विचार/लेख
कनुप्रिया
लडक़ों से गलतियाँ हो जाती हैं, लडक़ों का मनचलापन समाजिक रूप से स्वीकार्य है। लडक़े होते ही ऐसे हैं तो ऐसे कहा जाता है मानो उनका स्वभाव कोई जेनेटिक डिसऑर्डर है जो सदियों पहले किसी कारण से इनकी प्रजाति में हो गया अब बदल नहीं सकता।
लडक़ों के इस मनचलेपन की कीमत लड़कियां सदियों से घरों में बंद होकर चुका रही हैं, उनके लिए खेल के मैदान नहीं हैं, वहाँ लडक़ों का कब्जा है, उनके लिए पार्क नहीं हैं, शाम गए सडक़ नहीं हैं, अगर मुहल्ले के किसी कोने पर मनचलों की टोली का ठिहा है तो लड़कियों का स्कूल भी बंद हो सकता है। लडक़ों का मनचलापन सडक़ों, पार्कों, मैदानों सब पर क़ब्ज़ा किए हंै और लड़कियों ने ये सब जगहें एक-एक करके खाली कर दीं, तब भी सुरक्षित रहने की जिम्मेदारी उन्हीं पर है। स्कूल से घर तक पीछा करने वाले लडक़ों के ग्रुप के भय से लगभग हर लडक़ी गुजरी होगी, कितनी बार रुट बदल दिए जाते हैं, लंबे रुट लिए जाते हैं, नहीं तो छोडऩे-लाने की जिम्मेदारी घर के किसी आदमी को सौंप दी जाती है, रक्षा भार। रक्षा सूत्र पर्व हो जाते हैं मगर लडक़ों का मनचलापन नहीं बंद होता।
इन सबके बीच से गुजरकर भी कोई लडक़ी सुदीक्षा अपने बूते 4 करोड़ की स्कॉलरशिप लेकर अमेरिका चली जाती हैं मगर जब अपने घर लौटती है तो कुछ नहीं बदलता, मनचले लडक़े अब भी खुले सांड की तरह सडक़ों पर मिलते हैं जिनको नगरपालिका भी बंद नहीं कर सकती। ऐसे साँडो के कारण हुई मौत यूपी पुलिस की नजऱ में अगर महज दुर्घटना ही है तो क्या आश्चर्य, परिवार वालों के लिए तो मर्डर ही है।
इस परिवार के सपनों की मौत तो दिखाई दे रही है कितने सपनों की मौत चुपचाप आँखों में ही हो जाती है, ऐसे ही मनचलों के कारण पढ़ाई छुड़ाई एक लडक़ी ने मुझे कहा था मैं हैंडबॉल प्लेयर बनना चाहती हूँ, मगर मेरे स्कूल के रास्ते में रोज बैठने वाले लडक़ों के कारण मेरा स्कूल छूट गया है, माँ-बाप काम पर जाते हैं। मैं छोटे भाई-बहनों को देखती हूँ, मैं बाहर मैदान में भी नहीं खेल सकती क्यों?
क्योंकि हमारे समाज में लडक़े ऐसे ही होते हैं, क्या करें।
रुचिका शर्मा
कृष्ण की कहानी ईसा पूर्व छठी शताब्दी में एक जनजाति विशेष के नायक के तौर पर शुरू होती है और ईसवी की पांचवीं सदी आते-आते विष्णु के अवतार के रूप में पूरी हो जाती है।
हिंदू धर्मग्रंथों में जितने भी देवी-देवताओं का जिक्र मिलता है, उनमें श्रीकृष्ण सबसे लोकप्रिय हैं-ग्वालों के बालगोपाल, प्रेम के देवता, धर्मोपदेशक और एक अजेय योद्धा। उनकी पूरी कहानी, जिसे कृष्णगाथा भी कह सकते हैं, कई बिलकुल अलग-अलग तरह के तत्वों को बडी सुंदरता से जोडऩे पर बनी है। यह करीब 800-900 साल के लंबे अंतराल में विकसित हुई। दिलचस्प बात यह है कि इस गाथा का विकास उल्टे क्रम में हुआ है। इसमें पहले पांडवों के मित्र और द्वारका के संस्थापक के रूप में युवा कृष्ण सामने आते हैं फिर गायें चराने वाले बाल कृष्ण और ग्वालिनों के साथ रास रचाने वाले प्रेम के प्रतीक कृष्ण का वर्णन आता है।
कृष्ण का सबसे पहला जिक्र छठी शताब्दी ईसापूर्व ‘छंदोग्य उपनिषद’ में मिलता है। इसमें उन्हें एक साधु और उपदेशक बताया गया है
वासुदेव और कृष्ण
ब्रिटेन में लैंकैस्टर विश्वविद्यालय के धार्मिक अध्ययन विभाग में मानद शोधकर्ता रहीं फ्रीडा मैशे ने एक किताब लिखी है - ‘कृष्ण, ईश्वर या अवतार? कृष्ण और विष्णु के बीच संबंध’। इसमें वे लिखती हैं कि कृष्ण-वासुदेव, पहले यादव समुदाय की सत्वत्त और वृष्णि जनजातियों के नायक हुआ करते थे। इन्हें समय के साथ-साथ देवता मान लिया गया। फिर दोनों एक हो गए।
कृष्ण का सबसे पहला जिक्र छठी शताब्दी ईसापूर्व में ‘छंदोग्य उपनिषद’ में मिलता है। इसमें उन्हें एक साधु और उपदेशक बताया गया है। साथ ही इसमें उनका देवकीपुत्र के रूप में भी उल्लेख है। चौथी शताब्दी ईसापूर्व में पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ (संस्कृत व्याकरण का ग्रंथ) में कृष्ण को एक देव की तरह प्रस्तुत किया गया है। साथ ही इसमें वृष्णिवंशी यादव जनजाति के बारे में भी विस्तार से बताया गया है, जिससे कृष्ण जुड़े हुए थे। मौर्य राजदरबार में यूनान (ग्रीस) के दूत रहे मेगस्थनीज की किताब ‘इंडिका’ में बताया गया है कि किस तरह शूरसेनियों (वृष्णिवंशी यादवों की ही एक शाखा) ने मथुरा में कृष्ण को देवता की तरह पूजना शुरू किया। इस तरह चौथी शताब्दी ईसापूर्व में कृष्ण-वासुदेव न सिर्फ नायक से देवता के रूप में परिवर्तित हुए, बल्कि काफी लोकप्रिय भी हो चुके थे।
विष्णु रूप कृष्ण
दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक वैदिक पूजा पद्धति कठोर हो चुकी थी और उसके धार्मिक संस्कार महंगे। इसी दौरान सम्राट अशोक के समर्थन और प्रचार कार्य की वजह से बौद्ध दर्शन अपना आधार बढ़ाता जा रहा था। इसी बीच, बड़े पैमाने पर विदेशी आक्रमणकारियों (जैसे शक आदि) का भारत में आगमन शुरू हो गया। वे बौद्ध दर्शन आदि से ज्यादा सहानुभूति रखते थे। ऐसे में, पुरोहित वर्ग के अधिकार और असर में कमी आने लगी। निचले वर्णों की आर्थिक स्थिति भी बेहतर हुई और उन्होंने वर्ण व्यवस्था को चुनौती देना शुरू कर दिया। और जैसा कि सुवीरा जायसवाल अपनी किताब ‘वैष्णववाद की उत्पत्ति और विकास’ में लिखती हैं - ‘ब्राह्मणों ने कृष्ण-वासुदेव के भक्ति-पंथ पर कब्जा कर लिया। वे कृष्ण को नारायण-विष्णु का स्वरूप बताने लगे। इसके पीछे उनका मकसद संभवत: सामाजिक आचार-व्यवहार में अपना अधिकार और प्रभुत्व एक बार फिर से स्थापित करना था।’ यहां जिक्र करना दिलचस्प होगा कि नारायण और विष्णु भी पहले अलग देवों की तरह पूजे जाते थे। बाद में दोनों को एक ही मान लिया गया।
महाभारत में तमाम जगहों पर उस असमंजस या दुविधा का भी जिक्र मिलता है कि किसी अनार्य जनजातीय देव (कृष्ण) को परमेश्वर का दर्जा कैसे दिया जाए
यानी इस काल में कृष्ण-वासुदेव का नारायण-विष्णु के साथ घालमेल हो गया। उन्हें महाभारत के युद्ध के नायक का दर्जा मिला। साथ ही भगवद् गीता का उपदेश देने वाले उपदेशक के रूप में भी मान्यता मिली। हालांकि महाभारत में ही तमाम जगहों पर इस असमंजस या दुविधा का भी जिक्र मिलता है कि किसी अनार्य जनजातीय देव (कृष्ण) को परमेश्वर का दर्जा कैसे दिया जाए। इसीलिए शुरू-शुरू में कृष्ण-वासुदेव का विवरण नारायण-विष्णु के अंशावतार के रूप में ही दिया जाता है।
बाल कृष्ण
इस तरह, पहली शताब्दी ईसापूर्व तक कृष्ण की पूजा सिर्फ उनके युवा स्वरूप में ही होती थी। वे पांडवों के मित्र, एक उपदेशक, वृष्णिवंशी यादवों के नायक और विष्णु के अंशावतार माने जा चुके थे। लेकिन उनकी महागाथा में एक सबसे अहम चीज अब भी नदारद थी। उनका बचपन। जबकि आज उनके बारे में सबसे ज्यादा जिक्र उनके बचपन का ही होता है। कालांतर में जब कृष्ण को अभीर (अहीर) जनजाति के देव का दर्जा मिला तो यह कमी भी पूरी हो गई। कृष्ण के साथ गोपाल (गाय चराने और पालने वाले) का मेल भी हो गया। हालांकि यह अब तक साफ नहीं है कि अभीर जनजाति भारतीय उपमहाद्वीप की ही मूल निवासी थी या किसी और जगह से आकर यहां बसी थी। लेकिन इतना साफ है कि पहली सदी ईसवी में यह जनजाति सिंधु घाटी के निचले इलाकों में निवास करती थी और बाद में पलायन कर सौराष्ट्र (अब गुजरात) में जा बसी। शक और सातवाहन के शासनकाल में यह जनजाति राजनीतिक रूप से भी सक्रिय हुई।
वृष्णिवंशी यादवों और अभीरों में काफी समानताएं थीं। खासकर दोनों समाजों में महिलाओं को किस तरह देखा जाता था। संभवत: इन्हीं समानताओं की वजह से वृष्णिवंशियों के कृष्ण-वासुदेव को अभीरों का आराध्य भी मान लिया गया। उदाहरण के लिए दो प्रसंग सामने रखे जा सकते हैं। पहला, महाभारत में अर्जुन को कृष्ण अपनी बहन का हरण कर लेने की सलाह देते हैं। इसके पक्ष में वे यह दलील देते हैं कि इस तरह धर्म की रक्षा होगी। यह शायद इस बात का संकेत भी है कि महिलाओं का हरण करना वृष्णिवंशियों में एक सामान्य परंपरा रही होगी। दूसरा, कृष्ण के श्रीधाम सिधारने के बाद जब अर्जुन अपनी छत्रछाया में वृष्णिवंशी महिलाओं को लेकर मथुरा की ओर जाते हैं, तो उन पर अभीरों का हमला हो जाता है और हमलावर उनके काफिले में शामिल कई महिलाओं का अपहरण कर लेते हैं।
पहली से पांचवीं शताब्दी तक विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण जैसे महाकाव्यों ने टूटी हुई उन कडिय़ों को जोडऩे का काम किया, जिनसे कृष्ण-वासुदेव और विष्णु-नारायण को समग्र रूप से एक ही रूवरूप में स्थापित किया जा सके।
बहरहाल, कृष्ण-वासुदेव को अभीरों के देव की मान्यता मिलते ही गोपियों के साथ उनके हास-परिहास-रास की कहानियां और प्रसंग भी सामने आने लगते हैं। चूंकि अभीर खानाबदोश किस्म की जनजाति थी, इसलिए उनकी संस्कृति में महिलाओं-पुरुषों के लिए ज्यादा उन्मुक्तता का माहौल था। अभीरों में उन्मुक्तता की यही संस्कृति कृष्ण की रासलीलाओं का आधार भी बनी।
परमपिता परमेश्वर श्रीकृष्ण
हम जानते हैं कि कृष्ण की कहानी में कृष्ण-गोपाल का सम्मिश्रण बाद में हुआ। क्योंकि महाभारत की मूल कहानी में कहीं भी कृष्ण के बचपन का जिक्र नहीं मिलता। चौथी सदी ईसवीं में जब परिशिष्ट या उपबंध के रूप में महाभारत के साथ हरिवंश पुराण का जोड़ हुआ, तब कृष्ण-अभीर की पहचान को एक सुनिश्चित आकार मिला। इस तरह, पहली से पांचवीं शताब्दी ईसवीं तक विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण जैसे महाकाव्यों ने टूटी हुई उन कडिय़ों को जोडऩे का काम किया, जिनसे कृष्ण-वासुदेव और विष्णु-नारायण को समग्र रूप में स्थापित किया जा सका।
इस तरह, कृष्ण की जो कहानी अब सामने आती है, उसके मुताबिक, वे यादव क्षत्रियों (एक योद्धा जाति) के कुल में पैदा हुए। उनके पिता का नाम वसुदेव था, इसी आधार पर उनका एक नाम वासुदेव भी पड़ गया। उनका मामा कंस आततायी था, उन्हें मारना चाहता था, इसलिए उसके डर से उन्हें रातों-रात चोरी-छिपे ले जाकर अभीरों के संरक्षण में (नंद नामक गोप के घर) छोड़ आया गया। इसके बाद इस गाथा में समय के साथ-साथ गोपियों के प्रेमी, अर्जुन के सारथी और गीता में धर्म का उपदेश देने वाले उपदेशक के तौर पर कृष्ण परिपक्व होते हैं। और इस तरह कृष्णगाथा आखिरकार पूरी होती है। इसके बाद जनजातीय समुदाय के देवता को परम ईश्वर मानने को लेकर महाभारत में शुरू-शुरू में दिखी दुविधा भी खत्म हो जाती है। और छठी शताब्दी ईस्वी में लिखी गई भागवत पुराण में उन्हें परमपिता परमेश्वर का दर्जा मिल जाता है। (satyagrah.scroll.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत सरकार ने कल दो महत्वपूर्ण घोषणाएं की हैं। एक तो देश की सुरक्षा से संबंधित है और दूसरे का संबंध है, देश के किसानों से! किसी देश में सभी क्षेत्रों में पिछड़ापन रहे लेकिन यदि उसके लाखों-करोड़ों लोगों को खाना-पीना सुलभ रहे और उनकी सुरक्षा बनी रहे तो इसे भी उसकी बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में सुधार के कुछ कदम सरकार उठा ही रही है लेकिन रक्षामंत्री राजनाथसिंह की यह घोषणा कई दृष्टियों से काफी महत्वपूर्ण है कि अब 101 हथियारों और सैन्य-उपकरणों का निर्माण भारत में ही होगा।
अब उन्हें विदेशों से नहीं खरीदा जाएगा। ये उपकरण 4 लाख करोड़ रु. के होंगे। इन सामरिक उपकरणों की खरीद पर तत्काल प्रतिबंध नहीं लगेगा, जैसी कि नोटबंदी हुई थी या जैसे कि कई चीनी चीज़ों के साथ हो रहा है। राजनाथसिंह का मंत्रालय इन प्रतिबंधों को सोच-समझकर धीरे-धीरे लगाएगा। अगले पांच साल में पूरी तरह से ये लागू हो जाएंगे। यह भारतीय सुरक्षा और अर्थ-व्यवस्था के लिए एतिहासिक कदम होगा। इसके कई पहलू हैं। एक तो विदेशों पर भारत की निर्भरता घटेगी।
पिछले पांच साल में भारत ने 3.50 लाख करोड़ रु. के हथियार खरीदे थे। दूसरा, विदेशी हथियार खरीदने में जो ठगाई होती है, उससे भारत बचेगा। तीसरा, विदेशी हथियारों के मुकाबले जब हम खुद हथियार बनाएंगे तो वे हमारी जरुरत के एकदम मुताबिक बनेंगे। चौथा, उन हथियारों की मारक-क्षमता और गोपनीयता सिर्फ हमें पता होगी, किसी विदेशी शक्ति को नहीं। पांचवां, अभी भारत लगभग डेढ़ दर्जन देशों को छोटे-मोटे हथियार निर्यात करता है। हो सकता है कि अगले पांच-सात साल में भारत सारी तीसरी दुनिया के देशों में हथियार का सबसे बड़ा सौदागर बन जाए। छठा, अब सरकार ने शस्त्र-निर्माण कार्य में विदेशी विनियोग की सीमा 49 प्रतिशत से बढ़ाकर 74 प्रतिशत कर दी है। भारत में शस्त्र-निर्माण के लिए विदेशी पूंजी भी अब जमकर आनी चाहिए।
जहां तक खेती का सवाल है, किसानों को तरह-तरह की सुविधाएं देने की घोषणा सरकार पहले भी करती रही है लेकिन प्रधानमंत्री ने इस बार एक लाख करोड़ रुपया सिर्फ इसलिए देने के लिए कहा है कि किसानों की उपज की रक्षा हो सके। भारत में हर साल करोड़ों रु. के फल, सब्जियां और अनाज सड़ जाते हैं उन्हें रखने के लिए देश में समुचित भंडारण और रख-रखाव की व्यवस्था नहीं है।
अब किसान लोग अपने गांवों में कोल्ड स्टोरेज की व्यवस्था कर सकेंगे। उन्हें 2 करोड़ रु. तक कर्ज मिल सकेगा। किसान अपना माल अब किसी भी मंडी या बाजार में बेच सकते हैं। भंडारण की यह सुविधा उनके लिए सोने में सुहागा सिद्ध होगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. अजय खेमरिया
कोरोना महामारी के शोर में इस साल जून से अब तक करीब बीस हजार भारतीय अपने खेतों में सर्पदंश से मौत का शिकार हो चुके हैं। देश भर में करीब तीन लाख लोग हर साल सांप के काटने का शिकार होते है। हर दस मिनट में एक व्यक्ति की मौत इसके चलते हो रही है। स्वास्थ्य पर तमाम बड़े वादों और मिशन मोड़ वाले कार्यक्रमों के इतर सर्पदंश का यह जानलेवा सिलसिला पिछले 20 वर्षों से बदस्तूर जारी है। पूरी दुनियां में हर साल करीब सवा लाख लोग सांप के जहरीले दंश से मारे जाते है जिनमें से लगभग आधे भारतीय होते हंै।
हाल ही में टोरंटो विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर ग्लोबल रिसर्च ने यूनाइटेड किंगडम के सहयोग से इस मामले पर एक शोध के नतीजे सार्वजनिक किए है। इसमें कहा गया है कि वर्ष 2000 से 2019 के मध्य भारत में करीब 12 लाख लोग सर्पदंश से मौत के मुंह में समाये जा चुके हैं। चौकाने वाला तथ्य यह है कि इनमें से 25 फीसदी 15 से 29 साल के लोग है। यानी भारत में बच्चे सर्वाधिक शिकार हो रहे है। ट्रेंड इन स्नेकबाइट डेथ इन ए नेशनली रिप्रजेंटेटिव मोरेटेलिटी स्टडी नामक शीर्षक से जारी इस शोध दस्तावेज में विस्तार से भारत के इस स्याह पक्ष को रेखांकित किया गया है। खास बात यह है कि इस त्रासदी को फीसदी भोगने वाला 97 फीसदी तबका गांव का गरीब आदमी है। ऐसी मौतें खेत में काम करते वक्त या उन गरीबों के साथ होती है जिनके पास पक्के घर और सोने के लिए ऊँचे पलँग नहीं हैं। जो मजदूरी के लिए जूते, रात्रि टार्च, दस्ताने जैसे साधनों से वंचित रहते हैं। जाहिर है सर्पदंश का केंद्र गांव, गरीब, किसान और मजदूर ही है। शहरी इलाकों में केवल 3 फीसदी सर्पदंश की मौत का खुलासा करने वाली इस शोध रपट के अनुसार करीब 58 हजार भारतीय प्रति वर्ष इसलिये मारे जाते हैं क्योंकि उनके रहवास के आसपास एंटी वेनम डोज या तो उपलब्ध नहीं होते हैं और अगर है भी तो वहां ट्रेंड स्टाफ नहीं होता है।
सांप के काटने के बाद अगले एक से दो घण्टे निर्णायक होते है लेकिन जागरूकता के आभाव में ग्रामीण पहले तो झाड़-फूंक के चक्कर में पड़ते हैं और जब अस्पताल की बारी आती है तब वहां एंटी वेनम की उपलब्धता ही नहीं रहती। इस शोध के मुताबिक आधी से ज्यादा मौतें जून से सितंबर के महीनों में होती है जब मानसून के साथ देश भर में धान, सोयाबीन, मूंगफली जैसी फसलों की पैदावार में किसान खेतों में लगे रहते हंै।
देश में एक चौथाई घटनाओं के केंद्र महाराष्ट्र, गोवा, और गुजरात है। लेकिन सर्पदंश से 70 फीसदी मौतें आठ राज्य बिहार, यूपी, मप्र, राजस्थान, आंध्रप्रदेश (तेलंगाना सहित) झारखण्ड, ओडिशा, और गुजरात में होती हैं। इनमें से भी हर वर्ष यूपी में 8700, बिहार में 4500 एवं आंध्र तेलंगाना मिलाकर 5200 लोगों की मौत सांप के जहर और एंटी वेनम नहीं मिलने के चलते हो रहीं है। समझा जा सकता है कि अन्य सभी मानकों में पिछड़े यूपी बिहार जैसे बड़े राज्य इस मामले में भी गरीबों के लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं। सवाल यह है कि क्या सर्पदंश से मौत के मुंह में जाने वाले लोग देश के मजदूर, किसान है इसलिए इस मामले पर कोई बुनियादी पहल आज तक नहीं हुई?
हकीकत भी कुछ ऐसी ही बिहार, मप्र या यूपी के किसी भी दूरदराज के प्राथमिक/उप स्वास्थ्य केंद्र में चले जाइये आपको एंटी वेनम की उपलब्धता खोजने से नहीं मिलेगी। इसका रखरखाव फ्रिज में करना होता और देश के अधिकांश पीएचसी पर यह सुविधा आज भी उपलब्ध नहीं है मजबूरन लोग ऐसे मामलों में जिला अस्पताल या निजी नर्सिंग होम्स में जाते हंै। वहां तक आने में लगने वाला समय ही सर्पदंश के मामले में निर्णायक होता है। सरकार के स्तर पर पहली बार 2009 में नेशनल स्नेकबाइट मैनेजमेंट प्रोटोकॉल तैयार किया गया था लेकिन इस पर अमल के मामले में फिलहाल कोई ठोस काम नहीं हुआ है। आज एंटी वेनम की बाजार में कीमत साढ़े पांच सौ रुपए है और इसका मानक डोज देने वाले ट्रेंड लोगों की देश भर में कोई ट्रेनिंग नहीं होती है इसीलिए कई लोग तो ओवर डोज के चलते भी मर जाते हैं या स्थाई विकलांगता का शिकार हो जाते हंै। ग्वालियर की प्रतिष्ठित डॉक्टर नीलिमा सिंह का मानना है कि अधिकांश मौतों को रोका जा सकता है बशर्ते समय पर निर्धारित एंटी वेनम डोज उपलब्ध हो। वह जोड़ती है कि भारत में प्रशिक्षित डॉक्टरों एवं पैरा मेडिकल स्टाफ की भारी कमी है क्योंकि ऐसी कोई प्रमाणिक व्यवस्था है ही नहीं। चूंकि इस डोज को बनाने में दवा कम्पनियों को बड़ा फायदा नहीं होता है इसलिए चुनिंदा कम्पनियों में ही इसका निर्माण होता है। भारत में डोज बनाने वाली प्रीमियम सीरम्स एन्ड वैक्सीन्स के मालिक एमबी खंडेलकर मानते है कि मुनाफे में न्यूनता बड़ी कम्पनियों की दिलचस्पी न होने का अहम कारण है हालांकि वह इसकी तकनीकी दिक्कतों को भी एक वजह मानते है।
एंटी वेनम भेड़ों और घोड़े से बनाई जाती है जो एक लंबी और खर्चीली प्रक्रिया है । साथ ही इसकी खपत डॉक्टरों और दवा कम्पनियों के मध्य बदनाम पारम्परिक संव्यवहार का हिस्सा भी नहीं है। इसका संधारण कठिन होने से भी यह निजी दवा कम्पनियों के लिए प्राथमिकता में नहीं रहती है।
डॉ नीलिमा सिंह का दावा है कि पिछले 12 साल से पौधों के एंटी ऑक्सीडेंट लेकर गोली के रूप में एंटी वेनम ईजाद करने पर काम चल रहा है जो कि अंतिम चरण में है। गोली के रूप में इसके आने के बाद डोज को लेकर आने वाली तकनीकी समस्या का समाधान होने की बात कही जा रही है। यह संधारण की दिक्कतों से भी निजात दिलाने वाला नवोन्मेष होगा। इस मामले में विश्व स्वास्थ्य संगठन भी गंभीरता से काम कर रहा है उसका लक्ष्य 2030 तक सर्पदंश से होने वाली मौतों के आंकड़े को आधा करने का है। हालांकि इसके लिए एंटी वेनम का उत्पादन 25 से 40 फीसदी बढ़ाने पर भी काम करना होगा।
भारत में होने वाली मौतों को लेकर सरकारी आंकड़े अक्सर दुरूह प्रक्रिया के चलते वास्तविकता को बयां नहीं करते हैं क्योंकि सरकार उन्हीं मामलों की गणना करती है जो उसके। राजस्व और पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज होते हैं।
गांव देहात में लोग अक्सर ऐसे मामलों की रिपोर्ट थानों में नहीं करते हैं क्योंकि मृत्यु के बाद पोस्टमार्टम कराना पड़ता है तब जाकर पुलिस मर्ग कायमी कर प्रकरण राजस्व अधिकारियों को भेजती है। मप्र जैसे राज्यों में ऐसे मामलों में पचास हजार की सांत्वना राशि देने का प्रावधान है लेकिन अधिकतर लोग इस प्रक्रिया का पालन ही नहीं करते हैं। इसीलिए केंद्रीय स्तर पर ऐसी मौतों का आंकड़ा वास्तविकता से बहुत दूर होता है। संभवत: इसीलिये अन्य बीमारियों या कैज्युल्टी की तुलना में सर्पदंश को लेकर सरकार गंभीर नहीं हैं। बेहतर होगा देश की मौजूदा स्वास्थ्य नीति में सर्पदंश को दुर्घटनाजन्य चिकित्सा सुविधा के दायरे से बाहर निकालकर स्थाई इलाज के मैदानी प्रावधान किए जाए। चूंकि इसका केंद्र गांव है इसलिए पीएचसी/सीएचसी स्तर पर एंटी वेनम की सहज उपलब्धता कम से कम मानसून के दौरान तो सुनिश्चित की ही जा सकती है। इस मामले पर शोध एवं प्रशिक्षण को बढ़ावा देने की भी आवश्यकता है। फिलहाल देश में केवल मुंबई के हाफकीन इंस्टिट्यूट एवं चेन्नई के इरुला कोपरेटिव सोसायटी में ही इस मामले पर थोड़ा बहुत काम किया जाता है। देश में होने वाली मौतों के मद्देनजर रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर काम बढ़ाये जाने की भी समानान्तर आवश्यकता है।
डॉ. गोल्डी एम.जार्ज
विश्व मूल निवासी दिवस पर विशेष
केंद्र सरकार ने चार राज्यों में स्थित 41 कोयला ब्लाकों की नीलामी करने की घोषणा की है। इनमें से दस ब्लॉक मध्यप्रदेश में हैं। छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखण्ड में नौ-नौ ब्लॉक हैं तथा तीन ब्लॉक महाराष्ट्र में हैं। इनमें से कई ब्लॉक ऐसे क्षेत्रों में हैं जहां आदिवासी व अन्य मूल निवासी समुदाय निवासरत हैं और वहां के वनों पर निर्भर हैं। उनका पुनर्वास या तो संभव ही नहीं है या उसके लिए कोई योजना नहीं है। जाहिर है, यह निर्णय उनके जीवन के लिए खतरनाक है।
9 अगस्त दुनियाभर के आदिवासियों के लिए गर्व का उत्सव है, जिसे विश्व के सभी मूल निवासी अपने अन्तरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाते हैं। विश्व के 195 देशों में से 90 देशों में 5000 आदिवासी समुदाय हैं, जिनकी आबादी लगभग 37 करोड है तथा उनकी अपनी 7000 भाषाएं हैं। लेकिन इनके अधिकारों का सबसे ज्यादा हनन भी होता रहा है। आदिवासियों के अधिकारों का मसला और आदिवासी दिवस मनाने के पीछे एक लंबा इतिहास रहा है। आदिवासियों के साथ हो रहे प्रताडऩा एवं भेदभाव के मुद्दे को अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने, जो लीग ऑफ नेशन के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ का एक प्रमुख अंग बना, 1920 मे उठाना शुरू किया। इस संगठन ने 1957 मे ‘इंडिजिनस एंड ट्राईबल पापुलेशन कन्वेंशन’ क्र. 107 नामक दस्तावेज को अंगीकृत किया। यह आदिवासी मसले का पहला अन्तरराष्ट्रीय दस्तावेज है, जिसे दुनियाभर के आदिवासियों के उपर किये जाने वाले प्रताडऩा एवं भेदभाव से सुरक्षा प्रदान करने के लिए समर्पित किया गया था।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्रारा पारित आदिवासी अधिकारों के घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने के बावजूद भारत सरकार ने आज तक आदिवासी अधिकारों के लिए कोई विशेष कदम नहीं उठाया है। यहां तक कि संविधान की पांचवी और छठी अनुसूची जो आदिवासी स्वशासन से संबंधित है, उसे भी वास्तविक अर्थ में लागू नहीं किया। देश के पहाड़ी और मैदानी इलाकों में रहनेवाले आदिवासियों की संवैधानिक अधिकारों की अवहेलना आम राजनीतिक घटना है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे बुनियादी नागरिक अधिकारों से आदिवासी वंचित तो है ही, साथ ही विकास की परियोजनाओं से लगातार बेदखली, पलायन, मानव तस्करी का शिकार बने हुए हैं। वे अपनी भाषा और संस्कृति से हर रोज विस्थापित हो रहे हैं।
आदिवासी संदर्भ में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान जो नीतियां बनी थीं, उसी तर्ज पर स्वाधीन भारत में भी नीति और कानून बनते गए। 1952 में स्वतंत्र भारत ने अपनी वन नीति बनाई जिसके अंतर्गत वनों को राष्ट्रीय संपदा माना गया और ‘राष्ट्रहित’ को सामुदायिक हितों पर प्राथमिकता दी गई। यह साफ कर दिया गया कि स्थानीय प्राथमिकताएं व हित और स्थानीय समुदायों के दावे, व्यापक राष्ट्रीय हितों के अधीन होंगे। 1952 में ही वन्यजीव सुरक्षा अधिनियम पारित किया गया जिसके अंतर्गत चिन्हित वन क्षेत्रों को केवल वन्य प्राणियों के लिए आरक्षित कर दिया गया और उनमें मनुष्यों के रहवास और प्रवेश को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया। सभी राष्ट्रीय उद्यान और वन्य प्राणी अभ्यारण्य इसी अधिनियम के प्रावधानों से शासित होते हैं।
1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग ने यह अनुशंसा की कि ‘औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए लकड़ी का उत्पादन वनों का मूल प्रयोजन होना चाहिए’ और व्यक्तियों व समुदायों की आवश्यकताएं, औद्योगिक आवश्यकताओं के अधीन होनी चाहिए। उसी वर्ष, संविधान के 42वां संशोधन के जरिए वन को राज्य सूची से हटा कर समवर्ती सूची में शामिल कर दिया और इस प्रकार, वनों का प्रबंधन केंद्र सरकार के हाथों चला गया।
1980 में वन संरक्षण अधिनियम पारित किया गया, जिसके अंतर्गत, निम्न उपाय किए गए (अ) वनों के गैर-वानिकी उपयोग पर प्रतिबंध, (ब) भारतीय वन अधिनियम 1927 के अंतर्गत जिन वनों को आरक्षित घोषित किया गया है उन्हें अनारक्षित करने पर रोक, (स) वन भूमि को व्यक्तियों या गैर-सरकारी संस्थाओं, निगमों आदि को लीज पर दिए जाने पर रोक और (ड) प्राकृतिक रूप से उगे वृक्षों को काटने पर प्रतिबंध। मूलत: यह अधिनियम वन भूमि के उपयोग के संबंध में निर्णय लेने के अधिकार को राज्य सरकारों से वापस लेकर, केंद्र के हाथों में सौंपता है।
1947 से लेकर 1986 तक, केंद्र सरकार के पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत देश में औद्योगिक विकास बढ़ा, विशेषकर उत्खनन के क्षेत्र में। औद्योगिक और उत्खनन परियोजनों की स्थापना के लिए बड़े पैमाने पर वन क्षेत्रों को साफ किया गया। इसके चार चरण थे- सिलेक्टिव फेलिंग (1947-60), क्लियर फेलिंग एंड मोनोकल्चर प्लांटेशन्स (1960-75), फॉर्म फॉरेस्ट्री (1975-85) और इम्पोर्ट एंड कैप्टिव प्लांटेशन (1985 से अब तक)। इस तरह वनों को राज्य की संपत्ति मानने की नीति जारी रही और आदिवासियों को वन और वन भूमि पर अधिकार वापस नहीं मिला। इस कारण, आदिवासी इलाकों में जमीन, जंगल, जल, से जुड़े मसलों पर कई आंदोलन और संघर्ष हुए।
इन संघर्षों के चलते, 1988 में जो राष्ट्रीय वन नीति बनाई गई, वह 1952 में बनाई गई नीति से कई मामलों में बहुत भिन्न थी। विशेषकर वन प्रबंधन के संदर्भ में। एक नीति के रूप में उसकी यह सीमा थी कि इसे कानून की तरह लागू करना संभव नहीं था। इसके बाद पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम, 1986 ने विशाल उद्योगों के विरुद्ध चल रहे जन आंदोलनों में आशा की एक किरण जगाई, परन्तु यह आशा जल्दी ही समाप्त हो गई। यह अधिनियम पर्यावरण की रक्षा के लिए कानूनी ढ़ांचे की मांग और उसके लिए चल रहे संघर्षों के मद्देनजर बनाया गया था। इस कानून के अंतर्गत किसी भी औद्योगिक परियोजना को लागू करने से पहले उसके पर्यावरणीय प्रभाव और सामाजिक-आर्थिक लाभ-हानि का आंकलन करना और जन सुनवाई आयोजित करना आवश्यक बना दिया गया।
पंचायत (अधिसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा), 1996 के अंतर्गत, औद्योगिक परियोजनाओं के प्रमोटरों के लिए ग्राम सभा से चर्चा करना और उसकी सहमति प्राप्त करना आवश्यक बना दिया गया है। परन्तु इन सभी प्रावधानों का कुछ ही समय तक ठीक से पालन हुआ। पिछले एक दशक के दौरान, जन सुनवाईंयां महज औपचारिकता भर रह गईं हैं जिनकी स्क्रिप्ट पहले से तैयार रहती है। जिन मामलों में स्थानीय रहवासी इस आशय के पर्याप्त प्रमाण जुटा भी लेते हैं कि वे वनों पर निर्भर हैं और वनों को काटने से क्षेत्र के पर्यावरण को हानि होगी, तब भी उनकी आपत्तियों और दावों को दरकिनार कर दिया जाता है। उनकी जमीनें उनसे छीन ली जातीं हैं और उन्हें विस्थापित कर दिया जाता है। पेसा और वन अधिकार अधिनियम के बावजूद पर्यावरण संबंधी कानूनों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं।
आदिवासी आज भी अपने उन नैसर्गिक अधिकारों को पाने के लिए संघर्षरत हैं, जो उनसे छीन लिए गए हैं। वन अधिकार अधिनियम, 2006 के पारित होने के बाद ऐसी आशा जगी थी कि सदियों से आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय पर कुछ लगाम लगेगी। इस अधिनियम के अंतर्गत भूमि अधिकार देने में कई विभागों और मंत्रालयों और अनेक कानूनों की भूमिका रहती है। इस अधिनियम में वन अधिकारों को निम्न श्रेणियों में बांटा गया है- 1) व्यक्तिगत भू अधिकार व 2) सामुदायिक भू अधिकार-अ) आदिवासियों के लिए व ब) अन्य पारंपरिक वनवासियों के लिए। परन्तु ये अधिकार पाने की राह में कई विभाग और कानून रोड़ा बनते हैं। इस अधिनियम के अंतर्गत, किसी भी विकास परियोजना या औद्योगिक गतिविधि या किसी भी बाह्य एजेंसी के लिए ग्राम सभा की पूर्व स्वीकृति लेना ज़रूरी है।
विकास, औद्योगिकारण और खनन परियोजनाएं, पारंपरिक रूप से वनों पर निर्भर समुदायों के जीवन और जीवनयापन से संबंधित कई चुनौतियां देती हैं। हाल में केंद्र सरकार ने चार राज्यों में स्थित 41 कोयला ब्लाकों की नीलामी करने की घोषणा की है। इनमें से दस ब्लॉक मध्यप्रदेश में हैं। छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखण्ड में नौ-नौ ब्लॉक हैं तथा तीन ब्लॉक महाराष्ट्र में हैं। इनमें से कई ब्लॉक ऐसे क्षेत्रों में हैं जहां आदिवासी व अन्य मूल निवासी समुदाय निवासरत हैं और वहां के वनों पर निर्भर हैं। उनका पुनर्वास या तो संभव ही नहीं है या उसके लिए कोई योजना नहीं है। जाहिर है, यह निर्णय उनके जीवन के लिए खतरनाक है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि वन अधिकारों के खतरे में पडऩे का मूल कारण यह है कि न तो औपनिवेशिक काल में और ना ही स्वाधीन भारत में, लोगों के पारंपरिक वासस्थलों और वनों पर उनकी निर्भरता को मान्यता दी गई। इसके कारण, आदिवासियों और अन्य पारंपरिक समुदायों के साथ सदियों से अन्याय होता चला आ रहा है। और यह तब जब कि वे वनों के पारिस्थितिकी तंत्र का अविभाज्य हिस्सा हैं और वनों के बचे रहने में उनकी अनिवार्य भूमिका है। हूल से लेकर उलगुलान तक और आज भी यह संघर्ष जारी है। विश्व मूल निवासी दिवस पर इन सवालों का जवाब सरकार और समाज को देना अनिवार्य होगा।
(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता है, तथा वर्तमान में फॉरवर्ड प्रेस नई दिल्ली में सलाहकार संपादक है।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि अयोध्या के पास बननेवाली मस्जिद के शिलान्यास में मैं नहीं जाऊंगा, क्योंकि मैं योगी हूं और हिंदू हूं। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें पूरा विश्वास है कि उन्हें निमंत्रित भी नहीं किया जाएगा। आज की खबर यह है कि मस्जिद बनानेवाले सुन्नी वक्फ बोर्ड के एक अधिकारी ने दावा किया है कि उन्हें निमंत्रण भेजा जा रहा है और उन्हें उसे स्वीकार करना चाहिए। इसके लिए उसने तर्क दिया है।
तर्क यह है कि मस्जिदों के शिलान्यास की इस्लाम में कोई परंपरा नहीं है। इस्लाम के चारों प्रमुख संप्रदायों की यही मान्यता है। जो शिलान्यास अयोध्या के धन्नीपुर गांव में होगा, वह होगा मस्जिद के साथ बननेवाले अस्पताल, लायब्रेरी, सामूहिक रसोईघर, संग्रहालय और शोध केंद्र का ! मैं खुद मानता हूं कि मुख्यमंत्री होने के नाते उन्हें मुसलमानों के इस निमंत्रण को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए।
हालांकि मैं यह भी सोचता हूं किसी मस्जिद या मंदिर से किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का क्या लेना-देना ? उनके उदघाटन या शिलान्यास के लिए इन कुर्सीधारियों को बुलाने की तुक क्या है ? राजनीति के दलदल में फंसे हुए इन लोगों का आचरण क्या अनुकरण के योग्य होता है ? अयोध्या में जो मंदिर और मस्जिद बनेंगे, वे क्या इन नेताओं की मेहरबानी से बन रहे हैं ? वे तो अदालत के फैसले की वजह से बन रहे हैं। ऐसे अवसर पर कुर्सीधारियों को बुलाना क्या सिद्ध करता है ? क्या यह नहीं कि आप धर्म को राजनीति के चरणों में लिटा रहे हैं ?
योगी आदित्यनाथ का यह कहना कि वे योगी और हिंदू हैं, इसलिए मस्जिद के शिलान्यास में नहीं जाएंगे, यह भी तर्कसंगत नहीं है। ‘योग दर्शन’ या ‘योग वाशिष्ठ’ या किसी अन्य योग-ग्रंथ में क्या यह लिखा है कि योगी किसी मंदिर या मस्जिद में जाए या न जाए ? जब योग-दर्शन की रचना हुई, तब भारत में हिंदू नाम का कोई प्राणी ही नहीं था और मूर्ति-पूजा नाम की कोई चीज नहीं थी। कोई मंदिर भी नहीं था।
‘हिंदू’ नाम तो आपको हजार-डेढ़ हजार साल पहले विदेशी मुसलमानों ने ही दिया है। आप अपने नामदाता का तिरस्कार क्यों कर रहे हैं ? आप मुख्यमंत्री हैं। आप सबके हैं। आपका प्रेम और सम्मान सबको समान रुप से क्यों नहीं मिलना चाहिए ? मैं न तो मूर्ति-पूजा करता हूं, न ‘नमाज’ पढ़ता हूं और न ही ‘प्रेयर’ करता हूं लेकिन मैं मंदिर में भी जाता हूं, मस्जिद में भी, गिरजे में भी, गुरुद्वारे में भी और साइनेगॉग में भी ! इसीलिए कि इनमें जानेवाले हर व्यक्ति के प्रति मेरा प्रेम है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-मनोज श्रीवास्तव
राधा कृष्ण का रहस्य नहीं हैं, कृष्ण का रस हैं। आखिरकार विष्णु के अवतार कृष्ण ने जिससे प्रेम किया होगा, वह कोई साधारण तरुणी तो न रही होगी। पर राधा की साधारणताओं ने ही उन्हें भारतीय चित्त की अधिकारिणी बनाया है। यह ठीक है कि वे कृष्ण की आत्म-गुप्ति हैं। कृष्ण का ह्रदय वहीं विश्राम करता है । पर उनकी एक लोकभूमिका भी है। कृष्ण की गीता की अनुल्लिखित प्रेरक शक्ति हैं वे। यदि गीता कहती है कि कर्म में ही तेरा अधिकार है, उससे उत्पन्न होने वाले फलों में कदापि नहीं तो राधा वे हैं जो कहतीं हैं कि सिर्फ प्रेम में ही उनका अधिकार है, उसके फलों का उन्होंने त्याग किया हुआ है। ऐसे कि जैसे कभी उन पर उनका अधिकार था ही नहीं। बल्कि प्रेम में भी उनकी एक अकर्तृ उपस्थिति है। यदि गीता सम्बन्धों के पार जाने का कहती है तो राधा सम्बन्धों के पार जा ही चुकी हैं।
कृष्ण उनके क्या हैं? वे उनकी क्या हैं? ये उनके शिरीष, वे उनकी मौलश्री? ये उनके पारिजात, वे उनकी माधवी? ये उनके पारिभद्र, वे उनकी श्रीमंजरी? लेकिन क्या राधा श्रीकृष्ण की पत्नी हैं? या श्रीकृष्ण उनके पति हैं? महाभारत सिखाता है कि सत्य बड़ा है, सम्बन्ध नहीं।राधा और कृष्ण को यह बात कितने शुरू से पता है। इसलिए कि प्रेम ही उनका सत्य है। वह इतना मृदु है कि सम्बन्ध का भार भी नहीं उठा सकता। एक ऐसा प्रेम जो कोई प्रमाणपत्र नहीं प्रस्तुत करता।यदि कुछ पुराणों ने ब्रह्माजी को राधा और कृष्ण का विवाह कराते हुए दिखाया भी तो वह भी इसी बात का सूचक ठहरा कि इस प्रेम में जो भी है वह सृष्टिकर्ता के आदि कवित्व का आदेश है। लोग सम्बन्ध होने पर बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद चाहते हैं। मां बाप, सास-ससुर, चाचा-चाची, मामा-मामी, ताऊ-ताई, दादा-दादी, नाना-नानी का। लेकिन राधा और कृष्ण का प्रेम सामाजिकता में नहीं, निसर्ग में है। इसलिए इनके लिए तो सर्ग के, सृष्टि के रचयिता को ही होना है।
ध्यान दें कि यह गंधर्व विवाह नहीं है। गंधर्व ब्रह्मा के सर्ग के ही अंग हैं। वे देवगायक मात्र हैं। ब्रह्मा बुजुर्ग हैं, पितामह हैं। लेकिन विदेह हैं। उनका एक पर्याय है ‘अशरीरी’। और एक पर्याय है उनका-सात्विक। उनका होना यह बताता है कि राधा कृष्ण के इस प्रेम की कोई मानव समाज वाली सीमा नहीं है और न किसी शरीरी के लिए यह संभव है कि वह उनके प्यार का गवाह बन सके। यह पूरा अग जग उनके प्यार को जानता है। यह ब्रह्मवैवर्त। यह किसी पुराण का ही नाम नहीं है। यह इस ब्रह्मांड को भी कहते हैं। सो उस पुराण के इस प्रसंग का अर्थ यही है कि राधा कृष्ण के प्रेम की सांस्कारिकता यह संपूर्ण निखिल, यह नक्षत्राकाश, यह मरुत्पथ, यह अमरापगा, यह द्यावापृथ्वी,यह शशिचक्र, यह सूर्य, यह चंद्र, यह कांतार, यह वट, यह बेला, यह जूही, यह अद्रि, यह कल्लोलिनी प्रमाणित करते हैं।
राधा और कृष्ण को किसी कचहरी नहीं जाना। कोई दावा नहीं ठोंकना। कोई मुतालबा नहीं मांगना। वहाँ कोई हलफनामा नहीं है। न कोई मुख्त्यारनामा है। वहाँ बस वे दो हैं। और वह दुई भी खत्म हो गई है। वे एक ही हैं। राधा कोई अनंत प्रतीक्षा करती हुई प्रेमिका नहीं हैं। वे आत्मविभोर हैं क्योंकि कृष्ण उनका आत्म हैं। इस आत्म को ही गीता द्योतित करती है।
कृष्ण को अध्यात्म और साहित्य के अलावा इतिहास ने भी किसी हद तक अपनाया, लेकिन राधा इतिहास से जैसे अदृश्य हो गईं। इतिहास वैसे भी सत्ता के लिए लडऩे वालों का होता है। राधा सत्ता नहीं, सत्य के लिए थीं। उनका सत्यार्पण ही उनकी पहचान थी। अध्यात्म की दुनिया में उनकी वह पहचान बनी भी रही लेकिन साहित्य की दुनिया में उनकी पहचान वाली वह अद्वितीयता खत्म हो गई। साधारणीकरण की कवि-कोशिशों ने राधा की साधारणता का इस तरह और इस कदर उपयोग किया कि वे श्रृंगार रस की नायिका के रूप में रूढ़ हो गईं।
राधा ने कृष्ण से प्रेम में जिस स्वतंत्रता का अनुभव किया था, वह अनुभव राधा के माध्यम से और उनके दृष्टांत की प्रेरणा से बहुत सी बोझिल मर्यादाओं, नैतिकताओं और बंधनों से मुक्ति का अहसास कराने के लिए एक स्थाई संदर्भ-बिन्दु हो गया। गृहस्थियों को चलाने के एकतरफा बोझ से लाद दी गई पुरुष-प्रधान समाज की स्त्रियों के लिए राधा के रूप में एक विरेचन-भूमि उपलब्ध हुई। अध्यात्म ने उसे पूज्य समझा, उसे आराध्य माना जिसके प्रेम ने समाज की प्रचलित सरहदों की जंजीरों को अपने भावातिरेक से पिघला दिया। जैसे कृष्ण के जनमते ही कारागृह के द्वार खुल गये, हथकड़ी-बेड़ी टूट गयीं—वह अवतार हुआ ही इसलिए कि वह निष्प्राण मर्यादाओं की जानलेवा जकडऩों से हमें मुक्त करा सके—वैसे ही राधा के प्रेमाधिक्य ने भी स्त्री ह्रदय के द्वारा किये जा रहे निर्वाचन को आदर का स्थान दिलाया।
मर्यादाओं को चुनौती जैसे द्रौपदी देतीं हैं, उनसे पहले राधा देती हैं। बस उनकी शैली में फर्क है। पर राधा के कारण ही कृष्ण द्रौपदी को समझ सके। गीता में भगवान कृष्ण जिस निश्चयात्मिका बुद्धि की बात करते हैं, राधा और भ्रमरगीत की गोपियाँ उसका साक्षात् प्रमाण हैं । अलबत्ता उन्हें निश्चयात्मक ह्रदय का कहा जाना और उपयुक्त होता।भक्तिकाल में राधा की यह हार्दिकता अक्षुण्ण रही। लेकिन जिसने सामाजिक रीतियों का अतिक्रम किया, उसे ही रीतिबद्ध कवियों ने अपनी कवि-परंपरा, कवि-समय और कवि-रूढि़ से बांध दिया। तब राधा एक सब्जेक्ट से ज़्यादा एक आब्जेक्ट हो गयीं। यानी जिस तरह से द्रौपदी का आब्जेक्टिफिकेशन हुआ, उसी तरह से अंतत: राधा का भी हो गया। जैसे द्यूत सभा सामंती थी, वैसे ही रीतिकालीन दरबारों के सामंतों ने राधा के साथ व्यवहार किया। जैसे द्यूत सभा ने द्रौपदी को एक संपत्ति के रूप में दिखाकर उन्हें निर्वैयक्तिकीकृत किया, वैसे ही नायिका भेद आदि में राधा का बारहा इस्तेमाल कर उनका व्यक्तित्व उनसे छीन लिया गया।
राधा इनकी सामंती दुष्प्रवृत्तियों के औचित्यीकरण के लिए नहीं थीं। राधा की प्रतिबद्धता जीवन भर की थी। बल्कि जनम जनम की थी। एक बाँसुरी की ध्वनि-सी जो राधा के मन में लगातार बजती रहती थी। वह ध्वनि थी क्या? वह जीवन का संगीत थी। जीवन जो बहुत सी औपचारिकताओं और पांडित्यों से, बहुत से निर्वचनों और उपाधियों से अधिक और आगे है। उस अनिर्वचनीय, उस अनाम्य, उस अपरिमेय, उस परिभाषातीत, उस वर्णनातीत, उस शब्दातीत, उस सीमातीत को बाँसुरी की तान में जज़्ब करती रहती थीं राधिका। राधा को पूरी दुनिया जिस एक में मिल गई थी, वह एक उन्हें फिर पूरी दुनिया में नहीं मिला। वह विश्वगोप्ता था, लेकिन फिर वह उसी विश्व में राधा के लिए गुप्त हो गया। वह जो अच्युत था, राधा के हाथों से बालू की तरह फिसल गया। कभी उस केशी ने राधा के केश संवारे थे, अब वही केशव कहाँ है जब राधा के केश उनकी प्रतीक्षा में रूखे हो आये हैं? वे चक्रपाणि समय के किस चक्र में उलझाकर चले गये हैं? द्वारिकाधीश की दुनिया के द्वार राधा के लिए नहीं हैं, यह राधा ने कब जान लिया था? वनमाली मथुरा को जाते हुए अपनी ग्राम्य पृष्ठभूमि पर एक पल के लिए भी शंका नहीं लाए, तब राधा ही क्यों ठिठक गयीं? क्या उन्हें ब्रज की मिट्टी से, उसके कुंजों और पुलिनों से, उसके पर्बतों और गलियों से इतना प्यार था कि वे वहीं रह गईं और इसी की कृतज्ञतास्वरूप वहां आज भी ‘राधे राधे’ ही कहा जाता है? कि वे ही हैं जो वृंदावनेश्वरी हैं, होंगे कृष्ण वृंदावनविहारी।
-कुमार विकास
झारखंड की राजधानी रांची से करीब 125 किमी दूर लातेहार जिले के हेरहंज में देशी जुगाड़ से बना बिना पिलर का झूलता पुल लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है। कटांग नदी पर स्थानीय ग्रामीणों की जुगाड़ तकनीक से बना यह पुल आस-पास के कई गाँव को जोड़ता है। इस इलाके में हर साल बारिश के बाद बाढ़ क वजह से दर्जनों गांव का संपर्क अन्य इलाके से टूट जाता था।
दशकों से पुल की आस लिए ग्रामीणों की उम्मीद जब टूटने लगी तो उन्होंने इस समस्या का हल खुद ही निकाल लिया। ग्रामीणों ने उत्तराखंड के ऋषिकेश के झूला पुल की तर्ज पर देशी पुल बनाने का निर्णय लिया। फिर क्या था ग्रामीणों ने चंदा कर पैसा जमा किया और रोजाना श्रमदान कर पुल बनाने में जुट गए। बाँस, तार, रस्सी और बल्ली के सहारे इस पुल को तैयार किया गया।
गाँव वालों ने आपस में चंदा करके यह कार्य शुरू किया
नदी के दोनों किनारों पर बड़े-बड़े पेड़ों पर तार खींचकर उस पर बांस बिछाकर पुल में चलने के रास्ते तैयार किए गये और करीब 25 से 30 दिनों की मेहनत के बाद कटांग का झूला पुल आज लोगों का संकटमोचक बनकर तैयार है।
पुल निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाने वाले प्रेमचंद उरांव ने पुल के निर्माण में दिन-रात मेहनत किया। प्रेमचंद बताते हैं, “हम लोगों ने पुल निर्माण के लिए सरकार, प्रशासन सबका दरवाजा खटखटाया लेकिन दशकों तक कुछ भी नहीं हुआ। इसके बाद ही हम सब ग्रामीणों ने मिलकर श्रमदान से पुल बनाया। झूला पुल के निर्माण होने से हमारे गाँव के बच्चों को हाई स्कूल की पढ़ाई के लिए हेरहंज में भाड़े पर रहने की जरुरत अब नहीं पड़ेगी, अब बच्चे बरसात में भी स्कूल जा सकते हैं। वहीं बरसात के दिनों में हमारे गांव में डाकिया चिट्ठी तक नहीं दे पाता था। पिछले 20 साल से हमलोग इस दुर्दशा को देख रहे थे। अब वो बीते दिन की बात हो गई है।”
कटंगा के एक अन्य ग्रामीण निर्मल उरांव बताते है कि इस पुल के बनने से लोकल बाजार एवं प्रखण्ड कार्यालय हेरहंज सिर्फ 2 किमी दूर है, जबकि पहले दूसरी ओर से करीब 25 किमी दूरी तय कर हेरहंज जाना पड़ता था। यही नहीं करीब 8000 की आबादी वाले कटांग एवं आस-पास के गाँव के लोग अब पैदल एवं साइकिल के जरिए इस झूला पुल से दूसरे तरफ आराम से जा सकते हैं।
निर्मल बताते हैं, “हम लोग जब पुल बनाने के लिए माथापच्ची कर रहे थे तो उसी समय हमारे गाँव के दामाद प्रकाश कुजूर लॉकडाउन के दौरान यहीं फंस गए थे। प्रकाश जी के बिना यह पुल बनाना संभव नहीं था, वह पेशे से सिविल इंजिनीयर हैं और इस पुल के पीछे का पूरा विज्ञान उन्हीं का है। नक्शा के जरिए स्टील के तार एवं बांस के क्लैम्प से जोड़ कर हमलोग पुल का निर्माण कर चुके है जो 100 फीट लंबा एवं करीब 4 फीट चौड़ा है। यह झूला पुल एक बार में करीब 35 लोगों का वजन झेल सकता है।”
पुल बनाते ग्रामीण
झूला पुल के निर्माण में सिर्फ पुरूषों ने ही नहीं महिलाओं ने भी श्रमदान दिया है। गाँव की सरिता कुजूर बताती हैं, “अभी और काम करना है ताकि पुल को और सुरक्षित बनाया जा सके। प्लेटफार्म पर स्टील प्लेट्स एवं दोनों तरफ फेन्सिंग करना है ताकि बैलेंस खराब होने पर कोई नदी में न गिरे। अब तक करीब 50 हजार की राशि हमलोगों ने खर्च की है जल्द ही हम सब मिलकर बचे हुए काम भी पूरा कर लेंगे।”
प्रेमचंद बताते हैं कि बारिश के दिनों में कटांग नदी में डूबने से कई लोगों की मौत हो चुकी है। उन्हें उम्मीद है कि पुल की वजह से लोग अब नहीं। वह बताते हैं, “सालों से हम बरसात से पहले 3 महीने का राशन एक साथ खरीदते थे। इन दिनों में बाजार, प्रखण्ड कार्यालय या कहीं और जाना हमारे लिए बड़ी समस्या थी। बिना पिलर के इस झूला पुल ने हम गांव के लोगों को एक नई उम्मीद दी है औऱ हम ग्रामीणों ने अब सीख लिया है कि कुछ भी मुश्किल नहीं है, कुछ करने का दृढ़ संकल्प अगर कर लिया जाए तो लाख परेशानियां भी बाधक नहीं बनती है।”
हेरहंज के प्रखण्ड विकास पदाधिकारी संजय कुमार यादव इस पहल की तारीफ करते हुए बताते हैं कि ग्रामीणों ने बिना किसी बाहरी मदद के पुल का निर्माण किया जो प्रशंसनीय है। करीब 5000 से ज्यादा लोग जो कटांग के आस-पास के गाँव में रहते है उनको हेरहंज आने में इस पुल की वजह से काफी आसानी हो जाएगी।
ग्रामीणों ने पूरे ताकत झोंक कर इस असंभव कम को संभव कर दिया
सालों से अपने हालात का रोना रो रहे ग्रामीणों ने जब ठान लिया तो महीने भर के श्रमदान से स्टील रोप एवं बांस का बना झूला पुल बना दिया। कटांग एवं आसपास के गांव में खुशी की लहर है, अब बरसात के मौसम में ग्रामीणों को नदी किनारे पेड़ के नीचे रात काटने को मजबूर नहीं होना पड़ेगा।
देशी जुगाड़ तकनीक से अपनी चुनौतियों को अवसर में तब्दील कर अपने बूते झूला पुल का निर्माण करने वाले कटांग गाँव के ग्रामीणों को द बेटर इंडिया का सलाम।(betterindia)
-बाबा मायाराम
प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, नारीवादी आंदोलन की अग्रणी पंक्ति की सिद्धांतकार इलीना सेन नहीं रहीं।
कल उनका निधन हो गया। वे लम्बे समय से कैंसर से पीडि़त थीं। लेकिन अंत समय तक बीमारी से लड़ते हुए भी वे मानसिक रूप से सक्रिय थीं।
इलीना सेन, एक शोधकर्ता, एक लेखक के साथ जमीनी सामाजिक कार्यकर्ता थीं। उन्होंने छत्तीसगढ़ (अब पहले संयुक्त मध्यप्रदेश) के दल्ली राजहरा में लौह खान मजदूरों के संगठन छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा व महिला मुक्ति मोर्चा के साथ काम किया।
वे दल्ली राजहरा में रहकर महिलाओं के संगठन के साथ काम करती थीं। उनके पति डॉ. विनायक सेन दल्ली राजहरा में मजदूरों के अस्पताल में काम करते थे।
मशहूर मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी के मजदूरों के संघर्ष और निर्माण के काम में इलीना सेन और उनका परिवार शामिल रहा। उनका अंत समय तक इस संगठन व दल्ली राजहरा के साथियों से परिवारिक संबंध व स्नेह अंत तक बना रहा।
इलीना सेन ने 90 के दशक में रूपान्तर नाम की संस्था बनाई और साक्षरता, शिक्षा, स्वास्थ्य, जैविक खेती, ग्रामीण विकास जैसे मुद्दों पर बरसों तक काम किया।
इस बीच उन्होंने छत्तीसगढ़ में पलायन की समस्या पर शोधपरक सुखवासिन नाम की किताब लिखी, जिसकी काफी चर्चा हुई। महिला हिंसा पर भी उनकी किताब आई।
रूपान्तर ने छत्तीसगढ़ गाथा नाम से कई छोटी छोटी पुस्तिकाओं का प्रकाशन किया, जिसमें छत्तीसगढ़ की अस्मिता से लेकर संस्कृति, जल, जंगल, जमीन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया।
वे राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर लगातार काम करती रही। आठ मार्च को महिला दिवस और 6 अगस्त को हिरोशिमा दिवस पर हर साल कार्यक्रम आयोजित करती थीं।
उन्होंने अपनी संस्था में महिला कार्यकर्ता को महत्व दिया, उन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया। ग्रामीण महिलाओं के बीच छत्तीसगढ़ी में गुठियाती (बातचीत) करती थीं और ऐसे घुल मिल जाती थीं, जैसे उनकी खुद की बहन हों।
इलीना सेन ने छत्तीसगढ़ 35 साल रहीं। कुछ समय पहले ही वे वर्धा में अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय और बाद में मुंबई में टाटा समाज शोध संस्थान में पढ़ाया।
लेकिन उनका छत्तीसगढ़ से नाता बना रहा। उनकी दोनों बेटियां प्राणहिता और अपराजिता रायपुर के स्कूलों में ही पढ़ी बढ़ीं।
इलीना सेन ने खुद की पगडंडी बनाई। दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से समाज शास्र में पीएचडी और जनसांख्यिकीय अध्ययन और स्रियों के काम तथा भारत में नारी आंदोलन के सिद्धांत व व्यवहार पक्ष पर अनेकों लेख, व्याख्यानों से एक नई धार दी।
बौद्धिक जगत के साथ महिला खान मजदूरों के साथ उनका काम सदैव ही याद किया जाएगा। दल्ली राजहरा व छत्तीसगढ़ की महिलाओं के दिल में उनका हमेशा स्थान रहेगा। उन्हें सादर नमन।
-संतोषी मरकाम
विश्व आदिवासी दिवस: मूल निवासियों की पहचान उनकी अपनी विशेष भाषा और संस्कृति से होती है, लेकिन बीते कुछ समय से ये चलन-सा बनता नज़र आया है कि आदिवासी क्षेत्र के लोग मुख्यधारा की शिक्षा मिलते ही अपनी भाषा, संस्कृति और परंपराओं को हेय दृष्टि से देखने लगते हैं.
गोंडी भारत की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है, जिसे देश के बीचोंबीच बसे ‘गोंडवाना’ क्षेत्र में बोला जाता है.
छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओडिशा से सटे हुए एक व्यापक इलाके में रहने वाले लाखों-करोड़ों लोगों की ये मातृभाषा आज अपनी आख़िरी सांसें गिन रही है.
आज सिर्फ दूर-दराज़ के जंगली क्षेत्रों में बसे गांवों तक ही ये भाषा सिमटकर रह गई है. हालांकि इसे नए सिरे से संजोए रखने का जद्दोजहद भी कुछ हद तक जारी है लेकिन इसके भविष्य पर अभी भी प्रश्नचिह्न लगा हुआ है.
मेरा जन्म बस्तर क्षेत्र में एक गोंड परिवार में हुआ है. मैं जैसे-जैसे बड़ी हुई, मैंने अपने ही घर-परिवार और गांव के अंदर गोंडी भाषा का पतन होते हुए देखा है.
मेरे परिवार में गोंडी भाषा मेरे माता-पिता की पीढ़ी के साथ ही खत्म होने जा रही है क्योंकि मेरे अलावा मेरे भाई-बहनों में किसी को भी अब गोंडी बोलना नहीं आता.
मेरे माता-पिता को गोंडी इसलिए आती थी क्योंकि वे स्कूल नहीं गए थे जहां उन्हें किसी अन्य भाषा में सीखना अनिवार्य कर दिया जाना था.
बचपन में हम, यानी मेरे भाई-बहन सब घर में आपस में थोड़ी-बहुत गोंडी बोल लेते थे. लेकिन जैसे-जैसे हम प्राथमिक से माध्यमिक शालाओं में बढ़ते गए, हम अपनी मातृभाषा गोंडी से दूर होते गए और अब हम में से किसी को भी को उसमें सहजता से बोलना भी नहीं आता.
अपने अनुभव में मैंने यही देखा कि लोगों में शिक्षा का प्रसार शुरू होते ही गोंडी परिवारों में उनकी मातृभाषा का पतन भी शुरू हो जाता है.
ये मेरे अकेले परिवार की बात नहीं, बल्कि एक पूरे इलाके में, जहां मैं पली-बढ़ी हूं, कमोबेश यही स्थिति है. बल्कि कई जगहों में तो हालत और भी खराब है.
खासकर स्कूलों में और कुछ हद तक ‘बाहरी’ समाज में भी गोंडी भाषा को लेकर एक ऐसा माहौल बना दिया गया है कि इसे बोलना गंवार या पिछड़ेपन की निशानी समझा जाने लगा है.
जो गोंडी बोलता है उसे अनपढ़ या गंवार समझा जाता है, जिससे लोग अनजाने में ही अपनी भाषा से दूरी बनाना शुरू कर देते हैं. इतना ही क्यों, कई लोग तो अपनी आदिवासी या गोंडी पहचान को भी छुपाने की कोशिश करते हैं.
बचपन में मेरी पढ़ाई रामकृष्ण मिशन की एक आश्रमशाला में हुई थी. वहां स्कूल के चौखट पर कदम रखते ही अपनी मातृभाषा के प्रति विमुखता के बीज हमारे मन में बोए गए थे.
बाद में ये पता चला कि देश के दूसरे आदिवासी क्षेत्रों में चलने वाली भिन्न-भिन्न आश्रमशालाओं में यही कुछ हो रहा है.
हाल ही में एक प्रेस विज्ञप्ति नजर में आई थी जिसमें ये बताया गया कि ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में आदिवासी-मूलवासी बच्चों के लिए बनी विशालकाय फैक्ट्री स्कूल- कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (किस) में कैसे आदिवासी बच्चों को अपनी जड़ों से दूर किया जा रहा है.
इसकी एक खास बात यह भी है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा मूल निवासी आवासीय-स्कूल है. यहां देशभर के तकरीबन तीस हजार आदिवासी बच्चे पढ़ने के लिए आते हैं.
ये स्कूल आदिवासी बच्चों में उनके इतिहास और समाज के प्रति अनिच्छा या अनादर की भावना भर देता है. उनके रहन-सहन, जीवनशैली, भाषा… इन सबसे उन्हें दूर कर देता है. उनकी तमाम जीवनशैली को पिछड़ेपन का संकेत मानने पर मजबूर कर देती है, ऐसा उस विज्ञप्ति में कहा गया.
इंटरनेशनल यूनियन ऑफ एंथ्रोपालॉजिकल एंड एथ्नोलॉजिकल साइंसेज के नाम कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा लिखे गए उस पत्र में कहा गया है कि आदिवासी बच्चों को अपनी मातृभाषाओं से भी वंचित कर दिया जाता है और उड़िया, अंग्रेजी बोलने और पढ़ने पर जोर दिया जाता है.
यह भी कहा गया था कि वहां अपने आदिवासी तीज-त्योहार मनाना मना है, उन्हें हिंदू पर्व और हिंदू देवी-देवताओं की ही पूजा करनी होगी.
इसे पढ़कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि मैं जिस क्षेत्र से आती हूं, वहां भी कमोबेश यही स्थिति थी और आज भी है. मेरे अनुभव भी लगभग इसी प्रकार के हैं.
रामकृष्ण मिशन आश्रम की जिस स्कूल में मैंने प्राथमिक स्तर तक पढ़ाई की थी, वहां हिंदी बोलने पर हम पर ज्यादा जोर डाला जाता था. वहां एक अघोषित नियम-सा था कि कोई अपनी मातृभाषा में नहीं बोलेगा, चाहे वह आपस में ही क्यों न हो.
हालांकि स्कूल में दाखिला लेने वालों में गोंडी, माड़िया, हल्बी, छत्तीसगढ़ी बोलने वाले बच्चे होते थे लेकिन किसी को अपनी मातृभाषा में बात करने की अनुमति नहीं थी.
बच्चों को आपस में आपनी आदिवासी भाषा में बोलते हुए देखने पर शिक्षक टोका करते थे. वहां हमें सुबह से शाम तक पढ़ाई के अलावा हिंदू धर्म के नियम-कायदे भी सीखने पड़ते थे.
सुबह उठते ही हमें मंदिर जाकर पूजा करनी होती थी. शाम को भी मंदिर में पूजा के साथ हमारी दिनचर्या समाप्त होती थी. खाने से पहले मंत्र पढ़ना होता था. यानी हमारी दिन मंत्र पाठ से शुरू होकर मंत्र पाठ से समाप्त होता था.
ये सब हमारी संस्कृति और रीति-रिवाजों से पूरी तरह अलग था. यानी हमारी पढ़ाई के साथ हमारे हिंदूकरण की प्रक्रिया भी सुनियोजित तरीके से चल रहा था जिसके बारे में, कम से कम उस समय तो हमें कुछ भी मालूम नहीं था.
ये सब मुझे बहुत सालों बाद, जब मेरी राजनीतिक सोच विकसित हुई, समझ में आया.
आदिवासी समाज में कभी किसी को पैर छूने का रिवाज नहीं था. अपने बचपन में, कम से कम हमारे आसपास में तो मैंने ऐसे रिवाज कभी नहीं देखे थे.
अगर हमउम्र हैं, तो हाथ मिलाकर ‘जोहार’ बोलते थे और छोटे हैं तो बड़ों के द्वारा गाल छूकर जोहार बोला जाता था. लेकिन हमें स्कूल में बड़ों को पैर छूना सिखाया गया था.
जब भी मिशन के स्वामी या महाराज दौरे पर आते थे तो हमें घुटने टेककर या साष्टांग दंडवत प्रणाम करना पड़ता था. यानी जो रिवाज या जो संस्कृति हम पर थोपी गई थी उससे हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का कोई लेना-देना नहीं था.
हालांकि उस समय ये सब हमें ‘थोपना’ नहीं लगता था क्योंकि उन रिवाजों और पद्धतियों को ‘श्रेष्ठ’ या ‘उन्नत’ मानने पर पहले ही हमें मानसिक रूप से मजबूर किया जा चुका था.
और अंदर ही अंदर हमें ये लगने लगता था कि हम अपने घरों में जो भाषा या जो संस्कृति-रीति-रिवाज सीख कर आए थे, वो सब ‘पिछड़े’ या ‘बुरे’ थे.
रामकृष्ण मिशन आश्रम बस्तर के नारायणपुर जिला में आदिवासी बच्चों को 12वीं तक निशुल्क पढ़ाई और रहने की सुविधा उपलब्ध कराता है.
खासकर अबूझमाड़ इलाके में, जहां विलुप्तप्राय माड़िया जनजाति निवास करती है, इनके स्कूल ही एक मात्र आसरा है.
अविभाजित मध्य प्रदेश सरकार ने साल 1989 में माड़िया जनजाति को विलुप्तप्राय जनजातियों की सूची में रखकर उस इलाके में बाहरी लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया था. लेकिन छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद सरकार ने 2009 में इस प्रतिबंध को हटा दिया.
माड़िया आदिवासी बच्चों को पहली से 12वीं कक्षा तक यानी बारह साल आश्रम में ही रखकर पढ़ाया जाता है. यानी एक प्रकार से 12 सालों के अंदर उन बच्चों को पूरी तरह से उनके समाज से ही नहीं, बल्कि परिवार से भी काट दिया जाता है.
गर्मी की छुट्टियों या अन्य तीज-त्योहारों में भी उन्हें उनके गांवों में जाने नहीं दिया जाता है या बहुत कम जाने दिया जाता है. कोचिंग, खेलकूद, टूर आदि के नाम पर बच्चों को छुट्टियों में एंगेज करके रखा जाता है.
जब वे वहां से निकलते हैं तो उनके अंदर ‘आदिवासीपन’ बहुत कम रह जाता है. उनके सारे तौर-तरीके बदल चुके होते हैं, यहां तक कि उनको अपने मूल गांवों में रहना भी पंसद नहीं आता.
वहां के खान-पान आदि उनको भिन्न या अनजाना-सा लगने लगता है. उनके अंदर अपने समाज के प्रति हीनदृष्टि पैदा हो चुकी होती है.
अपनी पहचान का कोई भी पहलू, यानी भाषा, रीति-रिवाज, पहनावा, खानपान… कुछ भी उनके लिए गौरव या गर्व करने योग्य नहीं लगता.
ये सब वह जानबूझकर तो नहीं करेगा या ऐसा करने के लिए सीधा-सीधा कोई प्रेरित नहीं करता, लेकिन 12 सालों में उसका दिलोदिमाग अपने आप ऐसा तैयार हो जाता है.
ये मेरा खुद का अनुभव भी है. मैं भी पढ़ाई के बीच में छुट्टियों में जब घर जाती थी, परिवार में चलने वाली परंपरागत रस्में बिना किसी कारण के ही ‘ख़राब’ लगने लगती थीं.
हालांकि उम्र गुजरने के साथ जब मुझे अपने अस्तित्व और पहचान की राजनीतिक समझ मिली, तब जाकर मैं विश्लेषण कर पाई कि ‘पढ़ाई’ ने मुझे क्या से क्या बनाया था.
ऐसे स्कूलों में 10-12 साल पढ़ने के बाद आदिवासी बच्चे क्या बन रहे हैं, ये जानना भी दिलचस्प होगा.
अधिकतर चपरासी, नर्स, टीचर जैसी छोटी-छोटी नौकरियों तक ही पहुंच पाए हैं. बहुत कम संख्या में लेक्चरर, प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियरिंग बन पाए हैं.
पिछले 30-35 सालों से जारी प्रयासों से कोई ऐसा बच्चा तो आज तक नहीं निकला, जिसने वापस जाकर अपने समुदाय की संस्कृति पर शोध किया हो या फिर अपनी पहचान को लेकर समुदाय में सजगता लाने का प्रयास किया हो.
सांस्कृतिक हमला
ब्रिटिशों द्वारा भारत पर कब्जा करने के बाद भारतीय संस्कृति पर हमले के बारे में तो हमने बहुत कुछ पढ़ा-सुना है, लेकिन आदिवासी इलाकों में शिक्षा के नाम पर उनकी संस्कृति पर हमला जो उस समय में शुरू हुआ, वो आज भी बेरोकटोक जारी है.
हालांकि शिक्षा के अभाव ने बेशक आदिवासियों को बेहद नुकसान पहुंचाया, लेकिन सरकारी या विभिन्न धार्मिक संस्थाओं के माध्यम से उनको दी जा रही शिक्षा से भी उनकी संस्कृति को जो नुकसान हो चुका है और आज भी हो रहा है वो कम नहीं है. बल्कि उसकी भरपाई भी मुमकिन नहीं है.
स्कूल में दाखिला लेने के साथ ही आदिवासी बच्चों के नामों का ‘हिंदूकरण’ शुरू होता है. माता-पिता द्वारा आदिवासी परंपराओं के तहत दिए गए नामों को बदलकर या उनके नामों के आगे ‘राम’ को जोड़कर रजिस्टर में दर्ज किया जाता है.
उदाहरण के तौर पर ‘चमरू’ है तो उसे ‘चंद्रेश’ या ‘चंद्रूराम’ कर दिया जाता है. ‘बंडू’ है ‘भावेश’, ‘कोसा’ है तो ‘कन्हैया’ के रूप में बदला जाता है.
ऐसे ही हर नाम के आगे ‘राम’ अनिवार्य रूप से जोड़ दिया जाता है, जैसे कि ‘मानूराम’, ‘चैनूराम’ ‘संतूराम’ आदि. इसका प्रभाव इतना ज्यादा है कि कई युवतियों-युवकों ने तो बड़े होकर अपने नामों को बदल लिया.
सरकारी दस्तावेजों में सिर्फ इंसानों के नाम ही नहीं बदले हैं, बल्कि उनके गांवों, नदियों, पहाड़ों आदि के नामों को बदल दिया जाता है. जैसे नारायणपुर का ही असली आदिवासी नाम है ‘नगुर,’ वहां के ग्रामीण लोग आज भी उसे ‘नगुर’ ही कहते हैं.
नारायणपुर से होकर बहने वाली ‘कुकुर नदी’ का असली नाम है ‘नैयबेरेड़’ (दरअसल लोग बताते हैं कि इस नदी का नाम ‘नायुम’ यानी नाग सांप, ‘बेरेड़’ यानी नदी से बना है लेकिन गोंडी में कुत्ता को ‘नैयु’ कहा जाता है तो इस तरह उसे ‘कुकुर नदी’ कर दिया.) जैसे कोंडागांव का नाम कोडानार था, (कोडा यानी घोड़ा).
स्कूलों में हमें ये भी बताया जाता था कि हमारा आदिवासी समाज जिस संस्कृति को मानता है वह ‘राक्षसी संस्कृति’ है.
हिंदू देवी-देवताओं को आदिवासियों के प्राकृतिक मान्यताओं से श्रेष्ठ होने की सीख दी जाती थी. इसके कारण के तौर पर ये बताया जाता था कि चूंकि आदिवासी मांसाहारी हैं और मांस खाना राक्षसी संस्कृति का हिस्सा है.
आदिवासियों के देवी-देवताओं को भी मुर्गे, बकरी, सुअर, भैंस आदि जंतुओं की बलि दी जाती है, इसलिए वह सब देवता नहीं बल्कि भूत-प्रेत हैं, ऐसा सिखाया जाता था.
बचपन में मेरे मन भी यही बैठ गया था कि हमारी संस्कृति बहुत ही नीच होगी. इसको लेकर हम घर में अपने मां-बाप से भी बहस करने लगते थे. उन्हें समझाने की कोशिश करते थे कि हम जिन परंपराओं को मान रहे हैं वो अच्छी नहीं हैं.
स्कूलों में हुए हमारे ‘ब्रेनवॉश’ का असर इतना ज्यादा था कि मैं और मेरे दोनों भाइयों ने मांस खाना ही छोड़ दिया था. हिंदू देवी-देवताओं को श्रेष्ठ मानकर उनकी पूजा-पाठ करने लगे थे. घर में दीवारों पर हिंदू देवताओं की तस्वीरें टांगने लगे थे.
समय के साथ मैं तो बदल गई, लेकिन मेरे दोनों भाई आज भी नहीं बदले. उसके प्रभाव से निकलने का मौका या माहौल उन्हें आज तक नहीं मिल पाया.
स्कूलों में हमारे देश की विविधता के बारे में बड़ी-बड़ी बातें बताई जाती हैं लेकिन सभी संस्कृतियों का सम्मान करना या सभी को समान दृष्टि से देखना नहीं सिखाया जाता है.
सीधे तौर न सही, लेकिन कदम-कदम पर हमें यही बोध कराया जाता था और आज भी यही होता है कि हिंदू तौर-तरीके ही सभ्य और श्रेष्ठ हैं, बाकी सब तुच्छ या नीच हैं.
मैं यहां हिंदू तौर-तरीकों के बारे में इसलिए कह रही हूं क्योंकि हमारे आसपास में इसी का बोलबाला है. हालांकि देश के दूसरे इलाकों, जैसे झारखंड या पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में ईसाईकरण का क्रम भी लगभग ऐसा ही कुछ होगा.
वैसे हिंदूकरण का माध्यम सिर्फ स्कूल ही नहीं था. मेरे बचपन में हमारे गांव में गायित्री मठ वालों का भी बोलबाला रहा था. इन लोगों ने हमारे गांव में या इलाके में कब और कैसे प्रवेश किया पता नहीं.
हमारे गांव में एक सामूहिक भवन हुआ करता था, जो पहले गोटूल था. वहां हफ्ते में एक दिन रामायण का पाठ होता था. पौराणिक कहानियां सुनाई जाती थीं. मेरी दादी मां हमें लेकर वहां जाती थी.
कुछ समय बाद गणेश चतुर्थी के दौरान गणेश उत्सव बड़े धूमधाम से मनने लगा जोकि पहले कभी नहीं था. दुर्गा पूजा के दौरान नौ दिनों तक उत्सव होने लगा जो पहले कभी नहीं हुआ करता था.
दुर्गा उत्सव प्रचलित होने से पहले हमारे गांव में एक त्योहार मनाया जाता था, जिसे हम ‘जगार’ कहते थे. इस पर्व में खेत से धान के कुछ पौधों को गाजे-बाजे के साथ धूमधाम से सामुदायिक भवन (गोटूल) में लाया जाता था.
वहां नौ दिनों तक रोज शाम को गांव की महिलाएं, युवक, बच्चे जमा होकर नाचते-गाते, खेलते, कहानियां सुनाते थे. नौवें दिन उसे तालाब में धूमधाम से बहा दिया जाता था. दुर्गा मूर्ति की स्थापना के साथ ही ये त्योहार भी अब पुरानी यादों में सिमटकर रह गया है.
दशहरे का त्योहार हमारे गांव में पीढ़ियों से बड़े धूमधाम से मनाने का रिवाज रहा है क्योंकि विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे में हमारे गांव और हमारे परिवार से प्रतिनिधि जाते थे.
हमारे दादा जी को ढोल-नगाड़ों के साथ जगदलपुर दशहरा में प्रतिनिधि के तौर पर विदा करते थे, लेकिन उसमें भी समय के साथ परिवर्तन आया.
अब हमारे आसपास के गांव में रामलीला होने लगी है. गांव में रावण दहन होने लगा जो पहले कभी नहीं था.
आदिवासियों के देवी-देवताओं का स्थान अब लगभग पूरी तरह से हिंदू देवी-देवताओं ने ले ली. अब कई आदिवासी इलाकों में उनके पारंपारिक तीज-त्योहारों की जगह हिंदू तीज-त्योहारों ले चुके हैं.
मेरे दादा जी बताया करते थे कि हमारे गांव में मांस खाने को लेकर काफी विवाद हुआ था. मामला मारपीट तक पहुंच गई थी. जो लोग हिंदू मठों के धार्मिक प्रभाव से मांस खाना छोड़ चुके थे वो लोग बाकी लोगों पर दबाव डालते थे कि कोई मांस न खाए.
बीफ को लेकर कई लड़ाई-झगड़े हुए थे, जिनके किस्से हिंदू पुराणों में दर्ज ब्राह्मणों और राक्षसों की लड़ाइयों की कहानियों से मेल खाते हैं.
बचपन में हमारे गांव में गोटूल हुआ करता था. शाम को युवक-युवतियां जमा होकर नाच-गाने आदि करते थे. लेकिन हिंदू रीति-रिवाजों के फैलाव के साथ ही गोटूल की संस्कृति समाप्त हो गई.
ऊपर से उसको लेकर ढेर सारी गलतफ़हमियां! गोटूल के साथ ही आदिवासी नाच-गाने भी लगभग खत्म हो गए. अब गांवों में मादर, ढोल, चिटकुरी जैसे वाद्ययंत्र और आदिवासी साज-सज्जा की चीजें लगभग विलुप्त हो गईं.
शादी-ब्याह के तौर तरीके बदल गए. अब शादियां भी हिंदू रीति-रिवाजों के साथ हो रही हैं जो खर्चीली भी हो चली हैं.(thewire)
>शादी-ब्याह के तौर तरीके बदल गए. अब शादियां भी हिंदू रीति-रिवाजों के साथ हो रही हैं जो खर्चीली भी हो चली हैं.
-राघव बहल
The Quint के संपादक के मोदी को सुझाव
1991 में, कुवैत पर सद्दाम हुसैन के हमले ने भारत के लिए भयानक तेल संकट पैदा कर दिया था. आज, कोविड-19 की वजह से देश में अभूतपूर्व तौर पर मांग में कमी आई है. हालांकि ये दोनों संकट विषय और बनावट में बहुत अलग लगते हैं, लेकिन नुकसान की गंभीरता के नजरिए से दोनों पूरी तरह से तुलना के लायक हैं.
तब भारत को सरकारी कर्ज का भुगतान ना कर पाने के कलंक से बचने के लिए 67 टन सोना गिरवी रखना पड़ा था. आज, अर्थव्यवस्था दोहरे अंकों में सिकुड़ रही है और राजस्व को लेकर केंद्र सरकार राज्यों से अपनी प्रतिबद्धता पूरी करने में चूक रही है.
उस वक्त, भारत की आर्थिक हैसियत घटकर 'कबाड़' के बराबर हो गई थी, जबकि आज शायद उन्हीं वजहों से हम पर नजर रखी जा रही है.
फिर, उस समय जहां जरूरी आयात के लिए हमारा विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो चुका था. आज, बेरोजगारों की बढ़ती भीड़ के लिए हमारे पास नौकरियां खत्म हो चुकी हैं; कई दशकों की गिरावट के बाद गरीबी फिर बढ़ती जा रही है.
इसलिए, प्रधानमंत्री मोदी और वित्त मंत्री सीतारमण को अगर लीक-से-हटकर किसी विचार की जरूरत है, तो नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की बनी बनाई नीति उनके पास मौजूद है जिससे उन्होंने निराशा की खाई से निकालकर देश में आर्थिक चमत्कार को अंजाम दिया था. 90 के दशक की शुरुआत में मिले तीन ‘सकारात्मक झटकों’ में ऐसी कई सीख छिपी है – जब साहसी, जोखिम भरे, करीब-करीब हताशा में उठाए गए कदमों ने नाटकीय बदलाव को जन्म दे दिया.
दोहरे अवमूल्यन के जवाब में दोहरा ऋण-स्थगन
आम तौर पर संयमित रहने वाले डॉ मनमोहन सिंह को ‘Hop, skip और jump’ करते हुए कल्पना कीजिए – (जल्दबाजी में शुरू किए गए ऑपरेशन को यही नाम दिया गया था). सोमवार, 1 जुलाई 1991 को सरकार के आदेश से रुपये का नौ फीसदी अवमूल्यन कर दिया गया. यह तेजी से घटते विदेशी मुद्रा भंडार पर रोक लगाने के लिए बेसब्री में उठाया गया कदम था. लेकिन पहले से घबराए बाजार में इससे और भगदड़ मच गई. इसलिए, इससे निजात पाने के लिए दो दिन बाद, 3 जुलाई 1991 को सरकार ने रुपये का मूल्य और 11 फीसदी कम कर दिया, इस वादे के साथ कि आगे ऐसा नहीं किया जाएगा. इससे बाजार में शांति आई और बिकवाली पर रोक लगी. आखिरकार, दो साल बाद, भारत ने काबू में रखी करेंसी को ‘नियंत्रित विदेशी मुद्रा विनिमय दर’ के हवाले कर दिया. जैसे ही आर्थिक झटके खत्म हुए, यह एक साहसिक और सुंदर फैसला साबित हुआ.
आज ऋणों में बदलाव का फैसला सैद्धांतिक तौर पर रिजर्व बैंक के पास होने के बावजूद, क्योंकि इस पर आखिरी मुहर एक कमेटी लगाती है, ये सवाल बना है कि - क्या इसे कॉरपोरेट और व्यक्तिगत कर्ज के ‘अयोग्य’ बदलाव की अनुमति देनी चाहिए, या इसे रोके रखना चाहिए? मुझे लगता है कि इसका जवाब राव/सिंह की पहल, यानी कि ‘जुड़वां ऋण-स्थगन’, में मौजूद है:
जहां तक कॉरपोरेट कर्ज की बात है, इसे बिना किसी वैकल्पिक अपवाद के, वास्तविक तौर पर संकटग्रस्त कर्जदारों के लिए, कम से कम एक बार पुनर्गठन की अनुमति दे देनी चाहिए, जबकि आदतन कर्ज का भुगतान ना करने वालों के लिए इसमें कोई राहत की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए.
अनुशासित निजी कर्जदारों के लिए ‘सोना गिरवी रखकर और कर्ज’ देने की योजना के बजाय नए विचार के साथ ‘इक्विटी टॉप-अप’ प्लान लाना चाहिए. मैं आपको विस्तार से बताता हूं. कल्पना कीजिए कि मिस्टर X ने पांच साल पहले एक घर खरीदने के लिए एक करोड़ रुपये उधार लिए. अब घर की कीमत 50 फीसदी बढ़ गई है, लेकिन मिस्टर X इस बीच मूलधन से 30 लाख रुपये बैंक को लौटा चुके हैं. इसलिए, वो अब वो मौजूदा गारंटी के दम पर बिना EMI बढ़ाए 80 लाख रुपये अतिरिक्त कर्ज ले सकते हैं (जिससे कि उनकी कुल बकाया राशि 70 लाख से 1.50 करोड़ रुपये हो जाएगी), लेकिन कर्ज चुकाने की अवधि बढ़ जाएगी. अब इसमें कोई हैरान होने की बात नहीं कि मिस्टर और मिसेज X मिलकर एक नई कार, रेफ्रिजरेटर या कुछ और खरीदते हैं... क्या आप समझ गए?
लाइसेंस से मुक्ति से लेकर ‘मारुति विनिवेश के मॉडल’ तक: साहसिक, मौन सुधार
बिलकुल नरसिम्हा राव के अंदाज में, सबसे प्रबल आर्थिक सुधार सबसे ज्यादा मौन भी था. 24 जुलाई 1991 को (रुपये के नाटकीय अवमूल्यन के सिर्फ 20 दिन बाद), राव ने उद्योग मंत्रालय का पदभार अपने पास होने के बावजूद, छोटे-पद वाले मंत्री पी जे कुरियन को संसद में ‘1991 की नई औद्योगिक नीति’ पेश करने को कहा. वह एक विस्फोटक दस्तावेज था. जिसमें 18 नियंत्रित उद्योगों को छोड़कर, सभी की लाइसेंस की जरूरत को खत्म कर दिया गया था. उद्योगपति नई दिल्ली की इजाजत की चिंता किए बैगर किसी भी क्षेत्र में दाखिल होने और क्षमता बढ़ाने के लिए स्वतंत्र थे. अब तक 40 प्रतिशत तक सीमित विदेशी स्वामित्व को एक और बड़े ‘Hop, skip और jump’ के साथ 51 प्रतिशत की अहम सीमा के ऊपर ले जाया गया था.
एकाधिकार कानून को समाप्त कर दिया गया. सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के शेयरों को बेचने की अनुमति दे दी गई. बदलाव की ये रफ्तार बेदम कर देने वाली थी.
अब प्रधानमंत्री मोदी भी राव के साहस की बराबरी करते हुए ऐसे ही निडर और ‘मौन’ सुधार को अंजाम दे सकते हैं, जैसे कि ‘सार्वजनिक क्षेत्र के विनिवेश का मारुति मॉडल’ जिसमें बैंकों और रणनीतिक भागीदारों समेत प्रत्येक यूनिट में 26 फीसदी हिस्सा बेचने के बाद सरकार ने भारी फायदे के साथ अपना ‘नियंत्रण हटा लिया’.
भारत सरकार मारुति उद्योग लिमिटेड की मुख्य शेयरधारक थी, लेकिन इसका नियंत्रण सुजुकी के हाथ में था, इसके बावजूद कि ये एक unlisted कंपनी थी और इसकी साझेदारी सिर्फ 26 प्रतिशत थी.
1982 और 1992 में सुजुकी को अपना शेयर बढ़ाने की इजाजत दी गई, पहले 26 से 40 फीसदी, और फिर 50 फीसदी तक.
लेकिन भारत सरकार, जिसके पास लगभग बराबर की हिस्सेदारी थी, ने सुजुकी को और अधिक अधिकार दे दिए, बदले में उसे कई कीमती रियायतें हासिल हुई, जिसमें बड़े निर्यात बाजारों तक पहुंच और भारतीय प्लांट में वैश्विक मॉडल का निर्माण शामिल था. नतीजा ये हुआ कि साझा उद्यम का मूल्य कई गुना बढ़ गया.
इसके बाद सरकार ने मास्टरस्ट्रोक खेलते हुए अपने शेयर राइट्स से छुटकारा पाकर 400 करोड़ रुपये कमाए और नियंत्रण खत्म करने के एवज में ऊपर से 1000 करोड़ रुपये का प्रीमियम भी हासिल किया. इसने सुजुकी से 2300 रुपये प्रति शेयर के हिसाब से जनता को ऑफर-ऑफ-सेल भी दिलवाए.
भारत सरकार ने इसके जरिए निवेश पर शानदार कमाई (ROI) की – ये सब इसलिए मुमकिन हुआ क्योंकि स्वामित्व रखते हुए नियंत्रण छोड़ने का फैसला लिया गया, और साझा उद्यम में अपने साथी को मूल्य में जबरदस्त बढ़ोतरी करने का मौका दिया.
अपने अडिग इरादे को साबित करने के लिए, प्रधानमंत्री मोदी को अगले छह महीनों के भीतर एयर इंडिया, बीपीसीएल और कॉनकोर को बेचने की कोशिश करनी चाहिए, इस प्रतिबद्धता के साथ कि अगले पांच साल में हर साल ‘मारुति मॉडल’ की तर्ज पर दो दर्जन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का विनिवेश कर दिया जाएगा, यानी कि पूर्व मारुती जैसी 120 PSU तैयार की जाएंगी. भारत में सुधार की कहानी से दुनिया भर के बोर्डरूम में बिजली कौंध जाएगी, अरबों डॉलर की उगाही होगी और सरकार के पास नए निवेश के लिए अतिरिक्त रकम मौजूद होगी.
निडरता से अमेरिकी डॉलर जुटाकर भारतीय बचतकर्ताओं में ‘कर्ज परंपरा’ शुरू करने की जरूरत
90 के दशक की शुरुआत में, राव और सिंह ने अमेरिकी डॉलर को साधने और देश में इक्विटी की परंपरा शुरू करने के लिए बिलकुल अनदेखे फैसलों को अंजाम दिया. भारत के बंद, दमघोंटू, और घोटालों से भरे शेयर बाजार को विदेशी निवेशकों के लिए खोल दिया. नियंत्रित और नाजुक रुपये को आंशिक रूप से पूंजी खाते में तब्दील किए जाने लायक बनाया गया. गंदे अस्तबल को साफ करने के लिए भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (NSE) जैसे दो नए संस्थानों का उद्घाटन किया गया. जल्द ही, भारत के शानदार digitized शेयर बाजार ने, उस समय शायद दुनिया में सबसे आधुनिक, विदेशियों का दिल जीत लिया. और भारत में शेयर की परंपरा का जन्म हुआ!
अब मोदी और सीतारमण के पास भारत के लिए अत्यावश्यक-लेकिन-हमेशा-से-उपेक्षित कॉरपोरेट बॉन्ड बाजार तैयार करने का बेहतरीन विकल्प मौजूद है. असल में वो डॉलर बॉन्ड के अपने साहसिक विचार को भी दोबारा जिंदा कर सकते हैं – दुर्भाग्य से जिसे जोखिम-से-भागने-वाले उनके नौकरशाहों ने ही खत्म कर दिया – और राव/सिंह की तरह हिम्मत दिखा सकते हैं.
भारत ‘सरकारी डॉलर बॉन्ड’ से शिकागो, लंदन और सिंगापुर बॉन्ड मार्केट से 10 बिलियन डॉलर जुटाता है, वो भी ऐसे समय में जब डॉलर कमजोर हो रहा है और अमेरिका में डॉलर की सरकारी दर 1 फीसदी से नीचे है. इस नकदी का उपयोग एक नई इकाई, यानी इंडियन कॉरपोरेट बॉन्ड AMC के पूंजीकरण में किया जाता है, जो कि NYSE और LSE में सूचीबद्ध है.
इसके साथ ही, एक सीमा से बड़ी भारतीय कंपनियों को निर्देश दिया गया कि वो अपने ऋणपत्र (Debentures) को नेशनल बॉन्ड एक्सचेंज (NBE) पर सूचीबद्ध करें, जो कि NSE का नया मंच है.
मार्जिन, प्रोविजन और लेवरेज से जुड़े पुराने कानूनों की झाड़ी हटा कर आधुनिक तौर तरीकों को मंजूरी दी जाए.
इंडियन कॉरपोरेट बॉन्ड एएमसी, जिसमें सरकार के पास $10 अरब मौजूद है, को बाजार में पूरी सक्रियता दिखाने का अधिकार हासिल है - संक्षेप में, हर वो उपाय कीजिए कि NBE के पैस फंड कमी न हो; AMC को अपनी एसेट बुक का फायदा उठाकर अपनी पूंजी और बढ़ाने की आजादी मिलनी चाहिए.
फिर क्या, भारत में एक मल्टी-बिलियन डॉलर का कॉरपोरेट बॉन्ड एक्सचेंज वजूद में आ जाएगा, जिससे कि बचतकर्ताओं के लिए नई ‘कर्ज परंपरा’ शुरू हो जाएगी, एक निवेश क्रांति का आगाज हो जाएगा.
मुझे इस कयास के साथ इसे खत्म करने दीजिए कि आलोचकों के दिमाग में अभी क्या चल रहा होगा: ‘ये पतंग उड़ा रहा है, मुमकिन ही नहीं है, काफी जोखिम भरा है’. लेकिन बस इतना याद रखिएगा कि 1991 में भी इन लोगों ने यही बातें कही होंगी, लेकिन नरसिम्हा राव अपने इरादे से हिले नहीं थे.(thequint)
ना ही सरकारी योजनाओं का लाभ
- चिंकी सिन्हा
उस कोठे में घुसते ही किसी बंकर-सा अहसास होता है. एक के ऊपर एक लकड़ी के पटरे लगा कर बनाई गई छोटी-छोटी कोठरियां ट्रेन के डिब्बों में बनी बर्थ जैसी लगती हैं. कोठरियों में एग्जॉस्ट पंखे लगे हैं.
पतले गद्दे, बेडशीट के बजाय तिरपाल से सजे हैं. परदे हैं लेकिन बिल्कुल घिसे हुए. ये ढांचे सिर्फ़ तुरत-फुरत सेक्स के लिए खड़े किए गए हैं. इसके सिवा ये किसी काम के नहीं हैं. इन कोठरियों में सिर्फ़ एक सौदा होता है. ऐसा सौदा, जिसमें किसी जज़्बात की कोई गुंजाइश नहीं होती.
मुंबई के कमाठीपुरा के गली नंबर 1 के रमाबाई चाल की ये बंकरनुमा कोठरियां भी देश के दूसरे तमाम वेश्यालयों के कमरों की तरह ही हैं, जहां जगहें बेहद कम होती हैं. लेकिन धंधा तो धंधा ही होता है सो बदस्तूर चलता रहता है.
इन्हें आप सर्विस चैंबर कह सकते हैं. किसी दूसरे वर्कप्लेस की तरह यहां भी काम ही होता है. रोशनी थोड़ी कम हो सकती है लेकिन वर्कप्लेस तो यह है ही.
बरसों पहले निधि (नाम बदल दिया गया है) को उनके परिवारवालों ने घर से निकाल बाहर किया था. सिर्फ़ इसलिए कि वह ट्रांसजेंडर (हिजड़ा) पैदा हुई थीं. खुली गलियों में रेप और हिंसा से गुजरने के बाद उन्हें यहां पनाह मिली. जैसे ही इस कोठे ने उन्हें अपने आगोश में लिया, उन्होंने खुद से कहा- "अब मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा. मैं महफूज़ हूं."
ये काम उन्हें पसंद नहीं था लेकिन मन को समझाना पड़ा. दूसरा कोई चारा नहीं था. यहां मौजूद दूसरी औरतों के पास भी कोई चारा नहीं था. फिर वो तो ट्रांसजेंडर थीं.
कमाठीपुरा में तबाहियों का दौर
पिछली बार जब मैं उनसे मिली तो उनकी पीठ पर सामान लदा हुआ था. उनकी नजरें टैक्सी तलाश रही थीं. उन्हें बिखरोली जाना था. कमाठीपुरा की गली नंबर 1 की कोठरियों को छोड़ कर उन्हें वहीं शिफ्ट होना था. कमाठीपुरा में चल रहे री-डेवलपमेंट प्रोजेक्ट की वजह से बड़ी तादाद में यौनकर्मियों को वहां से विस्थापित होना पड़ा था. महानगर के बीचोंबीच होने की वजह से यह बेशकीमती जगह थी.
उन्होंने मुझसे कहा था- "इस प्रोजेक्ट ने बड़ा परेशान किया है. यौनकर्मियों को अपने कोठे रियल एस्टेट कंपनियों के हाथों बेचने पड़े."
यह इस साल जनवरी की बात है. लेकिन मार्च का लॉकडाउन इन यौनकर्मियों के लिए तबाहियों का दौर लेकर आया. अब उन्हें अपना वजूद बचाना मुश्किल हो रहा है. वे सरकार की किसी स्कीम के दायरे में नहीं आतीं. ज़्यादातर प्रवासी हैं और अपनी पहचान साबित करने के लिए उनके पास कोई दस्तावेज़ी सबूत नहीं है.
कमाई ख़त्म
मई में जब लॉकडाउन का दूसरा फे़ज शुरू हुआ तो ट्रांसजेंडर यौनकर्मियों ने कहा अब उनके लिए ज़िंदा रहना बेहद मुश्किल हो गया है. कमाठीपुरा में काम करने वाले कुछ एनजीओ उन्हें राशन दे रहे थे.
लेकिन सरकार की ओर से कोई पहल नहीं हुई थी. हाल में महाराष्ट्र में एक पत्र वितरित किया गया, जिसमें प्रशासन से अनुरोध किया गया था कि वह यौनकर्मियों की मदद करे क्योंकि उनकी कमाई ख़त्म हो गई है.
यौनकर्मियों के अधिकारों को पहचान दिलाने वाला पत्र
इस पत्र की भाषा ध्यान खींचने वाली है. महिला और बाल विकास विभाग के प्रभारी कमिश्नर हृषिकेश यशोध ने यह पत्र लिखा था. इस पत्र की भाषा यौनकर्मियों के बारे में पुरानी घिसे-पिटे अंदाज़ में की जाने वाली बातचीत की भाषा से अलग थी.
इसने इन यौनकर्मियों के काम को पहचान दिलाने के लिए लड़ने वालों को उम्मीद बंधाई थी. यौनकर्मियों के काम को सर्विस के तौर पर मान्यता दिलाने के लिए आंदोलनरत लोगों को इसने सुकून पहुंचाया था. ऐसा लगता है, शायद सरकार उनके काम को सर्विस मानने के लिए किसी वैश्विक महामारी का इंतज़ार कर रही थी.
23 जुलाई को महिला और बाल विकास विभाग की ओर से भेजे गए पत्र की सबजेक्ट लाइन में लिखा गया है, "यौन कर्म पर निर्भर महिलाओं को कोविड-19 के दौरान आवश्यक सेवाएं मुहैया कराने के बारे में". यह यौनकर्मियों के अधिकारों और उनके आत्मनिर्णय की दिशा में एक निश्चित क़दम है.
पत्र में कहा गया था, "यौन कर्म (वेश्या व्यवसाय) में लगी और इसे छोड़ चुकी महिलाओं की कमाई के विकल्प ख़त्म हो गए हैं. लॉकडाउन की वजह से उन्हें काम भी नहीं मिल रहा है, जिससे उनके और उनके परिवार वालों के सामने भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई है. उनके लिए ज़िंदा रहना मुश्किल होता जा रहा है".
इस पत्र से ज़ाहिर हुआ कि पहली बार भारत में किसी राज्य की सरकार ने यौनकर्मियों (सेक्स वर्कर्स) के 'काम' या सेक्स वर्कर्स के 'वर्क' को मान्यता दी है. वे सेक्स वर्कर्स, जिन्हें हमेशा नैतिकता का बोझ ढोना पड़ता है और जो हमारी बातचीत का हिस्सा तभी बनती हैं जब मामला एचआईवी/एड्स का हो सेक्स ट्रैफिकिंग का.
हाशिये के लोगों के लिए काम करने वाले रजिस्टर्ड नॉन-प्राफ़िट संगठन संपदा ग्रामीण महिला संस्था ( SANGRAM) की संस्थापक मीना सेशु के लिए यह पत्र स्वागतयोग्य है. इस पत्र में पहली बार यौनकर्मी महिलाओं को देह बेचने वाली महिला (मराठी में देह बिक्री) कहने से बचा गया. इसमें उनके पेशे पर फोकस किया गया है.
वेश्या व्यवसाय
सेशु कहती हैं, "पत्र में संस्कृत के शब्द वेश्या का इस्तेमाल किया गया है, जो इन महिलाओं को गरिमा देता है. यौनकर्मी महिलाएं भी इस शब्द का इस्तेमाल करती आई हैं. यह पत्र उनके 'काम' के बारे में बात करता है. इसके सबजेक्ट लाइन में लिखा है- वे महिलाएं जो 'वेश्या व्यवसाय' पर निर्भर हैं. व्यवसाय का हिंदी में मतलब पेशा है. अंग्रेजी में इसे प्रोफे़शन कहते हैं. पत्र के सबजेक्ट लाइन कुछ इस तरह है, "यौन कर्म पर निर्भर महिलाओं को कोविड-19 के दौरान आवश्यक सेवाएं मुहैया कराने के बारे में".
यौनकर्मी चाहती हैं लाइसेंस
सेशु सांगली में रहती हैं, जहां लगभग 250 यौनकर्मी महिलाएं रहती हैं. इससे पहले तक इन यौनकर्मी महिलाओं को सिर्फ़ एचआईवी रोकथाम स्कीमों के तहत ही पहचान मिली थी.
कोरोना के दौरान जारी सरकारी स्कीमों से यौनकर्मी बाहर क्यों?
यौनकर्मी महिलाएं इससे पहले एक और बार इस तरह हालात से गुज़र चुकी हैं. नब्बे के दशक में मुंबई का रेड लाइट इलाक़ा कमाठीपुरा एचआईवी/एड्स महामारी का केंद्र बन गया था. उन दिनों इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च ( ICMR) ने रेड लाइट इलाकों में एड्स नियंत्रण के लिए एक योजना बनाई थी लेकिन जल्दी ही इसकी मौत हो गई.
इस महामारी का असर कम होते-होते बरसों लग गए. और अब कोरोना वायरस ने भी महिला यौनकर्मियों के सामने पहले जैसे ही हालात पैदा कर दिए हैं. निधि कहती हैं, उन्हें और उनकी सहकर्मियों का पता है कि ये काफ़ी मुश्किल भरे दिन साबित होने वाले हैं.
मुश्किल भरे दिन
फ़ोन से बातचीत के दौरान वह कहती हैं. "आप एचआईवी/ एड्स की प्रवृति के बारे में जानते हैं. आपको पता है इससे कैसे लड़ना है. लेकिन कोरोना वायरस को तो किसी भी तरह से
मुंबई में कमाठीपुरा का रेड लाइट एरिया कंटेनमेंट जोन की लिस्ट में नहीं आया है. इस इलाक़े की यौनकर्मियों का कहना है कि अभी तक यहां किसी वेश्यालय से कोविड-19 का कोई केस सामने नहीं आया है.
कोई कोरोना केस नहीं
इसके बावजूद उन्हें हमेशा की तरह इस बार भी बहिष्कृत कर दिया गया है. राज्य की ओर से उन्हें असहाय छोड़ दिया गया है. ग़रीबों के लिए चल रही उसकी तमाम स्कीमों में 'यौनकर्मियों' के लिए कोई जगह नहीं है. कोविड-19 से लड़ने के लिए भारत सरकार ने 11 अधिकार प्राप्त समूह बनाए हैं.
सेशु का कहना है कि अधिकार प्राप्त समूह 6 ने SANGRAM के साथ संपर्क किया और देश में यौनकर्मियों की समस्याओं के बारे में विस्तार से बातचीत की. इसके बाद इस समूह ने मंत्रालय को लिखा, "हमारा अनुरोध है कि मंत्रालय राज्यों में खाद्य वितरण से जुड़े विभागों को पीडीएस के तहत यौनकर्मियों को अनाज देने का निर्देश दें. अगर ये महिलाएं पीडीएस के दायरे में नहीं आतीं तो उन्हें किसी दूसरी कल्याणकारी योजनाओं के तहत अनाज दिया जाए''.
कोई राहत योजना नहीं
सेशु कहती हैं ''इस पत्र के बावजूद अब तक यौनकर्मियों के लिए किसी राहत योजना का ऐलान नहीं किया गया है. उनकी पूरी तरह अनदेखी की गई है''.
हाल में दिल्ली हाई कोर्ट में दायर की गई एक जनहित याचिका में मांग की गई कि केंद्र और दिल्ली सरकार राजधानी में रह रहे यौनकर्मियों और एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय के सदस्यों को वित्तीय मदद के साथ सोशल सिक्योरिटी भी मुहैया कराए.
यौनकर्मी का पेशासर्विस क्यों नहीं?
अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम (Prevention of Immoral Trafficking Act ) के तहत जिन वेश्यालयों में यौनकर्मी रहती हैं और काम करती हैं, वे गैरक़ानूनी हैं. लेकिन शहरों और महानगरों में ये वर्षों से चल रहे हैं. अक्सर लड़कियों को यहां से निकाल कर शेल्टर होम्स में भेज दिया जाता है या फिर पुलिस इन्हें चेतावनी देकर छोड़ देती है.
लेकिन इनमें से कइयों ने यह कहा है वे इस काम को अपनी मर्ज़ी से कर रही हैं. नेशनल सेक्स वर्कर्स एसोसिएशन से जुड़ी आयशा का ही मामला ले लीजिये.
सांगली में रहने वाली आयशा अपनी मर्ज़ी से यह काम करती हैं. ग़रीबी की वजह से पश्चिम बंगाल के अपने गांव में यह काम करने लगी थीं. पति गुज़र गए थे. उनका बच्चा छोटा था. बाद में वह एक दोस्त के साथ सुरक्षित जगह की तलाश में आसनसोल चली आईं. इसके कुछ महीनों के बाद वह सांगली आ गईं. आयशा यहां के कुछ वेश्यालयों में काम करने लगीं. तब से उन्हें यहां काम करते हुए आठ साल हो गए हैं.
मौलिक अधिकार
अब उनके लिए सेक्स एक सर्विस की तरह है. एक लेन-देन की तरह. वैसा ही लेन-देन जैसे स्पा में किया जाने वाला मसाज. वर्षों से यौनकर्मियों की एक छवि गढ़ी जाती रही है. उन्हें मानसिक चोट, प्रताड़ना और शोषण का शिकार बताया जाता है या फिर 'बुरी औरत' को तौर पर पेश किया जाता है. एक कामगार के तौर पर उन्हें जो मौलिक अधिकार मिलने चाहिए, उसकी राह में यह गढ़ी हुई छवि अड़चन बन गई है.
सोनागाछीः रेड लाइट के बाद भी एक ज़िंदगी है...
लेकिन आयशा बहादुर हैं. आयशा और उनकी तरह दूसरी महिलाएं इस तरह के संकट झेलती रही हैं. वे कोरोना जैसे संकट को भी झेल लेंगी. सांगली में जहां वह रहती हैं वहीं अपने ग्राहकों को सर्विस देती हैं. लेकिन आयशा और उनकी सहकर्मियों के काम को कोरोनावायरस ने बुरी तरह प्रभावित किया है.
आयशा कहती हैं, "हमारे ज़्यादातर ग्राहक प्रवासी कामगार हैं. वे कर्नाटक जैसे राज्यों के रहने वाले हैं. हमें एक दिन में एक-दो ग्राहक ही मिलते हैं. और हम सेक्स के दौरान सावधानी भी बरतते हैं. लेकिन यह पर्याप्त नहीं है."
जब लॉकडाउन लगा तो आयशा को यह समझ नहीं आया कि आगे क्या होगा. उन्होंने कोरोना वायरस संक्रमण के बारे में सुन रखा था. आयशा और उनकी साथी यौनकर्मी सावधानी भी बरत रही थीं.
आयशा कहती हैं, "हालात ने हमें सदमे में डाल दिया था. लेकिन हमने एक दूसरे की मदद की. हमने तय किया था कि हम भूख से नहीं मरेंगे. हमने मदद की गुहार लगाई".
वह कहती हैं, "लेकिन अब ब्यूटी पार्लर और स्पा खुल गए हैं. लोगों ने काम करना शुरू कर दिया है. हम कोविड-19 से मुक़ाबले के लिए तैयार हैं. इससे भी हम वैसे ही लड़ेंगे जैसे कोविड/एचआईवी के ख़िलाफ़ लड़े थे."
यौनकर्मियों की उम्मीद
इस बीच, महिला और बाल विकास कमिश्नर यशोध की ओर से महाराष्ट्र के सारे कलेक्टरों को पत्र भेजने के बाद आयेशा के संगठन ने दूसरे राज्यों के अधिकारियों से संपर्क करना शुरू कर दिया है. संगठन को उम्मीद है कि वहां भी यौनकर्मियों की मदद के लिए निर्देश जारी किए जाएंगे.
आयशा कहती हैं, "हम चाहते हैं कि हमें सर्विस प्रोवाइडर की मान्यता मिले".
पूरी दुनिया में यौनकर्मियों से जुड़े क़ानून स्पष्ट नहीं हैं. सरकार ने प्रवासी कामगारों और रेहड़ी-पटरी पर सामान बेचने वालों के लिए राहत योजनाओं का ऐलान किया है लेकिन यौनकर्मियों के लिए कोई पैकेज नहीं दिया गया है.
यौनकर्मी भी प्रवासी कामगार की तरह ही हैं लेकिन ज़रूरी सेवाओं और सूचनाओं तक उनकी पहुंच के रास्ते में कई अड़चनें हैं. उनकी राह में सामाजिक, सांस्कृतिक, क़ानूनी और भाषाई दिक्कतें रोड़ा बन जाती हैं.
भारत में यौन कर्म गैर क़ानूनी नहीं
भारत में यौन कर्म गैर क़ानूनी नहीं हैं. लेकिन वेश्यालय चलाना, सेक्स के लिए खुलेआम लुभाना या यौनकर्म से पैसा कमाने वाली महिला की आय पर अपनी जीविका के लिए निर्भर रहना गैरक़ानूनी है.
हाशिये के समुदायों के लिए काम करने वाली वकील आरती पई कहती हैं कि यौनकर्मियों के लिए महिला और बाल विकास कमिश्नर की ओर से लिखी गई चिट्ठी एडवाइजरी ही है लेकिन यह लीक से हट कर है. यह दो कैटेगरी में साफ़ अंतर करती है- एक कैटेगरी उन यौनकर्मियों की है, जिनके इस पेशे में इस्तेमाल किया जा रहा है. दूसरी कैटेगरी उन यौनकर्मियों की है जो अपनी मर्ज़ी में इस पेशे में आए हैं.
वह कहती हैं, "इस तरह की पहलक़दमियों से थोड़ा बदलाव तो आता ही है. यह बेहद अहम है क्योंकि यह पहल सरकार की ओर से हुई है. इसका मतलब यह है कि सामाजिक अधिकारों से जुड़ी सरकारी योजनाओं में यौनकर्मियों लिए निश्चित तौर पर जगह तय है."
परिवार का सहारा
इन यौनकर्मियों में ज़्यादातर महिलाएं अपने घर की मुखिया हैं और परिवार के लोग उनकी ही कमाई पर आश्रित हैं. कई यौनकर्मी महिलाएं कमाठीपुरा में कमरों का किराया देने में असमर्थ हैं. वहां एक बेड का किराया 250 रुपये है. अब वे यह जगह छोड़ने को विवश हैं.
कमाठीपुरा में इस वक्त साढ़े तीन हज़ार यौनकर्मी हैं. पूरे मुंबई के अलग-अलग हिस्सों में हज़ारों यौनकर्मी रहते हैं. इन यौनकर्मियों को राशन के साथ दवाइयों की भी ज़रूरत है. नाको (NACO) के निर्देश में कहा गया है कि नोडल एजेंसियों को उन तक दवाइयां और एंटी-रेट्रोवायरल (ART) दवाइयां पहुंचानी होगी.
कोरोना वायरस फैलने से पहले ही कमाठीपुरा छोड़ कर दूसरी जगह बस चुकी महिलाओं को ग्राहकों का इंतज़ार करते देखा गया था. वे अपने ग्राहकों को सर्विस देने के लिए यहां 50 रुपये या इससे ज़्यादा पर किराये पर कमरे लेती हैं. ग्राहकों को सर्विस देने के बाद आख़िरी लोकल से वे महानगर के दूसरे इलाक़ों में अपने घरों को लौट जाती हैं.
पिछले कई सालों से यहां से यौनकर्मियों का जाना जारी है. ट्रांसजेंडर (हिजड़े यौनकर्मी) यहां से जाने वाले शायद आख़िरी पेशेवर होंगे. लेकिन फ़िलहाल वे यहां लकड़ी से बनी ट्रेन के बर्थ जैसी कोठरियों में टिके हुए हैं.
लंबी राह
उनकी राह काफ़ी लंबी है. महिला और बाल विकास कमिश्नर ने कलेक्टरों को जो चिट्ठी लिखी है वह उनके अधिकारों की दिशा में एक क़दम भर है.लेकिन वे इस लड़ाई में टिके हुए हैं. जंग ने उन्हें मज़बूत कर दिया है.
निधि कहती हैं, "हमें किसी से डर नहीं लगता है. हम अपना परिवार चलाने के लिए यह काम करते हैं. अपना वजूद बचाए रखने के लिए हम यह काम कर रहे हैं. इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है."
"मैं याद करती हूं कि किस तरह वह अपने धर्म की पाबंद हैं. मैंने अक्सर उन्हें शुक्रवार की नमाज़ के लिए मस्जिद जाते देखा है. उनके छोटे देवी-देवता हैं. "
शबनम (बदला हुआ नाम) शाम को अपना काम शुरू करने से पहले अगरबत्ती जलाती हैं. वैसे ही जैसे कोई दुकानदार शाम को अपनी दुकान पर अगरबत्ती जलाता है.
इस काम की नैतिकता-अनैतिकता, इसके कलंक और ग़रीबी की बात छोड़ दीजिए. इसमें लगी महिलाओं का दावा है कि यह ईमानदारी का पेशा है. उन्होंने कभी अपना शरीर नहीं बेचा. सिर्फ़ उन ग्राहकों को अपनी सर्विस दी, जिन्होंने इसकी कीमत चुकाई.
वे इस काम में अपनी मर्ज़ी से हैं. निधि कहती हैं, "हम भी आपकी तरह एक कामगार हैं(bbc)
गिरीश मालवीय
जनवरी की एक सर्द सुबह थी, अमेरिका के वाशिंगटन डीसी का मेट्रो स्टेशन। एक आदमी वहां करीब घंटा भर तक वायलिन बजाता रहा। इस दौरान लगभग दो हजार लोग वहां से गुजरे, अधिकतर लोग अपने काम से जा रहे थे। उस व्यक्ति ने वायलिन बजाना शुरू किया। उसके तीन मिनट बाद एक अधेड़ आदमी का ध्यान उसकी तरफ गया। उसकी चाल धीमी हुई वह कुछ पल उसके पास रूका और फिर जल्दी से निकल गया।
4 मिनट बाद : वायलिन वादक को पहला सिक्का मिला। एक महिला ने उसकी टोपी में सिक्का और बिना रूके चलती बनी। छह मिनट बाद एक युवक दीवार के सहारे टिककर उसे सुनता रहा, फिर उसने घड़ी पर नजर डाली और चलता बना। 10 मिनट बाद : एक 3 वर्षीय बालक वहां रूक गया, पर जल्दी में दिख रही उसकी माँ उसे खींचते हुए वहां से ले गई। माँ के साथ लगभग घिसटते हुए चल रहा बच्चा मुड़-मुडक़र वायलिन वादक को देख रहा था। ऐसा ही कई बच्चों ने किया और हर बच्चे के अभिभावक उसे घसीटते हुए ही ले गए।
45 मिनट बाद : वह लगातार बजा रहा था, अब तक केवल छ: लोग ही रूके थे और उन्होंने भी कुछ देर ही उसे सुना। लगभग 20 लोगों ने सिक्का उछाला पर रुके बगैर अपनी सामान्य चाल में चलते रहे। उस आदमी को कुल मिलकर 32 डॉलर मिले। 1 घंटे बाद : उसने अपना वादन बंद किया। फिर से शांति छा गई। इस बदलाव पर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया। किसी ने वादक की तारीफ नहीं की।
किसी भी व्यक्ति ने उसे नहीं पहचाना। वह था- विश्व के महान वायलिन वादकों में से एक जोशुआबेल, जोशुआ 16 करोड़ रुपए की अपनी वायलिन से इतिहास की सबसे कठिन धुन बजा रहे थे। महज दो दिन पहले ही उन्होंने बोस्टन शहर में मंचीय प्रस्तुति दी थी, जहां प्रवेश टिकिटों का औसत मूल्य 100 डॉलर (लगभग 6500 ) रुपए था ।
यह बिल्कुल सच्ची घटना है!
जोशुआ बेल प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘वाशिंगटन पोस्ट ’ द्वारा ग्रहणबोध और समझ को लेकर किये गए एक सामाजिक प्रयोग का हिस्सा बने थे। इस प्रयोग का उद्देश्य यह पता लगाना था कि किसी सार्वजनिक जगह पर किसी अटपटे समय में हम खास चीजों और बातों पर कितना ध्यान देते हैं? क्या हम सुन्दरता या अच्छाई की सराहना करते हैं? क्या हम आम अवसरों पर प्रतिभा की पहचान कर पाते हैं ?
इसका एक सामान्य अर्थ यह निकलता है- जब दुनिया का एक श्रेष्ठ वादक एक बेहतरीन साज़ से इतिहास की सबसे कठिन धुनों में से एक बजा रहा था, तब अगर हमारे पास इतना समय नहीं था कि कुछ पल रुककर उसे सुन सकें, तो सोचिए, हम कितनी सारी अन्य बातों से वंचित हो गये हैं, लगातार वंचित हो रहे हैं? इसका जिम्मेदार कौन है?अब आप कुछ पल बैठिए और सोचिए आपने जिंदगी की इतनी तेजी से भागदौड़ में कितनी खूबसूरत चीजें मिस कर दीं।’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीलंका में हुए संसदीय चुनाव में वहां भाई-भाई राज कायम कर दिया है। अब उस पर मोहर लगा दी है। बड़े भाई महिंद राजपक्ष तो होंगे प्रधानमंत्री और छोटे भाई गोटाबया राजपक्ष होंगे राष्ट्रपति ! इनकी पार्टी का नाम है- ‘श्रीलंका पोदुजन पेरामून’। यह नई पार्टी है। जिन दो बड़ी पार्टियों के नाम हम दशकों से सुनते आ रहे थे—श्रीलंका फ्रीडम पार्टी और युनाइटेड नेशनल पार्टी वे लगभग शून्य हो गई हैं। इन पार्टियों के नेताओं श्रीमावो भंडारनायक, चंद्रिका कुमारतुंग, जयवर्द्धन, प्रेमदास आदि से मैं कई बार मिलता रहा हूं, उनके साथ यात्राएं और प्रीति-भोज भी होते रहे हैं। इनमें से ज्यादातर दिवंगत हो गए हैं, जो बचे हैं, उन्हें श्रीलंका के लोगों ने घर बिठा दिया है।
पिछली सरकार में राष्ट्रपति थे मैत्रीपाल श्रीसेन और प्रधानमंत्री थे- रनिल विक्रमसिंघ। इन दोनों ने गठबंधन करके सरकार बनाई थी लेकिन दोनों की आपसी खींचातानी और भ्रष्टाचार ने इन्हें सत्ता से हाथ धोने के लिए मजबूर कर दिया। दो साल पहले श्रीलंका के एक गिरजाघर पर हुए आतंकवादी हमले में 250 से ज्यादा लोग मारे गए थे। उस घटना ने इस सरकार की गुप्तचर व्यवस्था और लापरवाही की पोल खोल कर रख दी थी। इसीलिए इस संसदीय चुनाव में राजपक्ष की पार्टी को 60 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले और 225 सदस्यों की संसद में 145 सीटें मिलीं। पांच सीटों वाली कुछ पार्टियों को मिलाकर 150 सीटों का दो-तिहाई बहुमत बन जाएगा। इस प्रचंड बहुमत का लाभ उठाकर दोनों भाई चाहते हैं, जैसा कि तीसरे भाई बसील राजपक्ष ने कहा है कि उनकी पार्टी अब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और भारत की भारतीय जनता पार्टी की तरह श्रीलंका में एकछत्र शासन करेगी। इस प्रचंड बहुमत का इस्तेमाल श्रीलंका के संविधान में हुए संशोधनों को पलटने के लिए भी किया जाएगा। 19 वें संशोधन द्वारा राष्ट्रपति की अवधि और शक्तियों में जो कटौतियां की गई थीं, उनकी वापसी की जाएगी। 13 वां संशोधन भारत-श्रीलंका समझौते के बाद किया गया था। उसमें श्रीलंका के तमिलों को संघवादी छूटें दी गई थीं। उन्हें भी ठीक किया जाएगा। यों भी इस चुनाव में तमिल स्वायत्ता के लिए लडऩेवाले ‘तमिल नेशनल एलायंस’ की सीटें 16 से घटकर 10 रह गई हैं।
दूसरे शब्दों में श्रीलंका के तमिलों का जीना अब मुहाल हो सकता है। भारत के साथ श्रीलंका के संबंधों में अब तनाव बढऩे की पूरी आशंका है। राजपक्ष बंधुओं का चीन-प्रेम पहले ही काफी उजागर हो चुका है। डर यही है कि श्रीलंका का यह भाई-भाई राज कहीं वहां के लोकतंत्र के लिए खतरा न बन जाए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. परिवेश मिश्रा
भोपाल के बड़े तालाब के किनारे की पहाड़ी का नाम है शामला हिल। यहां एक पुराना बंगला है। नवाब साहब के जमाने में इसमें एक अंग्रेज अधिकारी रहते थे सो बंगला कुक साहब के बंगले के नाम से जाना गया। 1956 के अंत में मध्यप्रदेश की राजधानी नागपुर से उठकर भोपाल पंहुची और इस बंगले का पता बना - 6 शामला हिल। यहाँ रहते थे मंत्री (सारंगढ़ के) राजा नरेशचन्द्र सिंहजी।
5 सितम्बर 1967 के दिन राजा साहब ने अपने परिवार और नौकर चाकरों के साथ इस आवास के साथ साथ भोपाल छोड़ दिया। दो दिन पहले नये नियुक्त मुख्यमंत्री गोविन्द नारायण सिंह राजा साहब से सौजन्य भेंट करने आए थे। ये राजा साहब की वरिष्ठता का सम्मान था। वे 1949 के अंत में विधानसभा में मनोनीत हुए और 1952 के पहले आमचुनाव से लगातार विधायक चुने गये थे। 1950 से वे लगातार मंत्रिमंडल के सदस्य रहे थे।
राजा साहब ने अपनी यात्रा कार्यक्रम की जानकारी दी और बंगले की प्रशंसा करते हुए गोविन्द नारायण सिंहजी को यहीं अपना आवास बनाने की सलाह दी। उन्होंने सलाह मानी और सितम्बर 1967 के बाद से यह बंगला मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के आवास के रूप में जाना जाता है।
राजा साहब को सरकारी गाड़ी ने स्टेशन पंहुचाया। किसी सरकारी गाड़ी में यह उनकी अंतिम यात्रा थी। एक महिने पहले तक वे कांग्रेस मंत्रीमंडल के सदस्य थे। द्वारका प्रसाद मिश्र मुख्यमंत्री थे। जुलाई के अंत में गोविन्द नारायण सिंह के साथ कांग्रेस के 32 विधायकों ने पार्टी छोड़ दी और जनसंघ तथा अन्य के साथ मिलकर सरकार बना ली थी। लेकिन यह कथा कभी और।
राजा साहब अब मात्र विधायक रह गये थे। 15 दिनों के बाद विधानसभा की कार्यवाही में हिस्सा लेने के लिए भोपाल वापस आना पड़ा। रहने के लिए सर्किट हाउस में आरक्षण हो गया था। समस्या थी वाहन की।
नरेशचन्द्र सिंहजी ने एक राजा के रूप में हस्ताक्षर कर जब अपने राज्य का विलय भारतीय गणराज्य में किया तब उनके पास सारंगढ़ में रहने के लिए विरासत में मिला एक महल था और जीवन यापन के लिये कृषि भूमि। ट्रक और बस (तब बसों को लॉरी कहा जाता था) से लेकर रोल्स रॉयस कार तक सभी प्रकार के चालीस वाहन थे।
लेकिन इस निस्पृह, अनासक्त, तपस्वी राजा को धन-सम्पत्ति संग्रहण से कभी मोह नहीं हुआ। विलय के बाद सारंगढ़ के एक पुराने व्यवसायी ने रायपुर बसने का निर्णय लिया। जाते समय राजा साहब के सामने अंतिम इच्छा के रूप में एक मांग व्यक्त की। राजा साहब ने इच्छा पूरी कर दी। सारे चालीस वाहनों के साथ वर्कशाप के सारे सामान दान के रूप में रायपुर पंहुच गये। उस दिन के बाद से आजीवन राजा साहब के पास कभी किसी प्रकार का निजी वाहन नहीं रहा। न ही उनकी बेटियों के पास। (इनमें से एक बेटी पंद्रह वर्ष मध्यप्रदेश में मंत्री रहीं। दो अन्य बेटियां क्रमश: पांच और पंद्रह वर्षों तक लोकसभा की सदस्य रहीं।)
स्वयं की आवश्यकताएं सीमित थीं। जितने भी दिन मंत्री के रूप में नागपुर और भोपाल में रहे, अनाज सारंगढ़ से जाता रहा। मंत्री के रूप में उन्होंने राज्य में बहुत दौरे किये। किन्तु इसे अपनी ड्यूटी का हिस्सा मानते हुए सरकार से कभी यात्रा भत्ता नहीं लिया।
राजा साहब को वाहन की कमी कभी महसूस नहीं हुई। मंत्री के रूप में शासकीय वाहन उपलब्ध था। बच्चे हॉस्टल में थे। काम चल जाता था।
यह स्थिति अब बदल गई थी। भोपाल में पहली बार कार नहीं थी। स्टाफ के लोगों को जानकारी थी कि शामला हिल के पुराने आवास के पास सरदार हुसैन रहते थे और यह कि वे टैक्सी चलाते हैं। बस, फिर क्या था। सरदार हुसैन को टैक्सी ले कर स्टेशन बुला लिया गया।
उस दिन के बाद जब भी राजा साहब भोपाल में होते, रोज सुबह से शाम तक सरदार हुसैन अपनी टैक्सी ले कर हाजिर हो जाते। उन्हें भाड़े के रूप में अस्सी रुपये दिए जाते। बीस रुपये अलग से पेट्रोल के लिए।
देखते देखते 13 मार्च 1969 का दिन आ गया (कैसे आया यह अलग कहानी की विषय वस्तु है)। राजा नरेशचन्द्र सिंहजी को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए राज्यपाल का निमंत्रण मिला। कार्यक्रम के बारे में जानकारी ले और दे रहे ए.डी.सी. की स्थिति बड़ी विकट हो गयी जब उन्हें बताया गया कि राजा साहब टैक्सी में पंहुचेंगे। राज भवन के अपने नियम कानून थे। उनके अनुसार राज भवन के अन्दर किसी टैक्सी का प्रवेश प्रतिबंधित था। उसने आग्रह किया कि राजा साहब किसी और के वाहन में आ जाएं। राजा साहब का तर्क था कि जब मेरे पास कोई वाहन नहीं था, यह टैक्सी सदैव मेरे साथ रही। आज मैं कैसे इसे छोड़ दूँ।
बात अंतत: राज्यपाल के.सी. रेड्डी तक पंहुची। उनसे विशेष अनुमति मिलने के बाद राजभवन के कर्मचारियों को चैन मिला। राजा साहब पंहुचे और उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप मे अपने पद और गोपनीयता की शपथ ली।
और इस तरह अविभाजित मध्यप्रदेश के इतिहास में राजा नरेशचन्द्र सिंह जी मुख्यमंत्री की शपथ लेने वाले प्रथम आदिवासी नेता के रूप में दर्ज हुए।
नोट : स्व. राजा नरेशचन्द्र सिंहजी मेरी पत्नी डॉ. मेनका देवी जी के पिता थे।
-भूपेश बघेल, मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़
‘वैश्विक परिदृश्य और गांधी जी’ इस विषय की प्रासंगिकता तब और बढ़ जाती है जब हम विश्व शांति पर चर्चा करें और संदर्भ गांधी जी हों। क्योंकि गांधीजी की प्रासंगिकता वैश्विक है। उसे किसी एक देश तक सीमित नहीं किया जा सकता, क्योंकि गांधीजी दुःखी और पीड़ित मानवता का उद्धार चाहते थे और मानवता को सीमाओं में बांधा नहीं जा सकता।
मानवता एक वैश्विक संकल्पना है। यह राष्ट्र की सीमाओं से परे जाकर पूरी दुनिया को एकता के सूत्र में बांधती है, इसलिए जब आज हम गांधीजी की प्रासंगिकता पर बात कर रहे हैं तो इसका अर्थ है कि गांधीजी पूरी दुनिया के लिए एक बराबर प्रासंगिक हैं। उनका उद्देश्य सिर्फ भारत की स्वाधीनता तक सीमित नहीं था, बल्कि इसके कहीं आगे गांधी सम्पूर्ण मानवता की भलाई के उद्देश्य से संचालित थे।
सभ्यता की अच्छाइयां समय से परे होती हैं। समाज के उच्च आदर्श किसी काल से बंधे नहीं होते हैं।अगर कोई परंपरा के सद्गुणों को, उसके उदात्त मूल्यों को, सत्य के आदर्श को लेकर आगे बढ़ता है तो वो कालजयी हो जाता है। गांधी इन अर्थों में किसी समय से भी परे हैं, इसलिए उनकी प्रासंगिकता समय से परे है। गांधीजी के पौत्र राजमोहन गांधी जी एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कहते हैं। वो पूछते हैं कि आपने दूसरे किसी देश में कोई ऐसा व्यक्ति देखा है, जो 70 साल पहले मार दिया गया हो लेकिन आम बातचीत में याद किया जाता हो?
गांधी जी को याद करते हुए आज हम असहयोग आंदोलन को भी याद कर रहे हैं । इस आंदोलन को सौ बरस हो रहे हैं और यह एक ऐसा आन्दोलन था, जिसने हिंदुस्तान के आवाम के दिलों में मुक्ति की आकांक्षा की मशाल जलायी। यह अहिंसा की मशाल थी और आज भी दुनिया के सामने यह एक मिसाल है।
यूं ही नहीं महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने बापू के लिए कहा था कि आने वाली पीढ़ियों को यकीन नहीं होगा कि ऐसा भी कोई व्यक्ति इस धरती पर आया था। वास्तव में गांधी ऐसे व्यक्तित्व हैं जो भारत में सुदूर गांवों से लेकर दिल्ली तक और दुनिया के तमाम समाजों में एक-समान रूप से चर्चित रहते हैं। भले ही कोई उनकी आलोचना करे, लेकिन यह तभी होता है जब कोई व्यक्ति इतना प्रासंगिक हो।
आज जब पूरी दुनिया कोरोना जैसी महामारी कि चपेट में है, जब दुनिया के अनेक देश युद्ध के उन्माद में डूबे हैं, जब गरीबी, बेरोजगारी, भयानक मुनाफाखोरी से लेकर समाजों में हिंसा की प्रवृत्ति तक तमाम अमानवीय चुनौतियां पूरी दुनिया के सामने अपने सबसे विकराल रूप में मौजूद हों, तब यही सवाल उठता है कि गांधी होते तो क्या सोचते, क्या कहते, क्या करते?
शायद गांधी इलाज में असमानता के सवाल उठा रहे होते, शायद गांधी दुनिया के किसी कोने में परमाणु हथियारों के खिलाफ अनशन कर रहे होते, शायद गांधी हांगकांग में होते या अमेरिका में होते, शायद गांधी संयुक्त राष्ट्र की किसी विशेष सभा को संबोधित करते हुए दुनिया को अहिंसा और शांति का पाठ पढ़ा रहे होते, या शायद गांधी दुनिया को धर्म के नाम पर झगड़ों से मुक्ति का रास्ता बता रहे होते, या शायद गांधी हिंदुस्तान में मॉब लिंचिंग की घटनाओं से आहत हो कर उपवास पर होते!
हमारे यहां गांधीजी की हत्यारी सोच आज तक उनके पुतले बनाकर उन पर गोली चलाती है। आए दिन गांधीजी की प्रतिमाओं को तोड़कर लोग उनके विरुद्ध अपनी घृणा का इजहार करते हैं। लेकिन हमें आश्चर्य तब होता है जब सुदूर घाना में गांधीजी की प्रतिमा तोड़ी जाती है या अमेरिका जैसे समाज में कुछ मुट्ठी भर लोग गांधीजी का विरोध करते हैं। इसकी वजह यह है कि गांधीजी ने अहिंसक आंदोलन के जिन तौर-तरीकों का अविष्कार किया उसका प्रभाव बहुत व्यापक है।
अफ्रीका में नेल्सन मंडेला स्वयं को गांधीजी का शिष्य मानते थे, तो वहीं अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग जूनियर स्वयं गांधीजी की परंपरा के वारिस थे। दोनों ही नेताओं ने अपने समाजों को गहराई से प्रभावित किया। गांधी विश्व शांति का सपना देखते थे। वो एक अहिंसक समाज की रचना करना चाहते थे। एक हिंसामुक्त समाज का निर्माण गांधीजी का उद्देश्य था, इसलिए गांधीजी युद्धों और परमाणु बमों के विरुद्ध थे।
आज जब हमारे चारों ओर पहले से कहीं ज्यादा परमाणु बम, घातक मिसाइलें और राष्ट्रों के बीच आपसी घृणा मौजूद है, तब गांधीजी पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं, क्योंकि आग को पानी से ही बुझाया जा सकता है। जब आपके चारों तरफ ज्यादा आग लगी हो तो ज्यादा पानी की जरूरत होगी। आज जब विश्व शांति पर ज्यादा खतरा मंडरा रहा है, तब हमें गांधी के रास्ते की पहले से अधिक जरूरत है।
एक बार एक अमेरिकी पत्रकार ने गांधीजी से पूछा था कि आप अहिंसक तरीके से परमाणु बम का सामना कैसे करेंगे? गांधीजी का जवाब था- मैं छुपूंगा नहीं। मैं किसी शेल्टर का सहारा नहीं लूंगा। मैं बाहर खुले में निकल आऊंगा और पायलट को देखने दूंगा कि मेरे मन में उसके प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। मैं जानता हूं कि इतनी दूरी से वो हमारे चेहरे नहीं देख पाएगा, लेकिन हमारे दिलों की लालसा कि वो हमें नुकसान पहुंचाने नहीं आया है, उस तक पहुंचेगी और उसकी आंखें खुल जाएंगी।
हमें लगता है कि उस समय की तुलना में बेहद खतरनाक हथियारों से घिरी आज की दुनिया में गांधीजी का यह अहिंसक साहस बहुत प्रासंगिक है। गांधीजी न सिर्फ परमाणु बम जैसे घातक हथियारों की आलोचना करते थे, बल्कि उनके खिलाफ खड़े हो जाने का साहस भी प्रदान करते हैं। कैसे हिंसक से हिंसक शस्त्र का सामना अहिंसा की शक्ति से किया जा सकता है, यह गांधी हमें सिखाते हैं।
गांधीजी की अहिंसा सत्य के बिना पूरी नहीं होती। गांधीजी सत्य का पक्ष लेते हैं, भले ही उसमें कितना ही जोखिम क्यों न हो। आज गांधीजी जीवित होते तो दुनिया के उन देशों के पक्ष में खड़े होते जिन पर अत्याचार हुआ है। जिनकी राष्ट्रीयताओं को कुचला गया है। वो उनके हित की बात करते। अंतरराष्ट्रीय मसलों पर गांधीजी की बारीक नजर रहती थी। भले ही वो अपने आस-पड़ोस की ज्यादा चिंता करते हों। फिलिस्तीन से लेकर जर्मनी तक इस बात के ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे।
कई लोग गांधीजी के मार्ग का गलत अर्थ लगा लेते हैं। वो निष्क्रियता की शांति नहीं है। वो सत्य की रक्षा करते हुए अहिंसक प्रतिरोध का रास्ता है। गांधीजी ने कभी भी निष्क्रियता की पैरवी नहीं की। उन्होंने हमेशा अलग-अलग उदाहरण देकर समझाया कि अगर उन्हें हिंसा और कायरता में किसी एक को चुनना हो तो वो हिंसा को चुन लेंगे, यानी गांधीजी के मार्ग पर चलते हुए कायरता को हरगिज नहीं चुना जा सकता है। यह अलग बात है कि सत्य का पक्ष लेकर अहिंसक तौर-तरीकों से अडिग खड़ा रहना ही गांधीजी का सच्चा रास्ता है।
आज हमारे देश में राष्ट्रवाद को लेकर बहुत चर्चा है। एक खास पार्टी के लोग जिनके पुरखों ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया था, आज सबसे बड़े राष्ट्रवादी बने घूम रहे हैं। अब जिन्होने आजादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया वो भला किस परिभाषा से राष्ट्रवादी कहे जा सकते हैं? कहा जा सकता है कि ऐसा करिश्मा उन्होंने राष्ट्रवाद की प्रचलित परिभाषा को बिगाड़ कर किया है। एक सच के ऊपर एक झूठ का तानाबाना बुना गया है।
जिन स्वाधीनता सेनानियों ने देश पर अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया वो आज खलनायक बनाये जा रहे हैं। जिन लोगों ने स्वाधीनता सेनानियों की मुखबिरी की, उनकी हत्या तक की, उनको नायक बनाकर एक खास पार्टी के लोग पूज रहे हैं। यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि इस देश में वो ही लोग सबसे बड़े राष्ट्रवादी और राष्ट्रभक्त हैं, जो आजादी की लड़ाई के महानायकों का सही अर्थों में सम्मान करते हैं।
गांधीजी का राष्ट्रवाद गहन मानवतावाद से निकला है। जहां एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का शत्रु नहीं है। वो उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध है, लेकिन अंग्रेजों की नस्ल के विरुद्ध नहीं है। इसलिए गांधीजी के नेतृत्व में मिली स्वतंत्रता के समय किसी अंग्रेज पर कोई हमला नहीं हुआ। हमने अपने विरोधियों को हाथ हिलाकर विदा किया। दुनिया में संघर्ष के बीच प्रेम को बचाने की भला इससे बेहतर कोई और मिसाल हो सकती है?
हमारा राष्ट्रवाद किसी अन्य देश को अपने अधीन बनाने वाला राष्ट्रवाद नहीं है। हमारा राष्ट्रवाद सभी भारतीयों की आपसी एकता और अखंडता में विश्वास करने वाला राष्ट्रवाद है। हमारा राष्ट्रवाद इस देश के गरीब-गुरबा की सेवा करने का राष्ट्रवाद है।
गांधीजी की प्रासंगिकता पर चर्चा करने से अधिक महत्वपूर्ण है उनके बताये रास्ते पर चलने का प्रयास करना। गांधीजी ग्राम स्वराज की अवधारणा में विश्वास करते थे। दरअसल उनका यह विश्वास था कि भारत गांवों का देश है और इसलिए गांवों का उत्थान ही सही अर्थों में देश का उत्थान है। हम लोगों ने पिछले कुछ समय से अपने प्रदेश में गांधीजी की इस दृष्टि को साकार करने का छोटा सा प्रयास किया है।
हमारी ‘नरवा, गरवा, घुरवा, बारी योजना’ ग्रामीण जीवन को सुगम बनाने की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण योजना है। जब तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से संसाधनों का विकास नहीं किया जाता तब तक गांवों का उत्थान असंभव है। छत्तीसगढ़ एक ग्रामीण और आदिवासी बहुल प्रदेश है। पिछली सरकारों ने उस पर जबरदस्ती विकास के एक ऐसे मॉडल को लादने का प्रयास किया जो इस प्रदेश की जनता के हित में नहीं था।
हमारी सरकार ने इस प्रदेश की आम जनता को, शोषित, पिछड़े और वंचित लोगों को, गांवों को ध्यान में रख कर विकास के मॉडल को अपनाने का प्रयास किया है। छत्तीसगढ़ के विकास का यह इस देश का ऐसा मॉडल है जिसकी प्रेरणा के स्रोत बापू हैं। अगर कहा जाए तो गांधी यहां कितने प्रासंगिक सिद्ध होते हैं.. उनका सर्वोदय और अन्त्योदय का स्वप्न यही है कि सबका उत्थान हो और अंतिम व्यक्ति का भी उत्थान हो। विकास का कोई भी मॉडल अगर इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता है तो वो एक जबरदस्ती थोपा हुआ विकास है।
हमारे देश में धर्म के नाम पर हिंसा में पिछले कुछ सालों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। एक खास विचारधारा हमारे देश के लोगों को आपस में लड़ाकर सत्ता पर काबिज रहना चाहती है। इस लड़ाई में उसने गाय को एक बहुत विवादास्पद मुद्दा बना दिया है, जिसके नाम पर कई अल्पसंख्यकों की हत्याएं तक कर दी गयीं। गाय के नाम पर सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की कोशिशों के बीच फिर गांधी हमारे लिए अत्यंत प्रासंगिक हो जाते हैं।
गांधीजी कहते थे कि उनके लिए गोरक्षा का अर्थ गाय की रक्षा से कहीं अधिक है। दरअसल पिछली सरकारों की उपेक्षा ने गाय और गोवंश को ग्रामीण अर्थव्यवस्था में एकदम अप्रासंगिक बना दिया था। इसलिए जो लोग गाय पालते भी थे, उनके लिए उनके बछड़े और बूढ़ी गाय का कोई आर्थिक महत्त्व नहीं रह जाता था। हमारी सरकार ने इसी 20 जुलाई को हरेली जैसे कृषि त्यौहार के दिन गोधन न्याय योजना का शुभारम्भ किया है।
गोधन न्याय योजना को अगर गांधीजी को एक पावन श्रद्धांजलि कहें तो गलत नहीं होगा। इस योजना ने गाय और गोवंश को फिर से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में इतना उत्पादक स्थान दिया है, जिससे कृषक गाय को न सिर्फ पालने के लिए उत्साहित होंगे, बल्कि वो उनकी बेहतर देखभाल करने के लिए भी प्रेरित होंगे। कोरोना के संकटपूर्ण दौर में गोधन न्याय योजना के जरिए हमने इसी हफ्ते करीब 47 हजार गोबर विक्रेताओं को 1.65 करोड़ रुपये का पहला भुगतान किया है। इस योजना से गौपालकों को पूरे साल रोजगार मिलेगा।
गांधीजी मानते थे कि गाय की हत्या रोकना सिर्फ हिंदुओं की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि हिन्दू न सिर्फ मुसलमानों को बल्कि सभी लोगों को अपनी इस सोच में अहिंसक तरीकों से शामिल करेंगे। आप छत्तीसगढ़ में यह देख सकते हैं कि गाय और गोवंश अब हिन्दू-मुस्लिम सभी के लिए एक अत्यंत उपयोगी पशु बन गया है। गांधी कहते हैं कि इस काम में कोई किसी के साथ हिंसा की ताकत से मजबूर नहीं करेगा। यह काम सिर्फ अहिंसा के रास्ते ही किया जा सकता है। हम इसी रास्ते पर हैं और आज देश भर में विकास के इस मॉडल की चर्चा हो रही है।
हमारी कोशिश है कि हमारे विकास का मॉडल वही हो जिसकी कल्पना गांधी जी ने की थी। हमारी कोशिश है कि हम उस मॉडल को आज की परिस्थितियों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अपनाएं।
मार दिए जाने के लगभग आठ दशकों बाद भी बापू जिंदा हैं हमारी चेतना में, हमारे गांवों में, हमारी गलियों में। बापू जिंदा हैं अपने विचारों के साथ, वो जिंदा हैं गांधी मार्ग पर, जो न सिर्फ जीने का रास्ता है, बल्कि हम जैसी सरकारों के लिए न्यायपूर्ण शासन का आदर्श है। गांधी जिंदा हैं दुनिया को प्रेम, सच्चाई, सर्वधर्म समभाव, सहिष्णुता और शांति का पाठ पढ़ाने के लिए। वो जिंदा हैं हथियारों की अंधी होड़ से मुक्त दुनिया, खुशहाल, निरोगी और उत्पादक दुनिया का रास्ता बताने के लिए।
मेरी शुभकामना है कि आज गांधी जी पर सार्थक चर्चा होगी। गांधीवाद के मनीषियों से आज यही विनम्र अपेक्षा है कि वो गांधी को नई वैश्विक चुनौतियों के आईने में दुनिया के सामने रखें। इससे दुनिया बेहतर होगी। (navjivan)
-श्रुति मेनन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगले कुछ हफ्तों में 10 लाख टेस्ट प्रतिदिन करने का टारगेट रखा है ताकि कोरोना वायरस से सबसे बुरी तरह से प्रभावित देशों में शामिल हो चुके भारत को इस महामारी से उबारा जा सके.
लेकिन, क्या वे यह टारगेट हासिल कर सकते हैं और जो टेस्ट किए जा रहे हैं क्या वह विश्वसनीय हैं?
फिलहाल भारत में कितनी टेस्टिंग हो रही है?
अगस्त की शुरुआत में एक हफ्ते के औसत के हिसाब से भारत में क़रीब 5 लाख टेस्ट रोज़ाना हो रहे थे. अंतरराष्ट्रीय कंपैरिज़न साइट आवर वर्ल्ड इन डेटा ने यह आंकड़ा दिया है.
भारत सरकार के रोज़ाना जारी किए जाने वाले आंकड़े इससे थोड़ा-सा ज्यादा हैं. यह एक बड़ा आंकड़ा है, लेकिन इसे भारत की आबादी के संदर्भ में देखा जाना चाहिए.
भारत में हर दिन हर 1 लाख लोगों पर करीब 36 टेस्ट हो रहे हैं. इसके मुक़ाबले दक्षिण अफ्रीका में यह आंकड़ा 69, पाकिस्तान में 8 और युनाइटेड किंगडम के लिए यह आंकड़ा 192 है.
प्रधानमंत्री मोदी की महत्वाकांक्षा इस आंकड़े को दोगुना करने की है ताकि हर दिन 10 लाख टेस्ट हो सकें. भारत की आबादी 1.3 अरब से ज्यादा है.
भारत में किस तरह के टेस्ट किट इस्तेमाल हो रहे हैं?
कोरोना वायरस से जंग में टेस्टिंग को बढ़ाना एक अहम कड़ी है, लेकिन जिस तरह की टेस्टिंग हो रही है उसे लेकर एक्सपर्ट्स चिंता जता रहे हैं.
पूरी दुनिया में सबसे आम पीसीआर (पॉलीमेरास चेन रिएक्शन) टेस्ट है. इसमें जेनेटिक मैटेरियल को एक स्वॉब सैंपल से अलग किया जाता है.
केमिकल्स का इस्तेमाल प्रोटीन और फैट को जेनेटिक मैटेरियल से हटाने में होता है और सैंपल को मशीन एनालिसिस के लिए रखा जाता है.
इन्हें टेस्टिंग के गोल्ड स्टैंडर्ड के तौर पर देखा जाता है, लेकिन भारत में ये सबसे महंगे हैं और इसमें टेस्टिंग को प्रोसेस करने में आठ घंटे तक का वक्त लगता है. रिज़ल्ट आने में एक दिन तक का वक्त लग सकता है. यह सैंपल्स को लैब्स तक पहुंचाने में लगने वाले वक्त पर भी निर्भर करता है.
अपनी टेस्टिंग कैपेसिटी को बढ़ाने के लिए भारतीय अधिकारियों ने सस्ते और जल्दी नतीजे देने वाले तरीकों का इस्तेमाल करने पर ज़ोर दिया. इन्हें रैपिड एंटीजन टेस्ट कहा जाता है. इन्हें दुनियाभर में डायग्नोस्टिक या रैपिड टेस्ट कहा जाता है.
ये टेस्ट प्रोटीन को, जिन्हें एंटीजन कहा जाता है, अलग करते हैं. इनमें 15 से 20 मिनट में नतीजा मिल सकता है.
लेकिन, ये टेस्ट कम विश्वसनीय होते हैं. कुछ मामलों में तो इनका एक्युरेसी रेट 50 फीसदी होता है. इनका मूल रूप से वायरस हॉटस्पॉट्स और हेल्थकेयर सेटिंग्स में इस्तेमाल होता है.
यह जानना ज़रूरी है कि ये टेस्ट केवल यह बताते हैं कि क्या आप फिलहाल संक्रमित हैं या नहीं. ये एंटीबॉडी टेस्ट से अलग होते हैं जिनमें ये पता चलता है कि आप पहले तो संक्रमित नहीं थे.
भारत की मेडिकल रिसर्च संस्था इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने दक्षिण कोरिया, भारत और बेल्जियम में विकसित हुए तीन एंटीजन टेस्ट को मंजूरी दी है.
लेकिन, इनमें से एक को स्वतंत्र रूप से आईसीएमआर और एम्स ने परखा है. इस पड़ताल में सामने आया कि सही नेगेटिव रिजल्ट देने की इनकी एक्युरेसी 50 से 84 फीसदी के बीच है.
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया के प्रोफे़सर के श्रीनाथ रेड्डी कहते हैं, "एंटीजन टेस्ट से वाकई में संक्रमित आधे से ज़्यादा केस पता ही नहीं चल पाएगा."
इसकी कई वजहें हो सकती हैं. इनमें स्वॉब सैंपल का ठीक न होना, व्यक्ति का वायरल लोड और टेस्टिंग किट की क्वॉलिटी जैसी वजहें शामिल हैं.
आईसीएमआर ने इस संबंध में गाइडलाइंस जारी की थीं, जसमें कहा गया था कि किसी के एंटीजन टेस्ट में का रिज़ल्ट नेगेटिव आता है और अगर उसमें लक्षण दिख रहे हैं तो उसे एक पीसीआर टेस्ट भी कराना चाहिए ताकि ग़लत नेगेटिव रिज़ल्ट की संभावना को खारिज किया जा सके.
क्या रैपिड टेस्ट की पूरी दुनिया में सिफारिश की जाती है?
रैपिड या डायग्नोस्टिक टेस्ट में वायरस का पता लगाने के लिए एंटीजेन्स का इस्तेमाल हो भी सकता है और नहीं भी.
यूके में सबसे आम रूप से इस्तेमाल होने वाले रैपिड टेस्ट में गलती का मार्जिन 20 फीसदी है.
लेकिन, ऑक्सफोर्ड नैनोपोर की विकसित की गई टेस्ट किट के बारे में माना जाता है कि यह 98 फीसदी तक पॉजिटिव केसों को पकड़ लेती है. हालांकि, इसे भी स्वतंत्र रूप से रिसर्चरों और हेल्थ एक्सपर्ट्स द्वारा चेक किया जाना है.
ये दोनों रैपिड टेस्ट एंटीजन की बजाय जेनेटिक मैटेरियल का इस्तेमाल करते हैं इसलिए ये ज्यादा विश्वसनीय हैं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और यूएस फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन (यूएसएफडीए) ने भी सलाह दी है कि अगर किसी रैपिड टेस्ट में नतीजा नेगेटिव आता है तो आपको पीसीआर टेस्ट कराना चाहिए.
अमरीका इस तरह की डायग्नोस्टिक किट्स डिवेलप करने की सोच रहा है जिन्हें आप दुकान से खरीद सकेंगे. आप नाक या थूक से स्वॉब ले सकेंगे और प्रेग्नेंसी टेस्ट किट की तरह से मिनटों में रिज़ल्ट भी हासिल कर पाएंगे.
लेकिन, यूएसएफ़डीए की गाइडलाइंस के मुताबिक़, इन किट्स को तभी मंजूरी मिल सकेगी जबकि इनका प्रदर्शन लैब टेस्ट्स जितना अच्छा हो.
क्या भारत के राज्यों में कोरोना के केस पता नहीं चल पा रहे?
अपने टेस्टिंग प्रोटोकॉल खुद तय करने वाले कई राज्य तेज़ी से रैपिड एंटीजन टेस्ट को अपना रहे हैं.
आईसीएमआर ने 4 अगस्त को ऐलान किया है कि देश में होने वाले कुल टेस्ट्स में से 30 फीसदी तक एंटीजन टेस्ट हैं.
दिल्ली इस मामले में पहला राज्य था. जून में दिल्ली ने एंटीजन टेस्ट शुरू कर दिए थे. बाकी राज्य भी इसमें दिल्ली के पीछे चल पड़े. दिल्ली ने 18 जून से ये टेस्ट करने के शुरू कर दिए. हालांकि, 29 जून तक का कोई डेटा उपलब्ध नहीं है.
हमने 29 जून से लेकर 28 जुलाई तक के आंकड़ों पर नजर डाली है. इनसे पता चला है कि दिल्ली ने कुल 5,97,590 टेस्ट किए हैं. इनमें से 63 फीसदी एंटीजन टेस्ट थे.
लेकिन, उपलब्ध डेटा बताते हैं कि एंटीजन टेस्ट में नेगेटिव आने वाले 1 फीसदी से भी कम लोगों ने अपना पीसीआर टेस्ट कराया. साथ ही जिन लोगों ने ये टेस्ट कराया उनमें से 18 फीसदी पॉज़िटिव निकले.
हालिया हफ्तों में दिल्ली में संक्रमितों के दर्ज मामलों में गिरावट आई है, लेकिन, एक्सपर्ट्स का कहना है कि ऐसा इस वजह से भी हो सकता है क्योंकि कई मामले पता ही नहीं चले हों.
अधिकारी अब टेस्टिंग सेंटरों से और ज्यादा पीसीआर टेस्ट करने के लिए कह रहे हैं.
लेकिन, डेटा से पता चलता है कि कराए जा रहे 50 फीसदी से ज्यादा टेस्ट अभी भी एंटीजन टेस्ट हैं. ऐसा तब है जबकि दिल्ली हाईकोर्ट आदेश दे चुका है कि ये टेस्ट केवल हॉटस्पॉट्स और हेल्थकेयर सेटिंग्स में ही होने चाहिए.
कर्नाटक ने जुलाई में एंटीजन टेस्ट करने शुरू किए. राज्य सरकार का मकसद अपने सभी 30 जिलों में 35,000 टेस्ट रोजाना करने का है. हालांकि, यह टारगेट अभी तक पूरा नहीं हो पाया है, लेकिन एंटीजन टेस्ट्स की संख्या बढ़ी है और पीसीआर टेस्ट्स की संख्या कम हुई है.
उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि जुलाई के अंतिम हफ्ते में शुरुआती टेस्ट में नेगेटिव आए, लेकिन जिनमें लक्षण थे और जिन्होंने पीसीआर टेस्ट कराया उनमें से 38 फीसदी लोग पॉज़िटिव निकले.
तेलंगाना में भी सरकार ने जुलाई में एंटीजन टेस्ट का दायरा बढ़ा दिया. हालांकि, राज्य रोज़ाना होने वाले पीसीआर और एंटीजन टेस्ट का कोई आंकड़ा जारी नहीं करता, लेकिन फिलहाल यहां केवल 31 सरकारी और निजी लैब्स ही ऐसी हैं जो कि पीसीआर टेस्ट करती हैं. दूसरी ओर, एंटीजन टेस्ट करने वाली 320 सरकारी लैब्स मौजूद हैं.
भारत में सबसे बुरी तरह से प्रभावित महाराष्ट्र ने मुंबई में एंटीजन टेस्ट की पहले शुरुआत की. शहर की नगरपालिका ने बताया है कि कोविड-19 के लक्षण वाले 65 फीसदी लोग जिन्हें एंटीजन टेस्ट में नेगेटिव पाया गया था, उनके पीसीआर टेस्ट पॉज़िटिव निकले.
पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट डॉ. अनुपम सिंह कहते हैं कि रैपिड टेस्ट के कुछ फायदे हैं. वे कहते हैं, "इससे संक्रमण का पता चलने की प्रक्रिया तेज़ हो जाती है."
लेकिन, वे इस रणनीति को लेकर कुछ चिंताएं भी जताते हैं. यह कई संक्रमितों का पता नहीं चल पाने की चिंता है.
ऐसे में रैपिड एंटीजन टेस्टिंग पर जाना परफॉर्मेंस टारगेट्स को भले ही पूरा कर दे और ज्यादा टेस्टिंग की लोगों की मांग को भी पूरा कर दे, लेकिन यह वायरस के फैलने की वास्तविक हकीकत का पता लगाने में नाकाम रहने का जोखिम लाती है. इसके लिए ज़रूरी है कि लगातार पीसीआर टेस्टिंग भी होती रहे.(bbc)
आज पूरे परिवार को पाल रही है यह बेटी
-Sanjay Chauhan
आर्थिक तंगी और संघर्ष से हार मानकर जहाँ लोग सबकुछ नियति पर छोड़ देते हैं तो वहीं बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो अपनी मेहनत के बल पर खुद ही अपने भाग्य की लकीरें भी बदल देते हैं।
आज की कहानी है उत्तराखंड की बबिता रावत की, जिन्होंने अपनी ज़िद और बुलंद हौसलों के चलते अपना खुद का मुकाम हासिल किया है। आर्थिक तंगी और संघर्षों नें बबिता को जिंदगी के असल मायनों से रूबरू करवाया लेकिन बबिता नें कभी हार नहीं मानी।
रूद्रप्रयाग जनपद के सौड़ उमरेला गाँव की रहने वाली बबिता रावत के पिता सुरेन्द्र सिंह रावत के ऊपर बबिता के सात भाई बहनों समेत 9 लोगों के भरण पोषण की जिम्मेदारी थी। लेकिन 2009 में अचानक बबिता के पिता का स्वास्थ्य खराब होने से परिवार के सामने आर्थिक तंगी आ खड़ी हुई। परिवार का गुजर बसर खेती से बमुश्किल चल रहा था। ऐसी विपरीत परिस्थितियों मे भी बबीता का हौसला नहीं डिगा, बबीता नें हार नहीं मानी और महज 13 साल की उम्र में खुद अपनी किस्मत बदलने के लिए खेत में हल चलाना शुरू कर दिया।
बबीता हर सुबह अपने खेत में हल चलाने के बाद पाँच किमी० दूर पैदल रूद्रप्रयाग के अपने इंटर कॉलेज में पढ़ाई करने के लिए जातीं और साथ में दूध भी बेचतीं। इस तरह परिवार का खर्च आसानी से चलने लगा। धीरे-धीरे बबीता नें सब्जियों का उत्पादन भी शुरू किया और पिछले दो सालों से उपलब्ध सीमित संसाधनों से वह मशरूम उत्पादन का भी कार्य कर रही हैं, जिससे बबीता को अच्छी आमदनी मिल जाती है। दिन-रात मेहनत कर बबीता ने अपने पिता की दवाई सहित खुद की पढ़ाई का खर्च भी उठाया और अपनी 3 बहनों की शादियाँ भी करवाईं। बबीता नें विपरीत परिस्थतियों में भी स्वरोजगार के जरिये परिवार को आर्थिक तंगी से उभारने का जो कार्य किया है वह वाकई अनुकरणीय भी है और प्रेरणादायक भी है।
बबीता ने अपनी बंजर भूमि में खुद हल चलाकर उसे उपजाऊ बनाया और फिर उसमें सब्जी उत्पादन, पशुपालन, मशरूम उत्पादन का काम शुरू किया। आज बबिता को इससे अच्छी खासी आमदनी और मुनाफा हो जाता है। कोरोना वायरस के वैश्विक संकट के बीच लॉकडाउन के दौरान जहाँ कई युवाओं का रोजगार छिना तो वहीं बबिता ने लॉकडाउन के दौरान भी मटर, भिंडी, शिमला मिर्च, बैंगन, गोबी सहित विभिन्न सब्जियों का उत्पादन कर आत्मनिर्भर मॉडल को हकीकत में उतारा।
वास्तव में देखा जाए तो बबीता नें अपने बुलंद हौसलों से अपनी किस्मत की रेखा को ही बदलकर रख दिया। भले ही बबिता के गाँव सौड़ उमरेला के सामने बहने वाली अलकनंदा नदी में हर रोज हजारों क्यूसेक पानी यूँ ही बह जाता हो लेकिन बबिता ने प्रतिदिन विपरीत परिस्थितियों से लड़कर और मेहनत से माटी में सोना उगाया है।
अभी हाल ही में राज्य सरकार द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य करने वाली महिलाओं का चयन प्रतिष्ठित तीलू रौतेली पुरस्कार के लिए किया गया है। महिला सशक्तीकरण एवं बाल विकास मंत्री रेखा आर्या ने वर्ष 2019-20 के लिए दिए जाने वाले इन पुरस्कारों के नामों की घोषणा की। 2019-20 के लिए 21 महिलाओं को तीलू रौतेली पुरस्कार और 22 आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को भी अच्छा कार्य करने के लिए पुरस्कृत किया जाएगा। इसी सूची में एक नाम बबिता का भी है।
बबिता की संघर्षों की कहानी उन लोगों के लिए नजीर हैं जो किस्मत के भरोसे बैठे रहते है। कोरोना काल में घर वापस लौटे लोगों को बबिता से प्रेरणा लेनी चाहिए।
संपादन- पार्थ निगम(thebetterindia)
गफ्फार अहमद 52 बरस के हैं. ऑटोरिक्शा चलाकर पेट पालते हैं. कुछ शोहदे चाहते थे कि गफ्फार 'जयश्रीराम' और 'मोदी जिंदाबाद' का नारा लगाएं. उन्होंने नारा नहीं लगाया. शोहदों ने मारकर उनका दांत तोड़ दिया.
गफ्फार ने भागने की कोशिश की तो उनको कार से खदेड़ कर पकड़ा और पीटा. उन्हें इतनी बुरी तरह पीटा गया है कि उनके दांत टूट गए और चेहरा सूज गया.
गफ्फार का आरोप है कि ‘मेरी दाढ़ी खींची गई, लात और घुसे मारे. मुझे आंख, गाल और सिर पर गंभीर चोटें आई हैं. उन्होंने मुझे डंडे से मारा और पीटने के बाद कहा कि वे मुझे पाकिस्तान भेजने के बाद ही आराम करेंगे.’
किसी को भारत में जिंदा रहने के लिए 'जयश्रीराम' और 'मोदी जिंदाबाद' का नारा लगाना क्यों जरूरी है? भगवान के नाम पर नारे लगाकर ही झारखंड में एक व्यक्ति की जान ली गई थी. गाय के बहाने दर्जनों कांड किए गए. कभी भारत माता, कभी गाय, कभी राम, कभी मोदी, क्या ये सब एक दूसरे के पर्याय हैं? क्या इन सबका नाम भजना जीवित रहने की गारंटी है? क्या भारत माता, गाय माता, राम और मोदी एक बराबर हैं?
अभी कुछ ही दिन पहले गुड़गांव में मॉब लिंचिंग हुई थी. एक युवक को गो मांस ले जाने के शक में हथौड़े से पीटा गया था. कथित गो रक्षकों ने 8 किलोमीटर पीछा करके लुकमान की पिक-अप रोकी और उसे शक के आधार पर पीटा.
यह कौन-सा धर्म है? यह कौन-सा राष्ट्रवाद है? यह कौन-सा देशहित है जिसमें भारत माता, गाय, श्रीराम और नरेंद्र मोदी सब एक बराबर हैं? यह कौन-सा चलन है कि बहाना किसी नाम का हो, लेकिन उसका मकसद सिर्फ घृणा और हिंसा है? यह हिंसा, यह घृणा, यह नंगा नाच किस धर्म संस्कृति का हिस्सा है और इसकी प्रेरणा कौन देता है? किस ग्रंथ में लिखा है कि राजनीतिक विरोधियों को धर्म का सहारा मारा जाए? किस ग्रंथ, किस किताब, किस देवता या महापुरुष की सीख है कि बिना वजह निर्दोषों की जान ली जाए?
क्या हिंदू धर्म का ही एक हिस्सा हिंदू धर्म के लिए खतरा नहीं बन गया है? गीता, रामायण, रामचरितमानस, वेद, पुराण कहां से ये प्रेरणा मिली है कि हिंदू निर्दोषों पर अत्याचार करेंगे तो शक्तिशाली हो जाएंगे? इस पशुता को खाद पानी कहां से मिल रहा है? कौन लोग हैं जिन्हें लगता है कि इससे देश का भला होगा?
यह नफरत का ऐसा नासूर है जो सदियों तक देश के दामन पर जख्म दे जाएगा और हम-आप अपने ही बदन से रिसता हुआ रक्त देखने के काबिल नहीं रहेंगे. जो इसे हवा दे रहे हैं, उनका समर्थन बंद कर दीजिए. वरना ये भीड़ एक दिन किसी को नहीं छोड़ेगी.
नफरत के सौदागर हमेशा पीढ़ियों को नफरत की आग में झुलसने के लिए छोड़कर मर जाते हैं. उनके पीछे मत भागिए.
-कृष्ण कांत
डॉ. संजय शुक्ला
09 अगस्त विश्व आदिवासी दिवस
हर साल 09 अगस्त को देश और दुनिया में ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मानाया जाता है। ज्ञातव्य है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर 9 अगस्त 1982 को पहला आदिवासी सम्मेलन आयोजित हुआ था। यह अतिश्योक्ति नहीं होगी कि समूची दुनिया के प्रकृति और पर्यावरण का असली संरक्षक सदियों से आदिवासी समाज ही रहा है। देश-दुनिया में प्रकृति के इन पूजकों को मूल निवासी की संज्ञा दी गयी है। पाषाण सभ्यता से लेकर आधुनिक सभ्यता ने भले ही आधुनिक विकास की अनेक करवटें ली हो लेकिन आदिवासी समाज अभी भी दुर्गम वनांचलों में आधुनिक विकास की पहुंॅच से दूर अपनी पुरातन संस्कृति और परंपराओं से जुड़ा हुआ है।
यह समाज अपने न्यूनतम जरूरतों और सीमिति आकांक्षाओं के चलते अभी भी बीहड़ जंगलों और गुफा-कंदराओं में जीवन-बसर कर रहा है। भारत की एक चौथाई आबादी तथा छत्तीसगढ़ की 32 फीसदी आबादी आदिवासी जनजातियों का है। भारतीय पौराणिक ग्रंथों में आदिवासियों को ‘‘अत्विका’’ या वनवासी कहा गया है, महात्मा गांधी इस समुदाय को गिरिजन यानि पहाड़ों में रहने वाले संबोधित किया करते थे। भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए ‘अनुसूचित जनजाति’’ शब्द निश्चित किया गया है। आमतौर पर देष में संथाल, गोंड़, मुंडा, भील, बोड़ो, खांॅसी, उरांव, सहरिया, मीणा, गरासिया, बिरहोर सहित अनेक जनजाति समूह हैं। छत्तीसगढ़ में 42 जनजाति समूह हैं जिसमें गोंड, बैगा, मुरिया, हल्बा, कोरवा, पंडो, उरांव, कंवर, माडिय़ा, मुडिय़ा, बिंझवार, धनवार, नगेशिया, मंझवार, भुंजिया, महरा, महार, माहरा, पारधी सहित अनेक जनजातियांॅ शामिल हैं। छत्तीसगढ़ में पंडो जनजाति जो विलुप्त होने के कगार पर है को राष्ट्रपति का दत्तक पुत्र घोषित किया गया है।
बहरहाल संविधान लागू होने के बाद देश के विभिन्न जनजातीय समुदायों के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए आरक्षण व्यवस्था सहित अनेक कल्याणकारी योजनाएं व कार्यक्रम लागू किया गया। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास पहुंॅचाना हर सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है ताकि देश के सभी समाज को समानता का मौलिक अधिकार मिल सके। विचारणीय तथ्य यह कि सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की भरमार के बावजूद आदिवासी समाज आज भी बदहाली से मुक्त नहीं हो पाया है बल्कि इन योजनाओं व कार्यक्रमों के जरिए आदिवासी समाज की बदहाली दूर करने की जवाबदेही जिन हाथों में थी वे साल दर साल मालामाल होते चले जा रहे हैं, इसमें राजनेता, अफसर, ठेकेदार और उद्योगपतियों का नापाक गठबंधन शामिल हैं।
दरअसल आदिवासियों के पिछड़ेपन के लिए मुख्यतौर पर भौगोलिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। अधिकांश आदिवासी समुदाय पहुंॅचविहीन दुर्गम वनांचलों में निवास करती है जहांॅ अधोभूत संरचनागत विकास और संचार माध्यमों की पहुंॅच नहीं है। अधोभूत संरचनागत विकास में सबसे ज्यादा बाधक नक्सलवादी और चरमपंथी गुट बने हुए हैं। इस पिछड़ेपन का परिणाम आदिवासियों की अशिक्षा, गरीबी, बीमारी, कुपोषण के रूप में सामने है, दूसरी ओर आदिवासियों में पीढ़ी दर पीढ़ी जारी अंधविश्वास और मद्यपान की कुरीति जनजातियों के सामाजिक विकास में बाधक हैं। आदिवासी समाज आज के राजनीतिक परिवेश में बहुत बड़ी राजनीतिक ताकत है लेकिन राजनीतिक जनचेतना के अभाव के चलते यह समाज अभी भी राजनीतिक रूप से हाशिए पर हैं। हालांॅकि आदिवासियों की नयी युवा पीढ़ी जो सोशल मीडिया के ताकत से लबरेज हैं वे अब अपने अधिकारों और वजूद के लिए संगठित और मुखर होने लगे हैं। लेकिन इन युवा संगठनों से यह अपेक्षा है कि वे लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत अपने समुदाय के शोषण और अंधविश्वास तथा कुरूतियों के खिलाफ संघर्ष करते हुए अपने समाज के सर्वांगीण विकास के लिए एकजूट हों।
सामाजिक विकास के संघर्ष के इस दौर में उन्हें यह भी सावधानी बरतनी होगी कि उनकी किशोर और युवा पीढ़ी नक्सलवाद या चरमपंथी संगठनों के षडय़ंत्र का शिकार न हो। यह ध्रुव सत्य है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर समस्या का हल केवल और केवल ‘‘बैलेट’’ है न कि ‘‘बुलेट’’। आदिवासियों के विकास में आदिवासी नेतृत्व की एकमात्र अहम भूमिका है, इस लिहाज से इस नेतृत्व से भी यह अपेक्षा है कि वे राजनीतिक मतभेदों को परे रखकर आदिवासी विकास योजनाओं के धरातली क्रियान्वयन के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता और जागरूकता प्रदर्शित करें ताकि अरबों-खरबों के कल्याण योजनाओं की पहुंॅच उनके समाज के अंतिम आदिवासी परिवार को मिल सके। आदिवासी नेतृत्व से यह भी अपेक्षा है कि वह अपनी नयी पीढ़ी को राजनीतिक अवसर दिलाने और उन्हें राजनीतिक रूप से सक्षम बनाने में अपना अहम योगदान दें। यह अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अब आदिवासी नेतृत्व भी वंशवाद और परिवारवाद की मोहपाश में बंधने लगा है।
गौरतलब है कि आदिवासियों की लोककला, काष्ठ कला और शिल्पकला की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारी धमक है। महानगरों और नगरों के अभिजात्य तबकों के ड्राईंग रूम से लेकर पांच सितारा होटलों की शोभा बढ़ाने वाले इन आदिवासी कलाकृतियों के असल शिल्पकार आर्थिक शोषण का शिकार हो रहे हैं
जबकि इन कलाकृतियों को बेचने वाले बिचौलिए और बड़े व्यापारी मालामाल हो रहे हैं। विचारणीय है कि आदिवासी समाज आज भी नमक और चावल जैसी बुनियादी जिंसों के लिए शोषण का शिकार हो रहा है। आलम यह है कि आदिवासियों को 50 पैसे किलो मिलने वाले नमक के बदले उतना ही इमली बेचना पड़ता है। इन वनांचलों में पैदा होने वाले वनोपजों को बिचौलिये और व्यापारी आदिवासियों से औने-पौने भाव खरीदकर ऊंॅचे दामों में शहरों में बेच रहे हैं। आर्थिक विकास का यह एकांगीपन बेहद दुखदायी है।
जनजातीय समुदाय केवल आर्थिक रूप से ही शोषण का शिकार नहीं है बल्कि उसके सदियों पुराने ‘‘घोटूल’’ जैसे सांस्कृतिक परंपरा पर भी आधुनिक सभ्यता हमला करने लगी है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया इस परंपरा के बारे में अनेक आपत्तिजनक कथांकन प्रस्तुत कर रही है। निष्चय ही यह इस समाज के लिए दुखदायी है। बहरहाल आदिवासी क्षेत्रों में जारी धर्मांतरण आदिवासी संस्कृति और परंपराओं के लिए भी एक बड़ी चुनौती है। नि:संदेह किसी समाज के आर्थिक विकास में शिक्षा और रोजगार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है लेकिन विडंबना है कि फर्जी जाति प्रमाण पत्रों के सहारे कई गैर आदिवासी वर्ग शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में आदिवासियों का लगातार हक छिनते चले जा रहे हैं।
गौरतलब है कि भारत के संविधान में जनजाति समुदाय के नैसर्गिक अधिकारों के संरक्षण और उनके विकास के लिए अनेक कानून मौजूद हैं लेकिन ये महज संविधान किताबों में ही कैद है। पांचवीं और छठवीं अनुसूची तथा पेसा कानून ऐसे संवैधानिक व्यवस्था है जो आदिवासियों को संपूर्ण स्वायतता और अपने विकास के लिए खूद योजनाएं बनाने के लिए प्रावधान निश्चित करती है। पेसा कानून के तहत आदिवासी इलाकों के त्रि-स्तरीय पंचायतों को आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए ग्राम सभाओं के द्वारा संपूर्ण अधिकार मुहैया कराने से जुड़ा कानून है लेकिन छत्तीसगढ़ के विभिन्न हिस्सों में फर्जी ग्राम सभाओं के द्वारा आदिवासियों को उनके जमीन से बेदखल करने के दर्जनों उदाहरण मौजूद हैं। छत्तीसगढ़ सहित अनेक राज्यों में पेशा कानून आंशिक रूप से लागू है फलस्वरूप आदिवासी इस कानून के अधिकार से वंचित है। पांॅचवीं अनुसूची के तहत आदिवासी संस्कृति, भाषा, जीवनशैली और अधिकारों को राज्यपाल के निगरानी में संवैधानिक संरक्षण प्रदान करने का प्रावधान है। छठवीं अनुसूची के अंतर्गत अधिसूचित जिलों को पूर्ण स्वायतता देने के प्रावधान है जिसमें संपूर्ण प्रशासन स्थानीय निवासियों के हाथों सौंपने की व्यवस्था है। इस कानून के पृष्ठभूमि में उद्देश्य यह है कि आदिवासी इलाकों में बाहरी लोगों की घुसपैठ रूक सके ताकि आदिवासी अपनी विशिष्ट जीवनशैली और परंपराओं को संरक्षण करते हुए अपने क्षेत्र का विकास कर सके, लेकिन संविधान प्रदत्त इन व्यवस्थाओं को अब तक पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका है।
बहरहाल आदिवासी समुदाय इन कानूनों को पूरी तरह लागू करने के लिए लगातार आवाज उठा रहे हैं लेकिन सत्ता के नक्कारखाने तक यह आवाज नहीं पहुंॅच पा रही है फलस्वरूप आदिवासी क्षेत्रों में ‘‘पत्थलगढ़ी’’ जैसी घटनाएं भी घटित हो रहे हैं। आदिवासी विकास और अधिकार के परिप्रेक्ष्य में विरोधाभाष यह भी है कि जब भी कोई आदिवासी व्यक्ति या समुदाय अथवा मानवाधिकार संगठन आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों की बात करता है तो प्रशासनिक व्यवस्था उसे एक सिरे से माओवाद करार दे देती है। आलम यह है कि आदिवासी माओवादी और सुरक्षाबलों के दो पाटों के बीच लगातार पिस रहा है। रेड कॉरीडोर के बरास्ते कश्मीर से नेपाल, बिहार, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, प.बंगाल, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश तक अपनी सल्तनत कायम करने की सपने संजोए कथित माओवादियों की बरबरता का शिकार आदिवासी वर्ग दशकों से होते आ रहा है। ये माओवादी आदिवासियों को अपने कथित जनअदालत में पुलिसिया मुखबीर बताकर कत्लेआम कर रहे हैं तो दूसरी ओर सुरक्षाबल इन मूक आदिवासियों को माओवादी समर्थक, संघम सदस्य या जनमिलिशिया सदस्य करार कर उनका फर्जी मुठभेड़ कर रहे हैं या जेल की सींखचों के पीछे ढकेल रहे हैं। बहरहाल ‘‘विश्व आदिवासी दिवस’’ की सार्थकता तभी है जब आदिवासियों के विकास के लिए ऐसी योजनाएं तैयार किया जावे जो उन्हें उनके पुरातन संस्कृति-परंपराओं और जल, जंगल, जमीन से जोड़े रखे।
(लेखक शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, रायपुर में सहायक प्राध्यापक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर में मनोज सिंहा को उप-राज्यपाल बनाया गया है, यह इस बात का संकेत है कि भारत सरकार कश्मीर में डंडे की राजनीति नहीं, संवाद की राजनीति चलाना चाहती है। भारत सरकार वहां किसी फौजी अफसर या नौकरशाह को भी नियुक्त कर सकती थी लेकिन तालाबंदी खुलने के बाद यदि कुछ उथल-पुथल होती तो कश्मीर में काफी रक्तपात हो सकता था। कश्मीर में तो साल भर से तालाबंदी है। मैं इस तालाबंदी को अच्छा नहीं समझता हूं लेकिन 5 अगस्त 2019 के बाद यदि कश्मीर में तालाबंदी नहीं होती तो पता नहीं, वहां कितना खून बहता। अब यह तालाबंदी खुलनी चाहिए। नजऱबंद नेताओं को रिहा किया जाना चाहिए। उन्हें आपस में मिलने देना चाहिए और उनसे केंद्र सरकार को सीधा संवाद स्थापित करना चाहिए। शायद इसीलिए मनोज सिंहा को श्रीनगर भेजा गया है। मनोज अनुभवी नेता हैं। वे जमीन से जुड़े हुए हैं।
छात्र-नेता के तौर पर वे यशस्वी हुए हैं। तीन बार उन्होंने सांसद का चुनाव जीता है। वे अपनी विचारशीलता और शालीनता के लिए जाने जाते हैं। यदि वे फारुक अब्दुल्ला, मेहबूबा मुफ्ती और हुर्रियत के नेताओं से सीधी बात करें तो निश्चय ही कोई सर्वमान्य रास्ता निकलेगा। जहां तक जम्मू-कश्मीर को फिर से पूर्ण राज्य का दर्जा देने की बात है, वह दिया जा सकता है, ऐसा संकेत गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में पिछले साल खुद भी दिया था।
धारा 370 के बने रहने से कश्मीरियों को कोई खास फायदा नहीं है। उसे इंदिरा-काल में ही दर्जनों बार खोखला कर दिया गया था। अब तो बस उसका नाम भर बचा हुआ था। उसके हटने से अब कश्मीरी और शेष भारतीयों के बीच की खाई पट चुकी है। अब तो सबसे जरुरी काम यह है कि कश्मीर का चहुंदिश विकास हो। आतंकवाद समाप्त हो। वहां भ्रष्टाचार अपरंपार है। वह भी समाप्त हो ताकि औसत कश्मीरी नागरिक आनंद का जीवन जी सकें।
हमारा कश्मीर शांति और समृद्धि का स्वर्ग बने ताकि पाकिस्तानी कश्मीर के लोग यह सोचने के लिए मजबूर हो जाएं कि हाय ! हम उधर क्यों न हुए ? तब पाकिस्तान के साथ भी संवाद चले और कश्मीर-समस्या को दोनों मुल्क मिलकर इतिहास का विषय बना दें। मोदी सरकार को चाहिए कि वह कश्मीरी नेताओं से दिली बातचीत के लिए सिर्फ नौकरशाहों और सिर्फ भाजपाइयों तक सीमित न रहे। देश में ऐसे कई दलीय, निर्दलीय नेता और बुद्धिजीवी हैं, जिनका कश्मीरी नेताओं से सीधा संपर्क है। मनोज सिंहा की नियुक्ति तभी सार्थक और सफल होगी जबकि कश्मीर में बंदूक नहीं, बात चलने लगेगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-राकेश दीवान
‘कोविड-19’ में डूबते-उतराते नामुराद दौर के बीचम-बीच, आखिरकार पांच अगस्त को, कथित पांच सौ साल बाद ‘रामलला विराजमान’ को अपने लिए एक अदद मंदिर नसीब होने का रास्ता प्रशस्त हो ही गया। पिछले साल ठीक इसी तारीख को जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटाई गई थी और एक जीते-जागते राज्य को दो केन्द्र शासित प्रदेशों में तब्दील कर दिया गया था। सत्तारूढ़ ‘भारतीय जनता पार्टी’ ने ये दोनों बातें अपने चुनावी घोषणा-पत्र के मुताबिक ही की हैं और यदि इसी से तर्ज मिलाई जाए तो तीसरा ‘एजेंडा आइटम’ ‘समान नागरिक संहिता’ होने वाला है। जिन भले लोगों को लगता है कि ‘रामजी के घर’ की व्यवस्था हो जाने के बाद अब ‘बैठ घोड़ा, पानी पीने’ वाला है, तो वे निश्चिंत रहें, यह राजनीति है और राजनीति का घोडा पानी पीने के लिए भी कभी नहीं रुकता। यानि इन या इसी तरह के मुद्दों के इर्द-गिर्द राजनीति जारी रहेगी। सत्ता पर विराजे रामभक्तों को फिलहाल छोड भी दें, तो सवाल है कि विरोध की राजनीति कैसी होगी? क्या सत्ताधारी भाजपा की धारा-370, मंदिर और ‘समान नागरिक संहिता’ के जबाव में उनके पास कोई भिन्न, वैकल्पिक मुद्दे होंगे? या फिर वे भी ‘वहीं’ बनते मंदिर की टक्कर में घर-घर हनुमान-चालीसा का पाठ भर करेंगे?
हालांकि लोकतंत्र में छह-साढ़े छह दशक गुजारने के बावजूद हमारी राजनीति को नागरिकों से पूछने की कभी, कोई जरूरत महसूस नहीं होती, लेकिन फिर भी चाहें तो यह वैकल्पिक राजनीति खुद अयोध्या से ही सीखी जा सकती है। भगवान राम की जन्मभूमि और पिछले करीब तीन दशकों से जमीन के एक टुकडे पर देशव्यापी लडाई के लिए ख्यात जुडवां शहर अयोध्या-फैजाबाद असल में वैसे नहीं हैं जैसे राजनेताओं के वक्तव्यों, भाषणों और अधिकांश मीडिया रिपोर्टों में दिखाई देते हैं। वहां की गली-गली में बिखरी असंख्य गाथाओं में से एक है, चारों तरफ मंदिरों से घिरी जमीन पर एक मस्जिद में होने वाला सालाना तीन-दिवसीय उर्स। पिछले साल उन मंदिरों के बाकायदा तिलकधारी पंडों-पुजारियों ने चंदा करके कमजोर पड़ती मस्जिद को सुधरवाने के मंसूबे बांधे थे। ये सभी मंदिर उर्स में आने वाले करीब एक लाख जायरीनों के लिए न सिर्फ अपने-अपने दरवाजे खोल देते हैं, बल्कि वहां रहने, खाने-पीने का इंतजाम भी करते हैं। ठीक यही दोस्ती तब भी दिखाई पडती है जब भांति-भांति के धार्मिक जमावडों से डरकर शहर छोडक़र जाते मुसलमान अपना जेवर, रुपया-पैसा और कीमती सामान अपने हिन्दू पड़ौसियों की हिफाजत में बेखौफ छोड़ जाते हैं।
एक-दूसरे से कतई भिन्न माने जाने वाले हिन्दू-मुसलमान अयोध्या-फैजाबाद में कैसे रहते हैं, इसे देखना-समझना हो तो शहर के उन करीब डेढ़ हजार मंदिरों को भी देखा जा सकता है जो कमोबेश सभी राम जन्म-भूमि होने का दावा करते हैं। इनमें से एक मझौले आकार के मंदिर में राम जन्म-भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर हुई पत्रकार-वार्ता में शामिल होने का मौका मिला तो पता चला कि महन्त जी के अधिकांश शिष्य मुसलमान थे और उनके आदेशों पर दौड़-दौडक़र काम निपटा रहे थे। लौटते हुए इन्हीं महन्तजी के एक मुसलमान शिष्य ने सभी को भोजन भी कराया। आप चाहें और छल-प्रपंच, वितंडा से बच सकें तो आज भी, कम-से-कम अयोध्या में ऐसी ‘गंगा-जमनी’ धाराएं प्रवाहित होती दिखाई दे सकती हैं। मैंने ही अपनी पुरानी, फटती ‘रामचरित मानस’ को बदलने के लिए जिन सज्जन की दुकान से किताब खरीदी उनका नाम मुमताज अली था और मेरी जरूरत के मुताबिक उन्होंने बडे जतन से उपयुक्त संस्करण निकालकर दिया, मानो वे किताब भर नहीं बेच रहे, उसके तिलिस्म से भी वाकिफ हैं। पास के गांव के समर अनार्य जो जेएनयू, कई जनांदोलन आदि से गुजरते हुए हाल-मुकाम हांगकांग हैं, ने एक लंबा लेख अयोध्या में बनने वाली लकड़ी की खड़ाऊं पर लिखा है। इस लेख के मुताबिक खडाऊं बनाने का पूरा कारोबार मुसलमानों के हाथ में है और वे इसे साधु-महात्माओं के लिए पूरी श्रद्धा-भक्ति से बनाते हैं।
राम जन्म-भूमि आंदोलन से तीखी असहमति रखने वाले, देश के अनूठे सहकारी अखबार ‘जनमोर्चा’ के संपादक शीतलाप्रसाद सिंह शहर के एन बीच में बैठकर अपना लोकप्रिय दैनिक निकालते हैं, लेकिन उनका भी सवाल है कि क्या हमारी मौजूदा राजनीतिक जमातें अयोध्या और ऐसे ही कई दूसरे शहरों की स्थानीय संस्कृतियों से कुछ सीखना चाहती हैं? पिछले साल अमरीकी पत्रकार आतिश तासीर ने ‘टाइम’ पत्रिका की अपनी ‘कवर स्टोरी’ ‘इंडियास डिवाडर इन चीफ’ में लिखा था कि ऐसा पहली बार हुआ है कि भारत में व्यापक भदेस संस्कृति वाली पार्टी सत्ता पर बैठी है और वह चाहे तो अपने विशाल जनमत के बल पर कई ऐसे बुनियादी काम कर सकती है जो अब तक किसी ने नहीं किए। यह ‘भदेस संस्कृति’ क्या है? क्या इसे ‘अभिजात्य’ का विरुद्धार्थी माना जा सकता है? और क्या भाजपा समेत देश की तमाम राजनीतिक पार्टियां, मीडिया और शहरी मध्यमवर्ग इस भदेसपन को फूहड़ता मानकर पसंद-नापसंद करते रहते हैं?
भाजपा के इसी मैदानी भदेसपन के सामने कांग्रेस समेत अधिकांश राजनीतिक पार्टियां निस्तेज दिखाई देती हैं। इन पार्टियों में, खासकर पिछले कुछ दशकों से एक तरह का अभिजात्य घर करता गया है। नतीजे में देश के आम समाज से उनका कम ही साबका पड़़ता है। उन्हें पता ही नहीं चलता कि साधारण, सडक़ छाप नागरिक किन और कैसी तकलीफों और तरकीबों के साथ जीता है। पचास और साठ के दशक के बाद के किसी भी बुनियादी, व्यापक प्रभाव वाले और स्थानीय से राष्ट्रीय बनते मुद्दों को देखें तो साफ देखा जा सकता है कि इन्हें पार्टियों के आभामंडल से इतर ताकतों ने उठाया और उनके तार्किक अंत तक पहुंचाया है। आम लोगों को मथने वाले ये मसले गैर-दलीय राजनीतिक ताकतों, न्यायिक व्यवस्था और मीडिया के उत्साही कार्यकर्ताओं की पहल पर उठे और नतीजे तक पहुंचे हैं। जल, जंगल, जमीन, विस्थापन, शिक्षा, स्वास्थ्य, आदिवासी, महिला, मानवाधिकार, भुखमरी, गरीबी जैसे अनेक सवाल जमी-जमाई पारंपरिक राजनीतिक जमातों की नजरों से आमतौर पर दूर ही रहे हैं। उलटे सिंगूर, नंदीग्राम, कुडाकुलम, नर्मदा जैसे कई उदाहरण हैं, जहां आम लोगों को अनदेखा करके पार्टियों ने अपनी अभिजात्य समझ की सैद्धांतिकी वापरी है, भले ही ऐसा करते हुए उन्हें अपनी राजनीतिक सत्ता तक गंवानी पडी हो।
हालांकि भाजपा भी आम लोगों के मुद्दों के प्रति कोई खास संवेदना रखती हो, ऐसा नहीं है, लेकिन वह अपनी तरफ से कुछ ऐसे मसले फैंकती है जिनकी मौजूदगी कहीं-न-कहीं आम लोगों के मन में भी होती है। भाजपा की राजनीतिक सत्ता प्राप्ति की यात्रा को ही देखें तो पता चलता है कि उसने आम लोगों और समाज में सुगबुगा रहे सवालों पर ही उंगली रखी है और नतीजे में शून्य से शिखर तक पहुंची है। इसके विपरीत विरोधी पक्ष की राजनीतिक जमातों ने आमतौर पर, अपने अभिजात्य के चलते ऐसे मुद्दों को देखकर मुंह बिचकाया है। मुंह बिचकाने की इस कलाबाजी में विरोधी जमातों ने समाज के वे तमाम मुद्दे भी नजरअंदाज कर दिए हैं जो दरअसल परंपरा, संस्कृति और आम जीवन के हिस्से तक थे। पिछले तीन दशकों से अयोध्या हमारी राजनीति और मीडिया में लगातार छाई रही है, लेकिन किसी ने वहां के स्थानीय समाज की जीवन-शैली, मान्यताओं और रिश्तों-नातों पर अपेक्षित गौर तक नहीं किया। क्या यह बात हमारी राजनीतिक पार्टियों को नहीं देखना चाहिए? ताकि वे अपनी समझ और उसके आधार पर किए जाने वाले कामकाज में जरूरी रद्दो-बदल कर सकें और संभव हो तो एक-दलीय शासन को बरका सकें।
-बाबा मायाराम
‘मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूं और न ही कभी छत्तीसगढ़ से बाहर गई हूं, लेकिन जब पहली बार राजस्थान गई और वहां सोलर इंजीनियर का प्रशिक्षण लिया, सौर बल्बों व बैटरी को सुधारना सीखा, तो मुझमें हिम्मत आई, आत्मविश्वास बढ़ा, और एक नई पहचान मिली।’ यह सरगुजा के मैनपाट की लोटाभावना गांव की पुष्पा लकड़ा थीं।
सरगुजा जिले में वे अकेली बेयरफुट सोलर इंजीनियर नहीं हैं, बल्कि यहां 8 महिलाओं ने इसका प्रशिक्षण प्राप्त किया है। पुष्पा लकड़ा की तरह पसेना गांव (लुंड्रा विकासखंड) की इंजूरिया, करदना गांव की झूंझापारा (बतौली विकासखंड) की अर्चना, टिरंग गांव (बतौली विकासखंड) की मुनेश्वरी आदि ने प्रशिक्षण लिया है।
सौर ऊर्जा से जलने वाले बल्ब उन गांवों में लगाए गए हैं, जहां अब तक बिजली नहीं पहुंची है, या उसकी उपलब्धता कम है। यह पहाड़ और जंगल के इलाके हैं जो दुर्गम हैं। पुष्पा लकड़ा कहती हैं कि जब उन्होंने अपने गांव में सौर ऊर्जा के बल्ब लगाए थे, तब वहां बिजली नहीं आई थी। बाद में पहुंची है,पर लोग सौर ऊर्जा के बल्बों को अब भी पसंद करते है, क्योंकि इसमें कोई बिल नहीं लगता है।
पुष्पा लकड़ा का गांव मैनपाट के इलाके में है, जो एक पर्यटन स्थल भी है। इसे छत्तीसगढ़ का शिमला कहा जाता है। प्राकृतिक रूप से बहुत ही खूबसूरत इलाका है। यहां के जलप्रपात, झरने, नदियां, पहाड़ और जंगल मोहते हैं, आकर्षित करते हैं, पर लोगों का जीवन कठिन है।
राजस्थान में अजमेर जिले के तिलोनिया गांव में बेयरफुट कालेज है। इसे विख्यात सामाजिक कार्यकर्ता बंकर राय व उनकी संस्था ने शुरू किया है। यहां पर उन गांववासियों को सीखने व प्रशिक्षण प्राप्त करने का मौका दिया जाता है, जो गांव की समस्याओं के समाधान में जुडऩा चाहते हैं। इसमें भी महिलाओं को विशेष तौर पर इससे जोड़ा जाता है।
बेयरफुट का हिन्दी में अर्थ नंगे पांव है, पर यहां उसका विशेष संदर्भ है। इस प्रशिक्षण केन्द्र का अर्थ है कि ऐसे व्यक्तियों को प्रशिक्षण देना जिन्हें गांव की, परिवेश की, जरूरतों की समझ व जानकारी हो और उनके समाधान में कोई व्यक्ति जुडऩा चाहता हो। चाहे वह डिग्रीधारी व डिप्लोमा प्राप्त भले ही न हो। ऐसे प्रशिक्षणकर्ताओं को बेयरफुट कहा गया है। इस कालेज में आपको बेयरफुट डाक्टर, टीचर, इंजीनियर, आर्किटेक्ट, मैकेनिक मिलेंगे।
सरगुजा जिले में आदिवासियों के अधिकारों पर काम करने वाली चौपाल संस्था (चौपाल ग्रामीण विकास प्रशिक्षण एवं शोध संस्थान) है। संस्था के प्रमुख गंगाराम पैकरा बताते हैं कि जब राजस्थान स्थित बेयरफुट कालेज से जब हमें सौर ऊर्जा का काम करने का प्रस्ताव मिला तब शुरू में कोई भी महिला वहां प्रशिक्षण के लिए जाने को तैयार नहीं थी। एक तो इसमें 6 महीने का लम्बा समय लगता है, दूसरा गांव की महिलाएं इससे पहले कभी बाहर नहीं गई थीं। फिर भी हमने उन्हें समझाया कि यह गांव के हित में है, तब वे वहां गईं और प्रशिक्षण प्राप्त किया।
इस इलाके में पहाड़ी कोरवा, पंडो और उरांव आदिवासी हैं। पहाड़ी कोरवा उन आदिम जनजाति में से एक है जिनका जीवन पहाड़ों व जंगलों पर निर्भर है। पहाड़ी कोरवा, भारत सरकार द्वारा घोषित विशेष पिछड़ी जनजाति समूह श्रेणी के हैं। इन इलाकों में बुनियादी सुविधाएं अब तक नहीं पहुंची हैं। जो महिलाएं, सोलर इंजीनियर का प्रशिक्षण प्राप्त करने राजस्थान गईं थीं, वे इन्हीं आदिवासियों में से थीं।
गंगाराम पैकरा बताते हैं कि पहली बार वर्ष 2015-16 में हमने 4 महिलाएं प्रशिक्षण लेने के लिए भेजीं। दूसरी बार फिर 4 महिलाएं गईं। इस प्रकार, 8 महिलाओं ने 6 महीने प्रशिक्षण प्राप्त किया। वहां से सौर बल्ब लगाने का सामान आया, बैटरी, सोलर पैनल और बल्ब आए, और गांव सौर बल्बों की रोशनी से रोशन हुए। करीब 10 गांव मोहल्लों में 500 बल्ब लगाए गए हैं। इससे लोग मोबाइल चार्ज भी करते हैं। अगर कोई बल्ब नहीं जलता है तो सोलर इंजीनियर महिला सुधार देती है। इसके लिए मरम्मत के लिए तीन कारखाने भी हैं जहां बल्ब, बैटरी, सोलर लालटेन सुधारी जाती हैं। सोलर इंजीनियर घर-घर जाकर देखती हैं कि कोई बल्ब खराब तो नहीं है, कई बार छत पर चढक़र देखती हैं।
सोलर इंजीनियर को हर माह 1000 रूपए की राशि दी जाती है। यह राशि गांव से ही एकत्र की जाती है। प्रत्येक घर से माहवार 50 रूपया लिया जाता है। गांव में ही ग्रामीण ऊर्जा एवं पर्यावरण समिति है, जिसका सचिव सोलर इंजीनियर को बनाया गया है। इस समिति का बैंक में खाता है, जो राशि गांव से एकत्र की जाती है, वह बैंक में जमा होती है। और उसी से सोलर इंजीनियर को मानदेय राशि दी जाती है। लेकिन गांव में लोगों की माली हालत ऐसी नहीं है कि वे 50 रूपए भी दे सकें, इसलिए कई बार यह राशि भी एकत्र नहीं हो पाती। लेकिन संस्था का प्रयास है कि यह काम नियमित रूप से चलता रहे।
चौपाल संस्था के 4 डिजीटल नाइट स्कूल भी हैं। हालांकि यह स्कूल रात में नहीं, दिन में चलते हैं, क्योंकि जंगल पहाड़ में बच्चों के लिए रात में स्कूल में आना मुश्किल है। इनमें से दो स्कूल लखनपुर विकासखंड में हैं और दो बतौली विकासखंड में। मैंने फरवरी माह में खिरखीरी गांव का डिजीटल नाइट का स्कूल देखा था। वहां के शिक्षक सुलेमान बड़ा से मिला था। यहां सौलर पैनल से संचालित प्रोजेक्टर से टेबलेट के माध्यम से बच्चों की पढ़ाई की जा रही थी। यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ था। यहां जो शिक्षक हैं, वे कम से कम 12 वीं तक पढ़े लिखे हैं, और स्थानीय हैं।
कुल मिलाकर, इस पूरे काम के अच्छे परिणाम आए हैं। स्कूली बच्चे सौलर बल्ब की रोशनी में पढ़ रहे हैं, खाना पकाया जा रहा है, महिलाएं अतिरिक्त आमदनी के लिए खाली समय में चटाई, रस्सी व झाडू बना रही हैं, रात में धान कुटाई व घरेलू काम करती हैं, पुरूष रात में खाट बुनाई का काम करते हैं। जंगल में अंधेरी रात में आना जाना भी मुश्किल है, सोलर बल्ब की रोशनी में अब इसमें आसानी हो गई है। सांप- बिच्छू के काटने से भी लोग बचते हैं। जंगली जानवरों के आक्रमण से भी बचाव कर पाते हैं। मोबाइल चार्ज भी कर पाते हैं।
इसके अलावा, ग्रामीण प्रतिभाओं को समस्याओं के समाधान में जुडऩे का मौका मिला है। उनके परिवेश व जरूरतों के अनुसार उभरने, खिलने व कार्य करने का अवसर मिला है। गांव समुदायों में आत्मनिर्भरता व आत्मविश्वास को बढ़ावा मिलता है। चूंकि सभी सोलर इंजीनियर आदिवासी महिलाएं हैं, इसलिए यह महिला सशक्तीकरण का भी अच्छा उदाहरण है। जो महिलाएं कभी घर से बाहर निकली थीं, वे गांव गांव जाकर सोलर बल्ब की मरम्मत कर रही हैं। जलवायु बदलाव के दौर में अक्षय ऊर्जा का महत्व बढ़ गया है, जब तेल, गैस व कोयला जैसे संसाधनों में कमी देखी जा रही है। विशेषकर छोटे पैमाने पर यह बहुत उपयोगी है। यह सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय पहल है। (vikalpsangam)
(विकल्प संगम के लिये लिखा गया विशेष लेख)
-भूमिका राय
कोझिकोड में हुए विमान हादसे में 18 लोगों की मौत हो गई है और कऱीब 20 यात्री बुरी तरह जख्मी हैं। यात्रियों का इलाज मल्लपुरम और कोझिकोड के अलग-अलग अस्पतालों में चल रहा है। यह विमान दुबई से लौट रहा था और इसमें चालक दल समेत 190 यात्री सवार थे।
नागरिक उड्डयन निदेशालय ने कहा है कि ये हादसा शुक्रवार रात को हुआ। हादसे के समय भारी बारिश हो रही थी और विज़ीबिलिटी कम थी। लैंडिग करते समय विमान रनवे से हट कर आगे 35 फीट घाटी में गिर गया और दो टुकड़ों में टूट गया।
जहां विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने की एक वजह जहां तेज़ बारिश के कारण विज़ीबिलिटी की कमी को माना जा रहा है वहीं जानकार इसकी वजह कोझिकोड के टेबलटॉप रनवे को भी मान रहे हैं।
एनडीआरएफ के डीजी एसएन प्रधान ने न्यूज़ एजेंसी एएनआई से कहा कि ‘विमान 30 से 35 फीट तक नीचे गिरा है। हो सकता है कि इसी कारण विमान दो टुकड़ों में टूट गया। हमें यह ज़रूर समझना होगा कि यह एक टेबल-टॉप रनवे है।’
लेकिन टेबल टॉप रनवे होता क्या है?
टेबल टॉप रनवे एक ऐसा रनवे होता है जो अमूमन पहाड़ी या पठारी जगहों पर बनाया जाता है। पहाड़ों पर समतल जगह कम होने के कारण ऐसी हवाई पट्टी बनाई जाती है जिसके आसपास कम ही जगह बचती है। इसमें कई बार या तो एक ओर या फिर दोनों ही ओर गहरी ढलान या खाई हो सकती है जो बहुत गहरी भी हो सकती है।
भारत में ऐसे तीन रनवे हैं। मंगलौर, कोझिकोड और लेंगपुई। इन तीनों ही जगहों पर टेबलटॉप रनवे है।
नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर एक एविएशन एक्सपर्ट ने बीबीसी को बताया कि आम भाषा में समझें तो जिस तरह हमारे घरों में टेबल होता है ये रनवे कुछ-कुछ वैसा ही है। यानी सीमित जगह पर रनवे है और जैसे ही वो रनवे ख़त्म होता है खाई है। ऐसे में अगर समय ब्रेक नहीं लग पाएगा या लैंडिंग के वक्त विमान रुक नहीं पाएगा तो हादसा होने की आशंका बढ़ जाएगी।
Mangalore airport
टेबल टॉप रनवे को अगर किसी समतल रनवे से तुलना करके समझें तो, अगर किसी समतल रनवे पर कोई हादसा होता है और विमान गति को नियंत्रित नहीं किया सका तो वो रनवे को पार करके आगे निकल जाएगा। विमान गिरेगा तो नहीं लेकिन रनवे के बाहर की ज़मीन पर चला जाएगा। हालांकि ऐसे रनवे बेहद ख़तरनाक होते हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता। जो इलाके पहाड़ी हैं और पठारी हैं तो वहां टेबल टॉप रनवे बनाना एक विकल्प है।
एविएशन एक्सपर्ट बताते मानते हैं कि टेबल टॉप रनवे का खतरा सिर्फ ये है कि इसमें मार्जिन नहीं है।
कोझिकोड हादसे मे अभी जांच होनी है और उसके बाद ही यह स्पष्ट हो सकेगा कि हादसे का मुख्य कारण क्या था लेकिन आम तौर पर ऐसे हादसे ब्रेक नहीं लगने या समय पर ब्रेक नहीं लगने से होते हैं।
बीते कई सालों से विशेषज्ञ कोझिकोड एयरपोर्ट की सुरक्षा को लेकर चिंता ज़ाहिर करते रहे हैं। खासतौर पर बड़े विमानों के संचालन के संदर्भ में। एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने कुछ सालों पहले यहां रनवे-एंड सेफ़्टी एरिया जोड़ा है लेकिन कई लोगों ने इस पर सवाल उठाते हुए कहा है कि क्या सिर्फ इतना किया जाना पर्याप्त है।
यशवंत शेनॉय एक वकील और एक्टिविस्ट हैं। वे एविएशन सेफ़्टी को लेकर सालों से सक्रिय हैं। वे कहते हैं कि यह दुर्घटना होना लगभग तय था। इस तरह की दुर्घटना कभी भी हो सकती थी। वे कहते हैं कि हादसे का कारण क्या है ये तो नहीं पता लेकिन इतना ज़रूर है कि इससे आश्चर्य नहीं हुआ।
Lengpui Airport, Mizoram.
वो कहते हैं, ‘किसी भी एयरपोर्ट के लिए आपको कम से कम 150 मीटर का क्षेत्र रनवे के दोनों छोर पर देना चाहिए। कालीकट का एयरपोर्ट इस क्राइटेरिया को पूरा नहीं करता है। साथ ही यह विशालकाय विमानों के लिए भी उपयुक्त नहीं है। बल्कि बेहद खतरनाक है।’
‘लेकिन हज के लिए विमान यहीं से उड़ान भरते हैं जो काफी भारी-भरकम होते हैं। मैंने डीजीसीए को कई ई-मेल लिखे ताकि उनकी जानकारी में ये बात ला सकूं लेकिन अभी तक कुछ भी नहीं हो सका है। ऐसे में यह दुर्घटना मुझे बहुत चौंकाती नहीं है। मैं उम्मीद करता हूं कि अब लोगों को ध्यान इस ओर जाएगा।’
वो कहते हैं कि ‘अभी हादसे का निश्चित कारण बता पाना मुश्किल है लेकिन बारिश के कारण मुश्किल बढ़ जाती है लेकिन आप सिर्फ मौसम पर दोष नहीं डाल सकते।’
शेनॉय मेंगलोर में 22 मई 2010 में हुए हादसे को भी याद करते हैं जब लगभग ऐसे ही हादसे में 158 लोगों की जान चली गई थी। हालांकि कोझिकोड में यह पहला मौका नहीं है जब विमान रनवे पार करके निकल गया हो। इससे पहले साल 2017 में भी ऐसा हो चुका है। (bbc.com/hindi)
-अशोक आर अग्रवाल
उसकी आँखों के सामने एक ऐसा भारत था जहां आदमी की उम्र 32 साल थी। अन्न का संकट था। बंगाल के अकाल में ही पंद्रह लाख से ज्यादा लोग मौत का निवाला बन गए थे। टी बी, कुष्ठ रोग, प्लेग और चेचक जैसी बीमारिया महामारी बनी हुई थी। पूरे देश में 15 मेडिकल कॉलेज थे। उसने विज्ञान को तरजीह दी।
यह वह घड़ी थी जब देश में 26 लाख टन सीमेंट और नौ लाख टन लोहा पैदा हो रहा था। बिजली 2100 मेगावाट तक सीमित थी। यह नेहरू की पहल थी। 1952 में पुणे में नेशनल वायरोलोजी इंस्टिट्यूट खड़ा किया गया। कोरोना में यही जीवाणु विज्ञान संस्थान सबसे अधिक काम आया है। टीबी एक बड़ी समस्या थी। 1948 में मद्रास में प्रयोगशाला स्थापित की गई और 1949 में टीका तैयार किया गया। देश की आधी आबादी मलेरिया के चपेट में थी। इसके लिए 1953 में अभियान चलाया गया। एक दशक में मलेरिया काफी हद तक काबू में आ गया।
छोटी चेचक बड़ी समस्या थी। 1951 में एक लाख 48 हजार मौतें दर्ज हुई। अगले दस साल में ये मौतें 12 हजार तक सीमित हो गई। भारत की 3 फीसदी जनसंख्या प्लेग से प्रभावित रहती थी। 1950 तक इसे नियंत्रित कर लिया गया। 1947 में पंद्रह मेडिकल कॉलेजों में 1200 डॉक्टर तैयार हो रहे थे। 1965 में मेडिकल कॉलेजों की संख्या 81 और डॉक्टर्स की तादाद दस हजार हो गई। 1956 में भारत को पहला एआईआईएमएस मिल गया। यही एम्स अभी कोरोना में मुल्क का निर्देशन कर रहा है। 1958 में मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज और 1961 में गोविन्द बल्लभ पंत मेडिकल संस्थान खड़ा किया गया।
पंडित नेहरू उस दौर के नामवर वैज्ञानिकों से मिलते और भारत में ज्ञान विज्ञान की प्रगति में मदद मांगते। वे जेम्स जीन्स और आर्थर एडिंग्टन जैसे वैज्ञानिको के सम्पर्क में रहे। नेहरू ने सर सीवी रमन, विक्रम साराभाई, होमी भाभा, सतीश धवन और एसएस भटनागर सरीखे वैज्ञानिकों को साथ लिया। इसरो तभी स्थापित किया गयाा। विक्रम साराभाई इसरो के पहले पहले प्रमुख बने। भारत आणविक शक्ति बने। इसकी बुनियाद नेहरू ने ही रखी। 1954 में भारत ने आणविक ऊर्जा का विभाग और रिसर्च सेंटर स्थापित कर लिया था। फिजिकल रीसर्च लैब, कौंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रीसर्च, नेशनल केमिकल लेबोरटरी, राष्ट्रीय धातु संस्थान, फ्यूल रिसर्च सेंटर और गिलास एंड सिरेमिक रिसर्च केंद्र जैसे संस्थान खड़े किये। आज दुनिया की महफिल में भारत इन्ही उपलब्धियों के सबब मुस्कराता है। अमेरिका की एमआईटी का तब भी संसार में बड़ा नाम था। नेहरू 1949 में अमेरिका में एमआईटी गए, जानकारी ली और भारत लौटते ही आईआईटी स्थापित करने का काम शुरु कर दिया। प्रयास रंग लाये। 1950 में खडग़पुर में भारत को पहला आईआईटी मिल गया। आज इसमें दाखिला अच्छे भविष्य की जमानत देता है। आईआईटी प्रवेश इतना अहम पहलू है कि एक शहर की अर्थव्यवस्था इसके नाम हो गई है। 1958 में मुंबई, 1959 में मद्रास और कानपुर और आखिर में 1961 में दिल्ली आईआईटी वाले शहर हो गए।
उसने बांध बनवाये, इस्पात के कारखाने खड़े किए और इन सबको आधुनिक भारत के तीर्थ स्थल कहा।
नेहरू ने जब संसार को हमेशा के लिए अलविदा कहा, बलरामपुर के नौजवान सांसद वाजपेयी (29 मई 1964) संसद मुखातिब हुए। नेहरू के अवसान को वाजपेयी ने इन शब्दों में बांधा एक सपना था जो अधूरा रह गया, एक गीत था जो गूंगा हो गया, एक लौ अनंत में विलीन हो गई, एक ऐसी लौ जो रात भर अँधेरे से लड़ती रही, हमें रास्ता दिखा कर प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गई। और भी बहुत कुछ कहा।
आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुए वो 3259 दिन जेल में रहा। उसने सच में कुछ नहीं किया। लेकिन कोई पीढिय़ों की सोचता है, कोई रूढिय़ों की।