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कैंसर के इलाज के दौरान क्यों जरूरी है साइको-ऑन्कोलॉजी
10-Feb-2023 4:37 PM
कैंसर के इलाज के दौरान क्यों जरूरी है साइको-ऑन्कोलॉजी

दुनिया भर में हर साल लाखों लोग कैंसर से प्रभावित होते हैं. यह कई लोगों के लिए डरावनी खबर होती है. जर्मनी के दो मरीजों ने बताया कि किस तरह साइको-ऑन्कोलॉजी ने उन्हें इस बीमारी से लड़ने में मदद की.

   डॉयचे वैले पर गुडरुन हाइजे की रिपोर्ट-

जर्मनी में रहने वाले कुर्त श्रोएडर (बदला हुआ नाम) कहते हैं, "मेरे लिए चिंता की बात इलाज नहीं थी, बल्कि यह थी कि मुझे हाल ही में पता चला कि डॉक्टरों को अभी भी मेरे शरीर में कैंसर कोशिकाएं मिली हैं.” उन्होंने आगे कहा, "अग्न्याशय में कैंसर का पता चलना बहुत बुरी खबर होती है. डॉक्टरों ने सर्जरी करके कैंसर से प्रभावित हिस्से को बाहर निकाल दिया है. अब सिर्फ अवशिष्ट कोशिकाएं बची हैं. मुझे उम्मीद है कि अब मेरे शरीर में कैंसर से प्रभावित कोई भी हिस्सा नहीं बचा होगा, लेकिन मैं एक आशावादी इंसान हूं.”

श्रोएडर की उम्र 61 वर्ष है. वह हमेशा स्वस्थ रहे हैं. अपने शौक, पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं के वैज्ञानिक अध्ययन के साथ-साथ फोटोग्राफी को लेकर उत्साहित रहते हैं. अगस्त 2022 में पता चला कि उन्हें कैंसर है. अक्टूबर में उनकी पहली सर्जरी हुई. अग्न्याशय और ग्रहणी (छोटी आंत का पहला भाग) के तथाकथित ‘सिर' को हटा दिया गया. इसके बाद कीमोथेरेपी की गई.

इसके कई साइड इफेक्ट भी होते हैं, जैसे कि मतली, उल्टी और स्वाद में बदलाव. श्रोएडर ने कहा, "ब्रेड का स्वाद सैंडपेपर की तरह लगता था. केले बहुत मीठे लग रहे थे. मैं उन्हें बिल्कुल नहीं खा सकता था.”

कैंसर काउंसलिंग सेंटर में मिली मदद
कैंसर का पता चलने के बाद वे जर्मन शहर मुंस्टर स्थित कैंसर काउंसलिंग सेंटर की प्रमुख गुडरून ब्रून्स के पास पहुंचे. ब्रून्स के पास साइको-ऑन्कोलॉजी के क्षेत्र में दशकों का अनुभव है. यह कैंसर से निपटने का वैज्ञानिक तरीका है जो 1970 के दशक में विकसित हुआ. ब्रून्स ने कहा, "साइको-ऑन्कोलॉजी कैंसर से होने वाले मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभावों से निपटने में मदद करता है.” अध्ययनों से पता चलता है कि कैंसर के इलाज के दौरान 25 से 30 फीसदी मरीजों में मनोवैज्ञानिक विकार या समस्याएं पैदा होती हैं.

साइको-ऑन्कोलॉजी काउंसलर मरीजों की दिनचर्या को बेहतर बनाने और समस्याओं से निपटने में मदद करते हैं. वे इलाज से जुड़े अगले संभावित चरणों के बारे में जानकारी देते हैं. मरीजों को यह भी बताते हैं कि उन्हें किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है और उससे किस तरह से निपटना चाहिए.

श्रोएडर कहते हैं, "मिसेज ब्रून्स कई सारे ऐसे लोगों और संस्थानों को जानती हैं जो कैंसर के इलाज से जुड़े हैं. यह एक मनोवैज्ञानिक मदद है. इससे आपको पता रहता है कि आप जरूरत के वक्त अलग-अलग जगहों पर जा सकते हैं.”

साइको-ऑन्कोलॉजी को पूरी दुनिया में मिलना चाहिए महत्व
इंटरनेशनल साइको-ऑन्कोलॉजी सोसाइटी (आईपीओएस) का मुख्य लक्ष्य है कैंसर के भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर ज्यादा ध्यान देना, मरीजों को इलाज की बेहतर सुविधा उपलब्ध कराना, उन्हें कैंसर के इलाज से जुड़ी जगहों की जानकारी देना और कैंसर के इलाज से जुड़ी स्थितियों को बेहतर बनाना.

आईपीओएस की स्थापना 1984 में हुई थी. यह संगठन कनाडा के टोरंटो और अमेरिका के न्यूयॉर्क में स्थित है, जो दुनिया भर में साइको-ऑन्कोलॉजी को कैंसर के इलाज का अभिन्न अंग बनाने के लिए काम करता है. अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए यह संगठन कई अंतरराष्ट्रीय समूहों के साथ मिलकर काम करता है. साथ ही, यह कैंसर से जुड़े तमाम पहलुओं पर गहन शोध को बढ़ाने का काम कर रहा है.

इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर (आईएआरसी) के मुताबिक, 2020 में दुनिया भर में 1.9 करोड़ से अधिक लोगों में कैंसर का पता चला. आने वाले समय में यह संख्या और बढ़ेगी. आईएआरसी का अनुमान है कि 2020 में दुनिया भर में कैंसर से मरने वालों की संख्या 99 लाख 60 हजार थी, जो 2040 तक लगभग दोगुनी होकर एक करोड़ 63 लाख हो जाएगी.

ऐसे में साइको-ऑन्कोलॉजी काउंसलिंग और थेरेपी पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. कैंसर से जूझ रहे सभी मरीजों को एक ही तरह की चिंता और आशंकाओं का सामना करना पड़ता है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किस तरह के कैंसर से प्रभावित हैं या वे अफ्रीका, यूरोप या एशिया कहां रह और इलाज करा रहे हैं.

मरीजों के परिजनों को भी मदद की दरकार
कैंसर का पता चलने पर न सिर्फ किसी व्यक्ति की जिंदगी बदल जाती है, बल्कि उसके परिवार के सदस्यों का जीवन भी बदल जाता है. अध्ययनों से पता चलता है कि परिजन भी मनोवैज्ञानिक तनाव से जूझ रहे होते हैं.

ब्रून्स कहती हैं, "रिश्तेदार अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते हैं कि वे मरीज की ज्यादा से ज्यादा सहायता कर पाएं. इससे उनकी भी जिंदगी में उथल-पुथल मच जाती है. वे अपनी जरूरतों और इच्छाओं को भी पूरा करना छोड़ देते हैं, जैसे कि सिनेमा देखने जाना या कहीं घूमने जाना. अगर वे अपनी इच्छाओं या जरूरतों को पूरा करते हैं, तो नैतिक तौर पर उन्हें लगता है कि वे गलत कर रहे हैं.”

हालांकि, इस तरह के व्यवहार से किसी को फायदा नहीं मिलता. ब्रून्स आगे कहती हैं, "यह जरूरी है कि रिश्तेदार खुद को मजबूत और तरोताजा बनाए रखने के तरीके खोजें.”

श्रोएडर ने खुद अनुभव किया है कि कैंसर मरीजों के प्रति अत्यधिक नि:स्वार्थ होकर उनकी सेवा करने से परिजन किस तरह प्रभावित हो सकते हैं. उनके साथी सिमोन बर्मन (बदला हुआ नाम) का 2010 में गर्दन के कैंसर का इलाज हुआ था.

वह कहते हैं, "जब मैं अपने साथी के साथ वापस आया, तो मैंने अनुभव किया कि मैं कितना ज्यादा थक गया था. फिर जब मुझे अपने कैंसर का पता चला, तो मैंने उसे सलाह दी कि वह हर दिन अस्पताल न आए. वह अक्सर मुझसे मिलने आया करती थी. कुछ समय बाद, वह भावनात्मक रूप से काफी ज्यादा टूट गई.”

बर्मन ने भी कैंसर से लड़ाई लड़ी है. उन्होंने कहा, "वह तेजी से बढ़ने वाला ट्यूमर था. मेरे तीन ऑपरेशन हुए. गर्भाशय और योनी के कुछ हिस्सों को हटा दिया गया.”

तब से 55 वर्षीय बर्मन कैंसर से मुक्त हैं. उन्होंने अनुभव किया कि जो वक्त उन्होंने अस्पताल में गुजारे थे वह उनके साथी से बहुत अलग था. वह कहती हैं, "मेरे लिए यह जरूरी था कि वह बार-बार मेरे पास आए. उससे मुझे मदद मिलती थी. इससे मुझे लगता था कि वहां मेरे लिए कोई है.”

डरावना है कैंसर का इलाज
कैंसर के इलाज के तुरंत बाद ज्यादातर लोगों में बड़े स्तर पर भावनात्मक बदलाव दिखते हैं. ब्रून्स कहती हैं, "यह सिर्फ चिंता, गुस्सा और चिड़चिड़ापन नहीं है. लोगों को अपना स्वास्थ्य खोने का भी दुख होता है.”

वह आगे कहती हैं, "बीमारी का पता चलने से पहले ज्यादातर लोग अपने स्वास्थ्य को हल्के में लेते हैं. आज कैंसर का इलाज काफी हद तक मुमकिन है. कई तरह के कैंसर इलाज से ठीक हो जाते हैं. हालांकि, शरीर कमजोर हो जाता है. कई मरीजों को यह डर रहता है कि उनकी बीमारी ठीक नहीं हो सकती है. यह फिर से हो सकती है और इससे उनकी मौत हो जाएगी.”

ब्रून्स कहती हैं, "इसलिए यह जरूरी है कि कैंसर मरीजों को लगातार प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. यह साइको-ऑन्कोलॉजी के सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है. इस दौरान मरीजों को कभी अकेला नहीं छोड़ना चाहिए और उनकी बातें सुननी चाहिए.”

श्रोएडर कहते हैं, "इसके लिए कोई निर्धारित दिनचर्या नहीं है. हर दिन बातचीत होती है. जैसे कि मिसेज ब्रून्स पूछती हैं कि आज आप कैसे हैं? क्या चल रहा है? और फिर आप भी बात करना शुरू कर देते हैं.” (dw.com)

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