विचार/लेख
इस समय 209 देश 14 इस हालत में हैं
कुछ देश लॉकडाउन में लगातार ढील दे रहे हैं, तो दूसरे देशों से नए मामलों की रिपोर्ट आ रही है. वैश्विक स्तर पर मिल रहे आंकड़े दिखाते हैं कि महामारी का फिलहाल अंत नहीं दिख रहा. डॉयचे वेले लेकर आया है आपके लिए ताजा आंकड़े.
कोरोना वायरस का वैश्विक रुझान क्या है?
सभी देशों का लक्ष्य है चार्ट के नीले हिस्से की ओर जाना और वहां बने रहना. इस सेक्शन के देशों ने पिछले सात दिनों में और उससे पहले के एक हफ्ते में किसी नए संक्रमण की सूचना नहीं दी है.
इस समय 209 देशों में 14 इस हालत में हैं.
पिछले हफ्तों में कोविड-19 का रुझान किस तरह बदला है?
स्थिति थोड़ी बिगड़ी है: पिछले हफ्ते के मुकाबले इस हफ्ते 87 देशों ने संक्रमण के ज्यादा मामलों की रिपोर्ट दी है.
मेरे देश में कोविड-19 की मौजूदा हालत क्या है?
पिछले 14 दिनों में कोविड-19 के मामलों के नए आंकड़ों के आधार पर देशों और क्षेत्रों का क्लासिफिकेशन:
इस हफ्ते यहां देखे गए पिछले हफ्ते की तुलना में दोगुने से ज्यादा नए मामले:
एशिया: साइप्रस, फिलीपींस, वियतनाम
अफ्रीका: बेनिन, जीबूती, गाम्बिया
अमेरिका: अरूबा, बरबाडोस, बेलीज, गुयाना, टर्क्स एंड केकोस आइलैंड्स, यूएस वर्जिन आइलैंड्स
यूरोप: एस्तोनिया, फिनलैंड, ग्रीस, जर्सी, माल्टा, नॉर्वे
ओशिआनिया: गुआम, न्यूूजीलैंड, पापुआ न्यू गिनी
इस हफ्ते पिछले हफ्ते की तुलना में ज्यादा नए मामले:
एशिया: भारत, ईरान, इराक, जापान, लेबनान, माल्दीव,
नेपाल, सिंगापुर, सीरिया, तिमोर लेस्ट, तुर्की, उज्बेकिस्तान
अफ्रीका: अंगोला, केप वैर्डे, डेमोक्रैटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो,
इक्वेटोरियल गिनी, घाना, गिनी बिसाउ, केन्या, लीबिया, मोरक्को,
मोजांबिक, नामीबिया, नाइजर, सेशेल्स, दक्षिण सूडान, सूडान, ट्यूनीशिया, जिम्बाब्वे
अमेरिका: अर्जेंटीना, बहामस, बोलिविया, बोनेयर, ब्रिटिश वियतनाम आइलैंड,
कोलंबिया, क्यूबा, अल सल्वाडोर, जमैका, मेक्सिको, पाराग्वे, पेरू,
पुएर्तो रिको, सेंट विंसेंट, सूरीनाम, ट्रिनिडाड और टोबैगो, वेनेजुएला
यूरोप: अल्बानिया, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, आइसलैंड, आयरलैंड,
इटली, लाटविया, लिथुएनिया, मोल्दोवा, नीदरलैंड्स, पोलैंड, सान मरीनो,
स्लोवाकिया, स्पेन, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, यूूक्रेन, यूनाइटेड किंगडम
ओशिआनिया: ऑस्ट्रेलिया
इस हफ्ते भी पिछले हफ्ते जितने नए मामले (कोई बदलाव नहीं या प्लस माइनस 7 मामले):
एशिया: भूटान, मंगोलिया, म्यांमार, ताइवान, थाइलैंड
अफ्रीका: बुरकिना फासो, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक, माली, यूगांडा
अमेरिका: बैरमुडा, कुरासाव, निकारागुआ, सिंट मार्टिन
यूरोप: जिब्राल्टर, मोनक्को
ओशिआनिया: नदर्न मारियाना आइलैंड्स
यहां देखे गए पिछले हफ्ते के मुकाबले कम नए मामले:
एशिया: अफगानिस्तान, अर्मेनिया, अजरबाइजान, बहरीन, बांग्लादेश, चीन, जॉर्जिया,
इंडोनेशिया, इस्राएल, जॉर्डन, कजाखस्तान, कुवैत, किर्गिस्तान, मलेशिया, पाकिस्तान,
फलीस्तीन, कतर, सऊदी अरब, दक्षिण कोरिया, ताजिकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात, यमन
अफ्रीका: अल्जीरिया, बोत्स्वाना, कैमरून, कॉन्गो, एस्वातिनी, इथियोपिया,
गाबोन, गिनी, लेसोथो, लाइबेरिया, मैडागास्कर, मलावी, नाइजीरिया,
सेनेगल, सियरा लियोने, दक्षिण अफ्रीका, टोगो, जाम्बिया
अमेरिका: ब्राजील, कनाडा, चिली, कोस्टा रिका, डोमिनिकन रिपब्लिक,
इक्वाडोर, गुआतेमाला, हैती, होंडुरास, पनामा, संयुक्त्त राज्य अमेरिका, उरुग्वे
यूरोप: अंडोरा, ऑस्ट्रिया, बेलारूस, बेल्जियम, बोसनिया हैर्जेगोविना, बल्गारिया,
क्रोएशिया, चेक रिपब्लिक, फेरो आइलैंड्स, हंगरी, कोसोवो, लक्जेमबुर्ग,
मोंटेनेग्रो, नॉर्थ मैसेडोनिया, पुर्तगाल, रोमानिया, रूस, सर्बिया, स्लोवेनिया
यहां देखे गए पिछले हफ्ते के मुकाबले आधे से कम नए मामले:
एशिया: कंबोडिया, लाओस, ओमान, श्रीलंका
अफ्रीका: बुरूंडी, चाड, कोमोरोस, कोट डिवुआ, मिस्र, एरिट्रिया,
मौरितानिया, मॉरीशस, रवांडा, साओ टोमे एंड प्रिंसिपे, सोमालिया
अमेरिका:अंटीगुआ और बारबुडा, ग्रीनलैंड, ग्रेनेडा, सेंट लूशिया
यूरोप: लिष्टेनस्टाइन
यहां देखे गए इस हफ्ते और पिछले हफ्ते जीरो मामले:
एशिया: ब्रूनेई
अफ्रीका: तंजानिया, पश्चिमी सहारा
अमेरिका: अंगुइला, केमैन आइलैंड्स, डोमिनिका, फाल्कलैंड्स, सेंट किट्स
यूरोप: गर्नजी, होली सी, आइल ऑफ मैन
ओशिआनिया: फिजी, फ्रेंच पोलिनेशिया, न्यू कैलेडोनिया
ये चार्ट और आर्टिकल हर शुक्रवार 11 बजे से 1 बजे यूटीसी के बीच अपडेट किया जाता है.
यदि अनेलिसिस के बारे में आपके कोई सवाल हैं, तो कोड और मेथेडोलॉजी के लिए प्रोजेक्ट के गिटहब रिपोसिटरी को इस्तेमाल करें. चार्ट पर फीडबैक के लिए [email protected] से संपर्क करें.(dw)
अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास के बाद अब कहा जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र के दो अहम मुद्दे पूरे कर लिए हैं. पहला-जम्मू-कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाना और दूसरा-राम मंदिर के निर्माण की राह प्रशस्त करना.
राम मंदिर के शिलान्यास के अगले ही दिन सोशल मीडिया पर लोगों ने बीजेपी का ध्यान तीसरे वादे, यानी समान नागरिक संहिता यानी 'यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड' लागू करने की तरफ़ खींचा.
इसको लेकर सुबह से ही लोगों ने ट्वीट करने शुरू कर दिए. इनमें से सबसे ज़्यादा ग़ौर करने वाला ट्वीट पत्रकार शाहिद सिद्दीक़ी का था जिन्होंने समान नागरिक संहिता के लागू होने की तारीख़ का भी अंदाज़ा लगा लिया और लिखा कि ये काम भी सरकार पांच अगस्त 2021 तक पूरा कर देगी.
भारत में यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड को लेकर बहस आज़ादी के ज़माने से ही चल रही है.
भारत के संविधान के निर्माताओं ने सुझाव दिया था कि सभी नागरिकों के लिए एक ही तरह का क़ानून रहना चाहिए ताकि इसके तहत उनके विवाह, तलाक़, संपत्ति-विरासत का उत्तराधिकार और गोद लेने के अधिकार को लाया जा सके.
इन मुद्दों का निपटारा वैसे आम तौर पर अलग-अलग धर्म के लोग अपने स्तर पर ही करते रहे हैं.
हर धर्म के लिए समान क़ानून की बहस
इस पेशकश को 'डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी' यानी राज्य के नीति निदेशक तत्वों में रखा गया. फिर भी संविधान निर्माताओं को लगा था कि देश में समान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए.
क़ानून के जानकार कहते हैं भारत में समाजिक विविधता देखकर अंग्रेज़ शासक भी हैरान थे. वो इस बात पर भी हैरान थे कि चाहे वो हिन्दू हों या मुसलमान, पारसी हों या ईसाई, सभी के अपने अलग क़ायदे क़ानून हैं.
इसी वजह से तत्कालीन ब्रितानी हुकूमत ने धार्मिक मामलों का निपटारा भी उन्हीं समाजों के परंपरागत क़ानूनों के आधार पर ही करना शुरू कर दिया.
जानकार कहते हैं कि इस दौरान राजा राममोहन रॉय से लेकर कई समाजसेवियों ने हिंदू समाज के अंदर बदलाव लाने का काम किया जिसमें सती प्रथा और बाल विवाह जैसे प्रावधानों को ख़त्म करने की मुहिम चलाई गयी.
आज़ादी के बाद भारत में बनी पहली सरकार 'हिंदू कोड बिल' लेकर आई जिसका उद्देश्य बताया गया कि ये हिंदू समाज की महिलाओं को उन पर लगी बेड़ियों से मुक्ति दिलाने काम करेगा. मगर हिंदू कोड बिल को संसद में ज़ोरदार विरोध का सामना करना पड़ा.
विरोध कर रहे सांसदों का तर्क था कि जनता के चुने गए प्रतिनिधि ही इस पर निर्णय ले सकेंगे क्योंकि यह बहुसंख्यक हिंदू समाज के अधिकारों का मामला है.
कुछ लोगों की नाराज़गी थी कि नेहरू की सरकार सिर्फ़ हिंदुओं को ही इससे बाँधना चाहती है, जबकि दूसरे धर्मों के अनुयायी अपनी पारम्परिक रीतियों के हिसाब से चल सकते हैं.
हिंदू कोड बिल पारित तो नहीं हो पाया मगर 1952 में हिन्दुओं की शादी और दूसरे मामलों पर अलग-अलग कोड बनाए गए.
कुछ प्रमुख कोड
1955 में 'हिंदू मैरिज एक्ट' बनाया गया जिसमें तलाक़ को क़ानूनी मान्यता देने के अलावा अंतरजातीय विवाह को भी मान्यता दी गई. मगर एक से ज़्यादा शादी को ग़ैरक़ानूनी ही रखा गया.
1956 में ही 'हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम', 'हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम' और 'हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम' लाया गया.
हिन्दुओं के लिए बनाए गए कोड के दायरे में सिखों, बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायियों को भी लाया गया.
अंग्रेज़ों की हुकूमत के दौरान भी भारत में मुसलमानों के शादी-ब्याह, तलाक़ और उत्तराधिकार के मामलों का फ़ैसला, शरीयत के अनुसार ही होता था.
जिस क़ानून के तहत ऐसा किया जाता रहा, उसे 'मोहम्मडन लॉ' के नाम से जाना जाता है. हालांकि इसकी ज़्यादा व्याख्या नहीं की गई है मगर 'मोहम्मडन लॉ' को 'हिंदू कोड बिल' और इस तरह के दूसरे क़ानूनों के बराबर की ही मान्यता मिली. यह क़ानून 1937 से ही चला आ रहा है.
शाह बानो मामले से आया मोड़
ये क़ानूनी व्यवस्था, संविधान में धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार यानी अनुच्छेद-26 के तहत की गई. इसके तहत सभी धार्मिक संप्रदायों और पंथों को सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के मामलों का स्वयं प्रबंधन करने की आज़ादी मिली.
इसमें मोड़ तब आया जब वर्ष 1985 में मध्य प्रदेश की रहने वाली शाह बानो को उनके पति ने तलाक़ दे दिया और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. सुप्रीम कोर्ट ने उनके पति को आदेश दिया कि वो शाह बानो को आजीवन गुजारा भत्ता देते रहें.
शाह बानो के मामले पर जमकर हंगामा हुआ और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने संसद में 'मुस्लिम वीमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स आफ डिवोर्स) एक्ट पास कराया जिसने सुप्रीम कोर्ट के शाह बानो के मामले में दिए गए फ़ैसले को निरस्त करते हुए निर्वाह भत्ते को आजीवन न रखते हुए तलाक़ के बाद के 90 दिन तक सीमित रख दिया गया.
इसी के साथ ही 'सिविल मैरिज एक्ट' भी आया जो देश के सभी लोगों पर लागू होता है. इस क़ानून के तहत मुसलमान भी कोर्ट में शादी कर सकते हैं.
एक से अधिक विवाह को इस क़ानून के तहत अवैध क़रार दिया गया. इस एक्ट के तहत शादी करने वालों को भारत उत्तराधिकार अधिनियम के दायरे में लाया गया और तलाक़ की सूरत में गुज़ारा भत्ता भी सभी समुदायों के लिए एक सामान रखने का प्रावधान किया गया.
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तीन तलाक़ और मुसलमान महिलाओं के हक़
यहाँ ग़ौर करने वाली बात ये है कि विश्व में 22 इस्लामिक देश ऐसे हैं जिन्होंने तीन बार तलाक़ बोलने की प्रथा को पूरी तरह ख़त्म कर दिया है. इनमें पकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, ट्यूनीशिया और अल्जीरिया जैसे देश शामिल हैं.
पकिस्तानी तीन तलाक़ की प्रथा में बदलाव लाने की प्रक्रिया 1955 की एक घटना के बाद शुरू हुई जब वहाँ के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा ने पत्नी के रहते हुए अपनी निजी सचिव से शादी की थी.
इस शादी का पकिस्तान में जमकर विरोध हुआ था जिसके बाद पकिस्तान की सरकार ने सात सदस्यों वाली एक आयोग का का गठन किया था.
अब जो प्रावधान पकिस्तान में बनाए गए हैं उनके तहत पहली बार तलाक़ बोलने के बाद व्यक्ति को 'यूनियन काउन्सिल' के अध्यक्ष को नोटिस देना अनिवार्य है. इसकी एक प्रति पत्नी को भी देना उसपर अनिवार्य किया गया है.
इन नियमों के उल्लंघन पर पकिस्तान जैसे इस्लामिक देश में एक साल की सज़ा और 5000 रुपये के आर्थिक दंड का प्रावधान किया गया है. भारत में काफी बहस और विवाद के बाद आख़िरकार तीन बार तलाक़ बोलने के ख़िलाफ़ एक क़ानून बनाने में कामियाबी हासिल की गई.
केंद्र सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नक़वी का दावा है कि नए क़ानून का लाभ हज़ारों मुस्लिम समाज की महिलाओं को मिला. उनका कहना था कि क़ानून की वजह से ही तलाक़ के मामलों में भी काफ़ी कमी आई है.
वर्ष 2016 में भारत के विधि आयोग ने 'यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड' यानी समान नागरिक संहिता को लेकर आम लोगों की राय माँगी थी. इसके लिए आयोग ने प्रश्नावली भी जारी की जिसे सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित किया गया था.
इसमें कुल मिलाकर 16 बिंदुओं पर लोगों से राय माँगी गयी थी. हालांकि पूरा फ़ोकस इस बात पर था कि क्या देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान संहिता होनी चाहिए?
अब समान नागरिक संहिता की बारी?
प्रश्नावली में विवाह, तलाक़, गोद लेना, गार्डियनशिप, गुज़ारा भत्ता, उत्तराधिकार और विरासत से जुड़े पूछे गए थे.
आयोग ने इस बारे में भी राय मांगी थी कि क्या ऐसी संहिता बनाई जाए जिससे अधिकार समान तो मिले ही साथ ही साथ, देश की विविधता भी बनी रहे. लोगों से यह भी पूछा गया था कि क्या समान नागरिक संहिता 'ऑप्शनल' यानी वैकल्पिक होनी चाहिए?
लोगों की राय पॉलीगेमी यानी बहुपत्नी प्रथा, पोलियानडरी (बहु पति प्रथा), गुजरात में प्रचलित मैत्री क़रार सहित समाज की कुछ ऐसी प्रथाओं के बारे में भी माँगी गयी थी जो अन्य समुदायों और जातियों में प्रचलित हैं.
इन प्रथाओं को क़ानूनी मान्यता तो नहीं है मगर समाज में इन्हें कहीं-कहीं पर स्वीकृति मिलती रही है. देश के कई प्रांत हैं जहां आज भी इनमे से कुछ मान्यताओं का प्रचलन जारी है.
गुजरात में 'मैत्री क़रार' एकमात्र ऐसा प्रचलन है जिसकी क़ानूनी मान्यता है क्योंकि यह क़रार मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर से ही अनुमोदित होता है.
विधि आयोग ने पूछा था कि क्या ऐसी मान्यताओं को पूरी तरह समाप्त कर देना चाहिए या फिर इन्हें क़ानून के ज़रिए नियंत्रित करना चाहिए?
आयोग ने लोगों से मिले सुझाव के बिनाह पर सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है. मगर अभी तक पता नहीं चल पाया है कि इस रिपोर्ट का आख़िर क्या हुआ.
वैसे, जानकारों को लगता है कि जिस तरह सरकार ने 'ट्रिपल तलाक़' पर क़ानून बनाया है, उसी तरह समान नागरिक संहिता पर भी कोई क़ानून भी आ सकता है.
एक नज़र डालते हैं समाज में चल रहीं कुछ प्रथाओं पर:
पॉलीगैमी (बहुपत्नी प्रथा)
वर्ष 1860 में भारतीय दंड विधान की धारा 494 और 495 के तहत ईसाइयों में पॉलीगैमी को प्रतिबंधित किया गया था. 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट में उन हिन्दुओं के लिए दूसरी शादी को ग़ैर क़ानूनी क़रार दिया गया जिनकी पत्नी जीवित हो.
1956 में इस क़ानून को गोवा के हिन्दुओं के अलावा सब पर लागू कर दिया गया. मुसलमानों को चार शादियां करने की छूट दी गई क्योंकि उनके लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ था. लेकिन हिन्दुओं में भी पॉलीगैमी का चलन काफी चिंता का विषय रहा है.
सिविल मैरिज एक्ट के तहत की गयी शादियों में सभी समुदाय के लोगों के लिए पॉलीगैमी ग़ैरक़ानूनी है.
पोलिऐंड्री (बहु-पति प्रथा)
बहुपति प्रथा का चलन वैसे तो पूरी तरह से ख़त्म हो चुका है. फिर भी कुछ सुदूर इलाक़े ऐसे हैं जहां से कभी कभी इसके प्रचलन की ख़बर आती रहती है.
इस प्रथा का प्रचलन ज़्यादातर हिमाचल प्रदेश के किन्नौर में ही हुआ करता था जो तिब्बत के पास भारत-चीन सीमा के आस-पास का इलाक़ा है.कई लोगों का मानना है कि महाभारत के मुताबिक इसी इलाक़े में पांडवों का पड़ाव रहा. इसीलिए कहा जाता है कि बहुपति प्रथा का चलन यहां रहा है.
इसके अलावा इस प्रथा को दक्षिण भारत में मालाबार के इज़्हावास, केरल के त्रावनकोर के नायरों और नीलगिरी के टोडास जनजाति में भी देखा गया है. विधि आयोग की प्रश्नावली में बहुपति प्रथा के बारे में भी सुझाव मांगे गए थे.
मुत्तह निकाह
इसका प्रचलन ज़्यादातर ईरान में रहा है जहां मुसलमानों के शिया पंथ के लोग रहते हैं. ये मर्द और औरत के बीच एक तरह का अल्पकालिक समझौता है जिसकी अवधि दो या तीन महीनों की होती है.
अब ईरान में भी यह ख़त्म होने के कगार पर है. भारत में शिया समुदाय में इसका प्रचलन नहीं के बराबर ही है.
चिन्ना वीडु
चिन्ना वीडु यानी छोटा घर का संबंध मूल रूप से दूसरे विवाह से जुड़ा हुआ है. इसे कभी तमिलनाडु के समाज में मान्यता मिली हुई थी. यहां तक कि एक बड़े राजनेता ने भी एक पत्नी के रहते हुए दूसरा विवाह किया था.
हालांकि तमिलनाडु में इस प्रथा को बड़ी सामाजिक बुराई के तौर पर देखा जाने लगा और अब ये पूरी तरह से ख़त्म होने के कगार पर है.
मैत्री क़रार
ये प्रथा गुजरात की रही है जिसे स्थानीय स्तर पर क़ानूनी मान्यता भी मिली हुई है क्योंकि इस 'लिखित क़रार' का अनुमोदन मजिस्ट्रेट ही करता है. इसमें पुरुष हमेशा शादीशुदा ही होता है.
यही कारण है कि ये आज भी जारी है. मैत्री क़रार यानी दो वयस्कों के बीच एक तरह का समझौता जिसे मजिस्ट्रेट की मौजूदगी में लिखित तौर पर तय किया जाता है. ये मर्द और औरत के बीच एक तरह का 'लिव-इन रिलेशनशिप' है. इसीलिए इसे 'मैत्री क़रार' कहा जाता है.
गुजरात में सभी जानते हैं कि कई नामी-गिरामी लोग इस तरह के रिश्ते में रह रहे हैं. ये प्रथा मूलतः विवाहित पुरुष और पत्नी के अलावा किसी दूसरी महिला मित्र के साथ रहने को सामजिक मान्यता देने के लिए एक ढाल का काम करती रही है.
इस्लामी क़ानून वक़्त के साथ नहीं बदले?
बहुत सारे प्रगतिशील लोगों को लगता है कि अब समय के साथ बदलने का वक़्त आ गया है और बहुत सारे समाज सुधारों की आवश्यकता ज़रूरी हो गई है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संदीप महापात्रा बीबीसी से कहते हैं कि हिंदू समाज ने कई सुधारों का दौर देखा है. इसलिए समय समय पर कई प्रथाएं पूरी तरह समाप्त हो चुकी हैं. लेकिन मुस्लिम समाज में सामाजिक स्तर पर सुधार के काम नहीं हुए हैं और बहुत ही प्राचीन मान्यताओं के आधार पर ही सबकुछ चल रहा है.
उन्होंने समान नागरिक संहिता की वकालत करते हुए कहा कि अगर ये लागू होता है तो इसमें ज़्यादा लाभ हर समाज की महिलाओं को होगा जो पितृसत्ता का शिकार होने को मजबूर हैं.
पेशे से वकील महापात्रा कहते हैं कि जिस तरह भारतीय दंड संहिता और 'सीआरपीसी' सब पर लागू हैं, उसी तर्ज़ पर समान नागरिक संहिता भी होनी चाहिए, जो सबके लिए हो-चाहे वो हिंदू हों मुसलमान या फिर किसी भी धर्म को माननेवाले क्यों ना हों.
संदीप महापात्रा कहते हैं, "बहस वहाँ शुरू होती है जहाँ हम मुसलमानों की बात करते हैं. 1937 से मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई सुधार नहीं हुए हैं. समान नागरिक संहिता की बात आज़ादी के बाद हुई थी, लेकिन उसका विरोध हुआ जिस वजह से उसे 44वें अनुच्छेद में रखा गया. मगर यह संभव है. हमारे पास गोवा का उदाहरण भी है जहाँ समान नागरिक संहिता लागू है."
समान नागरिक संहिता बाकी धर्मों पर 'थोपी' जाएगी?
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव वाली रहमानी ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि भारत विभिन्नताओं का देश है. धर्मों, यातियों और जनजातियों की अपनी प्रथाएं हैं. उनका कहना है कि समान नागरिक संहिता पर सिर्फ राजनीति हो सकती है मगर किसी का भला नहीं हो सकता.
उनका कहना था कि सभी धर्माविलाम्बी अपनी संस्कृति और परमपराओं के अनुसार चलने के लिए स्वतंत्र हैं.
सामजिक कार्यकर्ता जॉन दयाल कहते हैं कि वो हर उस क़ानून का समर्थन करते हैं जो महिलाओं को सशक्त करने वाला हो और बच्चों के भविष्य को सुरक्षित रखने वाला हो. मगर उनका आरोप है कि समान नागरिक संहिता का प्रारूप बहुसंख्यकवादी ही होगा और उसे बाक़ी सब पर थोप दिया जाएगा.
दयाल कहते हैं कि अगर सरकार समान नागरिक संहिता लाना चाहती है तो उसका प्रारूप एक छतरी जैसा होना चाहिए जिसमें सभी परम्पराओं और संस्कृतियों को साथ में लेकर चलने की बात हो. उसे थोपा नहीं जाना चाहिए क्योंकि भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक विभिनता है.
उनको लगता है कि ये बड़ी चुनौती होगी क्योंकि हिंदू धर्म में ही कई प्रचलित प्रथाएं हैं जिनको अवैध क़रार देने का जोख़िम सरकार नहीं उठा सकती है. मिसाल के तौर वो कहते हैं कि दक्षिण भारत में सगा मामा अपनी सगी भांजी से विवाह कर सकता है.
दयाल कहते हैं, "क्या सरकार इस पर प्रतिबन्ध लगाएगी? क्या सरकार, जाट और गुज्जरों या दुसरे समाज में प्रचलित प्रथाओं को समाप्त करने की पहल कर सकती है? मुझे नहीं लगता कि ये इतनी आसानी से हो पाएगा. ये एक टेढ़ी खीर है."(bbc)
-सलमान रावी
श्रवण गर्ग
भाजपा अब संतोष जाहिर कर सकती है कि राम मंदिर भूमि पूजन के अवसर पर कांग्रेस ने प्रियंका गांधी के जरिए जो वक्तव्य जारी किया उसकी शुरुआत ‘राम सब में हैं, राम सबके साथ हैं ‘से की और अंत ‘जय सियाराम’ से किया। प्रधानमंत्री मोदी ने भी तो शुरुआत और अंत ऐसे ही ‘जय सियाराम ‘से किया।
पाँच अगस्त दो हजार बीस को सम्पूर्ण देश(और विश्व) के असंख्य नागरिकों ने भगवान राम के जिस चिर-प्रतीक्षित स्वरूप के अयोध्या में दर्शन कर लिए उसके बाद हमें इसे एक रथ यात्रा, एक लड़ाई, एक लम्बे संघर्ष का अंत मानते हुए अब किसी अन्य जरूरी काम में जुट जाना चाहिए या फिर और कोई अधूरा संकल्प हमारी नयी व्यस्तता की प्रतीक्षा कर रहा है?
इतने लम्बे संघर्ष के बाद अगर थोड़ी सी भी थकान महसूस करते हों, तो यह स्वीकार करना चाहिए कि जिस एक काम में इतनी बड़ी आबादी ने अपने आपको इतने दशकों तक लगाकर रखा केवल उसे ही इतने बड़े राष्ट्र के पुरुषार्थ की चुनौती नहीं माना जा सकता। हम शायद इस बात का थोड़ा लेखा-जोखा करना चाहें कि आजादी हासिल करने के बाद सात दशकों से ज़्यादा का समय हमने कैसे गुजारा और उसमें हमारे सभी तरह के शासकों की प्रत्यक्ष-परोक्ष भूमिकाएँ और उनके निहित स्वार्थ किस प्रकार के रहे होंगे।
हमें कोई दूसरा समझाना ही नहीं चाहेगा कि सांस्कृतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के जश्न के कोलाहल के बीच एक दूसरी बड़ी आबादी अपनी सुरक्षा को लेकर इतनी भयभीत और अलग-थलग सी महसूस क्यों कर रही है। न सिर्फ इतना ही ! इस भय की मौन प्रतिक्रिया में उस आबादी की व्यस्तताएँ किसी तरह के अनुत्पादक कार्यों में जुट रही हैं ? मसलन, क्या हम पता करने का साहस करेंगे कि अयोध्या में उच्चारे गए पवित्र मंत्रों की गूंज देश की ही आत्मा के एक हिस्से कश्मीर घाटी में किस तरह से सुनाई दी गई होगी ! जैसा कि दर्द बयाँ किया जा रहा है: कश्मीरी पहले तो दिल्ली में ही पराए गिने जाते थे, अब खुद अपनी जमीन पर भी परायापन महसूस करने लगे हैं। क्या कश्मीरी नागरिक अपने पिछले पाँच अगस्त को भूल चुके हैं ?
एक विकासशील राष्ट्र के तौर पर अपने पिछले सत्तर सालों की विकास यात्रा पर थोड़ा सा भी गर्व महसूस करने की स्थिति में पहुँचने के लिए जरूरी हो गया है कि हम अयोध्या नगरी से अपने आपको किसी और समय पर वापस लौटने तक के लिए यह मानते हुए बाहर कर लें कि मिशन अब पूरा हो गया है। इस बात की बड़ी आशंका है कि नागरिकों की आत्माएँ अयोध्या के मोह से बाहर निकल ही नहीं पाएँ । उन्हें धार्मिक-आध्यात्मिक व्यस्तताओं से जोड़े रखने के लिए किसी नई अयोध्या के निर्माण के सपने बाँट दिए जाएँ । नागरिक हतप्रभ हो जाने की स्थिति में इस तरह सम्मोहित हो जाएँ कि अपनी उचित भूमिका को लेकर ही उनमें भ्रम उत्पन्न होने लगे। उन्हें सूझ ही नहीं पड़े कि सीमाओं पर चल रहे तनाव को लेकर किस तरह से जानकार बनना चाहिए! महामारी से लड़ाई को लेकर उन्हें गफलत में तो नहीं रखा जा रहा है! या यह कि अब कौन सा नया बलिदान उनकी प्रतीक्षा कर सकता है!
हमारी अब तक की उपलब्धियों को क्या इस कसौटी पर भी नहीं कसना चाहिए कि अनाज की भरपूर फसल और असीमित भंडारों के बावजूद सरकार का मानना है कि अस्सी करोड़ लोगों को उसकी मदद की जरूरत है। क्या इसका कारण यह नहीं समझा जाए कि इतने वर्षों की प्रगति के बाद भी इतनी बड़ी आबादी के पास अपना पेट भरने के आर्थिक साधन उपलब्ध नहीं हैं? हमसे भी बड़ी जनसंख्या वाले चीन सहित दूसरे देशों में भी क्या जनता इसी तरह के संघर्षों में जुटी है या फिर उनकी चिंताएँ उसी तरह की आधुनिक हैं जिस तरह के आधुनिक प्रतिष्ठान का निर्माण अब हम पूरी अयोध्या में करना चाहते हैं ? ज़्यादा चिंता इस बात की भी है कि राजनीति में धर्म के बजाय धर्म की राजनीति को लेकर जो ताक़तें अभी तक विभाजित संकल्पों के रूप में उपस्थित थीं वे अब एकजुट होकर नागरिक प्रवाह को बदलना चाहती हों।
इस सवाल से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है कि लाखों की संख्या वाले साधु-संत, उनके करोड़ों शिष्य और भक्तों के साथ वे अनगिनत कार्यकर्ता जो मंदिर-निर्माण के कार्य को अपने संकल्पों की प्रतिष्ठा मानते हुए इतने वर्षों से लगातार संघर्ष कर रहे थे राम जन्म भूमि के छ: अगस्त के सूर्यास्त के साथ ही हर तरह की चिंताओं से बेफिक्र हो गए होंगे ! निश्चित ही इन सब को भी कोई नया धार्मिक-आध्यात्मिक उपक्रम चाहिए। यह स्थिति ऐसी ही है कि सामरिक युद्ध में विजय के बाद शांतिकाल में सैनिकों के कौशल का किस तरह से इस्तेमाल किया जाए? दूसरे यह कि देश को अब तक यही बताया गया है कि मंदिर निर्माण के कार्य में जुटे लोगों का किसी राजनीतिक दल से सीधा सम्बंध नहीं है, सहानुभूति हो सकती है।
भारत की राजनीति के लिए पाँच अगस्त के दिन को भारतीय जनता पार्टी के लिए भी आजादी के दिवस की उपलब्धि के रूप में गिनाया जा सकता है। वह इस मायने में कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उसे इस आरोप से लगभग बरी कर दिया कि वह (भाजपा) केंद्र और राज्यों में सत्ता की प्राप्ति के लिए राम मंदिर को मुद्दा बनाकर देश में साम्प्रदायिक धु्रवीकरण कर रही है। भाजपा अब संतोष जाहिर कर सकती है कि राम मंदिर भूमि पूजन के अवसर पर कांग्रेस ने प्रियंका गांधी के जरिए जो वक्तव्य जारी किया उसकी शुरुआत ‘राम सब में हैं, राम सबके साथ हैं ‘से की और अंत ‘जय सियाराम’ से किया। प्रधानमंत्री मोदी ने भी तो शुरुआत और अंत ऐसे ही ‘जय सियाराम ‘से किया। गांधी परिवार अगर 6 दिसम्बर 1992 को ही तब प्रधानमंत्री पी व्ही नरसिंह राव के साथ खड़ा नजर आ जाता तो कांग्रेस और मंदिर निर्माण को एक चौथाई शताब्दी का इंतजार नहीं करना पड़ता। देश का भी बहुत सारा कीमती वक्त बच जाता।
रितिका
21 जुलाई को केंद्र सरकार ने कोर्ट में हलफनामा दायर कर एक बार फिर सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए कश्मीर में 4जी इंटरनेट बहाल करने से इनकार कर दिया। इंटरनेट जैसी मूलभूत सुविधाओं की गैरमौजूदगी में घाटी में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, पर्यटन, अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है। कोरोना महामारी ने इस स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है। 2जी इंटरनेट सेवाओं के साथ छात्रों के सामने अपनी पढ़ाई जारी रख पाना चुनौतीपूर्ण हो गया है।
5 अगस्त 2019 की वह सुबह जब देश के केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह एक-एक कर जम्मू-कश्मीर को मिले विशेषाधिकार हटाते जा रहे थे, सांसदों की तालियों से पूरा संसद गूंज रहा था, तब दावा किया गया था कि केंद्र सरकार के इस फैसले से जम्मू-कश्मीर में विकास के नए रास्ते खुलेंगे। इसी दावे के साथ उस दिन केंद्र सरकार ने एक झटके में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा दिया और पूरे राज्य को दो अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया। सरकार के इस फैसले के तुरंत बाद मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी-अपनी टीम के साथ श्रीनगर से लाइव हो चुका था, एंकर अपने स्टुडियो में चीख-चीखकर कह रहे थे, ‘जम्मू-कश्मीर के पक्ष में एक ऐतिहासिक फैसला लिया गया है।’
केंद्र के इस फैसले को आज एक साल पूरा हो चुका है। केंद्र सरकार का यह दावा कि जम्मू-कश्मीर, खासकर कश्मीर में विकास होगा धरातल पर कहीं नजऱ नहीं आता। इस फैसले के एक साल पूरे होने से पहले एहतियात के तौर पर घाटी में प्रशासन ने कर्फ्यू लागू कर दिया। एक साल में जम्मू-कश्मीर में हुए विकास का जश्न मनाने के लिए प्रशासन को कर्फ्यू का सहारा लेना पड़ रहा है। भारत के मुख्यधारा मीडिया के प्रौपगैंडा के बीच जम्मू-कश्मीर खासकर कश्मीर की हालत की चर्चा लगातार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होती रहती है। भारत के बाकी हिस्से में मजबूरन कोरोना वायरस के कारण लॉकडाउन लागू किया गया लेकिन कश्मीर की 80 लाख जनता पिछले एक साल से लॉकडाउन में जीने को मजबूर हैं, वह भी बिना 4जी इंटरनेट के। विकास के नाम पर कश्मीर की जनता को उनके घरों में ही कैद रहने को मजबूर होना पड़ा। यह अब भी एक अबूझ पहेली है कि किसी राज्य की जनता को कैद कर वहां का विकास आखिर कैसे संभव है।
24 मार्च को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में लॉकडाउन का एलान किया था तब गली-मोहल्ले की दुकानों में अचानक कैसी आपा-धापी मच गई थी। सामर्थ्यवान लोग अधिक से अधिक ज़रूरत का सामान अपने घर में जमा कर लेना चाहते थे। लॉकडाउन के दौरान लंबे समय तक ज़रूरी सामानों की सप्लाई चेन भी बाधित रही। इस दौरान डिप्रेशन, आत्महत्या, घरेलू हिंसा के मामले और बेरोजग़ारी के आंकड़े भी बढ़ते चले जा रहे हैं। लॉकडाउन ने मेहनतकश वर्ग से लेकर मध्यवर्गीय परिवारों तक, सबको आर्थिक और मानसिक रूप से प्रभावित किया। एक महामारी के कारण पांच महीनों तक लागू लॉकडाउन में जब देश की बड़ी आबादी इस तरह प्रभावित हुई तो सोचिए कश्मीर के लोग बीते एक साल से अपना गुज़ारा कैसे कर रहे होंगे। दावा किया गया था कि अनुच्छेद 370 हटने के बाद कश्मीर भारत से भावनात्मक रूप से जुड़ जाएगा लेकिन 5 अगस्त से कश्मीर को बोलने का मौका दिया ही नहीं गया। कश्मीर के लोग अनुच्छेद 370 को वह पुल मानते थे जिससे वे खुद को जुड़ा हुआ पाते थे, उनके लिए अनुच्छेद 370 उनकी पहचान थी।
विकास के नाम पर कश्मीर की जनता को उनके घरों में ही कैद रहने को मजबूर होना पड़ा। यह अब भी एक अबूझ पहेली है कि किसी राज्य की जनता को कैद कर वहां का विकास आखिर कैसे संभव है।
कश्मीर में औरत होने के मायने
बात जब कश्मीर की होती है तो हमेशा एक तरह की खबरें हमारे सामने आती हैं, इतने आतंकी मार गिराए गए, कहीं बमबारी हो रही है तो कहीं मुठभेड़ जारी है। लॉकडाउन के दौरान कश्मीर की महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा से जुड़े आंकड़े या खबरें शायद ही हमारी नजऱों के सामने से गुजऱी हो। जम्मू-कश्मीर स्टेट कमिशन फॉर वुमन के आंकडों के मुताबिक कश्मीर में 2016-2017 में लागू किए गए कर्फ्यू के दौरान घरेलू हिंसा और महिलाओं के खिलाफ होनेवाली हिंसा में दस गुना बढ़त हुई थी। हालांकि अनुच्छेद 370 के हटने के बाद अब यह कमीशन खत्म किया जा चुका है। कश्मीर में घरेलू हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं के लिए बहुत कम ऐसे साधन हैं जहां वे मदद की गुहार लगा सकती हैं। पिछले साल से लागू सख्त सैन्य लॉकडाउन के कारण महिला हिंसा और घरेलू हिंसा जैसे मुद्दों पर काम करने वाले एनजीओ के लिए भी पीडि़त महिलाओं तक मदद पहुंचाना एक चुनौती बन चुकी है।
जम्मू-कश्मीर स्टेट कमिशन फॉर वुमन की पूर्व चेयरमैन वसुंधरा पाठक के मुताबिक कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान उनके पास ऐसी कई महिलाओं के फोन आए जो घरेलू हिंसा का सामना कर रही थी। यहां एक बात ध्यान दिलाना ज़रूरी है कि कश्मीर में लागू लॉकडाउन भारत के दूसरे हिस्सों के लॉकडाउन से बिल्कुल अलग है। कश्मीर को दुनिया के सबसे मिलिटराइज़्ड ज़ोन के रूप में जाना जाता है। भारत के बाकी हिस्सों में लॉकडाउन कोरोना वायरस के मद्देनजऱ किया गया लेकिन कश्मीर पिछले एक साल से कर्फ्यू जैसे माहौल में जीने को मजबूर है।
कश्मीर की महिलाएं किन परेशानियों से गुजऱ रही हैं, उनके पास देश के बाकी हिस्सों की महिलाओं की तरह मूलभूत अधिकार हैं या नहीं शायद ही हमने कभी इसका जि़क्र होते सुना है। याद कीजिए उस उन्माद को जब केंद्र सरकार के फैसले के बाद राजनीतिक गलियारों से लेकर सोशल मीडिया तक इस बात को बार-बार दोहराया जा रहा था कि अब कश्मीर की लड़कियों से शादी का रास्ता आसान हो जाएगा। एक ऐसा माहौल तैयार किया गया मानो कश्मीर के संसाधन, वहां की ज़मीन और कश्मीरी औरतें देश के मर्दों की जागीर हैं। मानो पूरे कश्मीर को किसी युद्ध के तहत भारत में शामिल किया गया हो।
जम्मू-कश्मीर के इतिहास को बदलने के वादों के बीच कश्मीर की औरतों को मर्दवादी राष्ट्रवाद इस फैसले के तहत मिला उपहार समझ बैठा। मर्दवाद और राष्ट्रवाद के इस कोलाहल में पिछले एक साल से कश्मीर की औरतों का पक्ष कभी सुना ही नहीं गया।
इस वक्त पूरी दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही है। शिक्षा से लेकर हर तरह का काम ऑनलाइन माध्यमों पर शिफ्ट हो चुका है। डॉक्टर इस महामारी से जूझने के लिए लगातार कश्मीर में ज़रूरी सेवाओं के लिए इस मौजूदा हालात में जब इंटरनेट पहले से कहीं अधिक ज़रूरी हो गया है तब भी कश्मीर के लोगों का जीवन 2जी इंटरनेट के साथ कट रहा है। कश्मीर में इंटरनेट बहाल करने से जुड़ी याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाने की जगह केंद्र सरकार को गृह मंत्रालय के अंतर्गत एक समिति बनाकर इस मामले पर फैसला लेने का आदेश दिया है।
इंटरनेट के बुनियादी अधिकार से कब तक वंचित रहेगा कश्मीर
21 जुलाई को केंद्र सरकार ने कोर्ट में हलफनामा दायर कर एक बार फिर सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए कश्मीर में 4जी इंटरनेट बहाल करने से इनकार कर दिया। इंटरनेट जैसी मूलभूत सुविधाओं की गैरमौजूदगी में घाटी में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, पर्यटन, अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है। कोरोना महामारी ने इस स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है। 2जी इंटरनेट सेवाओं के साथ छात्रों के सामने अपनी पढ़ाई जारी रख पाना चुनौतीपूर्ण हो गया है। वे महिला उद्यमी जो इंटरनेट के माध्यम से अपने व्यवसाय को आगे बढ़ा रही थी उनकी आत्मनिर्भरता पर ब्रेक लग गया है। कश्मीर में संचार साधनों पर लागू की गई पाबंदी किसी भी लोकतांत्रिक देश में अब तक की सबसे लंबी पाबंदी के रूप में हमारे सामने आई।
बात अगर हम कश्मीर की अर्थव्यवस्था की करें तो केंद्र सरकार के इस फैसले ने कश्मीर की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है। कश्मीर चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (्यष्टष्टढ्ढ) के मुताबिक इस एक साल के दौरान कश्मीर को 40 हज़ार करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान झेलना पड़ा है। इतना ही नहीं, पिछले साल से लागू लॉकडाउन के पहले चार महीने में ही पांच लाख से अधिक लोग बेरोजग़ार हो चुके थे। आर्थिक रूप से भी महिलाएं पुरुषों के मुकाबले कहीं अधिक प्रभावित हुई हैं। वे महिलाएं जो धीरे-धीरे अपने रोजग़ार को नया रूप दे रही थी 5 अगस्त के बाद उनकी कामयाबी के रास्ते लगभग बंद से हो गए। सुरक्षा कारणों से कर्फ्यू के माहौल में परिवार वाले महिलाओं को बाहर निकलने पर पहले से कहीं अधिक सख्त पाबंदियां लगा दी जाती हैं।
2018 में अपनी कश्मीर यात्रा के दौरान मुझे यह एहसास हुआ था कि एक कंफ्लिक्ट ज़ोन में महिलाओं के बुनियादी मुद्दे, उनके अधिकारों की बातें बिल्कुल हाशिये पर चले जाते हैं। शोपियां के कापरान में मेरी मुलाकात कश्मीर की सबसे छोटी उम्र की पेलेट गन सर्वाइवर हिबा निसार की मां मर्शला जान से हुई थी। मर्शला जान के लिए बतौर महिला सबसे बड़ी फिक्र उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों की नहीं थी। उन्हें फिक्र थी कि किसी तरह पेलेट गन से घायल अपनी बेकसूर बच्ची की आंखों की रोशनी फिर से वापस आ सके। उनके जीवन की पूरी प्राथमिकता अपनी बच्ची के आंखों के ऑपरेशन पर टिकी थी। मेरी मुलाकात हुई थी ब्रिजबिहारा में एक इशरत से जिसे इंतज़ार था उस दिन का जब घाटी में किसी सामान्य छात्र की तरह वह अपने कॉलेज जा सके। उसे इंतज़ार था उस दिन का जब किसी इनकाउंटर, आतंकी हमले या कर्फ्यू का कारण उसकी पढ़ाई न रुके। घाटी में और न जाने कितनी ऐसी औरतें मिली जो हर रोज़ यह दुआ मांगती थी कि उनका परिवार रात के खाने पर साथ हो, सुरक्षित हो। तो कितनी ही महिलाएं एसोसिएशन ऑफ पैरंट्स ऑफ डिसअपियर्ड पर्सन (्रक्कष्ठक्क) के साथ अपने कभी न लौटकर आने वाले पति, भाई, पिता के लिए प्रदर्शनों में शामिल होती हैं। उनके प्रदर्शन के मुद्दे देश के बाकी हिस्सों से अलग होते हैं। कंफ्लिक्ट ज़ोन में एक औरत होने के मायने बेहद अलग और जटिल होते हैं। (hindi.feminisminindia.com)
(यह लेख पहले फेमिनिज्म इन इंडिया की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है.)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने फिर कश्मीर राग अलापा है। इस बार उन्होंने इस काम के लिए 5 अगस्त का दिन चुना है, क्योंकि पिछले साल 5 अगस्त को ही भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर की विशेष हैसियत खत्म की थी और उसे दो हिस्सों में बांटकर केंद्र प्रशासित क्षेत्र बना दिया था। धारा 35 ए और 370 को बिदा कर दिया गया था।
इमरान ने पाकिस्तानी कश्मीर की विधानसभा को संबोधित करते हुए कहा कि भारतीय कश्मीर भी पाकिस्तान का ही है। इस पर मेरे कुछ मित्रों ने मेरी प्रतिक्रिया मांगी तो उनको मैंने कहा कि पाकिस्तान ने भारतीय कश्मीर को भी नए नक्शे में अपना हिस्सा बता दिया है तो यदि हम पूरे पाकिस्तान को भी नक्शे में अपना हिस्सा बता दें तो क्या होगा ? इमरान ने भारत द्वारा कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करने के चार कारण बताए हैं और उन्हें निराधार कहा है। वे वास्तव में सच्चे कारण हैं और उनके ठोस आधार हैं। पहला कारण, भाजपा ने अपने हिंदू वोट पटाने के लिए कश्मीर का पूर्ण विलय किया है। हिंदू वोट निश्चय ही बढ़ेगा। दूसरा, पाकिस्तान चुप रहेगा, क्योंकि वह भारत से दोस्ती चाहता है। यहां इमरान गलत हैं। उन्होंने यह कैसे मान लिया कि मोदी की सरकार उनसे दोस्ती चाहती है। पाकिस्तान चुप तो नहीं रहेगा लेकिन उसकी कोई भी सुननेवाला नहीं है, चीन के अलावा। किसी इस्लामी देश ने भी कश्मीर पर कुछ नहीं बोला।
तीसरा, सारी दुनिया चीन से नाराज़ है। वह भारत को चीन से लड़ाना चाहती है। इसलिए चुप रहेगी। यह बात अमेरिका पर कुछ हद तक लागू हो सकती है लेकिन अन्य देशों का इससे क्या लेना-देना है ? चौथा, भारत ने सोचा कि वह कश्मीर को डंडे के जोर पर दबा लेगा। यदि कुछ लोग हिंसा, आतंक और तोड़-फोड़ पर उतारु होंगे तो किसी भी राज्य का फर्ज क्या होगा ? उन पर वह क्या फूल बरसाएगा ? जरुरी यह है कि कश्मीर का मसला बातचीत से हल हो।
इमरान के आरोप कितने ही खोखले हों लेकिन कश्मीर को अब खुलना चाहिए। सारे कश्मीरी नेताओं को खुलकर मैदान में आने देना चाहिए। यदि फारुक अब्दुल्ला ने वर्तमान स्थिति पर संवाद के लिए अपने घर पर कश्मीरी नेताओं की बैठक बुलाई थी तो उसे सरकार ने क्यों नहीं होने दिया? इस सरकार की सबसे बड़ी कमी यह है कि यह नौकरशाहों पर पूरी तरह से निर्भर है।
इसके पास ऐसे विश्वसनीय और गंभीर लोगों का अभाव है, जो भाजपा और सरकार में न होते हुए भी इतने प्रभावशाली हैं कि वे भारत-विरोधी देशी और विदेशी नेताओं से सीधा संवाद कर सकें।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-पवन वर्मा
सात मई, 2011 दक्षिण कोरिया की राजधानी सोल के लिए एक ऐतिहासिक तारीख थी. इस दिन हम भारतीयों के ‘गुरुदेव’ रबींद्रनाथ टैगोर का 150वां जन्मदिवस था और इसी मौके पर सोल के सांस्कृतिक केंद्र देइहांग्रो में उनकी एक कांस्य प्रतिमा का अनावरण हुआ. दक्षिण कोरिया की राजधानी में यह किसी विदेशी हस्ती की पहली प्रतिमा थी.
सोल में इस प्रतिमा का अनावरण भारत की तत्कालीन लोक सभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने किया था. अमूमन ऐसा होता है कि राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ावा देने के लिए दो देश एक दूसरे की ऐतिहासिक हस्तियों की प्रतिमाओं को अपने यहां स्थापित करते हैं. लेकिन टैगोर की इस प्रतिमा के मामले में यह बात सीधे-सीधे नहीं कही जा सकती.
दक्षिण कोरिया में रबींद्रनाथ टैगोर को मिला यह सम्मान सिर्फ एक नोबेल पुरस्कार प्राप्त भारतीय कवि का सम्मान नहीं था. दरअसल इस देश की नई पीढ़ी तक टैगोर को जानती है और उन्हें एक मार्गदर्शक यानी गुरु की तरह ही आदर देती है. और यह तब है जब दुनिया के कई देशों की यात्रा करने वाले टैगोर सुदूर पूर्वी एशिया के इस देश में कभी नहीं गए!
तो फिर टैगोर कोरियाई लोगों के बीच इतने प्रतिष्ठित कैसे हो गए? दुनिया के और देशों की तरह कोरिया का प्रबुद्ध वर्ग भी गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर से 1913 में पहली बार परिचित हुआ था जब उन्हें ‘गीतांजलि’ के लिए नोबल पुरस्कार मिला. कोरिया की एक कवियत्री किम यांग शिक के मुताबिक 1916 में टैगोर के साहित्य का कोरियाई भाषा में अनुवाद शुरू हुआ और इस तरह वहां के लोगों ने भारत के इस महान लेखक-विचारक के काम को जाना-समझा. 1920 में ‘गीतांजलि’ का अनुवाद भी यहां प्रकाशित हो गया था. इसमें कोई दोराय नहीं कि टैगोर का यह साहित्य वहां सराहा जा रहा था, लेकिन सिर्फ इसकी वजह से उन्हें कोरिया में मार्गदर्शक या प्रेरणापुरुष का दर्जा हासिल नहीं हुआ.
1910 के बाद का यह वो दौर था जब कोरिया पर जापान का कब्जा था और वह विदेशियों की बर्बरता से हताश हो चुका था. इसी बीच 1916 में टैगोर पहली बार जापान की यात्रा पर गए. तब यहां उनकी कई कोरियाई छात्रों से मुलाकात हुई और उन्होंने भी पहली बार कोरिया की अद्भुत संस्कृति को करीब से जाना. इसी दौरान उन्हें कोरियाई लोगों के खिलाफ जापानी दमन का भी पता चला और उन्होंने खुलकर इसके खिलाफ अपने विचार व्यक्त किए. इसके बाद गुरुदेव 1924 में फिर जापान गए और इस बार भी उन्होंने जापानी साम्राज्यवाद की सरेआम मुखालफत की.
टैगोर तीसरी और आखिरी बार 1929 में जापान पहुंचे थे. तब भी उनकी कई कोरियाई नागरिकों से मुलाकात हुई. इसी दौरान कोरिया के एक पत्रकार ने उनसे अपने देश आने का अनुरोध किया, हालांकि टैगोर वहां जा नहीं पाए पर उन्होंने उस पत्रकार को चार लाइन की एक छोटी सी कविता लिखकर दी और इसके जरिए कोरिया के प्रति अभी भावनाएं जताईं.
‘द लैंप ऑफ द ईस्ट’ (पूरब का दिया) नाम की यही वो कविता है जिसने बाद के दशकों में कोरियाई लोगों के बीच टैगोर को अमर कर दिया. इस कविता का अगर हम हिंदी मोटा-मोटा भावानुवाद करें तो वह होता है -
‘एशिया के स्वर्णकाल में,
दिया जलाने वाला एक देश कोरिया भी था,
और अब वह दिया फिर प्रतीक्षा में है, प्रकाशवान होने की,
ताकि वो फिर एक बार पूरब में उजियारा भर सके.’
उसी साल यह कविता कोरिया के सबसे लोकप्रिय अखबारों में से एक ‘डोंगा डेली’ में प्रकाशित हुई और इसने मानो कि जनता पर जादू-सा कर दिया. किम यांग शिक बताती हैं कि तब तक कोरियाई समाज जापान की बर्बरता से हताश हो चुका था, लेकिन टैगोर की इन चार पंक्तियों से उसे एक नया हौसला मिला और उसमें यह उम्मीद मजबूत हुई कि वह जल्दी ही जापानी शासन से मुक्त होकर फिर अपने देश का खोया गौरव हासिल करेगा. इस कविता के चलते जल्दी ही टैगोर कोरिया के घर-घर में जाना-पहचाना नाम बन गए थे.
एकीकृत कोरिया का यह दुर्भाग्य रहा कि जापान से आजादी मिलने के बाद दक्षिण और उत्तर कोरिया के रूप में 1948 में उसके दो टुकड़े हो गए. इसके बाद उत्तर कोरिया तो एक अलग ही दिशा में बढ़ गया लेकिन दक्षिण कोरिया ने कभी टैगोर को नहीं भुलाया. इस नए देश ने तुरंत ही गुरुदेव की यह कविता अपने यहां हाई स्कूल के बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल कर दी थी. इसके अलावा यह दक्षिण कोरिया की इतिहास की किताबों का एक अहम हिस्सा तो है ही और यही वजह है कि हमारे गुरुदेव को कोरिया के आम लोग भी कुछ यही दर्जा देते हैं.(satyagrah)
-रितिका श्रीवास्तव
कोरोना काल और क्वारंटीन सबके लिए अलग-अलग अनुभव और चुनौतियां लेकर आया है। कोरोना काल में सभी लोग अब तक अपने घरों में बंद रहने के लिए मजबूर हैं। मैंने भी कोरोना वायरस के कारण लागू हुए इस लॉकडाउन के दौरान बहुत समय के बाद एक लंबे वक्त के लिए अपने घर में रहने का फैसला किया। इस संक्रमण के कारण मुझे 14 दिनों तक अपने घर में क्वारंटीन में रहना था। सच कहूं तो मुझे क्वारंटीन में रहना अच्छा लगा। अपने क्वारंटीन के दौरान मुझे यह अनुभव भी हुआ कि अनपेड लेबर वर्क ने महिलाओं का कितना बड़ा नुकसान किया है। इस बारे में कई समाजशास्त्री, जेंडर स्टडीज़ की समझ रखने वाले और शिक्षाविद् लिख चुके हैं| मैंने अपने 14 दिनों के क्वारंटीन में महिलाओं को खुद के लिए मिलने वाले समय, घर के काम और उन्हें मिलने वाले शिक्षा के अवसर को समझने की कोशिश की।
महिलाएं घर के जितने भी काम करती हैं जैसे झाड़ू, पोछा और घर साफ़ रखना, बर्तन धोना, खाना बनाना और परोसना, कपड़े धोना. उन्हें ठीक से रखना और ईस्त्री करना आदि। क्वारंटीन में मैंने पहली बार घर का ये सब काम नहीं किया। मैंने खुद के ही काम किए जैसे सिर्फ अपने बर्तन और अपने कपड़े धोना, कमरा साफ़ करना आदि। मुझे महिला होकर घर के काम न करना अच्छा लगा। मैं परिवार नाम की संस्था के खिलाफ बिलकुल नहीं हूं न ही मैं यह कह रही हूं कि महिलाओं को परिवार से अलग रहना चाहिए या फिर घर के कोई काम नहीं करने चाहिए। मैं परिवार की संरचना में महिलाओं की जिम्मेदारी और उसके कारण महिलाओं की शिक्षा पर पड़ने वाले असर की बात कर रही हूं।
क्वारंटीन में मुझे घर का कोई काम नहीं करना पड़ रहा था तो मुझे एहसास हुआ कि बचपन से महिलाओं ने कितना अधिक समय घर के काम को दिया है। घर का काम जो एक तरह का अनपेड लेबर वर्क है, उसकी वजह से होने वाली थकावट ने बहुत सी महिलाओं पर बचपन से कम बुद्धिमान, पढ़ाई में कमज़ोर या असफल होने का लेबल चिपका दिया है जबकि उन्हें वे अवसर ही नहीं दिए गए। नतीजन बहुत सी महिलाओं ने बचपन से ही पढ़ाई से मुंह मोड़ लिया या उनकी पढ़ाई-लिखाई और नौकरी मात्र शादी के लिए एक सर्टिफिकेट बन कर रह गई। आज के समय में पढ़ी-लिखी महिलाएं बहुत से परिवारों के लिए परिवार का ‘स्टेटस सिंबल’ मात्र बनकर रह गई हैं।
क्वारंटीन के दौरान मैंने महसूस किया कि अगर महिलाओं को घर के सभी काम न करने पड़ते तो उनके पास कुछ सोचने ,पढ़ने ,समझने और करने के लिए समय होता मैं समझ पा रही हूं कि अगर मेरी मां अपने बचपन से घर के ये सब काम अकेली या अन्य महिलाओं के साथ नहीं करती तो वो और दूसरी सभी महिलाएं कितना कुछ कर सकती थी। खुद के लिए समय का अभाव महिलाओं के जीवन का हिस्सा बन चुका है। समय के अभाव में ही महिलाओं ने शिक्षा में खुद को पुरुष के समकक्ष सिद्ध किया है। लेकिन फिर भी गाज महिलाओं पर ही गिरी और कहा जाने लगा, ‘फलां घर के काम के साथ पढ़ाई में अवल्ल आ सकती है तो तुम क्यों नहीं।’
क्वारंटीन में मुझे घर का कोई काम नहीं करना पड़ रहा था तो मुझे एहसास हुआ कि बचपन से महिलाओं ने कितना अधिक समय घर के काम को दिया है।
अक्सर घर के काम को महिलाओं के भावनात्मक पक्ष, ख़ासतौर पर परिवार का ख़्याल रखने की भावना से से जोड़ दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर अगर महिला घर वालों की फ़िक्र करती है तो किचन से लेकर बाथरूम साफ़ करने जैसे सारे काम उसे खुद ही करने होंगे। पुरुषों के लिए ख्याल रखने के पैमाने अलग हैं। अगर पुरुष परिवार के बारे में सोचता है, सदस्यों का ख्याल रखता है तो उसे ज़्यादा से ज़्यादा पैसे कमाने चाहिए। जबकि सच यह है कि ‘ख्याल रखने’ का इस प्रकार के विभाजन से कोई लेना-देना नहीं है। यह बस हमारे-आपके बनाए हुए ढांचे हैं, जिन्हें हम और आप बदल सकते हैं ।
सवाल ये है कि क्यों हम सब घर के काम में समानता का नियम नहीं ला सकते या हम लाना ही नहीं चाहते। क्यों लड़के बर्तन या सफाई करने में पीछे है और इसे भारतीय परिवारों में सेलिब्रेट किया जाता है? क्या खाना ना बनाने वाले लड़के कमज़ोर, कम बुद्धिमान या असफल होते हैं? क्या खाना बनाने में दिमाग की कोई भूमिका नहीं होती है? क्या पढ़ने के लिए अधिक समय और अवसर दिया जाना सिर्फ़ लड़कों का ही अधिकार है? क्या हमने लड़कियों को शिक्षा के उतने ही अवसर दिए हैं जितने लड़कों को मिलते हैं? मुझे लगता है इन सभी सवालों पर हमें ठीक से विचार करना चाहिए क्यूंकि शिक्षा का सवाल स्कूल या कॉलेज में लड़कियों का दाखिला करवा देने से ख़त्म नहीं होता। हमें ऐसा समाज बनाना होगा जहां लड़कियों को शिक्षा के समान अवसर और उनको खुद के लिए समय मिले| एक ऐसा समाज जहां घर और बाहर के काम की ज़िम्मेदारी घर के सभी सदस्यों को बराबरी से उठानी होगी।
-Ritika
मंदिर, मंडल और मार्केट के थ्री ‘एम’ से पैदा हुआ मीडिया आजकल ‘थ्री आर’ की यात्रा पर है – ‘राफ़ेल, राम मंदिर और रिया चक्रवर्ती।’ एंकर स्टूडियो ग्राफिक्स के सहारे राफ़ेल के कॉकपिट में बैठे नज़र आते हैं। देश में कोरोना के लगभग 17 लाख से अधिक मामले हो चुके हैं लेकिन, सभी धार्मिक आयोजनों की मनाही है पर अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास पर हमारा मीडिया सवाल नहीं करता। राफ़ेल की जय-जयकार के बाद हमारे मीडिया ने अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती के रूप में मीडिया ट्रायल का नया ‘शिकार’ चुन लिया है।
आज कल आप जिस टीवी चैनल की ओर रु़ख करेंगे वहां अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर मीडिया ट्रायल चलता देखेंगे। सुशांत के पिता ने सुशांत की मौत के मामले में एफआईआर दर्ज़ करवाई है जिसमें उन्होंने रिया चक्रवर्ती और उनके परिवार पर कई तरह के आरोप लगाए हैं। ये आरोप सच हैं या झूठ यह पता लगाना कानून की ज़िम्मेदारी है। रिया अपराधी हैं या नहीं यह तय करना भी कानून का काम है, मीडिया का नहीं। लेकिन कंटेट की कमी से जूझते हमारे मीडिया ने इस केस का मीडिया ट्रायल करने का फैसला किया। कोरोना, असम और बिहार की बाढ़, भुखमरी, बढ़ती अपराध की खबरें आखिर मीडिया दिखाए भी तो कैसे, इन खबरों से ‘देश में सब चंगा सी’ का तिलस्म टूटने का जो डर है।
‘रिया का काला जादू, सुशांत के पैसों पर रिया की अय्याशी, लव सेक्स और धोखा, सुशांत, रिया और 15 करोड़, क्या सुशांत को प्यार ने मारा,’ ऐसे न जाने कितने शो टीवी चैनलों ने धड़ा-धड़ बना डाले। सुशांत सिंह राजपूत की मौत से जुड़ी हर खबर ने समाज में बस एक ही संदेश पहुंचाया- ‘रिया चक्रवर्ती ही सुशांत की मौत की वजह हैं।’ मीडिया हर रोज़ रिया से जुड़े नए-नए एंगल निकालकर ला रहा है। उनके पुराने वीडियोज़ निकाले जा रहे हैं जिनका संदर्भ तब शायद कुछ और रहा होगा और उसे अब प्रसारित कर रिया को एक अपराधी साबित करने की पूरी कोशिश की जा रही है।
जिस तरीके से मीडिया सुशांत की मौत से जुड़ी काल्पनिक परतें उघाड़ने में लगा है उससे इस पितृसत्तात्मक समाज़, जहां महिलाओं के प्रति दुर्भावना और पूर्वाग्रह पहले से मजबूत रहे हैं, उसे सशक्त कर रहा है। सुशांत की मौत से जुड़े मीडिया ट्रायल ने सोशल मीडिया में पहले से ही रिया चक्रवर्ती के खिलाफ चल रहे ट्रायल को और मज़बूत किया है। वह मीडिया जो एक महीने पहले तक मनोचिकित्सकों का पैनल बनाकर संवेदना व्यक्त कर रहा था आज वही ‘गिद्धों’ की भांति किसी के जीवन को तहस-नहस करने पर तुला हुआ है। वह दर्शक वर्ग जो एक महीने पहले तक मानसिक स्वास्थ्य के प्रति संवेदना व्यक्त कर रहा था, सोशल मीडिया पर मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैला रहा था अब वह अब एक महिला को नोंच देना चाहता है। उस महिला की मौत की कामना कर रहा है, उसे सोशल मीडिया पर बलात्कार की धमकियां दी जा रही हैं। रिया चक्रवर्ती के खिलाफ़ अभी कोई सबूत नहीं मिले हैं। पुलिस जांच कर रही है। कुछ भी ठोस अब तक नहीं मिला है जिससे सुशांत की मौत में रिया की भूमिका का पता चल सके लेकिन इस केस के आधार पर महिलाओं के खिलाफ एक पूरी फौज खड़ी हो गई है।
जिस तरीके से मीडिया में इस केस का ट्रायल चल रहा है उसके पीछे हमारी समाज की पितृसत्तात्मक सोच ही है। महिला विरोधी ग्राफिक्स, स्लग्स बनाने वाले, कॉपी लिखने वाले प्रोड्यूसर्स, चिल्ला-चिल्लाकर रिया को अपराधी साबित करने में लगे एंकर इसी पितृसत्तात्मक समाज का हिस्सा हैं। उदाहरण के तौर पर एक न्यूज़ प्रोग्राम का टाइटल कुछ इस तरह था- रिया चक्रवर्ती का काला जादू। रिया चक्रवर्ती बंगाली हैं और यह टाइटल समाज के कई पुर्वाग्रहों में से एक है जहां कहा जाता है- ‘बंगाली लड़कियां काला जादू जानती हैं।’
इस टाइटल और थमनेल को तैयार करने वाले प्रोड्यूसर के दिमाग में एक साथ न जाने कितने पूर्वाग्रह चल रहे होंगे। रिया की ऐसी तस्वीर खोजना जिसमें उनके हाथ एक खास मुद्रा में हो, फिर एक शीशे के गोले में सुशांत को कैद दिखाना। सिर्फ इस एक तस्वीर के ज़रिए भारत के करोड़ों दर्शक इस बात को अब तक मान चुके होंगे कि रिया ने ज़रूर सुशांत पर काला जादू किया होगा। उनका यह पूर्वाग्रह कि बंगाली लड़कियां जादू-टोना करती हैं पहले से कहीं अधिक मज़बूत हो गया होगा। वे अब इसे एक तथ्य मान चुके होंगे कि ‘बड़ी-बड़ी आंखों और लंबे बालों वाली बंगाली लड़कियां’ लड़कों को अपने वश में कर लेती हैं। समूचे बंगाली समुदाय को जादू-टोटकों का समाज घोषित कर दिया गया है। अवैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दिया जा रहा है।
जहां पत्रकारिता से उम्मीद की जाती है प्रेम और मानवीय संबंधों के प्रति संवेदनशील होगा, वहां मुख्यधारा की पत्रकारिता ने प्रेम संबंधों को लव, सेक्स और धोखे के मुहावरों से लैस कर दिया है।
हज़ारों-करोड़ों घरों में एक गर्लफ्रेंड एक ब्यॉयफ्रेंड की मौत की दोषी साबित हो चुकी है। प्रेम संबंधों को रिया जैसी गर्लफ्रेंड का हवाला देकर कोसा जा रहा है, शक पैदा किया जा रहा है। करोड़ों दर्शकों के दिमाग में ये कूड़ा भरा जा रहा है कि रिया चक्रवर्ती सिर्फ सुशांत के पैसों पर ‘अय्याशी’ किया करती थी। दर्शक वर्ग 17 लाख कोरोना केसेज़ की वजह जानने से अधिक दिलचस्पी इसमें ले रहा है कि आखिर सुशांत के 15 करोड़ रुपये गए कहां। जहां पत्रकारिता से उम्मीद की जाती है प्रेम और मानवीय संबंधों के प्रति संवेदनशील होगा, वहां मुख्यधारा की पत्रकारिता ने प्रेम संबंधों को लव, सेक्स और धोखे के मुहावरों से लैस कर दिया है। मीडिया से उम्मीद की जाती है कि वह समाज के पूर्वाग्रहों को खत्म करे न कि उन्हें बढ़ावा दे।
मीडिया में चल रहे ट्रायल के बीच रिया चक्रवर्ती ने एक वीडियो जारी कर कहा कि उन्हें इस देश के न्यायतंत्र पर पूरा भरोसा है। उनके इस बयान के बाद सुशांत सिंह राजपूत के परिवार की तरफ से नियुक्त किए गए वकील विकास सिंह का बयान आता है, “रिया ने जो वीडियो जारी किया है वह दिखावा अधिक है, मुझे नहीं लगता उन्होंने जो सलवार सूट वीडियो में पहन रखा है वह आज से पहले कभी पहना होगा। उन्होंने यह वीडियो खुद को एक आम महिला की तरह दिखाने के लिए जारी किया है।” एक नामी वकील की तरफ से यह बयान आना अपने आप में शर्मनाक है। एक वकील सबूतों, बयानों और गवाहों के आधार पर अपना केस लड़ता है लेकिन यहां विकास सिंह लोगों का ध्यान रिया चक्रवर्ती के बयान से अधिक उनके पहनावे की ओर ले जाना चाहते हैं। चूंकि इस केस में मुख्य आरोपी एक महिला को बनाया गया है इसलिए विकास सिंह भी केस को पितृसत्तात्मक तरीके से मज़बूत करते दिख रहे हैं।
लड़कियां सिर्फ पैसों के लिए लड़कों के साथ होती हैं, गर्लफ्रेंड अपने पार्टनर को परिवार से दूर कर देती है, लड़कियां अपने पार्टनर पर हुक्म चलाती हैं, वे सिर्फ अपने फायदे के लिए लड़कों का इस्तेमाल करती हैं और न जाने कितने ही अनगिनत पूर्वाग्रहों को इस सुशांत सिंह राजपूत के केस के मीडिया ट्रायल ने मज़बूती दी है। रिया चक्रवर्ती के मीडिया ट्रायल से पत्रकारिता के छात्रों और युवा पत्रकारों को यह सीख लेनी चाहिए कि पत्रकारिता कैसे नहीं करनी चाहिए। पितृसत्ता और औरतों से जुड़े पूर्वाग्रहों की नींव शुरू से ही कमज़ोर करने की ज़रूरत इसीलिए होती है ताकि कोई आगे चलकर ऐसे पैकेज न लिखे- ‘जानें, सुशांत को कैसे रिया ने अपने वश में किया था।’
मधुकर उपाध्याय का नज़रिया
सच्चाई और ज़मीनी माहौल इन दोनों में कितना फ़ासला है, इसे समझने के लिए कालयात्री होने की आवश्यकता नहीं है. कई बार चीज़ें एकदम सामने होती हैं लेकिन हम उसे जानते-समझते और स्वीकार नहीं कर पाते.
जिसने अयोध्या में भगवान राम के भव्य मंदिर का भूमि पूजन समारोह देखा, उसने यह भी देखा होगा कि भारत बहुत तेज़ रफ़्तार से एक ख़ास दिशा में चल रहा है, जिसे मोड़ना संभव नहीं दिख रहा.
अयोध्या व्यापक जन-मानस के लिए आस्था का केंद्र है, रामलला की जन्मस्थली है, सामूहिक स्मृति का हिस्सा है. इस पर प्रश्न उठाना ख़ुद को कठघरे में खड़ा करना है. पहाड़ से लुढ़कती बड़ी चट्टान के सामने खड़े होने जैसा दुस्साहस है.
जो कुछ बचा-खुचा था, भूमि पूजन ने उसे इतने गहरे गड्ढे में दबा दिया है कि वहाँ से निकलना तक़रीबन असंभव लगता है.
'राम से चार गुना बड़े मोदी'
जहाँ लोग कहते हों कि 'उन्होंने नरेंद्र मोदी को चीज़ों के दाम घटाने या बीमारी रोकने के लिए प्रधानमंत्री नहीं चुना है, उन्हें बड़े काम करने हैं और वे बड़े काम कर रहे हैं', वहाँ भूख, बेरोज़गारी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे तथाकथित छोटे सवालों का कोई अर्थ नहीं रह गया है.
तालाबंदी के समय सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर गाँव जाने वाले कहते हैं कि 'अकेले मोदी जी क्या-क्या करेंगे? कुछ तो हमें भी करना होगा', तो वो ग़लत नहीं कहते. प्रधानमंत्री उनके लिए 'आस्था के नए प्रतीक' हैं, सवालों से परे हैं.
सार्वजनिक बहसों में नरेंद्र मोदी को 'राष्ट्रपिता' कहने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, 'हर हर मोदी' पर आपत्ति लापता हो गई है, उन्हें 'ईश्वर का अवतार' कहा जाता है, बल्कि एक वर्ग उनको सीधे ईश्वर मानता है. यह ज़मीनी हक़ीक़त आँख मूंदने से ग़ायब नहीं होने वाली.
जिस समय प्रधानमंत्री भूमि पूजन के लिए अयोध्या में थे, इंटरनेट पर एक तस्वीर तैर रही थी. तस्वीर में वे धनुष वाले रामलला का हाथ पकड़े बनने वाले भव्य मंदिर की ओर जा रहे हैं. इसमें राम से चार गुना बड़े मोदी दिखाए गए हैं, लेकिन इसका विरोध ना होना प्रधानमंत्री की विराट छवि की व्यापक स्वीकार्यता को ही दिखाता है.
विपक्ष की भूमिका में मोदी
नरेंद्र मोदी इस समय सत्ता में हैं. वे विपक्ष भी हैं और मध्यस्थता भी उन्हें ही करनी है.
छवि के मामले में वे अपने समकालीनों से मीलों नहीं, दशकों आगे हैं. और ये फ़ासला हर बीतते दिन के साथ बढ़ता दिखाई देता है.
यह पता लगाने का कोई गणितीय आधार उपलब्ध नहीं है कि यह फ़ासला कितने समय में भरेगा? आगे निकलना तो दूर, कितने वक़्त में बराबरी हासिल हो सकती है?
केवल इतना पूछा जा सकता है कि अगर एक व्यक्ति एक दिन में एक टोकरी मिट्टी डालता है, तो एक हज़ार घन मीटर का गड्ढा भरने में कितना समय लगेगा?
प्रधानमंत्री ने अयोध्या में बार-बार 'जय सिया राम' का उद्घोष किया, एक बार भी 'जय श्रीराम' नहीं कहा, तो लोगों ने अतीत को याद करते हुए इसे सहज स्वीकार कर लिया. उन्हें इस पर आपत्ति क्यों होती? सीता मैया उसी तरह उनकी स्मृति का हिस्सा हैं, जैसे राम हैं.
तो फिर भगवान राम की जयकार का यह संबोधन किसके लिए था? निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मंदिर के मुहूर्त या समय के नाम पर की गई सतही आलोचनाओं पर जवाब नहीं दे रहे थे.
वे विपक्ष को संबोधित नहीं कर रहे थे, बल्कि स्वयं विपक्ष की भूमिका में थे. विपक्ष ने बहुत ही दबे-दबे स्वर में जय श्रीराम के उग्र उद्घोष पर एकाध बार सवाल उठाए थे, लेकिन उसे जय सिया राम में मोदी ने ही बदला.
'अब सौम्य राम की वापसी का इशारा'
भारतीय जनता पार्टी के पालमपुर अधिवेशन के बाद से उसका और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी आनुषांगिक संगठनों का नारा 'जय श्रीराम' ही था.
वे 'विनय न मानत जलधि जड़' वाले क्रुद्ध राम का आह्वान कर रहे थे. क्रुद्ध हनुमान की छवि भी इसी सोच का हिस्सा थी.
अयोध्या के लोगों का अभिवादन 'जय सिया राम' से कब 'जय श्रीराम' हो गया उन्हें पता नहीं चला.
इतना ही नहीं, माथे पर रखने और गले में लटकाने वाला 'सियारामी' पटका ग़ायब हो गया. दुकानदार कहने लगे कि कंपनियाँ अब 'सियारामी' नहीं बनातीं, सारे पटके 'जय श्रीराम' वाले ही आते हैं.
प्रधानमंत्री ने 'जय सियाराम' का उद्घोष करके अपने ही समर्थकों और व्यापक जन-मानस से कहा कि अब देश नए तरह के समाज की ओर बढ़ रहा है.
शायद वे यह संदेश देना चाहते थे कि नया समाज पुरुष प्रधान नहीं होगा. उनका संदेश शायद ये था कि नए समाज में स्त्री का स्थान बराबरी का होगा, पुरुष से पहले होगा.
जिस अतुलित बल के प्रतीक पुरूष के तौर पर राम का नाम लिया जाता रहा है, उसकी जगह अब सौम्य राम की वापसी की ओर उनका इशारा रहा होगा.
'भूमि पूजन भारत के लिए सामान्य घटना नहीं'
उन्होंने केवट, शबरी और यहाँ तक गिलहरी की बात करके समाज के हर वर्ग को स्वीकार्य प्रतीक की छवि सामने रखी.
उस विपक्ष की समझ पर सिर क्यों नहीं पीट लेना चाहिए, जिसे इतना बड़ा सामाजिक परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ा. इस आशंका में कि इस परिवर्तन को लक्षित करना, संघ और भाजपा के पाले में जाकर खेलना होगा, धर्म की राजनीति करना होगा, उसने अपनी भूमिका भी नरेंद्र मोदी को सौंप दी है.
राजनीतिक रूप से कितने दलों ने कितनी बार अपनी अंदरूनी कलह में मोदी को मध्यस्थता का अवसर दिया है, उसकी गिनती नहीं है.
अयोध्या में प्रधानमंत्री की उपस्थिति और रामलला के समक्ष साष्टांग प्रणाम की छवि स्पष्ट करती है कि उन्होंने स्वयं को सत्ता के छोटे खेल से ऊपर कर लिया है, आलोचनाओं से परे कर लिया है, जबकि शेष सारे खिलाड़ी गाँव गँवाकर हंडिया-डलिया बचा लेने में व्यस्त हैं.
सब जानते हैं कि अयोध्या का भूमि पूजन भारत के लिए सामान्य घटना नहीं है.
इसका प्रभाव दूरगामी होगा. इस बहाव में बचे रहने के लिए धारा के ख़िलाफ़ तैराकी सबसे अच्छा उपाय नहीं है लेकिन कुछ और करने का विकल्प भी नहीं है जो सत्तारूढ़ दल के लिए नया खाद-पानी होगा.
ऐसे में घर बचाने के लिए, ढह रही जर्जर दीवार की लीपा-पोती करने वाले विपक्ष से कोई उम्मीद की भी नहीं जा सकती.(bbc)
लेबनान इस समय ऐसा संकट झेल रहा है जैसा उसने पिछले कई दशकों में नहीं देखा। आर्थिक संकट, सामाजिक असंतोष, कोरोना महामारी और राजधानी बेरूत के विस्फोटों से थरथराने की घटना से इस मध्य पूर्वी देश की परेशानियां और गहरा गई हैं।
पंद्रह सालों तक गृहयुद्ध झेल चुका लेबनान पहली बार इतनी खराब आर्थिक स्थिति का सामना कर रहा है। 1975 से 1990 तक लेबनान गृहयुद्ध की चपेट में रहा। इसके बाद भी दो दशक से लंबे समय तक सीरिया की सेनाएं देश में रहीं और लेबनान में अपना प्रभुत्व बनाए रखा। सन 2005 में लेबनान के तत्कालीन प्रधानमंत्री रफीक हरीरी की हत्या से उपजी स्थिति देश के राजनैतिक और आर्थिक इतिहास में एक बड़ा मोड़ लेकर आई।
निर्णायक साल रहा 2005
14 फरवरी, 2005 के दिन लेबनान के प्रधानमंत्री रफीक हरीरी के दस्ते पर एक बड़ा आत्मघाती बम हमला हुआ था, जिसमें हरीरी के अलावा 21 और लोग भी मारे गए थे। विपक्ष ने इसके पीछे सीरिया का हाथ बताया था, जिससे सीरिया इनकार करता आया है। वहीं खुद लेबनान के शक्तिशाली शिया गुट हिजबुल्लाह पर भी इसका संदेह रहा है। इसके बाद देश में बहुत बड़े स्तर पर हुए विरोध प्रदर्शनों के चलते, सीरियाई सेना ने 26 अप्रैल को लेबनान छोड़ दिया।
सीरियाई सेनाएं 29 साल से लेबनान में बनी हुई थीं और एक समय तो उनके 40,000 सैनिक लेबनान में तैनात थे। संयुक्त राष्ट्र के एक ट्राइब्यूनल में चार आरोपियों पर हरीरी की हत्या के लिए जिम्मेदार होने का मामला चल रहा है। इसी शुक्रवार अदालत इस पर अपना फैसला सुनाने वाली है। हिजबुल्लाह प्रमुख हसन नसरल्लाह ने अब तक इन चारों अभियुक्तों को नहीं सौंपा है।
इस्राएल के साथ जंग
जुलाई 2006 में हिजबुल्लाह ने दो इस्राएली सैनिकों को कब्जे में ले लिया, जिसके कारण इस्राएल के साथ जंग छिड़ गई। 34-दिन चली इस जंग में जो 1,400 जानें गईं, उनमें से 1,200 लेबनानी थीं। मई 2008 में एक बार फिर एक हफ्ते तक चली हिंसक झड़पों में एक ओर थे हिजबुल्लाह समर्थित आतंकी और दूसरी ओर थे बेरूत और दूसरे इलाकों के सरकारी समर्थक। इस हिंसा की चपेट में आने से करीब 100 लोगों की जान चली गई थी।
इन हिंसक प्रकरणों का उल्लेख करना इसलिए जरूरी है क्योंकि यह ऐसा समय था जब लेबनान फिर से गृह युद्ध के दलदल में गिरता नजर आ रहा था। जुलाई 2008 में जाकर लेबनान में एक 30-सदस्यों वाली राष्ट्रीय एकता सरकार के गठन पर सहमति बनी, जिसमें हिजबुल्लाह और उसके सहयोगियों को वीटो करने की शक्ति दी गई।
जून 2009 में रफीक हरीरी के बेटे साद हरीरी ने सीरिया-विरोधी गठबंधन के नेता के तौर पर चुनाव जीता और देश के प्रधानमंत्री चुने गए। हिजबुल्लाह के साथ कई महीनों तक चले गतिरोध के बाद साद हरीरी नवंबर में जाकर सरकार का गठन कर पाए। जनवरी 2011 में हिजबुल्लाह ने सरकार गिरा दी और जून में अपने प्रभुत्व वाली सरकार का गठन कर लिया।
ईरान समर्थित हिजबुल्लाह
सरकार और सीरिया संकट
अप्रैल 2013 में हिजबुल्लाह ने माना कि उसने अपने लड़ाके सीरिया में राष्ट्रपति बसर अल असद के समर्थन में लडऩे भेजे हैं। इसके बाद के सालों में भी हिजबुल्लाह अपने क्षेत्र के शक्तिशाली शिया देश ईरान से सैन्य और आर्थिक मदद लेकर हजारों लड़ाकों को सीरिया से लगी सीमा पर भेजता रहा।
अक्टूबर 2016 में हिजबुल्लाह के समर्थन से ही लेबनान में सेना के पूर्व जनरल माइकल आउन राष्ट्रपति बने। इसी के साथ देश में 29-महीनों से चला आ रहा राजनीतिक निर्वात भर गया। साद हरीरी को फिर से प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया।
मई 2018 में हिजबुल्लाह और उसके समर्थकों ने 2009 के बाद देश मे कराए गए संसदीय चुनावों में ज्यादातर सीटों पर जीत हासिल की। खुद प्रधानमंत्री की पार्टी को काफी नुकसान हुआ लेकिन फिर भी उन्हीं का नाम तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाने के लिए आगे किया गया। हालांकि नई सरकार के गठन पर मतभेदों के चलते हरीरी-हिजबुल्लाह के बीच बातचीत जनवरी 2019 तक खिंचती चली गई।
सडक़ों पर उतरी जनता
देश की बिगड़ती आर्थिक हालत और गिरती मुद्रा के कारण आम जनों को हो रही परेशानियों के चलते सितंबर 2019 में सैकड़ों लोग राजधानी बेरूत की सडक़ों पर उतरे और अगले करीब डेढ़ महीने तक वहां ऐसे हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए जिनके चलते 29 अक्टूबर को हरीरी ने अपनी सरकार समेत इस्तीफा दे दिया। 19 दिसंबर को हिजबुल्लाह ने समर्थन देकर एक अंजान से व्यक्ति हसन दियाब को देश का प्रधानमंत्री बनाने के लिए आगे किया, जिसे प्रदर्शनकारियों ने फौरन रद्द कर दिया।
आर्थिक संकट के चरम की ओर
इसी साल 21 जनवरी को लेबनान में एक नई सरकार बनी। यह एक ही पार्टी की सरकार है, जिसमें हिजबुल्लाह और उनके सहयोगी शामिल हैं और जो संसद में भी बहुमत में हैं। 30 अप्रैल को सरकार ने माना कि लेबनान के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि वह अंतरराष्ट्रीय कर्ज चुकाने में चूक गया। इसके बाद से अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और देश में आर्थिक सुधारों की योजना बनाई गई।
मई के मध्य में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ शुरु हुई बातचीत फिलहाल रुकी हुई है और जरूरी रकम का इंतजाम अभी नहीं हो सका है। इस संकट से निपटने के सरकार के तरीके के प्रति अपना विरोध जताते हुए 3 अगस्त को लेबनान के विदेश मंत्री ने इस्तीफा दे दिया। लेबनान पर 92 अरब डॉलर का कर्ज है जो कि उसकी जीडीपी के 170 फीसदी के आसपास है। देश की आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीती है और करीब 35 फीसदी लोग बेरोजगार हैं। आरपी/सीके (एएफपी) (www.dw.com)
सुनिता नारायण
अगर हम ईंधन के तौर पर कोयले की जगह प्राकृतिक गैस के प्रयोग की ओर कदम बढ़ा सके तो इससे प्रदूषण में भारी कमी आएगी। उसके बाद अगर हम ईंधन के तौर पर विद्युत का इस्तेमाल करें और वह विद्युत प्राकृतिक गैस एवं हाइडेल, बायोमास इत्यादि जैसे स्वच्छ साधनों से मिले तो प्रदूषण के स्तरों में स्थानीय स्तर पर कमी तो आएगी ही, साथ ही साथ जलवायु परिवर्तन पर भी लगाम लगेगी।
यह हमारे जीवनकाल का सबसे अजीब एवं संकटग्रस्त समय है। लेकिन साथ ही साथ यह सर्वाधिक भ्रमित करने वाला भी है । ऐसा लगता है जैसे कोरोनावायरस की वजह से हमें इंसानियत के सबसे अच्छे और बुरे, दोनों पहलू देखने को मिल रहे हैं। सबसे पहले तो न केवल दिल्ली में बल्कि विश्वभर से हवा के साफ होने की खबरें आ रही हैं। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में गिरावट के भी संकेत प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा मानवीय दृढ़ता, समानुभूति एवं इन सबसे बढक़र -स्वास्थ्य एवं आवश्यक सेवाओं के लिए काम करने वाले लाखों लोगों के नि:स्वार्थ कार्य का प्रमाण प्राप्त हुआ है। इस वायरस के खिलाफ चल रहे युद्ध को किसी भी सूरत में जीतने एवं लोगों की जानें बचाने का जज्बा ही कोविड -19 की लड़ाई का हॉलमार्क बनेगा।
दूसरी ओर, इस वायरस से लडऩे के क्रम में हमारे द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे प्लास्टिक की मात्रा में आशातीत वृद्धि हुई है । देश में कई शहर ऐसे हैँ जो अब कचरा अलग करने की प्रक्रिया बंद कर रहे हैं क्योंकि लगातार बढ़ते मेडिकल कचरे और प्लास्टिक के व्यक्तिगत सुरक्षा किट की संख्या के सामने सफाई कर्मचारी बेबस हैं। तो कह सकते हैं कि हम इस लड़ाई में पीछे जा रहे हैं । इसके अलावा, लोग सार्वजनिक परिवहन के साधनों का प्रयोग नहीं करना चाहते हैं। उन्हें डर है कि भीड़भाड़ वाले सार्वजनिक स्थानों पर संक्रमण का खतरा बढ़ जाएगा। इसलिए, जैसे-जैसे लॉकडाउन खुलेगा , शहरों की सडक़ों पर निजी वाहनों की संख्या में निश्चय ही बढ़ोतरी होगी। जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार जीवाश्म इंधनों से होनेवाला उत्सर्जन भी बढ़ेगा।
यह वह समय भी है जब हम मानवता को उसके सबसे बुरे रूप में देख रहे हैं। चाहे गरीबों को पैसे एवं भोजन उपलब्ध कराने में हुई देरी हो-जिनमें वो प्रवासी मजदूर शामिल हैं जो नौकरियां छूट जाने की वजह से घर जाने को परेशान थे - या जनता को जाति, धर्म एवं नस्ल के नाम पर बांटने की कोशिशें हों या फिर वैसे लोग हों जिन्होंने अपने सगे संबंधी खो दिए क्योंकि उन्हें समय पर चिकित्सकीय मदद नहीं मिल पाई। यह सब देखने को मिल रहा है ।
लेकिन हमें भविष्य की ओर अग्रसर होना चाहिए क्योंकि कोरोना की इस शाम का सवेरा भी अवश्य होगा और हम जिस दुनिया का निर्माण अभी करते हैं वही हमारा भविष्य होगा। साथ ही साथ मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि यह कोरी बयानबाजी नहीं है और ना ही सत्य की कोई लंबी खोज है। असंभव को संभव करना समय की मांग है और आज जब हम इस स्वास्थ्य संकट के चरम पर पहुँच चुके हैं, हमें काम करने के नए तरीके ढूँढने होंगे। हम हालात के सामान्य होने का इंतजार नहीं कर सकते क्योंकि तब यह न तो नया होगा और न ही अलग। और यह संभव है, हमें आवश्यकता है तो बस ऐसे रचनात्मक उत्तर ढूँढने की जो कई चुनौतियों से एकसाथ निपट सकें। उदाहरण के लिए शहरों में होनेवाले वायु प्रदूषण को लें । हम जानते हैं कि हवा में विषाक्त पदार्थों के उत्सर्जन के लिए वाहन सबसे अधिक जिम्मेवार हैं। सबसे अधिक प्रदूषण माल लेकर शहरों में आवाजाही करने वाले हेवी ड्यूटी ट्रकों से फैलता है। जनवरी (प्री-लॉकडाउन) में, हर महीने तकरीबन 90,000 ट्रकों ने दिल्ली में प्रवेश किया वहीं अप्रैल में (लॉकडाउन के दौरान) शहर में प्रवेश करने वाले ट्रकों की संख्या घटकर 8,000 रह गई । अब जैसे जैसे लॉकडाउन खुलता है , आखिर हम ऐसा क्या कर सकते हैं जिससे प्रदूषण लॉकडाउन के पहले वाले स्तर पर ही रहे ?
दरअसल लॉकडाउन के दौरान भारत ने स्वच्छ ईंधन एवं वाहन तकनीक की तरफ एक कदम बढ़ाया है। हेवी ड्यूटी ट्रकों की बात की जाए तो अप्रैल के पहले केबी एस फोर मौडलों एवं वर्तमान के बी एस सिक्स मौडलों के प्रदूषण की मात्रा में नब्बे प्रतिशत का अंतर आता है। यह भी सच है कि ऑटोमोबाइल उद्योग बड़े पैमाने पर वित्तीय संकट झेल रहा है। यह हमारे लिए एक अवसर बन सकता है। अगर सरकार अपने पुराने ए वाहनों को नए से बदलने के लिए ट्रक मालिकों को सब्सिडी प्रदान करने के लिए एक स्मार्ट योजना तैयार कर ले तो यह गेम चेंजर साबित हो सकता है। लेकिन साथ ही साथ यह सुनिश्चित भी करना होगा कि पुराने ट्रकों को कबाड़ में बदलके उन्हें रिसाइकिल किया जाए ताकि उनसे और प्रदूषण न फैले ।
सार्वजनिक परिवहन के साथ भी कुछ ऐसे ही हालात हैं। सुरक्षा का दबाव लगातार बना हुआ है। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि सार्वजनिक परिवहन के बिना हमारे शहर ठप हो जाएंगे। हमें अब जाकर इसके महत्व का एहसास हुआ है। इसलिए, भविष्य के ऐसे शहरों का पुनर्निर्माण करने के लिए, जो गाडिय़ों नहीं बल्कि इंसानों के आवागमन को ध्यान में रखकर बनाए गए हों, का समय या चुका है और सरकार से वित्तीय प्रोत्साहन अपेक्षित है। हमें सभी सावधानियों के साथ सार्वजनिक परिवहन को फिर से शुरू करने की आवश्यकता है। हमें इसे तेजी से इस तरह बढ़ान है जिससे साइकिल चालकों एवं पैदल चलनेवालों को भी साथ लेकर चला जा सका । आंकड़ों से पता चलता है कि हमारी रोजमर्रा की यात्राओं का एक बड़ा हिस्सा 5 किमी से कम का है ।
इसलिए ऐसा किया जाना संभव है । लेकिन आज हमने विघटन के जिस पैमाने को देखा है, वह इसी तरह के पैमाने पर प्रतिक्रिया की माँग करता है।यह किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए कल्पनाशीलता के साथ साथ ठोस, जुनूनी कार्रवाई की जरूरत है। जहां तक उद्योगों एवं उनसे होनेवाले प्रदूषण की बात है तो सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि ये उद्योग किस ईंधन का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए, अगर हम ईंधन के तौर पर कोयले की जगह प्राकृतिक गैस के प्रयोग की ओर कदम बढ़ा सके तो इससे प्रदूषण में भारी कमी आएगी। उसके बाद अगर हम ईंधन के तौर पर विद्युत का इस्तेमाल करें और वह विद्युत प्राकृतिक गैस एवं हाइडेल, बायोमास इत्यादि जैसे स्वच्छ साधनों से मिले तो प्रदूषण के स्तरों में स्थानीय स्तर पर कमी तो आएगी ही, साथ ही साथ जलवायु परिवर्तन पर भी लगाम लगेगी। एक बार फिर मैं कहना चाहूँगी कि यह सब संभव है।
लेकिन यह सब इस विश्वास पर आधारित है कि हम एक बेहतर कल चाहते हैं। कोविड -19 केवल एक भूल या असुविधाजनक दुर्घटना नहीं है बल्कि यह उन कार्यों का एक परिणाम है जो हमने एक ऐसी दुनिया के निर्माण के लिए उठाए हैं जो असमान और विभाजनकारी है, और प्रकृति और हमारे स्वास्थ्य को नजरंदाज करती है। तो इस मुग़ालते में न रहें कि कल बेहतर होगा। यह बेहतर होगा और बेहतर हो सकता है, लेकिन तभी अगर हम स्वयं इस दिशा में कदम उठाएँ। (downtoearth.org.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अयोध्या में राम मंदिर के भव्य भूमिपूजन का कार्यक्रम अद्भुत रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में जैसा पांडित्य प्रकट हुआ है, वह विलक्षण ही है। किसी नेता के मुंह से पिछले 60-70 साल में मैंने राम और रामायण पर इतना सारगर्भित भाषण नहीं सुना। मोदी ने भारतीय भाषाओं में राम के बारे में लिखे गए कई ग्रंथों के नाम गिनाए।
इंडोनेशिया, कम्बोडिया, थाईलैंड, मलेशिया आदि कई देशों में प्रचलित रामकथाओं का जिक्र किया। राम के विश्वव्यापी रूप का इतना सुंदर चरित्र-चित्रण तो कोई प्रतिभाशाली विद्वान और प्रखर वक्ता ही कर सकता है। मोदी ने अपने भाषण में रामचरित्र का वर्णन कितनी भाषाओं-देसी और विदेशी के उद्धरण देकर किया है। सबसे ध्यान देने लायक तो यह बात रही कि उन्होंने एक शब्द भी ऐसा नहीं बोला, जिससे सांप्रदायिक सदभाव को ठेस लगे। यह खूबी सरसंघचालक मोहन भागवत के भाषण में काफी अच्छे ढंग से उभरकर सामने आई।
उन्होंने राम को भारत का ही नहीं, सारे विश्व का आदर्श कहकर वर्णित किया। उन्होंने राम मंदिर आंदोलन के नेताओं श्री अशोक सिंहल, लालकृष्ण आडवाणी और संत रामचंद्रदास का स्मरण भी किया। यदि स्वयं मोदी लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरलीमनोहर जोशी और अशोक सिंघल जैसे नेताओं का भी नाम लेते और उनका उपकर मानते तो उनका अपना कद काफी ऊंचा हो जाता।
यह तो ‘श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट’ की गंभीर भूल मानी जाएगी कि उन्होंने आडवाणीजी से यह भूमिपूजन नहीं करवाया और उन्हें और जोशीजी को अयोध्या आने के लिए विवश नहीं किया। मैं तो यह मानता हूं कि इस राम मंदिर परिसर में कहीं अशोक सिंघलजी और लालकृष्ण आडवाणीजी की भी भव्य प्रतिमाएं सुशोभित होनी चाहिए। अशोकजी असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। एश्वर्यशाली परिवार में पैदा होने पर भी उन्होंने एक अनासक्त साधु का जीवन जिया और लालजी ने यदि भारत-यात्रा का अत्यंत लोकप्रिय आंदोलन नहीं चलाया होता तो भाजपा क्या कभी सत्तारुढ़ हो सकती थी ?
अपने बड़ों का सम्मान करना रामभक्ति का, राम-मर्यादा का ही पालन करना है। यह खुशी की बात है कि कांग्रेस के नेताओं ने इस मौके पर उच्चकोटि की मर्यादा का पालन किया। उन्होंने राम मंदिर कार्यक्रम का स्वागत किया। यदि इस कार्यक्रम में 36 संप्रदायों के 140 संतों को बुलाया गया था तो देश के 30-35 प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं को क्यों नहीं बुलाया गया ? राम मंदिर का ताला खुलवानेवाले राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी मंच पर होतीं तो इस कार्यक्रम में चार चांद लग जाते। दुनिया को पता चलता कि राम सिर्फ भाजपा, सिर्फ हिंदुओं और सिर्फ भारतीयों के ही नहीं हैं बल्कि सबके हैं। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-राम पुनियानी
जनसामान्य में यह धारणा घर कर गई है कि मुसलमान मूलतः और स्वभावतः अलगाववादी हैं और उनके कारण ही भारत विभाजित हुआ। जबकि सच यह है कि मुसलमानों ने हिंदुओं के साथ कंधा से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया और पूरी निष्ठा से भारत की साझा विरासत और संस्कृति को पोषित किया। फिर भी, आम तौर पर मुसलमानों को देश के बंटवारे के लिए दोषी ठहराया जाता है।
देश के विभाजन का मुख्य कारण अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति थी और देश को बांटने में हिन्दू और मुस्लिम संप्रदायवादियों ने अंग्रेजों की हरचंद मदद की। यही नहीं, भारत पर अपने राज को मजबूती देने के लिए अंग्रेजों के सांप्रदायिक चश्मे से इतिहास का लेखन करवाया गया और आगे चलकर इतिहास का यही संस्करण सांप्रदायिक राजनीति की नींव बना और उसने मुसलमानों के बारे में मिथ्या धारणाओं को बल दिया।
सेवानिवृत्ति की कगार पर खड़े एक नौकरशाह, के. नागेश्वर राव, ने ट्विटर पर हाल में जो टिप्पणियां कीं हैं, वे इसी धारणा की उपज हैं. इन ट्वीटों में राव ने शासकीय कर्मियों के लिए निर्धारित नियमों का उल्लंघन करते हुए, आरएसएस-बीजेपी की तारीफों के पुल बांधे हैं और उन दिग्गज मुसलमान नेताओं का दानवीकरण करने का प्रयास किया हैं जिन्होंने न केवल स्वाधीनता संग्राम में भागीदारी की वरन स्वतंत्र भारत के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.
नागेश्वर राव ने मौलाना आजाद और अन्य मुस्लिम केंद्रीय शिक्षा मंत्रियों पर हिन्दुओं की जड़ों पर प्रहार करने का आरोप लगाते हुए ऐसे मंत्रियों की सूची और उनके कार्यकाल की अवधि का हवाला भी दिया है- मौलाना अबुल कलम आज़ाद - 11 वर्ष (1947-58), हुमायूं कबीर, एमसी छागला और फखरुद्दीन अली अहमद- 4 वर्ष (1963-67) और नुरुल हसन- 5 वर्ष (1972-77)। उन्होंने लिखा कि बाकी 10 वर्षों में वीकेआरवी राव जैसे वामपंथी केंद्रीय शिक्षा मंत्री के पद पर रहे।
उनका आरोप है कि इन मंत्रियों की नीतियों के मुख्य अंग थे-1. हिन्दुओं के ज्ञान को नकारना, 2. हिन्दू धर्म को अंधविश्वासों का खजाना बताकर बदनाम करना, 3. शिक्षा का अब्राहमिकिकरण करना, 4. मीडिया और मनोरंजन की दुनिया का अब्राहमिकिकरण करना और 5. हिन्दुओं को उनकी धार्मिक पहचान के लिए शर्मिंदा करना। राव का यह भी कहना है कि हिन्दू धर्म ने हिन्दू समाज को एक रखा है और उसके बिना हिन्दू समाज समाप्त हो जाएगा।
फिर वे हिन्दुओं का गौरव पुनर्स्थापित करने के लिए आरएसएस-बीजेपी की प्रशंसा करते हैं। उन्होंने जो कुछ लिखा है वह नफरत को बढ़ावा देने वाला तो है ही वह एक राजनैतिक वक्तव्य भी है। नौकरशाहों को इस तरह के वक्तव्य नहीं देने चाहिए। सीपीएम की पोलित ब्यूरो की सदस्य बृंदा करात ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर इस अधिकारी के खिलाफ उपयुक्त कार्यवाही किये जाने की मांग की है।
नागेश्वर राव ने शुरुआत मौलाना आजाद से की है। मौलाना आजाद, स्वाधीनता आन्दोलन के अग्रणी नेताओं में से एक थे और 1923 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष बने। वे 1940 से लेकर 1945 तक भी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। उन्होंने अंतिम क्षण तक देश के विभाजन का विरोध किया।
कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से 1923 में उन्होंने लिखा, “अगर जन्नत से कोई देवदूत भी धरती पर उतर कर मुझसे कहे कि यदि मैं हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करना छोड़ दूं तो इसके बदले वह मुझे 24 घंटे में स्वराज दिलवा देगा तो मैं इंकार कर दूंगा। स्वराज तो हमें देर-सवेर मिल ही जाएगा, परन्तु अगर हिन्दुओं और मुसलमानों की एकता खत्म हो गयी तो यह पूरी मानवता के लिए एक बड़ी क्षति होगी।”
उनकी जीवनी लेखक सैय्यदा हामिद लिखती हैं, “उन्हें तनिक भी संदेह नहीं था कि भारत के मुसलमानों का पतन, मुस्लिम लीग के पथभ्रष्ट नेतृत्व की गंभीर भूलों का नतीजा है। उन्होंने मुसलमानों का आह्वान किया कि वे अपने हिन्दू, सिख और ईसाई देशवासियों के साथ मिलजुल कर रहें।” उन्होंने ही रामायण और महाभारत का फारसी में अनुवाद करवाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
यह तो पक्का है कि नागेश्वर राव ने न तो मौलाना आजाद को पढ़ा है, न उनके बारे में पढ़ा है और न ही उन्हें इस बात का इल्म है कि मौलाना आजाद की आधुनिक भारत के निर्माण में क्या भूमिका थी। राव जिन वैचारिक शक्तियों की प्रशंसा के गीत गा रहे हैं वे शक्तियां नेहरु युग में जो कुछ भी हुआ, उसकी निंदा करते नहीं थकतीं, परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि नेहरु युग में ही शिक्षा मंत्री की हैसियत से मौलाना आजाद ने आईआईटी, विभिन्न वैज्ञानिक अकादमियों और ललित कला अकादमी की स्थापना करवाई। उसी दौर में भारत की साझा विरासत और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए अनेक कदम उठाये गए।
जिन अन्य दिग्गजों पर राव ने हमला बोला है वे सब असाधारण मेधा के धनी विद्वान थे और शिक्षा के क्षेत्र के बड़े नाम थे। हुमायूं कबीर, नुरुल हसन और डॉ जाकिर हुसैन ने शिक्षा के क्षेत्र में असाधारण और बेजोड़ सैद्धांतिक और व्यावहारिक योगदान दिया। हम बिना किसी संदेह के कह सकते हैं कि अगर आज भारत सॉफ्टवेयर और कंप्यूटर के क्षेत्रों में विश्व में अपनी धाक जमा पाया है तो उसके पीछे वह नींव है, जो शिक्षा के क्षेत्र में इन महानुभावों ने रखी। हमारे देश में सॉफ्टवेयर और कंप्यूटर इंजीनियरों की जो बड़ी फौज है, वह उन्हीं संस्थाओं की देन है, जिन्हें इन दिग्गजों ने स्थापित किया था।
यह आरोप कि इन मुसलमान शिक्षा मंत्रियों ने ‘इस्लामिक राज’ के रक्तरंजित इतिहास पर पर्दा डालने का प्रयास किया, अंग्रेजों द्वारा शुरू किए गए सांप्रदायिक इतिहास लेखन की उपज है। दोनों धर्मों के राजाओं का उद्देश्य केवल सत्ता और संपत्ति हासिल करना था और उनके दरबारों में हिन्दू और मुसलमान दोनों अधिकारी रहते थे।
जिसे ‘रक्तरंजित मुस्लिम शासनकाल’ बताया जाता है, दरअसल, वही वह दौर था जब देश में साझा संस्कृति और परम्पराओं का विकास हुआ। इसी दौर में भक्ति परंपरा पनपी, जिसके कर्णधार थे कबीर, तुकाराम, नामदेव और तुलसीदास। इसी दौर में सूफी-संतों के मानवीय मूल्यों का पूरे देश में प्रसार हुआ। इसी दौर में रहीम और रसखान ने हिन्दू देवी-देवताओं की शान में अमर रचनायें लिखीं।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मुसलमानों ने बड़ी संख्या में स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया। दो अध्येताओं, शमशुल इस्लाम और नासिर अहमद ने इन सेनानियों पर पुस्तकें लिखीं हैं। इनमें से कुछ थे- जाकिर हुसैन, खान अब्दुल गफ्फार खान, सैय्यद मुहम्मद शरिफुद्दीन कादरी, बख्त खान, मुजफ्फर अहमद, मुहम्मद अब्दुर रहमान, अब्बास अली, आसफ अली, युसूफ मेहराली और मौलाना मजहरुल हक।
और ये तो केवल कुछ ही नाम हैं। गांधीजी के नेतृत्व में चले आन्दोलन ने साझा संस्कृति और सभी धर्मों के प्रति सम्मान के भाव को बढ़ावा दिया, जिससे बंधुत्व का वह मूल्य विकसित हुआ जिसे संविधान की उद्देशिका में स्थान दिया गया।
भारत के उन शिक्षा मंत्रियों, जो मुसलमान थे, को कटघरे में खड़ा करना, भारत में बढ़ते इस्लामोफोबिया का हिस्सा है। पहले से ही मुस्लिम बादशाहों और नवाबों के इतिहास से चुनिंदा हिस्सों को प्रचारित कर यह साबित करने का प्रयास किया जाता रहा है कि वे हिन्दू-विरोधी और मंदिर विध्वंसक थे। अब, स्वतंत्रता के बाद के मुस्लिम नेताओं पर कालिख पोतने के प्रयास हो रहे हैं। इससे देश को बांटने वाली रेखाएं और गहरी होंगीं। हमें आधुनिक भारत के निर्माताओं के योगदान का आंकलन उनके धर्म से परे हटकर करना होगा। हमें उनका आंकलन तार्किक और निष्पक्ष तरीके से करना होगा।(navjivan)
-डॉ राजू पाण्डेय
जैसा कि हर आपदा में होता है समाज का जो तबका सर्वाधिक वंचित और हाशिए पर होता है वह आपदा से सर्वाधिक प्रभावित होता है और उसकी स्थिति पहले से भी कमजोर हो जाती है। आज हमारे देश में आदिवासी समुदाय के साथ बिल्कुल यही हो रहा है। अप्रैल से लेकर जून तक का समय माइनर फारेस्ट प्रोड्यूस को एकत्रित करने का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है। वर्ष भर एकत्रित होने वाले कुल एमएफपी का लगभग 60 प्रतिशत इसी अवधि में इक_ा किया जाता है। किंतु दुर्भाग्य से कोविड-19 की रोकथाम के लिए लॉक डाउन भी इसी अवधि में लगाया गया।
केंद्र सरकार की वन धन विकास योजना तथा एमएफपी के लिए घोषित समर्थन मूल्य हमेशा की तरह नाकाफी और कागजों तक सीमित रहे। नॉन टिम्बर फारेस्ट प्रोड्यूस की बिक्री भी रुक सी गई। इस कारण आदिवासियों की आजीविका बुरी तरह प्रभावित हुई। पर्टिकुलरली वल्नरेबल ट्राइबल गु्रप्स (पीवीटीजीस) को लॉकडाउन के दौरान एक स्थान से दूसरे स्थान जाने पर लगे प्रतिबंधों के कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकानों और अन्य जरूरी वस्तुओं के प्राप्ति केंद्रों तक पहुंचने में भारी परेशानी हुई। मध्यप्रदेश के बैगा आदिवासियों की बदहाली ने समाचार माध्यमों का ध्यान आकर्षित किया।
पशुपालक घुमंतू आदिवासी समुदाय के लिए यह लॉक डाउन विनाशकारी सिद्ध हुआ। वे अपने घर से दूर अन्य प्रांतों में अपने पशुधन के साथ फंस गए। न तो इन्हें अपने लिए राशन मिल पाया न अपने पशुओं के लिए चारा। लॉक डाउन में दुग्ध विक्रय का कार्य बुरी तरह प्रभावित हुआ। इन पशुपालक आदिवासियों को भुखमरी का सामना करना पड़ रहा है। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 6 अप्रैल 2020 को एक आदेश जारी कर देश के सभी नेशनल पार्कों, वाइल्ड लाइफ सैंकचुरीज और टाइगर रिजर्व में लोगों की आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिया जिससे पशुओं और मनुष्यों के परस्पर संपर्क पर रोक लगाई जा सके। प्राय: सभी स्थानों पर इस आदेश की गलत व्याख्याएं की गईं और संबंधित संरक्षित क्षेत्रों के आसपास निवास करने वाले आदिवासियों के इनमें प्रवेश पर रोक लगाई गई। यह आदिवासी अपनी आजीविका के लिए इन संरक्षित क्षेत्रों के वनों पर निर्भर हैं। इनके जीवन का ताना बाना इन वनों के इर्द गिर्द बुना गया है। यह प्रतिबंध इन पर बहुत भारी पड़ रहा है।
ग्राउंड जीरो में मई 2020 में प्रकाशित वन अधिकार कार्यकर्ताओं, शोधकर्ताओं और विशेषज्ञों द्वारा कोविड-19 लॉकडाउन के आदिवासी समुदाय पर प्रभाव के संबंध में तैयार की गई एक अत्यंत महत्वपूर्ण रिपोर्ट में उपर्युक्त बिंदुओं के अलावा यह भी बताया गया है कि आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बदहाल है और यहाँ पहले ही मलेरिया, टीबी जैसी घातक बीमारियां अपनी जड़ें जमाए हुए हैं। कुपोषण आदिवासी समुदाय की प्रमुख समस्या है। कुपोषित और कमजोर स्वास्थ्य वाले आदिवासी समुदाय में कोविड-19 का प्रसार स्वास्थ्य सेवाओं की दयनीय दशा के मद्देनजर विनाशक सिद्ध हो सकता है।
कोविड-19 ने देश की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है। सरकार देश की अर्थव्यवस्था में जान फूंकने की कोशिश में लगी है किंतु दुर्भाग्य यह है कि सरकार के यह प्रयत्न आदिवासी समुदाय के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं। आत्मनिर्भर भारत बनाने की कोशिश में प्रधानमंत्री जी एवं उनकी सरकार ने निर्णय लिया कि मध्य और पूर्वी भारत के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में स्थित 41 कोल ब्लॉक्स की वर्चुअल नीलामी की जाए। इनमें झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में प्रत्येक में 9 एवं मध्यप्रदेश में 11 तथा महाराष्ट्र में 3 कोल ब्लॉक हैं। सैंतालीस वर्षों के बाद अब सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड में प्राइवेट सेक्टर का प्रवेश होने वाला है। अब देशी और विदेशी कॉरपोरेट्स नो गो क्षेत्रों में वन्य जीवों और पेड़ पौधों की दुर्लभ प्रजातियों को नष्ट करते हुए, पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ावा देते हुए और इन क्षेत्रों में निवासरत आदिवासियों के जीवन को अस्तव्यस्त करते हुए कोयले का दोहन कर सकेंगे। माइनिंग की प्रक्रिया को सरल बनाने के नाम पर माइंस एंड मिनरल्स (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट 1957 तथा माइनिंग (स्पेशल प्रोविजन) एक्ट 2015 को संशोधित करते हुए मार्च 2020 में मिनरल लॉज़ अमेंडमेंट एक्ट पारित किया गया। अब विदेशी पूंजीपति भी कोल ब्लॉक की नीलामी का हिस्सा बन सकेंगे और फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।
अगस्त 2019 में ही मोदी सरकार ने कोयले के खनन, प्रसंस्करण और विक्रय के लिए आटोमेटिक रुट से शतप्रतिशत एफडीआई को स्वीकृति दे दी थी। सरकार पूंजीपतियों को उपकृत करने की हड़बड़ी में आदिवासियों को पांचवीं अनुसूची में प्राप्त विशेषाधिकारों की अनदेखी तो कर ही रही है, वन अधिकार कानून 2006, पेसा एक्ट 1996, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986, लैंड एक्वीजीशन रिहैबिलिटेशन एंड रीसेटलेमेंट एक्ट 2013 तथा एनवायरनमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट नोटिफिकेशन 2006 के प्रावधानों की मूल भावना से खिलवाड़ भी कर रही है।
स्वयं नीति आयोग ने 2013 में गठित हाई लेवल कमेटी ऑन सोशियोइकोनॉमिक, हेल्थ एंड एजुकेशनल स्टेटस ऑफ ट्राइबल कम्युनिटीज इन इंडिया की रिपोर्ट पर 2015 में दी गई अपनी टिप्पणी में स्वीकार किया है कि वन अधिकार अधिनियम के महत्वपूर्ण प्रावधान इनके क्रियान्वयन के दौरान बरती गई उदासीनता तथा जानबूझकर की गई छेड़छाड़ के कारण अप्रभावी बना दिए गए हैं। आयोग ने यह भी माना कि केंद्र और राज्य सरकारें ऐसी नीतियों का निर्माण और अनुसरण करती रही हैं जो आदिवासियों के बुनियादी अधिकारों को प्रतिष्ठित करने की वन अधिकार अधिनियम की मूल भावना के एकदम विपरीत है।
सरकार एनवायरनमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट नोटिफिकेशन 2020 में जिन संशोधनों के साथ आ रही है वे गहरी चिंता उत्पन्न करने वाले हैं। बी2 केटेगरी में सूचीबद्ध प्रोजेक्ट्स को ईआईए एवं जन सुनवाई से छूट, परियोजनाओं के विस्तार और आधुनिकीकरण में ईआईए और जन सुनवाई की अनिवार्यता को खत्म करना, पोस्ट फैक्टो एनवायरनमेंट क्लीयरेंस देना (बिना अनुमति के प्रारंभ किए गए प्रोजेक्ट्स को क्लियर करना), जन सुनवाई के लिए नोटिस पीरियड को 30 दिन से घटाकर 20 दिन करना आदि संशोधन निवेशकों और उद्योगपतियों के पक्ष में हैं और इनका परिणाम परियोजना प्रभावितों के लिए विनाशकारी होगा।
आंकड़े भयावह चित्र प्रस्तुत करते हैं। हमारे देश में आज़ादी के बाद से विकास के नाम पर चलाई जा रही विभिन्न परियोजनाओं के कारण लगभग 10 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं। इनमें से लगभग एक करोड़ बीस लाख लोग माइनिंग गतिविधियों के कारण विस्थापित हुए हैं। इन विस्थापितों में 70 प्रतिशत आदिवासी हैं। कुल विस्थापित लोगों में से केवल 25 प्रतिशत लोग ही माइनिंग कंपनियों से किसी तरह का मुआवजा या नौकरी प्राप्त कर सके हैं। यह आदिवासी अशिक्षित हैं, असंगठित हैं, निर्धन हैं और हमारे भ्रष्ट तंत्र में उद्योगपतियों के हित के प्रति समर्पित सरकारों के साथ मुआवजे और पुनर्वास की लंबी कानूनी लड़ाई लडऩा इनके बस की बात नहीं है। इन आदिवासियों के जीवन से जंगल को निकाल देने के बाद जो शून्य उत्पन्न होता है उसकी पूर्ति किसी आर्थिक मुआवजे से संभव नहीं है। कैश बेस्ड रिहैबिलिटेशन एंड रेसेटलेमेंट ने किस तरह परियोजना प्रभावित लोगों(पैप्स) के जीवन को तबाह किया है, हम सभी जानते हैं।
नीलामी हेतु प्रस्तावित कोल ब्लॉकों में महाराष्ट्र का बांदेर कोल ब्लॉक स्वयं कोल इंडिया लिमिटेड द्वारा कराए गए अध्ययनों में 80 प्रतिशत वन क्षेत्र युक्त एवं पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील कॉरिडोर के रूप में चिह्नित किया गया है। उड़ीसा में नीलामी वाले 9 कोल ब्लॉक्स में 8 अंगुल जिले में हैं। औद्योगिक विकास और माइनिंग के कारण तालचेर-अंगुल तथा इब वैली केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा क्रिटिकली पॉल्यूटेड एरिया घोषित किये जा चुके हैं। मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर का गोटीटोरिया ईस्ट कोल ब्लॉक भी 80 प्रतिशत वन क्षेत्र युक्त है। छत्तीसगढ़ में प्रस्तावित नीलामी क्षेत्रों में लेमरू एलीफैंट रिज़र्व स्थित है। प्रस्तावित क्षेत्र में 4 चालू और 5 आबंटित माइंस पहले से स्थित हैं। वनों के महत्व और आदिवासियों के अधिकारों की अनदेखी का मामला इन यहां तक सीमित नहीं है।
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की फारेस्ट एडवाइजरी कमेटी द्वारा 15 जनवरी 2019 को छत्तीसगढ़ में पारसा ओपन कास्ट कोल माइंस को स्टेज 1 का प्रीलिमनरी फारेस्ट क्लीयरेंस दिया गया। आदिवासी बहुल सूरजपुर और सरगुजा जिले में स्थित यह क्षेत्र एक लाख सत्तर हजार हेक्टेयर में फैले हसदेव अरण्य का हिस्सा है जो सघन वनों से आच्छादित है। इसी में से 841.538 हेक्टेयर जैव विविधता से परिपूर्ण हिस्से को यहाँ माइनिंग के लिए दिया जा रहा है। 2009 में पर्यावरण मंत्रालय ने सघन और विविधता पूर्ण वनों की उपस्थिति के कारण हसदेव अरण्य को माइनिंग के लिए नो गो जोन घोषित किया था। इसके बाद भी यहाँ माइंस के खुलने का सिलसिला जारी रहा। हसदेव अरण्य गोंड आदिवासियों का आवास है। हसदेव अरण्य में 30 कोल ब्लॉक हैं और यहाँ निवास करने वाले आदिवासियों का दुर्भाग्य है कि उनके आवास के नीचे एक बिलियन मीट्रिक टन से ज्यादा कोयले के भंडार हैं।
हसदेव अरण्य में स्तनपायी जीवों की 34, सरीसृपों की 14, पक्षियों की 111 और मत्स्य वर्ग की 29 प्रजातियां हैं। इसी प्रकार वृक्षों की 86, औषधीय पौधों की 51, झाड़ी प्रजाति के पौधों की 19 और घास प्रजाति के पौधों की 12 प्रजातियां यहाँ मौजूद हैं। इसके बाद भी यहां माइनिंग होती रही है और संभवत: वनों तथा आदिवासियों के विनाश तक जारी रहेगी।
आदिवासियों का दुर्भाग्य यहीं समाप्त नहीं होता। हसदेव अरण्य का जो थोड़ा बहुत हिस्सा माइनिंग से बच गया है वहां पर एलीफैंट रिज़र्व बनना प्रस्तावित है और जैसा एक नया चलन देखा जा रहा है कि पर्यावरण संरक्षण के नाम पर यहाँ से भी आदिवासियों को विस्थापित किया जा सकता है। अनेक अध्ययन यह सिद्ध करते हैं कि पर्यावरण संरक्षण का कार्य आदिवासियों से बेहतर कोई नहीं कर सकता। इसके बाद भी देश के टाइगर रिजर्वस से हजारों आदिवासी परिवारों का विस्थापन किया जा रहा है।
सर्वाइवल इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं टाइगर रिजर्व से आदिवासियों के स्वैच्छिक विस्थापन के दावों पर सवाल उठा रही हैं। इनका कहना है कि आदिवासियों पर दबाव डालकर उनसे सहमति पत्र पर हस्ताक्षर कराए गए हैं। कॉर्पोरेट पर्यावरण विदों और टाइगर लॉबी को आदिवासियों के विस्थापन की अपनी कोशिशों में एक बड़ी सफलता तब मिलने वाली थी जब उच्चतम न्यायालय ने 13 फरवरी 2019 को एक आदेश पारित किया जिसमें उसने देश के करीब 21 राज्यों के 11.8 लाख से अधिक आदिवासियों और वनों में रहने वाले अन्य लोगों को वन भूमि से बेदखल करने की बात की थी।
दरअसल, ये लोग अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून, 2006 के अधीन वनवासी के रूप में अपने दावे को सिद्ध नहीं कर पाए थे। बाद में जब अनेक संगठनों ने इस आदेश का विरोध किया और स्वयं केंद्र सरकार के जनजातीय मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों के हवाले से यह बताया कि प्रभावित परिवारों की संख्या कहीं अधिक हो सकती है और करीब 20 लाख आदिवासियों और वन वासियों पर इस आदेश का असर पड़ सकता है तब जाकर केंद्र सरकार ने हस्तक्षेप किया और सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश पर रोक लगाई। यह मामला एक वर्ष से चल रहा था और इस पूरी समयावधि में केंद्र सरकार की रहस्यमय चुप्पी अनेक सवाल खड़े करती है। वास्तव में कॉरपोरेट समर्थक पर्यावरणविद और संरक्षणवादी वन अधिकार कानून 2006 को भारतीय वन अधिनियम, वाइल्ड लाइफ एक्ट तथा पर्यावरण संबंधी अन्य अनेक कानूनों का उल्लंघन करने वाला और असंवैधानिक बताकर खारिज कराना चाहते हैं। प्रसंगवश यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि नागरिकता के लिए दस्तावेज प्रस्तुत करने को आवश्यक बनाने वाली सीएए और एनआरसी जैसी प्रक्रियाएं आदिवासियों को बहुत पीडि़त करेंगी क्योंकि अनेक अध्ययन यह बताते हैं कि अशिक्षा, गरीबी और जागरूकता का अभाव तथा पहुंच विहीन असुविधाजनक स्थानों में आवास ऐसे कारण हैं जिनके फलस्वरूप आदिवासियों के पास आज आवश्यक बनाए जा रहे दस्तावेज संभवत: उपलब्ध नहीं होंगे।
आदिवासी संस्कृति भी विनष्ट होने की ओर अग्रसर है। सरकारों और निजी संस्थाओं के लिए आदिवासी संस्कृति प्रदर्शन और तमाशे का विषय रही है। कुछ निजी कंपनियां सामाजिक उत्तरदायित्व के नाम पर जो स्कूल चला रही हैं उनमें प्राय: परियोजना प्रभावित लोगों के बच्चों को प्रवेश नहीं मिल पाता। इनमें दी जाने वाली शिक्षा का पाठ्यक्रम किसी भी दृष्टि से आदिवासी संस्कृति और परंपरा से संबंधित नहीं होता। यह हमारी सामान्य मानसिकता है कि आदिवासी जब तक हमारी तरह पढ़े लिखे शहरी बाबू बनकर अपनी सभ्यता और संस्कृति को हिकारत से देखने नहीं लगेंगे तब तक उन्हें सभ्य समाज का हिस्सा नहीं माना जा सकता। इधर सरकार है कि आदिवासियों को वनवासी बताकर धीरे धीरे उनका हिंदूकरण करने में लगी है। ऐसी हालत में आदिवासियों की सभ्यता और संस्कृति का विलोपन एक अनिवार्य परिणति है।
आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन रेखांकित करते हैं कि न्यायपालिका के हाल के वर्षों के अनेक फैसले यह संदेह उत्पन्न करते हैं कि या तो आदिवासियों का पक्ष माननीय न्यायालय के सम्मुख रखने में सरकार की ओर से कोताही की जा रही है या फिर न्यायपालिका का एक हिस्सा सवर्ण मानसिकता से अभी भी संचालित हो रहा है। सन् 2018 में सुप्रीम कोर्ट की 2 जजों की बेंच ने एससी/एसटी प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज एक्ट 1989 के प्रावधानों को कमजोर करने वाला एक फैसला दिया था। फरवरी 2020 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की एक बेंच ने कहा कि पदोन्नति में आरक्षण की मांग कोई बुनियादी अधिकार नहीं है। यदि सेवाओं में प्रतिनिधित्व अपर्याप्त भी है तब भी सरकार आरक्षण देने को बाध्य नहीं की जा सकती। 22 अप्रैल 2020 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने आरक्षण की संकल्पना के बारे में विपरीत लगने वाली टिप्पणियां कीं।
आदिवासी उत्पीडऩ के मामलों और इन मामलों में दोषियों को मिलने वाली सजा के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो द्वारा दिए जाने वाले आंकड़ों की अलग अलग व्याख्याएं होती रही हैं। इतना तो तय है कि आदिवासी जितने पिछड़े और कमजोर हैं इन पर होने वाले अत्याचार और हिंसा, इनके शोषण एवं दमन के अधिकांश मामलों की सूचना तक पुलिस को नहीं मिल पाती होगी और सूचना मिलती भी होगी तो एफआईआर नहीं लिखी जाती होगी। जहां तक दोषियों को दंड मिलने का प्रश्न है, अधिकांश मामलों में आदिवासियों पर दबाव बनाकर केस वापस लेने को मजबूर किया जाता है। अशिक्षित और निर्धन होने के कारण लंबी कानूनी लड़ाई लडऩा और अपना पक्ष सक्षम रूप से न्यायालय में रखना इन आदिवासियों हेतु बहुत कठिन होता है। किंतु लो कन्विक्शन रेट की यह व्याख्या कि एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है और अधिकांश शिकायतें फर्जी होती हैं, अमानवीय है। उसी तरह आदिवासियों के साथ होने वाले अत्याचारों की अंडर रिपोर्टिंग को अपराधों में कमी के रूप में दर्शाकर अपनी उपलब्धि बताना भी शरारतपूर्ण है।
कोविड-19 के कारण उत्पन्न परिस्थितियों ने आदिवासी समुदाय के समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित कर दिया है। यह समय अतिशय सहानुभूतिपूर्वक योजनाबद्ध रूप से उनकी खाद्य सुरक्षा, आर्थिक मजबूती और चिकित्सकीय सुविधाओं के विस्तार के लिए कार्य करने का है किंतु दुर्भाग्यवश सरकार उन्हें अपने आवास से बेदखल कर उनके जंगलों को विनष्ट करने वाली योजनाओं को आर्थिक आत्मनिर्भरता के नाम पर बड़ी तेजी से लागू करने की कोशिश कर रही है।
रायगढ़, छत्तीसगढ़
लेबनान इस समय ऐसा संकट झेल रहा है जैसा उसने पिछले कई दशकों में नहीं देखा. आर्थिक संकट, सामाजिक असंतोष, कोरोना महामारी और राजधानी बेरूत के विस्फोटों से थरथराने की घटना से इस मध्य पूर्वी देश की परेशानियां और गहरा गई हैं.
पंद्रह सालों तक गृहयुद्ध झेल चुका लेबनान पहली बार इतनी खराब आर्थिक स्थिति का सामना कर रहा है. 1975 से 1990 तक लेबनान गृहयुद्ध की चपेट में रहा. इसके बाद भी दो दशक से लंबे समय तक सीरिया की सेनाएं देश में रहीं और लेबनान में अपना प्रभुत्व बनाए रखा. सन 2005 में लेबनान के तत्कालीन प्रधानमंत्री रफीक हरीरी की हत्या से उपजी स्थिति देश के राजनैतिक और आर्थिक इतिहास में एक बड़ा मोड़ लेकर आई.
निर्णायक साल रहा 2005
14 फरवरी, 2005 के दिन लेबनान के प्रधानमंत्री रफीक हरीरी के दस्ते पर एक बड़ा आत्मघाती बम हमला हुआ था, जिसमें हरीरी के अलावा 21 और लोग भी मारे गए थे. विपक्ष ने इसके पीछे सीरिया का हाथ बताया था, जिससे सीरिया इनकार करता आया है. वहीं खुद लेबनान के शक्तिशाली शिया गुट हिजबुल्लाह पर भी इसका संदेह रहा है. इसके बाद देश में बहुत बड़े स्तर पर हुए विरोध प्रदर्शनों के चलते, सीरियाई सेना ने 26 अप्रैल को लेबनान छोड़ दिया.
सीरियाई सेनाएं 29 साल से लेबनान में बनी हुई थीं और एक समय तो उनके 40,000 सैनिक लेबनान में तैनात थे. संयुक्त राष्ट्र के एक ट्राइब्यूनल में चार आरोपियों पर हरीरी की हत्या के लिए जिम्मेदार होने का मामला चल रहा है. इसी शुक्रवार अदालत इस पर अपना फैसला सुनाने वाली है. हिजबुल्लाह प्रमुख हसन नसरल्लाह ने अब तक इन चारों अभियुक्तों को नहीं सौंपा है.
इस्राएल के साथ जंग
जुलाई 2006 में हिजबुल्लाह ने दो इस्राएली सैनिकों को कब्जे में ले लिया, जिसके कारण इस्राएल के साथ जंग छिड़ गई. 34-दिन चली इस जंग में जो 1,400 जानें गईं, उनमें से 1,200 लेबनानी थीं. मई 2008 में एक बार फिर एक हफ्ते तक चली हिंसक झड़पों में एक ओर थे हिजबुल्लाह समर्थित आतंकी और दूसरी ओर थे बेरूत और दूसरे इलाकों के सरकारी समर्थक. इस हिंसा की चपेट में आने से करीब 100 लोगों की जान चली गई थी.
इन हिंसक प्रकरणों का उल्लेख करना इसलिए जरूरी है क्योंकि यह ऐसा समय था जब लेबनान फिर से गृह युद्ध के दलदल में गिरता नजर आ रहा था. जुलाई 2008 में जाकर लेबनान में एक 30-सदस्यों वाली राष्ट्रीय एकता सरकार के गठन पर सहमति बनी, जिसमें हिजबुल्लाह और उसके सहयोगियों को वीटो करने की शक्ति दी गई.
जून 2009 में रफीक हरीरी के बेटे साद हरीरी ने सीरिया-विरोधी गठबंधन के नेता के तौर पर चुनाव जीता और देश के प्रधानमंत्री चुने गए. हिजबुल्लाह के साथ कई महीनों तक चले गतिरोध के बाद साद हरीरी नवंबर में जाकर सरकार का गठन कर पाए. जनवरी 2011 में हिजबुल्लाह ने सरकार गिरा दी और जून में अपने प्रभुत्व वाली सरकार का गठन कर लिया.
ईरान समर्थित हिजबुल्लाह सरकार और सीरिया संकट
अप्रैल 2013 में हिजबुल्लाह ने माना कि उसने अपने लड़ाके सीरिया में राष्ट्रपति बसर अल असद के समर्थन में लड़ने भेजे हैं. इसके बाद के सालों में भी हिजबुल्लाह अपने क्षेत्र के शक्तिशाली शिया देश ईरान से सैन्य और आर्थिक मदद लेकर हजारों लड़ाकों को सीरिया से लगी सीमा पर भेजता रहा.
अक्टूबर 2016 में हिजबुल्लाह के समर्थन से ही लेबनान में सेना के पूर्व जनरल माइकल आउन राष्ट्रपति बने. इसी के साथ देश में 29-महीनों से चला आ रहा राजनीतिक निर्वात भर गया. साद हरीरी को फिर से प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया.
मई 2018 में हिजबुल्लाह और उसके समर्थकों ने 2009 के बाद देश मे कराए गए संसदीय चुनावों में ज्यादातर सीटों पर जीत हासिल की. खुद प्रधानमंत्री की पार्टी को काफी नुकसान हुआ लेकिन फिर भी उन्हीं का नाम तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाने के लिए आगे किया गया. हालांकि नई सरकार के गठन पर मतभेदों के चलते हरीरी-हिजबुल्लाह के बीच बातचीत जनवरी 2019 तक खिंचती चली गई.
सड़कों पर उतरी जनता
देश की बिगड़ती आर्थिक हालत और गिरती मुद्रा के कारण आम जनों को हो रही परेशानियों के चलते सितंबर 2019 में सैकड़ों लोग राजधानी बेरूत की सड़कों पर उतरे और अगले करीब डेढ़ महीने तक वहां ऐसे हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए जिनके चलते 29 अक्टूबर को हरीरी ने अपनी सरकार समेत इस्तीफा दे दिया. 19 दिसंबर को हिजबुल्लाह ने समर्थन देकर एक अंजान से व्यक्ति हसन दियाब को देश का प्रधानमंत्री बनाने के लिए आगे किया, जिसे प्रदर्शनकारियों ने फौरन रद्द कर दिया.
आर्थिक संकट के चरम की ओर
इसी साल 21 जनवरी को लेबनान में एक नई सरकार बनी. यह एक ही पार्टी की सरकार है, जिसमें हिजबुल्लाह और उनके सहयोगी शामिल हैं और जो संसद में भी बहुमत में हैं. 30 अप्रैल को सरकार ने माना कि लेबनान के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि वह अंतरराष्ट्रीय कर्ज चुकाने में चूक गया. इसके बाद से अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और देश में आर्थिक सुधारों की योजना बनाई गई.
मई के मध्य में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ शुरु हुई बातचीत फिलहाल रुकी हुई है और जरूरी रकम का इंतजाम अभी नहीं हो सका है. इस संकट से निपटने के सरकार के तरीके के प्रति अपना विरोध जताते हुए 3 अगस्त को लेबनान के विदेश मंत्री ने इस्तीफा दे दिया. लेबनान पर 92 अरब डॉलर का कर्ज है जो कि उसकी जीडीपी के 170 फीसदी के आसपास है. देश की आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीती है और करीब 35 फीसदी लोग बेरोजगार हैं.
आरपी/सीके (एएफपी) (dw)
-राम यादव
अल्फ्रेड मेहैन 19वीं सदी में अमेरिकी नौसेना के रियर एडमिरल हुआ करते थे. साथ ही एक बहुत कुशल रणनीतिकार भी थे. उनकी एक सबसे प्रसिद्ध पुस्तक है ‘’इतिहास पर समुद्री-शक्ति का प्रभाव’’ (दि इनप्लुएन्स ऑफ़ सी पॉवर अपॉन हिस्टरी). उनका मानना था कि किसी देश की राष्ट्रीय महत्ता शांतिकाल में समुद्र के वाणिज्यिक उपयोग से और युद्धकाल में उस पर अपने अलंघनीय नियंत्रण से जुड़ी होती है. उनकी भविष्यवाणी थी कि 21वीं सदी की दुनिया का भाग्य उसके सागरों पर तय होगा.
हम 21 वीं सदी में ही रह रहे हैं. इस सदी के आरंभ से ही चीन एशिया में अपनी सामरिक शक्ति का धुंआधार विस्तार कर रहा है. जिस तेज़ी और ढिठाई से दक्षिण चीन सागर से लेकर पूर्वी अफ्रीका तक के हिंद महासागर में पैर पसारते हुए वह अपने नौसैनिक अड्डों एवं जहाज़ों का जाल बिछा रहा है, उससे इस विशाल क्षेत्र के तटवर्ती देशों में बेचैनी फैलना स्वाभाविक है. यह बेचैनी इस कारण और भी बढ़ जाती है कि चीन एक ऐसा देश है, जिसके शासक हिटलर के फ़ासिस्टों और स्टालिन के कम्युनिस्टों की तरह जब अपनी ही जनता के ख़ून के प्यासे रहते हैं, तो दूसरों को भला कैसे शांति से जीने देंगे! पड़ोसी देशों की ज़मीनें हड़पते हुए अपना भूभाग बढ़ाना उनके लिए शाश्वत राजधर्म बन गया है. तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने, धोखाधड़ी और झूठ बोलने में उनका कोई सानी नहीं है.
हिंदी-चीनी भाई-भाई नहीं हो सकते
कुछ समय से भारत के साथ अच्छे व्यापारिक एवं राजनीतिक संबंध होते हुए भी चीन के नेताओं ने, जून 2020 में, जिस कुटिलता के साथ लद्दाख के अक्साई चिन इलाके में अपने पैर पसारने का प्रयास किया, उससे यह भ्रम सदा-सर्वदा के लिए दूर हो जाना चाहिये कि हिंदी-चीनी कभी भाई-भाई हो सकते हैं. हमें अंतिम रूप से गांठ बांध लेना चाहिये कि ‘मुंह में राम, बगल में छुरी’ वाली कहावत भारतीय भले ही हो, उस पर अमल की शपथ चीन ने ले रखी है. चीन के सारे पड़ोसी कभी न कभी इसके भुक्तभोगी बन चुके हैं या बनेंगे.
भारत के दक्षिण-पश्चिम में हिंद महासागर में बसा मालदीव तो चीन का पड़ोसी भी नहीं है. तब भी वहां फ़रवरी 2018 में आपात स्थिति की घोषणा होते ही चीन को जैसे ही भनक मिली कि भारत वहां राजनैतिक स्थिरता लाने के लिए अपने सैनिक भेजने की सोच रहा है, चीनी नौसेना के 11 युद्धपोत मालदीव की दिशा में चल पड़े. उसके तीन दूसरे युद्धपोत उसी समय समुद्री डाकुओं से लड़ने के एक कथित अभियान के बहाने से सोमालियाई तट के पास तैनात थे. यानी चीनी नौसेना के 14 युद्धपोत हिंद महासागर में तैनात थे और वे किसी भी समय मालदीव पहुंच सकते थे.
आठ चीनी युद्धपोत हमेशा हिंद महासागर में
भारत को विवश होकर एक बड़े युद्धाभ्यास के माध्यम से चीन को संदेश देना पड़ा कि हम भी तैयार हैं. चीन ने उस समय अपने क़दम पीछे हटा तो लिये, पर कौन कह सकता है कि वह हमेशा इसी तरह पीछे हट जायेगा. भारतीय नौसेना की जानकारी के अनुसार, परमाणु शक्ति चालित चीनी पनडुब्बियों सहित उसके आठ युद्धपोत हमेशा हिंद महासागर में तैनात रहते हैं.
भारत को न चाहते हुए भी, चीन के ही कारण, अपनी नौसेना के आधुनिकीकरण और उसकी मारकशक्ति बढ़ाने के एक बहुत ही ख़र्चीले कार्यक्रम पर ध्यान देना पड़ रहा है. चीन 21 वीं सदी शुरू होने के साथ ही भारत को घेरते हुए हिंद महासागर में अपने नौसैनिक अड्डों व अन्य सुविधाओं की एक मेखला बनाने में जुट गया, जिसे अंग्रेज़ी मीडिया ने ‘स्ट्रिंग ऑफ़ पर्ल्स’ (मोतियों की माला) नाम दे रखा है. हिंद महासागर के क़रीब एक दर्जन तटवर्ती देशों में चीन अब तक कम से कम 16 जगहों पर अपनी नौसेना के लिए विशेष सुविधाएं जुटाने या अड्डे बनाने में सफल रहा है. वह बांग्लादेश को भी दो पनडुब्बियां देकर उस पर डोरे डालने में लगा हुआ है. सुनने में आया है कि चीन वहां के कोक्स बाज़ार में एक नौसैनिक अड्डा बनाने में सहायता दे रहा है.
मालदीव में नौसैनिक अड्डे का निर्माण
टोही उपग्रहों द्वारा लिये गये चित्र दिखाते हैं कि मालदीव के फ़ेयदहू-फ़िनोलहू द्वीप का कायापलट हो गया है. चीन ने मालदीव को 40 लाख डॉलर देकर इस द्वीप को 2066 तक के लिए पट्टे (लीज़) पर ले रखा है. उसने उसके आस-पास की गहराई को पाटते हुए उसका आकार 38 हज़ार वर्गमीटर से बढ़ा कर एक लाख वर्गमीटर कर दिया है. वहा बड़े पैमाने पर वहां निर्माणकार्य चला रहा है. चीन ने घुमा-फिरा कर मान भी लिया है कि वह वहां अपना एक अड्डा बना रहा है, जो ‘’एक सार्वभौम देश होने के नाते उसका अधिकार है.’’
2018 तक मालदीव पर चीन का डेढ़ अरब डॉलर के बराबर कर्ज चढ़ चुका था. चीन इसका लाभ उठा कर मालदीव के अब तक 17 द्वीपों को पट्टे पर लेते हुए उन्हें हथिया चुका है. यदि वह इनका सैनिक उद्देश्यों के लिए उपयोग करता है, तो न तो छोटा-सा मालदीव उसका कुछ बिगाड़ पायेगा और न भारत चीन को ऐसा करने से रोक पायेगा.
भारत के लिए दो बड़े सिरदर्द
मालदीव में चीन की नौसैनिक उपस्थिति से विश्लेषक भारत के लिए दो बड़े सिरदर्द देखते हैं. एक तो यह कि भारत के साथ सामान्यतः अच्छे संबंधों वाला मालदीव राजनैतिक दृष्टि से किसी भी समय चीन की गोद में बैठ सकता है. फ़ेयदहू-फ़िनोलहू द्वीप उसे चीन समर्थक मालदीव के पिछले राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की कृपा से ही मिला था. दूसरा सिरदर्द यह है कि मालदीव में चीनी नौसैनिक अड्डा भारत के इतना निकट होगा कि वह हिंद महासागर में भारत के सुरक्षा-हितों और सभी प्रकार के जहाज़ों के आवागमन के लिए दीर्घकालिक ख़तरा बन जायेगा. भारत के मिनिकॉय द्वीप से वह केवल 900 किलोमीटर और मुख्य भूमि से एक हज़ार किलोमीटर दूर होगा. मालदीव के ही दक्षिणी छोर पर का ‘गान’ द्वीप 1970 वाले दशक तक ब्रिटिश नौसैनिक एवं वायुसैनिक अड्डा हुआ करता था. मालदीव की सहमति से अब वहां कई दशकों से भारतीय नौसेना की एक निगरानी चौकी है.
चीन मालदीव में अपने नौसैनिक अड्डे का उपयोग परमाणु पनडुब्बियों के संचालन के साथ-साथ भारतीय पनडुब्बियों की जासूसी के लिए भी कर सकता है. हिंद महासागर के इस हिस्से में भारत के पास कोई नौसैनिक अड्डा नहीं है. पू्र्वी अफ्रीका के द्वीप-देशों सीशेल्स, मडागास्कर और मॉरिशस में भारत के अभी केवल ऐसे राडार स्टेशन हैं, जिनकी सहायता से वह अफ्रीका के पास वाले हिंद महासागर में चीनी नौसेना की गतिविधियों की टोह लेते हुए उन पर नज़र रख सकता है. यहां उसे चीनी सर्वेक्षण जहाज़, और चालक-रहित दूरनियंत्रित पनडुब्बीवाहन, नियमित रूप से इस क्षेत्र के नक्शे आदि बनाते दिखते हैं.
चीन के जाल में फंसता म्यानमार
भारत के पूर्वी पड़ोसी म्यानमार (बर्मा) का क्याउक्प्यू बंदरगाह कहने को तो चीन के लिए एक वाणिज्यिक सुविधा है, पर उसका सैनिक उद्देश्यों के लिए भी उपयोग करने से चीन को भला कौन रोक सकेगा. चीन ने सात अरब 30 करोड़ डॉलर लगा कर उसका निर्माण किया है और दो अरब 70 करोड़ डॉलर की लागत से उसके पास ही एक औद्योगिक परिसर बना रहा है. चीन इस बंदरगाह को अपने युन्नान प्रांत से जोड़ने के लिए एक सड़क के साथ रेलमार्ग भी बनाना चाहता है. डर यही है कि म्यानमार यदि चीन के सारे ऋण समय पर उतार नहीं पाया, तो मालदीव और श्री लंका के ढर्रे पर क्याउक्प्यू भी एक दिन उसी की मुठ्ठी में होगा.
म्यानमार की राजदानी येंगन से 400 किलोमीटर दूर बंगाल की खाड़ी में, उसके ‘बड़े कोको’ द्वीप पर चीन का एक बड़ा इलेक्ट्रॉनिक जासूसी स्टेशन है. चीन ने 50 मीटर ऊंचे एक एन्टेना टॉवर, राडार तथा अन्य इलेक्ट्रॉनिक सुविधाओं वाले इस स्टेशन का निर्माण 1994 में ही पूरा कर लिया था. बताया जाता है कि चीन ने वहां भारत की दिशा में लक्षित बैलिस्टिक मिसाइल भी तैनात कर रखे हैं. अंडमान सागर के पास के अलेक्ज़ैन्ड्रा जलमार्ग वाले ‘छोटे कोको’ द्वीप पर चीनी सेना का एक और अड्डा है.
चीन ने ये दोनों कोको द्वीप म्यानमार से 1994 में पट्टे पर लिये थे. दोनों सामरिक महत्व की एक ऐसी जगह पर हैं, जो पूर्व में इंडोनेशिया के मलक्का जलडमरुमध्य (Strait of Malacca) और पश्चिम में बंगाल की खाड़ी के बीच पड़ती है. यहां से भारतीय नौसेना पर और अंडमान-निकोबार में उसकी प्रक्षेपास्त्र सुविधाओं पर पैनी नज़र रखी जा सकती है. मलक्का जलडमरुमध्य से होकर आने-जाने वाले सभी प्रकार के जहाज़ इसी रास्ते से गुज़रते हैं.
हिंद महासागर में चीन की बढ़ती उपस्थिति
समझा जाता है कि हिंद महासागर क्षेत्र में कार्यरत चीनी युद्धपोतों और पनडुब्बियों की संख्या जल्द ही 20 के आस-पास हो जायेगी. सामरिक विशेषज्ञों का मानना है कि हिंद महासागर में अपने नौसैनिक बेड़ों को हवाई सुरक्षा देने के लिए चीन को पूर्वोत्तर, पश्चिमोत्तर और दक्षिण-पश्चिमी हिंद महासागर के पास तीन वायुसैनिक अड्डों की भी ज़रूरत पड़ेगी.
भारत में श्री लंका के हम्बनटोटा बंदरगाह को लेकर काफ़ी चिंता है. एक चीनी कंपनी ने 2017 में उसे 99 वर्षों के पट्टे पर ले लिया, क्योंकि श्री लंका उसके निर्माण के लिए मिले ऋण की अदायगी करने में असमर्थ था. समझा जाता है कि अंततः चीन उसका भी उपयोग अपनी नौसेना के लिए करेगा और वहां अपनी पनडुब्बियां भी रखना चाहेगा. जब भी चीन ऐसा करेगा, वह भारत को पानी के रास्ते तीन दिशाओं से घेरते हुए उसके पैरों को छू रहा होगा.
जिबूती में चीन का पहला नौसैनिक अड्डा
जुलाई 2017 में पूर्वी अफ्रीका के जिबूती में चीन के पहले सागरपारीय सैनिक अड्डे ने काम करना शुरू किया. टोही उपग्रहों द्वारा मई 2020 में लिये गये चित्र दिखाते हैं कि चीन अपने इस अड्डे का विस्तार कर रहा है और उसे आधुनिक बना रहा है. उसके पोतघाट (पीयर) को बढ़ा कर क़रीब 400 मीटर लंबा कर दिया गया है, ताकि वहां चीन के ‘लियोनिंग’ विमानवाहक युद्धपोत जैसे बड़े-बड़े जहाज़ भी लंगर डाल सकें. क़रीब 10,000 तक चीनी सैनिकों के रहने की जगहें और इलेक्ट्रॉनिक जासूसी सहित कई दूसरी सुविधाएं भी वहां जुटायी गयी हैं.
उपग्रहों के नये चित्रों में यह भी दिखायी पड़ता है कि पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह के पास हिंद महासागर क्षेत्र में चीन का संभवतः दूसरा सागरपारीय सैनिक अड्डा बन रहा है. इन चित्रों में बंदरगाह के परकोटे के भीतर वाहन-अवरोधक, सुरक्षा-बाड़ें, संतरियों की चौकियां और निगरानी टॉवर जैसे निर्माणकार्य दिखायी पड़ते हैं. चीन का कहना है कि वह अपने ‘सदाबहार मित्र’ पाकिस्तान के लिए यहां “सबसे आधुनिक युद्धपोत” बना रहा है. आठ पनडुब्बियां वह पहले ही पाकिस्तान को बेच चुका है.
चीनी नौसेना के पास इस समय दो विमानवाहक पोत हैं, पर वह कम से कम पांच और ऐसे पोत बनाना चाहता है. हर विमानवाहक पोत पर औसतन 36 युद्धक विमानों के लिए जगह होगी. चीन, ईरान और रूस की नौसेनाओं ने, जून 2019 में, हिंद महासागर तथा ओमान की खाड़ी में पांच दिनों तक चला एक अपूर्व युद्धाभ्यास किया. युद्धाभ्यास ईरान के उसी चाबहार बंदरगाह के पास से शुरू हुआ, जिसका भारत विस्तार कर रहा है. बाद में इन तीनों देशों के राष्ट्रपतियों की बेजिंग में बैठक भी हुई. यानी, अब ईरान भी चीन के पाले में चला गया है. चीन के पास ईरान जैसे ढुलमुल देशों को ललचाने के लिए इतना पैसा है कि भारत तो क्या, अमेरिका भी उसकी बराबरी नहीं कर सकता.
भारत की चिंता
चीन हिंद महासागर में जिस तेज़ी से अपने पैर पसार रहा है और उसके तटवर्ती देशों को पटा रहा है, वह भारत के लिए सबसे अधिक चिंता-उद्विग्निता का विषय है. किसी असामान्य समय में हिंद महासागर में तैनात चीनी पनडुब्बियां बैलिस्टिक मिसाइल-धारी भारतीय पनडुब्बियों पर हमला बोल सकती हैं या समुद्र के नीचे बिछे दूरसंचार केबलों को क्षति पहुंचा सकती हैं. सामान्य समय में वह ऐसा कर सकने की क्षमता अर्जित कर रहा है. चीन के बारे में कहा जाता है कि वह दो हज़ार वर्ष पुराने अपने नामी रणनितिकार सुन त्ज़ू के सिद्धातों के अनुसार अपनी रणनीतियां बनाता है. सुन त्ज़ू का दिया एक प्रमुख सिद्धांत है, “शत्रु को लड़े बिना ही वश में कर लो.’’
भारत कुछ देर से जागा है, पर अब जाग गया है. वह भी 2001 से हिंद महासागर में अपनी गतिविधियां बढ़ा रहा है. अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह में स्थित अपने सैनिक प्रतिष्ठानों को आधुनिक बना रहा है. ये दोनों द्वीपसमूह उस मलक्का जलडमरुमध्य के रास्ते में पड़ते हैं, जहां से होकर चीनी युद्धपोत और वाणिज्यिक जहाज़ दक्षिण-पश्चिम एशिया की ओर आते-जाते हैं. मॉरिशस और मेडागास्कर में निगरानी तंत्र बनाने के बाद भारतीय सेनाओं के लिए एक ऐसा संचार उपग्रह भी अंतिरक्ष में स्थापित किया गया है, जिसके माध्यम से नौसेना के युद्धपोत आपस में और नौसैना के मुख्यालय से हमेशा संपर्क में रह सकते हैं.
भारत की बढ़ी हुई सक्रियता
2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के साथ ही हिंद महासागर में भारत की सैन्य सक्रियता बहुत तेज़ी से बढ़ी है. उनके कार्यकाल के पहले ही वर्ष में भारतीय नौसेना के जहाज़ों ने 50 से अधिक देशों का दौरा किया. 2016 में भारतीय नौसेना ने एक अंतरराष्ट्रीय ‘जहाज़ी बेड़ा महोत्सव’ आयोजित किया, जिसमें 50 देशों के 100 से अधिक युद्धपोतों ने भाग लिया. अक्टूबर 2017 से भारतीय नौसेना हिंद महासागर में अपनी उपस्थिति जताते हुए तीन-तीन महीनों के लिए अपने युद्धपोत अलग-अलग देशों के बंदरगाहों में भेजती है. इससे भारतीय नौसैनिकों को विभिन्न देशों की तैयारियों और उनके बंदरगाहों की विशेषताओं के बारे में जानने का अवसर मिलता है. भारतीय नौसैनिक अमेरिका, फ्रांस, जापान इत्यादि कई देशों की नौसेनाओं के साथ नियमित युद्धाभ्यास भी करते हैं.
मई 2018 से चीनी जहाज़ों पर नज़र रखने के लिए अंडमान-निकोबार में युद्धक विमान भी तैनात किये गये हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को वास्तव में अंडमान-निकोबार का नौसैनिक उपयोग करने के लिए वहां कहीं बड़े पैमाने पर विकास करना चाहिये. दोनों द्वीपसमूहों की भौगोलिक स्थिति चीनी नौसेना की गतिविधियों पर नज़र रखने और उस पर प्रहार करने के लिए आदर्श मानी जाती है. सामरिक महत्व की ऐसी ही भौगोलिक स्थिति इन्डोनेशिया के साबांग बंदरगाह की भी है. इन्डोनेशिया के साथ एक समझौते के अधीन भारतीय नौसेना भी साबांग का उपयोग कर सकती है.
भारत की तैयारियां
2016 में भारत ने अपने नौसैनिक जहाज़ों के लिए हिंद महासागर में अमेरिकी नौसैनिक अड्डे डिएगो गार्सिया और 2018 में फ़ारस की खाड़ी के होर्मूज़ जलडमरुमध्य (Strait of Hormuz) के मुहाने पर स्थित ओमान के दुक़म बंदरगाह और वायुसैनिक अड्ढे के उपयोग के अधिकार प्राप्त किये. डिएगो गार्सिया वही द्वीप है, जहां के अमेरिकी नौसैनिक अड्डे का इंदिरा गांधी के दिनों में भारत ज़ोरदार विरोध किया करता था. इस अमेरिकी अड्डे का अब भारत भी लाभ उठा सकता है. ओमान का दुक़म बंदरगाह पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से बहुत दूर नहीं है.
2017 से भारतीय नौसेना और वायुसेना फ़ारस की खाड़ी में स्थित अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठानों का भी उपयोग कर सकती है. उसी वर्ष जनवरी में भारत और फ्रांस के बीच सहमति बनी कि भारत अफ्रीका में लाल सागर के तट पर बसे जिबूती में फ्रांस के मुख्य नौसैनिक अड्डे का और दक्षिणी हिंद महासागर में स्थित फ्रांसीसी द्वीप रेनियों के नौसैनिक अड्डे का भी उपयोग कर सकता है. भारत की दृष्टि से रेनियों की एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसकी लगभग नौ लाख की जनसंख्या में से एक-चौथाई (25 प्रतिशत) भारतीय मूल के दक्षिण भारतीय लोग हैं.
नवंबर 2017 में भारत ने सिंगापुर के साथ एक समझौता किया, जो भारत को उसके चांगी नौसैनिक अड़्डे के उपयोग की सुविधा देता है. जुलाई 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफ़्रीकी देश सीशेल्स की यात्रा की और उसके एसम्पशन द्वीप पर अपना एक नौसैनिक अड़्डा बनाने का समझौता किया. भारत ने यह सुविधा सीशेल्स को दस करोड़ डॉलर का ऋण देकर प्राप्त की है. भारतीय नौसेना के प्रभावक्षेत्र को बढ़ाने वाले ये सारे समझौते प्रधानमंत्री मोदी की उन अनेक विदेशयात्राओं के दौरान किये गये हैं, जिनको लेकर कई बार उनकी आलोचना होती रही है.
भारतीय नीति का एक दूसरा पहलू
हिंद महासागर के देशों में अपनी सैनिक उपस्थिति बढ़ाने की भारतीय नीति का एक दूसरा पहलू है इन देशों को वित्तीय सहायता देकर या उनके नागरिकों को प्रशिक्षण देकर अपने लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना. इस नीति के अंतर्गत संबद्ध देशों के छात्रों को भारत में प्रशिक्षण दिया जाता है, उनके साधनों-उपकरणों की मरम्मत की जाती है या उन्हें सैन्य-अभ्यास के लिए उपयुक्त सुवाधाएं दी जाती हैं. सहयोग का एक दूसरा स्वरूप है अपने प्रशिक्षक संबद्ध देशों में भेजना या प्रशिक्षण के लिए उपयुक्त साज़-सामान सुलभ करना. उदाहरण के लिए, भारतीय सेना के प्रशिक्षक मालदीव, मॉरिशस और सीशेल्स में जाकर वहां के सैनिकों को प्रशिक्षित करते हैं. उन्हें भारत से मिले विमानों, हेलीकॉप्टरों और नौकाओं द्वारा गश्त लगाना सिखाते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी के समय में वित्तीय सहायता का आयाम भी तेज़ी से बढ़ा है. बांग्लादेश इसका एक प्रमुख उदाहरण है. अप्रैल 2017 में बांग्लादेश की वायुसेना के लिए 50 करोड़ डॉलर देने पर सहमति बनी. बांग्लादेश इस पैसे से अपने युद्धक विमानों की मरम्मत के लिए भारत से कल-पुर्ज़े ख़रीदना और अगली पीढ़ी के युदधक विमानों के चयन के लिए आवश्यक अध्ययनकार्य करवाना चाहता था. भारत को इससे पता चलता कि बांग्लादेश की वायुसेना का हाल कैसा है. यदि वह भारतीय कल-पुर्ज़ों पर निर्भर बन जाता है, पर कभी कोई ऐसा निर्णय लेता है, जो भारत के हितों के विपरीत है, तो कल-पुर्ज़ों की आपूर्ति रोक कर उसके विमानों को ज़मीन पर ही बिठाया भी जा सकता है. भारत का सोचना था कि इस तरह उसे बांग्लादेश को चीन की गोद में जाने और चीन को वहां अपने पैर जमाने से रोकने का अच्छा मौका मिल सकता है.
हर देश के विरुद्ध चीनी दावे
हिंद महासागर दूरपूर्वी एशिया के उत्तर में जापान से लेकर दक्षिण में ऑस्ट्रेलिया तक के सभी देशों के लिए एक जीवनरेखा के समान है. विश्व के 50 प्रतिशत कंटेनरों और 70 प्रतिशत कच्चे तेल का परिहन इसी रास्ते से होता है. चीन इस इलाके में लगभग हर देश के किसी न किसी द्वीप, द्वीपसमूह या समुद्री आर्थिक क्षेत्र पर अपने दावे ठोक कर सबसे शत्रुता मोल लिये बैठा है. चीन को छोड़ कर किसी भी एशियाई देश के पास उतनी बड़ी और सक्षम नौसेना नहीं है, जितनी भारत की है. इसलिए चीन से ख़ार खाये बैठे सभी देश भारत की तरफ़ देख रहे हैं.
चाहे जापान हो या ताइवान, वियतनाम हो या इन्डोनेशिया, मलेशिया हो या ऑस्ट्रेलिया - सभी भारत के सहयोग से चीन के होश ठिकाने लगाने के इच्छुक हैं. भारत अपने लिए इससे बेहतर वातावरण की कामना कर ही नहीं सकता. अमेरिका में भी नवंबर में होने वाले राष्ट्रपति-पद के चुनाव के बाद चाहे जो व्यक्ति राष्ट्रपति बने, उसे चीनी विस्तारवाद पर लगाम लगाने के अभियान में भारत का साथ देना ही पड़ेगा.
भारत की प्रमुख भूमिका होगी
जापान 2001 से ही हिंद महासागर में अपने नौसैनिक जहाज़ भेज कर मध्यपूर्व से आने वाले तेल के टैंकरों को सुरक्षा प्रदान कर रहा है. अमेरिका के साथ उसकी एक सुरक्षा संधि भी है. किंतु यह संधि मुख्यतः दक्षिणी चीन सागर में दोनों देशों के सैनिक एवं व्यापारिक हितों की सुरक्षा पर लक्षित है. यह संधि पूरे हिंद महासागर में अपनी उपस्थिति अनुभव कराने में समर्थ नहीं है. इसीलिए चीन हिंद महासागर पर अपनी धाक जमाने के लिए उतावला है. उसने 2000 से 2016 के बीच 44 नयी पनडुब्बियां बनायीं, जबकि अमेरिका ने इस दौरान केवल 15 पनडुब्बियां बनायीं. अमेरिका और जापान, दोनों चाहते हैं कि चीन को उसकी सीमाएं दिखाने और हिंद महासागर क्षेत्र को सुरक्षित बनाने में अब भारत की प्रमुख भूमिका होनी चाहिये.
जापानी प्रधानत्री शिन्ज़ो आबे की सितंबर 2017 की भारत यात्रा के समय दोनों देशों के संयुक्त वक्तव्य में कहा भी गया है कि “दोनों देशों की नौसेनाएं पारस्परिक हित में विभिन्न प्रकार के क्षेत्रों में सहयोग करेंगी.” कुछ सुरक्षा विशेषक्ष तो यहां तक मानते हैं कि चीनी पनडुब्बियों की टोह लेने के लिए भारत, बंगाल की खाड़ी के तटों से लेकर हाइनान द्वीप तक, समुद्र के नीचे सेंसरों की एक ‘जलगत दीवार’ बना रहा है. जापान इसे अपने हित में देखता है और भारत को तकनीकी सहायता भी दे रहा बताया जाता है.
चार देशों वाला ‘क्वाड’ गुट
भारत ने 2018 में ही तय कर लिया था कि वह हिंद महासागर-प्रशांत महासागर क्षेत्र में सुरक्षा बढ़ाने के प्रयासों के लिए अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रलिया की पहल वाले गुट के साथ राजनयिक सहयोग में गर्मी लायेगा. भारत के भी इस गुट में शामिल होने के बाद से उसे ‘क्वाड’ के नाम से पुकारा जाता है. यह अनौपचारिक गुट चीन की बढ़ती हुई शक्ति को संतुलित करने के विचार से अब ठोस आकार ग्रहण कर रहा है. फिलीपीन्स, वियतनाम और इन्डोनेशिया भी इस गुट के कामों में दिलचस्पी ले रहे हैं. हो सकता है कि वे भी कभी उसमें शामिल हो जायें. ‘क्वाड’ जितना अधिक ठोस आकार ग्रहण करेगा, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की चौधराहट पर उतनी ही अधिक लगाम कसेगी.
भारत की सबसे बड़ी समस्य़ा धन की कमी है. नौसेना को पूर्णतः आधुनिक बनाने के लिए मोदी सरकार ने एक 15 वर्षीय योजना बनायी है. 2015 से 2030 के बीच नौसेना को नये जहाज़ ख़रीदने और जरूरी साज़-सामान का स्वदेशीकरण करने के लिए प्रतिवर्ष औसतन आठ अरब 50 करोड़ डॉलर मिलने चाहिये थे. पर ऐसा हो नहीं पा रहा है. उदाहरण के लिए 2017 में नौसेना को केवल तीन अरब डॉलर ही मिले. उसे इसका 90 प्रतिशत पिछले अनुबंधों की अदायगी पर ख़र्च करना पड़ा. भारत के पास इस समय लगभग 140 युद्धपोत हैं. 2027 तक उनकी कुल संख्या लगभग 200 कर देने की यौजना है लेकिन धनाभाव के कारण इसमें संदेह ही है.
स्वदेशीकरण की धीमी गति
नौसेना की 70 प्रतिशत ज़रूरतें इस समय विदेशी आयात द्वारा पूरी की जाती हैं. और नौसेना के स्वदेशीकरण की प्रक्रिया बहुत धीमी है. इसी धीमेपन का एक उदाहरण है भारत का पहला स्वनिर्मित विमानवाहक जहाज़ ‘विक्रांत’, जो फ़रवरी 2009 से बन रहा है पर अभी तक समुद्र में अपनी पहली परीक्षण यात्रा तक नहीं कर पाया है. ‘विक्रांत’ 2022 से पहले सेवारत नहीं हो पायेगा. फ़िलहाल ‘विक्रमादित्य’ ही भारत के पास एकमात्र सेवारत विमानवाहक पोत है. भारत का दूसरा स्वनिर्मित विमानवाहक पोत ‘विशाल’ 2030 से पहले नहीं उपलब्ध होगा. उसका निर्माण तीन साल बाद शुरू होना है. भारत के पास इस समय कुल 16 पनडुब्बियां है, जिन में से केवल एक ‘अरिहंत’ बैलिस्टिक मिसाइल दाग सकने वाली परमाणु शक्ति चालित पनडुब्बी है. भारत ऐसी पनडुब्बी स्वयं बनाने वाला संसार का छठा देश है. ऐसी चार और पनडुब्बियां बनाने की योजना है. पर, धन की कमी उनके निर्माण को भी विलंबित करेगी.
जहां तक धन का प्रश्न है, भारत अपने रक्षा बजट का केवल 15 प्रतिशत ही नौसेना पर ख़र्च करता रहा है. भारत सहित चार देशों वाले तथाकथित ‘क्वाड’ गुट में अमेरिका 30 प्रतिशत, जापान 25 प्रतिशत और ऑस्ट्रेलिया अपने रक्षा बजट का 23 प्रतिशत अपनी नौसेना पर ख़र्च करता है. चीन के बारे में ऐसा कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. वह निश्चित रूप से भारत की अपेक्षा बहुत अधिक धन ख़र्च करता होगा. इसी कारण उसके पास इस समय, बैलिस्टिक मिसाइलधारी छह परमाणु पनडुब्बियों सहित, कुल 68 पनडुब्बियां है. चीन ने यह संख्या 2030 तक 110 कर देने की योजना बनायी है.
भारत की अपेक्षा चीन कहीं अधिक साधनसंपन्न है. उसकी कुटिल चालों और विस्तारवादी चरित्र के कारण भारत की उत्तरी सीमाओं पर और भारत का पद-प्रक्षालन (सफाई) करने वाले, उसी के नामधारी, हिंद महासागर में चुनौतियां बहुत बड़ी ज़रूर हैं, पर वे न तो असाध्य हैं और न भारत अकेला है. अमेरिका, जापान, फ़्रांस और ऑस्ट्रलिया जैसे देश ही इस मामले में उसके साथ नहीं हैं, पूरा दक्षिणपूर्व एशिया उसी की ओर देख रहा है. बहुतों का भविष्य दांव पर है. चीन को टक्कर देने में भारत को ही अगुवाई करनी पड़ेगी है. उचित भी यही है कि हिंद महासागर पर हिंद (भारत) का डंका बजना चाहिये. दुनिया में कोई दूसरा ऐसा देश नहीं है, जिसके नाम पर किसी महासागर का नाम हो. भारत को अपने आप को इस असाधारण सम्मान का सुयोग्य पात्र सिद्ध करना ही होगा.(satyagrah)
-Ritika
5 अगस्त 2019 की वह सुबह जब देश के केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह एक-एक कर जम्मू-कश्मीर को मिले विशेषाधिकार हटाते जा रहे थे, सांसदों की तालियों से पूरा संसद गूंज रहा था, तब दावा किया गया था कि केंद्र सरकार के इस फैसले से जम्मू-कश्मीर में विकास के नए रास्ते खुलेंगे। इसी दावे के साथ उस दिन केंद्र सरकार ने एक झटके में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा दिया और पूरे राज्य को दो अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया। सरकार के इस फैसले के तुरंत बाद मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी-अपनी टीम के साथ श्रीनगर से लाइव हो चुका था, एंकर अपने स्टुडियो में चीख-चीखकर कह रहे थे, ‘जम्मू-कश्मीर के पक्ष में एक ऐतिहासिक फैसला लिया गया है।’
केंद्र के इस फैसले को आज एक साल पूरा हो चुका है। केंद्र सरकार का यह दावा कि जम्मू-कश्मीर, खासकर कश्मीर में विकास होगा धरातल पर कहीं नज़र नहीं आता। इस फैसले के एक साल पूरे होने से पहले एहतियात के तौर पर घाटी में प्रशासन ने कर्फ्यू लागू कर दिया। एक साल में जम्मू-कश्मीर में हुए विकास का जश्न मनाने के लिए प्रशासन को कर्फ्यू का सहारा लेना पड़ रहा है। भारत के मुख्यधारा मीडिया के प्रौपगैंडा के बीच जम्मू-कश्मीर खासकर कश्मीर की हालत की चर्चा लगातार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होती रहती है। भारत के बाकी हिस्से में मजबूरन कोरोना वायरस के कारण लॉकडाउन लागू किया गया लेकिन कश्मीर की 80 लाख जनता पिछले एक साल से लॉकडाउन में जीने को मजबूर हैं, वह भी बिना 4जी इंटरनेट के। विकास के नाम पर कश्मीर की जनता को उनके घरों में ही कैद रहने को मजबूर होना पड़ा। यह अब भी एक अबूझ पहेली है कि किसी राज्य की जनता को कैद कर वहां का विकास आखिर कैसे संभव है।
24 मार्च को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश में लॉकडाउन का एलान किया था तब गली-मोहल्ले की दुकानों में अचानक कैसी आपा-धापी मच गई थी। सामर्थ्यवान लोग अधिक से अधिक ज़रूरत का सामान अपने घर में जमा कर लेना चाहते थे। लॉकडाउन के दौरान लंबे समय तक ज़रूरी सामानों की सप्लाई चेन भी बाधित रही। इस दौरान डिप्रेशन, आत्महत्या, घरेलू हिंसा के मामले और बेरोज़गारी के आंकड़े भी बढ़ते चले जा रहे हैं। लॉकडाउन ने मेहनतकश वर्ग से लेकर मध्यवर्गीय परिवारों तक, सबको आर्थिक और मानसिक रूप से प्रभावित किया। एक महामारी के कारण पांच महीनों तक लागू लॉकडाउन में जब देश की बड़ी आबादी इस तरह प्रभावित हुई तो सोचिए कश्मीर के लोग बीते एक साल से अपना गुज़ारा कैसे कर रहे होंगे। दावा किया गया था कि अनुच्छेद 370 हटने के बाद कश्मीर भारत से भावनात्मक रूप से जुड़ जाएगा लेकिन 5 अगस्त से कश्मीर को बोलने का मौका दिया ही नहीं गया। कश्मीर के लोग अनुच्छेद 370 को वह पुल मानते थे जिससे वे खुद को जुड़ा हुआ पाते थे, उनके लिए अनुच्छेद 370 उनकी पहचान थी।
विकास के नाम पर कश्मीर की जनता को उनके घरों में ही कैद रहने को मजबूर होना पड़ा। यह अब भी एक अबूझ पहेली है कि किसी राज्य की जनता को कैद कर वहां का विकास आखिर कैसे संभव है।
कश्मीर में औरत होने के मायने
बात जब कश्मीर की होती है तो हमेशा एक तरह की खबरें हमारे सामने आती हैं, इतने आतंकी मार गिराए गए, कहीं बमबारी हो रही है तो कहीं मुठभेड़ जारी है। लॉकडाउन के दौरान कश्मीर की महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा से जुड़े आंकड़े या खबरें शायद ही हमारी नज़रों के सामने से गुज़री हो। जम्मू-कश्मीर स्टेट कमिशन फॉर वुमन के आंकडों के मुताबिक कश्मीर में 2016-2017 में लागू किए गए कर्फ्यू के दौरान घरेलू हिंसा और महिलाओं के खिलाफ होनेवाली हिंसा में दस गुना बढ़त हुई थी। हालांकि अनुच्छेद 370 के हटने के बाद अब यह कमीशन खत्म किया जा चुका है। कश्मीर में घरेलू हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं के लिए बहुत कम ऐसे साधन हैं जहां वे मदद की गुहार लगा सकती हैं। पिछले साल से लागू सख्त सैन्य लॉकडाउन के कारण महिला हिंसा और घरेलू हिंसा जैसे मुद्दों पर काम करने वाले एनजीओ के लिए भी पीड़ित महिलाओं तक मदद पहुंचाना एक चुनौती बन चुकी है।
जम्मू-कश्मीर स्टेट कमिशन फॉर वुमन की पूर्व चेयरमैन वसुंधरा पाठक के मुताबिक कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान उनके पास ऐसी कई महिलाओं के फोन आए जो घरेलू हिंसा का सामना कर रही थी। यहां एक बात ध्यान दिलाना ज़रूरी है कि कश्मीर में लागू लॉकडाउन भारत के दूसरे हिस्सों के लॉकडाउन से बिल्कुल अलग है। कश्मीर को दुनिया के सबसे मिलिटराइज़्ड ज़ोन के रूप में जाना जाता है। भारत के बाकी हिस्सों में लॉकडाउन कोरोना वायरस के मद्देनज़र किया गया लेकिन कश्मीर पिछले एक साल से कर्फ्यू जैसे माहौल में जीने को मजबूर है।
कश्मीर की महिलाएं किन परेशानियों से गुज़र रही हैं, उनके पास देश के बाकी हिस्सों की महिलाओं की तरह मूलभूत अधिकार हैं या नहीं शायद ही हमने कभी इसका ज़िक्र होते सुना है। याद कीजिए उस उन्माद को जब केंद्र सरकार के फैसले के बाद राजनीतिक गलियारों से लेकर सोशल मीडिया तक इस बात को बार-बार दोहराया जा रहा था कि अब कश्मीर की लड़कियों से शादी का रास्ता आसान हो जाएगा। एक ऐसा माहौल तैयार किया गया मानो कश्मीर के संसाधन, वहां की ज़मीन और कश्मीरी औरतें देश के मर्दों की जागीर हैं। मानो पूरे कश्मीर को किसी युद्ध के तहत भारत में शामिल किया गया हो। जम्मू-कश्मीर के इतिहास को बदलने के वादों के बीच कश्मीर की औरतों को मर्दवादी राष्ट्रवाद इस फैसले के तहत मिला उपहार समझ बैठा। मर्दवाद और राष्ट्रवाद के इस कोलाहल में पिछले एक साल से कश्मीर की औरतों का पक्ष कभी सुना ही नहीं गया।
इस वक्त पूरी दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही है। शिक्षा से लेकर हर तरह का काम ऑनलाइन माध्यमों पर शिफ्ट हो चुका है। डॉक्टर इस महामारी से जूझने के लिए लगातार कश्मीर में ज़रूरी सेवाओं के लिए इस मौजूदा हालात में जब इंटरनेट पहले से कहीं अधिक ज़रूरी हो गया है तब भी कश्मीर के लोगों का जीवन 2जी इंटरनेट के साथ कट रहा है। कश्मीर में इंटरनेट बहाल करने से जुड़ी याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाने की जगह केंद्र सरकार को गृह मंत्रालय के अंतर्गत एक समिति बनाकर इस मामले पर फैसला लेने का आदेश दिया है।
इंटरनेट के बुनियादी अधिकार से कब तक वंचित रहेगा कश्मीर
21 जुलाई को केंद्र सरकार ने कोर्ट में हलफनामा दायर कर एक बार फिर सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए कश्मीर में 4जी इंटरनेट बहाल करने से इनकार कर दिया। इंटरनेट जैसी मूलभूत सुविधाओं की गैरमौजूदगी में घाटी में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, पर्यटन, अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है। कोरोना महामारी ने इस स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है। 2जी इंटरनेट सेवाओं के साथ छात्रों के सामने अपनी पढ़ाई जारी रख पाना चुनौतीपूर्ण हो गया है। वे महिला उद्यमी जो इंटरनेट के माध्यम से अपने व्यवसाय को आगे बढ़ा रही थी उनकी आत्मनिर्भरता पर ब्रेक लग गया है। कश्मीर में संचार साधनों पर लागू की गई पाबंदी किसी भी लोकतांत्रिक देश में अब तक की सबसे लंबी पाबंदी के रूप में हमारे सामने आई।
बात अगर हम कश्मीर की अर्थव्यवस्था की करें तो केंद्र सरकार के इस फैसले ने कश्मीर की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है। कश्मीर चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (KCCI) के मुताबिक इस एक साल के दौरान कश्मीर को 40 हज़ार करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान झेलना पड़ा है। इतना ही नहीं, पिछले साल से लागू लॉकडाउन के पहले चार महीने में ही पांच लाख से अधिक लोग बेरोज़गार हो चुके थे। आर्थिक रूप से भी महिलाएं पुरुषों के मुकाबले कहीं अधिक प्रभावित हुई हैं। वे महिलाएं जो धीरे-धीरे अपने रोज़गार को नया रूप दे रही थी 5 अगस्त के बाद उनकी कामयाबी के रास्ते लगभग बंद से हो गए। सुरक्षा कारणों से कर्फ्यू के माहौल में परिवार वाले महिलाओं को बाहर निकलने पर पहले से कहीं अधिक सख्त पाबंदियां लगा दी जाती हैं।
2018 में अपनी कश्मीर यात्रा के दौरान मुझे यह एहसास हुआ था कि एक कंफ्लिक्ट ज़ोन में महिलाओं के बुनियादी मुद्दे, उनके अधिकारों की बातें बिल्कुल हाशिये पर चले जाते हैं। शोपियां के कापरान में मेरी मुलाकात कश्मीर की सबसे छोटी उम्र की पेलेट गन सर्वाइवर हिबा निसार की मां मर्शला जान से हुई थी। मर्शला जान के लिए बतौर महिला सबसे बड़ी फिक्र उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों की नहीं थी। उन्हें फिक्र थी कि किसी तरह पेलेट गन से घायल अपनी बेकसूर बच्ची की आंखों की रोशनी फिर से वापस आ सके। उनके जीवन की पूरी प्राथमिकता अपनी बच्ची के आंखों के ऑपरेशन पर टिकी थी। मेरी मुलाकात हुई थी ब्रिजबिहारा में एक इशरत से जिसे इंतज़ार था उस दिन का जब घाटी में किसी सामान्य छात्र की तरह वह अपने कॉलेज जा सके। उसे इंतज़ार था उस दिन का जब किसी इनकाउंटर, आतंकी हमले या कर्फ्यू का कारण उसकी पढ़ाई न रुके। घाटी में और न जाने कितनी ऐसी औरतें मिली जो हर रोज़ यह दुआ मांगती थी कि उनका परिवार रात के खाने पर साथ हो, सुरक्षित हो। तो कितनी ही महिलाएं एसोसिएशन ऑफ पैरंट्स ऑफ डिसअपियर्ड पर्सन (APDP) के साथ अपने कभी न लौटकर आने वाले पति, भाई, पिता के लिए प्रदर्शनों में शामिल होती हैं। उनके प्रदर्शन के मुद्दे देश के बाकी हिस्सों से अलग होते हैं। कंफ्लिक्ट ज़ोन में एक औरत होने के मायने बेहद अलग और जटिल होते हैं।
तस्वीर साभार: trtworld
(यह लेख पहले फेमिनिज्म इन इंडिया की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है.)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री इ.के. पलानीस्वामी ने नई शिक्षा नीति के विरुद्ध झंडा गाड़ दिया है। उन्होंने कहा है कि तमिलनाडु के छात्रों पर हिंदी नहीं लादी जाएगी। वे सिर्फ तमिल और अंग्रेजी पढ़ेंगे। उनके इस कथन का समर्थन कांग्रेस समेत सभी तमिल दलों ने कर दिया है। तमिलनाडु की सिर्फ भाजपा पसोपेश में है। उसने मौन साधा हुआ है। भारत सरकार भी उसका विरोध क्यों करे? वह भी मौन साधे रहे तो अच्छा है। 1965-66 में केंद्र सरकार ने तमिल पार्टी द्रमुक के इसी रवैए का विरोध किया था तो तमिलनाडु में जबर्दस्त हिंदी-विरोधी आंदोलन चल पड़ा था। मुख्यमंत्री सी.एम. अन्नादुरई ने विधानसभा में केंद्र की त्रिभाषा नीति के विरोध में और द्विभाषा नीति के पक्ष में सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित करवाया था। अब पलानीस्वामी को कोई प्रस्ताव पारित करने की जरुरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि नई शिक्षा नीति में राज्यों को पहले से ही छूट दे रखी है कि वे भाषा के मामले में जो उन्हें ठीक लगे, वह करें। यदि शिक्षा मंत्री डॉ. निशंक इस मुद्दे पर कोई विवाद खड़ा करते हैं तो यह ठीक नहीं होगा। अब वह करना जरूरी है, जो मैं 1965 से अब तक कहता चला आ रहा हूं। जब 1965-66 में पीएच.डी. करते समय मेरा विवाद संसद में उछला था, तब अन्नादुरई राज्यसभा के सदस्य थे। उनके सारे सदस्यों ने मेरे विरुद्ध संसद में इतनी बार हंगामा किया कि सत्र की कार्रवाइयां ठप्प हो जाती थीं लेकिन अन्नादुरईजी से मिलकर मैंने जब उनको समझाया कि मैं खुद हिंदी थोपने का विरोधी हूं तो द्रविड़ मुनेत्र कडग़म का विरोध ठंडा पड़ गया। मैंने उनसे कहा कि मैं बस अंग्रेजी थोपने का विरोधी हूं। यदि भारत सरकार इस नई शिक्षा नीति के साथ-साथ यह घोषणा भी कर देती कि सरकारी भर्तियों और उच्चतम सरकारी काम-काज में भी अंग्रेजी नहीं थोपी जाएगी तो सारा मामला हल हो जाता। तमिलनाडु के जो भी लोग अखिल भारतीय स्तर पर आगे बढऩा चाहते हैं, वे अपने आप सोचते कि उन्हें हिंदी सीखनी चाहिए या नहीं ? मैंने म.प्र. और उ.प्र. में कई तमिल अफसरों को इतनी धाराप्रवाह और शुद्ध हिंदी बोलते हुए सुना है कि हिंदीभाषाी लोग भी उनका मुकाबला नहीं कर सकते। हिंदी बिना थोपे ही सबको आ जाएगी लेकिन सरकार में इतना दम होना चाहिए कि वह सरकारी भर्ती और कामकाज से अंग्रेजी को तुरंत बिदा करे। लेकिन मैं यह भी चाहता हूं कि अंग्रेजी ही नहीं, कई विदेशी भाषाएं हमारे छात्र स्वेच्छया सीखें। यह विदेश व्यापार, विदेश नीति और उच्च-शोध के लिए जरुरी है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेल्जियम के हिंदूवादी विचारक कोनराड एल्स्ट का मानना है कि राजीव गांधी ने अयोध्या में विवादित स्थल का ताला सिर्फ मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए ही नहीं खुलवाया था
- अनुराग शुक्ला
आज से अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की शुरुआत के साथ सदियों से विवाद बने इस मसले का पटाक्षेप होता दिख रहा है. इस विवाद ने भारतीय समाज और राजनीति को बहुत गहरे से प्रभावित किया है. इस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राजनीति-समाज किस तरह प्रभावित होंगे यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा. लेकिन, इस विवाद और उसके समांतर चलने वाली सियासत को पीछे मुड़कर देखने पर जरूर कुछ सबक लिए जा सकते हैं.
अयोध्या विवाद चुनावी राजनीति से होता हुआ सरकारों और फिर सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गया. इस दरमियान विवादित ढांचा ढहाने जैसे वाकये भी हुए जिन्होंने पूरे देश को असहज कर दिया. देश सांप्रदायिक खांचों में बंटा नजर आने लगा. बहुत सारे विश्लेषक मानते हैं कि राजीव गांधी अगर अयोध्या में विवादित ढांचे का ताला नहीं खुलवाते तो विवाद अपने मौजूदा स्वरूप में नहीं पहुंचता. ऐसा मानने वालों की तर्क पद्धति अमूमन यूं रहती है कि न ताला खुलता, न शिलान्यास की नौबत आती और न ढांचा गिरता. इसकी वजह वे मुस्लिम तुष्टीकरण को मानते हैं.
वहीं, कुछ लोग यह भी मानते हैं कि राजीव गांधी इस विवाद को सुलझाना चाहते थे और इसी क्रम में उन्होंने कुछ फैसले लिए थे. लेकिन, बाद में वे सत्ता में नहीं रहे और अयोध्या मसला बिगड़ता चला गया. राजीव गांधी के समर्थक या उनसे सहानुभूति रखने वाले यह तर्क दें तो इसमें अचरज नहीं होना चाहिए. लेकिन अगर कोई दक्षिणपंथी हिंदूवादी विचारक-कार्यकर्ता राजीव गांधी को लेकर ऐसा कहे तो यह बात जरूर चौंकाती है.
बेल्जियम के रहने वाले भारतशास्त्री कोनराड एल्स्ट अपने सख्त हिंदूवादी विचारों के लिए जाने जाते हैं. आरएसएस और भाजपा के कई नेताओं से उनकी निकटता है और लालकृष्ण आडवाणी उन्हें ‘महान इतिहासकार’ मानते हैं. कई साल पहले के अपने एक लेख में कोनराड एल्स्ट लिखते हैं कि राजीव गांधी का विवादित ढांचे का ताला खुलवाना और फिर वहां शिलान्यास की अनुमति देना एक व्यवहारिक और संतुलित फैसला था, लेकिन बाद में उनके उत्तराधिकारी वैसी अयोध्या नीति नहीं जारी रख सके.
अगर राजीव गांधी विवादित ढांचे का ताला नहीं खुलवाते तो क्या विवाद इतना व्यापक रूप अख्तियार नहीं करता? कोनराड एल्स्ट का इस बारे में मानना है कि मंदिर का ताला खुलवाने या न खुलवाने से इस विवाद में कोई मूलभूत अंतर नहीं पड़ता, लेकिन विवादित ढांचे का ताला खुलवाने का फैसला बताता है कि राजीव गांधी यह समझ गए थे कि अयोध्या मसले से देश के हिंदुओं की भावनाएं बहुत गहरे से जुड़ती जा रही हैं और अब उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है. कोनराड एल्स्ट यह भी लिखते हैं विवादित ढांचे का ताला खुलवाकर राजीव ने उस पर हिंदू समुदाय की दावेदारी को सांकेतिक रूप से मान लिया था. दूसरी तरफ उन्होंने देश के मुस्लिम नेतृत्व को बातचीत और कुछ रियायतों के जरिये विश्वास में लेने की कोशिश भी शुरु की थी. लेकिन पहले उनके सत्ता से बाहर होने और फिर उनकी हत्या के चलते ये कोशिशें किसी ठोस नतीजे तक नहीं पहुंच सकीं.
हालांकि कोनराड यह भी मानते हैं कि अगर राजीव गांधी ताला नहीं खुलवाते तो वे 1989 में भी शायद सत्ता में आ सकते थे और इस मसले को बेहतर तरीके से हल कर सकते थे. उनके ताला खुलवाने से भाजपा और उसके सहयोगियों को राम मंदिर बनाने का एक बड़ा मुद्दा मिल गया जिसने उसकी राजनीतिक ताकत को काफी बढ़ा दिया. दूसरी ओर इसी मुद्दे की वजह से कई मुस्लिम मतदाताओं ने 1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को छोड़कर जनता दल का दामन थाम लिया.
कोनराड एल्स्ट को अकादमिक जगत में दक्षिणपंथी सिरे पर खड़ा एक अति हिंदूवादी विचारक माना जाता है. अयोध्या विवाद में राजीव गांधी की भूमिका पर उनके ऐसे विचारों से कुछ सवाल जरूर उठते हैं. अपने प्रधानमंत्रित्वकाल में राजीव गांधी ने अयोध्या विवाद से जुड़े जो भी फैसले लिए वे महज राजनीतिक दांव-पेंच भर थे या वे इस मामले में पहल कर वाकई किसी सकारात्मक नतीजे पर पहुंचने की कोशिश कर रहे थे?
विवादित ढांचे का ताला खोलने के मसले पर आम तौर पर यह कहा जाता है कि राजीव ने यह अनुमति दी. हालांकि, तकनीकी तौर पर देखें तो यह फैजाबाद की जिला अदालत का फैसला था. लेकिन, यह महज इत्तेफाक नहीं था. न्यायपालिका के इस फैसले में विधायिका और कार्यपालिका की जो भी भूमिका हो सकती थी, उसका पूरा इस्तेमाल किया गया था.
राजीव गांधी ने ताला खुलवाने का फैसला मुस्लिम तुष्टीकरण के चलते लिया गया, इस तर्क को मानने वाले कहते हैं कि शाहबानो प्रकरण के कारण यह विचार बढ़ रहा था कि कांग्रेस मुस्लिम कट्टरपंथ को बढ़ावा दे रही है. इस वजह से हिंदुओं में काफी रोष था जिसे खत्म करने के लिए ताला खुलवाने का फैसला लिया गया. शाहबानो प्रकरण की गरमागरमी और अयोध्या में ताला खोलने का फैसला आगे-पीछे का था, इसलिए इस तर्क को बल मिल जाता है.
शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जब गुजारा भत्ता देने का फैसला किया तो शुरुआत में सरकार ने इसका समर्थन किया. तत्कालीन कांग्रेस सरकार में मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने इस फैसले के समर्थन में ऐतिहासिक भाषण भी दिया. लेकिन बाद में सरकार मौलवियों के दबाव में कदम पीछे खींचने लगी. नौबत यहां तक आ पहुंची कि उसने मुस्लिम संगठनों को आश्वासन दिया कि वह कानून बनाकर इस फैसले को पलटेगी. इसके बाद अयोध्या और कुछ अन्य मसलों को लेकर पहले से ही आक्रामक हिंदू समूहों को और आक्रामक होने का मौका मिल गया. विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या मसले को लेकर पूरे देश में रथ यात्राएं तेज कर दीं.
राजीव सरकार के लिए मुश्किलें बढ़ती जा रहीं थीं. हिंदुओं में गुस्सा सिर्फ इसलिए नहीं था कि शाहबानो प्रकरण में सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के बारे में क्यों सोच रही है. हिंदूवादी संगठन इस बात पर जोर दे रहे थे कि सरकार अयोध्या विवाद पर कुछ नहीं कर रही है जबकि मुस्लिम समुदाय के लिए सुप्रीम कोर्ट का फैैसला बदला जा रहा है. शाहबानो प्रकरण इस लिहाज से उत्प्रेरक जरूर था, लेकिन नाराजगी के केंद्र में अयोध्या विवाद ही था. ऐसे में यह कहना कि अयोध्या में ताला खुलवाने का फैसला शाहबानो की प्रतिक्रिया में था आंशिक तौर पर ही सही लगता है.
80 के दशक में अयोध्या मसले पर वीएचपी के आंदोलन चलते ही रहते थे. लेकिन 1986 में एकाएक केंद्र की राजीव सरकार भी इस मसले पर सक्रिय हो गई. उस समय जिला अदालत में अयोध्या में ताला खुलवाने के लिए जब भी अर्जी डाली जाती थी प्रशासन व्यवस्था बिगड़ने का हवाला देता था और अर्जी खारिज हो जाती थी. यह तकरीबन हर साल का वाकया था. लेकिन, एक फरवरी, 1986 को ऐसा नहीं हुआ. ऐसी एक अर्जी पर फैजाबाद के तत्कालीन डीएम और एएसपी जिला अदालत में पेश हुए और कहा कि प्रशासन को ताला खुलने से कोई एतराज नहीं है. जानकार कहते हैं कि इस पूरे मामले को दिल्ली से निर्देशित किया जा रहा था और फैजाबाद के डीएम और एसपी को ऐसा करने के लिए कहा गया था. डीएम और एसपी के इस बयान के बाद फैजाबाद के जिला जज ने विवादित ढांचे का ताला खोलने का आदेश दे दिया. राज्य या केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में न जाने का फैसला तो किया ही, महज कुछ घंटे बाद ही इसे अमल में भी ला दिया गया.
कहा तो यह भी जाता है कि गोरक्षपीठ के तब के महंत अवैद्यनाथ के जरिये पहले राज्य की कांग्रेस सरकार ने वीएचपी को ही संदेशा भिजवाया था कि वह अयोध्या में ताला खोलने की अर्जी डाल दे. लेकिन, उसने इस मसले पर कोई जवाब नहीं दिया. वीएचपी अयोध्या में ‘ताला खोल या ताला तोड़’ आंदोलन की चेतावनी तो दे रही थी, लेकिन कांग्रेस सरकार पेशकश पर अमल करना उसके सियासी रूख के अनुकूल नहींं था. ऐसे में राज्य सरकार ने एक वकील उमेश चंद्र पांडेय से ताला खुलवाने की अर्जी डलवाई जिनके तार सियासी तौर पर कांग्रेस से ही जुड़े थे. उनकी अर्जी पर डीएम और एएसपी के बयानों के बाद ताला खुल गया.
आरिफ मोहम्मद खान अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी से जब उन्होंने ताला खुलने के बाद स्थिति बिगड़ने और मुस्लिमों की नाराजगी की बात कही तो उन्होंने कहा कि ऐसा कुछ नहीं होगा. आरिफ मोहम्मद खान अपने वक्तव्यों में अक्सर इस बात की ओर इशारा करते हैं कि अयोध्या मेें ताला खोलने को लेकर राजीव गांधी और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष अली मियां के बीच सहमति बन चुकी थी. इस सहमति के मुताबिक शाहबानो प्रकरण में सरकार सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट देगी, और इसके एवज में अयोध्या में ताला खुलने का मुस्लिम संगठन विरोध नहीं करेंगे. अली मियां ने अपने जीवनकाल में न कभी इस वाकये की न पुष्टि की और न खंडन किया. लेकिन, उन्होंने उस समय के बयानों में यह जरूर कहा कि मुस्लिमों को अयोध्या में ताला खुलने को इतना महत्व नहीं देना चाहिए क्योंकि बहुत सी मस्जिदें हैं जो गैर मुस्लिमों के कब्जे में हैं. उस समय पर्सनल लॉ बोर्ड ने अयोध्या में ताला खुलने के खिलाफ कोई आंदोलन भी नहीं चलाया.
एक फरवरी 1986 को अयोध्या का ताला खुला और पांच फरवरी को संसद में मुस्लिम महिला बिल पेश किया गया, जिससे शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट जाने वाला था. कांग्रेस के कुछ पुराने दक्षिणपंथी रूझान वाले नेता कहते हैं कि ज्यादा गहराई से जाने पर समझा जा सकता है कि शाहबानो मामले में नया कानून बनाने और कुछ प्रतीकात्मक चीजों के जरिये राजीव जी तत्कालीन मुस्लिम नेतृत्व को अयोध्या मसले पर चुप रहने के लिए मना चुके थे. हालांकि, बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और कुछ दूसरे मुस्लिम संगठन ताला खुलने के मसले पर सरकार का विरोध कर रहे थे, लेकिन, अली मियां इन संगठनों की आलोचना कर रहे थे. अली मियां ने यहां तक कहा कि बाबरी मस्जिद कमेटी जिस किस्म से अयोध्या मसले पर आंदोलन कर रही है वह हिंदुओं को और प्रतिक्रियावादी बनाएगा जो मुसलमानों के हित में नहीं है.
कांग्रेस के एक अन्य वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘यह बात पूरी तरह से ठीक नहीं है कि शाहबानो प्रकरण की प्रतिक्रिया में राजीव गांधी ने अयोध्या में ताला खुलवाने का फैसला लिया. वे अयोध्या मामले के बारे में अलग से सोच रहे थे. उनकी कोशिश थी कि विवादित ढांचे पर मंदिर निर्माण का रास्ता निकाला जाए और मुस्लिम नेतृत्व को इस बात के लिए सहमत किया जाए कि वे मस्जिद को दूसरी जगह बना लें और इसको लेकर बिना वजह का तनाव न भड़के. इसके अलावा राजीव जी यह भी चाहते थे कि अयोध्या विवाद से वीएचपी को किसी तरह दूर किया जाए क्योंकि उसकी रूचि मसले को सुलझाने से ज्यादा इस मामले में भाजपा को राजनीतिक फायदा दिलाने की थी.’ वे आगे कहते हैं, ‘राजीव गांधी मुस्लिम नेतृत्व को पूरी तरह भले ही नहीं मना पाए, लेकिन बाबरी प्रकरण को लेकर मुसलमानों के बीच दो तरह की सोच जरूर हो गई थी. एक सोच अली मियां वाली थी तो दूसरी बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी वाले सैयद शहाबुद्दीन वाली. अगले चुनाव में राजीव गांधी सत्ता से बाहर हो गए और फिर उनकी हत्या हो गई वर्ना उनके दिमाग में इसकी पूरी रूपरेखा थी.’
कोनराड एल्स्ट भी अपने लेख में कुछ इससे मिलती-जुलती बात कहते हैं. वे लिखते हैं राजीव गांधी तत्कालीन मुस्लिम नेतृत्व की कई छोटी-छोटी मांगें मानकर अयोध्या जैसा बड़ा मसला सुलझाना चाहते थे जो हिंदुओं के लिए एक बड़ी धार्मिक पहचान के मुद्दे में तब्दील हो गया था. एल्स्ट लिखते हैं कि इन मांगों में हज सब्सिडी से लेकर सलमान रश्दी की किताब सेटेनिक वर्सेज पर प्रतिबंध जैसी चीजें थीं. एल्स्ट यह भी लिखते हैं कि ताला खुलवाने के साथ ही यह तय हो गया था कि एक तरह से वहां हिंदू दावेदारी मान ली गई है जो इस विवाद के अंतिम फैसले की दिशा भी तय करने वाला था.
कोनराड एल्स्ट कहते हैं कि ताला खुलने के बाद लिबरल और वामपंथी विचारकों के रूख ने मसले को और उलझा दिया. एल्स्ट के मुताबिक पहले इस बात को लेकर एक तरह की सहमति थी कि विवादित ढांचा एक मंदिर था जिस पर सदियों पहले एक मस्जिद बनी थी. इसे 1880 के दशक में अदालत की कार्यवाही के दौरान मुस्लिम पक्ष और अंग्रेज शासकों ने भी माना था. लेकिन उनका मानना था कि चूंकि ऐसा सदियों पहले हुआ था इसलिए इस पर हिंदुओं के दावे को मानना सही नहीं है. अपने लेख में एल्स्ट यह भी कहते हैं कि सैकड़ों सालों से मस्जिद के इर्द-गिर्द हिंदू समुदाय पूजा-अर्चना कर रहा था और उसके लिए इस स्थान की बहुत खास अहमियत थी जबकि मुस्लिम समुदाय के मामले में ऐसा नहीं था.
लेकिन वामपंथी विचारकों का कहना था कि वहां कभी मंदिर था ही नहीं. कोनराड एल्स्ट के मुताबिक राजीव गांधी के बाद इसी वामपंथी रूख को कांग्रेस का पक्ष माना जाना लगा और फिर पार्टी कभी खुद को इससे अलग नहींं दिखा पाई, जिसका अंततः कांग्रेस को नुकसान ही हुआ.
एल्स्ट कट्टर हिंदूवादी विचारक हैं. लेकिन फिर भी वे अयोध्या के मसले पर राजीव गांधी के जमाने की कांग्रेस को और उनके बाद की कांग्रेस से अलग रूख रखने वाला मानते हैं तो यह गौर करने वाली बात है. अयोध्या में ताला खुलने के बाद राजीव सरकार के दौरान ही शिलान्यास भी हुआ और अपने चुनावी अभियान की शुरूआत भी राजीव गांधी ने अयोध्या से ही की. उन्होंने चंद्रशेखर की अल्पमत की सरकार के दौरान एक चर्चा का भी आयोजन करवाया जिसे एल्स्ट मानते हैं कि अयोध्या पर हिंदू दावे को ही और मजबूत करने के लिए ही आयोजित किया गया था. कहा जाता है कि इस दौरान उन्होंने कुछ हिंदू नेताओं से यह भी पेशकश की थी कि अयोध्या में मंदिर निर्माण सरकार करवाएगी, लेकिन विश्व हिंदू परिषद को इससे दूर रहना होगा. इस प्रस्ताव में यह भी शर्त रखी गई थी कि ढांचे को गिराया नहीं जाएगा. बल्कि वह प्रस्तावित मंदिर के नीचे ही रहेगा. इसके लिए हिंदू नेताओं को यह कहकर समझाया गया था कि ढांचे का निर्माण इतना जर्जर है कि कुछ दिनों के बाद यह खुद गिर जाएगा.
लेकिन, हिंदू संगठनों पर वीएचपी तेजी से अपना प्रभाव बढ़ा रही थी और राजीव अगला चुनाव हार भी गए. ऐसे में यह प्रस्ताव, प्रस्ताव ही रह गया. कोनराड एल्स्ट के मुताबिक इस तरह के प्रस्तावों पर आने वाली मुस्लिम प्रतिक्रिया को संभालने के लिए भी राजीव गांधी के दिमाग में कुछ न कुछ रहा होगा. उनके मुताबिक उस समय की कांग्रेस ऐसे मसलों को कुछ ले-देकर हल करने में सिद्धहस्त थी.
अब राजीव गांधी नहीं हैं तो जाहिर है इन सब बातों के ठोस जवाब नहीं मिल सकते. वे सियासी व्यक्ति थे तो उनके फैसलों के पीछे राजनीतिक संभावनायें तो रही ही होंगी. लेकिन, राजीव गांधी अयोध्या मुद्दे के हल के बारे में गंभीरता से सोच रहे थे, इससे साफ तौर पर इनकार भी नहीं किया जा सकता. राजीव के ताला खुलवाने या शिलान्यास की अनुमति देने और मुस्लिम नेताओं को मनाने की कोशिशों में तो यह झलकता ही है. (satyagrah.scroll.in)
पुलकित भारद्वाज
चांद पर पहला कदम रखने वाले नील आर्मस्ट्रॉन्ग 1969 में भारत आए थे. उस दौरान राजस्थान कृषि विभाग के अधिकारी ओंकार सिंह को उनके साथ एक शाम बिताने का मौका मिला था
‘1969 का अक्टूबर महीना था. गुलाबी सर्दी पड़ने लगी थी, जब नील आर्मस्ट्रॉन्ग जयपुर आए थे. तारीख शायद 27 या 28 में से कोई एक थी.’
यह बताते-बताते राजस्थान कृषि विभाग के पूर्व उपसचिव ओंकार सिंह पिछली आधी सदी को अपने ख़्यालों में दोहराने की कोशिश करते हैं. 98 साल के सिंह की तबीयत अब नासाज रहने लगी है. लेकिन जब उन्हें पता चला कि हम नील आर्मस्ट्रॉन्ग की जयपुर यात्रा के बारे में रिपोर्ट करना चाहते हैं तो बड़ी गर्मजोशी के साथ वे हमसे मुलाकात के लिए तैयार हो गए. ओंकार सिंह ने नील आर्मस्ट्रॉन्ग से हुई मुलाकात की जो यादें साझा की उनका संपादित अंश यहां पेश है:
नील आर्मस्ट्रॉन्ग को चांद से लौटे करीब तीन महीने हो चुके थे. अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन अपनी उस अभूतपूर्व उपलब्धि और उससे जुड़े अनुभवों को दुनियाभर के तमाम देशों के साथ साझा करना चाहते थे. इसी सिलसिले में आर्मस्ट्रॉन्ग विश्वभ्रमण पर निकले थे.
उस जमाने में अमेरिका ने पीस कॉर्प्स नाम से कुछ स्वयंसेवकों के समूहों को पिछड़े और विकासशील देशों में खेती, पशुपालन और मछली पालन जैसे क्षेत्रों में जागरूकता फैलाने के लिए भेजा था. तब राजस्थान में भी ग्यारह पीस कॉर्प स्वयंसेवक अलग-अलग जिलों में रहकर अपना काम संभालते थे. यहां उनके प्रमुख ब्रैडमैन नाम के एक शख्स हुआ करते थे. चूंकि मैं विभाग का सचिव था इसलिए ये सब मेरी देखरेख में काम कर रहे थे. इसी दौरान मेरा और ब्रैडमैन का अच्छा-खासा दोस्ताना हो गया था.
एक दिन ब्रैडमैन का मेरे पास फोन आया. एक अजीब सी हड़बड़ाहट और उत्साह के साथ उन्होंने कहा कि शाम को तैयार रहना, एक खास मेहमान से मिलवाना है. बहुत पूछने पर उन्होंने बताया कि वह मेहमान आर्मस्ट्रॉन्ग हैं. मैंने चौंकते हुए ब्रैडमैन से पूछा, ‘और किसे पता है?’ जवाब मिला, ‘किसी को नहीं. और आप भी मत बताना.’
दरअसल आर्मस्ट्रॉन्ग एक दिन पहले मुंबई आ चुके थे और वहां से उन्हें राजधानी दिल्ली पहुंचना था. लेकिन सुरक्षा कारणों के चलते उन्हें एक दिन के लिए जयपुर में रोका जाना तय हुआ. ये वो समय था जब अंतरिक्ष यात्रा को लेकर सोवियत रूस और अमेरिका में कड़ी प्रतिस्पर्धा थी. चूंकि अमेरिका यह बाजी मार चुका था इसलिए उसे रूस की तरफ से आर्मस्ट्रॉन्ग के लिए ख़तरा महसूस होने लगा था. ऐसे में आर्मस्ट्रॉन्ग के निर्धारित कार्यक्रमों को ऐन मौके पर बदल दिया जाना एक सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा था.
लेकिन मैं सरकारी ओहदे पर था जिसकी अपनी मर्यादाएं थीं. मैंने ब्रैडमैन से कहा कि आर्मस्ट्रॉन्ग सरकारी मेहमान हैं. इसलिए जब तक मुख्यमंत्री और मुख्यसचिव को उनसे भेंट का निमंत्रण नहीं मिलता, मेरा आना मुश्किल है. मैं जानता था कि मुख्यमंत्री और सचिव को अगले ही दिन इससे जुड़ी सूचना का मिलना और उसके बाद उनका मुझसे नाराज होना तय था. इसलिए मैंने ज़ोखिम लेना उचित नहीं समझा. ब्रैडमैन होशियार आदमी थे. उन्होंने तुरंत ही उपाय निकाल लिया. उन्होंने कहा कि उन दोनों (मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव) को थोड़ी देर बातचीत के बाद विदा कर देंगे और फिर मैं वहां रुक जाऊं. यह मुझे मंजूर था.
इस छोटे से गोपनीय आयोजन के लिए ब्रैडमैन ने अपने घर को ही चुना. उस समय मुख्य सचिव प्रदेश से बाहर थे इसलिए आ नहीं सके. मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया तय समय पर वहां पहुंच गए. हम सभी के लिए चांद पर जाने वाले व्यक्ति से मिलना खासा रोमांचक था. नील से थोड़ी देर बातचीत के सुखाड़िया वहां से निकल गए. हमें इसी का इंतजार था. आर्मस्ट्रॉन्ग अपने साथ अमेरिकन व्हिस्की ‘बॉरबोन’ लाए थे. वो दीवार पर जो तस्वीर टंगी है उसी समय की है.
(इस तस्वीर में दांयें से ओंकार सिंह, नील आर्मस्ट्रॉन्ग और डेविड रोर्जर मौजूद हैं. रोर्जर उस समय पीस कॉर्प ईरान के प्रमुख थे.)
ब्रैडमैन की पत्नी ने कत्थक के लिए मशहूर जयपुर घराने से यह नृत्य सीखा था जो उन्होंने आर्मस्ट्रॉन्ग के सामने पेश किया. इस अद्भुत नृत्य को देखकर नील के चेहरे से कुछ वैसी ही खुशी झलक रही थी जैसी कि उनसे मिलकर हमें हो रही थी.
बातचीत का दौर शुरू हुआ. मैं पूछ बैठा कि यह तो बहुत ज़ोखिमभरा मिशन था. आर्मस्ट्रॉन्ग ने कहा, ‘ख़तरा तो था. लेकिन अपने मुल्क की शान के सामने यह कुछ भी नहीं. मैं खुद को भाग्यशाली समझता हुं कि चांद पर कदम रखने वाला पहला इंसान मैं हूं.’ मेरा अगला सवाल था कि वहां क्या खोजा? जवाब में आर्मस्ट्रॉन्ग हंसकर बोले कि मैं तो अपनी समझ से वहां के पत्थर और मिट्टी ले आया था. अब वैज्ञानिक बताएंगे कि मैं असल में क्या लेकर आया था!
आर्मस्ट्रॉन्ग खुद एयरफोर्स से जुड़ने से पहले पीस कॉर्प्स के सदस्य रह चुके थे. इसलिए उन्होंने भारत में चल रहे इस मिशन में खासी दिलचस्पी दिखाई. चूंकि ब्रैडमैन की मुझसे पहले वाले सचिव से नहीं बनती थी और मेरे पद संभालने के बाद उन्हें कई चीजों में सहूलियत मिली थी. इसलिए उन्होंने आर्मस्ट्रॉन्ग के सामने मेरी जमकर तारीफ की. नील ने इस बात के लिए मेरा आभार जताया.
उस समय कुछ पीस कॉर्प स्वयंसेवक जयपुर के नजदीकी दौसा जिले में सक्रिय थे. अगले दिन आर्मस्ट्रॉन्ग बेहद गुपचुप तरीके से उन लोगों से मिलने गए. और उनका काम देखकर बहुत खुश हुए. चूंकि मेरे जाने पर उनकी इस यात्रा के ज़ाहिर हो जाने का ख़तरा था इसलिए मैं उनके साथ नहीं जा पाया. नील जयपुर भी देखना चाहते थे लेकिन समय कम था. वे उसी दिन दिल्ली के लिए निकल गए.
मैं उनसे एक बार और मिलना चाहता था. एक बार मैं न्यूयॉर्क गया था. लेकिन तब उनके पास कैलिफोर्निया जाने के लिए मेरे पास पर्याप्त पैसे नहीं थे. अगली बार मैं ब्रैडमैन के साथ कैलिफोर्निया गया लेकिन तब आर्मस्ट्रॉन्ग वहां नहीं थे. तब मुझे लगा कि कम से कम उस स्पेसशिप को तो ज़रूर देखना चाहिए जिसमें बैठकर वे चांद पर गए थे. ब्रैडमैन मुझे वॉशिंगटन के उस संग्रहालय में ले गए जहां ‘अपोलो-11’ मौजूद था. उसके बाद भी मैंने नील आर्मस्ट्रॉन्ग से मिलने की कई बार कोशिश की. लेकिन यह ख्वाहिश अधूरी ही रह गई.
दिल्ली जाकर नील आर्मस्ट्रॉन्ग ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से माफी मांगी थी!
इस बात का खुलासा पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने 2012 में आर्मस्ट्रॉन्ग के निधन के कुछ दिन बाद ब्रिटेन में किया था. तब सिंह ने मीडिया को जानकारी दी- जब आर्मस्ट्रॉन्ग और उनके दो अन्य साथी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से उनके संसद वाले दफ़्तर में मिलने पहुंचे तो उन्हें बताया गया कि 20 जुलाई 1969 को गांधी सुबह साढ़े चार बजे तक जागती रहीं ताकि वे उन्हें (आर्मस्ट्रॉन्ग को) चांद पर कदम रखते हुए देख सकें. इस पर आर्मस्ट्रॉन्ग ने कहा था, ‘मैडम प्राइम मिनिस्टर, मैं इस बात के लिए माफी चाहता हूं कि आपको हमारी वजह से यह परेशानी उठानी पड़ी. अगली बार चांद पर जाते समय मैं इस बात का ख्याल रखूंगा कि हम वहां ऐसे समय उतरें जो पृथ्वी के हिसाब से ज्यादा विषम न हो.’ (satyagrah.scroll.in)
(हमसे यह किस्सा साझा करने वाले पूर्व सचिव श्री ओंकार सिंह का मार्च-2019 में निधन हो गया)
श्रावण गर्ग
अयोध्या में भगवान राम के भव्य मंदिर की स्थापना के अपने प्रयासों के तहत आडवाणी द्वारा बाबरी ढाँचे के विध्वंस में अपनी भूमिका को लेकर दर्ज कराए गए कथन के बाद क्या इस बात पर थोड़ा-बहुत खेद व्यक्त किया जा सकता है कि उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचकर भी आडवाणी ने उस संतोष और श्रेय को प्राप्त करने से अपने आप को ‘स्वेच्छापूर्वक’ वंचित कर लिया जिसके लिए वे इतने वर्षों से संघर्ष कर रहे थे और शायद प्रतीक्षा भी !
चौबीस जुलाई के दिन जब लगभग पांच लाख की आबादी वाले अयोध्या में मंदिर निर्माण के भूमि पूजन की तैयारियों के साथ-साथ शहर की कोई बीस मस्जिदों में मुस्लिम शुक्रवार की नमाज़ पढ़ रहे थे, भारतीय जनता पार्टी और पूर्ववर्ती जनसंघ के संस्थापकों में से एक 92-वर्षीय लालकृष्ण आडवाणी दिल्ली से वीडियो काँफ्रेंसिंग के जरिए लखनऊ की एक सीबीआई अदालत के समक्ष अपने बयान दर्ज करवा रहे थे। राम मंदिर आंदोलन के जनक आडवाणी जब तीस वर्ष पूर्व (25 सितम्बर 1990) मंदिर निर्माण के लिए संघर्ष के रथ पर सवार होकर सोमनाथ से निकले थे, किसी ने भी ऐसी कल्पना नहीं की होगी कि आगे चलकर किसी अदालत के समक्ष वे यह कहना चाहेंगे कि बाबरी ढाँचे के विध्वंस की कार्रवाई में उनकी कोई भागीदारी नहीं थी ?
मीडिया में प्रकाशित खबरों के मुताबिक, आडवाणी से करीब साढ़े चार घंटों तक पूछे गए कोई हजार से ऊपर सवालों के जवाब का सार यही रहा कि 6 दिसम्बर 1992 को वे अयोध्या में एक कार सेवक की हैसियत से उपस्थित अवश्य थे पर बाबरी ढांचे को गिराए जाने की कार्रवाई में उनकी कोई भागीदारी नहीं थी। इस सवाल के जवाब में कि तब उनका नाम भी घटना के आरोपियों की सूची में क्यों शामिल किया गया, उनका जवाब था (केंद्र में तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा)’ राजनीतिक कारणों’ से। उनके एक दिन पूर्व डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने भी अपने कथन में वही कहा था जो आडवाणी ने कहा। केवल आडवाणी और डॉ जोशी ही नहीं, वरिष्ठ भाजपा नेत्री उमा भारती और तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने भी कथित तौर पर अदालत से यही कहा कि केंद्र सरकार द्वारा राजनीतिक बदले की भावना से उन पर बाबरी के विध्वंस का आरोप मढ़ा गया था।
सवाल यह है कि कोई 135 वर्षों की अदालती जद्दोजहद, इतने लंबे संघर्ष और हजारों लोगों के बलिदानों के बाद कल (पाँच अगस्त को) अपरान्ह 12 बजकर 15 मिनट 15 सेकण्ड पर उपस्थित होने वाले उस चिर-प्रतीक्षित क्षण के जब आडवाणी सहित ये तमाम नेता प्रत्यक्ष अथवा वीडियो काँफ्रेंसिंग के ज़रिए साक्षी बनेंगे, तब क्या हृदय के अंदर भी वैसा ही अनुभव करेंगे जैसा कि कथित तौर पर लखनऊ की सीबीआई अदालत में उनके द्वारा दर्ज कराया गया है, या कुछ भिन्न महसूस करेंगे? अगर गर्व के साथ भिन्न महसूस करना चाहेंगे तो फिर विवादित ढाँचे के विध्वंस में अपने भी योगदान का दावा क्यों नहीं करना चाहते ? उस अवसर पर रिकॉर्ड किए गए भाषणों व चित्रों की वीडियो क्लिपिंग्स, प्रकाशित अखबारी रिपोर्ट्स व अन्य दस्तावेज क्या सभी असत्य हैं और राजनीतिक बदले की भावना से तैयार किए गए थे?
देश की जनता के हृदय में इस तरह का सोच मात्र भी कल्पना से परे होगा कि आडवाणी, डॉ जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह या कोई भी अन्य भाजपा नेता-कार्यकर्ता मंदिर निर्माण के कार्य में अपने बड़े से बड़े बलिदान में पल भर का भी कभी संकोच करेंगे। तब क्या कारण हो सकता है कि आडवाणी और तमाम नेता उस श्रेय को लेने से इनकार कर रहे हैं जिसके वे पूरी तरह से हकदार हैं ? क्या ऐसा मान लिया जाए कि बाबरी का विध्वंस एक अलग घटना थी और सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने फैसले के ज़रिए मंदिर-निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया जाना एक अलग घटना। दोनों के श्रेय के हक़दार भी अलग-अलग हैं ? दोनों के बीच सम्बंध है भी और नहीं भी ! हो सकता है कि केंद्रीय नेतृत्व बाबरी विध्वंस के साथ एक पार्टी के रूप में भाजपा की किसी भी तरह की संबद्धता नहीं चाहता हो और उसे विश्व हिंदू परिषद आदि संगठनों के मार्गदर्शन में की गई स्वतंत्र कार्रवाई निरूपित करना चाहता हो ! और इसके ज़रिए देश-दुनिया के मुस्लिमों को भी कोई ‘सकारात्मक’ संदेश देना चाहता हो ! तब क्या देश के वे तमाम नागरिक जो इतने वर्षों से एक निरपेक्ष भाव से अपनी आँखों के सामने सब कुछ घटित होता देखते रहे हैं वे भी ऐसा ही स्वीकार करने को तैयार हो जाएँगे ?
भाजपा नेतृत्व की मंशा का सम्बंध क्या इस बात से भी जोड़ा जा सकता है कि आडवाणी द्वारा अपना कथन दर्ज कराने के एक दिन पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और अयोध्या केस के एक प्रसिद्ध अभिभाषक तथा भाजपा सांसद भूपेन्द्र यादव ने कथित तौर पर पूर्व उप-प्रधानमंत्री से भेंट की थी? तब क्या ऐसा मुमकिन है कि आडवाणी का पहले मूल सोच उनके द्वारा सी बी आइ अदालत में दर्ज कराए कथन से भिन्न रहा हो ? ऐसा होने की स्थिति में क्या ऐसा असम्भव होता कि मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन की पूर्व संध्या पर आडवाणी का किसी भी आशय का ‘अन्य कथन’ राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन जाता (आश्चर्यजनक रूप से उनके द्वारा सी बी आइ अदालत में दर्ज कराए गए कथन पर कोई राष्ट्रीय बहस नहीं हुई) और अयोध्या में मनने जा रहे पर्व पर उपस्थित होनेवाले चेहरों की चमक को प्रभावित कर देता। अयोध्या में भगवान राम के भव्य मंदिर की स्थापना के अपने प्रयासों के तहत आडवाणी द्वारा बाबरी ढाँचे के विध्वंस में अपनी भूमिका को लेकर दर्ज कराए गए कथन के बाद क्या इस बात पर थोड़ा-बहुत खेद व्यक्त किया जा सकता है कि उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचकर भी आडवाणी ने उस संतोष और श्रेय को प्राप्त करने से अपने आप को ‘स्वेच्छापूर्वक’ वंचित कर लिया जिसके लिए वे इतने वर्षों से संघर्ष कर रहे थे और शायद प्रतीक्षा भी ! मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने का श्रेय इतिहास में फिर किसके नाम दर्ज किया जाना चाहिए? इस सवाल का आधिकारिक उत्तर क्या अनुत्तरित ही रह जाएगा?
आलोक कुमार
90 प्रतिशत वालों की तो कोई बात ही नहीं यहाँ तो 99 प्रतिशत से कम किसी को गँवारा नहीं। एक बार कृति की बातों पे भी नजऱ डाल लें- कोटा में आत्महत्या करने वाली छात्रा कृति ने अपने सुसाइड नोट में लिखा था कि ....
मैं भारत सरकार और मानव संसाधन मंत्रालय से कहना चाहती हूं कि अगर वो चाहते हैं कि कोई बच्चा न मरे तो जितनी जल्दी हो सके इन कोचिंग संस्थानों को बंद करवा दें, ये कोचिंग छात्रों को खोखला कर देते हैं। पढऩे का इतना दबाव होता है कि बच्चे बोझ तले दब जाते हैं।
कृति ने लिखा है कि वो कोटा में कई छात्रों को डिप्रेशन और स्ट्रेस से बाहर निकालकर सुसाईड करने से रोकने में सफल हुई लेकिन खुद को नहीं रोक सकी। बहुत लोगों को विश्वास नहीं होगा कि मेरे जैसी लडक़ी जिसके 90+ माक्र्स हो वो सुसाइड भी कर सकती है, लेकिन मैं आपलोगों को समझा नहीं सकती कि मेरे दिमाग और दिल में कितनी नफरत भरी है।
अपनी मां के लिए उसने लिखा- ‘आपने मेरे बचपन और बच्चा होने का फायदा उठाया और मुझे विज्ञान पसंद करने के लिए मजबूर करती रहीं। मैं भी विज्ञान पढ़ती रहीं ताकि आपको खुश रख सकूं। मैं क्वांटम फिजिक्स और एस्ट्रोफिजिक्स जैसे विषयों को पसंद करने लगी और उसमें ही बीएससी करना चाहती थी लेकिन मैं आपको बता दूं कि मुझे आज भी अंग्रेजी साहित्य और इतिहास बहुत अच्छा लगता है क्योंकि ये मुझे मेरे अंधकार के वक्त में मुझे बाहर निकालते हैं।’
कृति अपनी मां को चेतावनी देती है कि- ‘इस तरह की चालाकी और मजबूर करनेवाली हरकत 11 वीं क्लास में पढऩे वाली छोटी बहन से मत करना, वो जो बनना चाहती है और जो पढऩा चाहती है उसे वो करने देना क्योंकि वो उस काम में सबसे अच्छा कर सकती है जिससे वो प्यार करती है। इसको पढक़र मन विचलित हो जाता है कि इस होड़ में हम अपने बच्चों के सपनो को छीन रहे है।
आज हम लोग अपने परिवारों से प्रतिस्पर्धा करने लगे है कि फलां का बेटा-बेटी डॉक्टर बन गया, हमें भी डॉक्टर बनाना है। फलां की बेटी-बेटा सीकर/कोटा हॉस्टल में है तो हम भी वही पढ़ाएंगे,चाहे उस बच्चे के सपने कुछ भी हो...हम उन्हें अपने सपने थोंप रहे है। आज हमारे स्कूल (कोचिंग संस्थान) बच्चों को परिवारिक रिश्तों का महत्व नहीं सीखा पा रहे,उन्हें असफलताओं या समस्याओं से लडऩा नही सीखा पा रहे। उनके जहन में सिर्फ एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा के भाव भरे जा रहे है जो जहर बनकर उनकी जिंदगियां लील रहा है।जो कमजोर है वो आत्महत्या कर रहा है व थोड़ा मजबूत है वो नशे की ओर बढ़ रहा है। जब हमारे बच्चे असफलताओं से टूट जाते है तो उन्हें ये पता ही नहीं है कि इससे कैसे निपटा जाएं। उनका कोमल हदय इस नाकामी से टूट जाता है इसी वजह से आत्महत्या बढ़ रही है।
गिरीश मालवीय
घर में शादी है पैसे नहीं है’ ...जब भी मुझे नोटबंदी के दो दिन बाद जापान में दिया गया मोदीजी का भाषण याद आता है खून खौल जाता है। 8 नवम्बर 2016 के शाम 8 बजे से भारत के दुर्भाग्य की शुरुआत हुई। कल उसके प्रभाव को सरकार ने स्वीकार किया है। वित्त सचिव अजय भूषण पांडे ने मंगलवार को संसदीय स्थायी समिति (वित्त) को बताया कि सरकार मौजूदा राजस्व बंटवारे के फार्मूले के अनुसार राज्यों को उनकी जीएसटी हिस्सेदारी का भुगतान करने की स्थिति में नहीं हैं।
वित्त सचिव के ऐसा कहे जाने पर सदस्यों ने सवाल किया कि सरकार राज्यों की प्रतिबद्धता पर किस तरह से अंकुश लगा सकती है। नाम ना जाहिर करने की शर्त में एक सदस्य ने बताया कि इसके जवाब में अजय भूषण पांडे ने कहा, ‘अगर राजस्व संग्रह एक निश्चित सीमा से नीचे चला जाता है तो जीएसटी एक्ट में राज्य सरकारों को मुआवजा देने के फार्मूले को फिर से लागू करने के प्रावधान हैं।’
दरअसल जीएसटी कानून में साफ है कि राज्यों को 14 प्रतिशत वृद्धि दर के हिसाब से पांच वर्षों तक राजस्व कमी की भरपाई की जाए, लेकिन अब मोदी सरकार इससे मुकर रही हैं, जनवरी, 2019 से मार्च, 2020 की अवधि के दौरान राज्यों को किए जाने वाले मुआवजे का भुगतान करीब 60,000-70,000 करोड़ रुपये बैठ रहा है। केंद्र को इसका भुगतान 2020 की पहली तिमाही तक करना था लेकिन अब तक वह रकम ड्यू है। रेलवे को अपने 15 लाख कर्मचारियों को पेंशन देने 55 हजार करोड़ की जरूरत है वो भी नहीं है देने के लिए जीएसटी से हासिल केंद्रीय राजस्व की बात करें तो वह तय लक्ष्य से करीब 40 फीसदी कम रहा है पिछले साल का, पहले के वर्षों की तुलना में जीएसटी राजस्व घटा है। वहीं उपकर भी जरूरत से कम आया है।
यह कोरोना काल से पहले की बात हो रही है तो ऐसा क्यो हो रहा है हम। सब अच्छी तरह से जानते हैं कि भारत नोटबंदी के बाद से ही आर्थिक मंदी के जाल में फंस चुका है लेकिन सरकार यह स्वीकार ही नही करना चाहती कि देश मे आर्थिक मंदी है जीएसटी संग्रह में कमी का कारण भी आर्थिक सुस्ती है। कब तक बचोगे एक न एक दिन असलियत आपको बताना ही होगी आज वित्त सचिव अजय भूषण पांडे ने यह स्वीकार किया है।
कुछ दिनों पहले ही लिख दिया था कि जल्द ही वह दिन आने वाले हैं जब राज्य सरकारों के पास अपने कर्मचारियों को तनख्वाह देने के पैसे नहीं होंगे। राज्य सरकारों ने अपने सारे सोर्स तो केंद्र सरकार के हवाले कर दिए हैं, जल्द ही सरकारी कर्मचारियों और सरकारी पेंशन धारकों को यह दिन देखना पड़ेगा जो मोदी जी ने बोला था। ‘घर में शादी है पैसे नहीं है।’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और सुप्रसिद्ध नेता डॉ. फारुक अब्दुल्ला ने एक वेबिनार में गजब की बात कह दी है। उन्होंने कश्मीर के पंडितों की वापसी का स्वागत किया है। कश्मीर से तीस साल पहले लगभग 6-7 लाख पंडित लोग भागकर देश के कई प्रांतों में रहने लगे थे। अब तो कश्मीर के बाहर इनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी तैयार हो गई है।
अब कश्मीर में जो कुछ हजार पंडित बचे हुए हैं, वे वहां मजबूरी में रह रहे हैं। केंद्र की कई सरकारों ने पंडितों की वापसी की घोषणाएं कीं, उन्हें आर्थिक सहायता देने की बात कही और उन्हें सुरक्षा का आश्वासन भी दिया लेकिन आज तक 100-200 परिवार भी वापस कश्मीर जाने के लिए तैयार नहीं हुए। कुछ प्रवासी पंडित संगठनों ने मांग की है कि यदि उन्हें सारे कश्मीर में अपनी अलग बस्तियां बसाने की सुविधा दी जाए तो वे वापस लौट सकते हैं लेकिन कश्मीरी नेताओं का मानना है कि हिंदू पंडितों के लिए यदि अलग बस्तियां बनाई गईं तो सांप्रदायिक ज़हर तेजी से फैलेगा। अब डॉ. अबदुल्ला जैसे परिपक्व नेताओं से ही उम्मीद की जाती है कि वे कश्मीर पंडितों की वापसी का कोई व्यावहारिक तरीका पेश करें।
कश्मीरी पंडितों का पलायन तो उसी समय (1990) शुरु हुआ था, जबकि डॉ. फारुक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे। जगमोहन नए-नए राज्यपाल बने थे। उन्हीं दिनों भाजपा नेता टीकालाल तपलू, हाइकोर्ट के जज नीलकंठ गंजू और पं. प्रेमनाथ भट्ट की हत्या हुई थीं। कई मंदिरों और गुरुद्वारों पर हमले हो रहे थे। मस्जिदों से एलान होते थे कि काफिरों कश्मीर खाली करो। पंडितों के घरों और स्त्रियों की सुरक्षा लगभग शून्य हो गई थी। ऐसे में राज्यपाल जगमोहन क्या करते ?
उन्होंने जान बचाकर भागनेवाले कश्मीरी पंडितों की मदद की। उनकी सुरक्षा और यात्रा की व्यवस्था की। जगमोहन और फारुक के बीच ठन गई। यदि पंडितों के पलायन के लिए आज डॉ. फारुक जगमोहन के विरुद्ध जांच बिठाने की मांग कर रहे हैं तो उस जांच की अग्नि-परीक्षा में सबसे पहले खुद डॉ. फारुक को खरा उतरना होगा। बेहतर तो यह होगा कि ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेय’! पंडितों के उस पलायन के लिए जो भी जिम्मेदार हो, आज जरुरी यह है कि कश्मीर के सारे नेता फिर से मैदान में आएं और ऐसे हालात पैदा करें कि आतंकवाद वहां से खत्म हो और पंडितों की वापसी हो।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-गगन सभरवाल
ब्रिटेन के वित्त मंत्री ऋषि सुनक ने उस अभियान का समर्थन किया है जिसमें ब्रिटेन की विविधता का जश्न मनाने के लिए काले और अल्पसंख्यक नस्लों के लोगों (BAME) को ब्रितानी सिक्कों पर दिखाने की बात की जा रही है.
बीबीसी को मिली जानकारी के अनुसार अश्वेत लोगों के योगदान और सफलता को याद करने के क्रम में भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की तस्वीर भी ब्रितानी सिक्के पर नज़र आएगी.
ब्रिटेन के वित्त मंत्रालय ने बीबीसी को मेल के ज़रिए दिए गए अपने बयान में कहा है, "द रॉयल मिंट एटवाइज़री कमेटी गांधी को याद करने के लिए एक सिक्का जारी करने का विचार कर रही है."
द रॉयल मिंट एटवाइज़री कमेटी ब्रिटेन में सिक्कों के डिज़ाइन और उनके विषयवस्तु पर सलाह देने वाली एक स्वतंत्र कमेटी है जिसमें इसके जानकार और विशेषज्ञ सदस्य होते हैं.
उन्होंने आगे कहा, "ब्रिटेन के वित्त मंत्री इस बात को लेकर बहुत इच्छुक हैं कि हमारे सिक्के पिछली पीढ़ी के उन लोगों के काम को दर्शाएं जिन्होंने इस देश की और राष्ट्रमंडल देशों की सेवा की है."
ब्रिटेन वित्त मंत्री ऋषि सुनक
वित्त मंत्री ऋषि सुनक भारतीय मूल के ब्रितानी नागरिक हैं और भारत की जानी मानी आईटी कंपनी इनफ़ोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति के दामाद हैं.
लेकिन यह पहली बार नहीं है जब ब्रितानी सिक्के पर महात्मा गांधी की तस्वीर डालने की बात हो रही है. पूर्व वित्त मंत्री साजिद जावेद ने भी पिछले साल द रॉयल मिंट को कहा था कि महात्मा गांधी के जन्म के 150वीं सालगिरह के जश्न के मौक़े पर एक सिक्का जारी करें
महात्मा गांधी के अलावा ब्रितानी सिक्कों पर जिनकी तस्वीर लगाने की बात हो रही है उनमें भारतीय मूल की ब्रितानी जासूस नूर इनायत ख़ान और जमाइका मूल की ब्रितानी नर्स मेरी सिकोल हैं.
रविवार को ब्रितानी वित्त मंत्री ने ट्वीट किया था, "शनिवार को मैंने रॉयल मिंट को लिखकर उनसे आग्रह किया है कि वो काले और अल्पसंख्यक नस्लों के लोगों (BAME) की सफलता को ब्रितानी सिक्कों पर दर्शाने का विचार करें."
ज़हरा ज़ैदी का अभियान
'वी टू बिल्ट ब्रिटेन' अभियान का नेतृत्व करने वाली भारतीय मूल की ज़हरा ज़ैदी ने ऋषि सुनका को एक पत्र लिखकर ऐसी माँग की थी.
ज़हरा ज़ैदी ब्रिटेन की कंज़रवेटिव पार्टी से जु़ड़ी हुई हैं और वो पिछले तीन साल से इस बात की लड़ाई लड़ रही हैं कि महात्मा गांधी, नूर इनायत ख़ान और मेरी सिकोल जैसे लोगों की तस्वीर ब्रितानी सिक्कों पर नज़र आनी चाहिए.
पिछले महीने बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा था, "हमारे लिगल टेंडर, हमारी नोटों और हमारे सिक्कों पर किनकी तस्वीर नज़र आती है, उससे इस बात का वर्णन होता है कि एक राष्ट्र के तौर पर हम क्या सोचते हैं कि हम कौन हैं."
इस अभियान का समर्थन करते हुए वित्त मंत्री ने द रॉयल मिंट के अध्यक्ष लॉर्ड वॉल्डग्रेभ को पत्र लिखकर कहा, "काले, एशियाई और अल्पसंख्यक नस्ल के लोगों ने ब्रिटेन की साझा संस्कृति के विकास में बहुत बड़ा योगदान दिया है. पीढ़ियों तक अल्पसंख्यक नस्लों के लोगों ने इस देश के लिए लड़ाई लड़ी है और अपनी जान दी है, इस देश को हमने मिलकर बनाया है, अपने बच्चों को पढ़ाया है, बीमारों की सेवा की है, बुज़ुर्गों की तीमारदारी की है, और उनके उद्यमी उत्साह से हमने अपने कुछ बहुत ही रोमांचक और सक्रिय व्यापार को शुरू किया है, नौकरियों को पैदा किया है और विकास को बढ़ावा दिया है."
अपने ख़त में सुनक ने आगे लिखा है, "मैं जानता हूं कि आप भविष्य में आने वाले सिक्कों में विविधता दर्शाने के लिए पहले से ही विचार कर रहे हैं और मैं आपके इन प्रयासों का स्वागत करता हूं. मुझे उम्मीद है कि ये अभियान हम सभी को ये करने के महत्व और ज़रूरत को याद दिलाता है."
काले, एशियाई और अल्पसंख्यक नस्ल के लोग जैसे वॉल्टर टूल, जो कि ब्रितानी सेना के पहले काले अफ़सर थे, उनकी तस्वीर ब्रितानी सिक्कों पर पहली आ चुकी है.
ज़हरा ज़ैदी ने इससे पहले एक अभियान चलाया था जिसमें उन्होंने बैंक ऑफ़ इंग्लैंड से अनुरोध किया था कि ब्रिटेन के 50 पाउंड की नोट पर अल्पसंख्यक नस्ल की महिलाओं की तस्वीर छापें. इनमें उन्होंने नूर इनायत ख़ान के नाम का सुझाव दिया था. लेकिन उनके अनुरोध को उस समय अस्वीकार कर दिया गया था और ब्रिटेन में कम्प्यूटर साइंस के पिता कहे जाने वाले एलन ट्यूरिंग को ब्रितानी नोटों पर जगह मिली. उनकी तस्वीर वाली नोट अगले साल से चलन में आएगी.
जॉर्ज फ़्लॉयड की हत्या
अमरीका में मई के महीने में एक काले नागरिक जॉर्ज फ़्लॉयड की पुलिस के हाथों मौत के बाद पूरी दुनिया में इतिहास, उपनिवेशवाद, और नस्ल को लेकर एक नई बहस शुरू हो गई है.
इस घटना के बाद ब्रिटेन की कई संस्थाओं ने भी अपने इतिहास पर दोबारा नज़र डालना शुरू कर दिया है.
कई संस्थाओं ने काले, एशियाई और अल्पसंख्यक नस्ल के लोगों की मदद के लिए अभियान शुरू किया है और नस्लीय विविधता के समर्थन में कई प्रोजक्ट शुरू किए गए हैं.
अमरीका में जॉर्ज फ़्लॉयड की मौत ने नस्लवाद, उपनिवेशवाद और पुलिसिया दमन के ख़िलाफ़ वैश्विक विरोध को जन्म दिया है. (bbc)