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कोहिमा: दूसरे विश्वयुद्ध की दिशा बदलने वाली 'भुला दी गई' जंग
15-Feb-2021 9:59 AM
कोहिमा: दूसरे विश्वयुद्ध की दिशा बदलने वाली 'भुला दी गई' जंग

-अनबरासन एथिराजन

कैप्टेन रॉबिन रोलैंड की रेजिमेंट को जब भारत के उत्तरपूर्वी शहर में कोहिमा में तैनात किया गया, उनकी उम्र केवल 22 साल थी.

ये मई 1944 की बात है. उस वक्त ब्रितानी-भारतीय सैनिकों की एक टुकड़ी जापानी सेना के एक पूरे डिविज़न के हमले का सामना कर रही थी.

अब 99 बसर के हो चुके कैप्टन रोलैंड को अभी भी वो वक्त याद है जब वो कोहिमा शहर में जंग के मैदान में फ्रंटलाइन की तरफ बढ़ रहे थे.

वो कहते हैं, "हमने देखा की सेना के ट्रेंच तबाह कर दिए गए हैं, गांव उजाड़ दिए गए हैं. जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे हमें चारों तरफ मौत की गंध मिल रही थी."

युवा कैप्टेन रोलैंड ब्रितानी-भारतीय सेना के पंजाब रेजिमेंट का हिस्सा थे और वो बीते कई सप्ताह से अपने से दस गुना बड़ी जापानी फौज का मुक़ाबला कर रहे अपने 1500 साथी सैनिकों की मदद के लिए फ्रंटलाइन पर जा रहे थे.

मित्र देश की सेना तक रसद पहुंचाने के सभी रास्ते जापानी सेनिकों ने तबाह कर दिए थे और उन्हें रसद के लिए हवाई मार्ग का सहारा लेना पड़ रहा था. कइयों को लगने लगा था कि इस जगह पर लड़ाई जारी रखना अब आसान नहीं होगा.

भारत पर हमला करने के लिए जापानी सेना बर्मा (आज का म्यांमार) से होते हुए कोहिमा की तरफ आगे बढ़ रही थी.

कैप्टेन रॉबिन रोलैंड
ROBIN ROWLAND

साल 1945 में बैंकॉक में ली गई इस तस्वीर में कैप्टेन रॉबिन रोलैंड (नीचे की कतार में बीच में) पंजाब रेजिमेन्ट के दूसरे सैनिकों साथ हैं.

जापानी सेना बर्मा में ब्रितानी सेना को हरा कर आगे बढ़ने में सफल रही थी. लेकिन किसी ने इस बात की उम्मीद नहीं की थी कि जानवरों और मच्छरों से भरे जंगलों को पार करते हुए वो नगालैंड की राजधानी कोहिमा और मणिपुर की राजधानी इम्फाल के नज़दीक पहुंच जाएंगे.

लेकिन जब असल में जापानी सेना कोहिमा और इम्फाल तक पहुंची ब्रितानी-भारतीय सेना को ज़िम्मेदारी दी गई कि इन दोनों शहरों को 15,000 सैनिकों वाली इस सेना से बचाए.

रणनीतिक तौर पर अहम दीमापुर शहर पर जापान का कब्ज़ा न हो इसके लिए कई सप्ताह तक लड़ाई चलती रही. दीमापुर के रास्ते जापानी सेना आसानी से असम तक पहुंच सकती थी और कइयों को ये लग रहा था कि इन शहरों को बचाना मुश्किल होगा.

कैप्टन रोलैंड याद करते हैं, "रात को जापानी सैनिक लहरों की तरह आगे बढ़ रहे थे."

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मानचित्र

यहां भीषण जंग जारी थी और ब्रितानी-भारतीय सेना कोहिमा के नज़दीक गैरिसन हिल तक सीमित हो कर रह गई थी. एक वक्त ऐसा भी आया जब जंग के हाथापाई में बदलने की नौबत आ गई थी और दोनों पक्षों के सैनिकों के बीच केवल एक टेनिस कोर्ट जितना फासला रह गया था.

लेकिन जब तक पीछे से मदद नहीं मिली तब तक ब्रितानी-भारतीय सेना ने किसी तरह मोर्चा संभाले रखा. तीन महीने के बाद जून 1944 में जापानी सेना के 7000 सैनिक घायल हो चुके थे और उनके पास रसद पूरी तरह ख़त्म हो चुका था. ऐसे में वरिष्ठ अधिकारियों के मोर्चा न छोड़ने के आदेश के बावजूद सेना पीछे बर्मा की तरफ लौटने लगी.

कैप्टन रोलैंड कहते हैं "1500 ब्रितानी-भारतीय सैनिकों के लिए ये एक भयंकर लड़ाई थी. अगर जापानी गैरिसन हिल पर कब्ज़ा कर लेते तो वो आसानी से दीमापुर तक पहुंच सकते थे."

गैरिसन हिल के पास बना टैनिस कोर्ट
ANBARASAN ETHIRAJAN/BBC

गैरिसन हिल के पास बना टैनिस कोर्ट जिसके दोनों तरफ दो देशों की सेनाएं खड़ी थीं.

ब्रितानी-भारतीय सैनिकों को आदेश दिया गया कि वो पीछे हट रहे जापानी सैनिकों के पीछे जाएं और कैप्टन रॉबिन रोलैंड इसी टुकड़ी का हिस्सा थे.

इस जंग में जापान के कई सैनिक कॉलेरा, डाइफ़ायड और मलेरिया के कारण मारे गए. हालांकि रसद ख़त्म होने के कारण बड़ी संख्या में सैनिकों ने भूख के कारण अपनी जान गंवाई.

सेना की जानकारी रखने वाले सैन्य इतिहासकार रॉबर्ट लायमैन कहते हैं कि "कोहिमा और इम्फाल की जंग ने एशिया में द्वितीय विश्व युद्ध की दिशा बदल दी."

वो कहते हैं, "पहली बार युद्ध में जापानियों की हार हुई और इस हार से वो कभी उबर नहीं पाए."

ये जंग द्वितीय विश्व युद्ध में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ लेकिन जिस तरह लोग डी-डे, वॉटरलू की लड़ाई और यूरोप और उत्तरी अफ्रीका में हुई लड़ाइयों को याद करते हैं, इस जंग को नहीं करते. कई लोग तो इसे "भूली जा चुकी लड़ाई" भी कहते हैं.

यॉर्क शहर में कोहिमा म्यूज़ियम के प्रमुख बॉब कुक मानते हैं कि कोहिमा से दूर ब्रिटेन में लोग इस जंग के बारे में कम ही जानते हैं.

वो कहते हैं, "ब्रिटेन के समुद्रतट से जर्मनी 22 मील की दूरी पर है और यहां के लोगों को डर सता रहा था वो था जर्मनी के हमले का ख़तरा."

लेकिन यहां लोगों को कोहिमा और इम्फाल की जंग के बारे में जानकारी देने का काम शुरू किया गया है.

साल 2013 में लंदन के इम्पीरियल वॉर म्यूज़ियम में इस बात पर चर्चा हुई कि ब्रिटेन की सबसे बड़ी लड़ाई कौन सी थी.

इसमें वॉटरलू या डी-डे ने हो कर कोहिमा इम्फाल युद्ध को ब्रिटेन की सबसे बड़ी लड़ाई के तौर पर चुना गया.

कोहिमा की जंग के बारे में उस वक्त रॉबर्ट लायमैन ने कहा था, "ब्रिटेन अब तक के अपने सबसे मुश्किल दुश्मन का सामना कर रहा था और काफी कुछ दांव पर लगा था."

लेकिन एशिया में हुई इस जंग के महत्व को सामने लाने के लिए शायद ही कोई कोशिश की गई हो. इस युद्ध में भारत समेत राष्ट्रमंडल देशों के हजारों सैनिकों ने अपनी जान गंवाई थी.

नगालैंड के कोहिमा में रहने वाले इतिहासकार चार्ल्स चेसी कहते हैं, इसका एक कारण ये था कि इस युद्ध के तुरंत बाद देश के विभाजन की बातें होने लगी थीं और भारत जल्द ही दो टुकड़ों में भी बंट गया था.

वो कहते हैं, "मुझे लगता है कि उस वक्त भारत के नेता विभाजन के कारण पैदा हुई मुश्किलों और सत्ता हस्तांतरण अच्छे तरीके से हो, इन कोशिशों में लगे हुए थे. चीज़ें और जटिल हो जाएं या हाथों से निकल जाएं उससे पहले ब्रितानियों ने जल्दी में देश छोड़ने का फ़ैसला किया था."

कोहिमा की जंग को अक्सर एक औपनिवेशिक युद्ध के तौर पर देखा जाता है जबकि युद्ध के बाद गंभीर चर्चा का विषय भारत की आज़ादी की लड़ाई के इर्दगिर्द ही रहा.

इस जंग में सामान्य ब्रितानी-भारतीय सेना के अलावा नगा जातीय समुदाय के लोगों ने भी ब्रिटेन की तरफ से जंग में हिस्सा लिया. वो सेना के लिए ज़रूरी ख़ुफ़िया जानकारियां पहुंचा रहे थे. इस पहाड़ी इलाक़े के बारे में उनकी जानकारी का ब्रितानी-भारतीय सेना से पूरा फायदा लिया.

कोहिमा की जंग में हिस्सा लेने वाले नगा लोगों में से कुछ आज भी जीवित हैं. 98 साल के सोसांगतेम्बा आओ उन्हीं में से एक हैं.

वो याद करते हैं, "जापानी बॉम्बर हवाई जहाज़ रोज़ आसमान से हम पर बम फेंकते थे. उन जहाज़ों की आवाज़ बहुत तेज़ थी और हर हमले के बाद धुएँ का गुबार आसमान में उठता दिखता था. वो दर्दनाक नज़ारा था."

एक रुपये प्रति दिन लेकर उन्होंने दो महीने तक ब्रितानी-भारतीय सेना के साथ काम किया. वो कहते हैं आज भी वो जापानी सेना के लड़ने के तरीकों की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते.

वो कहते हैं, "जापानी सेना का मनोबल बेहद ऊंचा था. उनके सैनिक मौत से नहीं डरते थे. उनके लिए सम्राट के लिए लड़ना भगवान के लिए लड़ने जैसा था. जब उन्हें समर्पण के लिए कहा जाता था तो वो दुश्मन पर आत्मघाती हमला करते थे."

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हाल में इस युद्ध से जुड़ी 'मेमोरीज़ ऑफ़ अ फ़ॉरगॉटेन वॉर' नाम की एक डॉक्युमेंट्री ऑनलाइन रिलीज़ की गई है. जिस वक्त ये डॉक्यूमेन्टरी रिलीज़ की गई वो जापानी सेना के समर्पण की 75वीं सालगिरह के आसपास का वक्त था.

डॉक्युमेंट्री के निर्माता सुबिमल भट्टाचार्य और दल ने कई साल पहले जापान का दौरा किया था और युद्ध की याद में हुए समारोह में शिरकत की थी.

वो कहते हैं, "युद्ध में शिरकत करने वाले जापान और ब्रिटेन के पूर्व सैनिकों की जब मुलाक़ात हुई तो वो एक दूसरे को गले लगाकर रो पड़े. वहां ऐसे सैनिक भी थे जिन्होंने एक दूसरे पर गोलियां चलाई थीं लेकिन उनके बीच में एक ख़ास नाता दिख रहा था. हमने इसकी उम्मीद नहीं की थी."

जापानी सेना के लिए हार अपमानजनक थी और जापान के पूर्व सैनिक कोहिमा युद्ध से जुड़े अपने अनुभव के बारे में कम ही बात करते हैं.

डॉक्युमेंट्री में वाजिमा कोचिरो का साक्षात्कार शामिल है. वो कहते हैं, "जापानी सैनिकों के पास खाना नहीं बचा था. हम ऐसी जंग लड़ रह थे जिसमें हार तय थी और इस कारण हमने कदम पीछे हटाना शुरू किया."

युद्ध में बड़ी संख्या में नगा जनजाति के लोग भी मारे गए और उन्हें भी इस दौरान काफी मुश्किलें झेलनी पड़े. उन्हें उम्मीद थी कि सत्ता हस्तांतरण के वक्त ब्रिटेन भारत से हट कर, एक अलग नगा देश के तौर पर उन्हें नई पहचान देगा.

इतिहासकार चार्ल्स चेसी कहते हैं कि उनकी ये "उम्मीद पूरी नहीं हो पाई थी" और इसके बाद के दौर में भारत सरकार और सेना के साथ हुए संघर्ष में मारे गए हज़ारों नगा लोगों के लिए कइयों ने उन्हें दोषी ठहराया.

भारतीय सेना की पंजाब रेजिमेंट के निमंत्रण पर साल 2002 में कैप्टेन रोलैंड अपने बेटे के साथ कोहिमा गए थे. वो गैरिसन हिल के पास वहीं खड़े हुए जहां 58 साल पहले वो अपने साथी सैनिकों के साथ जापानी सेना को आगे बढ़ने से रोक रहे थे.

कैप्टेन रोलैंड अपने बेटे के साथ गैरिसन हिल के पास बने वॉर मेमोरियल पहुंचे और अपने साथी सैनिकों को याद किया.

पुरानी बातों को याद करते हुए कैप्टेन रोलैंड कहते हैं, "मेरी यादें इस जगह से जुड़ी हैं. वो असल में एक बड़ी सैन्य उपलब्धि थी." (bbc.com)

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