विचार/लेख
आम तौर पर अधिक वजऩ (ओवरवेट) होना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है। यहां तक कि चिकित्सक भी स्वस्थ रहने के लिए वजऩ कम करने की सलाह देते हैं। लेकिन एक हालिया अध्ययन में ओवरवेट के रूप में वर्गीकृत लोगों की मृत्यु दर तथाकथित ‘आदर्श वजऩ’ वाले लोगों की तुलना में थोड़ी कम पाई गई है। इन लोगों का वजऩ अधिक ज़रूर था लेकिन ये मोटे (ओबेस) नहीं थे।
इस बात को लेकर तो कोई विवाद नहीं है कि वजऩ बहुत अधिक हो तो सेहत के लिए हानिकारक होता है। लेकिन उपरोक्त अध्ययन से लगता है कि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि स्वास्थ्य जोखिम कितने वजन के बाद शुरू होते हैं।
आदर्श वजऩ पता करने के लिए बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) देखा जाता है। बीएमआई की गणना वजऩ (किलोग्राम में) को ऊंचाई (मीटर में) के वर्ग से भाग देकर की जाती है। अधिकांश देशों में 18.5 से 24.9 के बीच के बीएमआई को स्वस्थ माना जाता है; 25 से 29.9 को ओवरवेट और 30 से अधिक को मोटापा ग्रसित की श्रेणी में रखा जाता है। 1997 में आई विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में इनके उल्लेख के बाद तो इन सीमाओं को लगभग पूरी दुनिया में मान्यता मिल गई।
फिर कुछ अध्ययनों से पता चला था कि 25 से ऊपर बीएमआई वाले लोगों की मृत्यु दर दुबले-पतले लोगों से कम है। लेकिन ये अध्ययन काफी पुराने हैं जब लोग आज की तुलना में दुबले हुआ करते थे। इन अध्ययनों के सहभागियों में जनजातीय विविधता भी नहीं थी।
इस मुद्दे को समझने के लिए रटगर्स इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के आयुष विसारिया और उनके सहयोगियों ने 1999 में शुरू हुए एक अध्ययन का विश्लेषण किया जिसमें 20 वर्ष तक 5 लाख जनजातीय रूप से विविध अमेरिकी वयस्कों के जीवन को ट्रैक किया गया था। इन लोगों का वजऩ और लंबाई ज्ञात थे। इस विश्लेषण में 22.5 से 24.9 बीएमआई के स्वस्थ बीएमआई वाले लोगों की तुलना में 25 से 27.4 बीएमआई वाले लोगों में मृत्यु का जोखिम 5 प्रतिशत कम पाया गया। इसके अलावा 27.5 से 29.9 बीएमआई वाले लोगों में मृत्यु का जोखिम 7 प्रतिशत कम पाया गया। ये निष्कर्ष वर्तमान बीएमआई की सीमाओं से काफी अलग प्रतीत होते हैं।
फिर भी शोधकर्ताओं के अनुसार इस आधार पर कोई भी निष्कर्ष निकालना थोड़ी जल्दबाजी होगी। यह कहना ठीक नहीं होगा कि वर्तमान में अधिक वजऩ के रूप में वर्गीकृत बीएमआई वर्तमान स्वस्थ श्रेणी से बेहतर है। आम तौर पर इस तरह के जनसंख्या अध्ययन में पूर्वाग्रह हो सकते हैं जिससे परिणामों में विसंगतियां हो सकती हैं। मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि अकेले बीएमआई मृत्यु के जोखिम का द्योतक नहीं है। अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन बीएमआई के साथ कमर की माप और अन्य कारकों को भी ध्यान में रखने की सलाह देता है। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार बीएमआई को आबादी के स्वास्थ्य का आकलन करने के लिए बनाया गया था। इसका उपयोग व्यक्तियों को स्वास्थ्य सलाह देने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
भारत के सिनेमा घरों में 22 जुलाई को रिलीज हुई क्रिस्टोफर नोलन फिल्म ‘ओपेनहाइमर’ रिलीज होने के चौबीस घंटों के भीतर विवादों में गिर गई है।
फिल्म के एक दृश्य में मुख्य कलाकार ‘सेक्स सीन’ के दौरान संस्कृत में लिखा एक वाक्य पढ़ते हैं। इस सीन को लेकर भारतीय सोशल मीडिया में चर्चा हो रही है।
समाचार एजेंसी पीटीआई ने फिल्म देखने वालों के हवाले से दावा किया है कि ये पंक्तियां हिंदुओं की पवित्र मानी जाने वाली भगवद् गीता से हैं। उनका कहना है कि फिल्म से इस सीन को हटाया जाए।
180 मिनट की ये फि़ल्म दुनिया का पहला एटम बम बनाने वाले वैज्ञानिक जे। रॉबर्ट ओपेनहाइमर की कहानी पर आधारित है।
शुक्रवार को रिलीज हुई इस फिल्म को बॉक्स ऑफिस में अच्छे रिव्यू मिले हैं। फिल्म कारोबार पर नजर रखने वालों के मुताबिक ये फिल्म पहले दो दिन में 30 करोड़ रुपये की कमाई कर चुकी है।
विवादित सीन और विरोध
फिल्म के एक सीन में ओपेनहाइमर का किरदार निभाने वाले सिलियन मर्फी मानसिक रोग विशेषज्ञ जीन टैटलर (फ्लोरेंस पुग) के साथ दिखते हैं। इस सेक्स सीन में जीन एक किताब उठाती हैं और ओपेनहाइमर से पूछती हैं कि ये कौन सी भाषा में लिखा है।
वो ओपेनहाइमर से किताब का एक पन्ना पढऩे को कहती हैं। जीन के कहने पर ओपेनहाइमर पढ़ते हैं- ‘मैं अब काल हूं जो लोकों (दुनिया) का नाश करता हूं।’
सीन में ये नहीं दिखता कि जीन ने जो किताब हाथों में ली है उसका नाम क्या है लेकिन उसके पन्ने पर जो दिखता है वो संस्कृत जैसा कुछ दिखता है।
सोशल मीडिया पर कुछ लोगों का दावा है कि ये पंक्तियां भगवद् गीता से हैं।
भारत सरकार के इंफॉर्मेशन कमिश्नर उदय माहुरकर ने फिल्म के निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन के नाम एक खुला खत लिख कर अपना विरोध जताया है। महुरकर ‘सेव कल्चर सेव इंडिया फाउंडेशन' के संस्थापक भी हैं।
उन्होंने फि़ल्म के विवादित सीन को ‘हिदुत्व पर हमला’ कहा है और कहा है कि नोलन इस सीन को हटाएं।
उन्होंने लिखा, ‘लाखों हिंदुओं और पवित्र गीता से जीवन में बदलाव लाने वालों की तरफ से गुजारिश करते हैं कि इस पवित्र किताब की गरिमा बनाए रखें और पूरी दुनिया में इस फिल्म से विवादित दृश्य को हटाएं। इस अपील को नजरअंदाज करने को जानबूझकर भारतीय सभ्यता का अपमान माना जाएगा। हम आपसे जल्द से जल्द इस पर कार्रवाई करने का उम्मीद कर रहे हैं।’
‘एटम बम के जनक’ कहे जाने वाले ओपेनहाइमर के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने संस्कृत सीखी थी और वो भगवद् गीता से प्रभावित थे।
16 जुलाई 1945 में पहली बार एटम बम के विस्फोट को देखने के बाद एक इंटरव्यू में ओपेनहाइमर ने कहा था ‘मुझे पौराणिक हिंदू किताब भगवद् गीता की कुछ पंक्ति याद आई।’
उन्होंने कहा, ‘भगवान कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि उन्हें अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए। वो अपना विराट रूप दिखाते हुए अर्जुन से कहते हैं, मैं अब काल हूं जो लोकों (दुनिया) का नाश करता हूं।’
ये गीता के 11वें अध्याय का 32वां श्लोक है जिसमें श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘काल: अस्मि लोकक्षयकृत्प्रविद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्त:।।’
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक फिल्म को सेंट्र्ल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) ने यू/ए रेटिंग दी है। फिल्म की अवधि को छोटा करने के लिए इसके कुछ दृश्य हटाए गए हैं जिसके बाद भारत में ये फिल्म 13 साल से अधिक उम्र के बच्चे देख सकते हैं।
अमेरिका में इसे आर-रिस्ट्र्क्टेड (पाबंदी) रेट मिला है जिसका मतलब ये है कि अगर दर्शक की उम्र 17 साल से कम है तो उसके साथ फिल्म देखने के लिए अभिभावक या किसी वयस्क का होना जरूरी है।
ये क्रिस्टोफर नोलन की पहली आर रेटेड फिल्म है।
माहुरकर ने फिल्म के सर्टिफिकेशन को लेकर सवाल उठाए हैं और कहा है, ‘मुझे ये नहीं समझ आया कि सीबीएफसी ने इस सीन के साथ फिल्म के प्रदर्शन की इजाजत कैसे दी है।’
सीबीएफसी के चेयरपर्सन प्रसून जोशी और सेंसर बोर्ड के दूसरे सदस्यों ने अब तक इसे लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
इस बीच कुछ लोगों ने भारत में फि़ल्म के बॉयकॉट की मांग की है।
एक यूजर ने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘मुझे पता चला कि फिल्म में एक विवादित सीन है जिसमें भगवद् गीता को भी शामिल किया गया है। मैं यहां पर बात नहीं दोहराना चााहता लेकिन ये आपत्तिजनक सीन है। हिंदुत्व को सकारात्मक और सही तरीके से दिखाने के लिए आप हॉलीवुड या पश्चिम पर भरोसा नहीं कर सकते।’
एक अन्य यूजर ने लिखा, ‘हिंदू इस बात से खुश हैं कि ओपेनहाइमर में भगवद् गीता का जिक्र है, लेकिन वो लोग इस बात से नाराज हैं क्योंकि हॉलीवुड ने खुले तौर पर गीता का अपमान किया है। सेक्स के दौरान पवित्र पंक्तियों को बोलना अपमानजनक है और नस्लीय भेदभाव है। फिल्म का बॉयकॉट किया जाना चाहिए।’
कुछ लोग ये भी सवाल उठा रहे हैं कि क्रिस्टोफर नोलन पूरी फिल्म में कहीं भी भगवद् गीता का सीन डाल सकते थे लेकिन उन्होंने इसी सीन को क्यों चुना।
कुछ लोगों का कहना है कि ये माना जा सकता है कि इस ओपेनहाइमर गीता से प्रभावित थे लेकिन इस सीन में ये दिखाना जरूरी नहीं था।
एक और व्यक्ति ने लिखा कि वो ओपेनहाइमर की जगह कन्नड़ सिनेमा देखना चाहेंगे।
इस यूजर ने लिखा, ‘हर कोई कह रहा है कि ओपेनहाइमर एक मास्टरपीस है लेकन ये जानने के बाद कि इसमें भगवद् गीता का जिक्र एक सेक्स सीन में किया गया है, मैंने सोचा है कि मैं कन्नड़ फिल्म देखूंगा।’
एक और यूजर ने लिखा कि फिल्म के एक सीन में एक नग्न लडक़ी भगवद् गीता लेकर आती है और सेक्स के दौरान ओपेनहाइमर उसमें से कुछ पंक्तियां पढ़ते हैं। ये सीन बेहद अपमानजनक है।
फिल्म के प्रोमोशन के दौरान सिलियन मर्फ़ी ने कहा था कि फिल्म के लिए तैयारी करते वक्त उन्होंने भगवद् गीता पढ़ी थी। उन्होंने कहा था कि ये किताब ‘बेहद खूबसूरती से लिखी गई’ और प्रेरणा देने वाली है।
यूनिवर्सल पिक्चर्स की इस फिल्म में सिलियन मफऱ्ी और फ्लोरेंस पुग के अलावा रॉबर्ट डाउनी जूनियर, मैट डैमन, एमिली ब्लंट, जोश हार्टनैट, केसी एफ्लैक, रामी मलिक और केनेथ ब्राना हैं। (www.bbc.com/hindi)
-मनीषा तिवारी
यह एक प्रचलित तथ्य रहा है कि भारत के ऊतर पूर्वी राज्यों मे महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा अधिक स्वावलंभी है, परिवार में उनका मान है और वो पुरुषों पर डॉमिनेटिंग प्रकृति की है, लेकिन इसका ये मतलब नही कि जब औरत के देह की बात हो तो पुरुष अपना घृणित पुरुषत्व भूल जाए, योद्धा अपनी जीत का पताका औरत को नग्न करके उसके शरीर पर ना फहराए, और विजयी भव का संतोष परिवार और समाज की औरतों के निजी अंगों को भेदे बिना ही पा लिया जाए। इस दुनिया में, चाहे वह सभ्य हो या असभ्य, ऐसा कब नहीं हुआ है भला !
वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक, व प्रशासनिक दृष्टि से देखा जाये तो मणिपुर मे औरतों को नग्न अवस्था मे परेड कराये जाने और भीड़ द्वारा उनके निजी अंगो के साथ खिलवाड़ करने की घटना प्रथमदृष्टया तो राज्य में लॉ एंड ऑर्डर के तहस-नहस हो जाने का मामला लगता है। थोड़ा और गहरे जाएँ तो यह घटना एक विशेष लिंग व जाति के प्रति नीच सोच और राजनीतिक दाँव-पेंच का मामला लगता है। थोड़ा और गहरे जाकर विचारें तो यह कृत्य हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि आज भी औरतों की देह को उनके परिवार और समाज की इज्जत, मान और सम्मान ढोने वाला कैरियर ही समझा जा रहा है। यदि औरत तथाकथित नीची जाति के परिवार समाज से है तो वह इस लायक भी नहीं।
प्रश्न है कि क्या बदल गया है पिछले हजार वर्षों में जब पांचाली को उनके ही पतियों ने चौसड़ के दांव पर लगा दिया था, जब एक आदिवासी स्त्री को अपने स्तन ढँकने के एवज में अपने स्तन कटवाने पड़े थे, या फिर एक तथाकथित निम्न जाति व गरीब परिवार की परंतु सुंदर दिखने वाली स्त्री को देवदासी के लिए चुन लिया जाता था ? कल भी देवी देवताओं, धर्म, जाति की आड़ मे औरतों पर तथाकथित सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारियों को उनके कर्तव्य और परिवार, समाज की इज्जत के रूप मे थोपा जाता रहा और आज भी हम उसी समाज के बीच खड़े हैं जंहा जाति, वर्ण और संप्रदाय की लड़ाई मे एक औरत की देह पर वर्चस्व दिखा कर हम अपने विरोधी की इज्जत पर धावा बोलने का हुंकार भरते हैं।
वह देश जहां एक औरत को किसी पुरुष द्वारा उसकी मर्जी के बगैर घूरने भर से लैंगिक शोषण काअपराध कारित किया जाना माना जाता है एवं कानून में इस हेतु ऐसे अपराधी के लिए कठिन सजा का प्रावधान रखा जाता हैं वंहा मणिपुर मे घटी यौन हिंसा की यह घटना हमे सोचने पर मजबूर करती है कि हम वापस उसी युग मे चले गए हैं जहां से चले थे। आज हम अपनी औरतों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और भावनात्मक अधिकारो को सुरक्षित रखने के अंतरराष्ट्रीय समझौतों पर क्या ही कर पाएंगे जब हम एक औरत को उसकी अपनी ही ‘देह पर अधिकार’ जैसी मूलभूत अधिकार के अनुभव से वंचित देख रहे हैं ?
यदि हमारे देश मे मोनार्की नहीं है, लोकतन्त्र है, देश मे चुने हुए प्रधानमंत्री है और राज्य में चुने हुए मुख्यमंत्री हैं तो हम उनसे इतना पुछने का भी हक़ रखते है कि ऐसा क्यों है कि आप ऐसी घटनाओं को होने से रोक नहीं पाये? ऐसा क्यों है कि करोड़ों अरबों रुपये से आपके ही मंत्रियों और नौकरशाहों द्वारा तैयार महिला सशक्तिकरण की योजना ऐसे गंभीर प्रकरण को चिन्हित करने एवं समय पर कार्यवाही करने मे फेल हो गई? क्या कारण है कि सरकार द्वारा विषेशरूप से महिला हिंसा को एड्रैस करने के लिए ही तैयार इन वृहद योजनाओं का लाभ वो औरत नहीं ले सकी जिसे लगभग । 9 दिन पूर्व मानसिक एवं शारीरिक रूप से लज्जित किया गया जिसके छोटे भाई को उसके ही समक्ष भीड़ द्वारा जान से मार दिया गया जबकि पीडि़त के कुछ शुभचिंतक आपके राज्य शासन, प्रशासन से मदद की गुहार लगाते रहे।
वर्ष 2012 मे भारत सरकार महिला सशक्तिकरण के तहत अपनी प्रमुख योजनाएं लेकर आई, जिसे पूर्ण शक्ति केंद्र (पीएसके) कहा गया। जिसका उद्देश्य महिला हिंसा की घटनाओं को एड्रैस करना व पीडि़ता के लिए न्याय की व्यवस्था करने के साथ साथ जरूरतमन्द महिला को कल्याणकारी मामलों में पंजीक=त करना, पात्र योजनाओं में आवेदन करने में मदद करना और इन आवेदनों की प्रगति की निगरानी करना था। परंतु आने वाले समय मे सरकार पीएसके योजना गाइडलाइन के अनुसार सहायता प्रणाली (सार्वभौमिक महिला हेल्पलाइन) विकसित नहीं कर पाई और जिसके अभाव में यह योजना विफल रही और इसे बंद कर दिया गया।
वर्ष 2012 के निर्भया प्रकरण के पश्चात बनाई गई न्यायमूर्ति वर्मा समिति की सिफारिश पर भारत सरकार ने नागरिक समाजों के परामर्श से ‘हिंसा प्रभावित महिलाओं को एकीकृत सहायता’ प्रदान करने के लिए सखी वन स्टॉप सेंटर (महिलाओं की शिकायत का प्रतिनिधित्व आपराधिक न्याय प्रणाली तक सुनिश्चितकरने के लिए एक भौतिक सुविधा) और महिला हेल्पलाइन 181 के सार्वभौमिकरण के नाम से दो वृहद योजनाओं का अत्यंत आधुनिक और अभिनव डिज़ाइन तैयार किया । इन समेकित योजना को 8 विशेष अभिनव गुणो के साथ तैयार किया गया था। यह योजना महिला (शिकायतकर्ता) के रेफेरल की बात नहीं करती थी बल्कि महिला के प्रतिनिधित्व की बात करती थी। इस योजना को डिजाइन ही इस प्रकार से किया गया था कि यह दर्ज शिकायत पर किसी को भी मैनुपूलेशन/ हेरा-फेरी का मौका नहीं देता था एवं साथ ही शिकायत से संबन्धित सभी स्टेकहोल्डर द्वारा किए गए कार्य का रियल टाइम डाटा संधारण करता था। इस योजना के डिज़ाइन में सभी स्टेकहोल्डर्स के बीच टेक्नोलोजी इंटिग्रेशन की बात थी ताकि सभी संबंधित स्टैकहोडर्स समेकित रूप से एक केस फाइल के साथ पीडि़ता के साथ जुड़े रहे और संबंधित नियम व कानून के अंतर्गत अपनी जिम्मेदारी का अनुपालन करते रहे। इस डिजाइन मे मुख्यत: रिमोट मोनिटरिंग की बात भी थी, जिसके अंतर्गत केस/कम्प्लेंट मे संबंधित स्टेक होल्डर्स द्वारा आवश्यक कार्यवाही न किए जाने पर तत्काल मॉनिटरिंग सेक्शन मौके पर कोर्स करेक्शन हेतु सबंधित स्टेकहोल्डर को ताकीद कर सके। तत्पश्चात इस डिजाइन मे प्रत्येक केस फाइल और कम्प्लेंट को देश के सबसे वृहद लीगल फ्रेमवर्क ‘राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण’ और इसके राज्य, जिले व ताल्लुक स्तर के कार्यालयों से टेक्नोलोजीकली जोड़े जाने की भी बात थी ताकि जरूरत पडऩे पर पीडि़ता को अलग से कानून का दरवाजा न खटखटाना पड़े बल्कि पीडि़ता की सहमति से उसकी शिकायत को इसी रास्ते न्याय प्राप्ति के अंतिम चरम दरवाजे तक सरलता से पहुंचाया जा सके और महिला नि: शुल्क विधिक सेवा का लाभ ले सके। इस योजना के संचालन की जि़म्मेदारी किसी विशेसज्ञ बाह्य संस्था को सौंपा जाना था जबकि अनुश्रवण की जि़म्मेदारी सरकार की थी। यह योजना महिला हिंसा के विरूद्ध न्याय प्राप्ति की दिशा मे किए गए प्रयास मे मील का पत्थर के तौर देखी जा रही थी।
दुर्भाग्यवश यह योजना देशभर मे लागू करवा पाने मे सरकार पुन: असफल रही। उससे भी अधिक दुखद यह रहा कि जिन राज्यों (छत्तीसगढ़, असम, मेघालय, जम्मू कश्मीर) मे 2015-16 की योजना गाइडलाइन के अनुसार यह योजना संचालित की जा रही थी वंहा की सरकारे इस अति पारदर्शी, नियमबद्ध, त्वरित मॉनिटरिंग व्यवस्था से डरने लगी थी। फलस्वरूप उनके नौकरशाह अपने अपने स्तर पर इस योजना/व्यवस्था का विरोध करने लगे। विभिन्न विभागों के आला अधिकारी इस बात से डरने लगे कि यह कैसी व्यवस्था है जिसमे एक पीडि़त महिला सीधे तौर पर दर्ज कम्प्लेंट पर की गयी कार्यवाही के बाबत उनसे पूछताछ करती है जिसका मौके पर ही जवाब देने के लिए नौकरशाह बाध्य थे, जो स्वत: रियल टाइम डाटा सिस्टम (वॉइस रेकॉर्ड सहित) संधारित द्वारा कर लिया जाता था। इसका परिणाम यह हुआ कि एक ओर जहां 2011 से ही भारत सरकार ने योजना के संचालन में तकनीकी और ईक्षाशक्ति की कमी का ऐलान करते हुए योजना को पुन: पारंपरिक कॉल सेंटर मे बदल दिया वहीं दूसरी ओर छत्तीसगढ़, असम, मेघालय, एवं जम्मू एवं कश्मीर की सरकारो ने भारत सरकार को यह बताना भी आवश्यक नहीं समझा कि उनके राज्य मे यह योजना 2016 की ही योजना दिशा-निर्देश के अनुसार चल रही है और यह भी कि उनके राज्यों मे यह योजना पीडि़ता /महिलाओं की मुखर आवाज बनकर सामने आयी है और समाज के एक बहुत बड़े वर्ग मे सुरक्षा और संतोष का भाव भरने मे मील का पत्थर साबित हुई है।
वर्ष 2011 से वर्ष 2022 तक भारत सरकार एवं नीति आयोग ने 2016 में लाई गई 181 महिला हेल्पलाइन और सखी वन स्टॉप सेंटर की एकीकृत इकाई के साथ आयी इस क्रांतिकारी योजना को यह कहते हुए कि, इस योजना के संचालन और अनुश्रवण मे समस्याएँ रही, पूरी तरह से मटियामेट कर दिया। वर्ष 2016 की सभी अभिनव, आधुनिक संरचना को खत्म कर पुन: पुराने घिसे-पिटे पारंपरिक डिजाइन में तैयार कर मिशन शक्ति के नाम से आयी नई फैशनेबल योजना पुन: नौकरशाहों के हाथ संचालन के लिए सौंप दी गई है। अब संचालन भी सरकारी नौकरशाह करेंगे और संचालन का अनुश्रवण, मूल्यांकन भी नौकरशाह खुद ही करेंगे।
कुल मिलाकर सच्चाई यही है कि सरकारे किसी की भी हों, महिलाओं के सम्मान की बहाली की इक्षाशक्ति किसी भी सरकार के पास नहीं है। औरतें आज भी शतरंज रूपी राजनीति की मोहरे हैं, चेक नहीं। यदि केंद्र में बैठी श्रीमती स्मृति ईरानी ने और वर्तमान भारत शासन द्वारा पोषित संस्थाओं और व्यवस्थाओं ने मणिपुर की महिलाओं को नहीं सुना तो यह कहना भी गलत नहीं होगा कि छत्तीसगढ़, असम, मेघालय और जम्मू-कश्मीर राज्यों ने मौन रहकर उनका साथ दिया। बहुत संभव है कि कल ऐसी ही घटना किसी अन्य राज्य में घटित हो जाये। क्या करेगी एक औरत, एक महिला, एक पीडि़ता यदि देश ने इन्हें अपनी शिकायत रखने और उस पर सवाल करने की कोई व्यवस्था ही नहीं दी। ये बात दीगर है कि हमने कानून की किताबों मे बड़े-बड़े कानून छाप दिए परंतु उनके क्रियान्वयन के लिए इतने सारे विंडो तैयार कर दिये कि एक शिकायतकर्ता अपनी पूरी जिंदगी एक विंडो से दूसरे विंडो पर चक्कर लगाते रहे और अंत तक ये न समझ पाये कि उसे सचमुच कहाँ जाना था। साँप भी मर जाये, लाठी भी ना टूटे।
- सुदीप ठाकुर
प्रधानमंत्री मोदी की एक कथित भविष्यवाणी दो दिनों से अखबारों और खबरिया चैनलों में चर्चा में है। यह 2019 के लोकसभा चुनाव से थोड़ा पहले संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई चर्चा पर प्रधानमंत्री के जवाब की वीडियो क्लिप है, जिसमें वह यह कहते हुए नजर आ रहे हैं, ‘मैं आपको (विपक्ष) को इतनी शुभकामनाएं देता हूं कि आप इतनी तैयारी करें कि आपको 2023 में फिर से अविश्वास प्रस्ताव लाने का अवसर मिले।’
कथित मुख्यधारा का मीडिया प्रधानमंत्री की इस भविष्यवाणी की आड़ में विपक्ष के आगामी अविश्वास प्रस्ताव में सरकार की सुनिश्चित जीत को 2024 के प्रस्थान बिन्दु की तरह देख रहा है। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि 2019 के चुनाव से करीब साल भर पहले मोदी सरकार ने 2018 में भी अविश्वास प्रस्ताव का सफलतापूर्वक सामना किया था।
मगर इन चार बरसों में राजधानी दिल्ली से होकर गुजरने वाली यमुना में काफी पानी बह चुका है! इन चार वर्षों में बहुत से जख्म मिले हैं, उनमें मणिपुर के घटनाक्रम ने सबसे ताजा और गहरा जख्म दिया है। इसने भारतीय लोकतंत्र की आत्मा को आहत किया है।
दरअसल लोकतंत्र की एक विसंगति यह भी है कि वह नैतिकता पर नहीं बल्कि संख्या बल पर चलता है। प्रधानमंत्री और सदन के उनके प्रबंधक यह बखूबी जानते हैं। इसके बावजूद अविश्वास प्रस्ताव संसदीय लोकतंत्र में वह हथियार है, जिसके जरिये विपक्ष सरकार को बेनकाब करने की कोशिश करता है। यह संसदीय प्रणाली का एक अनिवार्य हिस्सा है, जिससे सरकार को जवाबदेह बनाया जा सके या नहीं, लेकिन इससे विपक्ष को संसद के भीतर अपनी बात कहने का मौका मिलता है। यह विपक्ष का अधिकार है।
कहने की जरूरत नहीं कि यह दुधारी तलवार है, क्योंकि इसके जरिये सरकार को अपनी ताकत दिखाने का भी मौका मिलता है। और वैसे भी लोकसभा का मौजूदा आंकड़ा स्पष्ट तौर पर सरकार के पक्ष में है।
मगर ऐसे दौर में ,जब दोनों सदनों में विपक्ष की आवाज को लगातार कमजोर किया जा रहा हो, महत्वपूर्ण विधेयकों को संसदीय परंपराओं और नियमों की अनदेखी कर आनन-फानन में पारित कर दिया जा रहा हो, तब विपक्ष के पास अपनी बात कहने का यही एक तरीका बचता है और ढ्ढ.हृ.ष्ठ.ढ्ढ.्र ने यही किया है।
यह सवाल बेमानी है कि करीब तीन माह से जल रहे मणिपुर में महिलाओं के साथ भीड़ द्वारा की गई हिंसा और यौन उत्पीडऩ का वीडियो संसद सत्र से ठीक पहले कैसे सामने आया। बल्कि पूछा तो यह जाना चाहिए कि चार मई की घटना के बाद राज्य और केंद्र की डबल इंजिन सरकारों ने जातीय हिंसा में जल रहे मणिपुर में शांति और सद्भाव कायम करने के लिए किया क्या?
मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को इतिहास में ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में दर्ज किया जाएगा जिसने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में कहें तो, 'राजधर्म' का पालन नहीं किया। मणिपुर की हिंसा के बाद गुजरात के 2002 के दंगों के समय वाजपेयी की तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को दी गई नसीहत के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है।
वाजपेयी ने तब कहा था, ‘मेरा एक ही संदेश है कि वो राजधर्म का पालन करें... यह शब्द काफी सार्थक है, मैं उसी का पालन कर रहा हूं, उसी के पालन का प्रयास कर रहा हूं। राजा के लिए शासक के लिए प्रजा प्रजा में भेद नहीं हो सकता न जन्म के आधार पर न जाति के आधार पर न संप्रदाय के आधार पर। मुझे विश्वास है कि नरेंद्र भाई यही कर रहे हैं...’
वाजपेयी यह देखने के लिए उपस्थित नहीं है कि उनकी ही पार्टी के एक और मुख्यमंत्री को उन्हें ऐसी ही नसीहत देने की जरूरत पड़ती। इस मुख्यमंत्री की सरकार जाति और संप्रदाय के आधार पर प्रजा प्रजा में भेद कर रही है। बीरेन सिंह 'राजधर्म' का पालन करने में पूरी तरह नाकाम साबित हुए हैं। इसके बावजूद वह सत्ता में बने हुए हैं।
बेशक, किसी मुख्यमंत्री द्वारा अपने राज्य में अपने सभी नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने से संबंधित अपनी जवाबदेहियों को पूरा न करने का यह पहला मामला नहीं है। लेकिन मणिपुर में जो कुछ हुआ और हो रहा है, वह अभूतपूर्व है। यह मुख्यमंत्री के रूप में ली गई शपथ का भी घनघोर उल्लंघन है। आप कह सकते हैं कि ऐसी शपथ को कौन गंभीरता से लेता है? पर सवाल है कि क्या संवैधानिक जवाबदेही से जुड़ी इस शपथ पर बात नहीं होनी चाहिए?
संविधान की तीसरी अनुसूची मंत्रियों के शपथ से संबंधित है, जिनमें प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी शामिल हैं। दो तरह की शपथ होती हैं, एक पद की और दूसरी गोपनीयता की। इसमें केंद्र और राज्य के मंत्रियों की शपथ का प्रारूप दिया गया है:
‘मैं अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हूं/ सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूं, कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा, मैं संघ के मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करूंगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूंगा। ’
राज्य के मंत्री के रूप में ली जाने वाली शपथ में संघ की जगह राज्य पढ़ा जाता है। कहने की जरूरत नहीं कि ‘सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान...’ से आशय लिंग, जाति, वर्ग और संप्रदाय के आधार पर पक्षपात के बिना से है।
मणिपुर में हम इस शपथ का उल्लंघन होते देख रहे हैं। हैरानी इस बात की है कि प्रधानमंत्री मोदी ने संसद के भीतर नहीं, बल्कि उसके बाहर कुछ पंक्तियों में मणिपुर की हिंसा का जिक्र करते हुए उसमें छत्तीसगढ़ और राजस्थान को भी जोड़ लिया।
निस्संदेह मणिपुर ही नहीं, बल्कि किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में किसी भी नागरिक के साथ साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए। हिंसा की 'बाइनरी' मंशा पर सवाल खड़े करती है। यह वाकई अनूठा मामला है जब प्रधानमंत्री के संसद में बयान के लिए विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव लाना पड़ा है।
(स्वतंत्र पत्रकार और हाल ही में आई किताब, ‘दस साल : जिनसे देश की सियासत बदल गई’, के लेखक)
भारत-पाकिस्तान रिश्तों पर राजनीति इतनी हावी रहती है कि उनके लोगों के बीच आपसी रिश्तों को अक्सर भुला दिया जाता है. दोनों देशों के लोगों के बीच दोस्ती और शादियां होना उतना भी हैरतअंगेज नहीं है जितना अकसर मान लिया जाता है.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा-
सीमा हैदर और सचिन के प्रेम की गुत्थी अभी पूरी तरह से सुलझी भी नहीं थी, तब तक अंजू का मामला सामने आ गया। प्यार के लिए पाकिस्तान से भारत आ जाने वाली सीमा की तरह प्रेम के लिए ही भारत से पाकिस्तान चली जाने वाली अंजू भी सुर्खियों में आ गई। दोनों देशों के लोगों के बीच दोस्ती और प्रेम के किस्से उतनी हैरतअंगेज बात है नहीं जितनी इन सुर्खियों को देखकर लग रहा है। आखिर दोनों देशों को एक से दो हुए ज्यादा वक्त भी तो नहीं बीता है।
लंबी फेहरिस्त
अभी भी दोनों देशों में ऐसे लोग जिंदा हैं जिनका जन्म बंटवारे के पहले के भारत के उस इलाके में हुआ था जो आज उस देश का हिस्सा नहीं है जहां वो आज रहते हैं। शायद इनमें सबसे जाना माना नाम भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का है। दोनों देशों में कितने ही ऐसे परिवार हैं जिनके कुछ सदस्य सीमा के इस तरफ हैं तो कुछ उस तरफ। इन्हीं आपसी ताल्लुकात का एक आयाम हिंदुस्तानियों और पाकिस्तानियों के बीच प्रेम और शादी से बने रिश्ते भी हैं।
भारत की टेनिस स्टार सानिया मिर्जा की पाकिस्तान के मशहूर क्रिकेटर शोएब मलिक की शादी के बारे में सब जानते हैं। मलिक की ही तरह एक और पाकिस्तानी क्रिकेटर हसन अली ने 2019 में भारत की शामिया आरजू से शादी की थी। मलिक और अली से बहुत पहले दो और मशहूर पाकिस्तानी क्रिकेटर जहीर अब्बास और मोहसिन खान हिंदुस्तानी महिलाओं से शादी कर चुके हैं। अब्बास ने कानपुर की रहने वाली रीता लूथरा से शादी की थी। उन्हें अब समीना अब्बास के नाम से जाना जाता है।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक रीता का परिवार बंटवारे से पहले फैसलाबाद में रहता था और दोनों के पिता पुराने दोस्त थे। मोहसिन खान ने बॉलीवुड अभिनेत्री रीना रॉय से शादी की थी। 2015 में भारतीय टेलीविजन अभिनेत्री निगार खान ने पाकिस्तानी व्यवसायी खय्याम शेख से शादी की थी। इसी तरह पाकिस्तानी अभिनेत्री सोनिया जहां ने भारतीय बैंकर विवेक नारायण से शादी की थी। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है और इसमें सिर्फ क्रिकेटर और अभिनेत्रियां ही शामिल नहीं हैं।
साझी संस्कृति
कभी पंजाब सूबे के गवर्नर रहे पाकिस्तानी राजनेता सलमान तासीर ने भारतीय पत्रकार तवलीन सिंह से शादी की थी। इसी तरह दोनों देशों के मशहूर गोल्फरों नोनिता लाल और फैसल कुरैशी भी पति-पत्नी बने थे। यह तो वो नाम हैं जो मशहूर हैं। दोनों देशों में रहने वाले और एक दूसरे के परिवारों से शादी का रिश्ता जोडऩे वाले आम लोगों की संख्या तो कहीं ज्यादा है। वरिष्ठ भारतीय पत्रकार कमर आगा कहते हैं कि दशकों से दोनों मुल्कों के लोगों के बीच शादियां होती रही हैं।
उन्होंने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, ‘दोनों तरफ परिवार बंटे हुए हैं। अंग्रेजों ने दोनों देशों के बीच एक लकीर जरूर खींच दी लेकिन दोनों देशों की संस्कृति एक ही रही है। इसलिए दशकों से शादियां होती रही हैं।’
आगा ध्यान दिलाते हैं कि कश्मीर और पाकिस्तानी कश्मीर जैसे सीमावर्ती इलाकों में तो यह बहुत ही आम है। कश्मीर के अलावा दूसरे सीमावर्ती इलाकों में भी हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी परिवारों के बीच शादी के रिश्ते बनाये जाते हैं।
पाकिस्तान के सिंध प्रांत के सोढ़ा राजपूतों के यहां तो राजस्थान के सीमावर्ती जिलों के राजपूत परिवारों में शादी करने की पुरानी परंपरा है। बीते कुछ सालों में इस परंपरा को झटका लगा है क्योंकि दोनों देशों के बीच कूटनीतिक रिश्तों पर बर्फ जम गई है और वीजा मिलना मुश्किल हो गया है। (dw.com)
- दिलीप मंडल
पूर्व सांसद फूलन देवी क्या ठाकुर यानी क्षत्रिय विरोधी थीं? ये हो सकता है कि फूलन देवी ने बेहमई में जिन 21 लोगों को मारा या जिनको मारने का आरोप उन पर लगाया जाता है, वे ठाकुर थे। लेकिन ये न भूलें कि वह गाँव जिस किसी भी जाति या धर्म का होता, उनकी अपनी जाति का होता तो भी वीरांगना फूलन देवी वहाँ वही करतीं, जो उन्होंने किया। ये उनके लिए ज़ुल्म और अपमान का बदला लेना था।
ये जानना अब संभव नहीं है कि जो मारे गए क्या वे ही वे अपराधी थे, जिन्होंने फूलन देवी पर जुल्म ढाए थे। आत्मसमर्पण के बाद कई सरकारें आईं और गईं पर फूलन देवी पर कोई आरोप सिद्ध नहीं हुआ। तर्क के लिए, चलिए मान लेते हैं कि फूलन देवी ने बेहमई में ठाकुरों को मारा। लेकिन ठाकुर समाज के सबसे मान्यवर लोगों ने क्या फूलन देवी को इसके लिए दोषी माना? क्या कोई कड़वाहट रखीं? ये न भूलें कि जब फूलन देवी हिंसा और प्रतिहिंसा से थक चुकी थीं और उन्होंने हथियार डालने का फैसला किया तो उनकी शर्त थी कि केस उनपर यूपी में है पर हथियार वे सिर्फ मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री माननीय अर्जुन सिंह के सामने डालेंगी। अर्जुन सिंह इस मौके पर खुद आए और फूलन ने अपनी बंदूक उन्हें सौंप दी।
फूलनजी मध्य प्रदेश की जेल में पूरी सुरक्षा में रहीं। अर्जुन सिंह जी ने विश्वास का मान रखा। उनको प्रणाम। क्या आप फिर भी कहेंगे कि फूलन देवी की ठाकुरों से कोई दुश्मनी थी? फूलन देवी ने सार्वजनिक जीवन में आने के क्रम में जो शुरुआती सभाएँ कीं, उनमें प्रधानमंत्री वीपी सिंह खुद शामिल हुए। फूलन देवी के माथे पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। ये कैसा ठाकुर विरोध हुआ? फूलन देवी जब सपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ रही थीं तो तमाम ठाकुर नेता उनके समर्थन में पहुँचे। लालू यादव ने उनकी पटना में विशाल सभा कराई। तमाम राजपूत नेता उस सभा में मंच पर आए। उनके मरने पर मुलायम सिंह के साथ ही, सपा के दूसरे सबसे बड़े नेता अमर सिंह ने फूलन देवी की अर्थी को कंधा दिया? किसी में कोई कड़वाहट नहीं बची थी महोदय। राष्ट्रपति के आर नारायण ने बहुत शानदार शब्दों में उनको श्रद्धांजलि दी। फूलन देवी ने अपने हिसाब से विद्रोही भूमिका निभाई और बस। सबने यही माना। हम सब चाहेंगे आगे क़ानून और न्याय अपनी भूमिका निभाए और किसी को फूलन देवी न बनना पड़े।
दुनिया की सबसे बड़ी TIME मैगज़ीन ने उन्हें विश्व की सबसे महान विद्रोही महिलाओं में शामिल किया। वे गुरु रविदास जयंती पर नागपुर में बौद्ध धम्म की छाया में चली गईं। हथियार डालने तक किसी की हिम्मत नहीं थी कि फूलन देवी को पकड़े। निहत्थी फूलन देवी को एक कायर ने भेदी बनकर मार डाला। इसमें कोई शौर्य नहीं है। फूलन देवी किसी जाति की विरोधी नहीं, महान विद्रोहिणी थीं। नमन।
-जुबैर अहमद
अनिल जोंको आदिवासी हैं और चाईबासा में रहते हैं। अनिल ‘हो’ जनजाति हैं। छोटे से आदिवासी गाँव में वह अपने पुश्तैनी घर में बहन के साथ रहते हैं।
चाईबासा से 20 किलोमीटर दूर बसे इस आदिवासी बहुल गाँव में ज्यादातर घर कच्चे हैं और वहाँ बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं।
40 वर्षीय जोंको इन दिनों जमीन के मालिकाना हक को लेकर कानूनी विवाद में उलझे हैं। वह थोड़े परेशान थे इसलिए अदालत में सुनवाई से पहले अपने माता-पिता की कब्र पर जाकर प्रार्थना कर रहे थे।
उन्हें उम्मीद है कि मुक़दमा जल्द निपट जाएगा क्योंकि केस की सुनवाई एक ऐसी अदालत में हो रही है जो केवल आदिवासियों के लिए बनी है। वहाँ सिर्फ उनके पारिवारिक मामलों की सुनवाई होती है।
इस अदालत को यहाँ ‘मानकी-मुंडा न्याय पंच’ के नाम से जाना जाता है। यह एक परंपरागत पंचायत है, जोंको जिस अदालत में गए थे, उसकी स्थापना फरवरी 2021 में हुई थी।
आदिवासियों की इस विशेष अदालत के बारे में अनिल जोंको कहते हैं, ‘मानकी मुंडा न्याय पंच के बारे में मैंने पहली बार सुना है। न्याय पंच में गाँव से संबंधित ज़मीन विवाद का केस चलता है, ये जानकारी वहाँ जाने के बाद हुई।’
अनिल जोंको का मुकदमा एक ऐसी अदालत में चल रहा है जो केवल आदिवासियों के लिए बनी है और वहाँ सिफऱ् उनके पारिवारिक मामलों की सुनवाई होती है।
उन्हें ये न्याय पंच पसंद है क्योंकि इस ‘न्याय पंच में सब अपने क्षेत्र के लोग ही रहते हैं। वहां कार्रवाई ‘हो’ भाषा में ही होती है’।
इस अदालत में न कोई वकील होता है और न ही कोई जज। फ़ैसला तीन पंचों के हाथ में होता है। एक को प्रतिवादी नामित करता है, दूसरे को याचिकाकर्ता और तीसरे व्यक्ति की नियुक्ति स्थानीय प्रशासन करता है, जो कार्यवाही की अध्यक्षता करता है।
इस अदालत के फ़ैसले को एसडीएम के दफ़्तर भेजा जाता है, जहाँ इसे अंतिम मंज़ूरी दी जाती है।
ज़मीन के विवादों और पारिवारिक मसलों को सुलझाने के लिए आदिवासियों के अपने अलग कानून और अपनी अलग अदालतें हैं। अब सरकार चाहती है कि सिविल मामलों में देश भर में सभी लोगों के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) यानी एक जैसा कानून लागू हो।
आदिवासी नाराज हैं, यूसीसी को लेकर
झारखंड में यूसीसी का कड़ा विरोध हो रहा है। उनका कहना है कि अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड आया तो उनका सदियों पुराना जीवन जीने का ढंग खत्म हो जाएगा और चाईबासा में बनाई गई आदिवासियों की स्पेशल अदालत का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।
स्थानीय वकील शीतल देवगम कहती हैं, ‘मैं भी ‘हो’ ट्राइब हूँ। मैं भी यहीं की हूँ। यहाँ के रीति-रिवाज मेरे ऊपर भी लागू होते हैं, तो मेरे नजरिये से जो लैंड का मैटर है, जो अदालत में आ रहा है अगर यूसीसी आ गया तो ये सबसे ज़्यादा किसान और आदिवासी लोगों के लिए दिक्कत होगी।’
गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक देश भर में लगभग 750 आदिवासी समुदाय हैं और झारखंड में इनकी संख्या 32 है। इनके रीति-रिवाज और इनकी जमीन को बचाने के लिए अंग्रेज़ों के ज़माने से ही कुछ विशेष कानून लागू हैं।
पर्सनल लॉ के तहत विवाह, विरासत, गोद लेने, बच्चे की कस्टडी, गुजारा भत्ता, बहुविवाह और उत्तराधिकार से संबंधित मामले आते हैं, लोग आम तौर पर मुस्लिम पर्सनल लॉ की बात तो जानते हैं लेकिन कई समुदायों के अलग पर्सनल लॉ हैं, जिनमें आदिवासी भी शामिल हैं।
कई आदिवासी समूहों को डर है कि एक समान सिविल कोड को लागू करने से उनकी परंपराओं पर असर पड़ेगा। मसलन, झारखंड में आदिवासियों की संपत्ति और परंपराओं की हिफाजत के लिए अंग्रेजों के जमाने से ही तीन कानून लागू हैं-
विल्किन्सन नियम-1837 में ब्रिटिश राज के दौरान लागू किए गए इस नियम के तहत, आदिवासियों के बीच भूमि संबंधी विवादों का निपटारा करने के लिए आदिवासी अदालतें स्थापित की गईं। इन्हीं परंपराओं और प्रथाओं के अनुसार, फरवरी 2021 में चाईबासा के मानकी मुंडा न्याय पंच की स्थापना की गई थी।
छोटानागपुर किरायेदारी अधिनियम- ये कानून 1908 में आया जो आज भी लागू है। यही कानून आदिवासी भूमि के गैर-कानूनी अधिग्रहण के खिलाफ उन्हें कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है।
संथाल परगना किरायेदारी अधिनियम: 1876 में लागू किया गया यह अधिनियम जि़ला उपायुक्त की इजाज़त के बिना संथालों के स्वामित्व वाली भूमि को ग़ैर-संथाल व्यक्तियों या संस्थाओं को बेचने पर रोक लगाता है।
इनके अलावा, संविधान की पाँचवीं अनुसूची में दस राज्यों का जि़क्र भी मिलता है, जहाँ आदिवासी बहुल क्षेत्रों में उनकी परंपराओं की हिफाजत की बात कही गई है। इसी तरह से संविधान की छठी अनुसूची में भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में आदिवासी संस्कृति की सुरक्षा की बात की गई है, जहाँ उनकी परंपरा की हिफाजत के लिए जिला परिषद होते हैं। पांचवीं अनुसूची में झारखंड, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, गुजरात, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा और राजस्थान शामिल हैं।
संविधान की छठी अनुसूची आदिवासी संस्कृति की सुरक्षा और रख रखाव के उद्देश्य से मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम और असम में स्वायत्त जि़ला परिषदों की स्थापना का प्रावधान करती है।
झारखंड में आदिवासियों के अधिकारों के लिए सालों से लडऩे वाली सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला यूसीसी के बारे में कहती हैं, ‘एक देश में एक क़ानून कैसे चलेगा? पहले से ही हम पाँचवीं अनुसूची में हैं, हमारे लिए छोटानागपुर अधिनियम है, संथाल परगना अधिनियम हमारे लिए है, हमारे लिए विल्किंसन रूल है। हमारे ग्राम सभा को अपना अधिकार है।’
दयामनी बताती हैं कि ये मामला केवल ज़मीन-जायदाद तक सीमित नहीं है, वे पूछती हैं, ‘शादी करने का अपना कस्टमरी लॉ है। यहाँ पर हमारे प्रॉपर्टी का कौन उत्तराधिकारी होगा उसके लिए हमारा अपना कस्टमरी लॉ है। इस देश में 140 करोड़ जनता है। अब कन्याकुमारी से कश्मीर तक विभिन्न जातीय समुदाय के लोग हैं, अलग-अलग मज़हब के लोग हैं, तो उनको आप एक धारा में कैसे खड़ा करेंगे?’
आदिवासी औरतों का संपत्ति में हिस्सा
ज़मीन आदिवासियों के जीवन के केंद्र में है। यूसीसी से उन्हें सबसे अधिक खतरा जमीन छिन जाने का है।
शादी हो या गोद लेने की परंपरा, आदिवासियों में ये सब मसले भी कहीं न कहीं जमीन से ही जुड़े हैं।
जैसा कि राँची के सेंट जेवियर्स कॉलेज के प्रोफेसर संतोष कीड़ो कहते हैं, ‘जमीन ईश्वर की ओर से हमें दिया गया उपहार है। हम इसके व्यक्तिगत रूप से मालिक नहीं हैं। हम केवल इसका उपयोग करते हैं और फिर अगली पीढ़ी को सौंप देते हैं।’
आदिवासी समाज में बेटियों को उनके पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता। उनकी शादी के बाद उनके पतियों की जायदाद में भी उनकी हिस्सेदारी नहीं होती। यूसीसी के आने से स्त्री-पुरुष के बीच समानता आएगी और आदिवासी औरतों को जायदाद में हिस्सेदारी मिल सकेगी।
दयामनी बारला बताती हैं कि एक आदिवासी बेटी जब अपने पिता के घर होती हैं तो वो पिता की संपत्ति का उपयोग करती है और जब वो अपने पति के घर चली जाती है तो वो अपने पति की संपत्ति की सुविधाएं पाती है।
वो कहती हैं, ‘उनका कागज में नाम नहीं होता है लेकिन इसके बावजूद आप देखिए कि हमारे समाज में दहेज की प्रथा नहीं है, दहेज न लाने के कारण लड़कियों को जलाया नहीं जाता। हमारे यहाँ बलात्कार की घटनाएं न के बराबर हैं।’
प्रोफेसर संतोष कीड़ो के मुताबिक आदिवासी समाज में औरतों के अधिकार सुरक्षित हैं। जमीन में उनकी हिस्सेदारी पर वो कहते हैं कि आदिवासी जायदाद सामूहिक मिलिकियत होती है, जिसे किसी व्यक्ति या संस्था को ट्रांसफऱ नहीं किया जा सकता।
क्या आदिवासियों को यूसीसी में रखा जाएगा?
ये साफ है कि केंद्र सरकार को आदिवासियों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है।
अनौपचारिक रूप से केंद्र की तरफ से ऐसे इशारे मिल रहे हैं कि उन्हें यूनिफॉर्म सिविल कोड से बाहर रखा जा सकता है। लेकिन आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वाले कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि यूसीसी में सभी समुदायों को शामिल करना चाहिए।
राँची टेक्निकल यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर अमर कुमार चौधरी एक ऐसे ही जानकार हैं। वो कहते हैं, ‘मेरे विचार में आदिवासियों को यूसीसी से अलग नहीं रखना चाहिए। समय लीजिए, बहस कीजिए, कुछ देर बाद हो, दस साल बाद लागू करें क्योंकि ये अगर लागू होगा तो सबके लिए अच्छा होगा। देखिए अब देश आगे बढ़ रहा है। सबको साथ चलने की ज़रूरत है। यूसीसी सबके लिए हो। लेकिन किसी प्रकार का कोई कन्फ्यूजन न हो।’
प्रोफेसर अमर ख़ुद आदिवासी नहीं है, पर उनके बीच दशकों से काम करते रहे हैं। वो बीजेपी और आरएसएस से भी जुड़े हैं। वो ये भी ज़ोर देकर कहते हैं कि आदिवासियों से बातचीत के बिना उन्हें यूसीसी में शामिल न किया जाए।
वो कहते हैं, ‘देखिए मैं तो उनके बीच ही रहता हूँ। ये शुरूआती दौर है और जो लोग इस पर बात कर रहे हैं वो पढ़े-लिखे लोग हैं। ये लोग इस मुद्दे को समझ रहे हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में जो आदिवासी रह रहे हैं, जो पहाड़ों और जंगलों में रहते हैं, उनको यूसीसी के बारे में कुछ नहीं मालूम इसलिए इस पर बात होनी चाहिए, उनके अंदर जागरूकता लानी चाहिए। यूसीसी उनके लिए सही है या ग़लत है, इससे पहले उन्हें इसकी पूरी जानकारी होनी चाहिए।’
हाल में झारखंड के राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन ने भी एक अख़बार को दिए इंटरव्यू में इस बात पर ज़ोर दिया था कि जब तक आदिवासी समाज यूसीसी के लिए तैयार न हो उन्हें इससे बाहर रखना चाहिए।
यूसीसी पर बनी स्थायी संसदीय समिति के अध्यक्ष और भाजपा के नेता सुशील कुमार मोदी ने भी हाल में आदिवासियों को यूसीसी से बाहर रखने की वकालत की थी लेकिन केंद्र सरकार ने औपचारिक रूप से इस पर कोई फैसला नहीं किया है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि अभी यूसीसी पर बहस मीडिया में आई ख़बरों पर हो रही है। अभी बिल का मसौदा भी सामने नहीं आया है। (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
यदि हमने गांधीजी के विविध विषयों पर लिखे महत्त्वपूर्ण लेखों और विभिन्न अवसरों पर दिए गए महत्त्वपूर्ण भाषणों को गहराई से पढ़ा और समझा है तो यह कयास लगाना संभव है कि यदि गांधीजी आज जीवित होते तो भारत और विश्व की वर्तमान परिस्थितियों और प्रमुख समस्याओं से निबटने के लिए वे क्या करते। दूसरे शब्दों में कहें तो गांधी विचार का ठीक से चिंतन मनन करने वाले व्यक्तियों में गांधी की दृष्टि से यह समझ विकसित हो जानी चाहिए कि उन्हें वर्तमान परिदृश्य में किन किन रचनात्मक कार्यों पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए। भारत में गांधी के लिए आज सबसे महत्त्वपूर्ण मणिपुर होता। वे उन इलाकों में नंगे पैर घूमते जहां दंगाईयों की भीड ने दूसरे समुदाय की संपत्ति नष्ट की है और महिलाओं के साथ जघन्यतम हिंसा की है।
गांधी ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि समय और परिस्थितियों के अनुसार मनुष्य के विचार बदलते हैं। यह बदलाव प्रकृति का भी नियम है और मनुष्य जीवन का भी नियम है। उम्र और अनुभव के आधार पर भी हमारे विचार बदलते हैं। गांधीजी के जीवन और विचारों में भी समय के साथ कई अभूतपूर्व बदलाव हुए हैं। इन्हीं बदलावों का परिणाम था कि युवावस्था में अंग्रेजों की तरह पश्चिमी जीवन शैली को अपनाने वाले सूट बूट पहनने और चम्मच छुरी से खाना खाने वाले इंग्लिश जेंटलमैन बैरिस्टर मोहन दास से वे लंगोटी वाला फकीरी जीवन अपनाकर महात्मा गांधी बन गए थे। यह अपने आप में गांधी के व्यक्तित्व और विचारों में अभूतपूर्व बदलाव का सबसे बड़ा उदाहरण है।
मुझे भी पूरा विश्वास है कि गांधी आज की ज्वलंत मुद्दों और समस्याओं के समाधान के लिए अपने रचनात्मक कार्यों की प्राथमिकता में भी परिर्वतन करते और समय के अनुसार कुछ नए रचनात्मक कार्यों को भी अपने प्रमुख मुद्दों में शामिल करते। उदाहरण स्वरूप गांधी के समय हमारे प्राकृतिक परिवेश ज्यादा प्रदूषित नहीं हुए थे,आबो हवा जहरीली नहीं हुई थी , प्रकृति और पर्यावरण में वैसा असंतुलन नहीं था जिसकी वजह से भारत सहित पूरा विश्व मौसम परिर्वतन की दिनोदिन गंभीर होती समस्या से जूझ रहा है। इस दौरान खेती में अंधाधुंध रसायनिक खाद, कीटनाशकों और हर्बिसाइड एवम प्रिजर्वेटिव्स के उपयोग से हमारा तीन समय का भोजन बेहद जहरीला हो गया है। प्राकृतिक असंतुलन एवम जहरीली आबो हवा और भोजन ऐसे मुद्दे हैं जिनसे हर व्यक्ति प्रभावित हो रहा है और मनुष्य सहित पूरी प्रकृति के स्वास्थय पर गम्भीर खतरा मंडरा रहा है। घर घर में गम्भीर बीमारियों के मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
जिन दिनों महात्मा गांधी ने खादी को अपने रचनात्मक कार्यों में प्राथमिकता प्रदान की थी उन दिनों देश में कपड़े का भारी संकट था, अधिसंख्य आबादी को कपड़ा नसीब नहीं था। आज हमारे यहां कपड़ा इफरात में है और हम विदेशों को कपड़ा निर्यात कर रहे हैं। आज कपड़े से ज्यादा शुद्ध हवा और शुद्ध पानी की किल्लत है और शुद्ध सात्विक स्वास्थ्य वर्धक भोजन तो दुर्लभ हो गया है। जलवायु परिवर्तन के साथ साथ हमारी कचरा संस्कृति के कारण नदियों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। एक तरह से हमारा समृद्ध मध्यम वर्ग और प्रबुद्घ समाज भी साफ आबोहवा और शुद्ध जैविक भोजन के लिए तरस रहा है।
जहरीली होती आबो हवा, नाला बनती नदियां, ज़हरीला होता भोजन और बंजर एवम जहरीली होती कृषि भूमि और इन सबके कारण बीमार होती अधिसंख्य आबादी निश्चित रूप से गांधी का सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित करती। संभवत: वे खादी से अधिक जोर प्रकृति और पर्यावरण एवम सबके स्वास्थ्य के लिए जैविक खेती को ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए केंद्र में रखते और सरकार को भी इस दिशा में ठोस कदम उठाने के लिए बाध्य करते। गांधी विचार और गांधी के रचनात्मक कार्यों में विश्वास करने वाले हम लोगों का यह कर्तव्य बनता है कि गांधी की अनुपस्थिति में हम देश में अमन चैन बनाए रखें और जैविक खेती को केंद्र बिंदु बनाकर ग्राम विकास और राष्ट्र निर्माण में अपना यथा संभव यथाशक्ति योगदान करें।
दिनेश आकुला
24 जुलाई, 1980 के उस भाग्यशाली दिन से तैंतालीस वर्ष बीत गए हैं, परन्तु उत्तम कुमार की रहस्यमयी पर्सनैलिटी की चमक आज भी उसके श्रद्धालु अनुयायियों के दिलों में तेजी से चमकती है। उत्तम कुमार ने अपनी खूबसूरती से परिपूर्ण चार्म से दर्शकों को मोह लिया, उनके प्रत्याशित भूमिकाओं को रंग भर दिया। तीन शानदार दशकों तक वे बंगाली सिनेमा पर राज करे, उस समय के साक्षात्कार हैं जो उसके विरुद्ध कोई टक्कर नहीं थी।
3 सितंबर, 1926 को, उत्तर कोलकाता के अहिरी टोला में, एक सम्पन्न लेखक परिवार में जन्मे उत्तम कुमार का असली नाम अरुण कुमार चट्टोपाध्याय था। उनके पिता भी चलचित्र उद्योग में काम करते थे और मेट्रो सिनेमा हॉल में फिल्म ऑपरेटर रहते थे, जिससे उन्हें चालचित्र के संसार से संबंध बना। परन्तु उत्तम कुमार का प्रिय शौक थिएटर था। परिवारीक नाटक समूह, सुहृद समाज, ने उन्हें अभिनय की दुनिया में प्रवेश करने का मौका दिया। इस तरह से उत्तम कुमार की अभिनयक कला ने पकड़ बना ली। विद्यार्थी जीवन में अध्ययन का काम थोड़ा पीछे छोड़ दिया था, लेकिन वे तैराकी आदि में भी लगे रहते थे। तांत्रिक कलाओं में व्यवस्थित होने के बाद उन्होंने अपने दोस्तों के साथ लुनर क्लब बनाया। उत्तम कुमार के माता-पिता उनके पढ़ाई से परेशान थे, लेकिन उनके पिता ने उनमें एक अभिनेता का संभावित आँकलन किया था और उन्हें शुरुआती उम्र से ही स्वतंत्रता दी थी कि उन्हें उनके सपनों का पीछा करने की अनुमति है।
चक्रबेरिया स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उत्तम कुमार ने सरकारी वाणिज्य विद्यालय में प्रवेश लिया, जहां उनका अभिनयक कला और भी निखरती रही। ‘ब्रज कनै’ नामक एक प्रसिद्ध नाटक में उन्होंने फानी राय का किरदार निभाया, जिससे उन्हें समीक्षा की सराहना मिली, और उनकी कला की प्राशंसा हुई। उन्हें रवीन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु, सुभाष चंद्र बोस के योगदान, और बाद में नक्सलवादी आंदोलन के उदय से प्रभावित होने का भी बड़ा प्रभाव हुआ।
1948 में, उत्तम कुमार ने गौरी देवी से विवाह किया, हालांकि, दोनों परिवारों से मुखाकाक मिला। आखिरकार वे अलग हो गए, लेकिन गौरी देवी ने उन पर अमर प्रभाव छोड़ा। उन्हें सुप्रिया देवी से प्यार का अनुभव हुआ, जिसके साथ उन्होंने अपने बाकी के दिन बिताए। उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन की जोड़ी बंगाली सिनेमा के इतिहास में एक महत्वपूर्ण चिन्ह बन गई। उन्होंने मिलकर 60 फिल्मों में काम किया, जिनमें से 30 फिल्में उन्होंने साथ में की। यह जोड़ी हिंदी सिनेमा में भी चमकी, उत्तम कुमार ने 15 हिंदी फिल्मों में काम किया, जिसमें उनकी आखिरी रिलीज ‘प्लॉट नंबर 5’ शामिल थी।
कुछ वर्षों के बाद, उत्तम कुमार ने थिएटर और पोर्ट ट्रस्ट में काम करना छोडक़र फिल्म जगत में किरदार निभाने का निर्णय लिया। उनका पहला चढ़ाव फिल्म उद्योग में 1947 में ‘माया डोरे’ के साथ हुआ, लेकिन यह फिल्म तक़़दीर में सिर्फ चलता दिखाई नहीं दी। उनकी पहली रिलीज फिल्म ‘दृष्टिहीन’ (1948), जिसे नितिन बोसे ने निर्देशित किया था, उन्हें उनके जन्म के नाम अरुण कुमार चट्टोपाध्याय के नाम से जाना जाता था। अगले साल, उन्होंने ‘कामोना’ (1949) में मुख्य भूमिका किया, जिसके बाद उन्होंने अपना नाम फिर से अरुण चट्टोपाध्याय पर रखा और बाद में ‘सहजात्री’ (1951) से उत्तम कुमार के नाम से जाना जाने लगा। पहले कुछ सालों में उनकी फिल्में नुकसान में चली गईं, लेकिन अग्रदूत द्वारा निर्देशित ‘अग्नि परीक्षा’ (1954) उनके लिए वाहवाही का काम करी। साथ ही, प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक सत्यजीत राय के साथ ‘नायक’ (1966) में शर्मिला टैगोर के साथ विजयी काम करने से उनकी महत्वपूर्ण विकास और सम्मान की प्राप्ति हुई।
उत्तम कुमार की शानदारता ने अभिनय के सिवाए उन्हें अन्य कई किरदारों में भी बिखर दिया, जैसे कि उत्पादक, निर्देशक, लेखक, गायक और संगीतकार। उन्होंने अपने बैनर अलो चाया के तहत कई फिल्में निर्माण कीं, जैसे कि ‘हरनो सुर’ (1957) और ‘सप्तपदी’ (1961), जो अजय कर द्वारा निर्देशित थीं, और जिन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिले। 1963 में, उन्होंने अपने बैनर को ‘उत्तम कुमार प्राइवेट लिमिटेड’ नाम से पुनरूत्पन्न किया, जिसकी पहली फिल्म ‘भ्रांति विलास’ (1963) थी। इसके बाद आने वाली कुछ महत्वपूर्ण फिल्में ‘उत्तर फल्गुनी’ (1963) और ‘जोतुगृह’ (1964) थीं, जिन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों ने भी सम्मानित किया। उत्तम कुमार ने निर्देशन में भी कई महत्वपूर्ण फिल्में कीं, जैसे कि ‘सुधु एकती बच्चर’, ‘बोन पलाशीर पदाबली’ और ‘कलंकिनी कांकाबती’ (मृतक के बाद रिलीज हुई)।
उत्तम कुमार ने अभिनय के साथ-साथ गायकी में भी अपनी प्रतिभा दिखाई, जैसे कि फिल्म ‘काल तुमी अलेया’ (1966) में उनकी संगीतकार हेमंत कुमार और आशा भोसले के साथ निर्मित गाने थे। आशा भोसले ने एक और उनके संगीत संगीतकारी का साथ दिया था, जिसमें उन्होंने फिल्म ‘सब्यासाची’ (1977) में एक गाना गाया। 1967 में, उत्तम कुमार ने हिंदी फिल्म निर्माण की शुरुआत की थी ‘छोटी सी मुलाकात’, जिसमें ग्रेसफुल वैजयंतीमाला के साथ अभिनय किया।
दुर्भाग्यवश, यह फिल्म दर्शकों को नहीं प्रभावित कर पाई और उत्तम भारी कर्ज में डूब गए। अपने कर्ज चुकाने के लिए वे कई फिल्मों के साथ हस्तक्षेप करने पर मजबूर हुए, और अंतत: तपन सिन्हा द्वारा निर्देशित ‘बंचारामेर बागान’ (1988) के रिलीज के समय उन्हें चौपट किया गया। इन परेशानियों के बीच, उन्हें 1968 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला उनकी फिल्म ‘एंटोनी फिरिंजी’ के लिए, जिसमें उन्होंने प्रसिद्ध गायक अंतरा चौधुरी के साथ काम किया था।
समय के साथ, उत्तम कुमार के स्वास्थ्य समस्याएं उनकी ताकत को कम करने लगीं। 1967 में ‘चिडिय़ाखाना’ फिल्म की शूटिंग के दौरान उन्हें पहला हार्ट अटैक आया, जो उनकी शारीरिक संघर्ष की शुरुआत का संकेत था। इसके बाद आई हार्ट संबंधी समस्याएं और ‘छोटी सी मुलाक़ात’ की हार ने उन्हें और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं में डाल दिया। अंत में, 23 जुलाई, 1980 को ‘ओगो बोधु सुंदरी’ की शूटिंग के दौरान उन्हें फिर से हार्ट से संबंधी समस्या हुई। तब भी उन्होंने रात को पार्टी में शामिल होने का फैसला किया, और शराब के अधिक सेवन के कारण अनजाने में अपने भाग्य को बुला लिया। विपदा मध्यरात्रि को उनको लगी, जिससे उन्हें कोलकाता के बेलव्यू क्लीनिक में भर्ती कराया गया, जहां पाँच कार्डियोलॉजिस्ट उन्हें बचाने के लिए काम कर रहे थे। लेकिन लड़ाई 16 घंटे तक चली, और 53 वर्षीय उत्तम कुमार ने 1980 में जुलाई महीने को विदा हो गए।
उत्तम कुमार की असमय निधन ने बंगाली सिनेमा में एक सुनहरे दौर की समाप्ति का संकेत किया, जिसके बाद सिनेमा में एक अपूर्ण रिक्त स्थान रह गया। उनके अंतिम संस्कार में अनगिनत शोकसंतापी उनके चारों ओर इसकी पुष्टि की, जो उनके दिलों में उनके प्रभाव की गहरी छाप छोड़ गया। बंगाली सिनेमा उनके जाने के बाद कभी भी पूरी तरह से नहीं सुधर सकी, वे एक अद्भुत हीरो थे।
समय के साथ, उनकी यादें बुझने के बजाए उनकी प्रशंसा के बांध को मजबूत किया है। उत्तम कुमार को आज भी ‘महानायक’ के प्यारे श्रीखंडनाम से जाना जाता है। 2012 में पश्चिम बंगाल सरकार ने ‘महानायक सम्मान’ की स्थापना की, जो एक प्रतिष्ठित सम्मान है जो महान अभिनेता के अनवरत उपास्य विरासत का प्रतीक है। उत्तम कुमार हमारे बीच तो नहीं हैं, लेकिन उनकी प्रतिभा और चार्म कभी नहीं ढले हैं, जो हमें याद दिलाते हैं कि वे सदैव बंगाली सिनेमा के रत्न हैं।
उन्नीसवीं सदी के नवजागरण की शुरुआत का श्रेय राजा राममोहन राय (1772-1833) को दिया जाता है। उसके बाद ईश्वरचंद्र विद्यासागर (1820-1891) और रामकृष्ण परमहंस (1836-1886) आदि कहे जाते हैं। नवजागरण का लेकिन वाचाल पहला विद्रोह मौलिकता और देशभक्ति का अक्स समेटे बाईस वर्ष के एक कवि-शिक्षक में फूटा है। 26 दिसंबर 1931 को मौत की आगोश में सोने वाले डेरोजि़ओ (1809-1831) के जन्म वर्ष में ही टेनिसन, ग्लैड्स्टन, डार्विन, एडगर एलन पो, अब्राहम लिंकन, ऑलिवर होम्स, फिट्जराल्ड जैसे विष्वविख्यात व्यक्तित्व भी पैदा हुए। अंग्रेजी रूमानी काव्य के विलियम वर्डसवर्थ, कॉलरिज़, लॉर्ड बायरन, षेले और कीट्स जैसे दिग्गज हस्ताक्षरों के समानांतर एक भारतीय नौजवान कविता की पूरी ताजगी, चुनौती और ऊर्जा के साथ मौजूूद रहा है। निखालिस अंग्रेज नहीं होने से ईस्ट इंडियन समुदाय उस कसैले नस्लीय बर्तानवी व्यवहार से अछूता नहीं था जो सौतेली संतानों को मिलता है।
नवजागरण के मुख्य घटनाक्रमों में 1784 में एशियाटिक सोसाइटी, 1800 में फोर्ट विलियम कॉलेज, 1817 में हिन्दू कॉलेज, 1824 में संस्कृत कॉलेज तथा वारेन हेस्टिंग्स द्वारा 1782 में कलकत्ता मदरसा की स्थापनाओं का बुनियादी महत्व है। अचरज है समकालीन राजा राममोहन रॉय के लेखन तथा ईष्वरचंद्र विद्यासागर रचित जीवनियों के ‘जीवन चरित्र’ में डेरोजिओ का उल्लेख तक नहीं है। थॉमस एडवडर््स की डेरोजिओ की जीवन गाथा कलकत्ता में 1884 में ही प्रकाशित हो पाई। कई समान सामाजिक चुनौतियों से जूझते विवेकानन्द ने भी डेरोजि़ओ का उल्लेख नहीं किया। दुखद है उसके समकालीनों ने उसके कार्यों और लेखन का पूरा ब्यौरा भविष्य की पीढिय़ों के लिए सुरक्षित नहीं किया। चौदह वर्ष में ही डेरोजिओ की जेम्स स्कॉट एंड कंपनी की व्यापारी फर्म में क्लर्क की नौकरी में नियुक्ति हुई। फिर तबादला भागलपुर हो गया। वहां कुदरत में उसमें कवि जी उठा। छुटपुट काव्य रचनाओं के प्रकाशन के अलावा उसने मशहूर जर्मन दार्शनिक काण्ट पर गवेशणात्मक शोध लेख सवाल उठाते प्रकाशित किया। एक तरुण के लिए वह नायाब उपलब्धि थी। उसकी कविताओं से प्रभावित साहित्य-मर्मज्ञ शिक्षाशास्त्री डा. जान ग्रान्ट ने केवल अठारह वर्ष में हिन्दू कॉलेज (स्कूल) में अध्यापक पद पर उसकी नियुक्ति करवाई।
डेरोजि़ओ ने इतिहास बोध की दुर्लभ मेधा का परिचय देते अपने छात्रों को नैतिक सांस्कृतिक ऊंचाई पर ला खड़ा किया। कलकत्ता के अन्य दिग्गजों ने ऐसी संभावनाओं को नहीं तलाशा था। उसने सती प्रथा, दहेज प्रथा और बाल विवाह की कुरीतियों और मूर्तिपूजा के खिलाफ और विधवा विवाह के समर्थन में समाज सुधार का राममोहन राय की तरह लगभग पहला बिगुल फूंका। छात्रों में अध्ययनप्रियता और अध्यवसाय के बीज रोपे। कहा तर्क के बिना किसी भी सत्य को स्वीकार करना ज्ञान का अपमान करना है। डेरोजिओ बुुनियादी तौर पर कवि था। हालांकि उसके बहुविध गद्य में ऊर्जा की चिनगारियों के स्फुलिंग रहे। उसे नवजागरण के ज्ञान का पहला विस्फोट माना गया है। घर घर में मषहूर था हिन्दू कॉलेज का डेरोजिओ का कोई विद्यार्थी झूठ नहीं बोल सकता। समाज की कुरीतियों को दूर करने के उसके विद्रोही रोल के खिलाफ कॉलेज के प्रबंध न्यासियों को उकसाया गया। उन्होंने माना वह अद्भुत प्रतिभाषाली षिक्षक था। फिर भी उसे स्कूल की नौकरी से निकाल दिया। कारण बताओ नोटिस का जवाब तपेदिक से ग्रस्त डेरोजिओ ने दिया। वह एक नवयुवक का नायाब तार्किक स्फुरण है।
वाणिज्य का अध्यापक डेरोजिओ अंग्रेजी साहित्य के प्रारंभिक षिक्षकों में भी था। उसके द्वारा स्थापित स्टडी सर्किल में सामाजिक कुरीतियों, धर्म, दर्शन, साहित्य, राजनीति से संबंध जलते सवालों पर बहस मुबाहिसा होता। वह विद्यार्थियों को स्वतंत्र, निर्भीक और स्पष्ट विचारों के लिए उत्साहित करता था। उसके तर्क तलवार की धार की तरह पैने होते। वह समाज सुधारक तथा बुद्धिजीवी चिंतक के रूप में मशहूर था। एक अर्थ में उसे नास्तिक भी कहा गया। हिन्दू कॉलेज के लिपिक हरमोहन चटर्जी का संस्मरण मार्मिक है कि डेरोजिओ ने अपने विद्यार्थियों के जेहन पर इतना अधिकार कर लिया था कि वे अपने निजी मामलों में भी उसकी सलाह के बिना अपनी राय नहीं रखते थे। अटूट विश्वास था उसे भी अपने विद्यार्थियों में! कितनी उम्मीदें संजोई थीं समवयस्क अध्यापक ने! विद्यार्थियों ने भी उसके विश्वास की मर्यादा निभाई। दक्षिण मुकर्जी, ताराचन्द चक्रवर्ती, के.एम. बनर्जी, रामतनु लाहिरी, रामगोपाल घोष, रामनाथ सिकदार जैसे विद्यार्थियों ने उस मशाल की ज्योति से बंगाल को ही नहीं सारे भारत को आलोकित किया है जो डेरोजिओ ने ‘यंग बंगाल मूवमेंट‘ स्थापित कर उनके हाथों में दी थी।
कॉलेज के जीवन मेंं ही डेरोजिओ ने ‘पार्थेनॉन‘ नाम की पत्रिका प्रकाशित की। उसकी लेखनी ब्रिटिश हुकूमत, सामाजिक कुरीतियों और शैक्षणिक दुव्र्यवस्थाओं के खिलाफ आग उगलती। रूढि़वादियों के एक वर्ग ने पत्रिका के दूसरे संस्करण की सारी प्रतियां इस डर से खरीद लीं कि विद्यार्थियों के हाथों में न पड़ जायें। कॉलेज की प्राध्यापकी छूट जाने के बाद डेरोजि़ओ ने गेस पेपर्स नहीं छपवाए। ट्यूशनें नहीं की और लडक़ों को परीक्षोपयोगी नोट्स नहीं लिखवाए। उसने साहस नहीं खोया और संघर्षशील बना रहा। उसके घर पर विद्यार्थियों की भीड़ जमा रहती। उससे उसे और हिम्मत मिलती। उसने ‘ईस्ट इंडियन‘ नाम का समाचार पत्र निकालना भी शुरू किया। पत्रकारिता के इतिहास का यह महत्वपूर्ण पत्र बहुत लोकप्रिय हुआ। डेविड हेयर, डॉ. एडम आदि शिक्षाशास्त्रियों के साथ उसने हिन्दू फ्री स्कूल तथा धरमतल्ला अकादमी में भी काम किया। मौत का साया उस पर मंडराने लगा था। 26 दिसंबर 1831 को तेईसवें वर्ष हैजा की बीमारी से अचानक वह चल बसा। इतना शोक उन दिनों अन्य किसी की मृत्यु का नहीं मनाया गया। डेरोजि़ओ ने कलकत्ता का पहला वादविवाद क्लब ‘एकेडेमिक एसोसिएषन‘ अपनी अध्यक्षता में स्थापित किया। मानिकतल्ला मकान के बागीचे में होने वाली इसकी बैठकों में बंगाल के डिप्टी गवर्नर डबल्यू. डबल्यू. बर्ड, चीफ जस्टिस सर एडवर्ड रायन, वाइसरॉय लॉर्ड बैंटिंक के निजी सचिव कर्नल बेन्सन तथा डेविड हेयर जैसे बुद्धिजीवी भी आते थे।
वैश्वीकरण की विकृतियां भोगते भारत मेंं कोई कल्पना कर सकता है कि लगभग दो सौ वर्ष पहले एक नवयुवक यह कह रहा हो ‘कुछ लोगों का विचार है कि औपनिवेशीकरण से हमारे देश की कई बुराइयों को प्रभावी तरीके से खत्म करने में मदद मिलेगी। लेकिन देखना है कि ऐसी कोई हालत कब होती है। मुझे इस पर यकीन नहीं है, और इस धारणा में कि सभी कोशिशों की बनिस्बत औपनिवेषीकरण में ही भारत का फायदा है। यह सत्य के मुकाबिले लफ्फाज़ी ज्यादा है। हालांकि कुछ आशावादी चिंतकों का उलट विचार है। लेकिन अगर सचमुच ऐसा होने की संभावना हो तो भी मेरे विचार में इसमें सबसे बड़ी बाधा औपनिवेशीकरण पर अमल करने मेंं है।‘ भारत के यूरोपीय औपनिवेशीकरण की मुखालफत करते डेरोजिओ ने कहा था गोरे अंग्रेज बदहाली तो हिन्दुओं और मुसलमानों की कर रहे हैं। वही हाल भारत के एंग्लोइंडियन या अन्य यूरोपीय परिवारों का होगा। डेरोजिओ का पूर्वाभास सच हुआ। वह इतिहास को जांचने के लिए भूगोल जैसे सामाजिक विज्ञान के स्फुलिंग को अपनी नायाब मेधा के जरिए पहचानता था।
महात्मा गांधी ने चंपारण में नील की खेती के अन्याय को लेकर ऐतिहासिक आंदोलन किया। गांधी न केवल राष्ट्र नेता बल्कि परिव्राजक भी थे। उनसे 23 वर्ष के नवयुवक की तुलना नहीं हो सकती। लेकिन डेरोजिओ ने ही नील की खेती के किसानों पर हो रहे जुल्म का आगाज़ किया था। गांधी की चम्पारण चेतना एक ईस्ट इंडियन किशोर में कोई सौ बरस पहले जागृत हुई थी। इस तर्क का लेखा-जोखा न इतिहास में दर्ज है और न ही गांधी साहित्य में।
डेरोजि़ओ को अंग्रेजों से हमदर्दी नहीं थी। हालांकि वह राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं था। उसने साहित्य, संस्कृति, सामाजिक विज्ञान और जातीय समीकरणों की ब्रिटिश अवधारणाओं को झिंझोड़ते भारत की बेहतरी को लेकर वैचारिक अरुणोदय की तरह गुमनाम लेकिन उज्जवल जीवन जिया और असमय चला गया। यूरोपीय नवोदय को भारत में लाये जाने का वह विरोधी नहीं था। उसका नजरिया विज्ञान सम्मत था। उसने इस बात की बेबाक वकालत की कि अंग्रेज हुक्मरान भारत में रूढिय़ों, वर्जनाओं, अफवाहों और अंधविश्वासों के बरक्स यूरोपीय नवोदय की फितरत की शिक्षा, संस्कृति और कला के उच्चतर और व्यापक शिक्षण का इंतजाम करें। यह सरकार का पहला कर्तव्य हो, जिससे आधुनिक षिक्षा कस्बों तक फैले।
उसने यह मांग की कि भारत के भाग्य को ईस्ट इंडिया कंपनी जैसी तिजारती संस्था के भरोसे छोडऩे के बदले ब्रिटिश संसद को हस्तक्षेप करना चाहिए। उससे भारतीयों और इंडो-ब्रिटन प्रकृति के देशवासियों को यथासंभव यूरोपियों के बराबर अधिकार मिलें। उसकी भविष्यवाणी सच 1857 में हुई कि ऐसा नहीं होगा तो जनविद्रोह रोकना मुष्किल होगा। उसने कहा था शासक और षासित के रिष्तों को जोडऩे का काम कलाओं और विज्ञान को सौंपना चाहिए। जेरेमी बेन्थम को उद्धृत करते हुए डेरोजिओ ने कहा था कि आदर्ष शासन वही होता है जो ज्यादा से ज्यादा लोगों की ज्यादा से ज्यादा भलाई कर सके।
प्रकाश दुबे
1990 में इंजीनियरिंग कालेजों में सौ विद्यार्थियों में बमुश्किल दस छात्राएं होती थीं। 2023 आधा बीतने से पहले प्रीति भारतीय प्रौद्योगकी संस्थान मद्रास की निदेशक बन चुकी हैं। मुंबई आइआइटी में काम कर चुकीं प्रीति अघायलम चेन्नई में रसायन विभाग की अधिष्ठाता (डीन) हैँ। अफ्रीकी महाद्वीप के जंजीबार में बनने जा रहे आइआइटी की जिम्मेदारी उन पर है। दूसरा उदाहरण-भारतीय जनसंचार संस्थान के महानिदेशक संजय द्विवेदी ने रवानगी से पहले इंदौर के पत्रकारों पर मीडिया विमर्श का सहेजकर रखने वाला अंक तैयार कराया। पूर्णकालिक महानिदेशक आने तक अनुपमा भटनागर संस्थान संभालेंगी। भारतीय प्रेस परिषद की अध्यक्ष रंजना प्रकाश देसाई इन दोनों में एक समानता है। तीनों संस्थाओं में सर्वोच्च पद पहली मर्तबा किसी महिला को सौंपा गया है। लाखों में नहीं, अरबों में एक। (अरब का मतलब यहां देश नहीं, सौ करोड़)। ऊंची-ऊंची हांकने भर से 143 करोड़ के देश में महिलाओं को रगेदती, चीरहरण करती भीड़ की क्रूरता और हमारी चुप्पी का पाप कम नहीं होता।
आधा रहे सो पेंशन पावै
मंदिर-मढ़ी में पूजा पाठ करने वाले सब लोग ज्योतिषी तो होते नहीं। औरों का भविष्य बांचने वालों में अनेक अपने और यजमान को गच्चा खाने से नहीं बचा पाते। चुनाव तैयारी में राम रहीम की पेरोल रिहाई का पुण्य कमाने के बाद हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने आजू बाजू नजऱ डाली। मंथन किया। ज्ञान प्राप्त हुआ। अविवाहित व्यक्तियों को मासिक वृत्ति देने का ऐलान कर दिया। हरियाणा में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों का अनुपात बहुत कम है। दिमाग पर जोर देने पर मुख्यमंत्री को कुछ देर बाद लगा कि योजना में विधुरों को शामिल करना चाहिए। पत्नी विहीन व्यक्तियों ने कोई अपराध नहीं किया है, जो उन्हें ऐसे संबोधन से नवाजा जाए, जो यहां लिखना ठीक नहीं होगा। हर एक हरियाणवी विधुर के खाते में महीने में दो हजार सात सौ पचास रुपए पेंशन जमा होगी। सावन के मौसम में पिया को तलाशती सुंदरियां नजऱ न आएं, कोई बात नहीं। प्रधानमंत्री हरियाणा सरकार की कई बार पीठ थपथपा चुके हैं। पेंशन की व्यवस्था के भरोसे जीवन बिता लेंगे। हजारों नौजवान बेरोजगार हैं। माना। 70 हजार से अधिक हरियाणवी एक अदद जीवन संगिनी की कमी का रोना रोते हैं।
अच्छे दिन की उम्मीद
जनता दल-एस के महत्वाकांक्षी देवगौड़ा पिता पुत्र से किस्मत के साथ ही कांग्रेस और भाजपा ने दूरी बना ली। दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर बनने चले देवेगौड़ा ने समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव को खास तौर पर प्रचार के लिए बुलाया था। उनकी रणनीति कर्नाटक विधानसभा चुनाव में फुस्स हो गई। विपक्ष नेताओं की बैठक में कुमारस्वामी को बुलाने का अखिलेश ने आग्रह नहीं किया। भाजपा नेता जनता दल एस को अपनी हार का कारण मानते हैं। दोनों मिलकर लड़ते तो कर्नाटक सरकार बच सकती थी। मायावती बुआजी की तरह देवेगौड़ा काका भी हित साधने के लिए लुढक़ना जानते हैं। नीतीश कुमार और राहुल गांधी पर वार कर कुमारस्वामी दांव चल चुके हैं। भाजपा का एक वर्ग जनता दल एस नेता कुमारस्वामी को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष पद देने की सलाह दे रहा है। दांतों तले अंगुली काहे दबाते हैं? एक भूतपूर्व नेता प्रतिपक्ष महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री है। दो दो उपमुख्यमंत्री बन बैठे। बेंगलूरु से उडक़र पाला बदलने वालों को देश-मध्यप्रदेश की सत्ता मिली। कुमारस्वामी की राह में अड़ंगा बाकी है। पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा मानें, तब न बात बने।
कौन बनेगा
वो दिन याद करो। जब कोर कमेटी में सुषमा स्वराज, नितिन गडकरी दहाड़ते थे। कभी-कभार वेंकैया नायडू मुंह खोलते थे। राजनाथ सिंह मौन व्रत कम ही तोड़ते थे परंतु अरुण जेटली की वकालत से बात सध जाती थी। जीवन के अंतिम दिनों में जेटली की तबीयत और दिल दोनों दुखी थे। तय यह होना है कि मिसिर जी के कारण बेहद चर्चित हो चुके ईडी के आसन पर कौन विराजमान हो? सत्ता और विपक्ष दोनों में जेटली के परम भरोसेमंद सीमांचल दास दौड़ में शामिल हैं। प्रवर्तन निदेशालय में जिम्मेदारी निबाह चुके हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारामण ने सीमांचल सहित तीन बांकुरों की सिफारिश भेजी है। मुकाबला बहुत कड़ा है। केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के मुखिया नितिन गुप्ता सेवानिवृत्त होने वाले हैं। नागपुर में रह चुके हैं। ईडी की कुर्सी मिलने पर दो साल और काम करने का अवसर मिलेगा। सीबी डीटी के सदस्य प्रवीण कुमार होड़ में शामिल हैं। राजस्व सेवा और कारोबारियों में खुसुरपुसर जारी है कि मिसिर जी के जाने के बाद नए मिसिर जी आ सकते हैं। बहरहाल मंत्री की सूची से मिश्र गायब हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
नासिरुद्दीन
मणिपुर में ढाई महीने से ज़्यादा वक़्त से हिंसा हो रही है। इस पर देश को जागने के लिए एक वीडियो का इंतजार था। वह बीते बुधवार (19 जुलाई) को पहली बार सामने आया।
इस खौफनाक वीडियो के सार्वजनिक होने से पहले ज़्यादातर लोगों को मणिपुर में चल रही जातीय और साम्प्रदायिक हिंसा की गंभीरता का अंदाजा नहीं था।
सैकड़ों नौजवानों के हुजूम के बीच बिना कपड़े के दो महिलाओं को पकडक़र ले जाया जा रहा है। उनके जिस्म के साथ बर्बरता हो रही है। खबरों के मुताबिक इनमें से एक के साथ कथित तौर पर सामूहिक बलात्कार भी हुआ है। लेकिन, जो दिख रहा है, वह बलात्कार से भी बढक़र है।
सवाल है, सामूहिक बलात्कार की बात पर ना भी जाएं तो जो होता हुआ दिख रहा है, वह क्या है?
जो किया गया, वह क्यों किया गया?
हर वह हरकत बलात्कार है, जो किसी की ख्वाहिश के बगैर उसके शरीर के साथ की जाए। किसी के सम्मान को इस तरह चोट पहुँचाना और सम्मान के साथ सरेआम खेलना... बलात्कार ही है। शरीर भेदना जरूरी नहीं है तो यहाँ जो हो रहा है, खुलेआम हो रहा है। यह हिंसा मर्दाना सत्ता, दबंग मर्दानगी और नफरत की उपज है। और मणिपुर की इस आपसी संघर्ष में महिलाओं के साथ यौन हिंसा की यह कोई अकेली घटना नहीं है। ऐसी अनेक घटनाएँ सामने आ रही हैं।
स्त्री शरीर यानी जंग का मैदान?
मणिपुर जैसे संघर्ष का सबसे बड़ा निशाना लड़कियाँ और महिलाएँ होती हैं। लड़कियों का शरीर जाति-धर्म, राष्ट्र, क्षेत्र, नस्ल की जंग का मैदान बनता है।
मर्दाना ख्य़ाल यह मानता है कि समुदाय, राष्ट्र, जाति और धर्म को जीतना है तो दूसरे पक्ष की स्त्रियों को ‘जीतो’।
अगर इन्हें हराना है तो दूसरे पक्ष की स्त्रियों पर हमला करो। अब वह लडक़ी एक अकेली न रहकर अपने समुदाय की नुमांइदा बन जाती है। उसके जरिये समुदाय पर हमला किया जाता है।
मर्दाना सत्ता यह भी मानती है कि महज जीतना या हराना नहीं है। स्त्री शरीर पर हमलावर होना है। हमला भी कहाँ करना है, यह भी वह बताती और सिखाती है। इसलिए हमले के नतीजे में महज किसी की हत्या नहीं होती है। मर्दाना सत्ता बताती है कि यौन हिंसा करनी है। स्त्री के ख़ास अंगों को निशाना बनाना है।
उन अंगों को ही निशाना क्यों बनाना है? क्योंकि समाज, परिवार, जाति, धर्म, राष्ट्र, समुदाय, नस्ल सबकी इज्जत का भार स्त्री उठाये है। मर्दाना ख्याल ने इज्जत उसके कुछ अंगों में समेट दी है।
इसीलिए अगर दूसरे समूह की स्त्रियों के उन अंगों को निशाना बनाया जाए तो मर्दाना समाज मान लेता है कि उसने उस समुदाय, परिवार, जाति, धर्म, राष्ट्र, नस्ल की ‘इज़्जत लूट ली’। ‘इज़्ज़त मटियामेट कर दी’।
स्त्रियों के साथ ऐसी यौन हिंसा कर हमलावर पक्ष अपने को विजेता और दूसरे समूह को पराजित भी मानता है। यही नहीं, वह ऐसा करके दूसरे समूह के मर्दों को नीचा भी दिखाता है।
मणिपुर में भी एक पक्ष अपने को विजेता मान रहा है। दूसरे को पराजित दिखा रहा है। वह वीडियो देखें। बेबस लड़कियों के साथ उछलकूद करते नौजवान मर्द कैसे उत्साह में हैं।
ऐसा नहीं है कि ऐसी जीत का उत्साह सिर्फ स्त्रियों के साथ हिंसा में होता है। कई मर्दों को भी ऐसी हिंसा झेलनी पड़ती है। जहाँ एक समूह दूसरे समूह के मर्द की मूँछ काट डालता है। सर के बाल मुँड़वा देता है। यानी उन्हें मर्दानगी के कथित पहचान से मरहूम कर बेइज्जत करता है।
नफरत और नफरत की राजनीति
भीड़ का विजयी उत्साह बिना नफरत के मुमकिन नहीं है। यह नफरत बिना नफरती राजनीति के मुमकिन नहीं है।
राजनीति यानी नफरत को विचार का रूप देना। नफरत का राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करना। समाज को नफरत के आधार पर दो या कई खेमों में बाँट देना।
यह अहसास पैदा कर देना कि एक का रहना, दूसरे के लिए ख़तरनाक है। इस नफऱती राजनीति का पितृसत्तात्मक विचारों से मेल और नई तरह की हिंसक मर्दानगी का उभार, ऐसी घटनाओं में आसानी से देखा जा सकता है।
इसका नतीजा क्या हुआ?
पिछले कुछ सालों में हम यौन हिंसा के मामले में अभियुक्तों का धर्म, जाति और राष्ट्रीयता देखकर खुलेआम उनके साथ खड़े होने लगे या चुप रहने लगे या यौन हिंसा झेलने और इंसाफ के लिए लडऩे वाली लड़कियों और स्त्रियों के खिलाफ हो गए।
हाल के दिनों में ही ऐसे अनेक उदाहरण हमारे आसपास हैं, जहाँ हमें बतौर समाज एक आवाज में यौन हिंसा की मुखालफत में खड़े हो जाना चाहिए था लेकिन यह नहीं हो पाया।
यही नहीं, इस राजनीति का नतीजा है कि राज्य भी विचार के हिसाब से यौन हिंसा करने वालों के साथ कहीं न कहीं खड़ा नजऱ आता है। अगर ऐसा न होता तो मणिपुर में दो महीने पहले हुई घटना पर कार्रवाई हो चुकी होती।
यही नहीं, इस वीडियो के आने के बाद भी बहुतेरे लोग अब भी ऐसे हैं, जो किंतु-परंतु के साथ बात कर रहे हैं। वे इस हिंसा की बात के जवाब में किसी और हिंसा का हवाला देने लगते हैं।
जब हम एक हिंसा का हवाला दूसरी हिंसा से देते हैं तो हम हिंसा का विरोध नहीं बल्कि हिंसा का समर्थन ही कर रहे होते हैं। यह बतौर समाज हमारे हिंसक और स्त्री विरोधी होते जाने की बड़ी पहचान है।
यौन हिंसा पर नफऱती राजनीति का साया
यह आपसी नफरत और नफरत की राजनीति हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। नफरत और नफरत की राजनीति में हमने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली है। इसीलिए हम यौन हिंसा अपनी सुविधा के अनुसार देखते हैं।
कुछ दिनों पहले की बात है। देश की नामचीन महिला पहलवान धरने पर बैठी थीं। वे चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थीं कि हमारे साथ यौन हिंसा हुई है। चूँकि उनका धरना ख़ास तरह की राजनीति को पसंद नहीं था तो उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाये गए। उनका मजाक बनाया गया। उनसे सुबूत माँगे गए।
मगर उनके पास दिखाने को कोई खौफनाक वीडियो नहीं था। इसलिए वे महीनों तक धरने पर थीं। हमारा समाज कान में तेल डालकर चुपचाप सो रहा था।
हालांकि अब क़ानूनी प्रक्रिया के तहत मामले की सुनवाई हो रही है लेकिन इस पूरे मामले को राजनीति के चश्मे से ही देखा जाता रहा।
ऐसा कुछ और घटनाओं में भी हुआ है।
मणिपुर में दो महिलाओं के निर्वस्त्र कर परेड निकालने के मामले में एक अभियुक्त की गिरफ्तारी के बाद उसके घर पर महिलाओं ने हमला किया और तोडफ़ोड़ की।
कठुआ, बिलकिस और मुजफ्फरनगर याद है?
जम्मू-कश्मीर के कठुआ में एक बच्ची के साथ सामूहिक यौन हिंसा होती है। इस हिंसा की वजह धार्मिक नफऱत थी। पहले तो उस यौन हिंसा को झुठलाने की कोशिश की जाती है। उसमें कामयाबी नहीं मिलती है। इसके बाद अभियुक्तों के पक्ष में जुलूस निकालते जाते हैं। पैरवी की जाती है।
यह उस बच्ची के साथ हुई यौन हिंसा को जायज़ ठहराना नहीं था तो क्या था? यौन हिंसा करने वाले को एक समूह का हीरो बनाना नहीं था तो क्या था?
कठुआ मामला
21 साल पहले गुजरात में गोधरा ट्रेन कांड के बाद बड़ी साम्प्रदायिक हिंसा हुई। दाहोद जि़ले में हिंसा से बचने के लिए बिलकिस और उसके परिवारीजन भाग रहे थे।
21 साल की बिलकिस गर्भवती थीं। हिंसक भीड़ ने बिलकिस के साथ सामूहिक बलात्कार किया। उसके परिवार के 14 लोगों की हत्या कर दी गई। इसमें उनकी तीन साल की बेटी भी थी।
लंबी कानूनी लड़ाई के बाद सामूहिक बलात्कार के मामले में 11 लोगों को उम्र कैद की सजा हुई। ये सभी लोग बीच-बीच में अलग-अलग कानूनी उपायों का इस्तेमाल करके जेल से आते-जाते रहे।
एक साल पहले इन 11 लोगों की सज़ा वक्त से पहले ख़त्म कर दी गई। ये सभी बाहर आ गए।
बाहर आकर वे ‘हीरो’ हो गए। किसके हीरो? समुदाय के? धर्म के?।।। और जिसके साथ यौन हिंसा हुई, वह ठगी-सी रह गई।
मुजफ्फरनगर में 2013 में साम्प्रदायिक हिंसा होती है। यहाँ कई महिलाओं के साथ बलात्कार की खबर आती है।
यहाँ भी बलात्कार की वजह ख़ास धार्मिक पहचान थी। मक़सद बज़रिये स्त्री समुदाय पर हमला था।
लंबी कानूनी लड़ाई में कुछ केस वापस हो जाते हैं। कुछ महीने पहले नौ साल बाद एक मामले में दो लोगों को 20 साल की सजा होती है। कई केस वापस हो गए।
क्या यह महज संयोग है कि मणिपुर, कठुआ, गुजरात या मुजफ्फरनगर में एक हमलावर समूह दूसरे समूह की महिलाओं के साथ यौन हिंसा करता है? महिलाओं को निशाना बनाने का पहला मक़सद हत्या का नहीं था। पहले उनके साथ यौन हिंसा फिर उसके बाद कुछ और।
दुखद तो यह है कि ऐसे ज़्यादातर मामलों में यौन हिंसा सिफऱ् एक समुदाय का मुद्दा बन कर रह जाती है। अगर ऐसा नहीं होता तो बिलकिस के मुजरिमों की सज़ा न तो वक़्त से पहले ख़त्म की जाती और न ही उनको सामाजिक सम्मान मिलता। यही नहीं मुजफ्फरनगर की कई पीडि़तों को अपने क़दम पीछे नहीं खींचने पड़ते।
अगर ऐसा होता रहेगा तो मणिपुर जैसी घटनाएँ कैसे रुकेंगी?
जहाँ भी संघर्ष, वहाँ निशाना स्त्रियाँ
दुनियाभर में जहाँ भी समुदायों के बीच संघर्ष है, वहाँ निशाने पर स्त्रियाँ हैं। ख़ासतौर पर कमजोर पक्ष की स्त्रियाँ। हमारे देश में इस तरह की ढेरों घटनाएँ आजादी और बँटवारे के वकत भी हुईं। उस दौर में हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों ने एक-दूसरे की महिलाओं का अपहरण किया। उनके साथ यौन हिंसा की। यह मानकर की कि हमने दूसरे की ‘इज्जत लूट ली’ और दूसरे पर ‘जीत हासिल’ कर ली है।
बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के वक्त बंग्ला भाषी होने की वजह से वहाँ की महिलाओं पर बहुत यौन हिंसा हुई।
पूर्वी यूरोप में बोस्निया की महिलाओं के साथ, म्यांमार में रोहिंग्या महिलाओं के साथ, इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस) का यजीदी महिलाओं को यौन दासी बनाकर यौन हिंसा करना- बज़रिये स्त्री शरीर जीतने और हराने के ऐसे अनेक मर्दाना उदाहरण हमें मिल जाएँगे।
तो क्या यह सब चलता रहेगा?
जहाँ संघर्ष है, वहाँ की स्त्रियों को यह सब झेलना ही होगा।
अगर हम चाहते हैं कि ऐसी यौन हिंसा रुके तो कुछ कदम उठाये जाने बहुत ज़रूरी हैं।
ऐसी हिंसा को किसी एक व्यक्ति के खिलाफ यौन हिंसा समझनी भूल होगी। यह यौन हिंसा समुदाय के खिलाफ है, समाज और संविधान के मूलभूत ढाँचे के खिलाफ है, स्त्री जाति के सम्मान के खिलाफ है। इसलिए सबसे पहले इस तरह की यौन हिंसा को कानूनी तौर पर अलग दर्जे की यौन हिंसा मानना होगी।
इसके लिए तय वकत में केस का निपटारा ज़रूरी है। कड़ी से कड़ी सजा देनी ज़रूरी है। सामाजिक तौर पर सजा देना और जुर्माना लगाना होगा। उस इलाके के जिम्मेदार प्रशासनिक और पुलिस अफसरों पर भी कार्रवाई करनी होगी।
राज्य अपनी जि़म्मेदारी से बच नहीं सकता। इसलिए ऐसी घटनाओं में राज्य को जिम्मेदार बनाना होगा।
इज़्जत के मर्दाना सोच को नकारना होगा। स्त्री के कुछ यौन अंग किसी समुदाय, धर्म या राष्ट्र की इज्जत के रखवाले नहीं हैं, यह समझना और समझाना होगा।
सबसे बढक़र लडक़ों और मर्दों को इंसान बनना होगा। वे स्त्री का जुलूस निकालकर, अपने को अमानवीय बना रहे हैं।
ध्यान रहे, कल जब संघर्ष थमेगा लडक़े और मर्द अपने धर्म, जाति, राष्ट्र, समुदाय की स्त्रियों का जुलूस निकालेंगे। उनके सम्मान के साथ खेलेंगे। इतनी ही बुरी तरह से यौन हिंसा करेंगे। वे अपनी स्त्रियों का भी जीवन बदतर कर देंगे। यह तय है।
आवाज़ उठाने की आदत डालनी होगी
किसी भी सभ्य समाज में ऐसी किसी भी हिंसा को बर्दाशत करने की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए।
अगर यह गुंजाइश लगातार बनी है तो बतौर सभ्य समाज, हमें अपने बारे में सामूहिक तौर पर जल्द से जल्द सोचना चाहिए। हमें सोचना चाहिए कि अगर यह वीडियो न आया होता तो हम यौन हिंसा के आरोपों की बात मानते या नहीं?
अगर हम चाहते हैं कि मणिपुर जैसी घटना का कोई और वीडियो किसी और कोने से न आए तो हमें बतौर समाज कुछ चीज़ें तुरंत करनी होंगी। यौन हिंसा, चाहे जो करे उसका विरोध करने और उसके खिलाफ आवाज उठाने की आदत डालनी होगी।
नफरत और नफरत की राजनीति ने हमें यौन हिंसा के आरोपितों का धर्म, जाति, समुदाय देखकर बोलने की आदत डाल दी है। शुरुआत इस आदत को खत्म करने से ही होगी। (bbc.com/hindi)
- कृष्ण कांत
अच्छा खासा पढ़ा लिखा आदमी कार में बैठते ही उजड्ड और जाहिल कैसे हो जाता है?
सामने लाल बत्ती है, पैदल लोग सडक़ पार कर रहे हैं, वह गाड़ी और तेज कर देता है।
15 लोगों की भीड़ सडक़ पार कर रही है, जिसमें बच्चे हैं, वह उस भीड़ के बीच से गाड़ी निकालता है।
सडक़ पर पानी भरा है, बगल में लोग खड़े हैं, वह स्पीड से गाड़ी निकालता है, खड़े हुए लोग कीचड़ से भीग जाते हैं।
सडक़ पार करता हुआ आदमी हाथ से रुकने का इशारा करता रहता है लेकिन वह वहशी कार वाला कार धीमी भी नहीं करता।
वह खिडक़ी से सिर निकाल कर रिक्शे वाले या किसी पैदल को गाली बक देता है।
वह भीड़ भरे संकरे बाजार में, जहां पैदल चलना भी मुश्किल है, वहां गाड़ी लेकर घुस जाता है और सब पर रौब झाड़ता है जैसे वह धरती का राजा हो।
यह सब मेरे निजी अनुभव हैं। हालांकि, कुछ एक बार ऐसे भी लोग मिले जिन्होंने अपनी कार रोककर लोगों को सडक़ पार करने दी। लेकिन यह अपवाद है।
कार खरीदने से पहले अमीरजादों को समाज में रहने का नियम सिखाना चाहिए।
सरकार को एक ‘कार ड्राइविंग तमीज सीखो’ एकेडमी खोलनी चाहिए और जो लोग ऐसी जाहिलाना हरकत करते पाए जाएं।
उनको यहाँ बंद करके तीन महीने का कोर्स कराना चाहिए और बदले में इनसे कम से कम एक लाख की फीस+जुर्माना वसूलना चाहिए।
अगर आप कार वाले हैं और ऐसी असामाजिक हरकत करते हैं तो यह पोस्ट आपके लिए है। मैं बताना चाहता हूं कि आप जाहिल हैं।
अगर आप ऐसा नहीं करते तो बधाई और इज्जत के पात्र हैं।
भारत का विभाजन, गांधी की हत्या, नेहरू की मौत, इंदिरा और राजीव की हत्याएं, बच्ची निर्भया का दुर्भाग्य कांड, बांग्लादेश का निर्माण, वल्र्ड क्रिकेट में 1983 में भारत का विश्वकप, 1975 में इमरजेंसी, बाबरी विध्वंस, 1984 के सिक्ख नरसंहार, मंडल कमीशन की रपट, जेपी की अगुआई में 1974 का छात्र आंदोलन, 1962 में चीनी आक्रमण और कारगिल युद्ध जैसी घटनाएं भारतीय इतिहास में आसानी से भूलने लायक नहीं हैं। इनके समानांतर कई घटनाओं को इतिहास भूलने सा लगा है।
1971-80 के दशक की पांच घटनाएं चुनकर पत्रकार सुदीप ठाकुर ने करीब 200 पृष्ठों में एक वृत्तांत समेकित किया है। उनमें से उभरकर वस्तुपरक सच किसी तटस्थ लेकिन सक्रिय व्यक्ति को झिंझोड़ सकता है।
किताब को पिछले पृष्ठों से पढ़ेे ंतो खुद सुदीप के अनुसार 1971-80 के दशक में हुई कुछ घटनाएं मसलन गर्भपात को वैधता (1971), बांग्लादेश मुक्ति युद्ध (1971), चिपको आंदोलन (1973), पहला परमाणु परीक्षण (1974), सिक्किम का विलय (1965), आर्यभट्ट का प्रक्षेपण (1975), दूरदर्षन की स्थापना और असम आंदोलन (1979) पर विस्तार से नहीं लिखा गया है। यह लेखक की समझ है कि उसने गरीबी, प्रिवीपर्स समाप्ति, कोयला-कथा, परिवार-नियोजन और आपातकाल जैसे पांच विषयों को चुनकर उन्हें विस्तारित, व्याख्यायित और सिलसिलेवार तार्किक किया है। पांचों मुद्दे लोकतंत्र की बुनियाद में पैठ गए हैं।
इंदिरा गांधी ने 1971 में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था। सुदीप ने लिखा कि शायद जयराम रमेश जैसे कांग्रेस नेता या अन्य तरह से जानकारी मिली कि यह सूत्र कांग्रेस के कद्दावर नेता सी. सुब्रमण्यम के सुझाव पर इंदिरा ने राजनीति-सुलभ किया था। इस पार्टी में रहने के कारण मुझे अच्छी तरह याद है कि महासचिव श्रीकांत वर्मा ने अपने दफ्तर में बैठकर रिहर्सल भी किया था कि इंदिरा गांधी को यह कहने ‘मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, और वे कहते हैं इंदिरा हटाओ’ के ध्वनि संयोजन की बारीकियों को भी वे शिद्दत के साथ तलाश रहे थे। भारत की गरीबी को लेकर सुदीप-कथा कांग्रेस पार्टी के पितामह कहे जाते दादा भाई नौरोजी की 1876 में लिखी किताब के हवाले से है।
सुदीप ने यह सब विस्तार में विष्लेषित नहीं किया। लेकिन जानकारियां, सूचनाएं, सांख्यिकी और कई विचार सूत्र बेहद तरतीब के साथ पेष कर दिए हैं। जो कह सकना चाहिए था, वह बिना कहे भी कह भी दिया है। आज ‘गरीबी हटाओ’ का नारा कितना विकृत होकर 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राषन की सरकारी भीख के रूप में तब्दील हो गया है।
कोयला भारतीय राजनीति और आर्थिक जीवन में एक तरह की भूमध्य रेखा की तरह संतुलन की तुला पर डंडी भी मारता है। वही कोयला इंदिरा गांधी के कार्यकाल मे कई गफलतें कर रहा था। कोयला उत्पादक बिहार के क्षेत्र में राजनीतिक गुंडागर्दी, अपराध और हेकड़बाजी को लेकर उजले कपड़ों वाले सियासतदां अपनी नीयत और दिल में लगातार कोयला मल रहे थे। कोयले का राष्ट्रीयकरण इंदिरा गांधी के कारण एक बड़ी राष्ट्रीय घटना हुई। मनमोहन सरकार के समय कोयले की बंदरबांट और हेराफेरी या अन्य आरोप लगाकार महालेखाकार विनोद राय सरकारी पार्टी पर 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपयों के भ्रटाचार की रिपोर्ट उजागर करें, जो बाद में विवादित हो जाए। सुदीप ने माक्र्स को उद्धरित किया है ‘रेलवे भारत में औद्योगिक क्रांति ला देगा और पूरे देश को बदलकर रख देगा।’ तब कोयले से पैदा भाप ही रेलगाडिय़ों को चलाती थी। सुदीप ने यह भी इषारा किया है कि कोयले का निजीकरण हो जाने से इंदिरा सरकार को लगा कि कोयले का उत्खनन और दोहन बहुत अवैज्ञानिक तरीके से पूंजीवाद को प्रश्रय देने के लिए किया जा रहा है। मैं खुद भिलाई स्टील प्लांट का वकील रह चुका हूं। तब निमाई कुमार मित्रा प्लांट के डायरेक्टर थे। उन्होंने मेरी रुचि देखकर एक गवेषणात्मक किताब तीन खंडों की पढऩे के लिए दी थी। उसमें किसी विद्वान प्रो. लहरी ने कोयले के क्रूर उत्खनन को लेकर भारत सरकार को चेतावनी दी थी। बाद में तिस्कृत महसूस करने पर वे संभवत: अर्जेंटीना सरकार के कोयला सलाहकार बनकर चले भी गए थे।
सुदीप ने अपनी किताब में एक एक बारीक बात को अपने तर्कों के सूत्र में पिरोकर पूरा सार संक्षेप सिलसिलेवार लिखा है। उसे और संक्षेप नहीं किया जा सकता था। पूरी किताब सरसरी तौर पर पढऩे से भी एक तात्कालिक प्रतिक्रिया मांगती है। यादों की गुमशुदगी भी होती है। यह पुस्तक एक तरह से यादध्यानी या रिफ्रेंस की भी है। इसे गजेटियर की तरह भी पढ़ा जा सकता है। सुदीप ठाकुर ने इतनी ज्यादा किताबों, फाइलों और पत्रिकाओं को खंगाला है, जो परिशिष्ट में संदर्भित है। यह भी दिलचस्प है कि उन्होंंने नई तकनॉलॉजी का फायदा उठाते हुए कई नामचीन लोगों तक की खोज-खबर जज्ब की। ई मेल भेजे। टेलीफोन किया। रूबरू भी मिले और इस तरह अपनी किताब की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता को लेकर लोगों से केवल विषेषणों की गिफ्ट नहीं मांगी।
डॉ. आर.के. पालीवाल
मणिपुर में हिंसा और उसमें भी निरीह महिलाओं पर क्रूरतम अत्याचार करते शैतानी झुंड साबित करते हैं कि जिस समाज से यह लोग आते हैं वह मनुष्य तो क्या पशुओं से भी कहीं बदतर आदिम और बर्बर समाज है। कहने के लिए इन लोगों ने ईसाई या हिंदू धर्म की रंगीन चादरें ओढ़ ली हैं और पश्चिमी सभ्य समाज के कपड़े पहन लिए हैं, लेकिन इनके अंतश में मनुष्यता का लेशमात्र भी मौजूद नहीं है। व्यक्ति के रुप में ऐसे लोग बड़े कायर होते हैं लेकिन भीड़ बनते ही इनकी पशुता शिखर पर पहुंच जाती है। मणिपुर में कभी महिलाओं ने सैनिक बलों की ज्यादती के खिलाफ सामूहिक नग्न प्रदर्शन किया था। उनका मानना था कि मणिपुर से सैन्य बलों को हटा लिया जाना चाहिए। ताजा घटनाओं को देखकर मणिपुर की महिलाएं इतनी डरी हैं कि जिन्हें वे अपना समझती थी उनके खिलाफ खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही। कल्पना कीजिए कि मणिपुर में इतने ज्यादा सैन्य बलों के बावजूद वहां इस तरह की जघन्य घटना घट रही हैं तो सैन्य बलों के अभाव में वहां क्या स्थिति होती।
आदिम और बर्बर युग में जिस राजा की शक्तिशाली फौज होती थी उसकी सेना जीतने के बाद सबसे ज्यादा अत्याचार विजित देश की महिलाओं और उनमें भी युवतियों पर करती थी। द्वितीय विश्व युद्ध तक ऐसा हुआ है और हमारे देश के बंटवारे के समय भी ऐसा हुआ था। लगता था कि आजादी के दंगों के गहरे जख्मों से हम कुछ सीखेंगे लेकिन गोधरा और गोधरा काण्ड के बाद बिल्किस बानो के साथ जो हुआ उसने हमे संकेत दिया था कि वहशी जानवर अभी भी हमारे समाज में छिपे हैं। मणिपुर की घटना ने इसे और ज्यादा पुख्ता कर दिया कि नफरत के बीज केवल हिंदू मुस्लिम में ही नहीं आदिवासी समाज में भी फल फूल रहे हैं। एक तरफ मणिपुर के मुख्य मंत्री दोषियों को फांसी की सजा देने की बात करते हैं और दूसरी तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री और उनके साथी बिल्किस बानो के गुनाहगारों के प्रति नरमी बरतते हैं। संभव है कल नई सरकार मणिपुर के गुनाहगारों के साथ भी इसी तरह की नरमी बरतेगी। राजनीतिक दलों और उनके शीर्ष नेताओं पर इसीलिए जनता कतई विश्वास नहीं करती। महिला पहलवानों का मामला हमारे सामने है। कड़वी सच्चाई यही है कि जहां जितने ज्यादा वोट दिखाई देते हैं या आरोपी जितने ज्यादा शक्तिशाली होते हैं वहां राजनीतिक दल उतना ही गलीजपन प्रदर्शित करते हैं। यही कारण है कि अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी, बृजभूषण शरण सिंह, राजा भैया, आनन्द मोहन और शहाबुद्दीन जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त लोग न केवल सालों साल कानून को ठेंगा दिखाते रहते हैं बल्कि जिताऊ होने के कारण राजनीतिक दलों की कृपा से माननीय सासंद और विधायक भी बन जाते हैं।
कुछ लोग महिलाओं के साथ घृणित कृत्य की आलोचना तो कर रहे हैं लेकिन किंतु परंतु के साथ। बर्बरता सभ्य समाज को शर्मसार करती है और जब यह महिलाओं, बच्चों और वृद्धों के साथ होती है तब तो यह क्रिया की प्रतिक्रिया के अक्सर याद किए जाने वाले सिद्धांत को भी शर्मसार करती है। क्रिया की प्रतिक्रिया बराबरी वालों के साथ थोडी बहुत सहानुभूति पा सकती है लेकिन कुकी दंगाईयों की सजा निर्दोष महिलाओं को दिए जाने का किसी भी दृष्टि से लेशमात्र भी समर्थन कोई हद दर्जे का राक्षस ही कर सकता है। जो लोग दबी जुबान ऐसा कर रहे हैं वे यह भूल जाते हैं कि कल कोई उद्दंड समूह उनके परिवार के निरीह लोगों के साथ भी ऐसा कर सकता है। पूरे घटनाक्रम में यही अच्छा है कि मणिपुर मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को चेताया है कि वह तुरंत कार्यवाही करे अन्यथा न्यायालय इस मामले को देखेगा। सर्वोच्च न्यायालय की अपनी सीमाएं हैं फिर भी उसका यह कदम आम नागरिक के मन में थोडी आशा बरकरार रखने में सक्षम है।
प्रकाश दुबे
नोट बंदी के अगले सप्ताह बांग्लादेश के संसद भवन में लोकसभा अध्यक्ष ने कहा-आपने बहुत देर से नोट बंदी की। भारतीय होने के नाते चौंकने की बारी मेरी थी। उन्होंने बात साफ की-नकली नोट कई रास्तों से भारत में पहुंचते हैं। बांग्लादेश में भारतीय नकली मुद्रा की छपाई कहीं नहीं होती। कहा यही जाता है कि बांग्लादेश से भारी मात्रा में मुद्रा की तस्करी होती है। उसी रात कुछ घंटों बाद भारत में रह चुके बांग्लादेश के नामी पत्रकार ने उलाहना दिया -दोनों देशों के बीच विश्वास के अभाव के कई कारण है। आपने महात्मा गांधी को खोया। वे संत थे।
बांग्लादेश के संस्थापक प्रधानमंत्री के लगभग पूरे परिवार का खून कर दिया गया। हमारी सरकार धार्मिक कट्?टरवादियों से जूझती है। इसके बावजूद मानव तस्करी, पशु तस्करी सहित हर गड़बड़ी के लिए बांग्लादेश पर अंगुली उठाई जाती है। मैंने सहज भाव से पूछा-भारत से कितने लोग लुकाछिपी से बांग्लादेश आते हैं? उत्तेजित होने के बजाय उन्होंने प्रश्न का उत्तर प्रश्न में दिया-हमारे देश में बेरोजगारी है। बेहतर भविष्य की उम्मीद में लोग गैरकानूनी तरीके से प्रवेश करते हैं। आपके अर्ध सुरक्षा बल सीमा पर पहरेदारी करते हैं। इसके बावजूद भारी संख्या में अवैध तरीके से प्रवेश कैसे संभव होता है? न जानते हों, तो जाकर पूछिए कि इनमें महिलाओं की संख्या अधिक क्यों होती है?
सिले हुए कपड़ों और ऐसे ही अन्य रोजगार के कारण बांग्लादेश से गैरकानूनी आवाजाही पर अंकुश लगा है। कुछ प्रश्नों का उत्तर दोनों देशों की पुलिस और अर्धसैनिक सुरक्षा दल से मिल सकता है-जैसे अवैध निकासी कैसे होती है? लुकछिप कर आने वाली महिलाओं को क्या कीमत चुकानी पड़ती है? भारत में उन्हें क्या रोजगार मिलता है? म्यांमार में सैनिक तानाशाही आने के बाद सीमा पार कर नागालैंड, मणिपुर से लेकर मेघालय तक पहुंचने वाले रेलों को कहां ठौर मिला? गांजा-अफीम जैसे मादक पदार्थ उपजाने और उनकी तस्करी करने में उनकी, भारत की सीमा पर बसे जनजाति समूहों और देश भर में भेजकर कमाई करने वाले चेहरों की पहचान में किस प्रकार की दिक्कत है? मेरे भारत महान में सीमा की सुरक्षा की सौगंध खाना आसान है। कुछ महीने पहले केंद्रीय गृहमंत्री ने मणिपुर पहुंचकर मादक पदार्थों की तस्करी करने वालों को चेतावनी दी थी। भारी संख्या में तैनात केंद्रीय बल और पुलिस रोकने में असमर्थ क्यों है?
सीमा की हिफाजत का जिम्मा किसका है? कितनी निगरानी है? इस बात पर संसद में चर्चा होती है। अचरज इस बात का है कि जिस दिन संसद के नए भवन का गृह प्रवेश समारोह होता है उस दिन राजधानी में पहलवानी करने वाली, कुश्ती लडऩे वाली बेटियों की पिटाई होती है। नए सजे-संवरे भवन में जब पावस सत्र का शुभारंभ होता है तब खबर आती है कि यौन शोषण के आरोपी बृजभूषण शरण सिंह की अंतरिम जमानत को स्थायी जमानत में बदल दिया गया है। कुश्ती संघ की कमान भले छोडऩी पड़ी हो, उनकी लंगोटा फटकार हुंकार में कोई अंतर नहीं आया। मामले की जांच करने वाली पुलिस के वकील से पूछा गया-आप अभियुक्त को जमानत देने का विरोध करते हैं? भरी अदालत में उत्तर मिला-हम न जमानत देने का समर्थन करते हैं, न विरोध। अदालत जैसा ठीक समझे। अपराध की जांच करने वाली पुलिस के इस जवाब का मतलब अनपढ़ भी जानता है।
पुलिस, सुरक्षा बल, अदालतें आम आदमी की सुरक्षा के लिए कटिबद्ध हैं। इसके बावजूद बर्बरता और नृशंसता से लदे फदे सैकड़ों हिंसक महिलाओं की पारदर्शिता नोंचते हैं। किसी मूर्ख ने नहीं, बल्कि एक मुख्यमंत्री ने बेझिझक कहा-हमने (4 मई की घटना पर 80 दिन बाद) स्वयमेव संज्ञान लेकर कार्रवाई की। किसे अपना रखवाला मानेंगे? केंद्र सरकार ने सीमावर्ती राज्यों में प्रदेश सीमा के अंदर भी पुलिस के अधिकार अर्धसैनिक बलों को सौंप दिए थे। उसे भी भनक नहीं लगी। जंजीर में जकड़ देने के बावजूद आशंकित होने पर श्वान भौंकता अवश्य है। रखवालों को रोबोट बना देने पर वे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की ताकत के बावजूद सक्षम नहीं हो सकते। पराजित राज्य का महानिदेशक सीधे सीबीआई की कुर्सी पा जाता है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश समेत अनेक राज्यों में परिणाम भुगत चुके हैं। महिला और विशेषकर जनजातीय समुदायों के रखवालों की संख्या कम नहीं है। आदिवासी के मुख पर मूत्रदान करने वाले विधायक-निकटवर्ती के प्रदेश में गुजरात के अनुभवी आदिवासी राज्यपाल हैं । मणिपुर में लज्जा के चीरहरण कांड में पहरेदार की सक्रियता से देश की प्रथम नागरिक से लेकर संबंधित प्रदेश की आदिवासी राज्यपाल तक परिचित हुए। इस तरह के सांकेतिक प्रतिनिधित्व के नफा-नुकसान पर वोट देते समय विचार नहीं किया जाता है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
अंशुल सिंह
बीते गुरुवार को दिल्ली की राउज़ एवेन्यू कोर्ट ने बीजेपी सांसद और कुश्ती महासंघ के निवर्तमान अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह को पहलवानों से जुड़े यौन शोषण मामले में सशर्त जमानत दे दी है।
कोर्ट ने बृजभूषण शरण सिंह के साथ सह-अभियुक्त और कुश्ती महासंघ के पूर्व सहायक सचिव विनोद तोमर को भी जमानत दी है।
अदालत ने दोनों को 25-25 हजार रुपए के निजी मुचलके पर जमानत दी है।
जमानत देते हुए कोर्ट ने कहा है कि अभियुक्त बिना किसी पूर्व सूचना के देश नहीं छोड़ेंगे और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शिकायतकर्ताओं या गवाहों को धमकी या लालच नहीं देंगे।
अदालत की तरफ से मामले में अगली सुनवाई 28 जुलाई तय की गई है।
अदालत में क्या दलीलें दी गईं?
राउज़ एवेन्यू कोर्ट में मामले की सुनवाई एडिशनल चीफ मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट (एसीएमएम) हरजीत सिंह जसपाल ने की और इस दौरान बृजभूषण सिंह की जमानत याचिका को लेकर दिल्ली पुलिस दुविधा में दिखी।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, जज ने जमानत की याचिका पर बार-बार पूछा कि याचिका पर जांच एजेंसी (दिल्ली पुलिस) का क्या रुख है?
जवाब में पुलिस की तरफ से पेश हुए सरकारी वकील ने अदालत से ‘कानून के अनुसार’ याचिका पर सुनवाई करने का आग्रह किया।
जस्टिस हरजीत सिंह ने सरकारी वकील अतुल श्रीवास्तव से पूछा, ‘आपका रुख क्या है? क्या आप याचिका का विरोध करते हैं?’
जवाब में वकील अतुल श्रीवास्तव ने कहा, ‘हां, माननीय। कृपया कानून और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक आदेश पारित करें।’
इसके बाद जज ने पूछा, ‘आप (दिल्ली पुलिस) विरोध कर रहे हैं या नहीं?’
सरकारी वकील ने कहा, ‘दोनों में से कोई नहीं। मेरा निवेदन है कि कानून के अनुसार आदेश पारित करें।’
जज ने वकील अतुल श्रीवास्तव से फिर पूछा कि आपका उत्तर क्या है? हां या ना।
सरकारी वकील अतुल श्रीवास्तव ने कहा, ‘दोनों में से कोई नहीं।’
इसके बाद जज ने अदालती कर्मचारी को अपना फ़ैसला लिखवाया,‘सरकारी वकील का कहना है कि वह न तो जमानत याचिका का विरोध कर रहे हैं और न ही समर्थन कर रहे हैं। उनका केवल यह कहना है कि अदालत को कानून, नियमों, दिशा-निर्देशों और सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के अनुसार जमानत याचिका पर विचार करना चाहिए।’
कानून और अदालत संबंधी मामलों की जानकारी देने वाली वेबसाइट लाइव लॉ के मुताबिक शिकायतकर्ता के वकील हर्ष बोरा ने अदालत में कड़ी शर्तों के साथ जमानत देने की बात कही थी।
वकील हर्ष बोरा ने कहा, ‘यदि माननीय जज जमानत देने के इच्छुक हैं, तो कड़ी शर्तें लगाई जा सकती हैं।’
इस पर आरोपियों के वकील राजीव मोहन ने कहा कि उनकी तरफ से सभी शर्तों का पालन किया जाएगा।
‘जमानत मिलना पुलिस की चूक है’
सुनवाई के दौरान सरकारी वकील ने जमानत का न तो समर्थन किया था और न ही विरोध। उत्तर प्रदेश के डीजीपी रहे विक्रम सिंह सरकारी वकील के इस फैसले पर असहमत दिखाई देते हैं।
विक्रम सिंह कहते हैं, ‘पुलिस और प्रशासन का ये कर्तव्य है कि पूरी शक्ति और सामथ्र्य के साथ अपराधियों को सलाखों के पीछे रखें और उनके भागने के तमाम रास्तों को बंद कर दें।’
‘जमानत निरस्त होने के कुछ आधार होते हैं, जैसे- कोई साक्ष्य को प्रभावित कर सकता है या गवाहों को तोड़ सकता है। बृजभूषण सिंह के मामले में सर्वविदित है कि वो जांच को प्रभावित करने का सामथ्र्य रखते हैं और इसकी प्रबल संभावना है कि वो साक्ष्य के साथ खिलवाड़ कर सकते हैं और गवाहों को प्रभावित कर सकते हैं। इसलिए ये पुलिस की जि़म्मेदारी थी कि इन परिस्थितियों के मद्देनजऱ ज़मानत का पुरजोर तरीके से विरोध करते। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। मैं समझता हूं ये पुलिस और सरकारी वकील की एक बड़ी चूक है।’
मामले में पूर्व डीजीपी सरकारी वकील की भूमिका पर भी सवाल उठा रहे हैं।
विक्रम सिंह कहते हैं, ‘जब वकील ने कोर्ट में कोई स्टैंड नहीं लिया तो आप केस क्यों लड़ रहे हो? पुलिस ने चार्जशीट फाइल की है तो हर सरकारी वकील चाहता है कि आरोपी की सहूलियत कम की जाएं लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उनकी जि़म्मेदारी है कि आरोपी की जमानत का विरोध करें।’
कानून क्या कहता है?
मामले का क़ानूनी पहलू समझने के लिए बीबीसी ने सुप्रीम कोर्ट में वकील विराग गुप्ता और नितिन मेश्राम से बात की।
विराग गुप्ता कहते हैं, ‘भारत के संविधान और कानूनी व्यवस्था के अनुसार अपराधियों को कठोर दंड मिले लेकिन कोई भी बेगुनाह जेल में नहीं रहे। इसके उलट शातिर अपराधी जेल से बाहर और छुटभैये आरोपी सलाखों के भीतर रहते हैं। सीआरपीसी कानून के अनुसार संज्ञेय और गैर-जमानती किस्म के गंभीर अपराध जैसे-हत्या, लूट, बलात्कार और ड्रग्स जैसे मामलों में मजिस्ट्रेट के वारंट के बगैर ही आरोपी को पुलिस गिरफ़्तार कर सकती है।’
‘दूसरी तरफ असंज्ञेय और जमानती किस्म के हल्के अपराध के मामलों में मजिस्ट्रेट के बगैर गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए। एफ़आईआर दर्ज करने के बाद अगर आरोपी की गिरफ्तारी के बगैर पुलिस मजिस्ट्रेट के सामने चार्जशीट फाइल करती है तो फिर ट्रायल शुरु होने पर आरोपी को अदालत में सरेंडर करना होता है। जांच के दौरान यदि पुलिस ने आरोपी की गिरफ़्तारी नहीं की हो तो सामान्यत: ऐसे मामलों में अंतरिम और फिर नियमित जमानत मिल जाती है, जैसा कि बृजभूषण के मामले में हुआ है।’
वहीं वकील नितिन मेश्राम का कहना है कि मामले में अब तक बृजभूषण शरण सिंह की गिरफ्तारी नहीं हुई है इसलिए जमानत पर रोक लगाने का प्रश्न ही नहीं उठता है।
नितिन मेश्राम कहते हैं, ‘चार्जशीट दायर करने से पहले और चार्जशीट दायर करने के बाद अब तक बृजभूषण शरण सिंह की गिरफ्तारी नहीं हुई है। जब उन्हें (दिल्ली पुलिस) को गिरफ्तारी की जरूरत महसूस नहीं हुई तो फिर वो कोर्ट में क्या बोलेंगे?’
‘सामान्यत: चार्जशीट फाइल करने से पहले अगर पुलिस को हिरासत में लेकर पूछताछ करनी हो या फिर मामले से जुड़ी कोई रिकवरी करनी हो तो गिरफ़्तारी की जाती है। अब चार्जशीट फाइल करने के बाद तो हिरासत में लेने का कोई तुक नहीं है। बृजभूषण खुद संसद के सदस्य हैं ऐसे में उनके भाग जाने की संभावना न के बराबर है। ऐसी स्थिति में वो ज़मानत का विरोध क्यों करेंगे?’ लेकिन अगर सरकारी वकील ज़मानत का विरोध करते तो ऐसी स्थिति में क्या होता?
इस सवाल के जवाब में नितिन मेश्राम कहते हैं, ‘अगर सरकारी वकील जमानत का विरोध करते हुए कस्टडी की मांग करते तब भी बहुत हद तक संभव है कि जमानत मिल जाती। कारण है बृजभूषण सिंह की अब तक गिरफ्तारी न होना। जब गिरफ्तारी हुई ही नहीं तो न्यायिक हिरासत या पुलिस हिरासत में क्यों ही रखा जाता?’
नितिन मेश्राम कहते हैं कि क़ानून किसी की प्रताडऩा के लिए नहीं होता है और अगर कोई चाहता है कि बृजभूषण जेल में रहें तो बेहतर है कि उन्हें सज़ा दिलाएं।
जमानत पर किसने क्या कहा?
कांग्रेस की सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की चेयरपर्सन सुप्रिया श्रीनेत ने ट्वीट कर लिखा,
अमित शाह की दिल्ली पुलिस ने बृजभूषण सिंह की बेल पर कोर्ट में कहा, ''हम ज़मानत का ना तो विरोध कर रहे हैं, ना ही हम इसका समर्थन कर रहे हैं। हम न्यायालय के विवेक पर छोड़ते हैं।’
‘उसके बाद बृजभूषण सिंह को बेल मिल गई। ये वो पुलिस है जिसने चार्जशीट में यौन शोषण के गंभीर आरोप लगाए थे।’
टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा ने सांसद बृजभूषण शरण सिंह की संसद में मौजूदगी की तस्वीर ट्वीट की और लिखा, ‘यौन उत्पीडऩ के आरोपी भाजपा सांसद ने यौन उत्पीडऩ और हमले के मामले में जमानत मिलने के बाद कल इस तरह से संसद में प्रवेश किया-विजयी और प्रसन्न। दिल्ली पुलिस ने ज़मानत का विरोध नहीं किया।’
चार्जशीट में कौन सी धाराएं लगाई गई हैं?
सरकारी वकील के अनुसार, राउज़ कोर्ट एवेन्यू में दी गई चार्जशीट के बारे में वरिष्ठ सरकारी अधिवक्ता ने बताया था कि राउज़ एवेन्यू कोर्ट में बृजभूषण सिंह के ख़िलाफ़ दायर की गई पहली चार्जशीट में भारतीय दंड संहिता की धारा 354, 354-ए और 354-डी के तहत आरोप लगाए गए हैं।
वहीं इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, मामले में एक और अभियुक्त विनोद तोमर के ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता की धारा 354 , 354-ए, 354-डी और 506(1) के तहत आरोप लगाए गए हैं।
धारा 354 : स्त्री की शालीनता को ठेस पहुंचाने के इरादे से उसपर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग। एक से पांच वर्ष तक की सज़ा का प्रावधान।
धारा 354 ए_ यौन उत्पीडऩ। तीन साल तक की सज़ा संभव।
धारा 354 डी: पीछा करना। पहली बार दोषी पाए जाने पर तीन वर्ष तक की सज़ा संभव।
धारा 506(1) आपराधिक धमकी। दो साल तक की सज़ा का प्रावधान।
इन धाराओं के अपराध में पुलिस अभियुक्त को बिना वारंट के गिरफ़्तार कर सकती है लेकिन इन सभी मामलों में ज़मानत अभियुक्त का अधिकार है। (bbc.com/hindi)
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
वाराणसी में मेरी मुलाकात जब विख्यात कथाकार श्री काशीनाथ सिंह से हुई तो मैंने उनसे पूछा, ‘कभी आत्मकथ्य जैसा कुछ लिखने का मन नहीं हुआ आपका?’
वे बोले, ‘मैं अपने प्रेम के बारे में लिखना चाहता था लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाया। सोचता था, पत्नी पढ़ेगी, बेटियाँ पढ़ेगी इसलिए साहस नहीं जुटा पाया। अधिकतर बड़े लेखकों ने, जैसे तालस्तोय ने, जवानी में नहीं लिखा, बुढ़ापे में अपने प्रेम के बारे में बताया। मैंने चौंतीस-पैंतीस वर्षों तक अध्यापन किया है, यौवन गुजरा है। जैसा मैं अध्यापक था, जैसी मेरी छबि थी मेरा आकर्षण था, ऐसे अवसर न जाने कितने आए! लेकिन अभी तक लिखने का मन नहीं, नहीं हुआ। अब सोचता हूँ कि लिख डालूँ। परिवार जाने तो जाने। कारण यह है कि आपसे कोई भिन्न व्यक्ति नहीं हूँ।
आमतौर पर मध्यमवर्गीय व्यक्ति का जीवन जैसा होता है, वैसा मेरा रहा। नौकरी की, पढ़ाया, अपना और भाइयों का परिवार चलाया, प्रेम किया, वह सब जो आम तौर पर लोग करते हैं, कोई ऐसी खास बात नहीं रही कि मैं आत्मकथा लिखूँ।
वैसे मेरे पाठकों का ऐसा कुछ लिखने का बहुत दबाव रहा मुझ पर, खास तौर से प्रकाशकों का, किन्तु मुझे अपने जीवन में ऐसा कुछ अलग से नहीं दिखता कि मैं उसे लिखूँ।
‘आप बनारस के पर्यायवाची हैं सर, साहित्यिक अभिरुचि का जो व्यक्ति बनारस आता है वह आपसे मिलना चाहता है। आप बनारस के ‘लीजेंड’ हैं, यह बात आप नहीं जानते, हम जानते हैं। यदि आप आत्मकथा लिखेंगे तो ‘लीजेंड’ बनने के आपके संघर्ष को पढक़र नई पीढ़ी को दिशा मिल सकती है, सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। यह मेरा प्रश्न नहीं, आपसे आग्रह है।’ शैलेंद्र सिंह ने उनसे कहा।
‘आप मुझे इस रूप में देख रहे हैं, मुझे अच्छा लग रहा है। आत्मकथा लिखने का साहस मुझमें नहीं है। इसके लिए ईमानदारी चाहिए, मैं लिखूंगा तो कहीं-न-कहीं बेईमानी कर जाऊंगा। लेखन के साथ, खास तौर से अपने साथ मैं यह बेईमानी नहीं करना चाहता। मैंने अब तक जो कुछ लिखा है, वह ईमानदारी से लिखा है। मैंने बहुत सी आत्मकथाएं पढ़ी हैं, लेखक कई बातें छुपा ले जाते हैं। सजग पाठक समझ जाता है कि क्या छुपाया गया है? आत्मकथा लिखने के लिए जो ईमानदारी चाहिए, वह मुझमें नहीं है, ऐसा मुझे लगता है।’ काशीनाथ सिंह ने उत्तर दिया।
अज्ञेय जी ने कहा था-‘अगर मुझे झूठ लिखना हुआ तो आत्मकथा लिखूंगा।
अगर सच लिखना हुआ तो कहानी।’
‘मेरा कहना है- बड़े लोगों की बड़ी बातें हैं जी। मैं एक साधारण लेखक हूँ। मैंने आत्मकथा लिखी है, एक-एक शब्द सच है। दूसरों के नाम का सहारा लेकर कहानी या उपन्यास लिखना डरपोक लेखकों का काम है। जो किया है तो सीना ठोक कर लिखो और बताओ, ‘यह रहा मेरा जीवन।’
डॉ. आर.के. पालीवाल
देश के राजनीतिक शिखर से कांग्रेस की फिसलन और उसकी जगह भारतीय जनता पार्टी के उठाव के समय केंद्रीय सत्ता में गठबंधन सरकारों का लंबा दौर रहा है। यह वह समय था जब किसी चमत्कारी नेता के अभाव में कांग्रेस लोकसभा में निरंतर कम सीट पाते पाते बहुमत से काफ़ी दूर हो गई थी और दूसरी तरफ़ कांग्रेस की खाली जमीन पर कब्जे जमाती हुई भारतीय जनता पार्टी इतनी सक्षम नहीं हुई थी कि अपने दम पर केंद्र में सरकार बना सके। गठबंधन सरकारों के कुछ लाभ भी हैं और कई बड़े दोष भी हैं। उदाहरण के तौर पर इसके चारित्रिक पतन की शुरुआत नरसिंह राव की सरकार में हो गई थी जिसे सत्ता बचाने के लिए झारखण्ड मुक्ति मोर्चा जैसे क्षेत्रीय सांसदों को घूस देनी पड़ी थी।
गठबंधन सरकारों में सबसे यादगार दौर अटल बिहारी बाजपेई की एन डी ए गठबन्धन सरकार का था। अटल बिहारी बाजपेई न केवल तत्कालीन भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेता थे बल्कि उनकी लोकप्रियता विरोधी दलों के बीच भी अच्छी खासी थी। यही कारण था कि उन्होंने अपनी उदारता, सर्व समावेशी व्यवहार और ऊंचे राजनैतिक कद के कारण गठबन्धन को शालीनता से संभाल लिया था। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में गठबंधन सरकार को अच्छे से चलाने के लिए अटल बिहारी बाजपेई जैसा कोई चेहरा नजऱ नहीं आ रहा।
कांग्रेस को फिलहाल बड़े गठबंधन की जरूरत है। उसने करीब छब्बीस दलों को इंडिया नाम के गठबन्धन में शामिल भी किया है।भारतीय जनता पार्टी अपनी जीत की हैट्रिक करने के लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं छोडऩा चाहती। इसलिए उसने भी विरोधी खेमे के गठबन्धन से बचे अड़तीस छोटे दलों को इक_ा कर लिया है। ऐसा लगता है कि भारतीय जनता पार्टी ने भी यह स्वीकार कर लिया है कि विरोधी दलों की एकता के सामने अगली सरकार वह भी अपने बूते नहीं बना सकती।
विरोधी दलों ने अपने गठबंधन के लिए इण्डिया नाम चुना है।राष्ट्रीयता का यह प्रतीक तो अच्छा है लेकिन इससे अंग्रेजियत की बू आती है। दूसरे कुछ साल पहले भारतीय जनता ने भाजपा के इंडिया शाइनिंग के अंग्रेजी नारे को अस्वीकार कर दिया था। इसके अलावा भी विरोधी दलों की एकता में अभी और भी कई पेंच हैं।बिहार की पहली बैठक विरोधी दलों की एकता के लिए यू पी एस सी की प्रारंभिक परीक्षा जैसी थी। पटना में नीतीश कुमार और लालू यादव का गृह प्रदेश और साझा सरकार होने के कारण उन्हीं का बोलबाला था लेकिन कर्नाटक आते आते विरोधी दलों की एकता पर कांग्रेस हावी दिखी। बैंगलुरु में नितीश कुमार के विरोध में कुछ पोस्टर लगने से नितीश कुमार नाराज बताए जा रहे हैं, हालांकि गठबन्धन ने इन पोस्टरों के पीछे भारतीय जनता पार्टी का षडयंत्र बताया है। अभी मुंबई में होने वाली तीसरी बैठक से भी ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। संभव है कि मुंबई की तीसरी बैठक में अपनी टूटी फूटी पार्टी के साथ उद्धव ठाकरे और शरद पवार अपने रंग में आएं और गठबंधन के सेहरे को अपने सिर पर रखने की कौशिश करें।
बैठकों के लंबे दौर के अलावा अभी तक विपक्ष ने जमीन पर कोई साझा तैयारी नहीं की है। अधिकांश सक्षम दलों के नेता, यथा शरद पवार, सोनिया गांधी और राहुल गांधी एवम नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव आदि के चार्टर्ड प्लेन से बैंगलुरु पहुंचने के समाचार हैं।इसी तरह भाजपा के नेतृत्व में राजग की बैठक भी पंच सितारा होटल में संपन्न हुई है। चार्टर्ड प्लेन, पंच सितारा होटल और नेताओं की घोषित और अघोषित संपत्तियों के आंकड़े देखकर यह बात तो साफ हो जाती है कि देश के निन्यानवे प्रतिशत नागरिकों का राजनीति में कोई स्थान नहीं रहा। वे सिर्फ मोहरे, एक वोट और एक संख्या बनकर रह गए । ऐसी परिस्थितियों में कभी इधर कभी उधर लुढक़ने वाले नेता और राजनीतिक दल गठबंधन कर आम जनता की भलाई के बजाय अपना ही स्वार्थ सिद्ध करेंगे।
अजीत साही
एक बाल्टी लीजिए। उसमें चौथाई लेवल तक मिट्टी डालिए। फिर उस पर कुछ इंच बालू डालिए। फिर ऊपर से एक जग पानी डालिए। कहाँ गया पानी? बालू से होते हुए मिट्टी के अंदर।
एक दूसरी बाल्टी लीजिए। उसमें चौथाई लेवल तक मिट्टी डालिए। फिर उस पर कुछ इंच गिट्टी डाल कर सीमेंट और बालू का मिक्स ऐसे लगाइए कि मिट्टी न दिखे। जब सीमेंट सूख जाए तो ऊपर से एक जग पानी डालिए। कहाँ गया पानी? कहीं नहीं। सीमेंट के ऊपर पानी ही पानी रहेगा।
जब आप हर ओर ज़मीन पर सीमेंट लगाकरconcrete का जंगल खड़ा कर देंगे तो बाढ़ तो आएगी ही। जितने मकान और बिल्डिंग बनाएँगे उतना बाढ़ का प्रकोप बढ़ेगा। क्योंकि पानी जमीन के अंदर जा ही नहीं पा रहा है तो आपके आँगन और आपकी सडक़ पर ही रहेगा। इसमें कोई भी सरकार क्या करेगी?
प्रकृति का नियम ये है कि बारिश का पानी जमीन में जाता है। इससे groundwater का स्तर उपर रहता है और जंगल हरा-भरा रहता है। साथ ही groundwater नदियों तक भी पहुंचता है तो नदियां भी जीवंत रहती हैं।
लेकिन concrete का जंगल खड़ा होने से ज़मीन में पानी जाना बंद हो गया। जंगल हम वैसे ही काटते जा रहे हैं। क्योंकि हमें मकान बनाने हैं। फैक्ट्रियां बनानी हैं। जब सालों-साल पानी जमीन के अंदर नहीं जाएगा तो groundwater भी खत्म होगा और नदियों तक भी नहीं पहुंचेगा। पिछले तीस-चालीस सालों में भारत भर में groundwater कई फीट नीचे जा चुका है। लोग जमीन खोदते जाते हैं और पानी दिखता तक नहीं है।
1960 के दशक मेंGreen Revolution शुरू हुआ। भारत भर में मशीनों के इस्तेमाल सेgroundwater जमीन से खींच कर खेत सींचे जाने लगे। बड़ी-बड़ी नहरें बनाई गईं। फसलें लहलहाने लगीं। देश में अनाज का संकट खत्म हुआ। लेकिन उस क्रांति का भुगतान आज की पीढ़ी कर रही है। क्योंकि सत्तर सालों में जिस मात्रा में जमीन के नीचे से मशीन से पानी खींच लिया गया है उस मात्रा में पानी वापस जमीन में पहुंचा ही नहीं है। यही वजह है कि भारत में हर ओर अब हर साल सूखा पडऩे लगा है।
बारिश हो तो बाढ़। बाकी वक्त सूखा।
और बारिश भी अब कम होने लगा है। हमारे बचपन में बरसात के मौसम में महीनों झमाझम बारिश होती थी। पानी जमीन के अंदर जाता था। जमीन से पेड़ों में जाता था। अगले साल जब गर्मी पड़ती थी तो जंगल के पेड़ों से पानी उड़ कर आसमान की ओर जाकर बादल बनता था और फिर बारिश होती थी। यही सिलसिला था। लेकिन अब जमीन में पानी है ही नहीं तो गर्मी में उड़ कर कहाँ से आसमान में जाएगा? बादल कैसे बनेंगे?
आज से पचास साल पहले भारत की आबादी पैंसठ करोड़ थी। आज एक सौ चालीस करोड़ से भी ज़्यादा है। लेकिन पानी की प्रति व्यक्ति खपत पचास साल पहले से कई गुना बढ़ गई है। पचास साल पहले मेरे भाई का और मेरा परिवार एक घर में रहते क्योंकि वो joint family का दौर था। आज I, me, myself का दौर है। Nuclear family का दौर है। मुझे भी 3xBHK चाहिए और मेरे भाई को भी। जितने घर बनेंगे पानी की उतनी खपत बढ़ेगी।
और घर बनाने में ही नहीं घर के अंदर भी पानी के बगैर कुछ नहीं हासिल होगा। आज gadgets का दौर है। गैस स्टोव। स्मार्टफोन। कार। कंप्यूटर। प्रिंटर। माइक्रोवेव। फ्रिज। वाशिंग मशीन, टीवी, एसी, ऐसा कोई सामान नहीं है जिसके निर्माण फैक्ट्रियों में न होता हो। फैक्टरी बिजली और पानी से चलती है। पूरे भारत में फैक्ट्रियां ताबड़तोड़ पानी बहा रही हैं। आप भारतीय उद्योग को लगातार बढ़ते देखते रहना चाहते हैं। आपकी इस लालसा की कीमत आपका पानी है।
यही वजह है कि पिछले चालीस सालों में भारत में कंस्ट्रक्शन बिजनेस चरम पर पहुँच गया है। इसकी कीमत हम पानी बरबाद करके चुका रहे हैं। बालू मिलाकर ही सीमेंट से इमारत बनती है। इसलिए दशकों से पूरे भारत में नदी किनारे से बालू कांच कांच कर बालू माफिया कंस्ट्रक्शन बिजऩेस को बेच रहा है। इस बालू माफिया को जिसने चुनौती दी वो मौत के घाट उतारा गया, क्या पत्रकार और क्या अधिकारी। छह महीने पहले ओडि़शा में बालू से लदी एक ट्रक को चेक करने वाले ढ्ढ्रस् अधिकारी पर ऐसा हमला हुआ कि उनको अस्पताल का रुख करना पड़ा। कर्नाटक में बालू माफिय़ा के खिलाफ एक्शन लेने वाले ढ्ढ्रस् अधिकारी डी के रवि 2015 में अपने घर में छत से लटके पाए गए। दस साल पहले यूपी में ढ्ढ्रस् अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को बालू माफिया के खिलाफ एक्शन लेने की वजह से सस्पेंड कर दिया गया था। पूरे देश में बालू माफिया के मालिक राजनीति में शहंशाह हैं। बालू के गैर-कानूनी व्यापार का अरबों रुपया राजनैतिक पार्टियों को जाता है।
कांच कांच कर बालू खत्म कर देने की वजह से क्या यूपी और क्या तमिलनाडु, हर जगह नदियाँ बरबाद हो गई हैं। पहले बालू पानी सोखता था। अब बालू ही नहीं बच रहा है। नदियों के किनारे किनारे concrete ·के riverfront खड़े हो गए हैं। लोग ताली पीटते हैं वाह मोदी जी वाह। लेकिन नदी को जिंदा रहने के लिए दोनों ओर concrete नहीं खुली जमीन और बालू चाहिए। नदियाँ साँस नहीं ले पा रही हैं इसलिए सूख रही हैं।
चंद्रशेखर राव और चंद्रबाबू नायडू
दिनेश आकुला
नई दिल्ली और बेंगलुरु में एक साथ उठे राजनीतिक तूफान के धूल के बाद, ध्यान इस तथ्य पर जाया कि कांग्रेस-नेतृत्त इंडिया और भाजपा-नेतृत्त एनडीए जैसे दो राष्ट्रीय गठबंधनों ने तेलुगु राज्य के दो प्रमुख नेताओं, चंद्रशेखर राव और चंद्रबाबू नायडू, को अनदेखा करने का फैसला किया है, जो राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका निभाने के इच्छुक हैं।
भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के संस्थापक और मुख्य नेता के रूप में तेलंगाना राज्य के मुख्यमंत्री और पूर्व आंध्रप्रदेश मुख्यमंत्री और तेलुगु देशम (टीडी) के सर्वोच्च नेता चंद्रबाबू नायडू ने दोनों महागठबंधनों से आमंत्रित होने की कोशिश की है।
तेलुगु राजनीति के इन दो ‘चंद्रों’ ने राष्ट्रीय स्तर पर महत्वाकांक्षी भूमिका निभाने का प्रयास किया है- जहां राव एक विरोध-मोदी महागठबंधन का हिस्सा बनना चाहते हैं, वहीं नायडू मोदी-नेतृत्त मुख्य दल का हिस्सा बनना चाहते हैं।
तेलंगाना राज्य में, राव की प्रशासनिक क्षमता सबसे कठिन चुनावी चुनौती का सामना कर रही है। तीसरे निरंतर कार्यकाल के लिए उनका प्रयास मजबूत और बढ़ती हुई विपक्षी भावनाओं के साथ आपात्तियों का सामना कर रहा है। इसके पश्चात, उन्होंने तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) को राष्ट्रीय राजनीति में उपयोग करने के इरादे से उसे भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) में बदलने का निर्णय लिया था। हालांकि, यह रणनीति एक के बाद एक गलती साबित हुई है।
वर्तमान में, राव को अपनी जनसामान्य प्रतिष्ठा में सुधार की आवश्यकता है, चाहे वह राज्य स्तर पर हो या राष्ट्रीय स्तर पर। वह अपनी पहलों के अयोग्यता के लिए ही जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि बाहरी कारक और निरंतर बदलती राज्य-स्तरीय गतिशीलता ने राष्ट्रीय मंच पर नकारात्मक प्रभाव डाला है।
2018 विधान सभा चुनावों में, भाजपा ने 119 सीटों में से केवल एक सीट जीती। राव की चतुर राजनीतिक चालों के परिणामस्वरूप, कांग्रेस प्रमुख परिपक्व विपक्षी बनी रही। इस परिणामस्वरूप, टीआरएस ने सदन में 100 सदस्यों की अधिकांशता हासिल की और राज्य में अपनी प्रभुत्वता को मजबूत किया।
फिर अचानक से, चार महीनों में 17 लोकसभा सीटों में भाजपा ने एक मोदी के साम्राज्य पर उठाई हुई लहर के साथ में से चार सीटें जीतीं। इसमें से एक निजामाबाद की जीत है, जहां अरविंद धर्मपुरी ने राव की बेटी कविता को हराया। इससे कई उपनिर्वाचन और जीएचएमसी चुनावों को गति मिली, जिसमें भाजपा ने स्थिर रूप से बढ़ोतरी की और उसे उसका एकमात्र विरोधी दिखाई दी, जिससे राष्ट्रीय आंदोलनों को मजबूती से विरोध-मोदी बनना पड़ा।
भाजपा ने मुनुगोडे उपचुनाव और कर्नाटक राज्य चुनावों के बाद राजनीतिक दंडोलन में कमजोरी की तरफ से घट कर दिया है। तेलंगाना में कांग्रेस अद्भुत रूप से सुधार हासिल कर रही है, जिससे यह स्पष्ट रूप से दिख रहा है।
वहीं, राव ने देशभर में यात्रा की, अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं से मिलने का प्रयास किया और कांग्रेस और भाजपा के अलावा एक गठबंधन बनाने की कोशिश की, लेकिन यह असफल रहा।
कांग्रेस और भाजपा दोनों उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, जिसके कारण चंद्रशेखर राव को दोनों प्रचारमें से हटना पड़ा है, इच्छानुसार या अनिच्छानुसार। इसके अलावा, दिल्ली के शराब स्कैम में उनकी बेटी के खिलाफ श्वष्ठ और ष्टक्चढ्ढ के कार्रवाई पंडिंग होने के कारण, उनके हाथ अधिक तंगले में फंसे हुए हैं, जो एक विरोध-मोदी बाहुल्य में उन्हें डालता है।
किसी भी स्थिति में, वह राज्य चुनावों के बाद ही स्वतंत्र हाथ प्राप्त करेंगे। हालांकि, परिणाम के अलावा, राज्य और राष्ट्रीय चुनावों के बीच की छोटी अवधि मुख्य रूप से 2024 चुनाव से पहले बीआरएस द्वारा निभाई जा सकने वाली भूमिका का निर्धारण करेगी।
क्योंकि, तेलंगाना के अलावा, आंध्र प्रदेश में राज्य चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ आयोजित होंगे, और टीडी विपक्षी है, इसलिए चंद्रबाबू नायडू को राव की तरह उसी स्वतंत्रता और लचीलापन की सुविधा नहीं है।
जबकि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और यएसआरसी के अध्यक्ष वाईएस जगन मोहन रेड्डी ने किसी भी गठबंधन में शामिल होने के खिलाफ सिद्धांतपूर्ण रुप से अपनी स्थिति बनाई रखी है, अपने वरिष्ठ और आसपासी सहकारी बीजेडी नेता नवीन पटनायक से सबक सीखते हुए, नायडू एनडीए में फिर से शामिल होना चाहते हैं।
लेकिन उनकी घर वापसी प्राप्त करने के सभी प्रयास व्यर्थ रहे हैं। उनकी आत्मसमर्थन की कोशिश के बावजूद, उन्हें निमंत्रण नहीं मिला, हालांकि टॉलीवुड सेलिब्रिटी और जनसेना के अध्यक्ष के पावन कल्याण को आमंत्रित किया गया था।
पवन कल्याण भाजपा, टीडीपी और जनसेना के बीच एक सुपर-गठबंधन बनाने के इच्छुक हैं, जिससे वह वाईएसआरसी का सामना कर सकें, लेकिन अटल भाजपा उच्च कमान ने नायडू को एक कोने में मजबूर कर दिया है।
यदि टीडी अगले चुनावों को हारती है, जैसा कि अनदेखा हो रहा है, तो नायडू को राज्य या राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना मुश्किल होगा। भाजपा के बिना या बदतर हालत में, अपरिणामी वोट में विभाजन के बिना, जगन मोहन रेड्डी फिर से जीत सकते हैं।
इन दोनों चंद्रों को राजनीतिक ग्रहण के बराबरी में खड़े होना पड़ता है और वे फिर से चमकने के लिए अपने आपको अपने राज्यों में जीतना चाहिए। अन्यथा, काली रात बहुत देर तक चलेगी।
विष्णु नागर
अनेक मित्रों -रिश्तेदारों के फोन आए कि हम लोग सुरक्षित हैं न। बाढ़ का प्रभाव आप पर तो नहीं पड़ा है? पत्नी और मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि हम पूरी तरह सुरक्षित हैं।
आज मैं घूमते-घामते नोएडा की ओर जाने वाली रोड पर निकल आया। वहां सडक़ किनारे पटरी पर बहुत से परिवार देखे, जो निचले इलाकों में रहते हैं, खेती और मजदूरी करते हैं। वे अपने पशुओं को लेकर इधर आ गए हैं। खाट पर बैठे ये ‘अच्छे दिन’ गुजार रहे हैं। कुछ को अच्छे टेंटों में जगह मिली है मगर ऐसे टैंट जरूरत की अपेक्षा बहुत कम हैं।
कहीं कपड़े सूख रहे हैं,कहीं बच्चों की किताबें। बच्चे अमूमन उसी तरह मस्त हैं,जैसे अपने झोपड़ों में भी होते। बड़ों ने भी दुख ओढ़ नहीं रखा है। यमुना पूर हो जाती है तो लाजमी तौर पर यह स्थिति आती है।
पहली बार देख कर यह अच्छा लगा कि यहां इंतजाम ठीक हैं। पहले कभी ऐसा नहीं देखा था। डीटीसी की बीस या अधिक बसें तैनात हैं कि अगर स्थिति विकट होती है तो इन्हें बसों में कहीं और सुरक्षित जगह पर ले जाया जाए। वालंटियर्स मौजूद हैं। पुलिस तैनात है। एनडीआरएफ के लोग अनेक लोगों को सुरक्षित यहां ले आए हैं।
इधर मध्यवर्गीय मयूर विहार में जीवन यथावत है। बाढ़ की चर्चा करनेवाले भी केवल दो लोग ही दिखे।दो स्पष्ट दुनियाएं हैं। मैं तो कल रात से ही आश्वस्त था कि हमें कुछ नहीं होगा। हम मध्यवर्गीय हैं। नियोजित कालोनियों में रहते हैं। हमारे नाखून को भी गलती से चोट लग गई तो कल हमारे दुखों से अखबारों के पृष्ठ पर पृष्ठ रंग जाएंगे। टीवी वाले मेरे पास आएंगे कि सर आप तो लेखक हैं,आपको कैसा लग रहा है?मजा तो आ रहा होगा, इंजॉय तो कर रहे होंगे। लिखने के लिए आपको नई सामग्री मिली होगी। सर, इस बीच आपने कोई कविता जरूर लिखी होगी, सुनाइए न, एक बाढ़ पीडि़त कवि की कविताएं।
अवधेश गिरी
अपने देश में अमृतकाल में हुआ विकास सडक़ों पर बह रहा है। पाकिस्तान ने अपनी सबसे खतरनाक ‘एजेंट सीमा 007 को भारत भेजा ताकि वो हमारे देश मे हो रहे विकास की’ जानकारी जुटाकर पाकिस्तान को भेज सके ।
सबसे पहले सीमा ने नेपाल के रास्ते एंट्री की फिर वो कुछ दिन बाद मुम्बई से ‘बुलेट’ ट्रेन में सफर करके अहमदाबाद पहुची। सफर के दौरान उसने बुलेट ट्रेन से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी एकत्रित करी।
उसके बाद सीमा ने एक एक करके भारत की सौ ‘स्मार्ट’ सिटी मे घूमना शुरू किया। वो सौ स्मार्ट सिटी देखकर अचंभित रह गई। बीच बीच मे उसने सांसदों द्वारा ‘गोद लिया’ गांव भी देखे और उन गांवों को देखकर उसने सोचा कि इतना तो पाकिस्तान में शहर भी विकसित नहीं है जितना कि ये ‘गोदी गाँव’ विकास से ओत प्रोत हैं।
फिर एक दिन सीमा एक प्तचाय की टपरी पर चाय पीने पहुंची। वहां उसने देखा चाय वाला पास के ‘नाले पर बर्तन को उल्टा रखकर गैस इक_ा कर रहा है और उस गैस से ही चाय बना रहा है।
सीमा ये सब देखकर समझ गई की भारत के विकास पुरुष द्वारा दिये गये फॉर्मूले ‘ए स्क्वायर प्लस बी स्क्वायर प्लस ‘टू’ ऐ’ बी’ में एक्स्ट्रा ‘2 ऐ बी’ कहा से आया। उसने इस कोड को डिकोड कर लिया था।
सीमा भारत का विकास देखकर बहुत प्रभावित थी। उसने सोचा काश वो भी भारत में रह पाती।
तभी चाय की दुकान पर बैठे-बैठे उसने देखा कि एक आदमी खून की ‘उल्टियां कर रहा था। सीमा उसकी मदद करने पहुची तो उस युवक ने बताया कि उसका नाम सचिन है और ये खून की उल्टी नहीं ‘राजश्री’ पान मसाले का कमाल है।
सचिन ने एक और ‘राजश्री पान मसाला’ निकाला और मुहं में डाल लिया। राजश्री पान मसाले का रैपर सचिन ने अपनी दो उंगलियो के बीच फसाकर हवा में उड़ा दिया ।
सचिन की ये ‘अदा देखकर सीमा उसे अपना’ दिल दे बैठी।
सचिन के गुलाबी होठ और लाल प्तदांत उसे आकर्षित कर रहे थे।
उसने सचिन से पूछा खर्चा कैसे चलता है, करते क्या हो ।
सचिन ने कहा कुछ नहीं करते हैं, ‘उज्ज्वला योजना से गैस मिल जाती है, 5 किलो राशन तो सरकार दे ही रही है । बीच-बीच में हमारे प्रधानमंत्री ‘बीस लाख करोड, दस लाख करोड़’ जनता को देते रहते है उसी से काम चल रहा है। सचिन ने ये भी बताया कि उसके एकाउंट में ‘15 लाख’ रुपये भी आने वाले हैं ।
सीमा बहुत प्रभावित हुई और सचिन के साथ जीने मरने का फैसला किया और उससे शादी करके भारत में ही रहने लगी ।
‘केसरिया तेरा इश्क है पिया’
डॉ. आर.के. पालीवाल
कभी कभी व्यक्ति या संस्थाओं की एक गलती इतनी बड़ी हो जाती है जिसका खामियाजा बहुत दूर तक भुगतना पड़ता है क्योंकि उसके कलंक के स्याह दाग को धोना असंभव हो जाता है। बिल्किस बानो मामला गुजरात का ऐसा ही मामला बन गया है जिसने न केवल गुजरात बल्कि आजादी के बाद देश का नाम भी बदनाम किया है। पहले तो बहुत साल तक यह मामला गुजरात पुलिस और सीबीआई की जांच में अटका रहा, फिर न्यायालयों की अनंत भूल-भुलैया में भटकता हुआ कई साल बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से सुनवाई के लिए गुजरात राज्य के बाहर मुंबई के कोर्ट में स्थानांतरित होने के बाद ही अंतिम परिणति तक पहुंच पाया था। बहुत लंबे विलंब के बावजूद कई आरोपियों को सजा होने पर भारतीय न्याय व्यवस्था पर लोगों का थोड़ा विश्वास जमा था। यह मामला एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय में सुना जा रहा है।
पिछले साल इस मामले का सच फिर एक बार शर्मिंदा हुआ था जब गंभीर आरोपों के सिद्ध होने के बावजूद अधिकांश सजायाफ्ता अपराधियों के प्रति गुजरात सरकार पंद्रह अगस्त को मेहरबान हो गई थी और जनहित में उन्हें समय के पहले जेल से आजादी दे दी थी। उस समय गुजरात सरकार पर वैसे ही आरोप लगे थे जैसे बिहार में आनंद मोहन सिंह की समय से पहले रिहाई पर लग रहे थे कि यह सब चुनावों की वोट बैंक राजनीति के मद्देनजर हो रहा है। हद तो तब हो गई थी जब रिहाई के बाद इन लोगों का फूल मालाओं से इस तरह स्वागत किया गया था मानों ये देश हित में कोई महान काम करके आए हैं।
पहले गुजरात सरकार सर्वोच्च न्यायालय में इन सजायाफ्ता अपराधियों की समय से पहले रिहाई की फाइल दिखाने में आनाकानी कर रही थी। यदि इन अपराधियों की रिहाई जनहित में की गई है तो जनहित में इसे सार्वजनिक भी किया जाना चाहिए। जनहित में किए गए कार्यों का एक तरफ केंद्र और राज्यों की सरकार बेतहाशा जन धन खर्च कर विज्ञापन करती हैं और दूसरी तरफ कुछ मामलों में सर्वोच्च न्यायालय में भी प्रस्तुत करने से भी गुरेज करती हैं। इसी से यह आभास होता था कि दाल में काफी कुछ काला है। दैनिक भास्कर में छपी एक खोजी रिर्पोट मे कई ऐसे पहलू उद्घाटित हुए हैं जिनसे अब यह कयास सच लगता है कि यह रिहाई के लिए उचित मामला नहीं लगता।
सर्वोच्च न्यायालय के सामने संगीन अपराध के सजायाफ्ता अपराधियों को छोडऩे के गुजरात और बिहार सरकार के दो बहुत संवेदनशील मामले लंबित है। यह भी एक संयोग ही है कि बिल्किस बानो का मामला केंद्र सरकार में सत्ताशीन भारतीय जनता पार्टी की प्रदेश सरकार का है और दूसरा गोपालगंज के तत्कालीन जिला कलेक्टरजी कृष्णैया की हत्या के अपराधी आनंद मोहन सिंह की रिहाई का है, जहां विपक्षी दलों की गठबंधन सरकार है। इन दोनों मामलों की समानता और विशेषता यह है कि इनमें याचिकाकर्ता दो महिलाएं हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से संगीन अपराधों का दंश झेला है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह आम नागरिकों की सरकारों के निर्णय से नाराजगी है जिन्हें हमारा समाज और कानून मानता है। यही कारण है कि आम जनता की सहानुभूति, जो सोसल मीडिया के माध्यम से मुखर हो पाई है, खुलकर सामने आ रही है। सर्वोच्च न्यायालय के सामने एक साथ आए इन दो मामलों में यह समान बात है कि अधिकांश राजनीतिक दल भले ही खुद को महिलाओं और आम लोगों के लिए समर्पित कहें लेकिन वे चुनावों में टिकट देकर, मंत्री बनाकर और सजा से मुक्ति देकर विविध रुप में आपराधिक गतिविधियों में लिप्त लोगों की मदद करते हैं। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय से ही इन दोनों मामलों में न्याय की उम्मीद है। इन मामलों में जो भी निर्णय आएंगे वे ऐतिहासिक महत्व के होंगे क्योंकि उनमें वह मापदंड निश्चित होने की संभावना है जो देश भर में कैदियों की रिहाई के लिए दिशा निर्देश की तरह कार्य करेंगे और अपराधियों के प्रति प्रदेश सरकारों की मनमानी पर कुछ अंकुश लगाएंगे।
शुभ्रांशु चौधरी
पिछले लगभग तीन माह से हम लोग एक गोंडी शांति यात्रा पर निकले हैं। हम लगभग 15 लोग जगह जगह जाकर गोंडी के शब्द तलाशते हैं और साथ में लोगों से बस्तर में सुख और शांति कैसे आए इस पर बातचीत भी करने का प्रयास करते हैं। कहावत है चार कोस में पानी बदले, आठ कोस में बानी तो थोड़ी थोड़ी दूर में गोंडी भी हर भाषा की तरह बदल जाती है।पर दूरदराज के लोगों से बातचीत करने के लिए जैसे हम मानक हिंदी का प्रयोग करते हैं ( हिंदी की 49 बोलियाँ हैं जैसे भोजपुरी, बुंदेलखंडी, बघेलखंडी आदि)। गोंडी शब्द संग्रह के बाद एक मानक गोंडी शब्दकोश बनाने का प्रयास है जिससे कहीं के भी गोंडी बोलने वाले लोगों के साथ बातचीत हो सके।
मध्य भारत में माओवादियों की सम्पर्क भाषा गोंडी है। यदि उनसे बात करना है तो मानक गोंडी ज़रूरी है।जब भी मैंने माओवादियों के साथ समय बिताया लगभग हर बैठक में मैंने यह पूछा आपमें से कितने लोग हिंदी समझते हैं। अक्सर बहुत कम हाथ ही उठे।बस्तर में दो तरह के आदिवासी हैं एक सडक़ किनारे रहने वाले और हिंदी बोलने वाले और दूसरे जंगल में रहने और गोंडी बोलने वाले। अधिकतर इस दूसरी तरह के लोग माओवादियों के साथ जुड़े। माओवादियों में लगभग 50त्न लड़ाके लड़कियाँ हैं और उनमे से अधिकतर सिर्फ गोंडी जानती हैं। यदि इस समस्या को हल करना है तो इन सभी से बात करना बहुत ज़रूरी है।
इस यात्रा के दौरान हम लोगों ने सडक़ किनारे शहरों में ही लोगों से बात करने की कोशिश की यह जानने के लिए कि उनके अनुसार इस समस्या का समाधान कैसे हो सकता है। सभी ने एक सुर में कहा कि बातचीत के सिवाय और कोई तरीका नहीं है। हमें किसी तरह दोनों लड़ रहे पक्षों के बीच बातचीत शुरू करवानी पड़ेगी।लोगों ने इन बैठकों में प्रस्ताव भी पारित किए। उन्होंने छत्तीसगढ़ की सरकार को यह याद दिलाना चाहा है कि उन्होंने पिछले चुनाव के पहले ‘इस समस्या के समाधान के लिए बातचीत के गम्भीर प्रयास करने’ का वादा किया था। उन्होंने इन प्रस्तावों में माओवादियों से भी यह आग्रह किया है कि वे ‘आदिवासी अधिकार’ को लेकर बातचीत करें
लोगों का सोचना है कि भारतीय संविधान आदिवासियों के लिए काफ़ी है यदि उसके आदिवासी समर्थक कानून जैसे पेसा, पाँचवी अनुसूची आदि सही रूप से लागू हो जाएँ, जिसे माओवादी सरकार से बात कर वास्तविकता बना सकते हैं। नेपाल में जब बातचीत हुई थी तो माओवादियों ने नेपाली लोगों के लिए धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र हासिल किया था (इससे पहले नेपाल एक हिंदू राष्ट्र और राजतंत्र था) वैसे ही अगर यहाँ बदले में माओवादी हिंसा छोडऩे का वादा करें तो भारतीय संविधान में लिखे आदिवासी समर्थक क़ानून भी यहाँ वास्तविकता बन सकते हैं। लोगों का सोचना है कि पिछले 40 सालों में आदिवासी ने माओवादियों के साथ लड़ते हुए कुर्बानी दी है जिसके बदले में माओवादियों को आदिवासियों के लिए यह करना चाहिए।
पर थोड़े दिन पहले माओवादियों ने एक पर्चा निकालकर कहा है कि लोगों को चैकले मांदी (सुख शांति के लिए बैठकों) में नहीं जाना चाहिए।हममें असहमति हो सकती है जो सामान्य है। असहमतियों को बातचीत से सुलझाने का प्रयास करना चाहिए।इस बातचीत के दौर में हम उन लोगों के पास भी गए जो लम्बे लम्बे समय से जल, जंगल, जमीन और अन्य कई जायज़ माँगों को लेकर धरने में बैठे हैं। उनसे हमारी अच्छी बात हुई। लगभग विषयों पर हमारी सहमति भी है, कुछ विषयों पर असहमति है जिस पर हमने और बात करने का निर्णय लिया। वे लोग भी बस्तर में शांति चाहते हैं
माओवादियों ने हमेशा कहा है कि उनको वार्ता में सरकार से धोखा हुआ है पर वे हमेशा बातचीत के लिए तैयार हैं। उन्होंने बीच में यह बयान भी दिया कि जेल में बंद वरिष्ठ माओवादी नेता बातचीत कर सकते हैं। पर वे लोगों को बातचीत से क्यों रोक रहे हैं यह समझ नहीं आया। क्या लोग इतने नादान हैं कि उनको बरगलाया जा सकता है? हमारी समझ के अनुसार माओवादी जगह जगह लोगों को धरने पर बैठाकर संयुक्त मोर्चा का प्रयोग कर रहे हैं जिसकी अगली कड़ी दोनों पक्षों के बीच आधिकारिक बातचीत होती है। सरकार को इसका सम्मान करना चाहिए। बातचीत शुरू करने के लिए सरकार की शर्तें वास्तविकता से परे लगती हैं।
बस्तर की जनता अब थक गयी है। वे कह रहे हैं कि हिंसा अब बहुत हो गई। दोनों पक्षों को जनता की बात सुननी चाहिए। तमाम असहमतियों के बीच विभिन्न तरह की बातचीत चाहे वह लम्बे समय से चल रहे धरना स्थलों पर हो या शहरों में, बातचीत चलती रहनी चाहिए। हमारी बंदूक़ें आपस में बात करें इससे हमेशा यह बेहतर है कि हम असहमति के बीच भी बात करने की कोशिश करें और समस्याओं का समाधान ढूँढने का प्रयास करें। चैकले मांदी बैठकों में बार-बार यही निकलकर आया कि बस्तर की जनता दोनों पक्षों से यही चाहती है। आशा है दोनों पक्ष उनकी इच्छा का सम्मान करेंगे।
( लेखक नई शांति प्रक्रिया के संयोजक हैं)