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भीषण गर्मी से दलितों को सबसे ज्यादा नुकसान क्यों
18-Jun-2024 3:54 PM
भीषण गर्मी से दलितों को सबसे ज्यादा नुकसान क्यों

भारत में पड़ रही भीषण गर्मी की वजह से अब तक 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और हजारों लोग बीमार पड़ चुके हैं. इसका सबसे ज्यादा असर हाशिए पर पड़ी दलित जातियों पर हो रहा है.

  डॉयचे वैले पर मिदहत फातिमा का लिखा-

भारत में इस साल मई की शुरुआत से पड़ रही भीषण गर्मी की वजह से उत्तरी और पश्चिमी इलाकों में तापमान रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है. गर्म हवा के थपेड़ों ने कई लोगों की जान ले ली है. भीषण गर्मी की वजह से अब तक 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है.

देश के मौसम विभाग ने मई के अंत में रेड अलर्ट जारी किया था. इसमें चेतावनी दी गई थी कि 'इस बात की काफी ज्यादा आशंका है कि बहुत से लोग गर्मी से होने वाली बीमारी और हीट स्ट्रोक से प्रभावित होंगे.' जो लोग खुले वातावरण में काम करते हैं, उन्हें काफी ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत है.

खौलती गर्मी के लिए कितनी तैयार है दुनिया

इसके बावजूद, इस भीषण गर्मी में कई लोग खुले वातावरण और गर्म मौसम में काम करने के लिए मजबूर हैं. अगर वे काम नहीं करेंगे, तो उनके घर खाना नहीं पकेगा. ऐसी ही एक महिला हैं कंचन देवी, जो हरियाणा में एक ईंट भट्ठी पर ईंट पकाने का काम करती हैं. यह उनके जीवन-यापन का एकमात्र साधन है.

कंचन देवी जैसे मजदूरों के लिए तापमान की चेतावनी बहुत काम नहीं आती. 20 साल की कंचन देवी दलित समुदाय से आती हैं. यह भारत की सदियों पुरानी भेदभावपूर्ण जाति व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर रखा गया और ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर धकेला गया समुदाय है. सिर पर सिर्फ एक कपड़ा लपेटे कंचन ईंट बनाने के लिए भट्ठी पर घंटों तक काम करती हैं. पिछले महीने काम करते हुए उन्हें चक्कर आने लगा और बाद में ब्लड प्रेशर कम होने के कारण अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा.

जान जोखिम में डालकर काम करना
सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन ने एक सर्वे किया है. सर्वे में शामिल 21 ईंट भट्ठों पर काम कर रहे मजदूरों से बातचीत के दौरान उन्होंने पाया कि यहां काम करने वाले 50 फीसदी से अधिक श्रमिक दलित थे. 

नई दिल्ली में निर्माण कार्यों के लिए काम करने वाले एक दलित मजदूर राहेब राजपूत ने डीडब्ल्यू को बताया कि मई में लू लगने की वजह से उनके चचेरे भाई की मौत हो गई थी. राहेब बताते हैं, "हमारी जिंदगी हमेशा खतरे में रहती है. हर साल गर्मी बढ़ती जा रही है."

जलवायु परिवर्तन के दौर में तेज हो रही ग्लोबल वॉर्मिंग के बीच हीटस्ट्रोक की चपेट में आने वालों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है. शोध बताते हैं कि आने वाले समय में करोड़ों भारतीय भीषण गर्मी की चपेट में आ सकते हैं. स्थितियां अभी ही बेहद चिंताजनक हैं. 

न्यूज वेबसाइट द प्रिंट ने सरकारी आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया कि भारत में गर्मी के मौसम के दौरान मार्च से लेकर मई तक लगभग 25,000 लोगों के हीटस्ट्रोक का शिकार होने का अनुमान है, यानी वे लू की चपेट में आए हैं. नागरिक अधिकार संगठन 'नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट्स' ने मांग की है कि इस साल की भीषण गर्मी को भारत के आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत आपदा घोषित किया जाए.

जाति और गर्मी से बीमार होने के बीच क्या संबंध है?
असहनीय गर्मी पड़ने पर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की समस्याओं को कई अध्ययनों और रिपोर्टों में दिखाया गया है. भारत के कामगारों का बहुत बड़ा हिस्सा इसी क्षेत्र में आता है. हालांकि, इस बात पर काफी कम चर्चा की गई है कि जाति भी गर्मी से बीमार होने के खतरे को बढ़ाने वाला एक कारक है.

विशेषज्ञों का मानना है कि सामाजिक और आर्थिक स्थिति से भी यह तय होता है कि कौन से लोग गर्मी से ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं और किन पर कम असर पड़ेगा. यूरोपियन ट्रेड यूनियन इंस्टिट्यूट (ईटीयूआई) के एक अध्ययन से पता चला है कि काम के दौरान गर्मी में रहने से गरीब और अमीर लोगों के बीच स्वास्थ्य संबंधी असमानता और बढ़ जाती है. 

भारत के सबसे अधिक आबादी वाले शहरों में से एक बेंगलुरु में भारतीय प्रबंधन संस्थान के प्रोफेसर अर्पित शाह बताते हैं, "शोध से पता चलता है कि भारत के आधुनिक बाजार अर्थव्यवस्था में जाति व्यवस्था के आधार पर काम का बंटवारा अभी भी जारी है."

अर्पित शाह अपने मौजूदा शोध में इस बात का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि जाति और काम के दौरान गर्मी के संपर्क में आने का क्या संबंध है. वह कहते हैं, "निर्माण क्षेत्र में लगे मजदूर और सफाई कर्मचारियों में दलित और हाशिए पर पड़े अन्य समाज के लोग ज्यादा होते हैं. चूंकि ये काम ज्यादातर खुले वातावरण में ही करने पड़ते हैं, तो भीषण गर्मी में इन लोगों के बीमार पड़ने का खतरा भी ज्यादा रहता है."

कुछ रिपोर्टों के मुताबिक, भारत में करीब 90 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स की 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक, असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों में से एक बड़ी आबादी दलित समुदाय, अनुसूचित जनजाति और अन्य वंचित जातियों से ताल्लुक रखती है.

ईंट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूरों की चुनौतियां
ईंट भट्ठों पर काम करने वाले ज्यादातर मजदूर प्रवासी होते हैं. ये लोग ईंटों को एक-दूसरे के ऊपर रखकर बनाई गई ऐसी झुग्गियों में रहते हैं, जिनकी छत पर टिन की चादरें या तिरपाल का इस्तेमाल किया जाता है. कभी-कभी प्रवासी मजदूर अपने बच्चों समेत पूरे परिवार के साथ भट्ठों पर भीषण गर्मी में रहते हैं.

कंचन देवी बताती हैं कि वह रात में खुले मैदान में सोती थीं. वह कहती हैं, "हमारी टिन की छत वाली झुग्गी के अंदर ज्यादा गर्मी होती है." ज्यादातर झुग्गियों में पंखे और बिजली के बल्ब तक नहीं होते हैं. डीडब्ल्यू से बात करने वाले कई मजदूरों ने बताया कि उन्होंने पंखे का इंतजाम खुद से किया है.

बातचीत के दौरान यह भी पता चला कि कई जगहों पर मजदूरों को पीने का पानी भी नहीं दिया जाता. उन्हें आस-पास के इलाकों में पानी की तलाश करनी पड़ती है और यह कमी उन्हें जोखिम में भी डालती है. पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के पूर्व शोधकर्ता गुलरेज शाह अजहर ने बताया कि लोगों के रहने के तौर-तरीकों की वजह से भी गर्मी से बीमार होने का खतरा बढ़ सकता है.

गुलरेज कहते हैं, "मान लें कि कोई व्यक्ति झुग्गी में रहता है. वहां कोई अलग शौचालय नहीं है और न ही वहां नल से पानी आता है, ताकि वह बंद जगह पर नहा सके. इन सभी वजहों से किसी व्यक्ति के लिए गर्मी सहना और भी मुश्किल हो जाता है. साथ ही, उसके बीमार होने का खतरा भी बढ़ जाता है."

प्रकृति और पर्यावरण को लंबे समय से हो रहे नुकसान के कारण तेजी से गर्म होती दुनिया और साल-दर-साल बढ़ते तापमान में खुद को बचाने के लिए जरूरी है कि आप ठंडी और छायादार जगहों पर रहें, लेकिन डीडब्ल्यू ने दलित समुदाय के जिन लोगों से बात की उनमें से ज्यादातर के पास पंखा या कूलर तक नहीं था. एयर कंडीशनर की तो बात ही छोड़िए. यहां तक कि कुछ रिपोर्टों के मुताबिक, वंचित जातियों और आदिवासी परिवारों तक बिजली की पहुंच भी 10 से 30 फीसदी तक कम है.

गर्म लहरों से निपटने की रणनीति
नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी ने संयुक्त राष्ट्र के सेंडाई फ्रेमवर्क फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन को अपनाया और 2016 में अपनी योजना जारी की. शुरुआती योजना के तहत सिर्फ बुजुर्गों और विकलांगों को ही प्राकृतिक आपदा के प्रति संवेदनशील माना गया. दूसरे शब्दों में कहें, तो यह माना गया है कि प्राकृतिक आपदा का सबसे ज्यादा असर बुजुर्गों और विकलांगों पर पड़ता है. हालांकि, 2019 में इसे संशोधित कर अनुसूचित जाति और जनजाति को भी शामिल किया गया.

नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स की महासचिव बीना जॉनसन ने कहा, "राज्य, शहर और जिला स्तर पर गर्मी से निपटने के लिए तैयार की गई योजनाओं, यानी हीट ऐक्शन प्लान में कमजोर जाति समूहों पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में नहीं रखा गया है." दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च थिंक टैंक की ओर से किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि "गर्मी से निपटने के लिए तैयार की गई लगभग सभी योजनाएं कमजोर समूहों की पहचान करने और उन्हें राहत पहुंचाने में विफल रही हैं."

'कास्ट ऐंड नेचर' किताब के लेखक मुकुल शर्मा बताते हैं कि सरकार ने सिर्फ गर्मी से होने वाली मौतों के आंकड़े उपलब्ध कराए हैं, लेकिन संख्याओं को अलग-अलग करने पर पता चलेगा कि पीड़ितों में से कई दलित हैं. वहीं, अजहर कहते हैं, "हम सभी एक अलग ही समय में जी रहे हैं. गर्मी हमारे समय में असमानता से जुड़ा बड़ा मुद्दा है." (dw.com/hi)

 

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