विचार / लेख
यह दुनिया कुछ ऐसे चलती है कि नन्हें-नन्हें निर्दोष या असहाय से नजर आने वाले बच्चों की सजीव आँखों या फिर उनके निर्जीव शरीरों से व्यक्त होने वाली व्यथाओं में मानवता के लिए बेहतर भविष्य की उम्मीदें तलाश की जाती हैं। मसलन, भूमध्य-सागर के तट पर खारे पानी के बीच चिरनिद्रा में सोए पड़े सीरियाई शरणार्थी बालक एलन का विचलित करने वाला चित्र हो या फिर मुजफ्फरपुर रेल्वे प्लेटफॉर्म पर अपनी मृतक प्रवासी मज़दूर माँ के ऊपर पड़ी चादर हटाकर उसे जगाने की कोशिश करता हुआ बच्चा या फिर उस सूट्केस पर थका-मांदा बेसुध सोया हुआ वह बच्चा जिसे विश्व के सबसे विशाल लोकतंत्र की निर्मम सडक़ों पर उसकी प्रवासी मज़दूर माँ घसीटते हुए पैदल ही कहीं दूर अपने गाँव की तरफ लौट रही है।
उक्त सारे चित्र और इनके अलावा और भी हजारों-लाखों चित्र दुनिया के किसी न किसी कोने से लगातार वायरल हो रहे हैं। ये चित्र सत्ताओं में बैठे हुए लोगों को शर्मिंदा तो नहीं ही कर रहे हैं पर उनकी प्रजाओं को अपने होने के बावजूद कुछ भी न कर पाने को लेकर आत्म ग्लानि और क्षोभ में जरूर डूबा रहे हैं। इतना ही नहीं,हमारे बीच से ही कुछ लोग ऐसी ताकतों के रूप में भी उभर रहे हैं जो बच्चों के आसपास मंडराती हुई त्रासदियों को अपने ही द्वारा बुने गए राजनीतिक संदेश प्रसारित करने के लिए संवेदनशून्य होकर इस्तेमाल करना चाह रहे हैं और हम लोग इस सब पर कोई मौन शोक भी व्यक्त करने से कन्नी काट रहे हैं।
हम जिस पीड़ा का जिक्र करना चाहते हैं वह यह नहीं है कि कश्मीर घाटी में तीन साल पहले सेना के एक अफसर ने एक स्थानीय युवक को अपनी जीप के बोनट पर बांध कर सडक़ों पर घुमाया था। अप्रैल 2017 की उस घटना के लिए न सिर्फ अफसर को बाद में क्लीन चिट दे दी गई थी, उसकी इस बात के लिए कथित तौर पर तारीफ भी की गई कि सेना की गाड़ी को पत्थरबाजों से बचाने के लिए उसने इस तरह के आयडिए का प्रयोग किया। हम इस समय जो कहना चाहते हैं उसकी करुणा के केंद्र में कश्मीर घाटी के सोपोर का तीन साल का बच्चा है और उसे लेकर चल रहे विवाद का संबंध टीवी की बहसों में लगातार दिखाई पडऩे वाले परिचित चेहरे संबित पात्रा से है। जिस तरह से पात्रा घटना के संबंध में दी गई अपनी प्रतिक्रिया का बचाव कर रहे हैं और किसी भी तरह का खेद व्यक्त करने को कतई तैयार नहीं हैं, मानकर चला जा सकता है कि उन्हें भी उनकी पार्टी की ओर से क्लीन चिट प्राप्त है।
इसके पहले कि पात्रा के उस विवादास्पद ट्वीट और उस पर चल रही बहस की बात की जाए उस अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार के बारे में थोड़ी सी जानकारी जिसकी कि विश्वसनीयता पर प्रहार के लिए कथित तौर पर बच्चे और उसके मृत नाना को माध्यम बनाया गया। कोई सौ साल पहले (1917) में स्थापित ‘पुलित्जऱ’ पुरस्कार को साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में दुनिया भर में वही सम्मान प्राप्त है जो नोबेल पुरस्कार को है। भारतीय मूल के पाँच नागरिक 2020 के पहले तक इसे हासिल कर चुके हैं। इस वर्ष यह पुरस्कार जम्मू-कश्मीर के तीन फोटोग्राफरों को घाटी में व्याप्त तनाव से उपजी मानवीय व्यथाओं को दर्शाने वाले उनके छायाचित्रों के लिए मई माह में घोषित किया गया था। घाटी के छायाचित्रों को लेकर दिए गए इस पुरस्कार की सत्तारूढ़ दल के एक वर्ग ने सार्वजनिक रूप से कड़ी आलोचना की थी। अब उस अबोध बच्चे से जुड़ी घटना जिसके मन में ‘ठक-ठक’ की आवाज ने घर बना लिया है।
घाटी के सोपोर में सी आर पी एफ के जवानों और आतंकवादियों के बीच हाल में हुए एक एनकाउंटर में एक सामान्य नागरिक की मौत हो गई थी। एक जवान भी घायल हुआ था जो कि बाद में शहीद हो गया। एनकाउंटर में हुई नागरिक की मौत को लेकर कई तरह के आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं। पर यहाँ चर्चा पुलित्जर पुरस्कार के संदर्भ में उन छायाचित्रों की जो इस एनकाउंटर के एकदम बाद दुनिया भर में जारी हो गए थे और कि जिनके कि बारे में अभी तक पता नहीं चला है कि वे किसके द्वारा कब लिए और जारी किए गए। इन चित्रों में दो में बच्चा अपने मृत नाना के शरीर पर दो अलग-अलग मुद्राओं में बैठा दर्शाया गया है, एक अन्य में उसे एनकाउंटर की मुद्रा में तैनात एक सेना के जवान की ओर बढ़ते हुए दिखाया गया है और एक अन्य में उसे एक सैन्य अफसर अपनी गोद में उठाए हुए सुरक्षित स्थान की ओर जाते दिख रहे हैं।
विवाद का विषय इस समय यह है कि उस एक चित्र को जिसमें बच्चा अपने नाना के शरीर पर बैठा हुआ है, एक पंक्ति के शीर्षक ‘पुलिटर्स लवर्स?’ के साथ पात्रा के सोशल मीडिया अकाउंट से जारी किया गया। भाजपा नेता आरोप लगा रहे हैं कि बच्चे के नाना की मौत के लिए पाकिस्तान-समर्थित आतंकवाद जिम्मेदार है। सवाल यह है कि अपने नाना की मौत से हतप्रभ तीन साल के बच्चे की संवेदनाओं का उपयोग कथित रूप से पुलित्जर पुरस्कार अथवा उसे पाने वाले घाटी के फोटोग्राफरों का व्यंग्यात्मक तरीके से मजाक उड़ाने के लिए किया जाना कितना जायज माना जाना चाहिए ? यह बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होगा, क्या उसके कानों में गूंजने वाली ‘ठक, ठक’ की आवाज बंद हो जाएगी और उसकी संवेदना पात्रा द्वारा जारी किए गए चित्र और उसके शीर्षक को बर्दाश्त कर पाएगी? दीया मिर्जा ने तो पात्रा से पूछ लिया है कि- ‘क्या आपमें तिलमात्र भी संवेदना नहीं बची है?’ एक पाठक के तौर पर आप क्या सोचते हैं?
-श्रवण गर्ग