विचार/लेख
-डॉ.वीरेन्द्र बर्त्वाल
देहरादून
कोई 27 साल की युवती अपने पैरों पर खड़े होकर देहरादून जैसे शहर के कारगी चौक जैसे इलाके में रेस्टोरेंट खोलती है। वह इसका नाम रखती है-‘प्यारी पहाडऩ’ रेस्ट्रो।...
और कुछ कथित क्रांतिकारी इस नाम को पहाड़ को बदनाम करने वाला बताकर टूट पड़ते हैं इस व्यावसायिक प्रतिष्ठान पर, जो एक रेस्टोरेंट ही नहीं, पहाड़ की एक विवश बाला के साहस, हिम्मत का प्रतीक है, बेरोजगारी के दौर में नई पीढी़ के लिए प्रेरणादायक है।
तनिक सोचें!
एक महिला जब पब्लिक प्लेस पर चाय, मिठाई, पान की दुकान चलाती है तो उसे किन-किन नजरों से स्वयं को बचाना पड़ता है। पेट पालने के लिए उसे ग्राहकों के ताने सुनने पड़ते हैं, धुआं, पुलिस, मौसम, समय न जाने कितनी चुनौतियों से जूझना होता है। वह अपने साहस को रक्षा कवच बनाते हुए कमरतोड़ मेहनत करती है और हम इस बात पर अपनी राजनीति चमकाने के लिए कायरता वाली हरकत कर देते हैं कि रेस्टोरेंट का नाम सही नहीं है।
वैसे नाम किसी की अपनी निजी संपत्ति होती है, उस पर कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। माना जा सकता है कि किसी प्रतिष्ठान के नाम से किसी समुदाय की भावना आहत न होनी चाहिए, लेकिन ‘प्यारी पहाडऩ’ नाम से क्या भावना आहत हो रही है?
मास्टर की पत्नी को मास्टरनी, पंडित की पत्नी पंडिताइन, ठाकुर की पत्नी ठकुराइन, नेपाल की महिला को नेपालन कहलाने में जब आपको आपत्ति नहीं तो पहाडऩ नाम पर क्यों? पहाडऩ से पहले ‘प्यारी’ शब्द लगा देने से भी क्या पहाड़ टूट गया? गढ़वाली गीत तो सुने हो न? प्यारी सुवा, प्यारी बिमला, जाणू छौं प्यारी बिदेश, म्यरा मनै कि प्यारी। इन संबोधनों शब्दों पर आपको आपत्ति नहीं हुई? ‘प्यारी’ शब्द का आपने नकारात्मक अर्थ क्यों लगा दिया?
क्या आप प्यारी बिटिया, प्यारी मां, प्यारी भुली, प्यारी दीदी जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते हो? क्या आपने कभी मुर्गी बांद जैसे शब्दों पर आंदोलन किया? क्या आपने कतिपय गढ़वाली गीतों के ‘ओंटडी़ करदी लप्प-लप्प’ जैसे बोलों पर आंदोलन किया? क्या आपने रिश्तों में ‘भ्रम’ उत्पन्न करने वाले गीतों जैसे- नंदू मामा की स्याली कमला गोलू रंग तेरो’ पर अपना विरोध जताया है?
प्रतिक्रिया से पहले शब्दों के अर्थ और उनकी व्याख्या समझो। नामकरण करने वाले की भावना और विवशता को आत्मसात करो।
जो लडक़ी सुबह 6 बजे से रात के 11 बजे तक उस रेस्टोरेंट में कर्मचारियों और ग्राहकों के साथ माथापच्ची करती होगी, उसकी परिस्थितियां समझो। तुम्हें तो ऐसी वीरबाला का हौसला बढ़ाना चाहिए। तुम्हारे देहरादून में सब्जी बेचने वाले, पंचर लगाने वाले, गन्ने के जूस वाले, दूध की डेयरी वाले, जूस कॉर्नर वाले कितने पहाडी़ हैं? इनकी न के बराबर की संख्या आप जैसी सोच के कारण है।
नाम पर सर मत पटको, काम पर भी ध्यान दो। राजनीति के लिए यह कोई मसला मुद्दा नहीं है। उत्तराखंड जैसे अभागे राज्य में मुद्दों के अलावा है ही क्या? गोठ की बकरी मारना आसान है, हिम्मत है तो जंगल में शेर का शिकार करके दिखाओ। जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।
डॉ. आर.के. पालीवाल
पिछ्ले कुछ समय से जघन्य घटनाओं में इतनी तेजी आई है कि पिछली घटना के जख्म सूखने के पहले नया जघन्य कृत्य दिलोदिमाग के साथ आत्मा को लहूलुहान कर देता है। जघन्य घटनाओं की सीरीज सभी नागरिकों के साथ साथ देश की अंतरराष्ट्रीय छवि के लिए भी बेहद चिंता का विषय है।अभी मणिपुर की हिंसा का मामला ठंडा नहीं पड़ा था जहां पुलिस पर हिंसक भीड़ से निरीह महिलाओं को बचाने के बजाय उन्हें भीड़ के हवाले करने के हृदय विदारक समाचारों ने न केवल पुलिस बल की संरक्षक छवि के लिए शर्मिंदगी का काम किया था बल्कि देश को भी शर्मसार किया था।
इस जघन्यतम घटना के बाद भी एफ आई आर करने में बहुत देरी और घटना को अंजाम देने की भीड की अगुवाई करने वालों को पकडऩे में हुए अत्यधिक विलंब से सर्वोच्च न्यायालय सहित देश के तमाम संवेदनशील नागरिकों का दिल छलनी हुआ है। पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों से किसी समुदाय, शांति प्रिय आम नागरिकों और अदालतों का विश्वास कम होना किसी भी समाज और देश के लिए बदनामी और बदहाली का सबब है चाहे वह भ्रष्टाचार के कारण हो या राजनीतिक दबाव के कारण अथवा नफरत की विचारधारा के सैन्य बलों के मन में प्रवेश के कारण हो।
इधर जयपुर एक्सप्रेस ट्रेन में यात्रियों की सुरक्षा के लिए तैनात रेलवे प्रोटेक्सन फोर्स के जवान चेतन सिंह द्वारा अपने वरिष्ठ ए एस आई और धर्म विशेष के तीन निर्दोष यात्रियों की निर्मम हत्या ने रेलवे में यात्रा करने वाले करोड़ों यात्रियों को गहरा सदमा पहुंचाया है। शुरूआती समाचारों के अनुसार इस जवान में भी समुदाय विशेष के प्रति नफरत की भावना थी जिसका भयंकर दुष्परिणाम चार लोगों की निर्मम हत्या के रुप में फलित हुआ है। कुछ दिन पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने नफरती भाषणों पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए देश भर के पुलिस प्रशासन के अधिकारियों को दिशा निर्देश जारी किए थे कि नफरती भाषण देने वालों पर वे स्वत: संज्ञान लेकर कार्यवाही करेंगे। भले ही सर्वोच्च न्यायालय ने इस तरह के दिशा निर्देश जारी कर दिए हैं लेकिन उसके बावजूद इस तरह के मामलों में पुलिस प्रशासन के लिए सत्ताधारी दल के नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करना तब तक संभव नहीं है जब तक पुलिस प्रशासन पर सत्ताधारी नेताओं का सीधा नियंत्रण है। यही कारण है कि दिल्ली में केंद्र और राज्य सरकार प्रशासन के अधिकारियों को अपने नियंत्रण में रखने के लिए आठ साल से लगातार हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमेबाजी कर रहे हैं। जब तक पुलिस सहित सैन्य बलों को संविधान के अनुसार जन सेवा का अवसर नहीं दिया जाएगा तब तक वर्तमान स्थितियों में सुधार दूर की कौड़ी है।
चेतन सिंह नाम के जिस सिपाही ने अपनी सरकारी राइफल से चार लोगों की निर्मम हत्या की है उसके अंदर नफऱत का कितना जहर भरा था इसका हल्का सा अनुमान उन वीडियो से होता है जिसमें वह अपने अंदर भरे जहर को वैसे ही उगल रहा है जैसे थोड़े झीने परदे में लपेटकर बहुत से नेता सार्वजनिक भाषणों और कई पत्रकार और तथाकथित समाजशास्त्र के विशेषज्ञ आए दिन चैनलों और सोशल मीडिया पर परोसते हैं। चेतन सिंह का अवचेतन रातों रात परिवर्तित नहीं हुआ होगा और न वह अपने आप में अपवाद है। ऐसी नफऱत का जहर देश की बडी आबादी में फैल चुका है जिसकी परिणति मणिपुर और मेवात में बड़े पैमाने पर हुई है। चेतन सिंह को मानसिक रोगी बताकर अपवाद साबित करने की कोशिश भी शुरु हो गई है। यदि वह मानसिक रोगी था तो उसे खतरनाक हथियार के साथ रेल यात्रियों की सुरक्षा में क्यों तैनात किया गया था! यह यक्ष प्रश्न है। बहरहाल इस घटना के बाद रेल और हवाई यात्रा में सशस्त्र जवान देखकर यात्रियों के आश्वस्त होने के बजाय आशंकित होना स्वाभाविक है। यह बहुत खतरनाक स्थिति है।
ध्रुव गुप्त
अपने सार्वजनिक जीवन में बेहद चंचल, खिलंदड़े, शरारती और निजी जीवन में बहुत उदास और खंडित किशोर कुमार रूपहले परदे के सबसे अलबेले, रहस्यमय और विवादास्पद व्यक्तित्वों में एक रहे हैं।
बात अगर अभिनय की हो तो अपने समकालीन दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद, अशोक कुमार, बलराज साहनी जैसे अभिनेताओं की तुलना में वे कहीं नहीं ठहरते, लेकिन वे ऐसे अदाकार जरूर थे जिनके पास अपने समकालीन अभिनेताओं के बरक्स मानवीय भावनाओं और विडंबनाओं को अभिव्यक्त करने का एक अलग अंदाज था। एक ऐसा नायक जिसने नायकत्व की स्थापित परिभाषाओं को बार-बार तोड़ा। ऐसा विदूषक जो जीवन की त्रासद से त्रासद परिस्थितियों को एक मासूम बच्चे की निगाह से देख सकता था। हाफ टिकट, चलती का नाम गाड़ी, रंगोली, मनमौजी, दूर गगन की छांव में, झुमरू, दूर का राही, पड़ोसन जैसी फिल्मों में उन्होंने अभिनय के नए अंदाज, नए मुहाबरों से हमें परिचित कराया।
अभिनय से भी ज्यादा स्वीकार्यता उन्हें उनके गायन से मिली।
उनकी आवाज में शरारत भी थी, शोखी भी, चुलबुलापन भी, संजीदगी भी, उदासीनता भी और बेपनाह दर्द भी। मोहम्मद रफी के बाद वे अकेले गायक थे जिनकी विविधता सुनने वालों को हैरत में डाल देती है।
‘मैं हूं झूम-झूम-झूम-झूम झुमरू’ का उल्लास, ‘ओ मेरी प्यारी बिंदु’ की शोखी, ये दिल न होता बेचारा’ की शरारत, ‘जिन्दगी एक सफर है सुहाना’ की मस्ती, ‘ये रातें ये मौसम नदी का किनारा’ का रूमान , ‘रूप तेरा मस्ताना’ की कामुकता, ‘चिंगारी कोई भडक़े’ का वीतराग, ‘सवेरा का सूरज तुम्हारे लिए है’ की संजीदगी, ‘घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं’ की निराशा, ‘छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं’ की उम्मीद, ‘कोई हमदम न रहा’ की पीड़ा, ‘मेरे महबूब कयामत होगी’ की हताशा, ‘दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना’ का वैराग्य - भावनाओं की तमाम मन:स्थितियां एक ही गले में समाहित !
यह सचमुच अद्भुत था। उनके गाए सैकड़ों गीत हमारी संगीत विरासत का अनमोल हिस्सा हैं और बने रहेंगे।
आज जन्मदिन पर किशोर दा को श्रद्धांजलि!
नासिरुद्दीन
अपनी मृत्यु से एक दिन पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पहले सरसंघचालक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने गोलवलकर को कागज़ की एक चिट पकड़ाई.
इस वक्त हम हिंसा से घिरे हैं। भारत के पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में लंबे वक्त से हिंसा हो ही रही है।
इस हिंसा के साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में जो हो रहा है, वह भी कम फिक्र करने वाला नहीं है। पिछले चंद दिनों की ही कुछ घटनाओं पर नजर डालते हैं।
दृश्य-एक-एक व्यक्ति ट्रेन के ऊपर वाली सीट पर नमाज़ पढ़ रहा है। नीचे की सीट पर कुछ नौजवान बैठे हैं। वे जोर-जोर से भजन गा रहे हैं। प्रतिक्रिया जानने की बेचैनी में वे बीच-बीच में ऊपर की ओर भी देखते हैं। किसी को भजन याद नहीं है। वे मोबाइल का सहारा ले रहे हैं। बेताल तालियाँ बजा रहे हैं। वे सभी फैलकर बैठे हैं। उनके सामने एक बुजुर्ग महिला ट्रेन के फर्श पर बैठी है।
दृश्य दो: एक व्यक्ति खून से लथपथ पड़ा है। उसके पास एक सिपाही खड़ा है। वह बता रहा है कि यह कौन लोग हैं और इनसे बचने के लिए किन्हें वोट देना चाहिए। सिपाही के ठीक पीछे कुछ लोग बैठे हैं। सामने लोग बैठे हैं।
इस सिपाही पर तीन अलग-अलग बोगियों में चार लोगों की हत्या का आरोप है। इनमें एक उसका वरिष्ठ अफ़सर है। तीन एक ही धर्म के मानने वाले लोग हैं। जैसा अब तक सामने आई ख़बरें बता रही हैं, वह इनकी पहचान उनकी वेशभूषा से करता है। तब मारता है।
दृश्य तीन-एक और वीडियो है। उस वीडियो में जो शख़्स है, उस पर एक ही मजहब के दो लोगों को जलाकर मारने का आरोप है। वह ‘गो-रक्षक’, ‘धर्म रक्षक’ के रूप में मशहूर है। वह पिछले कई महीने से दो राज्यों की पुलिस की पकड़ से दूर है।
वह एक जुलूस में शामिल होने की बात कर रहा है। जिस इलाके से जुलूस निकलना है, वहाँ ज़बर्दस्त तनाव है। जुलूस निकलता है। हिंसा होती है। उसके बाद वीडियो और अफवाहों का दौर शुरू होता है। हिंसा की आग दिल्ली के आसपास के कई इलाकों में फैल जाती है। कई लोग हताहत हैं।
क्या ये ‘छिटपुट’ घटनाएँ हैं?
ऐसी घटनाएँ हर कुछ दिनों पर हमारे सामने आ जा रही हैं। हमें लगता है कि ये ‘छिटपुट’ घटनाएँ हैं। ‘छिटपुट’ लोग शामिल हैं। इनका कोई ठोस वजूद नहीं हैं। या यह हल्ला मचाने वाली घटनाएँ नहीं हैं।
ऊपर गिनाई गई तीनों घटनाएँ भी अलग-अलग क्षेत्र की हैं। इसलिए लग सकता है कि यह अलग-अलग ही हो रही हैं। सच्चाई ऐसी नहीं है। इन तीनों में एक बात है। तीनों की जड़ में नफरत है। एक धर्म और उसके मानने वालों के प्रति नफरत है। एक-दूसरे को बर्दाश्त न करने की चाहत है। बल्कि दूसरे को खत्म करने या दोयम दर्जे का बना देने की हसरत है।
नहीं थोड़ा ढके-छिपे तौर पर हिंसा शामिल है। यह कोई सामान्य हिंसा नहीं है। यह नफरत से उपजी हिंसा है। नफरत का आधार बस एक धर्म का होना है। यह जहरीली मर्दानगी से भरी बेखौफ हिंसा है।
सवाल है, यह नफरत इस मुकाम पर कैसे पहुँच गई कि उसने खुलेआम हिंसा का रूप ले लिया है? इस हिंसा की बात करने में कोई लाज-लिहाज़ नहीं। कोई डर नहीं।
देश-समाज को इस हालत तक पहुंचाने में सबसे बड़ी भूमिका ताकत की जगहों पर बैठे लोगों की है। इनमें लीडर और मीडिया का बड़ा तबका शामिल है। अगर यह बात कुछ अटपटी लग रही हो तो हम कुछ सवालों पर गौर कर सकते हैं।
जो नफरत बो रहे हैं, वे इतना बेखौफ कैसे हो गए कि हत्या का मुलजिम ख़ुलेआम वीडियो बनाकर लोगों को आह्वान करता है? कैसे एक सिपाही हत्याएँ करने के बाद उन लोगों के नाम लेता है, जो सत्ता में हैं?
कैसे एक व्यक्ति हाथ में गँड़ासा लिए हुए यह कहने की हिम्मत कर पा रहा है कि बदला लिया जाएगा? कैसे नौजवानों का एक समूह इबादत में बाधा पहुँचा रहा है? या कैसे सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों पर अलग-अलग लोग मारने और बदला लेने की बात कर रहे हैं?
इसीलिए यह कहना ज़्यादा सटीक होगा कि इस नफरत का सोता नीचे नहीं, ऊपर है। उसने हमारी पूरी सोच को दो खानों में बाँट दिया है। टीवी पर होने वाली बहसों का जोर है कि अब कुछ लोगों का ‘अंतिम उपाय’ किया जाना चाहिए। यह ‘अंतिम उपाय’ का विचार, नफरत का फैलाव नहीं है? हिंसा का उकसावा नहीं है? नफरत और हिंसा को जायज़ ठहराना नहीं है? मगर ऐसा खुलेआम हो रहा है।
क्या वह मानसिक रूप से सेहतमंद नहीं है?
जैसे ही वीडियो आया, ट्रेन में हत्याओं के अभियुक्त सिपाही के बारे में कहा जाने लगा कि वह मानसिक रूप से सेहतमंद नहीं है। ऐसा कहने वालों का मकसद साफ है, वे उसके अपराध को नफरती अपराध या सोचा-समझा अपराध मानने को तैयार नहीं है। वे उसे इस शक के बिना पर उसके पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं। मगर क्या वह वाकई सेहतमंद नहीं है?
जी, वह वाकई सेहतमंद नहीं है। मानसिक तौर पर और दिल से वह एक सामान्य इंसान जैसा नहीं बचा। वह नफरत से भरे हिंसक इंसान में बदल गया है।
हिंसक मर्दानगी, उसके गले का हार बन गई है। जहाँ उसे कुछ समुदाय के लोग दुश्मन नजर आने लगे हैं। उसकी जिम्मेदारी सबकी हिफाजत करने की है। मगर उसे लगता है कि कुछ लोगों को मारकर ही बाकियों की हिफाजत की जा सकती है। वह ऐसा कर देता है। बेझिझक।
वह वाकई दिमागी तौर पर सेहतमंद नहीं है। तब ही तो वह एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे और दूसरे से तीसरे डिब्बे में एक ही धर्म के लोगों की पहचान कर लेता है। उन पर गोलियाँ चलाता है। उनकी हत्याएँ करता है।
दिमागी रूप से सेहतमंद इंसान किसी की जान नहीं ले सकता है। वह धर्म या जाति या क्षेत्र देखकर नफरत नहीं कर सकता है। मगर ऐसा अस्वस्थ, वह अकेला सिपाही नहीं है। यहीं भूल की गुंजाइश है। वे नौजवान, जिन पर देश का भविष्य है, वे भी दिमागी रूप से सेहतमंद नहीं बचे। वे लोग जो सिपाही को गोली मारते देखते रहे। उसका भाषण सुनते रहे। अपने काम में लगे रहे। वे भी दिमागी तौर पर सेहतमंद कैसे कहे जा सकते हैं?
टीवी की बहसें तो हैं ही, व्हाट्सएप, फेसबुक जैसे ‘सामाजिक मंच’ ने समाज के बड़े तबके को ऐसा ही दिमागी तौर पर बीमार बना दिया है। वे ऐसे ही होते जा रहे हैं। नफरत के वाहक। नफरत के तमाशबीन। नफरत की घटनाओं में उनकी रजामंदी शामिल है।
चूँकि वे सीधे-सीधे किसी पर हमलावर नहीं हो पाते तो वे अपनी चुप्पी से ऐसे लोगों और उनके ख्य़ाल के साथ एकजुटता दिखाते हैं। वरना ट्रेन के एक डब्बे से दूसरे डब्बे और दूसरे से तीसरे डब्बे तक जाने की हिम्मत वह सिपाही नहीं जुटा पाता। या कोई उन नौजवानों को कह ही देता कि दो-तीन मिनट रुक जाइए, फिर पूरे रास्ते भजन गाइए।
सबसे खतरनाक है, वजूद पर खतरा महसूस करना
एक बात सबसे खतरनाक हो रही है।
समाज के एक तबके को लगने लगा है कि दूसरे का वजूद, उनके अस्तित्व के लिए ख़तरा है। अगर एक रहेगा तो दूसरा नहीं बचेगा। दिलचस्प है, अपने वजूद पर जिन्हें ख़तरा लग रहा है, वे संख्या में बहुत ज़्यादा हैं। लेकिन नफरत ने उन्हें यह मानने पर बेबस कर दिया है कि उनका सब कुछ ख़तरे में है। वे खतरे में हैं। उनका धर्म खतरे में है। उनका कारोबार खतरे में है। उनके घर की स्त्रियाँ खतरे में हैं। ऐसा नहीं है कि यह सब इकतरफा ही हो रहा है। दूसरी तरफ भी ऐसी प्रक्रिया है। मगर क्या दोनों प्रक्रिया और दोनों का वजन तराजू के पलड़े पर एक जैसा ही है? इसका जवाब हमें ख़ुद ईमानदारी से देना होगा।
नफरत क्या करती है?
नफरत हमें उन बातों पर यकीन करना सिखा देती है, जो सच नहीं हैं। या जो आधा सच हैं। नफरत हमें दोस्त नहीं, दुश्मन तलाशने पर मजबूर करती है।
नफरत हमें लोगों को अपना नहीं, पराया बनाना सीखाती है। नफरत हमें जोड़ती नहीं, तोड़ती है। बाँटती है। वह हमें सभ्य नहीं, बर्बर बनाती है। नफरत हमारी तर्कबुद्धि छीन लेती है। सोचने-समझने की हमारी ताकत हर लेती है। हमें पता भी नहीं चलता, और हम इंसान से नफरती कठपुतली में बदल जाते हैं।
इस कठपुतली की डोर कहीं और होती है। और ये कठपुतली किसी और के इशारे पर नाचती है। यही नहीं, नफरत हमें इंसानी गुणों, जैसे- प्रेम, सद्भाव, सौहार्द्र, अहिंसा और बंधुता से बहुत दूर कर देती है। तो क्या नफरत सिर्फ नुकसान करती है? नहीं। जाहिर है, नफरत कुछ लोगों और समूहों के लिए फायदेमंद है तब ही वह सीना तानकर जहरीली मर्दानगी के साथ बेखौफ यहां-वहां नजर आ रही है। फायदा चाहे जितना हो, नुकसान उससे बहुत बड़ा है। वह जैसा घाव दे रहा है या देने जा रहा है’ उसका दर्द दशकों तक हमें झेलना है।
तय है कि अगर यह चलता रहा तो यह नफरत हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। पहले कुछ खास तरह के लोग मारे जाएँगे। फिर वह सबको मारेगी। इसलिए तय हम सबको करना है, हम सह-अस्तित्व या साझा जीवन चाहते हैं या खत्म हो जाना। (bbc.com/hindi/)
पुष्य मित्र
यह सरल व्याख्या है। सच यह है कि पशुपालक आर्य पश्चिम से आए, वे बहुत मुश्किल से बनारस तक ही फैल पाए। मनु कहते थे नारायणी यानी गंडक के पार व्रात्य प्रदेश है, यानी वर्जित इलाका। यानी बिहार, बंगाल, उड़ीसा, असम वगैरह। जहां बौद्ध, जैन, आजीवक, लोकायत जैसे लौकिक धर्म विकसित हुए। दक्षिण में विंध्याचल बाधा थी। उधर शिव थे, जिन्हें लेकर शंकराचार्य उत्तर आए।
गंडक के पूरब बाढ़ का इलाका था, तो मछलियां खानी ही पड़ती थी। दक्षिण में पठार थे, सिर्फ खेती से गुजारा मुश्किल था। यही सब व्यवहार बना। पश्चिम वाले वैष्णव, पूरब वाले शक्ति के उपासक, वो देवियां जो बलि मांगती थीं। और दक्षिण में शिव।
आज भी हिंदू धर्म इन्हीं तीन हिस्सों में बंटा है। दिलचस्प है सनातन की राजनीति करने वालों का असर सिर्फ पश्चिमी इलाकों में है। न पूरब में वे जड़ जमा पाए न दक्षिण में। क्योंकि उन्होंने न शक्ति को समझा, न शिव को। शाकाहार और वैष्णव संप्रदाय के आधार पर कोई कभी सभी हिन्दुओं का नेता नहीं बन सकता। मुश्किल है।
खासकर पूरब का इलाका जिसने हमेशा मनु को चुनौती दी। जहां बुद्ध, महावीर, पाश्र्वनाथ हुए। यहां तो बगावत की ढाई हजार साल की परंपरा है।
यह कहा जा सकता है कि बुद्ध, महावीर जैसे अहिंसक विचारकों के इलाके में मांसाहार क्यों? तो उसका जवाब यह है कि बाद के दिनों में बौद्ध ही वामाचारी हो गए। वामाचार में मांस, मदिरा सब स्वीकृत था। जैन विस्थापित हो गए।
1. मैं इस बात को लेकर बहुत कंविंस नहीं हूं कि दलितों और पिछड़ों पर जानबूझकर या किसी तरह का दबाव देकर उन्हें चूहा, घोघा, बीफ, पोर्क या चींटी खाने के लिए विवश किया।
2. मेरा अपना आग्रह यह है कि मुशहरों का चूहा खाना, मल्लाहों का घोघा और केकड़ा खाना, डोम जाति के लोगों का सूअर खाना काफी हद तक उनकी सामाजिक पसंद का मसला है और जब से हमारे इलाके में रामनामी परंपरा के लोगों ने कंठी का प्रचार किया और वे वैष्णव हुए, वे कमजोर हुए और उनकी पीढिय़ां कुपोषित हुईं। (बाकी पेज 8 पर)
मैंने अपने बचपन में किसी मल्लाह, मुशहर या डोम कमजोर या कुपोषित नहीं देखा था।
3. संसाधनों का तर्क भी मेरे गले नहीं उतर रहा। क्योंकि महज सौ साल पहले तक मेरे ही पूर्णिया जिले में जमींदार खेती के लिए किसानों को ढूंढ-ढूंढकर लाते थे और बसाते थे। जब ट्रैक्टर जैसे उपकरण नहीं होंगे तब हजार बीघा जमीन पर खेती करके अकेले खा लेना इतना आसान भी नहीं रहा होगा। मैंने अपने बचपन में देखा है कि खेतिहार मजदूरों को मजदूरी भी अनाज में मिलती थी. तब पैसों का इतना प्रचलन नहीं था।
4. हां जिन जातियों का पेशा बहुत सख्ती से तय कर दिया गया कि वे खेती नहीं करेंगे. चाहे वे निषाद हों, डोम हो, मुशहर हों, उनके साथ जरूर दिक्कतें हुई होंगी। और उन्होंने अपने पेशे के इर्द गिर्द पाये जाने वाले पशुओं को आहार बनाया होगा. मगर पशुपालक यादव, खेतिहार कुर्मी, कोइरी, धानुख आदि के लिए शाकाहार हमेशा उपलब्ध रहा।
मेरी व्याख्या सवर्णवादी हो सकती है। मगर अभी तक मुझे कोई ऐसा कंविंसिंग आलेख नहीं मिला या कोई ऐसा सूत्र जिससे मैं यह मान लूं कि ब्राह्मणों या सवर्णों ने खेती के संसाधनों पर कब्जा कर लिया, जिसके कारण मजबूरन दलितों-पिछड़ों को मांसाहार के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके इतर मैं यह मानता हूं कि ब्राह्मणों ने अन्य जाति के लोगों के दिमाग पर कब्जा किया और उन्हें अपनी मान्यताओं के आधार पर जीने के लिए मजबूर किया। उनके लिए तय किया कि वे इसी तरह का काम कर सकते हैं, यही भोजन उनके लिए उचित है, ग्राह्य है। ब्राह्मणों की अपनी ज्ञान परंपरा में भी वैसे पोषण से अधिक पवित्रता पर जोर है। इसलिए अभी तक यह मामला संसाधनों पर कब्जा वाला नहीं लगता। आगे कोई कंविंसिंग तथ्य मिला तो मैं अपनी धारणा बदलने के लिए तैयार हूं।
अणु शक्ति सिंह
मेरे विचार से मांसाहार और शाकाहार का विवाद केवल और केवल धर्म-राजनीति का षडय़ंत्र है।
कई वैज्ञानिक शोधों से साबित हो चुका है कि खान-पान की अभिरुचियों का सीधा संबंध व्यक्ति की स्थानीयता और उसके भौगोलिक-सामाजिक परिदृश्य/मूल से जुड़ा हुआ है।
समुद्री स्थानों पर जहाँ शाक-सब्जी की कमी है, जलीय भोजन मुख्य स्रोत है खाने का।
ठंडे प्रदेशों में वसा की आवश्यकता शरीर को गर्म रखने के लिए होती है, अत: रेड मीट उन इलाकों के खाने में स्वत: ही उतर आया। यूरोपीय या ठंडे भारतीय इलाकों के भोजन पर नजर डालिए।
अब एक उदाहरण बिहार से। उत्तर बिहार अमूमन बाढ़ प्रभावित इलाका रहा है। सावन यानी जुलाई-अगस्त में चढ़ता पानी आश्विन माने सितंबर-अक्तूबर तक ही उतरता है।
बाढ़ में सब्जियाँ तो नहीं मिलती, हाँ मछली की बहुतायत होती रही है। पानी में कटने वाला मोटा गरमा धान भी। जाहिर है उत्तर बिहार में लगभग हर वर्ग के लोग बिना किसी भेद के मछली-भात खाते हैं (ब्राह्मण भी)। यहाँ मछली ‘शगुन’ का भी हिस्सा है।
बचपन में किसी कहानी में पढ़ा था कि ध्रुवों पर सील फैट का ख़ूब इस्तेमाल होता है, रौशनी के साथ-साथ औषधि के लिए भी।
बहुत अच्छा है, आप शाकाहार करते हैं पर दूसरे की प्लेट देखकर नाक-भौं सिकोडऩे से आप अच्छे नहीं लगते हैं। सच कहूँ तो आप इस तरह काफी हिंसक नजऱ आते हैं।
धर्म का ही जिक्र करेंगे तो आपका सनातन ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत करता है जब मांसाहार को चुना गया। एक कथा के अनुसार कृष्ण ने स्वयं मांस का भोग स्वीकार किया है।
अंग्रेजी में एक कहावत है, डोंट लेट योर फूड गेट कोल्ड वरीइंग अबाउट व्हाट इज ऑन माय प्लेट।
अर्थात, मेरी थाली के भोज्य की चिंता में अपना खाना मत ठंडा कीजिए।
खाइए न आपको जो खाना है। लोगों की चिंता सरकार पर छोडि़ए। कुछेक पशु-पक्षियों के अतिरिक्त बाकी सभी शिकार पर क़ानूनन रोक है। इस देश में मांसाहार और शाकाहार का सारा वितंडा उत्तर भारत के मैदानी सवर्णों और दक्षिण भारत के ब्राह्मणों का फैलाया हुआ है।
उत्तर भारत में उनके पास सबसे अधिक उपजाऊ ज़मीनें थीं। तमाम फसल और शाक-सब्जी उनके हवाले हुआ।
क्यों इस इलाके के दलित मांसाहारी हुए, यह बड़ा सवाल है। जातिवाद का असर क्या होता है, कैसे यह आहार श्रृंखला पर प्रभाव डालता है, आराम से नजर आ जाएगा।
इसी तरह दक्षिण भारत के ब्राह्मण के हवाले अधिकतम संसाधन आए। वे शाकाहारी बने रह सकते थे। अन्य जातियाँ नहीं।
शाकाहार की परम्परा को ठीक से परखा जाए तो जानवरों की जान बख़्शने की कीमत पर लगातार मनुष्यों को दबाये जाने की बात भी साफ नजर आ जाएगी।
कुछ लोग तमाम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर पूरे समाज के हिस्से का खाते रहे। अन्य वर्ग सूअर, चूहे, घोंघे से लेकर चीटियों तक में पोषक तत्व खोजते रहे।
जातिवाद इस देश में तब भी तगड़ा था। अब भी तगड़ा है। आहार तब भी प्रभावित था। अब भी प्रभावित है।
(उत्तर भारत से यहाँ सीधा अर्थ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब सरीखे गंगा के इलाक़े से है जिन्हें गंगेज़ प्लेट्यू भी कहा जाता है। बिहार बंगाल अपवाद हैं।)
(जरूरी है कि थोड़ा पढ़ा-समझा जाए मनुष्य और उसकी भौगोलिकता-सामाजिकता के बारे में)
कांग्रेस और भाजपा की सरकारें केन्द्र में एक पार्टी की सरकार होने पर भी मिलीजुली कुश्ती करती रहीं। केजरीवाल के तेवर खामोशी, समझौते, खुशामदखोरी या समर्पण के नहीं हैं। अपने पुराने वाले पृथक फैसले में भी समृद्ध पैतृक परंपरा तथा कुशाग्र बुद्धि के जज डी वाय चंद्रचूड़ ने कुछ अतिरिक्त बातों का समावेश किया था। उन्होंने साफ किया कि आखिरकार जनता है जिसके सबसे बड़े और अंतिम अधिकार हैं कि उसकी इच्छा से कोई लोकप्रिय सरकार कैसे चले। उनका एक तर्क यह भी था कि संवैधानिक जिम्मेदारियों को लेकर चुने गए प्रतिनिधियों को जवाबदेह होना पड़ता है, संविधान प्रमुख को नहीं।
दिल्ली विधानसभा, मंत्रिपरिषद, उपराज्यपाल और केन्द्र सरकार को लेकर गैरजरूरी, पेचीदा, लोकतंत्र विरोधी और सुप्रीम कोर्ट की अनदेखी करता मामला चखचख में है। दिल्ली विधानसभा को राज्यों की विधानसभाओं के मुकाबले कम अधिकार हैं। दिल्ली में आम आदमी की बार बार सरकार आने से पार्टी और इसके नेता अरविन्द केजरीवाल को कमतर स्थिति नागवार गुजरती लगी। उपराज्यपाल दिल्ली सरकार पर लगातार नकेल डालते रहे। चिढक़र आम आदमी पार्टी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से संविधान के अनुच्छेद 239 क-क की व्याख्या का अनुरोध किया। सुप्रीम कोर्ट ने उपराज्यपाल और केन्द्र सरकार के खिलाफ फैसला किया। इसके बावजूद मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग कहते केन्द्र सरकार और उपराज्यपाल ने दिल्ली सरकार को काम नहीं करने दिया। मामला फिर सुप्रीम कोर्ट गया। ताजा फैसले में कोर्ट ने लगभग पुराना फैसला (2018) दोहराते हुए उपराज्यपाल और केन्द्र सरकार की खिंचाई करते कहा जितने भी अधिकार विधानसभा को दिए गए हैं। उनका उपयोग दिल्ली सरकार करेगी। उसमें रोड़ा अटकाने की जरूरत नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट में पिछले दिनों गर्मी की छुट्टी होने से आनन-फानन में केन्द्र सरकार ने संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची की प्रविष्टि क्रमांक 41 को वृहत्त दिल्ली परिक्षेत्र में सेवारत षासकीय सेवकों को केन्द्र सरकार के पाले में कर लिया। इस तरह सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अनदेखी कर दी। मजबूर होकर आम आदमी सरकार को फिर सुप्रीम कोर्ट जाना पड़ा है। वहां काफी समय लगने की संभावना है। मोदी सरकार ने ढिठाई के साथ संविधान का कचूमर निकालते, लोकतंत्र में फेडरल व्यवस्था का मजाक उड़ाते, सुप्रीम कोर्ट की हेठी करते अपना ढर्रा कायम रखा है। वह लोकतंत्र विरोधी और कॉरपोरेटी सामंतवाद का घिनौना उदाहरण है। अरविन्द केजरीवाल का मुख्य आरोप है कि जितने अधिकार पिछली कांग्रेसी और भाजपाई दिल्ली सरकारों के पास थे। वे भी एक के बाद एक आम आदमी पार्टी की सरकार से केन्द्र द्वारा छीन लिए गए।
दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने की ओर देखता मौजूदा अनुच्छेद 239 क क संविधान के 74 वें संशोधन के जरिए आया। केन्द्रीय गृहमंत्री शंकरराव चव्हाण ने संशोधन प्रस्ताव रखते दो टूक कहा फिलहाल दिल्ली का प्रशासन दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट 1966 के तहत चल रहा है। मेट्रोपोलिटन काउंसिल पशासक को केवल सलाह दे सकती थी। केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के जज आर. एस. सरकारिया की अध्यक्षता में 24 दिसम्बर 1987 को कमेटी गठित की। उसे एस बालाकृष्णन ने 14 दिसम्बर 1989 को पूूरा किया। उन्होंने कहा दुनिया के अन्य देशों की राष्ट्रीय राजधानियों के मद्देनजर ही दिल्ली की संवैधानिक स्वायत्ता पर फैसला मुनासिब होगा। विषेषज्ञ समितियों और कमेटियों ने संविधान के संघीय चरित्र को ध्यान में रखते आगाह किया है दिल्ली में सत्ता प्रबंधन और जनआकांक्षाओं के बीच समीकरण में केन्द्र की सक्रिय भूमिका बेदखल नहीं हो सकती।
संविधान में मंत्रिपरिषद और राष्ट्रपति के रिष्तों के लिए अनुच्छेद 74 खुलासा करता है। ‘‘राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रि-परिषद् होगी जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा और राष्ट्रपति अपने कृत्यों का प्रयोग करने में ऐसी सलाह के अनुसार राज्यपाल और राज्य मंत्रिपरिषद के रिष्तों का विवरण वाला अनुच्छेद 163 कहता है ‘राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रि-परिषद होगी जिसका प्रधान, मुख्यमंत्री होगा। ‘डॉ. अंबेडकर ने जोर देकर कहा राष्ट्रपति की जगह गर्वनर के ऊपर भी मंत्रिपरिषद की सलाह पर फैसले लेने की बाध्यता होगी। इसी क्रम में अनुच्छेद 239 क क (4) दिल्ली के लिए कहता है-‘उप-राज्यपाल की, अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रि-परिषद् होगी। परन्तु उप-राज्यपाल और उसके मंत्रियों के बीच किसी विषय पर मतभेद की दशा में, उप राज्यपाल उसे राष्ट्रपति को भेजेगा और राष्ट्रपति द्वारा उस पर किए गए फैसले के अनुसार कार्य करेगा। ऐसा निश्चय होने तक किसी आवश्यक मामले में, ऐसी कार्रवाई करने या निर्देश देने के लिए, जो आवश्यक समझे, सक्षम होगा।‘‘
केजरीवाल भारतीय लोकतंत्र में दिल्ली जैसे राज्य की संभावनाओं को संविधानेतर ढंग से भी बुनना नहीं चाहते। केवल तीन बिन्दुओं पुलिस, विधि तथा व्यवस्था और राजस्व के महत्वपूर्ण संवैधानिक अधिकार नहीं होने पर भी केन्द्र सरकार के लेफ्टिनेंट गवर्नर के हाथों विधानसभा, मंत्रिपरिषद और दिल्ली के नागरिकों की अश्वगति की ख्वाहिशों पर सईस की नकेल रही है। राजस्व उगाही के अरबों रुपयों का इस्तेमाल विरोधी पार्टी भाजपा के नुमाइंदे पुलिस, राजस्व उगाही और कानून तथा व्यवस्था के नाम पर अधिकारियों को भडक़ा फुसलाकर राज्य सरकार के खिलाफ काम ही नहीं करने दे रही थी। तो क्या संविधान टुकुर-टुकुर देखता रहता? नौकरशाह उपराज्यपाल को गफलत रहती कि विधानसभा कोई कानून बनाए। वे दखल दे सकते हैं। वे समझते होंगे कि वे फाउल की सीटी बजा देंगे और गेंद को अंपायर राष्ट्रपति के मैदान में ठेल देंगे। इस तरह 70 में से 67 सीटें जीतने वाली केजरीवाल सरकार का मुर्गमुसल्लम बनाया जा सकेगा। उपराज्यपाल चूक गए क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने ठीक पकड़ा। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार संविधान की समझ के लिए लोकतंत्रीय भावना, सामूहिक नागरिक प्रतिनिधित्व, संवैधानिक चरित्र और सत्ता का विकेन्द्रीकरण को लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। दिल्ली पर संसद की विधायी मर्यादाओं का दबाव भी है।
महत्वपूर्ण फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ सैद्धान्तिक स्थापनाएं की हैं। संविधान की प्रस्तावना में शुरू में ही लिखा है कि हम भारत के लोग अपना संविधान खुद को दे रहे हैं। यही समीकरण सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया। उपराज्यपाल को असहमत होने के असीमित अधिकार मिल जाएंगे तो लोकतंत्र की मर्यादा ही नहीं रहेगी। सुप्रीम कोर्ट में केन्द्र और राज्य सरकारों को परस्पर सहयोग से काम करने की हिदायत भी दी क्योंकि भारत एक संघीय राज्य है। कई ऐसे विषय हैं जो दिल्ली विधानसभा की शक्ति में रहते हुए भी संसद द्वारा बनाए गए कानूनों से प्रभावित होंगे। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बहुत पहले आ जाता तो दिल्ली प्रशासन पर छाई धुंध नागरिक अधिकारों के लिए साफ की जा सकती थी।
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने दिल्ली विधानसभा, राज्य सरकार और उप राज्यपाल के संवैधानिक रिश्तों को लेकर दूध का दूध और पानी का पानी पहले 2018 में भी कर दिया था। केजरीवाल सरकार ने अपने संवैधानिक अधिकारों की ठीक मीमांसा की है। उपराज्यपाल केन्द्र की कठपुतली हैं। कांग्रेस और भाजपा की सरकारें केन्द्र में एक पार्टी की सरकार होने पर भी मिलीजुली कुश्ती करती रहीं। केजरीवाल के तेवर खामोशी, समझौते, खुशामदखोरी या समर्पण के नहीं हैं। अपने पुराने वाले पृथक फैसले में भी समृद्ध पैतृक परंपरा तथा कुशाग्र बुद्धि के जज डी वाय चंद्रचूड़ ने कुछ अतिरिक्त बातों का समावेश किया था। उन्होंने साफ किया कि आखिरकार जनता है जिसके सबसे बड़े और अंतिम अधिकार हैं कि उसकी इच्छा से कोई लोकप्रिय सरकार कैसे चले। उनका एक तर्क यह भी था कि संवैधानिक जिम्मेदारियों को लेकर चुने गए प्रतिनिधियों को जवाबदेह होना पड़ता है, संविधान प्रमुख को नहीं। जस्टिस चंद्रचूड़ ने एक महत्वपूर्ण वाक्य यह भी लिखा था कि राज्य मंत्रिपरिषद की षक्ति और दिल्ली विधानसभा की कार्यपालिक शक्ति एक दूसरे में अंतर्निहित हैं। उन्हें एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता। ऐसे में विधानसभा और मंत्रिपरिषद की उपादेयता, अस्तित्व और लोकतांत्रिक भूमिका का क्या होगा? फिर भी अल्लाह जाने क्या होगा आगे! यदि राज्यसभा में सरकार का अध्यादेष वाला बिल गिरा देने की केजरीवाल की कोषिष रंग लाएगी तो ही लोकतंत्र की रक्षा हो सकती है। बाकी सुप्रीम कोर्ट जो कर पाए।
-कृष्ण कांत
मणिपुर का एक कुकी बहुल इलाका. जिला चूराचांदपुर. पूरे राज्य में हिंसा का दौर चल रहा था. एक कुकी बहुल इलाके में कुछ मैतेई लोग फंस गए. भीड़ उन पर हमला कर रही थी. तभी कुकी समुदाय की महिलाएं एकत्र होकर सामने आईं. उन्होंने ह्यूमन चेन बनाकर अपने ही समुदाय के लोगों को हमला करने से रोका और फंसे हुए मैतेइयों की जान बचाई.
इसी तरह की एक घटना मणिपुर यूनिवर्सिटी में सामने आई. भीड़ यूनिवर्सिटी में घुसकर यहां पढ़ने वाली कुकी लड़कियों को निशाना बनाने की कोशिश कर रही थी. उन्हें बचाने के लिए मैतेई लड़कियां सामने आईं. उन्होंने इकट्ठा होकर भीड़ का विरोध किया, उन्हें समझाया. उन्हें ऐसा करते देखकर स्थानीय लोगों ने भी उनका साथ दिया और कुकी लड़कियों की जान बच गई.
दंगे कभी खुद से नहीं होते. कराए जाते हैं. मसलन, हथियारबंद भीड़ को रैली की इजाजत दी जाती है ताकि वे इंसानियत का कत्ल कर सकें. हत्या के आरोपियों को, लिंच मॉब को, नफरत के सौदागरों को और भाड़े के जॉम्बियों को उतारा जाता है. पुलिस, कानून और पूरे तंत्र को पंगु बना दिया जाता है. कानून का शासन खत्म कर दिया जाता है. ताकि समाज को बांटा जा सके. समाज बंटेगा तो आधा उनकी तरफ होगा. उनकी सत्ता बची रहेगी.
लेकिन एक बात याद रखिए. जब-जब दंगा-फसाद करवाकर खून की होलियां खेली जाती हैं, इंसानियत कहीं तड़प रही होती है. सत्ता बहुत ताकतवर चीज है. दुखद है कि वह इंसानियत के साथ नहीं, कातिलों के साथ होती है इसलिए इंसानियत हार जाती है. अगर सरकार बचाने वालों के साथ होती तो मणिपुर में अमन होता.
मणिपुर हो या हरियाणा, हर जगह हमारा समाज सत्तालोभी और क्रूर हुक्मरानों की “बांटो और राज करो” नीति का भुक्तभोगी है. जागो! संगठित बनो! मणिपुर की इन महिलाओं से सीखो. मानवता को बचाओ! वरना ये खून के प्यासे लोग आपके बच्चों का भविष्य नष्ट कर देंगे.
डॉ. आर.के. पालीवाल
नफरत से उपजी हिंसा के रथ पर सवार होकर कोई देश विश्व गुरु तो दूर अपनी बडी आबादी को अच्छे और संस्कारी नागारिक नही बना सकता। हिंसा का सीमित बल समाज में मौजूद चंद दुष्टों के अस्थाई नियंत्रण के लिए कारगर साबित हो सकता है लेकिन स्थाई शांति के लिए अहिंसक समाज का निर्माण ही एकमात्र विकल्प है जिसकी परिकल्पना बुद्ध, महावीर और गांधी ने की है। भारत जैसे सामाजिक, भौगोलिक, धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता वाले देश में शांतिपूर्ण सह अस्तित्व का महत्व और ज्यादा बढ़ जाता है क्योंकि जिस देश की बहुसंख्यक आबादी गरीब है वहां नफरत से उपजी हिंसा पहले से ही कम संसाधनों को और कम कर रोज कुंआ खोदकर जीवन चलाने वालों के लिए मुसीबतों के नए पहाड़ खड़े कर देती है।
जब कानून बनाने वाले और संविधान की रक्षा की सौगंध खाने वाले दिन रात हिंदू मुस्लिम, मैतेई कुकी,अगड़े पिछड़े और अशरफ पसमांदा करने लगते हैं तब धीरे धीरे समाज के अंदर एक दूसरे समुदाय के लिए वैमनस्य बढ़ता जाता है।अंदर ही अंदर जो नफरत काफ़ी दिनों तक सुलगती रहती है वह जरा सी हवा पाते ही मणिपुर और मेवात बन जाती है। नफरत का ज्वालामुखी फटने के दुष्परिणाम हमारा समाज 1947 के भीषण दंगों में भुगत चुका है। अब उस पीढ़ी के लोग बहुत कम बचे हैं लेकिन साहित्य और फिल्मों में उस दौर की भयानक कहानियां भविष्य में सीख के लिए मौजूद हैं। पिछ्ले कुछ वर्षों से हमारे देश में वैचारिक मतभेद फिर से नफरत की सीमा पार करने लगे हैं, उसी के फल स्वरूप पिछ्ले तीन महीने से मणिपुर में हालात बद से बदतर होते गए हैं और अब मेवात में नफऱत फैलाने वाले तत्वों ने तांडव मचाया हुआ है।
मणिपुर मामले में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है। सरकार की तरफ से पेश अटॉर्नी जनरल मणिपुर मामले की सुनवाई के लिए समय मांग रहे थे। इसका मतलब साफ था कि सरकार के पास न्यायालय के तीखे प्रश्नों का जवाब उपलब्ध नहीं है जबकि सरकार के पास पल पल का हिसाब उपलब्ध रहना चाहिए था और सर्वोच्च न्यायालय को पूरी स्थिति से अवगत कराया जाना चाहिए था।जब सरकार के उच्च पदाधिकारी साल भर चुनावी मोड़ में रहते हों तब उनका मणिपुर जैसे सुदूर राज्यों पर ध्यान केंद्रित रहना असंभव है। मणिपुर तो फिर भी केंद्र सरकार के मुख्यालय से काफ़ी दूर है लेकिन दिल्ली के पास मेवात हरियाणा का संवेदनशील इलाका है। वह न केवल हरियाणा की प्रगति के केन्द्र गुडग़ांव से सटा हुआ है देश की राजधानी दिल्ली से भी दूर नहीं है जहां विश्व के सभी देशों की एंबेसी और देश दुनिया के मीडिया हाउस मौजूद हैं। मणिपुर के चार मई के वीडियो को वायरल होने में भले ही दो महीने लगे थे मेवात की हिंसा के वीडियो को वायरल होने में दो घण्टे भी नहीं लगे। मेवात की हिंसा पहले से ही मणिपुर की हिंसा से खराब हुई हमारी छवि को और खराब करेगी। मणिपुर और हरियाणा दोनों में डबल इंजन सरकार है। इससे सरकार का यह दावा भी खुद खारिज हो जाता है कि डबल इंजन सरकार राज्यों के लिए ज्यादा हितकारी हैं।
मेवात दंगे में उस मोनू मानेसर का नाम आ रहा है जो राजस्थान के दो लोगों को जलाकर मारने के जघन्य अपराध में वांछित है। हरियाणा पुलिस इस कथित गौ रक्षक के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर पाई और यह बंदा मेवात में धार्मिक यात्रा निकालने में सोसल मीडिया पर आव्हान कर रहा है। कर्नाटक चुनाव में भारतीय जनता पार्टी घोषित कर रही थी कि भाजपा नही जीती तो प्रदेश में तनाव होगा। क्या भारतीय जनता पार्टी आगामी चुनावों में अब भी यह कह सकती है कि उनकी सरकार बनने पर दंगे नहीं होंगे!
दंगे नहीं होने देना और दंगे होने पर उन्हें त्वरित कार्रवाई कर रोकना प्रदेश सरकार की सबसे महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी है। इस दृष्टि से मणिपुर सरकार बुरी तरह फेल रही है और हरियाणा सरकार की हालत भी खराब है।
मनीष सिंह
ये विक्टर ह्यूगो का मशहूर कोट है। पिछले 10 सालों में हमने 3 विचारों का वक्त आते, और जाते देखा है।
विचार की जन्म, उसके परिदृश्य के गर्भ से होता है। वो हमेशा अंधकार से रोशनी की ओर ले जाने का दावा करता है। पिछले दस सालों में विचार के तीन चेहरे हमने देखे हैं। मोदी, राहुल, केजरीवाल..
और शुरुआत राहुल की नकार से होती है। राहुल याने वंश परंपरा, ऐसे भ्रष्ट तंत्र का राजकुमार जिसके नाक तले अविश्वसनीय अंकों के भ्रष्टाचार होते हैं। इस नकार से दिल्ली में केजरीवाल पैदा हुए।
मगर इसी नकार ने देश भर में भाजपा की जमीन तैयार की। सपनो का नया राजकुमार आया। सफेद घोड़े पर बैठ वो तलवार चमकाता। भारत के हर जंजाल को काटने का उद्घोष कर रहा था।
उसका वक्त आ चुका था।
मोदी उसका चेहरा थे।
उस विचार को रोकना असम्भव था। सत्तर साल से भारत एक दूसरी विचारधारा को भी गर्भ में पालता आया था। 2014 में आखिरकार उसका प्रसव हुआ। देखते ही देखते दस बरस की उम्र पूरी कर ली।
और बूढ़ा भी हो गया।
नकार दरअसल उम्र घटाती है। कांग्रेस की नकार से शुरू हुई यात्रा, इतिहास की नकार, संस्कृति की नकार, नेहरू, गांधी, सत्य, अहिंसा, शिक्षा, विज्ञान, इंसानियत, सहजबुद्धि और हर उस शै की नकार को छूती रही, जो मूलत: भारत नामक लोकतन्त्र का विचार थी।
अब हालात यह है कि ढ्ढहृष्ठढ्ढ्र को नकारने को आतुर हैं। दरअसल नकार ही इस संघटन की 90 सालों की यात्रा का मूल विचार था।
इसका दौर तो छोटा होना ही था।
केजरीवाल के पास सकारात्मक विचार थे। शुरुआत उस जमीन पर हुई, जो कांग्रेस की बनाई हुई थी। इस जमीन में एकता, शांति, भाईचारा की खाद थी। उस पर विकास, समृद्धि, संतुष्टि की फसल उगानी थी। उन्होंने शुरू किया।
लेकिन चारों ओर नफरत और नकार की सफलता देखकर ठिठक गए। मिश्रित फसलें बोने की कोशिश की। मगर नशा उगाने के लिए जहरीली खाद की जितनी जरूरत होती है, केजरीवाल में उसे डालने की बेशर्मी भी नही। वे छिपछिप कर, मिलावटी खाद डालने लगे।
न अफीम उगा सके, न अनाज
और परिदृश्य का गर्भ बदल चुका है। एक निरंकुश सरकार है, नफरत है, टूट है। धोखेबाजी और ताकत का जोर है। इसकी गर्भ से स्पार्टाकस, ग्वेरा या गांधी निकलते हैं।
और निगाहें घूमकर राहुल पर लौट आयी हैं। जो टिका है, बेदाग है, निडर है। जिसके कदम दक्षिण से उत्तर जोड़ चुके। जो पूरब से पश्चिम जोडऩे को निकल रहा है। जिसकी झोले से गांधी, बुद्ध, मार्क्स, ग्वेरा, झांक रहे हैं। जो नफरत के मॉल में पसरा बिछाकर मोहब्बत बेचने आया है।
इस राहुल की पहचान, किसी का बेटा या किसी का भाई होना नही। ये चेहरा वही है जिसे दुनिया ‘भारत’ कहकर सदियों से पहचानती आयी है।
वो अक्स, जिसे बदशक्ल भारत फिर से आईने में देखना चाहता है। इस चेहरे का, इस विचार का वक्त आ गया है।
और जिस विचार का वक्त आ गया हो, उसे कोई सेना नही रोक नहीं सकती।
डॉ. लखन चौधरी
देश में जुलाई महिने में खाने-पीने की चीजों की यानि खाद्य महंगाई अपने अब तक के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच कर रिकॉर्ड बना रही है। दिल्ली में टमाटर 200-250 रू., हरी मिर्च और धनिया 200-250 रू., अदरक 350-400 रू. प्रति किग्रा. के पार पहुंच चुके हैं। रायपुर में टमाटर 150 से 200 रू., अदरक 200 से 250 रू. चल रहा है। महंगाई को लेकर रोना केवल सब्जियों तक सीमित नहीं है। आटा, दाल, दूध, मसाले सहित रोजमर्रा की तमाम जरूरी खाद्य सामग्रियों की कीमतें जुलाई महिने में अपने ’ऑल टाईम हाई’ लेबल पर खेल रहीं हैं। आम आदमी बेबस और लाचार है। सरकार मानने को तैयार नहीं है कि देश में महंगाई है ? इधर सरकार दावा कर रही है कि देश में थोक महंगाई दर पिछले 8 साल के निचले स्तर पर आ गई है। सरकार के आंकड़ें बता रहे हैं कि जून में थोक महंगाई दर मात्र 4.12 फीसदी रही है, और इसकी वजह खाने-पीने की चीजों का सस्ती होना है।
असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले देश के लगभग 55-60 करोड़ लोगों की रसोई का सारा खेल बिगड़ चुका है। गरीबों और मध्यमवर्ग की थाली से टमाटर, हरी मिर्च और हरी धनिया की चटनी गायब है। देश की आधी आबादी यानि लगभग 70-72 करोड़ लोग खाद्य महंगाई की चपेट में आ चुके हैं, लेकिन सरकारी आंकड़ें इससे सहमत नहीं दिखते हैं। सरकारी आंकड़ें बता रहे हैं कि देश में लगातार तीसरे महीने थोक महंगाई दर में गिरावट दर्ज की गई है। जून महीने में थोक महंगाई दर यानी होलसेल प्राइस इंडेक्स 4.12 फीसदी पर आ गई है। सरकार तर्क दे रही है कि जून में थोक महंगाई की दर में गिरावट मुख्य रूप से मिनरल ऑयल्स, खाने-पीने की चीजें, बेसिक मेटल्स, क्रूड पेट्रोलियम और नेचुरल गैस और कपड़ों की कीमतें कम होने के कारण आई है।
सवाल उठता है कि आखिरकार बाजार की वास्तविक महंगाई और महंगाई के सरकारी आंकड़ों को लेकर इस कदर विरोधाभास क्यों है ? तात्पर्य यह है कि यदि वास्तविकता में महंगाई दरें सामान्य हैं, तो फिर खानेपीने की चीजों की कीमतें आसमान क्यों छू रहीं हैं? रोजमर्रा की जरूरी चीजों की कीमतें आमजन को रूला क्यों रहीं हैं ? दाल की कीमतें 200 रू. के पार हैं। आटा 50 रू. पार कर दिया है। ठीक तरह से खाने लायक चावल 50 रू. पार है। इस समय बाजार में कोई भी सब्जी 50 रू. के नीचे नहीं है। गरीब आदमी दाल-चावल और टमाटर-मिर्च की चटनी खाकर काम चला लेता था, आज तो वह भी मुमकिन नहीं दिखता है ? फिर भी सरकारी आंकड़ें महंगाई पर हकीकत बयान क्यों नहीं करते हैं ?
महंगाई को अक्सर आंकड़ों में दिखाने, प्रस्तुत करने, समझने की कोशिश की जाती है। ठीक है कि महंगाई की आंकड़ों की भाषा होती है, लेकिन इसके इतर आम जनजीवन पर महंगाई का व्यापक प्रभाव एवं असर होता है। महंगाई की वजह से आम आदमी के खान-पान, रहन-सहन एवं जीवन स्तर में गुणात्मक गिरावट आ जाती है। कमाई का सारा पैसा महंगाई की भेंट चढ़ जाता है, और दिनरात मेहनत करने एवं आमदनी बढऩे के बावजूद जीवनस्तर में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं आ पाता है। महंगाई का असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है। सामान्य महंगाई यानि मुद्रास्फीति से उत्पादकों को मुनाफा होता है, जिससे निवेश एवं रोजगार के अवसर बढ़ते हैं, लेकिन दीर्घकाल में उपभोक्ताओं पर इसका बुरा या नकारात्मक प्रभाव पढ़ता है। उपभोक्ताओं की वास्तविक आय घट जाती है, और अंतत: बाजार में मांग सिकुडऩे लगती है। इसकी वजह से उत्पादक इकाईयां बंद होने लगती हैं। कुल मिलाकर सामान्य से अधिक महंगाई सबके लिए हानिकारक ही होती है।
सरकार के अनुसार जून में खुदरा यानि फुटकर महंगाई 4.81 फीसदी पर पहुंच गई है। मई में यह 25 महीने के निचले स्तर 4.25 फीसदी पर आ गई थी। सरकार का तर्क है कि जून में सब्जियों की ऊंची कीमतों के कारण महंगाई बढ़ी है। तेज गर्मी, असमय बारिश जैसी प्राकतिक घटनाओं ने फसलों को नुकसान पहुंचाया है जिससे सब्जियों के दाम बढ़े हैं। चूंकि प्रचलित महंगाई दर के निर्धारण में लगभग आधी हिस्सेदारी खाने-पीने की चीजों की होती है, लिहाजा खुदरा महंगाई दर में मामूली बढ़ोतरी दर्ज हुई है, जो अगस्त महिने के बाद सामान्य हो जायेगी।
वैसे तो जुलाई के महीने में सब्जियों की कीमतें हमेशा अधिक हो जाती हैं। आलू, प्याज, टमाटर, हरी मिर्च, हरी धनिया पत्ती, अदरक इत्यादि तमाम मौसमी सब्जियों की कमी की वजह से कीमतें बढ़ जाती हैं, और आम आदमी की रसोई का जायका बिगड़ ही जाता है; लेकिन इस बार आलू, प्याज को छोडक़र शेष सब्जियों ने जिस तरह से रिकॉर्ड तोड़ महंगाई पैदा की है, यह विचार-विमर्श का एक गंभीर मसला है। यद्यपि यह महंगाई बहुत कुछ प्राकृतिक कारणों की वजह से है, इसके बावजूद इस कमरतोड़ महंगाई के लिए कहीं न कहीं सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं।
दरअसल में इस महंगाई की सबसे बड़ी वजह उत्पादन की कमी है। देश की 142 करोड़ की आबादी के लिए जितनी खाद्य वस्तुओं यानि रोजमर्रा की खाने-पीने की चीजों की जरूरत है, उस तादाद में देश में उत्पादन नहीं हो रहा है। कई चीजों का यदि उत्पादन है, तो उंचीं कीमतों के लालच में बड़े पैमाने पर निर्यात कर दिया जा रहा है। तात्पर्य यह है कि खाद्य महंगाई की सबसे बड़ी वजह मांग-पूर्ति का असंतुलन है। प्राकृतिक कारणों से उत्पादन प्रभावित होने की वजह से आपूर्ति बुरी तरह घटती जा रही है। जिसकी वजह से साल के कुछ महिनों जैसे जून-जुलाई, अक्टूबर-नवम्बर, मार्च-अप्रैल आदि में जलवायु परिवर्तन जैसे कारणों से सब्जियों, फलों, दूध, दाल, तेल आदि रोजमर्रा की जरूरी जिंसों के दाम आसमान छूने लगते हैं।
सवाल यह भी उठता है कि यदि महंगाई दर नियंत्रित यानि सामान्य है तो फिर वह धरातल पर दिखलाई क्यों नहीं देती है? आमजन महंगाई को लेकर परेशान क्यों है? महंगाई को लेकर जो विरोधाभास है, उसकी वास्तविकता क्या है? महंगाई के कारण क्या हैं ? वास्तविक महंगाई की वजह क्या है ? इसके लिए सरकार को दीर्घकालिक कृषि नीति बनाने की जरूरत है, जिस दिशा में सरकार का ध्यान केवल कागजी खानापूर्ति तक सीमित है। इसके लिए कृषि को उद्योग का दर्जा देकर कृषि में भारी सरकारी निवेश की दरकार है, जिससे देश की विशालतम जनसंख्या के लिए जरूयरत के अनुसार उतपादन को बढ़ावा दिया जा सके। फलों, सब्जियों इत्यादि के भंडारण की समुचित व्यवस्था नहीं हो पाने की वजह से इन मौसमों में होने वाली जमाखोरी और कालाबाजारी पर कठोर कार्रवाई करने की जरूरत है।
अब समय आ गया है कि धान उत्पादन के रकबा को हतोत्साहित करते हुए दलहन, तिलहन, दूध, फल, सब्जियों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए सब्सिडी बढ़ाई जाये। इनके भंडारण की समुचित सरकारी व्यवस्था करनी होगी, जिससे महंगाई पर रोक लगाई जा सकती है। देश में खाद्य वस्तुओं के भंडारण की व्यवस्था नहीं है?ऐसा नहीं है। देश में भंडारण की व्यवस्था असल में निजी हाथों में है, जो जमाखोरी एवं कालाबाजारी जैसी अनैतिक व्यवस्थाओं को जन्म देकर मुनाफा वसूली करती हैं, जिससे महंगाई बेलगाम हो जाती है। यानि सरकारी नीतियों की असफलता महंगाई के लिए न सिर्फ जिम्मेदार है, अपितु कृषि क्षेत्र को लेकर सरकार की उदासीनता और कृषि क्षेत्र को लेकर अदूरदर्शितापूर्णं नीतियां वर्तमान महंगाई की सबसे बड़ी वजह है।
- हरीश कुमार
बारिश की वजह से देश के कई राज्यों में बाढ़ की स्थिति ने हालात को पटरी से उतार दिया है. नदियां-नाले सब उफान पर थे. मानसून ने इस बार भारत में थोड़ी जल्दी दस्तक दे दी है. राजधानी दिल्ली भी बाढ़ जैसी आपदा से बच नहीं सकी. कुछ राज्यों में हालत बेहतर हुई है लेकिन उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य लगातार भारी बारिश का सामना कर रहे हैं. बारिश और बाढ़ का खतरा कम हुआ ही था कि अब इससे होने वाले संक्रमण और बिमारियों ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिया है. बाढ़ के बाद अब कई बीमारियां तेजी से बढ़ने लगती हैं. इनमें आंखों की समस्या (आई फ्लू) बड़ी तेजी से फैल रही है. जगह-जगह इससे पीड़ित लोगों ने काले चश्मे पहन रखे हैं. इस इंफेक्शन की वजह से लोगों को गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.
यह आई फ्लू देश के कई राज्यों में तेजी से फैल रहा है. जिससे लोगों को कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, जैसे आँखों में लालिमा, दर्द, सूजन, खुजली आदि. गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली के साथ-साथ केंद्र शासित प्रदेश जम्मू कश्मीर में भी आई फ्लू की समस्या तेजी से बढ़ रही है. जम्मू के ज़्यादातर अस्पताल चाहे वह शहरी क्षेत्र में हों अथवा ग्रामीण क्षेत्र, इस समय आंखों की समस्या से जूझ रहे मरीजों से भरे हुए हैं. प्रतिदिन अस्पतालों में आई फ़्लू के मरीजो का प्रतिशत लगातार बढ़ता ही जा रहा है. इस संबंध में जम्मू बहु फोर्ट के रहने वाले 14 वर्षीय हरित कुमार का कहना है कि मुझे पहले एक आंख में हल्की हल्की लाली होने लगी और उसके बाद दर्द भी होने लगा. इसके बाद आंखें थोड़ी थोड़ी सूजने लगीं. इसके साथ ही आंखों में जलन भी होने लगी और आंखों से हल्का हल्का पानी निकलने लगा. एक-दो दिन बाद मेरी दूसरी आंख मे भी वैसे ही सब कुछ होने लगा. जब मैंने चेकअप करवाया तो मुझे पता लगा कि मैं भी आई फ्लू से संक्रमित हो चुका हूं. डॉक्टर ने मुझे कुछ सुझाव दिए हैं और कुछ आई ड्राप, जिसकी वजह से अब मुझे थोड़ा थोड़ा आराम मिलना शुरू हो गया है.
इस संबंध में जम्मू संभाग के सांबा जिला स्थित जिला अस्पताल की आई स्पेशलिस्ट डॉक्टर रश्मि का कहना है कि हमारे यहां इस समय 100 में 80 मरीज आई फ्लू की समस्या से पीड़ित आ रहे हैं. इसमें हर उम्र के लोग हैं. कहीं कहीं तो पूरी की पूरी फैमिली ही इस समस्या का शिकार हो चुकी है।.परंतु बच्चों में यह लक्षण ज्यादा इसलिए दिखाई दे रहे हैं क्योंकि बच्चे अपनी हाइजीन मेंटेन नहीं रख पाते हैं. दूसरा बच्चों की इम्युनिटी बड़ों की अपेक्षा थोड़ी कम होती है. डॉ रश्मि सुझाव देते हुए कहती हैं कि इस समय जो भी बच्चे आंखों की समस्याओं से जूझ रहे हैं, माता पिता उन्हें स्कूल न भेजें ताकि न केवल बच्चे को और अधिक इंफेक्शन से बचाया जाए बल्कि इससे दूसरे बच्चों के भी संक्रमित होने का खतरा कम हो जाएगा. बच्चे का हाथ बार-बार धुलवाने की ज़रूरत है ताकि वह गंदे हाथों से आँखों को छू न ले. डॉ रश्मि बताती हैं कि इस समय यह बीमारी इतनी बढ़ चुकी है कि इससे जन्म के मात्र 20 से 25 दिन का बच्चा भी बच नहीं सका है जोकि आश्चर्य की बात है.
जम्मू मेडिकल हॉस्पिटल के डॉक्टर संदीप गुप्ता का कहना है कि पिछले चार-पांच दिन से देखने में आ रहा है कि आई फ़्लू के केस तेज़ी से बढ़ गए हैं. ऐसा नहीं है कि इस फ्लू में केवल बच्चे ही संक्रमित हो रहे हैं बल्कि यह किसी भी उम्र के लोगों को अपनी चपेट में ले रहा है. छोटे बच्चे से लेकर बुज़ुर्ग तक सभी इस आई फ्लू से प्रभावित हो रहे हैं. डॉक्टर संदीप गुप्ता का कहना है कि चूंकि यह सामान्य रूप से फ़ैल रहा है, ऐसे में इसके लिए कुछ सावधानियां बरतने की ज़रूरत है ताकि न केवल इससे बचा जा सके बल्कि फैलने से भी रोका जा सके क्योंकि यह एक वायरल इंफेक्शन है. डॉ गुप्ता का कहना है कि लगातार बारिश होने की वजह से वातावरण में नमी अधिक हो गई है. इससे इस वायरस को पनपने में मदद मिल रही है और यह तेजी से फैल रहा है.
डॉ गुप्ता कहते हैं कि इस फ्लू से घबराने की जरूरत नहीं है. बल्कि इसे समझने और इससे सावधानीपूर्वक बचने की जरूरत है. पहले तो आई फ्लू के लक्षण पता होने चाहिए. इसके लक्षणों पर चर्चा करते हुए डॉ गुप्ता बताते हैं कि पहले एक आंख में लाली आने लगती है और उसमें जलन होने लगती है. जिसके बाद आंखों से पानी ज्यादा आता है. पहले एक आंख में संक्रमण होता है. फिर दो-चार दिन में दूसरी आंख भी संक्रमित हो जाती है. आंखों के आसपास काफी स्वेलिंग आ जाती है जो बहुत पेनफुल होती है. उन्होंने इन अफवाहों को निराधार बताया कि इससे आंखों में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न हो जाता है या फिर रोशनी में कमी हो जाती है.
उन्होंने इन अफवाहों को भी निराधार बताया कि किसी संक्रमित को देख लेने से यह बीमारी फ़ैल जाती है बल्कि संक्रमित व्यक्ति को छूने से फैलती है. उन्होंने लोगों को सुझाव देते हुए कहा कि बिना हाथ धोए उंगलियों को अपनी आंखों से ना लगाएं. अधिक अधिक भीड़ भाड़ वाली जगहों पर जाने से परहेज़ करें. डॉ संदीप ने कहा कि यह संक्रमण 7 से 14 दिन में ठीक हो जाता है, इसलिए घबराने की ज़रूरत नहीं है. जब भी आंखों में ऐसी कोई समस्या दिखे तो तुरंत नजदीकी हॉस्पिटल में जाएं और आंखों का चेकअप करवा लें. उन्होंने बताया कि जैसे जैसे वातावरण में नमी कम होती जायेगी, वैसे वैसे इस संक्रमण का खतरा भी कम होता जाएगा.
जम्मू मेडिकल कॉलेज के वरिष्ठ डॉ अशोक शर्मा का कहना है कि वायरल कंजंक्टिवाइटिस के दौरान अधिकांश लोग खुद ही आंखों का इलाज करना शुरू कर देते हैं, जो कई बार नुकसानदायक होता है. यह वायरस हवा के माध्यम से फैलता है. इसीलिए शहरों के साथ साथ यह ग्रामीण क्षेत्रों को भी प्रभावित कर रहा है. उन्होंने बताया कि शहरी क्षेत्रों में जहां भीड़भाड़ अधिक होने और कचरे का सही निस्तारण नहीं होने के कारण यह बीमारी तेज़ी से फ़ैल रही है तो वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता के अभाव में यह बीमारी अपने पैर पसार रही है. डॉ शर्मा ने कहा कि सावधानी और जागरूकता इस बीमारी से लड़ने और बचने का सबसे कारगर हथियार है. (चरखा फीचर)
डॉ. आर.के. पालीवाल
अपने-अपने राम हिंदी के लेखक भगवान सिंह की प्रसिद्ध किताब है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का व्यक्तित्व इतना विराट था कि उसे देश के विभिन्न क्षेत्रों और वर्तमान में एशिया के अलग हुए देशों के लोगों ने अपनी अपनी समझ के अनुसार आत्मसात किया है। डॉ. राम मनोहर लोहिया द्वारा संकलित किए राम के विविध चरित्रों को चित्रकूट में स्थापित एक प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया है जहां एक साथ भगवान राम से संबंधित राम लीलाओं की अद्भुत जानकारी मिलती है। जैसे लोक में राम के अलग अलग स्वरूप विद्यमान हैं वैसे ही साहित्य में भी है। बाल्मीकि रामायण के राम तुलसीदास की रामचरित मानस के राम से वैसे ही अलग हैं, जैसे महात्मा गांधी के राम बाल्मीकि और तुलसीदास के राम से अलग हैं।
अब हमारे यहां अलग अलग लोगों राम ही अलग अलग नहीं रहे बल्कि राम राज्य भी अलग अलग हो गए हैं। बाल्मीकि और तुलसीदास ने जिस राम राज्य का जिक्र किया है महात्मा गांधी के राम राज्य की परिकल्पना भी लगभग वैसी ही थी जिसमें शासकों की निर्भीकता, सत्य, ईमानदारी, दया, करुणा और अंत्योदय समाज की सेवा राज्य के प्रमुख तत्व थे। भारतीय जनता पार्टी ने अपनी तरह से राम राज्य की परिकल्पना की है। उसमें राम का भव्य मंदिर सबसे ऊपर है और राम के आदर्श और मर्यादा उसके बाद आते हैं। भाजपा के राम राज्य में जय श्री राम, भारत माता की जय और वंदे मातरम् का नारा अनिवार्य है। इसमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ राष्ट्र का सबसे अहम सामाजिक सांस्कृतिक संगठन माना जाता है। बजरंग दल को राम के सेवक हनुमान उर्फ बजरंग बली का अधिकृत प्रतिनिधि मानते हैं और सभी नागरिकों को हिंदू कहा जाता है।
इसे भगवान राम की महिमा कहें या भारतीय जनता पार्टी की नकल हाल ही में कांग्रेस ने भी अपने राम राज्य की परिकल्पना कर ली है। उनके राम राज्य की कमान छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने संभाली है। उन्होंने कांग्रेस और छत्तीसगढ़ के राम राज्य के एक पेज के विज्ञापन भी जारी कर दिए हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ को भगवान राम का ननिहाल बताया है इसलिए चंद्रखुरी में माता कौशल्या के प्राचीन मंदिर का भव्य विकास करने की घोषणा की है। भारतीय जनता पार्टी यदि भगवान राम के भव्य मंदिर का श्रेय लेगी तो कांग्रेस भगवान राम की माताश्री के भव्य मंदिर निर्माण का श्रेय लेगी। यही नहीं छत्तीसगढ़ सरकार 138 करोड़ रूपए खर्च कर राम वन गमन पथ का विकास कर रही है। सरकार के विज्ञापन में जुटाई गई जानकारी के मुताबिक भगवान राम ने अपने चौदह साल के वनवास के दस साल छत्तीसगढ़ में बिताए थे। सरकार के इस ड्रीम प्रोजेक्ट में राम की नौ मूर्तियों की स्थापना की जानी है। श्री राम के नाम पर जितना काम छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार कर रही है उसका एक अंश भी रमन सिंह की पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने नहीं किया था। भूपेश बघेल का मानना है कि राम के साथ छत्तीसगढ़ का मामा भांजे का नाता है और भांजे के साथ छत्तीसगढ़ में विशेष रिश्ता होता है। इस लिहाज से पड़ोसी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो आम जन के मामा हैं, छत्तीसगढ़ के नागरिक भगवान राम के मामा हुए।
कांग्रेस ने भी शायद तय कर लिया है कि भगवान राम और राम राज्य पर भारतीय जनता पार्टी का एकाधिकार नहीं होने देंगे। इसी कड़ी में उन्होंने भाजपा के सहायक संगठन बजरंग दल को भगवान राम के प्रधान सेवक बजरंग बली का इकलौता प्रतिनिधि मानने पर एतराज किया था। मध्य प्रदेश के कांग्रेस के आदिवासी विधायक ने हनुमान को वनों का निवासी आदिवासी बताया है और बजरंग दल और उसके समर्थकों को चेतावनी दी है कि वे आदिवासियों के इष्ट बजरंग बली के स्वयंभू प्रतिनिधि बनने की कोशिश न करें। अब देखना यह है कि अगले लोकसभा चुनाव में देश की जनता किसे भगवान राम का भक्त मानेगी और को किसके रामराज्य को बेहतर मानेगी !
अणु शक्ति सिंह
युद्ध का एक कि़स्सा मेरे ज़हन में आधा-अधूरा है। शायद यह जापानी ही है जिसे बचपन में कभी पढ़ा गया था।
कहानी कुछ यूँ है, ‘सुबह का वक्त है। पति दफ्तर के लिए निकल चुका। पूरे गर्भ वाली पत्नी दो साल के बेटे को नहला रही है। बेटा नहाने में बदमाशी कर रहा है। हाथ से फिसल फिसल जा रहा है। साबुन उसकी आँखों में चला गया है। बेटे की कुनमुनाहट चालू है कि गर्भस्थ शिशु भी हलचल करता है। बेटे को थामते हुए महिला बैठती है। आने वाले शिशु के विषय में सोचती है। उम्मीद करती है कि बेटी होगी।
वह खयाल में ही डूबी है कि धमाका होता है। धमाके में लाखों लोग तुरंत मर जाते हैं।
पति बचता है किसी तरह। वह अपने घर पहुँचता है। जली हुई हालत में माँ-बेटे की लाश मिलती है। स्त्री के पेट से बाहर गर्भस्थ शिशु जिसके गाल पर बड़ा सा चीरा है।’
मैं कहानियाँ नहीं भूल पाती, न ही कविताओं का मजमून। यह किस्सा मेरी चेतना में दु:ख बनकर बैठा हुआ है। आज वह दु:ख क्रिस्टोफर नोलान की ओपनहाइमर ने एक बार फिर सहला दिया।
यह फि़ल्म एक ऐसे वैज्ञानिक की गाथा हो सकती है जिसने अमेरिका को कथित रूप से उसका आज दिया। उसके उत्थान और पतन के रूप में दर्ज किया जा सकता है।
या फिर एक बेहद महत्वाकांक्षी राजनयिक के बदले और चाहनाओं के फलक कीज् पर कहानी इतनी ही सीधी होती तो क्रिस्टोफर नोलान की कृति कैसे होती?
इंटरस्टेलर बनाने वाला शख़्स तहों में कहानियाँ बुनता है। आण्विक गुणों को जुदा ढंग से समझने के लिए बेकरार ओपनहाइमर ब्लैक होल पर जर्नल लिखता है। यह युद्ध में डूबा हुआ काल है। हिटलर की क्रूरताओं का। यहूदियों के हॉलोकास्ट होने का और अपनी जमीन छोडक़र भाग जाने का। अपने समय का महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंटस्टाइन दशक पहले ही अपने यहूदी होने की कीमत अदा कर चुका था। जर्मनी छोडक़र अमेरिका जा बसा था। दुनिया खून और मांस के लोथड़े में बंटी हुई थी।
क्रूरताएँ अपनी पराकाष्ठा पर थीं, और और वीभत्सताओं का इंतजार करते हुए। ठीक इसी वक़्त विज्ञान भी अपने उरूज पर था। क्वांटम मैकेनिक्स की दुनिया में एक साथ कई उस्ताद सक्रिय थे। नील्स बोर अपने गुरु रदरफोर्ड के थिर परमाणु सिद्धांत को खारिज कर चुके थे। परमाणु के नाभिक से जुड़ी हुई कई नई बातें दुनिया के सामने थीं।
उसी जाहिर समय जर्मनी में भी एक कमाल का फिजिसिस्ट वर्नर हाइजनबर्ग भी काम कर रहा था। वही जिसने क्वांटम मैकेनिक्स का सिद्धांत दिया था।
दुनिया भर में खुसफुसाहट थी, हाइजनबर्ग के न चाहने पर भी हिटलर उससे ऐसा हथियार बनवा सकता था जो दुनिया को नेस्तनाबूद कर दे। अमेरिका पहले यह हथियार बनवाना चाहता था।
एक वैज्ञानिक को इसकी बागडोर सौंपी जाती है। ओपनहाइमर को वह अपनी टीम बनाता है। उसका एक साथी उसे चेन रिएक्शन को लेकर आगाह करता है। दुनिया के खत्म हो जाने का खतरा मंडराने लगता है।
अमेरिका जल्दबाज़ी में है। फ़्लैशबैक में चल रही कहानी को सुना रहा राजनयिक अपनी ताजपोशी के इंतजार में है।
उस कहानी में ग्रीक कथाओं का वह देश-निकाला नायक है जिसने ईश्वर से आग चुराकर मनुष्यों को दे दी और ख़ुद नर्क में जलता रहा। उसी कहानी में अंतर्मन की जागृति लिए हुए भारतीय मिथक है जो संभोग के क्षणों में भी कर्तव्यबोध जागृत करता है। मनुष्यता को प्रश्रय देता है।
ग्रीक कथाओं का शापित नायक अचानक से ओपनहाइमर के चेहरे में नजऱ आने लगता है। अमेरिका के एक छुपे हुए शहर में वैज्ञानिकों के एक दल से जूझते हुए, उनकी सहमति-असहमति झेलते हुए।
दूसरा विश्व युद्ध लाखों जान ले चुका है। जर्मनी हार रहा है। जापान नहीं हारेगा, अमेरिका जानता है। जापान को हराना है तो वह हथियार चाहिए। ओपनहाइमर की टीम लगी हुई है। वे लगातार काम कर रहे हैं। उनकी तड़प, चाह देखकर कौन नहीं चाहेगा कि वे सफल हो जाएँ।
यहीं नोलान का जादू चलता है। आप चाहते हैं कि ये संघर्षरत वैज्ञानिक सफल हों। आपके पेट में मरोड़ें उठने लगती हैं कि उनका सफल होना लाखों जान की क़ीमत होगा। आप एक बारगी चाहते हैं कि यह परीक्षण फेल हो जाए। एक दूसरा कि़स्सा लिख दिया जाए, ठीक टेरेंटीनो की इनग्लोरियस बास्टर्ड की तरह।
आप यह भी जानते हैं ओपनहाइमर सफल हुआ था। हिरोशिमा बर्बाद हो गया था। नागासाकी नेस्तनाबूदज् उसी वक्त लाखों लोग मारे गये थे। पीढिय़ाँ बाद तक मरती रही थीं।
ओपनहाइमर परमाणु बम बना लेता है। अमेरिका जश्न में झूमता है। जापान आग में खत्म होता है। ओपनहाइमर के जहन में जहन्नुम का एक दरवाजा खुलता है जहां पछतावा उसे रोज जला रहा है। नोलान इसे शब्दों में नहीं, बिंबों में दर्ज करते हैं। नोलान हिन्दी कविता लिख रहे होते तो जरूर केदारनाथ सिंह के अच्छे मित्र होते। बिंब और दर्शन अपनी संपूर्णता में, यही तो नोलान की खासियत है।
ओपनहाइमर का किस्सा कायदे से लिटल बॉय और फैट मैन के छ: और नौ अगस्त को फटने के बाद ख़त्म हो जाना चाहिए था।
इस खात्मे को तारीफों से और सम्मानों से सजा हुआ होना था पर क्या मनुष्यों को आग देने वाले नायक प्रोमेथियस की मुक्ति संभव थी?
एक आग जलती रही। देव भंजित होते रहे, शाप देते रहे। यूरेनियम के परमाणु का चेन रिएक्शन दुनिया तो नहीं ख़त्म कर पाया। एक दूसरी शृंखला शुरू हो गई। रुस और अमेरिका का शीत युद्ध दुनिया भर में आण्विक हथियारों के जखीरे के तैयार होने की शुरुआत थी।
ओपनहाइमर मेडल ऑफ मेरिट के साथ मुस्कुराते हैं। नोलान के निर्देशन से कसी सिलियन मर्फी की मुद्राएँ थोड़े और दु:ख के साथ हृदय में धंस जाती हैं। कोई मृत शरीर नहीं दिखता है। रक्त की बूँद भी नहीं। बावजूद इसके युद्ध दिखता है, विध्वंस भी। कचोट से मन भर उठता है। फादर ऑफ एटोमिक बॉम्ब माने जाने वाले काले-सफ़ेद में लिपटे नायक के लिए संवेदनाएँ तड़प उठती हैं। भविष्य दिखता है। अंधेरा दिखता है। शक्ति की लड़ाइयों की चौंध में बंद हो जाती हैं आँखें। (ओपनहाइमर देखते हुए)
बहुत सार संक्षेप में अपनी बात कहने की कोशिश के बावजूद भारत का संविधान दुनिया में सबसे भारी-भरकम है। इसलिए वहां सूत्र रूप में जो कहा गया। केवल उसकी जांच की जाए, तो मौजूदा निजाम की संविधान विरोधी हरकतों का आसानी से खुलासा हो जाता है।
संविधान की उद्देशिका में अधिकारपूर्वक कहना है कि ‘हम भारत के लोग‘ संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न गणराज्य बनाने और हर व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता को बढ़ाने का ऐलान करते हैं। अनुच्छेद 1 में राज्यों और प्रदेषों की सूची है जो संविधान की पहली सूची में दर्ज हैं। राज्यों की सूची में 28 नामों में 18 वें नंबर पर मणिपुर का उल्लेख है। अनुच्छेद 5 के अनुसार संविधान के लागू होने पर हर व्यक्ति भारत का नागरिक होगा जो खुद या जिसके माता या पिता में से कोई भारत के राज्यक्षेत्र में जन्मा हो। लिहाजा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, मणिपुर की राज्यपाल अनुसूइया उइके और मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह भारतीय नागरिक हैं। संवैधानिक पदों के पदाधिकारी होने से वे नागरिकोंं से ज्यादा हैसियत नहीं रखते।
इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में संविधान का 42 वां संशोधन 3 जनवरी 1977 को लागू किया गया। उसमें अनुच्छेद 51 क में मूल कर्तव्यों की फेहरिश्त है जिसमें 11 मूल कर्तव्यों को सूचीबद्ध किया गया है। संवैधानिक पदाधिकारी सहित हर नागरिक का फर्ज है कि मूल कर्तव्यों का पालन करे ही। इनमें है कि स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे। कहीं नहीं है कि अंगरेज हुक्काम को चि_ी और प्रतिवेदन लिखकर दो कि आजादी के आंदोलनकारियों से हमारा बैर है और अंगरेज सरकार उन्हें प्रताडि़त करो। कछ लोगों ने ऐसा किया है। उस विचारधारा के लोगों को भी आंदोलन के आदर्शों को अपनाना होगा। मूल कर्तव्य हैं कि देश की रक्षा करो और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करो। जाहिर है मणिपुर की रक्षा करना इस वाक्य में षामिल है। पूरा देश चीत्कार कर रहा है।
संसद और विधानसभाओं में मांग उठ रही है। सडक़ों पर आंदोलन हो रहा है लेकिन देश की रक्षा और राष्ट्रीय सेवा नागरिक की हैसियत में भी संवैधानिक पदाधिकारियों द्वारा नहीं की जा रही है। प्रावधान कहता है भारत के सभी लोगों में समरसता और समान बिरादराना भाव कायम करो। जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो। ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के खिलाफ है। मणिपुर में माताएं, बहनें सडक़ों पर बलात्कार और हत्याएं भोग रही हैं। कुकी, नागा, मैतेयी आदि समूहों के संघर्ष में सरकार की ढिलाई या शह पर कत्लेआम मचा हुआ है। सरकारी गोदामों से हथियार दिए या छीने जा रहे हैं। कैसा है नागरिक कर्तव्य जिससे देष का हर संवैधानिक अधिकारी बंधा हुआ है।
51 क (झ) में कर्तव्य कहते हैं सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखें और हिंसा से दूर रहें। करोड़ों-अरबों रुपयों की निजी और सरकारी संपत्ति लूटी जा रही है। आग के हवाले कर दी जा रही है। हिंसा का तांडव नाच रहा है। तो क्या मूल कर्तव्यों की सूची फ्रेम में जकडक़र घरों या दीवारों में महज लटकाने के लिए है? मणिपुर में शांति और सहयोग कायम करने की ज्यादा जिम्मेदारी केन्द्रीय और प्रदेश की सरकारों पर है।
राष्ट्रपति का दायित्व है वे मंत्रिपरिषद को सलाह दें और उससे सलाह लें कि किस तरह देष को हाहाकार के इस बदनाम समय से बाहर निकाला जा सकता है। साफ कहता है अनुच्छेद 75 (3) कि मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से जिम्मेदार होगी। लेकिन संसद में मणिपुर पर बहस करने से कतरा रहे हैं। अनुच्छेद 78 कहता है प्रधानमंत्री का कर्तव्य होगा कि संघ के क्रियाकलाप के पशासन संबंधी सभी विनिश्चय स्वयं राष्ट्रपति को दें या मांगे जाने पर जरूरी जानकारी दें। कहां कर रहे हैं मौन प्रधानमंत्री?
इतना कहकर बहाना नहीं किया जा सकता कि मणिपुर की समस्या राज्य की समस्या है।
संविधान पूर्वज मानते थे कि कभी किसी राज्य में बड़ी गड़बड़ी के कारण जनता को सम्मानपूर्ण जीने की हालत यदि नहीं होगी। तो राज्यपाल और राज्य की मंत्रिपरिषद के साथ साथ केन्द्र को भी जिम्मेदारी देनी पड़ेगी। सोच समझकर डॉ. अम्बेडकर की अगुवाई में नेहरू के समर्थन के कारण अनुच्छेद 355 शामिल किया गया। उसमें लिखा है केन्द्र का कर्तव्य होगा कि वह बाहरी आक्रमण और अंदरूनी अषांति से हर राज्य की सुरक्षा करे और प्रत्येक राज्य की सरकार का संविधान के प्रावधानों के मुताबिक चलाया जाना सुनिश्चित करे। कहां चल रही है ऐसी सरकार मणिपुर में? क्या खूंरेजी, बलात्कार, हत्या, लूटपाट और दहशतगर्दी से चलने वाली सरकार को कोई संवैधानिक सरकार कहेगा? तीसरी अनुसूची के तहत केन्द्रीय मंत्रियों को शपथ लेनी पड़ती है कि वे संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखेंगे। भारत की प्रभुता और अखंडता को बरकरार रखेंगे। मंत्री के रूप में कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और साफ मन से निर्वाह करेंगे। भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और कानून के अनुसार इंसाफ करेंगे। ऐसी ही षपथ राज्य के राज्यपाल और मंत्री भी लेते हैं। दुनिया जानती है मणिपुर में कुछ भी संवैधानिक नहीं चल रहा है। तब फिर केन्द्र और राज्य का निजाम कैसे कह सकता है कि हम अपनी जवाबदेही का पालन कर रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट भी बीच-बीच में कुछ टिप्पणी कर तो देता है। हालांकि उन टिप्पणियों से सरकार को कोई तकलीफ नहीं होती। एक दिन पीडि़त जनता को खुश होने का वहम हो जाता है कि शायद कुछ अच्छा हो। अच्छा होता नहीं है। सरकार और विपक्षी दलों में तो केवल यही सिर फुटौव्वल बची है कि लोकसभा की कार्यवाही किस नियम के तहत हो। एक नियम में सीमित बहस होगी। दूसरे नियम में असीमित बहस की गुंजाइश है। एक मेंं वोटिंग होगी। दूसरी बिना किसी वोटिंग ध्वनि मत से मुद्दे को किसी किनारे किया जा सकता है। ऐसा ही तो राज्यसभा की कार्यवाही में उपसभापति हरिवंश ने एक बार खुलेआम कर दिया है।
दिल बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है की तर्ज पर संविधान में मूल कर्तव्य षामिल तो हो गए हैं लेकिन इनसे कहीं ज्यादा कारगर गांधी के विचार थे। उन्होंने संविधान बनने की प्रक्रिया के वक्त सुझाव दिया था कि नागरिक कर्तव्यों को इस आधार पर शामिल किया जाए कि जो नागरिक कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा। उसे मूल अधिकार नहीं मिलेंगे। उसमें सबसे महत्वपूर्ण था कि हर नागरिक देश के कल्याण के लिए अपनी काबिलियत के मुताबिक नकद रुपयों अन्य तरह की सेवा या श्रम के जरिए अपने कर्तव्य करेगा। हर नागरिक पूरी कोशिश या प्रतिरोध भी करेगा कि मनुष्य के द्वारा मनुष्य का षोषण नहीं किया जाए।
कांग्रेस नेतृत्व ने संविधान सभा में गांधी को पूरी तौर पर खारिज कर दिया। देश को मुश्किल हालात में गौतम अडानी, मुकेश अंबानी, रतन टाटा जैसे तमाम लोगों से कहा जा सकता था कि अपनी इच्छा या लोगों के आह्वान पर अनुरूप देष के लिए तय किया हुआ आर्थिक योगदान तो करें ही। आज वे देश की दौलत लूटने में इस कदर गाफिल हैं कि संविधान की किताब की गांधी की सुझाई आयतों को अगर छू लेगें। तो उन्हें बिजली का धक्का जैसा लगेगा। कहता है संविधान का अनुच्छेद 51 क (घ) में कि जरूरी होने पर आह्वान किया जाने पर हर नागरिक देश की सेवा करे। उसकी रक्षा करे। करोड़ों हैं जो सरकार और प्रधानमंत्री को आह्वान कर ही रहे हैं कि वे देष की रक्षा करें। सेवा करें। लेकिन वे देख रहे हैं इसके बावजूद प्रधानमंत्री को मणिपुर जाने की कोई नीयत ही नहीं है। मणिपुर जल रहा है याने भारत जल रहा है। सरकारी तंत्र उस आग को आश्वासन की पिचकारी से बुझाने की कोशिश कर रहा है।
ये सब तर्क राजनीति के नहीं है। ये संविधान की धरती से उगे हैं। संविधान में और कई प्रावधान हैं जो मणिपुर की समस्या को हल करने बेचैन हो रहे होंगे। अनुच्छेद 356 भी कहता है कि राज्यों में संवैधानिक तंत्र के विफल हो जाने की दषा में वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। लेकिन मणिपुर के राज्यपाल से उनकी असफलता की रिपोर्ट कोई कैसे मांगें। आरोप तो केन्द्र और राज्य दोनों सरकारों के ऊपर लग रहे हैं। आज केन्द्र और राज्य मेंं कहीं भी अलग-अलग पार्टियों की सरकारें होतीं तो राज्य सरकार भंग हो जाती। यह डबल एंजिन की सरकार केवल एक्सीडेन्ट कर रही है। इससे कम खराब हालत में कई प्रदेश सरकारें पहले भंग हो ही चुकी हैं।
अरुण कान्त शुक्ला
साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भाँति जो सिंह की खाल ओढक़र जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढक़र आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहत है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति मगर आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं। हालाँकि संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है। हिन्दू मूर्तिपूजक हैं, तो क्या मुसलमान कब्रपूजक और स्थान पूजक नहीं है। ताजिये को शर्बत और शीरीनी कौन चढ़ाता है, मस्जिद को खुदा का घर कौन समझता है। अगर मुसलमानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो बड़े से बड़े पैगम्बरों के सामने सिर झुकाना भी कुफ्र समझता है, तो हिन्दुओं में भी एक ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धारा और धर्मग्रन्थों को गपोड़े समझता है। यहाँ तो हमें दोनों संस्कृतियों में कोई अन्तर नहीं दिखता।
तो क्या भाषा का अन्तर है? बिल्कुल नहीं। मुसलमान उर्दू को अपनी मिल्ली भाषा कह लें, मगर मद्रासी मुसलमान के लिए उर्दू वैसी ही अपरिचित वस्तु है जैसे मद्रासी हिन्दू के लिए संस्कृत। हिन्दू या मुसलमान जिस प्रान्त में रहते हैं सर्वसाधारण की भाषा बोलते हैं चाहे वह उर्दू हो या हिन्दी, बंग्ला हो या मराठी। बंगाली मुसलमान उसी तरह उर्दू नहीं बोल सकता और न समझ सकता है, जिस तरह बंगाली हिन्दू। दोनों एक ही भाषा बोलते हैं। सीमा प्रान्त का हिन्दू उसी तरह पश्तो बोलता है, जैसे वहाँ का मुसलमान।
फिर क्या पहनावे में अन्तर है? सीमा प्रान्त के हिन्दू और मुसलमान स्त्रियों की तरह कुरता और ओढऩी पहनते-ओढ़ते हैं। हिन्दू पुरुष भी मुसलमानों की तरह कुलाह और पगड़ी बाँधता है। अक्सर दोनों ही दाढ़ी भी रखते हैं। बंगाल में जाइये, वहाँ हिन्दू और मुसलमान स्त्रियाँ दोनों ही साड़ी पहनती हैं, हिन्दू और मुसलमान पुरुष दोनों कुरता और धोती पहनते है तहमद की प्रथा बहुत हाल में चली है, जब से साम्प्रदायिकता ने जोर पकड़ा है।
खान-पान को लीजिए। अगर मुसलमान मांस खाते हैं तो हिन्दू भी अस्सी फीसदी मांस खाते हैं। ऊँचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते हैं, ऊँचे दरजे के मुसलमान भी। नीचे दरजे के हिन्दू भी शराब पीते है नीचे दरजे के मुसलमान भी। मध्यवर्ग के हिन्दू या तो बहुत कम शराब पीते हैं, या भंग के गोले चढ़ाते हैं जिसका नेता हमारा पण्डा-पुजारी क्लास है। मध्यवर्ग के मुसलमान भी बहुत कम शराब पीते है, हाँ कुछ लोग अफीम की पीनक अवश्य लेते हैं, मगर इस पीनकबाजी में हिन्दू भाई मुसलमानों से पीछे नहीं है। हाँ, मुसलमान गाय की कुर्बानी करते हैं। और उनका मांस खाते हैं लेकिन हिन्दुओं में भी ऐसी जातियाँ मौजूद हैं, जो गाय का मांस खाती हैं यहाँ तक कि मृतक मांस भी नहीं छोड़तीं, हालांकि बधिक और मृतक मांस में विशेष अन्तर नहीं है। संसार में हिन्दू ही एक जाति है, जो गो-मांस को अखाद्य या अपवित्र समझती है। तो क्या इसलिए हिन्दुओं को समस्त विश्व से धर्म-संग्राम छेड़ देना चाहिए?
संगीत और चित्रकला भी संस्कृति का एक अंग है, लेकिन यहाँ भी हम कोई सांस्कृतिक भेद नहीं पाते। वही राग-रागनियाँ दोनों गाते हैं और मुगलकाल की चित्रकला से भी हम परिचित हैं। नाट्य कला पहले मुसलमानों में न रही हो, लेकिन आज इस सींगे में भी हम मुसलमान को उसी तरह पाते हैं जैसे हिन्दुओं को।
फिर हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन सी संस्कृति है, जिसकी रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता इतना जोर बाँध रही है। वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखण्ड। शीतल छाया में बैठे विहार करते हैं। यह सीधे-सादे आदमियों को साम्प्रदायिकता की ओर घसीट लाने का केवल एक मंत्र है और कुछ नहीं। हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति के रक्षक वही महानुभाव और वही समुदाय हैं, जिनको अपने ऊपर, अपने देशवासियों के ऊपर और सत्य के ऊपर कोई भरोसा नहीं, इसलिए अनन्त तक एक ऐसी शक्ति की जरूरत समझते हैं जो उनके झगड़ों में सरपंच का काम करती रहे।
इन संस्थाओं को जनता को सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है जिसे राष्ट्र के सामने रख सकें। उनका काम केवल एक-दूसरे का विरोध करके सरकार के सामने फरियाद करना है। वे ओहदों और रियायतों के लिए एक-दूसरे से चढ़ा-ऊपरी करके जनता पर शासन करने में शासक के सहायक बनने के सिवा और कुछ नहीं करते।
मुसलमान अगर शासकों का दामन पकडक़र कुछ रियायतें पा गया है तो हिन्दु क्यों न सरकार का दामन पकड़ें और क्यों न मुसलमानों की भाँति सुखर्रू बन जायें। यही उनकी मनोवृत्ति है। कोई ऐसा काम सोच निकालना जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनों एक राष्ट्र का उद्धार कर सकें, उनकी विचार शक्ति से बाहर है। दोनों ही साम्प्रदायिक संस्थाएँ मध्यवर्ग के धनिकों, जमींदारों, ओहदेदारों और पदलोलुपों की हैं। उनका कार्यक्षेत्र अपने समुदाय के लिए ऐसे अवसर प्राप्त करना है, जिससे वह जनता पर शासन कर सकें, जनता पर आर्थिक और व्यावसायिक प्रभुत्व जमा सकें। साधारण जनता के सुख-दुख से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। अगर सरकार की किसी नीति से जनता को कुछ लाभ होने की आशा है और इन समुदायों को कुछ क्षति पहुँचने का भय है, तो वे तुरन्त उसका विरोध करने को तैयार हो जायेंगे। अगर और ज़्यादा गहराई तक जायें तो हमें इन संस्थाओं में अधिकांश ऐसे सज्जन मिलेंगे जिनका कोई न कोई निजी हित लगा हुआ है। और कुछ न सही तो हुक्काम के बंगलों पर उनकी रसोई ही सरल हो जाती है। एक विचित्र बात है कि इन सज्जनों की अफसरों की निगाह में बड़ी इज्जत है, इनकी वे बड़ी खातिर करते हैं।
इसका कारण इसके सिवा और क्या है कि वे समझते हैं, ऐसों पर ही उनका प्रभुत्व टिका हुआ है। आपस में खूब लड़े जाओ, खूब एक-दूसरे को नुकसान पहुँचाये जाओ। उनके पास फरियाद लिये जाओ, फिर उन्हें किसका नाम है, वे अमर हैं। मजा यह है कि बाजों ने यह पाखण्ड फैलाना भी शुरू कर दिया है कि हिन्दू अपने बूते पर स्वराज प्राप्त कर सकते है। इतिहास से उसके उदाहरण भी दिये जाते हैं। इस तरह की गलतहमियाँ फैला कर इसके सिवा कि मुसलमानों में और ज्यादा बदगुमानी फैले और कोई नतीजा नहीं निकल सकता। अगर कोई जमाना था, तो कोई ऐसा काल भी था, जब हिन्दुओं के जमाने में मुसलमानों ने अपना साम्राज्य स्थापित किया था, उन जमानों को भूल जाइये। वह मुबारक दिन होगा, जब हमारे शालाओं में इतिहास उठा दिया जायेगा। यह जमाना साम्प्रदायिक अभ्युदय का नहीं है। यह आर्थिक युग है और आज वही नीति सफल होगी जिससे जनता अपनी आर्थिक समस्याओं को हल कर सके जिससे यह अन्धविश्वास, यह धर्म के नाम पर किया गया पाखण्ड, यह नीति के नाम पर गऱीबों को दुहने की कृपा मिटाई जा सके। जनता को आज संस्कृतियों की रक्षा करने का न अवकाश है न ज़रूरत। ‘संस्कृति’ अमीरों, पेटभरों का बेफिक्रों का व्यसन है। दरिद्रों के लिए प्राणरक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है।
उस संस्कृति में था ही क्या, जिसकी वे रक्षा करें। जब जनता मूर्छित थी तब उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था। *ज्यों-ज्यों उसकी चेतना जागृत होती जाती है वह देखने लगी है कि यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी जो, राजा बनकर, विद्वान बनकर, जगत सेठ बनकर जनता को लूटती थी। उसे आज अपने जीवन की रक्षा की ज़्यादा चिन्ता है, जो संस्कृति की रक्षा से कहीं आवश्यक है। उस पुरान संस्कृति में उसके लिए मोह का कोई कारण नहीं है। और साम्प्रदायिकता उसकी आर्थिक समस्याओं की तरफ से आँखें बंद किए हुए ऐसे कार्यक्रम पर चल रही है, जिससे उसकी पराधीनता चिरस्थायी बनी रहेगी।
(मूलत:यह लेख 15 जनवरी 1934 जागरण में प्रकाशित हुआ था)
डॉ. आर.के. पालीवाल
हमारे यहां आजकल महात्मा गांधी को गरियाने का नया फैशन सा हो गया है। विशेष रूप से सोशल मीडिया पर कुछ लोग बंटवारे से लेकर तुष्टिकरण तक गांधी को कसूरवार ठहराने के फतवे जारी करते हैं। ऐसे लोग खुद तो गांधी के विराट व्यक्तित्व से परिचित नहीं हैं लेकिन युवाओं के अधपके मन को भ्रमित कर रहे हैं। ऐसे लोगों से एक विनम्र अनुरोध है कि वे थोड़ी देर ठहरकर शांति से अपनी बुद्धि का इस्तेमाल कर यह सोचें कि आखिर देश विदेश की इतनी सारी नामचीन हस्तियां सत्य, शांति और सादगी के महान उपासक महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और चरित्र को क्यों सर्वोच्च कोटि का मानती थी और क्यों आज भी विश्व के करोड़ों लोग उनके बताए शांति के रास्ते को सर्वश्रेष्ठ मार्ग मानते हैं। आखिर क्यों संयुक्त राष्ट्र संघ ने गांधी के जन्मदिन दो अक्तूबर को विश्व अहिंसा दिवस घोषित कर इस महामानव को सम्मानित किया है। यही नहीं हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ मुख्यालय में महात्मा गांधी की मूर्ति भी स्थापित की गई है।
भारत ही नहीं विश्व के सभी महाद्वीपों के सैकड़ों देशों में गांधी की मूर्तियां स्थापित की गई हैं।उन पर कई हजार किताबें लिखी गई हैं और अभी भी लिखी जा रही हैं। भारत सहित विश्व के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में गांधी पर पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स पढ़ाए जाते हैं और शोधकार्य हो रहे हैं। गांधी के जीवन और विचारों को प्रचारित प्रसारित करती इंटरनेट पर हजारों वेबसाइट हैं। बॉम्बे सर्वोदय मंडल द्वारा संचालित वेबसाइट द्वद्मद्दड्डठ्ठस्रद्धद्ब.शह्म्द्द पर पिछ्ले कुछ साल में सैकड़ों देशों के करोड़ों लोग विजिट कर चुके हैं। गांधी द्वारा स्थापित साबरमती और वर्धा आश्रमों में प्रतिदिन हजारों लोग गांधी के आकर्षण से खींचे आते हैं और वहां रखी पुस्तिका में एक से बढक़र एक उदगार व्यक्त करते हैं।यह सब तब हो रहा है जब गांधी कभी किसी लाभ के पद, यथा भारत के प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति या मंत्री आदि नहीं रहे फिर भी विश्व के सैकड़ों देशों में उनकी मृत्यु के पचहत्तर साल बाद भी उन्हें बेहद सम्मान के साथ याद किया जाता है।
आइंस्टीन गांधी के बारे में भाव विभोर होकर लिखते हैं कि भविष्य की पीढिय़ां यकीन नहीं करेंगी कि हमारी पीढ़ी ने गांधी जैसी सख्शियत को धरती पर आम आदमी की तरह चलते हुए देखा है।रोमा रोला ने आध्यात्मिक सख्शीयत की खोज में निकली मीराबेन को गांधी की शरण में भेजा था। पंजाब की राजकुमारी अमृत कौर ने गांधी के सानिध्य के लिए राजमहल के ऐशो आराम त्यागकर आश्रम का तपस्विनी जीवन अपनाया था। गांधी के प्रभाव में आकर ही लोहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अपनी अच्छी खासी बैरिस्टरी और जमीदारी त्यागकर खुद को देश सेवा में झौंक दिया था। सरदार पटेल की तरह सरोजनी नायडू से लेकर महादेव देसाई और डॉ सुशीला नैयर आदि न जाने कितने नाम हैं जिन्होंने गांधी के आकर्षण में अपना पूरा जीवन राष्ट्र सेवा को समर्पित कर दिया था।लुई फिशर उनकी सटीक जीवनी लिखने भारत आए थे। लॉर्ड माउंटबेटन ने उन्हें शांति के लिए फौज से बड़ा काम करने वाला वन मैन आर्मी का खिताब दिया था। हिंदी कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद और उनकी सहधर्मिणी गांधी के अनन्य प्रशंसक थे।
गांधी की हत्या के बाद भी उनके सहयोगियों ने गांधी के मार्ग पर चलकर अदभुत कार्य किए हैं। विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में कितनी जमीन गरीबों के लिए दान में मिली है। जयप्रकाश नारायण और नारायण देसाई के नेतृत्व में शांति सेना ने पूर्वोत्तर में कितना अदभुत काम किया है। सुभाषचंद्र बोस ने अपनी पहली सैन्य टुकड़ी का नाम गांधी ब्रिगेड रखा था।आज भी विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता अपने धरने प्रदर्शन गांधी मूर्ति के नीचे बैठकर करते हैं।भारत आने वाले विशिष्ट राजकीय अतिथि अपनी भारत यात्रा में गांधी से जुड़े स्थलों पर श्रद्धांजलि अर्पित करने जाते हैं।सूर्य सरीखी इतनी दैदीप्यमान विभूति पर कीचड़ उछालकर लोग अपनी ही क्षुद्रता और अपने ही हल्केपन का परिचय देते हैं। आपके गरियाने से गांधी की वैश्विक और सदाबहार छवि पर कोई असर नहीं पड़ेगा इसलिए अपनी उर्जा गांधी को गरियाने में जाया मत करो।
प्रभात पटनायक
मिसाल के तौर पर अगर किसी व्यक्ति की लंबाई 5 फीट 8 इंच हो, तो उसका बीएमआइ 25 किलोग्राम/ एम2 से घटकर 18.5 किलोग्राम एम2 पर आ जाने के लिए, उसके वजन में 18 किलोग्राम की कमी की जरूरत होगी। किसी व्यक्ति के वजन में इस दर्जे की कमी तो काफी लंबे अर्से तक लगातार भोजन में कटौती से ही हो सकती है।
इसी साल 3 अप्रैल को, योजना राज्य मंत्री, राव इंद्रजीत सिंह ने राज्यसभा में बताया था कि सरकार के पास, गरीबी के अनुमान के लिए 2011-12 के बाद के कोई आंकड़े ही नहीं हैं। इसलिए, उन्हें इसका कोई अनुमान ही नहीं है कि उसके बाद से कितने लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर उठाया जा चुका है।
यूएनडीपी की गरीबी की अवधारणा
बहरहाल, 18 जुलाई को संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) ने एलान किया कि 2005 से 2019 के बीच भारत ने 41 करोड़ 50 लाख लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर पहुंचाया था। बेशक, उसके बाद के दौर के संबंध में उसके पास कोई जानकारी नहीं है, फिर भी महामारी से पहले की अवधि के संबंध में उसने जो दावा किया था, उसे खूब उछाला गया है। लेकिन, इसे उछालते हुए इसे अनदेखा ही कर दिया गया कि न सिर्फ गरीबी की यूएनडीपी की अवधारणा, आम तौर पर इस संज्ञा से जो अर्थ समझा जाता है, उससे बहुत ही भिन्न है, बल्कि यह भी कि यूएनडीपी की अवधारणा न तो सैद्घांतिक रूप से पुख्ता है और न ही सांख्यिकीय दृष्टि से किसी मजबूत आधार पर खड़ी हुई है। इसे लेकर जो तूमार बांधा जा रहा था, बस झूठा ही था।
भारत के गरीबी के आधिकारिक अनुमान भी हालांकि अब सीधे पोषण-संबंधित वंचितता पर आधारित नहीं रह गए हैं, फिर भी ये अनुमान पोषण संबंधी हालात को आकलन का प्रस्थान बिंदु तो बनाते ही हैं और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के वृहद नमूना उपभोक्ता खर्च सर्वेक्षण, इन अनुमानों के लिए सांख्यकीय आधार मुहैया कराते हैं। अगर 2011-12 के बाद के वर्षों के लिए हमारे अपने देश के गरीबी के कोई अनुमान ही नहीं हैं, तो इसलिए कि इसके बाद के अगले ही सर्वे के नतीजों को, जो 2017-18 के संबंध में था, केंद्र सरकार ने दबा ही दिया था और उसके बाद से इस तरह का कोई सर्वे कराया ही नहीं गया है।
इसके विपरीत, यूएनडीपी द्वारा इस अनुमान के लिए अनेक संकेतकों का प्रयोग किया जाता है और इन संकेतकों को अलग-अलग भार देते हुए, एस समेकित माप निकाला जाता है। इन संकेतकों में शामिल हैं- क्या शरीर भार सूचकांक 18.5 किलोग्राम/एम2 से कम है; क्या पिछले पांच वर्षों में परिवार में 18 वर्ष से कम आयु में किसी बच्चे की मृत्यु हुई है; क्या परिवार का कोई सदस्य ‘स्कूल में प्रवेश की आयु+ 6 वर्ष’ आयु का या उससे बड़ा है, जिसने कम से कम छ: साल की स्कूली शिक्षा पूरी की हो; क्या स्कूल जाने की आयु का कोई बच्चा है, जो आठवीं कक्षा पूरी करने की आयु तक स्कूल नहीं गया हो, आदि-आदि।
गरीबी की जगह पर आधुनिकीकरण का माप
अब ऐसे किसी भी समाज में जो ‘आधुनिकीकरण’ की प्रक्रिया से गुजर रहा हो, इन सभी संकेतकों में सुधार तो दिखाई देगा ही। ऐसे किसी भी समाज में अठारह वर्ष से कम के बच्चों की मृत्यु दर घटती ही है। संगियों के दबाव तथा अपना जीवन बेहतर करने की आकांक्षाओं से ज्यादा संख्या में माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजेंगे, तब तो और भी ज्यादा जब स्कूल जाने वाले बच्चों को मुफ्त दोपहर का भोजन भी मिलता हो। इसी प्रकार, कम से कम छ: साल की स्कूली शिक्षा पूरी करना काफी आम फहम हो जाता है, भले ही बाद में बच्चा स्कूल छोड़ ही दे, आदि-आदि। बहरहाल, इन सभी मानकों पर स्थिति में सुधार और परिवार की आय का सिकुडऩा यानी आय का मालों की कम से कम होती पोटली को खरीदने में समर्थ होना, आसानी से एक साथ भी चल सकते हैं। दूसरे शब्दों में जब परिवारों की स्थिति पहले से खराब हो रही हो और इसलिए देश में गरीबी, आम तौर पर उससे जो अर्थ समझा जाता है, उस अर्थ में बढ़ रही हो, तब भी यूएनडीपी के उक्त मानक गरीबों की संख्या में गिरावट दिखा सकते हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो यूएनडीपी का गरीबी का पैमाना, जो अपने दावे के अनुसार ‘‘बहुआयामी गरीबी’’ को प्रतिबिंबित करता है, वास्तव में गरीबी में कमी को ‘‘आधुनिकीकरण’’ का समानार्थी ही बना देता है। लेकिन, वास्तविक गरीबी का संंबंध सिर्फ ‘‘आधुनिकीकरण’’ होने-न होने से ही नहीं होता है, बल्कि उसका संबंध तो इस सवाल से होता है कि इस आधुनिकीकरण की कीमत कौन चुका रहा है; इसका बोझ मेहनतकश उठा रहे हैं या अमीर उठा रहे हैं। और यूएनडीपी के गरीबी के माप में कुछ भी है ही नहीं, जो इस बाद वाले सवाल से दो-चार होता हो।
भारत में शासन के तत्वावधान में ‘‘आधुनिकीकरण’’ के तेजी सेलतथा उल्लेखनीय रूप से हो रहे होने से कोई इंकार नहीं कर सकता है। और ठीक यही चीज है, जो यूएनडीपी के गरीबी के माप में प्रतिबिम्बित होती है। लेकिन, जैसाकि हम पीछे देख आए हैं, गरीबी से आम तौर पर जो अर्थ लिया जाता है, उस अर्थ में गरीबी का संबंध आधुनिकीकरण की कीमत चुकाए जाने से होता है। सवाल यह है कि क्या ‘‘आधुनिकीकरण’’ के लिए राजकोषीय संसाधन, मेहनतकश जनता के उपभोग की कीमत पर आ रहे हैं; और यह कि क्या बदलते जमाने के हिसाब से अपनी जिंदगियों का ‘‘आधुनिकीकरण’’ करने के लिए, परिवारों को अपने जीवन स्तर में गिरावट को झेलना पड़ रहा है, जिसकी अभिव्यक्ति सबसे बढकऱ, अपने खाद्य उपभोग में कटौती में होती है, क्योंकि जब भी परिवार के बजट पर दबाव बढ़ता है, आम तौर पर वह अपने खाद्य उपभोग में ही कटौती करता है।
खाद्य उपभोग ही गरीबी का सटीक पैमाना
प्रसंगत: कह दें कि पोषण की स्थिति को गरीबी का आकलन करने का बुनियादी पैमाना मानने का असली तर्क ठीक यही है। ऐसा कत्तई नहीं है कि यह कहा जा रहा हो कि सिर्फ पोषण से ही फर्क पड़ता है, हालांकि पोषणगत वंचितता पर जोर देेेने वाले विद्वानों के संबंध में गलत तरीके से ऐसा मान लिया जाता है और उन पर ‘‘कैलोरी तत्ववादी’’ होने का आरोप लगाया जाता है। मुद्दा यह है कि पोषणगत वंचितता ही वह असली या आम्ल परीक्षा है, जिससे कुल दरिद्रीकरण सामने आ जाता है। पोषणगत आहार, वास्तविक आय का एवजीदार सूचक है और यह वास्तव में किसी अनिवार्य रूप से प्रश्नों के घेरे में आने वाले उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की मदद से, रुपया आय को घटाकर वास्तविक आय आंकने की तुलना में, कहीं बेहतर सूचक है। पोषणगत आहार की स्थिति में गिरावट (यहां हम उस सबसे ऊपरले संस्तर के मामले में ऐसी गिरावट को छोड़ सकते हैं, जो स्वास्थ्य संबंधी कारणों से और अति-उपभोग से बचने के लिए, पोषणगत आहार में कटौती करता है), इसका काफी भरोसेमंद लक्षण है कि संबंधित परिवार की दशा, बदतर हो रही है।
बेशक, यूएनडीपी के अधिकारी यह दलील देंगे कि वे भी न्यून-पोषण को अनदेखा कहां कर रहे हैं। आखिरकार, उनके सूचकांक में भी, 1/6वां हिस्सा तो पोषण का ही रहता है। लेकिन, पोषणगत वंचितता से वे जो अर्थ लगाते हैं, वह कुछ और ही है। इससे उनका आशय यह नहीं होता है कि कैलोरी या प्रोटीन आहार घट रहा है या नहीं, बल्कि उनका आशय सिर्फ यह होता है कि व्यक्ति का बॉडी-मास इंडैक्स (बीएमआइ), 18.5 किलोग्राम/एम2 से नीचे तो नहीं चला गया। कैलोरी या प्रोटीन आहार में कमी के पहलू से पोषणगत वंचितता के कई-कई प्रभाव होते हैं। इससे काम करने की क्षमता घट जाती है, इससे संबंधित व्यक्ति रोगों के लिए वेध्य हो जाता है, आदि, आदि। बॉडी-मास इंडैक्स का गिरना भी, इस तरह के दुष्प्रभावों में से एक हो सकता है। लेकिन, यूएनडीपी के सूचकांक में, पोषणगत वंचितता के सिर्फ एक संभव नतीजे, बीएमआइ में गिरावट को ही लिया जाता है और वह भी तब, जबकि वह एक खास सीमा से नीचे चला जाता है, जो 18.5 किलोग्राम/एम2 पर तय की गयी है। यूएनडीपी सूचकांक में इसे ही पोषणगत वंचितता के नाप का, इकलौता पैमाना बना दिया गया है। वास्तव में बीएमआइ में गिरावट का अनिवार्य रूप से यह अर्थ नहीं होता है कि यह 18.5 किलोग्राम/एम2 की सीमा से नीचे ही चला जाएगा। पोषणगत वंचितता तो, बॉडी मास इंडैक्स के एक खास सीमा से नीचे खिसकने के बिना भी, काफी अर्से तक चलता रह ही सकती है।
मिसाल के तौर पर अगर किसी व्यक्ति की लंबाई 5 फीट 8 इंच हो, तो उसका बीएमआइ 25 किलोग्राम/ एम2 से घटकर 18.5 किलोग्राम एम2 पर आ जाने के लिए, उसके वजन में 18 किलोग्राम की कमी की जरूरत होगी। किसी व्यक्ति के वजन में इस दर्जे की कमी तो काफी लंबे अर्से तक लगातार भोजन में कटौती से ही हो सकती है। इसका अर्थ यह हुआ कि यूएनडीपी के गरीबी के अनुमान में दर्ज होने की नौबत आने से पहले भी, पोषणगत वंचितता व्यक्ति की सलामती तथा स्वास्थ्य पर काफी चोट कर चुकी होती है। और यह इसके ऊपर से है कि इस वंचितता को भी, इस सूचकांक में कुल 1/6वें हिस्से के बराबर वजन दिया गया है।
यूएनडीपी के दावे और वृहद नमूना सर्वे की हकीकत
यूएनडीपी के गरीबी के आकलन और राष्ट्रीय नमूना सर्वे के वृहद नमूना सर्वे के जरिए सामने आने वाले गरीबी के आकलन के अंतर को, निम्रलिखित से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। यूएनडीपी का अनुमान कहता है कि 2005-06 में भारत में 64.5 करोड़ ऐसे लोग थे जो ‘बहुआयामी’ पैमाने से गरीब थे और यह संख्या 2015-16 तक घटकर 37 करोड़ रह गयी थी। इसका अर्थ यह हुआ कि इस अवधि में 27 करोड़ 50 लाख लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर पहुंचा दिया गया और इसके बाद से, 2015-16 और 2019-20 के बीच, 14 करोड़ और लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर कर दिया गया।
इसके विपरीत, राष्ट्रीय नमूना सर्वे का 2017-18 में आया 75वां चक्र यही दर्शा रहा था कि ग्रामीण भारत में 2011-12 और 2017-18 के बीच, सभी सेवाओं व मालों पर प्रतिव्यक्ति वास्तविक खर्च में 9 फीसद की गिरावट हुई थी। सर्वे का यह नतीजा इतना ज्यादा चोंकाने वाला था कि केंद्र सरकार ने इन आंकड़ों के जारी किए जाने के चंद घंटों के अंदर-अंदर ही, उन्हें सार्वजनिक पहुंच से दूर कर दिया। (यहां हमने 9 फीसद की जिस गिरावट को उद्यृत किया है, उन संक्षिप्त नतीजों पर आधारित हैं, जिन्हें कुछ लोगों ने इन आंकड़ों के सार्वजनिक पहुंच से हटाए जाने से पहले ही डाउनलोड कर लिया था। इन नतीजों पर उस दौर में प्रैस में भी कुछ चर्चा हुई थी।)
वास्तव में ग्रामीण आबादी का वह हिस्सा जो 2,200 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन का आहार हासिल नहीं कर पा रहा था, जो कि वह मूल मानदंड था, जिसे भारतीय योजना आयोग ने ग्रामीण गरीबी का आंकलन करने के लिए शुरूआत में लागू किया था, 2011-12 में 68 फीसद था। यह हिस्सा खुद ही 1993-94 के 58 फीसद के स्तर से बढकऱ यहां तक पहुंचा था। बहरहाल, 2017-18 तक यह हिस्सा और भी बढकऱ अनुमानत: 77 फीसद पर पहुंच गया। इस तरह, यूएनडीपी के गरीबी के अनुमान जिस अवधि में करोड़ों लोगों के ‘बहुआयामी गरीबी’ से ऊपर उठा दिए जाने की बात करते हैं, उसके कम से कम एक हिस्से में तो ग्रामीण गरीबी में, जाहिर है कि उसी अर्थ में जिस अर्थ में गरीबी को हमेशा से समझा जाता रहा है, ऐसी भारी बढ़ोतरी दर्ज हुई थी कि भारत सरकार ने, जाहिर है कि अवसरवादी तरीके से यही तय कर लिया कि इन तमाम आंकड़ों को ही दबा दिया जाए!
शहरी-ग्रामीण, सबमें गरीबी बढ़ी है
यहां तक हम ग्रामीण गरीबी की ही बात कर रहे थे। महामारी की पूर्व-संध्या में भारत में ‘‘यूजुअल स्टेटस’’ बेरोजगारी की दर, पिछले 45 साल के अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई थी, जिससे हम सुरक्षित तौर पर यह अनुमान लगा सकते हैं कि गरीबी, उसे सामान्य तौर पर जैसे समझा जाता है, घट नहीं सकती थी, बल्कि शहरी तथा ग्रामीण आबादी, दोनों को मिलाकर गरीबी इस दौरान बढ़ी ही होगी, जबकि यूएनडीपी के अनुमान से इससे उल्टा ही संकेत मिलता है।
हमने पीछे जो कुछ कहा है, वह यूएनडीपी के उक्त पैमाने मात्र की आलोचना नहीं है, बल्कि उसे गरीबी का पैमाना बताए जाने की ही आलोचना है। गरीबी के मोर्चे पर क्या हो रहा है, यह भारत में एक गर्मागर्म बहस का मुद्दा बना रहा है। यूएनडीपी, गरीबी मिटाए जाने की एक बहुत ही दिलकश तस्वीर लेकर इस बहस में कूद पड़ा है। लेकिन, वह गरीबी की संज्ञा का इस्तेमाल, इस बहस में बाकी सब जिस अर्थ में करते हैं, उससे बिल्कुल भिन्न अर्थ में कर रहा है। जब तक हम इस अंतर को ध्यान में नहीं रखेंगे, हमारे लिए इसकी व्याख्या करना मुश्किल ही होगा कि कैसे एक देश, जो 2022 में विश्व भूख सूचकांक पर, 121 देशों में, सिखक कर 107वें स्थान पर पहुंच गया है, उसी समय दसियों करोड़ लोगों को ‘‘गरीबी से ऊपर’’ उठा सकता है?
(लेखक राजनैतिक टिप्पणीकार और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्राध्यापक हैं।)
-अरुण दीक्षित
मैहर की पहचान इसलिए नहीं है कि वह एमपी का एक शहर है! उसकी पहचान सिर्फ इसलिए है कि वहां देवी का एक प्रसिद्ध मंदिर है! वह मंदिर जो देश ही नहीं पूरी दुनिया में मशहूर है। लाखों लोग हर साल देवी दर्शन के लिए मैहर पहुंचते हैं!
वे दोनों इसी मंदिर की समिति के सेवादार हैं। उन्होंने एक मासूम बच्ची के साथ दरिंदगी करके देश को एक बार फिर दिल्ली के निर्भया कांड की याद दिलाई है! यह भी गजब का संयोग है कि जिन्होंने निर्भया के समय पूरा देश सिर पर उठा लिया था वे आज मणिपुर को, देश के अन्य हिस्सों में हुई घटनाओं से जोडक़र, जस्टीफाई करने में जुटे हैं! सबसे दुखद पहलू यह है कि संसद के भीतर मणिपुर की घटनाओं का बचाव वे भी कर रही हैं जो कुछ महीने पहले गोमांस परोसने के आरोप से घिरी अपनी युवा बेटी के बचाव में भावुक अपीलें कर रही थीं! खबर अब दुनियां तक पहुंच चुकी है। लेकिन इस काम में उन चैनलों की भूमिका सीमित है जो 2012 में जमीन आसमान एक किए हुए थे।
पहले घटना जान लें! उसकी उम्र करीब 12 साल है। सतना जिले के मैहर में स्थित मशहूर शारदा देवी मंदिर के पास उसके दादा की झोपड़ी है। बाप है नहीं। घर में मां के अलावा दादा-दादी और एक छोटी बहन है।सरकार के सबको घर और आर्थिक सुरक्षा दे देने के दावे के बीच उसका परिवार भिक्षाटन करके गुजारा करता था। ‘देवी की कृपा’ से गुजारा चल रहा था। 27 जुलाई को दोपहर तीन बजे के आसपास वह अपनी झोपड़ी के बाहर खेल रही थी। खेलते-खेलते वह गायब हो गई।
घरवालों ने बहुत खोजा लेकिन वह नहीं मिली! अगले दिन गांव की ही एक महिला ने थोड़ी दूर जंगल में उसे पड़ा देखा। वह बुरी तरह घायल थी। परिवार के लोग पहुंचे तो पहली नजर में उन्हें लगा कि शायद मर गई है! फिर समझ में आया कि सांस चल रही है। तत्काल पास के अस्पताल ले गए। वहां एक महिला डॉक्टर ने प्राथमिक जांच की। उसने पाया कि बच्ची का शरीर क्षत-विक्षत है। उसके जननांग में करीब सवा फुट लंबी लकड़ी घुसी हुई है। डॉक्टर ने उसे तत्काल निकाला। चूंकि हालत खराब थी इसलिए उसे फौरन सतना भेजा गया। फिर वहां से रीवां के बड़े अस्पताल भेजा गया। फिलहाल वह जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है। डॉक्टर उसे बचाने में लगे हैं।
इधर मैहर में पुलिस ने सुराग के आधार पर शुक्रवार को शारदा देवी मंदिर समिति के दो कर्मचारियों को पकड़ा। अतुल बढ़ोलिया और रवींद्र रवि नाम के ये दोनों युवा कर्मचारी जेल भेज दिए गए हैं। पुलिस के मुताबिक इन दोनों ने ही बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार किया फिर उसे मारने की नियत से उसके जननांग में बड़ी लकड़ी घुसेड़ दी ताकि वह मर जाए। बाद में वे दोनों उसे जंगल में बेहोश छोडक़र चले आए। इन दोनों की उम्र करीब 30 साल बताई गई है।
पुलिस के हिसाब से कहानी खत्म! अपराध हुआ! अपराधी पकड़ लिए गए! आगे का काम अदालत का।
इस बीच बच्ची के स्वघोषित ‘मामा’ ने भी बाबा जी के तोतों की तरह रटा-रटाया बयान दोहराया! मैहर में बेटी से दुष्कर्म की जानकारी मिली है। मन पीड़ा से भरा हुआ है। बहुत व्यथित हूं। अपराधी गिरफ्तार किए जा चुके हैं। बच्ची के इलाज की व्यवस्था करने को कहा है। पुलिस को कहा गया है कि कोई अपराधी बचना नहीं चाहिए!
यह बयान पहली बार नहीं आया है। हर घटना के बाद वे ऐसा ही बयान देते रहे हैं। पहले वे हर बलात्कारी को फांसी देने की बात कहकर अपने द्वारा बनाए गए फांसी के कानून का भी जिक्र फख्र से करते थे। लेकिन फांसी का कानून बनाए जाने के बाद भी न तो राज्य में बलात्कार कम हुए और न ही आज तक कोई बलात्कारी फांसी पर लटकाया गया। हालांकि निचली अदालतों ने दो दर्जन से ज्यादा बलात्कारियों को फांसी की सजा सुनाई है। लेकिन सभी मामले अभी अदालतों में ही उलझे हैं! उधर केंद्र सरकार के आंकड़ों में एमपी महिलाओं के साथ अपराधों के मामले में देश में सबसे ऊपर चल रहा बताया जा रहा है।
फांसी के कानून से पहले धर्म की बात कर ली जाए। जिन दो दरिंदों ने मासूम बच्ची के साथ दरिंदगी की है, वे दोनों मैहर देवी मंदिर समिति के कर्मचारी थे। हालांकि कल को समिति इसे नकार भी सकती है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि करोड़ों लोगों के आस्था के केंद्र पर दिन-रात काम करने वाले लोग एक मासूम बच्ची के साथ जघन्य अपराध कर सकते हैं। उसका शरीर नोच सकते हैं। आपकी कल्पना में ये बात आए न आए पर ऐसा हुआ है।
इसी के साथ यह सवाल उठा है कि कानून की हालत तो पहले से खराब है पर क्या अब धर्म का अस्तित्व भी खत्म हो रहा है? एक ओर जहां राम के नाम पर चलने वाली राज्य सरकार शबरी को भी देवी बना रही है। सरकारी खजाने से अरबों रुपए खर्च करके मठ मंदिर और देवताओं के लोक बना रही है। बाबाओं और कथित संतों के चरणों में पड़ी है! दूसरी ओर धर्म से जुड़े और मंदिरों में काम करने वाले लोग ही बच्चियों से दुराचार कर रहे हैं!
आगे बात करने से पहले एक नजर सरकार के धार्मिक कार्यों पर डाल लीजिए! मध्यप्रदेश सरकार उज्जैन में महाकाल लोक बनवा रही है। ओरछा में राम राजा लोक बन रहा है। ओंकारेश्वर में शंकराचार्य का भव्य स्मारक बन रहा है! दतिया में पीतांबरा देवी का महालोक बन रहा है तो सलकनपुर में देवी लोक बनाया जा रहा है। सौसर में सरकार हनुमान महालोक बनवा रही है तो जानापाव में परशुराम लोक बनाने का ऐलान हो चुका है। सागर में अगले महीने संत रविदास के भव्य मंदिर का शिलान्यास खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करने वाले हैं। उसके लिए अभी प्रदेश में समरसता यात्राएं घूम रही हैं। यह काम बीजेपी ही कर रही है। चित्रकूट में दिव्य वनवासी रामलोक बनेगा तो रीवा के त्यौंथर में शबरी के वंशजों से जुड़ी कोलगढ़ी का जीर्णोद्धार भी सरकार करा रही है। इसी श्रंखला में सरकार ने भोपाल में महाराणा प्रताप लोक बनाने की भी ऐलान किया है।
यह अलग बात है कि भगवान के ये लोक भी उनके भक्तों के भ्रष्टाचार से बच नहीं पाए हैं। उज्जैन के जिस महाकाल के महालोक का उद्घाटन खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था वह कुछ महीने में ही क्षतिग्रस्त हो गया। ऋषि मुनियों की प्रतिमाएं धराशाई हो गईं। आरोप है कि महालोक में भारी भ्रष्टाचार हुआ है। लेकिन खुद सरकार भ्रष्टाचार छिपाने की कोशिश कर रही है।
इन लोकों के अलावा मुख्यमंत्री और उनके मंत्री अपने-अपने इलाकों में कथा भागवत के बड़े आयोजन करा रहे हैं। अविवाहित स्त्रियों को खाली प्लाट बताने वाले धीरेंद्र शास्त्री की कथा मुख्यमंत्री ने अपनी विदिशा में कराई थी। सीहोर में रुद्राक्ष बांट कर हर साल लोगों को परेशानी में डालने वाले प्रदीप मिश्र की सेवा में तो पूरी सरकार लगी रही है। कमोवेश हर जिले का प्रशासन और पुलिस इन धर्म के ठेकेदारों की सेवा में लगी दिखती है।
उधर विपक्षी दल भी इस मोर्चे पर पीछे नहीं है। खुद पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी धीरेंद्र शास्त्री की कथा अपने छिंदवाड़ा में करा रहे हैं।
सवाल यह है कि जब चारों ओर धर्म और उसके ठेकेदारों का ही बोलबाला है तो फिर प्रदेश में इतना अधर्म क्यों हो रहा है? सरकार कर्ज लेकर हजारों करोड़ रुपए इन लोकों और महालोकों पर खर्च कर रही है! लेकिन समाज पर इसका कोई असर नहीं दिख रहा हालत यह है कि एमपी में न तो कानून का डर दिखाई दे रहा है और न ही धर्म का!
न बेटी सुरक्षित है न बेटे। न युवतियां सुरक्षित हैं और न 90 साल की बुजुर्ग महिलाएं!
मुख्यमंत्री छोटी बच्चियों से लेकर बड़ी उम्र तक की महिलाओं के लिए कुछ न कुछ कर रहे हैं। बच्चियों के पैदा होने से लेकर उनकी पढ़ाई और शादी की व्यवस्था भी सरकारी खजाने से की जा रही है। लाडली बहनों को हर महीने एक हजार जेब खर्च दे रहे हैं। बुजुर्ग महिलाओं को हवाई जहाज से तीर्थ यात्रा करा रहे हैं। और तो और वे रैंप पर टहलते हुए अपनी बहनों के पांव को कांटों से बचाने के लिए उन्हें चप्पल देने का ऐलान कर रहे हैं। धूप से बचाने के लिए छाता दे रहे हैं।भले ही कर्ज लेकर करें! लेकिन अपने कुल बजट का एक तिहाई बच्चियों और महिलाओं पर खर्च कर रहे हैं!
यह अलग बात है कि इतना सब करके भी वे उन्हें सबसे जरूरी चीज, सुरक्षा की गारंटी नहीं दे पा रहे हैं। वे मामा बने! भाई बने! श्रवण कुमार बने! लेकिन बेटी बहन और माताओं को दरिंदों से बचाने में सफल नहीं हो पाए। सबसे अधिक समय तक एमपी का मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड बना लेने, बलात्कारियों को फांसी का कानून बना देने और पुलिस में 33 प्रतिशत महिलाओं की भर्ती कर देने के बाद भी वे अपराधियों के मन में कानून का डर पैदा नहीं कर पाए! उनका मन बहुत कोमल है! बहुत व्यथित रहता है। वे सख्त बात भी करते हैं! लेकिन फिर भी न बच्चियां सुरक्षित हैं और न उनकी माताएं और दादियां! राम भी उनकी मदद करते नहीं दिख रहे हैं।
वे रोज बड़े-बड़े दावे करते हैं! लेकिन इनके बाद भी उन्हें रोज व्यथित होना पड़ता है। न अपराधी डर रहे है और न वे ‘कृष्ण’ बन पा रहे हैं। फिर भी ‘शो मस्ट गो ऑन’ की तर्ज पर उनका काम चल रहा है। चलता रहेगा। इस सबके बाद अब आप ही बताइए कि अपना एमपी गज्जब है कि नहीं!
-डॉ. आर.के. पालीवाल
समाज सेवा, लेखन, पत्रकारिता, खेल, कला, विज्ञान और शिक्षा आदि क्षेत्रों में विशिष्ट सेवा के लिए सरकारों द्वारा पुरस्कार देना और सरकारों की जन विरोधी नीतियों से घोर असहमति के कारण विरोध स्वरूप पुरस्कार वापिस करना लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में बहुत पुरानी और स्वस्थ परंपरा है। यह सही है कि पुरस्कार लौटाने पर सरकार की किरकिरी जरूर होती है। लेकिन संवेदनशील सरकार वही है जो पुरस्कार लौटाने वाले विशिष्ट नागरिकों द्वारा पुरस्कार वापिस करने के कारणो पर गंभीरता से विचार कर उनके निवारण की कोशिश करे। वरिष्ठ गांधीवादी लेखक विष्णु प्रभाकर ने राष्ट्रपति भवन के समारोह में आमंत्रण के बावजूद उचित प्रोटोकॉल नहीं मिलने से पदम पुरस्कार वापस भेजा था। तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने विष्णु प्रभाकर से व्यक्तिगत रूप से संपर्क साधकर उन्हें ससम्मान राष्ट्रपति भवन आमंत्रित कर इस मुद्दे को हमेशा के लिए सुलझा लिया था। यह विष्णु प्रभाकर जी की विनम्रता और अब्दुल कलाम साहब का बड़प्पन था जिसने अप्रिय स्थिति को पूरी संवेदनशीलता के साथ सहजता से संभाल लिया था।
इस तरह की स्थितियों सेे बचने के लिए पर्यटन और संस्कृति मंत्रालय की संसदीय समिती ने यह सिफारिश की है कि पुरस्कार ग्रहण करने से पहले पुरस्कृत लोगों से यह लिखित में लेना चाहिए कि भविष्य में वे पुरस्कार नहीं लोटाएंगे। इसे और स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो पुरस्कार पाने वाले लोग भविष्य में सरकार की किसी नीति आदि के विरोध में पुरस्कार लौटाने का अधिकार खो देंगे। यदि यह प्रस्ताव स्वीकार हो जाता है तो बहुत से आत्म सम्मानी विभूतियों के लिए पुरस्कार लेना सहज संभव नहीं होगा क्योंकि पुरस्कार के साथ इस तरह की शर्त बहुत से खुद्दार लेखकों और कलाकारों के लिए आहत करने वाली होगी।
ब्रिटिश सरकार द्वारा आजादी के आंदोलन में सरकारी दमन चक्र द्वारा सत्याग्रह को कुचलने पर भी कई प्रबुद्धजनों ने ब्रिटिश शासन द्वारा दिए गए पुरस्कार लौटाकर शासन की क्रूर नीतियों का विरोध किया था। इसी तरह आज़ादी के बाद भी ऐसे कई उदाहरण हैं जब सरकार की दमनकारी नीतियों के विरोध मे पुरस्कार वापसी हुई है। प्रतिष्ठित लेखकों और पत्रकारों की नृशंस हत्या के बाद सरकार द्वारा अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही नहीं होने पर कई लेखकों ने पुरस्कार वापिस किए थे। हाल ही में महिला पहलवानों के खिलाफ कथित यौन दुराचरण के आरोपी सासंद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं होने पर खिलाडिय़ों द्वारा पुरस्कार वापिस किए जाने और उन्हें गंगा में प्रवाहित करने के प्रयास किए थे।
जब कोई पुरस्कृत व्यक्ति पुरस्कार वापिस करता है तब उसका यह कदम राष्ट्रीय मीडिया में व्यापक चर्चा का विषय बनता है। ऐसे समय सरकार के खिलाफ जन आक्रोश भी उमड़ता है। इसीलिए संभवत: सरकार चाहेगी कि प्रतिष्ठित लेखकों, कलाकारों और खिलाडिय़ों आदि से यह अवसर छीन लिया जाए जो निश्चित रूप से उनकी व्यक्तिगत आजादी का हनन है। इसी परिप्रेक्ष्य में संसदीय समिती के इस प्रस्ताव का सबसे कड़ा विरोध वाम विचार धारा के लेखकों के संगठन जनवादी लेखक संघ की तरफ से आया है। यह सही भी है कि कोई आत्म सम्मानी व्यक्ति सशर्त पुरस्कार प्राप्त करने में अपनी प्रतिष्ठा दांव पर नहीं लगाना चाहेगा। दूसरी तरफ यह भी उतना ही सच है कि पुरस्कार पाने के लिए लालायित काफ़ी लोग इस शर्त को स्वीकार भी कर लेंगे। ऐसी स्थिति में बेहतर लोगों की जगह हल्के लोगों को पुरस्कार मिलने से पुरस्कारों की गरिमा का ह्रास होगा। पहले ही सरकारी पुरस्कारों की चयन प्रक्रिया पर काफी प्रश्नचिन्ह खड़े किए जाते रहे हैं। यदि यह प्रस्ताव स्वीकार हो जाएगा तब सरकारी पुरस्कार बहुत हल्के हो जाएंगे।
डॉ. आर.के. पालीवाल
भाजपा में इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के कद सबसे ऊंचे हैं। इसी हिसाब से घर-घर मोदी, मोदी है तो मुमकिन है और भाजपा कार्यकर्ताओं की भीड जगह-जगह मोदी मोदी चिल्लाती है। इंदिरा गांधी के समय में जिस तरह कांग्रेस का मतलब इंदिरा गांधी हो गया था वर्तमान भाजपा की स्थिति भी कमोबेश वैसी ही हो गई है। जहां तक अमित शाह का प्रश्न है वे मोदी जी के बाल सखा की तरह हैं। जहां मोदी जी जन सभाओं का दायित्व संभालते हैं वहां अमित शाह चुनावी राज्यों में स्थानीय नेताओं को दिशा-निर्देश देते हैं। राजनीतिक दल के आंतरिक लोकतंत्र के लिए भले ही ऐसी स्थिती उचित नहीं कही जा सकती लेकिन दल की विजय के लिए यह सैनिको के अनुशासन की तरह सफल साबित हो रहा है।
प्रधानमंत्री ने इधर कई बार भारतीय जनता पार्टी को विस्तारित करने के लिए पसमांदा मुस्लिम समाज को साथ जोडऩे का आव्हान किया है। कुछ समय पहले पांचजन्य में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की तरफ से भारतीय जनता पार्टी को 2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारी के लिए केवल प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी और हिन्दुत्व के भरोसे नहीं रहने की सलाह दी गई थी। पांचजन्य की भाजपा को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निर्भरता कम करने की सलाह मानना तो भाजपा के वर्तमान परिदृश्य में असंभव है लेकिन शायद हिंदुत्व के बाहर निकलकर पार्टी के विस्तार की सलाह मान ली गई है। पसमांदा मुस्लिम समाज मुस्लिम जमात का वह वर्ग है जिसमें बुनकर समाज के अंसारी आदि गरीब मुसलमान आते हैं। इनमें काफी बड़ी आबादी उस गरीब वर्ग की है जिसने इतर कारणों से धर्मांतरण कर मुस्लिम धर्म स्वीकार किया था लेकिन इसके बाद भी उनकी आर्थिक और सामाजिक हैसियत में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। इस समाज की स्थिति आजादी के पहले भी खराब थी और आजादी के बाद भी उसमें ज्यादा परिर्वतन नहीं हुआ है। यही कारण है कि आजादी के आंदोलन के समय भी इस समाज के कई नेता मुहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ नहीं जुडक़र या तो आजादी के आंदोलन में कांग्रेस के साथ थे या अपनी अलग संस्था मोमिन कांफ्रेंस से संबद्ध थे।
उत्तरप्रदेश और बिहार में पसमांदा मुस्लिम समाज की काफी संख्या है। कई लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों में उनका अच्छा खासा वोट बैंक है। उत्तर प्रदेश में यह वोट बैंक शुरूआती दौर में कांग्रेस के साथ हुआ करता था लेकिन कांग्रेस की स्थिती कमजोर पडऩे पर यह कभी समाजवादी पार्टी और कभी बहुजन समाज पार्टी की तरफ लुढक़ता रहा है। इसी तरह बिहार में कांग्रेस की कमजोरी के कारण यह समूह राष्ट्रीय जनता दल की तरफ आ गया था।
भारतीय जनता पार्टी से यह समूह अभी तक दूर रहा है। असद्दुदीन ओवैसी की पार्टी एआई एम आई एम ने भी उत्तर भारत में इस वोट बैंक को अपने पक्ष में करने की काफी कोशिश की है लेकिन उन्हें बहुत ज्यादा सफलता नहीं मिली। यह समाज किसी एक दल की बपौती नहीं बना है शायद इसीलिए प्रधानमंत्री की नजऱ इस वर्ग पर पड़ी है। इसी परिप्रेक्ष्य में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने 27 जुलाई से पसमांदा मुस्लिम समुदाय को अपने साथ जोडऩे के लिए स्नेह यात्रा अभियान शुरू किया है। यह यात्रा विशेष रूप से उन्हीं क्षेत्रों में होकर गुजरनी है जहां पसमांदा मुस्लिम समुदाय की अच्छी खासी संख्या है। यह देखना दिलचस्प होगा कि भारतीय जनता पार्टी की स्नेह यात्रा में इस समाज के कितने लोग जुड़ेंगे। एक तरह से राम मंदिर के लिए रथ यात्रा से लेकर अब तक भारतीय जनता पार्टी ने हिंदुत्व के मुद्दे से बाहर निकलकर इस तरह का कोई विशेष अभियान उत्तर भारत में नहीं चलाया है जिससे उसका उदार और समावेशी चेहरा सामने आए। यदि यह बदलाव हाथी दांत की तरह दिखावा न होकर असली साबित हुआ तो निश्चित रूप से यह स्वागत योग्य कदम है।
प्रकाश दुबे
छलांग मारकर इस नतीजे पर पहुंचने से पहले, कि कार्यपालिका की बात न्यायपालिका को माननी पड़ी, उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश भूषण गवई क कथन याद करें। उलाहने से उभरे सवाल याद करें-1-क्या निदेशालय के बाकी अधिकारी अपने को अक्षम साबित होते महसूस नहीं करेंगे? 2- एक ही व्यक्ति के भरोसे काम चल रहा है? कल मैं यहां नहीं रहूंगा, तो देश की शीर्ष अदालत बैठ जाएगी? वरिष्ठता क्रम के मुताबिक न्यायमूर्ति गवई आगामी बरसों में देश के मुख्य न्यायाधीश पद के निर्विवाद दावेदार हैं। उनकी तीखी टिप्पणी के बावजूद संजय कुमार मिश्रा को 45 दिन तक प्रवर्तन निदेशालय का मुखिया बनाए रखने की मांग पर सरकार कायम रही। प्रधानमंत्री के दृढ़निश्चय, दूरदर्शिता तथा अर्जुन की तरह एक ही लक्ष्य पर आधारित संकल्प की जीत है। ईडी में संजय नज़रिए के रुतबे का संकेत तो है ही।
साहसी न्यायाधीश के तीखे बोल के बाद सर्वोच्च अदालत ने व्यापक जनहित में फैसले पर पुनर्विचार किया। बदल दिया। यह भी संकेत मिला कि इस्पाती ढांचा कहलाने वाली नौकरशाही अपनी दावेदारी और नियमों का हवाला देने में हिचकती है। हिचक के पीछे नैतिक कारण हैं, या भय? इस बहस से बचते हुए मूल मुद्दे पर विचार करें।श्री मिश्र1984 में राजस्व सेवा में आए। दो साल की नियुक्ति और सेवा विस्तारों को मिलाकर पांच बरस से आर्थिक मामलों की जांच और रोक के लिए बने प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक पद पर विराजमान हैं। केंद्र सरकार ने दलील दी कि अंतरराष्ट्रीय संगठन फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की आगामी रणनीति में हिस्सेदारी के लिए देश को उनकी जरूरत है। अदालत ने मान लिया।
इन दिनों जी-20 का डंका बजता है। 1989 में विकासशील देशों के जी-7 की पेरिस में हुई बैठक में मनीलांडरिंग पर काबू पाने फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स का गठन हुआ था। ट्विन टावर पर आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने विषय सूची में आतंकी गतिविधियों पर निगहबानी का मुद्दा जुड़वाया। साल भर के अंदर अप्रैल 1990 में आई एफएटीएफ की पहली रपट में 40 सिफारिशें की गई थीं। 2004 में विशेष तौर पर नौ और सिफारिशें जुड़ीं। भारत 2010 में पूर्णकालिक सदस्य बना। अब तक कितनी सिफारिशों पर भारत में अमल हुआ? सेवाविस्तार पाने में यशस्वी निदेशक से यह पूछना गलत लग सकता है। टास्क फोर्स की साल में तीन बैठकें होती हैं। फरवरी, जून और अक्टूबर। जून 2023 में बैठक हुई। आम नागरिक को जानकारी नहीं मिलती।
सुप्रीम कोर्ट को दस्तावेज खंगालते हुए पूछने का अधिकार है कि भारत के हिस्से में क्या आया? आतंकी गतिविधियों पर भारत सहित दुनिया के कई देशों की नजऱ है। तीन देश काली सूची में शामिल हैं। तीनों देशों से भारत के कूटनय संबंध है। इनमें म्यांमार शामिल है जिसका उल्लेख मणिपुर के संदर्भ में बार बार होता है। रक्षा मंत्री ने तीन दिन पहले पाकिस्तान को हडक़ाते हुए कहा-जरूरत पडऩे पर हमला किया जा सकता है। इसके बावजूद पाकिस्तान को एफएटीएफ ने काली सूची से हटा दया।
भारत ने सहमति कब और क्यों दी? निदेशक की उपलब्धियों में इस तथ्य को शामिल किया गया होगा। एफएटीएफ में पर्यवेक्षक हैसियत से शामिल इंटरपोल का भी भारत सदस्य है। दर्जनों खुफिया एजेंसियां हैं। वित्त मंत्री और दो राज्यमंत्रियों के अलावा वित्त सचिव स्तर के आधा दर्जन से अधिक अधिकारी हैं। उन्होंने पूछताछ की होगी। भारत ने बार बार पाकिस्तान को आतंकी देश कहा है। जनता को पता लगे कि किस विवशता में भारत ने फैसले का समर्थन किया? परिचित कराने का काम ईडी का है। 2014-15 से वर्ष 21-22 के बीचईडी की उपलब्धि है-888 मामले दर्ज किए गए। अनेक नामी गिरामी लोगों को घेरा। दबोचा। इनमें से मात्र 23 मामले ही दोषसिद्ध हो सके। ऐसा क्यों? आम नागरिक अदालत का मुंह ताके या ईडी से सवाल करे?
भ्रष्टाचार मुक्त भारत का प्रधानमंत्री का सपना लोगों को भाया। हालिया अदालती निर्णय से मिला संकेत उनके प्रशंसकों को पसंद नहीं आया होगा-140 करोड़ के देश के पास नौकरशाही के अदना से पुरजे का विकल्प नहीं है। न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने रायबरेली से इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया। इमरजेंसी लागू करने के अगले दिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल की बैठक में नहीं पहुंचीं।
वरिष्ठतम मंत्री यशवंतराव चव्हाण ने बैठक में कहा- इंदिराजी का कोई विकल्प नहीं है। पार्टी के अध्यक्ष भोले असमिया देबकांत बरुआ ने भक्तिभाव से इंदिरा इज इंडिया का नारा दिया। इंडिया शब्द को इन दिनों मुहाजदीन की कतार में बिठाया जा रहा है। इस पृष्ठभूमि में इंदिरा गांधी के प्रदेश में जन्मे संजय दृष्टि वाले ईडी विशेषज्ञ के प्रकरण से इंदिरा इज़ इंडिया नारा गंगा नहा गया। नारे को बुरा मानने वाले अब भी हैं। वे बुरा कहते रहेंगे।गलत नहीं कह सकते। संबंधित अधिकारी के लिए महा कृपा प्रसाद मिलने के बाद तो बिल्कुल नहीं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
देश के सबसे बड़े संयुक्त इंसानी उद्यम की यह भारत कथा है। देश का संविधान लगभग तीन सौ प्रतिनिधियों के तीन साल के लगातार परिश्रम का उत्पाद है। यह पहली और एकमात्र समावेशी राष्ट्रीय किताब है। आगे भी ऐसी किताब के लिखे जाने की संभावना नहीं दिखती। महान विचार के देश में सैकड़ों हजारों विश्वस्तरीय बुद्धिजीवी हुए हैं। उनके लिखे की रोशनी से दुनिया जगमग है। तब लेकिन देश में राजशाही रही है। कई नामचीन हस्ताक्षर राजदरबारों के आश्रय में रहे तो उनसे भी असाधारण कालजयी स्वतंत्र विचारक सूर्य की रोशनी की तरह जिज्ञासा और जिजीविशा के आकाश में सुरक्षित हैं। सदियों की राजनीतिक गुलामी के बाद देश 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हुआ। लोकतांत्रिक सहकारी समाज को चलाने उसे संविधान लिखने की जरूरत महसूस हुई। अब संविधान ही केन्द्रीय किताब है, प्रतिनिधि है और प्रामाणिक है। उसके अनुसार ही देश को हर क्षण चलना है। राज्यसत्ता और नागरिक उसके संगत ही जिरह और बहस कर सकते हैं। उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते।
इक्कीसवीं सदी भारतीय राजनीति के लिए बेहद मुश्किल, परेशानदिमागी की भी है। राजनेता उन पूर्वजों के मुकाबले बौने और बंद दिमाग हैं जिन्होंने देश को आजाद करने अपना निजी और पारिवारिक जीवन बरबाद भी कर दिया। आज राजनीति नेताओं का अधिकारनामा हो गई है। सीढ़ी दर सीढ़ी सत्ता में पहुंचने वाले लोग नीचे गिर गए हैं कि संविधान तक को अपनी हिफाजत करने में तरह तरह की परेशानियां हो रही हैं। राजनीति ने सबसे अच्छे इंसानी मूल्यों को ही तहस-नहस कर दिया है। जनता किसी तरह संविधान के छाते के नीचे खड़ी होकर खुद को सुरक्षित करने के जतन कर रही है। राजनीतिक पार्टियां और हर तरह के नुमाइंदे सेवा, चरित्र और सभ्यता से महरूम होकर ऐसे करतब कर रहे हैं कि लोकतंत्र के भविष्य को ही दहशत हो रही होगी। इंसान की बुनियादी समस्याओं को हल करने के बदले गाल बजाते नेताओं की प्रतियोगिताएं लोग देख रहे हैं। शब्द अपने में गहरे अर्थ समेटे होते हैं। राजनेता अपने कर्तव्य से मुंह चुराकर बस शब्द का कचूमर निकाल रहे हैं। उससे कई तरह की विषमताएं और पेचीदगियां पैदा होती हैं।
फिलवक्त देश के केन्द्र में खुद को संसार की सबसे बड़ी पार्टी कहती दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है। उसके साथ दो तीन दर्जन छोटी मोटी पार्टियां अपने कारणों से गठबंधन में हैं। केन्द्र के निजाम से मुकाबला करने 26 राजनीतिक पार्टियों का जमावड़ा मैदान में एकजुट होकर आया है। सभी पार्टियां 2024 के लोकसभा चुनाव परिणाम को निर्णायक और मुकम्मिल तौर पर अपने पक्ष में कर लेना चाहती हैं। भाजपा की अगुवाई में नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस, (राष्ट्रीय गणतांत्रिक गठबंधन) और कांग्रेस की अगुआई में यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस (अर्थात संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) सत्ता में रहा है। कांग्रेसनीत गठबंधन के बदले कांग्रेस सहित 26 पार्टियों का नया गठबंधन ‘इंडिया’ नाम से सामने आया है। अंगरेजी के ढ्ढहृष्ठढ्ढ्र। शब्द के पहले अक्षरों को मिलाकर ‘इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक इंडियन एलायंस’ नामकरण हुआ है। इस चुनौती के कारण सुरक्षित लगते प्रधानमंत्री मोदी ने ‘इंडिया’ शब्द पर ही फिकरा कसा है। मानो दांत में कोई कंकड़ अटक रहा है। भारत पर कभी हुकूमत कर चुकी ईस्ट इंडिया कंपनी और राजनीतिक और आतंकी जमावड़ों जैसे इंडिया मुजाहिदीन के नामों वगैरह के संदर्भों में कटाक्ष करने की कोशिश की गई है। इंडिया नामधारी गठबंधन ने कटाक्ष की उपेक्षा करते कहा है कि हम अपनी राह चलें। हमें मालूम है कि हमारे नाम का अर्थ क्या है।
अंगरेज भारत पर हुकूमत गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 के मुताबिक करते थे। तब ‘इंडिया’ शब्द की परिभाषा अंगरेजी में इस तरह थी"India means British India together with all territories of any Indian Ruler under the suzerainty of His Majesty, all territories under the suzerainty of such an Indian Ruler, the tribal areas, and any other territories, which His Majesty in Council may, from time to time, after ascertaining the views of the Federal Government and the Federal Legislature, declare to be part of India. Again, 'British India' was defined in the same clause as- "British India" means all territories for the time being comprised within the Governors' Provinces and the Chief Commissioners' Provinces.
रतीय संविधान के लिए कई समितियां और उपसमितियां बनाई गईं। उनकी अलग-अलग जिम्मेदारियां थीं। संविधान के अनुच्छेद 1 में भारतीय संघ का नाम और राज्यक्षेत्र का ब्यौरा विचारण में आया। संविधान की उद्देषिका में भी अंगरेजी में ‘इंडिया’और हिन्दी में भारत नाम का अनुवादित शब्द उपयोग में आया। नामकरण वाले अनुच्छेद के लिए डॉ. अम्बेडकर की अध्यक्षता में बनी प्रारूप समिति की सिफारिश रही कि उसे हिन्दी में लिखा जाए ‘इंडिया अर्थात भारत राज्यों का संघ होगा।’ उसे अंगरेजी में कहा गया ‘इंडिया दैट इज भारत।’ निर्दोष दिखने वाला यह वाक्य लंबी बहस के लिए संविधान सभा की तकरीर में आया। डॉ. अम्बेडकर ने 17 सितम्बर 1949 को अंतिम रूप से नाम को लेकर अपना प्रस्ताव रखा। अगले दिन 18 सितम्बर को उस पर बहस मुबाहिसा होकर नामकरण हो भी गया। बहस शुरू होते ही हरिविष्णु कामथ ने प्रस्ताव किया कि देश को ‘भारत अथवा अंग्रेजी भाषा मेंं इंडिया राज्यों का संघ होगा‘ कहा जाए या ‘हिंद अथवा अंग्रेजी में इण्डिया राज्यों का संघ होगा’ कहा जाए।
कामथ ने अलबत्ता कहा ‘‘भारत में नये गणराज्य को नवजात शिशु समझा जाए। परंपरा है नवजात शिशु का नाम रखा जाता है। जनता का विचार है कि उसका नाम भारत, हिन्दुस्तान, हिन्द, भरतभूमि, भारत वर्ष या ऐसा ही कुछ रखा जाए। ‘संविधान सभा देश के चुनिंदा लगभग 300 प्रतिनिधियों की उच्च अधिकारिता प्राप्त संस्था रही। उसे जातियों और लोगों में चल रही बहस वगैरह के आधार पर अधिकृत तौर पर सुझाव लेने की जरूरत नहीं रही है। इस संबंध में इतिहास में भारत नाम को उल्लेखित करते हरिविष्णु कामथ को भारसाधक सदस्य डॉ. अम्बेडकर ने एक तरह से झिडक़ा। कहा ‘‘क्या इन सब बातों की खोज करना जरूरी है? मैं समझ नहीं पाता कि इसका क्या मकसद है। भले ही वह किसी अन्य संदर्भ में रुचिकर हो सकता है। मुझे तो लगता है कि भारत नाम का शब्द विकल्प के बतौर रखा गया है। ‘कामथ ने उलट जवाब दिया ’1937 में आयरलैन्ड के पारित आयरलैन्ड के संविधान के नामकरण का अनुच्छेद कहता है- ‘राज्य का नाम आयर अथवा अंगरेजी भाषा में आयरलैंड है।’ इस तरह का आंकलन हम क्यों नहीं कर सकते? वैसे भी उदाहरण के लिए जर्मनी के लोग हमारे देश को इंडियेन कहते हैं और यूरोप के कई देश अब भी हिन्दुस्तान कहते हैं। इंडिया अर्थात भारत एक भद्दी पदावली है।
मैं नहीं समझ पाता हूं कि मसौदा समिति ने ऐसी रचना क्यों की। यह तो मुझे एक संवैधानिक भूल दिखाई देती है।
ऐसे राष्ट्रधर्मी मौके को आदत के अनुरूप हिन्दी के बड़े योद्धा सेठ गोविन्ददास ने लपका। उन्होंने संवैधानिक जिरह के बदले इतिहास में डूबकर भारत शब्द की महिमा बताने से परहेज नहीं किया। कह दिया कि कुछ लोगों को भ्रम हो गया है कि इंडिया इस देश का सबसे पुराना नाम है, जबकि यह गलत है। सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने तुनककर कहा ‘यह किसने कहा कि इंडिया सबसे पुराना नाम है?’ गोविन्ददास ने कहा कि एक पर्चा निकला है जिसमें यही सिद्ध करने की कोशिश की गई है। महावीर त्यागी ने टोका क्या इंडिया शब्द अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता का है? तो गोविन्ददास ने कहा ‘‘यह यूनानियों के कारण है। वे जब भारत आए तो सिंधु नदी की सरहद पर उन्होंने उसका नाम इंडस रखा और सिंधु के पार के क्षेत्र को इंडिया कहा। उन्होंने बताया यह बात एनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका में भी लिखी है। चीनी यात्री हुएनत्सांग ने भी भारत विवरण में भारत शब्द लिखा है। ‘सिकंदर तो ईसा मसीह के तीन सौ बरस पहले आया था। वह भारत फतह तो नहीं कर पाया लेकिन यूनानियों के शब्द-उच्चारण ने भारत का ‘इंडिया’ नामकरण कर दिया। ऐसा लोग मानते हैं। विवेकानन्द ने भी इस थ्योरी का समर्थन किया है। राष्ट्रभक्ति में उन्मादित होकर गोविन्ददास बोलने लगे ‘हमें अपने देष के इतिहास और संस्कृति के अनुरूप ही देश का नाम रखना चाहिए। आजादी की लड़ाई महात्मा गांधी की अगुआई में हमने लड़ी। तब भी हमने भारत माता की जय के नारे लगाए थे। ‘वैसे यह बात अलग है कि महात्मा गांधी ने हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान जैसे शब्दों का ठीक ठीक और सार्थक संदर्भो में इस्तेमाल किया है। गांधी तो भारत शब्द का इस्तेमाल कभी-कभार करते थे। हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, हिन्दुस्तानी सभा, हिन्दुस्तान सेवादल, हिन्दुस्तानी तमिल संघ, हिन्दुस्तान मजदूर सेवक संघ वगैरह गांधी से जुड़ते हैं। गोविन्ददास ने दार्शनिक अंदाज में कहा ‘मुझे विश्वास है जब हमारा संविधान हमारी राष्ट्रभाषा में बनेगा, उस समय यही भारत नाम यथार्थ स्थान प्राप्त करेगा।‘ संविधान में लेकिन राष्ट्रभाषा का जन्म तक नहीं हो पाया।
मद्रास के प्रतिनिधि कल्लूरी सुब्बाराव भारत शब्द विवाद को लेकर ऋग्वेद तक पहुंचे। उन्होंने माना कि यूनानियों के कारण सिंधु को इंडस कहा गया। इसलिए यह भी कहा हम अब पाकिस्तान को हिन्दुस्तान कह सकते हैं क्योंकि सिंधु नदी तो अब वहां पर है। अम्बेडकर ऐसी बहस से बार-बार उकता रहे थे। उन्होंने कहा अभी तक तय नहीं हुआ है कि देश का नाम क्या हो। पहली बार यहां वाद-विवाद हो रहा है। देशी राज्यों के प्रतिनिधि रामसहाय ने कहा हमारे ग्वालियर, इंदौर और मालवा की तमाम रियासतों ने मिलाकर अप्रेल 1948 में अपनी यूनियन का नाम मध्यभारत रख लिया है। खुशी की बात है कि पूरे देश का नाम भारत रखा जा रहा है। फिर वे भी इतिहास की परतें खोलने लगे और खासतौर पर धार्मिक किताबों की। जाहिर है वहां बार-बार भारत शब्द का इस्तेमाल अलग संदर्भ में हुआ है। संविधान सभा में कई कांग्रेसी सदस्य अपने बोलचाल, डीलडौल और पोषाक को लेकर पांडित्यपूर्ण लगते रहे। उनमें कमलापति त्रिपाठी भी हैं। उन्होंने तर्क किया ‘जब कोई देश पराधीन होता है। तब वह अपना सब कुछ खो देता है। एक हजार वर्ष की पराधीनता में भारत ने भी संस्कृति, इतिहास, सम्मान, मनुष्यता, गौरव, आत्मा और शायद अपना स्वरूप और नाम भी खो दिया है। आजाद होने के कारण यह देश यह सब हासिल करेगा।’ उन्होंने कई उल्लेख वेदों, उपनिषदों, कृष्ण और राम के संदर्भ में भी किए जिनका संविधान की जिरह से लेना देना भले ना रहा हो, लेकिन एक राष्ट्रवादी माहौल तैयार करने में ऐसे नामों और विशेषणों का उल्लेख करने की परंपरा विकसित होती रही है। अम्बेडकर फिर झल्लाए और उन्होंने पूछा कि क्या यह सब कहना जरूरी है? उत्तरप्रदेश के हरगोविन्द पंत ने सबसे ज्यादा सपाट और सीधी बात की। उन्होंने भारत षब्द को विकल्पहीन कहते सलाह दी कि क्यों नहीं इस देश के नाम के लिए भारत षब्द को ही ग्रहण कर लिया जाता। उन्होंने कहा इंडिया नाम के शब्द से न जाने क्यों हमारी ममता हो गई है। यह नाम तो हमें विदेशियों ने दिया है। वे हमारे देश का वैभव सुनकर हम पर हमला करने आए थे। विदेशियों ने यह नाम हमारे ऊपर थोपा है।
संविधान सभा में नाम को लेकर खासा विवाद हुआ है। अब दिखता है कि उस वक्त के कद्दावर काठी के नेता नामकरण विवाद से खुद को अलग रख चुके थे। बहस में जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, के. एम. मुंशी, अलादि कृष्णस्वामी अय्यर, एन. गोपालस्वामी आयंगर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, मौलाना आजाद, जगजीवन राम, पुरुषोत्तमदास टंडन, गोविन्द वल्लभ पंत वगैरह की कोई भूमिका नहीं रही। बी. एम. गुप्ते ने द्विअर्थी बात कह दी कि मैं भारत नाम का तो समर्थन करता हूं लेकिन उसे स्वीकार करने से तमाम तरह की पेचीदगियां और विषममताएं भी पैदा होंगी। डॉ. अम्बेडकर ने फिर स्पष्ट किया कि सरकारी प्रस्ताव यही है कि देश का नाम इंडिया अर्थात भारत होगा। भारत शब्द को इंडिया के साथ संलग्न कर रखा जाए अथवा नहीं? उसके बरक्स प्रस्ताव से अलग जाकर भारत शब्द की शाब्दिक, फलित, ऐतिहासिक, सामाजिक और धार्मिक महत्ताओं पर विस्तृत शोध की जरूरत नहीं है।
संविधान सभा में एक बात खास रही। वह अब भी भारतीय राजनीति में मुख्य है। कैसी भी तकरीर हो। उसे सत्ताधारी दल खारिज करना चाहता है, तो उसमें कोई रोक टोक नहीं है। अम्बेडकर गैरकांग्रेसी सदस्य थे। मुख्यत: गांधीजी की सलाह के कारण नेहरू और पटेल ने उन्हें न केवल निर्वाचित किया बल्कि सबसे महत्वपूर्ण प्रारूप समिति का अध्यक्ष भी बनाया। अम्बेडकर उम्मीदों पर खरे उतरे हैं। उन्होंंने संविधान को मुकम्मिल तौर पर बनाने के लिए बहुत परिश्रम किया है। कुछ महत्वपूर्ण सदस्यों की राय से अम्बेडकर का इत्तफाक नहीं होता था। उन्होंने अमूमन ऐसे प्रस्तावों को नेहरू के कारण कांग्रेसी बहुमत उपलब्ध होने से बार-बार खारिज कराया। उसका खमियाजा देश आज भुगत रहा है। इन विपरीत हालातों में भी समाजवादी तेवर के हरिविष्णु कामथ ने मत विभाजन की मांग की। अन्यथा प्रस्ताव मौखिक रूप से ही खारिज हो जाता। ऐसा राज्यसभा के मौजूदा उपसभापति हरिवंष ने लगभग पराजित होते एक सरकारी प्रस्ताव को ध्वनि मत से पारित करने का ऐलान तो किया है। उससे देश की राजनीति में भूचाल आ गया। कामथ का प्रस्ताव संविधान सभा की कार्यवाही में किसी गैर सरकारी प्रस्ताव में सबसे अधिक समर्थन जुटा पाया। वह 38 के मुकाबले 51 मतों से खारिज किया गया।
उल्लेखनीय है कि उपेन्द्रनाथ बर्मन नाम के सदस्य ने संविधान की उद्देशिका पर अपने विचार व्यक्त करते हुए जरूर कहा था कि संविधान के पूरे ड्राफ्ट में जहां जहां इंडिया शब्द आया है। वहां-वहां उसको हटाकर भारत वर्ष लिखा जाए। हालंाकि यह बात नहीं मानी गई। यह भी है कि नामकरण संबंधी मूल प्रस्ताव जब डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा की बहस के लिए 15 नवंबर 1948 को पेश किया था। तब सबसे पहले अनंत शयनम आयंगर ने कहा था कि इंडिया के बदले भारत, भारत वर्ष या हिन्दुस्तान शब्द रखा जाए। लेकिन संविधान सभा में अंतिम बहस होने के दिन आयंगर बिल्कुल नहीं बोले।
संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद नामकरण संवाद को लेकर चुप्पी साधे रहे। लेकिन पंचायती राज को लेकर उन्होंने अध्यक्ष की हैसियत में संविधान सभा के सलाहकार बी.एन. राव को आग्रह का पत्र तो लिखा था। लोकतंत्र में एक विशेष लक्षण कई बार मुनासिब फैसले करने से रोक देता है। वह है बहुमत का सिद्धांत। अम्बेडकर को इसका बहुत फायदा मिला। उन्होंने अपने आखिरी भाषण में 25 नवंबर 1949 को कहा था कि कांग्रेसी सदस्यों के बहुमत के कारण वे असुविधाजनक स्थिति में नहीं होते थे क्योंकि बहुमत उनके साथ होता था। नामकरण विषय भी 15 नवंबर 1948 को विचारण में आया। तब गोविन्दवल्लभ पंत ने उस पर वाद-विवाद को मुल्तवी करने का आग्रह किया जिससे सदस्य एक राय हो सकें। लेकिन हुआ कहां। 18 सितंबर 1949 को एक राय होने के बदले मत विभाजन में अम्बेडकर के प्रस्ताव के ही खिलाफ काफी वोट पड़े। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को 545 के सदन में करीब 415 सदस्यों का समर्थन था। फिर भी उन्होंने कई प्रस्तावों मसलन दलबदल विरोधी विधेयक तक को सर्वसम्मति से पास कराया। लोकतंत्र में बहुमत कई बार नैतिक मूल्यों को पराजित भी करता है। इस जुगत में तो नरेन्द्र मोदी माहिर हैं। कई बार उनका साथ सुप्रीम कोर्ट भी देता है। दोनों स्थितियों में लोकतंत्र की पराजय होती है। नरेन्द्र मोदी तो संवैधानिक संस्थाओं की ही पराजय कर रहे हैं। उनके लिए संसद खुशामदखोरी का जमावड़ा हो जाए। तो वे भारत के इतिहास में अमर हो जाएंगे। इंडिया षब्द के मौजूदा विपक्षी पार्टियों के साथ जुडऩे का एक पक्ष और है। संविधान के अनुच्छेद 51 क से सभी राजनीतिक दल सहमत हैं। इसके बरक्स भाजपा संघ और समर्थक जमावड़े को भारत की सामासिक संस्कृति, सर्वधर्म समभाव और वैज्ञानिक भाव बोध से गहरा परहेज है। अंगरेजी का इंडिया षब्द अपनाने से दक्षिण भारत के अहिन्दी भाषी राज्यों में विपक्षी पार्टियों को समर्थन मिलने की बेहतर उम्मीद होगी। यह भी संघ भाजपा युति को तकलीफदेह अनुभव हो रहा होगा क्योंकि दक्षिण में उनकी पैठ नहीं बन पाती है।
प्राण चड्ढा
इस प्रसिद्ध कहावत के समान छतीसगढ़ में टाइगर सम्वर्धन अब शुरू है।अचानकमार टाइगर रिजर्व यह टाइगर के लिए चीतलों की संख्या नाकाफी है इसलिए राजधानी रायपुर की टाइगर सफारी से 150 चीतलों को लाया जा रहा है। इससे यहां के टाइगर किसी दूसरे पार्क को खुराक की कमी से शिफ्ट नहीं हो जाएं। वहीं अचानकमार टाइगर रिजर्व के लिए महाराष्ट्र और मप्र से एक टाइगर और दो टाइग्रेस को लाने की अनुमति मिल गयी है। वो भी निकट भविष्य में पहुंच सकते हैं। यहां पहले चीतल कम है और टाइगर ला रहे हैं। यह पता किये बिना की चीतल कम क्यों हुए और उनके कारणों के निराकरण किये बगैर,यह फैसला अदूरदर्शिता पूर्ण है।
‘अब तक करोड़ो की राशि हर बरस व्यय और तमाम कोशिशों के बावजूद छतीसगढ़ में टाइगर संरक्षण और संवर्धन का काम पटरी पर नहीं आ सका है। छतीसगढ़ के अचानकमार टाइगर रिजर्व में सबसे प्रबल सम्भावनाये हैं। पर इसके लिए दूरगामी सोच का अभाव छलक रहा है। यहां बाइसन की संख्या काफी बढ़ गयी हैं। टाइगर 6 से 8 होने की सम्भावना है,लेकिन उनके लिए प्री-बेस को बढ़ाने कोई प्रयास नहीं किया गया है। पहले यहां बिलासपुर के कानन पेंडारी से चीतल ले जाकर छोड़े जाते थे। टाइगर खुराक की कमी के कारण पार्क से विमुख न हो जाये इसलिए रायपुर की टाइगर सफारी से 150 चीतल लाने की योजना पर काम चल रहा है।
एटीआई में प्रवासी टाइगर और टाइग्रेस भी हैं। बांधवगढ़ की एक टाइग्रेस और कान्हा नेशनल पार्क के एक टाइगर की पहचान कुछ समय पूर्व हुई है। यहां टाइग्रेस की संख्या टाइगर से अधिक है जिससे अधिक शावक होने की आशा है। अर्थात जल्दी यहां टाइगर बढ़ सकते हैं।एक टाइगर के एरिया में दो या तीन टाइग्रेस रह सकती हैं लेकिन दूसरा प्रतिद्वंदी टाइगर नहीं।
अचानकमार टाइगर रिजर्व (एटीआर) में सैलानियों को जिप्सी सफारी के दौरान टाइगर दिखाई जिस दिन दिखता है तो वह उनके लिए जश्न का दिन हो जाता है। मगर टाइगर दर्शन का संयोग का माह में एक बार का भी औसत नहीं है। लेकिन विभिन्न जगह में लगाए गए कैमरों में टाइगर कैप्चर होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
एटीआर का टाइगर यहां चीतल का शिकार कम ही करता है। गाँव वालों के मवेशी जो जंगल में घूमते हैं वह टाइगर की खुराक बन जाते हैं क्योकि वो चीतल से टाइगर के लिए आसान शिकार जो होते हैं। चीतल भी यहां जंगल में कम हैं जो कोर ज़ोन की बसाहट के आसपास छोटे झुंड में दिखते हैं। कुल मिलाकर अब जितने टाइगर बताते जा रहे हैं उनके अनुपात में कान्हा या बांधवगढ़ से बहुत कम हैं।
अचानकमार अभ्यारण्य की स्थापना 1975 में हुई बाद यह टाइगर रिजर्व बन गया परन्तु आज तक इसमें कोर एरिया में बसे 19 गांव की आबादी और उनके मवेशियों के दबाव बना है। इन गांव वाले में कई के पास तीर कमान है, और कुत्ते भी हैं जिनसे चीतलों पर शिकार का खतरा मंडराते रहता है। एक जोड़ा कुत्ता भी चीतल का शिकार कर सकता है।अब वह समय है पार्क एरिया से आबादी को हटाया जाए जिसके पहले चरण के उनके कुत्ते और तीर कमान पर जंगल मे प्रवेश पर रोक लगनी होगी। इसके लिए दमदार निर्णय लेने की जरूरत है।
पार्क में गर्मी के दिनों पानी के कमी नहीं होय और चीतल की कमी दूर लिए हरे चारा के बड़े मैदान विकसित करने होंगे जिसके लिए जलदा,सिहावल और बाहुड़ के मैदान, चारागाह बन सकते हैं। जिस पर कोई काम नहीं किया जाता। जिस वजह ही रायपुर के टाइगर सफारी और पहले बिलासपुर के चिडिय़ा घर से चीतल छोड़े जाते रहे है। निश्चित ही अगर चीतल बढ़ा गए तब प्रवासी टाइगर यहां के रहवासी टाइगर का स्थायी बसेरा एटीआर बन जायेगा।
अर्जुन ठाकुर
पहाड़ी इलाके दिखने में जितने खूबसूरत होते हैं, उनमें खतरा भी उतना ही अधिक होता है। यह वह क्षेत्र होते हैं जो सबसे अधिक भूकंप प्रभावित होते हैं। फिर चाहे वह उत्तराखंड का इलाका हो या फिर धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला जम्मू-कश्मीर का क्षेत्र हो। जम्मू कश्मीर का पहाड़ी क्षेत्र बादल फटने या चट्टानों के खिसकने जैसी प्राकृतिक आपदाओं के साथ साथ भूकंप के लिए भी अति संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है। 8 अक्टूबर 2005 को जम्मू कश्मीर में आया 7.6 तीव्रता वाला भूकंप आज भी लोगों को भयभीत कर देने वाली तस्वीरों की याद दिला देता है। जिसमें 1350 लोगों ने अपनी जानें गवाई थी और बड़े पैमाने पर निजी व सरकारी संपत्ति का नुकसान हुआ था। हाल के दिनों में आए भूकंप के कुछ झटकों ने जहां लोगों को फिर से डरा दिया है वहीं यह भू वैज्ञानिकों के लिए भी किसी चेतावनी की तरह है।
इसी वर्ष अप्रैल में जम्मू कश्मीर से प्रकाशित एक प्रमुख अंग्रेजी समाचारपत्र ने संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित कोलोराडो विश्वविद्यालय में भूकंप विज्ञानी और भूविज्ञान के प्रोफेसर रोजर बिल्हम द्वारा इस क्षेत्र में किये गए एक अध्ययन के हवाले से कई महत्वपूर्ण जानकारियां प्रकाशित की हैं। जिसमें प्रोफेसर बिल्हम ने चेतावनी दी है कि 9 तीव्रता वाले एक बड़े भूकंप से जम्मू कश्मीर में भूस्खलन और बाद में बड़ी तबाही होने की संभावना हो सकती है। इन संवेदनशील क्षेत्रों में विशेषकर पीर पंजाल और चिनाब घाटी प्रमुख है। हाल के दिनों में जिला डोडा, किश्तवाड़ और रामबन में भूकंपों का सिलसिला भी देखने में आया है। वैज्ञानिक तौर पर भी जिला डोडा भूकंप के मामलों में सबसे नाजुक क्षेत्रों में एक चिन्हित किया गया है। जहां अक्सर कम तीव्रता वाले भूकंपओं का सिलसिला लगातार कई वर्षों से जारी है। इसके बावजूद भी इस जिला में बिना शोध और इंजीनियर की सलाह के बड़े-बड़े मकानों का बनना जारी है। घर बनाने से पहले किसी भी प्रकार से जमीन की जांच नहीं की जा रही है। जिसके कारण आने वाले समय में चिनाब घाटी विशेषकर जिला डोडा के इलाकों में भयानक तबाही की आशंका व्यक्त की जा रही है।
इसकी छोटी सी मिसाल हमें पिछले दिनों देखने को मिली, जब डोडा के तहसील ठाठरी के पहाड़ी बस्ती क्षेत्र में कई घरों में बड़ी-बड़ी दरारें आई जिससे स्थानीय लोगों में दहशत फैल गई। वहीं कुछ दिनों पहले ही जिला डोडा के ही तहसील भलेसा स्थित शिनू इलाके की एक पूरी बस्ती के करीब 15 से 16 मकानों में दरारें देखी गई हैं। जिसके बाद जिला प्रशासन ने खुद इस क्षेत्र का दौरा किया और सभी घरों को असुरक्षित घोषित कर दिया। इस प्रकार की तबाही भलेसा के किलोहतरान, काहाल जुगासर व कई अन्य क्षेत्रों में भी हुई है। यह घर अब बिल्कुल भी रहने काबिल नहीं हैं। 13 जुलाई को आए भूकंप के दौरान भलेसा स्थित पंचायत हिलुर कुंतवाडा के सरपंच के अनुसार इस पंचायत के 21 घरों में दरारें आ गई हैं। गनीमत यह रही कि किसी तरह के जानमाल का नुकसान नहीं हुआ है।
विशेषज्ञों की चेतावनी है कि डोडा, कुलगाम, पीर पंजाल के कई इलाके आने वाले समय में भूकंप के कारण तबाह हो सकते हैं। चिनाब घाटी के किश्तवाड़ में ‘ढूल हस्ती’ और रामबन में ‘बगलिहार’ जैसे कई छोटे बड़े बांध हैं जो इस भूकंप की चपेट में आ सकते हैं। कई विशेषज्ञ तो यह भी कहते हैं कि इन बांधों के बनने के कारण ही चिनाब घाटी में भूकंपों के सिलसिले तेज हुए हैं क्योंकि बांधों को बनाते समय मिट्टी का कटाव और पानी के बहाव को एकदम से रोकना भी इसका एक बड़ा कारण है। प्रोफेसर रोजर बिल्हम के अनुसार यदि भविष्य में इस क्षेत्र में 9 तीव्रता वाले भूकंप आते हैं तो झेलम नदी भूस्खलन के कारण बंद हो जाएगी। यदि ऐसा होता तो 3 महीने के भीतर कश्मीर घाटी पानी में डूब सकती है। प्रोफेसर बिल्हम के ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) डेटा रीडिंग से पता चलता है कि कश्मीर घाटी के उत्तर में जंस्कार पर्वतों में चट्टानों की क्रमिक गति अधिक बढ़ी है। इसका अर्थ यह है कि भूकंप के कारण आने वाले समय में ऐसे क्षेत्रों की फटने की संभावनाएं अधिक हैं और यह क्षेत्र लगभग 200 किलोमीटर चौड़ा हो सकता है। इस क्षेत्र में श्रीनगर शहर सहित कश्मीर घाटी के कई क्षेत्र शामिल हैं जहां करीब 1।5 मिलियन लोग रहते हैं। उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर भविष्य में ऐसा हुआ तो जम्मू कश्मीर विशेषकर चिनाब घाटी और कश्मीर घाटी के लगभग 3 लाख लोग अपनी जानें गंवा सकते हैं।
डोडा जिला के (भलेसा) स्थित नीली के रहने वाले अयूब जरगर, जो उच्च शिक्षा विभाग में काम करते हैं, उनका कहना है कि हिमालय का पश्चिमी भाग जिसमें जम्मू और कश्मीर शामिल है, भूंकप जोन 5 के अंतर्गत आता है। जिसे सबसे खतरनाक और भूकंप संभावित क्षेत्र माना जाता है। ऐसा कहा गया है कि सक्रिय टेक्टोनिक प्लेटों के कारण इन क्षेत्रों में मध्यम से उच्च तीव्रता वाले भूकंप किसी भी समय आ सकते हैं। जिसे हाल के दिनों में अनुभव भी किया गया है। अयूब जऱगर कहते हैं कि लोगों और प्रशासन को एहतियाती कदम उठाने और हर समय सतर्क रहने की जरूरत है। जिन भवनों की क्षति हुई है इसके पीछे का कारणों को समझना होगा। भूकंप रोधी भवनों का निर्माण समय की मांग है ताकि बड़ी क्षति को रोका जा सके। निवारक उपायों के लिए जागरूकता फैलाई जानी चाहिए और अधिक निवारक उपायों का पता लगाने के लिए क्षेत्र में विशेषज्ञों की टीम को तैनात किया जाना चाहिए। जिन लोगों के घर भूकंप के दौरान क्षतिग्रस्त हो गए थे, उनके लिए भूकंप रहित मकानों को बनाने की आवश्यकता है। नए इमारतों का निर्माण इस प्रकार करने चाहिए, जिससे भूकंप के दौरान कम से कम नुकसान हो।
डोडा जिले के ही रहने वाले भूगोल के जानकार प्रदीप कोतवाल कहते हैं कि हमें यह समझने की आवश्यकता है कि इमारतों को होने वाले नुकसान की सीमा न केवल भूकंप की तीव्रता पर निर्भर करती है बल्कि निर्माण के प्रकार पर भी निर्भर करती है। प्राय: यह देखा गया है कि कश्मीर में सदियों पुराने बने विशेष आकार वाले मकान आज भी सुरक्षित खड़े हैं। लकड़ी से बने मकान लचीले होने के कारण काफी बड़ी त्रासदी से बचाने में सहायक रहे हैं। परंतु आज आधुनिकता शैली में जीने के कारण इस प्रकार के मकानों का प्रचलन खत्म होता जा रहा है।जिससे भविष्य में माली नुकसान के साथ जानी नुकसान भी अधिक हो सकता है। सुरक्षित भवन निर्माण के लिए इंजीनियरों का सुझाव सबसे अधिक जरूरी हो जाता है। क्या वह जमीन घर बनाने लायक है? क्या वह घर पुरानी पद्धति के अनुसार बनाया जा रहा है या किसी नवीनतम शहरी डिज़ाइन के अनुसार बनाया जा रहा है?
इस वक्त करीब 60 लाख लोग जम्मू कश्मीर में हाई रिस्क जोन में रहते हैं। जिससे काफी बड़ा विनाश देखने को मिल सकता है। ऐसे में सरकार को इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि इन हाई रिस्क जोन के अंदर किस प्रकार के मकानों को बनाने की अनुमति दी जाए? जबकि सरकारी कोष व सरकारी मदद से बनने वाले मकानों को भी ऐसे स्थानों पर बनाया जा रहा है, जो कभी भी भूकंप के कारण ताश के पत्तों की तरह ढह सकते हैं, जिसमें प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत बनाये जा रहे घर भी शामिल हैं सवाल यह उठता है कि क्या हम इतनी बड़ी तबाही को रोकने के लिए कोई नई भवन प्रणाली को सामने नहीं ला सकते हैं जिससे भविष्य में एक बड़ी त्रासदी को समय पूर्व रोका जा सके?
उम्मीद है कि सरकार और स्थानीय प्रशासन मौके की नज़ाकत को समझते हुए इस दिशा में गंभीरता से काम करेगी ताकि भविष्य में होने वाली किसी भी बड़ी त्रासदी को पहले से रोका जा सके। (चरखा फीचर)