विचार/लेख
-अंजलि मिश्रा
रजनीश की बात हो और माँ आनंद शीला का नाम ना आए ऐसा संभव नहीं है। रजनीश कोई बिजनेसमैन नहीं थे लेकिन वो बड़े ब्रांड की तरह बेचे गए थे और उन्होंने इस पर कभी आपत्ति नहीं दिखाई थी।
आज हम अपने देश के जितने बाबा लोगों को देख रहे है वो सब वैसे ही कारोबार कर रहे है जैसे कभी रजनीश ने किया विदेश में। वो जो तब कर चुके उसके बाद लोग, वो सब अब कर रहे है।
रजनीश की सेक्रेटरी माँ आनंद शीला गुजरात से थी वो पहली बार 21 साल की उम्र में रजनीश से मिली थी और उनसे वो बेहद प्रभावित थी। उनका विजन बहुत बड़ा था। वो आध्यात्म और ओशो के ज्ञान को और विचार को शुद्ध कारोबार की तरह बना कर बेच सकने की समझ रखती थी।
वो पॉवर और पैसा दोनों जानती थी उसका क्या कैसे इस्तेमाल करना है वो भी बखूबी जान रही थी। वो इतना सब अकेले अपने दम पर सोच और कर पाई ये आश्चर्य करता है। जिसकी तब कल्पना भी किसी ने नहीं की थी।
पुणे में रजनीश के आश्रम पर लोगों को आपत्ति थी इसलिए वो आश्रम छोड़ दिया गया और तब ये समझा था कि अर्ध नग्नता या नग्नता पर सिर्फ भारतीय को आपत्ति होगी और विदेशी बहुत ओपन माइंडेड होते है वहाँ सब चलेगा। लेकिन ऐसा क्या सच में था?
विदेश में लाखों एकड़ बंजर जमीन खरीद कर उसे संवारना और रहने लायक खूबसूरत बना देना और पूरा काम हो जाने पर रजनीश का महँगी कार में आगमन और फिर मौन अज्ञातवास।
शीला का सब कुछ संभाल लेना। उनका ही हर जगह दिखना, उनका ही सबके सामने रहना और बोलना बताना सबको समझाना किसे आगे क्या करना है। शीला का प्रभाव बढ़ाता गया।
भगवान रजनीश के अनुयायी की संख्या लगातार बढ़ रही थी। वो सडक़ पर हर जगह नजर आने लगे थे वो उन्मुक्त थे किसी बंधन में नहीं बंधे हुए नहीं थे। उनकी स्वच्छंदता वहाँ के लोगों को भी आश्चर्य में डाल रही थी।
रजनीश का उन्होंने हर तरफ प्रचार किया मीडिया का एटेंशन उनको मिल रहा था ,हर कोई उनकी तरफ देखने लगा।
लेकिन बहुत जल्द उनके फॉलोवर्स की हरकतें लोगों को नागवार गुजरी। आश्रम के अंदर क्या चल रहा है जानने की उत्सुकता भी लोग रोक नहीं पाए।
रजनीश किसी से मिलते नहीं थे मौन धारण कर चुके थे, सिर्फ अकेली शीला उनकी स्पोक्स पर्सन बन गई।
सिर्फ वो रोज रजनीश से मिलती वही बताती कि आगे क्या करना है। पुणे के आश्रम से निकल कर रजनीश के नाम का विदेश में एक पूरा शहर बसा सकने का सिर्फ सपना नहीं देख गया उसे शीला ने पूरा भी कर दिखाया।
एक बंजर जगह जहाँ कुछ नहीं था वहाँ एक पूरा शहर बसा देना, वो भी इतना विकसित जिसका पूरा सिस्टम आधुनिक हो ये एक बहुत बड़ा विजन है। लोग विकास होते समय तक चुप थे।
लेकिन जब शहर बस गया और लोग आने लगे और हर तरफ रजनीश के लाल रंग वाले फॉलोवर्स दिखने लगे तो उनको अपनी शांत जगह में खलल महसूस होने लगा ।वो रजनीश के अनुयायी से डरने लगे थे। वो उनको नापसंद करने लगे फिर जल्दी ही उनसे नफरत करने लगे।
आज हमारे देश में बहुत से बाबाओं का प्रवचन चलता है उनके फॉलोवर्स सेवा देने जाते है और बाहर दुकानें सजी रहती है जहाँ कंठी माला अंगूठी से लेकर हर चीज बेची जाती है।
आस्था के आगे निकल, किसी पर विश्वास भरोसा और उसके प्रभाव का असर इस हद्द तक छा जाए कि वो उनके लिये हर कुछ करने तैयार हो जाए। हिप्नोटाइज रजनीश कर लेते थे ये भी कई लोग बोलते है। हर कोई उनके प्रभाव में था। शीला पुणे आश्रम के बाद से भगवान रजनीश की सेक्रेटरी थी। जो पहली बार 21 साल की उम्र में रजनीश से मिली थी और उनके प्रेम में डूब गई या उनके प्रभाव में डूब गई। लेकिन वही थी जिसने रजनीश को एक ब्रांड बना दिया। जिसके फ़ॉलोअर्स विश्व भर में लोग बन गए ।शीला की सोच बड़ी थी।
लेकिन देश हो या विदेश हर जगह बस्ते तो इंसान ही है जो अपने जैसे इंसानों के बीच ख़ुद को सुरक्षित महसूस करता है कोई उनसे अलग दिखे तो उसे शक होता है कि वो उन्हें नुकसान पहुँचा सकता है।
रजनीश पुरम जैसा शहर एक वीराने में बसा देने के बाद जब रजनीश के अनुयायी भारी संख्या में वहा पहुँचने लगे तो उनके तौर तरीके से वहाँ के लोग घबरा गए। और हर तरह से रजनीश के अनुयायी का विरोध किया जाने लगा लेकिन शीला ने बहुत मेहनत से सब खड़ा किया था, वो पीछे हटने और सब छोड़ देने के लिए तैयार नहीं थी। जो लोग उनके विरोध में खड़े हो रहे थे वो उनको नुकसान ना पहुँचा दे इसलिए उनसे ज़्यादा ताक़त का इस्तेमाल वो ख़ुद को और अनुयायी लोगो को प्रोटेक्ट करने के लिए सहेजने लगी।
दोनों तरफ से आक्रमण होने लगे। जिसमें उनको जो सही लगा वो सब उन्होंने ख़ुद के अस्तित्व को बचाने के लिए किया। रजनीश मौन थे उनकी जगह बोल रही थी शीला।
सबके सामने चेहरा था जो सबको बता रहा था सबसे लड रहा था वो शीला का था ।
शीला पर ज़हर देकर मारने के आरोप लगे।
कानून तोडऩे के आरोप लगे। जिसके लिये वो जेल भी गई और बाद में अपने अच्छे व्यवहार की वजह से समय से पहले छूट भी गई।
रजनीश जब शीला पर इल्जाम लगाते है तो वो बेहद मामूली से आम व्यक्ति नजर आते है।
रजनीश को बहुत से लोगो ने पढ़ा है लोग उनके विचार को जानते है लेकिन शीला रहस्य है जिनके बारे में आप सब जानना चाहेंगे लेकिन जान कुछ नहीं पाएँगे। वो अब भी मौन है वो उत्तर बहुत सोच समझ के देती है।
शीला किस तरह की महिला है? हर कोई जानना चाहता है लेकिन इतना जरूर हर कोई जानता है कि वो एक मजबूत महिला है।
नेटफ्लिक्स में ये उपलब्ध है और एक बार देखने लायक डाक्यूमेंट्री है।
तो देख लीजिए भगवान बनने और बिखरकर आम बन जाने की इस पूरी कहानी को।
-हृदयेश जोशी
अपने अस्तित्व के 450 करोड़ साल के कालखंड में धरती पर सामूहिक विलुप्ति (मास एक्सटिंक्शन) की पांच बड़ी घटनाएं हुई हैं। आखिरी विलुप्ति करीब 6.6 करोड़ साल पहले हुई जब विशाल डायनासोर विलुप्त हो गए्, लेकिन स्तनधारियों समेत कई कशेरुकी प्राणियों का अस्तित्व बच पाया। साढ़े छह करोड़ साल बाद आज धरती एक बार फिर अपने अस्तित्व से सबसे बड़े संकट को देख रही है और वैज्ञानिक यह अंदाजा लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि छठी सामूहिक विलुप्ति कितना दूर हो सकती है।
क्लाइमेट साइंटिस्ट कहते हैं कि हम एंथ्रोपोसीन में हैं यानी जब मानव गतिविधियों और कार्यकलापों का पृथ्वी के धरातल और पर्यावरण पर स्पष्ट और बड़ा प्रभावी असर दिखने लगे। विशेषज्ञ बताते हैं कि पिछले 5 सामूहिक विलुप्तियों के विपरीत छठा मास एक्सटिंक्शन पूरी तरह से मानव गतिविधियों (भूमि, जल और अन्य संसाधनों के अंधाधुंध प्रयोग) के कारण होगा।
18वीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई और पिछले 150 सालों में धरती का चेहरा ही बदल गया है। मशीनों का इस्तेमाल और जीवाश्म ईंधन के अत्यधिक प्रयोग ने तरक्की का अद्भुत अध्याय लिखने के साथ धरती को विनाश के कगार पर भी ला खड़ा किया है।
विश्व मौसम विज्ञान संगठन की ताज़ा रिपोर्ट हमें बताती है कि अगले 5 सालों में धरती की तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री के बैरियर को पार कर जाएगी, जिसके बाद अति विनाशकारी आपदाओं को नहीं रोका जा सकेगा। अगले पांच सालों में कम से कम एक साथ धरती के इतिहास में रिकॉर्ड तापमान वाला होगा। अब अर्थ कमीशन (जो कि पर्यावरण और समाजविज्ञानियों का समूह है और जिसके 5 अतिरिक्त विशेषज्ञ कार्य समूह हैं) की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि विभिन्न प्रजातियों के अस्तित्व के लिए और धरती के बचे रहने के लिये जरूरी 8 में 7 लक्ष्मण रेखाएं पार हो गई हैं। अर्थ कमीशन की यह रिपोर्ट नेचर साइंस जर्नल में ऐसे वक्त में प्रकाशित हुई है, जब जर्मनी के बोन शहर में दुनिया के सभी देश महत्वपूर्ण क्लाइमेट वार्ता के लिये इक_ा हुए हैं।
क्लाइमेट विज्ञान की भाषा में इन आठ लक्ष्मण रेखाओं को अर्थ सिस्टन बाउंड्री या ईएसबी कहा जाता है। इन सीमाओं में सुरक्षित और सामान्य जलवायु की तापमान सीमा, सर्फेस वॉटर (नदी, तालाब इत्यादि), भू-जल, नाइट्रोजन, फास्फोरस और एरोसॉल का स्तर और सुरक्षित लेकिन असामान्य जलवायु की तापमान सीमा शामिल हैं। सुरक्षित लेकिन सामान्य जलवायु के लिए अधिकतम तापमान वृद्धि 1 डिग्री है जबकि धरती की तापमान वृद्धि 1.2 डिग्री हो चुकी है और यह लक्ष्मण रेखा मानव तोड़ चुका है। इसी तरह बाकी पैमानों पर भी सुरक्षित स्तर का उल्लंघन हो चुका है केवल सुरक्षित लेकिन असामान्य जलवायु (जिसकी सीमा 1.5 डिग्री तापमान वृद्धि है) ही एक पैरामीटर है जिसका उल्लंघन नहीं हुआ है।
भौगोलिक रूप से देखा जाये तो इनमें से कई लक्ष्मण रेखाओं का बड़ा व्यापक उल्लंघन हुआ है। वैज्ञानियों ने अपनी रिसर्च में कहा है कि इन आठ अर्थ सिस्टम बाउंड्री में से दो या तीन का उल्लंघन धरती के 52त्न भौगोलिक क्षेत्रफल में हुआ है और दुनिया की कुल 86त्न आबादी पर उसका प्रभाव है। वैज्ञानिकों द्वारा उपलब्ध कराये गये नक्शे से पता चलता है कि भारत उन देशों में है जहां क्लाइमेट से जुड़ी इन रेड लाइंस का सबसे अधिक उल्लंघन हुआ है। संवेदनशील हिमालय के निचले क्षेत्र में 5 सीमाओं को तोड़ा गया है।
रिपोर्ट को तैयार करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि यह वो समय है जब मानव ने धरती के अस्तित्व को गहरे में संकट में डाल दिया है। अर्थ कमीशन के संयुक्त-अध्यक्ष जोहन रॉकस्टॉर्म कहते हैं, ‘हम एंथ्रोपोसीन के दौर में पहुंच गये हैं जब हमने पूरे ग्रह के स्थायित्व और पुनर्जीवन क्षमता को खतरे में डाल दिया है।’
रॉक स्टॉर्म कहते हैं कि इस भयावह हालात के कारण ही पहली बार वैज्ञानिक अपनी इस रिपोर्ट में मापने योग्य संख्यायें प्रस्तुत कर पा रहे हैं। इसके अलावा अब एक ठोस वैज्ञानिक आधारशिला प्रस्तुत की गई है जिससे न केवल अर्थ सिस्टम के स्थायित्व और पुनर्जीवन क्षमता बल्कि मानव कल्याण और इक्विटी/ न्याय के संदर्भ में हमारे ग्रह की सेहत का आकलन हो सकता है।
इन वैज्ञानिक जानकारियां और डाटाबेस से हमें खतरे की गंभीरता का तो पता चलता है लेकिन दुनिया के सभी देश इस आसन्न संकट के बावजूद ईमानदारी से कदम उठाने को तैयार नहीं हैं। कोयले और गैस का बढ़ता प्रयोग अब भी दुनिया के तमाम देशों के लिए ऊर्जा और इकोनॉमी का ज़रिया है। दुनिया के कुल कार्बन इमीशन का करीब 40त्न बिजली क्षेत्र से होता है और इतने बड़े संकट के बावजूद विकसित देश बड़ी-बड़ी ऑयल और गैस कंपनियों के कब्जे में दिखते हैं।
धरती के अस्तित्व के लिए जरूरी है कि उसका 50 से 60 प्रतिशत क्षेत्रफल अपने स्वाभाविक प्राकृतिक रूप में संरक्षित रहे लेकिन अर्थ कमीशन की रिसर्च में बताया गया है कि धरती का 40 प्रतिशत हिस्सा भी संरक्षित नहीं रहा और जो बचा है उसकी पुनर्जीवन क्षमता क्षीण हो चुकी है।
स्पष्ट तौर पर यह जैवविविधता के लिये सबसे बड़ा संकट है। दो साल पहले ही सेंटर फॉर साइंस एंड इंवारेंमेंट (सीएसई) ने अपने विश्लेषण बताया कि भारत अपने जैव विविधता प्रचुर (बायो डायवर्सिटी हाट-स्पॉट) क्षेत्रों का 90त्न खो चुका है और इन क्षेत्रों में 25 प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं।
जैव विविधता को लेकर एक दूसरा विश्लेषण बताता है कि 1996 से 2008 के बीच पूरी दुनिया में पक्षियों और स्तनधारियों की प्रजातियों में हुई 60त्न कमी 7 देशों में केंद्रित रही जिसमें अमेरिका, चीन और ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत भी शामिल है। पिछले 50 सालों में धरती पर जंतुओं की दो-तिहाई आबादी मानव गतिविधियों के कारण कम हो चुकी है। यह सारे संकेत अगर सामूहिक विलुप्ति न भी कहें तो एक बड़े आसन्न संकट का स्पष्ट प्रमाण हैं। (downtoearth.org.in/)
- श्रवण गर्ग
पाँच जून के दिन को याद करना और याद रखना जरूरी है। अगले पाँच जून तक तो देश में कई परिवर्तन हो जाएँगे, बहुत कुछ बदल जाएगा, बदल दिया जाएगा! देश नहीं जानता है कि वे परिवर्तन क्या और कैसे होंगे! उनचास साल पहले पाँच जून 1974 को बिहार की राजधानी पटना के ‘गांधी मैदान’ से जिस ‘संपूर्ण क्रांति’ की शुरुआत हुई थी वह आज भी पूरी नहीं हुई है। बहत्तर-वर्षीय जयप्रकाश नारायण उस क्रांति के कृष्ण थे, सारथी और नायक थे। पाँच दशकों के बाद देश एक बार फिर एक नई क्रांति के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है पर उसके पास कोई नायक और लोकनायक नहीं है।
आँखों के सामने रह-रहकर पाँच जून 1974 का पटना, उसका गांधी मैदान और वहाँ से राजभवन तक जाने वाली सडक़ का दृश्य उभर रहा है। मैं उस मंच पर उपस्थित था जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) गांधी मैदान पर लाखों की संख्या में उपस्थित लोगों का ‘संपूर्ण क्रांति’ के लिए आह्वान कर रहे थे। जेपी ने जब घोषणा की कि ‘हमें संपूर्ण क्रांति चाहिए, इससे कम नहीं’ तो पूरा गांधी मैदान तालियों की गडग़ड़ाहट से गूंज उठा था, उसकी आवाज दूर दिल्ली में बैठी इंदिरा गांधी की सत्ता को भी सुनाई पड़ रही थी।
पाँच जून की वह सभा कई मायनों में ऐतिहासिक थी। सभा का प्रारंभ प्रसिद्ध उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा रामधारी सिंह दिनकर की उस कालजयी कविता ( ‘जयप्रकाश है नाम समय की करवट का, अंगड़ाई का/ भूचाल ,बवंडर के दावों से भरी हुई तरुणाई का ‘) के वाचन से हुआ जिसे उन्होंने स्वयं 1946 में गांधी मैदान में ही हुई जेपी की सभा में सुनाया था। रेणु के बाद सर्वोदय दर्शन के भाष्यकार आचार्य राममूर्ति बोले और लोग मंत्रमुग्ध हो उनका एक-एक शब्द हृदय में उतारते गए-‘एक आदमी आया और उसने बिहार की जनता के सिरहाने एक आंदोलन रख दिया । यह देश न जाने कितने काल तक जेपी का कृतज्ञ रहेगा ! जेपी ने इस अधमरे देश को प्राण दिये हैं।’
आचार्य राममूर्ति के बाद जेपी ने बोलना शुरू किया- बिहार प्रदेश छात्र-संघर्ष समिति के मेरे युवक साथियों , बिहार के असंख्य नागरिक भाइयो और बहनो’! जेपी के मुँह से निकलने वाला एक-एक शब्द लोगों के दिलों को भेदने लगा-’ किसी को अधिकार नहीं है कि जयप्रकाश को लोकतंत्र की शिक्षा दे! क्या यह पुलिसवालों का देश है? यह जनता का देश है! मेरा किसी से झगड़ा नहीं है। हमारा तो नीतियों से झगड़ा है! सिद्धांतों से झगड़ा है! कार्यों से झगड़ा है! चाहे वह कोई भी करे मैं विरोध करूँगा। यह आंदोलन अब किसी के भी रोकने से, जयप्रकाश नारायण के रोकने से भी नहीं रुकने वाला है।’
देश की तत्कालीन राजनीति को समझने के लिए गांधी मैदान में हुई इस ऐतिहासिक सभा के पहले तीन और चार जून को हुए घटनाक्रम को जानना ज़रूरी है। पाँच जून की सभा के पहले जेपी के नेतृत्व में एक जुलूस निकलने वाला था जिसे गांधी मैदान से राजभवन पहुँच कर राज्यपाल को ज्ञापन सौंपना था। इसके लिए पूरे बिहार से लोग चार जून से ही पटना में जमा होना शुरू हो गए थे। दिल्ली के आदेश पर राज्य सरकार ने पूरे बिहार में भय का माहौल बनाना शुरू कर दिया था। कम्युनिस्ट पार्टी ऑ? इंडिया इसमें राज्य सरकार का साथ दे रही थी ।
तीन जून की रात गांधी मैदान में ही आयोजित की गई साम्यवादी नेता से एस ए डांगे की सभा में कहा गया कि जयप्रकाश नारायण अमेरिका के एजेंट हैं। विधानसभा भंग करने की माँग करने वालों को बिहार की जनता कुचलकर खत्म कर देगी। ‘जयप्रकाश पर हमला बोल, हमला बोल’ के नारे लगाते हुए और लाल झंडों के साथ -साथ तीर-कमान, बल्लम, फरसे और अन्य घातक हथियार उठाए कोई तीस हजार लोगों के जुलूस के माध्यम से यह प्रदर्शित करने की कोशिश की गई कि जेपी लोकतंत्र को समाप्त कर रहे हैं, प्रतिक्रियावादी ताकतों को बढ़ावा दे रहे हैं।
चार जून की सुबह जब लोग सोकर उठे तो पता चला कि शहर एक कलिे में बदल दिया गया है। पूरे पटना शहर में पुलिस का जाल बिछा हुआ था। हर दो मिनिट में पुलिस की गाडिय़ाँ इधर से उधर जा रहीं थीं। लोग किसी अनहोनी को लेकर विचलित और भयभीत थे। पटना पहुँचने वाली सारी बसें बंद कर दी गईं थी, रेलगाडय़िों के रास्ते बदल दिए गए थे। इस सबके बीच शासन-प्रशासन को खबर तक नहीं हो पाई कि कब और कैसे लाखों लोग रातों-रात पटना पहुँचकर शहर की रगों में समा गए ।
पाँच जून की सभा से पहले जब दोपहर तीन बजे गांधी मैदान से राजभवन के लिये जुलूस निकला तो उसमें कोई एक लाख लोग उपस्थित थे। जुलूस में सबसे आगे जनता द्वारा हस्ताक्षरित प्रतिज्ञा पत्रों के बण्डलों से भरा हुआ ट्रक था । उसके पीछे जेपी की जीप और उसके पीछे जेपी का बिहार। ऐसा जुलूस इसके पहले आठ अप्रैल को पटना की सडक़ों पर उमड़ चुका था। गांधी मैदान से राजभवन तक के रास्ते के दोनों ओर लाखों लोगों की भीड़ आठ अप्रैल की तरह ही उपस्थित थी जैसे कि वह तभी से जेपी की प्रतीक्षा कर रही थी।
इस समय केवल बिहार ही नहीं बल्कि पूरे देश में पटना के जून 1974 जैसा माहौल है। कमी सिर्फ एक है और वह काफी बड़ी है। देश के पास जेपी के कद का कोई नायक नहीं है। कुछ फर्क भी हैं जो काफी बड़े हैं। 1974 में तब की जनसंघ और आज की भाजपा जेपी के साथ मंच पर चढ़ी हुई थी और निशाने पर दिल्ली की इंदिरा गांधी हुकूमत थी। आज भाजपा की मोदी सरकार विपक्ष के निशाने पर है और इंदिरा गांधी का पोता राहुल गांधी उसे विपक्षी दलों के साथ खड़ा उसी पटना के गांधी मैदान से चुनौती देने का साहस बटोर रहा है। जिस ममता बनर्जी ने 1975 में कलकत्ता की सडक़ों पर जेपी की कार के बोनट पर डांस करके अपनी राजनीति की शुरुआत की थी वे ही अब पटना पहुँचकर जेपी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन को पुनर्जीवित करना चाहती हैं। देश प्रतीक्षा का रहा है कि 2023 का जून 1974 का 5 जून बनेगा कि नहीं ?
रिटायर हो गए चीफ जस्टिस एन. वी. रमन्ना जाते-जाते देश को हौसला दे रहे थे कि उनके रहते भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह का अपराध खत्म कर दिया जाएगा। सुनवाई के अंतिम दिन केन्द्र सरकार के तारणहार सेनापति सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बहुत वर्जिश की। कोर्ट को तरह-तरह से आश्वासन दिया कि केन्द्र सरकार इस मामले में गंभीर है। राजद्रोह को लेकर कुछ करना ही चाहेगी। इस फिरकी गेंद में जस्टिस रमन्ना की बेंच फंस गई। समय दिया गया। अगली तारीख जल्दी लगने की संभावना नहीं थी। जस्टिस रमन्ना रिटायर हो गए। राजद्रोह का घिनौना अपराध भारतीय दंड संहिता की धारा 124 में उसकी आंत में फंसा रहा। हालांकि उन्होंने यथास्थिति जैसा आदेश भी किया था।
राजद्रोह देश के जीवन में जहर घोल रहा है। राजनेता, मीडिया, पुलिस और जनता में देशद्रोह, राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह जैसे शब्दों का कचूमर निकल रहा है। देशद्रोह और राष्ट्रद्रोह शब्द भारतीय दंड संहिता में हैं ही नहीं।
गुलाम रहे भारत में राजद्रोह का अपराध भारतीय दंड संहिता में घुस आया था। जब संविधान बन रहा था, तब कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सेठ गोविन्ददास, अनंत शयनम आयंगर और सरदार हुकुम सिंह ने कड़ाई से विरोध किया कि जिस राजद्रोह का आजादी की लड़ाई में विरेाध किया गया, वह घुसा हुआ कैसे है? सांसदों के विरोध के कारण संविधान से राजद्रोह सरकारी अधिनियम के रूप में समाप्त किया गया। अर्थात भारत के किसी कानून में राजद्रोह शामिल नहीं किया जा सकेगा। खुद जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि इस अपराध को हटा दिया जाना चाहिए लेकिन नेहरू के प्रधानमंत्री रहते यह अपराध भारतीय दंड संहिता से हटाया नहीं गया।
राजद्रोह के सबसे बदनाम मुकदमे में एक के बाद एक तीन बार तिलक को गिरफ्तार किया गया। प्रसिद्ध वकील मोहम्मद अली जिन्ना ने राजद्रोह संबंधी कानून की बारीकियां विन्यस्त करते बहस की कि तिलक ने अपने भाषणों में नौकरषाही पर हमला किया है, उसे सरकार की आलोचना नहीं कहा जा सकता। सबसे मशहूर मामला गांधी का हुआ। 1922 में गांधी एक संपादक के रूप में तथा समकालीन पत्र ‘यंग इंडिया’ के मालिक के रूप में षंकर लाल बैंकर पर तीन आपत्तिजनक लेख छापे जाने के कारण राजद्रोह का मामला दर्ज हुआ। गांधी ने कहा हमारा सौभाग्य है कि ऐसा आरोप लगाया गया है। ब्रिटिश कानून का उल्लंघन करना उन्हें नैतिक कर्तव्य लगता है। यह कानून वहशी है। जज चाहें तो उन्हें ज्यादा से ज्यादा सजा दे दें। गांधी को छह वर्ष की कारावास की सजा दी गई। गांधी ने यह भी कहा था कि राजनयिकों पर जितने मुकदमे चलाए जा रहे हैं। उनमें से हर दस में नौ लोग निर्दोष होते हैं। जो लोग सरकार के अत्याचार के खिलाफ बोलते हैं, वे अपने देष से मोहब्बत करते हैं।
यह भी इतिहास का सच है कि संविधान निर्माण की शुरुआत में मूल अधिकारों की उपसमिति के सभापति सरदार पटेल ने राजद्रोह को अभिव्यक्ति की आजादी और वाक् स्वातंत्र्य के प्रतिबंध के रूप में शामिल किया था। सोमनाथ लाहिरी ने इस अपराध को वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की आजादी का रोड़ा बनाए जाने पर बेहद कड़ी आलोचना की। दूसरे दिन ही पटेल ने राजद्रोह के अपराध को जनअभिव्यक्तियों के पर कुतरने वाले सरकार के बचाव के हथियार के रूप में रखने से इंकार कर दिया। फिर भी अपने बाज जैसे जबड़ों में हर तरह के अभिव्यक्तिकारक विरोध को गौरेया समझकर राजद्रोह का अपराध दबा लेना चाहता है।
छात्र उमर खालिद की इनडिपिंडेंट डेमोक्रेटिक यूनियन के बुलावे पर छात्रों तथा बाहरी व्यक्तियों की छोटी सभा हुई। आरोपों के अनुसार भारत विरोधी नारे भी लगाए गए। जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार सभा में अचानक पहुंचे। उन्होंने शायद देश विरोधी नारे नहीं लगाए। फिर भी पुलिस ने उन्हें राजद्रोह के अपराण में गिरफ्तार कर लिया। कन्हैया कुमार कलियुग या द्वापर के कन्हैया नहीं हैं। उन्हें गरीब सुदामा का कलियुगी संस्करण समझना होगा। बिहार के बेगुसराय के पास के गांव के गरीब का बेटा जेल से छूटने एड़ी चोटी का पसीना लगाता रहा। कई टीवी चैनलों पर फूटेज बताते रहे कि उसने देशविरोधी नारे लगाए ही नहीं। पुलिस कमिश्नर ने थक-हारकर कहा कि उसकी जमानत का विरोध नहीं करेंगे। नारे नहीं लगाने वाले गरीब के बेटे को पटियाला हाउस कोर्ट में कलंक बने वकीलों से पिटवाते देखती है। भाजपा विधायक ओपी शर्मा मूंछों पर ताव देकर दिल्ली पुलिस की शह पर अदालत परिसर में कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को लातों घूसों से कुचलता है।
केन्द्र सरकार के इरादे साफ हैं। उसने किसी तरह जस्टिस रमन्ना को अपनी गुगली गेंद में फंसा लिया। इसके उलट मौजूदा विधि आयोग ने केन्द्र को सिफारिश कर दी है कि राजद्रोह को हटाना तो नहीं है। बल्कि उसमें सजा बढ़ाकर सात साल कर दी जाए। अब मामला चीफ जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ को देखना है। तमाम संवैधानिक आधार होने के बावजूद राजद्रोह हटेगा या नहीं? संविधान सभा में जनता को दिए गए वायदों का क्या होगा? 1962 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने केदारनाथ सिंह के प्रकरण में भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह को रखे जाने का इसलिए समर्थन किया क्योंकि संविधान के पहले संशोधन में नेहरू के समय ‘राज्य की सुरक्षा’ का आधार जोड़ दिया गया था, जो खुद नेहरू और पटेल के संविधान सभा मेंं विरोध करने के वक्त नहीं था। फिर भी केदारनाथ सिंह के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने यह नहीं कहा है कि मंत्रियों और अफसरों को देश मान लिया जाए। कहा कि उनकी मुखालफत की जा सकती है।
ये जानना महत्वपूर्ण है कि 1962 में केदारनाथ सिंह के मामले में फैसला होने के बाद देश में प्रतिबंधात्मक कानूनों की बहार आ गई है। भारत के आजाद होते ही मद्रास अशांति की रोकथाम अधिनियम, 1948 ने कथित आतंकवाद विरोधी अधिनियमों के नवयुग का उद्घाटन किया। इस काले कानून का छिपा हुआ मकसद था तेलंगाना में हो रहे किसान आंदोलन को फौज और पुलिस के दम पर कुचल दिया जाए। उसके बाद कई राज्यों ने इसी तरह के काले कानून बना दिए जिससे जनता में शासन के प्रति खौफ पैदा हो। इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम 1950, असम अशांत क्षेत्र अधिनियम, 1955, सशस्त्र बल (विशेष उपबंध) अधिनियम 1958, विधि विरुद्ध क्रियाकलाप रोकथाम अधिनियम, 1967, (उआपा) आंतरिक सुरक्षा अधिनियम 1971, (मिसा) (निरसित) राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980, पंजाब अशांत क्षेत्र अधिनियम, 1983, (निरसित) सशस्त्र बल विषेष अधिकार अधिनियम (1983, 85 और 1991) आतंकवादी एवं विध्वंसात्मक गतिविधि अधिनियम, (टाडा) (1985, 89, 91) (निरसित) आतंकवाद रोकथाम अधिनियम 2002 (पोटा) (निरसित) वगैरह शामिल हैं। पोटा का अनुभव यह भी रहा है कि गुजरात में उसे केवल मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया। एक भी हिन्दू छात्र की पोटा में गिरफ्तारी नहीं हुई।
-अरूण दीक्षित
शुक्रवार, 2 जून 2023 की शाम ओडिशा के बालासोर में हुई भयानक रेल दुर्घटना ने पूरे देश को हिला कर रख दिया है। एक तरफ इस दुर्घटना की असली वजह जानने की उत्सुकता सभी के मन में है तो दूसरी तरफ यह सवाल भी है कि क्या रेल मंत्री को हटाया जाएगा?
फिलहाल इस दुर्घटना पर रेलवे के सभी जिम्मेदार अफसरों ने अपने मुंह और मोबाइल दोनों बंद कर लिए हैं। दुर्घटना के 24 घंटे के बाद भी वे अपने स्तर पर बात करने को तैयार नहीं है।
प्रधानमंत्री भी शनिवार को मौके पर हो आए हैं। रेलमंत्री तो दुर्घटना स्थल पर ही हैं। मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है।24 घंटे बाद भी सही जानकारी सरकार की ओर से नहीं दी जा रही है।
हादसे की पहली शिकार हावड़ा से चेन्नई जा रही कोरोमंडल एक्सप्रेस हुई। वह बाहानगा बाजार रेलवे स्टेशन पर लूप लाइन पर खड़ी मालगाड़ी पर जा चढ़ी। वह पूरी तरह चकनाचूर हुई। उसके कुछ डिब्बे दूसरी ओर से आ रही सर एम विश्वेश्वरैया हावड़ा सुपरफास्ट एक्सप्रेस पर जा गिरे। चूंकि वह रेल ट्रैक हाल ही में हाई स्पीड ट्रेक में बदला गया था इसलिए इन दोनों गाड़ियों की गति 125 किलोमीटर प्रति घंटा के करीब थी। इस तरह तीन गाड़ियां एक साथ टकरा गई। बहुत बड़ा हादसा हो गया।
किसकी गलती से यह टक्कर हुई? क्या टक्कररोधी उपकरण इस टक्कर को बचा सकता था?असली गलती किसकी थी?
यह और ऐसे ही अनेक सवाल सभी की जुबान पर हैं।
हमेशा की तरह सरकार ने जांच कमेटी बना दी है।जब जांच हो जायेगी तब बता देंगे कि गलती किसकी थी!
रेल मंत्रालय को 7 साल कवर किया है।काफी चीजों को नजदीक से देखा है। अभी भी कुछ मित्र हैं रेलवे में। पहली बार ऐसा देख रहा हूं कि दिल्ली से लेकर बालासोर तक सभी जिम्मेदारों के मुंह और मोबाइल दोनों बंद हैं। मौके से जो जानकारी आ रही है उसके मुताबिक मरने वालों की संख्या सरकार द्वारा बताई जा रही संख्या से दोगुनी हो सकती है। घायलों की संख्या भी बहुत ज्यादा है। सरकार उन्हीं का आंकड़ा दे रही है जो अस्पतालों में हैं। जिन लोगों को गंभीर चोट नहीं लगी है उन्हें गिना ही नहीं गया है। इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि सही आंकड़ा सामने आ पाएगा।
दुर्घटना के बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि रेलमंत्री को तत्काल इस्तीफा दे देना चाहिए! विपक्ष के नेताओं ने मांग भी की है। देश के इतिहास में ऐसे उदाहरण भी हैं।
आजादी के 1956 के साल की बात है। अगस्त महीने में हुई रेल दुर्घटना में 112 लोग मारे गए। लाल बहादुर शास्त्री रेल मंत्री थे। उन्होंने प्रधानमंत्री को अपना इस्तीफा भेज दिया। लेकिन उसे स्वीकार नहीं किया गया। इस साल नवंबर में फिर एक बड़ी रेल दुर्घटना हो गई। 144 लोग मारे गए। शास्त्रीजी ने अपना इस्तीफा सौंप दिया। वे अपनी बात पर अड़ गए। उनका इस्तीफा मंजूर किया गया।
1999 में असम के गैसल में बड़ी रेल दुर्घटना हुई। उसमें 290 लोग मारे गए। नीतीश कुमार रेल मंत्री थे। अटलजी प्रधानमंत्री थे। नीतीश ने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दिया। उसे मंजूर किया गया। सन 2000 में ममता बनर्जी रेल। मंत्री थीं। पंजाब में ट्रेन दुर्घटना हुई। ममता ने रेलमंत्री की कुर्सी छोड़ दी।
पिछले नौ साल में यह प्रथा करीब करीब बंद सी हो गई है। 2017 में हुई रेल दुर्घटनाओं के चलते तत्कालीन रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने इस्तीफे की पेशकश की थी। लेकिन प्रधानमंत्री ने उन्हें इस्तीफा नही देने दिया। बाद में कई मंत्रियों पर अलग-अलग आरोप लगे लेकिन किसी को भी मोदी ने हटाया नही है। मंत्री वही हटे जो मोदी की नजर से उतरे। ऐसे लोगों की सूची बहुत लंबी है जिन्हें सिर्फ नापसंदगी की वजह से मंत्रिमंडल से हटाया गया। इनके नाम सभी को याद होंगे। 9 साल का समय इतना ज्यादा लंबा नहीं है कि उनके नाम भुला दिए जाएं!
वर्तमान रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव जोधपुर में जन्में थे। उन्होंने आईआईटी कानपुर से पढ़ाई के साथ विदेश में भी पढ़ाई की है। वह ओडिशा कैडर के आईएएस अधिकारी थे। नौकरी छोड़ कर राजनीति में आए हैं। बीजू जनता दल की मदद से राज्यसभा के लिए चुने गए थे। जुलाई 2021 में मोदी ने पियूष गोयल की जगह इन्हें रेल मंत्री बनाया था।
बताया जाता है कि रेल मंत्री को गुजरात के ही एक बड़े नेता का संरक्षण है। इसकी कई वजह बताई गई हैं। इसी वजह से उन्हें रेलवे जैसा अति महत्वपूर्ण विभाग दिया गया है। इन वजहों में एक व्यवसायिक हित भी हैं।
इसलिए जो लोग इस्तीफा मांग रहे हैं उन्हें यह समझना होगा कि उनके मांगने से इस्तीफा नहीं होगा। वैसे केंद्रीय मंत्रिमंडल में कई ऐसे सदस्य हैं जिन्हें वहां नहीं होना चाहिए था..लेकिन साहब को पसंद हैं..तो मंत्री हैं।
एक बात और..अगर आज रेलमंत्री का इस्तीफा ले लिया गया तो कल सब मणिपुर के लिए गृहमंत्री का इस्तीफा मांगेंगे! ऐसा कहीं होता है क्या!
इसलिए जान लीजिए कि रेलमंत्री का इस्तीफा नहीं होगा! हां लोगों का मुंह बन्द करने के लिए कुछ अफसरों को बलि का बकरा बना दिया जायेगा।
इस दुर्घटना में मरने वालों की वास्तविक संख्या पिछले सालों में हुई दुर्घटनाओं की संख्या से बहुत ज्यादा है। यह बात रेलवे के अफसर मान रहे हैं। लेकिन सबके मुंह बंद हैं। तय हुआ है कि मरने वालों की संख्या को धीरे-धीरे बढ़ाया जाएगा।
यही तो स्टायल है!
फणीन्द्र दाहाल
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में नए संसद भवन का उद्घाटन किया है। इस नए भवन में लगा एक भित्तिचित्र विवाद का विषय बन गया है।
देखने में भित्तिचित्र लगभग सारे दक्षिण एशिया का एक भौगोलिक मानचित्र लगता है। इसमें वर्तमान पाकिस्तान के तक्षशिला और मानसेहरा जैसे इलाके भी हैं।
इसी तरह भित्तिचित्र में नेपाल के लुंबिनी और कपिलवस्तु को भी दिखाया गया है। इस बारे में नेपाल में काफी विरोध किया जा रहा है।
नेपाल के मुख्य विपक्षी दल के नेता ने कहा है कि प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहाल प्रचंड फिलहाल भारत के दौरे पर हैं और इस दौरान उन्हें भारत के इस कदम का विरोध करना चाहिए।
वहीं एक नेपाली इतिहासकार ने टिप्पणी की है कि अखंड भारत का कोई प्रामाणिक ऐतिहासिक आधार नहीं है।
प्रचंड के दिल्ली आने से पहले ही नेपाल में सोशल मीडिया पर इस मुद्दे की खूब चर्चा हुई और उनकी पार्टी के एक नेता ने बीबीसी को जवाब दिया कि लुंबिनी और कपिलवस्तु पर कोई और देश दावा नहीं कर सकता।
इस मामले की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने वाले एक विपक्षी दल के युवा संगठन ने कहा है कि वो इस मामले को लेकर काठमांडू में भारतीय दूतावास के बाहर प्रदर्शन करेंगे।
क्या कहते हैं नेपाली इतिहासकार?
भित्तिचित्र का उद्घाटन भारतीय पीएम मोदी ने रविवार को नए संसद भवन में किया था।
इसमें भारत के राष्ट्रीय प्रतीक, कुछ क्षेत्रों की सीमाएं और मूर्ति जैसी आकृतियां भी शामिल हैं। इसके अलावा नेपाल के कुछ ऐतिहासिक स्थानों के नाम भी इसमें शामिल हैं, जिनमें लुंबिनी और कपिलवस्तु शामिल हैं।
भित्तिचित्र को भारतीय मीडिया रिपोर्ट्स में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘अखंड भारत’ के दृष्टिकोण से भी जोडक़र देखा जा रहा है।
चित्र में तक्षशिला सहित विभिन्न राज्य और शहर शामिल हैं, (जो मौजूदा दौर में पाकिस्तान में हैं) जो प्राचीन भारत का हिस्सा थे।
लेकिन नेपाली इतिहासकारों का कहना है कि लुंबिनी और कपिलवस्तु को भित्तिचित्र में ‘अखंड भारत’ में शामिल करने का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है।
नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय में करीब 40 साल तक इतिहास पढ़ाने वाले प्रोफेसर त्रिरत्न मानंधर का कहना है कि यह कदम गलत है और इससे नेपाल और भारत के रिश्तों के बीच संदेह पैदा होगा।
वो कहते हैं, ‘अगर भारत खुद को अखंड कहता है तो हम भी ‘अखंड नेपाल’ का दावा कर सकते हैं। यदि हम प्राचीन काल की बात भी करें तो समुद्रगुप्त के धर्मशास्त्र के एक अभिलेख में कहा गया है कि नेपाल नामक देश कामरूप और कार्तिपुर के बीच स्थित है। कामरूप असम बन गया और कार्तिपुर कुमाऊँ गढ़वाल बन गया। इसका मतलब ये है कि आज नेपाल जितना बड़ा दिखता है, उसकी तुलना में पहले ये बहुत बड़ा था।’
‘अगर हम और आधुनिक काल की बात करें तो भीमसेन थापा के समय में हम कुमाऊं गढ़वाल से भी आगे तक पहुंचे थे और बारह और अठारह ठाकुराई नामक राज्यों को जीतकर सतलुज नदी तक पहुंच गए थे। कांगड़ा ही एकमात्र ऐसा इलाका था जिसे हम नहीं जीत पाए। वहीं ये पूर्व में तीस्ता तक पहुंच गया था, यानी दार्जिलिंग भी नेपाल के हिस्से में आता था। अगर विवाद पर ही उतरने की नीयत हो तो कोई कुछ भी बोल सकता है।’
अखंड भारत का कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण नहीं होने का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि कुछ पुराणों और अन्य धार्मिक ग्रंथों में ‘भारतवर्ष’ की चर्चा है।
प्रोफेसर त्रिरत्न मानंधर ने कहा, ‘जब हम यहां पूजा या कर्मकांड करते हैं तो हम ‘जम्बूद्वीपे भारतखंडे नेपाल देश' कहते हैं। लेकिन पुजारी जो कहते हैं वह धार्मिक विश्वास है। सिद्ध बात नहीं। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के आधार पर ‘अखंड भारत’ का कोई सवाल ही नहीं है।’
उनका कहना है कि कई लोग ब्रिटिश उपनिवेश से आजादी के बाद ही भारत को ‘अखंड भारत’ मानते हैं।
वो कहते हैं, ‘प्राचीन काल में भारत जैसी कोई चीज नहीं थी। मध्य युग में यह अलग था। ब्रिटिश काल में भी यह अलग था। भारत विशेष रूप से 1947 में स्वतंत्रता के बाद ही अस्तित्व में आया।’
प्रोफेसर मानंधर मध्यकाल में नेपाल और चीन के शासकों के बीच की एक प्रथा को याद करते हैं और सुझाव देते हैं कि इस तरह के पारंपरिक आधार को दिखाकर संदेह पैदा करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘प्राचीन और मध्यकाल में चीनी सम्राट कहा करते थे कि वे स्वर्ग से धरती पर राज करने आए हैं। उसके बाद कहा जाता है कि नेपाल भी हर पांच साल में गणमान्य व्यक्तियों को चीन भेजता था।’
‘वह हमें चीन में शामिल राज्य नहीं मानते थे लेकिन उनका मत था कि नेपाल भले ही एक स्वतंत्र राज्य था, यह चीन के सम्राट को अपना सर्वोच्च नेता मानता था। अब उस धारणा को लेकर चीन उस तरह का व्यवहार न तो दोहरा सकता है और न ही अपनाने के बारे में सोच सकता है।’
क्या कहते हैं पार्टी के नेता?
भारत के नए संसद भवन में लगे भित्तिचित्र पर नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री से लेकर लेखक, टिप्पणीकार और कई आम लोग प्रतिक्रिया दे रहे हैं।
नेता प्रतिपक्ष केपी शर्मा ओली ने कहा है कि भारत जैसे ‘पुराने और मॉडल लोकतंत्र’ के लिए नेपाली जमीन को अपने नक्शे में लगाना और संसद भवन में तस्वीरें टांगना उचित नहीं माना जा सकता।
इसे तुरंत ठीक करने की मांग करते हुए उन्होंने कहा, ‘प्रधानमंत्री को उस नक्शे को हटाने के लिए और इस ग़लती को सुधारने के लिए भारत सरकार से बात करनी चाहिए। जब आप इतनी बात नहीं कर सकते तो भारत के दौरे पर क्यों जाएं?’
ओली के नेतृत्व वाली सरकार ने भारत के कालापानी को अपना हिस्सा बताने के बाद नेपाल के अपने नक्शे को अपडेट किया और कहा ‘हम अपनी एक इंच जमीन भी किसी के कब्जे में नहीं रहने देंगे।’ नेपाल कालापानी पर अपना दावा करता है।
बुधवार को नई दिल्ली पहुंचे प्रचंड पहले ही सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि सीमा मुद्दों सहित अन्य मुद्दों पर वह भारतीय पक्ष से बात करेंगे।
बीते मंगलवार को उनकी पार्टी की एक बैठक में ऐसी ख़बरें आईं कि कुछ नेताओं ने सुझाव दिया था कि अपनी यात्रा के दौरान प्रचंड को भारतीय संसद में भित्तिचित्र का मुद्दा उठाना चाहिए।
माओवादी सेंटर पार्टी के मुख्य सचेतक हितराज पांडेय ने कहा कि चूंकि प्रधानमंत्री भारत दौरे पर जा रहे हैं, इसलिए उन्हें इसकी मामले की हक़ीक़त समझनी चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘बुद्ध का जन्म नेपाल में हुआ था और लुंबिनी और कपिलवस्तु बुद्ध से जुड़ी जगहें हैं। मुझे नहीं लगता कि इस बात को लेकर किसी तरह का भ्रम होना चाहिए कि बुद्ध का जन्म नेपाल में हुआ था और बौद्ध धर्म नेपाल से ही फैलना शुरू हुआ था। यह मामला क्या है, मैं यह समझे बिना क्या कह सकता हूं कि यह कैसे हुआ?’
नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई ने इस सप्ताह ट्विटर पर चेतावनी दी थी कि ‘अखंड भारत’ के विवादास्पद भित्तिचित्र के कारण नेपाल सहित पड़ोसियों के साथ भारत के अनावश्यक और घातक राजनयिक विवाद होंगे।
उन्होंने कहा कि यह घटना दोनों पड़ोसियों के बीच भरोसे का संकट बढ़ा सकती है और भारत के नेतृत्व को समय रहते अपनी वास्तविक मंशा स्पष्ट करनी चाहिए।
एक विपक्षी दल के युवा संगठन ने कहा था कि मामले की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए वो इस सप्ताह काठमांडू में भारतीय दूतावास के बाहर प्रदर्शन करेंगे।
नेपाल में राजशाही की बहाली और हिंदू राष्ट्र को बनाए रखने की मांग कर रहे राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के युवा संगठन ने बुधवार को भित्तिचित्र और सीमा समस्या की तरफ सरकार का ध्यान खींचा।
पार्टी के करीबी राष्ट्रीय जनतांत्रिक युवा संगठन के समन्वयक सुजीत केसी कहते हैं, ‘हमने प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान इस भित्तिचित्र को ठीक करने की मांग करते हुए उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को एक ज्ञापन सौंपा है। प्रधानमंत्री अभी दौरे पर हैं। हम चाहते हैं कि जिस भूमि का भारत ने अतिक्रमण कर लिया है उसे भारत से वापस लिया जाना चाहिए। सीमा से जुड़े अन्य मुद्दों पर दोनों देशों को मिलकर हल करना चाहिए।’
उसी बैठक में गृह मंत्री नारायण काजी श्रेष्ठ ने कहा कि सीमा समस्या को कूटनीतिक तरीके से हल करने के लिए चर्चा हो रही है और सरकार का ध्यान भी इस मुद्दे की तरफ खींचा गया है।
उन्होंने कहा, ‘हम ऐतिहासिक तथ्यों और सबूतों के आधार पर इन मुद्दों को कूटनीतिक तरीके से हल करने की कोशिश कर रहे हैं। वर्तमान मुद्दे पर सभी नेपालियों का नजरिया समान है।’
सोशल मीडिया पर हलचल
सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट ट्विटर पर अपने भारतीय मित्रों को संबोधित करते हुए पत्रकार अमित ढकाल ने प्रश्न किया, ‘नेपाल भी नया संसद भवन बना रहा है। वहां कांगड़ा और तीस्ता को समेट कर ‘अखंड नेपाल’की तस्वीर रखना कितना उचित होगा?’
पीएम मोदी ने 2022 में लुंबिनी का दौरा किया था और वहां की जानीमानी मायादेवी मंदिर के दर्शन किए थे। उस समय उन्होंने कहा था कि वह सौभाग्यशाली हैं कि उन्हें बुद्ध के पवित्र जन्मस्थान पर आने का मौक़ा मिला।
बुद्ध के जन्मस्थान के बारे में अपनी टिप्पणियों के लिए भारतीय अधिकारियों और मीडिया को कभी-कभी नेपाल में विरोध का सामना भी करना पड़ा है।
2020 में, भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि महात्मा गांधी और भगवान बुद्ध जैसे दो भारतीय महापुरुषों को दुनिया हमेशा याद रखेगी।
उनके बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए नेपाल के विदेश मंत्रालय ने कहा कि ऐतिहासिक और पुरातात्विक तथ्य यह साबित करते हैं कि बुद्ध का जन्म लुंबिनी में हुआ था। बाद में, भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि विदेश मंत्री जयशंकर ने संयुक्त बौद्ध विरासत पर चर्चा की थी। उन्होंने कहा कि गौतम बुद्ध का जन्म लुंबिनी में हुआ था, इसके अकाट्य ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाण हैं।
विभिन्न दस्तावेजों के अनुसार, बुद्ध का जन्म लुंबिनी में हुआ था और उन्हें भारत के बोधगया में ज्ञान प्राप्त हुआ। भारत के सारनाथ में ही उन्होंने पहली दीक्षा दी।
उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में उन्होंने निर्वाण हासिल किया था। इस जगह को यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थल के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
मोदी के दौरे के बाद माना गया था कि नेपाल और भारत के बीच बुद्ध की जन्मस्थली को लेकर विवाद हमेशा के लिए सुलझ गया है, लेकिन ताज़ा भित्तिचित्र ने एक बार फिर विवाद खड़ा कर दिया है।
भारत में भित्तिचित्र पर क्या प्रतिक्रिया रही है?
भारतीय जनता पार्टी और पार्टी के राज्य निकायों के कई नेताओं ने 970 करोड़ रुपये की लागत से बने नए संसद भवन और वहां बनाए गए अखंड भारत के भित्तिचित्र को सोशल मीडिया पर साझा किया है।
भारत के संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने ट्विटर पर लिखा, ‘संकल्प स्पष्ट है- अखंड भारत।’
बीजेपी की कर्नाटक शाखा ने ट्विटर पर लिखा कि ये भित्तिचित्र ‘हमारी गौरवशाली महान सभ्यता की ताक़त का प्रतीक’ है।
भारत के राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय के महानिदेशक अद्वैत गडनायक नए संसद भवन में रखी जाने वाली कला सामग्री के चयन में शामिल थे।
द हिंदू अखबार ने, उनके हवाले से लिखा है, ‘प्राचीन काल में भारत के प्रभाव को दिखाने के लिए कला सामग्री का चयन किया गया था।’
वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुताबिक, ‘अखंड भारत’ भारत के विभाजन से पहले के प्राचीन काल के भारत के भूगोल को कवर करता है और यह आज के अफगानिस्तान से थाईलैंड तक फैला हुआ था।
अब वह तर्क दे रहे हैं कि इसे सांस्कृतिक रूप से देखा जाना चाहिए न कि राजनीतिक रंग दिया जाना चाहिए। लेकिन नेपाल से संबंधित विश्व विरासत सूची में शामिल लुंबिनी सहित अन्य स्थानों के भित्तिचित्रों ने ‘अखंड भारत’ को कूटनीतिक और भौगोलिक विवाद का विषय बना दिया है। (bbc.com/hindi/)
बादल सरोज
अपनी चतुराई पर आत्ममुग्ध मामा इस भ्रम में हैं कि इस तरह के दिखावों से प्रदेश की जनता उनका किया-धरा भूल जाएगी। उन्हें जमीन की तपन का अभी भी पूरा भान नहीं है।
बहुत ही घबराए और बिल्लियाये हुए हैं शिवराज सिंह चौहान और उतनी ही सिड़बिल्याई हुई है भाजपा और जनादेश की जेबकटी करके बनी उनकी सरकार। कभी ‘लाड़ली बहना’ योजना के नाम पर सरकारी अमले के दम पर महिलाओं को इक_ा कर उनके बीच हाथ जोड़े, कातर भाव में, घुटने-घुटने चलकर याचक की मुद्रा में घिसटते हुए उनकी तस्वीरें और वीडियो नजर आते हैं, तो कभी अलग-अलग जातियों, उपजातियों के नाम पर आयोगों की घोषणा कर सबको साधने के चक्कर में चकरघिन्नी होते हुए दीखते हैं, तो कभी इतना बौखला जाते हैं कि ‘मैं नहीं जानता कर्नाटक-फर्नाटक को’ जैसे सन्निपाती बयान देने लगते हैं। स्वाभाविक भी है, राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं, इसलिए धरातल की असलियत से वाकिफ हैं -दीवार पर लिखी पराजय की इबारत इतने मोटे और चमचमाते हरूफों में हैं कि उनके राज में मध्यप्रदेश पर थोपे गए सतत अमावस के अँधेरे और लगातार होती बिजली कटौती के बीच भी साफ-साफ पढऩे में आ जाती है। इसलिए उन्होंने शपथ-सी उठाई हुई है कि ऐसा कोई बचने नहीं देंगे, जिन्हें वे चुनाव से पहले ठगेंगे नहीं। तीर्थ-यात्रियों को सरकारी खर्च पर हवाई यात्रा ऐसा ही एक और शिगूफा है।
मई के तीसरे रविवार 21 मई को 32 तीर्थ यात्रियों को लेकर इंडिगो की फ्लाइट भोपाल से प्रयागराज के लिए रवाना हुई। इसमें 24 पुरुष और 8 महिला तीर्थयात्री शामिल थे। इस तीर्थ यात्रा का पूरा खर्च मध्य प्रदेश सरकार उठाएगी। उन्हें विदा करने और उनका हाथ अपने सिर पर रखवा कर आशीर्वाद लेते हुए फोटो खिंचवाने स्वयं शिवराज सिंह हवाई अड्डे पहुंचे। मध्यप्रदेश सरकार साल 2012 से ‘मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन’ योजना चला रही है और अब तक करीब 8 लाख तीर्थ यात्रियों को सरकार के खर्चे पर ट्रेन के जरिए तीर्थ स्थलों की यात्रा करवा चुकी है। सनद रहे कि भोपाल से प्रयागराज तक एक या दो नहीं, 5 रेलगाडिय़ाँ हैं। प्रयागराज वाला जत्था भी ट्रेन से जा सकता था ; मगर उस से वह ब्रेकिंग न्यूज नहीं बनती, लिहाजा यह प्रहसन किया गया। बात एक जत्थे की नहीं है, यह हवाई तीर्थाटन 19 जुलाई 2023 तक चलने वाला है और इस दौरान 25 जिलों के तीर्थ-यात्री 25 फ्लाइट्स से प्रयागराज, शिर्डी, मथुरा-वृंदावन और गंगासागर धाम की तीर्थ यात्रा करेंगे। इन चारों तीर्थों के लिए भी भोपाल से सीधी ट्रेन उपलब्ध हैं- मगर इसके बावजूद पब्लिसिटी के लिए कुछ करोड़ रूपये फूंके जायेंगे। वह भी उस मध्यप्रदेश में, जो आपादमस्तक-सिर से लेकर पाँव तक-कर्ज में डूबा हुआ है।
‘घर में नहीं हैं दाने, मामा चले हवाई तीर्थ कराके वोट भुनाने’ का यह ढोंग वह मध्यप्रदेश सरकार कर रही है, जो अपना जरूरी खर्च चलाने में असमर्थ है। इसके लिए हर महीने 16-17 हजार करोड़ रूपये का कर्जा उठा रही है। रिजर्व बैंक और बाकी बैंकों के ओवरड्राफ्ट की सीमा पार हो चुकी है, इसलिए औने-पौने ऊंची ब्याज दरों पर बाजार से भी कर्जा उठाया जा रहा है। चुनावी साल के बजट वायदों को पूरा करने के लिए, लिए जा रहे कर्ज को जोड़ लें, तो कुल ऋण की तादाद 4 लाख करोड़ है। यह कर्जा राज्य के वर्ष भर के सकल घरेलू (जीडीपी) उत्पाद 13.22 लाख करोड़ का 33.31त्न है। दो वर्ष से ज्यादा की कुल राजस्व आमदनी के बराबर है। जमा पूँजी और आमदनी दोनों से कई गुना कर्ज हो जाने की अवस्था के लिए आर्थिक भाषा में सिर्फ एक शब्द है- दिवालिया होना। स्थिति वैसी ही हुयी पड़ी है। बेसहारा, वृद्धों और विधवाओं की पेंशन महीनों से लटकी है, पंचायतों के सारे काम ठहरे हुए हैं, हो चुके कामों के बिल लटके हैं, मनरेगा पूरी तरह से बंद है, अनुसूचित जाति-जनजाति के विद्यार्थियों की छात्रवृत्तियां लटकी हुई हैं, कर्मचारियों के वेतन भुगतान पर अनिश्चितता की तलवार लटकी हुयी है, सरकारी अस्पतालों से दवाई गायब है, अनेक सरकारी दफ्तरों और बिल्डिंगों की बिजली बिल अदा न करने के चलते कटने की स्थिति में आ गयी है। और मामा हैं कि हवाई जहाजों के बेड़े बुक करके वोट लुभावन-असफलता छुपावन- तीर्थाटन कराने में लगे हैं।
वैसे लगता है कि कुछ हवाई जहाज शिवराज सिंह को और बुक करने पड़ेंगे और उनमे अपने कुनबे के कुछ अपूर्ण संतुष्ट और भरपूर असंतुष्टों को भी कहीं भेजना होगा, जिनकी इन दिनों बहार-सी आई हुई है; लेकिन इस पर विस्तार से बाद में कभी।
फिलहाल तो ऐसा लगता है कि सबको मामू बनाने की अपनी चतुराई पर आत्ममुग्ध मामा इस भ्रम में हैं कि इस तरह के दिखावों से प्रदेश की जनता उनका किया-धरा भूल जाएगी। उन्हें जमीन की तपन का अभी भी पूरा भान नहीं है। दुष्यंत कुमार इन्हीं के लिए लिख गए थे कि-
तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि, फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)
गगन जोशी
औरत अपनी माहवारी की शर्म छुपाती है। काली थैली में सेनेटरी पैड लाती है। अपने अंडर गारमेंट्स उसी दुकान से खऱीदती है जहां महिला सेल्समैन हो। घर में कपड़े सुखाती है तो ध्यान रखती है की अधो वस्त्र खुले आम ना सूखे।
औरत बच्चों को दूध पिलाती है तो शर्म करती है कोई कोना ढूँढती है।
पान खाती है लेकिन पान की दुकान पर चढ़ते हुए शर्म करती है। किसी शराब की दुकान पर कोई लडक़ी या महिला गई हुई हो तो उसका वीडियो बनकर वाइरल हो जाता है।
औरत अपने साथ हुई छेड़छाड़ को बताने से हिचकिचाती है। वो लड़ाई होने से ज़्यादा बदनाम होने से डरती है।
ये सब औरत हमारे घर में ही होती है।
फिर भी ऐसे घर में औरत से पैदा हुए कुछ बेहद गिरे हुए लोग ये समझ नहीं पा रहे की महिला पहलवानों के साथ हुए यौन दुर्व्यवहार की शिकायत पर कार्यवाही होनी चाहिए, उन्हें महिला पहलवानों के बारे में अंट शंट अनर्गल टिप्पणी कर के किसी भारी आपराधिक रिकॉर्ड वाले व्यक्ति का मुफ़्त का वकील नहीं बनना चाहिए।
इसलिए क्यूँकि ऐसा बोलना असामाजिक ओछी हरकत है जो संस्कारों की अर्थी निकालती है।
कई बेहोश लोग ये भी नहीं जानते कि
- 6 महीने से ज़्यादा जद्दोजहद करने पर भी केस दर्ज नहीं हुआ
- सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से स्नढ्ढक्र दर्ज हुई है
- आज तक कोई कार्यवाही नहीं की गई
- पॉक्सो एक्ट में भी स्नढ्ढक्र करनी पड़ी और क़ानून कहता है इस मामले में तुरंत गिरफ़्तारी होती है फिर भी कोई कार्यवाही नहीं हुई
- मामले में 7 महिलाओं ने शिकायत दर्ज की है।
- इनमें सभी जाती से लोग है।
- एक कैबिनेट मंत्री अजय टैनी के पुत्र ने कई लोगों की जीप से कुचल कर मार डाला। तब भी मुफ़्त की वकालत जारी थी, आज भी वही हालात है।
- कुटिलता से मामले को फ़ेडरेशन की रणनीति, हरियाणा बनाम क्क, और क्षत्रिय बनाम जाट की क्षेत्रीयवादी और जातिवादी चालाकी में लपेटा जा रहा है।तो भी अक्ल का इस्तेमाल नहीं करते।
एक आम सोशल मीडिया यूजऱ से यही आशा की जाती है की, किसी मुद्दे पर बोलते हुए वो थोड़ा लॉजिकल और बहुत सारा मानवीय व्यवहार रखे। वरना कोई ज़रूरी नहीं कि आप बोलें ही बोलें।
आपको बृजभूषण शरण सिंह नहीं जानता, मोदी नहीं जानता पर मैं तो जानता हूँ। मेरी पोस्ट पर दांत निकालते, बेतुके अमानवीय और असामाजिक कमेंट करते हुए ख़ुद की इज्जत के बारे में थोड़ी तो परवाह करनी चाहिए।
मेरी पोस्ट से बाहर भी इस मुद्दे के पक्ष विपक्ष में लोग लिखते हैं। लेकिन ज् इस मुद्दे पर चुप रहने वाले जाहिल लोग साहिल के सरेआम लडक़ी के मार देने पर अचानक बोलने लगे। बृजभूषण के मामले पर चुप रहे.. मतलब इतना ओछापन लाये कहाँ से हो ?
घर में बहन बेटी है तो शर्म करना सीखो।
छुपती छुपाती बेटी जब पूरे देश के सामने रो कर कहे कि मेरे साथ ग़लत हुआ है ज्तो .. उसके साथ दूर बैठे ‘ट्रोल दुराचार’ मत करो।
संजीव चंदन
इस साल जनवरी में बिहार सरकार ने 'जातीय जनगणना' शुरू करवाई। इस पर इस महीने महत्वपूर्ण कानूनी तकरीरें हुईं। जातीय जनगणना को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सुनने से जनवरी में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने मना कर दिया। न्यायमूर्ति गवई ने स्पष्ट तौर पर पूछा कि सरकार कैसे फैसले कर सकती है कि कितनी सीटों और नौकरियों आदि को आरक्षित किया जा सकता है। पीठ ने याचिकाकर्ताओं से उच्च न्यायालय जाने को कहा।
याचिकाकर्ता अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट लौट आए। इस बार न्यायमूर्ति एम.आर. शाह और न्यायमूर्ति परीदवाला की पीठ ने पटना उच्च न्यायालय को याचिका यह कहते हुए वापस कर दी कि वह योग्यता के आधार पर और याचिका सुनवाई के लिए लाए जाने पर तीन दिनों के अंदर सुनवाई करे। मई में रिटायर हो जाने वाले न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि 'वहां इतना अधिक जातिवाद नहीं है।' उन्होंने यह भी कहा कि पीठ योग्यता के आधार पर अपनी राय नहीं दे रही है। उन्होंने यह भी जानना चाहा कि क्या जनगणना 'चुनावों' की वजह से कराई जा रही है।
पटना उच्च न्यायालय ने छह दिनों बाद 'जातीय जनगणना’पर यह कहते हुए अंतरिम रोक लगा दी कि प्रथम दृष्ट्या वह इस मत का है कि राज्य के पास जातीय जनगणना कराने का अधिकार नहीं है, कि जनगणना कराने का विशिष्ट अधिकार सिर्फ केन्द्र सरकार को है। इसने इस बात पर भी आश्चर्य किया कि बिहार सरकार की योजना अन्य राजनीतिक दलों के साथ आंकड़े साझा करने की है। उसने 'गोपनीयता' का मुद्दा उठाते हुए राज्य सरकार को जनगणना की कार्यवाही रोकने और आंकड़े को सुरक्षित करने का निर्देश देते हुए मामले की सुनवाई जुलाई के पहले हफ्ते तक रोक दी।
जब राज्य सरकार अंतरिम रोक हटाने के अनुरोध के साथ हाई कोर्ट में दोबारा गई, तो हाई कोर्ट ने इस पर सुनवाई से मना कर दिया; लेकिन आश्चर्यजनक तौर पर कहा कि इसने 'पूरी जनगणना' पर रोक नहीं लगाई है। राज्य सरकार ने कहा था कि 80 प्रतिशत जमीनी काम पूरे किए जा चुके हैं, संसाधन खर्च किए जा चुके हैं, पिछले चार माह से जमीन पर लोगों को लगाया जा चुका है। तर्क दिया कि इस हालत में किसी तरह की रुकावट से संसाधन और समय- दोनों की हानि होगी। जब राज्य सरकार उच्चतम न्यायालय गई, तो उसने इस आधार पर हस्तक्षेप से मना कर दिया कि हाई कोर्ट सुनवाई की अगली तारीख 3 जुलाई पहले से ही तय कर चुकी है।
सवाल उठता है कि जनगणना क्या सर्वेक्षण है? जनगणना से सर्वेक्षण किस तरह अलग है? और क्या राज्य सरकार को सर्वेक्षण कराने का अधिकार है? सुप्रीम कोर्ट के सामने यह तर्क दिया गया है कि मूलभूत अंतर यह है कि जनगणना में शामिल होने से कोई व्यक्ति मना नहीं कर सकता क्योंकि यह आपराधिक कृत्य होगा। दूसरी तरफ, सर्वेक्षण पर जवाब देना ऐच्छिक है और इससे अलग रहने पर किसी सजा का प्रावधान नहीं है। बिहार सरकार ने गोपनीयता को लेकर भ्रम को यह कहते हुए दूर करने की कोशिश की कि आंकड़ा क्लाउड पर नहीं बल्कि राज्य सरकार के सर्वर पर रखा जाएगा।
यह बात ध्यान में रखने की है कि पहले कई राज्य सरकारों ने जाति-आधारित सर्वेक्षण कराए हैं। 2015 में कर्नाटक हाई कोर्ट समेत कई हाई कोर्ट 'बेहतर योजना बनाने' के लिए जाति-आधारित आंकड़ा संग्रहण पर रोक लगाने से मना कर चुकी है। विभिन्न हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट- दोनों ही अनुभवजन्य अध्ययनों और विभिन्न जाति समूहों के लिए स्थानीय निकायों में सीटों के आरक्षण के काम के लिए सर्वेक्षण तथा विश्वसनीय आंकड़ा संग्रहण के आदेश जारी कर चुके हैं।
मार्च, 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि स्थानीय निकायों में जाति-आधारित राजनीतिक आरक्षण के लिए राज्य सरकारों को राज्य के अंदर सर्वेक्षण कराने के लिए समर्पित आयोग बनाने चाहिए और उन्हें सिफारिश करनी चाहिए कि किस तुलना में जाति समूहों का प्रतिनिधित्व किया जाना चाहिए और उसकी वजह क्या है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक आदेश में कहा और जिस पर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी सहमति जताई, कि सिर्फ लोगों की संख्या आरक्षण का आधार नहीं हो सकती- संबंधित समुदाय में पिछड़ेपन का स्तर भी एक मुद्दा होना चाहिए। इसी तरह की बातें महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और बिहार के हाई कोर्ट ने भी कही हैं।
इस किस्म के सर्वेक्षण, आंकड़ा संग्रहण या जनगणना के बिना ही सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को जिस तरह की जल्दबाजी में समाज के आर्थिक तौर पर कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) को दस प्रतिशत आरक्षण देने की अनुमति दी, उसे देखते हुए जातीय जनगणना पर न्यायालयों का वाक् छल खास तौर पर बेचैन करने वाला है।
भारतीय समाज में जाति वास्तविकता है, इस पर कोई सवाल नहीं है। भारतीय जनता पार्टी जो कहती है कि वह जातिवादी नहीं है या कम-से-कम दूसरों की तुलना में कम जातिवादी है, उसके-जैसे राजनीतिक दल भी अपने मंत्रियों, विधायकों और प्रत्याशियों के जातिगत विवरण जारी करने से अपने को रोक नहीं पाते। यह भी तथ्य है कि 2011 जनगणना के परिणाम लोगों या संसद के सामने नहीं लाए गए हैं और सिर्फ इसमें ही सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण को शामिल किया गया, इसे छोडक़र 1931 के बाद से कोई जातीय जनगणना कभी नहीं की गई। मंडल आयोग की सिफारिशें भी 1931 की पुरानी जनगणना के आधार पर थीं। यह भी कोई सरकारी रहस्य नहीं है कि जाति-आधारित भेदभाव और हिंसा खूब हो रही है और संख्या बल कम होने के बावजूद तथाकथित उच्च जातियां नौकरियों में और निर्वाचित पदों पर तुलनात्मक तौर पर अधिक हैं।
सकारात्मक कार्रवाई, शिक्षा के फैलने और खुशहाली बढऩे के बावजूद स्थिति काफी हद तक बदली नहीं है। विडंबना यह है कि भारत में न्यायालय जाति और जातिवाद के मामले में शुतुरमुर्ग वाला रवैया अपना रहे हैं जबकि अमेरिका में शहर, विश्वविद्यालय और कॉरपोरेशन कैंपस और वर्कप्लेस में जाति भेदभाव को तेजी के साथ स्वीकार कर रहे हैं। यह अधिक ध्यान देने योग्य है कि जो सकारात्मक कार्रवाई के हक में सक्रिय हैं, उन्हें तिरस्कार भी झेलना पड़ रहा है। जाति को भेदभावपूर्ण व्यवहार के तौर पर शामिल किए जाने वाले बिल को पेश करने वाली कैलिफोर्निया सीनेट की सदस्य आएशा वहाब को धमकी दी गई और उन्हें अपमानित किया गया। इससे साबित होता है कि प्रवासियों के बीच पूर्वाग्रह कितना गहरा है। इस किस्म के विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के समूह में विदेशी भूमि में जब इतनी अधिक घृणा है, भारत में इस किस्म के पूर्वाग्रह के स्तर की कल्पना करना क्या कठिन है?
यह स्वागतयोग्य चिह्न है कि कांग्रेस जातीय जनगणना के पक्ष में खड़ी हुई है। पार्टी संख्या के आधार पर धन और संसाधनों के पुनर्वितरण के लिए जिस तरह बोल रही है, वह अच्छी बात है। 'जिसकी जितनी आबादी, उसका उतना हक' का राहुल गांधी का आह्वान सुस्पष्ट है, हालांकि जब कांग्रेस सत्ता में थी, तब उसने जातीय जनगणना कराई होती, तो इसकी ज्यादा विश्वसनीयता होती। यह सच है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) ने सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण कराया था; लेकिन इसके परिणाम जारी न करना संभवत: गलती थी।
संशय इसलिए भी है कि 2013 और 2018 के बीच कर्नाटक में कांग्रेस सरकार ने तब जाति-आधारित सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण कराया था जब सिद्दारमैया मुख्यमंत्री थे। लेकिन न तो उनकी सरकार, न बाद में कांग्रेस-जनता दल (सेकुलर) सरकार ने आंकड़े जारी किए।
लाचारी में, हमें यह देखने के लिए इंतजार करना होगा कि न्यायालय फैसले को किस तरह प्रभावित करते हैं। अगले आम चुनाव से पहले जातीय जनगणना के प्रमुख राष्ट्रीय मुद्दे के तौर पर उभरने की संभावना है। इस मसले पर दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता से काम लिया जाएगा, ऐसी उम्मीद है।
(संजीव चंदन महाराष्ट्र में वर्धा से प्रकाशित स्त्रीकाल: स्त्री का समय और सच के संपादक हैं।) (navjivanindia.com)
-श्रवण गर्ग
रविवार, 28 मई ‘सावरकर जयंती’ के दिन नई संसद के उद्घाटन अवसर पर पवित्र ‘सेंगोल’ के साथ-साथ नरेंद्र मोदी ने अपने आपको भी देश के संसदीय इतिहास में हमेशा-हमेशा के लिए स्थापित कर लिया ! आगे आने वाले सालों में मोदी जब प्रधानमंत्री नहीं रहेंगे, हरेक नई हुकूमत स्पीकर की कुर्सी के निकट स्थापित किए गये राजदंड की चमक में मोदी-युग के प्रताप और ताप को महसूस करती रहेगी।
राजनीतिक सत्ता के महत्वाकांक्षी प्रत्येक राजनेता के अंतर्मन में यह संशय बना रहता है कि अप्रतिम नायकों का जब भी उल्लेख होगा इतिहास उसे किस स्थान पर रखना चाहेगा? जिन नायकों के मन में स्थान को लेकर शंका ज़्यादा बनी रहती है वे अपने कार्यकाल के दौरान ही इतिहास में अपनी जगह घोषित कर देते हैं —एक ऐसी जगह जिसके साथ वर्तमान की तरह भविष्य में छेड़छाड़ नहीं की जा सके।
नई संसद के उद्घाटन मौक़े पर दोनों सदनों की सर्वोच्च संवैधानिक सत्ता यानी राष्ट्रपति की भूमिका केवल एक शुभकामना संदेश प्रेषित करने तक सीमित थी। तीनों सेनाओं के प्रमुख इस ऐतिहासिक प्रसंग पर उपस्थित थे पर उनकी सुप्रीम कमांडर वहाँ नहीं थीं। राज्यसभा के सांसद थे, उपसभापति थे पर उनके सभापति नहीं थे। वे पूर्व राष्ट्रपति ज़रूर मौजूद थे जिनका शिलान्यास समारोह के समय स्मरण नहीं किया गया था पर उनके साथी रहे उपराष्ट्रपति अनुपस्थित थे।
देश के संसदीय इतिहास का इसे अभूतपूर्व क्षण माना जाना चाहिए कि दोनों सदनों में करोड़ों देशवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाले 260 सांसद विरोध स्वरूप अनुपस्थित थे। उनका बहिष्कार इस बात को लेकर था कि नई संसद का उद्घाटन प्रधानमंत्री क्यों कर रहे हैं ? यह अधिकार तो राष्ट्रपति का है। एनसीपी सांसद और वरिष्ठ राजनेता शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले ने बाद में दुख जताते हुए कहा कि समारोह का निमंत्रण पत्र उन्हें सिर्फ़ तीन दिन पहले ही व्हाट्सएप पर प्राप्त हुआ था।
अपने पूरे भाषण के दौरान प्रधानमंत्री ने न सिर्फ़ इक्कीस विपक्षी दलों के सांसदों की प्रतिष्ठापूर्ण समारोह में अनुपस्थिति का एक बार भी ज़िक्र नहीं किया, मोदी जब महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में सरकार की उपलब्धियों का बखान कर रहे थे बाहर सड़कों पर पुलिस महिला पहलवानों पर टूटी पड़ रही थी और नई संसद के भीतर बैठे आरोपित सांसद अपने नेता के दावों को सुन मेज़ थपथपा रहे थे।
सत्तारूढ़ भाजपा और उसके सहयोगी दलों को अगर अपने ही द्वारा चुनी गई आदिवासी महिला राष्ट्रपति, विपक्षी दलों और राष्ट्र के गौरव की प्रतीक महिला एथलिस्ट्स के सम्मान की ज़रा सी भी परवाह नहीं बची है तो चिंता के साथ सवाल किया जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री मुल्क को किस दिशा और दशा में देखना चाहते हैं ! इस हक़ीक़त को किसी अज्ञात भय के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए कि नई संसद में बैठने के स्थान तो बढ़ गए हैं पर सत्ता पक्ष सरकार का सारा कामकाज बग़ैर विपक्ष के भी निपटाने को तैयार है !
इस तरह के निर्णय के पीछे कोई वैज्ञानिक कारण नज़र नहीं आता कि ‘सेंट्रल विस्टा’ के तहत प्रारंभ की गईं दूसरी सभी परियोजनाओं को अधूरे में छोड़कर नई संसद पहले तैयार करने के प्रधानमंत्री के स्वप्न को ज़मीन पर उतारने के काम में दस हज़ार मज़दूरों को झोंक दिया गया ! नई संसद का उद्घाटन ,नई लोकसभा के गठन के साथ साल भर बाद भी हो सकता था। कोई तो गूढ़ कारण रहा होगा जिसके चलते नई संसद के उद्घाटन के लिए दस महीनों के बाद ही होने वाले चुनावों तक प्रतीक्षा करना ज़रूरी नहीं समझा गया !
देश को जानकारी है कि 27 अगस्त 2015 को घोषित प्रधानमंत्री की सौ शहरों को ‘स्मार्ट सिटीज़’ में विकसित करने की महत्वाकांक्षी परियोजनाएँ आठ साल के बाद भी आधी-अधूरी हालत में पड़ी अपने ‘उद्धार’ की प्रतीक्षा कर रही हैं।इन परियोजनाओं के भविष्य की अब केवल कल्पना ही की जा सकती है !
हिंदू राष्ट्र के स्वप्नदृष्टा सावरकर की जयंती पर मंत्रोच्चारों के बीच सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक ‘सेंगोल’ की प्राण-प्रतिष्ठा संविधानसम्मत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को लेकर अब और ज़्यादा संदेह उत्पन्न करती है। डर यह भी लगता है कि जिस हुकूमत को आज राष्ट्रपति और विपक्ष की अनुपस्थिति नहीं खलती उसे आने वाले दिनों में संविधान और लोकतंत्र की उपस्थिति भी ग़ैर-ज़रूरी लग सकती है।
प्रधानमंत्री ने विपक्ष के बहिष्कार के बीच अपने सपनों की नई संसद में प्रवेश कर लिया है ! अपनी ‘जनता’ को तो उन्होंने 2014 में ही चुन लिया था ! सुप्रिया सुले का कहना है कि :’ हम सब पुरानी संसद से प्यार करते हैं। वह भारत की आज़ादी का वास्तविक इतिहास है।’ प्रधानमंत्री अगर उचित समझें तो पुरानी संसद और पुराने इतिहास की हिफ़ाज़त का काम विपक्ष को सौंप कर और ज़्यादा निश्चिंत हो सकते हैं !
-सुनीता नारायण
जल भंडारों के बेहतर भविष्य के लिए स्थानीय समुदायों को अधिक अधिकार दिए जाने की आवश्यकता है
रत में लगभग 24 लाख जल स्रोत हैं। यह निष्कर्ष देश के पहले जल निकाय गणना (वाटर बॉडी सेंसस) में सामने आया है। इन जल स्रोतों में बारिश और भूजल-पुनर्भरण किए जाने वाले जल स्रोत दोनों ही शामिल हैं।
केन्द्रीय जलशक्ति (जल संसाधन) मंत्रालय के द्वारा की गई इस गणना ने सभी जल स्रोतों की जियो-टैगिंग करते हुए छाया चित्रों और अक्षांश और देशांतर के आधार पर सभी तालाबों, टैंकों, चकबंधों और जल-भंडारों को एक-दूसरे से जोड़ दिया है।
सर्वेक्षण के अनुसार 83 प्रतिशत जल स्रोतों का उपयोग मत्स्य-पालन, सिंचाई, भूजल-पुनर्भरण और पेयजल के लिए किया जाता है। इस रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया है कि आम धारणा के विपरीत इस गणना में केवल 1.6 प्रतिशत जलाशयों पर अतिक्रमण पाया गया है।
इन जलाशयों के कैचमेंट एरिया (जलग्रहण क्षेत्र) की स्थिति के बारे में आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, जिससे यह निर्धारित करने में सहायता मिल पाए कि कितने भूजल को पुनर्भरण (रिचार्ज) किया जा रहा है। लेकिन यह तय है कि यह गणना जलवायु संकट के इस वर्तमान समय में एक महत्वपूर्ण पहल है।
हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि पहले की तुलना में बारिश की स्थिति और अधिक अनिश्चित होने की आशंका बढ़ती जा रही है। भारत में मॉनसून (जिसे हमारा असली वित्त मंत्री भी माना जाता है) अब कहीं अधिक प्रचंड हो गया है।
इसका सीधा अर्थ है कि बरसात कुछ गिने-चुने दिनों में हो रही है और वो भी बहुत तेज और धुआंधार होती है। इसलिए हमारे लिए यह बेहद जरूरी है कि जहां भी और जितनी भी बारिश हो, हम उसकी एक-एक बूंद को इकट्ठा कर लें।
इस दृष्टि से भी इस जलनिकाय गणना को जल स्रोतों की संख्या बढ़ाने और वर्तमान जलाशयों का जीर्णोद्धार के लिए सुनियोजित तरीकों का उपयोग करने की आवश्यकता है, ताकि वे बरसात के पानी का अधिक से अधिक भंडारण कर भूजल-स्तर को बढ़ा सकें। अनावृष्टि या सूखे के लंबे मौसम में यही जल भंडार हमारे काम आएंगे।
अपरिहार्य रूप से हम हर साल कमरतोड़ विनाशकारी सूखे और उसके वैकल्पिक वर्ष प्रलयंकारी बाढ़ के दुष्चक्र में फंसने के लिए विवश हैं। लेकिन सच यह है कि हमारे लिए यह दुष्चक्र अब एक “न्यू नार्मल” है और नदियों के जलविज्ञान पर इसके घातक असर होंगे।
बाढ़ और सूखे की इस भयावहता को घटाने का बस एक ही उपाय है, बारिश के पानी का भंडारण करने के लिए लाखों लाख की तादाद में नए जलाशयों का निर्माण और उनको आपस में जोड़ने का जुनून। इस योजना को साकार रूप देकर ही बाढ़ के अतिरिक्त पानी को सूखे की आपदा से निबटने के लिए संचयन किया जा सकता है।
हमारे जल का भविष्य पानी के उपयोग के प्रति हमारे विवेक पर निर्भर है। इस सबक को हमें प्राचीन रोमा (रोम) और ईदो (वह नगर जिससे टोक्यो बना) के दिलचस्प प्रसंगों से सीखने की आवश्यकता है।
रोमवासी विशाल जल सेतुओं का निर्माण करते थे, जो उनकी बस्तियों में पानी पहुंचाने के लिए दस-दस किलोमीटर तक फैले होते थे। आज के दिन भी ये जलाशय उनके समाज में जल प्रबंधन से संबंधित एक सर्वव्यापी प्रतीक हैं।
विशेषज्ञों ने रोमनों की इसलिए प्रशंसा की है, क्योंकि उन्होंने अपने लिए जलापूर्ति की योजना बनाने में बड़े कौशल का परिचय दिया, लेकिन ये जल सेतु उनके कौशल की ओर नहीं, बल्कि महान रोमनों के पर्यावरणीय कुप्रबंधन की ओर संकेत करते हैं। रोम को टाइबर नदी के किनारे बसाया गया था। इसलिए इस शहर को किसी अन्य जलसेतु की आवश्यकता नहीं थी।
लेकिन चूंकि रोम का कचरा सीधे टाइबर में बहाया जाता था, इसलिए नदी प्रदूषित हो गई थी और दूरदराज से पानी लाने की जरूरत पड़ गई। जल के स्रोत कम थे, लिहाजा कुलीनों ने गुलामी की प्रथा का उपयोग उन स्रोतों के दोहन के लिए किया।
दूसरी तरफ़ परंपरावादी जापानियों ने अपना कचरा नदियों में कभी नहीं बहाया। उन्होंने उन कचरों को प्राकृतिक रूप में सड़ने दिया और उनका उपयोग खेतों में खाद के रूप में किया नदियों के अलावा भी ईदो में जल के अन्य स्रोतों की कमी नहीं थी। उनकी जलापूर्ति की व्यवस्था किसी प्रकार के सामाजिक भेदभाव से रहित थी।
इस बीच अच्छी ख़बर यह है कि हमारी जल साक्षरता में पहले की तुलना में वृद्धि हुई है। पिछले दशकों में देश ने जल प्रबंधन के बारे में महत्वपूर्ण सबक सीखे हैं और एक नया नजरिया विकसित किया है। 80 के दशक के अंतिम हिस्से तक जल प्रबंधन सामान्यतः सिंचाई परियोजनाओं तक ही सीमित रहा।
इस अवधि में मुख्य रूप से बांध और नहरें बनाई गईं ताकि लंबी दूरी तक जल का भंडारण और जलापूर्ति की जा सके। लेकिन उसके बाद ही देश को अस्सी दशक के आखिर में एक बड़े अकाल से जूझना पड़ा और यह स्पष्ट हो गया कि केवल बड़ी परियोजनाओं के माध्यम से पानी की मात्रा को बढ़ाना पर्याप्त नहीं है।
इसी समय सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ( सीएसई ) ने भी अपनी रिपोर्ट “डाइंग विजडम” प्रकाशित की। रिपोर्ट में भारत की पारिस्थितिकी विविधता वाले क्षेत्रों बरसात के पानी के भंडारण के लिए उपयोग आने वाली पारंपरिक तकनीकों का उल्लेख किया गया था।
रिपोर्ट का प्रचार वाक्य ( स्लोगन ) था– बारिश एक नहीं, बल्कि अलग-अलग जगहों पर होती है और उसकी जरूरत भी अलग-अलग जगहों पर है, इसलिए बरसात जब और जहां हो, उसके पानी को तब और वहीं बचाने की जरूरत है।
आज, जल स्रोतों को बनाने और उनको पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से अनेक कार्यक्रम बनाए गये हैं। बड़ी संख्या में जलाशयों के निर्माण कार्य में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना पहले से ही महत्वपूर्ण योगदान दे रही है।
इसके अलवा अभी सरकार ने मिशन अमृत सरोवर की घोषणा की है जिसके अंतर्गत भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में देश के प्रत्येक जिले में 75 जल स्रोतों को विकसित और पुनर्जीवित करने की योजना है।
जल प्रबंधन के विकेंद्रीकरण के प्रति रूचि के बाद भी यह तय है कि अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए पर्याप्त काम नहीं कर रहे हैं। इसकी असली वजह यह है कि भूमि और जल के विषय में नीति-निर्माण में हमारी नौकरशाही में एकरूपता नहीं है।
तालाबों के रखरखाव की जिम्मेदारी एक एजेंसी की है, जबकि निकासी और कैचमेंट एरिया का उत्तरदायित्व दो भिन्न एजेंसियों पर है। पानी के संरक्षण के लिए इन नियमों को बदलने की जरूरत है।
जल स्रोतों पर स्थानीय समुदायों के नियंत्रण का विस्तार कर जल प्रबंधन के काम को अधिक कारगर तरीके से किया जा सकता है और इसके लिए लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करना और अधिकारों का हस्तांतरण आवश्यक है।
लेकिन इन सभी बातों से ज़्यादा जरूरी यह है कि मात्रा की दृष्टि से पानी का उपयोग कम करें और उसकी एक-एक बूंद को सतर्कता पूर्वक खर्च करें। इसके लिए सिंचाई के तौर-तरीकों से लेकर घरेलू उपकरणों और खानपान की आदतों में बदलाव लाने की जरूरत है, ताकि हम अपनी खाद्यान्न फसलों का पानी की दृष्टि से मितव्ययी होकर चयन कर सकें।
यह उपयुक्त समय है, जब आने वाले दशक में हम अपने अर्जित अभ्यासों से सबक लेकर भारत में पानी की कहानी को फिर से लिख सकें। यह बहुत आसान है। इसके लिए हमें इस काम को अपने जीवन का एकमात्र बड़ा लक्ष्य बनाना होगा।
हमें यह याद रखना होगा कि पानी का संबंध हमारी आजीविका से है। इसका संबंध हमारे भोजन और पोषण से है। इसका संबध मनुष्य के भविष्य से है। (downtoearth.org.in)
-नासिरुद्दीन
यह दिल दहलाने वाली ख़बर है. बतौर समाज हमारे हिंसक, अमानवीय और कायर होने की भी ख़बर है.
दिल्ली के एक इलाक़े में एक नौजवान ने नाबालिग़ लड़की की हत्या कर दी. हत्या कैमरे में क़ैद है. उसमें साफ़ दिख रहा है, वह नौजवान कितना बेख़ौफ़ है. किस तरह वह लड़की को मार रहा है.
एक तरफ़ यह सब हो रहा है और दूसरी तरफ़ लोग आराम से आ-जा रहे हैं. कोई रोक नहीं रहा. कोई पुलिस को भी ख़बर नहीं करता. पुलिस को भी काफ़ी देर बाद ख़बर होती है. लड़की अब इस दुनिया में नहीं है.
ऐसा बताया जा रहा है कि दोनों के बीच 'मोहब्बत का रिश्ता' था. यह घटना 'जुनून' में हुई. तो क्या 'मोहब्बत के रिश्ते' में बर्बरता हो सकती है? मोहब्बत का 'जुनून' हिंसक हो सकता है?
इस बीच, हम चर्चा क्या कर रहे हैं? हम मारने के बर्बर तरीक़े और मारने वाले के धर्म पर चर्चा कर रहे हैं. मगर इस चर्चा में जो चीज़ नज़रअंदाज़ की जा रही है, वह है लड़कों का ऐसा व्यवहार.
क्या कोई दिल पर हाथ रख कर कह सकता है कि लड़कों का ऐसा व्यवहार फलाँ धर्म के मानने वालों में नहीं मिलता? जवाब लड़कों से नहीं, लड़कियों और स्त्रियों से पूछा जाना चाहिए.
इसलिए बेहतर हो, हम वह बात करें जो हमें ऐसी हिंसा की जड़ तक पहुँचने में मदद करे.
मोहब्बत है या दबंग मर्दानगी
लड़कों या पुरुषों में यह हौसला कहाँ से आता है कि वे जिसे चाहने की बात करते हैं या जिसके साथ दिन-रात रहते हैं या साथ रहने की क़समें खाते हैं, उसकी हत्या कर दें?
इस हौसले का एक स्रोत है- धौंसवाली दबंग ज़हरीली मर्दानगी. यह मर्दानगी सब चीज़ पर क़ाबू करना चाहती है. इंसान और इंसान की ज़िंदगी पर भी क़ाबू चाहती है.
वह लड़कियों को जायदाद की तरह अपने क़ब्ज़े में रखना चाहती है. वह उन्हें अपने इशारे पर नचाना चाहती है. ऐसी मर्दानगी के लिए किसी और की ख़्वाहिश या लड़की की आज़ाद शख़्सियत मायने नहीं रखती है.
वह दिखता तो जुनूनी है, लेकिन वह शीरीं का फ़रहाद और लैला का मजनूं नहीं बन पाता. वह 'कबीर सिंह' बनता है.
इसलिए ऐसे हिंसक जुनूनी को मजनूं या रोमियो भी कहना, इन दोनों प्रेमियों की बेइज़्ज़ती है. कहना ही तो ऐसे हिंसक जुनूनी लोगों को कबीर सिंह कहा जा सकता है.
शाहबाद डेयरी में क्या हुआ?
दिल्ली के शाहबाद डेयरी इलाक़े में रविवार की रात एक 20 वर्षीय शख़्स ने एक 16 साल की लड़की की चाकूओं से गोदकर हत्या कर दी.
अभियुक्त ने पीड़िता पर 16 बार चाकूओं से वार किया और फिर पत्थर से उसके सिर को पांच बार कुचला.
दिल्ली पुलिस ने सोमवार को अभियुक्त को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर से गिरफ़्तार कर लिया.
साहिल नामक अभियुक्त को नाबालिग लड़की का बॉयफ़्रेंड बताया जा रहा है जिसको पीड़िता के परिजन ख़ारिज कर रहे हैं.
दिल्ली पुलिस ने इस घटना के पीछे किसी भी तरह के धार्मिक एंगल की बात को ख़ारिज किया है.
हिंसक लड़कों के बीच घिरा समाज
मगर लड़के या मर्द भी क्या करें? उनकी परेशानी भी समझने की ज़रूरत है. लड़कों के पास किसी भी परेशानी या समस्या का हल निकालने का अहिंसक रास्ता नहीं है. दबंग मर्दानगी ने उन्हें अहिंसक संचार नहीं सिखाया है.
वे संवाद का एक ही तरीक़ा जानते हैं- हिंसा. हिंसा चाहे बात से हो या जिस्मानी हमले से. वैसे, यह कहना ज़्यादा बेहतर होगा कि दबंग मर्दानगी के साँचे ने उन्हें एक ही तरीका सिखाया- हिंसा. 'न' नहीं सुनना है.
अपने मन के ख़िलाफ़ कोई बात बर्दाश्त नहीं करनी है. जवाब, हिंसा से देना है. इसका नतीजा है कि वे ख़ुद हिंसक हो रहे हैं. अमानवीय हो रहे हैं. इसका असर उन पर और उनके साथ रहने वालों पर पड़ रहा है. लेकिन क्या किसी को मारना, मर्दानगी है?
ज़हरीले मर्दों की पहचान
ऐसे ज़हरीले लड़के या मर्दों के कुछ लक्षण हैं. वे बार-बार मोहब्बत की दुहाई देते हैं. मगर उनकी मोहब्बत किसी को आज़ाद नहीं करती बल्कि ग़ुलाम बनाती है. वे 'न' नहीं सुनते.
वे लड़कियों को किसी और से बात करते या नज़दीक होते देखना पसंद नहीं करते. वे मोहब्बत के दिखावे में आने-जाने, बात करने, फ़ोन, सोशल मीडिया सब पर काबू करना चाहते हैं. वे आक्रामक होते हैं. ग़ुस्से पर काबू नहीं रख पाते. वे मोहब्बत भी दिखाते हैं और डराते भी हैं.
अपनी ज़िद में वे किसी की नहीं सुनते. दूसरे की भावानाओं की क़द्र नहीं करते. उनके लिए स्त्री के शरीर का इस्तेमाल ज़्यादा ज़रूरी होता है. वे शरीर से 'प्रेम' करते हैं. उस पर अपनी जीत हासिल करना चाहते हैं.
'न' की इज़्ज़त करना सीखना होगा
मोहब्बत दो या दो से ज़्यादा लोगों की रज़ामंदी का नाम है. चाहत एकतरफ़ा हो सकती है. जिस तरह हमें किसी को चाहने का मन कर सकता है. उसी तरह किसी को हमें न चाहने का भी मन कर सकता है.
इकतरफ़ा चाहत को प्रेम या मोहब्बत नहीं कहा जा सकता. इतनी मामूली सी बात हमें क्यों नहीं समझ में आती है. किसी के 'न' की इज़्ज़त करना ही मोहब्बत की पहली सीढ़ी है. मोहब्बत में सम-भाव है. एकतरफ़ा चाहत या लगाव में सम-भाव नहीं है.
हिंसा का बढ़ता दायरा
यही नहीं, लड़कों में हिंसा की कल्पना जितनी भयानक और ख़तरनाक है, वह पूरे समाज के लिए बड़ा ख़तरा बन गया है. लड़कियों की ज़िंदगी के लिए तो ज़ाहिर है ही.
लड़के जिस हौसले से लड़कियों के साथ हिंसा कर रहे हैं, वह समाज में बढ़ रही और दूसरी हिंसा से अलग नहीं है. दूसरी हिंसा में भी तो योगदान लड़कों और मर्दों का ही है. लड़कों को यह लगता है कि वे हिंसा कर सकते हैं.
हिंसा उनके मर्द होने का सुबूत है. हिंसा जायज़ है. किसी को पीटकर या मारकर वे आराम से रह सकते हैं. कोई उन्हें सज़ा नहीं दे सकता. इसीलिए, ख़ासतौर पर निहायत निजी रिश्ते में वे बेख़ौफ़ होकर ज़बरदस्त हिंसा कर रहे हैं.
तो मोहब्बत क्या है?
मोहब्बत तो सब कुछ न्योछावर करने का नाम है. न्योछावर के बदले किसी भी चीज़ की चाह का नाम सौदा हो सकता है, मोहब्बत नहीं.
यह कैसे मुमकिन है कि जिसे हम चाहते हों, उसे नुक़सान पहुँचायें? उसकी हत्या कर दें? हत्या में बर्बरता की सारी हदें पार कर दें?
मोहब्बत तो झूठे वादों का नाम भी नहीं है. इसमें छल-प्रपंच, कपट की भी जगह नहीं है. मोहब्बत किसी लोभ में… इस दुनिया या उस दुनिया में जगह बनाने का नाम भी नहीं है. मोहब्बत में जाति- धर्म-भाषा- लिंग की भी दीवार नहीं हो सकती. इसीलिए मोहब्बत में एकतरफ़ा धर्म-परिवर्तन की भी जगह नहीं होनी चाहिए.
मोहब्बत में तो बर्बरता नहीं ही हो सकती. वह स्त्री को जायदाद मानने, बदले और नफ़रत की भावना से उपजी है. यही ज़हरीली मर्दानगी है.
पुरानी भुलानी होगी, नयी मर्दानगी सीखनी होगी
मोहब्बत में हत्या करना या तेज़ाब से चेहरा ख़राब कर देना- ऐसी सारी हरकत बताती है कि लड़कों की परवरिश में समाज ने कितना तेज़ाब डाला है.
समाज ने हिंसा को नज़रंदाज़ और उसके साथ जीने की आदत डाल ली है. उसे अपने ज़िंदगी में जगह दे दी है. यह लड़कों या मर्दों को ख़ास तरह की ताक़त देता है.
इसलिए लड़कों को सबसे पहले वे सब चीज़ें अपनी ज़िंदगी से निकालनी होंगी, जो उन्होंने अब तक मर्दानगी के नाम पर सीखा है. उन्हें नये तरीक़े से मर्दानगी अपनानी होगी. यह सकारात्मक मर्दानगी होगी. इस मर्दानगी की पहली और ज़रूरी शर्त अहिंसा और बंधुता है.
यह प्यार, सहअस्तित्व, एक-दूसरे पर भरोसा, एक-दूसरे के लिए तड़प, संवेदनशीलता, सबकी इज़्ज़त, सहानुभूति, ईमानदारी, सच्चाई पर टिकी होगी.
लोकतांत्रिक बनना सीखना होगा. लोकतांत्रिक बनने का मतलब अपने मन के ख़िलाफ़ बात सुनने की आदत डालनी होगी. असहमति को सुनने और उसकी इज़्ज़त करने की आदत डालनी होगी.
अपनी बात मनवाने की ज़िद छोड़नी होगी. दूसरों और ख़ासकर लड़की की नज़रिये और राय को जगह देनी होगी. ऐसा होगा तब ही हमें 'मोहब्बत के रिश्ते' में हिंसा की बात सुनाई नहीं देगी.
-तारन प्रकाश सिन्हा
एक नदी, नदी भर नहीं होती। वह केवल धरती पर ही नहीं बहती। धरती के भीतर भी बहती है। दिलों के भीतर भी। एक नदी में केवल पानी का बहाव नहीं होता। उम्मीदों का भी बहाव होता है।
आकांक्षाओं का, सपनों का, स्मृतियों का, किस्से-कहानियों का, गीतों का, कविताओं का...और भी न जाने किन-किन अनगिनत चीजों का बहाव एक नदी में होता है। लेकिन एक नदी के नदी होने के लिए, पानी ही सबसे जरूरी शर्त है। इसलिए किसी नदी को बचाने के लिए पानी को बचाना ही जरूरी शर्त है।
रायगढ़ के लोगों ने अपनी एक नदी को बचाने की ठानी है। इस बात का संकल्प लिया है कि जैसे पुरखों ने इस नदी को सहेज कर उन्हें सौंपा है, वैसे ही वे भी इसे सहेज कर आने वाली पीढ़ी को सौंपेंगे, ताकि उनकी स्मृतियों का प्रवाह भी नदी के साथ बना रहे।
जिले की प्यास बुझाने वाली और किसानों को लहलहाते खेत देने वाली केलो नदी रायगढ़ की जीवनरेखा है, इसीलिए यह केवल केलो नदी नहीं है, केलो- मैया है। रायगढ़ जिले के अंतिम छोर में एक बड़ा ही खूबसूरत पहाड़ है- पहाड़ लुड़ेग । यही केलो का उद्गम है। वहां से निकलकर केलो मैया 97 किलोमीटर तक बहती हु अपना स्नेह लुटाती है। इसक सबसे ज्यादा स्नेह रायगढ़ जिले के ही हिस्से में आया है। यहां यह 90 किलोमीटर का सफर तय करती है।
रायगढ के लोगों के सहयोग से जिला प्रशासन ने केलो मैया का उपकार चुकाने की एक मुहिम शुरू की है। 'केलो है तो कल है' इस मुहिम का सूत्र वाक्य है, जिसमें ध्वनित है कि हम केलो को बचाकर अपने कल को बचा रहे हैं। लेकिन यह मुहिम केवल नदी को बचाने भर की मुहिम नहीं है, उसे संवारने की भी मुहिम है। केलो संरक्षण अभियान का मूल उद्देश्य है कि प्राकृतिक जल को व्यर्थ बहने से रोका जाए और रुके हुए जल को भूमिगत किया जाए।
केलो नदी के संरक्षण के लिए एरिया ट्रीटमेंट और नरवा ट्रीटमेंट दोनों मोर्चों पर काम किया जा रहा है। नदी तट पर बसे गांवों को भी इसमें शामिल किया गया है। केलो नदी के पुनरुद्धार के लिए वॉटरशेड के रिज टू वैली कांसेप्ट से काम हो रहा है। चोटी पर नदी के उद्गम से लेकर नीचे की ओर जाने वाले नदी की लाइनिंग को जोड़ा जा रहा है। इसमें पूरे क्षेत्र को ढलान के अनुसार अलग-अलग भागों में बांटा गया है। जिसमें बहाव को नियंत्रित करने तथा जल को स्टोर करने के लिए विभिन्न उपाय किए जा रहे हैं, ताकि पानी का अधिकतम उपयोग हो । एरिया और नरवा ट्रीटमेंट के तहत नदी के तटों का कटाव, गाद के जमाव, बहाव में कमी, भू-जल स्तर में गिरावट जैसी समस्याओं को दूर करने के लिए कार्य किए जा रहे हैं। इसमें नरवा ट्रीटमेंट के लिए ब्रशवुड चेक, लूज बोल्डर चेक, गेबियन स्ट्रक्चर, चेक डैम तथा स्टॉप डैम का निर्माण किया जाएगा। एरिया ट्रीटमेंट के तहत विभिन्न स्ट्रक्चर जैसे कंटूर ट्रेंच, पर्कोलेशन टैंक, स्टेटगार्ड ट्रेंच
बनाए जाएंगे।
नदियों की तेज जलधारा तटों के कटाव का प्रमुख कारण होती है। तटीय क्षेत्र में वृक्षारोपण इसे रोकने का एक कारगर उपाय है। केलो संरक्षण अभियान में इस मानसून में नदी के किनारे तटों में करीब 50 एकड़ में वृहद वृक्षारोपण किया जाएगा। पौधे तैयार किए जा रहे हैं। भूमि भी चिन्हांकित कर ली गई है। इस वृक्षारोपण की खास बात यह होगी कि पौधे लगाने के साथ उसकी सुरक्षा के भी समुचित प्रबंध होंगे। ताकि ये पौधे बढ़ें और पेड़ बनें।
जल संरक्षण में जन सहभागिता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी किसी मोर्चे की सुरक्षा के लिए सैनिकों की तैनाती है। प्रकृति ने हमें अनगिनत उपहारों से नवाजा है। नदी, पहाड़, जंगल ये सब मानव जीवन के विकास और सामाजिक- आर्थिक प्रगति के आधार हैं। अपने प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण उपयोग आज बहुत सी समस्याएं लिये खड़ा है। एक नागरिक के रूप में हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि हम इन संसाधनों के प्रति कृतज्ञता का भाव लिए यथाशक्ति इनके संरक्षण का प्रयास करें। जंगलों की हरियाली, नदियों की कलकल की आवाज, पहाड़ों की ताजी हवा, कुदरत के ये सारे वरदान हमारी आने वाली पीढियों को तभी नसीब होंगे जब हम उनके लिए सभी जरूरी जतन करें।
रायगढ़ जिले में चल रही इस मुहिम के पीछे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की प्रेरणा रही है। उन्होंने प्रदेश के विकास के अनिवार्य घटक के रूप में नदी-नालों के संरक्षण और संवर्धन के कार्य को भी शामिल किया है। राज्य की संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के लिए भी नदी-नालों को बचाने पर उनका जोर रहा है। छत्तीसगढ़ की इस सीमा पर रायगढ़ से लेकर ओडिशा के भीतर तक फैली अनूठी केलो - संस्कृति को संवारने के लिए उन्हीं की मंशा के अनुरूप 01 जून से रायगढ़ में राष्ट्रीय रामायण महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। उस महोत्सव में शामिल होने जब मुख्यमंत्री रायगढ़ आएंगे, तब उनके हाथों रायगढ़ जिला अपनी केलो मैया की आरती भी उतारेगा।
केलो संरक्षण अभियान में लोगों की स्व-रुफूत सहभागिता देखने को मिल रही है। गांव-गांव में लोग ग्राम सभा के दौरान पानी को बचाने उसके विवेकपूर्ण और समुचित उपयोग करने की शपथ ले रहे हैं। पानी की हर एक बूंद का संचय करने का प्रण कर रहे हैं। जल संरक्षण आज सिर्फ जिम्मेदारी ही नही बल्कि कर्तव्य भी है, ताकि धरती में जीवन का यह आधार हमेशा बना रहे।
हमारी परंपरा में एक नदी केवल एक नदी नहीं है, वह स्वर्ग से उतरी हुई देवी है।
(कलेक्टर, रायगढ़)
सनियारा खान
तीन मई से मणिपुर हिंसा की आग में जल रहा है। हिंसा शुरू होते ही बॉक्सर मेरी कॉम ने ट्विटर कर प्रधान मंत्री, गृह मंत्री, रक्षा मंत्री और प्रधान मंत्री कार्यालय को मणिपुर को हिंसा से बचाने का अनुरोध किया था। लेकिन उस समय किसी ने कोई भी कार्रवाई करने में जल्दी नहीं की। क्योंकि प्रधान मंत्री महोदय और बाकी सभी केंद्रीय मंत्री कर्नाटक के चुनाव प्रचार में व्यस्त थे।
हालांकि कुछ समय के लिए यह आग धीमी हुई थी। लेकिन अब फिर से आग जलना शुरू हो गई है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 71लोग मारे गए हैं। लेकिन गैर सरकारी आंकड़े इसे 300 तक मानते हैं। 300 के करीब लोग घायल भी हुए । बाहरी राज्यों से आ कर यहां पढ़ाई करने वाले छात्र छात्राओं को एयरलिफ्ट करके उनके राज्यों तक पहुंचाने का काम किया जा रहा है। लोगों के घरों में आग लगा कर लूट पाट बढ़ जाने के कारण भयभीत लोग असम, मेघालय, मिजोरम आदि राज्यों में शरण ले कर जान बचाने की कोशिश कर रहे हैं। करीब 10000 लोग विस्थापित जीवन जी रहे हैं।
इतना सब कुछ होने के बाद भी राज्य सरकार और केंद्र सरकार शान्ति के प्रयास के कोई ठोस कदम उठाते नही दिख रही है। मणिपुर की राजधानी इम्फाल में फिर से हिंसात्मक गतिविधि शुरू हो गई हैं । कई घरों में फिर से आग लगा दी गई है। प्रशासन द्वारा फिर एक बार कर्फ्यू जारी किया गया और इंटरनेट भी बंद कर दिया गया है। मणिपुर से अभी अभी रिटायर्ड हुए एक आईपीएस अधिकारी, जो इम्फाल में सपरिवार रहते हैं, उनका बयान काफी डराने वाला है। वे कहते है कि संघर्ष बहुत भयानक हो गया था। रात के डेढ़ बजे अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ अपने घर की दीवाल फांद कर पड़ोसी के घर के पीछे की एक खाली जगह पर जा कर जैसे तैसे वे सभी जागते हुए रात गुजारी। वे लोग यही सोच रहे थे कि सुबह तक ये सब खत्म हो जाएगा। लेकिन सुबह तक भी हिंसा थमी नहीं। किसी तरह छुपते छुपाते वे लोग पास के ही एक सीआरपीएफ शिविर में जा कर शरण ली। उनके पास पैसा, कपड़ा कुछ भी नहीं था। फिर उनको खबर मिली कि उनके घर को पूरी तरह जला कर लोगों ने घर से सारा सामान लूट कर ले गए। अब वे सब शिलांग में एक शरणार्थी शिविर में रह रहे हैं।
एक अफसर का अगर ये हाल है तो मणिपुर की आम जनता के लिए आप और हम सोच सकते है कि वहां क्या हो रहा है! इतने दिनों में भी केंद्र सरकार के किसी भी प्रतिनिधि ने मणिपुर आने की तकलीफ़ नहीं उठाई।
शुरू से ले कर अब तक इस मामले में खामोश प्रधान मंत्री अभी अभी विदेश यात्रा करके आए है। लेकिन मणिपुर को लेकर पता नहीं क्यों वे खामोश रहना ही पसंद कर रहे है। वैसे सुनने में आया कि गृह मंत्री अमित शाह ने मणिपुर के मुख्य मंत्री श्री वीरेन सिंह जी को दिल्ली में बैठे बैठे ही खूब हडक़ाया है। फिर उन्होंने रिटायर्ड आईपीएस अफसर कुलदीप सिंह को मणिपुर में हिंसा रोकने के लिए भेज दिया है। पता चला कि कुलदीप सिंह गृह मंत्री के सुरक्षा सलाहकार है । अभी तो गृह मंत्री गुवाहाटी भी गए थे जनता के साथ रिश्ता बढ़ाने के लिए। उन्होंने अब जा कर गुवाहाटी में तय किया कि वे जल्दी ही मणिपुर का दौरा करेंगे और लोगों से शांति की अपील करेंगे। देर आए दुरुस्त आए। नेक खयाल है।
मणिपुर में कुकी और मैतेई के बीच में ही मुख्य रूप से ये झगड़ा है। मैतेई को बहुसंख्यक और कुकी को अल्प संख्यक माना जाता है। मैतेई लोगों में ज्यादातर हिंदू धर्म को मानते हैं और कृष्ण भक्त होते हैं। लेकिन कुछ क्रिश्चियन धर्म मानने वाले भी है। मुख्य मंत्री श्री वीरेन सिंह जी के बारे में कहा जाता है कि वे मैतेई समूह के लिए हमेशा नरम रुख रखते है। कुकी जनजाति समुह पहाड़ों में बसते हैं और ज्यादातर क्रिश्चियन धर्म को मानने वाले हैं। इम्फाल के समतल भूमि पर मैतेई लोगों का कब्ज़ा हैं।
राज्य में मैतेई समुह का प्रतिशत 53 है , नगा 24 प्रतिशत है और कुकियों का प्रतिशत 16 है। अब मैतेई लोग खुद के लिए जनजाति का दजऱ्ा चाहते हैं ताकि उन्हें कुकियों के साथ बराबरी से और भी सुविधाएं मिल सके, जबकि कहा जाता है कि कुकी जनजाति से वे लोग काफ़ी समृद्ध जीवन जीते हैं। मणिपुर न्यायालय द्वारा इसी बात को स्वीकार करते ही जनजातीय एकता संगठन ने इसके खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया।
कहते है कि इस आंदोलन में मैतेई लोगों ने अचानक आक्रमण कर संघर्ष की शुरुवात कर दी। इसी के बाद भयानक खूनी संघर्ष शुरू हो गया। कुकी जनजाति का कहना है कि मैतेई लोग सरकार से समर्थन प्राप्त है। इधर मैतेई कहते हैं कि कुकी लोग उन पर आक्रमण कर रहे हैं। कुछ इलाके में कई मंदिरों को जलाया गया है कह कर विश्व हिंदू परिषद के मिलिंद परांदे जी हंगामा कर रहे थे , उसी समय जनजातीय संगठन ने पत्रकारों के सामने खुलासा किया कि वहां तो कोई मंदिर ही नहीं है। क्योंकि वहां क्रिश्चियन धर्म पालन करने वाले लोग ज्यादा हैं। पास में दूसरी जगह पर एक भव्य मंदिर है, जो पूरी तरह सही सलामत है। लेकिन कई अलग अलग जगहों पर कम से कम 100 चर्च जलाए जाने की बात सच पाई गई है।
कुकी और मैतेई दोनों पक्ष एक दूसरे पर ये आरोप भी लगा रहे हैं कि राज्य के सत्ता पक्ष उनके जरिए जान-बूझकर हिंसा फ़ैला रही है। लोग मुख्य मंत्री को हटाने के लिए कह रहे हैं। खबर ये भी आ रही है कि कई बीजेपी नेताओं के साथ जगह जगह लोग मारपीट कर रहे हैं। शायद अब कुकी और मैतेई के साथ साथ दूसरे जनजातियों को भी ये लगने लगा है कि उन सब को आपस में लड़वा कर मणिपुर में भी कट्टर हिन्दू सोच को बढ़ावा देने की कोशिश हो रही है।
खबर तो ये भी है कि मूलत: ग़ैर आदिवासियों को पहाड़/ जंगल पर हक़ दिलाकर अडानी के प्रवेश की योजनाएँ आसान करना हैं। अडानी की नजऱें वहाँ के चूना पत्थर, क्रोमाइट, निकल, तांबा, मैलाकाइट, अज़ूराइट और मैग्नेटाइट और तत्वों के विभिन्न प्लैटिनम समूह (पीजीई) जैसे खनिजों पर है। आज मणिपुर में जो कुछ हो रहा है , ये सब शायद उसी का नतीजा है।
अब एक और खबर मिली कि एक बीजेपी नेता को दो लोगों के साथ मिल कर दंगा भडक़ाने के आरोप में पकड़ लिया गया है। ये नेता पहले मणिपुर विधान सभा में डिप्टी स्पीकर भी रह चुके है। फिर ये खबर भी आई कि रैपिड एक्शन फोर्स के कुछ जवान ही आगजनी करते हुए पकड़े गए। कुल मिला कर अब ये लग रहा है कि हो सकता है ये हिंसा किसी सोची समझी रणनीति का ही हिस्सा है। लेकिन जो भी हो, मणिपुर को दूसरा कश्मीर बनने से रोकने के लिए सभी को आगे बढ़ कर सही दिशा में कदम बढ़ाना होगा, मुंह खोलना होगा और गलत कामों का प्रतिवाद भी करना होगा। भाईचारे के बिना ये देश बर्बाद हो जाएगा। इस बात को हम जितनी जल्दी समझ जाए उतना अच्छा है।
अब केंद्रीय गृह मंत्री भी तीन दिन के लिए मणिपुर जा रहे है। उम्मीद रखते है कि मणिपुर में हिंसा और नफऱत ख़त्म करने में वे सफल होंगे। उम्मीद पे ही तो दुनिया कायम है। बस ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हिंसा और नफऱत के नाम पर कोई निर्दोष भी नहीं फंसना चाहिए।
जुबैर अहमद
30 मई 2019 को ही नरेंद्र मोदी ने दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने मंगलवार को सत्ता में अपने नौ साल पूरे कर लिए हैं। इसके साथ ही नरेंद्र मोदी किसी गैर-कांग्रेसी पार्टी के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री बने रहने वाले शख्स बन गए हैं। इन नौ सालों में जहां उनकी ढेर सारी उपलब्धियां रहीं, वहीं उन्हें कई नाकामियां भी मिलीं।
उनके प्रशंसकों के मुताबिक, बीते नौ सालों में मोदी सरकार की खास कामयाबियां ये रहीं-
मोदी सरकार ने गरीबी हटाने के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं जिनमें जनधन योजना शामिल है। इसके साथ ही ‘हर घर शौचालय’, स्वच्छ भारत अभियान और आयुष्मान भारत जैसी योजनाएं ख़ास हैं।
जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाला अनुच्छेद-370 हटाए जाने के बाद से वहां तेज़ी से विकास कराए जाने का दावा किया जाता है।
पीएम मोदी के समर्थक कहते हैं कि दिल्ली में कभी कोई ऐसी सरकार नहीं आई जिसने पूर्वोत्तर राज्यों के विकास पर इतना ध्यान दिया हो जितना मोदी सरकार ने अब तक दिया है।
मोदी सरकार की विदेश नीति के कारण दुनिया भर में भारत का कद बढ़ा है, इसे उनके आलोचक भी मानते हैं।
कहां नाकाम मानी जा रही है मोदी सरकार
हालांकि, कुछ विवादित पहलुओं के चलते कुछ लोग मोदी सरकार को नाकाम मानते हैं, खासतौर से इन क्षेत्रों में-
आर्थिक सुधार- कुछ लोगों का मानना है कि मोदी सरकार की आर्थिक सुधार की नीतियां सभी वर्गों को फायदा पहुंचाने में सफल नहीं रही हैं। वे दावा करते हैं कि नौकरियां बढऩे की जगह बेरोजग़ारी बढ़ रही है और आय वितरण में खाई गहरी होती जा रही है। अदानी और अंबानी जैसे उद्योगपतियों की संपत्ति कई गुना बढ़ी है जबकि गरीबों की आय घटी है।
इनका ये भी कहना है कि नोटबंदी काले धन को सिस्टम से खत्म करने का नाकाम और असफल कदम साबित हुई क्योंकि काला धन सिस्टम में उसी मात्रा में वापस आया जिस मात्रा में नोटबंदी से पहले मौजूद था।
किसानों से जुड़ी नीतियां- मोदी सरकार की कृषि क्षेत्र से जुड़ी कुछ नीतियों पर भी विवाद देखा गया है। किसान आंदोलन के दौरान, किसान संगठनों की ओर से इन कृषि कानूनों पर विरोध दर्ज कराया गया था। उनका कहना था कि ये कानून उनकी आय कम करेंगे और कृषि व्यवसाय को बड़ी कंपनियों के हवाले करेंगे।
धार्मिक मुद्दे- कुछ लोगों के मुताबिक़, मोदी सरकार के दौर में समाज में विभाजन बढ़ा है। चुनावों के दौरान हिंदू-मुस्लिम मुद्दों का सहारा लिया जाता है जिससे देश में विविधता और धार्मिक सद्भाव को ठेस पहुंची है।
अब लोगों की नजऱ मोदी सरकार की चुनौतियों पर टिकी होगी। विशेषज्ञ कहते हैं कि 2024 का आम चुनाव जीतना उनके लिए एक बड़ी चुनौती हो सकती है।
इसके साथ ही उनके सामने और भी कई अहम चुनौतियां हैं-
1. विपक्षी एकता- विपक्षी एकता मोदी सरकार की एक बड़ी चुनौती बन सकती है। आम आदमी पार्टी के पूर्व नेता और वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष कहते हैं, ‘कर्नाटक में कांग्रेस की भारी जीत के बाद नरेंद्र मोदी को घरेलू मोर्चे पर फिर से एकजुट होने की कोशिश करते विपक्ष का सामना करना पड़ रहा है।
कर्नाटक की जीत ने वो मिथक तोड़ दिया है कि मोदी उस समय भी चुनाव जीत सकते हैं जब भाजपा को तीव्र सत्ता-विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा हो। एकजुट विपक्ष 2024 में मोदी के लिए सबसे बड़ी समस्या बनने जा रहा है। जीत और हार का फ़ैसला शायद विपक्षी एकता सूचकांक द्वारा तय किया जाएगा।’
2.बढ़ती बेरोजगारी- विशेषज्ञ मानते हैं कि बेरोजग़ारी मोदी सरकार की सबसे अहम चुनौतियों में से एक है क्योंकि कोविड-19 महामारी के कारण, भारतीय अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका लगा है। मोदी सरकार के सामने अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने और करोड़ों बेरोजग़ारों के लिए नौकरी के अवसर पैदा करने की चुनौती है।
3. किसान संकट- भारतीय किसान कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं जिन्हें हल करने की आवश्यकता है। विशेषज्ञ कहते हैं कि मोदी सरकार को किसानों की समस्याओं का समाधान निकालने की जरूरत है।
4. आत्मनिर्भर भारत और सप्लाई चेन- प्रधानमंत्री मोदी ने कोरोना महामारी के बीच 12 मई, 2020 को देशवासियों से भारत को एक आत्मनिर्भर देश बनाने का वादा किया था। उन्होंने आयात कम करने और निर्यात को बढ़ावा देने की योजनाएं लाने की भी घोषणा की थी।
इस कदम का मतलब चीन से आयात को काफी हद तक कम करना और उस पर अपनी निर्भरता को बहुत हद तक कम करना था। लेकिन आत्मनिर्भरता की घोषणा के बाद से चीन से द्विपक्षीय व्यापार लगातार बढ़ रहा है। पिछले साल के अंत तक एक साल में ये व्यापार 130 अरब डॉलर के करीब पहुँच गया था।
सरकार ने देश को उत्पादन का हब बनाने और भारतीय कंपनियों को प्रोत्साहन देने के लिए एक योजना भी शुरू की जिसे ‘प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव’ कहा जाता है। इसके तहत कंपनियों को उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकारी मदद मिलती है।
इससे उत्पादन बढ़ा है और भारत अब स्मार्टफोन बनाने वाले दुनिया के सबसे अहम देशों में से एक बन गया है। विशेषज्ञ कहते हैं कि किसी भी देश को आत्मनिर्भर बनने में समय लगता है।
दिल्ली स्थित फोर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट में चीन से जुड़े मामलों के विशेषज्ञ प्रोफेसर फैसल अहमद कहते हैं, ‘चीन की सप्लाई चेन पर निर्भरता कम करना एक लंबी प्रक्रिया है और ‘आत्मनिर्भर भारत’ की पहल को हमारी ‘आपूर्ति से जुड़ी बाधाओं’ (supply-side constraints) को कम करने के साथ ही हमारी ‘घरेलू उत्पादन क्षमता' को विकसित करने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इससे हमें और अधिक लचीला बनने और हमारी वैश्विक प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने में मदद मिलेगी।’
5.विदेश नीति की चुनौतियां- विदेशी मामलों पर नजऱ रखने वालों के मुताबिक, मोदी सरकार के लिए आने वाले सालों में चीन से डील करना एक अहम चुनौती बनी रहेगी और चीन भारत के लिए सिरदर्द बना रहेगा।
वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष कहते हैं, ‘विदेश नीति के स्तर पर चीन एक बढ़ता हुआ सिरदर्द है और आगे चलकर भी चीन मोदी सरकार के लिए सिरदर्द बना रहेगा। अब तक सरकार ने भारतीय क्षेत्र में चीनी घुसपैठ के मुद्दे पर भारत के लोगों को केवल धोखा दिया है।’
‘एक झूठ फैलाया गया है और मीडिया ने एक सरकार प्रायोजित कहानी बनाई है कि मोदी सुपरमैन हैं जिन्होंने चीन को सबक सिखाया है। लेकिन आम तौर से लोग उस पर विश्वास नहीं कर रहे हैं।’
प्रोफेसर फ़ैसल अहमद कहते हैं, ‘चीन के साथ भारत का तालमेल एक चुनौतीपूर्ण मुद्दा बना हुआ है, चाहे वो सीमा विवाद को हल करना हो या चीनी सप्लाई चेन पर निर्भरता कम करना और हिंद महासागर में सुरक्षा और नेविगेशन की स्वतंत्रता बनाए रखना, ये सब चुनौतियां बनी हुई हैं।’
उनका कहना है कि इन सब मुद्दों को हल किया जा सकता है और ये भारत के पक्ष में जा सकता है। वे कहते हैं, ‘वास्तव में, इन सभी मोर्चों पर भारत के लिए व्यावहारिक लाभ की संभावनाएं हैं।’
उनके मुताबिक, तीन तरीकों से इसका हल निकाला जा सकता है। पहला, भारत-चीन बॉर्डर अफ़ेयर्स को लेकर दोनों पक्ष के बीच बातचीत हर हाल में जारी रखनी चाहिए और उच्च स्तरीय बातचीत के लिए माहौल सहज करने की कोशिश जारी रखनी चाहिए।
दूसरे चीन पर निर्भरता कम करने के लिए सप्लाई चेन को मजबूत करना चाहिए और उत्पादकता बढ़ाने पर जोर देना चाहिए।
प्रोफेसर फैसल। के मुताबिक, तीसरा रास्ता ये है कि सभी ऐतिहासिक और भू-राजनीतिक कारणों से भारत हिंद महासागर में ‘सुरक्षा समाधान प्रदान’ करने की स्थिति में है। अमेरिका या चीन जैसे देश इस क्षेत्र में ख़ुद को मुखर कर सकते हैं, लेकिन भारत को नौसैनिक आधुनिकीकरण कार्यक्रमों का विस्तार करके हिंद महासागर में सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं का समाधान करने वाले देश की भूमिका निभानी होगी।
नरेंद्र मोदी और उनके समर्थक कहने लगे हैं कि मोदी काल में भारत एक विश्वगुरु बन चुका है और इसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साख बहुत बेहतर हुई है।
जॉन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में अप्लायड इकोनॉमिक्स विभाग के प्रोफेसर स्टीव एच. हैंकी के मुताबिक, ‘प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत भले ही वैश्विक शक्ति न बना हो, लेकिन विश्व पटल पर एक महत्वपूर्ण देश जरूर बन गया है।’
डॉक्टर हैंकी का कहना है कि भारत की प्रभावशाली विदेश नीति का लाभ भारत को मिल रहा है। मोदी अपनी विदेश नीति कार्ड का बहुत प्रभावी ढंग से उपयोग कर रहे हैं।
उनके अनुसार, एक विश्वगुरु बनने के लिए मोदी सरकार को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। यूक्रेन में जारी युद्ध में तटस्थ रुख बनाए रखना भारत की विदेश नीति के लिए एक बड़ी चुनौती है। डॉक्टर फैसल कहते हैं कि भारत के लिए अमेरिका-पश्चिमी देशों और रूस के बीच निष्पक्षता बनाए रखना एक चुनौती होगी।
6. विभाजित समाज को जोडऩा एक बड़ी चुनौती- सामाजिक कार्यकर्ताओं और उदार राजनीतिक विश्लेषकों के बीच आम सहमति यह है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय समाज हिंदुओं और मुसलमानों के बीच, ऊंची और निचली जातियों के बीच विभाजित हो गया है।
आशुतोष कहते हैं, ‘उनकी राजनीति ‘फूट डालो और राज करो’ की है। उनका समाज को एकजुट करने का कोई इरादा नहीं है क्योंकि वह हिंदुत्व द्वारा निर्देशित हैं जो अपने स्वभाव से मुस्लिम विरोधी भावना पर आधारित है। चूंकि उन्होंने देखा है कि धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण एक जीत का फ़ॉर्मूला है, ख़ासकर उनके अपने चुनावों के लिए। ऐसे में मुझे उनकी ओर से किसी सुलह के प्रयास की कोई संभावना नजऱ नहीं आती।’
7. लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष भारत को बचाना- लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के एक्टिविस्ट कहते हैं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लोकतंत्र पीछे जा रहा है और संविधान की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है।
8. पर्यावरण संरक्षण- मोदी सरकार ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किए हैं। हालांकि, पर्यावरण संरक्षण नीतियों का सख़्ती से कार्यान्वयन ज़रूरी है।
9. भ्रष्टाचार और लाल फीताशाही- कई विदेशी निवेशक और देश तमाम व्यापारी आम तौर पर ये शिकायत करते हैं कि भ्रष्टाचार और लालफीताशाही भारत में अभी भी प्रचलित है, जो आर्थिक वृद्धि और विकास में बाधक है। मोदी सरकार को भ्रष्टाचार से निपटने और नौकरशाही प्रक्रियाओं को कारगर बनाने के उपायों को अपनाने की जरूरत है। (bbc.com/hindi)
अमृता यादव
(नर्स, कैंसर विभाग)
‘अस्पताल में कैंसर विभाग के शुरुआत से ही मेरी पोस्टिंग यहां हो गई। फिर ट्रेनिंग के लिए मुझे बैंगलोर भेजा गया। तब से मैं यहीं, कैंसर रोगियों की सेवा कर रही हूं।’
‘नर्स होने की वजह से मुझे हर मरीज को करीब से जानने का मौका मिलता है। डॉक्टर के मुक़ाबले, रोगी हम नर्सों के साथ ज्यादा वक्त गुजारते हैं। स्वस्थ हो जाने के बाद भी, वो या उनका परिवार हमारे संपर्क में बना रहता है।’
‘कुछ साल पहले की बात है। एक सुबह एक बूढ़े बाबा मेरे पास आए। उन्हें जीभ का कैंसर था। उनकी रेडियो थेरेपी चल रही थी और वे डॉक्टर से मिलना चाहते थे। मैंने सोचा, शायद वे इलाज के संबंध में कुछ जानना चाहते हों, सो तुरंत डॉक्टर साहब से मिलवा दिया।’
‘मगर ऐसी कोई बात थी नहीं। दरअसल बाबा इलाज बीच में छोडक़र घर लौट जाना चाहते थे। सो, डॉक्टर सर के समझाने के बाद, मैंने उनसे अकेले में पूछा ‘बाबा, क्या तकलीफ़ है? घर क्यों लौटना चाहते हैं?’
‘वे रूआंसा होकर बोले ‘इलाज के लिए रायपुर एक रिश्तेदार के घर रुका हूं। दो दिन पहले, उसकी पत्नी ने ग़ुस्से में मेरी तरफ खाना फेंककर कहा ‘पता नहीं, कब तक हमारे गले में टंगे रहेंगे ये लोग! फिर बड़बड़ाती चली गई।’
‘मैडम, मैं बीमारी से मर जाऊंगा, पर इतना अपमान सहकर इलाज नहीं करवा सकूंगा!’
‘ये सुनने के बाद, हमारी कैंसर विभाग की टीम ने मिलकर पैसे इक_े किया। इन पैसों से उनके रुकने और दवाइयों की व्यवस्था की गई। रात का खाना बाहर से आने लगा। और जब तब वे रायपुर में रहे, उनका दिन का खाना मैं बनाकर लाती थी। हफ्तों बाद, बाबा स्वस्थ होकर लौट गए। ख़ूब आशीर्वाद मिला उनका।’
‘मैं लगातार उनके संपर्क में रही। कुछ सालों बाद पता चला कैंसर फैल गया है। किसी ठंड की सुबह उनके नंबर से फोन आया। ‘आज सुबह...बाबा ने...खेत में फांसी लगा ली। बड़ी तकलीफ में थे वो। घाव बहुत बढ़ गया था...’
‘मैं क्या कहती? उनकी तकलीफ हमारी पूरी टीम समझती थी। दल्ली-राजहरा से रायपुर आकर बार-बार इलाज कराना संभव नहीं था उनके लिए। फिर रायपुर का वह अनुभव!’
‘मगर हां, आज भी उनके घर से फोन आता है। हम आज भी बाबा को याद करके मुस्कुराते हैं। मुझे गर्व होता है कई बार कि ईश्वर ने मुझे कैंसर मरीजों की सेवा के लिए चुना।’
( सुदेशना रूहान के फेसबुक पेज से)
अशोक पांडे
रोज की तरह उस सुबह भी मार्गरेट अपने घर के नजदीक के सबवे स्टेशन पहुँची और ट्रेन का इंतजार करने लगी। हर लोकल ट्रेन के निकलने के बाद लाउडस्पीकर पर उसके महबूब पति ऑसवाल्ड की आवाज में एक अनाउन्समेंट होता था। यह 1 नवम्बर 2013 का दिन था। वह सुबह से ही ऑसवाल्ड को याद कर रही थी और उसकी पसंदीदा बेकरी से उसकी पसंदीदा डबलरोटी लेकर आई थी.
बेंच पर बैठी मार्गरेट इक्कीस साल पहले मोरक्को में की गई अपनी उस क्रूज-यात्रा को याद करती हौले-हौले मुस्करा रही थी जब ऑसवाल्ड उसे पहली बार मिला था – ऑसवाल्ड लॉरेन्स जो कभी पेशेवर अभिनेता था पर बाद में करियर बदल कर क्रूज लाइनर में नौकरी करने लगा था. उसने करियर न बदला होता तो संभवत: दोनों की कभी मुलाकात भी न हो पाती- इस खयाल ने उसकी मुस्कराहट को और चमका दिया।
ट्रेन आई और चली गई। लाउडस्पीकर पर अनाउन्समेंट हुआ जरूर लेकिन ऑसवाल्ड की नहीं किसी दूसरे की आवाज में। पिछले चवालीस सालों से वह अनाउन्समेंट ऑसवाल्ड की आवाज़ में होता आ रहा था और मार्गरेट की तरह लन्दन के उस स्टेशन के आसपास रहने वालों को उसकी आदत पड़ चुकी थी। अपनी गहरी दोस्ताना आवाज में ऑसवाल्ड अनाउन्समेंट करता- ‘लेडीज एंड जेंटलमैन...’
अचानक क्या हुआ कि ऑसवाल्ड की आवाज़ बदलनी पड़ गई?- यह सवाल लेकर खिन्न मन से मार्गरेट स्टेशन इंचार्ज के पास गई। उसे बताया गया नई पालिसी के तहत सभी सबवे स्टेशनों पर होने वाले अनाउन्समेंट डिजिटल बना दिए गए हैं जिनके लिए नई आवाजों का इस्तेमाल किया गया है। पुराने अनाउन्समेंट टेप और कैसेट की मदद से होते थे। जमाने के साथ चलने के लिए ऐसा किया जाना जरूरी था।
1992 में मोरक्को में हुई पहली मुलाकात के बाद मार्गरेट और ऑसवाल्ड साथ रहे और 2003 में बाकायदा पति-पत्नी बन गए। मार्गरेट डाक्टर थी- डॉ. मार्गरेट मैककलम- और ऑसवाल्ड से बेपनाह मोहब्बत करती थी। अचानक 2007 में ऑसवाल्ड की मौत हो गई। इस असमय त्रासदी ने मार्गरेट को भीतर तक तोड़ डाला। बेहद उदासी के दिनों में उसे अपने प्यारे की बहुत याद आया करती. एक दिन वह सबवे स्टेशन पर थी जब लाउडस्पीकर पर ऑसवाल्ड की आवाज गूंजी।
मार्गरेट जैसे नींद से जागी। उसे याद आया वे दोनों कई बार ऐसे ही ऑसवाल्ड की आवाज सुनने भर के लिए भी स्टेशन चले जाते थे। अब जब ऑसवाल्ड नहीं था, उसके साथ नजदीकी महसूस करने के लिए वह सबवे स्टेशन तो आ ही सकती थी। पिछले पांच सालों से वह हर सुबह लन्दन के एम्बैंकमेंट स्टेशन पहुँचती और उसकी आवाज सुनती। इस तरह वह हर रोजऑसवाल्ड के साथ कुछ पल बिता लिया करती थी।
मगर 1 नवम्बर की उस घटना ने उसे उदास और दुखी कर दिया था। जब स्टेशन मास्टर ने कहा कि अनाउन्समेंट की आवाज बदलना सरकारी पालिसी का हिस्सा है और वे कुछ नहीं कर सकते तो मार्गरेट ने अनुरोध किया कि उसे अपने पति की आवाज का वह कैसेट दे दिया जाय जो पिछले चवालीस सालों से बजाया जा रहा था। शीघ्र ही उसकी यह इच्छा पूरी कर दी गई. लेकिन मार्गरेट ने इसके बाद भी स्टेशन जाना नहीं छोड़ा। अपने महबूब के लिए अपनी मोहब्बत के इज़हार का यही एक तरीका उसे आता था.
मार्गरेट की कहानी ने स्टेशन मास्टर को भीतर तक विचलित कर दिया था. उसने पूरा वाकया अपने सीनियर्स को बताया. बात ऊपर पहुँची और मार्गरेट को एक खुशनुमा सरप्राइज देने का फैसला किया गया।
एक सुबह मार्गरेट के पास एम्बैंकमेंट स्टेशन के स्टेशन मास्टर का फोन आया, ‘मिसेज मैककलम, क्या आप आधे घंटे में यहाँ आ सकती हैं?’
मार्गरेट पहुँची तो उसने पाया स्टेशन के लाउडस्पीकर पर ऑसवाल्ड की वही पुरानी आवाज गूँज रही थी।
‘बाकी लन्दन का तो हम नहीं कह सकते मिसेज मैककलम, लेकिन एम्बैंकमेंट के पब्लिक अनाउंसमेंट सिस्टम से अब आपके पति की आवाज कभी नहीं हटाई जाएगी।’
कौन कहता है आज के जमाने में लोग मोहब्बत करना भूल गए हैं!
बादल सरोज
कहावत है कि नागिन भी कुछ घर छोडक़र काटती है और सांप भी अपनी बाम्बी में घुसता है तो सीधा होकर घुसता है-कहावतें तो कहावत हैं उनका क्या? होने को तो एक कहावत पूँछ के 12 साल तक नली में रखने के बाद भी टेढ़ी की टेढ़ी ही निकलने की भी है। एक लोकोक्ति तो ‘ऐसा कोई बचा नहीं, जिसको इनने ठगा नहीं की भी है।
कल रविवार को यही हुआ जरा सी तेज बयार आई और धरा के इस हिस्से के प्राचीनतम नगरों में से एक उज्जयिनी में करोड़ों रूपये खर्च दिखाकर खडी की गयी प्रतिमाएं धराशायी हो गई। सप्तऋषियों में से 6 ऋषियों की मूर्तियाँ खंडित हो गईं किसी का सर धड से अलग हो गया तो कोई पूरी प्रतिमा ही लुंठित होकर धुल धूसरित पड़ी मिली।
ये मूर्तियाँ पुराने, प्राचीन उज्जैन का रूप बदल कर उसे व्यावसायिक कॉम्प्लेक्स की तरह बनाए गए महाकालेश्वर मंदिर के उस नए परिसर में थी जिसे महाकाल लोक का नाम दिया गया है जिसे 700 करोड़ खर्चा खर्च करके बनाया गया था और किसी ऐरे गैरे नत्थू खैरे ने नहीं स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मात्र 7 महीने पहले अक्टूबर 2022 में इसका महा-उदघाटन किया था ।
10 से 25 फीट ऊंची ये मूर्तियां कागज की कश्ती नहीं थीं जो बारिश के पानी में बह जातीं! इन्हें लाल पत्थर और फाइबर रेनफोर्स प्लास्टिक (एफआरपी) से बनी बताया गया था । इन पर गुजरात-ध्यान दें गुजरात-की एमपी बाबरिया फर्म से जुड़े गुजरात, ओडिशा और राजस्थान के कलाकारों ने कारीगरी की थी ।
सरकारी अमले की चुस्ती-फुर्ती का नजारा यह था कि रविवार दोपहर बाद बदले मौसम के कारण जब उज्जैन में तेज आंधी के साथ बारिश हुई और महाकाल मंदिर के समीप ही विशाल बरगद का पेड़ गिरने से दो मकान क्षतिग्रस्त हो गए। तब भी घटना के दो घंटे बाद भी राहत बचाव दल मौके पर नहीं पहुंचा था।
महाकाल के साथ ठगी का यह पहला उदाहरण नहीं है ; 2004 और 2016 के सिंहस्थ कुम्भ मेलों में भी महाघोटाले हुए थे। मंत्रियों, संतरियों, मामा, मामियों, साले सालियों, जीजा बहनोइयों सहित अनेक यंत्री अभियांत्रियों के भी नाम आये थे ; इनमे से कई मामलों में एफ आई आर तक हुयी थी।
सिम्पल सी बात है कि 700 करोड़ रुपयों के पहली ही फुहार में पानी में बह जाने के महाकाल के साथ किए महाघोटाले की जांच होनी चाहिये। उत्तरदायी मंत्रियों से पहली फुर्सत में इस्तीफे लिए जाने चाहिये, इस निर्माण काम से जुड़े सभी ठेकेदार, इंजीनियर्स जेल के भीतर होने चाहिये, एक श्वेत पत्र जारी कर सचाई देश की जनता के सामने आनी चाहिये, जिनने उदघाटन किया था उन्हें भी अब दोबारा उज्जैन आकर अपने कुनबे के कामों के नतीजे देखना चाहिये ।
मगर क्या ऐसा होगा? ना जी ना !!
सिंहस्थ घोटालों से प्रसिद्ध हुए एक मंत्री कह चुके हैं कि यदि भ्रष्टाचार पर कार्यवाही होने लगी तो मंत्रिमंडल की बैठकें जेल में ही करनी होंगी, आधे से ज्यादा मंत्री अन्दर होंगे !!
ऊपर से अमित शाह से राजनाथ सिंह तक कह ही चुके हैं कि उनकी पार्टी की सरकार में इस्तीफे या कार्यवाहियां नहीं होती!
क्योंकि वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति की तर्ज पर हिन्दुत्ववादी भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार न भवति होता है।
पुष्य मित्र
लोकतंत्र, मंदिर और राजदंड. ये तीन शब्द कल से लेकर आजतक मीडिया में छाये हुए हैं. इन तीन शब्दों को लेकर कई तरह के हेडलाइन्स गढ़े गये. एक मैंने भी गढ़ा है. लोकतंत्र के मंदिर में राजदंड.
हालांकि यह हेडलाइन बहुत अटपटी है. विरोधाभासों से भरी. जैसे, कि क्या लोकतंत्र का कोई मंदिर हो सकता है? क्या लोकतंत्र और राजदंड एक साथ चलने वाली परंपरा हो सकती है? और यह भी कि क्या मंदिर में राजदंड स्थापित किया जा सकता है?
बचपन की किताबों में हम सबने पढ़ी है लोकतंत्र की तरह-तरह की परिभाषाएं. मगर उन परिभाषाओं में एक जो अब तक याद रह गई है. वह यह है-
लोकतंत्र जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है।
अभी सर्च किया तो पता चला कि यह परिभाषा अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने दी है. और फिर साथ ही यह भी पढ़ा कि लोकतंत्र में कानून के आगे सभी लोग बराबर होते हैं. इसकी तीन खासियत होती है, कानून का शासन, संवैधानिक बराबरी और राजनीतिक आजादी।
यूरोपीय देशों में लोकतंत्र की स्थापना राजतंत्र और चर्च दोनों की सत्ता के खिलाफ लड़ते हुए हुई. मतलब यह कि वहां के प्रबुद्ध और समझदार लोगों ने तय किया कि हमें न ईश्वर के नाम पर चलायी जाने वाली धर्म के एजेंटों की सत्ता चाहिए और न राजतंत्र के नाम पर किसी एक व्यक्ति की सत्ता चाहिए. हम खुद समझदार और सक्षम हैं, हम अपना राजपाट खुद चला लेंगे. इस तरह धीरे-धीरे लोकतंत्र स्थापित और मजबूत हुआ. इतना मजबूत कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद तो दुनिया के ज्यादातर देश लोकतंत्र के जादू में बंध से गये. हालात ये हैं कि दुनिया के 203 संप्रभु मुल्कों में से 156 खुद को रिपब्लिक या गणराज्य कहते हैं. यहां तक कि हमारे देश के एक भगोड़े साधू ने जो काल्पनिक देश रचा उसका नाम भी उसने रिपब्लिक ऑफ कैलाशा रखा. मतलब यह कि यह जो लोकतंत्र या डेमोक्रेसी है, या फिर गणतंत्र या रिपब्लिक. वह वस्तुत: धर्म और राजा दोनों के निषेध पर खड़ी हुई सत्ता है.
आज के आधुनिक मानव ने दोनों को नकारा है. वह न धर्म के नाम पर शासित होता है और न ही किसी राजा के नाम पर बनी राजतांत्रिक व्यवस्था के आधार पर. वह शासन चाहता तो है, मगर उस सत्ता का निर्माण खुद करना चाहता है. वह हर चार, पांच या छह साल पर एक सत्ता खड़ी करता है. उस पर लगातार निगरानी रखता है. ठीक लगा तो ठीक वरना उसे फिर खत्म कर देता है और नई सत्ता को आधार देता है. वह सारी ताकत अपनी मु_ी में रखना चाहता है. यही लोकतंत्र है.
वैसे लोकतंत्र कोई पश्चिमी अवधारणा नहीं है. अपने देश में भी यह मगध साम्राज्य से पहले था. सिर्फ वैशाली में नहीं, लगभग पूरे देश में था. पंजाब में तो वहां के आयुधजीवी गणराज्यों ने सिकंदर को टक्कर दी थी. पाणिनी ने उस पर विस्तार से लिखा है, पढ़ सकते हैं.
उसके बाद राजतंत्र आया. पूरी दुनिया में बड़े राज्य मजबूत हुए. तब सामूहिक फैसले के बदले राजा का निर्णय आखिरी होने लगा. उसको चुनौती नहीं दी जा सकती थी. हां, उस पर नैतिकता लादी जाती थी. यह जो राजदंड है, वह उसी नैतिकता का प्रतीक है. मगर यह राजाओं पर ही निर्भर था कि वह राजदंड की नैतिकता का सम्मान करे या न करे. भारत जब आजाद हुआ तो अभी हमने पढ़ा कि नेहरू ने सेंगोल के जरिये सत्ता का हस्तांतरण करवाया. मगर फिर उस सेंगोल को भुला दिया गया।
क्यों भुला दिया गया. क्योंकि वह सेंगोल राजदंड बिल्कुल नहीं था. हमने सत्ता को नैतिक बनाने किए किसी राजदंड की परिकल्पना नहीं की. हमने संविधान को रचा. वह संविधान हमारा राजदंड ही नहीं, बल्कि उससे ज्यादा ताकतवर चीज है। वह सिर्फ सत्ता की नैतिकता की बात नहीं करता, वह सत्ता को नियंत्रित और निर्देशित करता है. लगाम लगाता है. बेलगाम होने से बचाता है. हमारी सत्ता को किसी राजदंड की जरूरत नहीं. हमारे पास उससे अधिक ताकतवर चीज है. संविधान।
तो सवाल यह था कि क्या संसद लोकतंत्र का मंदिर है?
मेरा जवाब यह है कि संसद लोकतंत्र का मंदिर बिल्कुल नहीं है. क्योंकि आधुनिक मानव ने अपनी विकास प्रक्रिया में जब राजा और धर्म दोनों की सत्ता को नकारा तो लोकतंत्र का जन्म हुआ. इसलिए लोकतंत्र की सबसे जरूरी जगह किसी भी मंदिर, मस्जिद या चर्च से ऊंची जगह है. लोकतंत्र की मूल भावना समानता और बहस है और किसी धार्मिक संस्थान में उस स्तर की समानता और बहस को हमने नहीं देखा, जैसा दुनिया भर के पार्लियामेंटों में देखा.
क्या हमें संसद में किसी राजदंड की जरूरत है?
बिल्कुल नहीं. हमारे पास राजदंड से अधिक ताकतवर चीज पहले से है, वह है संविधान.
फिर कल जो हुआ वह क्या हुआ?
कल जो भी हुआ वह लोकतंत्र को कमजोर करने का प्रयास हुआ. लोकतंत्र के सबसे बड़े प्रतीक संसद में धार्मिक और राजतांत्रिक कर्मकांडों का प्रदर्शन कर हमने जाने-अनजाने में लोकतंत्र की गरिमा पर आघात किया है. उसे कमतर बनाने की कोशिश की है. समझदार लोगों के लिए यह गौरव का क्षण तो बिल्कुल नहीं है।
रिकॉर्डो सेनरा
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत पृथ्वी का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है।
अब सबसे बड़ा सवाल है कि क्या वो एक वैश्विक सुपर पावर के तौर पर अपने ताकतवर पड़ोसी की बराबरी या उसे पीछे भी छोड़ सकता है?
अर्थव्यवस्था के आकार, भूराजनैतिक दबदबे और सैन्य ताकत के मामले में बीजिंग अभी बहुत आगे है। लेकिन एक्सपर्ट का कहना है कि यह तस्वीर बदल रही है।
अर्थशास्त्र में 2001 के नोबल पुरस्कार विजेता माइकल स्पेंस का मानना है कि भारत का वक़्त आ चुका है।
प्रोफेसर माइकल स्टैनफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में डीन हैं, उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘भारत जल्द ही चीन की बराबरी कर लेगा। चीनी अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ेगी लेकिन भारत की नहीं।’
लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं
चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी और भारत के मुकाबले पांच गुना बड़ी अर्थव्यवस्था है। भारतीय अर्थव्यवस्था का दुनिया में पांचवां स्थान है।
भारत के मध्यवर्ग का आकार अपेक्षाकृत छोटा है और चीन जैसा विकास करने के लिए भारत को शिक्षा के क्षेत्र में, जीवन स्तर में, लैंगिक समानता और आर्थिक सुधारों में भारी निवेश करने की जरूरत होगी।
सबसे बड़ी बात है कि ग्लोबल सुपर पावर होने के लिए आबादी और अर्थव्यवस्था ही पर्याप्त नहीं है। यह भूराजनैतिक और मिलिटरी पॉवर पर काफी कुछ निर्भर करता है और ये इन क्षेत्रों में भारत बहुत पीछे है।
हालांकि सॉफ्ट पावर भी मुख्य भूमिका निभाता है। भारत का बॉलीवुड फिल्म उद्योग दुनिया भर में भारत की छवि बनाने में बहुत प्रभावी है और नेटफ्लिक्स पर इसका प्रदर्शन शानदार है।
लेकिन तेजी से बढ़ते चीन के फिल्म उद्योग ‘चाइनावुड’ ने हाल ही में हॉलीवुड को पीछे छोड़ दिया। पहली बार 2020 में उसने बॉक्स ऑफिस पर दुनिया का रिकॉर्ड तोड़ दिया और 2021 में भी उसने दोबारा ऐसा किया।
भारत की आर्थिक रफ्तार
आज भारत में हर दिन 86,000 बच्चे पैदा होते हैं जबकि चीन में 49,400 बच्चे।
कम जन्मदर की वजह से चीन की जनसंख्या सिकुड़ रही है और इस सदी के अंत तक इसकी जनसंख्या का एक अरब के नीचे आना तय है।
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि 2064 तक भारत की आबादी का बढऩा जारी रहेगा और इसकी जनसंख्या मौजूदा 1.4 अरब से बढ़ कर 1.7 अरब हो जाएगी।
यह भारत को डेमोग्राफिक डिविडेंड (जनसांख्यिकी लाभांश) देगा। काम करने लायक आबादी के बढऩे की वजह से तेज आर्थिक विकास के लिए डेमोग्राफिक डिविडेंड शब्दावली का इस्तेमाल होता है।
न्यूयॉर्क के न्यू स्कूल में भारत चीन इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर प्रोफेसर मार्क फ्रेजियर के अनुसार, ‘1990 के दशक में जो सुधार हुए थे उसका भारत को अब फायदा मिल रहा है। लेकिन कार्यशील आबादी की शिक्षा, स्वास्थ्य, हुनर और अर्थव्यवस्था में योगदान की क्षमता बहुत मायने रखता है।’
हाल के महीनों में एप्पल और फॉक्सकॉन जैसी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों को आकर्षित करने के बावजूद भारत की आंतरिक नौकरशाही और बार बार नीति बदलने के कारण उपजी अस्थिरता से कुछ अंतरराष्ट्रीय निवेश बिदकते भी हैं।
प्रो. फ्रेजियर कहते हैं, ‘उन्नीसवीं शताब्दी में माना जाता था कि जितनी बड़ी आबादी होगी, आप भी उतने ही ताकतवर होंगे।’
वल्र्ड बैंक के अनुसार, आज काम करने की उम्र (14-64 साल) वाले आधे भारतीय ही वास्तव में नौकरी कर रहे हैं या नौकरी की तलाश में हैं।
और जहां तक महिलाओं की बात है तो यह आंकड़ा 25त्न तक गिर जाता है, जबकि चीन में यह 60त्न और यूरोपीय संघ में 52त्न है।
1980 और 1990 के दशकों में लगातार सुधारों के बाद चीन की अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ी।
लेकिन कोविड, बूढ़ी होती आबादी और पश्चिम के साथ लगातार बढ़ते तनाव के कारण देश की विकास दर पर असर पड़ा है।
भारत की जीडीपी की रफ्तार पहले ही चीन के मुकाबले तेज है और आईएमएफ का अनुमान है कि इसके ऐसे ही बने रहने की पर्याप्त संभावना है।
लेकिन कम वृद्धि दर का मतलब है कि चीन की प्रासंगिकता भी कम हो जाएगी?
प्रोफेसर स्पेंस कहते हैं, ‘अगर चीन 2030 तक 4त्न या 5त्न की दर से विकास करता है तो यह बहुत शानदार उपलब्धि होगी। लोग ये सोच सकते हैं कि जो देश 8-9त्न की दर से बढ़ रहा था ये धीमापन एक बुरी बात है, लेकिन सोचने का यह तरीका सही नहीं है।’
उनके मुताबिक, ‘चीन अब कमोबेश अमेरिका की तरह है। अमेरिका कभी भी 8, 9, 10त्न की दर से नहीं बढ़ा। वो अपनी उत्पादकता दर पर भरोसा कर रहे हैं और मुझे लगता है कि वे शिक्षा, विज्ञान और टेक्नोलॉजी में भारी निवेश कर इसे हासिल भी कर रहे हैं।’
चीन की सैन्य ताकत
चीन और भारत दोनों परमाणु हथियार संपन्न शक्ति हैं और यह उन्हें दुनिया के नक्शे पर एक रणनीतिक स्थिति प्रदान करता है।
फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट का अनुमान है कि बीजिंग के पास दिल्ली के मुकाबले ढाई गुना अधिक परमाणु हथियार हैं।
चीन की सेना का आकार 6,00,000 है और रक्षा उद्योग में भारी निवेश कर रहा है।
प्रो. फ्रेजियर का कहना है, ‘भारत रक्षा मामले में रूस, आयातित टेक्नोलॉजी और विशेषज्ञता पर पूरी तरह निर्भर है जबकि सैन्य ढांचे में रिसर्च और स्वदेशी विकास कार्यक्रमों पर चीन बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है।’
रक्षा क्षेत्र में हालांकि चीन की बढ़त साफ़ है, लेकिन यूरोप और अमेरिका के साथ नज़दीकी रिश्ते भारत को दमदार बनाते हैं, क्योंकि दुनिया की अधिकांश सैन्य ताकतें उनके साथ हैं।
प्रो.फ्रेजियर कहते हैं, ‘हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारत एक महत्वपूर्ण रणनीतिक साझीदार हो सकता है, जहां अमेरिकी सरकार चीन को घेरते हुए एक किस्म का सिक्युरिटी जोन विकसित कर रही है जिसमें केवल पूर्वी एशिया ही नहीं है बल्कि दक्षिण एशिया और हिंद महासागर भी शामिल हैं।’
भूराजनैतिक विकल्प
भारत इस साल जी-20 समिट की मेज़बानी कर रहा है और वो इस दौरान खुद को प्रमोट करने के एक मौके के तौर पर देख रहा है क्योंकि दुनिया की 85त्न संपत्ति का प्रतिनिधित्व करने वाले देश इसमें शामिल हैं।
अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल के समय से ही एक तरफ दुनिया के सबसे ताकतवर देशों के साथ चीन के रिश्ते बिगड़े हैं लेकिन दूसरी तरफ रूस, दक्षिण अफ्रीका से लेकर सऊदी अरब और यूरोपीय संघ समेत 120 देशों के साथ चीन मुख्य आर्थिक साझीदार है।
इसके साथ ही कई ट्रिलियन डॉलर की लागत से बन रहे बेल्ट एंड रोड परियोजना, विदेशों में चीन के राजनीतिक असर को बढ़ाता है।
पश्चिम भारत को अपने मुख्य भू राजनैतिक पार्टनर के रूप में देखता है तो दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बिजिंग के पास पांच सीटें हैं, इसका मतलब है कि उसके पास फैसले की ताक़त यानी वीटो है।
ये हालात हैं जो भारत और अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाएं दशकों से बदलने की कोशिश में हैं, लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली है।
हालांकि एक्सपर्ट का कहना है कि सुरक्षा परिषद में वोटिंग की ताकत का आर्थिक आकार या असर से कोई लेना देना नहीं होता। इसीलिए दुनिया को इन संस्थाओं में सुधार लाना होगा या ये अपनी अहमियत खो देंगी क्योंकि वैकल्पिक चीजें उभरेंगी।
इस समय जो मुख्य वैकल्पिक निकाय ब्रिक्स है। इस आर्थिक गुट में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका हैं और ये पश्चिम के आर्थिक और भूराजनैतिक काट के लिए बनाया गया है।
सॉफ्ट पावर
सदी भर पहले अमेरिकी मूल्य मान्यताओं और प्रभाव को पूरी दुनिया में पहुंचाने के लिए हॉलीवुड ने एक सशक्त माध्यम की भूमिका निभाई थी।
चीन और भारत भी इसी रणनीति को सफलतापूर्वक आजमा रहे हैं।
चीन में 2007 के बाद से सिनेमा हाल की संख्या में 20 गुना की वृद्धि हुई है और अमेरिका में 41,000 और भारत के 9,300 के मुकाबले में इनकी संख्या 80,000 तक पहुंच गई है।
कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी में मीडिया एंड कल्चरल स्टडीज की चायनीज प्रोफेसर वेंडू सू के अनुसार, ‘महामारी के पहले चाइनावुड ने कई हॉलीवुड फिल्म स्टूडियोज का अधिग्रहण करके और फिल्मों में सह निर्माता बनकर दुनिया भर में अपने असर को बढ़ाना जारी रखा था।’
लेकिन 2020 और 2021 में लगातार अमेरिकी फिल्म मार्केट को पीछे छोडऩे के बाद, लॉकडाउन के कारण चीन का बॉक्स ऑफिस 2022 में 36त्न गिर गया।
बॉलीवुड ने भारतीय सिनेमा को पूरी दुनिया में पहचान दी है।
प्रो. सू के मुताबिक, ‘पूरी दुनिया में बॉलीवुड का असर कहीं व्यापक और मजबूत है।’
उनका कहना है, ‘चीन में भी बॉलीवुड की फिल्मों का बहुत असर है। दंगल फिल्म ने चीन में किसी भी हॉलीवुड फिल्म के लगभग ही कमाई की और 16 दिनों तक चीन के बॉक्स ऑफिस पर नंबर वन बनी रही। सिनेमाघरों में यह 60 दिनों तक चली।’ (bbc.com/hindi)
28 मई 2023 को संसद के नये भवन का सेन्ट्रल विस्टा के नाम से उद्घाटन हो रहा है। लोकसभा और राज्यसभा सहेजती संसद की कार्यवाही का पहला दिन 9 दिसंबर 1946 को था। 15 अगस्त 1947 को आजादी मिलने के पहले ही संविधान सभा का गठन हो चुका था। पहली बैठक नई दिल्ली के कान्स्टीट्यूशन हॉल में सुबह 11 बजे शुरू हुई।
सबसे पहले स्वतंत्रता संग्राम सैनिक तथा कांग्रेस अध्यक्ष रहे आचार्य जे. बी. कृपालानी ने सदन के सबसे उम्र दराज सदस्य डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा से अनुरोध किया कि सभापति होना स्वीकार करें। वरिष्ठ नेताओं को महत्व देने की भारतीय संसदीय परंपरा थी। पचहत्तर पार को मार्गदर्शक मंडल में जबरन बाद में भेजा जाने लगा। सिन्हा 83 वर्ष से कम नहीं थे। सभापति बनने पर डॉ. सिन्हा ने विदेषों से आए संदेशों को पढक़र भाषण भी दिया। उन्होंने कहा संविधान के बनने में दुनिया के कई मुल्कों से प्रेरणा ली गई है। इनमें इंग्लैंड सहित स्विटजरलैंड, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका जैसे लोकतंत्र मानने वाले देश शामिल हैं।
डॉ. सिन्हा ने एक महत्वपूर्ण उल्लेख किया। 1922 में महात्मा गांधी ने भारत में संविधान सभा स्थापित करने को लेकर एक वक्तव्य दे दिया था। उसका हिस्सा डॉ. सिन्हा ने पढ़ा। ‘‘स्वराज्य ब्रिटिष पार्लियामेंट की ओर से उपहार की तरह नहीं होगा। यह तो भारतीयों की समस्त मांगों की मंजूरशुदा घोषणा होगी, जिसे ब्रिटिश पार्लियामेंट कानून पास कर देगी। यह घोषणा भारतीय जनता की चिर घोषित मांगों की केवल सौजन्यपूर्ण स्वीकृति ही होगी। यह स्वीकृति बतौर संधि या समझौते के होगी जिसमें ब्रिटेन एक पार्टी रहेगा। जब समझौता होगा तो ब्रिटिश पार्लियामेन्ट भारतीय जनता की इच्छानुसार चुने हुए प्रतिनिधियोंं द्वारा व्यक्त करने पर जनता की मांगंों को स्वीकार करेगी।’’
इसमें कहां शक है गांधी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और आदर्शों को लेकर केन्द्रीय नेता और आवाज रहे हैं। सभी संवैधानिक संस्थानों में गांधी का चित्र आजादी के महान आंदोलन की याद दिलाता है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित सुप्रीम कोर्ट और तमाम अदालतों और कार्यालयों में गांधी को केन्द्रीय प्रेरणा षक्ति के रूप में शीर्ष स्थान पर दिखाया जाता है। अरविन्द केजरीवाल जैसे कुछ मसखरे राजनीतिज्ञ हैं जिन्होंने अपनी सरकार के दफ्तर से सिर के ऊपर लटके गांधी की तस्वीर हटा दी है। गांधी ही हिन्दू महासभा के कर्ताधर्ता विनायक दामोदर सावरकर को समझाने के लिए लंदन गए थे कि हिंसा के जरिए कोई मुल्क आजाद नहीं होता। उससे केवल नफरत फैलती है। हिंसा के जरिए भारत आजाद नहीं भी हुआ। सावरकर के नहीं मानने पर गांधी ने पानी के जहाज पर दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए दस दिन में ‘हिन्द स्वराज’ नाम की अपनी क्लासिक लिखी। वह पूरी दुनिया में राजनीतिक दर्षन के बुनियादी ग्रंथ के रूप में पढ़ी जाती है।
अजीबोगरीब है मोदी सरकार ने नए संसद भवन का नाम ‘गांधी भवन’ रखने के बदले अंगरेजों की गुलामी करते हुए ‘सेन्ट्रल विस्टा’ नामकरण किया है। हिन्दू महासभा और संघ के नेता तो अंगरेज सरकार को आजादी के आंदोलन को कुचल देने के लिए चि_ियां तक लिखकर उकसाते रहे हैं।
डॉ. सिन्हा ने संविधान सभा को बताया कि गांधी जी के संविधान सभा गठित करने के प्रस्ताव को मई 1934 में रांची बिहार में गठित ‘स्वराज पार्टी’ ने समर्थन दिया था। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने भी उसे पटना में मई 1934 में स्वीकार किया। दिसंबर 1936 में फैजपुर मेंं हुए कांग्रेस सम्मेलन में भी उसका समर्थन किया गया। नवंबर 1939 में कांग्रेस कार्यसमिति ने उसे मंजूर किया। दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने 1940 में संविधान सभा के गठन की योजना मंजूर की। सप्रू कमेटी ने भी इसी कल्पना को पसंद किया था जो 1945 में प्रकाशित हुई।
डॉ. सिन्हा ने जोर देकर कहा हमें जवाहरलाल नेहरू के शब्द याद रखने चाहिए जिन्होंने कहा था कि राष्ट्र अपने चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा अपनी खुदमुखतारी के निर्माण के लिए आगे बढ़ चुका है। यह पूरा इतिहास पढक़र ही संविधान बना।
पता नहीं 28 मई 2023 के तथाकथित अंगरेजी नाम वाले ‘सेन्ट्रल विस्टा’ की स्थापना कार्यक्रम में देश की आत्मा महात्मा गांधी के नाम का कितना उल्लेख हो। सुभाषचंद्र बोस ने गांधी को राष्ट्रपिता का खिताब दिया था। भाजपा और नरेन्द्र मोदी तो कुछ बरस पहले सुभाष बाबू से संबंधित सरकारी फाइलों को उजागर करने की मुहिम छेड़े हुए थे। उन्हें उम्मीद थी कि उनमें नेहरू के खिलाफ बहुत कुछ मिलेगा। जब नहीं मिला तो उन्होंने सुभाष बाबू को अधर में छोड़ दिया। पहले तो उनके परिवार के सदस्यों को बहला फुसलाकर भाजपा में शामिल किया था। उसके बाद बोस परिवार के सदस्यों ने खुद ही उनके साथ हो रहे छल-कपट को देखते भाजपा से छोड़ छुट्टी कर ली।
डॉ. सिन्हा ने महान भारतीय कवि अल्लामा इकबाल की कुछ पंक्तियां पढक़र सुनाईं। वे आज भी भारत के इतिहास की यादों में दमखम के साथ गूंज रही हैं। कुछ बहरे हैं जो उन्हें नहीं सुन पा रहे। इकबाल ने कहा था:-
यूनान, मिस्त्र, रोमां, सब मिट गये जहां से,
बाकी अभी तलक है नामो-निषां हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन दौरे ज़मां हमारा।।
डॉ. सिन्हा ने पवित्र ग्रंथ बाइबिल की याद में भी कहा। उसमें लिखा है:-‘जहां दूरदृष्टि नहीं है वहां मनुष्य का विनाष है।’ ईसाइयों की आबादी भारत में दो प्रतिशत से भी बहुत कम है। राजनेताओं को इसीलिए उनकी बहुत जरूरत नहीं होती। अलबत्ता हालिया नरेन्द्र मोदी ने केरल जाकर ईसाई धर्म गुरुओं से सौजन्य भेंट की थी। इस उम्मीद में कि धुर दक्षिणी राज्य में भाजपा का वोट बैंक कुछ तो बढ़े। लेकिन ठीक उसी वक्त कर्नाटक के मतदाताओं ने सांप्रदायिक और जातीय राजनीति को अपने प्रदेष से चलता कर दिया।
आज संसद के सबसे वरिष्ठ सदस्य द्वारा तथाकथित ‘सेन्ट्रल विस्टा’ का उद्घाटन करने का सवाल नहीं है। भारत में आजादी और संविधान को लेकर प्रधानमंत्री के शब्दों में अमृतकाल चल रहा है। इतिहास का अमृतकाल होता है। मनुष्य तो क्षण भंगुर है। कितने प्रधानमंत्री हुए और चले गए। नरेन्द्र मोदी भी अमर नहीं हैं। भारतीय विचार परंपरा मरी नहीं है, बशर्ते सत्ताशीन लोग परंपरा का सम्मान करें। इतिहास किसी को नहीं बख्षता। यही इतिहास का दस्तूर है। संविधान के प्रावधानों के खिलाफ हो रही ‘सेन्ट्रल विस्टा’ की शुुरुआत बदनाम गोदी मीडिया की मदद से कई झूठे आरोपों के शोरगुल में तब्दील की जा रही है। षोरगुल धूल का अंधड़ है। जब धूल बैठ जाती है, तब सब कुछ साफ -साफ दिखाई देता है। धूल अगर आंखों में घुस जाती है, तो नजर दूषित हो जाती है। यही तो भारत में हो रहा है। काश! नरेन्द्र मोदी और भाजपा संवैधानिक परंपरा का सम्मान करते। उनके पास तो अपना कोई गौरवपूर्ण इतिहास भी नहीं है। वे बेचारे क्या करेंगे?
नितिन श्रीवास्तव
श्रीनगर में जी-20 टूरिज़्म वर्किंग ग्रुप की बैठक का दूसरा दिन था और सुबह ग्यारह बजे सहयोगी देवाशीष कुमार के साथ हम राजबाग इलाके में थे।
देवाशीष कैमरे को सेट करके बीबीसी लंदन के स्टूडियोज में लाइन भी चेक कर चुके थे क्योंकि आधे घंटे बाद हमें टीवी लाइव करना था। जिस कोने में हम खड़े थे वो हमारे होटल की बगल में ही था जो एक चलती हुई सडक़ है।
तभी दो बख्तरबंद गाडिय़ाँ बगल में रुकीं, एके-56 से लैस करीब पांच कमांडो उतरे और फिर उतरे उनके इंचार्ज जो जम्मू-कश्मीर पुलिस की वर्दी में थे।
पूछा, ‘क्या कर रहे हैं?’, हमने कहा, ‘मीडिया से हैं, ये हमारा आईकार्ड है और लाइव करने वाले हैं’।
जवाब मिला, ‘इतने सेंसिटिव जोन से आप लाइव नहीं कर सकते। यहां आस-पास आला अफसरों के घर हैं। कभी भी कुछ भी हो सकता है’।
आनन-फानन में हम समान समेट, कंधों पर लाद उनकी बताई हुई एक दूसरी जगह के लिए भागे। लाइव तो करना ही था।
छावनी में बदला शहर
श्रीनगर का ये मंजर पिछले रविवार से है और तकरीबन सारा शहर किसी फौजी छावनी-सा ही दिखता है।
क्योंकि राजबाग जैसे ‘पॉश’ माने जाने वाले इलाके में कई लोगों ने कैमरे पर आकर बात करने से मना कर दिया तो हमारे स्थानीय सहयोगी माजिद जहांगीर ने श्रीनगर के पुराने इलाके जाने का आइडिया दिया।
अगला पड़ाव था, श्रीनगर की सबसे मशहूर इमारतों में से एक, हजरतबल दरगाह।
शहर के इस सबसे पुराने इलाके की रिहाइश को छोड़ कर कर लोग बमुश्किल ही जाते हैं।
दरगाह के ठीक बगल वाली सडक़ पर एक बड़ी-सी मेज़ के किनारे बैठे 71 साल के एक बुजुर्ग, मोहम्मद यासीन बाबा, कपड़े तह कर रहे थे। पिछले 28 सालों से वे यहां गर्म कपड़े बेचते रहे हैं, लेकिन उन्हें लगता है कुछ बदला जरूर है और अब यहां गुज़ारा नहीं।
सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय आयोजन
उन्होंने बताया, ‘तब्दीली ये हुई कि जितनी बिक्री पहले थी वो आज नहीं है। संडे को हम बैठते हैं वीकेंड बाजार में। पहले 40-50 कपड़ों की बिक्री हो जाती थी, अब 10-12 की ही होती है। हालात बदल गया, आपको तो सब मालूम है। महंगाई भी बहुत हो गई, जो गैस पहले 800 रुपए की थी वो आज 1200-1300 की हो गई है। हम फुटपाथ में बैठते हैं, कहाँ से निकलेगा? जैसा हमारा हाल है वैसा सबका होता है।’
इस जी-20 बैठक से कश्मीर फिर सुर्खियों में है। यूरोपीय संघ, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश हैं जो भाग ले रहे हैं और चीन, तुर्की और सउदी अरब जैसे देश शामिल नहीं हुए हैं।
दरअसल, 2019 में केंद्र सरकार ने राज्य को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद-370 को खत्म किया था और उसके बाद अब तक का ये सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय आयोजन है।
हो सकता है भारत श्रीनगर में जी-20 की बैठक के ज़रिए दुनिया को यह संदेश दे रहा है कि यहां सब कुछ सामान्य है।
इस बीच श्रीनगर में सुरक्षा का ये आलम है कि जिस जगह बैठक हो रही है उससे कई किलोमीटर दूर ट्रैफिक अकसर रोक दिया जाता है, हर आधे घंटे में रोड्स ब्लॉक कर दी जाती है जिससे कोई सिक्योरिटी का मुद्दा न उठे।
कुछ जानकरों की राय है कि चीजों को पूरे परिवेश में देखने की जरूरत है। वरिष्ठ पत्रकार और ‘चट्टान’ अखबार के सम्पादक ताहिर मोहिउद्दीन को लगता है, ‘वैसे तो अभी बहुत करने को बाकी है, लेकिन जो भी शुरुआत हुई है उसे भी समझना उतना ही जरूरी है।’
‘एक समय में लगा अब कुछ बचेगा नहीं यहां’
उनके मुताबिक, ‘इस इवेंट की अहमियत है, दूसरा इसमें टूरिज़्म का बड़ा पहलू है। हालात यहां काबू में है, मिसाल के तौर पर यहां लंबी हड़तालें होती थीं, मिलिटेंट अटैक होते थे, पथराव होते थे। हमने हमेशा कहा है कि ये ठीक नहीं है कि छह महीने तक सब कुछ बंद रखना, ये इकॉनमी को तबाह कर देगा, तालीम को तबाह कर देगा। तो अगर मौजूदा हालात की बात करें तो शांति ज़रूर है। बच्चे स्कूल जा रहे हैं, ऑफिस खुले हैं और काम चल रहा है।’
केंद्र सरकार का कहना है कि पिछले चार सालों में जम्मू-कश्मीर के विकास के लिए 40,000 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा इस्तेमाल किए जा चुके हैं और अब सुरक्षा चिंताजनक नहीं रही। जम्मू-कश्मीर प्रशासन के मुताबिक, पिछले साल यहां आने वाले सैलानियों ने पौने दो करोड़ से ज़्यादा का रिकॉर्ड भी तोड़ा।
श्रीनगर की डल झील पर पिछले 40 सालों से शिकारा चलाने वाले ग़ुलाम नबी से बात हुई तो पता चला कि उनके जीवन में इस दौरान इतने उतार-चढ़ाव आए कि ‘एक समय में लगा अब कुछ बचेगा नहीं यहां।’
अपने शिकारे पर बुलाकर बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘कश्मीर तो सारा बदल गया, पहले टूरिस्ट था फिर यहां की अफरा-तफरी के माहौल में उनका आना बंद हो गया। इसलिए सब बिल्कुल बैठ गया था। अब जाकर टूरिस्ट फिर आना शुरू हुआ है। अब जाकर काम शुरू हुआ है। रहा सवाल पिछले चार साल के बदलाव का तो हम क्या ही कहें। हमें तो मजदूरी करनी है, शाम को खाना खाने के लिए।’
कैमरे पर आने से हिचक रहे थे लोग
श्रीनगर और आसपास के इलाकों में ये देखने-समझने के लिए कि क्या बदला, क्या नहीं बदला जब आप आम लोगों से बात करते हैं तब समझ में आता है कि ज़्यादातर कैमरे पर आने से हिचकते हैं, वो बात नहीं करना चाहते। वैसे श्रीनगर और आसपास के इलाकों में कुछ बदलाव जरूर दिखता है।
सडक़ें पहले से चौड़ी हो गई हैं, नई इमारतों का आगाज हो रहा है, बाहर के लोग यहां पर रोजगार के लिए भी आ रहे हैं और सबसे ज़्यादा अहम बात ये कि पर्यटक बड़ी तादाद में दिख रहे हैं। अब कितना बदलाव चाहिए था और कितना है इसका सही आकलन लगाने के लिए कुछ साल, मुझे लगता है, और चाहिए।
पुराने श्रीनगर इलाके में मुलाकात एक चने की दाल बेचने वाले गुलजार से हुई जिनके मुताबिक, ‘शुक्र है अल्लाह का कि दिहाड़ी बन रही है। हालात पहले से बेहतर हैं। काम थोड़ा बहुत अच्छा चला है इसलिए उसकी वजह से हालात ठीक हैं।’
हालांकि ये भी कहना जल्दबाजी होगी कि पूरे जम्मू-कश्मीर में चरमपंथी हमले बड़ी तेजी से घटे हैं। अगर कश्मीर घाटी में कमी दिखी है तो जम्मू के कुछ सीमावर्ती इलाकों में इजाफा भी हुआ है, जो कश्मीर से ज़्यादा है। साथ ही सवाल इस पर भी उठे हैं कि इस पूर्व राज्य में एक चुनी हुई सरकार कब लौटेगी। राजनीतिक विश्लेषक और पूर्व प्रोफेसर नूर अहमद बाबा के अनुसार, ‘मान लेते हैं कि जो बीत गया सो बीत गया, लेकिन एक बड़ा सवाल अभी भी है।’
उन्होंने आगे बताया, ‘2019 में जब कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म हुआ तो केंद्र सरकार ने कहा था कि हालात ठीक हैं अब सब अच्छा होगा, डिमॉक्रेसी को पूरी तरह से बहाल किया जाएगा। डिमॉक्रेसी उससे पहले ही सस्पेंड थी यहां। वैसे इस बीच यहां पंचायत स्तर के चुनाव किए गए हैं लेकिन अभी भी प्रशासन दिल्ली का है। वास्तविक टेस्ट तभी होगा जब यहां पूरी तरह से डिमॉक्रेसी रेस्टोर हो जाएगी’।
फिलहाल तो सरकार की मंशा इस अहम बैठक को कश्मीर घाटी में सफलतापूर्वक सम्पन्न कराने की है और आज इसका आखिरी दिन है। इसके बाद का क़दम शायद स्थानीय लोगों का ज्यादा भरोसा जीतने की कोशिश भी हो सकती है। (bbc.com/hindi)
चीफ जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट संविधानसम्मत फॉर्म में लौटने की कोशिश में है। पूरा समाज मोदी के प्रशासनिक आतंक के सामने पस्तहिम्मत है। कई वकील जनता की लड़ाई लडऩे के बदले फीस और सरकारी प्रतिष्ठानों की वकालत जुगाडऩे के फेर में ज्यादा लगते हैं। साधारण लोग तो अंकगणित की इकाइयां समझे जाते मर्दुमशुमारी और वोट बैंक में इस्तेमाल किए जाते हैं। कई जज भी संविधान से बैर किए भी लगते हैं। ऐसे माहौल में जस्टिस चंद्रचूड़ की कोशिशें लोगों को उम्मीद की रोषनी दिखाती भी हैं। अहंकारी निजाम फूंक मारकर उसे बुझा देना क्यों नहीं चाहेगा?
मुश्किल हालातों में भारत का संविधान बना और आजादी मिली। बहुत बड़े जनआंदोलन के कारण अंगरेजों से आजादी मिली। पुरखों का इरादा था कि जन अधिकारों का बाइज्जत अहसास कराया जाए। उन्हें अमल में लाने का जिम्मा सरकार को दिया जाए। भारतीयों को आत्ममुग्ध भले हो, लेकिन उनका बड़ा हिस्सा सांप्रदायिक है। उसे हिन्दू मुसलमान पचड़ा बढ़ाए बिना रोटी हजम नहीं होती। इसीलिए आजाद होता मुल्क नफरत की आरी से चीरकर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान हो गया। मुसलमान सदस्यों ने संविधान सभा में आना कबूल नहीं किया तो हिन्दू सदस्यों का काफी बड़ा बहुमत हो गया। इसी मानसिक घबराहट में मजबूत केन्द्र की अवधारणा संविधान में उभरी। उसका बुनियादी इरादा अन्यथा पूरी तौर पर नागरिक को मजबूत बनाने का था।
अम्बेडकर ने समझाया भले ही केन्द्र सरकार को पहले से ज्यादा मजबूत बल्कि एकाधिकारवादी नस्ल का बना रहे। फिर भी ऐसा करना केवल आपात प्रावधान होगा। राज्यों की स्वायत्तता पूरी तौर पर मजबूत और महफूज रखी जाएगी। यह वायदा बाद की संसदों के कारण हवा में उड़ गया। सांसद और केन्द्र सरकार अधिकारों की लूट-खसोट में गाफिल और आत्ममुग्ध लगातार होते रहे। आज हालत है कि भारत के प्रधानमंत्री को सामंतों और राजाओं से ज्यादा अधिकार और रुतबा मिला हुआ है। संविधान में यह बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई। अब देश में कोई नागरिक केन्द्रीय निजाम के खिलाफ फुसफुसाता भी है। तो उसे सीबीआई, ईडी, इन्कम टैक्स, एनआईए वगैरह की चौकड़ी फुफकार कर डसने दौड़ पड़ती है।
ऐसे माहौल में एक ताजा मामला फिर उठा है। दिल्ली की सत्ताधारी आम आदमी पार्टी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दी कि उसे आधे अधूरे अधिकार संविधान के अनुच्छेद 239 क-क में मिले हैं। उन्हें भी केन्द्र सरकार जजिया कर की तरह वसूले पड़ी है। संविधान के तहत फेडरल लोकतंत्र किस तरह जीवित रहेगा जिसका आष्वासन अम्बेडकर ने दिया था? इसके पहले भी 2018 में ऐसी ही समस्या आने पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने दो टूक कहा था कि मनोनीत उपराज्यपाल को चुनी गई विधानसभा के ऊपर या विकल्प में विधायन या कार्यपालिक अधिकार नहीं दिए जा सकते। उसमें एक पूरक फैसला नायाब बुद्धि के जस्टिस चंद्रचूड़ ने ही लिखा था। एक लोकधर्मी कहावत है मुर्गी की डेढ़ टांग। भारत की राजनीति में उसका मतलब है एक टांग केन्द्र सरकार और आधी टांग दिल्ली (और तमाम केन्द्र शासित प्रदेशों) के लेफ्टिनेंट गवर्नर की। एक चौकड़ी बन जाती है। उसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, लेफ्टिनेंट गवर्नर और केन्द्रीय कानून मंत्री आदि वक्तन बावक्तन अपनी भूमिका तलाषते रहते हैं। दिल्ली में यही वर्षों से हो रहा है।
अब आम आदमी पार्टी की सरकार को फिर सुप्रीम कोर्ट में दस्तक देनी पड़ेगी। दिक्कत है कि संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची की प्रविष्टि क्रमांक 41 में विधानसभा को अधिकार देते लिखा था ‘‘राज्य लोकसेवाएं, राज्य लोकसेवा आयोग, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बेरुख केन्द्र सरकार ने अध्यादेश जारी कर राज्य की सेवाओं को अनुच्छेद 239 क-क के तहत संशोधित कर दिया है कि वे अधिकार अब केन्द्र सरकार के तहत हो जाएंगे। उनमेंं भी फैसला आखिरकार लेफ्टिनेंंट गवर्नर का ही मान्य होगा। बराएनाम एक दिखाऊ कमेटी बनाई जाएगी। उसमें मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और एक और सचिव होंगे। वह बहुमत से फैसला कर सकती है। मुख्यमंत्री के तहत काम करने वाले मुख्य सचिव और उनके तहत काम करने वाले एक और सचिव मिलकर मुख्यमंत्री की पसंद या सिफारिश का खुलेआम मजाक उड़ा सकते हैं और सुझाव खारिज कर सकते हैं।
यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट को संसद को मिली विधायी शक्तियों (मसलन अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन) को कमतर करने का अधिकार नहीं है। लेकिन किन कारणों से अध्यादेश लाया गया है और उससे संविधान की भावनाओं का क्या रिश्ता है। ऐसे कई पेचीदे सवालों को सुलझाते कई साल गुजर जाएंगे। नरेन्द्र मोदी की सरकार को संविधान से क्या लेना देना? इस सरकार में अभी तक बीफ भक्षी कानून मंत्री तो अब पापड़ प्रचारक के मंत्री के जिम्मे संविधान की इबारतें हैं। यह सरकार तो अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए संविधान की बुनियाद को ही खोदकर उसमें सुरंग बना लेती है। उसे बंकर भी समझ सकती है। सुप्रीम कोर्ट के जज तो संविधान के लिए एक षरीफ-संकुल है। वे बहुत नीचे नहीं गिर सकते। जिसके लिए केन्द्र सरकार उसे चुनौती या आमंत्रण दे रही होगी। केजरीवाल ने ठीक किया है कि ज्यादा से ज्यादा विपक्षी पार्टियों को इक_ा कर यदि अध्यादेश राज्यसभा में आता है। तो उसको पारित नहीं होने दिया जाए। इस मामले में सभी विपक्षी पार्टियों को सडक़ पर आकर आंदोलन करना चाहिए।
भारत की सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों के सबसे बड़े फैसले केशवानन्द भारती में धर्मनिरपेक्षता को संविधान का बुनियादी ढांचा कहा गया है। उसका जवाब भाजपा की केन्द्र सरकार बागेष्वर धाम बाबा जैसे लोगों को समाज की भीड़ में छोडक़र ताली बजाती है। भारत की आजादी के वक्त कश्मीर की जनता को वचन दिए गए थे। उनका मजाक उड़ाते कश्मीर का राज्य का ओहदा घटाकर केन्द्र शासित प्रदेश कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट कहता रहे नफरती भाषण नहीं चलेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री को ही उसके बिना बोलने की आदत कहां है? मजहब के आधार पर चुनाव नहीं होगा लेकिन प्रधानमंत्री तो खुद मुष्टिका प्रहार करते कर्नाटक में मतदाताओं को खुल्लमखुल्ला बरगलाते रहे कि जोर से बजरंगबली की जय बोलो और फिर वोट के लिए बटन दबा दो। उनसे कांपता, सहमता केन्द्रीय चुनाव आयोग गांधी जी के तीन बंदरों से सीख चुका है कि न तो सरकार की बुराई देखो। न सरकार की बुराई सुनो और न सरकार की बुराई करो। ऐसे माहैाल में यदि आम आदमी पार्टी लोकतंत्र की हिफाजत के लिए लडऩे बढ़ती है। तो उसमें बाकी पार्टियों को वोट बैंक की गणित लगाने के बदले सडक़ पर आकर जनता का साथ देना चाहिए।
कनक तिवारी
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जिद और पहल से लोकधन का अनापषनाप खर्च कर नया संसद भवन, सेन्ट्रल विस्टा बन गया है। उसका उद्घाटन या लोकार्पण प्रधानमंत्री 28 मई को करेंगे। संयोग खोजा गया कि उस दिन विनायक दामोदर सावरकर का जन्मदिन और देष के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का अंतिम संस्कार का दिन है। संसद के नए भवन से सावरकर का रिष्ता इतिहास थककर बेहोश हो जाएगा, तो भी ढूंढ़ नहीं सकेगा। संसद का सबसे पहला और लम्बा रिष्ता तो नेहरू से है। फिर भी बेतुका संयोग ढूंढ़ा गया। संविधान के नज़रिए से नए संसद भवन के लोकार्पण का अधिकार और दायित्व किसका है? संविधान के अनुच्छेद 1 के मुताबिक भारत अर्थात् इंडिया राज्यों का संघ है। भौगोलिक, राजनीतिक और संवैधानिक इकाई भारत राष्ट्रीय एकता में परिभाषित है। अनुच्छेद 52 के अनुसार भारत का एक राष्ट्रपति होगा। अनुच्छेद 53 के अनुसार संघ अर्थात् भारत की कार्यपालिका षक्ति राष्ट्रपति में निहित है। इस अधिकार का प्रयोग राष्ट्रपति संविधान के मुताबिक खुद या मातहत अधिकारियों के ज़रिए करेगा। ‘अधिकारी‘ षब्द की परिभाषा का व्यापक अर्थ यही है कि अनुच्छेद 74 के अनुसार केन्द्रीय मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को सलाह और सहायता देने के लिए मुकर्रर है। मंत्रिपरिषद् का मुखिया प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति द्वारा ही नियुक्त होगा। अनुच्छेद 53 (2) के अनुसार देष के सुरक्षा बल भी राष्ट्रपति के अंतर्गत हैं।
संसद से राष्ट्रपति का रिश्ता तलाशने अनुच्छेद 79 मदद करता है। वह संसद की परिभाषा तय करता है ‘संघ के लिए एक संसद होगी। वह राष्ट्रपति और राज्यसभा तथा लोकसभा से मिलकर बनेगी। ‘बिल्कुल साफ है राष्ट्रपति संसद का अविभाज्य हिस्सा हैं। राष्ट्रपति को अलग करें तो संसद बन ही नहीं सकती। अनुच्छेद 80 में राष्ट्रपति को अधिकार है कि साहित्य, विज्ञान, कला और समाजसेवा के नामचीन लोगों को राज्यसभा के लिए मनोनीत कर सकें। वे न केवल संसद का बुनियादी हिस्सा हैं, बल्कि व्यक्तियों को मनोनीत करने का भी उन्हेंं अधिकार है। अनुच्छेद 85 कहता है कि राष्ट्रपति समय समय पर संसद के दोनों सदनों को ऐसे समय और स्थान पर, जो वह ठीक समझें, अधिवेषन के लिए आहूत करें। उसके अभाव में दोनों सदन कार्यसंचालन ही नहीं कर सकते। अनुच्छेद 86 के तहत राष्ट्रपति संसद के किसी एक या दोनों सदनों के सामने एक साथ अभिभाषण कर सकेगा और संसद सदस्यों की हाजिरी की अपेक्षा कर सकेगा। लोकसभा के पहले चुनाव के बाद सत्र की षुरुआत में राष्ट्रपति दोनोंं सदनों में अभिभाषण करेगा और संसद को ऐसा करने के कारण बताएगा। चर्चा के विषयों का निर्धारण भी राष्ट्रपति ही करेगा। संविधान में राष्ट्रपति की यह भूमिका असाधारण रूप से महत्वपूर्ण है। उसकी प्रधानमंत्री के कारण हेठी की जा रही है। राज्यसभा में सभापति के स्थान पर किसी भी सदस्य को राष्ट्रपति ही मनोनीत कर सकता है। संसद के कार्यरत नहीं होने पर राष्ट्रपति को अनुच्छेद 123 के अनुसार अधिकार है कि जरूरी ऑर्डिनेंस या अध्यादेष जारी कर सके। ऐसे अध्यादेष अधिकतम छह माह की अवधि के अंदर संसद द्वारा पुष्ट किए जाएं। इस तरह संसद की आपात षक्ति भी राष्ट्रपति में निहित है।
इन प्रावधानोंं के रहते सेन्ट्रऊल विस्टा (नए संसद भवन) का उद्घाटन या लोकार्पण कोई अन्य कैसे कर सकता है? संवैधानिक प्रावधान एक व्यक्ति की दमित महत्वाकांक्षा के कारण असंवैधानिक किया जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी को संवैधानिक, पारंपरिक या नैतिक अधिकार नहीं है कि संविधान के प्रावधानों के खिलाफ निजी महत्वाकांक्षा को संसदीय कर्म पर लाद दें। प्रधानमंत्री लोकसभा या राज्यसभा के सदस्य हो सकते हैं। कोई भी सदस्य सदन के सदस्यों के बहुमत से प्रधानमंत्री बन सकता है। प्रधानमंत्री नहीं। लोकसभा या राज्यसभा अध्यक्ष अपने अपने सदन का संचालन करता है। लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 और 1951 के तहत पंजीबद्ध राजनीतिक पार्टी बहुमत के आधार पर सदन के अपने नेता का चुनाव करती है। जो प्रधानमंत्री बन सकता है। यही नरेन्द्र मोदी की संवैधानिक सकूनत है। संविधान सीधे देश का प्रधानमंत्री नहीं चुन सकता। राष्ट्रपति पद पर निर्वाचन लेकिन संसद और विधानसभा सदस्यों के मतदान से ही हो सकता है। अनुच्छेद 75 के तहत राष्ट्रपति ही प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है। फिर प्रधानमंत्री की सलाह पर अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करेगा। मनोरंजक है कि नियुक्तिकर्ता राष्ट्रपति की सेन्ट्रल विस्टा के कार्यकम में आने की भी स्थिति नहीं है। उनके द्वारा नियुक्त प्रधानमंत्री लोकार्पण कार्यक्रम के सर्वेसर्वा हैं। क्या संसद प्रधानमंत्री के सामने कमतर संवैधानिक संस्था है? संसद के सबसे बुनियादी और अविभाज्य संवैधानिक अधिकारी संसद के लोकार्पण कार्यक्रम में बेगैरत तमाषबीन बना दिए जाएं! संविधान सभा ने राष्ट्रपति के बिना संसद की कल्पना ही नहीं की। उनकी गैरमौजूदगी में संसद का गठन ही नहीं हो सकता। राष्ट्रपति को हटाने संविधान में अनुच्छेद 61 के तहत महाभियोग का प्रावधान है। प्राथमिक आरोप भी संसद में ही लगाया जाएगा और फिर प्रक्रिया का पालन करते उपलब्ध और उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से ही राष्ट्रपति को हटाया जा सकता है। अनुच्छेद 62 के अनुसार राष्ट्रपति की पदावधि समाप्ति होने से रिक्ति को भरने अगले राष्ट्रपति का निर्वाचन ऐसी रिक्ति होने से पहले से ही पूरा कर लिया जाएगा। इसके बरक्स प्रधानमंत्री के समर्थक लोकसभा के सदस्य बहुमत से पार्टी की निजी बैठक में हटा सकते हैं। जिस पार्टी का प्रधानमंत्री सदस्य है, उस पार्टी का अध्यक्ष या संचालक मंडल संसद का सदस्य नहीं भी है, तब भी ऐसी बैठकें करके प्रधानमंत्री को हटाने का प्रस्ताव पारित कर सकता है। संविधान में कई अनिवार्य प्रावधान हैं जिनमेंं राष्ट्रपति पद की उपस्थिति, अनिवार्यता, निरंतरता और संवैधानिकता को लेकर संदेह हो ही नहीं सकता।
संविधान सर्वोपरि है। सांसदों, मंत्रियों बल्कि राष्ट्रपति पर भी संविधान की श्रेष्ठता असंदिग्ध है। जो अधिकारी संवैधानिक आचरण नहीं करेगा। वह दरअसल अपने पद पर नहीं ही रह सकता। केन्द्रीय मंत्रियों के लिए संविधान की तीसरी अनुसूची में षपथ या प्रतिज्ञा का प्रारूप है। उसके अनुसार उन्हें विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखना जरूरी है। समझ नहीं आता कि राष्ट्रपति को उनकी संवैधानिक हैसियत और जिम्मेदारी से बेदखल करते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किस हैसियत में सेन्ट्रल विस्टा के नये भवन का संवैधानिक लोकार्पण करते संवैधानिक निष्टा कैसे कायम रख रहे हैं? संसद में राष्ट्रपति की अनुमति के बिना संसदीय कार्य व्यवहार नहीं हो सकता और न संवैधानिक आदेष पारित हो सकता है। संविधान की सातवीं अनुसूची में केन्द्र की सूची के 97 विषय हैं। उनमेंं संसद् कानून बना सकती है। सभी विषयों में बने कानून तब तक लागू नहीं हो सकते, जब तक राष्ट्रपति हस्ताक्षर कर अनुमति नहीं दें। प्रदेशों में यही स्थिति राज्यपाल की है, लेकिन राज्यपाल की नियुक्ति भी राष्ट्रपति ही करते हैं।
ऐसी स्थिति मेंं प्रधानमंत्री की निजी, राजनीतिक, असंवैधानिक महत्वाकांक्षा संविधान की इबारतों और उसके कालजयी संदेश के ऊपर चस्पा कर दी गई है। दुनिया के संसदीय इतिहास में इस तरह का गड़बड़झाला न तो कभी हुआ और न ही कोई संसदीय प्रजातंत्र में विष्वास रखने वाला देश ऐसा घटिया आचरण करने की हिमाकत करेगा। राष्ट्रपति की गैर मौजूदगी या उन्हें बेदखल कर संसद भवन का लोकार्पण संसद भवन का लोकार्पण कैसे कहलाएगा? अभी का लोकार्पण एक मकान का लोकार्पण है। उसमें राष्ट्रपति की संवैधानिक मौजूदगी हो जाने पर ही उसे संसद कहा जा सकेगा। ‘मोदी भारत है, भारत ही मोदी है, का नारा लगाने पर भी प्रधानमंत्री संसद् नहीं हैं, लेकिन राष्ट्रपति तो परिभाषाधारी संसद हैं।
-अमिता नीरव
जब मैं अखबार में आई थी, तब तक हमारे अखबार में लगभग सारा काम मैनुएल ही होता था। हम मिनिएचर प्रिंट के पिछले खाली हिस्सों में हाथ से खबरें लिखा करते थे, यदि किसी खबर की कॉपी अच्छी होती थी तो हम सिर्फ इंट्रो बनाकर कॉपी में ही एडिट कर दिया करते थे।
हमारे ही सामने कंप्यूटरीकरण शुरू हुआ था। जब हमें कंप्यूटर मिला तो फिर काम करते-करते ही टाइपिंग भी सीखनी थी। चूँकि अखबार के अपने फॉण्ट थे औऱ उस वक्त तक हिंदी टाइपिंग के मामले में तकनीकी विकास धीमा भी था और कुछ अपनी भी अनभिज्ञता थी तो जो अखबार का की-बोर्ड था हमने वही सीखा था।
अखबार के ही एक सहकर्मी थे, जिनसे हर दिन बात हुआ करती थी। एक दिन उन्होंने कहा कि तुम्हारे अंदर इतनी प्रतिक्रिया है, इतने विचार है तो तुम ब्लॉगिंग क्यों नहीं शुरू करती? तब तक रीजनल से फीचर में ट्रांसफर हो गई थी, तो इंटरनेट की उपलब्धता में संस्थान ने उदारता बरती थी।
तकनीक की ज्यादा समझ नहीं थी, जब मैंने उन्हें बताया तो उन्होंने मुझे ब्लॉग बनाकर दिया। मगर मसला ये आया कि अखबार में हम जिस की-बोर्ड का इस्तेमाल करते थे, उससे ब्लॉग पर नहीं लिखा जा सकता था। इधर-उधर से सब जगह से पता कर लिया।
सबने यही बताया कि यदि ब्लॉग लिखना है तो नया की-बोर्ड सीखना ही होगा। फिर से समस्या आई कि दो-दो की-बोर्ड को निभाएँगे कैसे। एक जो अखबार के लिए सीखा और दूसरा जो ब्लॉग के लिए सीखना होगा। तब आईटी के लड़कों ने बताया कि ब्लॉगिंग के लिए सीखा की-बोर्ड अखबार में भी काम दे देगा।
राहत हुई। नया की-बोर्ड सीखना शुरू किया। जब पहली बार टाइपिंग शुरू की थी तो हफ्ते भर में सीख लिया था और उसके अगले ही हफ्ते में ठीक-ठाक काम लायक स्पीड भी आ गई थी। तो लगा कि उसी स्पीड से नया की-बोर्ड भी सीख लिया जाएगा।
अनुमान पूरी तरह से गलत सिद्ध हुआ। नया की-बोर्ड सीखने में लगभग तीन महीने लग गए। हाँ स्पीड एक हफ्ते में पा ली। मगर सीखने में उम्मीद से ज्यादा वक्त लगा। बाद में समझ आया कि सीखने में उतना वक्त नहीं लगा। हुआ ये कि पहले जो सीखा था पहले उसे अनलर्न करना पड़ा तो अनलर्न करने में ज्यादा वक्त लगा।
मैं जो भी जानती हूँ, उसे मान लेने के बाद भी उस पर संदेह करती हूँ। अपने थोड़े से अनुभवों से जाना है कि कुछ भी जान लेना अंतिम रूप से जान लेना नहीं है। अंतिम रूप से कुछ भी जाना नहीं जा सकता है, इसलिए जो भी जानती-समझती हूँ उस पर संदेह भी करती हूँ।
कितनी ही बार ऐसा हुआ कि जिस जानने के आधार पर मैं कोई विचार बनाती हूँ, कुछ वक्त बाद वो आधार ही मुझे गलत लगने लगता है। इस तरह से बिना मेरी समझ के मेरी लर्निंग और अनलर्निंग की प्रक्रिया चलती रही है औऱ चलती रहती है।
अनलर्न शब्द अभी कुछ वक्त पहले ही सुना था। इस प्रक्रिया से चीजों को समझ रही हूँ फिर भी इस शब्द ने मुझे एकबारगी ठिठका दिया, क्योंकि हमने सीखना ही सीखा है, सीखे हुए को भूलने को तो हम यह मानकर चलते हैं कि वो तो होना ही है। मगर यह भूलना ऐसा नहीं है कि जिसे हम चाहते हैं, यह बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है, हम वो भी भूल जाते हैं, जो हमें याद रखना चाहिए।
इतिहास और विज्ञान यह बताता है कि दरअसल हमारा व्यक्तित्व एक परिवेश में विकसित होता है, हरेक व्यक्ति अलग तो होता है, लेकिन उसके अलग होने में उसके परिवेश की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। हमने यह जाना है कि इंसान की विशिष्टता उसके भूगोल और फिर उसके परिवेश से तय होती है।
फिर भी हम तमाम तरह के विभाजनों को लेकर रूढ़ हैं, क्योंकि हममें से हरेक ने अपने बचपन से उन विभाजनों को जाना है और उसकी सोशल हैरार्की को भी जाना है। हुआ तो यह भी कि कुछ दो-चार लोगों के अनुभव उदाहरण के तौर पर पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाए गए और उन्हें सिद्धांत मान लिया गया।
जैसे कि ब्राह्मण विद्वान होते हैं, राजपूत साहसी, महिलाएँ निर्बुद्धि होती हैं, पढ़ी लिखी महिला खुद को ज्यादा स्मार्ट समझती है, वैश्य की व्यापारिक बुद्धि होती है, शूद्र कम योग्य होते हैं, मुसलमान धोखेबाज होते हैं, अंग्रेजी बोलने वाले समझदार होते हैं, क्रिश्चियन सभ्य होते हैं, आदि-आदि।
हम इन सामान्यीकरणों को सिद्धांत की तरह स्वीकार करते हैं और उसे जस-का-तस मान लेते हैं। कई बार हम लोगों से खुद ही बचने लगते हैं और कई बार हमारे पूर्वग्रह हमें स्थापित मान्यता से अलग को अपवाद मानने की लिए प्रेरित करते हैं। धीरे-धीरे ये सामान्यीकरण सिद्धांत का रूप ले लेते हैं और समाज के विभाजन सख्त से सख्ततर होते चले जाते हैं।
यदि कोई इन्हें चुनौती देता है तो उसे विरोधी सिद्ध कर उसकी बात को अमान्य कर दिया जाता है। जबकि बदले हुए वक्त में इस किस्म का सामान्यीकरण न सिर्फ हानिकारक है, बल्कि बहुत हद तक क्रूरता और असंवेदनशीलता की सृष्टि करता है।
हममें से ज्यादातर लोग स्थापित मान्यताओं को इस कट्टर तरीके से लर्न करते हैं कि उनके पास अनलर्न करने की गुंजाइश ही नहीं बची रहती है। अभी अनलर्निंग को गूगल सर्च कर रही थी तो उसका अर्थ देखकर चौंक गई। मैं जिस दिशा में इसे समझ रही थी, अर्थ ठीक-ठीक उसी दिशा में ले जा रहा है।
गूगल बता रहा है कि, The more you learn about things – be they true or not- the more rigid and the more we compartmentalize our reality. एक मोटी समझ कहती है कि यदि कोई पात्र ऊपर तक भरा हुआ है तो उसमें यदि कुछ और डाला जाएगा तो वह बाहर ही गिरेगा। हमारा दिमाग भी ऐसा ही है।
अनलर्न करना, असल में लर्न करने का महत्वपूर्ण हिस्सा है।