विचार/लेख
-स्वेच्छा राउत
रमेश (बदला हुआ नाम ) नेपाल से रूस स्टूडेंट वीजा पर आए थे। उन्हें एक बेहतर जि़ंदगी की तलाश थी।
नेपाल में बेहद गऱीबी में जी रहे रमेश किसी भी तरह इससे निजात पाना चाहते थे। लेकिन रूस में अपनी पढ़ाई ख़त्म करने के बाद भी उनकी मुसीबतें कम नहीं हुई थीं। या तो वो नेपाल लौट जाते और कोई मामूली नौकरी में लग जाते या रूस में कोई बेहतर काम तलाशते। लेकिन ये इतना आसान नहीं था।
रमेश ने बीबीसी नेपाली से ऑनलाइन बातचीत में बताया, ''मेरी तरह रूस आने वाला वो हर छात्र परेशानी में था। उन्हें अच्छी नौकरी नहीं मिल रही थी।’’
टिकटॉक वीडियो में बता रहे हैं रूसी सेना में भर्ती होने का तरीका
इधर, रमेश और नेपाल से रूस आए उनके कई दोस्त इस दुविधा से जूझ रहे थे, उधर रूस ने यूक्रेन के खिलाफ जंग का एलान कर दिया।
यूक्रेन युद्ध में रूसी सेना को भी खासा नुकसान हुआ है। शुरुआती युद्ध में हजारों रूसी सैनिकों की मौत हुई। इसे देखते हुए राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने नियमों में बदलाव किए ताकि विदेशियों के लिए रूसी सेना में शामिल होना आसान और आकर्षक हो जाए। अच्छा-ख़ासा वेतन से लेकर रूसी नागरिक बनने की प्रक्रिया आसान बनाने तक, कई नए नियम लाए गए, जिससे विदेशियों का सेना में शामिल होना आसान हो जाएगा। अपनी सेना को मज़बूत करने के लिए रूस बाहरी लोगों को दिल खोल कर स्वागत कर रहा है।
रमेश कहते हैं कि उन्होंने रूसी सेना में शामिल होने की ये शानदार पेशकश मंजूर कर ली। उन्होंने कहा वो लिखित परीक्षा और मेडिकल परीक्षण के बाद रूसी सेना में चयनित हो गए। वो बताते हैं कि इसके लिए उन्होंने एक लाख नेपाली रुपये खर्च किए। हालांकि उन्होंंने ये नहीं बताया कि ये पैसे उन्होंने किसे दिए।
उन्होंने कहा कि भर्ती का काम भरोसे पर होता है। रमेश अपने टिकटॉक अकाउंट पर रूसी सेना में भर्ती होने की इस ख़बर को फैला दिया।
अपने कई वीडियो में उन्होंने बताया ये उनके लिए कितना मुश्किल फ़ैसला था। एक वीडियो में उन्होंने मैसेज लिखा, ‘’एक सैनिक का काम है, करो या मरो। अगर आप ये करना चाहते हैं तो सेना में भर्ती हो जाइए।’’
‘जानकारियों’ से लैस बताए गए एक वीडियो में उन्होंने कहा, ‘‘यहां कई चुनौतियां हैं। चीज़ें जैसी होनी चाहिए वैसी नहीं हैं। मेरा मानना है कि ये जि़ंदगी का एक मुश्किल दौर है। क्योंकि ये देश फि़लहाल यूक्रेन के साथ युद्ध लड़ रहा है।’’
रूसी सेना में भर्ती होने के लिए ‘काउंसिलिंग सर्विस’
आखिरी बार जब बीबीसी ने रमेश से संपर्क किया था तो उनके पास बिल्कुल भी वक्त नहीं था। उन्होंने बताया कि उन्हें ट्रेनिंग के लिए बेलारूस ले जाया जा रहा है। इसके बाद बीबीसी उनसे संपर्क करने में कामयाब नहीं हो सका। इसके बाद बीबीसी ने अपने हफ्तों की पड़ताल में पाया कि सिर्फ रमेश ही एक मात्र नेपाली शख्स नहीं हैं, जो रूस की सेना में शामिल हुए हैं।
राज भी एक छात्र हैं, जो उच्च शिक्षा के लिए रूस पहुँचे थे। लेकिन जब रूस ने अप्रैल 2022 में अपनी सेना में विदेशियों की भर्ती का एलान किया है, तो बहुत कम रूसी जानने वाले नेपालियों ने उन्हें मदद के लिए फोन करना शुरू किया। वो उनसे रूसी भाषा में मिल रहे फॉर्म भरने के लिए मदद मांग रहे थे।
राज ने बीबीसी नेपाली को बताया, ‘मैंने अपने कई परिचित नेपालियों को आवेदन पत्र भरने में मदद की। यही लोग अब उन लोगों का मेरा नंबर दे रहे हैं जो रूसी सेना में भर्ती होना चाहते हैं।’
राज नेपाल में पढ़ाई के लिए रूस जाने की इच्छा रखने वाले छात्रों की काउसिंलिंग किया करते थे। अब नेपाल के कई पूर्व सैनिक और छात्र उनसे रूसी सेना में भर्ती होने के लिए मदद मांग रहे हैं।
राज को दिन में एक बार 40-50 फोन कॉल आ जाते हैं। उनसे लोग यही पूछते हैं कि रूसी सेना में कैसे भर्ती हुआ जा सकता है। रूसी सेना में भर्ती होने का वीडियो पोस्ट करने वाले कुछ नेपाली युवकों ने ही बीबीसी को राज का पता दिया था।
राज कहते हैं कि उन्हें ये पता नहीं है कि नेपालियों के लिए रूसी सेना में भर्ती होना गैर-कानूनी है या नहीं। वो कहते हैं कि अपनी सलाह के लिए कोई पैसा नहीं लेते। लेकिन उनकी सेवा लेने वाले कुछ नेपालियों ने दावा किया उन्होंने राज को दस हजार नेपाली रुपये दिए।
नेपाल सरकार के नियम क्या कहते हैं?
नेपाल सरकार ने पश्चिमी देशों की तरह यूक्रेन पर रूस के हमले की निंदा की है। लेकिन उसका कहना है कि उसे इस बात का पता नहीं है कि उसके नागरिक रूसी सेना में भर्ती हो रहे हैं।
नेपाल के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता सेवा लामसाल ने बीबीसी नेपाली से कहा, ‘’ये हमारी नीतियों से मेल नहीं खाता।‘’
नेपाल, भारत और ब्रिटेन के बीच 1947 में एक त्रिपक्षीय संधि हुई थी। इसके तहत नेपाली नागरिक विदेशी सेना में भर्ती हो सकते थे। इस संधि में ये साफ लिखा था कि नेपाली नागरिक भारत और ब्रिटेन की सेना में भर्ती किए जाएंगे। इसमें साफ लिखा है कि इन सेनाओं में शामिल होने वाले नेपाली ‘भाड़े के सैनिक’ नहीं माने जाएंगे। ये संधि सिर्फ भारत और ब्रिटेन के साथ हुई थी। किसी और देश की सेना में नेपालियों को भर्ती को लेकर ऐसी कोई नीति नहीं है।
बीबीसी ने नेपाली ने इस मामले पर बात करने के लिए रूस में नेपाल के राजदूत मिलनराज तुलाधार से संपर्क किया।
तुलाधर ने बताया, ‘‘जो नेपाली नागरिक रूस में पढऩे या घूमने आते हैं, वो कोई दूसरा काम नहीं कर सकते। नेपाल के नागरिक सिफऱ् भारत और ब्रिटेन की सेना में भर्ती हो सकते हैं। ये तीनों देशों के संधियों की वजह से है। रूस के साथ नेपाल की ऐसी कोई संधि नहीं है।’’ उन्होंने कहा कि रूस की सेना में भर्ती होने वाले नेपाली लोग टिकटॉक पर जो वीडियो अपलोड कर रहे हैं उनकी असलियत का पता नहीं लगाया जा सकता।
बीबीसी की पड़ताल में क्या मिला
हालांकि बीबीसी ने इस तरह के कुछ वीडियो की पड़ताल की है और पाया है कि ये उन इलाकों से पोस्ट किए गए हैं, जहाँ रूस के मिलिट्री कैंप हैं। कुछ अकाउंट्स से पोस्ट किए गए दस्तावेजों को बीबीसी की रूसी सर्विस ने वेरिफाई किया है। बीबीसी रूसी सेवा के पत्रकार आंद्रे कोजेन्को ने कम से कम ऐसे दो अकाउंट को चेक किया है, जिससे रूसी सेना के दस्तावेजों की तस्वीरें पोस्ट की गई हैं।
कोज़ेन्को कहते हैं, ‘‘हमारे पास मौजूद दोनों दस्तावेज बताते हैं कि जिन दो लोगों ने ये दस्तावेज पोस्ट किए हैं वो रूसी सेना में काम कर रहे हैं।’’ इनमें इन लोगों की मिलिट्री रैंक, पूरा नाम और अभिभावकों के नाम दर्ज हैं। इनमें उन मिलिट्री यूनिटों का भी जिक्र है, जहां वो काम कर रहे हैं। इस मामले पर बात करने के लिए बीबीसी रूस के रक्षा और विदेश मंत्रालय से ई-मेल के जरिये संपर्क किया। इसके साथ ही नेपाल में रूसी दूतावास से भी संपर्क किया गया। हालांकि ये स्टोरी प्रकाशित होने के समय तक उनका कोई जवाब नहीं आया था।
नेपाली युवक रूसी सेना में क्यों भर्ती हो रहे हैं?
विशेषज्ञों का कहना है कि नेपाल में अच्छे अवसरों की कमी है। यही वजह है कि नेपाल के युवा विदेशी सेनाओं में भर्ती होने के लिए मजबूर हो रहे हैं।
त्रिभुवन यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्री टीकाराम गौतम कहते हैं, ‘‘नेपाल के लोग भले ही काम करने या घूमने के लिए विदेश जाएं लेकिन उनका असली मकसद वहाँ जाकर काम करना और पैसे कमाना है। हो सकता है कि नेपाली युवाओं ने इसलिए रूसी सेना की ओर आकर्षित हुए हैं जो पैसा उन्हें वहां कुछ महीनों में मिलेगा उसे कमाने में यहां वर्षों लग जाएंगे।’’
नेपाल सरकार के आँकड़े बताते हैं कि यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से अलग-अलग मक़सद के लिए 1729 नेपाली नागरिक रूस गए हैं। नेपाल सरकार के आव्रजन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक पढ़ाई के लिए 749 नेपाली रूस गए हैं जबकि रोजग़ार के लिए 356 लोग गए हैं। राज की मदद से जो नेपाली सेना में भर्ती हुए थे, उनसे हमने बात की। उन्होंने वही बात बताई जो राज ने बताई थी।
रूसी सेना में काम करने का दावा करते हुए टिकटॉक वीडियो पोस्ट करने वाले एक शख्स ने बीबीसी नेपाली सेवा से कहा,‘‘ हम यहां पैसों के लिए आए हैं, जो कमाई हम यहां करते हैं वो नेपाल में नहीं कर पाते। दूसरे देशों में इतनी कमाई नहीं होगी। कोई भी ऐसा शख्स जिसे दिल की बीमारी न हो यहां आ सकता है।’’ एक और युवक ने कहा, ‘‘अगर हम अपनी जान की परवाह करते नेपाल लौट जाएं तो वहां हमें क्या काम मिलेगा।’’
नेपालियों को रूस में कितना वेतन मिल रहा है?
रूस की सरकार उन लोगों को ज़्यादा वेतन देने का वादा करती है जो यूक्रेन में उनकी ओर लड़ेंगे। राज ने बताया कि ट्रेनिंग के दौरान नेपालियों को 60 हजार नेपाली रुपये के बराबर वेतन मिलता है। रूसी मिलिट्री कैंप में ट्रेनिंग ले रहे एक शख़्स ने बताया कि उनके कॉन्ट्रैक्ट में लिखा गया गया है कि ट्रेनिंग के बाद उन्हें हर महीने 1,95,000 रूबल मिलेंगे।
राज ने बताया, ‘‘ये वेतन तीन लाख नेपाली रुपये के बराबर है। कॉन्ट्रैक्ट में ये भी कहा गया है कि एक साल पूरा होने पर पर सैनिकों को रूसी पासपोर्ट मिलेगा और इसके बाद वो अपने परिवार के सदस्यों को रूस भी ला सकेंगे। इस स्टोरी में रूस गए नेपाली लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उनकी तस्वीरें और पहचान छुपाई गई है। (बीबीसी)
महाराष्ट्र में गोमांस के नाम पर लोगों की पीट पीट कर हत्या कर देने के एक महीने में दो मामले सामने आये हैं. इन घटनाओं को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में दिशा निर्देश जारी किये थे, लेकिन मॉब लिंचिंग रुक नहीं रही है.
पढ़ें डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा-
महाराष्ट्र में गोमांस ले जाने के शक में किसी की पीट पीट कर हत्या कर देना का एक और मामला सामने आया है. यह राज्य में एक ही महीने में इस तरह से की जाने वाली दूसरी हत्या है.
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक शनिवार 24 जून को 32 वर्षीय अफान अब्दुल माजिद अंसारी अपने एक दोस्त नासिर हुसैन शेख के साथ एक गाड़ी में मांस लेकर मुंबई जा रहे थे. रास्ते में नाशिक ग्रामीण जिले में करीब 15 लोगों के समूह ने उन्हें रोका और फिर डंडों और लोहे की छड़ों से उनकी पिटाई की.
एक इलाका, दो घटनाएं
घटना की जानकारी मिलने पर पुलिस जब वहां पहुंची तो अंसारी और शेख बुरी तरह घायल थे, लेकिन बाद में अस्पताल में अंसारी की मौत हो गई. शेख की हालत अभी भी गंभीर बताई जा रही है.
शेख की ही शिकायत पर पुलिस ने हत्या और दंगा करने का मामला दर्ज कर लिया है. सीसीटीवी फुटेज और मोबाइल लोकेशन के आधार पर 10 लोगों को हिरासत में ले लिया गया है, लेकिन पुलिस ने अभी तक उनके बारे में कोई जानकारी नहीं दी है.
यह इसी इलाके में एक महीने में होने वाली दूसरी घटना है. इससे पहले इसी जगह से करीब 25 किलोमीटर दूर ठाणे जिले में इसी तरह एक समूह ने मवेशी ले जा रहे दो मुस्लिम युवकों को पीटा था, जिसमें से एक की लाश दो दिनों बाद बरामद हुई थी.
23 साल के उस मृतक का नाम लुकमान अंसारी था. पुलिस ने उस मामले में छह लोगों को गिरफ्तार किया था. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक पुलिस ने सभी मुल्जिमों को राष्ट्रीय बजरंग दल का सदस्य बताया था. पिछले कुछ सालों में देश के कई राज्यों में गोमांस के नाम पर इसी तरह लोगों को मार दिए जाने की कई घटनाएं सामने आई हैं.
सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश
2018 में इस तरह की हिंसा को रोकने के लिए दायर की गई एक याचिका पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों के विस्तृत दिशा निर्देश जारी किए थे.
इनमें इस तरह के मामलों पर तेज गति से अदालतों में सुनवाई, हर जिले में पुलिस के एक विशेष दस्ते का गठन, ज्यादा मामलों वाले इलाकों की पहचान, भीड़-हिंसा के खिलाफ रेडियो, टीवी और दूसरे मंचों पर जागरूकता कार्यक्रम जैसे कदम शामिल हैं.
इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने संसद से अपील भी की थी कि वो इस तरह की हिंसा के खिलाफ एक नया कानून लेकर आए, लेकिन केंद्र सरकार की तरफ से अभी तक ऐसी कोई पहल नहीं की गई है.
इसके पहले पिछले कुछ सालों में झारखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर जैसे कई राज्यों में इस तरह की हत्याएं हो चुकी हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 4 जुलाई 2022 को मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के एक कार्यक्रम में कहा था, "इसलिए हम कहते हैं, हिंदुस्तान हिंदू राष्ट्र है. गौ माता पूज्य है लेकिन लिंचिंग करने वाले लोग हिंदुत्व के खिलाफ जा रहे हैं." (dw.com)
-ध्रुव गुप्त
अपने पुलिस जीवन के मेरे कुछ अनुभव ऐसे रहे जो आज रिटायरमेंट के वर्षों बाद भी सोचने पर व्यथित करते हैं। आज जाने क्यों उस दौर का मेरा सबसे दुखद अनुभव बहुत याद आ रहा है। बात 1981 की है जब मैं जिला ट्रेनिंग में छपरा में पदस्थापित था। तब छपरा-पटना हाईवे पर डोरीगंज का क्षेत्र सडक़ डकैतों से बुरी तरह आक्रांत था। एक रात गश्ती चेकिंग के सिलसिले में डोरीगंज के गंगा घाट पर रात के सन्नाटे में नदी के कोलाहल का आनंद ले रहा था मैं। कुछ अधिकारी और सशस्त्र बल के जवान मेरे आसपास मौजूद थे। आधी रात के बाद एक चौकीदार ने आकर सूचना दी कि पास के हाईवे से पांच-छह गाडिय़ां लूटने के बाद डकैत गंगा दियारे की ओर भाग निकले हैं। मैं घटनास्थल पर पहुंचा तो वहां यात्रियों की चीख-पुकार मची थी। एक अधिकारी को यात्रियों के बयान लेने के लिए छोडक़र मैं पुलिस बल के साथ गंगा के दियारे में प्रवेश कर गया। नदी के किनारे खड़ी एक नाव से नदी पार कर सात-आठ किलोमीटर पैदल चलकर सीमावर्ती भोजपुर जिले के दियारे में अपराधियों के लिए कुख्यात एक गांव में पहुंचा। वहां दर्जनों घरों की तलाशी में डकैती में लूटी गई लगभग तमाम संपत्ति बरामद हो गई और तीन अपराधी भी पकड़े गए। सुबह हुई तो अपराधियों और बरामद संपत्ति के साथ अधिकारी और कुछ जवानों को थाने लौट जाने को कहा। मैं खुद दो जवानों के साथ वहां एकत्र ग्रामीणों से पूछताछ में लगा रहा।
जब तक मैं नदी पार करने के लिए गंगा के उस किनारे पहुंचा तब तक सूरज सर पर आ गया था। जून का महीना था। भूख और प्यास के मारे बुरा हाल हो चला था। आसपास कहीं कोई गांव नहीं। चापाकल का तो सवाल ही नहीं। नदी के किनारे थोड़ी दूरी पर फूस और फटे कपड़ों से बनी एक अस्थायी झोपड़ी देखी तो भागकर वहां पहुंचा। झोपड़ी में लगभग साठ साल का एक दुबला-पतला बूढ़ा व्यक्ति मौजूद था। शायद थोड़ी-बहुत मछलियां पकड़ र आसपास के गांवों में बेचने के लिए वहां टिका था। मैंने उससे पूछा कि क्या वह हम तीन लोगों को कुछ खिला सकता है? उसके पास गमछे में लगभग आधा किलो मोटा चावल उपलब्ध था। हमें घड़े का पानी पिलाने के बाद वह थोड़ी-बहुत छोटी मछलियां पकडक़र ले आया।ईंट के चूल्हे पर पतीले में चावल डाला और नीचे आग में मछलियां। भात तैयार हुआ तो आग से मछलियां निकाल कर उसमें थोड़ा तेल, लहसुन और नमक डालकर मछली का तेज-तेज चोखा बनाया। हम भोजन पर टूट पड़े। भात थोड़ा कच्चा था और मछलियां कुछ अधपकी। बावजूद इसके वह मेरे जीवन का सबसे स्वादिष्ट भोजन था जिसका स्वाद में आज भी नहीं भूल पाया हूं। चलते समय मैंने उसे कुछ रुपए देने चाहे लेकिन उसने पैसे लेने से इंकार कर दिया। मैंने जबर्दस्ती उसकी जेब में सौ रुपए डाले और लौट आया।
कुछ महीनों बाद छपरा से मेरा ट्रांसफर हुआ तो मुझे उस बूढ़े मछुआरे की याद आई। मैं उससे मिलने एक बार फिर गंगा पार के दियारे में गया। वहां झोपड़ी गायब थी। कुछ दूरी पर स्थित एक गांव के लोगों ने बताया कि पुलिस को खाना खिलाने के अगले दिन से ही वह बूढ़ा और उसकी झोपड़ी दोनों गायब हैं। लोगों में चर्चा थी कि पुलिस मुखबिर होने के संदेह में डकैतों ने उसे मारकर गंगा में उसकी लाश बहा दी थी। उसके घर का पता किसी को मालूम नहीं था। मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैं उस उजड़ी हुई झोपड़ी के पास देर तक उदास बैठा रहा। भारी कदमों से छपरा लौटा। उसका मासूम चेहरा और उसके भोजन का स्वाद मुझे आज भी नहीं भूला है। उस घटना के बाद कई बार मैंने मोटे चावल का भात और छोटी मछलियों का चोखा बनवाकर खाने की कोशिश की, लेकिन हर बार पहला कौर उठाते ही अपना हाथ मुझे खून से सना हुआ नजर आने लगता है और क्षमा की याचना में मेरे हाथ आकाश की ओर उठ जाते हैं।
-डॉ आर. के. पालीवाल
लोकतान्त्रिक व्यवस्था में विपक्ष का महत्व सत्ता पक्ष जैसा ही है। सत्ताधारी दल की सरकार संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के अंतर्गत देश के नागरिकों के कल्याण के लिए जो कानून का राज्य स्थापित करती है उसका ऑडिट करने की जिम्मेदारी विपक्ष की ही है। इसीलिए लोकतंत्र को तानाशाही की तरफ बढऩे से रोकने के लिए मजबूत विपक्ष जरूरी माना जाता है। विपक्ष की भूमिका तब और भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है जब सत्ताधारी दल पूर्ण बहुमत के कारण मनमानी कर किसी खास वर्ग, विचारधारा या क्षेत्र के प्रति ज्यादा राग या द्वेष के वशीभूत होकर भेदभाव करने लगता है। आपातकाल से पहले कांग्रेस सरकार ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कुछ इसी तरह की प्रवृत्तियां पैदा हो गई थी जब विरोधियों की प्रताडऩा की जाने लगी थी। इसी पृष्ठभूमि में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ जोरदार आन्दोलन शुरू हुआ था जिसमें अधिकांश विपक्षी दल शामिल हुए थे। वर्तमान केन्द्र सरकार के खिलाफ भी कुछ महीनों से इसी तरह का माहौल बन रहा है जिसकी एक महत्त्वपूर्ण कड़ी पटना में विपक्षी दलों की बैठक है।
पटना में विपक्षी दलों की बैठक से जिस तरह की जानकारियां बाहर आ रही हैं उससे एक बात तो साफ है कि इसका प्रमुख उद्देश्य व्यवस्था परिवर्तन न होकर सत्ता परिवर्तन है इसलिए आम अवाम को इससे लाभ की कोई खास उम्मीद नहीं है। लगातार दो बार केंद्र में सत्तारूढ़ नरेंद्र मोदी सरकार को हटाना विपक्षी दलों की सबसे पहली इच्छा है। यही कारण है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी चारा कांड में सजा पाए लालू यादव से न केवल शिष्टाचार भेंट करती हैं बल्कि उन्हें सम्मानित कर पैर छूकर उनका आशीर्वाद मांगती हैं। केंद्र में सत्ता पाने के लिए विपक्ष में इस वक्त पांच दल के उम्मीदवार औरों से आगे हैं। प्राथमिकता के आधार पर नीतीश कुमार सबसे आगे हैं जो मोदी को सत्ता से बाहर करने के लिए दिल्ली से कलकत्ता तक सबसे ज्यादा भागदौड़ कर रहे हैं। उनके बाद दूसरे नंबर पर ममता बनर्जी हैं। नीतीश कुमार और ममता बनर्जी की बाज़ नजऱ किंग मेकर बनते लालू प्रसाद यादव पर है। यही विपक्षी एकता का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि लालू प्रसाद यादव जैसे भ्रष्टाचार में सजा पाए और परिवारवाद को आगे बढ़ाने वाले नेता किंग मेकर बन रहे हैं। जिस आंदोलन की बागडोर लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में होगी उससे व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद तो नहीं की जा सकती।
1977 के सत्ता परिवर्तन आंदोलन का नेतृत्व लोकनायक जयप्रकाश नारायण के पास था। उनका कद स्वाधीनता सेनानी होने, ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए आजीवन देश सेवा करने के व्रत और हमेशा सत्ता के आकर्षण से दूर रहने के कारण तत्कालीन नेताओं में सबसे ऊपर था। उनके बरक्स लालू प्रसाद यादव की छवि एकदम उलट है। उनको बिहार के मुख्यमंत्री रहने के दौरान चारा घोटाले में लिप्तता प्रमाणित होने के बाद लंबी सजा हुई है। बिहार की वर्तमान बदहाली में उनकी सरकारों का बड़ा योगदान है। उनके रेलमंत्री के कार्यकाल के दौरान भ्रष्टाचार के मामलों में जांच एजेंसियों की कार्यवाही चल रही है। ऐसे व्यक्ति के मार्गदर्शन में होने वाले सत्ता परिवर्तन के आन्दोलन की क्या गति होगी उसकी सहज परिकल्पना संभव है।
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले आंदोलन की भी यही सबसे बड़ी कमी रही थी कि उसमें शामिल नेताओं का एकमात्र लक्ष्य इंदिरा गांधी की सत्ता छीनकर खुद की सत्ता स्थापित करना था। इसीलिए सत्ता परिवर्तन के बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी को जो प्रचंड बहुमत हासिल हुआ था वह ज्यादा दिन तक नहीं टिक पाया था। लालू प्रसाद यादव के मार्गदर्शन में होने वाले सत्ता परिवर्तन आंदोलन का सकारात्मक परिणाम किसी भी दृष्टि से संभव नहीं लगता।
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बेहद करीबी माने जाने वाले वागनर ग्रुप के प्रमुख येवगेनी प्रिगोजिन ने कदम पीछे खींच लिए हैं। पहले उन्होंने रूसी शहर रोस्तोव-ऑन-डॉन पर कब्जा करने का दावा किया था।
बगावती तेवर लिए प्रिगोजिन ने इससे पहले कहा था कि वो अपनी प्राइवेट आर्मी के लड़ाकों के साथ मॉस्को की तरफ मार्च करेंगे। उनका कहना था कि वो देश के रक्षा मंत्री सर्गेई शोइगु और रूसी सेना के चीफ ऑफ स्टाफ वालेरी गेरासिमोव से रूबरू मुलाकात करना चाहते हैं। प्रिगोजिन की इस चेतावनी के बाद मॉस्को में सुरक्षा व्यवस्था बेहद कड़ी कर दी गई थी। कई अन्य शहरों में आम नागरिकों की आवाजाही को लेकर भी पाबंदियां लगाई गई थी। लेकिन रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के भरोसेमंद मित्र बेलारूस के राष्ट्रपति एलेक्जेंडर लूकाशेंको के हस्तक्षेप के बाद अब प्रिगोजिन ने मॉस्कों की तरफ मार्च करने का अपना इरादा बदल दिया है। अपनी प्राइवेट आर्मी के लड़ाकों को लेकर अब वो बेलारूस की तरफ जा रहे हैं।
विद्रोह से पुतिन की छवि को नुकसान?
बीबीसी रूसी सेवा की संवाददाता ओल्गा इवशिना मानती हैं कि प्रोगोजिन के विद्रोह ने रूसी राष्ट्रपति छवि को नुकसान पहुंचाया है। वो कहती हैं कि पुतिन और रूस का मीडिया सालों से देश के भीतर एकता और स्थिरता की एक छवि बनाने की कोशिश करते रहे हैं, जिसे इस विद्रोह ने एक तरह से चुनौती दे दी है। रोस्तोव-ऑन-डॉन पर नियंत्रण के प्रोगोजिन के दावे के बाद कई राजनेताओं में डर फैल गया। फ्लाइट रडार सेवाओं के अनुसार इस दौरान कई निजी जेट विमानों को मॉस्को से बाहर जाते देखा गया है। एक के बाद एक प्रांतीय गवर्नर मीडया के सामने आए और उन्होंने रूसी राष्ट्रपति के प्रति अपनी वफादारी की बात दोहराई।
ओल्गा कहती हैं, ‘इससे पहले 1991 में रूस में एक और सशस्त्र सैन्य विद्रोह की कोशिश हुई थी। उस वक्त प्रांतीय गवर्नरों ने विद्रोहियों का साथ दिया था। शुक्रवार और शनिवार को रूस में जो कुछ हुआ उसमें ऐसा कुछ नहीं दिखाई दिया। हालांकि ये जरूर कहा जा सकता है कि इस विद्रोह ने रूसी राष्ट्रपति की छवि में दाग जरूर लगा दिया है।’
बेलारूस की पत्रकार और शोधकर्ता हान्ना ल्यूबाकोवा कहती हैं कि प्रोगाजिन और लूकाशेंको के बीच हुई ये डील बताती है, ‘लूकाशेंको पुतिन के हाथों की कठपुतली हैं।’ वो कहती हैं कि लूकाशेंको के हाथों में ‘इतनी ताकत नहीं है कि वो प्रिगोजिऩ को फिर से इस तरह का कदम उठाने से रोक सकें।’ वो कहती हैं, ‘आपको ये नहीं भूलना चाहिए कि केवल एक दिन में प्रिगोजिन लगभग मॉस्को की सरहद तक पहुंच गए थे। मुझे नहीं लगता कि इस तरह का बेहद महत्वाकांक्षी व्यक्ति जो इस तरह का बड़ा जोखिम लेने की काबिलियत रखता है लूकाशेंको की बात सुनेगा।’ वो कहती हैं, ‘प्रिगोजिन के विद्रोह का बेलारूस के भीतर भी कुछ हद तक असर होगा क्योंकि उनके विद्रोह की ये घटना पुतिन की कमजोरियों को सामने ले आई है।’
रूसी राष्ट्रपति के आलोचक रहे एलेक्जेंडर लित्विनेन्को की पत्नी मारिया ने बीबीसी संवाददाता लॉरा कॉन्सेनबर्ग को बताया कि इस पूरे घटनाक्रम ने पुतिन की कमजोरी दुनिया को दिखा दी है। वो कहती हैं, ‘एक बर्बर नेता वाली पुतिन की छवि केवल लोगों के दिनों में खौफ पैदा करने के लिए है।’ मारिया के पति एलेक्जेंडर लित्विनेन्को की हत्या साल 2006 में हो गई थी। मारिया कहती हैं, ‘ये विद्रोह पुतिन की सत्ता के बारे में एक खास संदेश देता है। पुतिन ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो किसी भी चीज पर नियंत्रण रख पाते हैं।’
बीबीसी संवाददाता स्टीव रोजनबर्ग कहते हैं कि प्रिगोजिन की बगावत के बाद जब पुतिन ने शनिवार को टेलीविजन पर लोगों को संबोधित किया तो कड़े शब्दों का इस्तेमाल जरूर किया लेकिन वो मजबूत नहीं दिखे।
वो कहते हैं, ‘अपने संदेश में सबसे पहले कहा, ‘देश की पीठ पर छुरा भोंका गया है’। उन्होंने प्रिगोजन को गद्दार कहा। लेकिन शाम होते-होते लूकाशेंको के शांति प्रस्ताव पर प्रिगोजिन सहमत हो गए और रूस ने उनके खिलाफ लगाए सारे आरोप हटा लिए।’ वो कहते हैं, ‘वागनर और क्रेमलिन के बीच क्या समझौता हुआ है उसके बारे में अभी विस्तृत जानकारी नहीं है, इसलिए इसके बारे में कुछ कहना मुश्किल है।’ वो कहते हैं कि हो सकता है कि आने वाले दिनों में इस बारे में और जानकारी सामने आएगी लेकिन ये कहा जा सकता है कि पुतिन इस घटनाक्रम के बाद अधिक ताकतवर नहीं दिख रहे।
आगे पुतिन क्या करेंगे?
पोलैंड के सासंद राडोस्लॉ सिकोर्स्की कहते हैं कि इस विद्रोह ने जहां एक तरफ पुतिन की कमजोरी दिखाई है वहीं उन्हें और ताकतवर भी बना दिया है। वो कहते है, ‘आप सोचिए कि हथियारबंद लड़ाकों का पूरा दस्ता रूस के भीतर सैंकड़ों किलोमीटर आगे तक चला आया लेकिन कहीं किसी ने उन्हें न तो रोकने की कोशिश की और न ही उन्हें किस ने चुनौती दी। ये पुतिन की कमजोरी दिखाता है।’ ‘लेकिन फिर आगे पुतिन शायद उन लोगों को नहीं बख्शेंगे जिन्होंने वागनर को समर्थन दिया और उनका विरोध नहीं किया। वो अब आगे क्या करेंगे ये आने वाला वक्त बताएगा लेकिन उनकी सत्ता अब और निरंकुश और बर्बर हो जाएगी।’
बीबीसी संवाददाता ओल्गा इवशिना कहती हैं कि पुतिन ताकत के इस्तेमाल में यकीन रखते हैं और हो सकता है कि हमेशा की तरह वो अब अधिक ताकत का इस्तेमाल करें। वो कहती हैं कि पुतिन देश के भीतर अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाम लगा सकते हैं, जाने-माने टेलीग्राम चैनलों समेत मीडिया पर अधिक पाबंदी लगा सकते हैं। ये भी हो सकता है कि वो यूक्रेन पर हमले बढ़ा दें। वो कहती हैं, ‘एक बात तो स्पष्ट है, अगर अगले सप्ताह यूक्रेन को कहीं पर युद्ध में कुछ बढ़त मिल जाती है तो रूस इसके लिए सीधे तौर पर वागनर और उसकी बगावत को जिम्मेदार ठहराएगा।’
हालांकि बीबीसी की पूर्वी यूरोप संवाददाता सारा रीन्सफोर्ड कहती हैं कि मामला इतना सीधा नहीं लगता। वो कहती हैं, ‘पहले गद्दारी करने का आरोप लगाना और फिर आपराधिक मामले हटाकर अपने कदम पीछे हटा लेना, ये पुतिन की शख्सियत का हिस्सा नहीं लगता।’ वो कहती हैं कि इस पूरे घटनाक्रम से जुड़े कई सारे सवाल अभी बाकी हैं, जिनका अब तक कोई जवाब नहीं मिल सका है। वो कहती हैं, ‘प्रिगोजिन ऐसे व्यक्ति तो हैं नहीं जो यहां से जाकर ट्रैक्टर चलाने या आलू की खेती करें। रही पुतिन की बात करें तो वो अब और निरंकुश हो जाएंगे और विद्रोह से जुड़े लोगों का दमन करेंगे।’
बेलारूस के साथ डील और प्रिगोजिन का यू-टर्न
लूकाशेंको से बातचीत के बाद रोस्तोव-ऑन-डॉन से मॉस्को की तरफ आने वाले वागनर ने मॉस्को से 200 किलोमीटर पहले ही अपना मार्च रोक दिया। ये लड़ाके रोस्तोव से आगे वोरोनेज पहुंच चुके थे जहां उन्होंने वहां के सैन्य मुख्यालय पर कब्जा करने का दावा किया। लेकिन रविवार को प्रिगोजिन एक कार में रोस्तोव शहर से बाहर जाते नजर आए। रोस्तोव से मॉस्को की तरफ निकलें तो वोरोनेज ठीक आधे रास्ते में पड़ता है। लेकिन सवाल ये है कि वागनर और प्रिगोजिन को इससे क्या हासिल हुआ?
शनिवार शाम को पुतिन के मित्र और बेलारूस के राष्ट्रपति एलेक्जेंडर लूकाशेंको के साथ प्रिगोजिन का समझौता हो गया। क्रेमलिन ने कहा कि प्रिगोजिन बेलारूस जाएंगे और इसके बदले उनके खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों को हटा लिया जाएगा। वहीं उनके लड़ाकों को भी क्षमादान दिया जाएगा।
बीबीसी मॉनिटरिंग के विटाली शेवचेन्को कहते हैं कि प्रिगोजिन के बेलारूस जाने की खबर बस एक सूत्र के हवाले से है। क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने इसके बारे में जानकारी दी थी। लेकिन इस मामले में अब तक प्रिगोजिन ने कोई टिप्पणी नहीं की है। उन्होंने अब तक केवल मार्च बंद करने की ही बात की है।
शेवचेन्को कहते हैं ‘प्रिगोजिन के लिए ये नुकसान का सौदा है। अगर क्रेमलिन की बात सही है तो उन्हें निर्वासन में बेलारूस भेजा गया है। रही बात वागनर ग्रुप की तो क्रेमलिन चाहता है कि उसके लड़ाके सेना के साथ अनुबंध करें और सेना का हिस्सा बन जाएं। यानी ये एक तरह के वागनर का अंत है।’
क्या कह रहे हैं रूसी नागरिक?
प्रिगोजिन की बगावत के बाद पुतिन के राष्ट्र को संबोधित करने के बारे में कहा जा रहा है कि उन्होंने स्थिति को गंभीरता से लिया और उन्हें लगा कि उन्हें खुद जनता के सामने आने की जरूरत है।
रूस की एक जानीमानी विश्लेषक तातियाना स्टैनोवाया ने टेलीग्राम पर लिखा, ‘रूस के संभ्रांत वर्ग के कई लोग निजी तौर पर इसके लिए पुतिन को जि़म्मेदार ठहराएंगे कि मामला इस हद तक बढ़ गया और सरकार की तरफ से सही समय पर कोई उचित प्रतिक्रिया नहीं आई।’ उन्होंने लिखा ‘इसलिए, यह पूरा घटनाक्रम केवल पुतिन के लिए नहीं बल्कि पुतिन के आला अधिकारियों के लिए भी एक का झटका है।’ इस पूरे मामले पर रूसी नागरिकों की प्रतिक्रिया के बारे में कोई भी निष्कर्ष निकालना मुश्किल है। हालांकि मीडिया में वागनर लड़ाकों और टैंकों के साथ आई रूसी नागरिकों की तस्वीरों ने नेताओं को चिंता में जरूर डाल दिया होगा।
वागनर के लड़ाकों ने रोस्तोव शहर पर कब्ज़ा करने का दावा किया था। लेकिन जब वो शहर से बाहर जाने लगे तो कई लोगों ने उनका अभिवादन किया, लोगों ने उनके लिए तालियां बजाई और उनके साथ तस्वीरें लीं। हालांकि ये भी महत्वपूर्ण है कि वागनर के लड़ाकों के शहर में आने के बाद कुछ लोग शनिवार को शहर छोड़ते हुए भी नजर आए थे। (bbc.com/hindi)
-अशोक कुमार पांडेय
अक्सर कई साथी लिखते हैं कि हमें सावरकर, मुखर्जी वगैरह के बारे में नहीं लिखना-बोलना चाहिए।
असल में वे इस गलतफहमी में जीते हैं कि हमारे लिखने-बोलने से सब तय होता है, हम नहीं लिखेंगे-बोलेंगे तो उनकी चर्चा नहीं होगी।
उन्हें सोचना चाहिए कि छह-सात दशक में गोडसे पर किसी ने नहीं लिखा। उसके अंतिम बयान को किताब की शक्ल देकर घर-घर पहुँचाया गया, लेकिन किसी ने जवाब देने की जरूरत महसूस नहीं की। हुआ क्या? उसके तर्क लोग सही मानने लगे।
दुनिया में जानकारी की प्यास मनुष्य का सबसे मूलभूत गुण है। सत्ता-सरकार जिसे महान बताती है सहज रूप से एक हिस्सा उस पर अविश्वास करता है और दूसरे सूत्रों से जानकारी चाहता है।
तो गोडसे या फिर मथाई की पायरेटेड यहाँ तक कि घटिया सामग्रियाँ अलग से डालकर छपी किताबें मैंने अच्छे-ख़ासे प्रगतिशीलों के घर में देखी हैं- तर्क जानकारी में क्या बुराई है!
इसलिए आज जब सत्ता गोडसे या सावरकर को हीरो बना रही है तो पाठक के पास ऑल्टरनेटिव होना चाहिए। मेरा उद्देश्य वही उपलब्ध कराना है।
कभी सोचा भी न था कि YouTube करूँगा, लेकिन वक़्त ऐसा है कि गंद से भरे वीडियो हर तरफ़ फैले हैं। मुझे लगा श्रोताओं के पास अल्टरनेटिव वर्शन होना चाहिए। तो इधर भी सक्रिय हुआ। लोग देख रहे हैं। मैं ऐसे दक्षिणपंथियों से मिला हूँ जिन्होंने मेरी किताबें पढ़ी हैं, वीडियो देखते हैं, सहमत नहीं होते, लेकिन कहीं न कहीं अल्टरनेटिव सूचना जाती तो है। आम लोगों के लिए तो यह काम मुझे बेहद जरूरी लगता है कि दोनों पक्ष उनके सामने हों।
इसलिए मुझे लगता है कि दक्षिणपंथ के हीरोज का सच जाना ही चाहिए लगातार। मुझे यह जरूरी काम लगता है और मैं लगातार करता हूँ।
बाक़ी इतिहास तय करेगा ज्वह आपको कूड़ेदान में डालेगा या फिर दर्ज करेगा यह तो कोई तय नहीं कर सकता आज।
-डॉ. आर.के.पालीवाल
सुबह का अखबार देखते हैं तो पहले पन्ने पर केंद्र या प्रदेश सरकार का कोई न कोई पूरे पन्ने का एक विज्ञापन जरूर होता है जिसमें किसी नई योजना की धमाकेदार शुरुआत की खबर प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री के जरूरत से ज्यादा मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ एक सुदर्शन फोटो रहती है। ऐसा लगता है जैसे विज्ञापन देना सरकार की पहली प्राथमिकता हो गई है। महात्मा गांधी कहते थे कि कहने से पहले हमे करना चाहिए। ऐसा लगता है कि महात्मा गांधी अब विदेश प्रवास में चर्चा करने के लिए ही प्रासंगिक रह गए हैं उनके विचारों को देश में कोई लागू नहीं करना चाहता। सरकारें गांधी विचार के विपरित चलती हैं। वे घोषणाएं करती हैं, वादे करती हैं, नई नई योजनाएं बनाती हैं, विज्ञापन छपवाती हैं लेकिन ठीक से काम नहीं करती।
केवल अखबार पढऩे वाले शहरी लोग सोचते होंगे कि गांव के लोग कितने मजे में हैं क्योंकि सरकारी विज्ञापनों में लहलहाती फसलें, फ़सल काटते हुए कूल्हे मटकाकर गीत नृत्य करती सजी धजी औरतें, नेताओं जैसी भक्क सफेद धोती कुर्ता और पगड़ी पहने छप्पन इंच का सीना दिखाते किसान, गैस सिलेंडर पर खाना पकाती एकता कपूर के सीरियलों की संभ्रांत महिलाओं जैसी ग्रामीण युवतियां देखकर स्वस्थ आंखों वाले लोग भी भ्रमित हो सकते हैं। इन विज्ञापनों से सरकारें जनता को भ्रमित करना चाहती हैं। इस कार्य में उन्हें मीडिया का वह हिस्सा खूब आगे बढ़ कर समर्थन कर रहा है जिसे गोदी मीडिया का नाम दिया गया है।
ग्रामीण विकास कार्यों की हकीकत विज्ञापनों के दृश्यों से धुर विपरीत है। उदाहरण के तौर पर 2018 में शुरु हुई बलराम तालाब और नलकूप योजना पांच साल बाद भी अधूरी हैं। दो लाख़ रुपए का एक कुआं खोदने के लिए एक पंच वर्षीय योजना के पांच साल भी कम पड़ते हैं। इन पांच सालों में और भी दर्जनों नई योजनाएं घोषित हो चुकी हैं। ग्राम विकास योजनाओं का यह हाल प्रदेश की राजधानी भोपाल से सटे सीहोर जिले का है।इस जिले पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री काफ़ी ध्यान देते हैं क्योंकि उनका विधान सभा क्षेत्र इसी जिले से है। यदि ऐसे जिले की स्थिति अच्छी नहीं है तब दूर दराज के पिछड़े जिलों की क्या हालत होगी इसकी सहज कल्पना कर सकते हैं। मध्य प्रदेश अकेला ऐसा राज्य नहीं है। अमूमन हर राज्य की ऐसी ही स्थिति है।
ऐसा लगता है जैसे एक अनार सौ बीमार की कहावत विकास की इन्हीं योजनाओं के लिए बनी है। भ्रष्टाचार का भी यही एक बड़ा कारण है। कुंआ खुदवाने की योजना को ही देखें तो यह कार्य मनरेगा योजना के अंतर्गत किया जाता है। हर ग्राम पंचायत में कई सौ परिवार होते हैं लेकिन एक ग्राम पंचायत में इस योजना का लाभ एक समय में केवल चार या पांच परिवारों को मिलता है। हमने मध्य प्रदेश के सीहोर जिले की एक ग्राम पंचायत को केस स्टडी के लिए चुना तो पता चला कि पिछ्ले पांच सालों में शुरु हुए पांच काम अभी भी अधूरे पड़े हैं।
इस वर्ष ग्राम पंचायत ने फिर से पांच नाम शासन को भेजे हैं जिनमें से कोई भी नाम शासन के स्तर पर स्वीकृत नहीं हुआ है। कहने के लिए पंचायती राज व्यवस्था लागू है लेकिन पंचायत के तमाम कार्य ब्लॉक और जिले के अफसरों की स्वीकृति के बगैर आगे नहीं बढ़ते।सी ई ओ जनपद पंचायत कार्यालय के बाबू गांव वालों से चक्कर कटवाते रहते हैं। उन्हें लिखित में कोई कुछ नही बताता और मौखिक रूप से ऊल जलूल ऑब्जेक्शन बताए जाते हैं।जब तक पुराने काम पूरे नही होते तब तक नए काम स्वीकृत नहीं होते।
गांव वालों का मानना है कि जब तक बाबुओं के पास घूस या विधायक की सिफारिश नहीं पहुंचती तब तक फाइल जरा भी आगे नहीं बढ़ती। ऐसे में अंत्योदय में आने वाले गरीब परिवारों तक सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचना असंभव है। एक तो उनको यही पता नहीं चल पाता कि उनके नाम पर कितनी योजनाएं चल रही हैं। यदि यह जानकारी मिलती है तो उन्हें सरकारी योजना पाने के लिए किन किन दस्तावेजों को जमा करना है यह जानकारी नहीं मिलती। इसी वजह से उन्हें मदद नहीं मिल पाती। योजनाएं भले कम हों जब तक इन योजनाओं का लाभ सब पात्र नागरिकों को नहीं मिलेगा तब तक यही हाल रहेगा।
उर्मिलेश
इन दिनों हिंदी के अनेक कवि, लेखक और प्रोफेसर ‘गीता प्रेस’ को लेकर बहस में उतर पड़े हैं। तात्कालिक कारण है, केंद्र की मौजूदा भाजपा सरकार की तरफ से गीता प्रेस को ‘गांधी शांति पुरस्कार’ देने की घोषणा। पिछले दिनों देश के अनेक बुद्धिजीवियों ने इस फैसले पर अचरज प्रकट किया क्योंकि उन्होंने गीता प्रेस को गाँधी शांति पुरस्कार के लिए उपयुक्त नहीं माना। कुछ राजनीतिक दलों ने भी सरकार के इस फैसले की आलोचना कर दी। फेसबुक पर सक्रिय हिंदी के कुछ साहित्यकार भी इस फैसले के पक्ष या विपक्ष में लिखने लगे।
मुझे इस बात से उतना मतलब नहीं कि केंद्र सरकार या उसके मार्गदर्शन में चलने वाली संस्थाएँ किसको कब सम्मानित कर रही हैं! सरकारें क्या, इस देश में निजी और बहुत प्रतिष्ठित संस्थाएँ भी जिसको चाहती हैं सम्मानित कर देती हैं! मैं तो मीडिया क्षेत्र के अति प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका अवार्ड की लिस्ट आपके सामने रख सकता हूँ, जिसमें टीवीपुरम् के उन तमाम चेहरों के नाम होंगे, जो पत्रकारिता के किसी भी पैमाने से
ऐसे सम्मान के लिए सर्वथा अयोग्य हैं। सच तो यह है कि इनमें कई तो पत्रकार न होकर ‘किसी न किसी बड़ी शक्ति’ के भोंपू जैसे हैं। इसी तरह सरकारी और साहित्य अकादमियों के सम्मानों की सूची में भी ऐसी असंख्य विसंगतियाँ देखी जा सकती हैं। इसलिए गीता प्रेस को मोदी सरकार ने सम्मानित किया; उसने अपने एजेंडे के तहत किया। उससे हमारी भी असहमति है पर हम कुछ कर नहीं सकते। लेकिन ‘गीता प्रेस’ के बारे में अपनी समझ तो रख ही सकते हैं।
इधर हिंदी के बहुत सारे साहित्यकार अचानक ‘गीता प्रेस’ के बारे में अपनी रंग-बिरंगी राय के साथ सामने आ रहे हैं। वह मेरे जैसे एक अदना हिंदी पत्रकार के कहने पर तो अपनी राय बदलेंगे नहीं! ऐसे तमाम हिंदी साहित्यकारों, प्रोफ़ेसरों और कवियों को एक सुझाव देना चाहता हूँ। लेखक-पत्रकार अक्षय मुकुल (Akshay Mukul) ने कई वर्षों के रिसर्च के बाद ‘गीता प्रेस’ पर एक विशद ग्रंथ लिखा है। आप उसे ज़रूर पढें। पढऩे में आनंद भी आयेगा और शायद आपको राय बदलने की जरूरत महसूस होगी। अगर महसूस नहीं हुई तो कोई बात नहीं!
यह महज़ संयोग नहीं कि ‘गीता प्रेस’ के संस्थापकों ने और उसके वैचारिक साहित्य में हर जगह वर्णाश्रम धर्म की ब्राह्मणी वर्ण-व्यवस्था को जायज ठहराया जाता रहा है। हम सब जानते ही हैं कि ब्राह्मण धर्म या वर्णाश्रम धर्म को ही बहुत बाद के दिनों में हिन्दू धर्म कहा जाने लगा। हिन्दू अपेक्षाकृत नया शब्द है और वह भी विदेशियों के सौजन्य से मिला है। इस धर्म के गंभीर अध्ययन के बाद डॉ. अम्बेडकर ने माना था कि ‘ इसका मूलाधार वर्ण व्यवस्था यानी बाद के दिनों में उभरी जातिगत विभाजन की व्यवस्था है! हिन्दू समाज जैसी कोई चीज नहीं है, हिन्दू के नाम पर जो कुछ है, वह जातियों का संग्रहण या झुंड है’। (Annihilation of Caste By Dr B R AMbedkar, page-19)।
गीता प्रेस या उसकी वैचारिकी का सम्बन्ध कथित हिन्दुत्व या हिन्दूवाद से है या नहीं, उसके हिन्दू धर्म-प्रचार का कोई वर्णाश्रमी, वर्णवादी, अंधविश्वासी या सांप्रदायिक एंगल है या नहीं; अक्षय की किताब में ऐसे तमाम सवालों के जवाब मिलते हैं।
पढिय़े और फिर जरूर लिखिये। ‘गीता प्रेस’ का पक्ष लेने के लिए या अक्षय के रिसर्च को खारिज करने के लिए भी उनकी किताब पढऩा शायद उचित होगा। हिंदी में तो किसी ने ऐसा काम किया नहीं तो अंग्रेज़ी में हुए काम पर नजऱ डालने में क्या दिक्कत है!
शंभूनाथ शुक्ल
शनिवार, दो मई को रात 11 बजे दूरदर्शन पर 25 मार्च से निरंतर चल रहा ‘रामायण’ सीरियल समाप्त हो गया, जबकि लॉक-डाउन दो हफ्ते के लिए और बढ़ा दिया गया है। अब इस दो सप्ताह में रामायण जैसा कोई सीरियल दूरदर्शन के पास नहीं है। इसका एक दृश्य है, राजा राम के दरबार की धरती अचानक फटी, और उससे एक स्वर्ण-खचित सिंहासन पर बैठी अधेड़ उम्र की धरती माता प्रकट हुईं।
उन्होंने सीता को अपने अंक में लिया और पुन: धरती में समा गईं। राजा राम अपने सिंहासन से उतर कर जब तक आते, सीता विलुप्त हो चुकी थीं। फिर क्रोध करने से क्या लाभ! अपनी परीक्षा देते-देते थक चुकी सीता के पास और कोई रास्ता भी तो नहीं था। मुझे नहीं पता, यह कथा कितनी सच है, कितनी झूठ! पर चूँकि साहित्य समाज का ही दर्पण होता है इसलिए यह तो मानना ही पड़ेगा कि उत्तर के हिंदुस्तान में कोई राजा राम हुए और उन्होंने तब तक स्वतंत्र स्त्री सत्ता को बंधक बना लिया। इसके लिए कारण भले ही लोकापवाद को बताया गया, लेकिन लोक की अराजकता पर काबू पाना एक राजा का दायित्व भी तो है। राजा राम ने वह दायित्व तो निभाया नहीं, उल्टे पग-पग पर सीता की परीक्षा लेते रहे। बहुत वर्षों बाद वाल्मीकि रचित इस राम कथा के अनेक भाष्य हुए तो हर लेखक ने अपने समय के मूल्यों के आधार पर इस कथा का वर्णन किया।
आठवीं सदी में कंब रामायण तमिल में लिखी गई, जिसमें रावण सीता को पृथ्वी समेत उठा लेता है। क्योंकि सीता को स्पर्श कर उनका सतीत्व भंग नहीं करना चाहता था। तेरहवीं शताब्दी में रंगनाथ रामायण तेलुगु में लिखी गई। इसमें राम सेतु निर्माण में गिलहरी की सहायता का वर्णन है और सुलोचना का सती प्रसंग भी। 14 वीं शताब्दी में कणश ने मलयालम में रामायण लिखी। यह वाल्मीकि रामायण का शब्दश: अनुवाद है। कन्नड़ भाषा की रामायण बहुत पुरानी है, इसे जैन मतावलंबियों ने लिखा था। अंगद द्वारा अपनी पूँछ से रावण के दरबार में सिंहासन का प्रसंग ‘तोखे रामायण’ से लिया गया, जिसे वैष्णवों में मान्यता है। कश्मीरी रामायण शिव-पार्वती संवाद के रूप में है। इसमें पहली बार राम को अवतारी बताया गया। असमिया भाषा में ‘माधव केदली’ में राजा दशरथ की 700 रानियाँ बताई गई हैं। इसमें कृतिवास की बांग्ला रामायण का पुट है। इसके अनुसार अशोक वाटिका विध्वंस के पूर्व हनुमान रावण से ब्राह्मण वेश में मिलते हैं। कृतिवास रामायण में सीता को पूर्व जन्म में अप्सरा बताया गया है। बंगाल में अद्भुत रामायण भी लोकप्रिय है, जिसमें सीता देवी स्वरूप में है, और वह हजार सिर वाले रावण का संहार करती है। उडिय़ा रामायण को सिद्धेश्वर पारिडा उर्फ सारला दास ने लिखा है। इसमें बाली और सुग्रीव को अहिल्या के पुत्र बताया गया है।
हिंदी में तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखी है, और इसमें सीता वनवास प्रसंग हटा दिया। अग्नि परीक्षा पर वे लज्जित हैं, इसलिए इतना कह कर चुप हो जाते हैं, कि असली सीता तो पहले ही अग्निदेव के संरक्षण में चली गई थीं। जिस सीता का रावण ने हरण किया, वे परछाईं मात्र थीं।
उत्तर कांड में में वे सीता वनवास का उल्लेख नहीं करते, बस इतना कह कर चुप साध जाते हैं, कि ‘दुई सुत सुंदर सीता जाये, लव-कुश वेद-पुराण पढ़ाये!’ मानस में अध्यात्म रामायण की छाप है। सूरसागर में सूरदास ने वाल्मीकि रामायण के मार्मिक प्रसंगों का वर्णन किया है। उन्होंने 150 श्लोक लिए हैं। पृथ्वीराज रासो के दशावतार में 100 छन्द वाल्मीकि रामायण के हैं।
बीसवीं सदी में पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने रामचरित चिंतामणि लिखी। मैथिलीशरण गुप्त ने साकेत महाकाव्य लिखा। ‘उर्मिला’ भी खूब चर्चित हुआ। इनमें आधुनिक काल में रामकथा की प्रासंगिकता जाँची गई। केदारनाथ मिश्र ने ‘कैकेयी’ काव्य लिखा। इस तरह इन कवियों ने रामायण के उपेक्षित पात्रों को सम्मान दिया। गोविंद रामायण के अनुसार इंद्रजीत जब राम-लक्ष्मण को नागपाश में बांध लेता तो सीता ही उन्हें आकर छुड़ाती हैं। और अपने सतीत्व के प्रभाव से समस्त वानरों को जीवित करती हैं। मराठी की एकनाथ रामायण में हनुमान मंदोदरी के केश पकड़ कर खींचते हैं। इसमें सीता को अग्निजा बताया गया है और मंथरा की [पिटाई का उल्लेख है। गुजराती में गिरधरदास की रामायण है, जिसे 13वीं सदी में लिखा गया। उर्दू में चकबस्त ने लिखा है।
इसके अलावा तिब्बती रामायण है और तुर्की में खोमानी रामायण है। चीन में यह कथा भारत से गई। इंडोनेशिया, मलेशिया में भी रामायणें हैं। थाईलैंड, कम्बोडिया की रामायण वाल्मीकि जैसी है। श्रीलंका की हिकायत महाराज रामायण सिंहली भाषा में है। पंद्रहवीं शताब्दी के बाद राम कथा योरोप गई और वहाँ भी इसके कई अनुवाद मिलते हैं और भिन्न-भिन्न क्षेपक भी।
रामानन्द सागर ने अपने टीवी सीरियल रामायण में और भी फेरबदल किए। उन्होंने राम जी को विष्णु रूप में स्वर्ग जाने को दिखाया है। सीरियल के राम सुदूर दक्षिण के केरल राज्य में पूजित विष्णु की पद्मनाभ मुद्रा में बैकुंठ लोक को जाते हैं। जबकि किसी भी रामायण में यह प्रसंग नहीं है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार लक्ष्मण को त्यागने के बाद राम भी जल समाधि ले लेते हैं। और उनके पीछे-पीछे उनके शेष भाई भी सरयू में समा जाते हैं।
दूसरी किस्त
कई प्रमुख टिप्पणीकारों ने संवैधानिक भाषा की बारीकियों में जाकर इसके असली मकसद को समझने का दावा किया है। अनुच्छेद नहीं कहता कि राज्य समान नागरिक संहिता बनाएगा। कहता है कि उसे हासिल करने का प्रयास करेगा। सिविल कोड के विरोधियों को समझाइष देना, विमर्ष करना, अनिच्छुक समुदायोंं में स्त्रियों और पुरुषों के बीच सहमति का माहौल तैयार करना, संविधान में वर्णित राष्ट्रीय आदर्षों को क्षति पहुंचाये बिना अनुकूलता का वातावरण तैयार करना आदि भी इस लचीली परिभाषा के तहत हैं। हिन्दुत्व के समर्थकों में लेकिन इन्सानी सम्भावनाओं को दरकिनार कर उत्साह, आग्रह और उन्माद सब कुछ है। संविधान की समझ का सयानापन ही लोकतंत्र का प्राणतत्व होता है।
अगस्त 1972 में ‘मदरलैंड’ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक गुरु गोलवलकर ने कहा था ऐसा नहीं है कि उन्हें समान सिविल कोड के प्रति कोई आपत्ति है। लेकिन यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई बात इसीलिए मंजूर नहीं हो सकती कि उसका उल्लेख संविधान में किया गया है। रामराज्य परिषद के संस्थापक करपात्रीजी ने भी नेहरू के नेतृत्व वाले हिन्दू कोड बिल की मुखालफत करते कहा था कि किसी समुदाय की विवाह आदि प्रथाओं में कानूनी हस्तक्षेप मुनासिब नहीं है। जो हिन्दू धर्मशास्त्रों के लिए तथा मुसलमान कुरान शरीफ के लिए वफादार नहीं हैं, संविधान के प्रति भी वफादार नहीं हो सकते।
संविधान सभा में यह तो हुआ है कि पहले अम्बेडकर ने मुस्लिम सदस्यों को समझाने की कोशिश की कि उन्हें नागरिक संहिता के सवाल को लेकर संदेह और अविश्वास में डूबना नहीं चाहिए। अंगरेजों के जमाने में भी कई नागरिक अधिकारों को हिन्दू मुसलमान या अन्य धर्म की परवाह किए बिना सभी के लिए समतल कर दिया गया है। इसके भी अलावा भारत के कुछ इलाकों में मसलन पश्चिमोत्तर सीमा प्रदेश और मलाबार वगैरह में कई हिन्दू विधियां मुसलमानों पर स्वेच्छा से लागू रही हैं। इसलिए इस मामले में लचीला रुख अपनाने की जरूरत होगी। विस्तार से अपनी समाज-दार्शनिक उपपत्ति गढ़ते अम्बेडकर ने आखिर में एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी। उसका आज के घटनाक्रम में निर्णायक महत्व होना चाहिए। अम्बेडकर ने कहा मैं मुसलमान सदस्यों को आश्वासन देता हूं। उन्होंने ‘आश्वासन’ शब्द का इस्तेमाल किया था। अम्बेडकर ने कहा कि यह कहीं नहीं लिखा है कि राज्य समान नागरिक संहिता लागू करेगा और वह भी सभी नागरिकों पर क्योंकि वे नागरिक हैं। उन्होंने कहा कि इस बात की संभावनाा है कि भविष्य की संसद शुरू में नागरिक संहिता के लिए ऐसा प्रावधान बनाए कि उसका लागू किया जाना पूरी तौर पर स्वैच्छिक होगा। इसके लिए संसद मुनासिब चिंतन कर सकती है। यह कोई अभिनव प्रयोग नहीं होगा। 1937 में शरिया अधिनियम को लागू करने के वक्त भी यही प्रक्रिया अपनाई गई थी कि जो मुसलमान चाहें उनके लिए ही शरिया कानून लागू किया जा सकता है। समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए भी संसद यही कर सकती है। ताकि मुस्लिम सांसदों के उस संदेह को दूर किया जा सके कि नागरिक संहिता का कानून उन पर जबरिया लादा जाएगा। मुस्लिम सदस्यों ने कई संशोधन इसी आशय के पेश किए थे कि उनके समुदाय की मर्जी के बिना नागरिक संहिता लागू नहीं की जाए। यह इतिहास का सच है कि अपने द्वारा दिए गए आश्वासनों के कारण डॉ. अम्बेडकर के हस्तक्षेप से ही मुस्लिम सदस्यों के संशोधन अस्वीकार कर दिए गए और नागरिक संहिता का मौजूदा ड्राफ्ट अनुच्छेद 44 के तहत संवैधानिक कानून बन गया।
‘समान नागरिक संहिता’ लागू करने का अनुच्छेद 44 हैरत में है कि यह आधा अधूरा उल्लेख राज्यसत्ता के लिए महत्वपूर्ण चुनौती बन गया है। संविधान जिन कई वायदों को साधारण बहुमत द्वारा लागू करने के निर्देश देता है। उन्हें तक पूरा करने की सरकार की नीयत नहीं है। शायद उसे फुर्सत भी नहीं है। जो वायदा पेट से नहीं, जेहन और परम्परा से उत्पन्न होकर उल्लेखित है, उसे लागू करने के लिए धरती आसमान एक किए जा रहे हैं। दो तिहाई बहुमत के बावजूद ‘समान नागरिक संहिता’ के मसले को आधा प्रकट, आधा गुप्त एजेंडा पर रखने के बाद अब प्रकट किया जा रहा है। प्रावधान को संविधान निर्माताओं का महत्वपूर्ण स्वप्न प्रचारित किया जा रहा है। देश को जानना जरूरी है कि संविधान की अल्पसंख्यक सलाहकार उपसमिति ने भी यह सिफारिश की थी कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा अल्पसंख्यकों के विवेक पर छोड़ दिया जाये। उपसमिति में अन्य लोगों के अलावा डॉ. अंबेडकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी थे। अंबेडकर के अनुयायी तो अपने पूर्वज के वचनों के प्रति प्रतिबद्ध हैं लेकिन डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अपने उत्तराधिकारियों के आचरण के कारण बुरी हालत है।
सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों में मुद्दा न्यायाधीशों की अनाहूत टिप्पणियों के कारण जनचर्चा में तीक्ष्ण हुआ। शाहबानो के प्रसिद्ध मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने पति के विरुद्ध पत्नी को भरणपोषण आदि का अधिकार वैध तथा लागू करार दिया। चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने अफसोस किया कि यह अनुच्छेद तो मृत प्रावधान हो गया है। सरकार ने उस सिलसिले में अब तक कुछ नहीं किया। यह अहसास लेकिन कराया नहीं गया कि इस संबंध में मुस्लिम समुदाय को पहल करनी है। वैसे दायित्व तो सरकार और संसद का है। बाद में सरला मुदगल के दूसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ज़्यादा मुखर होकर समान सिविल कोड के विधायन की जरूरत महसूस की। जस्टिस कुलदीप सिंह ने यहां तक कह दिया कि सिक्ख, बौद्ध, जैन और हिन्दुओं ने राष्ट्रीय एकता के लिए अपने पारंपरिक कानूनों में बदलाव मंज़ूर कर लिया है, जबकि कुछ समुदायों में अब भी गहरा ऐतराज है। कई हाई कोर्ट में भी गहराई में उतरे बिना संहिता समर्थक सिफारिशेें तो की हैं। कुछ पश्चिमी विचारकों ने सुप्रीम कोर्ट के मजहब आधारित वर्गीकरण की कड़ी आलोचना भी की है। न्यायमूर्ति सहाय ने भी सुप्रीम कोर्ट की इसी पीठ में बैठकर समान सिविल कोड की पैरवी की।
सांस्कृतिक समाज की रचना में धर्म के आग्रहों को दरकिनार कर राजनीतिक नस्ल के विधायन के संभावित परिणाम केवल सुप्रीम कोर्ट की सलाह के सहारे बूझे नहीं जा सकते। बहुलधार्मिक और बहुलवादी संस्कृति का विश्व में भारत एक विरल उदाहरण है। हालांकि कई प्रगतिशील मुस्लिम विचारकोंं ने भी पारिवारिक कानूनों के बदलाव की बात की है। इस सवाल की तह में सांप छछूंदर वाला मुहावरा बहुत आसानी से दाखिल दफ्तर होने वाला नहीं है। वक्त आ गया है जब बाबा साहब के आश्वासनों को ताजा सन्दर्भ में वस्तुपरक ढंग से परीक्षित किया जाए। किसी भी पक्ष या समाज को संविधान की निष्पक्ष व्याख्याओं की हेठी नहीं करनी चाहिए। यह अब तो है कि देश हर धर्म से बड़ा है।
-डॉ राकेश पाठक
गांधी हत्याकांड में गिरफ्तार हुए थे गोयनका और पोद्दार।
1) गीता प्रेस के संस्थापक जयदयाल गोयनका और हनुमान प्रसाद पोद्दार वैचारिक रूप से दलित और स्त्री विरोधी थे।
जब महात्मा गांधी दलितों को मंदिरों में प्रवेश के लिए संघर्ष कर रहे थे तब 'कल्याण' पत्रिका में लिखा जाता था कि अछूत और नीची जाति में जन्म लेना पिछले जन्म के कर्मों का फल है।
शुरू में गांधी जी और पोद्दार के संबंध अच्छे थे लेकिन दलितों पर पोद्दार के विचारों से उनके बीच दूरी हो गई।
2) गोयनका और पोद्दार गांधी जी की हत्या के बाद संदेह के आधार पर गिरफ्तार हुए थे।
गांधी जी की हत्या के बाद फरवरी और मार्च 1948 के कल्याण के अंकों में गांधी जी की हत्या के बारे में एक शब्द नहीं छपा था।
3)घनश्याम दास बिड़ला गीता प्रेस की मदद करते थे लेकिन गांधी हत्याकांड के बाद बिड़ला ने इन लोगों की मदद करना बंद कर दिया। बिड़ला ने लिखा कि ये दोनों सनातन धर्म नहीं शैतान धर्म का प्रचार कर रहे हैं।
गांधी हत्याकांड के बाद गिरफ्तार गुरु गोलवलकर जब रिहा हुए तो एक आमसभा में पोद्दार भी उनके साथ थे।
4) गीता प्रेस ने हिंदू कोड बिल का जमकर विरोध किया। डॉ आंबेडकर ने खिलाफ़ अभियान चलाया और उसने इस्तीफे की मांग की। गीता प्रेस महिलाओं को अधिकार देने के कानून का विरोधी था इसलिए अंबेडकर के विरोध में कल्याण ने अभियान चला रखा था।
5) सनातन धर्म के प्रचार के नाम पर हिन्दू राष्ट्र के प्रचार में लगा रहा कल्याण और गीता प्रेस ने अंधविश्वास और पोंगा पंथ को बढ़ाने वाला साहित्य छाप छाप कर घर घर पहुंचाया।
गरुण पुराण जैसे ग्रंथ को घर घर में रखने के लिए अभियान चलाया।
ऐसे संस्थान गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा की गई है।
-रमेश अनुपम
मणिपुर इस देश का ही एक खूबसूरत हिस्सा है। पूर्वोत्तर भारत का एक अभिन्न अंग। सेवन सिस्टर्स के नाम से जाना जाने वाले सात बहनों में से एक मणिपुर पिछले महीने मई की 3 तारीख से सुलग रहा है जिसके चलते अब तक लगभग 100 से भी ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और 35000 से भी ज्यादा लोग वहां विस्थापित हो चुके हैं, जिसमे बच्चों से लेकर वृद्ध तक शामिल हैं।
कुल 28 लाख 56 हजार की आबादी वाले इस शांत और सुरम्य राज्य मणिपुर में 20 अप्रैल को हाईकोर्ट के कार्यवाहक न्यायाधीश एम.वी. मुरलीधरन के उस फैसले ने जिसमें राज्य के मैतेई समुदाय के लोगों को जनजाति समुदाय में शामिल किए जाने की मांग को राज्य सरकार द्वारा 4 सप्ताह के भीतर विचार करने के लिए कहा गया था, पूरे राज्य को एक खतरनाक दावानल में झोंक दिया है।
मैरी कॉम की चीखें और आर्त्तनाद हमें नहीं सुनाई दे रही है जिसमें वे देश के प्रधानमंत्री से गुहार लगा रही हैं कि मेरा मणिपुर जल रहा है प्रधानमंत्री जी, हालात अच्छे नहीं है, मेरे इस राज्य को बचा लीजिए।
रतन थियाम का कोरस रेपिटरेरी भी रो रहा है पर इसे सुनने की फुर्सत किसे है।
मणिपुर पिछले डेढ़ महीने से कर्फ्यू की गिरफ्त में है, उपद्रवियों को देखते ही गोली मार दिए जाने का आदेश दिया जा चुका है, इंटरनेट सेवाएं वहां अनिश्चित काल के लिए बंद कर दी गई है। हालात बेहद चिंताजनक और तकलीफदेह है।
मणिपुर राज्य में कुकी और नगा दोनों ही प्रमुख जनजातियां पहाड़ों में निवास करती हैं। पर्वतीय इलाकों में रहने वाली ये जनजातियां राज्य के 90 प्रतिशत हिस्से में बसी हुई हैं, आबादी के हिसाब से उनकी आबादी राज्य में 40 प्रतिशत है। ये मैतेई समुदाय की तुलना में कम पढ़े-लिखे हैं। सत्ता पर भी उनका वर्चस्व और प्रभाव मैतेई की तुलना में काफी कम है।
सन 1972 में पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त करने वाले मणिपुर राज्य में कुल 60 विधानसभा सीटें हैं। जिनमें से 40 सीटें मैतेई समुदाय से आने वाले विधायकों की है। मैतेई एक प्रभुता संपन्न, पढ़ा-लिखा और राज्य में अपना एक अलग रसूख रखने वाला समुदाय माना जाता है।
पिछले कुछ वर्षों से मैतेई समुदाय के लोग कुकी और नगा जनजाति की तरह उन्हें भी जनजाति समूह में शामिल किए जाने की मांग करते आ रहे हैं।
मणिपुर में अभी तक कुकी और नगा जनजातियों की जमीन कोई गैर जनजाति का व्यक्ति नहीं खरीद सकता है। मैतेई भी उनकी जमीन नहीं खरीद सकते हैं। कुकी और नगा जनजाति जो मैतेई की तुलना में काफी पिछड़ी हुई मानी जाती हैं उन्हें यह डर है कि मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा मिल जाने से वे इस आरक्षण का फायदा उठाकर बहुत आगे पहुंच जायेंगे, उनकी जमीन भी सस्ते दामों में खरीदकर और अधिक संपन्न हो जायेंगे जबकि कुकी और नगा जनजाति वैसे ही पिछड़े हुए गरीब हैं।
राज्य में इस समय भाजपा की डबल इंजिन वाली सरकार कायम है। एन. बीरेन सिंह इस राज्य के मुख्यमंत्री हैं जो स्वयं मैतेई समुदाय से आते हैं। देश के गृहमंत्री ने मणिपुर जाकर यह ऐलान किया था कि राज्य में पंद्रह दिनों के भीतर स्थिति सामान्य हो जायेगी पर इन डेढ़ महीनों में भी मणिपुर में स्थिति सामान्य नहीं हुई है बल्कि बेहद डरावनी और असामान्य बनी हुई हैं।
मणिपुर राज्य के मानवाधिकार कार्यकर्ता के.ओनिल का मानना है कि 'राज्य में जारी हिंसा से निपटने में केंद्र सरकार कोई गंभीरता नहीं दिखा रही है।'
यही हाल राज्य के मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह का भी है जो राज्य में भाजपा की कमान संभाले हुए हैं।
दुखद यह है कि बंदूकों के साए में जल रहे मणिपुर राज्य की, वहां के नागरिकों की चिंता हमें उस तरह से नहीं हो रही है, जिस तरह से होनी चाहिए थी।
हम सब भाजपा के बिछाए हुए उस बिसात में ही फंसकर रह गए हैं जिसका नाम है आदिपुरूष। वे तो चाहते ही यहीं हैं कि हम मणिपुर को भूलकर आदिपुरुष में व्यस्त हो जाएं।
अच्छा है 'तेल तेरे बाप का, कपड़ा तेरे बाप का,जलेगी भी तेरे बाप की ही में मस्त रहें, व्यस्त रहें। आगे अभी कंगना राणावत की एक फिल्म भी जबरदस्त धमाका करने वाली है, उसकी भी तैयारी में लग जाएं।
आखिरकार मणिपुर की चिंता भी कोई चिंता है। इस पूर्वोत्तर राज्य की चिंता भला हम क्यों करें।
जे.एन.यू के होनहार छात्र उमर खालिद बिना किसी ट्रायल के 3 सालों से भी ज्यादा समय से जेल में बंद है, लेकिन इससे भी हमें क्या लेना देना है।
हम सब बुद्धिजीवी हैं, पत्रकार हैं लेखक हैं, समाजसेवी हैं, जागरूक नागरिक हैं, लेकिन हम ही सबसे ज्यादा अंधे, गूंगे और बहरे लोग हैं। क्या किया जाए।
तो जय श्रीराम कहकर विदा लिया जाए।
पहली किस्त
2024 का लोकसभा चुनाव देश में कई ताजातरीन चुनौतियां, मुसीबतेंं और गुंजाइशें लेकर अब तो आ ही रहा है। मौजूदा सत्तारूढ़ भाजपा जमावड़े को कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में बहुत मशक्कत के बाद भी अप्रत्याशित पटखनी खाने के बाद नए सिरे से अपनी राजनीतिक मुहिम को संवारने और पैना करने का अवसर, उत्साह और जतन हाथ लगा है। एक अरसे से संघ-भाजपा परिवार मुसलमानों को देश के जीवन में हाशिए पर डालने के लिए लगातार और पहले से कहीं अधिक हमलावर होता दिख रहा है।
यह तो है कि बेरोजगारी, महंगाई, अडानी-लूट, पेगासस जासूसी, कश्मीर की अवनति की हालत, पब्लिक सेक्टर का लगातार निजीकरण करते जाना, अरुणाचल में चीन का घुसे रहने पर भ्रम पैदा करना, पुलवामा में सैनिकों को जबरिया शहीद किया जाना, पहले किसानों, फिर बाद में पहलवानों के आंदालनों को पुलिसिया दमखम पर कुचलना, कर्नाटक चुनाव में दस दिन तक प्रधानमंत्री द्वारा रामभक्त बजरंगबली को एक तरह से स्टार केंपेनर बनाना तथा और कई असफलताओं के कारण 2024 का चुनाव बड़ी चुनौती होना लगा होगा। हर राजनीतिक बीमारी का इलाज एक रामबाण दवा से होता रहता है। जब कोई हिकमत काम नहीं आए। तब मुसलमान के अस्तित्व पर ही हमला करना एक कारगर तरीका है जिससे अनुकूल नतीजे मिलते रहे हैं। 2024 के चुनाव में भी मुसलमानों के कंधों पर रखकर निजाम की बंदूक चलाई जा सकती है। निशाना तमाम विपक्षी पार्टियां होंगी और बड़े पैमाने पर भारत के मतदाता।
इसी बीच कुछ अरसे से उत्तराखण्ड की भाजपा सरकार के मार्फत समान नागरिक संहिता लागू करने के ऐलान का रिहर्सल चलता रहता है। राजनीतिक प्रेक्षकों का अनुमान यह है कि यह एक नेट प्रैक्टिस है। मैच तो 2024 के चुनाव के पहले जरूर खेला जाएगा। उम्मीद के मुताबिक सबसे पहले उत्तराखण्ड की पुष्कर धामी सरकार ने समान नागरिक संहिता की चौहद्दी तैयार कर उसे विधि विशेषज्ञों की बहस और राय के सुपुर्द कर दिया है। केन्द्रीय विधि आयोग ने भी अपनी कसरत शुरू कर दी और एक माह के अंदर जनता की राय मांगी है और केन्द्र सरकार की भी। समान नागरिक संहिता को लेकर कई संदर्भ बिन्दु हैं।
अव्वल तो यह कि समान नागरिक संहिता अपने फैलाव और कसावट में क्या कुछ है। दूसरा यह कि सभी धर्मों के मानने वालों के अपने सामाजिक और पारिवारिक दस्तूर हैं। उन पर इस संहिता का क्या असर होगा? यह भी कि संविधान के अनुच्छेद 25 में अपने धर्म को मानने और उसका प्रचार करने के अधिकार हैं। वे क्या समान नागरिक संहिता के अनुच्छेद 44 के प्रावधान से उसी तरह टकरा सकते हैं जैसे बिपरजॉय समुद्री तूफान गुजरात और राजस्थान की धरती से टकराया। अन्य कई आनुशंगिक सवाल नेपथ्य में कुलबुला या फुसफुसा रहे हैं। एक बुनियादी सवाल की ओर लेकिन लोगों का ध्यान जा नहीं रहा है।
भारत का संविधान व्याख्याओं के तेवर के लिहाज से बांझ नहीं उर्वर खेत है। कोई संविधान कभी भी बंद गली का आखिरी मकान नहीं होता। वह संभावनाओं का पिटारा होता है। तभी तो वह किसी देश की महत्वाकांक्षाओं और चुनौतियोंं को सहेजते जनहित में आगे बढ़ता और संरक्षक की भूमिका अदा करता है। संविधान के इस चरित्र-लक्षण के संदर्भ में एक सैद्धांतिक सवाल भारत के सुप्रीम कोर्ट से भी पिछले सत्तर वर्षों में टकराता रहा है। संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष, संविधान के ढांचे के मुख्य आर्किटेक्ट और संविधान सभा की बहस के मुख्य नियंता और पैरोकार डॉ. भीमराव अम्बेडकर की अंतिम व्याख्या, हिदायत या आश्वासन आज भी इतिहास से सार्थक और भविष्यमूलक जिरह मांगते हैं। कई मौकों पर वकीलों और जजों की आपसी समझ में टकराव होने पर अम्बेडकर से ही रेफरी वाली सीटी बजाने को गुजारिश की जाती है। समान नागरिक संहिता के मामले में भी इस संदर्भ की उपेक्षा नहीं की जा सकती। अनुच्छेद 25 कहता तो है ‘‘(1) लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंत:करण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा।’’
हुआ यह था कि अल्पसंख्यक उपसमिति, सलाहकार समिति और प्रारूप समिति की कार्यवाहियों से छनकर समान नागरिक संहिता का प्रस्तावित प्रावधान संविधान सभा में बहस के वास्ते आया। तब हिन्दुत्व तथा राष्ट्रवाद की अपनी खास आग्रही समझ के चलते हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, रामराज्य परिषद, विश्व हिन्दू परिषद, (पहले जनसंघ) और अब भाजपा के व्यापक राजनीतिक परिवार ने कुछ हिचक के साथ समान नागरिक संहिता का समर्थन पहले किया था। अनुच्छेद 23 नवंबर 1948 को अनुच्छेद 44 के रूप में यही कहा गया है:-‘‘राज्य भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।’’
यह मासूम वाक्य छह दशकों से अमूर्त, वायवी और अनुर्वर बना हुआ है। संविधान सभा में बहस के वक्त आश्चर्यजनक रूप से किसी हिन्दू सदस्य ने इसका विरोध नहीं किया। ईसाई, पारसी, सिक्ख और बौद्ध सदस्य भी मौन रहे। पांच मुसलमान सदस्यों महबूब अली बेग, बी. पोकर साहब, मोहम्मद इस्माइल, नजीरूद्दीन अहमद तथा हुसैन इमाम ने ही संभावित सशर्त विरोध किया। उनका तर्क था कि विवाह, तलाक तथा उत्तराधिकार आदि के निजी मामले इस्लामी कानून धार्मिक ग्रंथों से उपजे हैं। उन्हें संसदीय विधायन के जरिए दूसरे धार्मिक समुदायों के कानूनों से समायोजित या एकरूप कर संशोधित नहीं किया जा सकता। बहुमत के डंडे को अल्पसंख्यकों पर चलाने की तानाशाही को लोकतंत्र नहीं कहते।
इसके बरक्स मुख्यत: के.एम. मुंशी, अलादि कृष्णास्वामी अय्यर और डॉक्टर अंबेडकर ने समझाने की कोशिश की कि समान नागरिक संहिता एक नवोदित, स्वतंत्र तथा धर्मनिरपेक्ष देष के लिए पूरी तौर पर जरूरी है। अंगरेजों के शासनकाल में हिन्दुओं तथा मुसलमानों के कई निजी कानूनों में हस्तक्षेप कर सामाजिक व्यवहार के लिए समान सिविल कोड बना ही दिए गए हैं। कई मुस्लिम देशों में भी समान सिविल कोड है। ऐसे देशों में भी है जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हैं। समान संहिता बनने से सबसे अधिक फायदा मुस्लिम महिलाओं को होगा। उन्हें विवाह, तलाक और उत्तराधिकार के प्रचलित कानूनों के कारण हिन्दू तथा ईसाई महिलाओं आदि के बराबर अधिकार भी हासिल नहीं हैं।
आज भी संविधान सभा की मंशा को न्यायिक तौर पर समझने के लिए सुप्रीम कोर्ट अधिकतर सरकार के विधि मंत्री तथा प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अंबेडकर की समझाइश पर निर्भर होता है। अंबेडकर ने चुटीली भाषा में कहा था कि निजी कानूनों के इलाके में ही समान कोड पर अब तक हमला नहीं किया गया है। उन्होंने ‘हमला’ शब्द का जानबूझकर इस्तेमाल किया था। अंबेडकर ने ऐतिहासिक आश्वासन दिया कि समान सिविल कोड बनेगा। तब भी उसे सब लोगों पर जबरिया नहीं लादा जाएगा। उन्होंने भविष्य की संसद से उम्मीद की थी कि वह ऐसे समुदायों के लिए ही समान सिविल कोड बनाएगी जो घोषणा करें कि वह उन पर लागू किया जाए। जाहिर है मोदी सरकार अंबेडकर की इस समझाईश को पूरा करने में जाहिर है असमर्थता महसूस करेगी। अंबेडकर के इस सुझाव को अमल में लाने में एक व्यावहारिक दिक्कत भी है। यदि एक स्त्री और पुरुष का जोड़ा विवाह के पहले या बाद में समान सिविल कोड को मानने या नहीं मानने के संबंध में अलग अलग राय व्यक्त करे, तब क्या होगा। (बाकी कल के अंक में)
-विष्णु नागर
हम भी बहुतेरों की तरह लुंगी-प्रेमी हैं।ठंड के दिनों के अलावा घर में लुंगी और बनियान धारण किए रहते हैं। कोई आने वाला हो और साथ में कोई महिला भी हो तो ऊपर कुर्ता या कमीज पहनकर सभ्य बन जाते हैं। हां घर के बाहर लुंगी पहनकर नहीं जाते।वैसे भी हम रंगीन चौखानेदार लुंगी पहनते हैं,बाहर के लिए यह शायद ठीक भी नहीं।दिल्ली की मेट्रो में तो मैं कुर्ता-पजामा पहन कर जाता हूं तो दूसरों की नजरें मुझे अजनबी की तरह देखती हैं। चौखानेदार लुंगी में फायदा यह है कि पुरानी हो जाए तो भी खराब या मटमैली नहीं लगती। इसका रंग जल्दी जाता भी का नहीं। सफेद लुंगी में तो चाय का दाग़ भी बोलता है।
धन्यवाद तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश।बताते हैं,इसका आविष्कार वहीं हुआ- छठी शताब्दी में चोल राजाओं के काल में। आजकल यह दक्षिण भारत के अलावा बताते हैं कि ओमान, श्रीलंका, म्यांमार, मारीशस, बांग्लादेश, मालदीव, ताइवान, इंडोनेशिया में भी पहनी जाती है। भारत में मुख्य रूप से दक्षिण भारत में पहनी जाती है मगर इसका कम-ज्यादा चलन सारे भारत में है, पंजाब में भी। भगवाधारी साधु संन्यासी भी लुंगी ही पहनते हैं, उसका नाम जो भी हो। दक्षिण भारत में रेशमी लुंगी विवाह आदि अवसरों पर पहनी जाती है मगर दैनिक इस्तेमाल में सूती ही चलती है।इसके कई रूप हैं-मुंडू, वेष्टि, तहमद आदि पर हमारे लुंगी प्रेम का संबंध इसके इतिहास और इसके भौगोलिक विस्तार आदि से नहीं है। हमारा यह ज्ञान, गूगल ज्ञान है।
हमारा लुंगी प्रेम विशुद्ध उपयोगितावादी है।इससे उपयोगी अधोवस्त्र हमारी नजर में पुरुषों के लिए दूसरा नहीं। बाजार से लाओ। दोनों किनारों पर सिलाई लगवाओ और तैयार। वैसे सिलवाने की जरूरत भी नहीं मगर हमें ऐसी ही लुंगी चलती है। यह ऐसा वस्त्र है,जो सिर के ऊपर से पहन लो,नीचे पांव की ओर से पहन लो। किसी गीली जगह फंस गए तो आधी लुंगी आसानी से ऊपर कर लो। जरूरत पडऩे पर यह लंगोट भी बन जाती है। शरीर पर यह कमर के अलावा कहीं कसती नहीं, नाड़ी के खुलने न खुलने का झंझट नहीं।ढीली ढाली पोशाक है, गर्मियों में आरामदेह। खड़े रहो, बैठो, सो ओ, कपड़े धो ओ, सबमें आराम ही आराम।रात में चाहो तो हल्की ठंड सुबह लगने पर गांठ खोलकर इसे ओढ़ लो। गले से घुटनों तक यह शरीर ढंक देती है।
दक्षिण में गरीबों-मजदूरों का यह सहारा है। वहां के नेताओं की पोशाक सफेद कमीज और सफेद लुंगी है, जैसे उत्तर भारत में सफेद कुर्ता-पजामा है।नब्बे के दशक में केरल गया था तो पुरुष अमूमन लुंगी ही पहनते थे।अब इसकी जगह पैंट-शर्ट ने ले ली है। लड़कियों खासकर सलवार-कमीज पहनती हैं, केरल में महिलाओं में लुंगी पहनने का चलन अब बहुत कम है? मगर यह पहनी जाती रही है। तिरुवनंतपुरम के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में लुंगी पहन कर ही पुरुष जा सकते हैं,पैंट-पजामा अछूत है। महिलाएं केवल साड़ी पहन कर आ सकती हैं, सलवार-कमीज में नहीं।न मालूम हो तो वहीं खरीदो और पहनो।
इति लुंगी महात्म्य।
- तृप्ति सोनी
पापा, जिनकी आवाज़ सुनकर यात्रीगण ध्यान दिया करते थे! पंडरी बस स्टैंड में बसों की हाजिऱी मेरे पापा की आवाज़ से ही लगती थी। वो देख नहीं पाते थे, पूरे बस स्टैंड में सूरदास के नाम से जाने जाते थे। कुर्सी बुनने की कला भी गज़़ब थी उनमें उनसे कुर्सी बुनना तो नहीं सीख पायी लेकिन आज मेरी ‘आवाज़’ उनकी देन है।
10 साल की उम्र थी मेरी और मुझे साइकिल चलाने का बड़ा शौक था उन दिनों 1 रुपये में आधे घंटे के लिए किराए में साइकिल मिला करती थी, 50 पैसे मिलते थे घर से खई-खज़़ाने के लिए मैं दो दिन का पैसा जोडक़र साइकिल लाती थी और पापा पीछे बैठकर मुझे साइकिल चलाना सिखाते थे, वो कहा करते थे तुम मेरी लाठी हो। साइकिल के दो पहियों के साथ मेरे पापा के कदमों ने मुझे रफ़्तार दी, बस स्टैंड उनको छोडऩे जाया करती थी और उन्हें एनाउंस करते सुना करती थी फिर एक-दो बार उन्होंने मुझे भी अनाउंस करने दिया। आज मुझे याद नहीं है लेकिन उस वक्त मुझे छत्तीसगढ़ के सभी रास्तों पर जाने वाली गाड़ी का रोडमैप याद होता था और पापा की तरह मैं भी हिन्दी, अंग्रेज़ी और छत्तीसगढ़ी में अनाउंस करती थी। पापा जितना अच्छा तो नहीं कर पाती थी लेकिन आज जो अवाज मेरी है मैंने उनसे सीखा है। उन्हें रेडियो और टेलीविजऩ पर समाचार सुनने की आदत थी लेकिन वो मुझे टीवी पर सुने बिना ही चले गये। उनके बिना हर प्रशंसा और सफलता हमेशा अधूरी रहेगी।
उनका नाम स्व रमाकांत अवधिया, वे स्व हरिप्रसाद अवधिया के मंझले बेटे थे। स्व हरिप्रसाद अवधिया छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों और शिक्षाविदों की गिनती में आते हैं भले आज उन्हें भुला दिया गया हो लेकिन उन्होंने हरि ठाकुर जैसे साहित्यकारों के साथ छत्तीसगढिय़त की अलख जगायी। कुछ साल पहले तक 10वीं की हिन्दी की किताब में शहीद वीर नारायण पर उनका लिखा पाठ प्रकाशित हुआ करता था।
-अपूर्व गर्ग
कभी हिन्दुस्तान की जनता ने पहला जनता कर्फ्यू रविवार को देखा.
ऐसे रविवार जब अचानक एक निर्धारित समय पर सड़कें सूनी हो जाती,
बाज़ार वीरान हो जाते, रसोई से कोई धुआँ नहीं निकलता, पूरे शहर में सन्नाटा पसरा रहता ...ऐसे थे वो दिन !
ये वो दिन थे जब राही मासूम रज़ा के लिखे 'महाभारत 'के संवाद घर-घर में गूँज रहे थे और पूरा देश ख़ामोशी से सुनता रविवार के इंतज़ार में जीता.
ये और बात है राही मासूम रज़ा उन दिनों बेहद व्यस्त थे और जब बी आर चोपड़ा ने उनसे महाभारत लिखने का आग्रह किया तो अति व्यस्तता के चलते रज़ा साहब ने बी आर चोपड़ा से क्षमा मांग ली.
पर वो भी बी आर चोपड़ा ठहरे. उन्हें राही मासूम रज़ा के सिवाय दूसरा स्वीकार ही न था. उन्होंने मीडिया से बात करते हुए पटकथा और संवाद के लिए राही मासूम रज़ा का नाम घोषित कर दिया.
इसके बाद बी आर चोपड़ा के पास विरोध पत्रों का तांता लग गया कि क्या महाभारत के लिए उनके पास 'रज़ा ' जैसे ही बचे हैं ?
बी आर चोपड़ा ने ये तमाम विरोध पत्र राही मासूम रज़ा के पास भेज दिए.
अगले दिन राही मासूम रज़ा ने बी आर चोपड़ा को फ़ोन कर कहा - :
"चोपड़ा साहब ! महाभारत अब मैं लिखूंगा. मैं गंगा का बेटा हूँ. मुझसे ज़्यादा हिन्दुस्तान की सभ्यता और संस्कृति को कौन जानता है.''
आज जब संस्कृति के ठेकेदार कहे जाने वाले 'मनोजों' ने लोगों के विश्वास की, परंपरा की, लेखन की, शालीनता की धज्जियाँ उड़ा कर सब कुछ तार-तार कर दिया तो देख रहा हूँ कैसे और किस श्रद्धा से लोग रज़ा साहब को याद कर रहे हैं.
सोचिये, टोपीबाज की तरह के लोग 'टोपी शुक्ला 'के लेखक के सामने क्या टिकेंगे !
सोचिये, जिनके पास लिखने के लिए आधा दिमाग भी नहीं वो महान उपन्यास 'आधा गाँव' के आगे कितने बौने हैं !!
सोचिये, जिनके पास न लिखने का हौसला है न हिम्मत वो 'हिम्मत जौनपुरी' के आगे कितने अप्रासंगिक और
ना-क़ाबिल-ए-बरदाश्त हैं !!!
राही मासूम रज़ा भारतीय सभ्यता और संस्कृति के बहुत बड़े अध्येयता ही नहीं माटी पुत्र - गंगा पुत्र थे.
रज़ा साहब ने लिखा, हमेशा कहा :
''मैं तीन माओं का बेटा हूँ. नफ़ीसा बेगम, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी और गंगा.
नफ़ीसा बेगम मर चुकी हैं. अब साफ़ याद नहीं आतीं. बाकी दोनों माएं ज़िदा हैं और याद भी हैं.''
इनकी आत्मकथा में लिखी वसीयत सब कुछ कहती है :
' मेरा फ़न तो मर गया यारों
मैं नीला पड़ गया यारों
मुझे ले जा के ग़ाज़ीपुर की गंगा की गोदी में सुला देना
अगर शायद वतन से दूर मौत आए
तो मेरी ये वसीयत है
अगर उस शहर में छोटी सी एक नद्दी भी बहती हो
तो मुझको
उसकी गोद में सुला कर
उससे कह देना
कि गंगा का बेटा आज से तेरे हवाले है.'
-डॉ. आर.के.पालीवाल
सत्ता की कुर्सी का मोह अधिकांश लोगों के लिए कभी खत्म नहीं होता। उदाहरण के तौर पर पूरा वानप्रस्थ आश्रम महानगरों में बिता चुके नेता भी संन्यास तो दूर मार्गदर्शक मंडल में जाने के लिए तैयार नहीं होते। इनका बस चले तो राजा महाराजाओं की तरह कुर्सी पर ही आखिरी सांस लें। जिनकी सक्रिय राजनीति में भूमिका महत्वहीन हो जाती है वे राज्यपाल बनने की जुगत भिड़ाने लगते हैं।
कुछ उम्र के तीसरे और चौथे पड़ाव पर भी टिकट के लिए दलबदलू तक का कलंक बर्दाश्त कर लेते हैं और आत्ममुग्धता के दौरे में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जमानत तक जब्त करा लेते हैं। नेताओं की कुर्सी केवल पांच साल की होती है। उसमें भी कभी कभी संसद या विधान सभा बीच में भंग होने पर समय के पहले चुनाव होने से पांच साल से पहले ही कुर्सी चली जाती है, इसलिए उनका कुर्सी मोह एक हद तक समझ में आता है। नेताओं के बरक्स नौकरशाहों की स्थिति अलग है। उन्हें लगातार तीन चार दशक कुर्सी का सुख मिलता है इसीलिए काफी नौकरशाहों को तीस पैंतीस साल सेवा के बाद सेवानिवृति पर सुकून मिलता है। इतनी लंबी नौकरी के बाद बोरियत भी होने लगती है। कुछ नौकरशाह तो बेहतर विकल्प की तलाश में समय के पहले स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति भी ले लेते हैं।
इधर नौकरशाहों के एक अति महत्वाकांक्षी वर्ग में कुर्सी से कुछ ज्यादा ही लगाव बढ़ गया है। वे सेवानिवृति से पहले ही सेवानिवृति के बाद भी सेवारत रहने के जुगाड खोजने लगते हैं। ऐसे नौकरशाहों की संख्या में निरंतर इजाफा हो रहा है। सरकार ने भी ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए तरह तरह के पद सृजित किए हैं इनमें सबसे ज्यादा दिलचस्पी वे आई ए एस अफसर लेते हैं जो किसी दल विशेष के मुखिया के मुंह लगे होते हैं।
अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में विद्युत नियामक आयोग में एक पद पर नियुक्ति के इकलौते अनार के लिए चालीस बीमारों के आवेदन मिलने के समाचार हैं। इस उदाहरण से पता चलता है कि अफसरों में रिटायरमेंट के बाद भी किसी सरकारी कुर्सी से चिपके रहने की प्रवृत्ति कितनी तेज गति से बढ़ रही है।
एक पद के लिए चालीस आवेदन दर्शाते हैं कि कुर्सी के लालच में उच्च पदों पर आसीन ये नौकरशाह सरकारी सेवा में रहते हुए अपने राजनीतिक आकाओं की कृपा दृष्टि पाने के लिए उनके उल्टे सीधे काम करते रहे होंगे। इस तरह के पद नौकरशाहों के लिए कैरट एंड स्टिक की गाजर की तरह हो गए हैं जिनके लालच में काफ़ी लोग अपना जमीर गिरवी रख देते हैं। पद प्राप्ति के बाद ये लोग सरकार के एजेंट की तरह काम करते हैं। चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों में सरकार के पूर्ण नियंत्रण को भी सर्वोच्च न्यायालय ने इसी पृष्ठभूमि में अनुचित माना है।
प्रश्न यह उठता है कि क्या सरकारी कुर्सी पर बैठ कर ही देश की सेवा की जा सकती है! तब तो इस लिहाज से सुभाष चन्द्र बोस ने आईसीएस की नौकरी ठुकराकर उचित नहीं किया था। महात्मा गांधी भी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठ कर देश की सेवा कर सकते थे! उस स्थिति में उनके इर्द गिर्द कड़ा सुरक्षा घेरा होने से नाथूराम गोडसे की गोली भी उन तक नहीं पहुंच पाती! दरअसल कुर्सी के मोह में फंसे अफसर सरकारी सेवा के दौरान भी जनता की सेवा कम और नेताओं की जी हुजूरी ज्यादा करते हैं। ऐसे अधिकारियों पर मुख्यमंत्रियों की बडी कृपा होती है। उसी कृपा से दागदार करियर के बावजूद ये आसानी से मुख्य सचिव तक बन जाते हैं और रिटायरमेंट के बाद भी चार पांच साल के लिए सरकारी कुर्सी का जुगाड़ कर लेते हैं।इस समस्या का समाधान संभव हैं। ऐसे पदों पर रिटायरमेंट के बाद दो साल की कूलिंग ऑफ़ के बाद ही आवेदन किया जाना चाहिए। दूसरे यह नियुक्तियां सरकार के बजाय संघ लोक सेवा आयोग द्वारा की जानी चाहिए। जब क्लर्कों की नियुक्ति की एक जटिल प्रक्रिया है तब उच्च पदों के लिए यू पी एस सी से ही नियुक्तियां होनी चाहिए।
-रेहान फजल
परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष होमी सेठना ने 1972 में अपने विभाग में उप सचिव पद पर काम कर रहे टीएन शेषन की गोपनीय रिपोर्ट खराब कर दी थी।
इसके जवाब में शेषन ने अपना बचाव करते हुए कैबिनेट सचिव टी स्वामिनाथन को 10 पन्नों का पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि उनके खिलाफ की गई टिप्पणी को उनकी गोपनीय रिपोर्ट से हटा दिया जाए।
तीन महीने बाद उनके पास प्रधानमंत्री कार्यालय से फोन आया कि प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी उनसे मिलना चाहती हैं। जब शेषन उनके साउथ ब्लॉक के दफ्तर में घुसे तो वो फाइल पर कुछ लिख रही थीं।
हाल ही में प्रकाशित आत्मकथा ‘थ्रू द ब्रोकेन ग्लास’ में टीएन शेषन लिखते हैं, ‘इंदिरा गाँधी ने फाइल से सिर उठा कर मुझसे पूछा तो आप शेषन हैं? आप इस तरह का दुव्र्यवहार क्यों कर रहे हैं? सेठना आपसे नाराज़ क्यों हैं?’
‘मैंने विनम्रतापूर्वक जवाब दिया मैडम मैंने ये बात आज तक किसी को नहीं बताई है। विक्रम साराभाई और होमी सेठना में गंभीर मतभेद हैं। मैं विक्रम के साथ काम कर रहा था इसलिए सेठना मेरे खिलाफ हो गए हैं।’
‘इंदिरा ने पूछा, क्या आप आक्रामक हैं? मैंने जवाब दिया अगर मुझे कोई काम दिया जाता है तो मैं आक्रामक होकर उसे पूरा करता हूँ। इंदिरा गांधी का अगला सवाल था आप लोगों से रूखा व्यवहार क्यों करते हैं? मैंने कहा कि अगर कोई काम निश्चित समय के अंदर नहीं होता तो मेरा व्यवहार खराब हो जाता है।’
‘इंदिरा ने फिर पूछा क्या आप लोगों को धमकाते हैं? मैंने कहा मैं इस तरह का शख्स नहीं हूँ। इंदिरा गांधी ने अपने असिस्टेंट से कहा, ‘उन्हें बुलाइए’। तभी होमी सेठना इंदिरा गाँधी के दफ्तर में दाखिल हुए। इंदिरा ने मेरे सामने ही उनसे पूछा- आपने इस युवा शख्स की गोपनीय रिपोर्ट में ये सब क्यों लिखा है?’
‘फिर उन्होंने मेरी तरफ इस तरह देखा मानो कह रही हों, अब तुम यहाँ क्या कर रहे हो? मुझे लगा कि इंदिरा गाँधी भी मुझसे नाराज हैं। लेकिन 10 दिन बाद मुझे सरकार का पत्र मिला कि मेरे खिलाफ सभी प्रतिकूल प्रविष्टियाँ मेरी गोपनीय रिपोर्ट से हटा दी गई है।’
विजय भास्कर रेड्डी और विधि मंत्रालय से तल्खी
जब टीएन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त बन गए तो कानून मंत्री विजय भास्कर रेड्डी ने चुनाव आयोग से संसद में पूछे गए सवालों का जवाब देने के लिए कहना शुरू कर दिया।
शेषन ने इसका जोरदार विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि चुनाव आयोग सरकार का कोई विभाग नहीं है।
विजय भास्कर इस मुद्दे को प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के पास ले गए।
टीएन शेषन अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, ‘रेड्डी ने प्रधानमंत्री की उपस्थिति में मुझसे कहा, शेषन आप सहयोग नहीं कर रहे हैं। मैंने जवाब दिया मैं कोई कोऑपरेटिव सोसाइटी नहीं हूँ। मैं चुनाव आयोग का प्रतिनिधित्व करता हूँ।’
‘प्रधानमंत्री ये सुनकर सन्न रह गए। फिर मैंने प्रधानमंत्री की तरफ मुडक़र कहा, मिस्टर प्राइम मिनिस्टर अगर आपके मंत्री का यही रवैया रहा तो मैं उनके साथ काम नहीं कर सकता।’ उसी तरह एक बार विधि सचिव रमा देवी ने चुनाव आयोग को फोन कर कहा कि विधि राज्य मंत्री रंगराजन कुमारमंगलम चाहते हैं कि अभी इटावा का उप चुनाव न कराया जाए।
शेषन लिखते हैं, ‘मैंने प्रधानमंत्री को सीधे फोन मिलाकर कहा कि सरकार को शायद ये गलतफहमी है कि मैं घोड़ा हूँ और सरकार घुड़सवार है। मैं ये स्वीकार नहीं करूँगा।’
‘अगर आपके पास किसी फैसले को लागू करने के बारे में एक अच्छा कारण है, मुझे बता दीजिए। मैं सोचकर उस पर अपना फैसला सुनाउंगा। लेकिन मैं किसी हुक्म का पालन नहीं करूँगा।’
‘प्रधानमंत्री ने मेरी बात सुनने के बाद कहा, आप रंगराजन से अपना मामला सुलझा लीजिए। मैंने कहा, मैं उनसे नहीं आपसे ये मामला सुलाझाउंगा।’
‘मैं चाहूँगा कि रंगराजन चुनाव आयोग के फैसले को प्रभावित करने की कोशिश के लिए मुझसे माफी माँगें। अगर हमें किसी बात का पता नहीं है जैसे कि सूखा पड़ रहा है, बाढ़ आ गई है, प्लेग फैल गया है तब आप हमसे कहिए कि हम चुनाव नहीं करा सकते।’ ‘लेकिन आप मुझे ये नहीं कह सकते कि आप ये कीजिए, ये मत कीजिए। उसी दिन रंगराजन ने मुझे फोन किया और मुझसे तमिल में पूछने लगे, मामला क्या है? मैंने कहा आप मुझसे माफी माँगिए।’
‘उसी दिन 12 बजे के आसपास विधि मंत्रालय का एक संयुक्त सचिव दौड़ा-दौड़ा विधि सचिव की चि_ी लिए निर्वाचन सदन आया। इस चि_ी में लिखा था- मैंने जो कुछ भी कहा या लिखा है उसके लिए मैं आपसे माफी माँगती हूँ।’
सभी चुनावों पर रोक लगाने का आदेश
2 अगस्त, 1993 को टीएन शेषन ने एक 17 पेज का आदेश जारी किया जिसमें कहा गया था कि जब तक सरकार चुनाव आयोग की शक्तियों को मान्यता नहीं देती, तब तक देश में कोई चुनाव नहीं कराया जाएगा।
शेषन ने अपने आदेश में लिखा कि चुनाव आयोग ने तय किया है कि उसके नियंत्रण में होने वाला हर चुनाव जिसमें दो साल पर होने वाले राज्यसभा चुनाव, लोकसभा और विधानसभा के उपचुनाव जिनके कराने की घोषणा की जा चुकी है, अगले आदेश तक स्थगित रहेंगे।
शेषन ने पश्चिम बंगाल की राज्यसभा सीट पर चुनाव नहीं होने दिया जिसकी वजह से केंद्रीय मंत्री प्रणव मुखर्जी को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा।
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु इससे इतने नाराज हुए कि उन्होंने शेषन को ‘पागल कुत्ता’ तक कह डाला। वैसे पीठ पीछे उनसे परेशान लोग शेषन को ‘अलसेशियन’ भी कहने लगे थे।
पर कतरने के लिए दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति
एक अक्तूबर, 1993 को जब शेषन पुणे में थे सरकार ने जीवीजी कृष्णामूर्ति और एमएस गिल को नया चुनाव आयुक्त नियुक्त कर दिया।
कांग्रेस के प्रवक्ता वि_लराव गाडगिल ने व्यंग करते हुए कहा, ‘ये फैसला शेषन के काम में हाथ बँटाने के लिए लिया गया है।’
शेषन ने लिखा, ‘मेरा वर्कलोड हुआ करता था सुबह 10 मिनट और शाम 3 मिनट का। दिन के बाकी समय मैं अपना वक्त टाइम्स ऑफ इंडिया की क्रॉसवर्ड पजल हल करने में बिताता था। एक बार अपनी जिंदगी में पहली बार मैं अपनी दफ्तर की कुर्सी पर बैठे बैठे ही सो गया। ये किसी बीमारी या बढ़ती उम्र की वजह से नहीं बल्कि बोरियत की वजह से हुआ था।’
‘ये थी मेरी तथाकथित व्यस्तता की असली तस्वीर। उस पर तुर्रा ये था कि कोई मेरी इस व्यस्तता को और कम करने की कोशिश कर रहा था।’
इन दोनों चुनाव आयुक्तों का वेतन भी टीएन शेषन के बराबर तय किया गया था।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एचआर खन्ना ने इस अध्यादेश की ये कहकर आलोचना की थी कि इस पर पहले संसद में चर्चा होनी चाहिए थी।
मशहूर न्यायविद् फली नरीमन ने कहा था, ‘ये सब मुख्य चुनाव आयुक्त की ताकत को कम करने के लिए किया गया है। इससे निश्चित रूप से उसकी स्वायत्ता पर असर पड़ेगा।’
शेषन के साथ की बदसलूकी
तीनों चुनाव आयुक्तों की पहली मुलाकात अच्छी नहीं रही। शेषन लिखते हैं, ‘कृष्णमूर्ति मेरे कमरे में आकर कोने में पड़े सोफे पर बैठ गए और मुझसे सोफे पर बैठने के लिए कहा। मैंने हाथ जोडक़र कहा- मैं जहाँ बैठा हूँ वहीं ठीक हूँ।’
इस पर कृष्णमूर्ति बोले, ‘मैं तुम्हारी मेज के सामने पड़ी कुर्सियों पर तो बैठने से रहा। ये सब तुम्हारे चपरासियों के लिए है। तभी गिल ने कमरे में प्रवेश किया। कृष्णमूर्ति ने गिल से कहा- गिल तुम उनके सामने वाली कुर्सी पर मत बैठना। इनसे कहो कि ये यहाँ सोफे पर आकर बैठें।’
‘गिल ने मुझसे पूछा कि क्या आपको सोफे पर आकर बैठने पर आपत्ति है? मैंने कहा- किसी और दिन मैं सोफे पर तो क्या कालीन पर भी बैठ सकता था, लेकिन आज नहीं। फिर कृष्णमूर्ति ने मुझे गालियाँ देनी शुरू कर दीं। इस बीच गिल खड़े रहे। उनकी समझ में नहीं आया कि वो सोफे पर कृष्णमूर्ति के बगल में बैठें या मेरे सामने कुर्सी पर।’
‘इसके बाद कृष्णमूर्ति ने अपनी बाईं टाँग उठाकर मेज पर रख दी। फिर वो मेरे पास आकर बोले क्या आपकी मुझसे हाथ मिलाने की इच्छा है? मैं चुप रहा। इसके बाद वो दोनों कमरे से उठ कर चले गए। अगले दिन समाचारपत्रों में छपा, कृष्णामूर्ति और गिल दोनों ने मेरे दफ़्तर से वॉक आउट कर दिया।’
उप चुनाव आयुक्त को सौंपा चार्ज
टीएन शेषन ने इन चुनाव आयुक्तों से सहयोग नहीं किया। जब वो अमेरिका गए तो उन्होंने इन दोनों के बजाए उप चुनाव आयुक्त डीएस बग्गा को अपना चार्ज सौंपा।
शेषन के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। तब सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि शेषन की अनुपस्थिति में एमएस गिल मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर काम करेंगे।
राजनेताओं में शायद राजीव गाँधी अकेले शख़्स थे जो शेषन को पसंद करते थे। जब शेषन वन एवं पर्यावरण सचिव थे तो उन्हें छुट्टी में भी दफ्तर जाने की आदत थी।
2 अक्तूबर, 1986 को वो अपने दफ़्तर में टेलीविजन पर क्रिकेट मैच देख रहे थे। तभी क्रिकेट कमेंट्री आनी बंद हो गई और एक खबर फ्लैश हुई कि राजघाट में एक व्यक्ति ने राजीव गाँधी पर गोली चलाई है।
अगले दिन राजीव गाँधी ने शेषन को तलब कर लिया।
शेषन लिखते हैं, ‘जब मैं उनके घर पहुंचा तो वहाँ चारों तरफ़ पुलिस वाले फैले हुए थे। राजीव गाँधी ने मुझसे कहा, शेषन मैं चाहता हूँ कि तुम कल हुई घटना की जाँच करो और मुझे इसकी रिपोर्ट सौंपो। मैंने कहा- मैंने इस तरह का काम पहले कभी नहीं किया है। दूसरा कोई शख्स मुझसे बेहतर इस काम को अंजाम दे पाएगा।’
‘राजीव ने कहा- तुम निडर होकर बोलते हो। तुम्हें किसी का डर नहीं है। इस वजह से ही मैं ये जि़म्मेदारी तुम्हें दे रहा हूँ। मुझे ये रिपोर्ट सौंपने के लिए 4 हफ्तों का समय दिया गया।’
‘मैंने सुरक्षा व्यवस्था में कमी को लेकर 150 पन्नों की रिपोर्ट राजीव गाँधी को सौंपी और ये भी सुझाव दिए कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए और क्या किया जाना चाहिए।’
प्रधानमंत्री की सुरक्षा का अतिरिक्त भार
दो महीने बाद 15 दिसंबर को शेषन के पास प्रधानमंत्री कार्यालय से एक फोन आया जिसमें उनसे कहा गया कि वो पालम हवाईअड्डे पर राजीव गाँधी से मिलें।
राजीव गाँधी को लेने के लिए एक लाल रंग की बुलेटप्रूफ़ जीप हवाई अड्डे आई हुई थी। राजीव खुद ड्राइवर की सीट पर बैठे। आंतरिक सुरक्षा मंत्री चिदंबरम उनके बगल में बैठे। शेषन पीछे की सीट पर बैठे।
शेषन लिखते हैं, ‘राजीव ने कहा कि आपने प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जो सुझाव दिए हैं उनको आपको ही लागू करवाना होगा। मैंने उनसे पूछा मैं इसमें आपकी किस तरह मदद कर सकता हूँ? राजीव ने जवाब दिया- सुरक्षा को अपने नियंत्रण में लेकर।’
‘बग़ल में बैठे चिदंबरम ने कहा ये अच्छा सुझाव है। हम इनकी जगह दूसरा वन और पर्यावरण सचिव ढूंढ लेंगे। लेकिन राजीव ये नहीं चाहते थे। वो चाहते थे कि मैं पर्यावरण और सुरक्षा दोनों विभाग देखूँ। एक सप्ताह बाद कैबिनेट सचिव के दफ्तर से इस आशय का आदेश जारी कर दिया गया।’
पूर्व पीएम के परिजनों को एसपीजी सुरक्षा देने को कहा
राजीव की सुरक्षा पर नजर रखने के लिए शेषन अक्सर राजीव के निवास पर जाने लगे। धीरे-धीरे वो राजीव के नजदीक आते चले गए। लेकिन राजीव अपनी सुरक्षा को गंभीरता से नहीं लेते थे। शेषन उनके कोलम्बो जाने के सख्त खिलाफ थे। लेकिन राजीव ने उनकी बात नहीं मानी।
नतीजा ये हुआ कि वहाँ एक श्रीलंकाई नौसैनिक ने राजीव पर राइफल के बट से हमला किया। ऐसे भी मौके आए जब शेषन ने उनके मुँह से बिस्कुट निकाल लिया। उनका तर्क था कि प्रधानमंत्री को ऐसी कोई चीज नहीं खानी चाहिए जिसका परीक्षण न किया जा चुका हो। जब एसपीजी एक्ट बनाया गया तो उसमें प्रावधान था कि एसपीजी प्रधानमंत्री के अलावा उनके परिवारजनों की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेगी।
शेषन राजीव के पास प्रस्ताव लेकर गए कि इसमें पूर्व प्रधानमंत्रियों ओर उनके परिजनों को भी शामिल किया जाना चाहिए।
शेषन लिखते हैं, ‘मैंने राजीव से कहा आज आप प्रधानमंत्री हैं। कल आप इस पद से हट सकते हैं। लेकिन आपकी जान पर खतरा बना रहेगा। मैंने उन्हें अमेरिका का उदाहरण दिया जहाँ एफबीआई उनका कार्यकाल समाप्त हो जाने और उनके निधन के बाद भी उनके परिवार वालों को सुरक्षा प्रदान करती है।’ ‘लेकिन राजीव इस बात के लिए राज़ी नहीं हुए। उन्हें लगा कि लोग सोचेंगे कि वो ऐसा अपने निजी स्वार्थ के लिए कर रहे हैं। मैंने उनको मनाने की कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हुआ।’
शेषन को कैबिनेट सचिव के पद से हटाया गया
विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री बनने के अगले ही दिन इस बात पर विचार करने के लिए एक बैठक बुलाई गई कि राजीव गाँधी और उनके परिवार को एसपीजी कवर दिया जाए या नहीं।
कैबिनेट सचिव के तौर पर शेषन ने सलाह दी कि राजीव गाँधी को वही सुरक्षा मिलनी चाहिए जो उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर मिल रही थी। लेकिन वीपी सिंह सरकार इसके लिए राज़ी नहीं हुई।
22 दिसंबर, 1989 को रात साढ़े 11 बजे एक सरकारी हरकारा मोटर साइकिल पर शेषन के लिए एक लिफाफा लेकर आया। उस लिफाफे में आदेश था कि उन्हें कैबिनेट सचिव की जगह योजना आयोग का सदस्य बनाया जा रहा है।
शेषन को इस बात से तकलीफ हुई कि प्रधानमंत्री ने ये फैसला लेने से पहले उन्हें बताने तक का शिष्टाचार नहीं निभाया।
यहाँ तक कि प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव बीडी देशमुख ने भी उन्हें इस बारे में कोई संकेत देने की जरूरत नहीं महसूस की।
अगले दिन शेषन ने ही कैबिनेट सचिवालय के एक अफसर को फोन कर पूछा कि उनकी जगह कैबिनेट सचिव बनाए गए विनोद पांडे कब अपना कार्यभार ग्रहण करना पसंद करेंगे?
विनोद पांडे ने 11 बजकर 5 मिनट का समय चुना। शेषन समय से दो मिनट पहले चार्ज देने के लिए दफ्तर पहुंच गए।
काँची शंकराचार्य की सलाह पर लिया मुख्य चुनाव आयुक्त का पद
जब वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने तो उन्हें शेषन को दोबारा कैबिनेट सचिव बनाने की पेशकश की गई लेकिन शेषन ने कहा कि वो जल्द ही रिटायर होने वाले हैं। तब चंद्रशेखर ने सुब्रमणयम स्वामी के ज़रिए उनके पास मुख्य चुनाव आयुक्त बनने का प्रस्ताव भेजा।
शेषन ने इस बारे में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी और पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकटरमण से सलाह ली। दोनों ने कहा, अगर कोई दूसरा प्रस्ताव न मिले तभी इस पेशकश को स्वीकार करना। इसके बाद शेषन ने काँचीपुरम के शंकराचार्य की सलाह ली।
शंकराचार्य ने कहलवाया- ये सम्मानजनक पद है। इसे शेषन को ले लेना चाहिए।
10 दिसंबर, 1990 को शेषन के नवें मुख्य चुनाव आयुक्त बनने का आदेश जारी हुआ।
आगे की घटनाएं इतिहास हैं। (bbc.com/hindi)
दूसरी किस्त
(कल के अंक से आगे)
राजनीति के कांग्रेसी अंदरखाने में यह संकेत कहीं से उभरा कि राहुल गांधी की अगुवाई में हुई ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का कर्नाटक के लोगों ने भारी स्वागत किया है। इसलिए उम्मीद बंधी है कि राजनीतिक पार्टी के बड़े नेताओं और जनता के बीच सीधा संवाद होने से बिगड़े हालात को अनुकूल करने की स्थिति तक सुधारा जा सकता है।
कांग्रेेस के केन्द्रीय नेतृत्व के अलावा कर्नाटक राज्य में यह बड़ा साहसिक फैसला प्रदेश की इकाई ने किया। वह उद्यम भविष्य की राजनीति का एक मोड़ हो सकता है। बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने के कांग्रेसी ऐलान की लगभग पैैरोडी बनाते खुद प्रधानमंत्री मोदी ने मुंह बिचका बिचकाकर हर सभा में बजरंगबली की जय के इस तरह वीर रस के नारे लगाए जिससे पूरा चुनाव अभियान हिन्दुत्व के मजहबी रंग में रंग जाए और कांग्रेस को मुस्लिमपरस्त संगठन प्रचारित कर दिया जाए।
भाजपा ने वर्षों से कांग्रेस के खिलाफ ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ जैसा शब्द ईजाद कर ही लिया था। यह शब्द उतना ही घातक है जितना ‘लव जिहाद’ और ‘पाकिस्तान जाओ’ जैसी अभिव्यक्तियां हैं। इधर कांग्रेस के कई कर्ताधर्ताओं ने अपनी प्रतिद्वंद्वी धर्मप्रधान (?) बुद्धि से भाजपा के कट्टर हिन्दुत्व के नारे के मुकाबले नर्म या सॉफ्ट हिन्दुत्व का नारा बुलंद करना शुरू किया। उनकी समझ रही होगी कि सेक्युलर हिन्दुत्व और अपेक्षाकृत सच्चे धार्मिक हिन्दुत्व वाले हिन्दू अपनी मूल बनावट में उदार ही होते हैं। उन्हें भी बहकाकर भाजपा ने अपने पक्ष में कर लिया है। सॉफ्ट हिन्दुत्व के नारे से ऐसे मतदाताओं की कांग्रेस के पक्ष में वापसी कराई जा सकती है।
मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष तथा उसके मुख्य वैचारिक कर्ताधर्ता कमलनाथ को सशक्त समझाईश दी गई कि वे भाजपा के ‘जयश्रीराम’ नारे का मुकाबला करने के लिए हनुमान या बजरंगबली के साथ खुद की राजनीतिक शख्सियत को एकात्म कर लें। तो मध्यप्रदेश में मामला बन सकता है। कमलनाथ ने पिछले महीनों में अपनी धार्मिक हैसियत दिखाते हुए हनुमान के प्रतीक को कांग्रेस के प्रचार के साथ इस तरह लयबद्ध कर लिया है कि भाजपा को भी अचरज हो रहा होगा। विवादित साधु कहलाते बागेश्वर धाम के युवा और बड़बोले प्रचारक को भी कमलनाथ ने साध लिया है-ऐसा बताया और प्रचारित किया जाता है।
हनुमान याने बजरंगबली की शक्ति को पिछले दिनों कांग्रेस के पक्ष में लाए जाने की कोशिश भी होती रही। वह इसलिए भी कि रामचरित मानस के किष्किंधा कांड के कर्नाटक रहवासी बजरंगबली ने वहां के चुनाव युद्ध में संजीवनी बूटी लेकर भाजपा के बुलावे पर जाना कुबूल नहीं किया। इस बात का भी प्रचार होता है कि राहुल गांधी धार्मिक हैं और वे मंदिरों में जाते दिखाई भी देते रहते हैं। उनका यज्ञोपवीत भी हुआ है। जवाहरलाल नेहरू के तरुण दिनों के उस फोटो को प्रकाशित किया जाता है, जब नेहरू का खुद का जनेऊ हुआ था। सॉफ्ट हिन्दुत्व के बदले मजहबपरस्ती की उपेक्षा करते अलग तरह से जवाब दिया कर्नाटक कांग्रेस ने। मुख्यत: सिद्धरमैया की अगुवाई में कांग्रेस ने संविधान के मकसदों सेक्युलरिज्म और समाजवाद पर कारगर प्रचारात्मक भरोसा किया। पार्टी ने जानबूझकर सॉफ्ट हिन्दुत्व का मुखौटा उतार फेंका जिसे बाकी राज्यों के कांग्रेसी अब भी विश्वासपूर्वक लगाए हुए अपना भविष्य संवारने में मशगूल हैं।
छत्तीसगढ़ में अपनी मजबूत स्थिति के बावजूद कांग्रेस इस बात का सावधान प्रचार कर रही है कि प्रदेश में भगवान राम की ननिहाल है। उनकी माता कौशल्या का मंदिर और राम वनगमन योजना के नाम पर कई सांस्कृतिक धार्मिक प्रकल्पों को सघन कर दिया गया है जिससे भाजपा का संभावित कट्टर हिन्दुत्व का हमला आसानी से रिबाउन्ड किया जा सके। बल्कि मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके। कर्नाटक ने लेकिन ऐसा नहीं किया।
वहां मुख्यत: सिद्धरमैया की अगुवाई में जातीय समरसता और सभी तरह के पिछड़े वर्गों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और नवयुवकों को अपनी चिंता के केन्द्र में एकीकृत रखकर सघन राजनीतिक मुहावरों में ही प्रचार किया गया। मजहबपरस्ती, सांप्रदायिकता जैसे उत्पादित दिमागी फितूर का उसी की उलट भाषा में जवाब देना कर्नाटक में कांग्रेस ने मुनासिब नहीं समझा। जहां अन्य राज्यों में कांग्रेसी मुख्यमंत्री या बड़े नेता खुद के धार्मिक और हिन्दू होने का नीयतन प्रचार करते हैं। वहीं कर्नाटक के जुझारू शीर्ष नेता सिद्धरमैया वर्षोंं से ऐलान कर रहे हैं कि वे नास्तिक हैं। उन्हें ईश्वर में ही विश्वास नहीं है। वे धार्मिक ढकोसलों में भरोसा नहीं करते। उनका कोई मंत्री अगर धार्मिक पाखंडवाद में भरोसा करता था। तो मुख्यमंत्री ने उसकी भी लानत मलामत की।
अपनी पिछली कांग्रेसी सरकार के वक्त सिद्धरमैया ने भाजपा के विरोध की परवाह नहीं करते हुए कर्नाटक के षेर कहे जाने वाले टीपू सुल्तान की जयंती का आयोजन पूरे प्रदेश में किया। भले ही उसे मुस्लिम तुष्टिकरण कहा गया। कांग्रेस को यह भी सुनना पड़ा है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने पहले इंटरव्यू में सिद्धरमैया ने कहा कि मैं लोहिया के विचारों से प्रेरित हूं। मुख्यमंत्री वर्षों तक जनता दल के विभिन्न घटकों में सदस्य रहे हैं। साठ वर्ष की उम्र तक वे कांग्रेस में नहीं आए थे। उन्होंने साफ कहा कि कांग्रेस पार्टी को लोहिया के उन विचारों से कभी ऐतराज नहीं रहा जहां समाजवादी नेता ने आरक्षण, भूमि सुधार और सत्ता के विकेन्द्रीकरण जैसी राजनीतिक थ्योरी का प्रचार किया।
ऐसा नहीं है कि कर्नाटक में रामराज्य है या यूरो-अमेरिकी संस्कृति से उत्पन्न हुआ सेक्युलरिज्म है। कर्नाटक भी हिन्दू कूपमंडूकता का प्रदेश रहा है। जहां देवदासी परंपरा रही है और ब्रम्हणेां का छोड़ा जूठा भोजन किए जाने के उदाहरण भी हैं। हालिया भी धर्मांधता इतनी रही है कि तमाम बड़े राजनेता स्वामी सन्यासियों के आश्रम में जाकर राजनीति का भविष्य तय करते रहे हैं। मंदिर, मठ और आश्रम सियासी गतिविधियों के बैरोमीटर बन गए हैं।
सिद्धरमैया ने समाजवादियों रामकृष्ण हेगड़ेे, देवराज अर्स और देवेगौड़ा मंत्रिमंडलों में हिस्सेदारी की है। वे खुद पिछड़ी कुरबा जाति के हैं। कर्नाटक में वोकालिंगा और लिंगायत लोगों का रसूख और दबदबा रहा है। सारे खतरे उठाकर भी सिद्धरमैया ने कर्नाटक में अंधश्रद्धा का उन्मूलन करने में कोताही नहीं की। उन्हें चामराजानगर से लोकसभा चुनाव लडऩे 2014 में मना किया गया था लेकिन सिद्धरमैया नहीं माने। वे अपने मंत्रालय के रखरखाव में भी रूढिय़ों और अफवाहों को खारिज करते रहे। भाजपा सरकार ने हर वक्त कोशिश की कि कोई दलित या मुस्लिम मंत्री नहीं बन सके। सिद्धरमैया ने इस मिथक को बार बार तोड़ा। इन सबके बावजूद अपनी साफगोई में लोहिया को अपना प्रेरणा पुरुष कहने में सिद्धरमैया को कभी हिचक नहीं हुई।
2024 में लोकसभा का महत्वपूर्ण चुनाव होना है। उसके पहिले कई राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव भी होने हैं। जाहिर है इन सभी चुनावों में कांग्रेस की भी महत्वपूर्ण भूमिका होगी। लेकिन उसका मुख्य हथियार यदि सॉफ्ट हिन्दुत्व हो तो लोकतंत्र और कांग्रेस को क्या कुछ मिल सकता है? अगर सांप्रदायिक शक्तियों को ही आपस में लडऩा है। तो भारत के संविधान का क्या भविष्य होगा?
समाज में साक्षरता बढ़ी है और वैज्ञानिक वृत्ति भी। भारत के इंजीनियर, डॉक्टर, कम्प्यूटर विषेषज्ञ, आर्किटेक्ट, प्रोफेसर जैसे तमाम बौद्धिक वैचारिक लोग दुनिया में मशहूर हैं। इसके बरक्स देश में बेहद बेरोजगारी है, महंगाई है, युवकों का भविष्य आपसी तोडफ़ोड़, जयश्रीराम, अल्लाह ओ अकबर जैसे नारों में नहीं है। इस वक्त यदि देश को धार्मिक अनावश्यक पचड़ों से बाहर किया जाए तो लोकतंत्र के मजबूत होने की गुंजाईश बनती है। इस काम को करने कांग्रेस ही नहीं, सभी राजनीतिक दल संविधान की हिदायतों में प्रतिबद्ध हैं। उन्हें संयुक्त होकर सोचना होगा। केवल सत्ता पाना उनका मकसद नहीं हो हालांकि चुनाव के जरिए सत्ता ही तो पाना होता है।
देश पोंगापंथी जमात की वैचारिक फिसलन की पिच पर आ तो गया है। चाहे जो हो। यह तो कर्नाटक ने दिखा दिया है कि केवल हिन्दू-मुस्लिम फिरकापरस्ती, धार्मिक कूपमंडूपता और हिंसक प्रयोजनों के जरिए संवैधानिक राजनीति की दिशा तय नहीं की जा सकती। पता नहीं कई प्रदेशों के कांग्रेसी कर्णधार अपने यशस्वी पूूर्वजों द्वारा दिखाए उस रास्ते पर चलने से परहेज करते हुए भाजपा संघ को उसी की शैली में सीखकर जवाब देने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? (समाप्त)
-वंदना
"कचरा ये खेल की आख़िरी गेंद है. हमका अभी जीतने के लिए पाँच दौड़ बाकी है. तुझे ही गेंद सीमा पार करनी होगी कचरा. नहीं तो तीन गुना लगान. हम सबकी ज़िंदगी तोहरे हाथ में है कचरा. कुछ कर कचरा."
ये सीन है आमिर ख़ान की फ़िल्म लगान का जिसमें कचरा गाँव का एक दलित किरदार था. कचरा के किरदार को लेकर ज़ोमैटो कंपनी ने हाल ही में विज्ञापन निकाला था जिसे कुछ लोगों ने जातिवादी बताया.
इसके बाद कंपनी को विज्ञापन वापस लेना पड़ा.
ऐसे में सवाल यही है कि 2001 में आई लगान में कचरा का दलित किरदार वाक़ई कास्टिस्ट है ?
लगान में कचरा का किरदार निभाने वाले अभिनेता आदित्य लाखिया कहते हैं, “ कचरा बहुत मज़ूबत किरदार है. जब लगान रिलीज़ हुई थी तब तो किसी ने नहीं कहा कि कचरा का दलित किरदार अमानवीय तरीके से दर्शाया गया है. तो आज 25 साल बाद ये अमानवीय कैसे हो गया ?”
“ये चरित्र साल 1893 में बसा है, उस दौर के हिसाब से कचरा बहुत रेलेवेंट किरदार था, ज़ोमैटो के विज्ञापन से अगर किसी की भावना आहत हुई है, तो ये सही ही है कि विज्ञापन वापस लिया गया. हाँ बुरा ज़रूर लगा क्योंकि हमारी सोच अच्छी थी.”
ये सारा मामला तब शुरू हुआ जब निर्देशक नीरज घायवान ने ट्वीट कर लिखा, “आशुतोष गोवारिकर की ऑस्कर नामांकित फ़िल्म लगान का किरदार कचरा सिनेमा के इतिहास के सबसे अमानवीय किरदारों में से एक है.”
चंद्रभान प्रसाद अमरीका की जॉर्ज मेसन यूनिवर्सिटी में एफ़िलिएटिड स्कॉलर हैं.
वे कहते हैं, “पहले दलितों के नाम ऐसे रखे जाते थे कि जिन्हें सुनकर घिन्न आए जैसे पड़ोह (ड्रेनेज), कतवारू यानी कचरा. तो आमिर ख़ान की फ़िल्म में या ज़ोमैटो ने किरदार का कचरा रखा तो आप ये समझिए कि आमिर खान जानबूझकर ऐसा नहीं कर रहे हैं, उनके लिए भी ये स्वभाविक सोच का हिस्सा है, इसे पर्मानेंट रिकॉल कहते हैं क्योंकि ये बरसों से चला आ रहा है.”
हालांकि कचरा के किरदार से परे बड़ा सवाल है कि हिंदी सिनेमा में दलितों को कितना और कैसे दिखाया गया है ?
जाति के मुद्दों पर कई फ़िल्में बना चुके निर्देशक नागराज मुंजले ने 2022 में फ़िल्म झुंड बनाई थी जिसमें आंबेडकर वाला सीन काफ़ी चर्चित रहा.
बीबीसी मराठी से बातचीत में वे कहते हैं, "ये शायद पहली बार है कि अमिताभ बच्चन जैसे कोई इतना बड़ा हीरो बाबासाहेब के सामने हाथ जोड़े खड़ा था. ये मेरे लिए फ़क्र की बात थी.”
अछूत कन्या से लेकर सुजाता
जाति और सिनेमा को समझने के लिए भारत में सिनेमा के इतिहास में झाँकना होगा.यहाँ आज़ादी से पहले 1936 में बनी अछूत कन्या याद आती है जहाँ अशोक कुमार ऊंची जाति के हैं और देविका रानी दलित कन्या. इसी वजह से दोनों की शादी नहीं हो पाती.
फ़िल्म के आख़िर में रेलवे ट्रैक के पास देविका के पति और अशोक कुमार में ज़बरदस्त झगड़ा हो जाता है .दोनों को बचाने की कोशिश में ट्रेन देविका को काटते हुए चली जाती है. जातिवाद की कीमत आख़िर वो दलित कन्या ही चुकाती है.
आज़ाद भारत में 1959 में जब बिमल रॉय ने जाति पर फ़िल्म बनाई तो नायिका नूतन को एक ऐसी बेटी का रोल दिया जिसे ब्राह्मण परिवार ने गोद लिया है. लेकिन माँ नूतन को दिल से कभी स्वीकार नहीं कर पाती क्योंकि वो 'अछूत' परिवार से थी.
आख़िर में नूतन की माँ उसे तब जाकर स्वीकार करती है जब अपना ख़ून देकर नूतन माँ की जान बचाती है.
ख़ुद की स्वीकार्यता बनाने के लिए नूतन को ख़ुद को 'नेक' साबित करना पड़ता है.
काबिल दलित किरदारों की कमी तो नहीं है..
चंद्रभान प्रसाद इस बात पर भी सवाल उठाते हैं कि फ़िल्मों में जब दलित की बात होती है तो उसकी छवि यही क्यों होती है कि वो कमज़ोर है, विफल है, होंठ फटे हैं और बेनूर चेहरा है और नाम कचरा है और क्यों दलित हैंडसम नहीं हो सकता, वो विजेता नहीं हो सकता?
उनके मुताबिक दलितों के शोषण को दिखाना वास्तविकता दिखाना है लेकिन ये वास्तविकता सब्जेक्टिव है.
अपनी दलील को समझाते हुए वो कहते हैं, "क्या भारत के इतिहास में सफल, काबिल दलित आइकन नहीं है जिन पर फ़िल्में बन सकें ? बाबू जगजीवन राम भारत के शीर्ष नेता रहे हैं, बैटल ऑफ़ कोहिमा में चमार रेजिमेंट का अहम योगदान है, गुरु रविदास ने शास्त्रार्थ में सबको पराजित किया था. ये सब भी तो हैं."
फ़िल्म अंकुर ने बोया विद्रोह का बीज
दरअसल 70 और 80 के दशक में जब पैरलल सिनेमा का ज़ोर था तो ऐसी कई फ़िल्में बनीं जिन्होंने दलितों के शोषण को बारीक़ी से दिखाया.
1974 में श्याम बेनेगल की फ़िल्म अंकुर में शबाना आज़मी (लक्ष्मी) और उसका गूंगा शराबी पति जाति, जेंडर और सत्ता के नाम पर होने वाले शोषण का चेहरा हैं.
गाँव का युवा ज़मींदार पढ़ा लिखा है, वो शबाना को अपना खाना बनाने के लिए रसोई में रखता है जबकि गाँव के लोग इसके ख़िलाफ़ हैं.
हालात के कारण शबाना और ज़मींदार के बीच रिश्ता बन जाता है. लेकिन एक दलित औरत के बच्चे का पिता बनना ज़मींदार को स्वीकार नहीं. बाद में लक्ष्मी का पति जब गाँव आता है तो ज़मींदार उसे कोड़ों से पिटवाता है.
ये सब देख रहा एक बच्चा फ़िल्म के आख़िरी सीन में ज़मींदार के घर पर पत्थर फ़ेंकता हैं और भाग जाता है. फ़िल्म अंकुर के इस आख़िरी सीन से एक मायने में ये समझा जा सकता है कि शोषण के ख़िलाफ़ विद्रोह का अंकुर फूट चुका है.
जाति के पार जाने की कोशिश
1984 में आई गौतम घोष की फ़िल्म पार इस शोषण को चरम सीमा के पार ले जाती है. पार बिहार के दो भूमिहीन दलित मज़दूरों की कहानी है जिनके घर जाति के नाम पर हुई हिंसा में जला दिए जाते हैं और भागकर वो कोलकाता आते हैं.
नौरंगिया (नसीरु्द्दीन) और रमा ( शबाना) को एहसास होता है कि यहाँ भी उनका कोई भविष्य नहीं. गाँव लौटने के लिए टिकट का पैसा कमाने के ख़ातिर वो एक आख़िरी ख़तरनाक काम करते हैं- 30 सुअरों के झुंड को नौरंगिया और गर्भवती रमा को उफ़नती नदी के उस पार ले जाना है.
लगभग 12 मिनट का ये सीन आपके रोंगटे खड़े कर देता है. उन्हें काम देने वाला आदमी कहता है- इस जाति के लोग जानवरों को संभालने में अच्छे होते हैं. सिने चौपाल नाम का यूट्यूब चैनल चलाने वाले वरिष्ठ पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज की शिकायत भी यही है कि इन किरदारों को हमेशा कमज़ोर ही क्यों दिखाया जाता है.
दलित किरदारों के चित्रण को लेकर सवाल उठाए जा सकते हैं लेकिन 80 के दशक तक ये किरदार फ़िल्मों में दिखते ज़रुर थे.
फ़िल्मों से ग़ायब हुए दलित किरदार
लेकिन 90 का दशक आते आते, जैसे -जैसे भारतीय सिनेमा ग्लोबल होना शुरु हुआ, बेंडिट क्वीन जैसी फ़िल्मों को छोड़ दें तो ये किरदार ग़ायब होने लगे.
फ़िल्म दामुल बनाने वाले प्रकाश झा ने 2011 में फ़िल्म आरक्षण बनाई.
तब शायद पहली दफ़ा या लंबे समय बाद मॉर्डन हिंदी सिनेमा में एक मेनस्ट्रीम हीरो सैफ अली ख़ान को दलित हीरो का रोल मिला जो पढ़ा लिखा है, सक्षम है और ईंट का जवाब पत्थर से देना जानता है.
मसान से न्यूटन-पढ़ा लिखा, मज़बूत दलित हीरो
दिल्ली की जवाहर लाल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हरीश एस वानखेड़े दलित सिनेमा पर लिखते आए हैं.
वे कहते हैं, "सीमाओं के बावजूद हिंदी फ़िल्मों में बदलाव दिखने लगा है. जैसे फ़िल्म न्यूटन लीजिए. अमित मसूरकर की फ़िल्म में राजकुमार राव को एक नए तरह के दलित हीरो के तौर पर पेश किया गया है. "
हरीश वानखेड़े कहते हैं कि फिल्म में राव शिक्षित हैं और चुनाव करवाने जैसा अहम काम करता है.
वे कहते हैं, "राव का किरदार सरकारी अधिकारी के तौर पर वो कमज़ोर नहीं, वो नैतिक है, भ्रष्ट नहीं. जैसा हीरोइज़म जंज़ीर में अमिताभ ने दिखाया था वैसा ही रोल राजकुमार को दिया गया."
“उसकी जाति का आप केवल अंदाज़ा लगा सकते हैं. आप उसके कमरे में बाबा साहेब अंबेडकर का फ़ोटो देख सकते हैं. जब वो शादी का प्रस्ताव ठुकराता है तो उसे घर से डाँट पड़ती है कि उसे ब्राह्मण या ठाकुर लड़की नहीं मिलने वाली. सबसे अहम है दलित महिलाओं के चित्रण में बदलाव. वेबसिरीज़ दहाड़ और कटहल में ये महिलाएँ पुलिस में हैं, उनकी अपनी गरिमा है और वो सशक्त हैं.”
इसकी मिसाल 2015 में नीरज घायवान की फ़िल्म मसान में भी दिखती है जिसमें हीरो विकी कौशल (दीपक) ने डोम समुदाय के एक लड़के का रोल किया है जिसका परिवार शवों को जलाता है.लेकिन इसमें उम्मीद भी है जहाँ इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा दीपक जाति के बंधनों से आगे निकलना चाहता है.
2019 में आर्टिकल 15 में भी जाति और जेंडर को लेकर सवाल खड़े किए गए हैं. फ़िल्म के एक सीन में पुलिस अधिकारी बने आयुष्मान खुराना अपने सीनियर से पूछते हैं, “ सर ये तीन लड़कियां अपनी दिहाड़ी में सिर्फ़ तीन रुपए अधिक मांग रही थीं.जो मिनरल वाटर आप पी रहे हैं, उसके दो या तीन घूंट के बराबर. उनकी इस ग़लती की वजह से उनका रेप हो गया सर. उनको मारकर पेड़ पर टांग दिया गया ताकि पूरी ज़ात को उनकी औक़ात याद रहे.”
हालांकि अजय ब्रह्मात्मज ये सवाल भी उठाते हैं क्यों आज भी हिंदी फ़िल्मों में दलितों का संरक्षक कोई ऊंचि जाति का ही होता है जैसा कि आर्टिकल 15 में भी था.
दलित बोध का अभाव
अजय ब्रह्मात्मज मानते हैं कि तमिल और मलायलम में जाति को लेकर बेहतरीन फ़िल्में बन रही हैं क्योंकि इनमें दलित बोध है जो हिंदी फ़िल्मों में नहीं दिखता.
2021 में आई तमिल फ़िल्म करनन की शुरुआत होती है उस सीन से जहाँ एक बच्चा बस पर ग़ुस्से में पत्थर फ़ेकता हैं क्योंकि उनकी जाति की वजह से गाँव में कोई बस नहीं रुकती, गर्भवती महिलाओं के लिए भी नहीं.
ये मराठी फ़िल्म फ़ैंड्री के उस बच्चे के आक्रोश की तरह ही है जिसे अंतत एहसास होता है कि वो जाति के परे कभी अपनी पहचान नहीं बना पाएगा और आख़िरी सीन में ग़ुस्से में भीड़ पर पत्थर फ़ेंकता है.
और ये सीन उस छोटे बच्चे की ओर भी वापस ले जाता है जो 1974 में आई अंकुर में ज़मींदार के घर पर पत्थर फेंकता है.
ये आक्रोश इन दलित किरदारों की ताक़त है या फिर उन्हें जाति के उसी दायरे में बांधता है जिससे निकलने की वो कोशिश कर रहे हैं ?
क्या जाति से परे इन किरदारों को न्यूट्रल दिखाना एक सकारात्मक क़दम है या जातिगत शोषण पर लगातार सवाल उठाते रहना फ़िल्मकारों की ज़रूरी ज़िम्मेदारी?
हरीश एस वानखेड़े मानते हैं, “नई फ़िल्मों में भले ही सशक्त दलित किरदार दिखाए जा रहे हैं लेकिन ऐसा नहीं है वो किरदार दलितों के मुद्दों से तटस्थ हो गए हैं. हैं. प्रकाश झा की परीक्षा नाम की फ़िल्म में दलितपिता की मुश्किलें हैं तो उसकी आंकक्षाएँ भी दर्शाई गई हैं. ये बहुत बड़ा बदलाव नहीं है पर सिनेमा धीरे धीरे डेमोक्रेटिक हो रहा है.”
लेकिन अजय ब्राह्त्मज काउंटर सवाल पूछते हैं,हिंदी फ़िल्मों में आज भी दलित किरदारों को नायकत्व क्यों नहीं मिला है. विकी कौशल ने जब मसान की थी वो नए थे, पर आज क्या कोई मेनस्ट्रीम हीरो दलित किरदार करेगा? (bbc.com/hindi)
फिलवक्त देश मेंं कुछ बड़े और दूरगामी नस्ल के सवाल राजनीति के किरदारों में उनकी हैसियत तलाष रहे हैं। इन सवालों की पृष्ठभूमि ने नफरत और मजहबी धु्रवीकरण के जरिए समाज में जहरखुरानी करते रहने की साजिष जारी रखी है। लोकतंत्र की संवैधानिक बनावट चुनिंदा बुद्धिजीवियों, स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों, विधि विषेषज्ञों और राजे रजवाड़ोंं के प्रतिनिधियों सहित बड़ेे किसानों और उद्योगपतियों के नुमाइंदों की मिली जुली कोशिशों से हो सकी थी। संविधान ने उम्मीद की थी कि जो सवाल फौरी तौर पर हल नहीं हो पा रहे, उनका निदान भविष्य की शासक पीढिय़ों और संसद को बुनियादी मंशाओं के मुताबिक करने की जिम्मेदारी महसूस की जाएगी। मूल अधिकार, नीति निदेशक सिद्धान्त तथा अदालती व्यवस्थाओं के मुतल्लिक आधा संविधान तो मजबूरियों का हलफनामा है।
देश के सामने सरकार चलाने से पहले ज़्यादा भारत-पाक विभाजन, भुखमरी, अकाल, जातीय विग्रह और कई पेचीदे प्रश्न उभर आए थे। यही वजह है कि आज़ादी के आंदोलन के सभी बुनियादी आदर्श संविधान निर्माता मुखर रूप से उसके स्थायी मकसदों की सूची में लिख नहीं पाए। भारतीय समाज प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों के दौर में प्रमुख राजनीतिक नेताओं की रहनुमाई में आगे बढऩे रास्ता तलाश रहा था। रहनुमाओं की षिक्षा मुख्यत: विदेशों बल्कि इंग्लैंड में हुई थी। सवाल केवल भाषा का नहीं था, और न अंगरेजियत की तहजीब भर का।
वह वक्त पश्चिम की वैज्ञानिक, तकनॉलॉजिकल और कूटनीतिक निगाह से दुनिया की कशमकश को देखने, समझने और संवारने का था। गांधी, नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, राजगोपालाचारी, जिन्ना, सुभाष बोस, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और न जाने कितने नक्षत्र थे जिनके विचारों की रोषनी में देश को अपने बुनियादी संकल्प पत्र में भविष्य की पीढिय़ों के लिए वायदे भी सुरक्षित करने थे।
नेहरू ने संविधान सभा में उसके सम्भावित उद्देष्यों को लेकर ऐतिहासिक स्वप्नदर्शी भाषण दिया। तमाम महानता के बावजूद उन्हें समाजवाद और सेक्युलरिज्म जैसे शब्दों को संविधान की उद्देशिका में लिखने से परहेज और संकोच करना पड़ा। अम्बेडकर ने इस पर चुभती हुई टिप्पणी भी की थी लेकिन प्रारूप समिति के सभापति बनने पर मानो उन्होंने भी हालात से समझौता ही कर लिया। देश की राजनीति में उद्योगपतियों और राजेरजवाड़ों का इतना अदृश्य लेेकिन कारगर रसूख था कि संविधान की भाषा में स्पष्टता और खुलापन लाने में निर्माताओं को मन मारकर चुप रहना हुआ। विपरीत राजनीतिक हालात होने पर इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में सेक्युलरिज्म और समाजवाद को आईन के मकसद के रूप में शब्दों में साफ -साफ जोड़ा गया। ऐसा करना भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा की आंखों की किरकिरी हुआ। वे आज भी जब जब हिन्दू राष्ट्र लाने का ऐलान करते हैंं, तब तब उन्हें संविधान के पंथ निरपेक्षता वाले ऐलान से जूझना पड़ता है।
भला हो सुप्रीम कोर्ट का, अपनी तमाम विवशताओं, विरोधाभासों और विसंगतियों के बावजूद 1973 में भारत के सबसे बड़ेे मुकदमे केषवानन्द भारती के प्रकरण में बहुमत से यह तय कर दिया कि सेक्युलरिज्म संविधान का बुनियादी ढांचा है। उसे सरकार या संसद संविधान संषोधन के नाम पर बदल नहीं सकती। यह भी कि न्यायपालिका अर्थात सुप्रीम कोर्ट को इस संबंध में व्याख्या करने का पूरा अधिकार होगा।
इस ऐतिहासिक संदर्भ में देष की राजनीति के पिछले लगभग दस वर्ष संविधान के फलसफा का कचूमर निकलते देख रहे हैं। भाजपा का संसद पर कब्जा मजहबी ध्रुवीकरण के चलते हुआ है। इसमें कहां संदेह है। केन्द्रीय सत्ता की नकेल हाथ में आ जाने के बाद भी हिन्दुत्व के जमावड़े ने अपनी मुहिम जारी रखी है। हिन्दू वोट बैंक को अपने पक्ष में पुख्ता करने के लिए मुसलमान से नफरत को राजनीति का मुख्य हथियार और प्रयोजन बनाया गया। देश की जनता अपने बहुमत में निरीह, कूपमंडूप, बुद्धिसंकुल और प्रतिरोधरहित तो रही ही है। उसके ऐसा होने से मजहबपरस्ती का फितूर लोकतंत्र को प्रदूषित करने का बड़ा कारण बन गया है।
इसके अलावा राजनीतिक हथकंडों से नैतिकता को दरकिनार करते अन्य पार्टी के जीत जाने पर भी उसके विधायकों की थोकबंद खरीदी भाजपा के पक्ष में हो जाती है। संपत्ति के संसाधनों पर कॉरपोरेट की मदद से ऑक्टोपस की तरह की पकड़ बना ली गई है। कानून कायदों का कचूमर निकालते और न्यायपालिका को धमकाते, पुचकारते और अपने पक्ष में करते ऐसा माहौल बना दिया गया है कि कहीं कोई जांच तक होने की हालत नहीं है। न्याय करने से डर का नाम जस्टिस लोया हो गया है। राजनीतिक मर्यादाओं और शुचिताओं की खुलेआम हत्या की जा रही है। संसद जैसी पवित्र और शीर्ष प्रतिनिधि संस्था के सदस्यों को मुंह खोलने तक नहीं दिया जा रहा है। जनता संविधान और देष की याने खुद की बदहाली पर भी चुप है। ऐसी जनविरोधी हिकमत तो भारत की गुलामी के दौर में शासक अंगरेज ने भी नहीं दिखाई थी। गौतम अडानी नाम का उद्योगपति भारत का एकक्षत्र वैश्विक संपत्ति सम्राट बना दिया गया है। कुबेर नाम का पौराणिक चरित्र भी इतना अमीर नहीं दिखाया जाता। लोकतंत्र की मर्यादा तार तार करते राष्ट्रपति पद की इतनी तौहीन कर दी गई है कि उनके मुलाकातियों की सूची भी सरकार तय करती कही जा रही है। भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री का रुतबा इतिहास के उन सम्राटों से कहीं ज़्यादा है, जिनके अत्याचारों से पीडि़त होकर लोग ईश्वर से मदद मांगते ‘त्राहिमाम त्राहिमाम’ करने लगते थे। गर्ज यह कि भारत इस समय राजनीति, प्रशासन और सामाजिक समरसता के लिहाज से इतिहास के सबसे बुरे अनपेक्षित दौर में है। पतन कथा अभी आगे और भी लिखी जाने की स्थिति है ही। ऐसे व्यापक राजनीतिक, ऐतिहासिक संदर्भ में देश लोकतंत्र के भविष्य को लेकर आपसी जद्दोजहद बल्कि घबराहट में भी है। शक्तिशाली और लोकप्रिय बना दिए गए प्रधानमंत्री मोदी के मुकाबले के लिए कई राजनीतिक दल हैं, लेकिन संघर्ष करने की उनकी ताकत पर जनता के कई वर्गों को पूरा भरोसा नहीं है।
पस्तहिम्मती और राजनीतिक तोडफ़ोड़ के इस बुरे वक्त में हाल में हुए कर्नाटक विधानसभा के चुनाव के परिणाम बदलाव की ताजा हवा के झोंके की तरह आए। कोई सर्वे एजेंसी या अनुमान करने वाले शुरू में मानने को तैयार नहीं थे कि कर्नाटक में प्रधानमंत्री की निजी सक्रिय दिलचस्पी बल्कि धुआंधार चुनाव प्रचार के कारण भाजपा हार भी सकती है। आखिर के दस दिन तो नरेन्द्र मोदी ने कर्नाटक में डेरा ही डाल दिया और ताबड़तोड़ रैलियां और सभाएं करने का रिकॉर्ड बना दिया। भारतीय लोकतांत्रिक परंपरा में प्रधानमंत्री प्रदेश के विधानसभा चुनाव में इतना सघन प्रचार गैर संवैधानिक जैसा समझते नहीं करते रहे हैं।
कांग्रेस पार्टी के ऐलान में बताया गया कि उसकी सरकार आने पर भाजपा के हमलावर आनुवांषिक संगठन बजरंग दल बल्कि खुद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध लगाने पर विचार होगा। कर्नाटक में ही श्रीराम सेने नाम का घातक साम्प्रदायिक संगठन कई निर्दोष लोगों की हत्याओं का आरोपी रह चुका है। साम्प्रदायिक नफरत का सैलाब कर्नाटक में खुल्लमखुल्ला सडक़ों की हिंसा तक में बहाया जाता रहा है। विचारक प्रोफेसर कलबुर्गी और पत्रकार गौरी लंकेश की निर्मम हत्या बंगलोर में ही खुले आम की गई, लेकिन सरकार की ओर से दोषियों के खिलाफ कोई कारगर कार्यवाही नहीं हो सकी। हिजाब प्रकरण में अल्पसंख्यक समुदाय की स्कूली छात्राओं को संस्थाओं से निकाला गया। इसके बाद कर्नाटक हाई कोर्ट ने सरकार से हमकदम होकर हिजाब पहनने की मांग को प्रतिबंधित कर दिया।
फिलवक्त मामला सुप्रीम कोर्ट में अनिर्णय की हालत में है। कर्नाटक की भाजपा सरकार दल बदल और तोडफ़ोड़ के कारण ही बनाई जा सकी थी। कांग्रेस विधायकों की तो पूरे देश में थोकबंदी में भाजपा द्वारा पिछले वर्षों में खरीदी हो रही है। भाजपा अन्य पार्टियों के विधायकों को आसानी से पूरी कीमत देकर खरीद लेती है। कहीं-कहीं एकाध विधायक होने पर भी सरकार में हिस्सेदारी भाजपा की हो ही जाती है। चाहे मेघालय हो, मध्यप्रदेष या महाराष्ट्र या अन्य प्रदेश। लोकतंत्र मेंं दलबदल, भ्रष्टाचार, हिंसा और संविधान विरोध का माहौल अपनी सड़ांध और बदबू फैला तो रहा है।
-अरुण सिन्हा
सिर्फ जीडीपी बढ़ना अर्थव्यवस्था की मजबूती नहीं, जब तक युवाओं को नौकरी की दर नहीं बढ़ेगी, वास्तविक विकास नहीं होगा।
क्या आपको 1958 की फिल्म 'मालिक' का आशा भोंसले का वह गाना याद है- 'पढ़ोगे लिखोगे होगे नवाब/ खेलोगे कूदोगे होगे खराब'? यह हाल ही में आजाद हुए भारत के बच्चों को साधारण-सा संदेश देता था कि शिक्षा अच्छे जीवन का मार्ग है।
आज के भारत में करोड़ों शिक्षित युवाओं के लिए यह सच नहीं है। अच्छे जीवन के लिए उन्हें अच्छे वेतन वाली अच्छी नौकरी चाहिए और वे इसे कहीं नहीं पाते। आप जितने अधिक शिक्षित हैं, आपके नौकरी पाने की संभावना उतनी ही कम है। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट के अनुसार, ग्रेजुएट और उससे ऊपर शिक्षा वालों में राष्ट्रीय औसत से तीन गुनी बेरोजगारी है। आश्चर्य नहीं कि शिक्षित बेरोजगार बेचैन हैं। उन्होंने और उनके परिवारों ने उनकी शिक्षा के लिए काफी पैसे और समय लगाए हैं। वे कमाना आरंभ करना चाहते हैं। कुछ नहीं से कुछ तो बेहतर है। इसलिए, वे ऐसी नौकरियों के लिए भी आवेदन करते हैं जिनमें कम शैक्षणिक योग्यता की जरूरत होती है।
2018 में यूपी पुलिस ने टेलीफोन मैसेंजरों के 62 पदों के लिए विज्ञापन दिया जिनका काम एक से दूसरे पुलिस स्टेशन पर साइकिल से दस्तावेज पहुंचाना था। वैसा कोई भी व्यक्ति इसके लिए आवेदन कर सकता था जो पांचवीं पास हो। कम-से-कम 93,000 लोगों ने आवेदन किए। चयन बोर्ड को यह जानकर धक्का लगा कि इनमें 50,000 ग्रैजुएट (जिनमें बीटेक भी थे), 28,000 पोस्टग्रैजुएट (जिनमें एमबीए भी थे) और 3,700 पीएचडी वाले थे।
उसी साल, रेलवे भर्ती बोर्ड ने 63,000 'लेवल 1' भर्तियों के लिए विज्ञापन दिए- इनके सबसे निचले स्तर में गैंगमैन, गेटमैन और पोर्टर भी शामिल थे- इनके लिए योग्यता दसवीं पास की थी। कम-से-कम 1.9 करोड़ लोगों ने आवेदन दिए जिनमें अधिकतर ग्रेजुएट और पोस्टग्रेजुएट थे। 2019 में, महाराष्ट्र सरकारी कैंटीन के लिए चुने गए 13 में से 12 वेटर ग्रेजुएट थे। इसके लिए न्यूनतम योग्यता चौथी क्लास पास की थी। इस काम में सब्जी काटना, टेबल, बरतन और फर्श साफ करना शामिल है।
आखिर, कम शिक्षा वाली नौकरियों के लिए अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोग समूह में झपट्टा मारने के लिए क्यों लालायित रहते हैं? क्योंकि पर्याप्त नौकरियां नहीं हैं। हम ऐसी मिथ्या में जी रहे हैं जिसमें अर्थव्यवस्था बढ़ रही है लेकिन रोजगार घट रहे हैं।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) और सेंटर फॉर इकोनॉमिक डेटा एंड एनालिसिस (सीडा) के संयुक्त अध्ययन के अनुसार, 2016-17 और 2020-21 के बीच मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में नौकरी पाए लोगों की संख्या 5.1 करोड़ से घटकर 2.7 करोड़, मतलब लगभग 50 प्रतिशत रह गई है। इसमें बुरा यह है कि रोजगार में अधिकतर कमी टेक्सटाइल, (टाइल्स-जैसे) भवन निर्माण सामग्री और खाद्य प्रसंस्करण-जैसे श्रम-प्रधान सेक्टरों में हुई है। टेक्सटाइल्स में 2016-17 में 1.26 करोड़ नौकरियां थीं जो 2020-21 में घटकर 55 लाख रह गईं। इसी तरह, इस अवधि में भवन निर्माण सामग्री कंपनियों में नौकरियां 1.14 करोड़ से घटकर 48 लाख रह गईं।
पश्चिमी देशों में अनुभव यह था कि जब अर्थव्यवस्था बढ़ती थी, तो श्रम कृषि से मैन्युफैक्चरिंग की ओर स्थायी तौर पर जाता था। लेकिन भारत में इसका उलटा हो रहा है। श्रमिक मैन्युफैक्चरिंग से कृषि की ओर वापस जा रहे हैं। सीएमआईई-सीडा अध्ययन ने पाया कि 2016-17 और 2020-21 के बीच के चार वर्षों में कृषि क्षेत्र में रोजगार पाने वाले लोगों की संख्या बढ़ गई। और कृषि क्षेत्र में रोजगार पाने वालों में अशिक्षित ही नहीं बल्कि ऐसे शिक्षित भी हैं जिनके पास रोजगार नहीं है या मैनयुफैक्चरिंग सेक्टर ने जिन्हें बाहर कर दिया है।
यह साफ है कि भारतीय अर्थव्यवस्था गलत दिशा में जा रही है। एक ऐसे देश में जहां दुनिया में सबसे अधिक श्रमिक पाए जाते हैं, अर्थव्यवस्था के तौर पर अधिक-से-अधिक श्रम-प्रधान (अधिक श्रमिक, कम मशीनें) होने की जगह यह अधिक-से-अधिक पूंजी-प्रधान (ज्यादा मशीनें, कम श्रमिक) होती जा रही है। पिछले दो दशकों में न तो यूपीए और न एनडीए सरकारों ने इस दिशा को बदलने के लिए कुछ भी किया क्योंकि जीडीपी बढ़ रही थी। आखिर, निवेश जीडीपी में जुड़ता है। मेक-इन-इंडिया और उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन योजनाओं (प्रोडक्शन-लिंक्ड इन्सेटिव स्कीम्स) ने भी पूंजी-प्रधान मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा दिया है।
पर, जीडीपी ही सबकुछ नहीं है। दुनिया में भारत की सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था का उत्साह देश के रोजगारहीन विकास को लेकर बढ़ रही निराशा को नहीं छिपा सकता। अर्थव्यवस्था के बढ़ने और लोगों का विकास न होने का क्या उपयोग?
भारत की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम आयु वालों की है। वॉल स्ट्रीट जर्नल के अनुसार, इनमें से 1.2 करोड़ हर साल श्रम शक्ति में शामिल होते हैं, लेकिन 55 लाख को ही नौकरी मिल पाती है। सावधिक श्रम शक्ति सर्वेक्षण के अनुसार, 2021 में अप्रैल-जून तिमाही में 15-29 आयु वर्ग के लिए युवा बेरोजगारी 25.5 प्रतिशत थी। जनसांख्यिकीय लाभांश के तौर पर जानी जाने वाली भारत की युवा आबादी वरदान कही जाती है। लेकिन युवाओं के लिए रोजगार पैदा न करने वाली अर्थव्यवस्था में वरदान अभिशाप में बदल सकता है।
यह देखकर चिंता होती है कि पूंजी-प्रधान मैन्युफैक्चरिंग के विचार को युवा आबादी के लिए पर्याप्त रोजगार पैदा करने वाले श्रम-प्रधान में बदलने की जगह सरकार प्रतीकवाद में उलझी हुई है। उदाहरण के लिए, इसने 2022 के मध्य में घोषणा की कि यह अगले डेढ़ साल में अपने मंत्रालयों और विभागों में 10 लाख युवाओं को नियुक्त करेगी। 2022 के मध्य से 2023 के अंत तक में जब एक करोड़ से अधिक लोग नौकरी चाह रहे हों, ऐसे देश में उनमें से 10 लाख को सरकारी नौकरियां देना उस अवधि में ही बेरोजगारी को बढ़ावा देगी, पिछले सालों में और आने वाले वर्षों में बेरोजगार रहने वाले लोगों की तो बात ही छोड़ दें। सरकारी रोजगार देश में बेरोजगारी समस्या का जवाब नहीं हो सकता, सिर्फ निजी रोजगार ही हो सकता है।
बेरोजगारी से प्रभावी तरीके से निबटने के लिए भारत को चौमुखी रणनीति अपनानी होगी। पहली, सरकार को (टेक्सटाइल, गारमेंट, चमड़ा और फुटवीयर, खाद्य प्रसंस्करण, लकड़ी उद्योगों और फर्नीचर-जैसे) श्रम-प्रधान उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए अपनी नीतियों और इंसेटिव्स को बदलना होगा। मई, 2023 में सरकार ने श्रम-प्रधान क्षेत्रों के लिए भी पूंजी प्रधान इंसेटिव (पीएलआई) स्कीमों की घोषणा की जो अच्छा कदम है। दूसरी, सरकार को अपने कुशलता वाले कार्यक्रमों- प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (पीएमकेवीवाई) को वास्तव में काम वाला बनाना होगा।
समीक्षाओं ने पीएमकेवीवाई में प्रशिक्षण और नौकरी पाने में प्रमुख कमियां पाई हैं। तीसरी, उद्योग को कुशलता के उत्तरदायित्व में भागीदारी करनी होगी। गूगल और आईबीएम-जैसी कंपनियां अपनी जरूरत वाले लोगों के लिए अपने कुशलता वाले प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाती हैं। भारतीय उद्योग को भी ऐसा करना होगा। चौथी, शिक्षा को स्कूल/कॉलेज और रोजगार की जगह के बीच खाई को भरना होगा। ऐसे कोर्स चाहिए जो कॅरियर से जुड़े हों और काम-आधारित शिक्षा से जुड़े हों।
(अरुण सिन्हा पत्रकार और लेखक हैं)
-नासिरुद्दीन
मुंबई से एक और लड़की की हत्या की दिल दहला देने वाली ख़बर आई है.
पिछले छह महीनों के दौरान अनेक ख़बरें सामने आई हैं, जहां लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही लड़कियों की हत्या उनके ही प्रेमी साथियों ने की है.
इससे पहले अपनी पसंद के लड़कों के साथ ज़िंदगी गुज़ारने का फ़ैसला करने वाली लड़कियों के मां-पिता या रिश्तेदारों द्वारा उनके मारे जाने की ख़बरें ज़्यादा आम हुआ करती थीं. अब उनका साथ देने का वादा करने वाले उनके साथी भी उनका ख़ून कर रहे हैं.
सामने आने वाली हर घटना पहली वाली से ज़्यादा ख़ौफ़नाक और दिल दहला देने वाली है.
पहले लड़की की हत्या. फ़िर शव को काटना. काटने के लिए तरह-तरह के तरीक़े और औज़ारों का इस्तेमाल करना. काटे हुए शरीर के साथ उसी घर में रहना. फ़िर बारी-बारी से शरीर के हिस्सों को ठिकाने लगाना. उन्हें जलाना, उबालना, फेंकना, कुत्ते को खिलाना, सूटकेस में भर देना, फ्रीज़ में डाल देना… और यह सब करते हुए अपनी दुनिया मज़े से रमे रहना.
यह सब उनके साथ किया जा रहा है, जिनके साथ, साथ जीने मरने के क़समें-वादे किये गये थे.
लव-इन यानी सह-जीवन में दो लोग अपनी मर्जी से साथ रहना तय करते हैं. यह जीने का बेहतरीन तरीक़ा हो सकता है, इसलिए उम्मीद की जाती है कि इस रिश्ते में बराबरी और इज़्ज़त होगी, अहिंसा होगी और मोहब्बत तो होगी ही.
मगर अब ये रिश्ते भी दागदार किये जा रहे हैं. हालांकि, ऐसी कुछ कहानियों का इस्तेमाल लिव-इन के विचार के ख़िलाफ़ करना चालाकी होगी.
मर्दों के लिए यह सब करना इतना आसान क्यों है?
क्या हम लड़कों और मर्दों ने कभी प्रेम करती या प्रेम में डूबी लड़कियों की आंखें देखी हैं?
अगर देखी हैं तो मोहब्बत और भरोसे से भरी उन नज़रों के साथ धोखा कैसे किया जा सकता है? ज़रा सोचिये हम कितना बड़ा जुर्म कर रहे हैं.
दरअसल ज़्यादातर लड़कों और मर्दों को प्रेम करना नहीं आता है. वे प्रेम में अलबला कर और घमंडी भी हो जाते हैं. वे ख़ुद को विजेता समझते हैं. वे प्रेम को जीतना चाहते हैं.
उन्हें नहीं पता कि प्रेम में हारना होता है. सब कुछ हारना होता है.
यही नहीं, मर्द प्रेम की शुरुआत ही शरीर से मानते हैं. इसलिए शरीर से ही शुरू करते हैं. शरीर जीतने के लिए हमलावर होते हैं, ज़ोर-ज़बरदस्ती करते हैं.
लेकिन किसी का मन जीतने के लिए इंसान होना पड़ता है और हमेशा इंसान बने रहना पड़ता है. यानी अहिंसक बने रहना पड़ता है. ऐसा होना आसान नहीं होता.
मर्दाना आशिक बन कर प्रेम नहीं हो सकता
जब तक लड़की उनके ‘काबू’ में नहीं आती, यही लड़के मान-मनुहार करते हैं. जिस क्षण उन्हें यह अंदाज़ा हो जाता है कि अब यह ‘मेरी’ है, उसी क्षण उनका व्यवहार आशिक़ से ‘मर्द’ वाला हो जाता है.
और अगर उन्हें इस बात का भरोसा हो जाए कि इस लड़की का साथ देने वाला कोई नहीं है या इसके साथ कोई खड़ा नहीं होगा या अब यह मेरे चंगुल में फंस चुकी है, उस क्षण लड़कों और मर्दों का व्यवहार बदल जाता है.
लड़कों को इस बात का भी बख़ूबी अंदाज़ा होता है कि शादी की रस्म के बिना रह रहीं आम लड़कियों को सामाजिक मान्यता नहीं मिलेगी. वे लोक-लाज, इज़्ज़त के नाम पर चुप रहना पसंद करेंगी.
इस दिमाग़ी हालत का फ़ायदा मर्द बख़ूबी उठाते हैं. हिंसा की बुनियाद ऐसे ही पड़ती है.
लिव-इन में रहने वाली और पिछले दिनों मारी गई ज़्यादातर लड़कियां इन्हीं हालात से गुज़र रही होंगी. इसीलिए इनमें से ज़्यादातर के परिजनों को उनके जीवन के बारे में या तो पता नहीं था या पता था तो उन्होंने बेटियों से नाता तोड़ लिया था.
बहादुर होती हैं लिव-इन में रहने वाली लड़कियां
हमारे समाज में लड़की के लिए शादी सामाजिक हिफ़ाज़त की छतरी ही नहीं बल्कि सामाजिक इज़्ज़त और रिश्ते की मान्यता पाने का भी ज़रिया है.
ज़्यादतर लड़कियों की जिस तरह परवरिश की जाती है, उसमें उनके होने या उनकी ज़िंदगी का मक़सद शादी बना दी जाती है.
इसलिए शादी की रस्म के बिना या ‘लिव-इन’ रिश्ते में लड़के का रहना और लड़की का रहना एक ही बात नहीं है. लड़की का ऐसे रहना बहुत बहादुरी का काम है.
समाज के लोगों की उंगली हमेशा लड़की पर उठती है, सवाल हमेशा लड़की से किया जाता है. लाँछन हमेशा लड़की को झेलना पड़ता है.
आज भी बेहद कम लड़कियां हैं, जो शादी के दायरे से बाहर खुलेआम किसी साथी के साथ लिव-इन में जीवन गुज़ारने फ़ैसला करती हैं. खुलेआम उसे मानने का हौसला और ताक़त रखती हैं.
ज़्यादातर लड़कियां अपने इस फ़ैसले को न सिर्फ़ अपने परिवारवालों से छिपाती हैं बल्कि बहुत नज़दीक के लोगों को भी इसका बारे में खुलकर नहीं बता पातीं. क्यों?
यही नहीं, लड़की के लिए पार्टनर का चुनाव और उसके साथ हिम्मत से खड़ा होना, लड़कों की तुलना में कहीं ज़्यादा हिम्मत का काम है. इसीलिए अगर कोई साथी के मोहब्बत के भरोसे घर छोड़ती है और उसके साथ छल होता है- तो यह कहीं बड़ा जुर्म है.
लिव-इन का फ़ैसला लेनी वाली लड़कियों के साथ आमतौर पर उसके परिवार वाले खड़े नहीं होते हैं. जब इन लड़कियों के साथी उनके साथ बदसुलूकी या हिंसक बर्ताव करते हैं तो उनके पास कोई ऐसा कंधा नहीं होता है, जहां वो भरोसे के साथ अपना दर्द कह सकें या उसके भरोसे बदसुलूक साथी या रिश्ते से नाता तोड़ सकें. कोई ऐसी जगह भी नहीं होती है, जहां वे बेहिचक ऐसे साथी से नाता तोड़ कर जा सकें. वह अपने पुराने दोस्तों से भी कट जाती है.
वैसे भी लड़कियों को यही घुट्टी पिलाई जाती है कि भला है-बुरा है, जैसा भी है उसके साथ निबाह करना है. इसलिए सह-जीवन जैसे रिश्ते में जाने वाली लड़कियाँ भी बर्दाश्त करती हैं. बर्दाश्त करने की एक बड़ी वजह यह भी होती है कि वे इसे अपने फ़ैसले का नतीजा मानती हैं. इसलिए इसे ढोती हैं.
दूसरी ओर, लड़के या मर्दों के लिए ऐसे रिश्ते से निकलना हमेशा आसान होता है. उनका परिवार अक्सर नहीं छूटता या उन्हें आसानी से अपना लेता है. मर्द जो हैं! यह उसके मर्दानगी के गुण मान लिए जाते हैं.
यही नहीं परिवार तो जानते-बूझते ऐसे लड़कों की शादी भी तय कर देते हैं. वह एक रिश्ते में रहते हुए दूसरी लड़की से शादी भी कर लेते हैं. शादी के लिए लिव-इन की दोस्त को मारकर तंदूर में भी डाल देते हैं. वह झूठ-सच के साथ आसानी से समाज, परिवार और दोस्तों के बीच अपना लिए जाते हैं.
मर्दों को मोहब्बत करना सीखना होगा
लड़कियां तो काफ़ी बदलीं लेकिन उनसे कदमताल करते हुए लड़के नहीं बदले हैं. वे अब भी मर्दाना तरीक़े से व्यवहार करते हैं. उनके लिए रिश्ते और रिश्ते को बनाने का तरीक़ा पितृसत्तात्मक है.
वे जब प्रेम करते हैं तो अक्सर छल करते हैं. वे रहते मर्दवादी हैं और अपने को नारीवादी दिखाना चाहते हैं. वे इंस्टाग्राम की नारीवादी पोस्ट और रील से लड़कियों को रिझाना चाहते हैं. वे उस पोस्ट में कही गई बातों के मुताबिक ख़ुद चलते नहीं. उन रास्तों को अपनाते नहीं. आज़माते नहीं. बदलते नहीं.
मर्दों को समानता और सम्मानजनक मोहब्बत करना सीखना होगा. इसके लिए सबसे पहले लड़की की इज़्ज़त करनी सीखनी होगी.
मां-पिता, रिश्तेदार या दोस्त भी बहुत कुछ कर सकते हैं
आमतौर पर लिव-इन या अपनी पसंद का साथी चुनने वाले के साथ लड़की के घरवाले, नाते-रिश्तेदार, गांव-समाज नहीं खड़ा होता है. यह वह पहली चीज़ है, जो लड़की की हालत को कमज़ोर बनाती है और लड़के को मर्दाना ताक़त देती है.
इसलिए सबसे पहले ज़रूरी है कि अगर कोई लड़की अपना साथी चुन रही है, तो उसकी बात जानी जाए. समझी जाए. हौसला दिया जाए. इतना भरोसा दिया जाए कि वह हमेशा अपनी बात खुलकर बेख़ौफ़ बता सके.
लड़की के फ़ैसले को इज़्ज़त या नाक या मूंछ से जोड़कर न देखा जाए. तब शायद हमारी बेटियां ज़हरीले दबंग मर्द साथियों की हिंसा से लड़ने का बेख़ौफ़ हौसला बना पाएंगी.
लड़कियों को कुछ करना होगा या नहीं?
लिव-इन बड़ा फ़ैसला है. आमतौर पर नौकरी करती लड़कियों को लगता है कि वे अब ऐसे फ़ैसले ले सकती हैं और वो लेती हैं.
लेकिन पैरों पर खड़े होने का मतलब महज़ नौकरी या आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर होना नहीं है. सशक्त होने की सबसे पहली शर्त होनी चाहिए- दिमाग़ी तौर पर आज़ाद शख़्सियत. मानसिक ग़ुलामी से आज़ाद ज़िंदगी.
अगर लड़कियों ने अपने घरवालों से आज़ाद हो कर, अपने हित में फ़ैसला लिया तो उन्हें अपनी ज़िंदगी के हर फ़ैसले में यह आज़ादी बरकरार रखनी चाहिए.
यह क़तई नहीं होना चाहिए कि एक तरफ़ तो उन्होंने घरवालों से अपनी आज़ादी ली और यह आज़ादी अपने मर्द साथी के पास गिरवी रख दी, उसके ग़ुलाम हो गए. वह जैसा चाहे, वे वैसा ही ज़िंदगी ग़ुज़ारें. उसके मुताबिक, अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले लें. यह सशक्त होना नहीं है.
इसलिए लड़कियों को मोहब्बत और मोहब्बत के नाम पर ग़ुलामी में फ़र्क करना सीखना होगा.
‘अच्छी लड़की’ की छवि तोड़नी होगी
लड़कियों को भी मर्दाना समाज की बनाई सहनशील, सुशील, त्यागी, सेवक, अच्छी कन्या की छवि तोड़नी होगी. 'लड़की डोली में जाती है, फिर वो अर्थी में आती है' या ‘पति का घर ही असली घर है’ या ’मेरा पति मेरा देवता है’- इस सोच को दिमाग़ से निकाल फेंकना होगा.
लड़कियों को यह दिमाग़ से निकालना होगा कि ‘वह‘ उनके साथ कुछ भी कर सकता है. जैसे- ‘वह‘ प्रेस करता है तो मार भी सकता है. कभी-कभार मेरी ग़लती पर मार ही दिया तो कौन सा बड़ा अपराध हो गया, प्यार भी तो करता है? पता नहीं ऐसा सोचने वाली लड़कियों के दिमाग़ में प्यार की क्या परिभाषा है? वे किस प्यार की बात कर रही हैं?
प्रेम में हिंसा की जगह नहीं
मोहब्बत में किसी भी तरह की हिंसा की जगह नहीं हो सकती है. हिंसा का मतलब सिर्फ़ देह पर पड़ने वाली चोट नहीं है, मन पर होने वाले वार भी हैं और दिमाग़ को परेशान वाली बातें भी हैं.
हर वह बात हिंसा है, जो इंसान के सम्मान के ख़िलाफ़ है. जो प्रेम करता है, वह मर्द ‘कभी-कभार’ भी किसी तरह की हिंसा नहं कर सकता या मार नहीं सकता. कहीं आने-जाने या किसी से बात करने से रोक नहीं सकता.
यह बात जितनी पुख़्ता तौर पर लड़कियां बता सकती हैं, बताना ज़रूरी है. यानी जो बात सम्मान के ख़िलाफ़ हो, किसी भी तरह की आज़ादी को नियंत्रण करने की कोशिश हो, उसे पहली ही सीढ़ी पर रोक देना निहायत ज़रूरी है.
सम्मान और आज़ादी से एक बार समझौता, हमेशा समझौते के रास्ते पर ही ले जाता है. इस समझौते में जो चीज़ ख़त्म होगी, वह है लड़कियों की आज़ाद शख़्सियत.
ऐसी किसी भी हिंसा का अहिंसक तरीक़े से मुक़ाबला करना ज़रूरी है. अहिंसा कमज़ोरी की निशानी नहीं है. जैसा महात्मा गांधी कहते हैं, अहिंसा ताक़तवरों का हथियार है.
यही नहीं लड़कियों को हमेशा इस बात को याद रखना चाहिए कि उन्होंने लिव-इन जैसा बहादुरी का फ़ैसला अकेले दम पर किया और इसके लिए लोगों से रिश्ते तोड़े. इसीलिए मोहब्बत का मतलब बर्दाश्त करना नहीं है.
हिंसा को किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं करने की आदत डालनी होगी. रिश्ते में एक बार हिंसा को जगह मिली तो वह पांव पसारती ही जायेगी. लड़कियों को ये भी जानना चाहिए कि ऐसे रिश्ते से जितनी जल्दी हो सके बाहर निकलना ज़रूरी है. (bbc.com/hindi)
भारत सरकार ने हिंदू राष्ट्रवाद पर महात्मा गांधी की असहमति और अन्य विवादास्पद मुद्दों से जुड़े संदर्भों को हटाने के लिए पाठ्यपुस्तकों में बदलाव किया है. आखिर सरकार इतिहास का पुनर्लेखन क्यों कर रही है?
डॉयचे वैले पर आदिल भट की रिपोर्ट-
भारत इतिहास के एक नए युग की शुरुआत कर रहा है. दूसरे शब्दों में कहें, तो इतिहास का पुनर्लेखन किया जा रहा है. यह वह इतिहास है जो छठी से 12वीं कक्षा तक स्कूलों में छात्र-छात्राओं को पढ़ाया जाता है. अधिकारियों ने हिंदू राष्ट्रवाद को लेकर महात्मा गांधी की असहमति के साथ-साथ अन्य घटनाओं से जुड़े कुछ संदर्भों को हटाने के लिए इतिहास और राजनीति की पाठ्यपुस्तकों में बदलाव किया है.
स्कूली किताबों से गालिब, टैगोर को गायब करने की मांग
भारत के बड़े हिस्से पर मुगलों के सैकड़ों वर्षों के शासन से जुड़े अध्याय में भी बदलाव किया गया है. सिर्फ यही नहीं, बल्कि गुजरात में हुए 2002 के दंगों से जुड़े संदर्भों को भी पुस्तकों से हटा दिया गया है. इस दंगे में करीब 1,000 से ज्यादा लोग मारे गए थे, जिसमें ज्यादातर मुस्लिम थे. उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी थे, जो सन 2014 से भारत के प्रधानमंत्री हैं.
आलोचकों ने भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन के प्रयासों की निंदा की और कहा कि सरकार हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे के अनुरूप बनाने के लिए पुस्तकों में संशोधन कर रही है. वहीं दूसरी ओर, सरकार का कहना है कि इन बदलावों का उद्देश्य पाठ्यक्रम की तर्कसंगत व्याख्या करना है. साथ ही, छात्रों के बोझ को कम करना है.
बदलाव को विचारधारा फैलाने की कोशिश मानते हैं कई एक्सपर्ट्स
'इसे हटा दिया गया है और मुझे लगता है कि यह अच्छा है'
नई दिल्ली के आदर्श पब्लिक स्कूल में छात्रों को संशोधित पाठ्यपुस्तकें पहले ही मिल चुकी हैं. अब वे महात्मा गांधी के हत्यारे हिंदू राष्ट्रवादी नाथूराम गोडसे का पूरा इतिहास नहीं जान पाएंगे. उन्हें जाति व्यवस्था से जुड़ी कई बातों की जानकारी भी नहीं मिल पाएगी. कई सामाजिक आंदोलनों से जुड़े अध्यायों को भी पुस्तकों से हटा दिया गया है. कई सदियों तक भारत के कुछ हिस्सों पर मुगल सल्तनत का शासन था, वह भी अब किताबों में पढ़ने को नहीं मिलेगा.
आदर्श स्कूल की प्राचार्या पूजा मल्होत्रा इन बदलावों का समर्थन करती हैं. उनका मानना है कि ये बदलाव स्कूली बच्चों के लिए, भारतीय इतिहास के सकारात्मक पक्ष को सामने लाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है. कक्षा में वह विद्यार्थियों को बताती हैं कि इतिहास के सभी अप्रासंगिक हिस्सों को हटा दिया गया है. ऐसा उनके हित को ध्यान में रखते हुए किया गया है.
पूजा ने डीडब्ल्यू से कहा, "मुझे लगता है कि हर कोई जानता है कि नाथूराम गोडसे ने गांधी जी की हत्या की थी, लेकिन यह मामला हिंदू-मुस्लिम से जुड़ा हुआ है, इसलिए इस पर काफी ज्यादा हो-हल्ला मच रहा है. अब इसे हटा दिया गया है और यह अच्छा कदम है.”
भारत में स्कूल पाठ्यक्रम पर विवाद नया नहीं है
गांधी जी की हत्या से जुड़ा हिस्सा हटाया गया
द इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने उन खास उदाहरणों पर गौर किया है जिनमें महात्मा गांधी की मृत्यु से जुड़े पैराग्राफ को 12वीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों से हटा दिया गया है.
संशोधन के दौरान कुछ पंक्तियों को हटाया गया है. जैसे, "उन्हें (गांधी जी को) वे लोग विशेष रूप से नापसंद करते थे जो चाहते थे कि हिंदू बदला लें या जो चाहते थे कि भारत हिंदुओं के लिए एक देश बने जैसे कि पाकिस्तान मुसलमानों के लिए था...” और "हिंदू-मुस्लिम एकता के उनके दृढ़ प्रयास ने हिंदू चरमपंथियों को इतना उकसाया कि उन्होंने [गांधी] की हत्या के कई प्रयास किए.”
अधिकारियों ने उन पंक्तियों को भी हटा दिया जिनमें महात्मा गांधी की मौत के बाद हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन चलाने वाले कई समूहों के खिलाफ प्रतिबंध की बात कही गई थी, जैसे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसी तरह के अन्य समूह.
मूल पाठ्यपुस्तक में कहा गया था कि 1948 में गांधी जी की हत्या से "देश में सांप्रदायिक स्थिति पर लगभग जादुई प्रभाव पड़ा... भारत सरकार ने सांप्रदायिक तनाव फैलाने वाले संगठनों पर कार्रवाई की. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जैसे संगठनों पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया था.”
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद ने 23 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के सार्वजनिक और निजी स्कूलों के लिए नए संस्करण जारी किए हैं. स्कूलों में अब नई किताबें पढ़ाना अनिवार्य कर दिया गया है.
शिक्षा को ‘वैचारिक हथियार' में बदल दिया गया
इन बदलावों ने भारतीय मीडिया और शैक्षणिक जगत में एक नई राष्ट्रीय बहस छेड़ दी है. नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रों ने पाठ्यपुस्तकों में हुए बदलावों को वापस लेने के तरीकों पर चर्चा करने के लिए एक सभा का आयोजन किया. इतिहासकार सुचेता महाजन ने इतिहास की चुनिंदा तरीके से पढ़ाई के खतरों के बारे में छात्रों से बात करते हुए बदलावों की पुरजोर निंदा की. तीन दशकों से इस विश्वविद्यालय में पढ़ा रहीं सुचेता इन बदलावों को इतिहास मिटाने और उसे हथियार बनाने के प्रयास के तौर पर देखती हैं.
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "मौजूदा सरकार और उसकी पिछली पीढ़ियों ने इसे वैचारिक हथियार या उपकरण बना लिया है, ताकि वे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा और इस देश को हिंदू प्रभुत्व देश में बदलने की बौद्धिक और सांस्कृतिक परियोजना में इसका इस्तेमाल कर सकें. यह उसी एजेंडे का हिस्सा है.”
विशेषज्ञों का कहना है कि स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में बदलाव शुरू करके सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी युवा पीढ़ी के मस्तिष्क को प्रभावित करने का प्रयास कर रही है. ये युवा आधे-अधूरे और तोड़े-मरोड़े गए इतिहास को पढ़ते हुए बड़े होंगे.
सुचेता महाजन और कई अन्य आलोचक भी इन बदलावों को भारत के इतिहास से मुसलमानों को मिटाने के सत्तारूढ़ दल के प्रयासों के तौर पर देखते हैं. ऐसा इसलिए भी कहा जा रहा है, क्योंकि भाजपा ने राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और अन्य प्रमुख शहरों में मुस्लिम शासकों के नाम वाली सड़कों का नाम बदलना शुरू कर दिया है.
गांव से शिक्षा तंत्र को बदलने वाले गुरु डिस्ले
भाजपा इन बदलावों को बैलेंसिंग एक्ट (संतुलित कार्रवाई) के तौर पर देख रही है. बीजेपी प्रवक्ता टीना शर्मा ने अपने स्कूली दिनों को याद करते हुए कहा कि उन्हें जो इतिहास पढ़ाया गया था उसमें मुगल शासकों का महिमामंडन किया गया था. उन्होंने कहा कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने हमेशा ‘राष्ट्र-विरोधी इतिहास' को बढ़ावा दिया है.
शर्मा ने डीडब्ल्यू से कहा, "बीजेपी ने कुछ सड़कों और स्मारकों के नाम भी बदले हैं, ताकि बच्चों को सकारात्मक तरीके से इतिहास की जानकारी मिले. हमने उन गलत लोगों के नाम हटाए हैं जिन्होंने निश्चित रूप से भारत के खिलाफ लड़ाई लड़ी और भारत के साथ अन्याय किया. कांग्रेस के शासनकाल में लिखी गई पिछली किताबों में उनका महिमामंडन किया गया था.”
पहली नजर में देखने पर लगता है कि इतिहास की किताबों में बदलाव करने का हालिया प्रयास अप्रत्याशित है, लेकिन ऐसा नहीं है. भाजपा लंबे समय से एक समान सांस्कृतिक इतिहास को बढ़ावा देने का प्रयास करती रही है. 2019 के भाषण में, गृह मंत्री अमित शाह ने इतिहासकारों से ऐसा करने का आग्रह किया था. शाह ने कहा था, "अपना इतिहास लिखना हमारी जिम्मेदारी है.”
-श्रवण गर्ग
राहुल गांधी का अमेरिका जाना ज़रूरी हो गया था। डॉ. मनमोहन सिंह की 2009 में हुई राजकीय यात्रा के चौदह साल बाद नरेंद्र मोदी की होने वाली पहली राजकीय यात्रा और अमेरिकी संसद में उनके बहु-प्रचारित उद्बोधन के पहले राहुल का वहाँ जाना महत्वपूर्ण हो गया था। ऐसा इसलिए कि अमेरिका इस समय दुनिया की तमाम सवर्ण सत्ताओं का सम्राट राष्ट्र बना हुआ है। अमेरिका के ज़रिए ही तय होता है कि मुस्लिमों, अश्वेतों और जातिगत रूप से ग़ैर-ज़रूरी घोषित कर दिये गए लोगों के लिए समाज के किस कोने में कितनी जगह निर्धारित की जानी चाहिए !
प्रजातंत्र के सारे मानकों का उत्पादन और वितरण अमेरिका और पश्चिमी युरोप के मुल्कों के ज़रिए ही होता है।अमेरिका में भारतीय मूल के नागरिकों की आबादी कोई पैंतालीस लाख है। इनमें 55 प्रतिशत के क़रीब हिंदू हैं जो कि वहाँ का सबसे प्रभावशाली समूह है। इस हिंदू आबादी में भी लगातार वृद्धि हो रही है।
भारत में इस समय जिस तरह की राजनीतिक सक्रियता है, पूछा जा सकता है कि राहुल की इतने लंबे समय के लिए देश से अनुपस्थिति क्या विपक्षी एकता के लिहाज़ से नुक़सानदेह नहीं मानी जायेगी ? उनकी इसी साल मार्च में हुई लंदन यात्रा के बाद से उठा तूफ़ान अभी थमा भी नहीं था कि भाजपा की ‘टोल आर्मी’ की सुविधा के लिए नए विवाद खड़े करने वे अमेरिका पहुँच गए।
राहुल गांधी पर आरोप लगाए जा रहे हैं कि अपनी छह दिनी अमेरिका यात्रा के दौरान केलिफोर्निया से वाशिंगटन और न्यूयॉर्क जहां भी वे गए और भाषण दिए सिर्फ़ प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की ही मुस्कुराते हुए आलोचना की। बहुत संभव है आने वाले किसी वक्त में राहुल ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी,आदि देशों की यात्राओं के कार्यक्रम बना लें और वहाँ भी लंदन और अमेरिका को ही दोहराएँ।
पिछले एक दशक के दौरान राहुल और उनके परिवार को साँस ही नहीं लेने दी गई कि वे नज़रें घूमकर देख सकें कि सवर्ण राष्ट्रवाद की स्थापना को लेकर किस तरह का कृत्रिम संसार भाजपा-समर्थक धार्मिक संगठनों ने अमेरिका और अन्य देशों में निर्मित कर दिया है। इसका पहला संकेत तब मिला था जब अमेरिका में राष्ट्रपति पद के चुनावों की पूर्व संध्या पर सितंबर 2019 में ‘हाउडी मोदी’ रैली का ह्यूस्टन में भव्य आयोजन हुआ था।
ह्यूस्टन की बहुचर्चित रैली में अमेरिका भर से पहुँचे कोई पचास हज़ार भारतीय मूल के नागरिकों से ‘अबकी बार भी ट्रम्प सरकार’ के नारे लगवाए गए थे। ऐसी ही एक रैली का आयोजन पिछले दिनों ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में हुआ था जिसमें कोई बीस हज़ार लोग मोदी के स्वागत के लिए उपस्थित थे।
विदेशों में बस चुके भारतीय मूल के सवर्णों के बीच (गांधी परिवार की दो-दो शहादतों के बावजूद) सोनिया गांधी की छवि एक ‘विदेशी महिला’ की और राहुल की एक पप्पू के तौर पर सफलतापूर्वक स्थापित कर दी गई तो अंदाज़ लगाया जा सकता है कि मोदी का ‘विश्वस्वरूप’ गढ़ने के लिए किस स्तर के प्रयास चल रहे हैं। इस काम में विदेशों में स्थित भारतीय मिशनों की भूमिका प्रदेशों की राजधानियों में स्थित राजभवनों के मुकाबले कितनी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गई है !
कथित ‘राष्ट्रभक्तों’ के लिए जो भारतीय वर्षों पहले भारत को त्यागकर विदेशी नागरिक बन चुके हैं आज भी सच्चे भारतीय बने हुए हैं और जो विदेशी महिला 1968 में ही अपना सब कुछ त्याग भारत की बहू बन गई थी वह पचपन सालों के बाद भी विदेशी ही बनी हुई है! इन राष्ट्रवादियों को इस बात पर किंचित भी शर्म नहीं महसूस होती कि कोई ढाई लाख-तीन लोग हर साल अपनी भारत की नागरिकता त्यागकर विदेशी नागरिकता अपना रहे हैं।
कल्पना करके देखिए कि इतने बड़े देश के इतने व्यापक विपक्ष में जिसमें कि छोटी-बड़ी कोई पचास राजनीतिक पार्टियाँ होंगी राहुल गांधी के अलावा और कौन सा नेता हो सकता है जो विदेशी ज़मीन पर पहुँचकर ‘भारत के विकास में मोदी के अप्रतिम योगदान और विनाश में विपक्ष की भूमिका’ के संगठित कुप्रचार का इतने आत्मविश्वास के साथ पर्दाफ़ाश कर सकता है ? स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में ‘पॉवर’ और ‘फ़ोर्स’ के बीच फ़र्क़ की दार्शनिक व्याख्या कर सकता है ? क्या राहुल गांधी ने पल भर के लिए भी नहीं सोचा होगा कि मुस्लिमों और दलितों के ख़िलाफ़ भारत में होने वाले अन्याय के बारे में अमेरिका में बोलने के कारण भारत के हिंदू मतदाता उनसे और कांग्रेस से कितने नाराज़ हो सकते हैं ?
देश और दुनिया के नीति-निर्धारकों के बीच अपनी स्वीकार्यता क़ायम करने के लिए राहुल के लिए यह निहायत ज़रूरी हो गया है कि प्रधानमंत्री के कृत्रिम आभामंडल को सवालों के उन कठघरों में खड़ा करें जिन्हें ‘इण्डियन डायस्पोरा’ के नाम से पुकारा जाता है। मोदी के तिलिस्म को कैम्ब्रिज और स्टेनफोर्ड में तोड़ा जाना भी उतना ही ज़रूरी है जितना कि कर्नाटक में !
राहुल गांधी ने देर से ही सही शुरुआत कर दी है। चुनौती बड़ी है और मुक़ाबला भी आसान नहीं है। सारे संसाधनों और मीडिया का एकछत्र स्वामी इस समय सत्तारूढ़ दल ही है। प्रधानमंत्री का कृत्रिम ‘आभामंडल’ शक्तिशाली ‘इवेंट मैनेजमेंट’ समूहों के संगठित प्रयासों का परिणाम है।
राहुल गांधी अकेले हैं। राहुल के दौरे जैसे-जैसे बढ़ते जाएँगे, उन पर हमले भी उतने ही तेज़ होते जाएँगे। भाजपा के इस भ्रम को ध्वस्त होने में समय लग सकता है कि मोदी सिर्फ़ भारत और एक-दो देशों के ही नहीं बल्कि सारी दुनिया के ‘बॉस’ हैं। मंदिर-परिसरों की मूर्तियों में दरारों का पड़ना प्रारंभ हो गया है। धर्म-आधारित राजनीति पर भी उसका असर जल्दी ही नज़र आने लगेगा।