विचार/लेख
-अमिताभ श्रीवास्तव
इन दिनों विकास दुबे की कहानियां पढ़-सुनकर आप थक गए होंगे। हो सकता है, आप इससे भी इन दिनों इत्तफाक नहीं रख रहे हों कि इस घटनाक्रम से नाराज ब्राह्मणों को मनाने के लिए योगी सरकार से जुड़े कद्दावर नेता-अफसर यूपी के 55 ब्राह्मण विधायकों की कुछ ज्यादा ही खोज-खबर रख रहे हैं। इसलिए आपके लिए हाजिर है यूपी की ही एक और कथा। यह शेर सिंह राणा की है। अगर आप सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं तो आपने यू-ट्यूब पर उसके वीडियो भी देखे होंगे। पर इसमें इतने ट्विस्ट हैं कि आपकी आंखें अब भी चौड़ी हो जाएंगी।
शेर सिंह राणा ने डाकू से सांसद बनी फूलन देवी की 26 जुलाई, 2001 को दिल्ली में संसद मार्ग-स्थित उनके सरकारी आवास में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी थी। दिल्ली और उत्तराखंड की पुलिस दो दिनों तक एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद राणा को नहीं पकड़ पाई। अचानक मीडिया में सूचना आई कि वह देहरादून में प्रेस क्लब में आत्मसमर्पण करेगा। एक दिन पहले ही उसने एक हिंदी दैनिक के रिपोर्टर को साफ कहा था कि वह प्रेस क्लब में आत्मसमर्पण इसलिए करना चाहता है, क्योंकि वह नहीं चाहता कि पुलिस उसे मुठभेड़ में मार डाले।
मैं उस वक्त एक अंग्रेजी दैनिक के लिए देहरादून में काम कर रहा था। हम लोग प्रेस क्लब पहुंचते, उससे पहले ही पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया था। लेकिन इस बारे में पुलिस ब्रीफिंग के लिए हम लोगों को दो घंटे तक लटकाए रखा गया। बाद में पता चला कि राणा को दिल्ली की स्पेशल सेल की टीम ले गई। उसे तिहाड़ जेल में रखा गया। लेकिन यह भी कम रोचक प्रसंग नहीं है कि इस मुद्दे पर कम तू-तू मैं-मैं नहीं हुई कि राणा को किसने पकड़ा- दिल्ली पुलिस ने या उत्तराखंड पुलिस ने। वैसे, सच्चाई तो यही है कि राणा ने खुद ही मीडिया को यह कहते हुए बुलाया था कि वह आत्मसमर्पण करना चाहता है।
विकास और उसके साथियों के मामले में तो ब्राह्मण कार्ड उन लोगों को मार गिराए जाने के बाद खेला जा रहा, राणा अपना राजपूत कार्ड शुरू से खेलता रहा है। उसने पुलिस और मीडिया से यही कहा कि चूंकि फूलन देवी ने डकैत रहते हुए ऊंची जातियों के लोगों की हत्या की, इसलिए उसने इनका बदला लेने के लिए फूलन की हत्या की। वह 2004 में तिहाड़ जेल से फरार हो गया। बाद में लिखी किताब ‘जेल डायरीः तिहाड़ से काबुल-कंधार तक’ में उसने दावा किया है कि खतरों से जूझते हुए वह फर्जी पासपोर्ट पर बांग्लादेश और पाकिस्तान होते हुए अफगानिस्तान में उस जगह पर पहुंचा जहां पृथ्वीराज चौहान का शव दफनाया गया है। उसने इस किताब में दावा किया है कि मुसलमान उस जगह पर अब भी जूते से ठोकर मारते हैं और उसके बाद बगल की मस्जिद में जाते हैं। राणा ने यू-ट्यूब पर एक वीडियो डालकर यह दावा भी किया हुआ है कि उसने कैसे अपनी जान जोखिम में डालकर चोरी-छुपे वहां से मिट्टी जमा की और उसे भारत लेकर आया। इस नाम पर उसने अपने समर्थकों के साथ मिलकर रुड़की में एक स्मारक भी बनवाया है।
राणा की किताब ने प्रोड्यूसर-डायरेक्टर-एक्टर अजय देवगन को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने पृथ्वीराज चौहान पर एक फिल्म बनाने की घोषणा कर दी और इसमें राणा का रोल खुद करने की इच्छा जताई। एक अखबार ने लिखाः ‘राणा के रोचक जीवन ने अजय का ध्यान खींचा। राणा तिहाड़ से फरार हुआ और उसने 2006 में कोलकाता में गिरफ्तारी से पहले 12वीं शताब्दी के शासक पृथ्वीराज चौहान के अवशेष अफगानिस्तान से लाने का दावा किया है।’
वैसे तो राणा ने अपनी किताब में बताया है कि वह कोई पेशेवर अपराधी नहीं है और उसने फूलन देवी से पहले या बाद में किसी की हत्या नहीं की है लेकिन सच्चाई यह है कि वह शातिर मिजाज तो रहा ही है। उसकी गिरफ्तारी के बाद एक डीजीपी ने मुझे देहरादून में बताया कि राणा की गिरफ्तारी से पहले ही एक व्यक्ति उसके नाम से गिरफ्तार होकर जेल में बंद था। उस अधिकारी ने कहाः ‘हम तो इस बारे में नहीं जान पाते। वह तो एक सतर्क इन्सपेक्टर ने इसका खुलासा कर दिया। उसने टीवी पर शेर सिंह राणा की तस्वीर देखी, तो उसने कहा कि अगर राणा यह है, तो फिर इसी नाम से हरिद्वार जेल में कैद व्यक्ति कौन है।’ खैर।
करीब दस साल की सुनवाई के बाद कोर्ट ने अगस्त, 2014 में राणा को आजीवन कारावास की सजा और एक लाख रुपये दंड का आदेश दिया। उसने इसके खिलाफ अपील की है और इसी वजह से वह जमानत पर जेल से बाहर है। उसने राष्ट्रवादी जनलोक पार्टी (आरजेपी) बना ली है। इस पार्टी ने अभी हाल में हरियाणा विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार भी उतारे। राणा का दावा है कि उसकी पार्टी को इतने वोट मिले कि उसने वहां किसी को बहुमत नहीं लाने दिया। वह यहां-वहां घूमता रहता है और उसकी पार्टी ने किसी-न-किसी के साथ गठबंधन कर मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली में भी चुनाव लड़ा।
मध्यप्रदेश के एक पूर्व विधायक की बेटी से उसने 2018 में शादी कर ली और उसे डेढ़ साल की बेटी है। शादी के बाद उसने मीडिया से कहाः ‘अब मैंने सबकुछ भगवान पर छोड़ दिया है। मुझे नहीं पता कि मेरे मामले के निबटारे में कितना वक्त लगेगा।’(navjivan)
-सुहैल ए शाह
पूरे देश में कोरोना वाइरस के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं और जम्मू-कश्मीर (जो कि अब एक केंद्रशासित राज्य है) में भी इन मामलों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. यहां अब तक 15 हजार से ज्यादा कोरोना वाइरस पॉज़िटिव मामले दर्ज हो चुके हैं, जिनमें से करीब 12 हजार मामले कश्मीर घाटी के 10 जिलों में ही हैं. करीब पौने दो सौ लोगों ने इस बीमारी से अभी तक जम्मू-कश्मीर में अपनी जान गंवाई है.
केंद्र सरकार ने जब अनुच्छेद-370 को अप्रभावी करने और जम्मू-कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश में बदलने का निर्णय लिया था तब उसकी ओर से कहा गया था कि इससे बेहतर शासन को सुनिश्चित करके राज्य का सही मायनों में विकास किया जा सकेगा. जानकारों के मुताबिक कोरोना संकट के समय मोदी सरकार के पास यह दिखाने का अवसर था कि अगस्त 2019 में उसने जो कहा था वह सही था. कहा गया कि अगर कोविड-19 के समय केंद्र सरकार थोड़ी सूझ-बूझ के साथ काम करेगी तो कश्मीर में मौजूद अविश्वास के माहौल को थोड़ा ठीक किया जा सकता है. लेकिन अगर राज्य के जमीनी हालात को आज देखें तो कश्मीर घाटी के लोग पिछले चार महीनों में नई दिल्ली के पास नहीं बल्कि उससे और दूर होते दिखाई देते हैं.
अगर कश्मीर घाटी में रहने वाले लोगों से बात करके उनके आक्रोश को समझने की कोशिश की जाये तो इस मुश्किल वक्त में भी दिल्ली से उनका इतना नाराज होना उतना चौंका देने वाली बात भी नहीं लगती है.
5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर राज्य में अभूतपूर्व लॉकडाउन के बीच देश के गृह मंत्री, अमित शाह ने संविधान के अनुच्छेद-370 को अप्रभावी बनाने का ऐलान किया. यह अनुच्छेद पहले जम्मू-कश्मीर को भारत में एक विशेष स्थिति दिया करता था. लेकिन इसके बाद से देश का संविधान पूरी तरह से जम्मू-कश्मीर पर लागू हो गया.
इसके साथ-साथ भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर राज्य के दो टुकड़े करके लद्दाख और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र प्रशासित राज्यों में तब्दील कर दिया. इसके बाद कश्मीर घाटी में छह महीने से ज़्यादा तक कर्फ्यू जैसी स्थिति बनी रही, दो महीने से ज़्यादा समय तक यहां पर फोन पूरी तरह से बंद रहे, छह महीनों से ज़्यादा समय तक कश्मीर के ज्यादातर राजनेता हिरासत में रहे (इनमें से कई अभी भी बंद ही हैं) और राज्य में 4जी मोबाइल इंटरनेट सेवा अभी तक बंद ही है.
“इस सब के बीच जब कोरोना वाइरस का आगमन हुआ तो लोगों ने यह सोचा कि शायद इस वजह से भारत सरकार की विशेष स्थिति को खतम करने की कोशिशों और उसके स्वभाव में थोड़ी सी नरमी देखने को मिलेगी. लेकिन हुआ बिलकुल उल्टा. उसकी गतिविधियां कोरोना वाइरस वाले लॉकडाउन के बीच और तेज़ हो गयीं” दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविध्यालय में कश्मीर पर अनुसंधान कर रहे, बशारत अली, सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं. अली के मुताबिक भारत सरकार राज्य में कोरोना वाइरस की वजह से हुए लॉकडाउन को कई तरीकों से अपने हितों को साधने के लिए इस्तेमाल कर रही है.
डोमिसाइल सर्टिफिकेट (मूल निवासी प्रमाण पत्र):
मई के महीने में कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर के नेतृत्व वाले प्रशासन ने लोगों को डोमिसाइल सर्टिफिकेट जारी किए जाने की घोषणा की. नए नियमों के अनुसार कोई भी ऐसा व्यक्ति जो जम्मू-कश्मीर में 15 साल से अधिक समय के लिए रहा हो, या राज्य में सात साल के लिए पढ़ा हो या फिर उसने दसवीं, बारहवीं की परीक्षा यहां से पास की हो, वह इस प्रमाण पत्र का हकदार हो जाता है.
पहले ऐसा नहीं था. पहले अनुच्छेद 35 ए के मुताबिक जम्मू-कश्मीर की विधानसभा यह तय करती थी कि कौन इस राज्य का मूल निवासी है और कौन नहीं. लेकिन अब लोगों को डोमिसाइल सर्टिफिकेट ऑनलाइन मिलने लगा है.
“यहां के लोगों को यह तो पता था कि अनुच्छेद-370 हटने के बाद यह सब ज़रूर होगा, लेकिन जिस वक़्त पूरा देश कोरोना वाइरस से लड़ रहा है उस वक़्त ऐसा करना लोगों के मन में भारत सरकार के इरादों को लेकर कई सवाल खड़े कर देता है” श्रीनगर में काम कर रहे एक वरिष्ठ पत्रकार सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं. वे कहते हैं कि ऐसे समय पर जब कश्मीर में इंटरनेट अभी भी पूरी तरह से बहाल नहीं हुआ है और कोरोना वाइरस के चलते लोगों को अपने घरों से निकलने की अनुमति नहीं है यह निर्णय लेना साफ-साफ दर्शाता है कि भारत सरकार का इरादा सिर्फ जम्मू-कश्मीर की ‘डेमोग्राफी’ को बदलना है.
“जब पूरा प्रशासन एक बीमारी के खिलाफ लड़ने में व्यस्त हो, ऐसे समय पर तहसीलदारों पर यह दबाव डालना कि डोमिसाइल सर्टिफिकेट देने में देर लगने की सूरत में उन पर 50,000 रुपए का जुर्माना लगेगा और क्या दिखाता है” वे पत्रकार नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर सत्याग्रह को बताते हैं.
आम लोगों से बात करें तो उनका भी यही मानना है.
“हमारे पास इंटरनेट नहीं है, ऑनलाइन अप्लाई करने के लिए, हम बाहर नहीं जा सकते लॉकडाउन के चलते. और बाहर के लोग, जिनमें बाहर के ही नौकरशाह लोग शामिल हैं, आराम से इस सर्टिफिकेट के लिए ऑनलाइन अप्लाई कर रहे हैं” दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले से आने वाले 70 साल के एक दुकानदार ग़ुलाम मुहम्मद भट, ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.
इस बात पर मई, जून के महीनों में कश्मीर के लोगों में खूब चर्चा हुई. अब बात पुरानी हो गयी है, लेकिन यह भाव कि भारत सरकार कश्मीर के लोगों को दोयम दर्जे का नागरिक समझती है पुराना नहीं हुआ है. वह अब थोड़ा और मजबूत हो गया है और उसके सिर्फ यही एक कारण नही है.
cartoon credit : Greater Kashmir
पर्यटन, अमरनाथ यात्रा और बाहर के मजदूर
हाल ही में कोरोना वाइरस के बढ़ते हुए मामलों के चलते कश्मीर में प्रशासन ने फिर से लॉकडाउन घोषित कर दिया. कई जिलों में दफा-144 लागू कर दी गई और लोगों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जाने पर रोक लगा दी गयी. श्रीनगर, अनंतनाग, पुलवामा और कई अन्य जिलों में सड़कें बंद कर दी गयीं और उन पर सुरक्षा बलों की तैनाती बढ़ा दी गयी, ताकि लोग ज़्यादा लोग एक जगह से दूसरी जगह न जा सके.
प्रशासन के इन फैसलों का सब, हिचकिचाते हुए ही सही, पर स्वीकार कर रहे थे. लेकिन तभी प्रशासन के कुछ और निर्णय सामने आए जिन्होंने कश्मीर के लोगों में पहले से ही पनप रहे संदेह को और गहरा कर दिया. इसके बाद कश्मीर में लोग पूछ रहे थे कि अगर वे बाहर नहीं जा सकते, दुकानें नहीं खोल सकते, अपने काम काज पर नहीं जा सकते तो अमरनाथ यात्रियों को राज्य में आने देना कितना बुद्धिमानी का काम है.
“मेरी दुकान पिछले लगभग एक साल से बंद ही पड़ी है. मैं अब इसे खोलने की कोशिश भी नहीं कर रहा हीं क्यूंकि महामारी फैली हुई है. लेकिन क्या महामारी के बीच अमरनाथ यात्रा की इजाज़त देना सही है?” अनंतनाग जिले के पहलगाम में किराने की दुकान चलाने वाले, अली मुहम्मद शाह पूछते हैं.
हालांकि राज्य में कोरोना वायरस की स्थिति को देखते हुए श्री अमरनाथ बोर्ड ने 21 जुलाई को एक बैठक कर इस साल की यात्रा स्थगित करने का फैसला ले लिया है, लेकिन इससे पहले स्थानीय लोगों के मन में जो भाव आ गया था वह शायद अभी रहने वाला है.
जम्मू-कश्मीर के प्रशासन ने कश्मीर में हवाई जहाज़ से आने वाले पर्यटकों के लिए भी अपने द्वार खोल दिये हैं और यह बात भी लोगों को काफी खल रही है, क्यूंकि अगस्त 2019 से लगभग कोई भी पर्यटक कश्मीर नहीं आया है.
“अब कोरोना वाइरस के बीच पर्यटकों को आने देना कौन सी समझदारी है? क्या यह सिर्फ यहां के लोगों को यह बताने के लिए किया जा रहा है कि कश्मीर कश्मीरियों का न रहकर भारत के अन्य राज्यों में बसे लोगों का हो गया है?” बशारत अली पूछते हैं.
इसी बीच कश्मीर में कुछ क़ानूनों में भी बदलाव हुआ है जिसमें से एक यह है कि सुरक्षा बल अब अपनी छावनियों के बाहर भी, कुछ सामरिक स्थानों पर, निर्माण कार्य कर सकते हैं. यह अनुमति ‘कंट्रोल ऑफ बिल्डिंग ऑपरेशन एक्ट-1988’ और ‘जेएंडके डेव्लपमेंट एक्ट-1970’ में संशोधनों के द्वारा दी गयी है. इसके साथ-साथ हजारों मजदूर भी भारत के अन्य राज्यों से कश्मीर की तरफ लाये जा रहे हैं. अगर सोशल मीडिया पर वाइरल हुए एक स्थानीय न्यूज चैनल - गुलिस्तान न्यूज - के वीडियो की मानें तो इन मजदूरों का कोरोना वाइरस टेस्ट भी नहीं किया जा रहा है.
“कश्मीर में लॉकडाउन के चलते सारा काम ठप पड़ा हुआ है, ऐसे में मजदूरों का आना एक ही चीज़ की तरफ इशारा करता है कि इनको सुरक्षा बालों के द्वारा किए जाने वाले निर्माण में लगाया जाएगा” इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ साइन्स एंड टेक्नोलोजी में अन्तरराष्ट्रीय संबंध पढ़ाने वाले, डॉ उमर गुल, सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं.
गुल कहते हैं कि कश्मीर के लोग इस समय बंद हैं और किसी भी तरफ से कोई विरोध होने की कोई संभावना नहीं है “लेकिन कम से कम मानवीय आधार पर ही सही, इन मजदूरों का टेस्ट वगैरह हो जाना चाहिए. यह न सिर्फ यहां के लोगों की सुरक्षा के लिए है बल्कि सुरक्षा बलों की सुरक्षा के लिए भी ज़रूरी है.”
लेकिन स्थानीय लोगों को लगता है कि लेकिन सुरक्षा के नाम पर कश्मीर में पिछले पांच महीनों में सिर्फ मिलिटेंटस और सुरक्षा बलों में मुठभेड़ हुई हैं और जगह-जगह नए बंकर बना दिये गए हैं.
इस साल जनवरी से लेकर अभी तक कम से कम 130 मिलीटेंट्स अलग-अलग मुठभेड़ों में मारे गए हैं. जहां कश्मीर में मिलीटेंट्स का मारा जाना कोई नई बात नहीं है, वहीं उनके शव उनके परिजनों को न देना बिलकुल नया है.
पिछले चार महीनों में लगभग हर मुठभेड़ के बाद पुलिस ने यह कहा है कि मारे गए मिलीटेंट्स के शव कोरोना वाइरस के चलते उनके परिजनों को नहीं दिये जाएंगे. उनके शव उत्तर कश्मीर में, घर के एक या दो सदस्यों के सामने, दफन किए जा रहे हैं.
इस बात से कश्मीर के लोगों में, खास तोर पर मारे गए मिलीटेंट्स के घरवालों में, काफी आक्रोश है.
“अगर 4000 सुरक्षाकर्मी पूरे गांव को घेर कर दो मिलीटेंट्स को मार गिरा सकते हैं तो क्या दो दर्जन लोग अपने किसी मारे गए बच्चे का अंतिम संस्कार नहीं कर सकते? यह किस तरह की नीति है जहां मां-बाप अपने बच्चे को अपने कब्रिस्तान में नहीं दफन कर सकते?” अनंतनाग जिले के अरविनी गांव में एक मारे गए मिलीटेंट के घरवालों ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.
लेकिन कई जानकार इस बात को भावनाओं से परे रख कर देखते हैं.
“जब किसी मिलीटेंट के जनाजे में हजारों लोग जमा होते थे तो प्रशासन के लिए मुश्किल हो जाती थी उनको संभालना. और वहीं इन जनाज़ों में और युवक हिंसा के रास्ते पर चल पड़ते थे. भारत सरकार इन जनाज़ों का तोड़ काफी समय से ढूंढ रही थी और उन्हें कोरोना वाइरस के रूप में यह बहाना मिल गया” कश्मीर को बहुत बारीकी से जानने वाले एक सुरक्षा अधिकारी ने सत्याग्रह को, उनका नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताया.
पिछले पांच महीनों में कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों के बंकरों में भी काफी इजाफा हुआ है, जिससे लोगों को काफी दिक्कतें भी आ रही हैं.
“सड़क पर देखें तो हर 50 मीटर पर न सिर्फ एक बंकर है बल्कि पूरी सड़क कांटेदार तार या अन्य चीजों से घिरी पड़ी है. हर जगह चेकिंग, कहीं जाना है तो बार-बार रोका जाता है, ट्रैफिक न होने के बावजूद घंटों गाड़ी में खड़े रहना पड़ता है. ये सब चीज़ें लोगों को दिल्ली से दूर नहीं करेंगी तो और क्या होगा” डॉ उमर गुल ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं.
वे कहते हैं कि लोगों के मन में यह बैठ गया है कि ये सब चीज़ें जान-बूझ कर की जा रही हैं, कश्मीर के लोगों को “भारत में उनकी जगह दिखाने के लिए.”
ये तो वे चीज़ें हैं जो भारत सरकार ने कोरोना वाइरस महमारी के दौरान कश्मीर में की हैं और जिनसे कश्मीर के लोगों में निराशा और संदेह ने और भी गहरी जड़ पकड़ ली है. वहीं कुछ चीज़ें ऐसी भी हैं जो सरकार ने कोरोना महामारी के दौरान नहीं की हैं लेकिन वे लोगों के मन में केंद्र सरकार के प्रति आक्रोश बढ़ाने का काम कर रही हैं.
महमारी में 4जी इंटरनेट बहाल न करना ऐसी ही एक चीज़ है:
जैसा कि शुरू में हमने बताया कि कश्मीर में चार अगस्त 2014 को इंटरनेट सेवायें बंद कर दी गई थीं और अभी तक भी 4जी इंटरनेट बहाल नहीं हुआ है. सरकार 4जी इंटरनेट को सुरक्षा व्यवस्था के लिहाज से एक खतरे के तौर पेश करती आ रही है.
लोग जैसे-तैसे बिना इस सुविधा के गुज़ारा कर रहे थे, लेकिन कोरोना वाइरस के आने से ज़िंदगी इंटरनेट के बिना काफी मुश्किल हो गयी है. सबसे ज़्यादा 4जी इंटरनेट न होने से जो लोग प्रभावित हुए हैं वै हैं डॉक्टर, क्यूंकि पूरी दुनिया में कोरोना वाइरस से लड़ने के लिए जो चीज़ सब से ज़रूरी मानी जा रही है वह है जानकारी.
“और आजकल की दुनिया में सारी जानकारी इंटरनेट से आती है, जो हमारे पास है तो लेकिन 2जी जो आजकल की दुनिया में किसी काम का नहीं है,” श्रीनगर के श्री महाराजा हरि सिंह (एसएमएचएस) अस्पताल में काम करने वाले एक डॉक्टर ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा. यहां डॉक्टरों को पत्रकारों से बात करने की अनुमति नहीं है, इसीलिए डॉक्टर से बात करना उतना आसान नहीं है.
वे कहते हैं कि इंटरनेट के बिना उनका काम बहुत मुश्किल है, “क्यूंकि हर घंटे दुनिया के किसी न किसी कोने से कोरोना वाइरस के बारे में कोई नयी जानकारी आती है और हम उस जानकारी से महरूम रहते हैं.”
दूसरा तबका जो 4जी इंटरनेट न होने के चलते तमाम परेशानियां झेल रहा है वह है यहां के छात्र. कश्मीर घाटी में पिछली पांच अगस्त से अभी तक सिर्फ मार्च में कुछ दिन स्कूल खुले थे. “और अब जबकि पूरी दुनिया में छात्र ऑनलाइन पढ़ रहे हैं हमारे पास वह विकल्प भी नहीं है. 2जी इंटरनेट पर क्या ऑनलाइन क्लास होगी और क्या तो समझ में आएगा” कश्मीर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की पढ़ाई कर रहे गुलजार अहमद सत्याग्रह को बताते हैं.
अहमद की तरह ही हजारों छात्र 4जी इंटरनेट के न होने से पढ़ाई में देश के दूसरे हिस्सों के छात्रों से पीछे छूट रहे हैं.
“जहां पूरे देश में बच्चे ऑनलाइन पढ़ रहे हैं, हमारे साथ ही यह अन्याय क्यूं हो रहा है. क्या हमें हक़ नहीं है पढ़ने का? और फिर दिल्ली में बैठे लोग कहते हैं कि कश्मीर भारत का अटूट अंग है. कश्मीर का मतलब क्या सिर्फ ज़मीन है? लोग नहीं?” दसवीं क्लास में पढ़ रही, साइमा अमीन, ने श्रीनगर में सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.
इन सब चीजों को परे भी रखें तो छोटे-छोटे मामले, जैसे अस्पतालों में सही से इलाज न होना, वक़्त पर कोरोना वाइरस का टेस्ट न होना, अस्पतालों में कोरोना वाइरस के अलावा और किसी चीज़ का इलाज न होना, क्वारंटीन सेंटरों में सुविधाओं का न होने जैसी चीज़ें भी लोगों को खल रही हैं. हालांकि इस तरह की अव्यवस्थायें दूसरे राज्यों और देशों में भी देखने को मिल रही हैं लेकिन कश्मीर में कई लोग बाकी चीजों के साथ रखकर इन्हें एक अलग ही निगाह से देखते हैं.
कुल मिलाकर यह कि जहां भारत सरकार को कोरोना वाइरस जैसी महमारी में कश्मीर के लोगों को जीतने का जो एक मौका मिला था, वह शायद उसने गंवा दिया है. लोगों में संदेह और आक्रोश अब पिछले साल की अगस्त से भी ज़्यादा है और यह कश्मीर को किस दिशा में लेकर जाएगा, कह पाना मुश्किल है.(satyagrah)
पुष्य मित्र
लगातार हुई फजीहत के बाद बिहार सरकार सक्रिय हुई है। आनन-फानन में दो तीन फैसले लिए गए हैं।
पहला यह कि अब रिपोर्ट 24 घंटे में मिल जाएगी। अब तक अमूमन 4 से 8 दिन लग जाते थे। कई मित्रों ने तो बिना रिपोर्ट के ही खुद को सुरक्षित मान लिया है।
दूसरा यह कि एनएमसीएच में अब मृत मरीज के शव को 3 घंटे में बेड से हटा लिया जाएगा। वहां अब तक दो फो दिन मरीज पड़े रहते थे। हैरत की बात है कि क्या एनएमसीएच के पास मोरचुरी नहीं है?
कुछ बेड बढ़ाने की बात चल रही है।
पता नहीं इन फैसलों को लागू होने में कितना वक्त लग जाये। पर यह भी सच है कि इन फैसलों के लागू हो जाने से भी मसला इतनी आसानी से नियंत्रित नहीं होने वाला।
वजह यह है कि बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं की बुनियाद ही कमजोर हो गई है। डॉक्टरों और नर्सों के साठ से सत्तर फीसदी पद खाली हैं। सदर अस्पतालों और प्रखंड, अनुमंडल स्तरीय अस्पतालों को मरीजों के इलाज करने का अभ्यास छूट गया है। कई दशकों से पूरा सिस्टम कोलैप्स है। सब कुछ प्राइवेट के भरोसे छोड़ दिया गया था। अब अचानक इन पर भार पड़ गया है।
पटना से लेकर पंचायतों तक काम करने वाले डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की सरकारी सेवा में काम करने की आदत छूट गई है। डॉक्टर पहले सिर्फ हाजिरी लगाने पीएचसी पहुंचते थे फिर अपने क्लीनिक भागते थे। हेल्थ वर्कर बैठकर टाइम पास करते थे।
फरवरी से पहले तक स्वास्थ्य विभाग का काम सिर्फ टीकाकरण करना और आंकड़ेबाजी करना रह गया था, अचानक उसे आपदा से जूझना पड़ रहा है। इस सुस्त और जंग लगी मशीनरी को चालू करना आसान नहीं है।
नीतीश सरकार का भी फोकस कभी शिक्षा और स्वास्थ्य की तरफ नहीं रहा। अस्पतालों को दुरुस्त करने के बदले स्मारकों के निर्माण पर पैसे खर्च किये गए। इससे पैसे बचे तो हर शहर में फ्लाई ओवर बनाए गए। जब इन मुद्दों पर काम करने कहा गया तो सरकार पैसों का रोना रोती रही। अब भुगतना पड़ रहा है।
यह सब एक झटके में नहीं होगा। मंगल पांडे जैसे मंत्री और उमेश कुमावत जैसे प्रशासक के बस की बात नहीं। इसके लिये डायनेमिक प्रशासक चाहिए। जो फ्रंट से लीड करे। अथाह काम है। समझ नहीं आता यह व्यवस्था कैसे सुधरेगी।
स्मिता अखिलेश
लॉक डाउन के मद्दे नजऱ चूँकि बड़ी संख्या में प्रवासी अपने गाँवों की ओर लौट गए है और बुरी तरह से प्रभावित अर्थव्यवस्था में एक आशा की किरन कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर जा टिकी है। इसी को ध्यान में रखते हुए सरकार ने कृषि क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन करते हुए कृषि मंडियों के बाहर अपनी फसल बेचने और कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग को लेकर किसानों के लिए अध्यादेश जारी किए।
अध्यादेश के मुताबिक किसानों को अपनी पसंद के बाजार में उत्पाद बेचने की छूट मिलेगी. आधिकारिक बयान के मुताबिक, ‘कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश 2020 को अधिसूचित किया गया है. इसके तहत किसान अपनी पसंद के बाजार में उपज बेच पाएंगे. सरकार को उम्मीद है कि किसानों को फसलों का बेहतर दाम मिलेगा।
चूँकि कृषि उत्पादों को सीधे व्यापारियों को बेचे जाने के कानून से मंडी बोर्ड का नियंत्रण खत्म हो जायेगा . मंडी बोर्ड को केंद्र सरकार से मिलने वाले 2 प्रतिशत का टैक्स में कटौती हो जाएगी। गौरतलब है कि इस टैक्स मद का बड़ा हिस्सा राज्य शासन को रिसर्व फण्ड और सडक़ निर्माण में दिया जाता है। जिससे राज्य शासन को आर्थिक नुकसान होना तय है।
रही बात किसानों के हित की तो छत्तीसगढ राज्य में 85 प्रतिशत किसान छोटे रकबे वाले है अमूमन यहाँ सरना धान की पैदावार अधिक होती है, जिसे राज्य शासन द्वारा अधिक दामों में खरीदी पहले से ही किया जा रहा है।
मंडी बोर्ड का नियंत्रण खत्म होने से व्यापारियों में फिर से जमाखोरी की प्रवृति को बढ़ावा मिलेगा और कृत्रिम महंगाई की सम्भावना से भी इंकार नही किया जा सकता। वहीँ इस राज्य में लगभग 1700 मंडी कर्मी का रोजगार भी संशय में है।
यह अध्यादेश बड़े किसानों या जो वैकल्पिक खेती करते हैं उनके लिए अधिक लाभप्रद है। इससे राज्य और केंद्र के बीच तारतम्यता स्थापित हो सकेगी इसमें संदेह है बेहतर होता कि इसे राज्य सरकारों की इच्छा के आधार पर लागु किया जाना था ताकि सभी राज्य अपने भौगोलिक और जलवायु के आधार पर होने वाले कृषि उत्पादों को देखते हुए अधिक उपयुक्त निर्णय लेते।
हालाँकि पिछले दिनों कृषि मंत्री ने कृषि सुधारों को लेकर सभी मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर इन सुधारों को सफल तरीके से लागू करने में सहयोग का आग्रह किया था।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दुनिया अभी तक यही सुनती आई थी कि चीन के मुसलमानों को सताया जा रहा है। चीन के भारत से लगे प्रांत सिंक्यांग (शिनच्यांग) में लगभग 10 लाख उइगर मुसलमानों को प्रशिक्षण शिविरों में बंद किया हुआ है। अब से लगभग 7-8 साल पहले मैं इस प्रांत में 3-4 दिन रह चुका हूं। वहां के उइगर मुसलमानों के नाम चीनी भाषा में होते हैं। वे कुरान की आयतें नहीं बोल पाते और उन्हें मस्जिदों में भीड़ लगाकर नमाज़ नहीं पढऩे दी जाती। रमजान के दिनों में उन्हें इफ्तार की पार्टियां नहीं करने दी जातीं। मेरा दुभाषिया भी एक उइगर नौजवान था। इसीलिए आम लोगों से मैं खुलकर बात कर लेता था। जो उइगर पेइचिंग और शांघाई में मेवे और खिलौने वगैरह की दुकानें करते हैं, उनसे भी मेरा अच्छा परिचय हो गया था। चीन की सुरक्षा एजंसियां इन लोगों पर कड़ी निगरानी रखती थीं। इन लोगों पर यह शक बना रहता था कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान के आतंकवादियों के साथ इनके घने संबंध हैं लेकिन अब पता चला है कि चीन के ईसाइयों की दुर्दशा वहां के मुसलमानों से भी ज्यादा है। चीन में मुसलमान तो मुश्किल से डेढ़-दो करोड़ हैं लेकिन ईसाई वहां लगभग 7 करोड़ हैं। मुसलमान तो ज्यादातर उत्तरी प्रांत शिनच्यांग में सीमित हैं लेकिन चीनी ईसाई दर्जन भर प्रांतों में फैले हुए हैं। उनके कई संप्रदाय हैं। उनके सैकड़ों गिरजाघर शहरों और गांवों में बने हुए हैं। चीन में ईसाइयत फैलाने का श्रेय वहां भारत से गए विदेशी पादरियों को सबसे ज्यादा है।
पिछले हजार साल में चीन के कई राजाओं और सरकारों ने इन चीनी ईसाइयों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए लेकिन विदेशी पैसे और प्रभाव के कारण उनकी संख्या बढ़ती गई। चीन के मंचू और कोरियाई निवासियों में ईसाइयत जरा ज्यादा ही फैली। ईसाइयों की तुलना में बौद्धों पर कम अत्याचार हुए। मैंने चीन में बौद्धों के जैसे भव्य तीर्थ-स्थान देखे हैं, वैसे भारत में भी नहीं हैं। आजकल चीन के ईसाइयों से कहा जा रहा है कि वे अपने गिरजों में से ईसा और क्रॉस की मूर्तियां हटाएं और उनकी जगह माओ त्से तुंग और शी चिन फिंग की मूर्तियां लगाएं। पुलिस ने कई मूर्तियों और चर्चों को भी ढहा दिया है। जैसे सिक्यांग में कुरान देखने को भी नहीं मिलती, अब बाइबिल भी दुर्लभ हो गई है। चीनी भाषा में उसके अनुवाद भी नहीं छापे जा सकते हैं।
अपने आपको कम्युनिस्ट कहनेवाला चीन खुद तो पूंजीवादी और भोगवादी बन गया है लेकिन चीनी लोगों को उनकी धार्मिक आजादी से वंचित कर रहा है। इन सारे मजहबों को जो लोग पाखंड समझते हैं, वे भी इन पाखंडों की आजादी का समर्थन करते हैं, क्योंकि आजादी के बिना इंसान जानवर की श्रेणी में चला जाता है। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-राजेंद्र चौधरी
कोरोना संकट के एन बीच-बीच सरकार ने जून 2020 में किसानों से जुड़े तीन अध्यादेश जारी किए हैं। इनमें मंडी, ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य,’ ‘संविदा खेती’ जैसे किसानी मुद्दों का जिक्र करते हुए मौजूदा कृषि-व्यवस्था को कॉर्पोरेट खेती के हित में तब्दील करने की जुगत बिठाई गई है। कृषि-अर्थशास्त्री देविन्दर शर्मा का कहना है कि सरकार यदि किसानों का भला चाहती ही है तो उसे इन तीनों के अलावा एक और अध्यादेश ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ को बुनियादी अधिकार घोषित करने का भी लाना चाहिए। प्रस्तुत है, इन्हीं तीनों अध्यादेशों की समीक्षा करता राजेंद्र चौधरी का यह लेख। -संपादक
मई में मोदी सरकार ने आत्मनिर्भर भारत अभियान का जिक्र किया और तीन हफ्ते बाद ही देश के किसानों को अकेला छोड़ दिया। पांच जून 2020 को जारी कृषि सम्बन्धी अध्यादेशों द्वारा भारत सरकार ने खेती में तीन बड़े कानूनी बदलाव कर दिए हैं, अलबता देर-सवेर संसद को इन पर अंतिम फैसला लेना ही होगा। इन तीनों कानूनी बदलावों का प्रभाव यही होगा कि किसान अब बाज़ार में अकेला खड़ा होगा, उसे सरकार का सहारा नहीं होगा। एक ओर छोटा किसान और दूसरी ओर उसके सामने बड़े-बड़े राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय व्यापारी। किसान को अकेला छोडऩा क्यों ठीक नहीं है? कई बार किसान भी यह सोचते हैं कि सरकार फसलों के मूल्य क्योंक तय करती है, क्यों नहीं किसान अपने उत्पादों का मूल्य खुद तय करें? ऊपरी तौर पर ठीक लगती यह बात ठीक नहीं है।
पूरी दुनिया में किसान को पूरी तरह अकेला नहीं छोड़ा जाता और इसके ठोस कारण हैं। ये कारण कृषि की प्रकृति में हैं। एक तो बुनियादी जरूरत होने के कारण भोजन की मांग में, कीमत या आय बढऩे पर ज्यादा बदलाव नहीं होता और दूसरा, मौसम पर निर्भरता के कारण कृषि-उत्पाद में बहुत ज्यादा बदलाव होते हैं। आपूर्ति में बहुत ज्यादा बदलाव और मांग के बे-लचीला होने का परिणाम यह होता है कि अगर बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया जाए तो कृषि की कीमतों में बहुत ज्यादा बदलाव होंगे। ऐसा न तो किसान के हित में होता है और न ही ग्राहक या उपभोक्ताम के हित में। जब फसल नष्ट होने के कारण कीमतें बढ़ती हैं तो किसान को कोई फायदा नहीं होता और जब अच्छी पैदावार के कारण कीमतें घट जाती हैं तो भी किसान को कोई फायदा नहीं होता। वैसे भी सरकार आम तौर पर कृषि-उत्पादों के मूल्य निर्धारित नहीं करती, वह तो केवल न्यूनतम बिक्री मूल्य (न्यूकनतम समर्थन मूल्यल, ‘एमएसपी’) निर्धारित करती है।
इन तीन कानूनी बदलावों द्वारा सरकार ने कृषि क्षेत्र से नियमन, विशेष तौर पर ‘मंडी कानून’ को बहुत हद तक ख़त्म कर दिया है। अब व्यापारी को मंडी नहीं जाना पड़ेगा। वो कहीं भी, बिना किसी सरकारी नियंत्रण के किसान का माल खरीद सकता है। जब सरकार द्वारा नियंत्रित मंडी में भी हमेशा और हर किसान को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मूल्य (एमएसपी) नहीं मिलता, तो मंडी के बाहर क्या रेट मिलेगा, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। आढ़तियों से परेशान किसान यह सोच कर खुश हो सकते हैं कि चलो, इनसे तो पिंड छूटा, पर ध्यान रहे आढ़तिया भी व्यापारी है, कोई सरकारी कर्मचारी नहीं और नई व्यवस्था में भी खरीदेगा तो व्यापारी ही। फर्क ये होगा कि अब सरकार/समाज की निगाह से दूर ये सौदा होगा। ‘आवश्यक वस्तु कानून’ की ओट लगभग ख़त्म होने से अब व्यापारी कितना भी माल खरीद और स्टाक कर सकता है। इसका अर्थ है, अब बाज़ार में बड़े-बड़े, विशालकाय खरीददार होंगे जिनके सामने छोटे-से किसान की कितनी और क्या औकात होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ के चलते कम्पनियों के आत्मनिर्भर होने की राह भी खोल दी गई है। अब संविदा करार की मार्फत कम्पनियां खुद खेती कर सकेंगी। आम तौर पर अनुबंध खेती का मतलब है कि बुआई के समय ही बिक्री का सौदा हो जाता है ताकि किसान को भाव की चिंता न रहे। सरकार द्वारा पारित वर्तमान कानून में अनुबंध की परिभाषा को बिक्री तक सीमित न करके, उसमें सभी किस्म के कृषि कार्यों को शामिल किया गया है। इस तरह परोक्ष रूप से कम्पनियों द्वारा किसान से जमीन ले कर खुद खेती करने की राह भी खोल दी गई है। अध्यारदेश के अनुसार कम्पनी किसान को, किसान द्वारा की गई सेवाओं के लिए भुगतान करेगी यानी किसान अपनी उपज की बिक्री न करके अपनी ज़मीन (या अपने श्रम) का भुगतान पायेगा। हालाँकि अध्याकदेश की ‘धारा-8-ए’ में कहा गया है कि इस कानून के तहत ज़मीन को पट्टे पर नहीं लिया जा सकेगा, लेकिन दूसरी ओर ‘धारा-8-बी’ में भूमि पर कम्पनी द्वारा किये गए स्थाई चिनाई, भवन-निर्माण या ज़मीन में बदलाव इत्यादि का जि़क्र है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि अनुबंध की अवधि के दौरान ज़मीन अनुबंध करने वाले के नियंत्रण में है, यानि खेती किसान नहीं, अनुबंध करने वाला कर रहा है।
भारत जैसे विशाल आबादी और बड़ी बेरोजगारी वाले देश में कम्पनियों द्वारा खेती हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। कोरोना-काल ने इसे फिर से रेखांकित कर दिया है। जब कम्पनियों ने मजदूरों को निकाल बाहर किया था तो खेती और छोटे-मोटे ग्रामीण रोजग़ार ही थे, जिनके भरोसे लोग सैंकड़ों मील पैदल चलने का खतरा मोल लेकर भी निकल पड़े थे। ‘अनुबंध पर खेती कानून’ ग्रामीण इलाकों के इस अंतिम सहारे को भी छीनने का क़ानून है। यह कानून बिना नए रोजग़ार की व्यवस्था के, पुराने रोजग़ार को छीनने का कानून है।
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आज़ादी की लड़ाई के समय से ही यह मांग रही है कि खेती पर किसान का नियंत्रण रहे, न कि व्यापारियों का। इसलिए आज़ादी के बाद कृषि भूमि की अधिकतम सीमा तय कर दी गई थी। आज़ादी से पहले भी पंजाब में यह कानून बनाया गया था कि गैर-कृषक या साहूकार खेत और खेती के औजारों पर कब्ज़ा नहीं कर सकता। इन कानूनों का उद्देश्य यही था कि खेती चंद लोगों के अधिकार की बजाए आम लोगों की आजीविका का साधन रहे। सरकार इन मौजूदा कानूनों को दरकिनार कर, अनुबंध पर खेती के कानून के माध्यम से कम्पनियों के लिए खेती की राह खोल रही है। अगर सरकार समझती है कि ऐसा करना देश और किसानों के हित में है तो उसे चाहिए कि वो इस कानून को ‘कम्पनी द्वारा खेती का कानून’ के नाम से संसद में पेश करे न कि ‘किसान सशक्तिकरण कानून’ के नाम से।
इसमें दो राय नहीं हैं कि कृषि मंडी की वर्तमान व्यवस्था में सुधार की ज़रूरत है, पर इसका इलाज़ कृषि मंडी नियमन को ख़त्म करने में नहीं है। इसका उपाय है, मंडी कमेटी को किसानों के प्रति जवाबदेह बनाया जाए; उसमें सभी हितधारकों के चुने हुए प्रतिनिधि हों। आज भी कानूनी प्रावधानों के बावजूद बरसों मंडियों के चुनाव नहीं कराये जाते और नतीजे में चुने हुए प्रतिनिधियों को कोई अधिकार नहीं दिए जाते। अगर नियमन के बावज़ूद सरकार छोटे-मोटे व्यापारियों और आढ़तियों से किसानों को नहीं बचा सकती, सरकारी खरीद का पैसा भी योजना बनाने के बावजूद सीधे किसानों के खातों में नहीं पहुंचा सकती, तो अब जब बड़ी-बड़ी दैत्याकार विशाल देशी-विदेशी कम्पनियां बिना किसी सरकारी नियंत्रण या नियमन के किसान का माल खरीदने लगेंगी तो फिर किसान को कौन बचाएगा?
कृषि क्षेत्र में सरकार द्वारा किये गए बदलावों के बाद अनाज मंडी का भी वही हाल होगा जो सरकारी स्कूलों का हुआ है। बड़ी कम्पनियां, बड़े किसानों की पैदावार ले लेंगी और बड़े किसान इन कम्पनियों से अनुबंध भी कुछ हद तक निभा लेंगे। जब संपन्न किसान अनाज मंडी से बाहर चला जाएगा, तो सरकारी स्कूलों की तरह अनाज मंडियां भी बंद होने लगेंगी और फिर छोटे, आम किसानों के लिए कोई राह नहीं बचेगी। (सप्रेस)
(राजेंद्र चौधरी महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक, (हरियाणा) में प्रोफेसर हैं।)
अमेरिका और चीन का संबंध दिनोंदिन बिगड़ता जा रहा है। दोनों देशों में गत कुछ महीनों से जोरदार वाकयुद्ध शुरू है और बुधवार को उसमें एक और चिंगारी पड़ गई। अमेरिका ने ह्यूस्टन स्थित चीनी दूतावास को 72 घंटे के भीतर बंद करने का आदेश दे दिया। अमेरिका और चीन के बीच अनबन पहले से ही बढ़ती जा रही थी और इस नए निणर्य के कारण दोनों देशों के बीच संघर्ष बढ़ने की संभावना दिख रही है। इस फौरी आदेश के कारण चीनी अधिकारी सकपका गए क्योंकि ह्यूस्टन स्थित दूतावास कोई साधारण पासपोर्ट मंजूरी का कार्यालय अथवा कचहरी नहीं है, बल्कि ख्याति प्राप्त महावाणिज्य दूतावास है। इसके अलावा उसकी ये भी पहचान है कि अमेरिका में चीन का ये पहला दूतावास है। लेकिन अमेरिका ने एक झटके में दूतावास पर ताला लगाने का निर्णय ले लिया। चीन और अमेरिका के बीच जो अरबों डॉलर्स का व्यापार होता है, वाणिज्य और व्यापार विषयों के दस्तावेजों को मिलाना और उसकी जांच आदि के महत्वपूर्ण निर्णय इस दूतावास में होते थे, जिसे बंद करने का निर्णय अमेरिका द्वारा लिया गया। इसलिए आश्चर्य स्वाभाविक है। हालांकि प्रे. ट्रंप की आज तक की कार्यशैली को देखते हुए इसमें आश्चर्यजनक जैसा कुछ नहीं है। ट्रंप की कार्यशैली हमेशा धक्कादायक और चकित करने वाली ही रही है। उसी के तहत अमेरिकी राष्ट्राध्यक्ष द्वारा ह्यूस्टन दूतावास को खाली करने का आदेश दिया गया है। चीन को एक वाक्य में यह सूचना दे गई, ‘अमेरिकी नागरिकों की बौद्धिक संपदा और निजी जानकारियों की सुरक्षा के लिए इस दूतावास को बंद कर दिया जाए।’ चीन की वानर हरकतों को देखते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चीन ने जासूसी आदि संदिग्ध गतिविधियों के लिए दूतावास का प्रयोग किया ही होगा। ‘गिरे तब भी टांग ऊपर’ की तरह चीन के विदेश मंत्रालय ने भी धमकी दी है, ‘हम भी इस कार्रवाई का प्रत्युत्तर देंगे।’ चीन की इस हल्की धमकी पर अमेरिका ने कोई तवज्जो नहीं दी। उल्टे अमेरिका में चीन के अतिरिक्त दूतावास को भी बंद करने से इनकार नहीं किया जा सकता, ऐसा कहते हुए प्रेसिडेंट ट्रंप ने चीन पर दूसरा बम फेंक दिया है। चीन और अमेरिका के बीच राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर पर संघर्ष कोई नई बात नहीं है। हालांकि 2018 के ‘ट्रेड वॉर’ से लेकर कोरोना के ताजा संकट तक दोनों देशों में तनाव शीर्ष पर पहुंचता दिख रहा है। अमेरिका के राष्ट्राध्यक्ष ने घोषित तौर पर चीन पर आरोप लगाया है कि चीन ने ही कोरोना का वैश्विक संकट विश्व पर लाद दिया है और यह वायरस वुहान की प्रयोगशाला से पैâलाने का चीनी षड्यंत्र है। चीन ने इस आरोप से इनकार भले ही कर दिया हो लेकिन अमेरिका ही क्या, दुनिया का एक भी देश चीन के नेताओं पर विश्वास करने को तैयार नहीं है। साम्यवादी अर्थात ‘साम्राज्यवादविरोधी’ वाला चीन का दिखाने वाला चेहरा अलग है और असली चेहरा ‘साम्राज्यविस्तार’ वाला है। चीन की विदेश नीति यही रही है। हिंदुस्थान सहित कुल 23 देशों से चीन का सीमा विवाद चल रहा है। हम दुनिया भर में जाकर व्यापार करेंगे, विदेशी मुद्रा लाएंगे, दुनिया भर की अर्थव्यवस्था में घुसपैठ करेंगे लेकिन हमारे देश में किसी व्यापारी को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है। दुनिया चीन की इस नीति को समझ गई है। ह्यूस्टन का दूतावास बंद करके अमेरिका ने चीन को पहला झटका दिया है। इस आदेश के बाद दूतावास में कागजातों का जलना और इमारत के बाहर निकलता धुआं बहुत कुछ कह जाता है। अमेरिका का शक सही रहा होगा, उसके बिना यह आग नहीं लगी होगी। दूतावास खाली करने के लिए चीन के पास अब केवल 24 घंटे बचे हैं। उसके बाद चीन पलटवार वैâसे करता है और यह संघर्ष कहां तक पहुंचता है, इस ओर पूरी दुनिया की नजर लगी हुई है।
जुलाई 23, 2020, मुंबई
-बाबा मायाराम
“हमारे यहां जंगल में झाड़ पेड़ कम हो रहे हैं। न अच्छी छांव मिलती, न पहले जैसे पंछी आते हैं। जंगल से कंद, फल, फूल और पत्ते भी पहले जैसे नहीं मिलते। बारिश भी पहले जैसे नहीं होती। इसलिए हम जंगल में पेड़ लगाने और फिर से हरियाली बढ़ाने का काम कर रहे हैं।” यह जैतगिरी गांव की मीनवती बाकड़े थीं।
छत्तीसगढ़ में बस्तर जिले के बकावण्ड प्रखंड में है जैतगिरी गांव। इस गांव में मां दन्तेश्वरी बिटाल महिला स्वसहायता समूह है, जिसकी अध्यक्ष हैं मीनवती बाकड़े। इस महिला समूह ने देसी प्रजाति के पेड़-पौधों की नर्सरी तैयार की है, जिन्हें वे उनके गांव में, गांव की खाली पड़ी जमीन पर, खेतों में, जंगल में लगाते हैं। आसपास के गांवों में बांटते हैं और पड़ोसी राज्यों को भी देते हैं।
बस्तर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। यहां का हरा-भरा जंगल, पहाड़, झरने, नदियां मोहती हैं। साल, सागौन और बांस का जंगल प्रसिद्ध है। यहां पानी की प्रचुरता है, वर्षा भी अच्छी होती है। यहां के साप्ताहिक हाट, उनकी जीवनशैली, रहन सहन और बस्तरिया आदिवासियों के नृत्य गीत लुभाते हैं। रंग बिरंगी संस्कृति खींचती है। लेकिन अब बस्तर के जंगल भी कम होते जा रहे हैं, आदिवासियों ने इसका एहसास कर जंगलों की विरासत को सहेजना शुरू कर दिया है।
हाल ही में, मैं हरियाली की इस पहल को देखने के लिए गया था। मीनवती के साथ गांव की मेंगवती चंद्राकर, पदमा कौशिक, राधामनी कश्यप, सेवती बाकड़े, सावित्री ठाकुर, हीरामनी वैष्णव, कमला, निलमनी भी आ गईं। वे मुझे नर्सरी दिखाने ले गईं। वहां सिवना, बहेड़ा. सियारी (माहुल), जामुन, भिलवां, पेंगु, कोसम जैसे करीब 50 देसी प्रजाति की पौध रोपणी थी। इन पौधों में पानी डालने से लेकर उनकी निंदाई गुड़ाई तक सभी काम महिलाएं करती हैं। वे उत्साहित होकर उनकी पहचान, उपयोग और औषधि गुणों के बारे में बता रही थीं।
वे बताती हैं कि जंगल ही हमारा जीवन है। अगर जंगल नहीं रहेगा तो आदिवासी कैसे रहेगा, इसलिए जंगल को बचाना और उसकी हरियाली को बढ़ाना जरूरी है। इन फलदार पेड़ों से गांव की भूख खत्म होगी और जंगल भी हरा-भरा होगा। बाऱिश होगी तो खेतों में फसलें भी अच्छी पकेंगी। यह काम पिछले 5 वर्षों से किया जा रहा है। जैतगिरी अकेला गांव नहीं है नर्सरी करने वाला, बल्कि ऐसी नर्सरी संधकरमरी ( बकावण्ड प्रखंड), कंकालगुर ( दरभा प्रखंड) और कंगोली गांव (जगदलपुर प्रखंड) में भी है। जैतगिरी की नर्सरी (पौध रोपणी) महिला समूह द्वारा तैयार की जा रही है, अन्य नर्सरी में महिला पुरूष दोनों मिलकर काम करते हैं। जैतगिरी ग्राम की महिलाओं से प्रेरित होकर अन्य गांव की महिलाएं भी नर्सरी के काम में आगे आई हैं। इसके साथ पेड़ों की पहचान, गुणधर्मों की पहचान और उनसे जुडे पारंपरिक ज्ञान का भी आदान प्रदान किया जा रहा है।
फोटो 1 संधकरमरी में बीजों का संकलन
वे आगे बताती हैं कि जंगल से उनका जीवन जुड़ा हुआ है। सुबह जागने से लेकर रात्रि सोने तक जंगल की कई चीजों को उपयोग में लाते हैं। जैसे प्रातः दातौन, खाना पकाने के लिए जलाऊ लकड़ी, कंद-मूल, वनोपज, छाती (मशरूम), सब्जी में कई प्रकार की हरी भाजियां मिलती हैं। थाली के रूप में सियारी या साल के पत्तों से बनी पतली ( प्लेट) का उपयोग करते हैं। इसके अलावा, कई प्रकार के कंद मिलते हैं। जैसे- पीता कंद, सोरन्दा कंद, तरगरिया कंद, पीट कंद, टुन्डरी कंद, कुलिया कंद, दुपन कंद, बुरकी कंद, डोगर कंद, सींध कंद इत्यादि। हरी पत्तीदार भाजियों में पेंगु भाजी, भेलवां भाजी, कोंयजारी भाजी, कोलियारी भाजी, कोकटी भाजी, बोदई भाजी। मशरूम को यहां छाती कहते हैं जिसमें डेंगुर छाती, केन्दु छाती, दाबरी छाती, बात छाती, कुटियारी छाती, पतर छाती, जाम छाती, मजुर डुण्डा, हल्दुलिया छाती आदि। झाडू के रूप में फूल बाड़न, काटा बाड़न, जिटका बाड़न, दाब बाड़न, सींध बाड़न आदि। वनोपज में चिरौंजी, आंवला, हर्रा, बहेड़ा, तेंदूपत्ता, साल, आम, जामुन, तेंदू आदि। इन सबको घरेलू उपयोग के साथ साथ बाजार में भी बेचा जाता है, जिससे थोड़ी आमदनी भी हो जाती है।
हरियाली बढ़ाने की यह पहल लीफ (लीगल एंड एनवायरमेंटल एक्शन फाउंडेशन) संस्था ने की है। अर्जुन सिंह नाग, इसके संस्थापक हैं, जो स्वयं आदिवासी हैं। लीफ संस्था ने ही महिला समूहों के माध्यम से इस काम को किया है। अर्जुन सिंह नाग कहते हैं कि पेड़-पौधे हर दृष्टि से उपयोगी हैं। आदिवासियों के जीवन में जंगल का बड़ा महत्व है। उनके खान-पान, उनके देवी देवता, उनकी आदिवासी संस्कृति सभी जंगल से जुड़ी है। इसलिए हमने जंगल को बचाने और हरियाली बढ़ाने का यह काम शुरू किया है। इससे हरियाली बढ़ेगी, ताजी हवा मिलेगी, पानी का संचय होगा, भूजल बढ़ेगा, सदाबहार नदियां व झरने होंगे, जैव विविधता और पर्यावरण बचेगा। मिट्टी का कटाव रूकेगा, पेड़ों पर पक्षी आएंगे, वे कीट नियंत्रण करेंगे। आदिवासियो के भोजन में पोषक तत्व होंगे, गांव के लोगों को खाने को कई चीजें मिलेंगी, भुखमरी मिटेगी, उनका स्वास्थ्य ठीक होगा। इन फलों व वनोपज की बिक्री से आमदनी बढ़ेगी। और आदिवासी संस्कृति व आदिवासियत बचेगी।
लीफ संस्था के सहयोग से गांवों में वनविहीन, बिगड़े वन एवं देवस्थल क्षेत्रों में अनेक प्रजातियों के पौधों का रोपण किया है, जिनकी ग्राम पंचायतों के सहयोग से सुरक्षा की जा रही है। विशेषकर, ग्राम संधकरमरी के मावली कोट, ग्राम आंवराभाटा के सौतपुर के खोड़िया भैरम, ग्राम जैतगिरी के धवड़ावीर, और ग्राम बदलावण्ड में माई दंतेश्वरी देवस्थल परिसर के वनक्षेत्रों में पौधारोपण किया गया है। इन पौधों में देसी प्रजाति एवं जड़ी बूटी औषधिपूर्ण पौधों का रोपण किया गया, जो अब जंगल के रूप में हरा-भरा हो गया है।
फोटो-2 इमली बीज निकालती महिलाएं
पेशे से वकील अर्जुन सिंह नाग बताते हैं कि पेड़ लगाने की तैयारी गर्मी के मौसम से शुरू हो जाती है। बीजों को एकत्र करना, उनकी साफ-सफाई करना, उनका रख-ऱखाव करना और नर्सरी में पौधे तैयार करना और फिर उन्हें लगाना। बीजों का रोपण का समय, उनकी भंडारण की पद्धति, अंकुरण की तकनीक, बीजों को मिट्टी के साथ मिलाकर बोना, जड़ों की छंटाई और निंदाई गुड़ाई इत्यादि सभी काम महिलाओं को पता हैं।
बीज संकलन के काम में गांव के लड़के, लड़कियां व चरवाहों को जोड़ा जाता है, उनके अलग-अलग समूह बनाए जाते हैं, गांव के बुजुर्ग गांव में पेड़ों की प्रजातियों के बारे में बैठक करते हैं। वे जंगल से बीज एकत्र कर लाते हैं। इनमें फलदार पेड़, घास, लता और कांटेदार पौधे, जड़ी-बूटी, वन खाद्य जैसे कंद-मूल, हरी पत्तीदार भाजियां शामिल हैं। इन रोपणियों में से पौधे बड़ी सावधानी से निकालते हैं और प्लास्टिक बैग समेत एक जगह से दूसरे जगह ले जाते हैं, यह काम सूखे दिनों में अप्रैल के मध्य में होता है। मानसून के पहले उन स्थानों पर पौधे पहुंचाए जाते हैं, जहां इनका रोपण करना है।
वे आगे बताते हैं कि वनसंरक्षण का काम 15 गांवों में किया जा रहा है। गांवों में हरियाली बढ़ाने के काम की शुरूआत वर्ष 2004 से हुई थी, वर्ष 2013 से राजिम ( छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में) स्थित प्रेरक संस्था के सहयोग से इस काम में तेजी आई है। जंगल की संस्कृति बचाने का प्रयास किया जा रहा है। अगर हमें आदिवासियों की खाद्य सुरक्षा व खाद्य संस्कृति को बचाना है तो खेती व जंगल का गैर खेती खाद्य ( जंगली खाद्य) बचाना और उसका संवर्धन करना जरूरी है।
फोटो-3 कंगोली नर्सरी में पौधों की देखभाल
नाग जी ने बताया कि हमारी नर्सरी से करीब एक लाख पौधे पड़ोसी राज्य तेलंगाना और आंध्रप्रदेश को भेजे गए थे। यह वर्ष 2017 की बात है। वहां के वनविभाग ने इसकी मांग की थी। वहां के वन विभाग के अधिकारी यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि इन पौधों की अंकुरण क्षमता बहुत उम्दा किस्म की थी। बाद में तेलंगाना वनविभाग ने लीफ संस्था से जुड़े आदिवासी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देने के लिए आमंत्रित किया जिससे आदिवासियों में आत्मविश्वास आया और इस काम में तेजी आई।
आदिवासियों की परंपरा में हमेशा से ही जंगल बचाना रहा है। इसे यहां की परंपराओं से समझा जा सकता है। बस्तर के वनों में देसी प्रजाति के मौसमी फल व वन खाद्य प्रचुर मात्रा में मिलते हैं जिन्हें ग्रामवासी संग्रहण करते हैं। चाहे कृषि उपज हो या वनोपज, जब तक पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं हो जाते तब तक इन्हें ग्रहण नहीं किया जाता। इन फसलों को परिपक्व होने की स्थिति में प्रत्येक गांव में ग्राम देवी देवता को सबसे पहले अर्पण करते हैं फिर खुद ग्रहण करते हैं।
इसी तरह वनोपज में विशेषकर बस्तर के जंगल में कई प्रजातियों के देशी आम अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। लेकिन इन आमों को बस्तर के आदिवासी तब तक नहीं खाते जब तक कि ये परिपक्व नहीं हो जाते। आम को खाने के पूर्व ग्राम देवी देवता को पारंपरिक रूप से अर्पण किया जाता है, उसके बाद ही लोग खाते हैं। यह त्यौहार प्रतिवर्ष मध्य अप्रैल से मई माह के पहले हफ्ते के बीच मनाया जाता है। इस परंपरा को सख्ती से पालन किया जाता है।
अगर कोई गांव आम त्यौहार का उल्लंघन करता है और उस तिथि से पहले आम त्यौहार मनाता है तो उस गांवों के लोगों से पानी तक ग्रहण नहीं किया जाता। इस परंपरा में आम पूरी तरह परिपक्व हो जाता है, तब उसकी गुठली से नया पौधा उगाते हैं ताकि वह पेड़ बनकर आने वाली पीढ़ी को फल व अन्य लाभ दे सके। इस तरह, वन संरक्षण एवं संवर्धन के आदिवासियों के अपने पारंपरिक तरीके हैं।
इसके बाद हम संधकरमरी गांव की नर्सरी पहुंचे। यह गांव जंगल बचाने में अग्रणी रहा है। यहां करीब 600 एकड़ जंगल को बचाया है। यह कमाल किया है यहां के दामोदर कश्यप ने, वह गांव के 35 साल तक निर्विरोध सरपंच भी रह चुके हैं। दामोदर कश्यप ने ही संधकरमरी गांव में 10 एकड़ जमीन नर्सरी के लिए दी है और लीफ संस्था का कार्यालय बनाने के लिए जमीन दान में दी है। संधकरमरी गांव के लोगों ने जंगल को बचाने के लिए ठेंगापाली पद्धति को अपनाया है।
क्या है ठेंगापाली पद्धति इसके जवाब में दामोदर कश्यप बताते हैं कि इसमें ठेंगा यानी एक खास तरह का बांस से निर्मित डंडा होता है। पाली यानी बारी। इसलिए इसे ठेंगापाली पद्धति कहा गया। इस डंडे पर गांववाले झंडे की तरह कपड़ा लपेट देते हैं। ग्रामदेवी के मंदिर में रख इसकी पूजा-अर्चना की जाती है। उस दिन से इस ठेंगा को लेकर लोग जंगल की रखवाली करते हैं।
जंगल की रखवाली करने के लिए सुबह निकलते हैं और शाम को लौटते हैं। शाम को यह ठेंगा ( डंडा) पड़ोसी के घर रख दिया जाता है। पड़ोसी और उसके बाजू वाले दो घर के लोग इसे लेकर दूसरे दिन रखवाली करने जाते हैं। इस तरह यह सिलसिला जारी रहता है। बरसों से यह क्रम चल रहा है। पहले एक दिन में गांव के 10-12 लोग जंगल की रखवाली करते थे। बाद में एक दिन में 3-3 लोग रखवाली करने के लिए तय किया गया। इस तरह दामोदर कश्यप ने उनके गांव के आसपास 6 सौ एकड़ जंगल बचाया है।
इसके अलावा, लीफ संस्था ने सब्जी बाड़ी ( किचिन गार्डन) का भी अच्छा काम किया है। ग्राम स्तरीय विकास में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने एवं उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर करने के उद्देश्य से 10 गांवों में महिला समूहों का गठन किया गया है। उनकी आर्थिक और स्वास्थ्य की स्थिति को बेहतर करने के लिए सब्जी बाड़ी का काम किया जा रहा है। और इसका प्रशिक्षण भी दिया गया है। इसके तहत् अलग से पानी की जरूरत नहीं है बल्कि घरेलू बर्तन वगैरह धोने के बेकार पानी से सब्जी बाड़ी की सिंचाई की जा सकती है। यह सब्जी बाड़ी पूरी तरह जैविक तरीके से की जा रही है, यानी बिना रासायनिक खाद के। ग्राम ककालगुर के केवराफूल महिला स्वसहायता समूह, सूरजफूल महिला स्वसहायता समहू समेत 10 महिला समूहों ने इसमें अच्छी सफलता हासिल की है। आज उनकी सब्जी बाड़ी से घर के लिए ताजी सब्जियां मिल रही हैं और अतिरिक्त होने पर बाजार में भी बेची जा रही हैं, जिससे कुछ आमदनी भी हो रही है।
पर्यावरणविद् व लीफ संस्था से जुड़े मधु रामनाथ कहते हैं कि नर्सरी का काम बहुत उपयोगी है। जलवायु बदलाव के दौर में इसकी प्रासंगिकता बढ़ गई है। ऐसे समय जब बारिश की अनिश्चितता बढ़ गई है, जंगलों की विरासत को बचाना जरूरी है। जहां जंगल हैं वहीं आदिवासी हैं और जहां आदिवासी हैं वहीं जंगल है। जलवायु बदलाव के दौर में पारम्परिक ज्ञान से जंगल और आदिवासी दोनों बच सकते हैं, पर्यावरण व जैव विविधता भी बच सकती है। यह सब हम बीजों के आदान प्रदान से, और एक दूसरे से सीख सकते हैं।
मधु रामनाथ कहते हैं कि नर्सरी का अनूठा काम बस्तर में किया जा रहा है। बीज संकलन सही समय व सुरक्षित तरीके से करना जरुरी है। यह समझना जरूरी है कि कुछ बीजों की अंकुऱण क्षमता कम समय की होती है, और कुछ बीज ज्यादा समय तक रहते हैं। सबको एकत्र करने की जरूरत नहीं है। इससे अच्छा तो यह है कि उन बीजों को पेड़ों के नीचे ही छोड़ देना चाहिए जिससे वे अंकुरित हो सकें। इस तरह वृक्षों के बारे में जानकारी एकत्र कर ही बीज संकलन किया जाए, यह काम लीफ संस्था अच्छे से कर रही है, उन्हें जंगल के पेड़ों के बारे में अच्छी जानकारी है। यह एक तरह से जंगलों को आदिवासियों की आजीविका से जोड़ना है।
फोटो 4 जंगली मशरूम बाजार में बिकता है
कोविड-19 की तालाबंदी के दौरान जब हाट-बाजार और दुकानें बंद थी, तब जंगल के वन खाद्य, कंद और हरी भाजियां भोजन का हिस्सा बनीं। लीफ संस्था से जुड़े मंगरूराम कश्यप बताते हैं कि तालाबंदी के दौरान कई तरह की हरी पत्तीदार भाजियां जैसे कोंयजारी भाजी, बेलुआं भाजी, कोलियारी भाजी, बोदई भाजी, पेंगु भाजी, कोकटी भाजी आदि जंगल से मिलीं। इसके साथ ही सोरंदाकंद, पीताकंद, टुंडरीकंद, पीटकंद, नागरकंद, तरगरियाकंद, कुलियाकंद, बुरकीकंद, सीकापेंदी कंद, डोंगरकंद, दपनकंद, सिंधकंद, कावराकंद आदि भी खूब खाया। इसके अलावा, बोड़ा या फुटू ( मशरूम) की सब्जी भी जंगल से मिली। दो प्रकार का होता है, जात बोड़ा ( मशरूम) पहली बारिश में निकलता है, जबकि लाकड़ी बोड़ा ज्यादा बारिश होने पर निकलता है। तालाबंदी के समय जात बोड़ा ( मशरूम) खूब मिला और इसे बेचा भी। इसकी कीमत प्रति किलो 1000 रूपए थी। मशरूम केन्दु छाती ( मशरूम), डेंगुर छाती, पत्तर छाती, मजुरडुंडा भी बहुत मिला। इसके साथ बस्तर में चापडा ( लाल रंग की चींटी) की सब्जी भी खाई गई। इसकी चटनी बनाकर खाई जाती है। सुखाकर भी खाते हैं। यानी तालाबंदी के दौरान जंगल ने आदिवासियों को बड़ा सहारा दिया। भोजन दिया।
फोटो 5 जंगल का खान पान है मशरूम
वनोपज के रूप में महुआ, चार, इमली, सालबीज का संग्रहण किया। तेंदूपत्ता संग्रहण का संग्रहण किया गया, जिससे आमदनी हुई।
कुल मिलाकर, यह पहल बहुत उपयोगी व सार्थक है। तालाबंदी के दौरान वन खाद्य भोजन का हिस्सा बने, वनोपज से कमाई हुई। जंगल व पेड़ लगाने का फौरी लाभ हुआ। साथ ही, इससे आसपास का जंगल हरा भरा हुआ है, भूजल स्तर बढ़ा है। जंगल है तो आदिवासी हैं, जंगल से कई तरह के पोषक वन खाद्य मिल रहे हैं। हरी पत्तीदार सब्जियां मिल रही हैं। साल बीज, तेंदूपत्ता, महुआ, आम, शहद, चिरौंजी जैसी वनोपज मिल रही हैं। उनकी आजीविका सुनिश्चित हुई है। महिला सशक्तीकरण का यह अच्छा उदाहरण है। यह जंगल की सुरक्षा की समुदाय की परंपरा है, उसे पुनर्जीवित किया है, आदिवासी संस्कृति में सामुदायिक भागीदारी को बढ़ाया है। जंगल को लगाया है और कटने से बचाया है। बांस की बेजा कटाई पर रोक लगाई है। जैव विविधता और पर्यावरण का संरक्षण भी हुआ है। आदिवासी युवाओं को इससे जोड़ा है, जंगलों की समृद्ध विरासत को सहेजा है।
फोटो 6 ककालगुर में वन प्रबंधन की बैठक
-अतुल अनेजा
चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने महासचिव शी जिनपिंग के कद को पार्टी राज्य के संस्थापक कहे जाने वाले माओ त्से तुंग के अनुरूप करने के लिए एक और कदम उठाया है। हालांकि, ऐसा कहा जाता है कि माओ के शासनकाल में उनकी नीतियों ने लाखों लोगों की जान ले ली थी और 1976 में उनकी मृत्यु के समय चीन पतन की कगार पर पहुंच गया था।
बीजिंग में मंगलवार को कूटनीति पर शी जिनपिंग के विचार किताब जारी की गई। प्रकाशन ने शी जिनपिंग विचार के लिए 'नए युग' के रूप में एक महत्वपूर्ण आयाम को बढ़ाया है जिसका अनावरण सीपीसी की 19वीं पार्टी कांग्रेस के दौरान अक्टूबर 2017 में किया गया था।
दो दशक के संयोजन के दौरान शी की हैसियत को माओ के अनुसार ऊंचा किया गया क्योंकि वह पीआरसी के संस्थापक के बाद एकमात्र चीनी नेता हैं जिनके विचार पार्टी के संविधान में निहित किए गए हैं। यहां तक कि शी की तुलना में चीन के सुधारों के वास्तुकार डेंग शियाओपिंग की स्थिति भी छोटी हो गई। पार्टी के संविधान में डेंग के सिद्धांत के योगदान को माओ और शी के विचार के एक पायदान नीचे मान्यता दी गई है।
शी को 2016 में 'कोर' नेता के रूप में भी नामित किया गया था। यह एक ऐसी उपाधि है जो माओ और देंग सहित शक्तिशाली चुनिंदा चीनी नेताओं के लिए आरक्षित रही है।
बीजिंग में मंगलवार को चीनी उच्च अधिकारियों ने फैसला किया कि कोरोना महामारी के बाद चीन की सत्ता में शी के सर्वोच्च अधिकार को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) में माओ जैसे अधिकार के रूप में फिर से पुष्ट किया जाना अब अति आवश्यक हो गया है।
चीन इन आरोपों की सुनामी का सामना कर रहा है कि उसने जानबूझकर या अनजाने में कोविड-19 महामारी फैलाई है जिसने सीपीसी को एक मौलिक विकल्प चुनने के लिए मजबूर किया है। पार्टी या तो घुटनों में चेहरा छिपाकर इन वैश्विक हमलों की अनदेखी कर सकती है या फिर इसके विपरीत वह आक्रामक रुख अपनाकर शी के नेतृत्व में पूर्ण राजनीतिक सामंजस्य के साथ अपनी सैन्य शक्ति को एक निवारक के रूप में प्रदर्शित कर सकती है।
इस दुविधा के बीच बीजिंग ने आक्रामक दृष्टिकोण अपनाने का फैसला किया। इसने एक साथ दो भौगोलिक थिएटरों में अपनी ताकत दिखाना शुरू कर दिया। पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए), जिसके कमांडर-इन-चीफ शी हैं, ने मजबूती से उभरते भारत के साथ सीधे तनाव में लद्दाख में घुसपैठ की। पश्चिम प्रशांत क्षेत्र में पीएलए नेवी (पीएलएएन) ने संसाधन संपन्न दक्षिण चीन सागर में अपने समुद्री दावों को लागू करने के लिए शक्ति दिखाना शुरू किया। एक तरफ भारतीय सशस्त्र बल लद्दाख में पीएलए के सामने डट गए, दूसरी तरफ अमेरिकियों ने सभी चीनी दावों को अस्वीकार करते हुए दक्षिण चीन सागर में दो विमान वाहक पोत भेजे। इस इलाके में वियतनाम, फिलीपींस, मलेशिया, थाईलैंड और ब्रुनेई जैसे आसियान देशों के संप्रभुता के अपने-अपने दावे हैं।
इस परिदृश्य में चीन ने शी जिनपिंग के कूटनीति पर विचार को 'शी जिनपिंग डिप्लोमैटिक थॉट रिसर्च सेंटर' के गठन के साथ संस्थागत बनाने का फैसला किया। यह दुनिया को यह बताने के लिए है कि शी की अगुवाई में सीपीसी नेतृत्व पूरी मजबूती से काम कर रहा है और शायद कोविड-19 के बाद और भी मजबूत हुआ है।
केंद्र के उद्घाटन के दौरान चीनी विदेश मंत्री व स्टेट काउंसलर वांग यी ने भी आश्चर्यजनक रूप से खुलकर खुलासा किया कि शी का चीन एक मध्यकालीन साम्राज्य 2.0 की महत्वाकांक्षाएं रखता है। इस सिद्धांत के तहत चीन, पहले के शाही चीन की तरह, प्रमुख 'सार्वभौमिक' शासक बनने के लिए इच्छुक है, जो कई सहायक राज्यों द्वारा प्रतिस्थापित (रेपलेनिश्ड) किया जाएगा और जिन्हें बदले में बीजिंग में रहने वाले 'अधिपति' (सुजैरेन) द्वारा सुरक्षा मिलेगी।
वांग ने मध्य साम्राज्य की आकांक्षाओं की गूंज के साथ कहा, "चीनी राष्ट्र के महान कायाकल्प के सपने के साकार होने का आज जैसा समय पहले कभी नहीं आया।"
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि शी जिनपिंग के चीनी विशेषताओं के साथ 'डिप्लोमैटिक थॉट्स ऑन सोशलिज्म' के नए युग में चीन एक ऐसे मंच पर आ गया जहां वह वैश्विक एजेंडा को आकार देने में नेतृत्व करेगा।
वांग ने कहा, "हम वैश्विक शासन प्रणाली में सुधार का नेतृत्व करने के लिए पहल करते हैं, वैश्वीकरण के विकास को अधिक समावेशी और समावेशी दिशा में बढ़ावा देते हैं और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के विकास को और अधिक उचित दिशा में बढ़ावा देते हैं।"
चीन के मध्य साम्राज्य के सपनों को पूरा करने वाले 'दो शताब्दी के लक्ष्यों' में शी ने 19वीं पार्टी कांग्रेस के दौरान घोषणा की थी कि चीन 2020 में 'मध्यम समृद्ध समाज' और 2050 तक एक 'बेजोड़ पूर्ण विकसित देश' बन जाएगा, जो पीआरसी के गठन की शताब्दी को चिह्न्ति करेगा।
फाइनेंशियल टाइम्स के गिडियोन रैचमैन ने एलएसई आईडीईएएस स्पेशल रिपोर्ट के एक लेख में कहा, "अब यह साफ प्रतीत हो रहा कि चीनी राष्ट्रपति चीन को उसके उस पारंपरिक स्थान पर लौटाने की कोशिश कर रहे हैं जो उसके लंबे इतिहास में एशिया में उसके एक शक्तिशाली क्षेत्रीय शक्ति का रहा था।"
'झेनगू' या मध्य साम्राज्य की कल्पना के तहत, जिसे झोउ राजवंश से जोड़ा जा सकता है, माना जाता है कि चीनी शाही राजवंशों ने क्रूर सैन्य बल के साथ व्यापार और वाणिज्य किया था, जिसने उन्हें मध्य एशिया, कोरियाई प्रायद्वीप के कुछ हिस्सों और पूरे दक्षिण पूर्व एशिया में एक सहायक प्रणाली बनाने के लिए सक्षम किया था।
पूरी तरह से क्षेत्रीय या यू कहें कि वैश्विक प्रभुत्व हासिल करने की चीन की कोशिश में, भारत अपनी बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ एक कठोर बाधा पेश कर रहा है।
पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के मीडिया का हिस्सा चीनी वेबसाइट शिलू डॉट कॉम ने माना है कि 21 वीं सदी के उत्तरार्ध तक चीन का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी निश्चित रूप से भारत होगा।(indianarrative)
मनीष सिंह
मैं आपको बताता हूँ कि मैं असंतोष पैदा करने वाला क्यों बन गया हूं।
मैं अदालत को भी यह भी बताऊंगा कि मैंने भारत में सरकार के प्रति असंतोष को बढ़ावा देने के आरोप में खुद को दोषी क्यों माना है- जिन जज के सामने हर कोई खुद को निर्दोष बताता था, वह भौचक्का हो पहले ऐसे शख्स का चेहरा निहार रहा था, जो बगैर बहस, खुशी से खुद को दोषी करार दे रहा है, ऊपर से उसके तर्क भी बता रहा है।
1922 में यंग इंडिया में लेख के आधार ओर गांधी पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। पुलिस ने पकड़ा, जज के सामने पेश किया। गांधी ने आरोप छाती ठोककर स्वीकारा, खुद को राजद्रोही बताया।
यह देश मे गांधी की स्वीकार्यता को अचानक ही इतनी उछाल दे गया, जिसकी अंग्रेज सरकार ने कल्पना नही की थी। असहयोग आंदोलन की असफलता के बाद गांधी की विश्वनीयता और लीडरशिप दांव पर थी। आपदा को अवसर में बदलते हुए गांधी ने वो दांव खेला, कि सरकार उलझ गयी। न चाहते हुए सजा देनी पड़ी। फिर कम्यूट भी करनी पड़ी।
पूरे प्रकरण में हुआ बस ये कि, जनता में गांधी की शुध्दता और हिम्मत जनमन में स्थापित हुई। इसके बाद राजद्रोह का आरोप लगाकर फसने का काम ब्रिटिश सरकार ने दोबारा नही किया।
अन्ना आंदोलन का बड़ा खास मोड़ था जब सरकार ने अन्ना को साथियों सहित तिहाड़ में जेलबन्द किया। मुद्दा तूल पकडऩे पर सरकार ने उन्हें छोडऩा चाहा, तो उनकी टीम ने जमानत लेने से इनकार कर दिया। बगैर जमानत के छोड़े जाने के आदेश होने पर भी जेल छोडऩे से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि अनुमति के बगैर आंदोलन और भूख हड़ताल की वजह से उन्हें गिरफ्तार किया गया है, वह निकलते ही फिर वही करेंगे, आप फिर गिरफ्तार करेंगे। तो बेहतर है हम निकलें ही नही।
सरकार ने हाथ जोडक़र जेल से बाहर निकाला। मजबूरन आंदोलन की अनुमति दी। आंदोलन रातोरात बड़ा हो गया।
भाजपाई नेता की महंगी बाइक को कॅरोना लॉकडाउन के दौरान बगैर मास्क, सवारी करते चीफ जस्टिस की तसवीरें आयी। प्रशांत भूषण ने यही लिखकर ट्वीट कर दिया। कोर्ट ने स्वत:स्फूर्त संज्ञान लेकर कंटेम्प्ट का मामला दायर किया है।
प्रशांत भूषण महात्मा गांधी की तरह खुद वकील हैं, अन्ना आंदोलन के शिल्पकार रहे हैं। मैं उम्मीद में हूँ कि इस आपदा को अवसर में बदलकर दिखाएंगे।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल भारत और अमेरिका के बीच जैसा प्रेमालाप चल रहा है, मेरी याददाश्त में कभी किसी देश के साथ भारत का नहीं चला। शीतयुद्ध के घनेरे बादलों के दौरान जवाहरलाल नेहरु और सोवियत नेता ख्रुश्चोफ और बुल्गानिन के बीच भी नहीं। इसका कारण शायद यही समझा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी की मोहिनी ने डोनाल्ड ट्रंप को सम्मोहित कर लिया है। यह समझ नहीं, भ्रम है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में व्यक्तिगत संबंधों की भूमिका बहुत सीमित होती है। उसका संचालन राष्ट्रहितों के आधार पर होता है। इस समय ट्रंप प्रशासन चीन के घुटने टिकवाने के लिए कमर कसे हुआ है। इसीलिए वह भारत के प्रति जरुरत से ज्यादा नरम दिखाई पड़ रहा है।
उसने कोविड-19 के लिए चीन को सारी दुनिया में सबसे ज्यादा बदनाम किया। उसने चीन के विरुद्ध यूरोपीय संघ और आग्नेय एशिया के राष्ट्रों को लामबंद किया। अमेरिकी कांग्रेस (संसद) में चीन को धमकाने के लिए एक प्रस्ताव भी लाया गया। उसमें अमेरिकी सांसदों ने चीन से कहा है कि वह भारत के साथ तमीज से पेश आए। डंडे के जोर से वह भारत की जमीन हड़पने की कोशिश न करे। अमेरिका ने ताइवान को लेकर पहले चीन से अपनी भिट्टियां भिड़ा रखी थीं, अब हांगकांग के सवाल पर उसने पूरा कूटनीतिक मोर्चा ही खोल दिया है। दक्षिण चाइना-सी के मामले में वह चीन के पड़ौसी और तटवर्ती राष्ट्रों का खुलकर समर्थन कर रहा है।
गलवान घाटी में हुई भारत-चीन मुठभेड़ तो ऐसी है, जैसे ट्रंप के हाथों बटेर लग गई। पहले उन्होंने दोनों देशों के बीच मध्यस्थता की पहल की और फिर चीन के विरुद्ध छर्रे छोडऩे शुरु कर दिए। दोनों देशों, भारत और चीन के विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री, मुख्य सेनापति और व्यापार मंत्रियों के बीच सघन वार्ताएं जारी हैं। मानो वे किसी युद्ध की तैयारी कर रहे हों। हमारे अंडमान-निकोबार द्वीप के आस-पास अमेरिकी नौ सैनिक जहाज ‘निमिट्ज’ के साथ भारतीय जहाज सैन्य-अभ्यास भी कर रहे हैं। अमेरिका चाहता है कि यदि उसे चीन के खिलाफ एक विश्व-मोर्चा खोलना पड़े तो एशिया में भारत उसका सिपहसालार बने। भारत को अमेरिका का यह अप्रत्याशित टेका भी खूब सुहा रहा है, क्योंकि भारत के लगभग सभी पड़ौसियों पर चीन ने डोरे डाल रखे हैं लेकिन भारतीय विदेश-नीति निर्माता यह भयंकर भूल कतई न करें कि वे अमेरिका के मोहरे बन जाएं। इस अमेरिकी मजबूरी का फायदा जरुर उठाएं लेकिन यह जानते हुए कि ज्यों ही अमेरिकी स्वार्थ पूरे हुए कि वह भारत को भूल जाएगा और फिर ट्रंप का कुछ पता नहीं कि वे दुबारा राष्ट्रपति बनेंगे या नहीं ? (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-पीटर यूंग
कोलंबिया के एंडीज पहाड़ों पर बसे औपनिवेशिक शहर बारिचरा में साल का सबसे अहम दिन क्रिसमस, नया साल या ईस्टर का नहीं होता.
यहां साल के सबसे अहम दिन को स्थानीय लोग 'ला सैलिडा' कहते हैं, जिसका अर्थ होता है बाहर निकलना.
इस दिन बारिचरा की गलियों में कुछ होने की आशा बढ़ जाती है. गलियां बुहारने वाले और घरों में साफ-सफाई करने वाले लोग अपना काम बंद कर देते हैं. बच्चे स्कूल से बाहर निकल आते हैं और दुकानदार दुकान छोड़कर गायब हो जाते हैं.
सभी लोग बेशकीमती "होर्मिगस कुलोनस" या "बड़ी चींटी" की तलाश में रहते हैं जिनको उत्तर-मध्य कोलंबिया के सांटेंडर इलाके में कैवियार (मछली के बेशकीमती अंडे) समझा जाता है.
हर साल वसंत में आसपास के देहाती इलाकों से ऐसी लाखों चींटियां पकड़ी जाती हैं. मनोवैज्ञानिक से शेफ बनी मार्गेरिटा हिगुएरा 2000 से बारिचरा में रह रही हैं.
वह कहती हैं, "इसमें पहले आओ पहले पाओ चलता है. अगर आपने किसी चींटी के घोंसले के ऊपर अपनी बाल्टी रख दी तो वह आपका हुआ, भले ही ज़मीन आपकी हो या न हो."
चींटी पकड़ने का उत्सव
हर साल मार्च या अप्रैल में यह उत्सव तब होता है जब भारी बारिश के बाद तेज़ धूप निकली हो और रात में चांदनी बिखरी हो.
ला सैलिडा से चींटियों का सालाना प्रजनन मौसम शुरू होता है जो दो महीने तक जारी रह सकता है. इसी दौरान स्थानीय लोग ज़्यादा से ज़्यादा रानी चींटियों को पकड़ने के लिए छीना-छपटी करते हैं.
अंडों से भरी हुई और प्रजनन के लिए तैयार भूरी, कॉकरोच के आकार की रानी चींटियां किसी ट्रॉफी की तरह होती हैं.
उनका पिछला हिस्सा फूलकर मटर के दाने जैसा होता है. इसे नमक मिलाकर भूनने से यह मूंगफली, पॉपकॉर्न या खस्ते बेकन जैसा लजीज हो जाता है.
चींटियों के पंखों को अलग करते हुए हिगुएरा कहती हैं, "मेरे लिए यह जायका अनोखा होता है."
"यह मेरे अतीत की याद दिलाता है. मुझे याद है कि एक बार मेरे दादाजी चींटियों से भरा एक पूरा बैरल खरीदकर लाए थे. हम अंदर उनके सरसराने की आवाज़ सुन सकते थे. उनको तैयार करने के लिए पूरा परिवार एक साथ बैठा था."
रानी चींटियों को लजीज पकवान की तरह खाया जाता है. सड़क किनारे की कुछ दुकानों में उनको तैयार किया जाता है.
कामकाजी परिवारों की रसोइयों में उनको भूना जाता है और वे पूरे कोलंबिया के महंगे रेस्तरां के मेन्यू में भी शामिल हैं.
एक किलो रानी चींटियों के बदले तीन लाख पेसो (65 पाउंड) मिल सकते हैं. इस तरह ये कोलंबिया के मशहूर कॉफी से भी महंगे हैं. स्थानीय लोगों के लिए ये कमाई के अच्छे स्रोत हैं.
बारिचरा में सड़कों की सफाई करने वाले फ़ेडेरिको पेड्राज़ा कहते हैं, "होर्मिगस जमा करके मैं एक ही दिन में हफ्ते भर के बराबर कमा सकता हूं. लेकिन यह मुश्किल काम है. चींटियां रानी चींटी को आसानी से ले जाने नहीं देतीं."
ख़तरा बहुत है
यह काम टखने की ऊंचाई तक के रबर बूट और लंबी आस्तीन पहनकर किया जाता है. काम तेज़ी से निपटाना पड़ता है वरना रानी की सुरक्षा के लिए तैनात कॉलोनी की सैनिक चीटिंयां हमला कर देती हैं. उनके काटने से तीखा दर्द होता है और ख़ून बाहर आ सकता है.
गांव वाले खेतों में फैल जाते हैं और उनके पास जो भी हो- थैला, मग, बरतन या बोरा- उसमें रानी चींटियों को जमा करते जाते हैं. यह काम दिन में होता है जबकि उनका लजीज पकवान रात के भोजन में खाया जाता है.
एटा लाविगाटा प्रजाति की चींटियां दक्षिण अमरीका की लीफ़कटर चींटिंयों के नाम से भी जानी जाती हैं.
उनमें भरपूर प्रोटीन होता है, साथ ही ये अनसैचुरेटेड फ़ैटी एसिड से भरी होती हैं जो कोलेस्ट्रोल को बढ़ने नहीं देता.
"फ्रंटियर्स इन न्यूट्रिशन" जर्नल में प्रकाशित शोध से पता चलता है कि चींटियों में एंटी-ऑक्सीडेंट होता है और उनको नियमित रूप से खाने से कैंसर रोकने में मदद मिल सकती है.
"यही वजह है कि बारिचरा के लोग लंबी और सेहतमंद ज़िंदगी जीते हैं"- यह दावा है सेसिलिया गोज़ालेज़-क्विंटेरो का जो पिछले 20 साल से कांच के जार में चींटियां बेच रही हैं. "चींटियां हमें विशेष ताक़त देती हैं- ख़ासकर बड़ी नितंब वाली रसदार चींटियां."
पारंपरिक खाना
सांटेंडर के आसपास पिछले 1400 साल से होर्मिगस कुलोनस को खाया जाता है. ऐतिहासिक रिकॉर्ड के मुताबिक मध्य कोलंबिया के देसी गुआन लोगों ने सबसे पहले 7वीं सदी में चींटियों की खेती और उसे खाना शुरू किया था. बाद में स्पेन से आए लोगों ने भी यह आदत अपना ली.
जिन परिस्थितियों में इन चींटियों को पकड़ा जाता है उस वजह से इनको कामोत्तेजक भी माना जाता है. शादियों में अक्सर चीनी मिट्टी के बर्तनों में भरकर इनको उपहार के तौर पर दिया जाता है.
एंडीज के देसी समुदायों में यह प्रथा आम है. नारंगी-पीली ज़मीन पर चलने और इसी रंग की मिट्टी से पारंपरिक घर बनाने के कारण इन समुदायों को पीले पैर वाले समुदाय के रूप में जाना जाता है.
पास के बुकरमंगा शहर में इन चींटियों की बड़ी-बड़ी धातु की मूर्तियां बनाई गई हैं. दीवारों पर भी उनके रंग-बिरंगे चित्र देखे जा सकते हैं.
टैक्सी ड्राइवर भुने हुए कुरकुरे होर्मिगस खाने के लिए रुकते हैं और बच्चे चींटियों के खिलौनों से खेलते हैं.
कोलंबिया का लजीज पकवान
हाल के वर्षों में, चींटियों के खाने की लोकप्रियता बढ़ी है. इनकी पहचान अब स्थानीय व्यंजन की जगह पौष्टिक खाने की हो गई है.
ग्राहकों की मांग पूरी करने के लिए हर साल ट्रकों में भरकर रानी चींटिंयां पूरे कोलंबिया में भेजी जाती हैं.
राजधानी बगोटा के महंगे रेस्तरां के सीज़नल मेन्यू में भी उनको शामिल किया गया है. जैसे- मिनी-माल, जिसमें चींटियों को अमेज़ॉन की पिरारुकु मछली के साथ परोसा जाता है या भुने हुए बीफ़ के साथ काली मिर्च और चींटियों की चटनी दी जाती है.
शेफ एडुआर्डो मार्टिनेज़ कहते हैं, "चींटियां कोलंबिया के खानपान का अहम हिस्सा हैं."
मार्टिनेज़ ने चींटियों को पहली बार तब चखा था जब वह नौ साल के थे और परिवार के साथ सांटेंडर आए थे. "मैं उनके प्रयोग को बढ़ावा देना चाहता हूं ताकि यह परंपरा कायम रहे."
क्या चींटियां ख़त्म हो जाएंगी?
हाल में पेड़ कटने और शहरीकरण के कारण चींटियों और सांटेंडर के लोगों के बीच समस्याएं पैदा हुई हैं.
आबादी बढ़ने से चींटियां इमारतों की नींव में घुस जाती हैं. वे फसलों को नुकसान पहुंचाती हैं जिससे किसानों के झगड़े होते हैं.
इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन ने भी चींटियों के प्रजनन चक्र को प्रभावित किया है. अनियमित मौसम ने उनकी कॉलोनियों में आर्द्रता, धूप और बारिश के संतुलन को बिगाड़ दिया है.
उनका मेटिंग सीजन बहुत विशिष्ट मौसम परिस्थितियों पर निर्भर करता है. यदि मिट्टी मुलायम न हो तो रानी चींटियां अपनी भूमिगत सुरंगों से आसानी से बाहर नहीं आ सकतीं.
इसी तरह पेड़ कटने और शहरीकरण बढ़ने से चींटियों के प्राकृतिक आवास पर असर पड़ा है, उनके घोंसले फैलने की जगह सीमित हो गए हैं.
बड़े पैमाने पर खपत के लिए चींटियों की ब्रीडिंग के तरीकों का अध्ययन कर रही बुकरमंगा की रिसर्चर औरा जुडिट कुआड्रोस कहती हैं, "पारिस्थितिकी बदल रही है."
"यदि सही स्थितियां नहीं हैं तो चींटियां पैदा नहीं हो सकतीं या वे ज़मीन पर बाहर नहीं निकल सकतीं."
फिर भी बारिचरा के ढलानों से लेकर सैन गिल, क्यूरिटि, विलेनुएवा और गुआन शहरों के चारों ओर फैली घाटियों में उनके मिलने का मतलब है कि इन चींटियों के अस्तित्व पर अभी कोई ख़तरा नहीं है.
लड़ाकू चींटियां
स्थानीय गाइड और चींटी विशेषज्ञ एलेक्स जिमेनेज़ ने पेड़ की टहनी से चींटियों के घोंसले के दरवाजे पर कुछ हरकत की. कुछ ही देर में सैंकड़ों सैनिक चींटियां हालात को समझने के लिए बाहर निकल आईं.
जिमेनेज़ के मुताबिक एक घोंसले में कई हज़ार से लेकर 50 लाख तक चींटियां हो सकती हैं. अगर सुरंगें सही बनाई गई हों तो उनकी लंबाई कई मील तक हो सकती है.
घोंसले की रानी चींटी 15 साल तक ज़िंदा रहती है लेकिन उसके मरने के बाद कॉलोनी को वहां से जाना पड़ता है और नया निर्माण करना पड़ता है.
जिमेनेज़ कहते हैं, "चींटियों की अपनी समझदारी होती है. वे मिलकर काम करते हैं ताकि सबका अस्तित्व बना रहे. हजारों सालों से उनको खाया जा रहा है लेकिन वे ख़त्म नहीं होंगीं."
अपनी बात साबित करने के लिए जिमेनेज़ पिछले साल का अनुभव बताते हैं. चींटियों के प्रजनन मौसम में जिमेनेज़ अपने दोस्तों के साथ 6 किलोमीटर की साइकिल यात्रा पर निकले थे.
देहाती इलाकों की उनकी यात्रा में 30 मिनट लगने चाहिए थे लेकिन उसमें चार घंटे लगे क्योंकि चींटियों को देखकर उनका दल रुक जाता था और अधिक से अधिक चींटियों को इकट्ठा करता था. पहाड़ियों पर पूरा गांव उनके साथ चींटियां जमा करने में जुट गया.
"उस रात पूरा शहर होर्मिगस की ख़ुशबू से भर गया था. होर्मिगस! होर्मिगस! होर्मिगस!"(bbc)
-अमिताभ बेहार
‘सिविल सोसाइटी’ के बढ़ते ‘संस्थानीकरण’ के दौर में काम को ‘सुव्यवस्थित’ रूप से करने का चलन बढ़ा है। इसका अर्थ यह है कि ‘सिविल सोसाइटी’ अब एक सुरक्षित माहौल में काम करना चाहती है, पर दबे-कुचलों की आवाज़ उठाना सुरक्षित माहौल में कहाँ हो पाता है? इसका नतीजा यह है कि समुदायों से ‘सिविल सोसाइटी’ का जो अर्थपूर्ण रिश्ता था, वह टूट-सा गया है। रिश्ते के नाम पर अब अधिकतर एक हितग्राही और एक प्रदाता संस्था है। ऐसे रिश्ते से दो गंभीर नुक्सान हुए हैं पहला कि सरकार और बाजार, दोनों के सामने ‘सिविल सोसाइटी’ की छवि कमज़ोर पडी है। समुदायों से नज़दीकी ही ‘सिविल सोसाइटी’ की प्रमुख ताक़त थी जो अब कमज़ोर पड़ गयी है। (अमिताभ बेहार द्वारा लिखा गया यह लेख पहले अंग्रेजी में ‘इंडियन डेवलपमेंट रिव्यू’ की वेबसाइट पर छपा था और इस पर उसकी बेबाकी और पैने सवालों के कारण काफी चर्चा हुयी थी। इसका संपादित हिन्दी अनुवाद ईशान अग्रवाल ने किया है। )
सुप्रीम कोर्ट ने मार्च2020को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था जिस पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया। अदालत ने‘इंसाफ’(इंडियन सोशल एक्शन फोरम) नामक स्वयंसेवी संस्था के पक्ष में फैसला सुनाते हुए‘विदेशी अंशदान विनियमन क़ानून– 2011’(एफसीआरए) के मौजूदा प्रावधानों के ठीक विपरीत‘सिविल सोसाइटी’के‘राजनीतिक उद्देश्य से हस्तक्षेप करने के अधिकार’को वैधठहराया है। इस फैसले कोभारत में जनतंत्र की जड़ों को मज़बूत करने वाला एक महत्त्वपूर्ण कदम माना जा सकता है। ख़ासतौर से मौजूदा दौर में इसकी बडी अहमियत है।
इस फैसले के केंद्र में “राजनीतिक उद्देश्य या कहिये सत्ता पाने के उद्देश्य से किये गए राजनीतिक हस्तक्षेप और सामाजिक या मानवाधिकारों की दृष्टि से किये गए राजनीतिक हस्तक्षेप के बीच का फर्क है जो कि‘सिविल सोसाइटी’को हक़ देता है कि वह इस देश के करोड़ों मज़लूमों के लिए आवाज़ उठाये। जनतंत्र और अधिकारों की रक्षा के लिए किये गए राजनीतिक कार्यों को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में वैध ठहराया है।
हालाँकि इसमें कोई शक नहीं कि इन कार्यों के लिए देश में ही जुटाई गयी राशि बेहतर रहेगी,पर फैसले ने विदेशी धनराशि के उपयोग को भी वैध ठहराया है। कोर्ट ने कहा है कि विरोध प्रकट करने के वैध तरीकों को प्रयोग करने के कारणकिसी‘सिविल सोसाइटी’या संस्था को राजनीतिक संस्था नहीं माना जा सकता और इसके लिए उस संस्था को दण्डित करना अनुचित है।
इस फैसले के दूरगामी प्रभावों के बावज़ूद, ‘सिविल सोसाइटी’ने इस पर कोई ख़ास उत्साह नहीं दिखलाया है। जाहिर है,इस शिथिल प्रतिक्रिया से कुछ सवाल उठते हैं। जैसे कि क्या “इंसाफ” की लड़ाई बेकार गयी?क्याइसका महत्व लोगों को समझ नहीं आया?या‘सिविल सोसाइटी’अपनी राजनीतिक भूमिका को लेकर उदासीन है। इस फैसले के दौरान देशभर में सामाजिक समरसता को होने वाले खतरों के विरुद्ध एक आंदोलन चल रहा था और दिल्ली उसके केंद्र में थी। फिर भी अधिकांश संस्थाओं ने न तो इस आंदोलन के प्रति अपनी दिलचस्पी दिखाई न ही उसका मैदानी समर्थन किया। सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ?अधिकांश सामाजिक संस्थाएं अपने‘मिशन’और‘विज़न’में जिन मूल्यों का ज़िक्र करती हैं,उनमें न्याय,समता,सामाजिक-समरसता,पंथ-निरपेक्षता आदि प्रमुख हैं। दूसरे शब्दों में,संस्थाओं के उद्देश्यों में ऐसे विशुद्ध राजनीतिक मूल्यों के व्यक्त होने के बावजूद यदि संस्थाएं इस निर्णय को तवज्जो नहीं देतीं तो आश्चर्य होना लाज़िमी है।
आज की परिस्थितियों मेंजब सामाजिकआर्थिक और राजनीतिक ताक़तें संवैधानिक मूल्यों और जनतंत्र का गला घोंटने में लगी हैं, ‘सिविल सोसाइटी’को खुद के अ-राजनीतिकरण के प्रश्न से जूझना ही चाहिए।
दान और एक्टिविज़्म : क्या ये एक जीरो सम गेम है
भारत जैसी विषम सामाजिक परिस्थितियों वाले देश में हमेशा वंचितों,दबों-कुचलों को सहारा देने वाली संस्थाओं की ज़रुरत होगी। ऐसी संस्थाएं और ट्रस्ट जो भूखों को खाना खिलाएं,बेसहारों को शरण दें,उन्हें जरूरी पूँजी पहुंचाएं जिससे वे अपना जीवन-यापन कर सकें। साथ में ऐसी सामाजिक संस्थाओं की भी ज़रुरत होगी जो इस पूरे मुद्दे को,लोगों पर करुणा की दृष्टि से नहीं,उनके अधिकारों की दृष्टि से देखें। वे जो दलितों,आदिवासियों,अल्पसंख्यकों को आवाज़ दे सकें। वे जो पेड़ोंजंगलों,नदियों,जीव-जंतुओं की भी आवाज़ बन सकें और राज्य या पूंजीपति यदि गरीबों के संसाधनों पर कब्ज़ा कर रहे हों,तो न्याय के लिए लोगों को खड़ा कर सकें। वे जो किसी-न-किसी तरह इस देश में लोकतंत्र को मज़बूत करने में अपना योगदान दें। शक्ति का लोकतांत्रीकरण‘सिविल सोसाइटी’के वजूद की एक माक़ूल वजह है। इसे चाहे किसी भी तरह,किसी भी खाके से पाने की कोशिश की जा रही हो, ‘सिविल सोसाइटी’का एक बड़ा तबका असल में इसी कोशिश के लिए पैदा हुआ था,लेकिन इसके बावजूद आज‘सिविल सोसाइटी’ऐसी स्थिति में हैं जहाँ वह बात तो गंभीर राजनीतिक चिंतन की करती हैपर उसे क्रियान्वित करने में अराजनीतिक होती हैं या होना चाहती हैं।
आज सिविल सोसाइटी गैर-राजनीतिक क्यों है
पिछले कुछ दशकों में;‘सिविल सोसाइटी,’जो जन-संगठनों और आंदोलनों के रूप में जानी जाती थी,अब वित्त-पोषित संस्थाओं के रूप में जानी जाती है। इनमें से कुछ संस्थाओं के पास काफी संपत्ति इकट्ठी हो गयी है,जैसे कि इमारतें,प्रशिक्षण केंद्र,बड़ी संख्या में तनख्वाह-याफ्ता कर्मचारी आदि। समय के साथ यही संथाएं छोटी संस्थाओं के लिए रोल मॉडल बन गयी हैं।
इन बड़ी संस्थाओं को चलाते रहना ही अपने आप में एक बड़ा काम बन गया है और समाज के ताक़तवर वर्ग के सामने इनकी सवाल उठाने की क्षमता कम होती जा रही है। इन संस्थाओं को चलाने के चक्कर में संगठन की ताक़त संसाधनों को जुटाने में ही खर्च होने लगी है। इसी के साथसरकारी दमनकारी नीतियों ने संगठनों की सवाल उठाने की क्षमता पर दोहरा आघात किया है। इस रास्ते पर चलते हुए‘सिविलसोसाइटी’को कई बार अराजनीतिक भूमिका लेनी पड़ी है,ताकि उनकी संस्था पर कोई आंच न आये। यह बात उन संस्थाओं पर ज्यादा लागू होती हैजो विदेशी अनुदान पर आश्रित हैं और जिन्हें राजनीतिक हलकों में हमेशा शक की निगाह से देखा जाता है।
जाहिर है,संस्थाओं की आदत पड़ गयी है कि वे कभी-कभारसवाल पूछें,पर उन पर टिकी न रहें,ताकि उन्हें सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक ताक़तों का कोपभाजन न बनना पड़े। इस बात पर ध्यान देना‘सिविल सोसाइटी’ने कम कर दिया कि वंचितों के हित में बदलाव लाने की कीमत चुकानी पड़ती है।
‘सिविल सोसाइटी’का पेशेवरीकरण
शुरुआत में‘सिविल सोसाइटी’को अक्षम या नकारा कहकर बहुत आलोचना की गयी। नतीजे में संस्थाओं को पेशेवर बनाने पर बड़ा ज़ोर दिया जाने लगा। इस‘व्यवसायिकता’या;‘पेशेवरीकरण’की लहर में संस्थाओं के कामकाज में नौकरशाही के गुण और प्रक्रियाएं भी घर कर गयीं। इस पूरी प्रक्रिया में‘सिविल सोसाइटी’का‘जुनून’और‘स्वैच्छिक’स्वभाव ख़त्म हो गया। इससे अपने काम को राजनीतिक समझने की नज़र भी कमज़ोर पड़ी,बल्कि गैर-बराबरी और अन्याय जैसे घोर राजनीतिक मुद्दे भी एक मैनेजर की दृष्टि से सुलझाने की कोशिश होने लगी।
‘सिस्टम एप्रोच’का सतही प्रयोग
व्यवसायिक प्रबंधन(बिज़नेस मैनेजमेंट) के तौर-तरीकों से‘सिविल सोसाइटी’में कुशलता (एफीसिएन्सी) और प्रभाव (इम्पैक्ट) जैसे कई शब्दों ने जड़ें जमा लीं। इसके साथ‘फैलाव’(स्केल) का दबाव भी बहुत बढ़ गया,जिससे कुल मिलाकर‘सिविल&सोसाइटी’का अराजनीतिकरण और बढ़ गया। हम अब संगठनों के‘मिशन’और‘विज़न’से आगे आ गए हैं और पूरा काम‘दान-दाता’(डोनर) संस्था द्वारा दिए गए‘प्रोजेक्ट’के अनुसार होने लगा है।
कुछ संस्थाएं अपने आपको इसके बाहर देखने लगी हैं। उन्होंने‘सिस्टम एप्रोच’को अपनाने के प्रयास किये हैं जिसमें एक साफ़ समझ है कि सामाजिक बदलाव कोई एक तरह के ख़ास प्रयासों (या कहिये प्रोजेक्टों) से नहीं आएंगे।‘सिस्टम एप्रोच’समस्या को कई स्तरोंकई तरह की पेचीदगियों के साथ देखती है।मसलन-जंगलों के कटने का कारण सिर्फ आबादी बढ़ना या कम पेड़ लगाना भर नहीं है,बल्कि ऐसे बहुत से सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक कारण हैं जिनका उत्तर सिर्फ पेड़ लगाना नहीं हो सकता।‘सिस्टम एप्रोच’ने संस्थाओं की प्रोजेक्ट से बाहर झाँकने में मदद तो की है,वह उसकी भाषा भी बन गई है,पर दुर्भाग्य से वह उनकी कार्यप्रणाली,&बजट और‘नियमन’(मॉनिटरिंग) का हिस्सा नहीं बनी है। अधिकतर‘दानदाता’संस्थाएं भी बात तो‘सिस्टम चेंज’की करती हैंपर‘फंडिंग’उसी कम अवधि,समय आधारित मानदंडों के अनुसार करती हैं। उनके मानदंड प्रोजेक्ट के‘लौगफ्रेम’विश्लेषण के आधार पर ही होते हैं न कि‘सिस्टम अप्रोच’के आधार पर। इसका मतलब यह है कि संस्थाएं अपने ही बनाये लक्ष्य से भटक रही हैं,उनके कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता या कहिये लक्ष्य पर यकीन कम हो गया है।
‘सिविल सोसाइटी’का एक विशेष ढांचे में काम करना
‘सिविल सोसाइटी’के बढ़ते‘संस्थानीकरण’के दौर में काम को‘सुव्यवस्थित’रूप से करने का चलन बढ़ा है। इसका अर्थ यह है कि‘सिविल सोसाइटी’अब एक सुरक्षित माहौल में काम करना चाहती है,पर दबे-कुचलों की आवाज़ उठाना सुरक्षित माहौल में कहाँ हो पाता है?इसका नतीजा यह है कि समुदायों से‘सिविल सोसाइटी’का जो अर्थपूर्ण रिश्ता था,वह टूट-सा गया है। रिश्ते के नाम पर अब अधिकतर एक हितग्राही और एक प्रदाता संस्था है। ऐसे रिश्ते से दोगंभीर नुक्सान हुए हैं पहला कि सरकार और बाजार,दोनों के सामने‘सिविल सोसाइटी’की छवि कमज़ोर पडी है। समुदायोंसे नज़दीकी ही‘सिविल सोसाइटी’की प्रमुख ताक़त थी जो अब कमज़ोर पड़गयी है। बहुत सी संस्थाएं अब भी इस बात पर यकीन नहीं करतीं और समुदायकेंद्रित नज़रिये की बजाए तकनीकी विशेषज्ञों वाली नज़र से अपने काम को देखती हैं। दूसरा नुकसान है,जगह खाली होने के कारण उसमें रूढ़िवादी,कट्टरपंथी तत्वों का समुदायों से करीबी रिश्ते बनाने में कामयाब होना। देश में दक्षिणपंथी ताक़तों के उभार के पीछे यह एक प्रमुख कारण है।
सिविल सोसाइटी का हाशिये पर जाना
सिविल सोसाइटी’की सोच और तौर-तरीकों में बदलाव के कारण आज वह रिसर्च,पैरवीपॉलिसी के विषयों और अभियानों पर तो काम करती है पर लोगों को संगठित और लामबंद करने में उसकी भूमिका कम होती जा रही है।
‘सिविल सोसाइटी’अहिंसा के खाके के अंदर रह कर ही काम कर सकती है,पर इसका यह अर्थ नहीं कि हमारे पास गैर-बराबरी और अन्याय से लड़ने के लिए हथियारों की कमी है। चूँकि हमने अपनी ताक़त के स्रोत को ही नकार दिया है,इसलिए हम राजनीतिक या आर्थिक या सामाजिक विमर्श के दायरे से बाहर किये जा रहे हैं।
इसका एक नमूना हम देश में ही हुए ‘सीएए’ विरोधी आंदोलन के अलावा पिछले वर्षों में दुनियाभर में हुए बडे और प्रभावी आंदोलनों में देख सकते हैं। इनका नेतृत्व ‘सिविल सोसाइटी’ की बजाए नागरिकों के पास रहा है। ‘सिविल सोसाइटी’ अपनी अराजनीतिक भूमिका में इस नए विमर्श में कहीं नहीं दिखी। ‘सिविल सोसाइटी’ को इस संकट का उत्तर अपने में ढूंढना ही होगा, नहीं तो कुछ ही समय में हम बिलकुल गैर-ज़रूरी हो जायेंगे(सप्रेस)
-प्रसून लतांत
पांच जून को गांधी विचार को मानने वाले देशभर के अनेक लोगों ने दो अक्टूबर, गांधी जयन्ती और ‘विश्व अहिंसा दिवस’ तक चलने वाले एक-एक दिन के उपवास की शुरुआत की थी। यह उपवास श्रमिकों, किसानों, ग्रामीण-अर्थव्यवस्था और पर्यावरण को बचाने के लिए सरकार, समाज और स्वयं को झकझोरने, बदलने के मकसद से किया जा रहा है।
‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’की उपवास-श्रृंखला में गांधी के विचारों में विश्वास रखने वाले और उसके अनुरूप काम करने वाले लोग पूरी तरह से सक्रिय हो गए हैं। उनकी सक्रियता से अब गांधी,गांव और गरीब को लेकर कुछ खास कर गुजरने की सूरत भी निकलती दिखाई पड़ रही है। इस उपवास-श्रृंखला में पहले तो गांधीवादी संस्थाओं और संगठनों से मुक्त हुए लोग शामिल हुए थेलेकिन जब से इसका नियमित और अविराम सिलसिला चल पड़ा है तो गांधी संस्थाओं और संगठनों से जुड़े लोग भी इसमें शामिल होने लगे हैं। पहली बार देखा जा रहा है उपवास के लिए अच्छी-खासी संख्या में युवा वर्ग भी शामिल हो रहा है।
गांधी जी के डेढ़-सौ वीं जयंती वर्ष के शुरू होने के पहले महात्मा गांधी की याद में बड़े-बड़े आयोजन करने के लिए सरकारी घोषणाएं हो रही थीं और केंद्र और राज्य स्तर पर समितियों का गठन किया जा रहा था। सरकारों से अलग-थलग होकर गांधी से जुड़ी संस्थाएं और संगठन भी अपनी सामर्थ्य-भर कुछ करने के लिए एकांगी पहल कर रहे थे। शताब्दी आयोजनों की शुरुआत भी हो गई थी,लेकिन लोकसभा चुनाव आने और उसके बाद दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे भड़कने के बाद देश भर में एक प्रकार की दुखद चुप्पी सी छा गई थी। गांधी जैसी बात करने वालों को भी देशद्रोही करार दिया जा रहा था। ऐसा लगने लगा था कि गांधी के देश में ही गांधी की बात करना गुनाह है।
गांवों और गरीबों की जरूरी बातें स्मार्ट शहरों के शोर में गुम हो गई थीं। वे संसद की चर्चा से भी गायब थीं,वे मीडिया सहित फिल्मों और धारावाहिकों में भी नहीं थीं। यह तो कोरोना वायरस के प्रकोप पर रोक लगाने के लिए लागू लॉकडाउन के दौरान देश के आम लोग जब सड़कों पर अपने गांवों की ओर निकल पड़े,तो शहरों के बढ़ते वैभव का खोखलापन उभर कर सामने आ गया और गांवों की चर्चा तेज हो गई। करोड़ों की संख्या में निकले आम लोगों ने पैरों से हजारों किलोमीटर चलकर गांव पहुंचने की हिम्मत दिखाकर देश की दिशा बदल दी है। गांव और गरीब इन दिनों चर्चा के केंद्र में हैं।
ऐसे में पिछले एक महीने से‘गांधीयन कलेक्टिवइंडिया’समूह से जुड़कर लोगों का व्यक्तिगत सत्याग्रह का सिलसिला शुरु होकर निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। नई सदी का व्यक्तिगत सत्याग्रह। पिछली सदी में जब ब्रिटिश हुकूमत भारत को दूसरे विश्वयुद्ध में झोंकने की कोशिश कर रही थी,तब उसके विरोध के लिए महात्मा गांधी ने आचार्य विनोबा से व्यक्तिगत सत्याग्रह के लिए कहा था। विनोबा के बाद दूसरे व्यक्तिगत सत्याग्रह करने वाले नेहरू थे। व्यक्तिगत सत्याग्रह के कारण‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’समूह गांधीगांव और गरीबों के कल्याण के मुद्दों पर लोकशाही की आवाज को बुलंद करने का मंच बन गया है। रोज नए-नए लोग इससे जुड़ रहे हैं। पिछले एक महीने से हरेक दिन एक-एक सत्याग्रही अलग-अलग राज्यों में बैठ रहे हैं।
व्यक्तिगत सत्याग्रह की शुरुआत पांच जून,‘विश्व पर्यावरण दिवस’को बिहार के चंपारण से हुई थी। सत्याग्रही द्वारा‘राष्ट्रीय उपवास श्रृंखला,’दो अक्टूबर‘विश्व अहिंसा दिवस’और महात्मा गांधी जयंती तक चलेगी। पहले सत्याग्रही मोतीहारी (बिहार) के दिग्विजय कुमार,‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’समूह की राष्ट्रीय समिति के संयोजक हैं। उन्होंने उपवास कर सत्याग्रह की शुरुआत कर दी है।
उपवास का मकसद श्रमिकों, किसानों, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और पर्यावरण को बचाने के लिए सरकार, समाज और स्वयं को झकझोरना है, बदलना है। ताकि कोरोना वायरस से बच सकें और मजबूत हिंदुस्तान बन सके। अब तक इस उपवास श्रृंखला में मणिपुर, गोआ, दिल्ली, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, मध्यप्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़, असम आदि राज्यों में एकल और सामूहिक रूप से तीस से अधिक सत्याग्रही बैठ चुके हैं।
‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’का कहना है कि इस पहल का मकसद देश की मौजूदा राजनीति में अंतिम जन को केंद्र में लाना और गांधीजी के डेढ़ सौवीं जयंती वर्ष पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए देश और दुनिया में फैले गांधी-प्रेमियों को एक मंच प्रदान करना है। उल्लेखनीय है कि इस राष्ट्रव्यापी उपवास श्रृंखला में शिक्षक,समाजकर्मी,;कलाकार,लेखक,पत्रकार,वैज्ञानिक,पर्यावरणवादी और छात्र व युवा पूरे उत्साह से भाग ले रहे हैं। इनमें महिलाएं और बुजुर्ग भी शामिल हैं।
‘गांधीयन कलेक्टिव,इंडिया’समूह की ओर से गांधी जयंती तक चलने वाले इस सत्याग्रह में कुल 119 सत्याग्रही शामिल होंगे। गांधी जयंती के दिन कुछ खास कार्यक्रम करने की योजना पर विचार किया जा रहा है। इस बीच वेबीनार के जरिए कोरोना वायरस सहित गांधी,गांव और गरीब के साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था और पर्यावरण संरक्षण के बारे में संवाद प्रक्रिया शुरू करने की तैयारी चल रही है। उपवास के दौरान हाथ से लिखे बैनर का इस्तेमाल किया जा रहा है और पेड़-पौधे भी लगाए जा रहे हैं।(सप्रेस)
-राज कुमार सिन्हा
आजादी के बाद से हमारे देश में जिस तौर-तरीके का विकास हुआ है उसने आदिवासी इलाकों में उसे विनाश का दर्जा दे दिया है। खनन, वनीकरण, ढांचागत निर्माण और भांति-भांति की विकास परियोजनाओं ने आदिवासी इलाकों की मट्टी-पलीत कर दी है। विकास का यह मॉडल ग्रामीण, खासकर आदिवासी क्षेत्रों को कैसे बर्बाद कर रहा है?
अब केवल विकास करते रहना ही जरूरी नहीं है,बल्कि विकास और विकास नीतियों की समीक्षा भी जरूरी है। वर्ष 1986 में‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ने विकास के अधिकार की उद्घोषणा तैयार की थी जिस पर भारत सहित अनेक राष्ट्रों ने हस्ताक्षर किए थे। इस संधि के अनुसार विकास सभी नागरिकों का अधिकार है। विकास परियोजना के लिए तीन मापदंड निर्धारित किये गए हैं। एकप्रभावित व्यक्तियों की सहमति। दो,परियोजना से निर्मित संसाधनों के लाभ में हिस्सेदारी तथा तीन,विकास परियोजनाओं से प्रभावितों का आजीविका के संसाधनों पर अधिकार। वर्ष 2007 में‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ने आदिवासी समुदायों के अधिकारों का घोषणा-पत्र जारी किया था। इसमें आजीविका के संसाधनों पर जनजातीय समाज के अधिकार सुनिश्चित करने का महत्वपूर्ण प्रावधान है। दुर्भाग्य से भारत में ऐसी किसी भी अन्तराष्ट्रीय संधियों का अनुसरण नहीं किया जाता।
भारत में अधिकांश परियोजनाएं संविधान की पांचवीं अनुसूची वाले आदिवासी क्षेत्रों में स्थापित की जाती रही हैं। संसाधनों के मामले में आदिवासी क्षेत्र समृद्ध रहा है। इस इलाके में देश का 71% जंगल,92% कोयला,92% बाक्साइट,78% लोहा,100% यूरेनियम,85% तांबा,65% डोलोमाइट इत्यादि की भरमार है। भारत के जलस्रोतों का 70% आदिवासी इलाके में है तथा करीब 80% उद्योगों के लिए कच्चा माल इन्हीं क्षेत्रों से मिलता है। यह प्रकृति की ओर से मिला वरदान है,लेकिन यही वरदान इनके लिए चुनौती भी है,क्योंकि इन्हीं संसाधनों की लूट और कब्जे को लेकर देश और दुनिया के कार्पोरेटों की उस पर गिद्ध-दृष्टि लगी है। इन संसाधनों पर काबिज होने की प्रक्रिया काफी तेज हो गई है।‘योजना आयोग’के अनुसार आजादी के बाद विभिन्न विकास परियोजनाओं से लगभग 6 करोङ लोग विस्थापित हो चुके हैं जिसमें 40 प्रतिशत आदिवासी एवं अन्य परम्परागत वन-निवासी हैं।
वन,पर्यावरण एवं जलवायु-परिवर्तन मंत्रालय’के आंकड़ों के अनुसार 2004 से 2013 के बीच उद्योगों और विकास परियोजनाओं हेतु 2.43 लाख हैक्टर वन क्षेत्र दिया गया था। इन्हीं वर्षो में 1.64 लाख हैक्टेयर वनभूमि तेल और खनन की हेतु दी गई थी। पिछले पांच वर्षों में देश की लगभग 55 हजार हैक्टर वनभूमि विकास परियोजनाओं हेतु परिवर्तित की गई है। इसमें सबसे ज्यादा मध्यप्रदेश में (12 हजार 785 हैक्टर) वनभूमि परिवर्तित की गई है। मध्यप्रदेश के वन विभाग द्वारा‘भारतीय वन अधिनियम-1927’की‘धारा (4)के अन्तर्गत अधिसूचित वनखंडों के 22 वन मंडलों में आदिवासियों की लगभग 27 हजार 39 हैक्टर ऐसी निजी भूमि को अपनी‘वार्षिक कार्य-योजना’में शामिल कर लिया गया है जिसका कोई मुआवजा नहीं दिया गया है। प्रदेश में कई हजार हैक्टर जमीन आज भी वन और राजस्व विभाग के विवाद में उलझी हुई है जहाँ 28 हजार पट्टे निरस्त किये गए हैं।
प्रदेश के विभिन्न जिलों के 6520 वनखंडों में प्रस्तावित,लगभग 30 लाख हैक्टेयर भूमि में नये संरक्षित वन घोषित किया जाना लंबित है। इससे‘राष्ट्रीय उद्यान,’‘अभयारण्य’बनाने की प्रकिया तेज होगी तथा वन में निवास करने वाले समुदायों का निस्तार हक खत्म किया जाएगा। अब तक‘राष्ट्रीय उद्यानोंएवं‘अभयारण्यों’से 94 गांवों के 5 हजार 460 परिवारों को बेदखल किया जा चुका है तथा 109 गांवों के 10 हजार 438 परिवारों को चरणबद्ध तरीके से बेदखली की कार्यवाही जारी है। वर्तमान मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 12 नये अभयारण्य बनाने के प्रस्तावों पर कार्य जारी है।
केवल नर्मदा घाटी में बन चुके और प्रस्तावित बांधों से अभी तक लगभग 10 लाख लोग विस्थापित एवं प्रभावित हो चुके हैं। मध्यप्रदेश सरकार जिस प्रकार किसानों को विस्थापित करती जा रही है,उसका सबसे ज्यादा असर आदिवासी एवं दलित परिवारों पर हो रहा है। वर्ष 1993-94 में प्रदेश में 3.85 लाख परिवार भूमिहीन थे,जबकि 2004-2005 में भूमिहीन परिवारों की संख्या बढ़कर 4.64 लाख हो गई है। विस्थापन के दुष्प्रभावों के अध्ययन से पता चला है कि बच्चों पर इसका सबसे अधिक असर होता है। विस्थापन के बाद 20.40 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोङने पर मजबूर होते हैं,26.68 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार होते हैं तथा 24.81 प्रतिशत बच्चे बीमारी के शिकंजे में फंस जाते हैं। जाहिर है,आदिवासी क्षेत्रों में विकास के नाम पर विस्थापन,बेरोजगारी,पलायन आदि लाकर आदिवासी समुदायों को उनके समाजिक-सांस्कृतिक परिवेश से बाहर हो जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
सन् 2010-11 में देश की 15 करोङ 95 लाख 90 हजार हैक्टर भूमि पर खेती होती थी जो 2015-16 में घटकर 15 करोङ 71 लाख 40 हजार हैक्टर भूमि हो गई,अर्थात् 24 लाख 50 हजार हैक्टर भूमि गैर-कृषि कार्य में परिवर्तित हो गई। नतीजे में वर्ष 1951 में भारत के‘सकल घरेलू उत्पाद’;(जीडीपी) में कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियों की जो हिस्सेदारी 51.88 प्रतिशत थी,वह 2011 में घटकर 15.78 प्रतिशत के निचले स्तर पर आ गई। स्वतंत्रता के बाद 1950-51 में भारत की सरकार पर कुल तीन हजार 59 करोङ रूपये का कर्जा था जो वर्ष 2016-17 में 74 लाख 38 हजार करोड़ रुपए हो गया था और अब 2019-20 में यह बढ़कर 88 लाख करोड़ रुपये हो गया है।
उपरोक्त तथ्यों से साफ़ है कि प्राकृतिक संसाधनों का जो दोहन हो रहा है,वह न सिर्फ समाज और मानवता के लिये दीर्घकालीन संकट पैदा कर रहा है,बल्कि उसका लाभ समाज और देश को भी नहीं हो रहा है। इस दोहन से देश के बङे पूंजीपति घराने अपनी हैसियत ऐसी बना रहे हैं जिससे वे समाज को अपना आर्थिक उपनिवेश बना सकें। इसमें वे सफल भी हो रहे हैं। दूसरी ओर,आर्थिक उपनिवेश बनते समाज को विकास का अहसास करवाने के लिए सरकार द्वारा और ज्यादा कर्जे लिए जा रहे हैं। आर्थिक विकास की मौजूदा परिभाषा बहुत गहरे तक उलझाती है। यह पहले उम्मीद और अपेक्षाएं बढाती है,फिर उन्हें पूरा करने के लिए समाज के बुनियादी आर्थिक ढांचे पर समझौता करवाती है। ऐसी शर्ते रखी जाती हैं जिससे समाज के संसाधनों पर पूंजी का एकाधिकार हो सके। इसके बाद भी मंदी आती है तो उससे निपटने के लिए कार्पोरेट रियातें मांगती है। दिसम्बर 2016 में सरकारी और गैर-सरकारी बैंकों में कुल 6.97 लाख करोड़ रुपये‘अनुत्पादक परिसंपत्तियां’(एनपीए) था। वर्तमान केंद्र सरकार ने कार्पोरेट टेक्स 35 प्रतिशत से घटाकर 25.2 प्रतिशत कर दिया है,जिससे सरकार को एक लाख 45 हजार करोड़ रूपये का घाटा होगा। ऐसे में विकास के विरोधाभास को जल्द-से-जल्द समझना होगा तथा विकास की ऐसी नई परिभाषा बनानी होगी जिसे समझने-समझाने के लिए सरकार और विशेषज्ञों की आवश्यकता न पडे।(सप्रेस)
-अभय शर्मा
भारत में लॉकडाउन हटाए हुए डेढ़ महीने से ज्यादा समय हो चुका है. सरकार ने अर्थव्यवस्था की खराब होती हालत को देखते हुए अनलॉक फेज एक और दो में आर्थिक गतिविधियों को लगभग पूरी तरह खोल दिया है. भारत की अर्थव्यवस्था अब वापस पटरी पर लौटती दिख रही है, सरकार और आरबीई के ताजा संकेतों को देखें तो इसका साफ पता चलता है. इसके अलावा हाल ही में गूगल की कोविड-19 मोबिलिटी रिपोर्ट आयी है. ये इशारा कर रही है कि भारत की अर्थव्यवस्था वापस लॉकडाउन से पहले की स्थिति की तरफ तेजी के साथ बढ़ रही है. गूगल की ये रिपोर्ट 131 देशों के लिए निकाली गई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया का सबसे कड़ा और लंबा लॉकडाउन लगाने के बाद भी भारत उन टॉप 50 देशों में शुमार है जिनकी अर्थव्यवस्था ज्यादा तेजी के साथ सामान्य स्थित की तरफ बढ़ती दिख रही है.
वे आंकड़े जिनके आधार पर अर्थव्यवस्था में सुधार होने की बात कही जा रही है
गूगल की ओर से जुटाई गई जानकारी के अुनसार खुदरा, किराना, फार्मा, ट्रांसपोर्ट और बैंकिंग जैसे सेक्टर कोरोना काल से एकदम पहले की स्थिति की ओर तेजी से बढ रहे हैं. साथ ही ईंधन, बिजली की खपत और खुदरा वित्तीय लेन-देन में बढ़ोत्तरी को भी अर्थव्यवस्था के सामान्य होने के संकेत के तौर पर देखा जा रहा है. लॉकडाउन के दौरान देश में पेट्रोलियम उत्पादों की खपत 2007 के बाद से सबसे कम हो गई थी, लेकिन अब आंकड़े बताते हैं कि इसमें तेजी से सुधार हो रहा है. बीते जून में जून 2019 के मुकाबले तेल की खपत 88 फीसदी तक पहुंच गई है.
बीते अप्रैल में लॉकडाउन के दौरान वाणिज्यिक और औद्योगिक गतिविधियों में गिरावट आने से बिजली की मांग साल भर पहले की तुलना में करीब 25 प्रतिशत कम रही थी. लेकिन अब आंकड़े काफी उत्साहित करने वाले हैं. केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश में बिजली की उच्चतम मांग बीती दो जुलाई को 170.54 गीगावाट दर्ज की गई, जो जुलाई 2019 के 175.12 गीगावाट से महज 2.61 प्रतिशत ही कम है.
लॉकडाउन हटने के बाद बीते जून में वस्तु एवं सेवाकर यानी जीएसटी के संग्रह में भी तेजी आई है. वित्त मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार जून में कोरोना वायरस महामारी के बीच केंद्र सरकार का जीएसटी संग्रह 90,917 करोड़ रुपये रहा है. यह जून 2019 की तुलना में 91 फीसदी है. बीते मई में सरकार को जीएसटी से 62,009 करोड़ रुपये और अप्रैल में महज 32,294 करोड़ रुपये का राजस्व ही मिल सका था.
औद्योगिक उत्पादन और विनिर्माण क्षेत्र से भी राहत की खबर आ रही है. औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) के आंकड़ों के मुताबिक बीते अप्रैल में औद्योगिक उत्पादन में गिरावट 60 फीसदी तक पहुंच गयी थी, जो मई और मध्य जून तक 35 फीसदी से नीचे आ गयी है. इसी तरह विनिर्माण क्षेत्र में बीते अप्रैल में गिरावट करीब 68 फीसदी तक पहुंच गयी थी. लेकिन आईआईपी के आंकड़ों के मुताबिक मई और मध्य जून तक यह गिरावट घटकर 40 फीसदी से नीचे दर्ज की गयी है.
द हिंदू बिजनस लाइन के सीनियर डिप्टी एडिटर शिशिर सिन्हा एक और आंकड़ा भी बताते हैं जिससे आर्थिक गति का अनुमान लगाया जा सकता है. वे बताते हैं, ‘हम बिलटी यानी ईबे रसीद के जरिये भी स्थिति के सुधरने का अनुमान लगा सकते हैं. ईबे रसीद तब जारी की जाती है जब कोई सामान एक राज्य से दूसरे राज्य में या एक ही राज्य में एक जगह से दूसरी जगह भेजा जाता है. इससे पता चलता है कि सामान पर टैक्स दिया गया है या नहीं. इस समय ईबे रसीद जारी होने की संख्या तकरीबन (कोविड-19 महामारी से) पहले वाली स्थिति में पहुंच गयी है. पहले 20 से 25 लाख ईबे प्रतिदिन जारी होते थे.’
शिशिर सिन्हा यह भी कहते हैं कि महंगाई दर की स्थिति से भी जाना जा सकता है कि अर्थव्यव्स्था का चक्का किस तरह से घूम रहा है. उनके मुताबिक महंगाई दर सीधे-सीधे सप्लाई और मांग पर निर्भर करती है. इससे जुड़े आंकड़े भी बताते हैं कि अर्थव्यवस्था थोड़ी सी पहले वाली स्थिति की तरफ बढ़ रही है.
कठोर लॉकडाउन के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था के समान्य की तरफ तेजी से बढ़ने की वजह
भारत की जीडीपी को देखें तो इसमें सेवा क्षेत्र की करीब 57 फीसदी और औद्योगिक क्षेत्र की करीब 30 फीसदी हिस्सेदारी है. इसके बाद कृषि क्षेत्र आता है जिसकी जीडीपी में हिस्सेदारी तकरीबन 13 फीसदी है. बीते अप्रैल में जब देश में कोरोना वायरस के मामले बढ़ने शुरू हुए तो आर्थिक मामलों के कई जानकारों का कहना था कि अर्थव्यवस्था को बचाने में ग्रामीण भारत बड़ी भूमिका निभाने वाला है. ऐसा कहने के पीछे की वजह यह थी कि जिस तरह से शहरी इलाकों में कोविड के मामले तेजी से सामने आ रहे थे उसे देखते हुए साफ़ था कि सेवा क्षेत्र और औद्योगिक क्षेत्रों की रफ़्तार बहुत धीमी रहने वाली है. ऐसे में सिर्फ कृषि ही एक ऐसा क्षेत्र था, जो अर्थव्यवस्था को सहारा दे सकता था. कृषि क्षेत्र से उम्मीद इसलिए थी क्योंकि ग्रामीण भारत में कोरोना का प्रभाव बेहद कम होने की वजह से वहां रबी की फसल की कटाई सामान्य रूप से चल रही थी. इसके अलावा रबी की फसल को लेकर जो आंकड़े सामने आ रहे थे, वे भी उत्साहित करने वाले थे. कृषि वर्ष 2019-20 में अनाज का रिकॉर्ड 30 करोड़ टन उत्पादन हुआ है. जानकार कहते हैं कि इसके बाद जब केंद्र और राज्य सरकारों ने किसानों को लॉकडाउन की मार से बचाने के लिए राहत योजनायें चलाई तो इससे ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को और फायदा हुआ जिससे वहां से अर्थव्यवस्था को बल मिलने की उम्मीद और ज्यादा हो गई.
सत्याग्रह से बातचीत में भी उत्तर प्रदेश के कई जिलों के किसानों ने यह बात कही कि सरकार की नीतियों और फसल कटाई के समय से होने की वजह से उन्हें कोरोना वायरस संकट के दौरान कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई. किसानों का कहना था कि केंद्र द्वारा ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि’ के तहत मिलने वाले दो हजार रुपए की दो किश्तों को तत्काल उनके अकाउंट में डालना, उज्ज्वला योजना के तहत गैस कनेक्शन पाए लोगों को तीन सिलेंडर मुफ्त देना, समर्थन मूल्य बढ़ाना और राशन में हर महीने चना और अनाज मुफ्त देने के चलते उन्हें आर्थिक तौर पर जरा भी परेशानी नहीं उठानी पड़ी.
जानकार कहते हैं कि इन्हीं सब वजहों के चलते ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की आर्थिक स्थिति पहले से बुरी न होकर कुछ बेहतर ही हुई है. इस वजह से देशव्यापी लॉकडाउन के हटते ही वहां आर्थिक गतिविधियां तेज रफ़्तार में चलने लगीं. अगर पिछले डेढ़ महीने के आकड़ों पर नजर डालें तो इसका स्पष्ट पता चलता है. जून महीने में ग्रामीण क्षेत्र में ऑटो इंडस्ट्री के आंकड़े काफी चौंकाने वाले रहे हैं. इस दौरान यहां ट्रैक्टर की बिक्री में रिकॉर्ड उछाल देखने को मिला है. सोनालिका समूह के कार्यकारी निदेशक रमन मित्तल मीडिया से बातचीत में बिक्री के आंकड़ों की जानकारी देते हुए कहते हैं, ‘यह हमारे लिए बहुत गर्व की बात है कि सोनालिका ट्रैक्टर्स इस कठिन समय में अधिकतम वृद्धि दर्ज करने वाली एकमात्र कंपनी है. हमने 15,200 ट्रैक्टरों के साथ बीते जून में दमदार प्रदर्शन किया है, इस साल जून में हुई बिक्री ने अब तक का हमारा उच्चतम स्तर छुआ है.’
ऐसा ही कुछ हाल महिंद्रा एंड महिंद्रा का भी रहा है. जून में महिंद्रा ट्रैक्टर्स की बिक्री में 12 फीसदी का उछाल दर्ज किया गया है. कंपनी ने इस दौरान रिकॉर्ड 35,844 ट्रैक्टर बेंचे हैं. महिंद्रा एंड महिंद्रा लिमिटेड में फार्म इक्विपमेंट सेक्टर के प्रमुख हेमंत सिक्का एक साक्षात्कार में बताते हैं, ‘बीते जून में महिंद्रा ट्रैक्टर की बिक्री के आंकड़े अब तक के हमारे दूसरे सबसे बड़े आंकड़े हैं. दक्षिण-पश्चिम मानसून के समय पर आने, रबी की रिकॉर्ड फसल, कृषि को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा चलायी गयीं योजनाओं के कारण किसान इस समय खासे उत्साहित हैं.’
केवल ट्रैक्टर ही नहीं, ऑटो क्षेत्र की अन्य कंपनियों को भी ग्रामीण भारत ने बड़ी राहत दी है. बाजार में चल रहे उतार-चढ़ाव पर नजर रखने वाली कंपनियां नोमुरा, एमके ग्लोबल और मोतीलाल ओसवाल की रिपोर्ट के मुताबिक ट्रैक्टर के अलावा दोपहिया, तिपहिया और चार पहिया वाहनों की बिक्री में भी शहरी क्षेत्र की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में काफी ज्यादा बढ़ोत्तरी देखी गयी है.
गांवों में शहरों के मुकाबले चीज-सामान की कहीं ज्यादा मांग
गूगल की कोविड-19 मोबिलिटी रिपोर्ट यह दावा भी करती है कि लॉकडाउन हटने के बाद भारत में यूरोप के 17 देशों से कहीं ज्यादा चीज-सामान की खपत हो रही है. अर्थ जगत के जानकार इसके पीछे भी ग्रामीण क्षेत्र का बड़ा योगदान मानते हैं.
‘तेज़ी से बिकने वाली उपभोक्ता वस्तुयें’ बनाने वाली एफएमसीजी कंपनियों के आंकड़े बताते हैं कि शहरों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादों की मांग कई गुना बढ़ी है. मार्केट रिसर्च से जुड़ी कंपनी नील्सन की हाल में आयी रिपोर्ट की मानें तो बीते मई में ही ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री कोविड से पहले वाली औसत बिक्री के 85 फीसदी तक पहुंच गयी थी. जबकि शहरी बाजार में यह आंकड़ा 70 फीसदी पर था.
खाने-पीने के उत्पाद बनाने वाली कई कंपनियों जैसे पारले, ब्रिटेनिया ने भी लॉकडॉन के दौरान और उसके बाद अपने उत्पादों की बिक्री कई गुना बढ़ने की बात कही थी. देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान पारले-जी ने पिछले 82 सालों की बिक्री का रिकॉर्ड तोड़ दिया था. पारले प्रोडक्ट्स के वरिष्ठ प्रमुख मयंक शाह मीडिया से बातचीत में कहते हैं, ‘हमें ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में मजबूत डिमांड मिल रही है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में डिमांड पहले से दोगुनी है.’ मयंक मानते हैं कि कोविड के दौर में ग्रामीण अर्थव्यवस्था शहर की तुलना में बेहतर स्थिति में है.(satyagrah )
अलग-अलग किस्से, सब के हैं अपने-अपने दावे
-राम पुनियानी
आगामी पांच अगस्त को उस स्थान पर राम मंदिर का निर्माण शुरू किया जाना प्रस्तावित है जहां एक समय बाबरी मस्जिद हुआ करती थी। इसी बीच, इस मुद्दे पर दो विवाद उठ खड़े हुए हैं। पहला यह कि कुछ बौद्ध संगठनों ने दावा किया है कि मंदिर के निर्माण के लिए ज़मीन का समतलीकरण किये जाने के दौरान वहां एक बौद्ध विहार के अवशेष मिले हैं, जिससे ऐसा लगता है उस स्थल पर मूलतः कोई बौद्ध इमारत थी। दूसरे, नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली ने दावा किया है कि वह अयोध्या, जिसमें राम जन्में थे, दरअसल, नेपाल के बीरगंज जिले में है। यह कहना मुश्किल है कि ओली ने इसी मौके पर यह मुद्दा क्यों उठाया। उनके इस दावे की उन्हीं के देश में जम कर आलोचना हुई जिसके बाद उनके कार्यालय ने एक स्पष्टीकरण जारी कर कहा कि प्रधानमंत्री का इरादा किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं था।
रामकथा को लेकर यह पहला विवाद नहीं है। सन 1980 के दशक में जब महाराष्ट्र सरकार ने बी.आर. आंबेडकर के वांग्मय का प्रकाशन शुरू किया था उस समय भी उनकी पुस्तक ‘रिडल्स ऑफ़ राम एंड कृष्ण’ को इस संग्रह में शामिल किये जाने का भारी विरोध हुआ था। इस पुस्तक में आंबेडकर ने शम्बूक नामक शूद्र की तपस्या करने के लिए हत्या करने, जनप्रिय राजा बाली को धोखे से मारने और अपनी गर्भवती पत्नि सीता को त्यागने के लिए भगवान राम की आलोचना की है। इसके अलावा, सीता को अग्निपरीक्षा देने के लिए मजबूर करने के लिए भी आंबेडकर राम की निंदा करते हैं।
आंबेडकर के पहले जोतीराव फुले ने राम द्वारा छुप कर बाली को बाण मारने की निंदा की थी। बाली एक स्थानीय राजा था, जो अपने प्रजाजनों का बहुत ख्याल रखता था और उनमें बहुत लोकप्रिय था। पेरियार ई.वी. रामासामी नायकर ने भगवान राम के व्यक्तित्व के इन पक्षों पर केन्द्रित ‘सच्ची रामायण’ लिखी थी। रामकथा के प्रचलित संस्करण के पात्र जिस तरह का लैंगिक और जातिगत भेदभाव करते दिखते हैं, पेरियार उसके कटु आलोचक थे। पेरियार तमिल अस्मिता के पैरोकार थे। उनके अनुसार, रामायण की कहानी ऊंची जातियों के संस्कृतनिष्ठ, जातिवादी उत्तर भारतीयों द्वारा राम के नेतृत्व में दक्षिण भारत के लोगों पर अपने आधिपत्य स्थापित करने के ऐतिहासिक घटनाक्रम का रूपक मात्र है। पेरियार के अनुसार, रावण, प्राचीन द्रविड़ों के सम्राट थे और उन्होंने सीता का अपहरण केवल अपनी बहन शूर्पनखा के अपमान और उसके विकृत किये जाने का बदला लेने के लिए किया था। पेरियार के अनुसार, रावण एक महान भक्त और एक नेक और धर्मात्मा व्यक्ति थे।
बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद सन 1993 में सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) द्वारा पुणे में लगाई गई एक प्रदर्शनी में तोड़-फोड़ की गई थी। वह इसलिए क्योंकि वहां बौद्ध जातक कथा पर आधारित एक पेंटिंग प्रदर्शित की गई थी, जिसमें सीता को राम की बहन बताया गया था। इस कथा के अनुसार, राम और सीता उच्च जाति के एक ऐसे कुल से थे जिसके सदस्य अपनी पवित्रता बनाये रखने के लिए अपने कुल से बाहर शादी नहीं करते थे।
कुछ वर्ष पूर्व, आरएसएस की विद्यार्थी शाखा एबीवीपी ने ए.के. रामानुजन के लेख ‘थ्री हंड्रेड रामायणास’ को पाठ्यक्रम से हटाने की मांग को लेकर आन्दोलन किया था। इस लेख में रामानुजन बताते हैं कि रामायण के कई संस्करण हैं जिनमें अनेक विभिन्नताएं हैं और जिनमें घटनाओं का स्थान अलग-अलग बताया गया है।
संस्कृत के विद्वान और भारत में पुरातत्वीय उत्खनन के अगुआ एच.डी. सांकलिया के अनुसार यह हो सकता है कि रामायण में वर्णित अयोध्या और लंका, आज की अयोध्या और लंका से अलग कोई स्थान रहे हों। उनके अनुसार, लंका शायद आज के मध्यप्रदेश में कोई स्थान रहा होगा क्योंकि इस बात की प्रबल संभावना है कि ऋषि वाल्मीकि, विंध्य पर्वतमाला के दक्षिण में स्थित इलाके के बारे में कुछ नहीं जानते होंगे। आज जिसे श्रीलंका कहा जाता है, उसका पुराना नाम ताम्रपर्णी था। रामायण के अलग-अलग आख्यान भारत ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया में पाए जाते हैं और इनमें से कई बहुत दिलचस्प हैं। पौला रिचमन की पुस्तक ‘मेनी रामायणास’ (ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस) में भगवान राम की विभिन्न कथाओं की दिलचस्प झलकियाँ दी गयीं हैं।
भारत में राम कथा का जो संस्करण आज सबसे अधिक प्रचलित है वह वाल्मीकि की ‘रामायण’, गोस्वामी तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ और रामानंद सागर के टीवी सीरियल ‘रामायण’ पर आधारित है। इस सीरियल का कोरोना लॉकडाउन के दौरान पुनर्प्रसारण किया गया। राम के कथा का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है जिनमें बाली, संथाली, तमिल, तिब्बती और पाली शामिल हैं। पश्चिमी भाषाओं में इसके अनेकानेक संस्करण हैं, जिनकी कथाएँ एक-दूसरे से मेल नहीं खातीं। थाईलैंड में प्रचलित रामकीर्ति या रामकियेन संस्करण में भारतीय संस्करण के विपरीत, हनुमान ब्रह्मचारी नहीं हैं। रामायण के जैन और बौद्ध संस्करणों में राम, क्रमशः महावीर और गौतम बुद्ध के अनुयायी हैं। इन दोनों संस्करणों में रावण को एक विद्वान और महान ऋषि बताया गया है। कुछ संस्करणों, जो विदेशों में लोकप्रिय हैं, में सीता को रावण की पुत्री बताया गया है। मलयालम कवि वायलार रामवर्मा की कविता ‘रावणपुत्री’ भी यही कहती है। कई संस्करणों के अनुसार, दशरथ अयोध्या के नहीं वरन वाराणसी के राजा थे।
फिर, रामायण के एक वह संस्करण भी है जो महिलाओं में प्रचलित है’। तेलुगू ब्राह्मण महिलाओं द्वारा जो ‘महिला रामायण गीत’ गाए जाते हैं, उन्हें रंगनायकम्मा ने संकलित किया है। इनमें महिलाओं की केन्द्रीय भूमिका है। इन गीतों में बताया गया है कि अंत में सीता राम पर भारी पडतीं हैं और शूर्पनखा राम से बदला लेने में सफल रहती है।
इन आख्यानों की समृद्ध विविधता से पता चलता है कि भगवान कथा की कथा दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में भी लोकप्रिय है और इसके कई रूप हैं। राममंदिर आन्दोलन पूरी तरह से रामकथा के उस आख्यान पर केन्द्रित है जिसे वाल्मीकि, तुलसीदास और रामानंद सागर ने प्रस्तुत किया है। उन तीनों में भी कुछ मामूली अंतर हैं, विशेषकर लैंगिक और जातिगत समीकरणों के सन्दर्भ में। वर्तमान में भारत में प्रचलित आख्यान, लैंगिक और जातिगत पदक्रम के पैरोकार हैं। और यही पदक्रम, सांप्रदायिक राजनीति के मूल में भी हैं। रामकथा के इस संस्करण के जुनूनी समर्थक पैदा कर दिए गए हैं। वे इस कथा के हर उस संस्करण, हर उस व्याख्या पर हमलावर हैं, जो सांप्रदायिक राजनीति के हितों से मेल नहीं खाते।
रामायण पर विद्वतापूर्ण रचनायें, तत्कालीन समाज में व्याप्त मूल्यों और परम्पराओं में विविधता को रेखांकित करतीं हैं। हर राष्ट्रवाद, अतीत का अपना संस्करण रचता है। एरिक होब्स्वाम के अनुसार, “राष्टवाद के लिए इतिहास वह है जो अफीमची के लिए अफीम”। ऐसा लगता है कि विभिन्न प्रकार के राष्ट्रवाद, इतिहास की नहीं वरन पौराणिकी के भी वही संस्करण चुनते हैं जिनसे उनके निहित स्वार्थों की पूर्ती होती हो।(navjivan)
-देवेंद्र वर्मा
(पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधानसभा, संसदीय एवं संवैधानिक विशेषज्ञ)
दल बदल कानून का उद्देश्य निर्वाचन के पश्चात निर्वाचित विधायक द्वारा जनता के साथ विश्वासघात करते हुए, निर्वाचित सरकारों को अस्थिर करने, इसके एवज में स्वयं लाभ प्राप्त करने, को रोकने एवं विधायकों की लोभ,लालच की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना है।
दल बदल कानून और संबंधित संविधान के महत्वपूर्ण प्रावधान निम्नानुसार हैं:-
1. यदि कोई विधायक जिस दल के टिकट पर निर्वाचित हुआ है उस दल के विधायक दल
(राजनीतिक दल नहीं)को त्याग देता है, अथवा उसका आचरण/ व्यवहार, गतिविधियाँ ऐसी रहती हैं, जिससे ऐसा आभास होता हो कि, उसने विधायक दल की सदस्यता त्याग दी है, जिसके आधार पर( चाहे त्यागपत्र दिया हो अथवा नहीं या दूसरे दल की सदस्यता ग्रहण की हो अथवा नहीं) वह सदस्यता के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता है, तो वह जब तक पुनः निर्वाचित ना हो जाए मंत्री पद पर( संविधान के 6 माह के लिए मंत्री पद पर नियुक्त करने के प्रावधान के अंतर्गत भी) नियुक्त नहीं किया जा सकता है और न ही किसी लाभकारी पद पर नियुक्त किया जा सकता है।
(मध्यप्रदेश में भाजपा ने दल बदल कानून एवं संविधान के संबंधित प्रावधानों की धज्जियाँ उड़ाते हुए न केवल 14 इस्तीफ़ा देकर विधायक दल की सदस्यता त्यागने वाले,और मंत्री पद पर अथवा अन्य लाभकारी पद पर नियुक्त किए जाने के लिए अयोग्य पूर्व विधायकों को पुनःनिर्वाचित होने के पहले ही मंत्री के पद पर नियुक्त/अन्य लाभकारी पद पर नियुक्त कर दिया है।
संविधान के प्रावधानों के उल्लंघन के लिए कांग्रेस दल द्वारा अभी तक संज्ञान नहीं लिया जाना विस्मयकारी है।)
2. राजनीतिक दल अथवा इसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति,जब सत्र चल रहा होता है,सत्र चलते रहने के दौरान सभा भवन में आवश्यक रूप से उपस्थित रहने के लिए और किसी विषय पर मतदान के समय मतदान में हिस्सा लेने अथवा हिस्सा नहीं लेने के लिए WHIP जारी करता है।WHIP में इस बात का उल्लेख नहीं रहता कि मतदान पक्ष में करना है अथवा विपक्ष में।WHIP के द्वारा केवल उपस्थिति सुनिश्चित की जाती है।
3. दल बदल कानून के प्रावधानों के अंतर्गत, किसी सदस्य अथवा सदस्यों के सदस्यता से अयोग्य होने संबंधी अर्जी प्राप्त होने पर अध्यक्ष विधानसभा उस पर विचार एवं निर्णय करने के पूर्व दूसरे पक्ष को उसकी अयोग्यता से संबंधित अर्जी प्राप्त हुई है,जानकारी में लाने एवं नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप अर्जी पर उसका पक्ष जानने के लिए,प्रति उत्तर प्राप्त करने हेतु नोटिस जारी कर सकते हैं।
4. दल बदल कानून के अंतर्गत (2003 में दल बदल कानून में हुए संशोधन के पश्चात) दल में विभाजन को मान्यता देने के लिए यह आवश्यक है कि विधायक दल( राजनीतिक दल नहीं) की सदस्य संख्या के 2/3 सदस्य विभाजित हो,अन्यथा स्थिति में दल बदल कानून के अंतर्गत सदस्य बने रहने के लिए अयोग्यता आकर्षित होती है।
ऐसा 2/3 सदस्य संख्या वाला समूह,पृथक दल भी गठित कर सकता है अथवा किसी अन्य विधायक दल में सम्मिलित भी हो सकता है।
दल बदल कानून के अंतर्गत अध्यक्ष द्वारा की जाने वाली संपूर्ण कार्यवाही अर्ध न्यायिक स्वरूप की होती है।
संदर्भ से हटकर नोट:- यह आश्चर्यजनक संयोग है कि जिस दल से सदस्य निर्वाचित हुए हैं उस दल के विरुद्ध आचरण एवं गतिविधियाँ करने,पश्चात इस्तीफ़ा देने वाले सदस्य भाजपा शासित राज्यों के पांच सितारा होटल में मेहमाननवाजी करते हैं, उनका संपर्क उनके मूल राजनीतिक दलों के पदाधिकारियों से तो नहीं रहता,किंतु भाजपा दल के पदाधिकारियों से रहता है।मध्यप्रदेश के कर्नाटक राज्य के होटल में मेहमाननवाजी करने वाले,सदस्यों के इस्तीफ़े भी भाजपा के वरिष्ठ नेता विधायक,और पूर्व मंत्री बेंगलुरु से लेकर आए और अध्यक्ष विधानसभा को सौंपे।
इस्तीफ़ा देने वाले कांग्रेस के पूर्व सदस्यों को दिल्ली में आयोजित समारोह में भाजपा की सदस्यता ग्रहण करवाई गई और पश्चात इस्तीफ़ा देने वाले सदस्यों के गुरु से हुए तथाकथित सौदे के अनुरूप 14 व्यक्तियों को दल बदल कानून के प्रावधानों के विपरीत मंत्री पद पर नियुक्त कर दिया गया।इसे संयोग ही मानियेगा,प्रयोग नहीं।
राजस्थान में क्या होता है देखना है!
कोरोना वायरस महामारी के दौरान भी पड़ोसियों के प्रति अपनी आक्रामकता को जारी रखते हुए चीन ने एक बार फिर भूटान स्थित सकतेंग वन्यजीव अभयारण्य पर दावा ठोंका है। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनबिन ने एक प्रेस ब्रीफिंग में कहा कि चीन और भूटान के बीच सीमा का अभी तक सीमांकन नहीं किया गया है। उन्होंने कहा, "चीन की स्थिति लगातार स्पष्ट बनी हुई है। चीन और भूटान के बीच सीमा को सीमांकित नहीं किया गया है और मध्य, पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्रों में विवाद हैं।" उन्होंने कहा कि चीन विवाद को सुलझाने के लिए 'एक समाधान पैकेज' पेश कर रहा है। वह इन विवादों को कतई बहुपक्षीय मंचों पर नहीं उठाना चाहता।
हालांकि, चीन ने पूर्वी भूटान के ट्रशिगांग जिले में भारत और चीन की सीमा से लगे अभयारण्य का मुद्दा इस साल जून में ग्लोबल एनवायरमेंट फैसिलिटी (जीईएफ) की एक वर्चुअल बैठक में उठाया था। चीन ने अभयारण्य के लिए अनुदान पर आपत्ति जताते हुए दावा किया था कि यह स्थान विवादित है। परिषद ने चीन की आपत्ति के कारण को दर्ज करने से इनकार कर दिया था और कहा था कि फुटनोट में केवल यह रिकॉर्ड होगा कि चीन ने परियोजना पर आपत्ति जताई है।
भूटान सरकार ने परिषद के सत्र के दस्तावेजों में सकतेंग वन्यजीव अभयारण्य पर भूटान और उसके क्षेत्र की संप्रभुता पर सवाल उठाने वाले संदर्भों का पुरजोर विरोध करते हुए जीईएफ परिषद को एक औपचारिक पत्र जारी किया था। भूटान ने जीईएफ परिषद से दस्तावेजों से चीन के आधारहीन दावों के सभी संदर्भों को निकालने का आग्रह किया है।
भूटान और चीन के बीच 1984 से सीमा विवाद है। थिम्पू और बीजिंग के बीच वार्ता विवाद के तीन क्षेत्रों (उत्तरी भूटान में दो जकार्लुंग और पसमलंग क्षेत्रों में और एक पश्चिम भूटान में) सीमित रही है। सकतेंग इन तीनों विवादित क्षेत्रों में से किसी का हिस्सा नहीं है।
जबकि बाकी दुनिया चीन के हुबेई प्रांत के वुहान शहर से उठी कोरोना वायरस महामारी के आर्थिक दुष्प्रभावों से जूझ रही है, ऐसे में भी चीन ईस्ट चाइना सी, साउथ चाइना सी और भारत को उसके लद्दाख व अरुणाचल प्रदेश में लगातार उकसा रहा है। हालांकि भारत के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव में कुछ कमी आई है, लेकिन स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है।(IANS)
दूसरे विकसित देशों को प्रति इलाज 2,340 डॉलर चुकाने होंगे
- मारिया एलेना नावास
बीबीसी न्यूज़
मई में जब इस बात का एलान हुआ कि कोविड-19 के मरीज़ों पर एक दवा असरदार साबित हो रही है तो इसे लेकर बड़ी उम्मीदें पैदा हो गई थीं.
ये दवा रेमडेसिविर थी. यह अमरीकी फार्मा कंपनी गिलियड की एक एंटीवायरल दवा है.
शुरुआती टेस्ट से पता चला था कि यह दवा कोरोना वायरस से संक्रमित मरीज़ों को जल्दी ठीक कर सकती है.
इस एलान के बाद पूरी दुनिया के विशेषज्ञों, डॉक्टरों और राजनेताओं ने खुद से एक सवाल पूछा. यह सवाल था कि गिलियड इस दवा के लिए कितने पैसे वसूलेगी?
उस वक़्त केवल दो दवाएं ही कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ जंग में प्रभावी साबित होती नज़र आ रही थीं. पहली रेमडेसिविर थी जबकि दूसरी एक स्टेरॉयड डेक्सामेथासोन थी.
कुछ दिन पहले इस सवाल का जवाब मिल गया. अमरीका में बीमा कंपनियों को हर मरीज़ के पांच दिन के इलाज के लिए 3,120 डॉलर हर हालत में चुकाने होंगे.
रेमडेसिविर की क़ीमत
दूसरे विकसित देशों को प्रति इलाज के लिए 2,340 डॉलर चुकाने होंगे.
गिलियड ने एक बयान में कहा कि विकासशील देशों में कंपनी जेनेरिक दवा बनाने वाली कंपनियों के साथ बातचीत कर रही है ताकि इन देशों में दवा काफी कम दाम में मुहैया कराई जा सके. हालांकि, इसमें क़ीमत के बारे में कोई जिक्र नहीं किया गया.
गिलियड के सीईओ डैनियल ओ'डे ने बयान में कहा, "हम रेमडेसिविर की क़ीमत तय करने को लेकर हमारे ऊपर मौजूद बड़ी ज़िम्मेदारी को समझते हैं."
उन्होंने कहा, "काफी सावधानी, लंबा वक़्त और चर्चा करने के बाद हम अपना फैसला साझा करने के लिए तैयार हैं."
ये फैसला हालांकि, एक बड़े तबके की आलोचना का शिकार हुआ.
इन लोगों का मानना था कि ऐसे वक़्त में जबकि दुनिया एक स्वास्थ्य आपातकाल से गुज़र रही है, इसके इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवा की इतनी ऊंची क़ीमत तय करना एक अपराध है.
इन्वेस्टिगेशन और डिवेलपमेंट
पीटर मेबार्डक ग़ैरसरकारी संगठन 'पब्लिक सिटिज़न' के 'एक्सेस टू मेडिसिंस' प्रोग्राम के निदेशक हैं. 'पब्लिक सिटिज़न' का मुख्यालय वाशिंगटन में है.
पीटर कहते हैं, "घमंड और आम लोगों के प्रति उपेक्षा दिखाते हुए गिलियड ने एक ऐसी दवा की क़ीमत हज़ारों डॉलर तय कर दी है जिसे आम लोगों के बीच होना चाहिए."
जानकारों का कहना है कि दवा कंपनियों को मुनाफ़ा कमाने का पूरा हक़ है क्योंकि उन्हें किसी दवा को विकसित करने और उसका उत्पादन करने पर भारी पूंजी निवेश करनी पड़ती है.
मैड्रिड में कैमिलो जोस सेला यूनिवर्सिटी में फार्माकोलॉजी के प्रोफेसर फ्रैंसिस्को लोपेज मुनोज कहते हैं, "आपको इस तथ्य के साथ शुरू करना पड़ता है कि दवाओं का विकास एक बेहद महंगा सौदा होता है. खोज से लेकर मार्केट में आने तक किसी दवा की औसत क़ीमत क़रीब 1.14 अरब डॉलर बैठती है. इसके अलावा इसमें वक़्त भी बहुत लगता है. किसी दवा को विकसित करने में 12 साल तक का वक़्त लग सकता है और स्टडी की जा रही हर 5,000 दवाओं में से केवल एक ही बाज़ार तक पहुंच पाती है. इसके साथ ही हमें पेटेंट के एक्सपायर होने को भी देखना पड़ता है. मार्केट में आने के 20 साल बाद दवा का पेटेंट खत्म हो जाता है."
हेपेटाइटिस-सी से कोरोना तक
हालांकि, रेमडेसिविर के साथ मामला थोड़ा अलग है. ऐसा इसलिए है क्योंकि यह कोई नई दवा नहीं है. न ही गिलियड ने इसे ख़ासतौर पर कोविड-19 के लिए विकसित किया है.
शुरुआत में इस दवा को हेपेटाइटिस-सी के लिए विकसित किया गया था.
जब यह पाया गया कि यह हेपेटाइटिस पर बेअसर है तो इसे इबोला वायरस के इलाज के लिए आज़माया गया, लेकिन यह वहां भी काम नहीं आई और गिलियड ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया.
इस साल की शुरुआत में कोविड-19 के फैलने के बाद गिलियड ने इस दवा को फिर से टेस्ट करने और इसे कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ आज़माने का फैसला किया.
इन नए क्लीनिकल ट्रायल्स पर अमरीका के नेशनल इंस्टीट्यूट्स ऑफ हेल्थ और दूसरे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने पैसा लगाया था. यानी कि ये करदाताओं का पैसा था.
इसी वजह से विशेषज्ञों का कहना है कि कोरोना महामारी के दौर में आम लोगों को यह दवाई उत्पादन की लागत पर मुहैया कराई जानी चाहिए.
हद से ज़्यादा महंगी
गिलियड ने रेमडेसिविर की उत्पादन लागत का खुलासा नहीं किया है, लेकिन क्लीनिकल एंड इकनॉमिक रिव्यू इंस्टीट्यूट (आईसीईआर) के विश्लेषण से पता चला है कि प्रति मरीज़ 10 दिन के इलाज के लिए इस दवा की मैन्युफैक्चरिंग की लागत करीब 10 डॉलर बैठती है.
लेकिन, गिलियड की तय की गई नई क़ीमत के हिसाब से रेमडेसिविर अपनी पेरेंट कंपनी के लिए 2020 में 2.3 अरब डॉलर की कमाई कर सकती है.
रॉयल बैंक ऑफ कनाडा ने इस बात का आकलन किया है.
आलोचक कह रहे हैं वैश्विक स्तर पर एक स्वास्थ्य आपातकाल के वक़्त में किसी कंपनी का मोटा मुनाफ़ा बटोरना एक घोटाले जैसा है.
यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी एंड हेल्थ रेगुलेशंस के एक्सपर्ट प्रोफेसर ग्राहन डटफील्ड कहते हैं, "मैं मुनाफ़ा कमाने का विरोधी नहीं हूं, लेकिन रेमडेसिविर की क़ीमत हद से ज्यादा है. लेकिन, मैं यह भी मानता हूं कि सरकार ने इसे रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया, ऐसे में यह एक घोटाले जैसा है. इंडस्ट्री एक रेगुलेटरी सिस्टम के तहत काम करती है और रेगुलेटरी सिस्टम सरकार तय करती है."
यूनिवर्सल हेल्थकेयर सिस्टम
हर देश के हिसाब से दवाओं की क़ीमत अलग-अलग तय की जाती है.
डटफील्ड बताते हैं कि ब्रिटेन और बाकी यूरोप जैसी जगहों पर दवाओं की क़ीमत कहीं कम होती हैं क्योंकि यहां एक यूनिवर्सल हेल्थकेयर सिस्टम है. इन्हें मैन्युफैक्चरर्स से बड़े डिस्काउंट मिलते हैं.
डटफील्ड बताते हैं, लेकिन, अमरीका में हालात बिलकुल अलग हैं. वे कहते हैं, "यहां फार्मास्युटिकल इंडस्ट्री किसी भी तरह के प्राइस कंट्रोल के अधीन नहीं है. फार्मा कंपनियां अपनी मर्जी के हिसाब से दवाओं की क़ीमत तय कर सकती हैं. ऐसे में केवल एक ही दबाव क़ीमतों को नियंत्रण में रख सकता है और वह है राजनीतिक दबाव."
इसी वजह से सबसे बुरी तरह से प्रभावित होने वाले विकासशील देशों में विकसित देशों में विकसित हुए इलाज आमतौर पर देरी से पहुंचते हैं और ये बेहद महंगे होते हैं. इस तरह के वाकये पहले भी देखे गए हैं.
वे कहते हैं, "कई देशों में बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं जो कि 3,420 डॉलर खर्च नहीं कर सकते हैं."
'पेटेंट्स छोड़ें दवा कंपनियां'
विशेषज्ञों का कहना है कि रेमडेसिविर की क़ीमत अहम है क्योंकि कोविड-19 के इलाज या वैक्सीन खोज रही दूसरी कंपनियां इसकी क़ीमत के हिसाब से अपनी रणनीति और क़ीमतें तय करेंगी.
मुनोज बताते हैं, "हम रेमडेसिविर की क़ीमत सुनकर डरे हुए हैं. यह बेहद महंगी है. लेकिन, असली दिक़्क़त रेमडेसिविर के साथ नहीं है, बल्कि ये पहली वैक्सीन के आने पर दिखाई देगी."
"रेमडेसिविर केवल एक ख़ास समूह के लोगों, कुछ बेहद कम संक्रमित मरीज़ों के इलाज के लिए है. दूसरी ओर, वैक्सीन दुनिया की पूरी आबादी के लिए आएगी और यह अन्य दूसरे कई नैतिक पहलुओं को भी पैदा करेगी."
इसी वजह से कई लोग फार्मा कंपनियों से महामारी के दौरान अपने पेटेंट्स त्यागने और महामारी का दौर गुज़रने के बाद इन्हें फिर से हासिल करने के लिए कह रहे हैं.
डटफील्ड कहते हैं, "मैं मानता हूं कि इंडस्ट्री में काम कर रहे वैज्ञानिक दुनिया की मदद करना चाहते हैं, लेकिन, अंतिम फैसला इन लोगों के हाथ में नहीं होता."(bbc)
सुसान चाको दयानिधि
देश में रिवर्स ऑस्मोसिस (आरओ) तकनीक के उपयोग के कारण पानी की अत्यधिक हानि हो रही है। इस मामले पर 13 जुलाई 2020, को एनजीटी के न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति सोनम फिंटसो वांग्दी की दो सदस्यीय पीठ में सुनवाई हुई।
अदालत ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को 20 मई, 2019 के अपने आदेश में एनजीटी द्वारा निर्धारित तरीके से आरओ के उपयोग को प्रतिबंधित करने के लिए एक अधिसूचना जारी करने को कहा था, पर ऐसा नहीं किया गया। इस देरी पर अदालत ने मंत्रालय से जवाब मांगा।
एक वर्ष बीतने के बाद भी, केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने लॉकडाउन के कारण समय बढ़ाने की मांग की थी। अदालत ने निर्देश दिया कि आवश्यक कार्रवाई अब 31 दिसंबर, 2020 तक पूरी की जानी चाहिए।
मामले को 25 जनवरी, 2021 को फिर से विचार के लिए सूचीबद्ध किया गया है।
दिल्ली में चल रहे अवैध बोरवेल को बंद करें
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (डीपीसीसी) को दिल्ली में अवैध बोरवेल और ट्यूबवेल के उपयोग पर पर्यावरण विभाग, दिल्ली सरकार द्वारा तय मानकों के तहत चलाने की प्रक्रिया (एसओपी) का पालन करने का निर्देश दिया।
एसओपी में 'भूजल को निकालने के नियम, बंद करने, बोरवेल / ट्यूबवेल के उपयोग से संबंधित गैरकानूनी गतिविधियों' पर रोक लगाने के लिए दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी), स्थानीय निकायों और खंड विकास अधिकारियों जैसी विभिन्न एजेंसियों को जिम्मेदारियां सौंपी गई थीं। अवैध बोरवेल की पहचान उपयोग की प्रकृति के आधार पर और जिलों के डिप्टी कमिश्नर (राजस्व) को अवैध बोरवेलों के बंद और उल्लंघन की जांच की देखरेख करने की भूमिका सौंपी गई थी।
उपायुक्तों की सहायता के लिए प्रत्येक जिले में एक अंतर विभागीय सलाहकार समिति का गठन किया गया था।
ड्रिलिंग मशीन / रिग्स का इस्तेमाल अवैध बोरवेल खोदने के लिए किया जाता है। भूजन निकालने के लिए पंजीकरण, पूर्व अनुमति और पर्यावरण क्षतिपूर्ति सहित एक प्रणाली को एसओपी में शामिल किया गया था।
यह बताया गया था कि दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) के द्वारा पहले ही 19661 अवैध बोरवेल की पहचान कर ली गई है, जिस पर कार्रवाई की जा रही है और 7248 इकाइयों को पहले ही जिला अधिकारियों द्वारा बंद करवा दिया गया था। शेष इकाइयों को प्राथमिकता से बंद किया जाना है। ये इकाईयां पहले ही पहचान ली गईं थी और इन्हें तीन महीने की अवधि के अंदर पूरी तरह बंद करने की बात कही गई है।
एनजीटी का यह आदेश बिना लाइसेंस के जमीन से पानी निकालने वाले यंत्रों के चलने, दिल्ली के कुछ हिस्सों में दूषित पानी की आपूर्ति पर की गई शिकायत पर था। (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्री लालजी टंडन-जैसे कितने नेता आज भारत में हैं ? वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा में अपनी युवा अवस्था से ही हैं लेकिन उनके मित्र, प्रेमी और प्रशंसक किस पार्टी में नहीं हैं ? क्या कांग्रेस, क्या समाजवादी, क्या बहुजन समाज पार्टी– हर पार्टी में टंडनजी को चाहनेवालों की भरमार है। टंडनजी संघ, जनसंघ और भाजपा से कभी एक क्षण के लिए विमुख नहीं हुए। यदि वे अवसरवादी होते तो हर पार्टी उनका स्वागत करती और उन्हें पद की लालसा होती तो वे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री कभी के बन गए होते। वे पार्षद रहे, विधायक बने, सांसद हुए, मंत्री बने और अब मध्यप्रदेश के राज्यपाल हैं। जो भी पद या अवसर उन्हें सहज भाव से मिलता गया, उसे वे विन्रमतापूर्वक स्वीकार करते गए। उत्तरप्रदेश की राजनीति जातिवाद के लिए काफी बदनाम है। वहां का हर बड़ा नेता जातिवाद की बंसरी बजाकर ही अपनी दुकानदारी जमा पाता है लेकिन टंडनजी हैं कि उनकी राजनीति संकीर्ण सांप्रदायिकता और जातीयता के दायरों को तोडक़र उनके पार चली जाती है। इसीलिए वे हरदिल अजीज़ नेता रहे हैं।
टंडनजी से मेरी भेंट कई वर्षों पहले अटलजी के घर पर हो जाया करती थी। उसे भेंट कहें या बस नमस्कार—चमत्कार ? उनसे असली भेंट अभी कुछ माह पहले भोपाल में हुई जब मैं किसी पत्रकारिता समारोह में व्याख्यान देने वहां गया हुआ था। आपको आश्चर्य होगा कि वह भेंट साढ़े चार घंटे तक चली। न वे थके और न ही मैं थका। मुझे याद नहीं पड़ता कि मेरे 65-70 साल के सार्वजनिक जीवन में किसी कुर्सीवान नेता याने किसी पदासीन भारतीय नेता से मेरी इतनी लंबी मुलाकात हुई हो।
टंडनजी की खूबी यह थी कि वे जनसंघ और भाजपा के कट्टर सदस्य रहते हुए उनके विरोधी नेताओं के भी प्रेमभाजन रहे। उनके किन-किन नेताओं से संबंध नहीं रहे ? आप यदि उनकी पुस्तक ‘स्मृतिनाद’ पढ़ें तो आपको टंडनजी के सर्वप्रिय व्यक्तित्व का पता तो चलेगा ही, भारत के सम-सामयिक इतिहास की ऐसी रोचक परतें भी खुल जाएंगी कि आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे। 284 पृष्ठ का यह ग्रंथ छप गया है लेकिन अभी इसका विमोचन नहीं हुआ है। टंडनजी ने यह सौभाग्य मुझे प्रदान किया कि इस ग्रंथ की भूमिका मैं लिखूं। इस ग्रंथ में उन्होंने 40-45 नेताओं, साहित्यकारों, समाजसेवियों और नौकरशाहों आदि पर अपने संस्मरण लिखे हैं। ये संस्मरण क्या हैं, ये सम-सामयिक इतिहास पर शोध करनेवालों के लिए प्राथमिक स्त्रोत हैं। उनकी इच्छा थी कि इस पुस्तक का विमोचन दिल्ली, भोपाल और लखनऊ में भी हो।
टंडनजी को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
- विजय शंकर सिंह
19 जुलाई 1969 को बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था और उसके ठीक पचास साल बाद आज 21 जुलाई 2020 को यह खबर आयी कि सरकार छः पब्लिक सेक्टर बैंकों को पुनः निजी क्षेत्रों में सौंपने जा रही है। सरकार और बैंकिंग सूत्रों ने बताया कि बड़े सुधार के तहत पीएसयू बैंकों की संख्या आधी से कम किए जाने की योजना है। अभी देश में जो सरकारी बैंक हैं उन्हें, पांच तक सीमित करने की योजना है।
कहा जा रहा है कि, बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पा रहे सरकारी बैंकों में हिस्सेदारी बेचने के लिए नए निजीकरण प्रस्ताव पर काम चल रहा है और कैबिनेट की मंजूरी के बाद यह प्रक्रिया आगे बढ़ाई जाएगी। अखबारों की एक खबर के अनुसार, कोविड – 19 से देश की अर्थव्यवस्था पर काफी दबाव है और सरकार के पास धनाभाव है। कई सरकारी समितियों और रिजर्व बैंक ने भी सिफारिश की थी कि 5 से ज्यादा सार्वजनिक बैंक नहीं होने चाहिए।
खबर है कि पहले चरण में बैंक ऑफ इंडिया, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज बैंक, यूको बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र और पंजाब एवं सिंध बैंक का निजीकरण किया जाएगा। सरकार ने पहले ही बता दिया है कि अब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विलय नहीं किया जाएगा, सिर्फ उनके निजीकरण का ही विकल्प है। पिछले साल ही 10 सरकारी बैंकों का विलय कर 4 बड़े बैंक बनाए गए हैं। अगले चरण में, जिन बैंकों का विलय नहीं हुआ है, उनके निजीकरण की योजना है।
अब जरा पचास साल पीछे चलें। जब 1969 में इंदिरा गांधी ने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था तो वह एक अभूतपूर्व घटना थी। वह सरकार के वैचारिक बदलाव का एक संकेत था और 1947 से चली आ रही मिश्रित अर्थव्यवस्था से थोड़ा अलग हट कर भी एक कदम था। कांग्रेस के अंदर इंदिरा गांधी के इस कदम का विरोध हुआ और कांग्रेस नयी तथा पुरानी कांग्रेस में बंट गयी, पर देश की प्रगतिशील पार्टियों और समाज ने इंदिरा गांधी के इस कदम का बेहद गर्मजोशी से स्वागत किया और हवा का रुख भांपते हुए इन्दिरा गांधी ने 1972 में निर्धारित आम चुनाव को एक साल पहले ही करा दिया। इसका परिणाम आशानुरूप ही हुआ और 1971 में तब तक का सबसे प्रबल जनादेश इंदिरा गांधी को मिला और स्पष्ट है कि यह जनादेश प्रगतिवादी नीतियों के पक्ष में था और तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी उनके साथ आ गयी थी और वह इंदिरा गांधी का वामपंथी झुकाव था।
ऐसा नहीं था कि इंदिरा गांधी के इस कदम का विरोध नहीं हुआ। विरोध कांग्रेस में भी हुआ और कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गयी। एक का नाम संगठन कांग्रेस पड़ा जिसके अध्यक्ष थे निजलिंगप्पा और दूसरी कांग्रेस इन्दिरा कांग्रेस बनी जिसके अध्यक्ष थे बाबू जगजीवन राम। कम्युनिस्ट इंदिरा कांग्रेस के साथ थे। गैर कांग्रेसवाद के रणनीतिकार डॉ. राम मनोहर लोहिया दिवंगत हो गए थे। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी प्रतिभावान और युवा जुझारू नेताओं के बावजूद भी गैर कांग्रेसवाद के सिद्धान्तवाद से चिपकी रही।
जनसंघ, जो आज की शक्तिशाली भाजपा का पूर्ववर्ती संस्करण था, एक शहरी और मध्यवर्गीय खाते-पीते लोगों की पार्टी थी, जिसकी कोई स्पष्ट आर्थिक नीति नहीं थी। लेकिन उसका झुकाव पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ओर था। पुराने राजाओं और ज़मीदारों की भी एक पार्टी थी, सितारा चुनाव चिह्न वाली स्वतंत्र पार्टी, जिसकी आर्थिक नीति जनविरोधी और सामंती पूंजीवादी थी। इन तीनों दलों संगठन कांग्रेस, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी ने इंदिरा गांधी के दो बड़े प्रगतिशील कदमों, एक बैंकों का राष्ट्रीयकरण और दूसरा राजाओं के विशेषाधिकारों और प्रिवी पर्स के खात्मे का खुल कर विरोध किया।
1971 के आम चुनाव में एक तरफ कांग्रेस और उसके साथ कम्युनिस्ट दल थे, तथा दूसरी तरफ, संगठन कांग्रेस, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी थी। इन तीनों दलों के साथ संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी भी शामिल हो गयी और इसका नाम पड़ा महा गठबंधन, ग्रैंड एलायंस। 1971 के चुनाव में यह महा गठबंधन बुरी तरह हारा। संगठन कांग्रेस, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी की आर्थिक नीतियां तो पूंजीवादी रुझान की थी हीं, पर समाजवादी उनके साथ कैसे चले गए यह गुत्थी आज भी हैरान करती है। लेकिन इसका कारण सोशलिस्ट पार्टी का गैरकांग्रेसवाद की थियरी थी। यही बिंदु संसोपा को इन दक्षिणपंथी दलों की ओर ले गया। डॉ. लोहिया अगर तब तक जीवित और सक्रिय रहते तो वे क्या स्टैंड लेते इसका अनुमान मैं नहीं लगा पाऊंगा। यह पृष्ठभूमि है बैंकों के राष्ट्रीयकरण की।
भारतीय बैंकिंग प्रणाली में वाणिज्यिक बैंकों की अपनी अलग पहचान है और वे बैंकिंग सेक्टर के मेरुदंड हैं। ये बैंक अपने पूर्ण अंश पत्रों के विक्रय, जनता से प्राप्त जमा सुरक्षित कोष, अन्य बैंकों तथा केन्द्रीय बैंक से ऋण लेकर प्राप्त करते हैं और सरकारी प्रतिभूतियों, विनिमय पत्रों, बांड्स, तैयार माल अथवा अन्य प्रकार की तरल या चल सम्पत्ति की जमानत पर ऋण प्रदान करते हैं। भारतीय रिजर्व बैंक का इन पर नियंत्रण रहता है। राष्ट्रीयकरण से पूर्व इनका उद्देश्य तथा बैंकिंग प्रणाली थोड़ी अलग थी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ बैंकिंग सेक्टर में आमूल चूल परिवर्तन हुए हैं। यह परिवर्तन ही बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मूल उद्देश्य था। अत: भारतीय बैंकिंग सिस्टम में 14 प्रमुख वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घटना एक युग प्रवर्तक घटना मानी जाती है।
19 जुलाई 1969 को, देश के 50 करोड़ रुपये से अधिक जमा राशि वाले, चौदह अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ ही, एक नयी आर्थिक नीति, जो प्रगतिशील अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर थी, की शुरुआत हुई। इसी के साथ ही भारतीय बैंकिंग प्रणाली मात्र लेन-देन, जमा या ऋण के माध्यम से केवल लाभ अर्जित करने वाला ही उद्योग न रहकर भारतीय समाज के गरीब, दलित तबकों के सामाजिक एवं आर्थिक पुनरुत्थान और आर्थिक रूप में उन्हें ऊंचा उठाने का एक सशक्त माध्यम बन गया। बैंक राष्ट्रीयकरण के बाद इंदिरा गांधी को यह भरोसा था कि, बैंकिंग उद्योग राष्ट्र के लोक कल्याणकारी राज्य और जन विकास की दिशा में तेजी से अग्रसर होगा। राष्ट्रीयकरण के बाद इंदिरा गांधी ने कहा था कि
“बैंकिंग प्रणाली जैसी संस्था, जो हजारों -लाखों लोगों तक पहुंचती है और जिसे लाखों लोगों तक पहुंचाना चाहिए, के पीछे आवश्यक रूप से कोई बड़ा सामाजिक उद्देश्य होना चाहिए जिससे वह प्रेरित हो और इन क्षेत्रों को चाहिए कि वह राष्ट्रीय प्राथमिकताओं तथा उद्देश्यों को पूरा करने में अपना योगदान दें।”
राष्ट्रीयकरण से पूर्व सभी वाणिज्यिक बैंकों की अपनी अलग और स्वतंत्र नीतियां होती थीं और उनका उद्देश्य अधिकाधिक लाभ के मार्गों को प्रशस्त करने तक ही सीमित था जो स्वाभाविक ही माना जाना चाहिए क्योंकि इन बैंकों के अधिकतर शेयर-धारक कुछ इने-गिने पूंजीपति व्यक्ति थे जो अपने हितों की रक्षा के साथ निजी हितों को ही बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ पहुंचाते थे। समाज के गरीब, कमजोर वर्ग, दलित तथा सामान्य ग्रामीण तबकों के लोगों को बैंक होता क्या है, इसका भी पता नहीं था। अत: वे दिन-प्रतिदिन सेठ-साहूकारों एवं महाजनों के सूद के नीचे इतने दब गए कि उनका जीवन एक त्रासदी की तरह बन गया था।
भारत मूल रूप से एक कृषि आधारित आर्थिकी का देश है। आज भी तीन चौथाई आबादी ग्रामीण क्षेत्र में है। सड़़कों, बिजली, सिंचाई की काफी कुछ सुविधाओं के बावजूद, गांव, कृषि और मानसून पर ही देश की अर्थव्यवस्था निर्भर रहती है। खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता के बावजूद, अगर एक दो साल भी मानसून गड़बड़ा गया तो उसका सीधा असर देश के बजट पर पड़ता है। बैंक राष्ट्रीयकरण के पूर्व किसानों की स्थिति अपेक्षाकृत खराब थी और एक कटु सत्य यह था कि किसान कर्ज में ही जन्म लेता था, कर्ज में ही पलता था, और अपने पीछे कर्ज छोड़कर ही मर जाता था।
1942 के भयंकर दुर्भिक्ष और किसान जीवन पर लिखा तत्कालीन विपुल साहित्य से इसका अंदाज़ा लग सकता है। फलत: मिश्रित और प्रगतिशील अर्थव्यवस्था, तथा जमींदारी उन्मूलन जैसे भूमि सुधार कार्यक्रमों के बावजूद, पूंजीपति अधिक धनवान होते गए तथा निर्धन और भी गरीब बनते गए। देश में सामाजिक असंतुलन का संकट पैदा हो गया और इसके साथ ही, आर्थिक विषमता बढ़ने लगी। इससे सामाजिक तथा आर्थिक विकास की गति अवरुद्ध हो गयी और एक नई प्रगतिशील आर्थिक नीति की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी । तब बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसा कदम तत्कालीन सरकार ने उठाया।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मूल उद्देश्य बैंकिंग प्रणाली को देश के आर्थिक विकास में सक्रिय योगदान कराना था। मूल उद्देश्यों को संक्षेप में यहां आप पढ़ सकते हैं,
● राष्ट्रीयकरण के पहले बैंकिंग सेवाएं कुछ पूंजीपतियों एवं बड़े व्यापारी और राजघरानों तक ही सीमित थीं जिससे आर्थिक विषमता बढ़ने लगी थी और, इस विषमता को दूर करने हेतु बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ समाज में सभी वर्गों विशेषत: ग्रामीण कस्बाई क्षेत्रों में बसे कमजोर वर्गों तक पहुंचाने का मूल उद्देश्य बैंकों के राष्ट्रीयकरण में निहित है।
● बैंक राष्ट्रीयकरण के पहले देश में आर्थिक संकट उत्पन्न होने के कारण आर्थिक विकास की गति अवरुद्ध हो गई थी। अत: देश के आर्थिक विकास में तेजी लाने के लिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाना बहुत ही आवश्यक हो गया था क्योंकि किसी भी देश की प्रगति एवं खुशहाली के लिए उसके आर्थिक विकास की ही महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।
● बैंक राष्ट्रीयकरण का तीसरा उद्देश्य था, देश में बेरोजगारी की समस्या और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के माध्यम से इस समस्या का समाधान खोजना। क्योंकि शिक्षित बेरोजगारों को आर्थिक सहायता के माध्यम से उनके अपने निजी उद्योग या स्वरोजगार के अनेक साधनों में वृद्धि करके बेरोजगारी पर काबू पाया जा सकता था।
● जब तक देश में बेरोजगारी की समस्या का उचित हल नहीं होता तब तक उसके विकास कार्य में तेजी नहीं आ सकती। इस तथ्य को दृष्टिगत रखकर बेरोजगारी उन्मूलन की दिशा में ठोस कदम उठाया जाना जरूरी हो गया था ताकि बैंकिंग सेवाओं तथा सहायता का लाभ शिक्षित बेरोजगारों को मिले और वे अपनी उन्नति के नए मार्ग खोज सकें।
● बैंक राष्ट्रीयकरण का एक उद्देश्य यह भी था कि, देश के कमजोर वर्ग तथा प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों के लोग अर्थात छोटे तथा मंझोले किसान, भूमिहीन मजदूर, शिक्षित बेरोजगार, छोटे कारीगर आदि की आर्थिक उन्नति हो। धन की अनुपलब्धता के कारण, समाज में यह वर्ग अलग-थलग था। अतः इनमें आत्मविश्वास पैदा करके उन्हें उन्नति एवं खुशहाली के मार्ग पर लाना देश की सर्वांगीण प्रगति के लिए बहुत आवश्यक था। समाज के आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत कमज़ोर लोगों का विकास, बैंकिंग सुविधा के माध्यम से संभव था अतः राष्ट्रीयकरण पर विचार किया गया।
● बैंकों के राष्ट्रीयकरण का एक और मूल उद्देश्य था ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति में सुधार तथा कृषि एवं लघु उद्योगों के क्षेत्रों का समुचित प्रगति किया जाना। भारतीय किसान, ज़मींदारी उन्मूलन जैसे प्रगतिशील भूमि सुधार कार्यक्रम के बावजूद, उपेक्षित था, और वह गरीबी के पंक से उबर नहीं पाया था।
● यही हालत कुटीर उद्योग एवं लघु उद्योगों की थी। ब्रिटिश उद्योग नीति ने स्वदेशी कुटीर और ग्रामीण अर्थ व्यवस्था की कमर तोड़ दी थी। यह सब कुटीर और ग्राम उद्योग, अधिकतर कृषि पर ही निर्भर थे और कृषि और कृषि का क्षेत्र उपेक्षित तथा अविकसित होने के कारण इन उद्योगों की भी प्रगति नहीं हो पा रही थी। इस प्रकार, कृषि एवं लघु उद्योग जैसे उपेक्षित क्षेत्रों की ओर उचित ध्यान देकर उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार लाया जाना राष्ट्र की प्रगति के लिए बहुत आवश्यक तथा अनिवार्य हो गया था।
● देश के बीमार उद्योगों को पुनरूज्जीवित करके नए लघु-स्तरीय उद्योगों के नव निर्माण को बढ़ावा देना भी बैंकों के राष्ट्रीयकरण का एक उद्देश्य था। बीमार उद्योगों के कारण बेरोजगारी की समस्या में वृद्धि होकर आर्थिक मंदी फैलने का यह भी एक कारण था अत: ऐसे उद्योगों को आर्थिक सहायता देकर पुनरूज्जीवित करना आवश्यक था।
● इसके साथ ही लघु-स्तरीय उद्योगों की संख्या पर्याप्त नहीं थी जिससे कस्बाई क्षेत्रों की प्रगति में तेजी नहीं आ पा रही थी। अत: देश की प्रगति के लिए लघु-स्तरीय उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना भी अत्यंत जरूरी था, जो कि आर्थिक सहायता के बगैर बेहद मुश्किल था। अत: बैंकों द्वारा आर्थिक नियोजन के लिए उन पर सरकार का स्वामित्व होना ज़रूरी था। अतः इन सामाजिक तथा आर्थिक उद्देश्यों के कारण बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया जिससे कि कमजोर एवं उपेक्षित वर्गों की उन्नति के साथ समाज और प्रकारांतर से राष्ट्र की प्रगति हो।
भारतीय बैंकिंग प्रणाली में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना भारत के कृषकों एवं पिछड़े वर्ग के लोगों के जीवन में क्रांतिकारी घटना मानी जा सकती है। क्योंकि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना के पीछे मूल उद्देश्य यही था कि, छोटे तथा मझोले स्तर के किसानों, भूमिहीन मजदूरों आदि को आसानी से बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ पहुंचाया जाए तथा उन्हें लंबे समय से चले आ रहे, साहूकारों की जंजीरों से मुक्ति दिलाकर उनके अपने गौरव को, पुनरूज्जीवित करने की सहायता प्रदान की जाए।
इन बैंकों की स्थापना क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक अध्यादेश 1975 के अंतर्गत किया गया है। साथ ही स्थानीय जरूरतों को दृष्टिगत रखते हुए, अनुसूचित बैंकों को क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना करने के लिए कहा गया। जिसके कारण, सभी वाणिज्यिक बैंकों ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की और राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों और ग्रामीण बैंकों का नेटवर्क गांव-गांव तक फैल गया। नरेंद्र मोदी सरकार ने बैंकों को और अधिक जनता तक पहुंचाने के लिये जनधन योजना चलाई जिसका लाभ आम जन तक पहुंचा।
लेकिन निजीकरण की राह भी सरकार के अनुसार उतनी निरापद नहीं है। निजीकरण की राह में सबसे बड़ी बाधा बैड लोन बन सकता है। कोरोना आपदा के कारण, चालू वित्तवर्ष में बैड लोन का दबाव दूना हो जाने का अनुमान है। अतः यह प्रक्रिया अगले वित्तवर्ष में की जाएगी। आरबीआई के अनुसार, सितंबर 2019 तक सरकारी बैंकों पर 9.35 लाख करोड़ का बैड लोन था, जो उनकी कुल संपत्ति का 9.1 फीसदी है। ऐसे में हो सकता है कि इस साल सरकार को ही इन बैंकों की वित्तीय हालत सुधारने के लिए 20 अरब डॉलर (करीब 1.5 लाख करोड़ रुपये) बैंकिंग सेक्टर में डालना पड़े।
निजीकरण सरकार की अघोषित आर्थिक नीति बन गयी है। एयरपोर्ट, रेलवे, एयर इंडिया, आयुध फैक्ट्रियां, यहां तक कि बड़े सरकारी अस्पताल तक निजी क्षेत्रों में सौंपने का इरादा नीति आयोग कर चुका है। पर सरकार इस पर धीरे-धीरे चलना चाहती है। केंद्र सरकार एक के बाद एक निजीकरण के फैसले ले भी रही है। सरकार ने अब एलआईसी को छोड़ सभी सरकारी इंश्योरेंस कंपनियों को बेचने की तैयारी कर चुकी है।
सरकार का इरादा तो एलआईसी को लेकर भी साफ नहीं था और उसके भी कुछ अंशों को बेचने की बात उठी थी लेकिन जब विरोध हुआ तो सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिये हैं लेकिन यह वक़्ती रणनीति है, न कि, सरकार का हृदय परिवर्तन। न्यूज़ 18 की एक खबर के अनुसार, एलआईसी और एक नॉन लाइफ इंश्योरेंस कंपनी को छोड़कर बाकी सभी इंश्योरेंस कंपनियों में सरकार अपनी पूरी हिस्सेदारी किस्तों में बेच सकती है। इस पर पीएमओ, वित्त मंत्रालय और नीति आयोग के बीच सहमति बन चुकी है साथ ही कैबिनेट ड्रॉफ्ट नोट भी तैयार हो चुका है।
अगर आप को लगता है यह निजीकरण कोरोनोत्तर अर्थव्यवस्था का परिणाम है तो यह बात बिल्कुल सही नहीं है। 2014 में जब सरकार सत्तारूढ़ हुई तो उसकी आर्थिक नीतियां निजीकरण की थी और यह सब एजेंडा पहले से ही तय है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार गैर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की थी और वर्तमान सरकार ने उस नीति को बदला है। कांग्रेस के पूंजीवादी आर्थिक सोच के बावजूद, कांग्रेस की मूल आर्थिक सोच समाजवादी झुकाव की ओर रही है ।
यह झुकाव जब नेताजी सुभाष बाबू ने आज़ादी के पहले, अपने अध्यक्ष के रूप में योजना आयोग की रूप रेखा रखी थी तब से था। कांग्रेस ने स्वाधीनता मिलने पर, तभी भूमि सुधार और अन्य समाजवादी कार्यक्रमों को लागू करने का मन बना लिया था। मिश्रित अर्थव्यवस्था, पंचवर्षीय योजना ज़मींदारी उन्मूलन और बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना उसी वैचारिक पीठिका का परिणाम था। लेकिन 1991 में इस आर्थिकी जिसे कोटा परमिट राज भी कहा जाता है, के कुछ दुष्परिणाम भी सामने आए तो खुली अर्थव्यवस्था को अपनाया गया। लेकिन इसके बावजूद भी सरकारी क्षेत्र मज़बूत बना रहा।
2014 में सरकार की नीति बदली और सत्ता का जो रुप सामने आया वह पूंजीवाद की स्वस्थ प्रतियोगिता कहा जाने वाला न रह कर, कुछ चहेते पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने तक धीरे धीरे सिमटता चला गया। यह गिरोहबंद पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज़्म का रुप है। केवल राजनीतिक सत्ता का ही केंद्रीकरण 2014 ई के बाद नहीं हुआ बल्कि इसी अवधि में पूंजीपतियों का भी केंद्रीकरण होने लगा। जानबूझकर सरकारी क्षेत्रों की बड़ी-बड़ी नवरत्न कंपनियों को भी चहेते पूंजीपतियों के हित लाभ और स्वार्थ पूर्ति के लिये, कमज़ोर किया गया ताकि वे स्वस्थ प्रतियोगिता में न शामिल हो सकें और चहेते पूंजीपतियों को अधिक से अधिक विस्तार करने का खुला मैदान मिल सके।
आज बीएसएनएल और ओएनजीसी जैसी लाभ कमाने वाली कम्पनियां, निजी क्षेत्र की, जिओ और रिलायंस के आगे नुकसान उठा रही हैं। इस प्रकार जब सरकारी उपक्रम कमज़ोर और संसाधन विहीन होने लगे तो उनको बोझ समझ कर उन्हें बेचने की बात की जाने लगी। यह एक विस्तृत विषय है जिस पर अलग से लिखा जायेगा। फिलहाल तो पचास साल पहले उठाया गया एक प्रगतिशील कदम आज फिर पीछे लौटाया जा रहा है। यह एक प्रतिगामी कदम है और समाज तथा इतिहास की प्रगतिशील धारा के विपरीत है। (janchowk)
(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)
-पुलकित भारद्वाज
राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच चल रही जबरदस्त खींचतान के बीच पड़ोसी राज्य गुजरात से आई एक बड़ी ख़बर दब सी गई. वहां कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व ने पाटीदार नेता हार्दिक पटेल को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया है. पटेल ने बीते साल ही कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की थी. हार्दिक पटेल को मिली इस नई ज़िम्मेदारी को जानकार अलग-अलग नज़रिए से देख रहे हैं. विश्लेषकों का एक धड़ा कांग्रेस हाईकमान के इस फ़ैसले को गुजरात में पार्टी के कद्दावर नेता अहमद पटेल के कमज़ोर होने से जोड़कर देख रहा है. ऐसा मानने वालों का तर्क है कि हार्दिक पटेल को आगे कर कांग्रेस आलाकमान ने यह इशारा दिया है कि आने वाले दिनों में संगठन की बागडौर वरिष्ठ नेताओं के बजाय युवाओं के हाथ में जाने वाली है.
लेकिन गुजरात की राजनीति पर नज़र रखने वाले कुछ अन्य जानकार इस मसले पर बिल्कुल विपरीत राय रखते हैं. उनके मुताबिक हार्दिक पटेल की शक्ल में अहमद पटेल ने पार्टी के पूर्व अध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी के ख़िलाफ़ एक बड़ा दांव खेला है. दरअसल अन्य राज्यों की तरह गुजरात में भी कांग्रेस कई गुटों में बंटी हुई है. इनमें से सबसे प्रमुख गुट अहमद पटेल और भरत सिंह सोलंकी के माने जाते हैं. सोलंकी गुजरात कांग्रेस के शायद इकलौते नेता हैं जो अहमद पटेल की आंखों में आंखें डालने की कुव्वत रखते हैं. प्रदेश कांग्रेस से जुड़े सूत्र बताते हैं कि इस वजह से गुजरात में पटेल समर्थक कांग्रेसी नेता भरत सिंह सोलंकी को कमज़ोर करने की कोई कसर नहीं छोड़ते.
अहमदाबाद स्थित गुजरात कांग्रेस कमेटी के कार्यालय यानी राजीव गांधी भवन में दबी आवाज़ में यह चर्चा भी सुनी जा सकती है कि बीते आम चुनाव में भरत सिंह सोलंकी की हार के पीछे भी यही वजह सबसे बड़ी रही थी. कहा तो यह तक जा रहा है कि यदि कांग्रेस हाईकमान चाहता तो हाल ही में गुजरात राज्यसभा चुनाव से पहले पार्टी से बाग़ी हुए आठ विधायकों में से कुछ को जाने से रोक सकता था. इससे सोंलकी की दावेदारी इस चुनाव में अपेक्षाकृत मजबूत हो सकती थी. लेकिन उसने ऐसा करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. नतीजतन सोंलकी को चुनाव में शिकस्त का सामना करना पड़ा. यहां हाईकमान से कुछ नेताओं का इशारा अहमद पटेल की तरफ़ ही है.
अब सवाल है कि हार्दिक पटेल के आगे बढ़ने से भरत सिंह सोलंकी पर क्या प्रभाव पड़ सकता है? इसका जवाब भरत सिंह सोलंकी के पिता और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी के राजनीतिक इतिहास से जुड़ता है. माधव सिंह सोलंकी 1980 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे और तभी से उन्होंने सूबे में बेहद प्रभावशाली पाटीदार समुदाय को दरकिनार करना शुरु कर दिया था. 1981 में माधव सिंह सोलंकी ने बक्शी आयोग की सिफारिश पर 86 जातियों को ओबीसी में शामिल करने का फैसला करते हुए ‘खाम’ (केएचएएम) सिद्धांत दिया. इसमें ‘के’ का मतलब क्षत्रियों से था, ‘एच’ का हरिजनों से, ‘ए’ यानी आदिवासी और ‘एम’ मुसलमान. पाटीदारों को इससे बाहर रखा गया. इसके बाद जो कसर बची थी वह सोलंकी ने अपने मंत्रिमंडल में किसी पटेल नेता को शामिल न करके पूरी कर दी थी.
इसके बाद अपने दूसरे कार्यकाल (1985-90) में माधव सिंह सोलंकी ने सार्वजनिक मंचों से पाटीदारों के खिलाफ ऐसी कई बातें कहीं जिन्होंने इस समुदाय में भयंकर आक्रोश भर दिया. इसके बाद नाराज पटेल राज्यव्यापी आंदोलन पर उतर आए जिसमें 100 से ज्यादा लोग मारे गए. कई लोगों का कहना है कि आरक्षण के विरोध में शुरू हुए इस आंदोलन को बाद में कुछ फिरकापरस्त लोगों ने पहले पाटीदार-ओबीसी और बाद में हिंदू-मुसलमान दंगों की शक्ल दे दी. माना जाता है कि पाटीदारों की नाराज़गी के चलते ही कांग्रेस 1990 के बाद से अब तक गुजरात में सत्ता की सीढ़ियां नहीं चढ़ पाई हैं. और शायद यही कारण था कि 2017 के विधानसभा चुनावों में सोलंकी हाईकमान के इशारे पर चुनावी दंगल में नहीं उतरे थे. तब आरक्षण आंदोलन और हार्दिक पटेल की वजह से पाटीदारों का झुकाव वर्षों बाद कांग्रेस की तरफ़ देखा गया था. लिहाजा माना जा रहा है कि हार्दिक पटेल को तवज्जो देकर कांग्रेस ने पटेलों को यह संदेश देने की कोशिश की है कि पार्टी में सोलंकी परिवार का प्रभाव अब घटने लगा है.
गुजरात की राजनीति पर नज़र रखने वालों के मुताबिक हार्दिक पटेल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाने से कांग्रेस को हाल-फिलहाल दो फ़ायदे होते नज़र आ रहे हैं. इनमें से एक तो यही है कि पार्टी से बहुत ज़्यादा ख़ुश न रहने वाले पाटीदारों और खास तौर पर इस समुदाय के युवाओं का नजरिया पार्टी के प्रति थोड़ा और नरम होगा. और दूसरा यह कि बीते साल लोकसभा चुनावों के बाद से राजनीतिक चर्चाओं से तक़रीबन ग़ायब हो चुकी या फ़िर नकारात्मक कारणों के चलते ख़बरों में रहने वाली गुजरात कांग्रेस इस बहाने थोड़ी बहुत सुर्ख़ियां बटोर पाने में सफल हुई है. जानकारों के मुताबिक इससे प्रदेश संगठन के कार्यकर्ताओं पर एक सकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सकता है. हालांकि ये जानकार हार्दिक पटेल के जुड़ने से कांग्रेस को होने वाले अंतिम और निश्चित लाभों के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं कह पाते हैं.
इसके कई कारण हैं. गुजरात कांग्रेस से जुड़े एक वरिष्ठ सूत्र इस बार में कहते हैं कि ‘ये एक मिथ है कि हार्दिक पटेल के पास कोई बड़ी संख्या में पाटीदारों का समर्थन बचा है. इसे इससे समझा जा सकता है कि जिस हार्दिक के इशारे पर कुछ साल पहले तक गुजरात रुक जाया करता था, उसने 2018 में जब पाटीदार आरक्षण और किसानों की कर्ज़माफ़ी को लेकर आमरण अनशन किया तो कुछ बड़े नेताओं और मीडिया को छोड़कर वहां प्रतिदिन कुछ सौ लोगों की भी भीड़ नहीं जुट पाती थी. ऐसा लगता था कि किसी को इस बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ता था कि इस अनशन से उसकी जान भी जा सकती है. हारकर हार्दिक को 18 दिन बाद अपना अनशन वापिस लेना पड़ा था. तब ये बड़ा सवाल उठा था कि क्या पाटीदारों ने हार्दिक के नाम पर घरों से निकलना छोड़ दिया है?’
ग़ौरतलब है कि बीते कुछ समय से हार्दिक भी अपनी छवि को पाटीदार नेता के बजाय ऐसे युवा नेता के तौर पर स्थापित करने में जुटे हैं जो किसी समुदाय को आरक्षण दिलवाने के बजाय रोजगार, कृषि और अन्य सामाजिक मुद्दों को तवज्जो देता हो.
कांग्रेस से जुड़े ये सूत्र आगे जोड़ते हैं, ‘यह ठीक है हार्दिक को साथ लेने से पाटीदारों के एक वर्ग का झुकाव कांग्रेस की तरफ़ बढ़ेगा. लेकिन यदि जातिगत समीकरण के लिहाज से देखें तो इस निर्णय से घाटा ही नज़र आता है.’ दरअसल गुजरात में पटेलों की अनुमानित आबादी कुल जनसंख्या की करीब 14 फीसदी है. वहीं अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के मामले में यह आंकड़ा 60 प्रतिशत से ज़्यादा है. माना जाता है कि प्रदेश कांग्रेस में भरतसिंह सोलंकी इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं. वहीं, पाटीदार समुदाय भारतीय जनता पार्टी का परंपरागत वोटर रहा है. यह सही है कि 2017 के गुजरात विधानसभा में पटेल मतदाताओं वजह से भाजपा के कब्जे वाली कई विधानसभा सीटें कांग्रेस की झोली में आ गिरी थीं. लेकिन यह बात भी सही है कि उस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी से तमाम नाराज़गियों के बावजूद भी पटेल समुदाय के बड़े हिस्से ने उससे मुंह नहीं मोड़ा था.
इसके सटीक उदाहरण के तौर पर गुजरात के उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल की मेहसाणा सीट को लिया जा सकता है. मेहसाणा पाटीदार बहुल इलाका है और हार्दिक पटेल के आंदोलन का केंद्र रहा है. नितिन पटेल को हराना हार्दिक ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था लेकिन वे अपनी इस कवायद में नाकाम रहे.
फ़िर 2019 का लोकसभा चुनाव आते-आते बहुत हद तक पाटीदार भाजपा की ही तरफ़ झुकते चले गए थे. इसमें पटेलों के हक़ में भाजपा द्वारा शुरु की गई योजनाओं ने भी बड़ी भूमिका निभाई थी. हमारे सूत्र के शब्दों में, ‘पाटीदार समुदाय हमेशा से सत्ता का भागीदार रहा है. इस बात की गवाह पाटीदार राजनीति के प्रमुख स्तंभ रहे केशुभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी (जीपीपी) है. 2002 के विधानसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी की वजह से भाजपा से अलग हुए केशुभाई की यह पार्टी गुजरात में सिर्फ़ दो सीटें जीत पाने में सफल रही थी. ऐसे में पटेलों के एक हिस्से को साथ लेने के लिए ओबीसी के मतदाताओं के समर्थन को दांव पर लगाना कितना ठीक है, ये वक़्त बताएगा!’ यहां इस बात पर भी ग़ौर करना ज़रूरी है कि गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से जुड़ने वाले अल्पेश ठाकोर, जो राज्य में पिछड़ा वर्ग के एक और प्रमुख युवा प्रतिनिधि माने जाते हैं, पहले ही पार्टी से छिटक चुके हैं.
जैसा कि हमने रिपोर्ट में ऊपर ज़िक्र किया कि हार्दिक पटेल की नियुक्ति के तार गुजरात कांग्रेस की आपसी फूट से भी जुड़ते हैं. जानकार आशंका जताते हैं कि उनकी मौज़ूदगी प्रदेश संगठन में खेमेबंदी को और बढ़ावा देने वाली साबित हो सकती है. कांग्रेस के एक मौजूदा विधायक इस बारे में कहते हैं कि पटेल की नियुक्ति से संगठन के उन नेताओं में भी अंदरखाने रोष महसूस किया जा सकता है जो किसी भी बड़े धड़े में नहीं बंटे हैं. नाम न छापने के आग्रह के साथ वे विधायक कहते हैं, ‘पार्टी में ऐसे कई लोग हैं जो कई सालों से ज़मीन पर सिर्फ़ संगठन के हितों के लिए काम कर रहे हैं. लेकिन उनको दरकिनार करते हुए जिस तरह साल भर पहले पार्टी में शामिल हुए हार्दिक पटेल को बड़ी जिम्मेदारी मिली है, इसने हमारे कई कार्यकर्ताओं और नेताओं को हताश और नाराज़ किया है.’ हालांकि ये विधायक आगे जोड़ते हैं कि ‘कार्यकर्ताओं की शिकायत को हाईकमान तक पहुंचा दिया गया है. जल्द ही कुछ और कार्यकारी अध्यक्षों की नियुक्ति की उम्मीद है जो अलग-अलग समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे.’
विश्लेषक इस बारे में यह भी कहते हैं कि किसी युवा नेता को आगे बढ़ाने से किसी भी संगठन को एक बड़ा फायदा यह भी होता है कि कोई खास राजनीतिक इतिहास न होने की वजह से विरोधियों की पकड़ में उनकी पुरानी ग़लतियां या कमजोरियां नहीं आ पाती हैं. लिहाजा आम तौर पर नए नेताओं को घेर पाना विरोधियों के लिए टेड़ी खीर साबित होता है. लेकिन हार्दिक पटेल के मामले में ऐसा नहीं है. वे युवा तो हैं. लेकिन ऐसे जो कई मामलों को लेकर पहले ही आलोचनाओं का सामना करते रहे हैं. उनके करीबी उन पर पाटीदार अनामत आंदोलन की आड़ में बड़ी मात्रा में धनराशि बटोरने का आरोप लगाते आए हैं.
पटेल पर यह इल्ज़ाम लग चुका है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने पाटीदार आंदोलन से जुड़े काबिल नेताओं के बजाय गलत लोगों को कांग्रेस की टिकट दिलवाने में मदद की थी. फ़िर इन चुनावों से ठीक पहले उनका एक कथित सेक्स वीडियो भी सामने आया था जिससे पाटीदार आंदोलन से जुड़े कई लोगों को धक्का लगा था. इस सब के अलावा उनके ख़िलाफ़ हार्दिक पटेल पर राजद्रोह और दंगा भड़काने जैसे मामलों में क़़रीब सत्रह मुकदमे दर्ज़ हैं जिनमें से कुछ में वे दोषी भी साबित हो चुके हैं.
गुजरात के राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा बहुत आम है कि लगातार डेढ़ दशक से राज्य की सत्ता में रहने के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने प्रदेश कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं के कच्चे-चिठ्ठे इकठ्ठे कर लिए हैं और इनका इस्तेमाल वह चुनावों से पहले करती है. ऐसे में कांग्रेस के कई नेता अलग-अलग तरह से चुनाव के दौरान भाजपा के लिए फ़ायदेमंद ही साबित होते हैं. आरक्षण आंदोलन के दौरान हार्दिक पटेल के बेहद करीबी सहयोगी रहे एक अन्य युवा पाटीदार नेता इस बारे में घुमाकर कहते हैं कि ‘बहुत कम समय में ही हार्दिक इतनी ग़लतियां कर चुका है जो उसे जिंदगी भर राजनैतिक दलों की कठपुतलियां बनाकर रखने के लिए काफ़ी हैं. विधानसभा चुनाव से पहले जो देखने को मिला वह तो ये मान लो कि कुछ भी नहीं था.’
हार्दिक पटेल की राजनीति पर शुरुआत से नज़र रख रहे गुजरात के एक वरिष्ठ पत्रकार हमें बताते हैं कि ‘वो समय दूसरा था जब हार्दिक के पास खोने के लिए कुछ नहीं था. तब मध्यमवर्ग से ताल्लुक रखने वाला ये लड़का किसी सरकार से नहीं डरता था. लेकिन आज उसके पास खोने के लिए बहुत कुछ है. सार्वजनिक मंच से वो चाहे जो कहे, लेकिन अब उसमें वो धार नहीं रही है.’ फ़िर हार्दिक पटेल को करीब से जानने वाले उन्हें जबरदस्त महत्वाकांक्षी भी बताते हैं. आरक्षण आंदोलन में उनके सहयोगी रहे अधिकतर लोगों की शिकायत है कि ये हार्दिक की महत्वाकांक्षाएं ही थीं जिन्होंने पाटीदार आंदोलन को कुंद कर दिया. यदि इन लोगों के आरोपों को सही मानें तो देखने वाली बात यह होगी कि कांग्रेस की उम्मीदों पर हार्दिक पटेल कितना खरा उतरते हैं और हार्दिक की महत्वाकांक्षाओं को कांग्रेस कितना पूरा कर पाती है.(satyagrah)