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कूनो: शेरों के लिए बने घर में रहेंगे चीते, बेघर हुए आदिवासी- ग्राउंड रिपोर्ट
26-Feb-2023 6:44 PM
कूनो: शेरों के लिए बने घर में रहेंगे चीते, बेघर हुए आदिवासी- ग्राउंड रिपोर्ट

-सलमान रावी

कुछ बेतरतीब कच्चे-पक्के मकानों की इस बस्ती तक आने वाली सड़क 'सीमेंट' की बना तो दी गई है मगर इसकी लंबाई सौ मीटर के आस-पास ही होगी. जहाँ सड़क ख़त्म होती है, वहाँ से कच्ची सड़क पर गंदे पानी का जगह-जगह पर जमाव है.

बस्ती में मौजूद 105 घरों में से ज़्यादातर में महिलाएँ दूर के गाँव फ़सल काटने गई हैं. धूल और कीचड़ में लिपटे बच्चे खेल रहे हैं जबकि कुछ पुरुषों का जमावड़ा, पाती सहरिया की टूटी-फूटी गुमटी पर लगा है.

पाती सहरिया उन सैकड़ों आदिवासियों में से हैं जिनके गांव बीस साल पहले तक कूनो अभयारण्य के जंगलों में हुआ करते थे.

फिर एक परियोजना बनी कि गुजरात के गीर वन से कुछ 'एशियाटिक लायन' यानी बब्बर शेरों को कूनो के जंगलों में लाकर बसाया जाएगा.

इन शेरों को कूनो में बसाने के लिए जंगल के अंदर बसे हुए सहरिया आदिवासियों के गाँवों को दूसरी जगह आबाद करने का प्रस्ताव रखा गया.

दिग्विजय सिंह और नरेंद्र मोदी की भूमिका
ये प्रस्ताव तब आया था जब मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार थी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी थे.

हालांकि, इस परियोजना पर काम 1999 में यानी मोदी के मुख्यमंत्री बनने के कुछ पहले शुरू हुआ. काम शुरू होने पर एक-एक करके सहरिया जनजाति और कुछ दूसरी जनजातियों के लोगों के 28 गाँवों से विस्थापन होने लगा. ये प्रक्रिया अगले दो सालों यानी 2003 तक चलती रही.

तत्कालीन राज्य सरकार ने विस्थापित होने वाले गाँवों के लोगों कूनो के जंगलों से हटने के लिए मना भी लिया.

मध्य प्रदेश की मौजूदा सरकार के वन विभाग में प्रमुख मुख्य वन रक्षक (वन्य प्राणी) यानी 'पीसीसीएफ' जसवीर सिंह चौहान ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि 'पुनर्वास पैकेज 'स्थानीय परिस्थितियों' को ध्यान में रखते हुए बनाया गया था.

पुनर्वास पैकेज की चर्चा करते हुए वो बताते हैं कि उसमें दो तरह के प्रावधान रखे गए थे. नक़द राशि या फिर 'ज़मीन के बदले ज़मीन.'

जिन लोगों ने नक़द राशि लेने का विकल्प चुना वैसे हर परिवार को एक लाख रुपये देने का प्रावधान किया गया. अगर उन्होंने ज़मीन के बदले ज़मीन माँगी तो हर परिवार को दो हेक्टेयर ज़मीन दी गई.

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कूनो
कूनो से विस्थापित होने वाले सहरिया और भील आदिवासियों या दूसरी जाति के लोगों को भी इसी 'पैकेज' के तहत मुआवज़ा दिया गया. चौहान बताते हैं कि इसके अलावा नए स्थान पर बिजली की व्यवस्था, सड़क, चिकित्सा और खेत की सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराया गया.

अगरा, पौरी, करहल, सेसईपुरा, चेटीखेड़ा और विजयपुर के इलाकों में ज़मीन चिन्हित की गई जहाँ इन विस्थापितों को बसाने का इंतज़ाम किया गया. इन जगहों पर विस्थापित आदिवासियों की बस्तियों का वही नाम रखा गया है जो नाम जंगल के अंदर रहते हुए उनके गाँवों का हुआ करता था.

बीस सालों के बाद अब जंगल के अन्दर 'सिर्फ़ एक ही गाँव' बचा हुआ है जिसका नाम बागचा है. इस गाँव को दूसरी जगह बसाने की प्रक्रिया चल ही रही है क्योंकि अभी तक वैकल्पिक ज़मीन उपलब्ध नहीं हो पाई है.'

आदिवासी गए, मगर शेर नहीं आए
विस्थापन की प्रक्रिया पूरी हो गई और इसको बीस साल से ज़्यादा का समय भी बीत गया. मगर, गीर वन के शेर नहीं आए क्योंकि गुजरात की तत्कालीन नरेंद्र मोदी सरकार ने इन्हें कूनो भेजने से मना कर दिया था.

इस परियोजना पर भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने काम तब शुरू किया जब 'वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया' ने सरकार को प्रस्ताव दिया कि 'एशियाटिक लायन' सिर्फ़ गुजरात के गीर वन में ही हैं. अगर इनके बीच कोई बीमारी फैली या इनकी आबादी घटी तो ये विलुप्त हो जाएँगे इसलिए इन्हें बचाने के उद्देश्य से ये ज़रूरी होगा कि इनमें से कुछ शेरों को किसी दूसरे वन क्षेत्र में बसाया जाए.

संस्था ने मध्य प्रदेश के कूनो के जंगलों और इलाके के वातावरण को शेरों के लिए अनुकूल पाया.

संस्था का सुझाव इसलिए भी था क्योंकि उसने 'तंजानिया के सेरेंगेटी नेशनल पार्क' में वर्ष 1994 में हुई लगभग 2500 शेरों की मौतों का अध्ययन किया. इन शेरों की मौत एक वायरस के फैलने की वजह से हुई थी.

गीर वन से शेरों को लाने की परियोजना को तीन चरणों में लागू होना था. वर्ष 2000 तक तैयारी, 2005 तक इनका कूनो में स्थानान्तरण और 2015 तक इनकी संख्या को बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया.

लेकिन गुजरात सरकार ने अपने शेर, मध्य प्रदेश भेजने से मना करते हुए दावा किया कि गीर में वर्ष 1985 तक इनकी संख्या 191 थी जो वर्ष 2000 में बढ़कर 400 हो गई थी इसलिए इन्हें गीर में ही रहने दिया जाना चाहिए.

ये मामला क़ानूनी दांव-पेंच में भी जा फँसा और सुप्रीम कोर्ट तक गया, इस प्रक्रिया में भी लगभग दस साल लग गए.

वर्ष 2022 तक जंगलों के अंदर बसी आबादी को हटाया गया जिसमें 90 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की थी जबकि बाक़ी की 10 प्रतिशत में अन्य पिछड़ा वर्ग के परिवार शामिल हैं.

कई आदिवासी वापस जंगल लौटे तो उन्हें वापस खदेड़ दिया गया.

वर्ष 2001 की बात है जब कूनो के अंदर के एक गाँव -नयागाँव से विस्थापित हुए सहरिया आदिवासी जंगल अपने पुराने गाँव पहुँच गए. मगर फिर 6 महीने बाद वन विभाग ने उन्हें फिर से निकाल दिया. इस दौरान झड़पें भी हुईं और ग्रामीणों पर वन विभाग के कर्मचारियों पर हमला करने के मामले भी दर्ज किए गए.

नई जगह क्या है दिक़्कतें
मध्य प्रदेश के मुख्य वन रक्षक (वन्य प्राणी) जसवीर सिंह चौहान कहते हैं कि पहले कूनो एक 'सैंक्चुअरी' हुआ करती थी जो 345 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई थी. ये तब की बात है जब गीर वन के शेरों को यहाँ लाने की बात हो रही थी.

वे कहते हैं, "इस सैंक्चुअरी के अंदर 24 गाँव थे. इस इलाके को तैयार किया जा रहा था शेरों के लिए. अब वहाँ पर पूरे के पूरे गाँव सैंक्चुअरी से हट गए हैं. इसके बाद 2018 में इसे 'अपग्रेड' किया गया एक नेशनल पार्क के लिए. अब ये 750 वर्ग किलोमीटर से भी ज़्यादा का इलाका बन गया है."

पालपुर के जरोडा गाँव के रहने वाले बाईसराम सहरिया का कहना है कि राज्य सरकार ने पुनर्वास के 'पैकेज' से 'सीधे-सादे आदिवासियों' को गुमराह करने में सफलता हासिल कर ली. वे कहते हैं कि सरकार ने जंगल की ज़मीन के बदले जंगल की हदों से बाहर 9.5 बीघा ज़मीन दी. एक लाख रुपये नक़द देने की घोषणा भी की.

वे बताते हैं, "एक-एक करके हमारे गाँवों को खाली करा दिया गया. 9.5 बीघा ज़मीन दी गई. 36 हज़ार रुपये नक़द दिए जबकि एक लाख रुपये देने का वादा था लेकिन बताया गया कि एक लाख रुपया जो उन्हें हमें देना था उसमें से लाइट का पैसा काट लिया, सड़क बनाने का पैसा काट लिया, लकड़ी के 'प्लांटेशन' का पैसा काट लिया, चारे के 'प्लांटेशन' का पैसा काट लिया. इसके अलावा, खेतों में तीन 'फेज़' बिजली देनी थी, उसका भी पैसा हमारे मुआवज़े की रक़म से ही काट लिया गया था. अब बाकी बचे 36 हज़ार रुपये में एक शौचालय नहीं बन सकता, घर कहाँ से बनता?"

बाईसराम कहते हैं कि विस्थापित हुए उन्हें अब 22 साल हो गए हैं जिनको ज़मीन दी गई ऐसे 444 ज़मीन के टुकड़ों की लिखा-पढ़ी भी नहीं हुई है.

उनका कहना था, "वन विभाग ने सरकार को पट्टों की जानकारी भेजी भी है या नहीं? ये हमें पता ही नहीं. उन्होंने इन पट्टों को किस में डाल दिया है, ये भी नहीं पता. जो पट्टे दिए गए हैं, उनको कम्प्यूटर में दिखवाते हैं तो ज़मीन दिखती नहीं है. बोलते हैं ज़मीन है ही नहीं."

लेकिन वन विभाग ने आदिवासियों को जो बताया था और जिन ग्रामीणों ने बेहतर जीवन के सपने देखे थे वो तब धाराशायी हो गए जब उन्होंने पाया कि जो ज़मीन के बदले उन्हें ज़मीन दी गई है वो पथरीली है जिसमें खेती कर पाना संभव ही नहीं था.

विस्थापित ग्रामीणों का आरोप है कि जो 36 हज़ार रुपये की नक़द राशि की बात कही जा रही है, वो भी किसी को एकमुश्त नहीं मिली. बाईसराम के अनुसार ये राशि दी तो गई मगर किस्तों में. "कभी पांच हज़ार रुपये दिए, कभी तीन, कभी दो हज़ार. पैसे आए और कहाँ चले गए पता ही नहीं चला."

पैरा पालपुर के राम चरण सहरिया जब जंगल में अपने गाँव में रहते थे तो वो 40 बीघा ज़मीन के मालिक थे. उनके पास दस गाय और दूसरे मवेशी भी थे. लेकिन जंगल से बाहर निकाले जाने के बाद अब उनके पास कुछ नहीं है.

राम चरण कहते हैं, "अपने मवेशियों का पालन करके मैं अपने बच्चे पाल रहा था. जीवन में खुशहाली थी. अब यहाँ लाकर हमें पत्थर की ज़मीन पर डाल दिया. अब हमारे बच्चे कहते हैं हमारा हिस्सा दो. मैं नौ बीघा ज़मीन में अपना जीवन व्यतीत करूं या तीनों बच्चों में बाटूँ. रहने के लिए जगह नहीं है तो मैं क्या कर सकता हूँ. अपना जीवन परेशान, बच्चों का जीवन परेशान. उनकी शादी हो चुकी है. दो-दो बच्चे हो चुके हैं उनके. मैं इतने लोगों को किस तरह पालूँगा. ये नौ बीघा ज़मीन में मैं क्या कर सकता हूँ. मेरे खेत में आठ इंच मिट्टी है. हल चलाते हैं जोतने के लिए तो वो पत्थरों में फँस जाता है. फ़सल क्या निकलेगी यहाँ तो पत्थर निकल रहे हैं."

हालांकि मध्य प्रदेश की सरकार का दावा है कि गीर वन के सिंहों को बसाने के लिए जिन आदिवासियों और अन्य ग्रामीणों का विस्थापन किया गया है वो "ख़ुश" हैं और "बीस साल से खेती" कर रहे हैं. ये दावा जसवीर सिंह चौहान ने बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में किया है.

अच्छे दिन चले गए
श्रीराम सहरिया जब कूनो में अपने गाँव में रहा करते थे तो उनके पास 40 गायें और तीस बकरियाँ थीं. उनके पास ज़मीन भी काफ़ी थी जिस पर वो रबी और खरीफ़ की 'बंपर खेती' करते रहे थे. वे कहते हैं कि इतना अनाज होता था कि उनके परिवार की साल भर की ज़रूरत पूरी करने के अलावा उसे बेच कर पैसा भी कमाते थे.

अब वे बताते हैं, "अब तो कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ. वैसे तो उतनी पूँजी ही नहीं है, फिर भी मान लीजिए अगर पशु पाल भी लेंगे और फिर मज़दूरी के लिए बाहर चले जाएंगे तो उनका क्या होगा. हम यहाँ रह नहीं पाते हैं क्योंकि मजदूरी के लिए सात से आठ महीनों तक हमें दूसरे प्रदेशों में जाना पड़ता है. सबसे बड़ी परेशानी यही है कि यहाँ सिचाई का इंतज़ाम नहीं है. पथरीली ज़मीन है. जल्दी-जल्दी पानी डालेंगे तो फ़सल होगी, नहीं तो नष्ट हो जाएगी. पानी देने का वादा किया था. अधूरे बने हुए कुएं अभी तक वैसे ही पड़े हुए हैं."

वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद भार्गव लंबे समय से कूनो के आदिवासियों और ग्रामीणों के विस्थापन पर नज़र रखते आ रहे हैं. उन्होंने बताया कि जब कूनो के जंगलों से ग्रामीणों के विस्थापन का प्रस्ताव तैयार किया जा रहा था तो सरकार का तर्क था कि वहाँ रहने वाले आदिवासी वन्य जीवों को नष्ट कर देंगे.

लेकिन भार्गव सरकार के तर्क को चुनौती देते हुए कहते हैं कि वन्य जीवों की जितनी भी प्रजातियाँ नष्ट हुईं हैं वो सिर्फ़ शिकार की वजह से ही हुईं हैं. मिसाल के तौर पर वे कहते हैं कि चाहे बड़े महल हों या संग्रहालय, वहाँ शेरों और दूसरे जीवों की खाल में भूसे भरकर लगाए गए हैं.

भार्गव के अनुसार, "जिनकी खाल में भूसे भरकर लगाए गए हैं उसमें शेर भी हैं, तेंदुए भी और बाघ भी. सारी प्रजातियाँ हैं. और वहाँ उनकी संख्या भी लिखी हुई है कि किस महाराजा ने कितने शिकार किए या कितने शिकार किसी अंग्रेज़ शिकारी ने किए. इन सब चीज़ों का स्पष्ट उल्लेख है. ज़ाहिर है, गाँव के आदिवासियों से शेरों को या किसी भी प्रजाति को नुक़सान नहीं पहुंचा है. जो भी नुकसान हुआ है वो सामंतों से ही हुआ है."

वन्य प्राणियों की रक्षा को लेकर काम करने वाले कार्यकर्ता अजय दूबे कहते हैं, "शेरों के लिए घर बनाया गया, मगर अब कूनो में चीते ही मौज करेंगे."

राज्य सरकार नामीबिया और दक्षिण अफ़्रीका से लाये गए 20 चीतों के लिए अब कूनो से लगे और भी गाँवों के अधिग्रहण की योजना बना रही है ताकि मौजूदा जंगल का विस्तार हो सके और उसमें चीतों की चहलक़दमी के लिए 'ग्रासलैंड' विकसित किए जा सकें. (bbc.com/hindi)

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