विचार/लेख
विष्णु नागर
दिल्ली में अब ई रिक्शा बहुत चलने लगे हैं।मेट्रो स्टेशन से नियमित रूप से चलनेवाले ई रिक्शा पांच सवारियों के बगैर अकसर नहीं चलते। वहां साइकिल रिक्शा भी मिलते हैं मगर अधिकतर मैं ई रिक्शा लेता हूं।
खैर कहानी कुछ और कहना चाहता हूं, जो वैसे कहानी भी नहीं है।
हमारे मेट्रो स्टेशन से ई रिक्शा चलाने वाली चालीस-पैंतालीस साल की एक काफी दबंग औरत है। मतलब दूसरे ई रिक्शा वाले पुरुष उसे दबा नहीं सकते। उसके व्यक्तित्व में ही ऐसी दबंगई समाई हुई है। वह कुछ मोटी है मगर थुलथुल नहीं। पता नहीं उसके घर के हालात कैसे हैं? क्यों वह यह काम करती है? हो सकता है खाना बनाने या बर्तन साफ करने झाड़ू लगाने जैसे स्त्रियोचित समझे जानेवाले काम उसे रास न आए हों और उसने यह काम चुना हो, हालांकि ई रिक्शा तो अभी तीन- चार साल पहले चलने लगे हैं, इसके पहले पता नहीं क्या करती होगी? उसकी दबंगई आत्मरक्षात्मक है। शायद मर्दों की दुनिया में किसी गरीब घर की उस औरत ने आत्मसम्मान से जीने के क्रम में पाया हो कि गुजर करने का यही रास्ता है। शायद बचपन से ही यह दबंगई उसके हिस्से आई हो।
जो हो, वह अपने ग्राहकों के प्रति सम्मानजनक और विनम्र है। कोई टेढ़ा ग्राहक फंस जाता होगा तो अपनी जोरदार आवाज़ और व्यक्तित्व से उसे ठीक भी कर देती होगी, जो उचित है।
ऐसी ही एक दबंग ई रिक्शा ड्राइवर मैंने दिलशाद गार्डन के मेट्रो स्टेशन पर भी देखी थी और उसके रिक्शा में कुछ दूर तक सफर किया था। यह पहले वाली जितनी ऊंची-पूरी नहीं मगर व्यक्तित्व में वही अक्खड़पन है। मैं उसके रिक्शा में बैठने लगा तो दूसरे ई रिक्शा ड्राइवर ने मुझे फुसलाया कि मैं आकर उसके रिक्शे में बैठूं। जब मैंने कहा कि नहीं तो उसने कहा कि यह बीस रुपये लेगी, मैं दस, तो भी मैंने कहा, नहीं। मेरा ख्याल था कि यह उस जगह घूम कर जाती होगी पर मेरा ठिकाना तो सबसे पहले आया, जिसके वैसे दस रुपए ही बनते हैं। मैंने दस दिए तो उसने कहा, बाबूजी बीस लगेंगे। मेरे ई रिक्शा में बीस ही लगते हैं।
कोई पुरुष ई-रिक्शा ड्राइवर होता तो बहस करता, उसे मैंने चुपचाप बीस दिए। उस समय मेरे दिमाग में एक ही बात आई कि एक औरत ई रिक्शा चला रही है, इस खतरनाक समय और शहर में तो उसकी इस दबंगई को सलाम।
नलिन वर्मा
बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने महात्मा गांधी की जयंती के दिन राज्य के जातिगत सर्वे की रिपोर्ट को जैसे ही जारी किया, उसके तुरंत बाद राहुल गांधी ने ट्वीट कर लिखा कि बिहार की जातिगत जनगणना से पता चला है कि वहां ओबीसी, एससी और एसटी की आबादी 84 प्रतिशत है।
राहुल गांधी ने लिखा, ‘केंद्र सरकार के 90 सचिवों में सिर्फ 3 ओबीसी हैं, जो भारत का मात्र 5 प्रतिशत बजट संभालते हैं। इसलिए भारत के जातिगत आंकड़े जानना ज़रूरी है। जितनी आबादी, उतना हक- ये हमारा प्रण है।’
राहुल गांधी का ट्वीट राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के ट्वीट से मेल खाता है। वे लिखते हैं, ‘जितनी संख्या, उतनी हिस्सेदारी हो।’
लालू प्रसाद यादव ने कहा कि अगर विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ सत्ता में आता है, तो राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना करवाई जाएगी।
जाति सर्वे को लेकर जो रिपोर्ट हमारे सामने आई है, उससे यह साफ है कि 28 पार्टियों वाला विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ इसका इस्तेमाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता से बाहर करने के अपने चुनावी अभियान में जरूर करेगा।
विपक्षी गठबंधन केंद्र सरकार को घेरने के लिए ओबीसी के प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठाएगा और यह 2024 के चुनावों में बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति को मात देने में एक हथियार की तरह काम आएगा।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मुद्दे पर विपक्षी गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का बिहार में आरजेडी, जेडीयू और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ पूरी तरह से तालमेल है।
इंडिया गठबंधन के लिए ये एक अच्छी खबर है।
पिता राजीव से अलग है राहुल का रुख
शासन में पिछड़ों और दलितों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने का जो संकल्प राहुल गांधी का है, वह उनके पिता राजीव गांधी से अलग है। साल 1990 में लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में राजीव गांधी ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का विरोध किया था।
इस रिपोर्ट के बाद ही प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने नौकरियों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत कोटा लागू किया था।
राजीव गांधी ने तब सरकारी नौकरियों में चयन के लिए जाति की बजाय योग्यता की वकालत की थी। हालांकि गरीबों और वंचितों के नेता के तौर राहुल गांधी एक नए अवतार में सामने आए हैं।
उन्होंने कांग्रेस पार्टी के सत्ता में रहते हुए ओबीसी को उसकी हिस्सेदारी न दिला पाने के लिए दुख जाहिर किया है और कहा कि वे इसे पूरा करेंगे।
बिहार में ओबीसी की बड़ी आबादी ने कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की दूसरी पार्टियों को बीजेपी के आक्रामक रूप से ओबीसी कार्ड इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया है।
सोमवार को जारी किए गए जाति आधारित सर्वे के आंकड़े भी इस बात को प्रमाणित करते हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक़, बिहार की आबादी में 63।13 प्रतिशत ओबीसी हैं, जिसमें 36.01 प्रतिशत अत्यंत पिछड़ा वर्ग, 27.12 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग शामिल हैं। इसके अलावा 19.65 प्रतिशत अनुसूचित जाति की आबादी है।
सर्वे के मुताबिक़, राज्य में सामान्य जाति की जनसंख्या 15.52 प्रतिशत है, जिसमें ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ शामिल हैं। इन जातियों के बारे में माना जाता है कि ये बड़े पैमाने पर बीजेपी का समर्थन करती हैं।
हालांकि इस 15.52 प्रतिशत में मुसलमानों की करीब पांच प्रतिशत जातियां भी शामिल हैं, जिसका मतलब है कि बिहार में अपर कास्ट हिंदुओं की संख्या कऱीब दस प्रतिशत है।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा राहुल गांधी ने हिंदी पट्टी के उन राज्यों में ओबीसी की हिस्सेदारी को प्रमुख मुद्दा बनाया है, जहां चुनाव होने हैं। इन राज्यों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान शामिल हैं।
मध्य प्रदेश में अपनी हालिया चुनावी रैली में राहुल गांधी ने कहा था कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो राज्य में जाति सर्वे करवाया जाएगा।
विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की पार्टियों के बीच यह आम धारणा है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में फैली एक बड़ी आबादी को बिहार की मदद से समझा जा सकता है।
इसका मतलब है कि इन राज्यों को समझने के लिए बिहार का जाति सर्वे काफी मदद कर सकता है।
‘इंडिया’ गठबंधन के समर्थक सोशल मीडिया पर सवाल कर रहे हैं कि केंद्र सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को दस प्रतिशत आरक्षण क्यों दिया है, जबकि उनकी आबादी सिर्फ दस प्रतिशत है। समर्थकों का मानना है कि राज्य में ओबीसी की आबादी 63.13 प्रतिशत है, जबकि उन्हें आरक्षण सिर्फ 27 प्रतिशत मिल रहा है।
सोशल मीडिया पर कुछ लोग इसे इस तरह देख रहे हैं कि बीजेपी, अपर कास्ट हिंदुओं को फायदा पहुंचाने के लिए ओबीसी को दबा रही है।
बीजेपी के लिए कितना मुश्किल
जाति सर्वे के आंकड़े यह भी बताते हैं कि लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार बिहार में सबसे शक्तिशाली नेता हैं और इन दोनों नेताओं का एक साथ आना कैसे बीजेपी को राज्य में खत्म कर सकता है।
लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने 1990 से 2005 तक बिहार में शासन किया है।
मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद लालू प्रसाद यादव, ओबीसी एक बड़े शक्तिशाली नेता के रूप में सामने आए। उन्हें मुसलमानों का भी समर्थन हासिल था, जिनकी आबादी सर्वे के मुताबिक बिहार में 17.70 प्रतिशत है।
यही एक बड़ा कारण था कि लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी 15 सालों से भी ज्यादा बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज रहे।
नवंबर 2005 में बीजेपी के साथ गठबंधन कर नीतीश कुमार ने लालू-राबड़ी शासन को सत्ता से बाहर कर दिया।
नीतीश की सोशल इंजीनियरिंग
2013-14 में 9 महीनों के लिए नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था। इन 9 महीनों को छोडक़र वे साल 2005 से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने हुए हैं।
अपनी सोशल इंजीनियरिंग के जरिए नीतीश कुमार ने अत्यंत पिछड़ा वर्ग(ईबीसी) के एक बड़े हिस्से को तोड़ दिया और उन्हें पिछड़े वर्ग की तुलना में स्थानीय निकायों और नौकरियों में ज्यादा आरक्षण दिया, जिससे इस वर्ग में नीतीश कुमार का प्रभाव बढ़ा।
ईबीसी के समर्थन की मदद से ही नीतीश कुमार, बिहार में लालू प्रसाद यादव को सत्ता से बाहर कर पाए थे। सर्वे के मुताबिक ईबीसी की आबादी 36.01 प्रतिशत है, वहीं पिछड़ा वर्ग की आबादी 27.12 प्रतिशत है। यह ईबीसी के बीच नीतीश कुमार के दबदबे के कारण ही संभव है कि वे इतने लंबे समय से बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए हैं।
चाहे वह बीजेपी हो या राष्ट्रीय जनता दल, नीतीश कुमार जिस भी पार्टी के साथ गठबंधन करते हैं, उसे जीत दिलवाते हैं।
2024 के चुनावों में बीजेपी ने बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 32 पर जीत दर्ज की थी और केंद्र में अपनी सरकार बनाई थी। हालांकि जब नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने 2015 में बीजेपी को करारी हार देते हुए हाथ मिलाया था, तो जेडीयू-आरजेडी और कांग्रेस गठबंधन ने राज्य की 243 सीटों में से 178 सीटों पर विजय प्राप्त की थी। इस चुनाव में बीजेपी के खाते में महज 53 सीटें आई थीं।
साल 2017 में जब नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ हाथ मिलाया तो वह फिर से मजबूत हो गई। 2019 के आम चुनावों में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन ने बिहार की 40 में से 39 सीटों पर जीत दर्ज की थी।
मौजूदा समय में अगर बिहार के सत्तारूढ़ गठबंधन की बात करें तो इसमें जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस के साथ वाम पार्टियां भी शामिल हैं। यही वजह है कि विपक्षी गठबंधन को ये लग रहा है कि कम से कम बिहार के अंदर तो आम चुनावों में बीजेपी का सफाया किया जा सकता है।
बीजेपी ने बढ़ाई मुश्किलें?
जब नीतीश कुमार और बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के साथ कई लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात कर देश में जाति सर्वे करवाने के लिए कहा था, तो उन्होंने मना कर दिया था।
हालांकि प्रधानमंत्री ने नीतीश कुमार को राज्य के पैसों और संसाधनों से सर्वे कराने का सुझाव दिया था, लेकिन उनकी सरकार और पार्टी ने राज्य में सर्वे करवाने के रास्ते में कई मुश्किलें पैदा करने का काम किया।
देश के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर बिहार में जाति सर्वे पर आपत्ति जताई थी, हालांकि बाद में सरकार ने अपना विरोध वापस ले लिया था।
बीजेपी के समर्थकों ने इस सर्वे को पटना हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जिससे इसे करवाने में बिहार सरकार को मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
आखिर में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार को जाति सर्वे के लिए हरी झंडी दिखाई।
अब बीजेपी परेशान नजर आ रही है। राज्यसभा में पार्टी के सांसद और वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी ने एक वीडियो मैसेज में बिहार में हुए जाति सर्वे का श्रेय लिया है।
उनका कहना है कि यह फैसला तब हुआ था, जब बिहार में जेडीयू और बीजेपी की सरकार गठबंधन में थी।
वहीं केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह का कहना है कि जातीय जनगणना बिहार की गरीब जनता में भ्रम फैलाने के सिवा कुछ नहीं है। (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
इस लेख में हम का तात्पर्य हमारे संविधान में उल्लिखित उन सब ‘हम भारत के नागरिकों’ से है जिनके लिए हमारे प्रबुद्ध और आत्मा की गहराइयों तक ईमानदार एवम राष्ट्रभक्त संविधान निर्माताओं ने हमारा संविधान बनाया था। अधिकांश संविधान निर्माताओं की गांधी और उनके विचारों में अटूट निष्ठा थी, हालांकि उनमें से कुछेक, यथा डॉक्टर भीमराव अंबेडकर आदि, के गांधी से कुछ मुद्दों पर मतभेद भी थे।
ऐसे मतभेद थोड़े बहुत वैचारिक थे और कुछ समान विचारों के क्रियान्वयन को लेकर थे। उदाहरण के तौर पर गांवों में अत्यधिक छुआछूत, विकास की कम संभावनाओं एवं सुविधाओं के अभाव के कारण अंबेडकर गांवों के बजाय नगरीय विकास के समर्थक थे। इसी तरह छुआछूत समाप्त होनी चाहिए इस पर तो वे गांधी का समर्थन करते थे लेकिन उनका विश्वास गांधी के हृदय परिर्वतन के बजाय कानूनी प्रावधान से छुआछूत समाप्त करने पर था।
आजादी के बाद बनी पंडित जवाहरलाल नेहरु की सरकार और संविधान निर्माताओं में भले ही कुछ लोग गांधी से पूरी तरह सहमत नही हों लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि तत्कालीन दौर में भारत के अधिकांश नागरिक गांधी को अपने बीच उपस्थित आदर्श विभूति मानते थे और उनके विचारों को अपने जीवन में अधिकाधिक आत्मसात करना चाहते थे।
वर्तमान दौर में भी हम भारत के अधिकांश नागरिकों में गांधी और उनके विचारों के प्रति अदभुत आकर्षण है। और यह आकर्षण हम भारत के नागरिकों तक ही सीमित नहीं है बल्कि विश्व के हर कोने में गांधी विचार को मानने वालों की एक बडी आबादी है जो अपनी अपनी क्षमतानुसार अपने अपने सीमित दायरों में गांधी विचारों को जी रहे हैं और अपनी जीवन शैली और रचनात्मक कार्यों से बहुत से लोगों को प्रेरित कर रहे हैं।
सच यह भी है कि विगत कुछ दशकों में भौतिकता की अंधी दौड़ में शामिल युवाओं में गांधी के बारे में विशद जानकारी का अभाव दिखता है। सोशल मीडिया पर गांधी का अंध विरोध करने वाले कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा संचालित दुष्प्रचार के कारण कुछ युवाओं में गांधी के प्रति नफरत का भाव भी दिखाई देता है। यह इसलिए भी संभव हुआ है क्योंकि गांधी विचारों के प्रचार प्रसार के लिए स्थापित संस्थाओं में पदस्थ पदाधिकारी युवा पीढ़ी तक पहुंचने और गांधी विचार को उन तक पहुंचाने में नाकाम रहे हैं।
जहां तक राजनीति और सत्ता से जुड़े लोगों का प्रश्न है, चाहे गांधी के नाम का कई दशक से इस्तेमाल करने वाले राजनीतिक दल हों या गांधी विचार के विपरीत धर्म और जाति विशेष का राग अलापने वाले दल हों, कोई भी राजनीतिक दल गांधी के सत्य, सादगी और ईमानदारी के आसपास नहीं फटकता। यह भी एक बड़ा कारण है कि युवाओं में गांधी के प्रति वैसा सम्मोहन दिखाई नहीं देता जैसा हमारे बुजुर्गों की पीढिय़ों ने देखा है।
वह तो गांधी का व्यक्तित्व इतना विराट है कि भले ही राजनीतिक दल उनके विचारों को आत्मसात न करें फिर भी हाथी दांत की तरह गांधी का नाम लेना उनकी मजबूरी बन जाती है क्योंकि गांधी आज भी देश और विदेश में भारत की सबसे लोकप्रिय विभूति हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री जब विदेश जाते हैं तो अपना परिचय, मैं गांधी के देश से हूं, कहकर देते हैं। इसी तरह जब कोई विदेशी राजकीय अतिथि भारत आता है तो सरकार उन्हें गांधी से जुड़ी जगहों, यथा राजघाट, साबरमती आश्रम और मणि भवन आदि ले जाकर गौरव की अनुभूति करती है। गांधी की वैश्विक प्रासंगिकता के कारण ही गांधी के जन्म दिन को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विश्व अहिंसा दिवस के रुप में मनाया जाता है।
हम सब जानते हैं कि आज पूरे विश्व के सामने जलवायु परिवर्तन का बड़ा खतरा मंडरा रहा है जिससे मनुष्य सहित पूरी दुनिया की प्रृकृति, जैव विविधता और पर्यावरण पर गंभीर संकट छाया है। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी गांधी की सादगी और प्रकृति से जरुरत भर का लेने का सहज सरल विचार ही एकमात्र समाधान दिखाई देता है। ऐसे कठिन दौर में हम भारत के नागरिकों का यह कर्तव्य बनता है कि हम अपने गांधी नाम के महापुरुष के व्यक्तित्व और विचारों को पहले खुद आत्मसात करें और फिर अपनी जीवन शैली से दूसरों को भी प्रेरित करें। गांधी जयंती पर हमारी गांधी को यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
-अभिनव गोयल
अगर 18 साल से कम उम्र के लोग यौन संबंध बनाते हैं, तो यह अपराध है, फिर चाहे दोनों ने यौन संबंध सहमति से ही क्यों न बनाए हों।
उदाहरण के लिए, अगर 17 साल की लडक़ी, 22 साल के किसी लडक़े से प्रेम करती है और सहमति से उसके साथ यौन संबंध बनाती है, तब भी वह रेप माना जाएगा।
साल 2012 में आए पॉक्सो यानी ‘चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस’ एक्ट के अनुसार 18 साल से कम उम्र के बच्चों के साथ यौन संबंध बनाना अपराध है।
इस कानून में ‘सहमति’ की कोई जगह नहीं है। इसका मकसद नाबालिगों को यौन हिंसा से बचाना है।
न सिर्फ पॉक्सो बल्कि भारतीय दंड संहिता में भी 18 साल से कम उम्र की किसी लडक़ी के साथ अगर कोई शारीरिक संबंध बनाता है, तो वह रेप माना जाता है।
फर्क इतना है कि पॉक्सो में आईपीसी के मुकाबले कड़े प्रावधान हैं। सुप्रीम कोर्ट के वकील नितिन मेश्राम कहते हैं कि आईपीसी में पुरुषों को कुछ प्रोटेक्शन दिया हुआ है। अगर लडक़ी की उम्र 16 साल से ज्यादा है तो सहमति साबित की जा सकती है, वहीं पोक्सो में इसकी कोई जगह नहीं है।
वे कहते हैं कि पॉक्सो में अपराधियों के लिए बीस साल सज़ा से लेकर मृत्युदंड तक का प्रावधान है।
यह बात इसलिए हो रही है, क्योंकि देश में एक बार फिर से चर्चा तेज़ हो गई है कि ‘क्या सहमति से यौन संबंध बनाने की उम्र’ 18 से घटाकर 16 कर देनी चाहिए?
इस चर्चा के केंद्र में 22वें लॉ कमीशन की वो रिपोर्ट है, जिसमें ‘सहमति से यौन संबंध बनाने’ की उम्र के साथ कोई बदलाव न करने की सिफारिश की गई है।
कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि उम्र 18 से 16 साल नहीं की जानी चाहिए और अगर ऐसा होता है, तो यौन हिंसा से बचाने के लिए जो कानून हमारे पास है, लोग उसका दुरुपयोग करेंगे।
यह रिपोर्ट कर्नाटक हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस ऋतुराज अवस्थी के नेतृत्व में बने पैनल ने कानून मंत्रालय को सौंपी है। रिपोर्ट में कुछ सिफारिशें भी की गई हैं।
अदालतों की लॉ कमीशन से अपील
पिछले साल चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि संसद को पॉक्सो एक्ट के तहत सहमति से यौन संबंध बनाने की उम्र पर विचार करना चाहिए।
नवंबर 2022 में कर्नाटक हाई कोर्ट ने लॉ कमीशन से सहमति से यौन संबंधों की उम्र पर पुनर्विचार करने के लिए कहा था।
कोर्ट का कहना था कि 16 साल से ज्यादा उम्र की नाबालिग लड़कियों का लडक़ों के प्यार में पडऩा, घर छोडक़र चले जाना और यौन संबंध बनाने जैसे बढ़ते मामलों को ध्यान में लिया जाना चाहिए, क्योंकि इनमें पोक्सो या भारतीय दंड संहिता के प्रावधान लागू होते हैं।
अप्रैल 2023 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने लॉ कमीशन को कहा था कि सहमति से यौन संबंध बनाने पर मौजूदा समय में पोक्सो के प्रावधान लागू होते हैं, जो एक तरह से अन्याय है।
कोर्ट ने लॉ कमीशन से उन मामलों को लेकर पॉक्सो एक्ट में संशोधन सुझाने की अपील भी की थी, जिसमें लडक़ी की उम्र 16 साल से ज्यादा है और सहमति से यौन संबंध बनाए गए हैं।
कोर्ट का कहना था कि ऐसे मामलों में कोर्ट के सामने यह मजबूरी नहीं होनी चाहिए कि उसे पोक्सो के तहत कम से कम सज़ा देनी ही है। यानी सहमति साबित होने पर किसी व्यक्ति को बरी करने का अधिकार मिल सकता है।
लॉ कमीशन की सिफारिशें
कानून संबंधी विषयों पर सुझाव और सलाह देने के लिए केंद्र सरकार संविधान के जानकार लोगों का एक आयोग नियुक्त करती है, जिसे लॉ कमीशन कहते हैं।
स्वतंत्र भारत में अब तक 22 लॉ कमीशन बन चुके हैं। 21वें लॉ कमीशन का कार्यकाल साल 2018 तक था।
इसी क्रम में 22वें लॉ कमीशन ने यौन संबंधों में सहमति की उम्र क्या हो? उसे लेकर सिफारिशें की हैं, जिसे सरकार चाहे तो मान सकती है और कानून में बदलाव कर सकती है।
कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि मौजूदा बाल संरक्षण कानूनों, अदालतों के निर्णयों और बच्चों के शोषण, तस्करी और वेश्यावृत्ति जैसे कामों की समीक्षा करने के बाद पॉक्सो एक्ट में सहमति की मौजूदा उम्र के साथ छेड़छाड़ करना ठीक नहीं है।
कमीशन ने साफ शब्दों में कहा कि पॉक्सो एक्ट में यौन संबंधों के लिए सहमति की उम्र 18 साल ही रहनी चाहिए।
इसके साथ ही अदालतों को न्यायिक विवेक देने का एक अहम सुझाव दिया गया है। इसका मतलब है कि जिन मामलों में लडक़ी की उम्र 16 साल से ज्यादा है और उसने सहमति से यौन संबंध बनाए हैं तो कोर्ट पोक्सो के तहत दी जाने वाली कम से कम सज़ा के प्रावधान को हटा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट की वकील कामिनी जायसवाल कहती हैं, ‘लॉ कमीशन ने पोक्सो एक्ट में एक अपवाद जोडऩे की बात कही है। अगर किसी केस में लडक़ी की उम्र 16 से 18 साल के बीच है और यह साबित हो जाता है कि यौन संबंध सहमति से बनाए गए थे, तो कोर्ट उसे रेप की श्रेणी से बाहर रख सकता है।’
‘अगर यह अपवाद एक्ट में जुड़ता है तो कोर्ट को यह विशेषाधिकार होगा कि वह इस तरह के मामलों में अभियुक्त को बरी कर सकता है।’
वे कहती हैं कि जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में भी संशोधन किया गया। अब अगर नाबालिग को यह पता है कि वह क्या जुर्म कर रहा है, तो ऐसे मामलों में कोर्ट केस का ट्रायल जुवेनाइल से हटाकर एडल्ट में शिफ्ट कर सकती है। ऐसे में नाबालिग की उम्र नहीं बदलती, लेकिन सजा आम कानून के तहत सुनाई जाती है।
जायसवाल कहती हैं कि जुवेनाइल जस्टिस एक्ट की तरह पॉक्सो एक्ट में भी अपवाद जोडक़र सहमति से यौन संबंध बनाने की उम्र को बिना बदले, सज़ा को कम किया जा सकता है।
शर्तों के साथ विशेषाधिकार का सुझाव
कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में पोक्सो एक्ट की धारा 4 में संशोधन की सिफारिश की, जिसमें सज़ा का प्रावधान है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि उन्हीं मामलों में अपवाद का इस्तेमाल किया जाए, जिसमें बच्चे और अभियुक्त की उम्र में तीन साल से ज्यादा का फासला न हो और ये भी देखा जाए कि अभियुक्त का पहले से कोई आपराधिक इतिहास तो नहीं है।
इसके साथ ऐसे मामलों में यह भी देखा जाए कि अपराध के बाद अभियुक्त का आचरण कैसा है? अभियुक्त या उसकी तरफ से कोई व्यक्ति पीडि़त बच्चे पर गलत बयान देने के लिए दबाव तो नहीं बना रहा है।
कमीशन का कहना है कि अगर 16 साल से ज्यादा के मामलों में सहमति से सेक्स किया गया है और घटना के बाद पीडि़त बच्चे की सामाजिक या सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में बदलाव हुआ है, या बच्चे का इस्तेमाल अवैध या अश्लील कामों के लिए किया गया है तो सजा में छूट नहीं दी जानी चाहिए।
सुझाव देते हुए कमीशन ने कहा कि अगर इस तरह के मामलों में यौन संबंधों से कोई बच्चा पैदा होता है, तो वह सजा में छूट पाने के लिए काफी नहीं हो सकता है। सहमति के साथ यौन संबंध बनाने की उम्र 16 साल न घटाने का कुछ लोग विरोध भी कर रहे हैं। ऐसे लोगों का मानना है कि इससे बच्चों के अधिकारों का हनन है।
सुप्रीम कोर्ट के वकील नितिन मेश्राम कहते हैं, ‘इसका असर आदिवासी समाज पर सबसे ज्यादा पड़ेगा, क्योंकि उन इलाकों से ज्यादा मामले सामने आ रहे हैं, जहां 16 से 18 साल के बच्चे सहमति से यौन संबंध बना रहे हैं, लेकिन उन पर पोक्सो लगाया जा रहा है। आदिवासी समाज में यौन संबंधों को लेकर बहुत टैबू नहीं है।’
वे कहते हैं, ‘भारत में लड़कियों के लिए शादी की उम्र 18 साल तय की गई है और इससे पहले अगर किसी लडक़ी ने सेक्स किया तो पोक्सो के तहत अपराध माना जाएगा। ऐसे में यह अधिकारों का हनन है।’
‘यह भारत की सीमित सोच और लैंगिक भेदभाव वाली सोच का नतीजा है, क्योंकि उसमें वजाइनल प्योरिटी बहुत जरूरी है। यह एक तरह से शादी से पहले उस प्योरिटी को बचाकर रखने का एक तरीका है, ताकि कोई लडक़ी 18 साल से पहले सेक्स न कर पाए।’ (bbc.com/hindi)
-ममता सिंह
अगर आपको लगता है कि पांच-छ: साल के छोटे बच्चे प्राइवेट पार्ट्स के बारे में कुछ नहीं जानते, न वह इस बारे में किसी अपने हमउम्र से बात करते हैं तो आप एकदम गलत हैं। बच्चे बहुत क्यूरियस होते हैं और इतने समझदार भी कि मां बाप को क्या और कितनी बात बतानी है।
वह अपने मां-बाप से क्लासरूम की बात बताते हैं पर अक्सर स्कूल के वाशरूम में होने वाली बात छुपा लेते हैं चूंकि उन्हें जाने अनजाने में ही अच्छी बात/बुरी बात की समझ हो जाती है, क्योंकि पूर्व में उन्होंने कभी कुछ बताने की कोशिश की होती है तो उनके पेरेंट्स उन्हें डांटते हुए कहते हैं बेटा यह गंदी बात है, यह सब कहां से सीखे, किन गंदे बच्चों के साथ तुम दोस्ती किए हो। नतीजे में बच्चा अपनी एक गोपनीय दुनिया बनाने लगता है।
इस देश में डॉक्टर, इंजीनियर, मास्टर बनाने के लिए तो ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट हैं पर माता पिता बनने से पूर्व कोई ख़ास मानसिक तैयारी की जरूरत नहीं समझी जाती, बस दुनिया का सबसे जरूरी काम जाति, धर्म, गोत्र, दहेज देखकर दो अजनबियों की शादी करवा दो और शादी होने के दिन से खुशखबरी कब आयेगी कि रट लगाकर बच्चे पैदा करवा दो। नतीजतन ऐसे इमैच्योर माता पिता की फौज यहां भरी पड़ी है जो बच्चों को खिलाने, घुमाने, पढ़ाने, पहनाने-ओढ़ाने और जि़द पूरी करने को ही गुड पेरेंटिंग समझते हैं. न उन्हें छोटे बच्चों की आंतरिक और गोपनीय दुनिया की जानकारी होती है, न किशोर बच्चों की दुरूह दुनिया की।
बच्चा बड़ों से सेक्स संबंधी सवाल नहीं कर सकता, वह अपनी जिज्ञासाओं, उत्सुकताओं का शमन कहां और कैसे करे उसे नहीं पता। आज भी समाज भले प्रोग्रेसिव हो गया है पर जब बच्चा पूछता है कि मैं कहां से आया तो कोई मां बाप उसे मंदिर से, कोई बाजार से, कोई अस्पताल से लाया बताते हैं पर वह असल में कहां से आया यह बताने भर की समझ पेरेंट्स में नहीं विकसित हुई है, हां बच्चा अपने आसपास खुलेआम सेक्सिस्ट जोक, गालियां सुनता है, गर्भ निरोध के बड़े बड़े होर्डिंग पोस्टर देखता है, टीवी में लगभग नंगी देहें देखता है पर कहीं उसने किसी शारीरिक अंग का नाम ले लिया तो वह गंदा बच्चा कहलाएगा।
यह बहुत कमाल की बात है कि छोटे बच्चों को अपनी इमेज की फिक्र किसी वयस्क से अधिक होती है, आपने कई बार देखा होगा कि जब आप बच्चे की किसी बदमाशी या कोई गोपनीय बात किसी घर आए परिचित से बताने की कोशिश करते हैं तो बच्चा अनइजी हो उठता है, कई बार तो वह फोर्सफुली मां बाप को रोकता है कि उसकी बातें किसी से नहीं बताई जाएं, ज़ाहिर तौर पर वह हल्की-फुल्की शरारतें ही होती हैं पर जब यहीं बातें उसे इंबेरेंस फील कराती हैं तो प्राइवेट पार्ट्स और सेक्स से संबंधित बात उसे कितना शर्मिंदा करेंगी यह बच्चा अच्छे से जानता है सो वह अपनी एक गुप्त दुनिया बना लेता है, जिसके दरवाजे पर बड़ों का प्रवेश वर्जित है लिखा होता है। और बड़े वह तो बने ही इसलिए हैं कि वह बच्चा पैदा करके उसके आगे आपस में लड़ते झगड़ते, रोते कलपते, एक-दूसरे पर लापरवाह मां या बाप होने की तोहमत लगाते या यह कहते हुए कि क्या कमी रह गई हमारी परवरिश में इतने महंगे स्कूल में पढ़ा रहे, अच्छे से अच्छा खिला रहे, पहना रहे, हर फरमाईश पूरी कर रहे और तुम हो कि गंदी बातें सीखते हो कहते हुए जिंदगी गुजार दें।
मुझे लगता है इस देश में बच्चों पर आदर्शवाद थोपने से पहले उनके मां बाप को चाइल्ड साइकोलॉजी पढऩे और पेरेंटिंग की ट्रेनिंग की जरूरत है।
-डॉ. आर.के. पालीवाल
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो में शायद कूटनीतिक अनुभव की कमी है अन्यथा वे अपनी संसद में यह बचकाना बयान नहीं देते कि उनकी जांच एजेंसियों को संदेह है कि भारत के मोस्ट वांटेड आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर,जो कनाडाई नागरिक है, की हत्या में भारत सरकार के एजेंट का हाथ है। यह बहुत गंभीर आरोप है जो किसी राजनीतिक दल के हल्के नेता ने नहीं खुद कनाडा के प्रधानमंत्री ने संसद सरीखे सर्वोच्च प्लेटफार्म पर लगाया है। बात यहीं तक समाप्त नहीं हुई कनाडा की विदेश मंत्री ने एक वरिष्ठ भारतीय राजनयिक को कनाडा से बाहर करने के पीछे भी यही बात दोहराई है।भारत के प्रति इस तरह का घटनाक्रम अभी तक पाकिस्तान जैसे देशों में ही होता था। जवाबी कार्यवाही करते हुए भारत के विदेश मंत्री जयशंकर ने हालांकि कनाडा के प्रधानमंत्री और विदेशमंत्री के बयानों का जोरदार खंडन किया है लेकिन उससे बात नहीं संभली। कनाडा की तरह जैसे को तैसा की नीति से एक कनाडाई राजनयिक को भी भारत ने देश से बाहर कर दिया है और कनाडाई नागरिकों के वीजा पर भी रोक लगाई है। जिस तरह से कनाडा के प्रधानमंत्री ने अपनी संसद में यह मुद्दा उठाया है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी आगे आकर संसद के विशेष सत्र में इस मुददे पर बयान देकर पूरे देश को विश्वास में लेकर विश्व को स्पष्ट संदेश देना चाहिए था।
यह बेहद दुर्भाग्यजनक है कि कुछ दिन पहले ही कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो जी 20 शिखर सम्मेलन में शामिल होने भारत आए थे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी मुलाकात हुई थी। ऐसे में इस वैश्विक समूह की अध्यक्षता करते समय भारत सरकार पर यह गंभीर आरोप लगना देश की वैश्विक छवि के लिए अच्छा नहीं है। कनाडा यहीं नहीं रुका उसने भारत आने वाले अपने नागरिकों के लिए नई एडवाइजरी जारी की है जिसमें उन्हें जम्मू कश्मीर, पूर्वोत्तर और पश्चिमी भारत के सीमावर्ती इलाकों में सुरक्षित माहौल नहीं होने के कारण नहीं जाने की सलाह दी है। जब भारत दुनियां को यह बताने की कोशिश कर रहा है कि हमारे यहां मजबूत लोकतंत्र है और जम्मू कश्मीर सहित देश भर में सुरक्षित माहौल है ऐसे में कनाडा की एडवाइजरी अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी।
भारत और कनाडा के संबंध संभवत: इस वक्त अपने सबसे खराब दौर से गुजर रहे हैं। दोनों तरफ से हो रही बयानबाजी और कार्यवाही से कोई सकारात्मक संदेश नहीं आ रहा। हालांकि इसकी शुरुआत कनाडा की तरफ से हुई है। कनाडा में भारत के बहुत नागरिक बसे हैं जिनमें पंजाब के एन आर आई और कनाडा की नागरिकता लिए सिख समुदाय की अच्छी खासी आबादी है। ऐसा लगता है कि भारत यात्रा के दौरान कनाडा के प्रधानमंत्री ने वैसी गर्मजोशी महसूस नहीं की जिसकी वे उम्मीद कर रहे थे। जब शिखर सम्मेलन में अमेरिका जैसे बड़े देशों के नेता शिरकत कर रहे हों तब हर देश के नेता को उसकी उम्मीद के मुताबिक समय देना किसी भी देश के लिए संभव भी नहीं है।
कनाडा न केवल एक विकसित देश है बल्कि उसका वैश्विक परिदृश्य में सामरिक महत्व है। क्षेत्रफल के हिसाब से वह विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है जिसके पास दुनियां का सबसे लंबा समुद्र तट है। शिक्षा से लेकर नागारिक स्वतंत्रता और स्वास्थ्य आदि की दृष्टि से उसे दुनिया के ऊपर के दस देशों में गिना जाता है। भारत से बडी संख्या में छात्र और नौकरी एवं व्यापार करने वाले एन आर आई वहां अच्छा जीवन यापन कर रहे हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के कारण वहां खालिस्तान समर्थकों को काफी चंदा और सुरक्षा मिलती है। अमेरिका का पड़ोसी होने के साथ साथ अमेरिका से कनाडा के संबंध भी मधुर हैं। यही वजह है कि अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और विदेश मंत्री ने भी कनाडा के समर्थन में बयान दिया है। ऐसे में हमें धैर्य से विदेश कूटनीति की जरुरत है। इस वक्त ईंट का जवाब पत्थर से देने की जगह गांधीगिरी एक बेहतर विकल्प हो सकता है।
-शोभा अक्षरा
सफेद रंग के लिफाफे में लगातार आती चिट्ठियों के बीच अचानक एक दिन पीले लिफाफे में बन्द कोई प्रेम-पाती मिल जाए। खुशबूदार उस चिट्ठी को खोलते वक्त झीनी-झीनी बारिश शुरू हो जाए और ठण्डी पर भुरभुरी-सी हवा गालों को छूती हुई यौवन को जगाए, कुछ इसी तरह जीवन में प्रेम आता है, यौनाकर्षण आता है।
कोई मुझसे सादगी को परिभाषित करने को कहे तो मैं उसे जवाब दूँगी कि प्रेमी से अपनी इच्छा के प्रेम की माँग करने वाली प्रेमिकाएँ सादगी की बेमिसाल उदाहरण होती हैं।
ऐसे ही कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से उस वक्त जब दोनों प्रेम में रत हों वैसा ही प्रेम माँगे जैसा वह चाहता है तो उसे उसकी सादगी कहेंगे। यहाँ प्रेम में याचना नहीं है। प्रेम में याचना जैसा कुछ नहीं होता। प्रेम में रत दोनों देह स्वाभाविक तौर पर प्राकृतिक याचक होते हैं। यही तो बारिश की फुहार है, ठंड की गुनगुनी धूप भी, तितलियों के पंखों पर अनगिनत रंगों को एकसाथ उड़ते हुए देखने का सुख भी यही है।
सेक्सुअलिटी में समाहित सैपियो सेक्सुअलिटी को समझते वक्त जो सार मिला वह यह कि यह गुण किसी एक वर्ग को निर्धारित नहीं करता। यह बस दो लोगों की बेहद आत्मीय और व्यक्तिगत यौनाकर्षण के बिंदुओं के अंकुरित होने को आधार देता है। सादगी का उदाहरण वहीं से निकाल सकी।
कई बार दो लोग आपस में शारीरिक संबंध बनाने के बाद भी एक दूसरे के लिए वैसा आकर्षण नहीं महसूस करते जैसा एक सैपियोफाइल महसूस कर सकता/सकती है। कैजुएल सेक्स की तरह ही सब रह जाता है।
मगर सैपियोसेक्सुअल होना यानी किसी की बौद्धिक क्षमता को देखकर उसके तरफ शारीरिक और भावनात्मक रूप से आकर्षित होना। क्षमता का ह्रास नहीं होता, या तो वह बढ़ती जाती है या स्थिर रहती है। इस मामले में ऐसा आकर्षण के साथ होता है, या तो बढ़ता है या स्थिर रहता है। कम से कम तबतक तो जरूर जब तक दोनों में से कोई अपने बनाए हुए बौद्धिकता के मानकों में से किसी और के प्रति न आकर्षित हो जाए।
मन हमेशा एक आग्रह करता है, प्रेम करो, प्रेम में पड़ जाओ, चाहे प्रेम माँगना क्यों न पड़े। कोई वस्तु भी वहीं से माँगते हैं जहाँ से मिलने की गुंजाइश होती है, यह तो आखिर प्रेम है! यौनाकर्षण की सीमा को सिर्फ शरीर की माँग तक सीमित करना जिंन्दगी को एक अँधेरे कोने में अकेला छोड़ देना है, बल्कि यह तो जिंदगी के हर कोने को रोशनी से भरना है। पीले लिफाफे में आई चिट्ठी को थोड़ी देर बस यूँही थामे रहने के बाद खोलना होगा, पढऩा होगा फिर गुलाबी रंग के लिफाफे में जवाब भेजना ही होगा।
जवाब ‘हाँ’ ही हो यह जरूरी नहीं! दोनों ओर से ‘न’ पर कोई संताप भी नहीं होना चाहिए। यह भी तो उन पलों को जीना है जो प्रेम के गीत गुनगुनाते वक्त सिनेमा में नायक और नायिका जीते हैं। कहानियों, उपन्यासों में पात्र जीते हैं। रेलगाडिय़ों में कुछ समय के लिये ही सही, आकर्षण की उन्मुक्तता को बेताबी के साथ जैसे दो किशोर जीते हैं।
चंदन कुमार जजवाड़े
संसद में महिला आरक्षण विधेयक पर चर्चा के दौरान राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सांसद मनोज झा ने ‘ठाकुर का कुआँ’ कविता पढ़ी थी।
इस कविता पाठ के बाद बिहार की सियासत में एक नया विवाद शुरू हो गया है। इस मुद्दे को राजपूत सम्मान से जोडक़र कई नेता मनोज झा पर आरोप लगा रहे हैं।
मनोज झा पर आक्रामक तेवर दिखाने में सबसे आगे हैं हाल ही में जेल से रिहा हुए आनंद मोहन सिंह और उनके बेटे चेतन आनंद। चेतन आनंद आरजेडी के विधायक हैं। लेकिन इस मुद्दे पर आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने मनोज झा का समर्थन किया है।
लालू यादव ने कहा है, ‘मनोज झा जी विद्वान आदमी हैं। उन्होंने सही बात कही है। राजपूतों के खिलाफ उन्होंने कोई बात नहीं की है। जो सज्जन बयान दे रहे हैं वो जातिवाद के लिए कर रहे हैं, उन्हें परहेज करना चाहिए।’
जेडीयू अध्यक्ष ललन सिंह ने भी मनोज झा का बचाव किया है।
ललन सिंह ने कहा, ‘मनोज झा जी का राज्यसभा में दिया गया भाषण अपने आप में प्रमाण है कि ये किसी जाति विशेष के लिए नहीं है। भाजपा का काम समाज में तनाव पैदा करना और भावनाएँ भडक़ाकर वोट लेना है। भारतीय जनता पार्टी, कनफुसका पार्टी है, उसका काम ही है भ्रम फैलाना, कनफुसकी करना।’
भले ही पार्टी से लेकर महागठबंधन तक मनोज झा के साथ खड़े दिख रहे हों लेकिन मनोज झा के कविता पाठ के बाद पहला विरोध शिवहर से आरजेडी विधायक चेतन आनंद ने किया था।
चेतन आनंद के बाद इस मुद्दे पर उनके पिता और पूर्व सांसद आनंद मोहन ने भी मनोज झा के खिलाफ बयान दिया।
आनंद मोहन ख़ुद राजपूत बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं और उन्होंने भी पत्रकारों से बातचीत में मनोज झा के बयान को राजपूत सम्मान से जोडक़र तीखी प्रतिक्रिया दी है।
ऐसा तब है जब हाल ही में आनंद मोहन की जेल से रिहाई के लिए राज्य सरकार ने कानून में बदलाव किया था। आनंद मोहन गोपालगंज के तत्कालीन जिलाधिकारी जी कृष्णैया की हत्या के मामले में जेल में बंद थे।
‘ठाकुर का कुआँ’ ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता है जो जातिवाद के खिलाफ लिखी गई थी।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ख़ुद दलित थे। लेकिन संसद में इसे पढऩे वाले मनोज झा ब्राह्मण हैं।
हालाँकि मनोज झा ने 21 सितंबर को संसद में यह भी कहा था कि यह कविता किसी जाति विशेष के लिए नहीं है और इसे प्रतीक के रूप में समझना चाहिए, क्योंकि ‘हम सबके अंदर एक ठाकुर है...’
आरजेडी के राज्यसभा सांसद मनोज झा दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर भी हैं।
आरजेडी पर आरोप
बिहार में महागठबंधन की सरकार चला रहे नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के एमएलसी संजय सिंह ने भी इस मुद्दे पर मनोज झा से मांफ़ी की मांग की है। उनका आरोप है कि मनोज झा ने ठाकुरों का अपमान किया है।
इस विवाद में बीजेपी की तरफ से कड़ी प्रतिक्रिया आई है। बीजेपी ने इस पर पटना में आरजेडी के खिलाफ प्रदर्शन भी किया है।
बीजेपी सांसद और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने इसके लिए आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव पर आरोप लगाया है कि आरजेडी हमेशा समाज में झगड़ा लगाने की योजना में होती है।
पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज़ के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर के मुताबिक जो कविता मनोज झा ने पढ़ी थी, वह बहुत मशहूर कविता है। इसमें ठाकुर एक सामंती ताक़त है। जो राजपूत यह नहीं समझते, उन्हें लग रहा कि यह उनकी बात हो रही है। अब सामाजिक न्याय के बदले सामाजिक समीकरण की बात ज़्यादा हो रही है।
‘बेवजह तूल दिया जा रहा है’
डीएम दिवाकर कहते हैं, ‘बीजेपी को तो मसाला चाहिए। उसे मौका मिल गया है, जबकि यह चर्चा राज्यसभा में हो रही थी। राज्यसभा ऊपरी सदन है और वहाँ बौद्धिक चर्चा होती है, ऐसी चर्चा में ‘ठाकुर का कुआँ’ कविता बहुत सटीक है कि महिला आरक्षण में पिछड़ी जातियों और दलितों को उचित स्थान मिले।’
आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने बीबीसी से कहा है कि इस मुद्दे को बेवजह तूल किया जा रहा है, मनोज झा ने खुद कहा था कि हम सबके के अंदर एक ठाकुर है और यह किसी जाति विशेष के लिए नहीं है।
शिवानंद तिवारी का कहना है, ‘यह ओमप्रकाश वाल्मीकि की लिखी बहुत पुरानी कविता है। यह कई जगह छप चुकी है और इस कविता को कई पुरस्कार भी मिले हैं। प्रेमचंद ने ‘ठाकुर का कुआँ’ नाम से कहानी भी लिखी थी। दोनों का आशय एक ही है।’
बीजेपी विधायक नीरज कुमार बबलू ने तो पत्रकारों से बातचीत में यहाँ तक दावा किया है कि ठाकुरों की वजह से देश सुरक्षित है।
शिवानंद तिवारी ने नीरज कुमार के बयान पर कहा है कि कि ‘ठाकुर का कुआँ’ कविता इसी मानसिकता के खिलाफ है, हम जिस सामाजिक न्याय की बात करते हैं वह इसी सोच के खिलाफ है।
इस मुद्दे पर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और दलित समाज से आने वाले जीतन राम मांझी ने मनोज झा का समर्थन किया है और कहा है, ‘जो लोग इसपर राजनीति कर रहे हैं वो जातियों के ध्रुवीकरण के लिए राजनीति कर रहे हैं, मनोज झा ने कुछ भी गलत नहीं कहा है, यह किसी जाति के खिलाफ नहीं है, बल्कि एक कविता पढ़ी है।’
बिहार की राजनीति में राजपूत
माना जाता है कि बिहार की राजनीति में राजपूत वोटर करीब पाँच फीसदी हैं, जबकि करीब छह फीसदी आबादी भूमिहार वोटरों की है।
राज्य में ब्राह्मण वोटर करीब तीन फीसदी और कायस्थ वोटर करीब एक प्रतिशत माने जाते हैं। राज्य में अगड़ी जाति के कम वोटर होने के बाद भी इसपर जमकर सियासत हो रही है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी मानी जाती है कि राजपूत वोटर संख्या में भले ही कम हों लेकिन ये काफी प्रभावशाली हैं। यहाँ तक कि आरजेडी जैसी पार्टी जो आमतौर पर पिछड़ों की राजनीति के लिए जानी जाती है, उसके बिहार प्रदेश के अध्यक्ष भी एक राजपूत नेता जगदानंद सिंह हैं।
यही नहीं पिछले साल बिहार में महागठबंधन की सरकार बनने के बाद जगदानंद सिंह के बेटे और आरजेडी विधायक सुधाकर सिंह ने लगातार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ बयान दिया, लेकिन उनपर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
बिहार में साल 2020 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में 28 राजपूत विधायक जीतकर आए थे, जिसका बड़ा हिस्सा एनडीए के खाते में गया था।
बिहार में 40 विधानसभा सीटों और आठ लोकसभा सीटों पर राजपूत वोटरों का बड़ा असर माना जाता है।
राज्य में शिवहर, सहरसा, वैशाली, औरंगाबाद और इनके आसपास के इलाकों में राजपूत वोटरों का बड़ा असर माना जाता है।
इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि राजपूत नेता के तौर पर पहचान बनाकर आनंद मोहन एक बार जेल में रहकर भी चुनाव जीत गए थे।
वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद के मुताबिक, ‘चुनाव करीब होने की वजह से इसपर राजनीति हो रही है। मुझे लगता है कि तिल का ताड़ बनाया जा रहा है। ऐसा ही सुशांत सिंह राजपूत की मौत के वक्त हो रहा था। लेकिन सुशांत की मौत को मुद्दा बनाने से बीजेपी को बहुत लाभ हुआ हो, ऐसा नहीं दिखता।’
‘मुद्दों का अभाव’
डीएम दिवाकर इस मुद्दे को हवा देने के पीछे नेताओं के पास मुद्दों का अभाव देखते हैं।
उनका मानना है, ‘बिहार में बीजेपी हारे हुए जुआरी की तरह है, उसे जो मिल जाए उसी के साथ चल पड़ती है। बीजेपी इसलिए इस मुद्दे को उठा रही है ताकि अगर ये मुद्दा तूल पकड़ता है तो बाकी मूल मुद्दे दब जाएँगे, जिसमें महंगाई, बेरोजगारी, अदानी, सीएजी रिपोर्ट और भ्रष्टाचार तक के मुद्दे शामिल हैं।’
उनका कहना है कि इसके पीछे विपक्ष भी जिम्मेदार है। अगर वो मूल रूप से बीजेपी की असफलताओं जैसे रोजग़ार का मुद्दा, महंगाई, भ्रष्टाचार, अर्थव्यवस्था की बुरी हालत पर बहस को बनाए रखते तो शायद बीजेपी को घेरे रखते। लेकिन इसकी जगह मनोज झा के बयान पर राजनीति हो रही है।
आनंद मोहन की रिहाई बनी थी मुद्दा
बिहार की हालिया राजनीति में आनंद मोहन की रिहाई एक बड़ा मुद्दा बनी थी। हालाँकि बीजेपी भी इसका बहुत विरोध नहीं कर पाई थी।
यहाँ तक कि केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने आनंद मोहन को ‘बेचारा’ तक कहकर उनका समर्थन किया था।
आनंद मोहन राज्य की सियासत में बड़े राजपूत चेहरे के तौर पर देखे जाते हैं। इससे पहले आरजेडी में रघुवंश प्रसाद सिंह का कद काफी बड़ा माना जाता था और वो लालू प्रसाद यादव के करीबी भी थे।
रघुवंश प्रसाद सिंह के निधन के बाद उनकी जगह बड़े कद का कोई राजपूत नेता राज्य की राजनीति में उभर नहीं पाया है।
हाल ही में महाराजगंज के पूर्व सांसद प्रभुनाथ सिंह को सुप्रीम कोर्ट से एक दोहरे हत्याकांड में सजा सुनाई गई है। प्रभुनाथ सिंह एक हत्या के आरोप में पहले से जेल में हैं।
बिहार में जातीय खींच-तान का इतिहास
बिहार की राजनीति में नेताओं के बीच जातीय राजनीति को लेकर विवाद का पुराना इतिहास रहा है। इस शुरुआत बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के ज़माने से हो गई थी।
श्रीकृष्ण सिंह और बिहार के पहले उप-मुख्यमंत्री अनुग्रह नारायण सिंह के बीच जातीय गोलबंदी की चर्चा आज भी बिहार की राजनीति में होती है।
श्रीकृष्ण सिंह जहाँ भूमिहार जाति से थे, वहीं अनुग्रह नारायण सिंह राजपूत बिरादरी से थे।
डीएम दिवाकर कहते हैं, ‘बिहार की राजनीति में ब्राह्मण बनाम राजपूत की राजनीति कभी नहीं रही है। भूमिहार और राजपूत नेताओं के बीच खींचतान जरूर रही है। श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिंह के बीच भी शीत युद्ध चलता था।’
राज्य की राजनीति में जातीय खींचतान की यह कहानी आगे तक चलती रही। साल 1961 में बिनोदानंद झा के राज्य के मुख्यमंत्री रहते बिहार में चर्चित मछली कांड की ख़बरे भी खूब सुर्खियों में रही थीं।
मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे बिनोदानंद झा पर आरोप लगाता था कि उनको मछली में जहर देकर मारने की साजि़श हो रही थी। यह विवाद इतना बढ़ा था मामला देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक पहुँच गया था।
उनके बाद जब साल 1963 में कृष्ण बल्लभ सहाय मुख्यमंत्री बने तो कहा जाता है कि वो एक तरफ भूमिहार नेता महेश प्रसाद सिन्हा से परेशान रहे तो दूसरी तरफ राजपूत नेता और अनुग्रह नारायण सिंह के बेटे सत्येंद्र नारायण सिंह से।
कहा जाता है कि इन दोनों के दबाव से निपटने के लिए केबी सहाय ने पिछड़े और मुस्लिम बिरादरी के नेताओं को आगे बढ़ाया और उनका सहारा लिया था।
इस तरह से बिहार की सियासत में भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत और कायस्थ नेता कई दशक पहले से राजनीतिक खींच-तान के केंद्र में रहे हैं।
सुरूर अहमद कहते हैं, ‘मूल रूप से साल 1967 के चुनावों के बाद बिहार की राजनीति में पिछड़े नेताओं का आगे बढऩा शुरू हुआ था। उसके बाद साल 1974 के जेपी आंदोलन ने इन नेताओं को और ताकतवर बनाया। लेकिन मंडल आयोग के समर्थन और विरोध ने यहाँ की राजनीति को जातियों से हटाकर अगड़े और पिछड़े में बदल दिया।’
सुरूर अहमद के मुताबिक़ बिहार में पहले कॉलेज कैंपस से लेकर सडक़ों तक की राजनीति में भूमिहार और राजपूत प्रभावशाली थे, पटना और इसके आसपास थोड़े बहुत कायस्थों की राजनीति थी। जबकि मिथिलांचल में मैथिल ब्राह्मण और भागलपुर के इलाक़े में थोड़ा-बहुत असर बंगालियों का भी था।
1960 के दशक के अंत से ही बिहार में जोड़-तोड़ और जातीय सियासत ने पिछड़ी जातियों के नेताओं और वोटरों को हाशिए से बाहर निकाल दिया था। साल 1967 के विधानसभा चुनाव के बाद बिहार में कोई मुख्यमंत्री ज़्यादा दिनों तक नहीं टिक पाया।
जन क्रांति दल के महामाया प्रसाद सिन्हा और शोषित दल के सतीश प्रसाद सिंह के बाद बीपी मंडल और भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री बने। इसमें भी अगड़ी जाति के नेताओं की आपसी खींच-तान को बड़ी वजह माना जाता है।
बीजेपी पर आमतौर पर अगड़ी जातियों की पार्टी होने का आरोप लगाया जाता है। जबकि राज्य की सियासत में दलित-पिछड़े वोटरों के असर को इस तरह भी देख सकते हैं कि बिहार हिन्दी पट्टी का एकमात्र राज्य है जहां बीजेपी कभी अपनी सरकार नहीं बना पाई है यानी बीजेपी का कोई नेता यहाँ का मुख्यमंत्री नहीं बना है।
यही नहीं बिहार में बीते तीन दशक से ज़्यादा लंबे समय से लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी, नीतीश कुमार और कुछ महीनों के लिए जीतन राम मांझी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहे हैं।
ऐसे में राज्य की सियासत में ब्राह्मण बनाम ठाकुर का यह मुद्दा कितने दिनों तक टिका रहता है यह देखना भी दिलचस्प होगा। (bbc.com/hindi)
-अनु शक्ति सिंह
एक उड़ता हुआ सा ख़याल और जाने कितनी अच्छी-बुरी यादों के झोंके।
कुछ देर पहले अपने व्यावसायिक काम के सिलसिले में एक वीडियो/ऑडियो स्क्रिप्ट तैयार कर रही थी। विषय नई माँ के स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ था।
मैं स्क्रिप्ट ब्रीफ़ पढ़ते-पढ़ते ठहर गई। एक पंक्ति थी, नई माँ का शरीर गर्भावस्था और बच्चे के जन्म से उबर रहा होता है। ऐसे में उस पर बच्चे या घर की पूरी ज़िम्मेदारी नहीं होनी चाहिए। उसके स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है कि घर का माहौल ख़ुशनुमा हो।
मुझे अपने बच्चे का जन्म याद आया। बाद की बातें भी। ख़ैर!
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मैं सोचने लगी कि कैसा समाज बनाया है हमने? बच्चे के जन्म के बाद माँ का ख़याल रखा जाना उसके पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी है।
कितनी स्त्रियाँ इस सुख को वास्तव में भोग पाती हैं? कामकाजी महिला घर पर है तो और आफ़त है। कुछ ही वक्त घर पर रहेगी। उसे कुछ अच्छा बनाना-खिलाना चाहिए।
एक लिहाज़ से जिन घरों में आय अच्छी हो वहाँ कम से कम कहने को ही सही, सहायक होते हैं।
समाज के कम आय वाले तबके का हाल बिगड़ता जाता है। चूँकि स्त्री परिवार के लिए अमूमन सबसे कम जरूरी मानी जाती है (मानना और होना दो चीज़ें हैं) उसकी परवाह किसे होती है? वह कर लेगी, उससे हो जाएगा। वह करती रहती है अपनी जान की क़ीमत पर।
बच्चा सभी पैदा करते हैं। इसमें नया क्या है? कितनी चीज़ें। इन चीज़ों के बीच लगातार जाती जानें।
इनके बीच हाल में पढ़ा गया ज़ेंडर राइट्स जर्नल (लैंगिक अधिकार पर लिखा गया आलेख) याद आया। 2020 में लिखे गये उस लेख के मुताबिक़ उस दरमियान लगभग नौ लाख महिलाओं ने गर्भ के दौरान या बच्चे के जन्म के एक महीने के भीतर अपने साथ पारिवारिक/पति द्वारा हिंसा की बात की थी।
मैं स्क्रिप्ट लिख रही थी। मन कलप रहा था। कितने संघर्ष औरतों के और किन-किन स्तरों पर… कभी कुछ रुकेगा? अगर हाँ तो कब?
डॉ. आर.के.पालीवाल
आज़ादी के आंदोलन के दौरान और आज़ादी के बाद भी कांग्रेस की सबसे बड़ी पहचान धर्म, जाति और क्षेत्रीयता की सीमाओं से ऊपर उठी सर्व समावेशी प्रगतिशील विचारधारा रही है। ऐसा लगता है कि पहली बार केन्द्रीय सत्ता से लगातार एक दशक बाहर रहकर कांग्रेस बौखला गई है और सत्ता प्राप्ति के लिए अपनी पुरानी पहचान नष्ट करने पर तुली है। इसका अहसास महिला आरक्षण विधेयक पर चर्चा के दौरान सोनिया गांधी और राहुल गांधी के बयानों में साफ दिखाई दिया।
पिछड़ी जातियों के बड़े वोट प्रतिशत के लिए कांग्रेस का पिछड़ी जाति प्रेम उभरना इसी रणनीति का हिस्सा लगता है। क्या यह बदलाव समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल सरीखी पार्टियों की संगत का असर है कि महिला आरक्षण विधेयक पर बहस करते हुए सोनिया गांधी और राहुल गांधी ओ बी सी महिलाओं के आरक्षण का राग अलापते नजऱ आए। यह महज संयोग नहीं हो सकता कि कांग्रेस के गांधी परिवार के यह दो सर्वेसर्वा जो विगत में कांग्रेस अध्यक्ष भी रह चुके हैं और कांग्रेस में जिनका कद सबसे बड़ा है वे संसद के सर्वोच्च प्लेटफार्म पर अचानक एक ही राग अलापने लगें! यह समय के साथ कांग्रेस से दूर हुए ओ बी सी मतदाताओं को रिझाने की कोशिश लगती है।
निश्चित रूप से वर्तमान कांग्रेस न महात्मा गांधी की कांग्रेस है क्योंकि उसका गांधी के रचनात्मक कार्यों से दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। यह पंडित नेहरू की कांग्रेस भी नहीं रही क्योंकि नेहरू की प्रगतिशीलता का लेशमात्र अंश भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी के भाषणों में नहीं झलका। यह देश को एक राष्ट्रीयता की डोर में बांधने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल की कांग्रेस भी नहीं है। वर्तमान कांग्रेस सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने वाली वैसी ही पार्टी बन गई है जिस तरह सत्ता से चिपके रहने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी ने अपने चाल, चरित्र और चेहरे को खूंटी पर टांग दिया है। भाजपा भी कल तक जिन्हें दिन रात पानी पीकर भ्रष्टाचार और परिवारवाद के लिए कोसती थी उन्हें गले लगाकर कई राज्यों में अपनी सरकार बनाकर अपना उल्लू सीधा किया है।
सोनिया गांधी आजकल लगभग वही भाषा बोल रही हैं जो कभी महिला आरक्षण के विरोध में शरद यादव बोलते थे कि पिछड़ी जातियों की महिलाओं को आगे लाए बिना महिला आरक्षण बेमानी है। यदि सोनिया गांधी को पिछड़ी जातियों के प्रति इतनी चिंता है तो उन्हें सबसे पहले अपने दल की कार्यसमिति और आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों में ऐसी महिलाओं को आगे लाकर आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।राहुल गांधी तो इस मामले में सोनिया गांधी से भी आगे निकल गए।
वे केन्द्र सरकार को कटघरे मे खड़ा करने के लिए केन्द्र सरकार के सचिवों की जातियां गिनाने लगे और पूछ रहे थे कि सचिवों में पिछड़ी जातियों की संख्या इतनी कम क्यों है। राहुल गांधी को बताना चाहिए कि जब उनकी सरकार थी तब कितने प्रतिशत सचिव पिछड़ी जातियों से थे। उन्हें यह भी बताना चाहिए कि कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कितने प्रतिशत पिछड़ी जातियों से हैं और उनके दल के कितने राज्यों के अध्यक्ष पिछड़ी जातियों से हैं।
कोई भी व्यक्ति या राजनीतिक दल तब शक्तिशाली बनता है जब वह अपनी खूबियों को जनता के सामने शालीनता के साथ प्रस्तुत करता है। विरोधियों की कमियों को इंगित कर कोई व्यक्ति या संस्था मजबूत नहीं होते।जातिवाद पर हमारे देश के आधुनिक इतिहास में सबसे बड़ा प्रहार डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और राम मनोहर लोहिया ने किया था। जातियों की समाप्ति के लिए डॉ अम्बेडकर की किताब एनिहिलेसन ऑफ कास्ट भारत की असंख्य जातियों की जटिलता और राष्ट्र एवं समाज की प्रगति में जातिवाद के प्रतिकूल प्रभाव का प्रामाणिक दस्तावेज है। दुर्भाग्य से अंबेडकर और लोहिया के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टियां भी जातियों के उन्मूलन के बजाय जातिगत गुणाभाग से ही सत्ता के आसपास पहुंचने का प्रयास करती हैं। बहरहाल कांग्रेस जैसी पार्टी को सत्ता के लिए जाति जाति खेलना कतई शोभा नहीं देता।
विष्णु नागर
बचपन में सोचता था कि जो चि_ियां हम पोस्ट ऑफिस के डिब्बे में डालते हैं, अंदर ही अंदर कोई रास्ता होता होगा, जिससे वे उस शहर, कस्बे या गांव के पोस्ट आफिस तक अपने आप पहुंच जाती होंगी। फिर उन्हें वहां का डाकिया निकाल कर वितरित कर देता होगा। हम अपने आपको तभी से शायद इतना ज्ञानी समझते होंगे या पूछने से डरते रहे होंगे कि मूर्ख समझ लिए जाएंगे, इसलिए पूछते नहीं थे।
पहले डाक आने का इंतजार रहा करता था क्योंकि उसमें किसी रिश्तेदार, परिचित, मित्र की चि_ी, अंतर्देशीय पत्र या लिफाफा आने की आशा रहती थी। हमारे बाद शायद एक और पीढ़ी ऐसी रही, जिसने चि_ियां लिखीं और पाईं। बहुत सी चि_ियां मैंने फाड़ दी हैं मगर बहुत सी अभी सुरक्षित हैं। वे एक तरह का दस्तावेज हैं। साहित्यिक मित्रों और पाठकों की आदि की चि_ियां उस समय का व्यक्तिगत और साहित्यिक दस्तावेज हैं।
साहित्यिक विमर्श है। उनका मोह छोड़ नहीं पा रहा हूं। कभी-कभी साल दो साल में चि_ियों को देखने पर अतीत में खो जाता हूं -एक शानदार और काफी कुछ भूले हुए अतीत में। कुछ चि_ियों के शब्दों में अधिक कुछ नहीं है, उस लिखावट में है कुछ,जो आज भी देखने पर झनझना देती हैं। कुछ चि_ियां कामकाजी होती थीं और उनका जवाब भी कामकाजी होता था मगर अधिकतर भावनाओं और विचारों से भरी होती थीं।
नये जमाने ने उस चि_ी युग को अप्रासंगिक कर दिया है मगर कुछ नया दिया भी है। पहले कुछ लिखकर भेजना होता था तो भेजने की भी काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। पहले, पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय या पोस्ट आफिस का लिफाफा अगर घर में कहां रखा है,तो उसे ढूंढो। लिफाफा भेजना हो तो गोंद से चिपकाओ। पोस्ट आफिस तक जाओ। फिर अंधेरे में रहो कि पहुंचा या नहीं पहुंचा? पहुंचा तो जवाब क्यों नहीं आया?
अब मेल या एस एम एस या व्हाट्सएप से संदेश भेजो। ह्यद्गठ्ठह्ल लिखा आ गया मतलब काम हो गया। सामने वाले को मिल गया। अब मोबाइल से बात करना भी काफी सस्ता है। गरीब आदमी भी मोबाइल खरीद कर चार्ज करवा सकता है। चाहो तो सामने वाले को बता भी दो कि भेज दिया। इसी तरह टिकट, दस्तावेज भी मेल से आ जाते हैं। कागज की काफी बर्बादी कम से कम इस कारण रुकी है।
मगर पहले गोपनीयता की एक तरह से गारंटी जैसी रहती थी, अब नहीं रही। इस सुविधा की एक कीमत चुकानी पड़ती है। सरकार से लेकर हैकर्स तक सब जानना चाहें तो जान सकते हैं।
वैसे हमारे देश में कम से कम बात करने के मामले में गोपनीयता की कोई खास परवाह नहीं करता। लोग अकसर निजी से निजी, पारिवारिक बात भी जोर -जोर से करते हैं कि पास से गुजरता भी जान ले। गोपनीयता यूरोप -अमेरिका में बड़ा मुद्दा है, हमारे यहां नहीं।
मैं टाइप करना तब नहीं सीख पाया था, जब लगता था कि किसी ऑफिस में नौकरी करना पड़ सकती है? जिसके लिए टाइपिंग का ज्ञान जरूरी है। एक टाइपिंग इंस्टीट्यूट गया था छात्र जीवन में मगर यह सीख नहीं पाया। क्लर्क बनने के रास्ते से गुजरने से इस तरह मैंने अपने को आजाद कर लिया।
बाद में 1997 में हिंदुस्तान अख़बार में आया तो तब के संपादक आलोक मेहता ने हम सभी ब्यूरो के लोगों के लिए एक खास तारीख से कंप्यूटर पर लिखना अनिवार्य कर दिया। शुरू में चार लाइन ही लिखो मगर लिखना होगा। यह आदेश मेरे लिए वरदान बन गया।
धीरे-धीरे कंप्यूटर पर लिखना सीखा। कई बार गलती से डिलीट का बटन दब जाता और घंटों की मेहनत बर्बाद! मगर मैं हर चीज सीधे कंप्यूटर या मोबाइल पर नहीं लिखता। कोई भी रचनात्मक विचार पहले कागज पर दर्ज होता है। कई बार उसी में लगभग अंतिम रूप लेता है या उसमें और सुधार चलता रहता है। इसका एक लाभ हुआ कि खराब अक्षरों, भयंकर काटपीट करते हुए किसी को कुछ भेजने से छुटकारा मिला। अब मोबाइल या कंप्यूटर पर पचास बार सुधारो, कोई समस्या नहीं।
मगर पेन से लिखा पढऩे -लिखने का वह रोमांच नहीं रहा। अक्षरों से जुड़ी व्यक्तियों और उस समय की स्मृतियां गायब हो गईं। बहुत कुछ निजताएं भी गायब हो गईं। मेल के अंदाज में वे बातें नहीं लिखी जा सकतीं। चि_ी में वह कह सकते थे,जो आमने-सामने नहीं कह सकते थे। अब शायद स्त्री-पुरूष, लडक़े -लडक़ी के बीच उस तरह के अवगुंठन रहे भी नहीं।
मोबाइल से बात करना सस्ता और सुलभ हुआ-सबके लिए होने से अपने आत्मीयों को जीवंत रूप में देखना संभव हुआ है। यह बहुत बड़ी राहत है। दूर जाकर निकट होना अब संभव हुआ है। जो पढ़ नहीं सकते, लिख नहीं सकते, उन्हें एक सहारा मिला है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि जो समय आपने या आपके घर के सदस्य या किसी आत्मीय ने दिया है, उससे ज्यादा समय हो जाए तो दूसरे का मन घबराने लगा है। पहले यह समस्या उतनी नहीं थी।
गैरेथ इवान्स
अमेरिका में राष्ट्रपति चुनावों के लिए रिपब्लिकन पार्टी की ओर उम्मीदवारों की दौड़ में शामिल भारतीय मूल के 38 साल के अरबपति कारोबारी विवेक रामास्वामी अपने एजेंडे को लेकर इन दिनों चर्चा में हैं।
बच्चों के लिए लत लगने वाले सोशल मीडिया को बंद करने से लेकर एफ़बीआई को बंद करना उनके एजेंडे में है।
रिपब्लिकन उम्मीदवारों के बीच दूसरे राउंड की बहस में उन्होंने कहा कि 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए लत लग जाने वाले सोशल मीडिया के इस्तेमाल की इजाज़त नहीं होनी चाहिए।
बायोटेक बिजनेस से जुड़े रहे विवेक रामास्वामी का कोई पूर्व राजनीतिक अनुभव नहीं है और वो ट्रंप के ‘अमेरिका फस्र्ट’ एजेंडे को ही अपना पर्सनल टच देकर इसे एजेंडा बनाना चाहते हैं।
और इसके लिए उन्होंने कुछ अजीबो गरीब सुझाव दिए हैं। मुख्य रूप से उन्होंने सात एजेंडे पेश किए हैं। आइए जानते हैं उनके एजेंडों के बारे में।
1.बच्चों के सोशल मीडिया इस्तेमाल को बैन करना
रामास्वामी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और उनके प्रोडक्ट को ‘लत लगाने वाला’ बताते हुए आलोचना की। हाल ही में उन्होंने टिक टॉक को ‘डिजिटल फेंटानिल’ तक कहा। उन्होंने कहा, ‘इन्हें इस्तेमाल करने वाले 12-13 साल के बच्चों पर क्या असर होता होगा, इसे लेकर मैं चिंतित हूं।’
रिपब्लिकन डिबेट के दूसरे चरण में उन्होंने बच्चों द्वारा सोशल मीडिया इस्तेमाल पर बैन लगाने की बात कही ताकि ‘देश की मानसिक सेहत को सुधारा’ जा सके। लेकिन रिपब्लिकन प्रतिद्वंद्वियों ने रामास्वामी की आलोचना की क्योंकि कुछ दिन पहले ही वो टिक टॉक से जुड़े थे।
2. एच-1बी वीजा प्रोग्राम का अंत होना चाहिए
विवेक रामास्वामी ने कहा कि वो चाहते हैं कि एच-1बी वीज़ा प्रोग्राम ख़त्म हो। अमेरिका में विदेशी कुशल कर्मचारियों को भर्ती करने के लिए नियोक्ताओं द्वारा इस प्रोग्राम का इस्तेमाल किया जाता है।
यह वीजा प्रोग्राम विशेष कुशलता और शिक्षा वाले लोगों के लिए खुला होता है और नियोक्ता के जॉब ऑफर से जुड़ा होता है। ये विदेशी कर्मचारियों को अमेरिका में छह साल तक रहने और काम करने की वैधता देता है, जिसके बाद इसे नवीकरण किया जा सकता है।
ये बहुत लोकप्रिय है और 2024 के लिए अमेरिकी व्यावसायिक घरानों ने 7 लाख 80 हजार वीजा जरूरतों की मांग की है।
हाल ही में अपने एक बयान में रामास्वामी ने एच-1बी वीजा की तुलना ‘गिरमिटिया कामगारों’ से की जो कंपनी के लाभ के लिए काम करते हैं।
इस बयान पर उनकी आलोचना हुई क्योंकि अपने फार्मास्युटिकल कंपनी रोईवैंट साइंसेज़ में भर्ती करने के लिए इसी प्रोग्राम का इस्तेमाल किया था। उन्होंने कहा कि अगर वो जीतते हैं तो वीजा प्रोग्राम में आमूलचूल बदलाव करेंगे। यूएस सिटिजनशिप एंड इमिग्रेशन सर्विसेज की वेबसाइट से पता चलता है कि रोईवैंट साइंसेज ने 2018 से इस वीजा प्रोग्राम के तहत 12 वीजा का आवेदन किया था।
3. वोटिंग की उम्र बढ़ानी चाहिए
रामास्वामी का कहना है कि वोट देने की न्यूनतम उम्र को बढ़ाकर 25 साल किया जाना चाहिए।
उनका प्रस्ताव है कि 18 साल तक के लोगों को भी वोट का अधिकार तभी मिले जब वो ‘राष्ट्रीय सेवा जरूरतों’ की शर्त पूरा करते हों। यानी या तो वो इमरजेंसी में मददगार हुए हों या सेना में छह महीने की सेवा दे चुके हों।
उन्होंने ये भी कहा कि 18 साल के उन लोगों को वोट देने का अधिकार देना चाहिए जो अमेरिकी नागरिकता वाला टेस्ट पास कर लें।
लेकिन समस्या ये है कि वोटिंग की उम्र बढ़ाने का मतलब है संविधान में बदलाव, यानी कांग्रेस में दो तिहाई बहुमत होना चाहिए।
4. यूक्रेन युद्ध ख़त्म करने के लिए
रूस को छूट देनी चाहिए
रामास्वामी का मानना है कि रूस यूक्रेन युद्ध को शांतिपूर्ण तरीके से खत्म करने के लिए रूस को कुछ बड़ी छूट देनी चाहिए।
उन्होंने जून में एसीबी न्यूज से कहा था कि कोरियाई युद्ध की तरह एक ऐसा समझौता होना चाहिए जिसमें दोनों पक्षों को अपने अपने नियंत्रण वाले इलाकों पर वैधता दे दी जाए।
उनका मानना है कि अमेरिकी सेना के लिए सबसे बड़ा ख़तरा चीन-रूस गठबंधन और नेटो में यूक्रेन के न शामिल होने का स्थाई आश्वासन है। लेकिन इसके बदले रूस को अपने गठबंधन और चीन के साथ सैन्य समझौते से पीछे हटना होगा। उनके अनुसार, रूस के खिलाफ यूक्रेन को अधिक हथियार देना, रूस को चीन के हाथों में धकेलने जैसा है।
5. नेशनल अबॉर्शन प्लान नहीं होना चाहिए
रामास्वामी अबॉर्शन यानी गर्भपात पर संघीय सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाने का समर्थन नहीं करते क्योंकि उनके शब्दों में ‘संघीय सरकार को इससे अलग रहना चाहिए।’
हालांकि उन्होंने राज्य स्तर पर छह हफ्ते के भ्रूण की शल्यक्रिया के मामले में प्रतिबंध की वकालत की।
सीएनन को उन्होंने बताया था, ‘अगर हत्या के कानून राज्य स्तर पर तय होते हैं और अबॉर्शन एक किस्म की हत्या ही है, तो इस मामले में संघीय कानून की कोई जरूरत नहीं है।’
6. एफ़बीआई को ख़त्म कर देना चाहिए
रामास्वामी कई संघीय विभागों को बंद करने की योजना भी रखते हैं। जैसे शिक्षा विभाग, परमाणु नियामक आयोग, घरेलू राजस्व सेवा और एफबीआई आदि।
एनबीसी न्यूज से उन्होंने कहा, ‘अधिकांश मामले में ये एजेंसियां बेकार हो चुकी है और इनकी जगह कई अन्य विभाग काम करते हैं।’
उन्होंने पुनर्गठन का सुझाव दिया जिसमें एफ़बीआई की फंडिंग को सीक्रेट सर्विस, फ़ाइनेंशियल क्राइम्स एनफोर्समेंट नेटवर्क और डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी में बांटा जाए।
रिपब्लिकन उम्मीदवारों की दौड़ में शामिल पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप एफबीआई पर उनके खिलाफ बदले की भावना से कार्रवाई करने के आरोप लगाते रहे हैं।
जून में फॉक्स न्यूज पोल में पता चला कि रिपब्लिकन लोगों में एफबीआई को लेकर भरोसा कम कऱीब 20 प्रतिशत तक कम हुआ है।
7.सरकार ने 9/11 के बारे में झूठ बोला
‘द अटलांटिक मैगज़ीन’ में रामास्वामी ने कहा था कि 9/11 पर सरकार ने झूठ बोला था। इसे लेकर उनकी काफी आलोचना हुई।
उन्होंने कहा, ‘ये कहना वैध है कि ट्विन टॉवर्स पर जिन विमानों ने हमला किया उसे लेकर कितनी पुलिस थी, कितने संघीय एजेंट थे। शायद एक भी नहीं।’
एक आधिकारिक आयोग ने 2004 में एक अंतिम रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें 9/11 की घटना का पूरा ब्योरा दिया लेकिन किसी सरकारी साजिश का इसमें कोई सबूत नहीं मिला।
बाद में रामास्वामी ने मैगजीन पर ही बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किए जाने का आरोप लगा दिया। इस पर ‘द अटलांटिक’ ने उस साक्षात्कार का पूरा ऑडियो जारी कर दिया, जिससे पता चला कि उनके बयान को सटीकता के साथ लिखा गया था। (bbc.com/hindi)
अमिता नीरव
हाल ही में इस शीर्षक से एक कहानी पूरी की। इस कहानी की नायिका भी मेरी ही तरह सोचती है कि अब वह कभी अवाक नहीं होगी। क्योंकि वह इतनी दफा, इतनी वजहों से अवाक हो चुकी होती है कि उसे लगता है कि अवाक होने की अब कोई वजह शेष है ही नहीं।
मैं भी यही समझती थी कि अब कुछ भी शायद ऐसा हो कि मुझे वो अवाक् करे, लेकिन नहीं... अवाक होना कभी भी आखिरी नहीं होती। उस दिन रमेश बिधूड़ी ने संसद में जिस तरह से गाली दी थी उससे मैं अवाक हूँ। अवाक शब्द की शिद्दत कितनी है नहीं जानती।
जो मेरी अनुभूति है, उसे ये शब्द व्यक्त करने में जरा भी सक्षम नहीं है, लेकिन अब तक इससे बेहतर शब्द कॉइन नहीं किया जा सका है। तो अवाक से बहुत-बहुत ज्यादा कुछ है जो मुझे इन दिनों घेरे हुए हैं। हर बार लगता है जैसे इस असहायता की अनुभूति आखिरी होगी, मगर नहीं होती।
हर कुछ दिनों में असहायता कुछ नए रंग-रूप औऱ धज में सामने आ खड़ी होती है। कई बार तो ये भी होता है कि अभी पुरानी से ही उबरे नहीं होते हैं और नई आ जाती है। इस हादसे से पहले से कुछ अलग तरह के प्रश्नों से जूझ रही थी, इसलिए यहाँ लिखने पर विराम लगा हुआ था।
संसद के कांड से कई दिन पहले से ये विचार मुझे परेशान कर रहा था कि इतने शब्द खर्च करने, इतने पन्ने काले करने औऱ इतना स्पेस घेरने का हासिल क्या है? ये कि मुझे क्यों लिखना चाहिए! मेरे लिखने से किसको क्या हासिल हो रहा है? किसकी जिंदगी में सूत भर भी फर्क आ रहा है?
किसको मेरे लिखे की जरूरत है? किसके लिए मेरे लिखने की कीमत है! तो पिछले दिनों इस ऊहापोह में थी कि मुझे लिखना जारी रखना चाहिए या नहीं? यूँ मैं इन प्रश्नों से हर कुछ महीनों में दो-चार होती रहती हूँ और हर बार ये जवाब दे दिया करती हूँ कि चूँकि यही मैं ठीक-ठाक कर सकती हूँ तो ये कर रही हूँ।
तभी ये हादसा हो जाता है। वीडियो देखकर स्तब्ध थी, लगा कि यदि मैं संसद में होती तो जरूर अपनी चप्पल निकालकर बिधूड़ी की तरफ फेंकती। क्योंकि आक्रोश इतना ही था जिसमें मैं आउट ऑफ कंट्रोल हो चुकी थी। ऐसे में प्तदानिश_अली का संयम काबिले तारीफ लगा।
असल में राजा बाबू की सरकार और उनके नुमाइंदे, उनके समर्थक हर वो कारनामा अंजाम दे रहे हैं, जिससे मुसलमानों की तरफ से रिएक्शन आए और फिर ये सब कह सकें कि ‘देखिए हम नहीं कहते हैं कि ये लोग हिंसक हैं।’ इसके उलट हो ये रहा है कि मुसलमान अभूतपूर्व संयम साधे हुए हैं। ये सरकार के प्लान के खिलाफ जा रहा है।
इस वक्त मुसलमानों के संयम ने हमारे जैसों की जिम्मेदारी बढ़ा दी है। इसलिए नहीं कि ये मसला मुसलमानों का है, बल्कि इसलिए कि मसला हमारे समाज का है, हमारे देश का है, हमारे लोकतंत्र का है, उसके स्वभाव और प्रकृति का है। ये ठीक है कि सेक्युलरिज्म की मोटी चादर हमारे पूर्वजों ने हमारे समाज पर डाल दी है।
शायद वो ये जानते होंगे कि हमारा समाज गहरे में साम्प्रदायिक है, इसलिए सेक्युलर वैल्यूज को प्रैक्टिस में लाया जाना जरूरी है। और इसलिए घिसने, छिदने के बाद भी उसमें अभी इतना सामर्थ्य तो बचा ही था कि वो साम्प्रदायिकता की सड़ांध को ढँक लें।
मगर राजा बाबू तो आए ही उस चादर को फाडक़र हैं। हमारा समाज नंगा हो गया है, ये बदबू और सड़ांध से भर गया है। अजीब ये है कि इसके बावजूद तथाकथित सहिष्णु लोगों को न शर्म आ रही है और न ही दिख रहा है। अपने आसपास लोगों को बेशर्मी से इसका बचाव करते देख रही हूँ।
अब सोचती हूँ, चाहे मेरे लिखने से कुछ फर्क नहीं पड़ता है, चाहे एक भी इंसान के जीवन में मेरे लिखे से सूत भर भी बदलाव नहीं आता हो, मुझे इसलिए लिखना होगा, क्योंकि इस असहायता, बेबसी और बेचैनी के दिनों में यही मेरा एकमात्र सहारा है।
चाहे इस बयान को संसद ने अपने रिकॉर्ड से निकाल दिया हो, मगर मैं ये वीडियो संभालकर रखूँगी। ताकि याद रहे कि इस देश और इस समाज ने हत्यारों, गालीबाजों, अपराधियों और दंगाइयों को चुनकर संसद में भेजा था। और संसद की गरिमा को इन लोगों ने किस तरह से जलाया था।
आपमें से जिनके भी पास ये वीडियो हो, संभाल कर रखें। ये इस गिरते देश के इतिहास का दस्तावेज है। न चाहते हुए भी मैं अवाक हो रही हूँ, और अवाक से भी और ज्यादा कुछ हो रही हूँ। बहुत जब्त करके भी मजबूर हो गई हूँ, क्योंकि असहायता के आलम में लिखना ही मेरा एकमात्र सहारा है।
अणु शक्ति सिंह
सुबह अखबार पलट रही थी। एक खबर पर नजर टिकी। दिल्ली के मुखर्जी नगर इलाके की वह खबर फाँस की तरह चुभी।
जून में मुखर्जी नगर के एक आई ए एस कोचिंग सेंटर में आग लगी थी। कई विद्यार्थी रस्सी से उतरे थे। एक लडक़ी भी नीचे उतर रही थी कि उसकी टी शर्ट बीच में कहीं फँस गई। उसने देखा कि लोग लगातार नीचे उतर रहे लोगों का वीडियो बना रहे हैं।
वह लडक़ी उस वक्त जान बचाने की जगह यह सोचने लगी कि टीशर्ट उसकी उठी हुई है। इस हालत में अगर उसका वीडियो बन गया और कहीं वायरल हो गया तो उसकी इज़्ज़त चली जाएगी। वह बदनाम हो जाएगी। इस उधेड़बुन में उसकी पकड़ ढीली हुई। वह नीचे गिरी और एसी के पैनल से उसका सिर टकरा गया। नतीजतन वह दो हफ्ते कोमा में रही।
मैं इस खबर को देख रही थी और सोच रही थी कि शरीर को लेकर हमारे समाज की लड़कियों को कितना असहज बना दिया जाता है। उनके शरीर का दिख जाना उनकी जिंदगी खो जाने से बड़ा डर है। शरीर का दिखना क्यों, वह ब्रा में दिखती। ब्रा जिसे भारत में औरतें अक्सर कपड़ों के नीचे सुखाती हैं।
मैं इस घटना को पढ़ रही थी। साथ में परसों देखी गई फिल्म रॉकी और रानी की प्रेम कहानी को याद कर रही थी। फिल्म थोड़ी ढीली है पर कई दृश्य बेहद पॉवरफुल हैं।
एक जगह रानी की माँ रॉकी को ब्रा की शॉपिंग पर लेकर जाती है। वह मुँह घुमाकर खड़ा रहता है। ब्रा को लेकर घोर असहज है। रानी की माँ वजह पूछती है। कहता है हम औरतों का सम्मान करते हैं। रानी की माँ उसे कॉन्फ्रंट करती है और कहती है भारतीय औरतें तो सदियों से मर्दों की चड्डी धो रही हैं। रॉकी और रानी की प्रेम कहानी का यह दृश्य जरूरी है।
समाज में औरतों के स्तनों और योनी को केवल अंग कितने लोग मानते हैं? औरतों का स्तन और योनी माने केवल सेक्स। पीरियड से लेकर ल्यूकोरिया तक औरतों की गंभीर यौन समस्याओं को लगातार छिपा कर रखा गया। कितनी जानें गईं इस वजह से। कारण सिफऱ् एक कि औरत का शरीर सेक्स का द्वार है। मर्द की कुंठा का अभिप्राय भी।
मुझे बहुत अच्छा लगा कि इस टॉपिक को यूँ खुलकर बताया गया। मुझे यह भी अच्छा लगा कि मैं यह फि़ल्म अपने साथी और उनके मम्मी-पापा के साथ बैठकर देख रही थी। सभी लोग इस बात को लेकर अप्रिशिएटिव थे। साथी के पिता ने कहा कि फि़ल्म बहुत अच्छे संदेश देती है।
ऐसा नहीं है कि इस पर पहली बार बात हो रही है। हम जैसी औरतें बहुत सालों से बोल रही हैं पर हमारी पहुँच कितनी है? कुछ हज़ार?
फि़ल्म मास-मीडिया है। करोड़ों लोगों तक पहुँचने वाला माध्यम।
पत्रकारिता की विद्यार्थी होने के नाते पहली ही क्लास से जानती रही हूँ कि समाज पर सबसे गहरा असर फिल्में छोड़ती हैं। बॉलीवुड की फि़ल्मों में सालों तक स्त्री द्वेष भरा हुआ रहा। इसलिए अब जब बातें इस ओर हो रही हैं तो अच्छा लग रहा है।
मेरा मन कर रहा है कि उस लडक़ी से मिलूँ और कहूँ, तुम जरूरी हो सबसे अधिक। किसी भी सो कॉल्ड इज़्ज़त-विज्जत के ड्रामे से अधिक।
वह लडक़ी ही क्यों, किसी भी लडक़ी से मिलना है मुझे और कहना है, ‘तुम जरूरी हो सबसे ज़्यादा।’
वंदना
साल 1973 की बात है, जब ‘बॉबी’ नाम की ऐसी हिंदी फिल्म आई, जिसमें हीरो और हीरोइन दोनों नए थे। हीरोइन डिंपल कपाडिय़ा का तो किसी ने नाम भी नहीं सुना था।
इसके निर्देशक राज कपूर की पिछली फिल्म जबरदस्त फ्लॉप हुई थी लेकिन जब ये फिल्म रिलीज हुई तो इसकी लोकप्रियता का आलम ये था कि गाँवों-कस्बों से बड़े शहरों के थिएटर के लिए विशेष बसें चलती थीं जिन्हें ‘बॉबी बस’ कहा जाता था। ये बस लोगों को फिल्म दिखाकर वापस गाँव लेकर आती थी।
डिंपल कपाडिय़ा की पोलका डॉट वाली पोशाक ‘बॉबी ड्रेस’ के नाम से मशहूर हुई और हीरो ऋषि कपूर के मोटरसाइकिल को लोग ‘बॉबी मोटरसाइकिल’ बुलाते थे।
फि़ल्म ‘बॉबी’ 50 साल पहले 28 सितंबर 1973 को रिलीज हुई थी। बॉबी की लोकप्रियता की एक और मिसाल 1977 में देखने को मिली जब बाबू जगजीवन राम ने दिल्ली के रामलीला मैदान में चुनावी रैली करने का फैसला किया।
वो इंदिरा गांधी से अलग हो गए थे। कहा जाता है कि उस शाम जानबूझकर दूरदर्शन पर बॉबी दिखाई गई ताकि लोग रैली में न जाएँ। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और अगले दिन अखबार की हेडलाइन थी बाबू बीट्स बॉबी।
उस वक्त तक हिंदी में मेच्योर प्रेम कहानियाँ बनती आई थीं, लेकिन ‘बॉबी’ शायद पहली हिंदी टीनएज लव स्टोरी थी, जिसमें जवानी का जोश, बगावत, मासूमियत और बेपरवाह मोहब्बत का मेल था।
डिस्ट्रीब्यूटर नहीं मिल रहे थे
हालांकि बॉबी की कामयाबी के पीछे संघर्ष की अलग दास्तां थी। मशहूर फिल्म विश्लेषक जयप्रकाश चौकसे राज कपूर के बहुत करीबी थे और गुजऱने के कुछ साल पहले उन्होंने बॉबी की कहानी विस्तार से मुझे बताई थी।
जयप्रकाश चौकसे ने बताया था, ‘राज साहब के ऑफिस में आर्ची कॉमिक्स पड़ी रहती थीं। उन्होंने कॉमिक्स में एक कैरेक्टर के बारे में पढ़ा जिसे इश्क हो गया था तो उसका बाप बोलता है कि यह तुम्हारी उम्र है इश्क करने की?’
‘यू आर टू यंग टू फॉल इन लव। वहीं से यह आइडिया आया कि ऐसी फिल्म बनाई जाए, जिनके बारे में लोग कहते हैं कि यह भी कोई उम्र है प्यार करने की। 1970 में राज कपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ फ्लॉप हो गई थी।’
‘उसके एक साल बाद राज कपूर की प्रोड्यूस की हुई फिल्म ‘कल आज कल’, जिसे उनके बेटे रणधीर कपूर ने डायरेक्ट किया था, वह भी फ्लॉप हो गई। उसी दौरान राज कपूर के पिता पृथ्वी राजकपूर की मृत्यु हो गई, उनकी माताजी गुजर गईं, उनके करीबी रहे संगीतकार जयकिशन की भी मृत्यु हुई।
यही वो दौर था जब तमाम चुनौतियों के बीच राज कपूर ने एक युवा प्रेम कहानी बनाने की ठानी। लेकिन फिल्म में पैसा चाहिए था, जिसके लिए हिंदूजा परिवार आगे आया। तब हिंदूजा परिवार विदेशों में, खासकर ईरान में हिंदी फि़ल्में डिस्ट्रिब्यूट करके अपना बिजनेस आगे बढ़ा रहा था।
जयप्रकाश चौकसे के मुताबिक, ‘फिल्म बनकर तैयार थी। राज साहब फिल्म का ऊंचा दाम मांग रहे थे। वह राजेश खन्ना का दौर था और राज कपूर साहब, राजेश खन्ना की फिल्म से एक लाख ऊपर दाम मांग रहे थे। शशि कपूर पहले डिस्ट्रीब्यूटर थे, जिन्होंने दिल्ली-यूपी खरीदा और एक वकील हुआ करते थे, जिन्होंने पंजाब के अधिकार खरीदे। कहीं के लिए फिल्म बिकी ही नहीं। फिल्म में पैसा लगाने वाले हिंदूजा परिवार से अदालत तक की नौबत आ गई।’
‘राजकपूर को लगा कि अगर फिल्म हिट होगी तो बाकी जगहों के अधिकार भी बिक जाएंगे, लेकिन हिंदूजा को लगा कि सिर्फ दो जगह के अधिकार से पैसा कैसे निकलेगा। उन्होंने उनके खिलाफ हाईकोर्ट में केस कर दिया। रिलीज के पहले राजकपूर ने उनका पैसा लौटा दिया। लेकिन पिक्चर का पहला शो हाउसफुल हो गया और फिल्म चल पड़ी। इंडस्ट्री में लोग फिर से राजकपूर को महान डायरेक्टर मानने लगे। वे लोग भी उनके साथ हो गए जो कहने लगे थे कि राज निर्देशन भूल गया है।’
गिरवी था राज कपूर का आरके स्टूडियो
अपनी आत्मकथा ‘खुल्लम खुल्ला’ में ऋषि कपूर लिखते हैं, ‘सिनेमा को लेकर राज कपूर का जुनून ऐसा था कि फिल्मों से की हुई सारी कमाई वो फिल्मों में ही लगा देते थे। मेरा नाम जोकर के बाद आरके स्टूडियो गिरवी रखा जा चुका था।’
‘राज कपूर के पास अपना घर भी नहीं था। बॉबी की सफलता के बाद उन्होंने अपना घर खरीदा। बॉबी आरके बैनर को उभारने के लिए बनाई गई थी, मुझे लॉन्च करने के लिए नहीं। ये फिल्म हीरोइन पर केंद्रित थी। जब डिंपल की तलाश पूरी हो गई तब मैं बाय डिफॉल्ट हीरो चुन लिया गया। ये बात और है कि सारा क्रेडिट मुझे मिल गया क्योंकि डिंपल की शादी हो गई और फिल्म हिट होने पर मुझे वाहवाही मिल गई।’
कहते हैं कि बॉबी बनाते वक्त इंडस्ट्री के बड़े-बड़े लोग धर्मेंद्र, प्राण साहब, राजेंद्र कुमार ने उनसे कहा था कि आरके बैनर को फिर से खड़ा करने के लिए वे लोग बिना पैसे लिए काम करेंगे। लेकिन राज कपूर ने सबका शुक्रिया अदा करते हुए कहा था, ‘इस वक्त मेरी फिल्में फ्लॉप हो चुकी हैं इसलिए मेरा लेवल नीचे है और आपका ऊपर। हम तब साथ काम करेंगे जब हमारा और आपका लेवल बराबर हो जाएगा।’ और राज कपूर ने वो करके भी दिखाया ।
‘बॉबी’ की रिलीज के बाद ऋषि कपूर-डिंपल की जोड़ी ने तहलका मचा दिया। बॉबी सिर्फ एक फिल्म भर न होकर एक फैशन स्टेटमेंट भी थी। डिंपल की वो मिनी स्कर्ट, पोलका डॉट वाली शर्ट, हॉट पैंट्स, बड़े चश्मे, पार्टियाँ। राज कपूर ने जवान भारत की पहचान एक जीवनशैली से कराई।
अमृत गंगर फिल्म इतिहास के जानकार हैं। बीबीसी की सहयोगी पत्रकार सुप्रिया सोगले से बातचीत में उन्होंने कहा , ‘बॉबी ब्रगेंजा यानी बॉबी का 50 साल बाद भी क्रेज बना हुआ है। ये युवा पीढ़ी की प्रेम कहानी थी जो समाज के अलग अलग वर्ग से थे, राजा (ऋषि कपूर) एक हिंदू अमीर परिवार से है और बॉबी ईसाई परिवार से है जो मछुआरों का काम करते हैं।’
‘ये वो दौर था जब देश 1971 की जंग के माहौल से निकल रहा था, मेरा नाम जोकर फ्लॉप हुई थी। ऐसे में देश को, युवाओं को, ताजी हवा, एक बदलाव की जरूरत थी। इसी माहौल में बॉबी आई और छा गई। इस फिल्म के अंदाज में कहें कि ये काला कौआ आज भी काट रहा है।’
ऋषि कपूर की अंगूठी क्यों राजेश खन्ना ने फेंक दी
जब बॉबी की शूटिंग अपने अंतिम पड़ाव में थी तो डिंपल कपाडिय़ा ने राजेश खन्ना से शादी कर ली थी।
डिंपल कपाडिय़ा को हीरोइन चुनने की कहानी जयप्रकाश चौकसे ने कुछ यूँ बताई थी, ‘किशन धवन चरित्र कलाकार थे। उनकी पत्नी बुंदी धवन, राज कपूर की पत्नी कृष्णा की दोस्त थीं। उन्होंने डिंपल कपाडिय़ा का नाम सुझाया। स्क्रिप्ट के साथ डिंपल के सीन लिए गए वो कई सालों तक आरके स्टूडियो में कहीं रखे हुए थे। वो सीन देख कर आपको यकीन नहीं होगा कि यह वही डिंपल कपाडिय़ा हैं। उस समय डिंपल की उम्र बमुश्किल 15 या 16 की रही होगी।’
फि़ल्म 1973 यानी 20वीं सदी में बनी है। हालांकि बॉबी के एक सीन में डिंपल कहती हैं मैं 21वीं सदी की लडक़ी हूँ, कोई मुझे हाथ नहीं लगा सकता। जब ऋषि कपूर उन्हें टोकते हैं कि अभी तो 20वीं सदी चल रही है तो कहती हैं कि बूढ़ी हो गई 20वीं सदी और मैं अपनी हिफाजत ख़ुद करना जानती हूँ। डिंपल ने असल में भी अपनी जिंदगी वाकई ऐसे ही जी है।
अपनी आत्मकथा खुल्लम खुल्ला में ऋषि कपूर लिखते हैं, ‘डिंपल हमारे घर का हिस्सा बन गई थीं। मैं राज कपूर को पापा बोलता था तो डिंपल भी पापा ही बोलती थी। बाद में मैंने राज जी कहना शुरु कर दिया था लेकिन डिंपल आखिर तक उन्हें पापा ही बोलती रही।’
‘बॉबी के दौरान मैं यासमिन के साथ रिश्ते में था। उसने मुझे एक अंगूठी दी थी। लेकिन शूटिंग के दौरान कई बार डिंपल वो अंगूठी निकाल कर पहन लेती। जब राजेश खन्ना ने डिंपल को प्रपोज किया तो उन्होंने वो अंगूठी निकालकर समंदर में फेंक दी। प्रेस में बहुत बातें हुईं। तब हमारे बारे में कई बातें छपीं। लेकिन हमारे बीच ऐसा कुछ नहीं था। हाँ बतौर हीरोइन तब मैं उसे लेकर पोज़ेसिव था।’
अमृत गंगर कहते हैं, ‘राज कपूर के विजऩ को ऋषि और डिंपल ने बख़ूबी पर्दे पर उतारा फिर चाहे वो गाने हों, डांस हो या एक्टिंग। फिल्म में ऋषि कपूर और डिंपल की पहली मुलाकात उसी पल को दोहराती है, जब राज कपूर और नरगिस पहली बार मिले थे। ख्वाजा अहमद अब्बास ने तो ट्रैजिक अंत लिखा था जिसे बाद में हैप्पी एंडिग में बदल दिया गया।’
फैक्ट बॉक्स बॉबी -1973
फिल्मफेयर अवॉर्ड- 5
ऋषि कपूर- बेस्ट एक्टर
डिंपल कपाडिय़ा- बेस्ट एक्ट्रेस
नरेंद्र चंचल- बेस्ट गायक
आर्ट डाइरेक्शन- ए रंगराज
बेस्ट साउंड
जब लता का हिस्सा राज कपूर ने गाया
बॉबी की सफलता में आनंद बख्शी के गानों और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत का बड़ा रोल रहा। राज कपूर एक नए गायक शैलेंद्र सिंह को ऋषि कपूर के लिए लेकर आए थे।
शैलेंद्र सिंह ने दुबई से फ़ोन पर कुछ साल पहले बॉबी की यादें सांझा की थी।
पुराने दिनों को याद करते हुए शैलेंद्र ने बताया था, ‘राज कपूर साहब को एक नई आवाज चाहिए थी। वो कहते थे कि हीरो 16 साल का लडक़ा है, इसलिए गायक को भी लगभग इसी उम्र का होना चाहिए। इस तरह बॉबी से मेरा करियर शुरू हुआ।। बॉबी फिल्म का मुहूर्त मेरे गाने मैं शायर तो नहीं से हुआ था।’
बॉबी और राज कपूर को याद करते हुए शैलेंद्र सिंह का कहना था, ‘राज कपूर को गानों और संगीत की बहुत समझ थी। एक गाने की रिकॉर्डिंग के दौरान लता जी आई नहीं थीं। इस दौरान गाने में मैं अपना हिस्सा गा रहा था और लता जी का हिस्सा राज कपूर गा रहे थे। उन्हें पूरा गाना याद था।’
प्रेम नाम है मेरा, प्रेम चोपड़ा
बॉबी की बात करें तो इसकी युवा प्रेम कहानी और कहानी कहने का राज कपूर का तरीक़ा दोनों की फिल्म की सफलता में भूमिका रही।
फिल्म की जान इसके सहायक किरदार भी थे भले वो दुर्गा खोटे हो, मछुआरे के रोल में जैक ब्रगेंजा उर्फ प्रेम नाथ हों या फिर ऋषि कपूर के अख्खड़ बाप के रोल में प्राण या फिर विलेन प्रेम चोपड़ा।
प्रेम चोपड़ा की पत्नी और राज कपूर की पत्नी दोनों बहनें थीं और इस फिल्म में वो सिर्फ एक छोटा सा कैमियो कर रहे थे। वो फिल्म के आखिरी हिस्से में कुछ देर के लिए आते हैं।
लेकिन उनका वो सीन आज भी याद किया जाता है, जब घर से भागी हुई बॉबी का हाथ पकड़ते हुए वो बोलते हैं- प्रेम नाम है मेरा प्रेम चोपड़ा।
ऋषि कपूर, संजीव कुमार (कोशिश), अमिताभ बच्चन (जंजीर), धर्मेंद्र (यादों की बारात) और राजेश खन्ना (दाग) में से बॉबी के लिए ऋषि कपूर को फिल्मफेयर बेस्ट एक्टर अवॉर्ड मिला।
अपनी आत्मकथा खुल्लम खुल्ला में ऋषि कपूर ने लिखा, ‘किसी ने मुझे पैसे के बदले एक पुरस्कार दिलाने का ऑफर दिया था। मैंने कहा क्यों नहीं। मुझे इस बात का अफसोस है। मैं सिर्फ 20-21 साल का था। बॉबी के साथ अचानक मैं स्टार बन गया। लेकिन मुझे नहीं पता कि वो पैसे सच में आयोजकों के पास पहुँचे या नहीं। पर मैंने उसे 30 हजार रुपए दिए। ’
दिलचस्प बात ये है कि शैलेंद्र सिंह ने भी मुझे दिए इंटरव्यू में ऐसी ही बात बताई थी। उनका कहना था, ‘बॉबी के लिए मुझे बेस्ट सिंगर का अवॉर्ड ऑफर हुआ था, लेकिन मैंने मना कर दिया था। मैं वजह नहीं बता सकता। भारत में अवॉर्ड की कोई अहमियत नहीं है, अच्छे गानों को अवॉर्ड नहीं मिलता है।’
गानों के अलावा बॉबी की मजबूत कड़ी इसका स्क्रीनप्ले है, जिसे पी साठे ने ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ लिखा था और अब्बास साहब तब करीब 58 साल के थे। बॉबी का नॉस्टेलजिया आज भी बना हुआ है, कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में दिख ही जाता है।
मसलन कश्मीर में जिस होटल के कमरे में ‘अंदर से कोई बाहर न आ सके’ वाला गाना शूट हुआ था वो आज भी बॉबी हट के नाम से मशहूर हैं और लोग उसे देखते आते हैं। या फिर जब अमेरिकी सैलून में बाल कटाते वक्त जब एक रूसी फैन ने ऋषि कपूर को पहचान लिया और अपने फोन से मैं शायर तो नहीं बजाकर सुनाया।
बंदिशों को तोड़ता प्रेम, अमीरी-गरीबी को पाटता प्यार, फैशन स्टेटमेंट बनाती ये युवा प्रेम कहानी आज भी बेहतरीन टीनएज लव स्टोरी के रूप में याद की जाती है। (bbc.com/hindi)
-अशोक मिश्रा
अपने दौर के बेहतरीन रोमांटिक फ़िल्म स्टार गोल्डन जुबली देवानंद साहब ने अपनी जन्म शताब्दी पूरी की। लंबे समय तक वो हर घर, हर शख़्स, हर सिने प्रेमी के दिल में राज करते रहे। उनका मैनरिज्म और स्पीच पैटर्न बेहद ख़ास था। दिलीप कुमार साहब और राज कपूर साहब की अभिनय शैली का असर बाद के बहुत से अभिनेताओं पर देखा जा सकता है लेकिन देव साहब की एक्टिंग की नक़ल कोई न कर सका।
उनकी ज़ुल्फ़ों की स्टाइल को नौजवानों ने अपनाया। हेयर कटिंग सैलून में उनकी फ़ोटो टंगी रहती थी और युवा वैसे ही बाल बनाने को कहते। बाल काटते समय नाई और ग्राहक दोनों मानो देवानंदमय हो जाते।
‘ज्वेल थीफ’ जब आई तो देश में उनकी टोपी हिट हो गई। उसे लगाते ही लड़के देवानंद हो जाते और लड़कियों को लुभाने की कोशिश करते। अब बताने में थोड़ी शर्म आ रही है कि मैंने भी तब ‘ज्वेल थीफ कैप’ ख़रीदी थी।
एक रोज़ फ़ोन की घंटी बजी। मैंने उठाया तो आवाज़ आई, ‘हेलो अशोक मैं देवानंद बोल रहा हूँ।’ मैंने कहा, ’कौन देवानंद?’, जवाब आया, ‘एक्टर !’ मैं पहले तो अचकचाया। फिर आवाज़ पहचान गया तो हड़बड़ा गया, ‘ज ..ज..जी जी सर।सर!!”
‘ऑफ़िस आओ ! तुमसे कुछ काम है!’
मैं नियत समय पर “नवकेतन स्टूडियो” पहुँच गया। वहीं ऊपर उनका ऑफिस था।
“मैंने एक फ़िल्म लिखी है, “ब्यूटी क्वीन” चाहता हूँ तुम उसे देख लो और जो भी सुधार करना चाहते हो करो! मैं तस्करों के पैसों से फ़िल्म नहीं बनाता। अपनी जमा पूँजी लगाता हूँ, कुछ पैसे देश विदेश में मुझे चाहने वाले दे देते हैं इसलिए ज़्यादा पैसे तुम्हें नहीं दे पाऊँगा!”
“सर, पैसों की कोई चिंता न करें। आप मेरे आदर्श रहे हैं। आपने अनमोल मनोरंजन किया है उससे बड़ा मूल्य कुछ नहीं!“ मैंने कहा।
फिर भी उन्होंने एक छोटा सा कॉन्ट्रैक्ट लेटर बनवाया। जिसे मैंने बिना देखे साइन कर दिया।
“लेकिन तुम्हें काम रोज़ यहीं आकर करना होगा क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरी स्क्रिप्ट बाहर जाए।“
ऑफिस के ऊपर छत थी। वहीं एक AC कमरा था । कमरा क्या था देव साहब की यादों का ख़ज़ाना था। देश विदेश मिले सम्मान पत्र, मैडल, कई फ़िल्मी तारिकाओं के साथ देव साहब की तस्वीरें।
वहीं मैंने काम करना शुरू किया। दो बजे से शाम पाँच बजे तक देव साहब की स्क्रिप्ट पर काम करता। काट-छाँट करता। डायलॉग छोटे करता। रोचक बनाता और कंटेम्प्ररी बनाता। शाम को नीचे आकर सुनाता। वो सब कुछ स्वीकार कर लेते। कोई अहम, कोई अहंकार नहीं। फिर मैं उन्हें अतीत की यादों में ले जाने की कोशिश करता। वो कभी जाते, ज़्यादातर नहीं।
मैंने लगभग 15 दिन काम किया, लेकिन “ब्यूटी क्वीन” न बन सकी।
कुछ दिन बाद फिर फ़ोन आया। मैं पहुँचा। उन्होंने “चार्ज शीट” की स्क्रिप्ट थमाते हुए कहा, ”मैंने नया स्क्रीन प्ले लिखा है। इसे पढ़ो और इसे भी निखारो!”
मैं सहर्ष जुट गया। कभी वो छत पर आ जाते, बताते, “यहाँ हमारी कितनी ही म्यूज़िक सिटिंग्स हुई हैं। एस.डी. बर्मन, आर.डी. बर्मन, नीरज, किशोर सब यहाँ आते, बैठते, गीत और धुनें बनाते।
उनकी आँखों में अतीत झिलमिला उठता।
मैंने चार्जशीट पर काम करना शुरू किया। एक रोज़ शाम जब उन्हें सुनाकर जाने लगा तो उन्होंने कहा थोड़ा रुको शोएब (मशहूर क्रिकेट प्लेयर) आ रहा है। मिलकर जाना।
शोएब अख़्तर किसी …, -शायद मोटर सायकिल की- एड फ़िल्म करने भारत आये थे। कुछ ही देर में वो आ गए। कहने लगे, ”मेरे अब्बा आपके बहुत बड़े फैन हैं। उन्होंने कहा हिन्दोस्तान जा रहा है तो देवानंद से ज़रूर मिलना और मेरा सलाम उन्हें पहुँचाना।”
मैंने अपने बेटे यशोवर्धन के लिए -जो शोएब अख़्तर का दीवाना था- ऑटोग्राफ़ लिया।
फिर देव साहब लाहौर के बारे में बताने लगे। वहाँ की कबाब की दुकानों के नाम और स्वाद की ख़ासियत। वहाँ के गली कूचे भी उन्हें याद थे!
“चार्जशीट” बनी। कई अभिनेताओं ने अभिनय करके सहयोग किया जिनमें देव साहब के दीवाने नसीरुद्दीन शाह, दिव्या दत्ता, जैकी श्रॉफ़, बोमन ईरानी, यशपाल शर्मा भी हैं।
प्रीमियर में देव साहब ने मुझे सपरिवार आमंत्रित किया। सीमा, यशो और मैं पहुँचे देखा कई सिने हस्तियाँ देव साहब की हौसला अफजाई करने और उनके प्रति स्नेह और सम्मान ज़ाहिर करने आये थे जिनमें एक बड़ा सा सुंदर बुके लेकर अमिताभ बच्चन भी थे।
देव साहब Indian entertainment industry को अपनी फ़िल्मों के ज़रिये हमेशा Guide करते रहेंगे।
दिनेश श्रीनेत
देव आनंद की फिल्मों और उनकी शख्सियत का मेरे दिलो-दिमाग पर बचपन से असर रहा है। कुछ तो इसलिए कि मेरे बड़े भाई अपनी युवावस्था में उनके जबरदस्त प्रशंसक थे। कुछ इसलिए कि बचपन से लेकर बाद के दिनों तक उनके इंटरव्यू में जीवन के प्रति उनका नजरिया मुझे प्रभावित करता रहा।
बचपन के दिनों की बात है, रविवार पत्रिका अपने प्रयोगों के लिए चर्चित रहती थी, उसने एक पूरा अंक सिर्फ देव आनंद पर केंद्रित कर दिया था। पूरे अंक में सिर्फ उनका एक बहुत लंबा साक्षात्कार था, ढेर सारी तस्वीरों के साथ। कवर पर देव आनंद की तस्वीर बनी थी और लिखा था, ‘मैंने कभी पीछे मुडक़र नहीं देखा।’ यह सत्तर के दशक की बात है, उन दिनों के ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में भी देव आनंद के कई बहुत अच्छे साक्षात्कार छपे थे।
हालांकि बाद के वीडियो इंटरव्यू से पता लगता है कि देव साहब ने जब कभी पीछे मुडक़र देखा तो बखूबी देखा। वे पुराने दिनों का वर्णन ऐसे करते हैं, जैसे उनकी आंखों के आगे कोई फिल्म चल रही हो और वे बस उसे नैरेट कर रहे हों।
बहरहाल, यह एक लाइन, मेरे मन में कहीं फंस गई। मैं मन से खुद को अतीतमोह से ग्रस्त पाता हूँ। तमाम छूटी बातों, यादों के लिए मेरे मन में जबरदस्त नॉस्टेल्जिया है। फिर भी जीवन को कभी पलटकर न देखने की बात करने वाली यह लाइन मुझे बहुत पसंद है, क्यों? मन में ये कौन सा विरोधाभास है?
देव साहब के लगातार एक्टिव रहने, कुछ नया नया सा सोचते रहने के पीछे कई बार लगता है कि वे किसी चीज से भाग तो नहीं रहे? मन बहुत अजीब है। जैसा दिखता है, उससे उलट भी होता है कई बार। अभी जब स्वास्थ्य बेहतर नहीं, मन लगाने के लिए मैंने देव आनंद के कई यूट्यूब पर उपलब्ध साक्षात्कार देखे, जिसमें सिमी ग्रेवाल के साथ उनका बहुत ही सुंदर संवाद भी शामिल है।
मेरे अभी के मन ने उनको सुनकर उनसे बहुत कुछ सीखा। मैंने पाया कि वे एक लिबरल इंसान थे। सामने वाले के क्रिएटिव स्पेस की और पढ़े-लिखे लोगों की इज्जत करते थे। तभी एक नोबेल प्राइज विनर लेखिका के साथ फिल्म बनाने का सपना पूरा हो सका। लेकिन इन सबके साथ वे खुद से भी प्रेम करते थे।
एक किस्म की आत्ममुग्धता तो थी उनमें पर वे उसमें खो नहीं गए, उसे समझते थे। वे तार्किक व्यक्ति थे। खुद से प्रेम करने की पहली शर्त यह है कि आप अपने आसपास की दुनिया से प्रेम करें। उन्होंने यही किया। देव ने हमेशा भविष्य की तरफ देखा। उन्होंने कहा कि वे अपनी पुरानी फिल्में नहीं देखते। ‘मैं स्टूपिड दिखता हूँ’, वे बोले,‘आजकल के लडक़ों को देखिए कितना अच्छा काम कर रहे हैं।’
राज कपूर ने एक दुनिया रची, सभी जानते हैं मगर देव आनंद ने भी एसडी बर्मन, साहिर, गुरुदत्त, विजय आनंद, चेतन आनंद और कल्पना कार्तिक के साथ हिंदी सिनेमा के लिए एक अनूठी दुनिया रची थी। नवकेतन देव का ही सपना था, जो उन्होंने बहुत कम उम्र में साकार कर लिया। अपनी फिल्मों तथा अभिनय के जरिए जिन किरदारों को वे सिनेमा के पर्दे पर लेकर आए उनमें एक आंतरिक सोफिस्टिकेशन था, जो आज दुर्लभ है। वे रुके नहीं। नए लोगों को जोड़ते गए। तो जब वे कहते हैं, ‘मैंने कभी पीछे मुडक़र नहीं देखा’ तो इसका एक खास मतलब होता है। जीवन के साथ बहने का।
फिल्म गाइड का एक डॉयलॉग वे अक्सर अपने साक्षात्कारों में दोहराते हैं, ‘मौत एक ख्याल है जैसे जिंदगी एक ख्याल है।’ उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा कि आप अपनी जिंदगी को एक पटकथा मानिए और उस किरदार में ढल जाए जो आपको सबसे ज्यादा प्रिय है। वहीदा रहमान अपने एक इंटरव्यू में हंसते हुए उन्हें ‘बच्चा’ कहती हैं, बच्चे की तरह जिद्दी। मगर उनकी जिद कितनी निश्छल और मासूम है। किसी बाहरी चीज के लिए नहीं उनकी जिद अपने लिए थी।
देव ने अपनी जिंदगी को एक खयाल में बदल दिया था। अपने मनपसंद खयाल में। इसी फिल्म का एक और संवाद जीवन के कई दशक पार करने के बाद उनका प्रिय संवाद बन जाता है, ‘ना सुख है, ना दुख है, ना दीन है, ना दुनिया, ना इंसान, ना भगवान... सिर्फ मैं हूं, मैं हूं, मैं हूं।’
लेकिन फिल्म ‘गाइड’ का एक संवाद मुझे सबसे ज्यादा प्रिय है, ‘लगता है आज हर इच्छा पूरी होगी..पर मजा देखो, आज कोई इच्छा ही नहीं रही।’ मैं इसे फ्रेम कराके अपनी स्टडी टेबल या सिरहाने रखना चाहता हूँ। (फेसबुक से)
क्रांति कुमार
कॉरपोरेट जगत ने कहा ब्रिटेन की प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर आयरन लेडी हैं... बड़े बड़े अक्षरों में लिखो... पूंजीपतियों ने अख़बार मैगज़ीन हर न्यूज़ चैनल पर प्रोपेगेंडा चलाया मार्गरेट थैचर आयरन लेडी हैं. प्रधानमंत्री बनने के तीन साल बाद 1983 में मार्गरेट थैचर ‘रिडली योजना’ पर अमल करना शुरू कर देती हैं. 20 कोयला खदानों का निजीकरण कर देती हैं. क्या है ‘रिडली योजना’?. निकोलस रिडली कंज़र्वेटिव पार्टी का एमपी था. 1978 में उसने गुप्त प्लान तैयार किया, ब्रिटेन की सारी सरकारी इकाई कंपनियों को निजी हाथों में बेचना. मजदूर यूनियन को कमजोर करना, उनसे हड़ताल करने का अधिकार छीनना... इसी को ‘रिडली योजना’ कहा जाता है. क्या आप जानते हैं 24 सितंबर 2020 को विपक्ष राज्यसभा के बाहर किसान अध्यादेश के खिलाफ आंदोलन करने का नाटक कर रहे थे और राज्यसभा के भीतर नरेंद्र मोदी सरकार ने कुल सात बिल आराम से पारित कर लिया? सभी बिल मजदूर विरोधी बिल थे. एक बिल में मजदूर कामगार से हड़ताल करने का उनका मौलिक अधिकार छीन लिया गया है. 300 से अधिक मजदूरों वाली कंपनी अब सरकार से बिना पूछे कामगारों को निकाल सकती है और अब हड़ताल करने के लिए 14 दिन का नोटिस देना होगा. ताकि कंपनी 14 दिनों के भीतर नए कामगारों को भर्ती कर विद्रोही कामगारों को निकाल सके. हैं न मजेदार बात.... पक्ष और विपक्ष दोनो मिलकर देश को उल्लू बना रहे हैं।
स्नेहा
इस साल जून में ईरान ने सऊदी अरब में जब अपना दूतावास खोला तो इसे मध्य-पूर्व के लिए एक नए युग की शुरुआत बताया गया।
अब सऊदी अरब और इसराइल के बीच अमेरिका की मध्यस्थता में एक समझौता होने की संभावना जताई जा रही है, जिसके बारे में इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू कहते हैं कि ये मध्य-पूर्व के भू राजनीतिक परिदृश्य को हमेशा-हमेशा के लिए बदल देगा।
दूसरी तरफ, ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने कहा है कि सऊदी अरब के साथ संबंध सामान्य करने की इसराइल की कोशिशें सफल नहीं होंगी।
पूरे घटनाक्रम को समझने से पहले ये जानते हैं कि इसराइल और सऊदी अरब के बीच होने जा रहा ये समझौता क्या है?
अमेरिका पिछले साल से ही ये कोशिशें कर रहा है कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन के दौरान जो अब्राहम समझौता हुआ था, उससे आगे का रास्ता तैयार किया जाए और इसके लिए इसराइल और सऊदी अरब के बीच रिश्तों को सामान्य करना बेहद अहम है।
साल 2020 में अमेरिका की मध्यस्थता में संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने इसराइल के साथ ऐतिहासिक समझौता किया था जिसे ‘अब्राहम अकॉर्ड’ कहा जाता है। इस समझौते के तहत यूएई और बहरीन ने इसराइल के साथ अपने रिश्तों को सामान्य किया था और राजनयिक रिश्तों को बहाल कर लिया था।
सऊदी अरब फिलस्तीन के प्रति एकजुटता दिखाते हुए इसराइल को मान्यता नहीं देता है और इसका इसराइल से किसी भी तरह का राजनयिक रिश्ता नहीं है।
ऐसी रिपोर्ट्स आ रही हैं कि इसराइल के साथ संबंधों को सामान्य बनाने के बदले में, सऊदी अरब अमेरिका से बड़ा सैन्य समर्थन, असैन्य परमाणु कार्यक्रम की स्थापना और फिलस्तीन के लिए कई तरह की मांग कर रहा है। इस डील पर अमेरिका, इसराइल, सऊदी अरब और फलस्तीन के अलावा ईरान की भी नजर है।
ईरान के राष्ट्रपति इस बारे में क्या कह रहे हैं?
हाल ही में ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित किया था। इस संबोधन के अलावा उन्होंने अमेरिकी न्यूज नेटवर्क के जाने-माने भारतीय मूल के पत्रकार फरीद जकारिया को इंटरव्यू दिया था।
ईरानी राष्ट्रपति ने मध्य-पूर्व के दूसरे देशों को इसराइल के साथ करीबी संबंध बहाल करने को लेकर आगाह भी किया। उन्होंने कहा था कि इसराइल के साथ रिश्ते सामान्य करने से सुरक्षा नहीं आएगी। ईरान और इसराइल के बीच तल्खी लंबे समय से चली आ रही है।
ईरान इसराइल को मान्यता नहीं देता है जबकि इसराइल भी कई बार कह चुका है कि वो परमाणु शक्ति संपन्न ईरान को बर्दाश्त नहीं करेगा।
क्या आरोप लगा रहा है ईरान?
ईरान कई बार ये आरोप लगा चुका है कि इसराइल ने उसके परमाणु ठिकानों पर हमला किया है और ईरान के न्यूक्लियर वैज्ञानिकों की हत्या कराई है। इसराइल इन आरोपों को न तो नकारता है और न ही इसकी पुष्टि करता है।
रईसी फिलस्तीन का मुद्दा उठाते हुए सीएनएन को दिए इंटरव्यू में कहते हैं, ‘रिश्ते सामान्य करने की कोशिशें पहले भी हुई हैं लेकिन सफलता नहीं मिली। 75 साल बाद ये समाधान है भी नहीं। उन्हें (इसराइल) फिलस्तीनी लोगों को उनके अधिकार देने के सिद्धांत की तरफ वापस जाना चाहिए, जो कि उनका हक़ है। मूल मुद्दों का हल निकालने की जगह वे थोपा हुआ सामान्य माहौल बनाना चाहते हैं।’
इसराइल और फिलस्तीन के बीच विवाद में अब तक सऊदी अरब खुलकर फिलस्तीन का समर्थन करता आया है। ऐसे कयास लगाया जा रहे हैं कि अगर ये समझौता होता है तो राजनयिक संबंध भी बहाल हो सकते हैं।
समझौते का ईरान पर इसका क्या असर होगा?
सऊदी अरब में एक जाने-माने शिया धर्म गुरु को फांसी दिए जाने के बाद ईरान से 2016 में राजनयिक संबंध टूट गए थे।
लेकिन इस साल दोनों देशों के बीच चीन की कोशिशों के बाद राजनयिक संबंध फिर से बहाल हो गया। लेकिन रिश्ते बहाल होने का मतलब यह कतई नहीं है कि दोनों देशों के बीच विवादित मुद्दे कम हो गए हैं।
सऊदी अरब अब भी अमेरिका का अहम सहयोगी है और ईरान की अमेरिका से अब भी नहीं बनती है।
अब अमेरिका की मध्यस्थता में इसराइल और सऊदी अरब के बीच रिश्ते सामान्य करने के लिए समझौता होने की कोशिशें हो रही हैं। लेकिन ईरान नहीं चाहता है कि मध्य-पूर्व में या इस्लामिक देशों की सरकारें इसराइल को स्वीकार करें।
दूसरी तरफ सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने फॉक्स न्यूज को दिए इंटरव्यू में कहा था कि इसराइल से रिश्ते सामान्य करने की दिशा में हर दिन करीब आ रहे हैं।
इंडियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफ़ेयर के फ़ेलो और मध्य-पूर्व मामलों के जानकार फज़्ज़ुर रहमान सिद्दीक़ी कहते हैं, ‘दोनों देशों के बीच कई जटिल मुद्दे हैं और अलग-अलग बयान भी आ रहे हैं। इसराइल ये कहता है कि वो समझौता करने के बेहद करीब है लेकिन सऊदी अरब का कहना है कि उनकी कुछ बुनियादी शर्तें हैं और वो उससे पीछे नहीं हटेंगे।’
डील के बारे में क्या कहते हैं सउदी अरब के क्राउन प्रिंस
रहमान सिद्दीकी कहते हैं, ‘इस डील पर ईरान सऊदी अरब के बारे में नकारात्मक बयान नहीं दे रहा है। ईरान पर इस डील का असर भी नहीं पडऩे वाला है। इसलिए कि ईरान को भी ये पता है कि फिलस्तीन का मुद्दा अब केंद्र में नहीं है। फिलस्तीन नेतृत्व खुद ही बँटा हुआ है। इसराइल काफी आगे निकल चुका है।
सिद्दीकी का तर्क है कि ईरान अब इसका बड़ा विरोध नहीं कर सकता है क्योंकि सऊदी-ईरान के बीच संबंध बहाल करना ईरान के लिए एक बड़ी उपलब्धि थी। अब वो उस जोश के साथ फ़लस्तीन के मुद्दे को आगे नहीं बढ़ाएंगे, जैसा कि वो किया करते थे।
वो कहते हैं कि इस डील के बाद भी सऊदी और ईरान के बीच रिश्ता कायम रहेगा। ईरान पर प्रतिबंध लगे वर्षों हो गए, ईरान की अर्थव्यवस्था सही स्थिति में नहीं है।
ईरान भी अब धीरे-धीरे फ़लस्तीन मुद्दे से हट रहा है। इसमें ईरान ये सोच सकता है कि सऊदी अरब जो कदम उठा रहा है वो उसके (सऊदी अरब) के राष्ट्रीय हित में हो सकता है तो वो (ईरान) इस डील में बाधा डालने की कोशिश नहीं करेंगे।
सिद्दीकी कहते हैं कि ईरान इस कोशिश में भी है कि सऊदी अरब का जो संबंध अमेरिका से है, उसका फायदा भी उसे मिले।
रहमान सिद्दीकी कहते हैं कि सऊदी अरब और ईरान दोनों के लिए अब विचारधारा से ज्यादा अर्थव्यवस्था का मुद्दा कहीं बड़ा है और अब वे इसको लेकर पीछे नहीं जाना चाहते।
दरअसल फॉक्स न्यूज को दिए एक इंटरव्यू में सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस ने कहा था, ‘मेरे लिए फ़लस्तीन का मुद्दा बेहद अहम है। हमें उसे सुलझाने की जरूरत है। इस मामले में बातचीत जारी है। हम देखेंगे कि ये कहां पहुंचता है। हमें उम्मीद है कि ये ऐसी जगह पहुंचेगा जहां से फ़लस्तीनी लोगों का जीवन आसान हो सकेगा।’
ईरान और सऊदी अरब अब आपसी संबंध बिगाडऩा नहीं चाहते
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पश्चिम एशिया मामलों के अध्यापक प्रोफेसर एके पाशा कहते हैं कि इस डील पर अभी तो कयास ही लगाए जा रहे हैं। ईरान भी इसको करीब से देख रहा है।
अब सऊदी अरब और ईरान दोनों ही नहीं चाहते हैं कि उनके आपसी संबंध बिगड़ जाए। फिलस्तीन का मुद्दा अब ‘डेड हॉर्स’ हो गया है यानी अब वो इन दोनों देशों के लिए जीवंत मुद्दा नहीं है। ईरान पर पिछले कई सालों से प्रतिबंध है, तो अब वो इसका विरोध शायद ही करे।
पाशा कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता कि ईरान इस पर कोई क्रांतिकारी प्रतिक्रिया देगा जैसा कि संबंध तोड़ देना, अपने साथियों हिज्बुल्ला को जंग के लिए उकसाना, या इराक में शिया कम्युनिटी को उकसाना। ईरान के अंदर के हालात खराब होते जा रहे हैं। ईरान की अर्थव्यवस्था खराब है, महंगाई बढ़ रही है, लोगों में सरकार के प्रति विरोध बढ़ रहा है तो अब वो ऐसे कदम नहीं उठाना चाहते हैं कि जिससे देश में विरोध और बढ़े।’
‘ये हमेशा-हमेशा के लिए मध्य-पूर्व को बदल देगा’
सीएनएन को दिए एक इंटरव्यू में इसराइल के पीएम बिन्यामिन नेतन्याहू ने कहा, ‘मेरा मानना है कि ये संभव है। ऐसा हो सकता है क्योंकि इसराइल, सऊदी अरब और अमेरिका का एक साझा लक्ष्य है और वो है शांति के लिए बड़ा क़दम उठाना। इससे पहले अब्राहम अकॉर्ड (अब्राहम समझौता) था।
उन्होंने कहा, ‘अब हमारे पास अवसर है कि हम मिडिल-ईस्ट को हमेशा के लिए बदल दें। इससे न केवल ‘दुश्मनी की दीवारें’ गिरेंगी बल्कि इससे अरब, जॉर्डन, इसराइल और संयुक्त अरब अमीरात के जरिए एशिया के बीच एनर्जी पाइपलाइन्स, रेल लाइन्स, फ़ाइबर ऑप्टिक केबल्स गलियारा बन सकेगा। ये बड़े बदलाव हैं। मैं हमेशा इन सारी चीजों को लेकर सावधानी बरतता हूं। मैं इसे बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बता रहा हूं। ये ऐतिहासिक होगा।’
जब उनसे इस समझौते में फ़लस्तीन के मुद्दे को सुलझाने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने ये जोर देकर कहा कि सऊदी अरब के साथ शांति बहाल करने से फिलस्तीन-इसराइल के संघर्ष को भी सुलझाने में ये एक बड़ा कदम होगा।
फिलस्तीन का मुद्दा कहाँ है?
अमेरिकी मध्यस्थता में सऊदी अरब और इसराइल के बीच संबंध सामान्य करने को लेकर होने वाले एक ऐतिहासिक समझौते में फ़लस्तीनियों ने अरबों डॉलर और वेस्ट बैंक में इसराइल के पूर्ण कब्जे वाली जमीन पर नियंत्रण की मांग रखी है। मध्य-पूर्व मामलों के जानकार फज़्ज़ुर रहमान सिद्दीक़ी कहते हैं कि अगर ये डील हुई तो असल विक्टिम फ़लस्तीन होगा। उनका कहना है कि अब वैश्विक मंचों पर और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में फिलस्तीन मामले को लेकर वो उत्साह नहीं रहा।
फिलस्तीन का मुद्दा दब रहा है और इसराइल का ग्राफ बढ़ रहा है। इसराइल का संबंध अब बहरीन के साथ है, यूएई के साथ है, मोरक्को के साथ है, सूडान के साथ है। इसराइल अब इस क्षेत्र में एक सामान्य देश की तरह हो गया है। ईरान के लिए भी अर्थव्यवस्था का प्रश्न कहीं बड़ा है और इसको वो नजरअंदाज करके कोई कदम नहीं उठाएगा। (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
नई संसद की पहली बैठक में सरकार द्वारा महिला आरक्षण बिल प्रस्तुत कर एक सकारात्मक शुरुआत हुई है। पिछले ढाई दशक से कई सरकारों ने महिलाओं के लिए संसद और विधानसभाओं में आरक्षण की कोशिश की है इसमें कांग्रेस, भाजपा और यू पी ए एवम एन डी ए में शामिल कई दलों का भी सहयोग रहा है, इसलिए कह सकते हैं कि इस कार्य में सबका साथ और सबका योगदान है।
1996 में एन डी ए सरकार की पहल हुई थी और 2010 में यू पी ए सरकार ने राज्य सभा में इस बिल को पारित कर इस मुद्दे की मजबूत नीव रखी थी। वर्तमान मोदी सरकार पिछले नौ साल से शांत रहने के बाद चुनावों की पूर्व संध्या पर यह बिल लाई है।प्रधानमंत्री दूसरों के कार्यों का श्रेय भी खुद ले लेते हैं। यही कारण है उन्होंने महिला आरक्षण विधेयक के लिए भी अपने नाम सेहरा बांधते हुए संसद में कहा कि यह काम भी उन्हीं के हाथ होना था। बिल आने से एक दिन पहले केन्द्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल ने कैबिनेट द्वारा बिल लाने के निर्णय की पुष्टि करते हुए एक ट्वीट किया था जिसे कुछ देर बाद उन्हें हटाना पड़ा। शायद उसे हटाने का यही कारण था कि प्रधानमंत्री यह घोषणा स्वयं करना चाहते थे। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सब मंत्री अपने अपने विभाग के प्रमुख होते हैं और प्रधानमंत्री और मंत्रीगण बराबर माने जाते हैं लेकिन कानून मंत्री को भी शायद यह इजाजत नहीं थी कि वे इस बिल का जिक्र कर दें।प्रधानमंत्री जिस तरह ज्यादातर वंदे भारत ट्रेन को खुद ही झंडी दिखाते हैं इसी तरह इस बिल का जि़क्र भी पहली बार उन्हीं के मुख से हुआ है।
सरकार ने इस बिल का नाम नारी शक्ति वंदन अधिनियम रखा है। योजनाओं को नाम देने के मामले में मोदी सरकार का जवाब नहीं। उन्हें योजनाओं की पैकेजिंग का सरताज कहा जा सकता है। उद्देश्य के हिसाब से इस बिल का नाम महिला प्रतिनिधित्व अधिनियम होना चाहिए था लेकिन मोदी सरकार वंदन अभिनंदन जैसे भारी भरकम शब्दों से जनता को भावनाओं में बहाने की कोशिश करती है। जिस तरह से पुरुष प्रधान जन प्रतिनिधि पिछ्ले पचहत्तर साल में देश की अधिसंख्य जनता के हालात नहीं बदल पाए उसी तरह जब तक हमारी व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन नहीं होता तब तक एक तिहाई आरक्षण से महिलाओं का भी खास भला नहीं हो सकता क्योंकि टिकट उन्ही परिवारों की महिलाओं को मिलेंगे जो वर्तमान व्यवस्था चला रहे हैं।
महिलाओं के मुददे पर प्रधानमन्त्री और वर्तमान सरकार की छवि उज्ज्वल नहीं है। उनकी गुजरात सरकार पर महिला जासूसी के आरोप और बिल्किस बानो के अपराधियों के सरंक्षण और सहानुभूति के आरोप भी लगे हैं । महिला पहलवानों के मामले में उनकी सरकार पर काफी कीचड़ उछली है। मणिपुर में महिलाओं पर अत्याचार को लेकर भी उनकी निष्क्रियता पर निशाने साधे गए थे। इस पृष्ठभूमि में इस विधेयक को जुमला भी कहा जा रहा है क्योंकि इस बिल को अभी भी लम्बा रास्ता तय करना है।
यह स्पष्ट है कि आगामी लोकसभा चुनाव में इसे लागू करना संभव नहीं है क्योंकि बिल पास होने के बाद भी यह तय करने में लंबा समय लगेगा कि किन सीटों को आरक्षित किया जाना है।लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इसे भी सरकार की कमी कहा जाएगा कि उसने इस बिल को पेश करने के पहले बहुत गुप्त रखा था जबकि इस पर व्यापक चर्चा की आवश्यकता थी ताकि इसके क्रियान्वयन की सभी बाधाएं यथाशीघ्र दूर करने के लिए सबकी राय ली जा सकती थी।
सरकार द्वारा अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम समय में लाने से इसे वोट बैंक की राजनीति माना जाएगा क्योंकि महिला सशक्तिकरण के अन्य मामलों में सरकार का रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा। यही कारण है कि अब सरकार गैस सिलेंडर के दाम कम करके और महिला आरक्षण विधेयक बिल प्रस्तुत कर महिलाओं को खुश करने की कोशिश कर रही है।
सिद्धार्थ ताबिश
क्या आप जानते हैं कि बुद्ध ने कभी मांसाहार का विरोध नहीं किया? न उन्होंने मना किया और न ही ये कहा कि खाओ.. बुद्ध का ये मानना था कि उनके भिक्षा पात्र में जिस किसी ने भी जो कुछ भी डाल दिया है, वो उन्हें खाना है.. फिर वो चाहे मांस हो, या दाल हो.. अपने जीवन के अंतिम समय तक बुद्ध ने मांस खाया.. जो आजकल वाले शाकाहारी हैं वो शायद इस बात से परेशान हो जाएँ.. मगर बुद्ध का ये मार्ग पूरी तरह से ‘प्राकृतिक’ था.. बुद्ध ‘संवेदनशील’ नहीं थे आपकी तरह.. बुद्धत्व प्राप्त होने से पहले उनके भीतर संवेदनाएं थीं, पीड़ा थी और दु:ख था.. मगर बुद्धत्व के बाद उनके भीतर कोई संवेदना नहीं बची थी.. क्यूंकि संवेदनाएं और कुछ नहीं बल्कि ‘भावनाएं’ होती हैं और बुद्ध के भीतर भावनाएं नहीं ‘उबाल’ मारती थीं हमारे और आपकी तरह। कोई भी बुद्ध पुरुष ‘भावनाओं’ से परे होता है। भावनाओं से परे होना ही बुद्ध होना होता है।
आप इसे थोड़ा समझिये कि कैसे आपका जीवन इन भावनाओं के कारण नरक बना हुआ है। आपकी और हमारी भावनाएं और संवेदनाएं प्राकृतिक नहीं होती है, ये इस समाज और भाषा द्वारा गढ़ी गयी होती है.. कोई शायर आपको माँ की गज़़ल सुना कर माँ के प्रति अथाह प्रेम से भर देता है, कोई फि़ल्म आपको परिवार और रिश्तों के प्रति अति भावुक कर देती है.. कोई किताब आपको अपने प्रेमी के प्रति अत्यधिक भावुक बना देती है और वो आपको ये सिखा देती है कि आपको कहाँ कब और कैसे अपने ‘पार्टनर’ का ध्यान रखना चाहिए, क्यूंकि उस किताब के हिसाब से वही प्यार होता है.. कोई गुरु आपको आपके माता पिता की सेवा के प्रति अति भावुक बना के आपको उन्हें अपने कन्धों पर लटका कर तीर्थयात्रा पर ले जाने के लिए मजबूर कर देता है। कोई व्यक्ति किसी नौजावान को पहले जानवरों के अत्याचार की कहानी सुना कर शाकाहारी बनता है, फिर पशुवों के क़ैद की कहानी सुना कर वीगन, फिर वनस्पतियों में जीवन का वैज्ञानिक साक्ष्य देकर केवल पेड़ से गिरे फल खाने पर मजबूर कर देता है। ये सारी संवेदनशीलता आपकी समाज गढ़ता है। आपकी भावनाओं को भडक़ाकर आपके भीतर संवेदनशीलता तैयार की जाती है
बुद्ध जैसों के सामने आप माँ की, बेटे की, पत्नी की कितनी शायरी सुना दें, कितनी भी फि़ल्में आप उन्हें दिखा दें, कितना भी पशुवों पर अत्याचार की डाक्यूमेंट्री दिखा दें, वो बस मुस्कुरा देंगे और कुछ नहीं.. वो आपसे इन सब बेवकूफियों पर कोई वार्तालाप भी नहीं करेंगे, वो बस ये कहेंगे कि आओ मेरे पास बैठो और ध्यान करो। तुम भी इन सब भावनाओं से निकल जाओगे।
भावुकता और संवेदनशीलता अगर आपको एक पशु बचाने के लिए प्रेरित करती है तो यही भावुकता उस पशु के लिए इंसानों को मारने के लिए भी प्रेरित करती है। भावुकता यदि सारी दुनिया में शांति और सद्भावना का झंडा बुलंद करने की बात करती है तो फिर यही भावुकता उनको दण्डित भी करने को बोलती है जो आपकी शांति और सद्भावना में दखल दे रहे होते हैं। संवेदनशील परिवार आपको बचपन से शाकाहार की ट्रेनिंग देता है फिर आप बड़े होकर जब दूसरों को मांस खाता देखते हैं तब आप उन मांसाहारियों से नफरत करने लगते हैं और अगर भावनाएं और ज़्यादा उबाल अगर मारती हैं तो आप उन्हें सख्त से सख्त सज़ा देने पर उतारू हो सकते हैं.. आप पशु से प्रेम करते हैं और इंसानों से नफरत करने लगते हैं क्यूंकि ये होना ही है, यही इसका नियम है।
हम मनुष्यों की सारी समस्याओं की जड़ भावना और उस पर आधारित संवेदनशीलता है.. इसे अगर आप समझ गए तो आपका जीवन को देखने का नजरिया बदल जाएगा।
तमिलनाडु में ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कडग़म यानी एआईएडीएमके ने बीजेपी से अपना गठबंधन तोड़ दिया है।
दिल्ली से छपने वाले ज़्यादातर अख़बारों ने इसे पहले पन्ने पर जगह दी है। आज प्रेस रिव्यू में इसी ख़बर को विस्तार से पढि़ए।
द इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर के मुताबिक़, एआईएडीएमके ने सोमवार को गठबंधन तोडऩे का एलान करते हुए कहा कि 2024 लोकसभा चुनावों में वो अपनी जैसी सोच वाली पार्टियों के साथ गठबंधन करेगी।
बीते शुक्रवार को एआईडीएमके का एक प्रतिनिधिमंडल बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व से मिला था। अख़बार लिखता है कि ये बातचीत अच्छी नहीं रही थी।
एआईएडीएमके नेतृत्व राज्य में बीजेपी नेताओं की ओर से की जा रही टिप्पणियों से नाराज़ था। इसमें बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष के अन्नामलाई की टिप्पणी भी शामिल है।
इन नेताओं को रोकने को लेकर बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से कोशिश नहीं दिखी। इससे एआईएडीएमके में नाराजगी थी।
ये गठबंधन तोडऩे का एलान ऐसे वक़्त में हुआ था, जब राज्य में पार्टी की पकड़ ढीली होती जा रही है। बीते दो चुनावों में पार्टी ने अल्पसंख्यक वोट बैंक को खोया है।
पार्टी बैठक में मौजूद नेता ने क्या बताया?
एआईएडीएमके के उप महासचिव केपी मुनुसामी ने चेन्नई में कहा, ‘बीते साल से बीजेपी और उसके नेताओं की ओर से लगातार जैसे हमले हो रहे हैं, गठबंधन तोडऩा इसी का जवाब है।’
पार्टी की ओर से तमिल भाषा का एक हैशटैग प्तहृड्डठ्ठस्रह्म्द्ब_द्वद्गद्गठ्ठस्रह्वद्व1ड्डह्म्ड्डड्डह्लद्धद्गद्गह्म्द्दड्डद्य इस्तेमाल किया गया। इस हैशटैग का मतलब होता है- शुक्रिया, दोबारा मत आना।
पार्टी के बयान में कहा गया-एआईएडीएमके महासचिव इदापड्डी पलानीस्वामी के नेतृत्व में पार्टी के दो करोड़ समर्थकों की भावनाओं और सोच को व्यक्त करते हुए नेताओं ने ये तय किया कि एनडीए से हम आज से ही अलग हो जाएंगे।
द इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने इस बैठक में मौजूद रहे एआईएडीएमके के वरिष्ठ नेता से का बात की।
नेता कहते हैं, ‘बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व से मिले असहयोग, अन्नामलाई के लगातार किए जा रहे हमलों के चलते पार्टी मुश्किल स्थिति में आ गई। पार्टी नेतृत्व और कार्यकर्ताओं को अपमान महसूस हुआ, जिसके चलते गठबंधन से अलग होने का फ़ैसला किया गया।’
एनडीए : बिछड़े ‘सभी’ बारी-बारी
साल 2019 चुनाव के बाद से एनडीए का साथ कई पार्टी छोड़ चुकी हैं। एआईएडीएमके एनडीए का साथ छोडऩे वाली चौथी पार्टी है।
23 नवंबर 2019
शिवसेना:बीजेपी की पुरानी मित्र पार्टी। महाराष्ट्र में सरकार के गठन को लेकर शिवसेना ने एनडीए का साथ छोड़ा। बारी-बारी से मुख्यमंत्री पद पर रहने को लेकर दोनों दलों में दरार आई। इसके बाद उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने एनसीपी और कांग्रेस का हाथ पकड़ा और महा विकास अघाड़ी का गठन हुआ। एक जुलाई 2022 को एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे का साथ छोड़ा और अपने विधायकों के साथ बीजेपी से जा मिले और मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। तब देवेंद्र फडणवीस ने डिप्टी सीएम पद की शपथ ली।
26 सितंबर 2020
शिरोमणि अकाली दल: एनडीए की संस्थापक पार्टियों में से एक अकाली दल ने 2020 में एनडीए का साथ छोड़ा। अकाली दल ने संसद में तीन कृषि कानूनों को पास करवाए जाने का विरोध किया। दिल्ली के आस-पास बॉर्डर इलाकों में पंजाब, हरियाणा समेत अलग-अलग हिस्सों से आए किसानों ने लंबा विरोध प्रदर्शन किया था। लंबे आंदोलन के बाद पीएम मोदी को कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा था।
9 अगस्त 2022
जनता दल (यूनाइटेड): जेडीयू नेता और बिहार सीएम नीतीश कुमार एक बार फिर महागठबंधन में लौटे। वो बोले थे कि वो एनडीए में सहज नहीं हैं। एनडीए में नीतीश की पार्टी की भूमिका कम होती जा रही थी। 2020 विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने 74 सीटें जीती थीं। वहीं जेडीयू ने 43 सीटें जीती थीं।
तमिलनाडु की राजनीति पर क्या असर?
द इंडियन एक्सप्रेस अखबार में लिखा है कि एआईएडीएमके का फैसला बताता है कि पार्टी के अंदर ही कितनी निराशा की स्थिति है।
मुनुस्वामी ने कहा कि बीजेपी न सिर्फ पार्टी के आदर्शों बल्कि जयललिता और अन्नादुराई जैसे नेताओं पर भी हमला कर रही थी।
मदुरै में दो हफ्ते पहले अन्नामलाई ने राज्य के पहले सीएम अन्नादुराई को लेकर टिप्पणी की थी, तब दोनों दलों के बीच विवाद खुलकर सामने आया था।
इसके अलावा बीते हफ़्ते पार्टी के प्रवक्ता डी जयकुमार ने कहा था कि दोनों दलों के बीच गठबंधन का अस्तित्व खत्म हो गया है।
ये बात तब और ज़्यादा बिगड़ गई जब अन्नामलाई ने जयकुमार को जवाब देते हुए कहा- मैं अन्नादुरई की विरासत का सम्मान करता हूं मगर तमिलनाडु में इदापड्डी पलानीस्वामी को एनडीए का नेता स्वीकार नहीं करूंगा।
द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, एआईडीएमके का फैसला तमिलनाडु की राजनीति में असर डालने वाला रहेगा। पार्टी अब अपने वोटबैंक से फिर से जुडऩे की कोशिश करेगी। इसमें अल्पसंख्यक भी शामिल रहेंगे, जिनसे पार्टी ने 2019 लोकसभा और 2021 विधानसभा चुनावों में दूरी बनाई थी।
हालांकि एआईएडीएमके के फैसले को कुछ जोखिम भी हैं।
पार्टी के दो नेताओं ने अख़बार से रविवार को कहा कि कम से कम दो दर्जन पार्टी के पूर्व मंत्री और वरिष्ठ नेताओं पर भ्रष्टाचार के मामले में अलग-अलग एजेंसियों की ओर से जांच चल रही है। इसमें केंद्रीय एजेंसियां भी शामिल हैं।
एआईएडीएमके और बीजेपी का साथ छूटना एमके स्टालिन की डीएमके के लिए अच्छी ख़बर है। डीएमके राज्य की सत्ता में है और इंडिया गठबंधन का हिस्सा भी है। ऐसे में एंटी- डीएमके वोट एआईएडीएमके और बीजेपी में बँट जाएगा।
अन्नामलाई से संबंध
द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, अन्नामलाई से एआईएडीएमके के संबंध एक साल से ज़्यादा वक्त से खराब चल रहे हैं।
अन्नादुरई पर की टिप्पणी से विवाद और गहरा हो गया।
फरवरी 2022 के स्थानीय निकाय चुनावों में बीजेपी और एआईडीएमके अलग-अलग चुनाव में लड़ी थीं।
सोमवार को जब एआईएडीएमके ने बीजेपी का साथ छोडऩे का फैसला किया तो पार्टी कार्यकर्ताओं ने पटाखे फोडक़र इस कदम का स्वागत किया।
एक नेता ने द हिंदू अखबार से कहा- हम इस बारे में पार्टी नेतृत्व के संकेत का इंतजार कर रहे थे।
तमिलनाडु में बीजेपी अध्यक्ष अन्नामलाई ने कहा- पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व सही वक़्त आने पर इस बारे में टिप्पणी करेगा।
पार्टी के एक नेता ने कहा, ‘अगर हम चुनावों में बीजेपी के साथ जाते तो बीजेपी के खिलाफ जो वोट है, वो डीएमके को चला जाता। अब हम जब अलग होकर लड़ेंगे तो केंद्र में बीजेपी और राज्य में डीएमके के खिलाफ जो सत्ता विरोधी वोट हैं, वो हमारे खाते में आ सकते हैं।’
तमिलनाडु सीएम के बेटे ने सनातन धर्म और डेंगू-मलेरिया को लेकर क्या कहा जिस पर मचा है हंगामा
बीजेपी में क्या चल रहा है?
द टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, बीजेपी से अलग होने का जब एआईएडीएमके ने फैसला किया तो पार्टी के वरिष्ठ नेता सक्रिय हुए हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि बीजेपी ने तमिलनाडु समेत अपने नेताओं से इस मामले में टिप्पणी ना करने को कहा है।
पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने अखबार से कहा- एआईएडीएमके बीजेपी की अहम सहयोगी पार्टी रही है। पार्टी के वरिष्ठ नेता तमिलनाडु के राजनीतिक फेरबदल पर नजर बनाए हुए हैं।
दोनों दलों के बीच विवाद की जड़ में अन्नामलाई का अन्नादुरई को लेकर दिया बयान बताया जा रहा है।
अन्नामलाई ने कहा था- साल 1956 में अन्नादुरई ने हिंदू धर्म का अपमान किया था और फिर बाद में जब विरोध हुआ तो उन्हें माफ़ी मांगनी पड़ी और मदुरै से भागना पड़ा था।
तमिलनाडु में बीजेपी अध्यक्ष अन्नामलाई अपने बयानों की वजह से आए दिन चर्चा में रहते हैं।
2024 चुनाव: तमिलनाडु में क्या होगा?
द हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक़, एआईएडीएमके के ताज़ा फ़ैसले से राज्य में अब 2024 की लड़ाई तीन तरफा होगी।
इंडिया गठबंधन का हिस्सा डीएमके, एआईएडीएमके और बीजेपी।
एआईएडीएमके ने एनडीए से अलग होने का जब फैसला किया और जो प्रस्ताव पेश किया, उसमें किसी का नाम नहीं लिखा था। पर ये अन्नामलाई को लेकर ही है।
अखबार लिखता है कि साल 2021 में बीजेपी अध्यक्ष बनने के बाद से ही अन्नामलाई एक के बाद एक विवाद में फँसते रहे हैं।
बीजेपी के एक नेता ने कहा- इस फैसले से डीएमके को फायदा होगा। अब देखना ये है कि केंद्रीय नेतृत्व क्या फैसला करेगा।
डीएमके के नेतृत्व में हुए गठबंधन ने 2019 चुनावों में राज्य की 39 में से 38 सीटें जीती थीं और विधानसभा चुनाव भी जीता था। लेकिन जानकारों का कहना था कि 2024 चुनावों में एआईडीएमके को फायदा हो सकता है।
जानकारों का कहना है कि चुनाव के बाद अगर एआईएडीएमके किसी के साथ गठबंधन करना चाहेगी तो वो बीजेपी की ओर बढ़ेगी।
इदापड्डी पलानीस्वामी के नेतृत्व में एआईडीएमके
पलानीस्वामी ने एआईएडीएमके सुप्रीमो और कद्दावर नेता जे जयललिता के निधन के बाद मुख्यमंत्री का पद संभाला था। सत्ता में आने के साथ ही पलानिस्वामी का जयललिता की करीबी रहीं शशिकला और उनके भतीजे टीटीवी दिनाकरण से संघर्ष शुरू हो गया था।
पलानीस्वामी करीब दो साल तो इसी सियासी लड़ाई में उलझे रहे थे। उसके बाद, 2019 में कहीं जाकर पलानिस्वामी, मुख्यमंत्री के तौर पर सही तरीके से काम शुरू कर पाए थे।
2021 चुनावों में पार्टी की हार के पीछे भी जानकारों ने बीजेपी को वजह बताया था।
2021 में राजनीतिक विश्लेषक एस मुरारी ने बीबीसी हिंदी से कहा था, ‘ये साफ है कि बीजेपी ने एआईएडीएमके को नुकसान पहुंचाया। एआईएडीएमके सरकार के खिलाफ जनता में कोई खास नाराजगी नहीं दिख रही थी। लेकिन लोगों के बीच बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ नाराजगी साफ नजऱ आ रही थी।’
राजनीतिक विश्लेषक डी सुरेश कुमार ने बीबीसी हिंदी से कहा था, ‘अगर एआईएडीएमके ने बीजेपी के आगे घुटने नहीं टेके होते, तो विधानसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन निश्चित रूप से और बेहतर होता। एआईएडीएमके ने बीजेपी को 20 सीटें दी थीं, लेकिन बीजेपी की जीत का स्ट्राइक रेट 20 प्रतिशत ही दिख रहा है।’ (bbc.com/hindi)
-अरुण दीक्षित
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्यप्रदेश में इतनी महीन बालिंग की कि जिसका मुकाबला एक ओवर में चार विकेट लेने वाला सिराज भी नही कर सकता।उन्होंने दिन में जहां मुख्यमंत्री शिवराज को बारहवां खिलाड़ी बनाने का संकेत दिया तो वहीं शाम को जैसे विकेट कीपर को कीपिंग छोड़ बैटिंग करने क्रीज पर भेज दिया! और तो और उन्होंने टीम मैनेजर को भी "खिलाड़ी" बना दिया।मोदी की इस कारीगरी से कांग्रेस तो सकते में आ ही गई है!लेकिन उनके अपने नेता भी कुछ समझ नही पा रहे हैं।वे जब तक पिच की लाइन देख रहे थे तब तक उनकी गिल्लियां ही बिखर गईं।
पहले दिन की बात!दीनदयाल उपाध्याय की जयंती के दिन नरेंद्र मोदी कार्यकर्ता महाकुंभ को संबोधित करने भोपाल आए थे। करीब 100 करोड़ रुपए से भी ज्यादा खर्च करके बुलाए गए इस सम्मेलन में दस लाख बीजेपी कार्यकर्ताओं के पहुंचने का दावा किया गया था!लेकिन पूरी ताकत झोंके जाने के बाद भी दावे का एक चौथाई कार्यकर्ता मुश्किल से पहुंचे।
नरेंद्र मोदी ने इस सम्मेलन में अचानक कई उलटफेर किए।उन्होंने पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं से स्वागत कराने के बजाय सिर्फ महिलाओं से अपना स्वागत कराया।महिलाओं द्वारा की गई फूल वर्षा में वे पैदल चले।मंच पर भी सिर्फ महिलाओं ने ही उनका स्वागत किया।
सबसे आश्चर्यजनक बात प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान हुई!वे हमेशा की तरह आक्रामक शैली में बोले।कांग्रेस को पानी पी पी कर कोसा।महिला आरक्षण बिल का पूरा श्रेय लिया!इंडिया गठबंधन को घमंडिया कहना भी वे नही भूले।
मोदी ने मध्यप्रदेश की जनता को अपना परिवार बताया।विस्तार से अपनी(केंद्र) सरकार की योजनाएं गिनायीं।इनमें शौचालय से लेकर महिला आरक्षण तक शामिल था।आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनाने का श्रेय लेना भी वे नही भूले!
लेकिन हाथी से भी ज्यादा तीव्र स्मरण शक्ति रखने वाले नरेंद्र मोदी अपने पूरे भाषण में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नाम लेना भूल गए।उन्होंने न तो मंच पर मौजूद शिवराज की तरफ देखा न उनकी सरकार की किसी योजना का जिक्र किया।प्रधानमंत्री ने महिला आरक्षण विधेयक का जिक्र कई बार किया!लेकिन शिवराज की लाडली बहना योजना की कोई बात नही की।जबकि शिवराज इसी योजना के जरिए गेमचेंजर बनने का सपना देख रहे हैं।इसके लिए प्रदेश की एक करोड़ 35 लाख महिलाओं को हर महीने 1250 रुपए भी दे रहे हैं।
मोदी तो भाषण देकर उड़ गए।लेकिन बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता इसी उधेड़बुन में लगे रहे कि अब शिवराज का क्या होगा।उधर शिवराज और उनके करीबियों पर क्या गुजर रही होगी ,इसका सिर्फ अंदाज भर लगाया जा सकता है। अब शिवराज कोई अशोक गहलोत थोड़े ही हैं जो पलट के दिल्ली को आंख दिखाएं!उनकी बेबसी और चेहरे पर चढ़ी उदासी को सबने महसूस किया।
नाम न लिए जाने पर चर्चा चल ही रही थी कि दिल्ली ने एक और गुगली फेंक दी!एक ऐसी गेंद जिसने कई विकेट एक साथ चटका दिए।साथ ही शिवराज को ऐसे घेर दिया जैसे स्पिनर की बालिंग पर फील्डर बैट्समैन को घेर लेते हैं।
हुआ यह कि बीजेपी हाईकमान ने देर शाम अपनी दूसरी प्रत्याशी सूची जारी कर दी।यह सूची कांग्रेस के लिए तो बड़ा झटका थी ही,लेकिन उसने बीजेपी के दिग्गज नेताओं को भी हिला दिया।
39 प्रत्याशियों की दूसरी सूची में मोदी ने अपनी कैबिनेट के तीन प्रमुख सदस्यों के साथ कुल सात सांसदों को विधानसभा प्रत्याशी बना दिया।जो नरेंद्र सिंह तोमर जो केंद्रीय कृषि मंत्री के रूप में प्रदेश के चुनाव प्रभारी बन कर दिल्ली से आए थे वे अब मुरैना जिले की दिमनी विधानसभा सीट से चुनाव लडेंगे।राज्यमंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल और फग्गन सिंह कुलस्ते को भी विधानसभा चुनाव में उतारा गया है।इन तीन केंद्रीय मंत्रियों के साथ चार सांसदों - गणेश सिंह,राकेश सिंह,उदय प्रताप सिंह और रीति पाठक को भी विधानसभा का टिकट दे दिया गया है।इनके अलावा आज की सूची में एक महत्वपूर्ण नाम बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजय वर्गीय का भी है।उन्हें भी इंदौर शहर से विधानसभा टिकट दिया गया है।
बीजेपी द्वारा आठ प्रमुख केंद्रीय नेताओं को अचानक विधानसभा चुनाव में उतारे जाने से कांग्रेस तो सकते में है ही, वहीं बीजेपी के नेताओं को तो जैसे सांप सूंघ गया है।देर रात आई इस सूची ने उनकी नींद ही उड़ा दी है।
उधर शिवराज सिंह को एक ही दिन में दूसरा बड़ा झटका लगा है।हालांकि अमित शाह ने पिछले महीने ही यह साफ कर दिया था कि शिवराज अगले मुख्यमंत्री नही होंगे।लेकिन फिर भी वे पूरी ताकत से चुनाव की तैयारी में लगे थे।रैली में प्रधानमंत्री द्वारा उनका नाम न लिए जाने से उन्हें बड़ा झटका लगा था।साथ ही यह बात और ज्यादा साफ हो गई कि अगर बीजेपी जीती तो अगले मुख्यमंत्री वे नहीं होंगे।लेकिन दूसरी सूची में प्रदेश के चार बड़े नेताओं के नाम देख कर उन्हें और भी जोर का झटका लगा।
दरअसल नरेंद्र सिंह तोमर,कैलाश विजयवर्गीय,प्रह्लाद सिंह पटेल और फग्गन सिंह कुलस्ते शिवराज के समकालीन हैं।मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए इन चारों के नाम भी यदा कदा चलते रहे हैं। इन चारों को एक साथ विधानसभा चुनाव में उतारकर मोदी ने एक बड़ी चुनौती शिवराज के सामने खड़ी कर दी है।अब तो यह सवाल भी उठ रहा है कि शिवराज सिंह चौहान विधानसभा चुनाव लडेंगे या फिर बिना लड़े राज्य में पांचवीं बार बीजेपी सरकार बनाने के लिए प्रचार करेंगे!क्योंकि मोदी हैं तो कुछ भी मुमकिन है!यह बात आज भी मोदी कह कर गए थे।
वैसे मध्यप्रदेश के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि कोई मुख्यमंत्री अपने ही नेतृत्व के हाथों सार्वजनिक रूप से हाशिए पर धकेला जा रहा है!उससे भी ज्यादा गौर करने की बात यह है कि दस साल पहले मोदी के बराबर खड़े रहने वाले ,17 साल से भी ज्यादा समय मुख्यमंत्री रहकर बीजेपी में एक रिकॉर्ड कायम करने वाले, शिवराज आज कुछ बोल भी नहीं पा रहे हैं!उन्होंने लाड़ली बहना योजना के जरिए अपना नाम हर गांव और शहर की दीवारों पर लिखवाया है।उसे उनकी ही पार्टी मिटा रही है।वे बस देख रहे हैं!
इसीलिए तो कहते हैं कि अपना एमपी गज्जब है!जो चुनाव लड़ाने आए थे वे अब खुद लड़ेंगे!जो सालों से मोर्चा संभाले थे वे अपनी कुर्सी को तिल तिल खिसकता देख रहे हैं!है न गज्जब की बात!ऐसा कहीं और हुआ हो तो बताओ?
-गौरव गिरिजा शुक्ला
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में 26 सितंबर को पूर्व मुख्यमंत्रियों की मूर्तियों का अनावरण समारोह आयोजित किया जा रहा है। सभी मुख्यमंत्रियों की मूर्तियों के बीच एक मूर्ति छत्तीसगढ़ के गोंड आदिवासी नेता राजा नरेशचंद्र की भी होगी।
क्या आप जानते हैं कि मध्यप्रदेश के राजनीतिक इतिहास में एकमात्र आदिवासी मुख्यमंत्री बने हैं, जो कि छत्तीसगढ़ से ताल्लुक रखते थे?
छत्तीसगढ़ के गोंड आदिवासी नेता राजा नरेशचंद्र सिंह आजादी के बाद क़रीब दो दशक तक मध्यप्रदेश में मंत्री पद संभालने वाले, सारंगढ़ रियासत के राजा थे। भारत की आज़ादी के साथ ही उन्होंने अपनी रियासत का विलय भारतीय संघ में कर दिया।
अपना पूरा जीवन रियासत और सियासत में बिताने वाले राजा नरेशचंद्र ने मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ली और आख़िर में राजनीतिक उठापटक से त्रस्त होकर राजनीति से ले लिया संन्यास।
-मध्यप्रदेश के पहले मंत्रिमंडल के सदस्य, जिन्होंने आदिवासी कल्याण, बिजली विभाग समेत अनेक महत्वपूर्ण पदों की ज़िम्मेदारी सँभाली।
- राजा नरेशचन्द्र सिंह जी सारंगढ़ रियासत के राजा थे ।
- उनका जन्म 21 नवम्बर, 1908 को हुआ था उन्होंने राजकुमार कॉलेज, रायपुर से शिक्षा हासिल की थी।
- उन्होंने शिक्षा पूरी होने के पश्चात रायपुर में मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य कर प्रशासनिक दक्षता हासिल की। इसके बाद अपने पिता स्वर्गीय राजाबहादुर जवाहर सिंह, सी.आई.ई. के राज्यकाल में शिक्षा मंत्री के पद पर भी कार्य किया।
- 1936-37 में महानदी की भयंकर बाढ़ के समय सहायता-कार्य में सक्रिय भागीदारी निभाई तथा बाढ़ पीड़ितों को अन्न, वस्त्र व आवास संबंधी सहायता की और हैजा महामारी फैलने पर जनता की मदद की।
- उन्होंने 1942 में फुलझर राजा (सराईपाली-बसना) की बेटी ललिता देवी से विवाह किया।
- 1948 में उन्होंने अपने राज्य को नये आज़ाद भारत में विलीन कर दिया।
- सितम्बर 1949 में छत्तीसगढ़ की विलय हुई रियासतों के प्रतिनिधि के रूप में सारंगढ़ के राजा नरेशचन्द्र सिंह को विधानसभा में मनोनीत किया गया और फिर मंत्रिमंडल में शामिल किया गया।
- 1951 में जब देश में प्रथम आमचुनाव हुआ तब कांग्रेस पार्टी की ओर से राजा नरेशचन्द्र सिंह ने सारंगढ़ सीट से ऐतिहासिक जीत हासिल की। इस चुनाव के बाद विद्युत के साथ साथ लोकनिर्माण तथा आदिवासी कल्याण विभाग का दायित्व भी उन्हें दिया गया।
- 13 मार्च 1969 को नरेशचंद्र सिंह जी मुख्यमंत्री बने लेकिन उसके 13वें दिन ही यानि 25 मार्च 1969 को राजनीतिक तिकड़म और दांव-पेचों से त्रस्त हो कर उन्होंने मुख्यमंत्री के पद के साथ साथ विधानसभा से इस्तीफ़ा दे कर राजनीति से संन्यास की घोषणा कर दी ।
-1969 में उनके इस्तीफे के चलते पुसौर विधानसभा खाली हुई। यहां उपचुनाव में उनकी पत्नी रानी ललिता देवी निर्विरोध चुनी गईं।
- राजा नरेशचन्द्र सिंह के हाथों से मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के हित में सरकारी विभाग और कार्यक्रमों की नींव पड़ी।
- लोकनिर्माण मंत्री के रूप रायपुर के पास आरंग में दो वर्ष की अवधि में महानदी पर बने पुल का पूरा श्रेय राजा नरेशचन्द्र सिंह को दिया जा सकता है।
- राजा नरेशचन्द्र सिंह के विद्युत मंत्री रहने के दौरान मध्यप्रदेश विद्युत मंडल का गठन किया गया और उनके नेतृत्व में प्रदेशभर में विद्युत सुविधाओं का विस्तार हुआ।
वर्तमान में सारंगढ़ राजपरिवार के सदस्य सारंगढ़ स्थित गिरिविलास पैलेस में निवास करते हैं। स्व. राजा नरेशचंद्र सिंह की नातिन कुलिशा मिश्रा इस वक्त राजनैतिक रूप से सक्रिय हैं।
हॉली हॉन्डरिच
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो इस हफ़्ते जब न्यूयॉर्क में मीडिया के सवालों का सामना कर रहे थे, उनकी चिर-परिचित और भरोसेमंद मुस्कान मंद पड़ रही थी.
संवाददाता सम्मेलन में उनसे जो सवाल पूछे गए सभी भारत से जुड़े थे. इसमें कोई आश्चर्य नहीं था क्योंकि एक सप्ताह पहले उन्होंने भारत सरकार पर गंभीर आरोप लगाए थे.
सोमवार को जस्टिन ट्रूडो ने संसद में कहा, "कनाडा की एजेंसियों ने पुख्ता तौर पर पता किया है कि कनाडा की ज़मीन पर कनाडाई नागरिक की हत्या के पीछे भारत सरकार के एजेंटों का हाथ हो सकता है. हमारी ज़मीन पर हुई हत्या के पीछे विदेशी सरकार का होना अस्वीकार्य है और ये हमारी संप्रभुता का उल्लंघन है."
लेकिन भारत ने कनाडा के आरोपों को पूरी तरह ख़ारिज करते हुए इस हत्या के साथ कोई नाता होने से इनकार किया है.
इस साल 18 जून को कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत में सिख नेता और खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर(45 साल) की एक गुरुद्वारे के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.
जस्टिन ट्रूडो से किए गए सवाल
धीरे-धीरे और बेहद संतुलित तरीके से बोलते हुए ट्रूडो ने कहा, "वो न तो किसी को भड़काना चाहते हैं और न ही कोई समस्या खड़ी करना चाहते हैं. हम उस विश्व व्यवस्था के लिए आवाज़ उठा रहे हैं जो नियमों पर आधारित है."
कुछ पत्रकारों ने इस दौरान ट्रूडो से सवाल किया कि उनकी इस पूरी कोशिश में उनके सहयोगी कहां हैं? एक पत्रकार ने कहा, "अब तक देखा जाए तो आप अकेले ही दिख रहे हैं."
जहां तक भारत से उलझने की बात है, अब तक जस्टिन ट्रूडो अकेले ही दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्था और आबादी के लिहाज़ से कनाडा से 35 गुना बड़े मुल्क के साथ दो-दो हाथ करते दिखाई दे रहे हैं.
जब से ट्रूडो ने भारत पर आरोप लगाए हैं तब से लेकर अब तक 'फ़ाइव आइज़' ख़ुफ़िया गठबंधन में शामिल उनके कुछ सहयोगी ही सार्वजनिक तौर पर सामने आए हैं.
उन्होंने मामले को गंभीर और चिंताजनक तो बताया है लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि वो खुल कर कनाडा के समर्थन में आए हैं.
फ़ाइव आइज़ के सदस्यों ने क्या कहा?
'फ़ाइव आइज़' अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के बीच बना एक गठबंधन है जिसके तहत ख़ुफ़िया जानकारियां साझा की जाती हैं.
ब्रितानी विदेश मंत्री जेम्स क्लेवरली ने कहा, "हमारी सरकार कनाडा के आरोपों को बेहद गंभीरता से लेती है. हम सरकार की जांच का समर्थन करते हैं और सच्चाई बाहर आनी चाहिए."
लेकिन कनाडा को बड़ी निराशा दक्षिण में मौजूद उसके पड़ोसी, यानी अमेरिका से हुई.
ये दोनों मुल्क बहुत अच्छे मित्र हैं लेकिन अमेरिका ने इस मुद्दे पर मुखर होकर नाराजगी जाहिर नहीं की, जैसे उम्मीद की जा रही थी.
इस पूरे मुद्दे पर न्यूज़ीलैंड ने अब तक कुछ नहीं कहा है.
भारत का महत्व और अमेरिका का रुख़
उन चमकते सितारों की कहानी जिन्हें दुनिया अभी और देखना और सुनना चाहती थी.
संयुक्त राष्ट्र में जब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने संबोधित किया तो उन्होंने भारत की आलोचना नहीं की बल्कि उन्होंने इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर की तरफ इशारा करते हुए एक नया आर्थिक रास्ता दिखाने में भारत की भूमिका की सराहना की.
बाद में अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने इस मामले को लेकर अमेरिका और कनाडा के बीच किसी तरह की "दरार" से इनकार किया और कहा कि अमेरिका, कनाडा के साथ लगातार संपर्क में है.
हालांकि सार्वजनिक तौर पर इस मामले में अमेरिका ने जो बयान दिए उनमें केवल "गंभीर चिंता" की बात की और और ये भी माना कि पश्चिमी मुल्कों के लिए भारत की अहमियत बढ़ती जा रही है.
जानकारों ने बीबीसी को बताया कि मौजूदा वक्त में रणनीतिक तौर पर भारत की बढ़ती अहमियत के सामने कनाडा के हित कमज़ोर नज़र आ रहे हैं. उनका मानना है कि यही कनाडा की परेशानी है.
कनाडा इंस्टीट्यूट में रिसर्चर ज़ेवियर डेलगाडो कहते हैं, "अमेरिका, ब्रिटेन, पश्चिम के और मुल्क और इंडो-पैसिफ़िक के उनके सहयोगियों ने जो रणनीति बनाई है उसमें चीन के बढ़ते प्रभुत्व का मुक़ाबला करने में भारत की जगह अहम है. ये वो महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसे वो अपने एक सहयोगी के लिए बाहर नहीं फेंक सकते."
कनाडा के टेलीविज़न सीटीवी न्यूज़ को दिए एक साक्षात्कार में कनाडा के लिए अमेरिकी राजदूत डेविड कोहेन ने इस बात की पुष्टि की कि फ़ाइव आइज़ के सहयोगियों के बीच इस मामले से जुड़ी ख़ुफ़िया जानकारी साझा की गई थी.
लेकिन इस गठबंधन के उन्हीं सहयोगियों से जुड़ी एक रिपोर्ट के बारे में पूछे गए सवाल का जवाब उन्होंने ये कहते हुए टाल दिया कि वो "राजनयिकों की निजी बातचीत को लेकर कुछ नहीं कहना" चाहते.
इस रिपोर्ट के अनुसार कनाडा ने सभी सहयोगियों से गुज़ारिश की थी कि वो सार्वजनिक तौर पर इस हत्या की निंदा करें.
मौजूदा वैश्विक स्थिति में कनाडा की परिस्थिति
लेकिन इस मामले को लेकर वैश्विक स्तर पर जो चुप्पी देखी जा रही है वो विश्व मंच पर कनाडा की कमियों की तरफ इशारा करती है. वो पश्चिमी मुल्कों का भरोसेमंद सहयोगी तो है लेकिन अपने आप में दुनिया की एक बड़ी ताकत नहीं है.
कनाडा इंस्टीट्यूट के निदेशक क्रिस्टोफ़र सैंड्स कहते हैं, "ये कमज़ोरी की घड़ी है. हम जो देख रहे हैं वो मूल रूप से ताकत का खेल है. ये वो वक्त नहीं है, जब कनाडा सबकी आंखों का तारा हो."
"आज के दौर में फ़ैसला लेने के पीछ ताकत, बल और पैसा होता है, जो कनाडा के पास नहीं है."
भारत से बाहर कुछ लोगों ने जस्टिन ट्रूडो के सार्वजनिक तौर पर भारत पर आरोप लगाने के फ़ैसले को सही माना क्योंकि अगर ट्रूडो के आरोप सही साबित हो गए तो ये कनाडाई ज़मीन पर किसी दूसरे मुल्क द्वारा एक राजनीतिक हत्या को अंजाम देने का मामला होगा.
हालांकि ये नैतिकता कनाडा के लिए मौजूदा प्रतिकूल परिस्थिति को बदलने के लिए काफी होगी, ये नहीं कहा जा सकता.
ट्रूडो के लिए ये भू-राजनीतिक सच्चाई इस रूप में सामने आई कि एक तरफ आरोप लगाने के बाद के कुछ दिन उनके लिए अकेलेपन वाले रहे, तो दूसरी तरफ भारत के साथ कनाडा का कूटनीतिक विवाद बढ़ता ही गया.
कनाडा ने भारत के शीर्ष राजनयिक को निष्कासित कर दिया. जवाबी कार्रवाई में भारत ने भी कनाडा के शीर्ष राजनयिक को पांच दिनों के अंदर भारत छोड़ने का आदेश दे दिया.
भारत ने कनाडा में रह रहे अपने नागरिकों के लिए ट्रैवल एडवाइज़री जारी कर दी. कनाडा में भारतीय दूतावास ने वीज़ा सेवाओं पर ये कहते हुए रोक लगा दी कि "ऑपरेशनल वजहों से फिलहाल सेवाएं स्थगित कर दी गई हैं."
देश के भीतर ट्रूडो के लिए बढ़ती मुश्किलें
कनाडा में इस साल लंबी गर्मियों के बीच ट्रूडो के लिए ये सप्ताह इस एक ख़बर के अलावा भी बेहद उथल-पुथल भरा रहा.
कनाडा में लोगों के लिए महंगाई और बढ़ती ब्याज दरें पहले ही बड़ी समस्या हैं, इस बीच कनाडा में चुनावों में कथित चीनी हस्तक्षेप की ख़बर आई. आलोचकों का कहना है कि ट्रूडो और उनके कैबिनेट को इस बात की जानकारी पहले से थी, लेकिन उन्होंने इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया.
इस बीच कनाडा के सबसे दुर्दांत सीरियल किलर पॉल बर्नार्डो को एक मीडियम-सिक्योरिटी जेल में शिफ्ट करने की ख़बर आई. इस मुद्दे को लेकर एक बार फिर ट्रूडो आलोचकों के निशाने पर आ गए.
सितंबर के महीने तक ट्रूडो की रेटिंग तीन साल के अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुकी थी. 63 फ़ीसदी कनाडाई नागरिकों की राय में 2015 में चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बने ट्रूडो को वो एक बार फिर प्रधानमंत्री के पद पर नहीं देखता चाहते.
एक रिसर्च ग्रुप एंगुस रीड इंस्टीट्यूट की अध्यक्ष साची कर्ल कहती हैं, "आठ साल के अपने कार्यकाल में वो कभी इतने निचले पायदान पर नहीं रहे. उनसे सीधे-सीधे सवाल पूछे जाने लगे हैं कि क्या वो एक और बार चुनाव जीत सकेंगे? क्या उन्हें इस्तीफ़ा दे देना चाहिए?"
पूर्व प्रधानमंत्री के बेटे जस्टिन ट्रूडो ने पीएमओ के कार्यालय तक पहुंचने के लिए निचले स्तर से शुरुआत की थी. 2015 में भारी बहुमत से जीतकर उन्होंने अपनी सरकार बनाई थी.
ग्लोब एंड मेल न्यूज़पेपर में मुख्य राजनीतिक संवाददाता कैम्पबेल क्लार्क कहते हैं, "कनाडा की राजनीति में वो एक ऐसे सेलिब्रिटी हैं, जैसे पहले कोई नहीं था. चुनाव जीतने के बाद उनकी लोकप्रियता में और बढ़ोतरी दर्ज की गई."
वो कहते हैं कि ऐसे लगता है कि आठ सालों के बाद अब लोगों का मन भर गया है और अब लोगों को लगता है कि ट्रूडो की जो स्टार पावर थी वो अब कम हो गई है, ख़ासकर हाल के महीनों में.
हालांकि कइयों को लगता कि वैश्विक मंच पर भले ही जस्टिन ट्रूडो अलग-थलग दिखाई दें, भारत के इस पूरे विवाद से उन्हें घरेलू स्तर पर काफी फायदा हो सकता है.
कैम्पबेल क्लार्क कहते हैं, "इस विवाद के कारण उनके लिए देश के भीतर उठ रहे सवालों से बचना आसान हो जाएगा."
लेकिन ट्रूडो के लिए ये सप्ताह इतना भी मुश्किल भरा नहीं रहा. सप्ताह के अंत में उनकी मुलाक़ात यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर ज़ेलेन्स्की से हुई जो मौजूदा दौर के एक और बड़े सेलिब्रिटी हैं.
दोनों ने कनाडा-यूक्रेन मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए और कहा जा सकता है कि सप्ताह का आख़िरी दिन उन्होंने अपने अच्छे सहयोगी के साथ बिताया.(bbc.com/hindi)