुड़ी मुश्किलें हाल फिलहाल दूर हो पाएंगी?
इसका जवाब पाने के लिए बीबीसी ने चार एक्सपर्ट से बात की.
एविएशन एनालिस्ट सैली गेथिन बताती हैं, " इस समस्या से जूझने वाले प्रमुख देश हैं यूके, नीदरलैंड्स और यूएसए. ऑस्ट्रेलिया में भी दिक्कत की शुरुआत हो गई है. आयरलैंड, जर्मनी और स्पेन भी मुश्किलों का सामना कर रहे हैं."
सैली गेथिन बताती हैं कि एयरपोर्ट पर यात्रियों को कई बार 'पूरी तरह जाम' की स्थिति का सामना करना पड़ता है.
सैली कहती हैं, " यात्री एयरपोर्ट टर्मिनल में दाखिल तक नहीं हो पाते. कुछ मौकों पर उनकी फ्लाइट छूट जाती है. कभी वो सुरक्षा जांच के बाद अंदर पहुंच जाते हैं तो मालूम होता है कि फ्लाइट नहीं जा रही है. कुछ मौकों पर उनके बैग विमान में नहीं चढ़ पाते. या उन्हें पता चलता है कि विमान के उड़ान भरने में देरी हो रही है."
सैली बताती हैं कि यात्रा में होने वाला व्यवधान इस बात पर निर्भर करता है कि किसी खास शहर में लॉकडाउन से जुड़े नियमों में कब ढील दी गई.
वो बताती हैं कि यूरोप में सीमाओं और सड़कों पर पाबंदियों को काफी जल्दीबाज़ी में हटाया गया. ब्रिटेन में तो ये रातों रात हुआ.
लॉकडाउन हटाए जाने के समय एयरपोर्ट और विमान कंपनियां पूरी तरह तैयार नहीं थीं.
वहां भीड़ बहुत ज़्यादा थी. कई एयरपोर्ट पर पूरी संख्या में कर्मचारी भी नहीं थे.
सैली बताती हैं कि विमानन सेवा में कई चीजें आपस में जुड़ी होती हैं. एम्सटर्डम, दुबई, लंदन और पेरिस जैसे बड़े एयरपोर्ट से लोग कई कनेक्टिंग उड़ानें पकड़ते हैं. यहां कई फीडर विमान भी आते जाते हैं.
अगर एक उड़ान में देरी हो या फिर वो रद्द हो जाए तो कनेक्टिंग फ्लाइट छूट सकती है.
तय तारीख और वक़्त पर लैंडिंग करने, उड़ान भरने और अपनी सेवाओं को सुचारू रखने के लिए एयरलाइन्स कंपनियों को एयरपोर्ट अधिकारियों से अनुमति लेनी होती है. इसे 'स्लॉट' कहा जाता है. एयरलाइन्स कंपनियां अपने स्लॉट पर आसानी से दावा नहीं छोड़ती हैं.
ऐसे में अगर किसी कंपनी की फ्लाइट कैंसिल होती है तो दूसरी कंपनी उस स्लॉट का इस्तेमाल नहीं कर सकती है.
सैली गेथिन बताती हैं, " ये सिर्फ़ एविएशन इन्फ्रास्ट्रक्चर की तैयारी से जुड़ी दिक्कत नहीं है. ये उम्मीद थी कि जब मांग बढ़ेगी तो ज़्यादातर यात्री वो होंगे जो अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलने जा रहे होंगे. इसी वजह से बेशुमार भीड़ बढ़ी. महामारी शुरू होने के पहले का समय होता तो एयरलाइन्स कंपनियों ने अंदाज़ा लगा लिया होता कि छुट्टियों के सीजन में कैसी स्थिति रहने वाली है."
अंतरराष्ट्रीय उड़ानें पहले भी बंद रही हैं. मसलन साल 2010 में आईसलैंड के ज्वालामुखी से निकली राख का गुबार यूरोप के आसमान पर छा गया और कई दिन तक विमान उड़ान नहीं भर सके.
लेकिन इस बार दिक्कत अलग है.
सैली कहती हैं, " ये समस्या वैश्विक स्तर पर दिखती है. ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि भीड़ फिर कब बढ़ जाए. ये अभूतपूर्व स्थिति है. इसलिए भी कि अलग अलग इलाकों में महामारी को लेकर कैसी पाबंदी लागू हैं और वहां उड्डयन क्षेत्र को कितनी मदद मिलती है. ख़ासकर ये समझते हुए कि महामारी के बाद उन्हें अपना वजूद बचाए रखना है."
कोविड अभी ख़त्म नहीं हुआ है और कई जगह प्रतिबंध भी जारी हैं. चीन ने अब भी कुछ देशों से सीधी उड़ानों पर रोक लगाई हुई है.
जापान ने जून 2022 में शर्तों के साथ अंतरराष्ट्रीय यात्रियों को आने की इजाज़त दी है. सैली कहती हैं कि यात्रियों को मान कर चलना चाहिए कि उड़ानों को लेकर अनिश्चितता की स्थिति बनी रहने वाली है.
उनकी राय है कि सर्दियों में मांग घटेगी तब स्थिति बेहतर हो सकती है.
आर्थिक संकट
'एयरक्राफ़्ट कॉमर्स' मैगज़ीन के एडिटर चार्ल्स विलियम्स बताते हैं, "दुनिया भर की एयरलाइन कंपनियों की वित्तीय स्थिति कमज़ोर हो गई. एयरलाइन कंपनियां अब अपनी स्थिति दुरुस्त करने की कोशिश में जुटी हैं.
कारोबार को बचाए रखने के लिए व्यापारी खुद को हालात के मुताबिक ढालते रहे हैं. लो बजट वाली एयरलाइन्स ने इस उद्योग की कायापलट कर दी.
चार्ल्स बताते हैं कि बीते 20 साल के दौरान एयरलाइन के खर्च की स्थिति पूरी तरह बदल गई है. इस दौरान कम ख़र्च में आपरेट करने वाला मॉडल अपनाया गया. अब इस मोर्चे पर ज़्यादा कटौती संभव नहीं है.
चार्ल्स कहते हैं, " एयरलाइन्स इंडस्ट्री में 'लोड फैक्टर' का मतलब होता है कि पैसे देकर यात्रा कर रहे लोगों से कितनी सीटें भरी हैं. अगर सौ सीट वाला विमान है और ठीक ठाक किराए के साथ 80 सीटें भरी हुई हैं तो सिर्फ़ खर्च निकलेगा. आखिरी के चार या पांच यात्रियों के जरिए मुनाफा हासिल होगा. ये बहुत कम मार्जिन वाला कारोबार है. यात्रियों की संख्या में अचानक काफी कमी आने की वजह से एयरलाइन्स कंपनियों को बड़ा झटका लगता है. जैसे कि दो साल पहले हुआ था."
मौजूदा दौर की आर्थिक चुनौतियां पहले लिए गए फ़ैसलों से भी जुड़ी हैं.
ज़्यादातर कंपनियां जिन विमानों को उड़ाती हैं वो उनके नहीं होते. ऐसे में महामारी के दौरान उनकी प्राथमिकता लीज़ से जुड़े समझौतों को दोबारा तय करने की थी.
जिन दिनों यात्रियों के सफ़र करने पर पाबंदी लगी हुई थी, तब कुछ विमान कंपनियों ने कार्गो सेवा चालू रखी हुई थी.
चार्ल्स कहते हैं, " लंबी दूरी की उड़ान भरने वाले बड़े विमानों में सामान रखने की काफी जगह होती है. महामारी के दौरान ऐसे ज़्यादातर विमान खड़े ही रहे. उस समय जो विमान माल ढो रहे थे उनमें जगह कम रहती थी. ऐसे में माल पहुंचाने का किराया सामान्य दिनों की तुलना में चार से पांच गुना तक बढ़ गया. मैं समझता हूं कि माल ढुलाई के ऊंचे किराए की वजह से विमान कंपनियां चलती रहीं."
विमानन एक महंगा कारोबार है. अब ये अनिश्चितता की स्थिति से भी घिर गया है.
चार्ल्स कहते हैं, " महामारी के साथ दिक्कत ये है कि आपको ये अंदाज़ा नहीं होता कि इसका असर कब तक रहेगा. 2020 में एयरक्राफ़्ट खड़े रखने की जगह की भी कमी हो गई थी. एयरलाइन कंपनियों के लिए ये भी बहुत महंगा साबित हो रहा था."
महामारी के दौरान खड़े रहे सैकड़ों विमानों को दोबारा एक्टिव करने के लिए पर्याप्त संख्या में मैंटिनेंस स्टाफ़ नहीं है. ऐसे में ये विमान दोबारा उड़ान नहीं भर पा रहे हैं. जो विमान उड़ान भर रहे हैं, उनके लिए ईंधन खासा महंगा है. बिजनेस क्लास की सीटें पहले की तरह नहीं भर पा रही हैं. ऐसे में किराए बढ़ सकते हैं.
चार्ल्स कहते हैं कि ये इंडस्ट्री समझती है कि दिक्कतें धीरे धीरे ही दूर होंगी. अमेरिकी मार्केट, यूरोप और एशिया में रिकवरी देखी जा रही है.
यही है सामान्य परिस्थिति?
जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी की प्रोफ़ेसर लॉरी गैरो कहती हैं, "विमान में उड़ान भरने वाले यात्रियों की संख्या हालिया महीनों में किस दिशा में बढ़ रही हैं, ये समझने के लिए जानना अहम होगा कि कोविड की शुरुआत में हम कहां थे?"
लॉरी गैरो एगीफ़ोर्स की प्रेसिडेंट भी हैं. ये एयरलाइन्स पर रिसर्च करने वाला संस्थान है. अभी विमानन उद्योग कॉस्ट और कस्टमर यानी लागत और ग्राहकों के बीच संतुलन बिठाने में जूझ रहा है.
लॉरी गैरो बताती हैं, " 2020 के शुरूआती महीनों में पूरी दुनिया में मांग 90 से 95 फ़ीसदी तक घट गई. हम देख रहे हैं कि दुनिया के अलग अलग हिस्सों में रिकवरी की दर अलग-अलग रही है. अमेरिका में घरेलू स्तर पर मांग कोविड के पहले के दौर करीब तक पहुंच गई है. अमेरिका और यूरोप के बीच यात्रा की दर भी महामारी के पहले के स्तर तक जा पहुंची है. लेकिन दुनिया के दूसरे हिस्सों ख़ासकर एशिया में कोविड के पहले की तुलना में ये अब भी 30 प्रतिशत कम है."
कुल मांग अभी भी महामारी से पहले के स्तर तक नहीं पहुंच सकी है लेकिन फिर भी एयरपोर्ट और एयरलाइन्स बोझ तले दबे जा रहे हैं.
लॉरी गैरो महामारी शुरू होने के पहले जून के महीने और इस साल जून से तुलना करती हैं और देखती हैं कि तब और अब अमेरिका में उड़ानों में हुई देरी और उड़ानें रद्द होने में कितना अंतर है.
लॉरी गैरो कहती हैं कि अंतर तो ज़्यादा नहीं है. बस अब उतने विमान चालू स्थिति में नहीं है. अब किसी दिक्कत को दूर करना ज़्यादा चुनौती भरा हो गया है. कुछ अप्रत्याशित बदलाव भी हुए.
लॉरी गैरो बताती हैं, " महामारी के दौरान एक दिलचस्प बात हुई. मांग बहुत तेज़ी के साथ घटी. कई एयरलाइन्स कंपनियों ने पुराने विमानों को रिटायर करने का फ़ैसला कर लिया. पुराने विमान में ईंधन की खपत ज़्यादा होती थी. पर्यावरण के मानकों में भी वो पीछे थे. ऐसे में महामारी के दौर के मुक़ाबले उत्सर्जन के लिहाज से आज हवाई यात्रा ज़्यादा स्वच्छ है."
लॉरी बताती हैं कि मौज मजे के लिए यात्रा करने वाले लोग महामारी से पहले के दौर के मुक़ाबले अब ज़्यादा खर्च करने को तैयार हैं. बिज़नेस से जुड़ी यात्राओं की संख्या कम हुई है. विमान कंपनियां बदली परिस्थिति के मुताबिक रणनीति बनाना चाहती हैं.
लॉरी कहती हैं कि इस उद्योग की मदद के लिए सरकार भी कुछ कदम उठा सकती है.
वो कहती हैं, " पहली बात तो ये है कि हमें ये मानना होगा कि एयरलाइन्स देश की सुरक्षा और यातायात व्यवस्था में अहम भूमिका निभाती है. कोविड की शुरुआत में जब स्थितियां काफी खराब थीं तब तमाम सरकारों ने कदम उठाए. उन्होंने हवाई सेवा को बहाल रखा. पीपीई किट, वेंटिलेटर, महामारी से मुक़ाबले और अर्थव्यवस्था को चलाए रखने के लिए ज़रूरी चीजें विमानों के जरिए लाई ले जाई गईं."
लॉरी कहती हैं कि विमानन उद्योग को भविष्य के संभावित झटकों से बचाने के लिए भी सरकारें तैयारी कर सकती हैं. वो एयर ट्रैफ़िक कंट्रोल सिस्टम का आधुनिकीकरण कर सकती हैं और ये एक बड़ी मदद होगी.
कर्मचारियों की कमी
'एल्टन एविएशन' के प्रबंध निदेशक उमंग गुप्ता बताते हैं, "एयर स्टाफ की स्थिति अभी खराब है. मुझे नहीं लगता कि गर्मी के मौसम में स्थिति में सुधार आएगा."
'एल्टन एविएशन' कंसल्टेंसी फर्म है. महीनों तक रोक के बाद उड़ानें शुरू होते ही लाखों लोग टिकट बुक करने में जुट गए. उमंग गुप्ता बताते हैं कि मांग में इस कदर उछाल आया जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था.
एयरपोर्ट पर आम तौर पर 'चेक इन स्टाफ़' और 'केबिन क्रू' नज़र आते हैं. लेकिन विमान की सुचारू उड़ान के लिए पर्दे के पीछे कई लोग काम कर रहे होते हैं.
उमंग गुप्ता कहते हैं, "हम उन लोगों की बात कर रहे हैं जो सामान संभांलते हैं. वो लोग भी हैं जो लोगों को विमान से टर्मिनल तक ले जाते हैं. इनके अलावा ट्रैफ़िक कंट्रोलर होते हैं. भोजन और पेय से जुड़ी सेवाओं को देखने वाले लोग होते हैं. मेंटिनेंस करने वाले भी होते हैं. विमान के उड़ान भरने के पीछे एक बड़ा तंत्र मदद में जुटा होता है."
एयरलाइन्स और एयरपोर्ट ऑपरेटर्स पर वेतन और भत्तों का एक बड़ा बोझ होता है. महामारी के दौरान कई कर्मचारियों और ठेकाकर्मियों ने या तो नौकरी छोड़ दी या उन्हें निकाल दिया गया. अब मांग के मुताबिक तैनात करने के लिए कर्मचारी नहीं हैं. पायलट भी कम हैं. कुछ ने तय रकम लेकर नौकरी छोड़ दी. उनकी जगह भरने में वक्त लग रहा है.
विमान पायलट का लाइसेंस हासिल करने के लिए कम से कम 15 सौ घंटे की उड़ान का अनुभव ज़रूरी है.
उमंग गुप्ता कहते हैं कि इस बारे में बहस होती है कि क्या इसे कम किया जा सकता है. वो बताते हैं कि कमर्शियल पायलटों की उम्र जब साठ साल के पार हो जाती है तो उन्हें रिटायर होना होता है. रिटायर होने की उम्र बढ़ाने का भी सुझाव दिया जा रहा है.
उमंग गुप्ता बताते हैं, "इन तमाम मुद्दों पर श्रमिक समूहों, एयरलाइन कंपनियों, संबंधित सरकारों और नियामकों के बीच बहस चलती रहती हैं. मुझे नहीं लगता कि इस दिशा में जल्दी कोई बदलाव होने जा रहा है. इस मामले का लंबा और गहन मूल्यांकन ज़रूरी है. ये एक मुश्किल विषय़ है."
पायलटों की उपलब्धता और यात्रियों की बढ़ती मांग के बीच का अंतर छोटे ऑपरेटरों पर दबाव बढ़ा रहा है. उमंग गुप्ता कहते हैं क्षेत्रीय एयरलाइन कंपनियों को ज़्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. बड़ी कंपनियों ने ज़्यादातर पायलटों को नियुक्त कर लिया है.
दूसरे तमाम पद भी खाली हैं. मौजूदा कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ गया है.
उमंग गुप्ता कहते हैं, "स्थिति ये है कि कई बार उड़ानों में देरी हो रही है या फिर उन्हें कैंसल किया जा रहा है. आपको परेशान और चिढ़े हुए यात्रियों का सामना करना होता है. इस इंडस्ट्री में काम करने वालों को काफी दबाव और थकान झेलते हुए काम करना पड़ रहा है."
लौटते हैं उसी सवाल पर कि क्या हवाई सफर कभी सुचारू हो पाएगा,
हमारे एक्सपर्ट की राय है कि ऐसा मुमकिन है. लेकिन इसके लिए कम से कम अगले साल तक इंतज़ार करना होगा. जहां दूसरे देशों के यात्रियों के आने पर अब भी रोक है, वहां इससे भी ज़्यादा समय लग सकता है.
इस समस्या का चुटकी बजाते हल तलाशना मुश्किल है. हवाई सफर महंगा होने के भी आसार हैं. हर मोर्चे पर कर्मचारियों की कमी है. पायलटों की कमी का असर उड़ानों पर हो रहा है.
अभी जो अफरा तफरी की स्थिति है, उसमें सुधार होने से पहले हालात और भी खराब हो सकते हैं. जब लंबी कतारों का दौर ख़त्म हो जाएगा तब सुधार का असर दिखेगा लेकिन महामारी से पहले वाली स्थिति शायद ही आ पाएगी. (bbc.com)