संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : घर में नहीं दाने, और अम्मा चली भुनाने...
26-Apr-2024 4:37 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  घर में नहीं दाने, और अम्मा चली भुनाने...

फोटो : सोशल मीडिया

छत्तीसगढ़ के जिन निजी अस्पतालों में सरकारी योजनाओं के तहत गरीबों का बिना भुगतान इलाज होता है, और जिसका भुगतान बाद में सरकार करती है, उनका काम ठप्प हो गया है। अस्पतालों का कहना है कि राज्य में आयुष्मान योजना का भुगतान ही हजार करोड़ से अधिक बकाया हो गया है, और ऐसे में उनके लिए यह मुमकिन नहीं है कि इस योजना के तहत इलाज और ऑपरेशन करें, और अस्पताल भी चलाएं। इस योजना में 40 फीसदी योगदान राज्य सरकार का रहता है, और 60 फीसदी रकम केन्द्र सरकार से आती है। छत्तीसगढ़ में पिछली भूपेश सरकार के समय से सैकड़ों करोड़ का यह बकाया चले आ रहा था, जो अब बढ़ते-बढ़ते शायद 13 सौ करोड़ तक पहुंच गया है। यह हालत भी तब है जब 6 महीने के फासले में दो-दो चुनाव हो रहे हैं, और 6 महीने बाद पंचायत-म्युनिसिपल चुनाव भी हैं, और वैसे में अगर गरीब जनता का इलाज बंद हो रहा है, तो उसके चुनावी-राजनीतिक नतीजे तो होंगे ही। पिछले विधानसभा चुनाव के समय केन्द्र सरकार से ग्रामीण रोजगार की योजना मनरेगा के भी 6-7 सौ करोड़ रूपए आने बाकी थे, और मजदूरी का भुगतान कई महीनों से नहीं हुआ था। एक और विभाग की बात करें तो जिन निजी स्कूलों में शिक्षा के अधिकार योजना के तहत गरीब बच्चों का दाखिला होता है, वहां पर सरकार से उनकी फीस न पहुंचने की वजह से उन स्कूलों को भी परेशानी हो रही है। कुल मिलाकर कोई भी सरकार हो, उसकी जनकल्याण की योजनाओं का हाल इसलिए बदहाल है कि चुनावी नजरिए से इनकी घोषणाएं तो हो जाती हैं, लेकिन राज्य के बजट में इनका ठीक से इंतजाम नहीं रहता, और साथ-साथ बजट में दिखाई गई कमाई कभी पूरी नहीं आती। इन सबसे परे केन्द्र और राज्य सरकारों पर कोरोना-लॉकडाउन के दौर में जो भारी-भरकम बोझ पड़ा, उसमें भी हर राज्य कर्ज में दब गए, अर्थव्यवस्था चौपट हो गई। 

अभी चल रहे लोकसभा चुनाव के दौरान ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बुजुर्गों के इलाज की एक नई योजना भी घोषित की है, और चुनाव प्रचार के रूप में उसके फॉर्म भी भरवाए जा रहे हैं। अब आज अगर पुरानी योजनाओं का यह हाल है कि न तो पिछली कांग्रेस सरकार, और न ही वर्तमान भाजपा सरकार सरकार की मौजूदा योजनाओं के तहत इलाज का खर्च उठा पा रही हैं, निजी अस्पताल अपने बिल लिए हुए बंद होने की कगार पर हैं, तो ऐसे में किसी भी तरह की नई योजना की घोषणा के पहले यह तौलना जरूरी है कि इनका भुगतान कहां से होगा। चुनावी घोषणाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भी मामला चल रहा है कि जनता को मुफ्त में देने के वायदों की सीमा कैसे तय की जाए, सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार और चुनाव आयोग को नोटिस जारी करके उनकी राय पूछी भी है, लेकिन ऐसा लगता है कि किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर एक बार सरकार बना लेने के लिए राजनीतिक दल कोई भी वायदा करने के लिए तैयार हैं, और फिर चाहे उसे पूरा न कर सकें। छत्तीसगढ़ में यह बहुत भयानक नौबत है कि निजी अस्पताल सरकार की योजनाओं के तहत इलाज करने से मना कर रहे हैं, क्योंकि उधारी की उनकी क्षमता खत्म हो चुकी है। 

चुनाव जीतने के गलाकाट मुकाबले से परे यह समझने की जरूरत है कि राज्यों को अंधाधुंध कर्ज लेकर रेवड़ी बांटने के अंदाज में सहूलियतें नहीं बांटनी चाहिए। छत्तीसगढ़ की पिछली कांग्रेस सरकार ने अपनी राजनीतिक घोषणा के तहत हर आय वर्ग के लोगों का मुफ्त सरकारी इलाज करवाने का वायदा किया था, और उसे लागू भी कर दिया था। नतीजा यह था कि महंगी कारों में अस्पताल पहुंचने वाले लोग भी मुफ्त में इलाज पा रहे थेे, और सरकार वादाखिलाफी की तोहमतों से बचने के लिए गरीब-अमीर सभी को मुफ्त इलाज दे रही थी, निजी अस्पतालों में भी। इस सिलसिले ने न सिर्फ सरकार के इस विभाग की कमर तोड़ दी, बल्कि राज्य का पूरा विकास भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुआ। जनकल्याण की कोई भी योजना जरूरतमंद तबके के लिए ही होनी चाहिए। बहुत बड़े संपन्न किसानों की कर्जमाफी से लेकर, पैसेवालों के मुफ्त इलाज तक, राजनीतिक दल लापरवाही से कही हुई अपनी बातों पर अड़े रहने के लिए जनता के बजट का कितना भी हिस्सा खर्च करने को तैयार हो जाते हैं। बिजली की रियायत देने के लिए गरीब-अमीर हर किसी को एक सीमा तक छूट देना भी इसी किस्म का बेदिमागी का फैसला है, क्योंकि जिनके घर एसी चलते हैं, हजारों रूपए का बिल आता है, उन्हें दो सौ यूनिट की छूट क्यों देनी चाहिए? 

सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मामले के दौरान ही यह बात साफ होनी चाहिए कि राजनीतिक दल जब कभी ऐसी कोई घोषणा करें, तो उसके साथ यह शर्त जुड़ी रहे कि लाभ पाने वाले लोगों के बारे में नियम और शर्त भी घोषित की जाए, और अनुमानित खर्च भी बताया जाए। इसके बिना किसी तरह के जनकल्याण की कोई योजना, या कोई रेवड़ीनुमा योजना घोषित नहीं होनी चाहिए। इसे राजनीतिक दलों की मान्यता के चुनाव आयोग के नियमों से भी जोड़ा जा सकता है, या सुप्रीम कोर्ट जैसा कि कुछ दूसरे मामलों में करता है, संसद को भी सुझा सकता है कि वह इस बारे में कोई व्यापक कानून बनाए। आज देश के कई प्रदेशों की हालत मुफ्त की योजनाओं की वजह से खराब है। पंजाब मुफ्त की बिजली देकर दीवालिया होने की कगार पर है, गुजरात और हरियाणा में आयुष्मान योजना बंद ही कर दी है, बंगाल की हालत सरकारी कर्मचारियों को तनख्वाह देने की नहीं है। यह सिलसिला चुनावी जीतने के लिए किए जाने वाले वायदों की वजह से इस नौबत तक पहुंचा है। यह बंद होना चाहिए। देश में वित्तीय अनुशासन बने रहने के लिए यह भी होना चाहिए कि जनता के समझ आने वाली जुबान में केन्द्र और राज्य हर सरकार को अपनी योजनाओं की लागत समझाना चाहिए, और राजनीतिक दलों को अपने घोषणा पत्र की लागत साथ लिखनी चाहिए। आज कहने के लिए हर गरीब को अनाज, मकान, बेरोजगारी भत्ता, मुफ्त इलाज, मुफ्त पढ़ाई जैसी हजार बातें कही जाती हैं, लेकिन हकीकत यह है कि मनरेगा के मजदूरों को भी महीनों तक मजदूरी नहीं मिलती। देश में यह राजनीतिक पाखंड खत्म होना चाहिए, और सुप्रीम कोर्ट को इस मामले की सुनवाई के दौरान ही ऐसा इंतजाम करना चाहिए कि राजनीतिक दल, और केन्द्र या राज्य सरकारें जनता के सामने पारदर्शी हिसाब रखने को मजबूर हों। फिलहाल देश के राज्यों को इस बात से जूझना है कि जो इलाज जनता को चाहिए, उसका भुगतान कैसे होगा, और अभी इस चुनाव में जिन और लोगों को मुफ्त इलाज से जोडऩे की घोषणा हुई है, उनका खर्च कहां से आएगा? 

 (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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