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क्या डार्विन भी मानते थे कि औरतों से ज्यादा काबिल होते हैं पुरुष?
06-Mar-2021 1:21 PM
क्या डार्विन भी मानते थे कि औरतों से ज्यादा काबिल होते हैं पुरुष?

चार्ल्स डार्विन के मनुष्य उत्पत्ति के सिद्धांत की 150वीं जयंती के अवसर पर एक किताब आई जो डार्विन की सेक्स और नस्ल से जुड़ी गलत मान्यताओं की ओर इशारा करती है. किताब डार्विन के विचार और सिद्धांत को दिलचस्प समस्या बताती है.

   डॉयचे वैले पर जुल्फिकार अबानी की रिपोर्ट-

हम में से बहुत से लोग डार्विन के 'प्राकृतिक चयन के सिद्धांत' और 1859 के विशाल निबंध 'ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पीशीज' से वाकिफ हैं. हम में से और भी बहुत से लोगों ने अपने जीवन में किसी न किसी मोड़ पर सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट यानी सर्वोत्तम की उत्तरजीविता शब्दावली का इस्तेमाल करते हुए इसका श्रेय डार्विन महोदय को दिया होगा. जबकि यह सूत्र वास्तव में उन्होंने एक जमाने के अपने प्रतिद्वंद्वी और दार्शनिक हरबर्ट स्पेंसर से उधार लिया था.

किताब की पड़ताल करती किताब
चलिए एक शर्त लगाते हैं. हम में से कितने लोग होंगे जो डार्विन के इस काम, 'द डिसेन्ट ऑफ मैन' यानी 'आदमी का उद्भव' के बारे में जानते होंगे. निश्चित रूप से ऐसे बहुत कम लोग होंगे. आज से 150 साल पहले 24 फरवरी के दिन यह किताब प्रकाशित हुई थी. किताब में बहुत सी चीजों के अलावा डार्विन के यौनिक चयन के सिद्धांत का भी उल्लेख मिलता है. वे मानते थे कि यह प्रक्रिया इवोल्युशनरी बदलाव की एक पूरक ताकत थी.

इस किताब के जरिए डार्विन के विचारों को खंगालती नई किताब आई हैः 'ए मोस्ट इंटरेस्टिंग प्रॉब्लम' यानी 'एक सबसे दिलचस्प समस्या.' इसमें वैज्ञानिक इतिहास लेखक जेनट ब्राउन ने डार्विन की शख्सियत की कुछ तहें पलटी हैं. नई किताब की प्रस्तावना में ब्राउन ने बताया कि डार्विन की अलक्षित किताब में मनुष्य के उद्भव यानी क्रमिक विकास के बारे में कौनसी बातें सही हैं और कौनसी गलत.

प्राकृतिक चयन से यौनिक चयन तक
मूल रूप से दो खंडो में प्रकाशित द डिसेन्ट ऑफ मैन, तुलनात्मक शरीर-रचना से लेकर मानसिक संकायो तक जानवरों और मनुष्यों के जीवन के विविध पहलुओं को कवर करती है. किताब में बताया गया है कि वे कैसे अपनी तर्क क्षमता, नैतिकता, स्मृति और कल्पनाशीलता का उपयोग करते हैं, यहां तक कि जानवर ये कैसे तय करते हैं कि किसके साथ यौन संसर्ग करना है, यह भी इस किताब में बताया गया है. ब्राउन लिखते हैं, "डार्विन का मानना था कि यौनिक चयन ने मनुष्य जाति और सांस्कृतिक प्रगति के मूल को समझाने में बड़ी भूमिका निभाई."

उन्होंने बताया कि यौनिक चयन से ही यह पता चला कि आखिर क्यों मनुष्य विभिन्न नस्ली समूहों में बंट गए. चमड़ी का रंग और बाल इस बारे में महत्त्वपूर्ण सूचक थे. ब्राउन लिखते हैं कि डार्विन के मुताबिक, "इंसानों के बीच यौनिक चयन से बुद्धिमानी और मातृ प्रेम जैसे मानसिक गुण भी प्रभावित होते हैं." नस्ली समूहों में भी यही होता है. डार्विन के मुताबिक "आदमी औरत के मुकाबले ज्यादा दिलेर, जुझारू और कर्मठ होता है और उसकी खोजी प्रवृत्ति प्रगाढ़ होती है."

डीडब्लू को ईमेल से भेजे जवाब में ब्राउन लिखते हैं, "मैं मानता हूं कि डार्विन सभ्यता के ऐतिहासिक विकास की जैविक जड़ों को समझाने की वाकई कोशिश कर रहे थे. वे सोचते थे कि यौनिक चयन मनुष्य  मस्तिषक के विकास में भी एक अहम फैक्टर था." लेकिन ब्राउन यह स्वीकार करते हैं कि डार्विन के विचारों को समस्याग्रस्त बताने वाले बहुत से लोग हैं.

क्या डार्विन अपने दौर की पैदाइश थे?
ध्यान दिलाने लायक बात है कि इस छोटे से लेख में हमारे लिए डार्विन या उनकी किताब द डिसेन्ट ऑफ मैन की बहुत व्यापक पड़ताल कर पाना मुमकिन नहीं हैं. 900 शब्दों में सारी बात लिखने की मजबूरी है. लिहाजा यहां पेश सामग्री इस किताब की विरासत के बारे में ज्यादा है और कि मानवविज्ञानी और दूसरे वैज्ञानिक आज इस किताब को किस नजरिए से देखते हैं. बहुत सारी अच्छी बातों के लिए पर्याप्त जगह भी नहीं है.

लेकिन आप सोच रहे होंगे कि डिसेन्ट ऑफ मैन के प्रकाशन की 150वी जयंती को याद करने की भला क्या तुक जबकि वह द ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज से कम चर्चित किताब है? डार्टमाउथ कॉलेज में मानवविज्ञानी और अ मोस्ट इंटरेस्टिंग प्रॉब्लम किताब के संपादक जेरेमी डिसिल्वा कहते हैं कि, "द ऑरिजिन ऑप स्पीशीज कतई शानदार किताब है. लेकिन डिसेन्ट ऑफ मैन को पढ़ने के बाद मैं दुविधा में हूं."

डिसिल्वा ने डीडब्ल्यू को बताया कि मनुष्यों के दूसरे जीवों से जुड़ाव को समझने और समस्त मानव जाति का इस महान प्रक्रिया का हिस्सा होने के बारे में डार्विन के पास "असाधारण परख” थी — "हर जीव के क्रमिक विकास की एक कहानी है और हमारी भी. डार्विन कुछ कर गुजरना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने अगली शताब्दी के लिए और शोध कार्यों के लिए रास्ता तैयार कर दिया था."

एक ओर डिसिल्वा यह कहते हैं, तो दूसरी ओर यह भी कहते हैं, "मैं प्रजाति और यौन अंतरों के बारे में इन अध्यायों को पढ़ता हूं और सर झुका लेता हूं. वाह, क्या बात थी उस आदमी की! क्या वह बिल्कुल ही अलग था और वह इतना अलग क्यों था?! क्या वह महज अपने दौर की पैदाइश था? या एक विशेषाधिकार प्राप्त ब्रितानी पुरुष होने के नाते उसके भी गहरे पूर्वाग्रह थे (विक्टोरियाई उपनिवेशी दौर में)?"

यकीनन, एक बहुत दिलचस्प समस्या!
समस्या यह है कि डार्विन और भी कुछ बेहतर कर सकते थे. वे और भी कुछ बेहतर जान सकते थे. डिसिल्वा कहते हैं, "उनके पास ऐसा करने के लिए डाटा मौजूद था, ऐसा नहीं था कि वे धारा के विपरीत नहीं जा सकते थे. मेरे कहने का मतलब यह है कि आखिर उसी आदमी ने तो ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज लिखा था!" लेकिन कभी कभी डार्विन भी नहीं देख पाते थे कि ऐन उनकी आंखों के सामने क्या है.

डिसिल्वा कहते हैं, "उन्होंने प्राचीन मनुष्यों के जीवाश्म होने की परिकल्पना की थी. वे फॉसिल का कंसेप्ट ले तो आए थे लेकिन आगे चलकर वे किसी फॉसिल को देखकर भी उसे देख-समझ नहीं पाए. हम डार्विन का उत्सव मनाते हैं और मनाना भी चाहिए. उनके विचारों और उनके असाधारण दृष्टिसंपन्नता के लिए, उनके प्रयोगों और उनके उठाए सवालों के लिए और दुनिया के बारे में उनकी उत्सुकताओं के लिए. वे ऑब्जर्वेशन के उस्ताद थे. लेकिन जब उन्हें एक फॉसिल खोपड़ी दिखाई गई, तो वे उसके बारे में कुछ बता ही नहीं सके."

एक बार डार्विन ने अमेरिका में पहली महिला प्रोटेस्टेन्ट मंत्री अंतोनियोते ब्राउन ब्लैकवेल को चिट्ठी लिखी थी. घटना कुछ यूं थी कि डिसेन्ट ऑफ मैन के प्रकाशित होने के कुछ समय बाद ब्राउन ब्लैकवेल ने एक किताब लिखी थी- ‘प्रकृति में मौजूद स्त्री-पुरुष'- इसमें समानता के विचारों की छानबीन की गई थी. किताब की प्रतियां उन्होंने डार्विन को भेजी भी थीं. हैरानी जताते हुए डिसिल्वा कहते हैं, "डार्विन ने जवाब लिखा और उनका जवाब ‘प्रिय सर' संबोधन से शुरू हुआ. मुझे हैरानी होती हैः क्या उन्हें जरा भी ख्याल नहीं आया कि एक औरत ने किताब लिखी हो सकती है?"

रोड आईलैंड में एंथ्रोपोलोजिस्ट हॉली डन्सवर्थ ने भी ‘अ मोस्ट इंटेरेस्टिंग प्रॉब्लम' किताब पर काम किया है. वे डिसिल्वा के सवाल का बेलाग जवाब देती हैं- डार्विन के दौर में पुरुष और पितृसत्तात्मक परंपराओं के चलते ही महिला वैज्ञानिकों की राह में बाधाएं ही बाधाएं थीं.

पूर्वाग्रहों और अंतर्विरोधों से जूझते डार्विन
‘अ मोस्ट इंटेरेस्टिंग प्रॉब्लम' किताब को पढ़ते हुए यह अहसास होता है कि डार्विन एक अंदरूनी संघर्ष से जूझ रहे हो सकते थे- अपने निरीक्षणों, अपने पूर्वाग्रहों और उस दौर के पूर्वाग्रहों से टकरा रहे हो सकते थे. और तब लगता है कि उन्होंने आखिरकार अपने विज्ञान को ही अनदेखा कर दिया. प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में एंथ्रोपोलोजिस्ट अगस्तिन फ्युन्टेस के मुताबिक डार्विन ने यह बहस उठाई थी कि मनुष्यों की कथित प्रजातियां विभिन्न पूर्वजों (प्रजातियों का बहुवंशीय सिद्धांत) से निकली थीं या नहीं या उन सबका कोई एक दूरस्थ पूर्वज (प्रजातियों का एकवंशीय सिद्धांत) ही था.

फ्युन्टेस ने डीडब्लू को बताया, "उन्होंने लोगों के जैविक विभाजन को वंशावली के रूप में प्रस्तुत किया और फिर उन्होंने सांस्कृतिक किस्म के कुछ पूर्वाग्रह भरे दावे कर डाले.. कुछ इस तरह कि हम जानते हैं वे लोग इतने प्रगतिशील नहीं हैं, वे इतने स्मार्ट नहीं हैं और वे जीवित रहने लायक नहीं हैं. तो यह नजरिया दिखाता है कि वास्तव में नस्लवाद कैसे काम करता है. बात एक निजी नस्लवादी की नहीं है, धारणा के व्यवस्थागत ढांचे ही इन चीजों को बनाए रखते हैं." और यह व्यवस्थागत ढांचे, फ्युन्टेस के मुताबिक आज तक जारी हैं. ऑस्ट्रेलिया या अमेरिका के मूल आदिवासियों के प्रति यही रवैया रहा है. और शायद ज्यादा विस्तार में हम उन असमानताओं में भी इसे देख सकते हैं जो वैश्विक महामारी के आज के समय में व्याप्त हैं.

फ्युंटेस कहते हैं, "अमेरिका और ब्रिटेन की मिसालें लीजिए, जहां हमें रंग, जाति और नस्ल के आधार पर बिल्कुल अलग अलग मृत्यु दरें, रोगों की संख्या और संक्रमण की दरें दिखाई देती हैं. अब ऐसा होने का कोई एक भी जैविक कारण नहीं है. ये एक व्यवस्थागत रंगभेद और नस्लवाद की उपज है जो असमान देह और असमान जिंदगियों की रचना करती है." वे कहते हैं, "डार्विन ठीक यही देख रहे थे और प्राकृतिक चयन के लिए इसे गलत ढंग से साक्ष्य के रूप में पेश कर रहे थे, जबकि हम देखते हैं कि स्थानीय, सामाजिक और पारिस्थितिकीय लैंडस्केप ही उन सांस्कृतिक विभाजनों को तैयार कर रहे है जिन्हें लोग खुद में समाहित कर चुके हैं.

क्या डार्विन की "उत्पत्ति” आज कुछ अलग होती?
‘अ मोस्ट इंटेरेस्टिंग प्रॉब्लम' में स्पष्टता और साफगोई दिखती है. लेकिन गुस्सा भी अभिव्यक्त हुआ है. किताब के संपादक जेरेमी डिसिल्वा कहते हैं, "आज हम जो जानते हैं, उसे जानते होते तो डार्विन कुछ अलग ढंग से लिखते.” फ्युंटेस का कहना है कि डार्विन आज जैविक प्रजातियों के अभाव का मुद्दा उठा रहे होते. लेकिन हॉली डन्सवर्थ का नजरिया ज्यादा तीखा है. डीडब्लू को भेजे ईमेल में वे कहती हैं, "डार्विन आज होते तो कुछ अच्छा ही निकालते क्योंकि बाकी जो हम सब लोग हैं, उनसे उन्हें फायदा मिलता क्योंकि हम इस समय उससे लाख बेहतर हैं जो कि वो तब थे!"

डन्सवर्थ कहती हैं, "हमारी किताब में एक सूत्र यह भी है कि डार्विन को वह सब जानने में कितना मजा आता जो हम आज जानते हैं. लेकिन ऐसी निजी चीजों की कल्पना करने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है, मुझे अटपटा लगता है. और ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि मैं उनसे नाराज हूं और उन्हें अपने हिस्से का कुछ नहीं देना चाहती हूं."

डन्सवर्थ लिखती हैं, "डार्विन अमीर और साधन संपन्न थे. उनके विचार अगर आज प्रकाशित हों और उन्हें आप सुन लें तो तमाम मानवविज्ञानी और बहुत से अन्य लोग जगह जगह आग बुझाते नजर आएंगें." इस सिलसिले में डन्सवर्थ सोशल मीडिया तूफानों और कुछ नामों का जिक्र भी करती हैं. मिसाल के लिए स्टीवन पिंकर और रिचर्ड डॉकिन्स जैसे (कु)ख्यात बुद्धिजीवी और "वे नेतागण जो अपने काले और सांवले विपक्षियों की तुलना गैर मनुष्य नरवानरों से करते हैं और विभिन्न सत्ताओं से लैस विभिन्न किस्म के वे आदमी जो सोचते हैं कि पितृसत्ता से निर्धारित लैंगिक भूमिकाओं के जरिए नस्ल बढ़ाने के लिए ही औरत और आदमी अलग अलग विकसित हुए थे...आदि...आदि." पक्षपात, जैसा कि डिसिल्वा मानते हैं, एक शक्तिशाली चीज है. (dw.com)
 

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