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कौन हैं निर्दलीय उम्मीदवार रवींद्र सिंह भाटी जिनकी रैली की भीड़ देखकर लोग हो रहे हैं हैरान
16-Apr-2024 12:38 PM
कौन हैं निर्दलीय उम्मीदवार रवींद्र सिंह भाटी जिनकी रैली की भीड़ देखकर लोग हो रहे हैं हैरान

-त्रिभुवन

आज कल जिस तरह से राजनीति में पैसे का ज़ोर बढ़ा है, उसे देखते हुए क्या कोई कल्पना कर सकता है कि एक सरकारी स्कूल के शिक्षक का बेटा राजस्थान के सभी ताक़तवर नेताओं को चंद दिनों के अंदर अपनी राजनीतिक लोकप्रियता से अवाक कर देगा? वह भी तब जब वह निर्दलीय चुनाव लड़ रहा हो.

समर्थकों को संबोधित करते रवींद्र सिंह भाटी

 

लेकिन पश्चिमी राजस्थान के बॉर्डर वाले इलाके में जहां रेत के धोरों पर हर वक़्त ख़ामोशियां झांकती हैं और जहां उम्मीद की खिड़कियां जानें कितनी सदियों से बंद हैं, वहां आज गली-गली में एक नाम का शोर है. वह नाम है रवींद्र सिंह भाटी.

बाड़मेर तो बाड़मेर, गुजरात के सूरत जैसे शहर हों या महाराष्ट्र का पुणे, हर नज़र इस युवा चेहरे के शौक़-ए-दीदार के लिए बेचैन दिखता है. पिछले दिनों वे इन दोनों राज्यों के कई शहरों में प्रवासी राजस्थानी मतदाताओं से संपर्क साधने के लिए पहुंचे थे.

जेम्स बॉण्ड कल्चर

समर्थकों को संबोधित करते रवींद्र सिंह भाटी

राज्य की सरहदों को लांघती उनकी लोकप्रियता की वजह के बारे में बाड़मेर इलाक़े के मूल निवासी और राजस्थान के प्रसिद्ध समाजवादी नेता अर्जुन देथा का तर्क है, ''यह छोरों की जमात है और जेम्स बॉण्ड कल्चर है. उनके सामने भाजपा-काँग्रेस के उम्मीदवार जाट हैं तो राजपूत, ब्राह्मण, वैश्य, राजपुरोहित आदि और कुम्हार, कळबी, बिश्नोई, सुनार, सुथार, चारण सहित ओबीसी की कई जातियों के बेरोज़गार युवा भी जातिगत ध्रुवीकरण की वजह बने हैं."

विधानसभा चुनावों में बाड़मेर ज़िले की शिव सीट से काँग्रेस और भाजपा के उम्मीदवारों को पराजित कर राजस्थान की राजनीति में उदित हुए रवींद्र सिंह भाटी पहेली बनते नज़र आ रहे हैं.

समाजशास्त्री राजीव गुप्ता बताते हैं, ''इलाके का युवा लंबे समय से उपेक्षित था. उसकी आवाज़ को कोई नहीं सुन रहा था. बेरोज़गारी यहाँ की बड़ी समस्या है. भाटी ने इस सबको ताक़तवर तेवर और आवाज़ देकर एक पॉलिटिकल कैपिटल में कन्वर्ट कर दिया है."

हर किसी को भाटी से रश्क है?

वैसे तो बाड़मेर लोकसभा क्षेत्र में तीन प्रमुख उम्मीदवार हैं : भाजपा के कैलाश चौधरी, जो केंद्र में कृषि और किसान कल्याण राज्य मंत्री हैं. काँग्रेस के उम्मेदाराम, जो विधानसभा चुनाव में राजस्थान लोकतांत्रिक पार्टी के टिकट पर काँग्रेस के हरीश चौधरी के सामने बायतू से 910 वोट से हार गए थे.

तीसरे स्थान पर आते हैं रवींद्र सिंह भाटी जो निर्दलीय हैं. लोकसभा चुनाव से पहले उम्मेदाराम आरएलपी से काँग्रेस में आए हैं.

लेकिन भाटी जैसा माहौल कोई भी उम्मीदवार अपने पक्ष में नहीं बना पाया है.

भाटी ने सोशल मीडिया की धमनियों में जो आग उड़ेली है, उससे हर किसी को रश्क हो रहा है. कांग्रेस उम्मीदवार उम्मेदाराम के समर्थकों ने उन्हें ट्विटर पर कई बार ट्रेंड करवाने की कोशिश की, लेकिन वे कामयाब नहीं हुए हैं.

सियासत के खारेपन को पच नहीं रही है लोकप्रियता?

इस लोकसभा क्षेत्र की आठ विधानसभा सीटों में से पांच भाजपा के पास हैं तो एक कांग्रेस और दो निर्दलीय हैं. कुछ समय पहले तक भाटी सहित दोनों निर्दलीय भाजपा के खेमे में थे.

विधानसभा चुनाव से पहले भाटी को भाजपा में इस शर्त पर शामिल किया गया था कि उन्हें शिव से पार्टी उम्मीदवार बनाएगी. लेकिन टिकट स्वरूपसिंह खारा को दे दिया गया तो भाटी ने नामांकन भर दिया. वे पार्टी के साथ नहीं रहे और ज़बरदस्त चुनाव लड़कर जीत गए.

जीतने के बाद भाटी सियासी रूप से ख़ामोश रहे; लेकिन उनकी ख़ामोशी के रंग को भाजपा नेताओं ने नहीं समझा. अलबत्ता, उनसे मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने एक लंबी मुलाक़ात की. इसके बाद भाटी को उम्मीद थी कि या तो उन्हें बाड़मेर से भाजपा टिकट देगी या इलाक़े में उन्हें ऐसा रिस्पॉन्स देगी, जिससे क्षेत्र में उनका क़द और सम्मान बढ़े.

लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो भाटी नामांकन से पहले जनता के बीच पहुंचे और समर्थकों को आवाज़ दी तो ऐसी तस्वीर बनी कि उसने उन्हें एक सियासी सितारे में बदल दिया.

पुराने नेताओं के प्रति बेरुख़ी

उदयपुर के सुखाड़िया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़सर रहे और अब राजस्थान की चुनावी राजनीति को देख-परख रहे प्रो. अरुण चतुर्वेदी बताते हैं, ''भाटी का एक नए सितारे के रूप में उभरने के पीछे कास्टबेस, लोगों में नए चेहरे के प्रति सम्मोहन और पुरानी लीडरशिप के प्रति बेरुख़ी भी एक बड़ा कारण है.”

चतुर्वेदी बताते हैं कि सचिन पायलट, राजकुमार रोत, हनुमान बेनीवाल आदि के प्रति लोगों के रुझान की एक बड़ी वजह यही है. लोग अब पुराने नेताओं से ऊब चुके हैं और वे राजनीति में कुछ नया देखने के प्रति लालायित हैं.

विधानसभा चुनाव हुए तो भाजपा के विद्रोही निर्दलीय के रूप में भाटी ने जीत दर्ज की थी और निर्दलीय कांग्रेस के बागी फ़तेह खान को 3,950 वोट से हराया था. भाजपा के स्वरूप सिंह खारा 22,820 वोट से तो कांग्रेस उम्मीदवार अमीन खान 24,231 वोट से पिछड़ गए थे.

भाजपा और कांग्रेस के तीन पुराने दिग्गजों को हराने से भाटी की लोकप्रियता और बढ़ गई.

छात्रसंघ की राजनीति से मुख्यधारा की राजनीति में

भाटी पहली बार 2019 में उस समय पॉपुलर हुए, जब वे जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर में विद्रोही उम्मीदवार के रूप में खड़े हुए और भारी वोटों से जीते.

भाटी उस समय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विद्यार्थी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े हुए थे. उनकी टिकट के लिए दावेदारी थी. लेकिन एबीवीपी ने उन्हें टिकट नहीं दिया. भाटी ने विद्रोह कर दिया और वे निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में उतरे.

जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय में इससे पहले कोई भी निर्दलीय जीत नहीं सका था. लेकिन भाटी ने निर्दलीय जीत दर्ज की, वो भी 1300 वोटों से.

कोई नहीं सोच सकता था कि भारी धनबल, भुजबल और जातिबल वाले छात्र नेताओं की रवायत को सरकारी स्कूल के एक पीटीआई का 21 साल का बेटा, जो बाड़मेर के गडरा रोड से बेहद पिछड़े इलाके के सुदूर गांव दूधोरा से आकर राजस्थानी में एमए कर रहा है, इस तरह चुनौती देगा.

गहलोत सरकार से भिड़ गए थे

राज्य की गहलोत सरकार के एक निर्णय ने इस छात्र नेता की छवि को राज्य स्तरीय बना दिया.

गहलोत सरकार के समय एक ऑडिटोरियम बनाने के लिए विश्वविद्यालय की 37 बीघा भूमि अधिग्रहण की जाने लगी तो भाटी ने इसका ज़बरदस्त विरोध किया. उनका तर्क था कि 1200 करोड़ रुपए मूल्य की यह भूमि विश्वविद्यालय की है. इसे जेडीए कैसे ले सकता है.

सरकार नहीं मानी तो उन्होंने विधानसभा पर विशालकाय प्रदर्शन किया और मुख्यमंत्री के गृह क्षेत्र में सरकार के लिए एक बड़ी सिरदर्दी पैदा कर दी. इस आंदोलन ने भाटी को राज्य स्तरीय पहचान दे दी.

मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ लड़ना चाहते थे भाटी

विधानसभा चुनाव आए तो भाटी दो सीटों में से किसी एक पर भाजपा के उम्मीदवार के रूप में लड़ना चाहते थे. एक सीट थी सरदारपुरा, जहां से पिछली सरकार के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत लड़ रहे थे और दूसरी थी शिव, जहां से भाजपा के कई दावेदार थे.

भाटी को न तो सरदारपुरा से टिकट दिया गया और न ही शिव से. भाजपा के एक नेता बताते हैं, ''सरदारपुरा से उन्हें टिकट दिया जा रहा था; लेकिन इसका विरोध इस कारण हुआ कि इससे इस लड़के की छवि पूरे देश में बन जाएगी और यह जोधपुर में कुछ नेताओं के लिए एक नया सिरदर्द हो जाएगा. एक डर ये भी था कि मोदी नया विकल्प मिलते ही, किसी का भी टिकट काट देते हैं तो रवींद्र के बाद तो स्थिति बदल ही जाएगी.''

भाटी बताते हैं कि उनके मन में सरदारपुरा से चुनाव लड़ने की बहुत इच्छा थी; लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने टिकट नहीं दिया. भाजपा के कुछ नेता भाटी को एक दायरे में ही रखने के पक्ष में थे; लेकिन उनकी इस जुगत ने भाटी को उस बॉल की तरह उछाल दिया, जो दबाने पर प्रतिक्रिया में अधिक उछलती है.

भाटी विधायक बन गए तो उन्होंने बिना शर्त अपना समर्थन भाजपा को दे दिया.

हैंडपंप का मुद्दा बन गया बड़ा सवाल

लेकिन जैसे ही लोकसभा चुनाव आए, उससे पहले बाड़मेर ज़िले की प्यासी सियासत में हैंडपंप लगाने का एक मुद्दा उठा. भाजपा के एक राज्यस्तरीय नेता बताते हैं, ''सत्ता और संगठन के स्तर पर इस नाज़ुक मुद्दे को बहुत संजीदगी से डील नहीं किया गया.''

वे बताते हैं, ''हैडपंप के इस मुद्दे का हत्था उछलकर सीधे सत्तारूढ़ भाजपा के माथे में लगा है जो दर्द दे रहा है.''

इसी साल 14 मार्च को राज्य के सिंचाई महकमे ने बाड़मेर ज़िले में हैंडपंप मंज़ूर किए जाने का एक परिपत्र जारी किया. इसमें भाटी के शिव विधानसभा क्षेत्र में 22 हैंडपंप मंज़ूर किए गए; लेकिन भाटी की अनुशंसा सिर्फ़ दो के लिए ही दर्शाई गई. बाक़ी सभी के लिए स्वरूप सिंह खारा का नाम था.

संदेश साफ़ था कि प्यासे शिव के लिए विधायक भाटी तो महज़ दो हैंडपंप लगवा रहे हैं और उनके सामने हारे हुए उम्मीदवार की अनुशंसा पर 20 हैंडपंप लगवाए जा रहे हैं. यह भी संकेत गया कि भाटी कमज़ोर और खारा ताक़तवर नेता हैं.

सियासी सफ़र की शुरुआत में हुआ यह फ़ैसला नवनिर्वाचित विधायक भाटी के लिए एक अजीब सा दर्द लेकर आया. इससे उन्हें अपने सियासी सपनों का सितारा खंडित होते दिखा; लेकिन उनकी आंखें बुझी नहीं और उन्होंने इसे एक चुनौती के रूप में लिया.

रन फॉर रेगिस्तान और जनसंवाद जैसी यात्राएं

भाटी इससे पहले 'गोवंश बचाओ अभियान' के माध्यम से 20 हज़ार गायों को बीमारियों से मुक्त करवाने का काम कर चुके थे. इससे आम ग्रामीणों में उनकी लोकप्रियता ने पैठ बना ली.

'रन फॉर रेगिस्तान' और 'जनसंवाद' जैसी यात्राओं ने भी उन्हें आम लोगों तक पहुंचने में मदद की. उनके सहयोगी की भूमिका में रहने वाले युवा बताते हैं कि भाटी जब भी कोई अभियान शुरू करते हैं तो उनकी आंखें सोना भूल जाती हैं. उनके ख़्वाब उनकी युवा साथियों की आंखों में चहलकदमी करने लगते हैं.

ताज़ा हालात बता रहे हैं कि इससे भाजपा की ही नहीं, कांग्रेस की भी सियासी ज़मीन बेअक्स होकर रह गई है और कई नेताओं के फ़लक के आईने मैले हो गए हैं.

ट्विटर, फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम के माध्यम से भाटी की लोकप्रियता शहर और गांवों के साथ-साथ जाति और धर्म के दायरों को लांघ गई है. बाड़मेर के सुदूर गांवों में लड़के-लड़कियां आधी रात को भाटी के लिए रील बनाकर पोस्ट करते हैं.

जाट बनाम अन्य की राजनीति का मिथक

इसकी एक वजह यह है कि इस इलाके में पिछले तीस-पैंतीस साल से जाट सांसदों का वर्चस्व रहा है. राजपूत हाशिए पर होते चले गए हैं. दरअसल, पहले बाड़मेर राजपूत वर्चस्व वाला इलाका था; लेकिन साल 2009 के पुनर्सीमांकन के समय यहां से पोकरण और शेरगढ़ जैसे राजपूत बहुल इलाकों को जोधपुर में मिला दिया गया.

ज़ाहिर सी बात है कि अब 26 अप्रैल को बाड़मेर-जैसलमेर लोकसभा क्षेत्र में होने वाले चुनाव ने सभी को अपनी प्रतिष्ठा का एहसास करवा दिया है. यहां रिफ़ाइनरी का काम हुआ. उसमें अधिकतर भागीदारी जाट पृष्ठभूमि वाले लोगों की रही. इसका कोई सटीक अध्ययन नहीं हुआ है; लेकिन चर्चाओं के आधार पर इस इलाके में जाट बनाम अन्य का ध्रुवीकरण ज़ोर पकड़ रहा था. भाटी के आते ही उसे एक आवाज़ मिल गई.

भाटी के आसपास इतने युवा उमड़ आए हैं कि कांग्रेस से अधिक भाजपा भयभीत है; क्योंकि राजपूत मतदाता परंपरागत रूप से भाजपा का मतदाता है.

राजनीति विज्ञान के प्रो. संजय लोढ़ा मानते हैं, "युवाओं को अच्छे विकल्प की तलाश है और जहां भी यह संभव है, लोग उस तरफ उमड़ रहे हैं. प्रदेश में थर्ड स्पेस की गुंजाइश है और भाटी के प्रति आकर्षण की वजह भी यही है."

भाटी को लेकर उनके आलोचकों का मानना है कि वे बहुत ही महत्त्वाकाँक्षी हैं और उनका कोई वैचारिक आधार नहीं है.

जैसे पहले वे विधानसभा चुनाव में अचानक भाजपा में शामिल हो गए; लेकिन टिकट नहीं मिला तो उन्होंने निर्दलीय ताल ठोंक दी. इसी तरह पहले छात्र राजनीति में एबीवीपी से टिकट नहीं मिला तो वे निर्दलीय खड़े हो गए.

भाटी स्वयं राजपूत जाति से आते हैं, जबकि उनके सामने दोनों प्रमुख उम्मीदवार जाट हैं. पिछले दिनों विधानसभा चुनाव में उनका भाजपा के साथ जाना उनके मुस्लिम मतदाताओं को चौंकाता है.

इसी तरह उनके आलोचक यह भी मानते हैं कि विधानसभा के चुनाव और लोकसभा चुनाव के बीच बहुत अंतर होता है. शिव बहुत छोटा इलाका था, जबकि बाड़मेर बहुत बड़ा है.

उनके विरोधी प्रचार कर रहे हैं कि अगर वे जीत भी गए तो निर्दलीय रूप में क्या करवा पाएंगे?

मोदी की सभा का असर

भाजपा के रणनीतिकारों के आग्रह पर पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यहां बड़ी सभा को संबोधित किया है. बीजेपी इलाके के राजपूत और मुस्लिम मतदाताओं से अच्छा रुसूख रखने वाले पूर्व सांसद मानवेंद्र सिंह को कांग्रेस से भाजपा में लाने में सफल हुई है.

मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा सहित कई नेता बाड़मेर-जैसलमेर इलाकों में डेरा डाले रहे हैं, तो अब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, स्मृति ईरानी, फिल्म अभिनेता सनी देओल, बाबा बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री, पहलवान दिलीप सिंह राणा उर्फ़ खली सहित कई ताक़तवर नेताओं और प्रसिद्ध हस्तियों को प्रचार में झोंकने की तैयारियां हैं.

राष्ट्रीय राजनीति में बाड़मेर की सियासत

बाड़मेर भले कितना ही रेगिस्तानी और रेतीला इलाक़ा रहा हो; लेकिन यह राज्य और देश की राजनीति को हिलाता रहा है.

1967 और 1971 के चुनाव में यहां से कांग्रेस के टिकट पर जीते अमृत नाहटा ने 1975 में चर्चित फ़िल्म 'किस्सा कुर्सी का' बनाई थी तो हंगामा हो गया था. आपातकाल के दौर में सेंसर बोर्ड से लाकर इस फ़िल्म के प्रिंट तक जला दिए गए थे.

साल 1971 के चुनाव में नाहटा ने राजस्थान की बहुत बड़ी शख़्सियत भैरोसिंह शेखावत को 55,573 वोट से बाड़मेर सीट पर हराया था. नाहटा वैश्य थे और शेखावत राजपूत. जाति वर्चस्व के बावजूद शेखावत की वह हार बहुत चर्चा में रही थी.

ऐसे में सवाल यही है कि क्या रवींद्र सिंह भाटी अब नई चर्चाओं को विस्तार देंगे या फिर संसद तक पहुंचने के लिए उन्हें अभी लंबा सफ़र तय करना होगा. (bbc.com/hindi)

 

 

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