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सिएटल अमेरिका का पहला शहर बना जहां जातिगत भेदभाव पर लगा प्रतिबंध
22-Feb-2023 8:44 AM
सिएटल अमेरिका का पहला शहर बना जहां जातिगत भेदभाव पर लगा प्रतिबंध

क्षमा सावंतइमेज स्रोत,TWITTER/KSHAMA SAWANT

अमेरिका का सिएटल शहर बन गया है जहां जाति आधारित भेदभाव को प्रतिबंधित कर दिया गया है.

सिएटल सिटी काउंसिल ने मंगलवार को शहर के भेदभाव विरोधी क़ानून में जाति को भी शामिल कर लिया है.

6-1 से पारित किए गए अध्यादेश के समर्थकों ने कहा कि जाति आधारित भेदभाव राष्ट्रीय और धार्मिक सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं और ऐसे क़ानून के बिना उन लोगों को सुरक्षा नहीं दी जा सकेगी जो जातिगत भेदभाव का सामना करते हैं.

सिएटल की सिटी काउंसिल (नगर परिषद) में एक हिंदू प्रतिनिधि ने एक प्रस्ताव पेश किया था जिसे लेकर भारतीय मूल के लोगों के बीच बहस छिड़ गई.

ये प्रस्ताव जाति आधारित भेदभाव पर रोक लगाने को अध्यादेश लाने से जुड़ा था.

प्रस्ताव पेश करने वाली प्रतिनिधि क्षमा सावंत हैं. काउंसिल में मंगलवार को प्रस्ताव पर वोटिंग हुई जिसके बाद सिएटल अमेरिका का पहला ऐसा शहर बन गया है जहां जातिगत भेदभाव ग़ैरक़ानूनी हो गया है.

इसे लेकर दक्षिण एशियाई समुदाय के बीच विभाजन भी देखने को मिला है. इस समुदाय के लोग संख्या में कम हैं, लेकिन उन्हें प्रभावशाली समूह के तौर पर देखा जाता है.

अमेरिका की नगर परिषद में पेश हुआ ये अपनी तरह का पहला प्रस्ताव है. समर्थक इसे सामाजिक न्याय और समानता लाने की दिशा में अहम क़दम बताया जा रहा है.

दूसरी तरफ़ लगभग बराबर की संख्या में ऐसे लोग हैं, जो इसका विरोध कर रहे हैं. उनका आरोप है कि इस प्रस्ताव का मक़सद दक्षिण एशिया के लोगों ख़ास भारतीय अमेरिकियों को निशाना बनाना है.

क्षमा सावंत ख़ुद ऊंची जाति से आती हैं. उन्होंने कहा, " हमें ये समझने की ज़रूरत है कि भले ही अमेरिका में दलितों के ख़िलाफ़ भेदभाव उस तरह नहीं दिखता जैसा कि दक्षिण एशिया में हर जगह दिखता है, लेकिन यहां भी भेदभाव एक सचाई है."

भारतीय मूल के कई अमेरिकियों की राय है कि जाति को नीति का हिस्सा बना देने से अमेरिका में 'हिंदूफोबिया' की घटनाएं बढ़ सकती हैं.

अमेरिका में 42 लाख से ज़्यादा भारतीय मूल के लोग
बीते तीन साल के दौरान पूरे अमेरिका में दस हिंदू मंदिरों और पांच प्रतिमाओं का नुक़सान पहुंचाया गया है. इनमें महात्मा गांधी और मराठा राजा छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा शामिल हैं. इन घटनाओं को कुछ लोगों ने हिंदू समुदाय को डराने की कोशिश के तौर पर देखा.

अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों की आबादी अप्रवासियों में दूसरे नंबर पर है.

समाचार एजेंसी पीटीआई ने अमेरिकन कम्यूनिटी सर्वे के 2018 के आंकड़े के हवाले से बताया है कि अमेरिका में भारतीय मूल के 42 लाख लोग रहते हैं.

सिएटल सिटी काउंसिल का अध्यादेश उसी तरह का है जैसे कि साल 2021 में सांटा क्लारा ह्यूमन राइट्स कमीशन में इक्वैलिटी लैब ने लाने की कोशिश की थी.

अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों की आपत्तियों को सुनने के बाद ये प्रस्ताव ख़ारिज हो गया था.

सिएटल में पेश प्रस्ताव में इक्वैलिटी लैब्स के जाति आधारित सर्वे का इस्तेमाल किया गया है.

अध्यादेश में हिंदू शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया लेकिन जातिगत सर्वे की बात को लेकर विवाद छिड़ गया है.

आंबेडकर फुले नेटवर्क ऑफ़ अमेरिकन दलित्स एंड बहुजन्स ने एक बयान जारी किया है. इस बयान में कहा गया है, "जाति को विशेष रुप से संरक्षित कैटेगरी में शामिल करने से दक्षिण एशिया मूल के सभी लोग अनुचित तरीके से अलग थलग हो जाएंगे. इनमें दलित और बहुजन समाज भी शामिल है."

बयान में कहा गया है, " अगर पारित हुआ तो इस क़ानून के चलते सिएटल के नियोक्ता दक्षिण एशिया के लोगों को काम पर रखें, इसकी संभावना कम हो जाएगी. ये दलित और बहुजन समेत दक्षिण एशिया मूल के सभी लोगों के लिए रोजगार और अवसरों में कमी का ग़ैरइरादतन नतीजा होगा."

अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वाले अहम संगठन इक्वैलिटी लैब ने सोमवार को सिटी काउंसिल के सदस्यों से अनुरोध किया कि वो अपना वोट 'हां' के पक्ष में दें.

इक्वैलिटी लैब ने कहा, "हम लंबे समय से जानते हैं कि अमेरिका के स्कूलों और कामकाज की जगहों पर जातिगत भेदभाव होता है. बावजूद इसके ये एक दबा छुपा मामला है."

प्रस्ताव के विरोध में तर्क
कोएलिएशन ऑफ़ हिंदूज़ ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका की पुष्पिता प्रसाद कहती हैं, "ये देखना भयावह है कि हेट ग्रुप्स के ग़लत डेटा पर आधारित अप्रमाणित दावों के जरिए एक अल्पसंख्यक समुदाय को खुलेआम अलग थलग किया जा रहा है."

पुष्पिता प्रसाद का समूह पूरे अमेरिका में इस तरह के प्रस्तावों के ख़िलाफ़ अभियान चला रहा है.

वो कहती हैं, " प्रस्तावित अध्यादेश अल्पसंख्यक समुदाय (दक्षिण एशियाई लोगों) के नागरिक अधिकारों का उल्लंघन करेगा क्योंकि पहली बात है कि ये उन्हें अलग-थलग करता है. दूसरी बात है कि ये मानता है कि दक्षिण एशिया के लोगों के बीच दूसरे मानवीय समुदायों के मुक़ाबला ज़्यादा भेदभाव है और तीसरी बात है कि ये अनुमान हेट ग्रुप्स के ग़लत डेटा के आधार पर लगाया गया है."

अध्यादेश के पक्ष और विरोध में सार्वजनिक तौर पर अभियान चलाए जा रहे हैं.

इसके प्रस्तावक अमेरिका के अख़बारों के कॉलम और आलेख लिख रहे हैं.

कोएलिएशन ऑफ़ हिंदूज़ ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका ने शहर के पार्षदों और दक्षिण एशिया के लोगों को हज़ारों ई मेल भेजे हैं. उन्होंने मीटिंग आयोजित की है ताकि विरोध किया जा सके और तमाम कारण गिनाते हुए इसे एक 'बुरा विचार' बताया जा सके.

करीब सौ संगठनों और कारोबारियों के समूह ने इस हफ़्ते सिएटल सिटी काउंसिल को पत्र भेजा और उनसे प्रस्ताव के खिलाफ़ यानी 'नहीं' का वोट देने की गुजारिश की.

कोएलिएशन ऑफ़ हिंदूज़ ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका के प्रमुख निकुंज त्रिवेदी ने कहा, " प्रस्तावित अध्यादेश अगर अमल में आया तो मान लिया जाएगा कि ये पूरा समुदाय, ख़ासकर अमेरिका में रहने वाले हिंदू जाति आधारित भेदभाव के दोषी हैं, बशर्ते वो ख़ुद को निर्दोष साबित न कर दें. ये अमेरिका की संस्कृति नहीं है और ग़लत है. "

उधर, प्रस्ताव पेश करने वाली प्रतिनिधि क्षमा सावंत भी वोटिंग के पहले अपने अभियान को गति देने में जुटी रहीं.

उन्होंने भारतीय मूल के दो अमेरिकी सांसदों रो खन्ना और प्रमिला जयापाल को पत्र लिखकर समर्थन मांगा.

भारत में जाति आधारित भेदभाव पर साल 1948 में रोक लगा दी गई थी और 1950 में संविधान में भी ये नीति शामिल की गई. (bbc.com/hindi)

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