विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास होनेवाला है, यह एक बड़ी खुश-खबर है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को सभी पक्षों ने मान लिया है, यह भारत के सहिष्णु स्वभाव का परिचायक है लेकिन राम मंदिर बनानेवाला हमारा यह वर्तमान भारत क्या राम चरित का अनुशीलन करता है ? हमारे नेताओं ने राम मंदिर बनाने पर जितना जबर्दस्त जन-जागरण किया, क्या उतना जोर उन्होंने राम की मर्यादा के पालन पर दिया ?
मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भगवान बनाकर हमने एक मंदिर में बिठा दिया, वहां जाकर घंटा-घडिय़ाल बजा दिया और प्रसाद खा लिया। बस इतना ही काफी है। हम हो गए रामभक्त ! पूज लिया हमने राम को ! यहां मुझे कबीर का वह दोहा याद आ रहा है, जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘जो पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़।’ राम के चरित्र को अपने आचरण में उतारना ही राम की सच्ची पूजा है।
सीता पर एक धोबी ने उंगली उठा दी तो राम ने सीता को अग्नि-परीक्षा के लिए मजबूर कर दिया ? क्यों कर दिया? क्योंकि राजा या रानी या राजकुमारों का चरित्र संदेह के परे होना चाहिए। सारे देश या सारी प्रजा या सारी जनता के लिए वे आदर्श होते हैं। यही सच्चा लोकतंत्र है। लेकिन हमारे नेताओं का क्या हाल है ?
धोबी की उंगली नहीं, विरोधी पहलवानों के डंडों का भी उन पर कोई असर नहीं होता। देश के बड़े से बड़े नेता तरह—तरह के सौदों में दलाली खाते हैं, उन पर आरोप लगते हैं, मुकदमे चलते हैं। और वे बरी हो जाते हैं। नेताओं की खाल गेंडों से भी मोटी हो गई है। राम ने दशरथ की वचन-पूर्ति के लिए सिंहासन त्याग दिया और वन चले गए लेकिन आज के राम दशरथों को ताक पर बिठाकर सिंहासनों पर कब्जा करने के लिए किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं। वनवासी राम ने किस-किसको गले नहीं लगाया ? उन्होंने जाति-बिरादरी, ऊंच-नीच, मनुष्य और पशु के भी भेदभावों को पीछे छोड़ दिया लेकिन राम नाम की माला जपनेवाले हमारे सभी नेता क्या करते हैं ? इन्हीं भेदभावों को भडक़ाकर वे चुनाव के रथ पर सवार हो जाते हैं। वे कैसे रामभक्त हैं ?
राम ने लंका जीती लेकिन खुद उसके सिंहासन पर नहीं बैठे। न ही उन्होंने लक्ष्मण, भरत या शत्रुघ्न को उस पर बिठाया। उन्होंने लंका विभीषण को सौंप दी। लेकिन हमारे यहां तो परिवारवाद का बोलबाला है। सारी पार्टिया—मां-बेटा पार्टी या भाई-भाई पार्टी या बाप-बेटा पार्टी या पति-पत्नी पार्टी बन गई हैं। राम ने राजतंत्र को लोकतंत्र में बदलने की कोशिश की लेकिन हम रामभक्त हिंदुस्तानी लोकतंत्र को परिवारतंत्र में बदलने पर आमादा हैं ! हम कैसे रामभक्त हैं ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
हेमंत मालवीय
नेपाल जहां भगवान राम और अयोध्या पर अपना दावा साबित करने के लिए पुरातात्विक अध्ययन की तैयारी कर रहा है, वहीं अब श्रीलंका रावण से जुड़ी अपनी विरासत को खोजने में लग गया है। श्रीलंका के सिविल एविएशन अथॉरिटी ने कहा है कि वह पौराणिक किरदार रावण और उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हवाई मार्ग को लेकर एक शोध कराएगा।
सिंहल भाषा में छपे एक विज्ञापन में श्रीलंका के एविएशन अथॉरिटी ने लोगों से राजा रावण और अब लुप्त हो चुके प्राचीन वायु मार्गों को लेकर किसी भी तरह के दस्तावेज या साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध कराने के लिए कहा गया है।
एविएशन के एक अधिकारी ने बताया कि राजा रावण के बारे में एक आधिकारिक जानकारी जुटाने के लिए ये शोध किया जा रहा है क्योंकि रावण के बारे में तमाम तरह की कहानियां हैं। अधिकारी ने कहा कि रावण के विमान और उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने रास्तों को लेकर भी कई सालों से कहानियां चली आ रही हैं इसलिए हम इस मामले पर स्टडी करना चाहते हैं।
श्रीलंका का टूरिजम सेक्टर भारत से आने वाले पर्यटकों के लिए रामायण ट्रेल को भी प्रोत्साहित कर रहा है। हालांकि, भारत की रामायण के खलनायक रावण को सिंघल-बौद्ध आस्था की नजरों से देखते हैं। श्रीलंका में रावण को देश के एक बहादुर और विद्वान राजा के तौर पर देखा जाता है।
सिंहल-बौद्ध का एक समूह खुद को रावण बल्य कहता है जबकि श्रीलंका ने अपने पहले सेटेलाइट का नाम रावण-1 रखा था। 2016 में कोलंबो में हुए सिविल एविएशन की कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए तत्कालीन उड्डयन मंत्री निर्मला सिरिपाला ने कहा था कि आधुनिक एविएशन का इतिहास राइट ब्रदर्स से शुरू हुआ है लेकिन श्रीलंका में किवंदंती है कि रावण नाम का एक बहादुर राजा था जो दांदु मोनारा नाम का एक विमान उड़ाता था। रावण केवल श्रीलंका ही नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र में विमान उड़ाता था।
सम्मेलन ने निष्कर्ष निकाला था कि रावण 5,000 साल पहले श्रीलंका से आज के भारत के लिए रवाना हुआ था और वापस आया। हालांकि, इन कहानियों को खारिज कर दिया गया कि रावण ने भगवान राम की पत्नी सीता का अपहरण किया था। सरकार ने यह दावा किया था कि यह एक भारतीय संस्करण था और इसके विपरीत रावण एक महान राजा था।
श्रीलंका में कई लोग मानते हैं कि रावण एक दयालु राजा और विद्वान था। कुछ भारतीय धर्मग्रंथ भी उन्हें ‘महा ब्राह्मण’ के रूप में वर्णित करते हैं, जिसका अर्थ है एक महान ब्राह्मण या एक महान विद्वान। रामायण के अनुसार, रावण के पास पुष्पक नाम का एक विमान था। इसी विमान पर उसने सीता माता का अपहरण किया था।
इससे पहले, नेपाल के प्रधानमंत्री के। पी। शर्मा ओली ने नेपाल के थोरी गांव को भगवान राम की असली जन्मभूमि बताया था। जिसके बाद अब वहां का पुरातत्व विभाग शोध की योजना बना रहा है। नेपाल का पुरातत्व विभाग बीरगंज के परसा जिले के थोरी गांव में खुदाई करने पर भी विचार कर रहा है।
स्मिता अखिलेश
डहरूराम एक बड़े शहर से प्रवासी मजदूर के रूप में अपने गांव वापिस आता है और उसके पास जमीन का एक छोटा टुकड़ा भी है जिन्हें वह जमानत में रखकर अपना किराना दुकान खोलना चाहता है। तो क्या सरकार द्वारा कोविड संकट से निपटने के लिए घोषित 20 लाख करोड़ का पैकेज उसके लिए कारगर है? इसी के मद्देनजर हमारे बैंक ने भी अपने यहां ऋण नीति की समीक्षा की थी। जिसमें कोरोना लॉकडाउन के बाद उपजी बेरोजगारी से निपटने के लिए 50000 तक रूपये उन वर्गो को मुहैया कराया जाना था जिनके पास जमीन को कोई छोटा टुकड़ा भी हो।
देखने में यह बहुत कारगर लगता है कि लोगों को अपने पैर में खड़े होने के लिए तुरंत बैंक द्वारा राशि मुहैया कराया जा रहा है जिससे ग्रामीण अपना छोटा-मोटा व्यवसाय शुरू करने में सक्षम हो सकेंगे। लेकिन इस योजना को लागू करने के बाद भी लोगों का रूझान उस ओर दिखता नजर नहीं आ रहा है क्योंकि मैदानी स्तर पर जब हितग्राही यह सवाल करता है कि क्या इस ऋण के ब्याज के लिए कोई राहत का प्रावधान है या इसके ईएमआई का भुगतान मोराटोरियम के अधीन है एक बैंकर्स होने के नाते हमारे पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं होता है।
गौरतलब है कि मोराटोरियम शब्द को ईएमआई के जमा करने के लिए अस्थायी राहत या वित्तीय निलंबन के लिए उपयोग किया जाता है । लेकिन बैंकिग स्तर के सॉफ्टवेयर में अभी बदलाव नहीं किए गए है। बैंक आपको ईएमआई के लिए नहीं कह रहे हैं लेकिन ब्याज भी नहीं बढ़ रहा है इसकी कोई गारंटी भी नहीं है। जो लोग वित्तीय रूप से इन तकनीकियों को नहीं समझ रहे है उन्हें बैंक में जाकर अपने ऋणों के ब्याज के संदर्भ में तस्दीक जरूर कर लेनी चाहिए। साथ ही बैंकिग के लिहाज से देखा जाए तो अभी की परिस्थिति में बैंकों द्वारा कर्ज देना भी बहुत जोखिम का काम है और इन कर्जो के बढते एनपीए से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
अगर कर्ज देने वाले ही डूबते कर्ज के बोझ से दबते जाएंगे, तो बैंकिग व्यवस्था कैसे चल पाएगी और बैंक कर्ज देने का जोखिम नहीं लेंगे तो कारोबार कैसे करेंगे। कर्ज देने और वसूली के जोखिम के बीच का रास्ता निकालते हुए संतुलन बनाने के लिए सरकार द्वारा और ठोस कदम उठाया जाना चाहिए। जिस तरह कल रिजर्व बैंक के गर्वनर ने कह भी दिया कि बैंकिग सेक्टर की मजबूती के लिए आवश्यक हुआ तो जरूरी कदम उठाये जायेंगे। लेकिन क्या बैंकों में नगदी प्रवाह ही बढ़ाकर इस समस्या का निराकरण किया जा सकता है।
फिलहाल डहरूराम बीड़ी सुलगाते हुए सोच रहा है कि इस चक्करघिनी में गोल गोल घूमू या नहीं। और मनरेगा की मजदूरी करते अपने सपनों को भी बीड़ी के साथ सुलगते हुए कातर नजरों से देख रहा है।
चैतन्य नागर
इंसान और छाते में एक बड़ी समानता है। अगर बरसात न होती, तो न हम होते, और न ही छाता होता। दोनों का अस्तित्व बहुत करीब से बरसात के साथ, जल के साथ ही जुड़ा है। छाता प्रतीक है सुरक्षा का। बरसात से बचाने का भी काम करता है, और कहीं-कहीं धूप से भी। जब गर्मी सताती है तो हम बड़ी बेसब्री से बारिश का इंतज़ार करते हैं, लेकिन बारिश होते ही छाते का इन्तजाम भी उतनी ही बेचैनी के साथ किया जाता है। बरसात हो रही हो तो छाते की उपस्थति में आश्वासन और चैन का अहसास होता है। लम्बे से छाते की मूठ पकड़ कर चलने में किसी साथी का हाथ पकड़ कर चलने का भान होता है।
छाते का भी एक इतिहास है। प्राचीन मिस्र, ईरान, चीन और भारत में छातों का इस्तेमाल ख़ास तौर पर धूप से बचने के लिए होता था। वे काफी बड़े हुआ करते थे, और छाता लेकर कोई सेवादार चलता था। जिसके सर पर वह छाता तान कर चलता था, उसके लिए छाते और सेवक का होना गर्व का प्रतीक था। वह उसके सम्मान और ताकत का प्रतीक था। प्राचीन यूनान ने यूरोप में छाते का परिचय करवाया। यूरोप में वह पोप और चर्च के बड़े अधिकारियों के लिए सम्मान का प्रतीक था। 18वीं सदी आने तक यूरोप में छाता लेकर चलना एक सामान्य बात हो गयी। स्त्रियों की त्वचा को वह धूप से बचाता था; पुरुषों ने भी 19वीं सदी के आस पास-छाते का उपयोग शुरू कर दिया। उनके छाते अक्सर काले हुआ करते थे। बाद में उन्होंने भी स्त्रियों की तरह रंग-बिरंगे छातों का इस्तेमाल शुरू किया। लन्दन में सिर्फ छाते बेचने वाली दुकान जेम्स स्मिथ एंड संस 1830 में शुरू हुई और अभी तक वह कारोबार कर रही है। पिछले कुछ वर्षों में हॉलैंड की कंपनी सेंज ने एक ऐसा छाता बना डाला है जो 100 कि. करते हैं। इस साल बारिश तो समय से आ गयी है, पर सडक़ पर लोग कम दिख रहे हैं। अभी वे भयभीत और सशंकित हैं। खुले में, खुले दिल से दोस्तों के साथ बरसात का स्वागत नहीं कर पा रहे। नहीं तो हर साल बारिश में सडक़ें खुले हुए छातों से पट जाया करती हैं।
छाते भी बरसात की प्रतीक्षा में रहते हैं। बरसात से पहले और बाद में छाता किसी को याद नहीं आता। उसकी हालत गर्मी के दिनों के स्वेटर की तरह हो जाती है। और जैसे ही बारिश की बूँदें पड़ती हैं, तुरंत छाते का ख्याल आता है। छाते को लेकर हम कितने इस्तेमालवादी हैं! मी. तक की हवाओं को भी झेल जाता है। कम्पनी ने छातों के ऐसे मॉडल भी बनाये हैं जो साइकिल के साथ जोड़े जा सकते हैं, अपने आप ही खुल जाते हैं और बंद भी हो जाते हैं। छाते सदियों से लोकप्रिय हैं, एमेज़ॉन पर करीब 500 मॉडल्स देखे जा सकते हैं और चीन के एक शहर सोंक्जिया में 1000 कारखानों में सिर्फ छाते ही बनते हैं, एक साल में करीब 50 करोड़!
छाते को लादना कइयों के लिए एक बड़ी समस्या है। लोग आजकल अपने साथ बैग, पर्स, लैपटॉप भी रखते हैं, और ऐसे में छाता एक आवश्यक बुराई की तरह साथ लेना पड़ता है, खुद को बचाने के लिए और हाथों में टंगे, या पीठ पर लदे सामान की सुरक्षा के लिए भी। कइयों को छाते से बड़ी शिकायतें हैं। हल्की बूंदा-बांदी के लिए तो वह ठीक है, पर तेज बौछारों से बचाने के लिए काम नहीं आता। क्योंकि वे तो चारों और से भिगोतीं हैं। पहाड़ों की बारिश में भी छाता बड़ी ही मासूमियत के साथ अपने हाथ झाड़ लेता है। वहां तो चारों तरफ बादल ही होते हैं और आपको भिंगोते हुए चलते चले जाते हैं। अब कोई छाता पूरे शरीर की रक्षा के लिए तो बना ही नहीं कि आप पहाड़ों की बारिश से बच जाएँ। मैदानी इलाकों में आप छाता भर धूप और पानी से बच जाते हैं। उसकी मदद से आप बारिश में थोड़ी देर बाहर तो जा सकते हैं और कुछ बूंदें आपका स्पर्श भी कर लेती हैं। यह क्या एक आशीष की तरह नहीं कि बूँदें बादल से निकल कर धरती में समाने से पहले आपको भिगोतीं हैं, थोड़ी सी आप की थकान, मु_ी भर आपका दर्द और दु:ख भी धरती को सौंप देती हैं? कोई अहसान जताए बगैर ही।
छातों से कभी-कभी हादसे भी होते है, अक्सर आँखों को बचाना पड़ता है। अचानक कोई अपना छाता खोले और उसकी तीलियाँ आँखों में धंस न जाएँ, इसकी फिक्र बनी रहती है। कुछ कम्पनियाँ इस खतरे को ध्यान में रखकर नए छाते डिजाइन कर रही हैं, जिसकी तीलियाँ नुकीली न हों और ज्यादा चोट न पहुंचाएं। जापान में एक ऐसा छाता भी बनाया जा रहा है जिसके ऊपर की तरफ कोई अवरोध नहीं, बस उसकी नली से तेज़ी के साथ गर्म हवा निकलेगी और ऊपर से आने वाली बरसात की बूंदों को इधर-उधर बिखेर देगी। भले ही कई तरह के नए डिजाईन आ जाएँ पर लम्बी डंडी वाले और खूबसूरत मूठ वाले काले छाते का अपना ही रोमांस है। लोगों को उससे लगाव हो जाता है, वे उसके प्रेम में पड़ जाते हैं।
छाते के साथ एक बहुत बड़ी समस्या जुड़ी हुई है, और वह है विस्मृति की समस्या। छाता कहीं भी भूल जाना एक आम बीमारी है। कई लोग इस बीमारी से इतने दुखी हो जाते हैं कि वे छाता कहीं ले जाने से ज्यादा भींगना ही पसंद करते हैं। अंग्रेजी के लेखक रॉबर्ट लिंड का मशहूर लेख है विस्मृति के बारे में, जिसमे वह कहते हैं: ‘छाता कहीं खो न जाए, इस भय से मैं उसे कहीं ले ही नहीं जाता। गंभीर से गंभीर छाता-वाहक के नसीब में भी यह उपलब्धि नहीं होगी कि उसने कोई छाता न खोया हो!’ यह अनुभव वास्तव में सभी को हुआ होगा। मैंने तो इतने छाते खोये हैं कि ऐसी भी एक स्थिति आ गयी कि किसी बैठक में जाते ही मैं घोषणा कर देता था कि अपने छाते संभाल कर रखें, मुझे किसी का भी मिलेगा तो मैं लेता जाऊँगा। जिन्होंने मेरी इस स्पष्ट और मासूम घोषणा को गंभीरता से नहीं लिया, उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। एक और दिलचस्प बात है कि पुरुष छाते को भूलने के मामले में स्त्रियों से काफी आगे होते हैं। यह क्यों होता है यह अध्ययन का विषय हो सकता है। क्या ऐसा इसलिए है कि उन्हें अपनी त्वचा की ज्यादा फिक्र होती है, वे धूप और बरसात से खुद को बचाना चाहती हैं, क्योंकि भींगते हुए रास्ते पर चलना उनके लिए ज्यादा असुविधाजनक होता है।
इन दिनों तो ज्यादा एहतियात की जरूरत है। हल्का सर्दी -ज़ुकाम भी हो जाए, तो लोगों के मन में तमाम तरह की दुश्चिंताएं आने लगती हैं। वैसे एक पैकेट प्रभावी एंटी- बायोटिक्स की कीमत भी किसी छाते से कम नहीं होती। इसलिए बेहतर है कि बारिश तेज़ होने से पहले ही अपने पुराने छातों की बढिय़ा से मरम्मत करवा ली जाए और नए छातों को हिफाज़त के साथ रखा जाए। समय खऱाब है और सावधानी आवश्यक है। समय की यही मांग है कि या तो सडक़ों पर निकला ही न जाए, और मजबूरी हो भी कहीं जाने की तो पूरी सजगता बरती जाए। छाता साथ हो, और दूसरी वे चीज़ें भी जिनके बगैर घर से निकलने की मनाही है। पर उन सभी चीज़ों में छाता तो हमेशा ही खास सम्मान और स्नेह के लायक है। सर्वेश्वर जी ने छाते की अहमियत को खूब समझा था और इसीलिए इतनी प्यारी कविता छाते के लिए लिख छोड़ी है। विपदाएँ आते ही, खुलकर तन जाता है/ हटते ही/ चुपचाप सिमट ढीला होता है/ वर्षा से बचकर/ कोने में कहीं टिका दो/ प्यार एक छाता है/ आश्रय देता है गीला होता है।
जेके कर
छत्तीसगढ़ में बिस्तरों की और कमी होगी
जिस तरह से छत्तीसगढ़ में रोज-रोज कोरोना के मरीज बढ़ रहें हैं उससे स्थिति बदतर होती जायेगी। इसे रोज ठीक होने वाले तथा नये मरीजों की संख्या के आधार पर समझा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ में 24 जुलाई को 338 नये मरीज मिले जबकि 180 मरीज ठीक हुए। इस तरह से अस्पताल में 158 नये बिस्तरों की आवश्यकता होगी। 26 जुलाई को 305 नये मरीज मिले जबकि 261 मरीज ठीक हुए। इसके अनुसार अस्पताल में 44 बिस्तरों की और आवश्यकता होगी। 24 और 26 जुलाई के आंकड़ों के आधार पर ही 202 बिस्तरों की आवश्यकता होगी।
दुनियाभर तथा देश के साथ छत्तीसगढ़ में भी कोरोना संक्रमण अपना विकराल रूप धारण कर रहा है। रोज संक्रमितों की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसा कौन सा कारण है कि चंद्रमा और मंगलग्रह पर उपग्रह भेजने वाला मानव समाज कोरोना संक्रमण तथा उससे हो रही मौतों के सामने बेबस नजर आ रहा है। इसकी विवेचना करने के लिए हम तीन प्रस्थान बिन्दु तय कर सकते हैं। जिनके गहराई में जाकर स्थिति को समझने का प्रयास किया जा सकता है। उसके बाद फौरी तौर पर क्या हल निकाला जा सकता है उस पर भी सोचा जा सकता है।
पहली बात यह है कि कोरोना वाइरस से लडऩे के लिये अब तक न ही किसी सटीक दवा का ईजाद किया जा सका है और न ही कोई वैक्सीन अब तक बन पाई है। जो कुछ भी इलाज हो रहा है वह लक्षणों के आधार पर ही किया जा रहा है तथा जीवनरक्षक उपकरणों की मदद से मरीजों की जान बचाई जा रही है। दूसरा, पिछले कई दशकों से देश-दुनिया में गैर-संक्रमण से होने वाली बीमारियां कई गुना बढ़ी है जिस कारण से वैज्ञानिक-चिकित्सक तथा हेल्थ इन्फ्रास्ट्रकचर जीवन शैली के कारण होने वाली बीमारियों से जूझने में लगे हुए हैं। अब, अचानक कोरोना जैसे संक्रमण के महामारी बनने के कारण उससे लडऩे के लिये स्वास्थ्य व्यवस्था नाकाफी साबित हो रही है। तीसरा, केन्द्र तथा राज्य सरकारों ने कोरोना से लडऩे की जिम्मेदारी खुद ही उठा रखी है जिस कारण से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर बोझ बढ़ गया है। हालांकि, बाद में कुछ हद तक निजी अस्पतालों को भी अधिकृत किया गया है लेकिन उससे इस विकराल समस्या का हल नहीं निकल सकता है।
एक बात को हम शुरू में ही साफ कर देना चाहते हैं कि हम जिस कल्याणकारी-राज्य की वकालत करते हैं उसमें स्वास्थ्य की जिम्मेदारी सरकार पर है तथा वह इसे मुफ्त में उपलब्ध कराये। लेकिन मौजूदा हालात में जब सरकारों ने स्वंय ही निजी स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा दिया है तथा उन्हें फलने-फूलने दिया है इस कारण से उनके वजूद को नकारा नहीं जा सकता। ऐसे समय में यदि कहा जाये कि कोरोना से लडऩे की जिम्मेदारी केवल केन्द्र तथा राज्य सरकारों की है तो यह जमीनी हालत को नकारने वाली अराजकतावादी सोच ही होगी। फौरी तौर पर कोरोना संकट से लडऩे निजी स्वास्थ्य क्षेत्र के चिकित्सकों, स्वास्थ्य कर्मियों तथा अधोसंरचना का उपयोग किया जाना चाहिये।
अब हम कुछ आंकड़ों तथा तथ्यों पर गौर फर्माते हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट "ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड: ॥द्गड्डद्यह्लद्ध शद्घ ह्लद्धद्ग हृड्डह्लद्बशठ्ठ’ह्य स्ह्लड्डह्लद्गह्य" के अनुसार गैर-संक्रमण से होने वाली बीमारियां जहां साल 1990 में 30 प्रतिशत थी वह साल 2016 में बढक़र 55 प्रतिशत हो गई। इसी तरह से साल 1990 में गैर-संक्रमण से होने वाली बीमारियों से 37 प्रतिशत मृत्यु हुई थी वह 2016 में बढक़र 61 प्रतिशत हो गई हैं। इससे यह साबित होता है कि हमारे देश में बीमारियों से जो मौतें हुई उनमें 61 प्रतिशत उच्च रक्तचाप, डाईबिटीज, दमा, कैंसर, किडनी तथा श्वशन रोगों के कारण हुई है। इस कारण से पूरा जोर इन्हीं बीमारियों से लडऩे के लिए रहा है। दूसरी तरफ संक्रामक तथा उससे जुड़े रोग 1990 में 61 प्रतिशत थे जो 2016 में गिरकर 33 प्रतिशत के हो गए।
यदि छत्तीसगढ़ से जुड़े आंकड़ों की बात करें तो संक्रामक तथा उससे जुड़े रोगों की हिस्सेदारी 37.7 प्रतिशत, गैर-संक्रमण से फैलने वाले रोग 50.4 प्रतिशत तथा चोट व दुर्घटना के कारण हिस्सेदारी 11.9 प्रतिशत की रही है।
ऐसे में अप्रत्याशित रूप से कोरोना वाइरस जब महामारी का रूप ले लेता है तो संपूर्ण स्वास्थ्य सेवायें उससे जूझने के लिए अपने-आप को असमर्थ पाती हैं। इस कारण से चिकित्सक, पैरा-मेडिक स्टाफ, मास्क, सैनिटाइजऱ, पीपीई किट, अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या, ऑक्सीजन एवं वेंटिलेटर कम पड़े हैं अन्यथा अस्पतालों में कभी इनकी कमी महसूस नहीं की गई थी।
अब हम दूसरे (तीसरे) मुख्य मुद्दे पर आते हैं। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि बीमार पडऩे पर कितने फीसदी लोग सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की शरण में जाते हैं तथा कितने निजी क्षेत्र के चिकित्सकों तथा संस्थानों के पास जाते हैं। देशभर के आंकड़े थोड़े अलग-अलग है। यहां पर हम सरलता से समझने के लिए छत्तीसगढ़ का उदाहरण लेते हैं।
साल 2015-16 में जो नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे किया गया था उससे यह बात उभरकर सामने आई कि छत्तीसगढ़ में भी बड़ी संख्या में लोग बीमार पडऩे पर निजी चिकित्सा सेवाओं का लाभ उठाते हैं। जहां तक सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की बात है तो 50.5 प्रतिशत लोग यहां जाते हैं शहरी क्षेत्र के 37.6 प्रतिशत तथा ग्रामीण क्षेत्र के 54.65 प्रतिशत। वहीं बीमार पडऩे पर शहरों के 59.7 प्रतिशत तथा गांवों के 33,3 प्रतिशत, कुलमिलाकर 39.6 प्रतिशत लोग निजी क्षेत्र के स्वास्थ्य संस्थानों में जाते हैं। कई ऐसे भी लोग हैं जो सीधे दवा दुकानों से दवा खरीद कर खाते हैं। इनमें शहरों के 2 प्रतिशत तथा गांवों के 11.6 प्रतिशथ, कुल मिलाकर 9.3 प्रतिशत लोग शामिल हैं।
अब आपकों समझ में आ रहा होगा कि कोरोना वाइरस से संक्रमित होने पर क्यों हाहाकार मचा हुआ है। इसका कारण है कि जो लोग पहले निजी क्षेत्र में जाते थे वे भी सरकारी क्षेत्र में जाने के लिये मजबूर हो गए हैं तथा इस अतिरिक्त दबाव के कारण सरकारी स्वास्थ्य संस्थान नाकाफी साबित हो रहें हैं तथा लोगों को त्वरित चिकित्सा नहीं मिल पा रही है। कोरोना वाइरस से संक्रमण हुआ है कि नहीं उसकी जानकारी आने में ही दो-तीन दिन लग जा रहें हैं। उसके बाद कोरोना के लिये जिन सरकारी अस्पतालों को अधिकृत किया गया है वहां बिस्तर कम पड़ रहें हैं।
समाचार-पत्रों के हवाले से खबर है कि छत्तीसगढ़ में तीन निजी क्षेत्र के चिकित्सा संस्थानों को कोरोना के इलाज के लिए अधिकृत किया गया है। इनमें बिलासपुर के एक निजी क्षेत्र के कॉर्पोरेट अस्पताल का भी नाम है।
जब इन पक्तियों के लेखक ने इस अस्पताल से फेसबुक मैसेंजर के तहत जानकारी मांगी तो जवाब दिया गया कि कोविड-19 के इलाज के लिए मात्र 4 बिस्तर ही उपलब्ध हैं। जाहिर है कि निजी क्षेत्र की सुविधाओं का पूरा लाभ नहीं उठाया जा रहा है।
जरूरत इस बात की है कि छत्तीसगढ़ के कई शहरों के निजी-पैथोलैब को कोविड-19 की जांच के लिये अधिकृत किया जाये। हां, महाराष्ट्र सरकार के समान कोविड-19 टेस्ट के दाम जरूर तय कर दिये जाये। इसी तरह से निजी क्षेत्र के चिकित्सकों तथा संस्थानों को भी कोविड-19 के ईलाज़ के लिये अधिकृत किया जाये क्योंकि इसके करीब 85 प्रतिशत मरीजों को अस्पतालों में भर्ती करने की जरूरत नहीं पड़ती है। इससे सरकारी अस्पतालों पर पडऩे वाला बोझ कम होगा। हां, निजी चिकित्सक भी ढ्ढष्टरूक्र के दिशा-निर्देशों के अनुसार तथा सरकार द्वारा तय किये गये फीस के अनुसार ईलाज करेंगे।
केवल स्वास्थ्य सेवाओं पर एस्मा लगाना काफी नहीं है। जरूरत है दबाव न बनाकर निजी क्षेत्र के चिकित्सकों एवं संस्थानों को सरकार द्वारा पीपीई किट तथा दवा उपलब्ध करा के ईलाज़ करने के लिये माहौल बनाया जाए। जब तक कोरोना वाइरस की कोई दवा या वैक्सीन न बन जाए तब तक सरकारी तथा निजी क्षेत्र के चिकित्सकों तथा संस्थानों की मदद से मरीजों की मदद की जाए। हां, इस बात का ख्याल जरूर रखा जाये निजी एवं सरकारी क्षेत्र के सभी चिकित्सकों एवं संस्थानों से कोविड-19 का इलाज न कराया जाए। ज्यादातर को इससे मुक्त रखा जाए ताकि गैर-संक्रामक एवं जीवन-शैली के कारण होने वाले रोगों का इलाज बिना किसी बाधा के चलता रहे।
प्रकाश दुबे
आंध्र प्रदेश का पत्रकारिता में ज़माने से परचम लहरा रहा है। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का लेख उनके अखबार में छापने से मना करने वाले संपादक चलपति राव तेलुगुभाषी थे। स्वतंत्रता संग्रामी तेलुगुभाषी पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी को आंध्र प्रदेश अनूठा सम्मान बख्श रहा है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने दर्जन भर से अधिक सलाहकार नियुक्त किए हैं। ज्यादातर सलाहकार पत्रकार हैं। साक्षी अखबार या चैनल में नौकरी करते हैं, करते थे या लिखते-बोलते थे। देवनागरी वर्ण माला में अग्रणी आ यानी आंध्र प्रदेश की लीक पर कई राज्य चले। आंध्र प्रदेश के कीर्तिमानों की बराबरी करना आसान नहीं है। देश के 13 पत्रकारों की मौत का कारण कोरोना रहा। एक तिहाई से अधिक-पांच आंध्र प्रदेश के हैं। बालाजी के शहर तिरुपति के पत्रकार को भी कोरोना ने अपना निवाला बनाया। कडप्पा जिले में तीन पत्रकारों की जान गई। मुख्यमंत्री जगन्मोहन के पिता डा एस वाय राजशेखर रेड्?डी ने तेलुगु दैनिक साक्षी शुरु किया था। कड़प्पा पिता-पुत्र का घर। चुनावक्षेत्र। राजशेखर ने सोनिया गांधी को पहला लोकसभा चुनाव कड़प्पा से लडऩे के लिए आमंत्रित किया था। हालां कि सलाहकारों ने अकस्मात कर्नाटक के बलारी का चयन किया। उस समय बेल्लारी कहलाता था।
अंधेर का विक्रम
कोरोना संकट से जूझ रहे देश की बड़ी कंपनियों से प्रधानमंत्री ने कर्मचारियों के हित का ध्यान रखने का आग्रह किया था। सरकारों ने अनदेखी की। ऐसे में निजी संस्थानों से उम्मीद लगाना बेकार है। इंडियन न्यूजपेपर्स सोसायटी समेत समाचारों के संगठनों ने तो उल्टे राज्यों और केन्द्र सरकार से शिकायत की- विज्ञापन कम मिल रहे हैं। जो मिले उनका भुगतान बाकी है। वेतन बोर्ड के समक्ष पत्रकारों का मज़बूती से पक्ष तैयार करने वाले मनोहर अंधारे जीवन के नवें दशक के पास पहुंच चुके हैं। उनके दिवंगत सहयोगी प्रकाश देशपांडे की याद में सर्वोत्कृष्ट संगठक पुरस्कार दिया जाता है। अंधारे ने सैकड़ों किलोमीटर दूर से देशपांडे को याद किया। यह बात और है कि अब कोई वेतन बोर्ड की बात नहीं करता। नए वेतन बोर्ड की मांग मांग? मज़ाक मत करिए। कटौती और नौकरी से विदाई का संकट है। अंधारे और प्रकाश जिस संगठन के लिए काम करते थे, उसकी आजीवन मालिकी कब्जिया चुके लोग इन दिनों क्या कर रहे हैं? स्वायत्त समाचार संगठनों का विध्वंस करने के लिए उकसा रहे हैं। मनोहारी दृश्य है।
कोरोना-काल में संवाद
किसी पंचायत से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर के वेबिनार या ई संगोष्ठी में सबसे अधिक दिखने वाला चेहरा सुरेश प्रभू का है। प्रभू जी-20 आदि के लिए प्रधानमंत्री के शेरपा हैं। यह आप जानते हैं। प्रभु को पीछे छोडऩे वाले हैं-नितीन गडकरी। पांच करोड़ से अधिक लोगों से संवाद करने का कीर्तिमान सडक़ छाप और सूक्ष्म कारोबारी के नाम है। सडक़ और छोटे उद्योग उनके मंत्रालय हैं। गडकरी ने हाल में अमेरिकी व्यवसाय से जुड़े समुदाय से बात की। सरकारी संवाद माध्यमों ने पर्याप्त महत्व नहीं दिया। गडकरी का नाम लेने से शिखर की चमक दमक फीकी नहीं पडऩी चाहिए। संवाद माध्यमों में ई संगोष्ठी का सेहरा के जी सुरेश के सिर पर कायम है। पत्रकारिता से जुड़े विषयों पर विचारों का आदान प्रदान करने में वे अग्रणी हैं। सक्रिय पत्रकारिता के बाद सुरेश भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक बने। उनकी रचनात्मकता शायद नौकरशाहों को अखरी। पत्रकारिता प्रशिक्षण से नौकरशाह उन्हें नहीं रोक पाए।
संपादकी से सामना
पत्रकारों की अंतरराष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल फेडरेशन आफ जर्नलिस्ट्स ने 19 से 30 जून के बीच सर्वेक्षण कराया। भारत सहित 52 देशों की महिला पत्रकारों का हाल जाना। तीन चौथाई महिला पत्रकारों ने स्वीकार किया कि कोरोना-काल में तनाव बढ़ा। आधी से अधिक महिलाओं को महामारी के दौरान कई मोर्चों पर जूझना पड़ा। सेहत संबंधी परेशानी झेलने वाली महिलाओं में से 75 प्रतिशत की समस्या नींद से जुड़ी थी। साठ प्रतिशत को संस्थानों ने मर्जी के मुताबिक काम करने की छूट दी। 30 फीसदी घर से काम कर रही थीं। 15 प्रतिशत इस दौरान भी मैदानी दायित्व निभाती रहीं। रपट में कष्ट जाने। अब भारतीय महिलाओं से संबंधित खुश खबरी पर ध्यान दें। राजनीतिक दायित्व संभालने वाले नेता ने संपादकी त्याग कर प्रेमिका को संपादक नियुक्त किया। नेता के चरित्र पर शक मत करना। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की पत्नी रश्मि कोरोना-काल में सामना की संपादक बनीं। मराठी और हिंदी में निकलने वाला सामना शिवसेना का मुखपत्र है। मुख्यमंत्री यानी पूर्व संपादक का जन्मदिन पर इंटरव्यू कार्यकारी संपादक संजय राऊत ने किया। वर्तमान संपादक ने चाय पिलाई। एक और खबर। अंगरेजी के दि हिंदू की संपादक रह चुकीं मालिनी पार्थसारथी समूह की नई अध्यक्ष होंगी।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दक्षिण एशिया में आतंकी गतिविधियों पर संयुक्तराष्ट्र संघ की जो 26 वीं रपट आई है, उस पर सबसे ज्यादा ध्यान पाकिस्तान की इमरान सरकार का जाना चाहिए, क्योंकि इस रपट से पता चलता है कि दुनिया में आतंकवाद का कोई गढ़ है तो वह पाकिस्तान ही है। पाकिस्तान में अल-कायदा और ‘इस्लामिक स्टेट’ के दफ्तर हैं। पाकिस्तानी तालिबान आंदेालन भी वहीं से चलता है।
पाकिस्तान में जन्मा और पनपा यह आतंकवाद अफगानिस्तान और हिंदुस्तान को तबाह करने पर उतारु है। संयुक्तराष्ट्र की रपट के मुताबिक कम से कम 200 आतंकवादी ऐसे हैं, जो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार में हमले की तैयारी कर रहे हैं। आईएसआईएस के ज्यादातर आतंकवादियों ने केरल और कर्नाटक को अपना ठिकाना बना रखा है। ‘विलायते-हिंद’ के नाम से जो नया संगठन पिछले साल बना है, उसका खास निशाना भारत ही है। भारत में भी वह कश्मीर पर ही सबसे ज्यादा अपना जोर आजमाएगा।
2015 में खुरासान के नाम से जो गिरोह खड़ा किया गया था, उसका लक्ष्य भी कश्मीर ही था। अफगानिस्तान में इस समय लगभग 6000 आतंकवादी सक्रिय हैं। अफगानिस्तान के आधे से ज्यादा जिलों पर उनका कब्जा या असर है। वे अपने आप को तहरीके-तालिबान पाकिस्तान कहते हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने तो यहां तक कहा था कि आतंकियों से खुद पाकिस्तान बहुत त्रस्त है। उनके मुताबिक पाकिस्तान में 40 हजार से ज्यादा आतंकवादी सक्रिय हैं।
पाकिस्तान की जनता द्वारा चुनी हुई सरकारें खुद इन आतंकियों का विरोध करती हैं, खास तौर से कुछ साल पहले पेशावार में एक सैनिक स्कूल पर हुए हमले के बाद, जिसमें फौजियों के करीब डेढ़ सौ बच्चे मारे गए थे। लेकिन पाकिस्तान की दिक्कत यह है कि उस राष्ट्र की अफगान-नीति और हिंदुस्तान-नीति वहां की फौज बनाती है। यदि पाकिस्तान की फौज अपना हाथ खींच ले तो दक्षिण एशिया के सारे आतंकवादी ढेर हो जाएंगे। इस फौज को कौन समझाए कि आतंकवाद से जितना नुकसान भारत और अफगानिस्तान को होता है, उससे कहीं ज्यादा पाकिस्तान को ही होता है। भारत इतना शक्तिशाली देश है कि तलवार के जोर पर पाकिस्तान उससे हजार साल तक लडक़र भी कश्मीर नहीं ले सकता।
हां, बातचीत से हल जरुर निकल सकता है। जहां तक अफगानिस्तान का सवाल है, पाकिस्तान के कई प्रधानमंत्रियों को मैं यह अच्छी तरह बता चुका हूं कि अफगान तालिबान गिलजई कबीले के हैं। गिलजई पठानों की रगों में आजादी दौड़ती है। वे सत्तारुढ़ हो गए तो वे पाकिस्तान के ‘पंजाबी मुसलमानों’ को ठिकाने लगाने में देर नहीं करेंगे। पाकिस्तान का भला इसी में है कि वह आतंकवाद को बिल्कुल भी सहारा न दे और काबुल और कश्मीर की उलझनों को लोकतांत्रिक तरीकों से हल करे।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ललित मौर्य
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यदि अगले 10 वर्षों में 19,90,757 करोड़ रुपए (26,600 करोड़ डॉलर) का निवेश वन्यजीवों और जंगलों की रक्षा के लिए किया जाए तो इससे भविष्य में कोरोनावायरस जैसी महामारियों से बचा जा सकता है। इसे कोविड-19 से हुए नुकसान के मुकाबले देखें तो यह केवल उसके 2 फीसदी के ही बराबर है। अनुमान है कि कोरोनावायरस के कारण अब तक 8,60,66,575 करोड़ रुपए (11,50,000) करोड़ डॉलर का नुकसान हो चुका है जिसमें आर्थिक और जीवन क्षति दोनों को शामिल किया गया है। यह जानकारी प्रिंसटन यूनिवर्सिटी द्वारा किये एक शोध में सामने आई है जो अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंस में प्रकाशित हुआ है।
वहीं इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर एंड्रयू डॉब्सन के अनुसार “यदि भविष्य में इस तरह की महामारियों से बचने की वार्षिक लागत को देखें, तो वह दुनिया के 10 सबसे अमीर देशों द्वारा सेना पर खर्च की जा रही धनराशि के केवल 1 से 2 फीसदी के बराबर है। ऐसे में यदि हम कोरोना महामारी को यदि एक युद्ध की तरह देखें तो यह निवेश बहुत साधारण है।”
हर साल औसतन 2 वायरस करते हैं इंसानों पर हमला
यदि पिछले 100 वर्षों में देखें तो हर साल करीब 2 वायरस अपने प्राकृतिक आवास से निकलकर इंसानों में फैले हैं। लेकिन जिस तेजी से आज प्रकृति का विनाश हो रहा है, उनके और ज्यादा तेजी से इंसानों में फैलने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इंसान अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए तेजी से जंगलों को नष्ट कर रहा है, जानवरों को मार रहा है या फिर अपना पालतू बना रहा है। इनका व्यापर तेजी से सारी दुनिया में फैलता जा रहा है। ऐसे में इंसानों के इनके संपर्क में आने का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। हम खुद इन वायरसों को फैलने का मौका दे रहे हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार यदि पिछले 50 वर्षों में देखें तो 4 प्रमुख जूनोटिक डिजीज ने इंसानों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है जो कोविड-19, इबोला, सार्स और एड्स हैं। इनमें से दो महामारियां तो जंगलों के विनाश और वन्यजीवों के व्यापार के कारण ही इंसानों में फैली हैं। यदि चमगादड़ों को देखें तो इनसे कोविड-19, सार्स और इबोला जैसे अनेकों वायरस होते हैं। लेकिन अंधेरे जंगलों में रहने वाले यह चमगादड़ आमतौर पर महामारी नहीं फैलाते पर जब इनके आवासों को नष्ट किया गया या इनको प्रभावित किया गया तभी इनसे वो वायरस इंसानों में फैले हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार अब तक जो भी साक्ष्य मिले हैं उनके अनुसार कोविड-19 महामारी के फैलने में चीन की फ़ूड मार्किट का बहुत बड़ा हाथ है क्योंकि यह वायरस भोजन के लिए व्यापार किये जाने वाले चमगादड़ की प्रजाति से ही फैला है। दुनियाभर में जंगली जीवों को भोजन से लेकर कई चीजों के लिए क़ानूनी और गैरक़ानूनी तरीके से ख़रीदा और बेचा जाता रहा है। इन वन्यजीवों को जिन परिस्थितियों में रखा जाता है वो कहीं से भी सुरक्षित नहीं होती है। ऊपर से न ही वहां नियमों का कोई ध्यान रखा जाता है और न ही साफ सफाई का, ऐसे में वायरस के फैलने का खतरा हमेशा बना रहता है।
बीमारियों की निगरानी और रोकथाम के लिए पड़ेगी हर वर्ष 1,856 करोड़ रुपए की जरूरत
चीन में यदि वन्यजीवों के व्यापार को देखें तो यह करीब 149,681करोड़ रुपए (2,000 करोड़ डॉलर) का व्यापार है| यह करीब 1.5 करोड़ लोगों को रोजगार देती है| शोधकर्ताओं के अनुसार चीन में वन्यजीवों के मांस व्यापार को रोकने के लिए हर वर्ष करीब 145,190 करोड़ रुपए (1940 करोड़ डॉलर) की जरूरत पड़ेगी।
शोधकर्ताओं का मानना है कि अवैध तरीके से किए जा रहे वन्यजीवों के व्यापार पर निगरानी रखना जरूरी है। साथ ही इसके लिए कड़े नियम भी जरूरी हैं| अनुमान है कि इस पर हर वर्ष करीब 3,742 करोड़ रुपए (50 करोड़ डॉलर) का खर्च आएगा जो कोविड-19 की तुलना में बहुत कम है। इनसे फैलने वाली बीमारियों की निगरानी और रोकथाम के लिए करीब 1,856 करोड़ रुपए (24.8 करोड़ डॉलर) की जरूरत है।
पिछले कुछ वर्षों में मवेशियों से भी कई वायरस जैसे एच5एन1, एच1एन1, निपाह वायरस और स्वाइन फ्लू इंसानों में फैले हैं, इसलिए इन पर भी ध्यान देना जरूरी है। शोध के अनुसार, इसके लिए हर वर्ष 4,969.4 करोड़ रुपए (66.4 करोड़ डॉलर) की जरूरत पड़ेगी| जंगलों के विनाश के कारण इंसानों तक फैलने वाली इन महामारियों की रोकथाम के लिए जंगलों को भी बचाना जरुरी है। शोध के अनुसार इसके लिए हर वर्ष करीब 41,910.7 करोड़ रुपए (560 करोड़ डॉलर) की जरूरत होगी जिससे 40 फीसदी प्रमुख स्थानों पर जंगलों के विनाश को रोका जा सके।
वन्यजीवों और जंगलों को बचाने पर किया निवेश न केवल हमें इन महामारियों के खतरे से सुरक्षित रखेगा, बल्कि इसके साथ ही इससे पर्यावरण पर बढ़ते दबाव, प्रदूषण को कम करने और जलवायु परिवर्तन के खतरे को सीमित करने में भी मदद मिलेगी। जंगल हमारी धरती के फेफड़े हैं, यदि यह सुरक्षित रहते हैं तो हमारा वातावरण भी सुरक्षित रहेगा। (downtoearth)
राजस्थान, 27 जुलाई। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच चल रही तनातनी और उसकी वजह से पैदा हुई सियासी उथल-पुथल के बीच प्रदेश की एक क़द्दावर नेता की ख़ामोशी तमाम नेताओं की बयानबाज़ी से भी ज़्यादा सुर्ख़ियों में बनी हुई है. ये नेता हैं प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी का पर्याय मानी जाने वाली वसुंधरा राजे सिंधिया. वे बीते कई दिनों से केंद्रीय राजधानी दिल्ली या जबरदस्त राजनीतिक उठापटक का सामना कर रहे जयपुर के बजाय धौलपुर में स्थित अपने राजमहल में मौजूद हैं.
हालांकि भारतीय जनता पार्टी शुरुआत से ही इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज करती रही है कि राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार को अस्थिर करने में वह सचिन पायलट की साझेदार है. लेकिन हाल की कई घटनाएं पार्टी के रुख पर बड़ा सवालिया निशान खड़ा करती हैं. जैसे कांग्रेस की तरफ़ से जारी किए गए एक ऑडियो में कथित तौर पर केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत का विधायकों की ख़रीद-फरोख़्त से जुड़ी बातचीत करना. सचिन पायलट का हाईकोर्ट में अपना पक्ष रखने के लिए मुकुल रोहतगी और हरीश साल्वे जैसे ऐसे वकीलों को ही अपना पैरोकार चुनना जिनका भाजपा के प्रति स्पष्ट झुकाव किसी से नहीं छिपा है. पायलट का अपने समर्थक विधायकों के साथ भाजपा शासित प्रदेश हरियाणा में ही रुके रहना. और बीते कुछ दिनों में मुख्यमंत्री गहलोत के क़रीबियों के यहां अचानक से ईडी और सीबीआई की रेड पड़ना. इसके अलावा राज्यपाल कलराज मिश्र द्वारा गहलोत सरकार को विधानसभा सत्र बुलाने की इजाजत न देना भी ऐसी ही घटनाओं में से एक है.
यदि भारतीय जनता पार्टी के इस दावे को सही मान भी लें कि ये पूरी खींचतान कांग्रेस की अंदरूनी फूट का ही नतीजा है और इसमें उसकी कोई भूमिका नहीं है. तो भी इतने महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम से वसुंधरा राजे जैसी दिग्गज नेता का दूरी बनाए रखना जानकारों को चौंकाता है. राजे की इस चुप्पी को लेकर सूबे के राजनीतिक विश्लेषक मुख्य तौर पर दो मत रखते हैं.
पहला तो यह कि वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान और खास तौर पर भाजपा में ऐसा कोई भी नया क्षत्रप उभरने नहीं देना चाहती हैं जो आगे चलकर उन्हें चुनौती दे सके. और जब बात सचिन पायलट जैसे युवा, महत्वाकांक्षी और ऊर्जावान नेता की हो तो किसी का भी अतिरिक्त सतर्क होना लाज़मी है. इसके अलावा प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में मुख्यमंत्री गहलोत और वसुंधरा राजे द्वारा अंदरखाने एक दूसरे को समर्थन देते रहने की चर्चा भी आम है. हाल ही में सचिन पायलट ने भी मुख्यमंत्री गहलोत और राजे के बीच गठजोड़ होने के आरोप लगाए थे और लोकसभा में भाजपा की सहयोगी पार्टी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (आरएलपी) के प्रमुख हनुमान बेनीवाल ने भी.
हालांकि इसके बाद वसुंधरा राजे ने एक ट्वीट के ज़रिए कांग्रेस पर हमला बोला था. लेकिन जानकारों ने उसे महज औपचारिकता के तौर पर ही देखा. क्योंकि इसके बाद वे एक बार फिर पूरे परिदृश्य से नदारद हो गई हैं. कुछ जानकार राजे और पायलट परिवार के बीच के असहज रिश्तों के लिए 2003 के विधानसभा चुनाव का भी हवाला देते हैं. तब सचिन पायलट की मां रमा पायलट ने राजे को उनकी पारपंरिक सीट झालरापाटन पर चुनौती दी थी. हालांकि रमा पायलट वह चुनाव जीत पाने में नाकाम रहीं थीं.
इस पूरे मामले में विश्लेषक वसुंधरा राजे की ख़ामोशी की दूसरी बड़ी वजह के तौर पर भाजपा हाईकमान से उनके असहज रिश्तों को भी गिनवाते हैं. भाजपा से जुड़े एक वरिष्ठ नेता इस बारे में इशारों में हमें बताते हैं, ‘इस सब के लिए हाईकमान ने राज्य में अपनी सबसे प्रमुख नेता को विश्वास में ही नहीं लिया. जबकि मैडम ये सब नहीं चाहती थीं.’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह से वसुंधरा राजे के असहज रिश्ते ही थे जिनके चलते उनके पिछले कार्यकाल (2013-18) में उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने की चर्चाएं लगभग हर छह महीने में जोर पकड़ने लगती थीं. जानकारों के मुताबिक प्रधानमंत्री मोदी और पूर्व मुख्यमंत्री राजे के बीच की अनबन सबसे पहले 2008 में सामने आयी थी. तब राजस्थान-गुजरात की संयुक्त नर्मदा नहर परियोजना के उद्घाटन के समय एक ही पार्टी से होने के बावजूद इन दोनों नेताओं ने बतौर मुख्यमंत्री एक-दूसरे के कार्यक्रमों में हिस्सा नहीं लिया था.
हालांकि पांच साल बाद इनके बीच रिश्ते सामान्य होने की खबरें भी खूब सुनने को मिलीं जब दोनों ने एक दूसरे के लिए चुनावों में जमकर प्रचार किया था. मोदी लहर कहें या राजे की मेहनत 2013 में भाजपा ने राजस्थान विधानसभा चुनावों में जबर्दस्त बहुमत हासिल किया और अपनी लय बरकरार रखते हुए पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रदेश की सभी 25 सीटों पर कब्जा कर लिया. लेकिन जब इस जीत का श्रेय लेने की बारी आई तो दोनों एक-दूसरे को एक बार फिर खटकने लगे. प्रदेश में इस जीत पर अपना-अपना दावा करते राजे और मोदी समर्थक कई मौकों पर एक दूसरे को आंखे तरेरते भी नजर आए.
लोकसभा चुनाव में पार्टी के शानदार प्रदर्शन को देखते हुए वसुंधरा राजे को उम्मीद थी कि उनके पुत्र और झालावाड़ से सांसद दुष्यंत सिंह को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह जरूर मिलेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. प्रतिक्रिया के तौर पर वसुंधरा राजे खुद दिल्ली पहुंच गयीं और प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण से पहले राजस्थान से चुने गए सभी सांसदों की मीटिंग बुला ली. खबरें तो यह थीं कि राजे नाराज सांसदों को मनाने के लिए दिल्ली आईं थीं. लेकिन कई जानकारों ने इसे उनके शक्तिप्रदर्शन के तौर पर भी देखा. बताया जाता है कि तभी से वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की नजरों की किरकिरी बन गईं.
उसके बाद 2014 के विधानसभा उपचुनावों में जब भाजपा को चार में से सिर्फ एक सीट मिली तब एक बार फ़िर कयास लगाए जाने लगे कि प्रदेश में वसुंधरा राजे के दिन लद गए हैं. लेकिन उस समय केंद्र के लिए यह कदम आसान नहीं था. दरअसल उसी समय उत्तर प्रदेश में भी उपचुनाव हुए थे और राजस्थान की तरह वहां भी लोकसभा में जबरदस्त प्रदर्शन के बावजूद भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया था. इसका मतलब था कि मजबूरन केंद्र को दोनों राज्यों में समान कार्रवाई करनी पड़ती. फ़िर दिल्ली के विधानसभा चुनाव भी सर पर थे. लिहाजा भाजपा हाईकमान ने अंतर्कलह से बचने के लिए तब भी राजे को लेकर कोई फैसला नहीं लिया
लेकिन वसुंधरा राजे आसानी से चुप होने वालों में से नहीं थी. उपचुनाव हारने के अगले महीने ही उन्होंने मीडिया के सामने एक चौंकाने वाला बयान दिया कि ‘कोई व्यक्ति इस गुमान में न रहे कि उसकी वजह से पार्टी राजस्थान में लोकसभा की 25 और विधानसभा की 163 सीटें जीती हैं. जनता जिताने निकलती है तो दिल खोलकर और हराने निकलती है तो घर भेज देती है.’ हालांकि इस बयान में उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया था लेकिन जानकारों का मानना था कि उन्हें चुनावों में जीत का सेहरा प्रधानमंत्री के सिर बांधना रास नहीं आया था.
इसके अलावा राजे ने केंद्र के महत्वाकांक्षी स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत भी राजस्थान में देरी से की थी. इसके लिए उनसे दिल्ली से जवाब भी मांगा गया. लेकिन सफाई देने की बजाय उन्होंने किसी विपक्षी मुख्यमंत्री जैसा रुख अपना लिया. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा, ‘ये तो अब कर रहे हैं. हमने अपने बजट में इसका प्रावधान किया है. हमने 2003 में ही झाड़ू लगाकर इसकी शुरुआत कर दी थी.’ हालांकि केंद्र ने राजे के इस बयान को भी दरकिनार करते हुए इस पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दी.
लेकिन फ़िर 2015 की गर्मियां वसुंधरा राजे के माथे पर पसीना लाने वाली साबित हुईं. ललित मोदी कांड में जब उनका नाम उछला तो सभी को लग रहा था कि इस बार केंद्र उन्हें नहीं बख्शेगा. लंबे समय तक केंद्र ने इस पर चुप्पी बनाए रखी और राजे की चारों तरफ जमकर किरकिरी होने के बाद ही उन्हें क्लीन चिट दी गई. लेकिन अपने विधायकों पर जबरदस्त पकड़ के चलते राजे को हटाया फ़िर भी नहीं जा सका. इसके अलावा पहले ही दिल्ली के चुनावों में करारी हार का सामना कर चुकी भाजपा हाईकमान की नज़र उस समय बिहार के चुनावों पर भी थी. ऐसे में राजस्थान में उठाया गया कोई भी बड़ा कदम बिहार में फूंक-फूंक कर कदम रख रहे पार्टी शीर्ष नेतृत्व का ध्यान विचलित कर सकता था.
फ़िर 2017 में उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में पड़ोसी राज्य की मुख्यमंत्री होने के बावजूद राजे को हाईकमान ने कोई जिम्मेदारी नहीं दी और जब जीत के बाद वे बधाई देने दिल्ली पहुंची तो उन्हें भीड़ में जगह मिली. लेकिन जल्द ही राजे को अपने अपमान का बदला लेने का मौका मिल गिया. दरअसल 2018 में राजस्थान में हुए दो बेहद महत्वपूर्ण लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनावों में भाजपा की करारी हार के बाद राजे के करीबी माने जाने वाले पार्टी प्रदेशाध्यक्ष अशोक परनामी को इस्तीफा देना पड़ा था. सूत्र बताते हैं कि परनामी की जगह अमित शाह ने तत्कालीन केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत का नाम आगे बढ़ाया था. लेकिन राजे ने उनके नाम पर वीटो लगा दिया
इस बार भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने राजे को मनाने की लाख कोशिश की लेकिन उसकी एक न चली. उल्टे राजे के इशारे पर प्रदेश संगठन से जुड़े करीब दो दर्जन कद्दावर मंत्रियों और नेताओं ने अपनी नेता की बात मनवाने के लिए दिल्ली में डेरा डाल दिया. ढाई महीने तक चली इस रस्साकशी में अमित शाह को पीछे हटना पड़ा और गजेंद्र सिंह शेखावत की जगह मदनलाल सैनी ने पार्टी प्रदेशाध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाली. इसके बाद बारी आई 2018 के विधानसभा चुनावों में टिकट वितरण की. एक बार फ़िर भाजपा आलाकमान ने राजे के पसंद के नेताओं के टिकट काटने और अपनी पसंद के नेताओं को पार्टी की तरफ़ से चुनाव में उतारने लिए ऐड़ी से लेकर चोटी तक का जोर लगा दिया. लेकिन हर बार की ही तरह इस बार भी भाजपा हाईकमान को मुंह की ही खानी पड़ी और 200 में से अधिकतर टिकट वसुंधरा राजे की ही पसंद से बांटे गए.
लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद पार्टी आलाकमान ने राजे को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर दिल्ली बुला लिया. माना जाता है कि इस फैसले के जरिए पार्टी शीर्ष नेतृत्व राजस्थान से राजे की पकड़ ढीली करवाना चाहता है. इसी क्रम में पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा हाईकमान ने राजस्थान के कद्दावर जाट नेता हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के साथ गठबंधन कर वसुंधरा राजे को असहज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. सूबे में बेनीवाल की छवि घोर राजे विरोधी के तौर पर स्थापित है. बाद में केंद्रीय कैबिनेट में जिन गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुनराम मेघवाल और कैलाश चौधरी को शामिल किया गया, उन्हें भी राजे विरोधियों के तौर पर ही पहचाना जाता है. लोकसभा अध्यक्ष बनाए गए ओम बिरला से भी पूर्व मुख्यमंत्री की तनातनी की ख़बरें किसी से छिपी नहीं हैं. इसके बाद 2019 में भी सतीश पूनिया को भाजपा प्रदेशाध्यक्ष बनाते समय राजे से कथित तौर पर कोई मशवरा नहीं लिया गया था.
लेकिन भाजपा से जुड़े सूत्रों की मानें तो इन तमाम कवायदों के बावज़ूद वसुंधरा राजे को कमजोर नहीं किया जा सका है. अभी की बात करें तो राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी के 72 विधायकों में से तकरीबन 50 विधायक ऐसे माने जाते हैं जिनके लिए ‘वसुंधरा ही भाजपा’ हैं. राजस्थान से आने वाले भाजपा के सभी 25 सांसदों में से कमोबेश आधों की भी यही स्थिति बताई जाती है. इन सूत्रों का कहना है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व से नाख़ुश धड़ा अगले लोकसभा चुनाव से पहले उन पर दबाव बनाने के लिए वसुंधरा राजे की मदद ले सकता है.
कहने वाले तो यह तक कहते हैं कि अब तक राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री से नाख़ुश रहने वाले आरएसएस का भी एक धड़ा अंदरखाने उन्हें अपना समर्थन देने लगा है और राजे को यह राहत संघ की राजस्थान इकाई की तरफ़ से नहीं बल्कि सीधे नागपुर से मिली है. इसमें महाराष्ट्र से ही ताल्लुक रखने वाले भारतीय जनता पार्टी के एक केंद्रीय नेता की बड़ी भूमिका बताई जाती है.
इस सबके मद्देनज़र जानकारों का मानना है कि भाजपा हाईकमान न तो राजे को तीसरी बार मुख्यमंत्री बनाकर और ज़्यादा ताकतवर करने का ख़तरा मोल ले सकता है और ना ही मुख्यमंत्री न बनाकर उन्हें नाराज़ करने का. विश्लेषकों के मुताबिक यदि भाजपा ने राजस्थान में वसुंधरा राजे की बजाय किसी और नेता को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मुख्यमंत्री बनाने की सोची भी तो पार्टी में उस तरह की तोड़-फोड़ देखने को मिल सकती है जैसी कि कांग्रेस में भी अभी तक नहीं हुई है. दबी आवाज़ में जयपुर के राजनैतिक गलियारों में ऐसी चर्चाएं भी कही-सुनी जा रही हैं कि यदि फ्लोर टेस्ट के वक़्त गहलोत सरकार लड़खड़ाती नज़र आई तो वसुंधरा समर्थक भाजपा के कुछ विधायक उसे संबल देने के लिए क्रॉस वोटिंग तक कर सकते हैं. इसके लिए ये विधायक भाजपानीत भैरोसिंह शेखावत सरकार (1993-98) के समय हुई एक बड़ी राजनीतिक घटना की नैतिक आड़ ले सकते हैं.
उस समय भारतीय जनता पार्टी के विधायक भंवरलाल शर्मा ने कथित तौर पर विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त कर अपनी ही सरकार को गिराने की कोशिश की थी. लेकिन तब कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष पद पर बैठे गहलोत ने विदेश में अपना इलाज करवा रहे शेखावत तक यह सूचना पहुंचवाई और तत्कालीन राज्यपाल बलिराम भगत और प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव से मिलकर इस कोशिश का विरोध किया. इसके बाद तुरत-फुरत में शेखावत भारत आए और विरोधियों की कवायद को नाकाम कर दिया. इस समय भंवरलाल शर्मा कांग्रेस में हैं और सचिन पायलट खेमे में शामिल हैं. कथित तौर पर केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के वायरल ऑडियो में एक आवाज़ शर्मा की भी बताई जा रही है. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के कुछ विधायक दलील दे सकते हैं कि वे अपने नेता को धोखा देने वाले भंवरलाल शर्मा के साथ दिखने के बजाय शेखावत की सरकार बचाने वाले गहलोत का साथ देना ज्यादा पसंद करेंगे.
भारतीय जनता पार्टी की राजस्थान इकाई में वसुंधरा राजे के प्रभाव का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब सांसद हनुमान बेनीवाल ने उन पर मुख्यमंत्री गहलोत से सांठ-गांठ का आरोप लगाया तो प्रदेश भाजपा में हलचल मच गई. संगठन में राजे विरोधी माने जाने वाले नेताओं ने भी बेनीवाल को उनके बयान के लिए आड़े हाथों लिया और अपनी तरफ़ से लीपापोती की भी कोशिश की. लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में जब राजे के करीबी माने जाने वाले विधायक कैलाश मेघवाल ने अपनी ही पार्टी को कटघरे में खड़े करते हुए बड़ा बयान दिया कि ‘राजस्थान में सरकार को गिराने के लिए जिस तरह का माहौल पिछले दो महीने से बना है, हॉर्स ट्रेडिंग हो रही है, आरोप प्रत्यारोप लग रहे हैं वह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. सरकारें बदलती रही हैं लेकिन सत्ताधारी पार्टी द्वारा विपक्षी पार्टियों से मिलकर सरकार गिराने के षडयंत्र जो आज हो रहे हैं, ऐसा कभी नहीं देखा गया.’ इस पर वसुंधरा गुट की तरफ़ से करीब एक सप्ताह गुजरने के बाद भी अब तक कोई सफाई नहीं दी गई है.
वसुंधरा राजे की राजनीति को करीब से देखने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार उनके मौजूदा रुख के बारे में कहते हैं, ‘राजे की राजनैतिक समझ बेहद कैल्कुलेटिव है. वे जानती हैं कि भ्रम की स्थिति में खपाई गई ऊर्जा न सिर्फ़ निरर्थक होगी बल्कि नुकसानदायक भी साबित हो सकती है.’ ये पत्रकार राजे और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच एक समानता का ज़िक्र करते हुए कहते हैं, ‘ये दोनों ही नेता सत्ता से बाहर रहने के दौरान एक सोची-समझी ख़ामोशी ओढ़े रखते हैं. लेकिन हर बार निर्णायक घड़ी में अपने विरोधियों पर इक्कीस साबित होते हैं. गहलोत तो फ़िर भी पर्दे के पीछे रहकर बाजी पलटने में विश्वास रखते हैं. लेकिन राजे आर-पार की लड़ाई लड़ती आई हैं. इसलिए उनकी हालिया चुप्पी का यह मतलब बिल्कुल नहीं निकालना चाहिए कि ज़रूरत पड़ने पर वे कोई बड़ा क़दम उठाने से पहले एक बार भी झिझकेंगी.’(satyagrah)
तीन गुणा बढ़ जाएगा कचरा
अनुमान है कि 2040 तक समुद्र में मौजूद कुल प्लास्टिक वेस्ट बढ़कर करीब 60 करोड़ टन हो जाएगा
-Lalit Maurya
अनुमान है कि 2040 तक समुद्र में मौजूद प्लास्टिक वेस्ट में तीन गुना तक इजाफा हो जाएगा। 2050 तक समुद्र में उतना प्लास्टिक होगा जितनी उसमें मछलियां भी नहीं हैं। यह जानकारी हाल ही में जारी एक नए शोध से सामने आई है। यह शोध द प्यू चैरिटेबल ट्रस्ट और सिस्टेमिक नामक संस्था द्वारा किया गया है। इसमें एलेन मैकआर्थर फाउंडेशन, कॉमन सीस, ऑक्सफोर्ड और लीड्स यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने सहयोग किया है। यह शोध अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंस में प्रकाशित हुआ है।
शोध के अनुसार, 2016 में करीब 1.1 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा समुद्रों में फेंका गया था। यदि दुनियाभर के देश और कंपनियां इसको रोकने में असफल रहती हैं तो यह 2040 तक बढ़कर 2.9 करोड़ टन हो जाएगा। यह दुनिया भर में समुद्र तट के प्रत्येक मीटर पर लगभग 50 किलोग्राम प्लास्टिक के बराबर होगा। चूंकि प्लास्टिक को खत्म होने में कई दशक लग जाते हैं, ऐसे में अनुमान है कि समुद्र में मौजूद कुल प्लास्टिक वेस्ट बढ़कर 60 करोड़ टन के करीब हो जाएगा। इसकी विशालता का अनुमान आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यह करीब 30 लाख ब्लू व्हेल मछलियों के वजन से भी ज्यादा होगा।
इससे पहले ओसियन कन्ज़र्वेंसी नामक संस्था द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, हर साल करीब 80 लाख मीट्रिक टन प्लास्टिक कचरा समुद्रों में फेंका जा रहा है। अनुमान था कि करीब 15 करोड़ टन कचरा समुद्रों में मौजूद है। यह पर्यावरण और समुद्री इकोसिस्टम को बड़े पैमाने पर प्रभावित कर रहा है।
दुनिया के लिए आसान नहीं है प्लास्टिक कचरे को कम करने की डगर
दुनियाभर में प्लास्टिक वेस्ट को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं पर इसके बावजूद इस कचरे में लगातार वृद्धि हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार यदि देश प्लास्टिक से बने उत्पादों की बिक्री और उपयोग को सीमित करने में सफल रहते हैं, इसका कोई विकल्प ढूंढ लेते हैं, इसे समुद्रों में पहुंचने से रोक लेते हैं तो प्लास्टिक वेस्ट में आधे से कम की कटौती की जा सकती है। हालांकि दुनियाभर के देशों और कंपनियों ने प्लास्टिक वेस्ट को कम करने के अनेक उपाय और घोषणाएं की हैं, लेकिन इसके बावजूद इन सब उपायों से प्लास्टिक वेस्ट की मात्रा में केवल 7 फीसदी की कटौती हो सकती है।
शोध के अनुसार यदि आज उपलब्ध तकनीकों का बेहतर ढंग से उपयोग किया जाए तो समुद्रों में बढ़ रहे प्लास्टिक वेस्ट में 80 फीसदी से भी ज्यादा की कटौती की जा सकती है। इसके लिए नीति निर्माताओं को बड़े परिवर्तन करने की जरूरत है। इसके लिए प्लास्टिक के उत्पादन और उपभोग को कम करना होगा। साथ ही प्लास्टिक की जगह पेपर और अन्य सामग्री रीसाइकल हो सकने वाले उत्पादों पर बल देना होगा| साथ ही विकासशील देशों में वेस्ट कलेक्शन और मैनेजमेंट की प्रक्रिया में सुधार करना होगा जबकि अमीर देशों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी और रीसाइक्लिंग पर ध्यान देना होगा। इसके अलावा अपने वेस्ट को विकासशील देशों में भेजना बंद करना होगा।
यदि दुनिया के देशों ने इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया तो आने वाले वक्त में करीब 400 करोड़ लोग वेस्ट कलेक्शन और मैनेजमेंट जैसी सुविधाओं से वंचित होंगे। ऐसे में वेस्ट की मात्रा में कितनी वृद्धि होगी इस बात का अंदाजा आप खुद ही लगा सकते हैं। ऊपर से जिस तरह से कोविड-19 महामारी के चलते वेस्ट में इजाफा हो रहा है वह इस समस्या को अधिक बड़ा और खतरनाक बना देगा। दुनिया के कई देशों में समुद्रों में बड़े पैमाने पर पीपीई किट जैसे दस्ताने और मास्क मिले हैं जो समुद्रों में मौजूद वेस्ट की मात्रा में इजाफा कर रहे हैं। साथ ही महामारी के खतरे को और बढ़ा रहे हैं। मछलियों और अन्य समुद्री जीवों के जरिए यह वेस्ट घूमकर हमारी फ़ूड चेन में पहुंच रहा है।
रिपोर्ट के अनुसार प्लास्टिक वेस्ट को कम करने के उपाय न केवल समुद्र में हो रहे प्लास्टिक प्रदूषण में 80 फीसदी की कटौती कर देंगे, बल्कि इससे 2040 तक करीब 5,23,862 करोड़ रुपए (7,000 करोड़ डॉलर) की बचत भी होगी। इससे 7,00,000 लोगों को रोजगार भी मिलेगा और प्लास्टिक के कारण हो रहे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भी 25 फीसदी की कमी भी आएगी। (downtoearth)
हसदेव अरण्य क्षेत्र की ग्राम सभाओं द्वारा लगाचार चेताया जाता रहा है कि इस अति संवेदनशील जंगल का संरक्षण किया जाना चाहिए न कि इसे चंद पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए बर्बाद किया जाना चाहिए
-सत्यम श्रीवास्तव
वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए कोयले की नीलामी प्रक्रिया से संबंधित एक अहम अधिसूचना कोयला मंत्रालय ने 21 जुलाई को जारी की है जिसमें महाराष्ट्र के टडोबा अंधारी टाइगर रिज़र्व की सीमा में मौजूद बेंडर कोल ब्लॉक को नीलामी प्रक्रिया से बाहर किया गया है।
18 जून 2020 को चार राज्यों की 41 कोयला खदानों को वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए नीलामी प्रक्रिया में शामिल किया गया था। इस नीलामी प्रक्रिया को आधिकारिक व औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में शुरू किया गया था। उस दिन यह तय हुआ कि 18 अगस्त तक निविदाएंं आमंत्रित की जाएंगी।
नीलामी के लिए प्रस्तावित कोयला खदानों की विस्तृत सूची ज़ाहिर हो जाने के बाद बाद से ही बेंडर कोयला खदान को लेकर महाराष्ट्र में विरोध के स्वर मुखर हो गए थे। न केवल पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने बल्कि स्वयं राज्य के पर्यावरण मंत्री आदित्य ठाकरे ने 1644 वर्ग हेक्टेयर के इस संवेदनशील क्षेत्र को संरक्षित किए जाने और टडोबा अंधारी टाइगर रिज़र्व (टीएआरआर) जैसे ईको-सेंसिटिव ज़ोन में कोयला खदान शुरू न करने के लिए देश के पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर को पत्र लिखा था।
उल्लेखनीय है कि इस कोयला खदान को 2009 व 2019 में भी खनन के लिए प्रस्तावित किया जाता रहा है। हर बार इसके खिलाफ पर्यावरणविदों ने आपत्तियां दर्ज़ की हैं। सत्ता में रही राज्य की तत्कालीन सरकारों ने भी इस पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र को बचाए जाने की भरसक कोशिश की है।
महाराष्ट्र के लिए और देश के तमाम ऐसे लोगों के लिए ये राहत की ख़बर है कि इस ‘ईको सेंसिटिव ज़ोन’ को चंद पूंजीपतियों के मुनाफे से ज़्यादा अहमियत दी गई।
कमर्शियल उद्देश्य के लिए नीलामी प्रक्रिया में शामिल किए गए कॉल ब्लॉक्स को लेकर छत्तीसगढ़ और झारखंड की सरकारों ने भी गंभीर आपत्तियां जताईं थीं। झारखंड सरकार तो इस मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय भी पहुंची जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से जवाब मांगा है।
ठीक ऐसी ही उम्मीद थी कि छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य के सघन, जैव विविधतता से भरपूर, कितनी ही प्रजातियों के वन्य जीवों के प्राकृतिक पर्यावास, उत्तर भारत में मानसून की दशा दिशा निर्धारित करने वाले प्राकृतिक जंगल और परिस्थितिकी तंत्र के लिहाज से बेहद संवेदनशील क्षेत्र में मौजूद कोल ब्लॉक्स को भी इस सूची से बाहर किया जाएगा। जहां 2015 से निरंतर इन कोयला खदानों का विरोध हो रहा है।
18 जून 2020 के बाद के घटनाक्रम और बल्कि कमर्शियल कोल माइनिंग की घोषणा के बाद से ही हसदेव अरण्य के क्षेत्र से ग्राम सभाओं और राज्य भर के जन संगठनों की ओर से भारत सरकार को चेताया जाता रहा है कि इस अति संवेदनशील जंगल का संरक्षण किया जाना चाहिए न कि इसे चंद पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए बर्बाद किया जाना चाहिए।
ग्राम सभाओं, हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के विरोध को राज्य की सरकार ने भी समर्थन दिया और 22 जून 2020 को राज्य के वन एवं पर्यावरण मंत्री मोहम्मद अकबर ने केंद्रीय कोयाला मंत्री प्रहलाद जोशी को एक विस्तृत पत्र लिखकर इस बाबत गुजारिश की कि इस जंगल में मौजूद कोयला खदानों को नीलामी प्रक्रिया से बाहर किया जाये।
मोहम्मद अकबर ने देश के वन, पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन के मंत्री प्रकाश जावडेकर को भेजा है और इसमें लेमरू हाथी अभयारण्य का क्षेत्रफल बढ़ाने के राज्य सरकार के फैसले से अवगत कराया है।इस पत्र के बाद फायनेंशियल एक्सप्रेस में 1 जुलाई 2020 को अनुपम चटर्जी ने, 2 जुलाई को टाइम्स ऑफ इंडिया में विजय पींजकर ने और पत्रिका रायपुर ने इस संबंध में खबरें दीं जिनमें बताया गया कि हसदेव अरण्य के चार कोल ब्लॉक्स को बाहर करना तय किया गया है।
इसके पीछे के कारणों को अलग-अलग ढंग से बताया गया। फायनेंशियल एक्सप्रेस ने जहां बताया कि इन चार कोल ब्लॉक्स की भंडारण क्षमता कम है इसलिए इनके स्थान पर ज़्यादा क्षमता के कोल ब्लॉक्स शामिल किए जाएंगे ताकि निवेशको की रुचि बढ़े। एक खबर में कारण मोहम्मद अकबर के पत्र और राज्य सरकार कि चिंताओं को तरजीह दिये जाने के भी बताए गए।
हालांकि ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं ने इस खबर को अपुष्ट बताते हुए इस पर कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं दी और आधिकारिक अधिसूचना का इंतज़ार किया।
हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति से नजदीक से जुड़े और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला ने बताया, “हम अफवाहों के आधार पर या चलते फिरते कोयला मंत्री के किसी बयान के आधार पर यह नहीं मान सकते कि वाकई इन कोल ब्लॉक्स को नीलामी प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया है। इसके अलावा हमारी आपत्ति केवल इन कोल ब्लॉक्स को शामिल किए जाने को लेकर नहीं हैं बल्कि कमर्शियल कोल माइनिंग की पूरी अवधारणा को लेकर है। कोयले की जरूरत के बिना उसकी नीलामी की शर्तों को शिथिल करते हुए, राज्यों की शक्तियों को धता बताते हुए केंद्र सरकार ने जो निर्णय लिए हैं, उन्हें लेकर है”।
21 जुलाई की अधिसूचना ने जैसे इन अटकलों और अफवाहों पर कुछ समय के लिए विराम लगा दिया। इस अधिसूचना में हसदेव अरण्य के क्षेत्र में मौजूद कॉल ब्लॉक्स को लेकर कोई बात नहीं हुई है। यह महज़ वेंडर कॉल ब्लॉक के लिए ही जारी हुई।
इसका पूर्वानुमान प्रह्लाद जोशी के 29 जून 2020 के उस पत्र से भी हो रहा था जो उन्होंने मोहम्मद अकबर के पत्र के जबाव में लिखा था। उन्होंने लिखा था कि हम इस विषय में ‘जांच पड़ताल’ कर रहे हैं।
इस नीलामी प्रक्रिया को लेकर जो आपत्तियां आईं हैं उनमें कुछ तर्क प्रमुखता से उभर कर आए हैं मसलन, यह पूरी प्रक्रिया कोयला जैसे राष्ट्रीय संपदा पर केवल केंद्र सरकार ही निर्णय ले रही है जो भारतीय गणराज्य के संघीय ढांचे पर और राज्यों की शक्तियों पर बड़ा सवाल है। दूसरा इसमें राज्यों को भरोसे में नहीं लिया गया है, स्थानीय सरकारों यानी ग्राम सभाओं (विशेष रूप से पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में) को नज़रअंदाज़ किया गया है। पर राज्यों की सरकारों का नियंत्रण को लेकर सर्वोच्च न्यायालय 2014 के स्पष्ट आदेश का खुला उल्लंघन है भी सतह पर आया।
इसके जवाब में प्रह्लाद जोशी के हवाले से यह भी कहा गया कि कोयला मंत्रालय ने राज्य सरकारों के साथ 8 बैठकें की हैं। इसलिए इन आरोपों में कोई बल नहीं है कि प्रक्रिया का पालन ठीक से नहीं किया गया। हालांकि ऐसी किसी एक भी बैठक का विवरण जन सामान्य के लिए मौजूद नहीं है। स्वयं राज्य सरकारें इस बात से अवगत नहीं हैं। अगर ऐसा वाकई हुआ होता तो झारखंड सरकार स्वयं सुप्रीम कोर्ट में इस नीलामी प्रक्रिया के खिलाफ याचिका दायर क्यों करती?
ऐसे कई अनुत्तरित सवाल हैं जिससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि केंद्र सरकार किस तरह से अपारदर्शी ढंग से काम कर रही है।
खबरें यह भी आईं कि छत्तीसगढ़ की सरकार पहले से ही प्रस्तावित लेमरू हाथी अभयारण्य की चौहद्दी बढ़ाने का फैसला ले चुकी है। इसके बावत भी एक पत्र मोहम्मद अकबर ने देश के वन, पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन के मंत्री प्रकाश जावडेकर को भेजा है और इसमें लेमरू हाथी अभयारण्य का क्षेत्रफल बढ़ाने के राज्य सरकार के फैसले से अवगत कराया है।
इस पत्र के बावत हालांकि कोई प्रतिक्रिया अभी प्रकाश जावड़ेकर के दफ्तर से सामने नहीं आई है।
महाराष्ट्र के एक कोल ब्लॉक को जिन आधारों पर नीलामी प्रक्रिया से बाहर किया गया है, ठीक उन्हीं आधारों पर छत्तीसगढ़ के कोल ब्लॉक्स को क्यों बाहर नहीं किया गया यह समझ से परे है। क्या मामला एक कोल ब्लॉक और चार कोल ब्लॉक्स की तादाद को लेकर है? या इसके पीछे महाराष्ट्र में अपने से जुदा हुए सबसे पुराने सहयोगी का सार्वजनिक तौर पर मान रखने को लेकर है? कहा तो यह भी जा रहा है कि कोयला खदानों पर भी अंतिम निर्णय अब कोयला मंत्रालय या प्रधानमंत्री कार्यालय की बजाय नागपुर से ही हो रहा है। यह भी आज के न्यू इंडिया में स्थापित तथ्य हो गया है कि छत्तीसगढ़ की कोयला खदानें किस अंतरंगी मित्र को जाने वाली हैं यह पहले से निर्धारित है और उसके खिलाफ केंद्र सरकार अपने पहले कार्यकाल से ही नतमस्तक है जबकि महाराष्ट्र में बेन्डर की खदान किसे जाने वाली थी इसे लेकर बहुत स्पष्टता नहीं थी।
बहरहाल, 18 अगस्त को होने वाली बिडिंग में यह तस्वीर भी साफ हो जाएगी लेकिन इस कदम से छत्तीसगढ़ में एक असंतोष पैदा हुआ है। अब भी राज्य सरकार के पास करने को बहुत कुछ है लेकिन वह अपने समृद्ध जंगल और उसमें निवासरत आदिवासी समुदायों को बचाने के लिए कितनी गंभीर है, यह आने वाले समय में पता लग पाएगा।(downtoearth)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका ने चीन के विरुद्ध अब बाकायदा शीतयुद्ध की घोषणा कर दी है। ह्यूस्टन के चीनी वाणिज्य दूतावास को बंद कर दिया है। चीन ने चेंगदू के अमेरिकी दूतावास का बंद करके ईंट का जवाब पत्थर से दिया है। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपिओ चीन पर लगातार हमले कर रहे हैं। उन्होंने अपने ताजा बयान में दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों से आग्रह किया है कि वे चीन के विरुद्ध एकजुट हो जाएं। भारत से उनको सबसे ज्यादा आशा है, क्योंकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और गालवान घाटी के हत्याकांड ने भारत को बहुत परेशान कर रखा है। नेहरु और इंदिरा गांधी के जमाने में यह माना जाता था कि एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका के देशों याने तीसरी दुनिया के देशों का नेता भारत है। उन दिनों भारत न तो अमेरिकी गठबंधन में शामिल हुआ और न ही सोवियत गठबंधन में। वह गठबंधन-निरपेक्ष या गुट-निरपेक्ष ही रहा।
अब भी भारत किसी गुट में क्यों शामिल हो? यों भी ट्रंप ने नाटो को इतना कमजोर कर दिया है कि अब अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पहले की तरह कोई गुट-वुट सक्रिय नहीं हैं लेकिन अमेरिका और चीन के बीच इतनी ठन गई है कि अब ट्रंप प्रशासन चीन के खिलाफ मोर्चाबंदी करना चाहता है। उसने आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान और आग्नेय एशिया के कुछ राष्ट्रों को तो चीन के विरुद्ध भडक़ा ही दिया है, वह चाहता है कि भारत भी उसका झंडा उठा ले। भारत को पटाने के लिए ट्रंप प्रशासन इस वक्त किसी भी हद तक जा सकता है। वह भारतीयों के लिए वीजा की समस्या सुलझा सकता है, भारतीय छात्रों पर लगाए गए वीज़ा प्रतिबंध उसने वापस कर लिये हैं, वह भारत को व्यापारिक रियायतें देने की भी मुद्रा धारण किए हुए है, अमेरिका के अधुनातन शस्त्रास्त्र भी वह भारत को देना चाह रहा है, गलवान-कांड में अमेरिका ने चीन के विरुद्ध और भारत के समर्थन में जैसा दो-टूक रवैया अपनाया है, किसी देश ने नहीं अपनाया, वह नवंबर में होनेवाले राष्ट्रपति के चुनाव में 30-40 लाख भारतीयों के थोक वोटों पर भी लार टपकाए हुए है। अमेरिका के विदेश मंत्री, रक्षामंत्री, व्यापार मंत्री और अन्य अफसर अपने भारतीस समकक्षों से लगातार संवाद कर रहे हैं। भारत भी पूरे मनोयोग से इस संवाद में जुटा हुआ है। भारत की नीति बहुत व्यावहारिक है। उसने स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी भी गठबंधन में शामिल होने के विरुद्ध है। लेकिन चीन के सामने खम ठोकने में यदि हमें अमेरिका की मदद मिलती है तो उसे भारत सहर्ष स्वीकार क्यों न करे ? भारत को चीन के सामने शीत या उष्णयुद्ध की मुद्रा अपनाने की बजाय एक सशक्त प्रतिद्वंदी के रूप में सामने आना चाहिए। उसने चीन के व्यापारिक और आर्थिक अतिक्रमण के साथ-साथ उसके जमीनी अतिक्रमण के विरुद्ध अभियान शुरू कर दिया है। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-चिंकी सिन्हा
छह साल पहले का वाक़या है. ठंड के दिन थे. बहादुरगढ़ में बस से उतरते ही 17 साल की उस लड़की ने सबसे पहले राह चलते एक शख़्स से नज़दीकी थाने का पता पूछा. सामने ही नजफगढ़ पुलिस थाना था.
9 फ़रवरी 2014 की सुबह लड़की उस थाने में हाज़िर थी. पुलिस को उसने बताया कि रोहतक के राजपाल नाम के एक शख़्स के पास उसके कुछ दस्तावेज़ हैं, उन्हें वह दिलवा दे.
अपने ऊपर हुए ज़ुल्म की सारी कहानी उसने सामने बैठे पुलिस वालों से कह डाली. कैसे उसे क़ैद में रखा गया, यातनाएं दी गईं और किस तरह उसका शोषण किया गया. पुलिस वाला सब कुछ अपनी डायरी में नोट करता रहा.
अपनी आपबीती सुनाते हुए उसने सोनू पंजाबन का नाम लिया और कहा कि उससे जिस्मफ़रोशी करवाने वालों में वो भी शामिल थीं. पुलिस ने लड़की की शिकायत पर एफ़आईआर दर्ज कर ली.
पुलिस जिस वक़्त यह शिकायत दर्ज कर रही थी उस वक़्त दिल्ली की कुख्यात सैक्स रैकेट सरगना सोनू पंजाबन हिरासत में थीं. कुछ महीनों के बाद सोनू की शिकार वह लड़की ग़ायब हो गई. लेकिन 2017 में बड़े ही रहस्यमय तरीक़े से प्रकट हो गई. सोनू पंजाबन फिर गिरफ्तार कर ली गईं.
इसके तीन साल बाद दिल्ली की एक अदालत ने उन्हें फिर दोषी ठहराया और 24 साल की सश्रम क़ैद की सज़ा सुनाई.
लंबे समय से वह पुलिस से बचती रही थीं. 'जघन्य अपराधों' को अंजाम देने वाली एक महिला अपराधी की गिरफ्तारी सुर्खियां बनकर छा गई. सोनू ने जो कुछ भी किया था वह समाज की ओर से तय अच्छी महिला की छवि के बिल्कुल उलट था.
ख़ुद को सताई लड़कियों की रहनुमा बताती
जज के मुताबिक, वह एक सभ्य समज में रहने लायक नहीं थीं. लेकिन दिल्ली में अपना रैकेट चलाने वाली लड़कियों की यह 'दलाल' हमेशा यही दलील देती रही कि वह सताई गई लड़कियों की रहनुमा रही है. उसने हालात की मारी लड़कियों को सहारा दिया है.
सोनू यह भी कहती थीं कि अपने जिस्म पर औरतों का अधिकार है. उन्हें इसे बेचने का हक़ है. वह सिर्फ इस काम में मदद करती थीं. आख़िरकार हम सब भी तो कुछ न कुछ बेच ही रहे हैं- अपना हुनर, शरीर, आत्मा प्यार और न जाने क्या-क्या?
लेकिन इस बार, बेचने और ख़रीदने के इस धंधे की शिकार एक नाबालिग थी.
सोनू पंजाबन को जेल भेजने का फ़ैसला देते हुए जज प्रीतम सिंह ने कहा, " महिला की इज़्ज़त उसकी आत्मा जैसी बेशकीमती होती है. दोषी गीता अरोड़ा उर्फ़ सोनू पंजाबन औरत होने की सारी मर्यादाएं तोड़ चुकी है. क़ानून के तहत वह कड़ी से कड़ी सज़ा की हक़दार है.''
नाबालिग लड़की की शिकायत पर गिरफ़्तारी
सोनू पंजाबन के ख़िलाफ़ दर्ज की गई एफ़आईआर 2015 में ही क्राइम ब्रांच भेज दी गई थी. लेकिन 2017 में जब क्राइम विभाग के डीसीपी भीष्म सिंह ने केस अपने हाथ में लिया तो 2014 में गांधी नगर से घर छोड़ कर निकल चुकी लड़की को ढूंढ निकालने के लिए एक टीम बनाई गई.
पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराने के बाद ही यह लड़की ग़ायब हो गई थी. उसके पिता ने उस वक़्त लड़की की गुमशुदा होने की एक और रिपोर्ट लिखाई थी.
नवंबर में पुलिस ने उस लड़की को यमुना विहार में खोज निकाला. वहां वह अपने कुछ दोस्तों के साथ रह रही थी. उस दौरान सोनू पंजाबन 2014 के एक मकोका केस में सबूत के अभाव में छूट चुकी थीं. लेकिन लड़की का पता चलते ही 25 दिसंबर 2017 में सोनू को फिर गिरफ्तार कर लिया गया.
सज़ा सुनाए जाने के दिन सोनू पंजाबन ने एक साथ ढेर सारी पेनकिलर्स खाकर ख़ुदकुशी करने की कोशिश की थी. उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया. कुछ घंटों के बाद उनकी हालत स्थिर हो गई.
भीष्म सिंह ने कहा, "हो सकता है उसने कड़ी सज़ा से बचने के लिए यह क़दम उठाया हो. शायद जज को थोड़ी दया आ जाती." लेकिन जज ने कोई दया नहीं दिखाई.
ड्रग्स के इंजेक्शन
मुक़दमे की सुनवाई के दौरान जज ने कहा कि सोनू पंजाबन ने पीड़ित लड़की के स्तनों पर मिर्च पाउडर डाल दिया था ताकि वह ख़ौफ़ से उसके काबू में आ जाए. अपनी गवाही में लड़की ने कहा था उसे ड्रग्स के इंजेक्शन दिए गए.
भीष्म सिंह ने कहा, " यह गाय-भैंसों का दूध उतारने के लिए दिया जाने वाला इंजेक्शन था. यह शरीर को जल्दी तैयार कर देता है."
पुलिस का कहना है सोनू के अनकहे अपराधों की एक लंबी लिस्ट है. ये तो उनकी बेरहमी के चंद नमूने भर हैं. वह इससे भी ज़्यादा बेरहम हो सकती हैं. जिस लड़की की शिकायत पर सोनू पंजाबन को सज़ा हुई, उसको उन्होंने ख़रीदा था.
उनके रैकेट में कई हाउस वाइफ़ और कॉलेज की लड़कियां थीं. उन औरतों की जिस्मफ़रोशी के लिए वह सुविधाएं जुटाती थीं और बदले में कमीशन लेती थीं. ये सब आपसी रज़ामंदी से होता था. लेकिन वह दूसरे दलालों से भी कम उम्र की लड़कियों की ख़रीद कर ग्राहकों को सप्लाई करती थीं.
सोनू पंजाबन इन लड़कियों को बेचे जाने तक क़ैद में रखती थीं. इन लड़कियों को बारी-बारी से ग्राहकों को भेजा जाता था ताकि दलालों को अपने-अपने इलाक़ों में सप्लाई की दिक़्क़त न हो.
जज ने सोनू पंजाबन के मामले में फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि उन्होंने औरत होने की सारी मर्यादाएं तोड़ दी हैं. महिला के नाम पर वह कलंक हैं.
डीसीपी सिंह के मुताबिक़, सोनू पंजाबन एक शातिर औरत रही है जिसे न कोई डर है और न कोई अफ़सोस.
वह कहते हैं, "जब मैंने पूछा कि नाबालिग लड़कियों की ख़रीद-फरोख़्त अपराध है तो उसने कहा कि उसे पता नहीं. वह जानबूझ कर ऐसा कह रही थी. उसे पता था कि वह जो कर रही है वो ग़लत है. हमारे समाज में तो लोग यह मानते हैं कि औरतों के ख़िलाफ़ औरतें ही ऐसे अपराधों को अंजाम नहीं दे सकतीं."
सोनू पंजाबन सभ्य समाज के लायक नहीं?
सोनू को 24 साल के सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई गई. उन्हें आईपीसी (भारतीय दंड संहिता) की धारा 328, 342, 366ए, 372, 373 120बी समेत अनैतिक व्यापार रोकथाम क़ानून की धारा 4, 5 और 6 के तहत सज़ा दी गई है.
सोनू बच्चों को यौन अपराधों से बचाने वाले क़ानून पोक्सो के तहत भी दोषी ठहराई गई हैं. अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश प्रीतम सिंह ने सोनू के ख़िलाफ़ सज़ा सुनाते हुए उन पर 64 हज़ार रुपये का जुर्माना भी लगाया. अदालत ने सोनू के सह आरोपी संदीप बेडवाल को भी 20 साल जेल की सज़ा सुनाई और कहा कि वह पीड़ित लड़की को सात लाख रुपये मुआवज़ा दें.
पुलिस के मुताबिक़, सोनू पंजाबन की ज़ुल्म की शिकार हुई लड़की ने 2014 में अपनी मर्ज़ी से घर छोड़ा था. वह नशे की आदी थी और यह कलंक वह बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी. उसकी बहन की शादी होने वाली थी. वह नहीं चाहती थी कि इस रिश्ते में उसका अतीत अड़चन बन जाए.
सुनवाई के बाद फ़ैसला सुनाने के दौरान एलप्रेक्स नाम की दवा का ज़िक्र आया था. पीड़िता डिप्रेशन की शिकार थी और इस दवा का इस्तेमाल करती थी. उसने एफ़आईआर में आरोप लगाया था कि कुछ लोग उसे धमकियां देते थे.
लंबे वक़्त तक ग़ायब रहने के बाद जब वह मिली तो उसकी काउंसिलिंग करवाई. उसे नए सिरे से ज़िंदगी शुरू करने में मदद की गई. उसकी शादी भी हुई. उसका एक बच्चा है और अब वह अपने मां-बाप के साथ रहती है.
शादी के बाद उसके ससुराल वालों ने उसे छोड़ दिया था. लड़के के मां-बाप उसके अतीत से समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे. वह लड़की फ़ोन पर बात नहीं करती है. लेकिन जांच अधिकारी पंकज नेगी के मुताबिक़ लड़की को लग रहा है कि आख़िरकार उसकी जीत हुई है. वह राहत महसूस कर रही है.
सोनू पंजाबन के ख़िलाफ़ अदालत के आदेश में कहा गया, " औरत की इज़्ज़त उसकी आत्मा की तरह बेशकीमती होती है. कोई महिला कैसे एक नाबालिग लड़की की गरिमा से इस कदर छेड़छाड़ कर सकती है. उसकी इज़्ज़त को वह इतने भयावह तरीक़े से कैसे तार-तार कर सकती है. अपनी शर्मनाक करतूतों की वजह से सोनू पंजाबन किसी भी कोर्ट की ओर से रहम की हकदार नहीं है. चाहे औरत या हो मर्द, इस तरह के ख़ौफ़नाक करतूतों को अंजाम देने वाला शख़्स सभ्य समाज में रहने का हक़दार नहीं है. उसके लिए सबसे अच्छी जगह जेल की चारदीवारी ही है."
सोनू पंजाबन को मैंने पहली बार 2011 में दिल्ली की एक अदालत में देखा था. जज के सामने वह हाथ जोड़े खड़ी थीं. उनके बाल उजड़े हुए थे. वह थकी हुई लग रही थीं. पुलिस का कहना था कि वह नशे की लत छोड़ने का कोर्स कर रही हैं और ज़्यादातर वक़्त तिहाड़ जेल की अपनी कोठरी में सोती रहती हैं.
उस दिन कोर्ट की सुनवाई के बाद देर दोपहर में उन्हें बस से फिर तिहाड़ ले जाया गया. बस की खिड़कियों में ग्रिल लगी थी. सोनू पंजाबन सीधे बस में जाकर पीछे की सीट पर बैठ गईं. मैं पार्किंग के पास खड़ी थी.
जैसे ही उन्होंने मुझे देखा, मैंने उनसे कहा कि वह अपने मिलने आने वालों की लिस्ट में मेरा भी नाम डाल दें. मुझे याद है वह जुलाई महीने का एक गर्म दिन था. उन्होंने मेरा नाम पूछा. फिर कई दिनों तक मैं तिहाड़ फ़ोन कर पूछती रही कि क्या सोनू पंजाबन की विजिटर्स लिस्ट में मेरा नाम है. उधर से वो बताते कि सोनू की लिस्ट में जो छह नाम हैं, उनमें मेरा नाम नहीं है.
गिरफ़्तारी के समय 30 साल उम्र
सोनू पंजाबन के मामले के जांच अधिकारी कैलाश चंद 2011 में सब-इंस्पेक्टर थे. महरौली थाने में बातचीत के दौरान उन्होंने बताया था कि कैसे उन्होंने सोनू पंजाबन को फंसाने के लिए जाल बुना था.
कैलाश चंद बताते हैं कि हिरासत में वह सोनू से रात-रात भर बात करते थे. पांच दिन तक सोनू को थाने में रखा गया था. कैलाश चंद सोनू के लिए सिगरेट, चाय और खाना लाते थे और वो उन्हें अपनी कहानी बताती थीं.
महरौली में जब कैलाश चंद ने सोनू पंजाबन को पकड़ा था तो उनकी ख़ूबसूरती देख कर दंग रह गए. उन्होंने मोबाइल फ़ोन के कैमरे से उनकी तस्वीर भी ली थी. हालांकि अब वह धुंधली हो चुकी है.
2011 में गिरफ्तारी के बाद सोनू की उम्र 30 साल थी. जिस्मफ़रोशी के काम में पहली बार उतरने के डेढ़ साल बाद ही उन्होंने इसे छोड़ दिया था. तब तक वह अपना सिंडिकेट चलाने के लिए नेटवर्क बना चुकी थीं.
पुलिस के मुताबिक़, उन्होंने एक डायरी भी बरामद की थी जिसमें सोनू के ग्राहकों और संपर्क के लोगों के नाम थे. उनकी मोबाइल फ़ोनबुक भी बरामद हुई थी. सोनू के रैकेट में शहर के इलिट कॉलेजों में पढ़ने वाली लड़कियां भी थीं. वे उसके लिए कॉन्ट्रेक्ट पर काम करती थीं.
सोनू ने कैलाश चंद से कहा था कि 'वेश्यावृति जनसेवा है. हम पुरुषों के निवारण का रास्ता मुहैया कराते हैं. हम महिलाओं को उनके सपने पूरे करने में भी मदद करते हैं. अगर आपके पास बेचने के लिए शरीर के सिवा कुछ भी नहीं है तो इसे ज़रूर बेचना चाहिए. लोग हर वक़्त कुछ न कुछ तो बेचते ही रहते हैं. उसकी यह पूरी बातचीत लिखित में दर्ज कर चार्जशीट में नत्थी कर दी गई थी.'
पुलिस से बातचीत में अक्सर वह तर्क देती थीं कि वह समाज को एक ज़रूरी सेवा मुहैया करा रही हैं. अगर वह और उसकी जैसी महिलाएं न हों तो न जाने कितने रेप हों.
वह कहती थीं कि वासना एक बाज़ार है. अगर यह बाज़ार न हो तो समाज में मार-काट मच जाए. नैतिकता का सवाल वह काफ़ी पहले छोड़ आई थीं.
अपनी पुरानी नोटबुक में मुझे पुलिस को सुनाई सोनू पंजाबन की एक कहानी मिली थी. सोनू ने एक ऐसी महिला का ज़िक्र किया था, जिसका पति उसे पीटता था. उसके साथ ज़बरदस्ती सेक्स करता था. वह उसे एक फ़ूटी-कौड़ी नहीं देता था. उसका एक बच्चा था और वह उसे बढ़िया तरीक़े से पढ़ाना-लिखाना चाहती थी.
कैलाश चंद से उन्होंने कहा था, "आख़िर उस महिला का क्या कसूर है. वह शादीशुदा है, इसलिए अपनी सारी इच्छाओं और आकांक्षाओं को दबा दे. वह एक ऐसे शख्स के साथ शादी के रिश्ते में बंधी है जो उस मारता है. इस सबसे बचने के लिए उसके पास उसका शरीर ही एक मात्र जरिया है. जबकि समाज की नज़रों में यह खराब काम है."
पुलिस बताती है, "सोनू पंजाबन तेज़-तर्रार थी. अच्छे कपड़े पहनती थी. अपने ऊपर उसे काफ़ी भरोसा था. 2017 में वह एक बार फिर पकड़ी गई. पुलिस वालों को पता था राज उगलवाना है तो सोनू की अच्छी ख़ातिरदारी करनी होगी. लिहाज़ा उसके लिए रेड बुल ड्रिंक, सैंडविच, बर्गर और पिज़्ज़ा लाया जाता था. कैलाश चंद की तरह ही इस बार भी पुलिस उसके लिए सिगरेट ख़रीद कर लाती थी. उस बार उसने अपनी कहानी सुनाई और वेश्यावृत्ति के समर्थन में अपने पुराने तर्क दिए. उसने इस बात को कबूल करने से इनकार कर दिया था कि वह ग़ायब हुई नाबालिग लड़की को जानती थी. लेकिन इस बार किस्मत ने उसका साथ नहीं दिया."
सोनू पंजाबन अनैतिक व्यापार रोकथाम क़ानून के तहत 2007 में प्रीत विहार में पकड़ी गई थीं. ज़मानत पर रहने के दौरान 2008 में वह एक बार फिर पुराने अपराध में पकड़ी गई थीं.
2011 में जिस्मफ़रोशी के कारोबार में एक और बार पकड़े जाने के बाद उनके ख़िलाफ़ मकोका के तहत मुक़दमा दर्ज किया गया था. मकोका गैंगस्टर और आतंकवादियों पर नकेल कसने के लिए लाया गया था. दिल्ली ने 2002 में मकोका का इस्तेमाल शुरू किया.
सोनू की नज़र में जिस्मफ़रोशी जनसेवा
सोनू पंजाबन 2019 में पैरोल पर रिहा हुईं. उस दौरान उन्होंने अपने तमाम टीवी इंटरव्यूज़ में कहा था कि पुलिस उन्हें परेशान कर रही है. किसी भी लड़की ने ऑन-रिकॉर्ड यह नहीं कहा कि वह दलाल हैं. वह लोगों को सिर्फ सुविधाएं मुहैया कराती हैं.
वह ऐसी महिलाओं को सहारा दे रही हैं जो अपनी ख़राब शादियों से बचने का रास्ता तलाश रही हैं. अपने घरों में खट-खट कर बेहाल हो चुकी हैं. वो ऐसी महिलाओं की मदद कर रही हैं जो जीवन का आनंद लेना चाहती हैं. उन्हें पता था कि उनकी कहानी ही ऐसी है जो सुर्खियां बनाएगी.
वह अपराध और पीड़ित दोनों की भूमिकाओं से वाकिफ़ थीं. वह दोनों रह चुकी थीं. 2013 में आई फिल्म 'फ़ुकरे' और 2017 में आई 'फ़ुकरे रिटर्न' में भोली पंजाबन का किरदार उन्हीं की कहानी से प्रेरित था. दोनों किरदारों को ऋचा चड्ढा ने निभाया था.
सोनू पंजाबन जब मकोका में फंसी थीं तो आरएम तुफ़ैल ने उनका केस लड़ा था और बरी भी कराया था. 24 साल की सज़ा का फ़ैसला सुनाए जाने के बाद उन्होंने कहा, यह काफ़ी लंबा वक़्त है. इस केस में उन्होंने सोनू की पैरवी की थी. उन्होंने कहा कि वह इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील दायर करेंगे.
तुफ़ैल कहते हैं, "दुनिया का सबसे पुराना पेशा भीख मांगना और वेश्यावृत्ति है. इस बारे में कोई भी ठीक से कुछ नहीं जानता. सब नैतिकता की बातें करते हैं. इन बातों से अब चिढ़ होती है."
'सोनू को काफ़ी लंबी सज़ा दी गई है'
पूर्वी और दक्षिणी दिल्ली में करोड़ों रुपये का सेक्स रैकेट चलाने वाली सोनू पंजाबन 2011 में मकोका के तहत गिरफ्तारी के बाद से ही ख़बरों में रही हैं. अख़बारों में उनके बारे में जो स्टोरीज़ छपी हैं उनके मुताबिक उनकी आलीशान लाइफ़स्टाइल रही है. उनके कई प्रेमी और कम से कम चार पति रहे हैं. सभी कुख्यात गैंगस्टर रहे हैं. इनमें से कई पुलिस एनकाउंटर में मारे जा चुके हैं.
सोनू ने इन संबंधों को 'शादी' मानने से इनकार कर दिया था. उनका कहना था कि पुलिस ने ही उनका नाम 'सोनू पंजाबन' रख दिया था. बचपन में उनके मां-बाप उसे सोनू नाम से पुकारते थे. जबकि, पुलिस का कहना है कि उन्होंने अपने पतियों में से एक हेमंत उर्फ़ सोनू का नाम ले लिया था.
2003 में उनके एक और पति विजय की यूपी में पुलिस एनकाउंटर में मौत हो गई थी. उसके बाद वह अपने दोस्त दीपक के साथ रहने लगी. दीपक गाड़ियां चुराता था. पुलिस ने गुवाहाटी में एक मुठभेड़ में दीपक को मार गिराया था. फिर वह दीपक के भाई हेमंत उर्फ़ सोनू के साथ रहने लगी थीं. हेमंत एक अपराधी था. उसने अपने भाई की मौत का बदला लेने के लिए बहादुरगढ़ में एक शख़्स की हत्या कर दी थी. सोनू के मुताबिक हेमंत भी एक एनकाउंटर में मारा गया था.
कहा जाता है कि सोनू की मौत के बाद वह खुद को बेसहारा महसूस करने लगी थी. उनके दो भाई बेरोज़गार थे. पिता गुज़र चुके थे. अपने बेटे और मां की देखभाल की ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई थी. इसी वक़्त उन्होंने कॉल गर्ल बन कर जिस्मफ़रोशी के कारोबार में क़दम रखा.
सोनू इस बात से इनकार करती हैं कि उन्होंने और भी शादियां की हैं. लेकिन पुलिस और मीडिया के मुताबिक विजय की मौत के बाद सोनू ने चार शादियां कीं. पांचवें पति के अलावा सभी की मौत अलग-अलग पुलिस एनकाउंटर में हो गई.
जांच अधिकारी पंकज नेगी कहते हैं, " सोनू के फोन में इन लोगों के साथ उसकी तस्वीर है. इनमें वह सिंदूर लगाए उनके साथ खड़ी है. इन अंतरंग तस्वीरों से पता चल जाता है कि ये पति-पत्नी हैं."
गीता मग्गू से लेकर सोनू पंजाबन तक का सफ़र
सोनू पंजाबन 1981 में गीता कॉलोनी में पैदा हुई थीं. उनका नाम था गीता मग्गू. उनके दादा पाकिस्तान से एक शरणार्थी के तौर पर आए थे और रोहतक में बस गए थे. उनके पिता ओम प्रकाश दिल्ली चले आए थे और ऑटो रिक्शा चलाते थे.
उनका परिवार पूर्वी दिल्ली की गीता कॉलोनी में रहने लगा था. सोनू के तीन भाई बहन थे- एक बड़ी बहन और दो भाई. सोनू की बड़ी बहन बाला की शादी सतीश उर्फ़ बॉबी से हुई थी. सतीश और उसके छोटे भाई विजय ने उस शख़्स की हत्या कर दी थी, जिससे उनकी बहन निशा का अफ़ेयर था. दोनों इस मामले में जेल चले गए थे. पैरोल पर रिहा होने के बाद 1996 में गीता ने विजय से शादी कर ली.
2011 में जब मैं पहली बार उनके घर गई तो मैंने पहाड़ों के आगे खड़े विजय की एक तस्वीर देखी. प्रेम में पड़ कर उन्होंने विजय से शादी कर ली थी. उस वक़्त उनकी उम्र महज़ 15 साल थी. इसके बाद उनका एक बेटा हुआ. जब मैं उनके घर गई थी तो उनका बेटा पारस नौ साल का था.
उस वक़्त वह अपनी मां का इंतज़ार कर रहा था. वह टॉय कार लेकर आने वाली थीं. उनकी मां ने कहा था कि वह कभी-कभी जेल से फ़ोन करती है. पारस अब 17 साल का है. पुलिस का कहना है कि वह अपनी मां के बारे में जानता है.
सोनू के परिवार ने एक बेटी भी गोद ली थी. लेकिन विजय की मौत के बाद गोद देने वाला परिवार उसे ले गया था. शादी के सात साल बाद विजय की मौत हो गई थी. उस वक्त वह पैरोल पर बाहर आए हुए थे.
सोनू पंजाबन के पिता 2003 में गुज़र गए थे. उसके बाद उन्होंने प्रीत विहार में एक ब्यूटीशियन के तौर पर काम शुरू किया था. वहीं वह अपनी एक सहकर्मी नीतू से मिली थीं, जिसने उन्हें जिस्मफ़रोशी के कारोबार से परिचित कराया.
फिर वह रोहिणी में रहने वाली महिला किरण के लिए सेक्स वर्कर के तौर पर काम करने लगीं.
शुरू में अपने इस कारोबार के लिए उन्होंने पर्यावरण कॉम्प्लेक्स के बी ब्लॉक में कमरा लिया. फिर फ़्रीडम फ़ाइटर कॉलोनी, मालवीय नगर और शिवालिक में किराये पर अपार्टमेंट लिए. दिल्ली के सैदुल्लाजाब के अनुपम एनक्लेव में उन्होंने एक अपार्टमेंट ख़रीदा. यह फ्लैट संजय मखीजा के नाम से खरीदा गया था.
पुलिस रिकार्ड के मुताबिक, संजय मखीजा सोनू पंजाबन का पुराना साथी है. सोनू पंजाबन के पूरे करियर के दौरान यानी पहले सेक्स वर्कर और फिर हाई क्लास दलाल के तौर पर काम करने के दौरान, राजू शर्मा उर्फ़ अजय उनका सहयोगी रहा.
राजू पहले सोनू का रसोइया था और फिर बाद में उनके ड्राइवर के तौर पर काम करने लगा था. वह भी दलाली का काम करता था और सोनू पंजाबन के साथ दो बार गिरफ्तार भी हो चुका था.
यह काफी अच्छे से चलाया जाने वाला कारोबार था. सोनू अपने क्लाइंट्स के लिए कुक और क्लीनर भी रखती थीं.
जैसे-जैसे कारोबार बढ़ता गया उनका सहयोगी राजू आउट स्टेशन क्लाइंट्स का काम देखने लगा. दोनों ने अपने एजेंटों के ज़रिये अलग-अलग शहरों में भी अपना काम फैला लिया.
पुलिस से अपनी बातचीत के दौरान सोनू पंजाबन ने उन दलालों के नाम लिए थे जो अलग-अलग इलाकों के इंचार्ज थे. हालांकि उनमें आपस में प्रतिस्पर्धा थी लेकिन वे मिलकर काम करते थे. जैसे, अगर किसी इलाके में सोनू पंजाबन का कोई क्लाइंट है और उसे वहां कोई लड़की नहीं मिल रही है तो वह दूसरे से इसका इंतज़ाम करने के लिए कहती थीं. बाकी दलाल भी ज़रूरत पड़ने पर ऐसा ही करते थे. हालांकि उनके बीच ज़बरदस्त कॉम्पीटिशन भी था.
नेगी के मुताबिक जब सोनू पंजाबन ने बिज़नेस संभाला तब सिक्योरिटी मुहैया करने और अपने नेटवर्क के लिए कमाई का लगभग 60 फीसदी कमीशन लेना शुरू किया.
उनकी कार रात को शहर में 500 किलोमीटर तक दौड़ती थी. यह गाड़ी लड़कियों को अपने लोकेशन से बिठाती और 'क्लाइंट सर्विस' के लिए अलग-अलग जगह ड्रॉप करती.
सोनू उन लड़कियों के लिए सबसे ज़्यादा मार्जिन लेती थीं जिन्हें वह अपने कैद में रखती थीं. इन लड़कियों को वह ख़रीद चुकी होती थीं. ऐसी ही एक नाबालिग लड़की ने उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर कराई थी.
दिल्ली के एक और हाई प्रोफ़ाइल दलाल इच्छाधारी बाबा इस वक़्त तिहाड़ जेल में हैं. कहा जाता है कि सोनू ने पुलिस को सुराग देकर तेज़-तर्रार स्वयंभू बाबा इच्छाधारी बाबा को पकड़वाया था.
भीष्म सिंह कहते हैं, " इस तरह के अपराध में जब भी जगह खाली होती कोई न कोई उसे भर देता था. यहां भी ऐसा ही हुआ. इच्छाधारी बाबा की गिरफ्तारी के बाद सोनू ने अपना कारोबार फैला लिया."
सोनू पंजाबन की गिरफ्तारी की ख़बर हेडलाइंस बन चुकी थी. गुलाबी कार्डिगन और ब्लू जीन्स पहने उनकी तस्वीरें मीडिया में छा गई थीं. अपने दूसरे इंटरव्यूज़ में वह लेदर की जैकेट, पीला जंपर और शॉल ओढ़े नजर आईं.
टीवी चैनलों पर उनका चेहरा दिखाया जा रहा था. उनका अपराध बताया जा रहा था और उसे संगठित सेक्स रैकेट की 'मलिका' बताया जा रहा था.
अभी अधूरी है सोनू की कहानी
सोनू पंजाबन की गिरफ्तारी भले ही दूसरे लोगों को ऐसे अपराधों से रोकने का काम करे. लेकिन पुलिस का मानना है कि इस तरह का सेक्स रैकेट चलाने वालों को अदालत तक लाकर सज़ा दिलाना काफ़ी मुश्किल काम है.
भीष्म सिंह कहते हैं अगर उस नाबालिग लड़की ने आगे बढ़ कर सोने के ख़िलाफ़ शिकायत न दर्ज कराई होती तो सोनू पंजाबन को पकड़ना मुश्किल होता.
सोनू पंजाबन से मैं जब मिली थी तो वह 31 साल की थीं. अब 40 साल की हो चुकी हैं. जेल से निकलते वक़्त वह 64 साल की हो चुकी होंगी. किसी को शायद ही वह याद रहेंगी. कुछ दिनों के बाद दुनिया ख़ुद में मसरूफ़ हो जाएगी.
फ़िलहाल सोनू की उसके जघन्य अपराधों के लिए भर्त्सना की गई है और उन्हें सभ्य समाज में रहने लायक नहीं बताया गया है. शायद उस दिन वह अपनी विज़िटर्स लिस्ट में मेरा नाम लिख देतीं तो हो सकता है कि मैं उनसे मिलकर उनका नज़रिया समझ पाती. यह जान पाती कि जिस महिला के बारे में इतनी बातें लिखी जा रही हैं, वह क्या सोचती-समझती है.
बहरहाल जब तक वह अपनी बात नहीं कहतीं तब तक यह कहानी मुकम्मल नहीं बनती. अभी तक पुलिस फ़ाइल में लिखीं बातें, उनके बारे में सुनाए जाने वाले वाक़ये, लोगों की धारणाएं और फ़ैसले ही इस कहानी का प्लॉट बने हुए हैं.
किसी भी सूरत में यह पूरी कहानी नहीं है. जब तक यह कहानी अधूरी है तब तक मुझे अपनी 2011 की नोटबुक में दर्ज उसकी बात याद आती रहेगी. सब-इंस्पेक्टर कैलाश चंद से उन्होंने कहा था, " मैं जो हूं उसका मेरे काम से कोई वास्ता नहीं है. मेरे कारोबार से मुझे नहीं आंका जा सकता." (bbc)
डॉ अजय खेमरिया
जय जय कमलनाथ के उद्घोष के बीच जब मप्र काँग्रेस के विधायकों ने कमलनाथ के नेतृत्व में आस्था व्यक्त की तो लगा कि मप्र की राजनीति में कमलनाथ एक नई ताकत बन बीजेपी का मुकाबला करेंगे। ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी छोडऩे के घटनाक्रम का एक पक्ष यह भी स्थापित करने का प्रयास किया गया कि सिंधिया से मुक्ति के बाद कैडर बेस कांग्रेस खड़ी हो सकेगी। सरकार गिरने के चार महीने बाद भी क्या मप्र में कांग्रेस की हालत बदल पाई है? यह सवाल इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि आने वाले मिनी विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस मैदान में कहीं नजर ही नही आ रही है। 22 विधायकों ने कमलनाथ का साथ छोड़ा था यह सिलसिला बीजेपी सरकार बनने के बाद थम जाना चाहिये था लेकिन इस दौरान तीन अन्य विधायक भी कांग्रेस छोडक़र बीजेपी का दामन पकड़ चुके है। खबर है कि मालवा और निमाड़ के करीब आठ से दस विधायक भी आने वाले समय में कांग्रेस छोड़ सकते है। यानी मप्र में कांग्रेस उपचुनाव की चुनौती को स्वीकार करने से पहले खुद के बचे हुए घर को महफूज करने की चुनौती से ज्यादा हलाकान है।
ध्यान से समझा जाये तो मप्र में कांग्रेस की इस हालत के लिए कमलनाथ खुद ही जिम्मेदार हैं। उनकी अपनी क्षमताओं और बढ़ती उम्र भी एक बड़ा कारक है। तथ्य यह है कि कमलनाथ मप्र के स्वाभाविक नेता है ही नही। वह आज भी दिल्ली दरबार के लिए फिट है जबकि राज्य की राजनीति के लिए अशोक गहलोत जैसे चपल और स्थानीय स्वीकार्यता वाले नेता ही सफल हो पाते है। खासकर मप्र जैसे राज्य जहाँ बीजेपी का संगठन देश भर में सबसे मजबूत और विस्तृत है और शिवराज सिंह जैसे ऊर्जावान नेता से किसी का मुकाबला हो तो 73 साल के कमलनाथ नैसर्गिक तौर पर भी मुकाबले में नही टिक सकते है। असल में मप्र कांग्रेस का अब संकट कमलनाथ ही हैं इसे निर्विवाद रूप से स्वीकार करना ही होगा। वे कभी उस स्वरूप में मप्र के नेता रहे ही नही है जैसा दिग्विजय सिंह, सिंधिया, अर्जुन सिंह अंदाज लगा सकते है कि कमलनाथ करीब 3 साल से मप्र कांग्रेस के अध्यक्ष है लेकिन 2018 का चुनाव जीतने तक वह मप्र के आधे जिलों में भी दोरे पर नहीं गए। सिंधिया के प्रभाव वाले आठ जिलों में तो वे एक बार भी नहीं आए। जब 2018 में वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आ गए तब भी पूर्व मुख्यमंत्री होने तक उन्होंने प्रदेश के किसी इलाके में जाने की जहमत नहीं उठाई। उनके बारे में कहा जाने लगा था कि कमलनाथ का प्लेन भोपाल, छिंदवाड़ा, दिल्ली के बीच ही उड़ता है। दूसरी तरफ शिवराज सिंह कुर्सी गंवाने के बाबजूद मप्र के मैदानी दौरों पर डटे रहे। यहां तक कि दिग्विजयसिंह भी पूरे प्रदेश में सरकार रहने तक घूमते रहे।इससे पहले वे नर्मदा परिक्रमा कर प्रदेश के मालवा, महाकौशल, निमाड़ और नर्मदांचल को पैदल नाप चुके थे। मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ शायद शिवराज सिंह की जनता के सीएम की छवि को खत्म करना चाहते थे वे मैदानी सीएम की जगह डीपी मिश्रा की तरह वल्लभ भवन से ही हुकूमत चलाने में भरोसा करने लगे।इसके लिए पार्टी संगठन या जनसंवाद के चैनल की जगह उन्होंने अपने निजी लोगों का सहारा लिया जो अंतत: उनकी सरकार पतन के एक महत्वपूर्ण कारक साबित हुए। यह भी तथ्य है कि कमलनाथ को मप्र में कांग्रेस के मैदानी कैडर की भी कोई समझ नहीं रहीं है यही कारण है कि सीएम हाउस के नजदीक दिग्विजय सिंह के बंगले पर प्रदेश भर के कांग्रेसीयों का जमघट लगा रहता था और आम कार्यकर्ता मुख्यमंत्री निवास जाने से कतराते थे। दिग्विजय सिंह जब कार्यकर्ताओं को सीएम से मिलने का परामर्श देते तो अधिकतर का जबाब यही होता था कि सीएम उन्हें पहचानते ही नही है। खासकर मालवा, विंध्य, मध्य भारत बैल्ट के लोगों के साथ यह समस्या थी।5 बार के विधायक और अब शिवराज सरकार में खाद्य मंत्री बिसाहूलाल सिंह ने कमलनाथ पर यही आरोप लगाया था कि वे विधायकों से मिलते नही है। चूंकि मप्र में पार्टी के चीफ भी कमलनाथ खुद ही थे इस कारण जनता और पार्टीगत नाराजगी का इनपुट आने का सिस्टम ही 15 साल बाद सत्ता में आई कांग्रेस सरकार ने विकसित ही नही किया। मंत्री विधायक एक दूसरे पर पैसा खाने, काम न करने के खुले आरोप लगाने लगे। यह एक मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ की नाकामी ही थी जो अंतत: उनके पतन का अहम कारण बनी। वैसे भी मप्र में कांग्रेस की सरकार कमलनाथ के चेहरे पर नही बनी थी बल्कि सभी क्षत्रपों ने अपने अपने इलाकों में अपने लोगों को टिकट बांटकर जीत के लिए जो दम लगाई उसका नतीजा थी। दूसरा पक्ष सवर्ण नाराजगी और कर्जमाफी थी जिसने बीजेपी के कोर वोटर को नाराज कर दिया था।
अब मप्र में कमलनाथ सरकार जा चुकी है और 27 सीटों पर उपचुनाव होना है पार्टी कमलनाथ और दिग्विजयसिंह के कबीलों में बंटती दिख रही है। कमलनाथ बगैर जमीनी पकड़ और मेहनत के केवल अपने पुराने बैकग्राउंड के बल पर मप्र को अपने कब्जे में करना चाहते है। उन्हें अब दिग्विजयसिंह से भी खतरा लगने लगा है इसीलिए उनके विरुद्ध भी राकेश चौधरी जैसे नेताओं को सार्वजनिक रूप आगे किया जा रहा है। नेता विपक्ष का पद भी कमलनाथ खुद संभाल रहे है जबकि स्वाभाविक दावा डॉ गोविंद सिंह और केपी सिंह जैसे 6 बार के विधायकों का है। ये सभी दावेदार दिग्विजय सिंह के समर्थक है। जाहिर है कमलनाथ मप्र में सिंधिया की तरह दिग्विजय सिंह और उनकी लॉबी को मजबूत नही होने देना चाहते है। अनौपचारिक रूप से वह सरकार के पतन के लिए दिग्विजय सिंह को जिम्मेदार भी बता चुके है लेकिन वह भूल गए कि अपने विधायकों पर नजर रखना और उन्हें सन्तुष्ट करना मुख्यमंत्री का काम होता है।अशोक गेहलोत इसका उदाहरण है। जाहिर कमलनाथ इस मोर्चे पर भी बुरी तरह नाकाम रहे हैं ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि करीब 60 फीसदी विधायकों से कमलनाथ का कोई पूर्व परिचय ही नही था, न टिकट वितरण, न उन्हें जिताने, न उनके लिए स्थानीय प्रबंधन में कमलनाथ की कोई भूमिका रही। मप्र के आधे जिले आज भी ऐसे है जहाँ कमलनाथ जीवन में कभी नहीं गए है। इन परिस्थितियों में अगर कमलनाथ डीपी मिश्रा की तर्ज पर मप्र की सरकार चलाने की कोशिशें कर रहे थे तब उसका पतन अवश्यंभावी ही था। आगामी उपचुनावों में कमलनाथ पार्टी के मुखिया के नाते बीजेपी और सिंधिया की तगड़ी चुनौती को कैसे पार पायेंगे? इस सवाल का जबाब बहुत कठिन नही है उनके मौजूदा वर्क कल्चर से समझा जा सकता है कि काँग्रेस भोपाल से ही मैदानी लड़ाई लडऩे वाली है। बीजेपी जहाँ दो महीने से ग्रासरूट पर फील्डिंग जमाने में जुटी है वहीं पूर्व मुख्यमंत्री और पीसीसी चीफ कांग्रेस के लड़ाकों को भोपाल बंगले पर तलब करते है। वहीं फोटो सेशन होता है और बयान जारी कर दिया जाता है कि बीजेपी केवल एक सीट जीतेगी। सवाल यह है कि भोपाल में बैठकर कमलनाथ कैसे उस सीएम और पार्टी से लड़ेंगे जो हमेशा ही इलेक्शन मोड़ में रहते है।
इसलिए मप्र का संकट तो फिलहाल कांग्रेस के लिए कमलनाथ का कल्चर ही बन गया है।
-प्रीति उपाध्याय
यह बहुत कॉमन है जब लोग हंसी-मज़ाक करने के लिए चुटकुले बनाते हैं पर जब चुटकुले साधारण हंसी मज़ाक जैसे विषयों से निकलकर कुछ गंभीर और दुखद विषयों पर खिसक जाते हैं तो ये न सिर्फ भयावह हो जाते हैं बल्कि दुखदायी भी सकते हैं। आपने अक्सर सुना होगा लोग सिक्खों (सरदारों) पर चुटकुले बनाते हैं| सबसे कॉमन तो पति-पत्नी पर केन्द्रित फ़ूहड़ चुटकुले हैं, जिसमें पत्नी को सारी मुश्किलों का जड़ बताकर उसका मजाक उड़ाया जाता है। पर आपने सुना है आजकल बलात्कार पर भी चुटकुले बन रहे हैं? जी हां यह बहुत कॉमन हो चला है लोग बलात्कार पर भी जोक्स बना रहे हैं।
पितृसत्तामक व्यवस्था में महिला को हमेशा वस्तु की तरह दिखाकर पुरुष से कमतर आंका जाता है| इसी तर्ज पर इसकी सामाजिक रचना गढ़ी गयी है और इसे तमाम विचारों, कहावतों, सांस्कृतिक गतिविधियों और चुटकुलों के माध्यम से गाहे-बगाहे जिंदा रखा जाता है| अक्सर कहा जाता है कि अगर किसी इंसान का व्यक्तित्व परखना होतो उसके मज़ाक को देखना चाहिए| वैसे तो हम अक्सर ये मानते हैं कि मज़ाक में इंसान ज्यादा सोचता-समझता नहीं है और मनोरंजन के नामपर कुछ भी कह-कर जाता है| लेकिन वास्तविकता इससे ठीक उलट है, इंसान जो वाकई में सोचता है, जिसे कहने-करने की हसरत हमेशा उसके दिल-दिमाग में दबी रहती है, मज़ाक में वो अपने उसी विचार को सामने लाता है|
पितृसत्तामक व्यवस्था में महिला को हमेशा वस्तु की तरह दिखाकर पुरुष से कमतर आंका जाता है|
इसलिए इस मज़ाक को हल्के में लेना कहीं से भी ठीक नहीं है| अब सवाल ये आता है कि अगर कोई महिला या पुरुष ऐसे मज़ाक करे या चुटकुले सुनाएँ तो हमें क्या करना चाहिए| ध्यान देने वाली बात ये है कि यहाँ हमारी प्रतिक्रिया क्या है या क्या होगी ये उस विचार के भविष्य के लिए बहुत मायने रखता है| विचार का भविष्य माने – उस चुटकुले को आगे भी किसी सामने सुनाया जाएगा या फिर उसका कड़ा विरोध करके उसे वहीं रोका जाएगा|
चूँकि मज़ाक में या चुटकुलों के ज़रिये कही गयी बातें हमारे मन में धीरे-धीरे अपनी पैठ जमाने और विचार बनाने का काम करते है, ऐसे में बेहद ज़रूरी है कि जब महिला हिंसा, बलात्कार, लैंगिक भेदभाव, धार्मिक द्वेष या किसी भी हिंसा से संबंधित विचार को हम किसी चुटकुले में सुनते हैं तो उसपर अपनी प्रतिक्रिया के माध्यम से अपना विरोध दर्ज करें, वो कैसे? आइये बताती हूँ –
अगर किसी इंसान का व्यक्तित्व परखना होतो उसके मज़ाक को देखना चाहिए|
चेहरे पर ऐसी कोई प्रतिक्रिया न लाएं जो दर्शाए कि यह फ़ूहड़ चुटकुले आपने पसंद किया हो| आपके फेस एक्सप्रेशन से ही सामने वाले को लग जाना चाहिए कि यह टेस्ट आपका या किसी अन्य सभ्य इंसान का नहीं हो सकता।
सामने वाले को समझाएं कि बलात्कार न सिर्फ महिला के शरीर के साथ होता है बल्कि एक बलात्कर उस महिला की आत्मा और अंतर्मन को भी जीवित नहीं छोड़ता। इसलिए आइंदा ऐसे जोक न सुनाएं और जो सुनाए उसे रोकें भी।
ऐसे जोक सुनाने वाले पुरुष को बताएं कि बलात्कार से पीड़ित सिर्फ महिलाएं ही नहीं होती उस महिला से जुड़ा हुआ हर इंसान होता है।
हो सकता है आपको देखने में ये बहुत छोटी पहल लगे, पर यकीन मानिए इन छोटी पहलों का प्रभाव बेहद ज्यादा होता है| क्योंकि हम जब बार-बार किसी बात को कहते हैं तो उसकी पैठ हमारे और सुनने वाले के दिमाग में बैठती जाती है, जिससे दुबारा कभी-भी वो अगर ऐसी बातें करता है या सुनता है तो आपका विरोध उसे हमेशा याद रहेगा और वो ऐसा कहने-सुनने से पहले दो बार सोचेगा| सौ बात की एक बात, जब बात किसी भी तरह की हिंसा से जुड़ी हो तो बिना देर लिए उसपर अपना विरोध दर्ज करवाना बेहद ज़रूरी है, फिर वो कोई विचार हो या | याद रखिये – अभी नहीं तो कभी नहीं| (hindi.feminisminindia)
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
-अजय
एक कहानी है, नहीं हकीकत है। बस, उसके तथ्य ऐसे हैं कि यह किसी परीकथा जैसी लगे, पर है सोलह आने सच।
बेशक थोड़ी लंबी है लेकिन हर प्रकृति प्रेमी के लिए ऐसी है कि वह इसे जीवनभर सहेज के रखना चाहेगा, सुनना और सुनाना चाहेगा। एक वन प्रेमी पदम्श्री जादव मोलाई पायेंग की कहानी है जिन पर बनी डॉक्यूमेंट्री कान फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई है।
‘ब्रह्मपुत्र’ नदी को ‘पूर्वोत्तर का अभिशाप’ भी कहा जाता है। इसका कारण है कि जब यह असम तक पहुँचती है तो अपने साथ लंबी दूरी से बहाकर लाई हुई मिटटी, रेत और पहाड़ी, पथरीले अवशेष विशाल मलबे के रूप में लाती है, जिससे नदी की गहराई अपेक्षाकृत कम हो चौड़ाई में फैल किनारे के गाँवों को प्रभावित करती है। मानसून में इसके चौड़े पाट हर वर्ष पेड़-पौधों, हरियाली और गाँवों को अपने संग बहा ले जाते हैं। हर बरसात की यही कहानी है।
वर्ष 1979 में जादव 10वीं परीक्षा देने के बाद अपने गाँव में ब्रह्मपुत्र नदी के बाढ़ का पानी उतरने पर इसके बरसाती भीगे रेतीले तट पर घूम रहे थे। तभी उनकी दृष्टि लगभग 100 मृत साँपों के झुंड पर पड़ी। जैसे उन सांपों ने जीवन बचाने का संघर्ष अंत तक किया हो। आगे बढ़ते गए तो पूरा नदी का किनारा मरे हुए जीव-जन्तुओं से अटा पड़ा एक मरघट-सा था। मृत जानवरों के कारण पैर रखने की जगह नहीं थी। इस दर्दनाक दृश्य ने जाधव के किशोर मन को झकझोर दिया। रातों की नींद उड़ गई।
गाँव के ही एक आदमी ने जादव से कहा- जब पेड़-पौधे ही नहीं उग रहे हैं तो नदी के रेतीले तटों पर जानवरों को बाढ़ से बचने आश्रय कहाँ मिले? जंगलों के बिना इन्हें भोजन कैसे मिले?
बात मन में पत्थर की लकीर बन गई कि जानवरों को बचाने के लिये पेड़-पौधे लगाने होंगे। 50 बीज और 25 बाँस के पेड़ लिए 16 वर्ष के जादव पहुँच गए नदी के रेतीले किनारे पर रोपने। ये आज से 35 वर्ष पुरानी बात है। उस दिन का दिन था और आज का दिन। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इन 35 वर्षों में जाधव ने 1360 एकड़ का जंगल बिना किसी सरकारी सहायता के लगा डाला?
क्या आप भरोसा करेंगे के एक अकेले आदमी के लगाये जंगल में 5 बंगाल टाइगर, 100 से ज्यादा हिरन, जंगली सुअर, 150 जंगली हाथियों का झुण्ड, गेंडे और अनेक जंगली पशु घूम रहे हैं? अरे हाँ! वे साँप भी जिन्होंने इस अद्भुत नायक को जन्म दिया।
जंगलों का क्षेत्रफल बढ़ाने सुबह 9 बजे से 5 किलोमीटर साईकल से जाने के बाद, नदी पार करते और दूसरी तरफ वृक्षारोपण कर फिर साँझ ढले नदी पारकर साइकिल 5 किलोमीटर तय कर घर पहुँचते।
इनके लगाए पेड़ों में कटहल, गुलमोहर, अन्नानास, बाँस, साल, सागौन, सीताफल, आम, बरगद, शहतूत, जामुन, आडू और कई औषधीय पौधे हैं। परन्तु सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि इस साधक से 2012 तक देश अनजान था। यह लौहपुरुष अपने धुन में अकेला असम के जंगलों में साईकल में पौधों से भरा एक थैला लिए अपने बनाए जंगल में गुमनाम सफर कर रहा था।
सबसे पहले वर्ष 2010 में देश की दृष्टि में आये जब Wild photographer जीतू कलिता ने इन पर documentary film बनाई The Molai Forest. यह film देश के नामी विश्वविद्यालयों में दिखाई गई। दूसरी फिल्म आरती श्रीवास्तव की 'Foresting Life' जिसमें जाधव के जीवन के अनछुए पहलुओं और परेशानियों को दिखाया। तीसरी फिल्म ‘Forest Man’ जो कान फिल्म महोत्सव में भी काफी सराही गई।
एक अकेला व्यक्ति वन विभाग की सहायता के बिना, किसी सरकारी आर्थिक सहायता के बिना इतने पिछड़े इलाके से कि जिसके पास पहचान पत्र के रूप में राशन कार्ड तक नहीं है, ने हज़ारों एकड़ में फैला पूरा जंगल खड़ा कर दिया। असम के इन जंगलों को ‘मिशिंग जंगल’ कहते हैं (जाधव असम की मिशिंग जनजाति से हैं)।
जीवनयापन करने के लिए इन्होंने गाय पाल रखी हैं। शेरों द्वारा आजीविका के साधन उनके पालतू पशुओं को खा जाने के बाद भी जंगली जानवरों के प्रति इनकी करुणा कम न हुई। शेरों ने मेरा नुकसान किया क्योंकि वो अपनी भूख मिटाने के लिए खेती करना नहीं जानते।
आप जंगल नष्ट करोगे वो आपको नष्ट करेंगे। 2015 में महामहिम राष्ट्रपति ने ‘पद्मश्री’ से अलंकृत होनेवाले जाधव आज भी असम में बाँस के बने एक कमरे के छोटे-से कच्चे झोपड़े में अपनी पुरानी में दिनचर्या लीन हैं। तमाम सरकारी प्रयासों, वृक्षारोपण के नाम पर लाखो रुपये के पौधों की खरीदी करके भी ये पर्यावरण, वन-विभाग वो स्थान प्राप्त न कर पाये जो एक अकेले की इच्छाशक्ति ने कर दिखाया। सायकल पर जंगली पगडण्डियों में पौधों से भरे झोले और कुदाल के साथ हरी-भरी प्रकृति की अनवरत साधना में ये निस्वार्थ पुजारी।
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, कहावत को जादव मोलाई पायेंग जी ने गलत सिद्ध कर दिया। पर्यावरण के लिए असीम स्नेह रखने वाले इस भारत माँ के लाल के से अपने बच्चों, अपने मित्रों को भी परिचित कराने की ज़रूरत है।
है न!
जानकारियां और pics इंटरनेट से निकाले गए हैं जिन्हें क्रॉस चेक किया जा सकता है।
-रेहान फ़ज़ल
21 साल पहले कारगिल की पहाड़ियों पर भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाई हुई थी. इस लड़ाई की शुरुआत तब हुई थी जब पाकिस्तानी सैनिकों ने कारगिल की ऊँची पहाड़ियों पर घुसपैठ करके अपने ठिकाने बना लिए थे.
8 मई, 1999. पाकिस्तान की 6 नॉरदर्न लाइट इंफ़ैंट्री के कैप्टेन इफ़्तेख़ार और लांस हवलदार अब्दुल हकीम 12 सैनिकों के साथ कारगिल की आज़म चौकी पर बैठे हुए थे. उन्होंने देखा कि कुछ भारतीय चरवाहे कुछ दूरी पर अपने मवेशियों को चरा रहे थे.
पाकिस्तानी सैनिकों ने आपस में सलाह की कि क्या इन चरवाहों को बंदी बना लिया जाए? किसी ने कहा कि अगर उन्हें बंदी बनाया जाता है, तो वो उनका राशन खा जाएंगे जो कि ख़ुद उनके लिए भी काफ़ी नहीं है. उन्हें वापस जाने दिया गया. क़रीब डेढ़ घंटे बाद ये चरवाहे भारतीय सेना के 6-7 जवानों के साथ वहाँ वापस लौटे.
भारतीय सैनिकों ने अपनी दूरबीनों से इलाक़े का मुआयना किया और वापस चले गए. क़रीब 2 बजे वहाँ एक लामा हेलिकॉप्टर उड़ता हुआ आया.
इतना नीचे कि कैप्टेन इफ़्तेख़ार को पायलट का बैज तक साफ़ दिखाई दे रहा था. ये पहला मौक़ा था जब भारतीय सैनिकों को भनक पड़ी कि बहुत सारे पाकिस्तानी सैनिकों ने कारगिल की पहाड़ियों की ऊँचाइयों पर क़ब्ज़ा जमा लिया है.
कारगिल पर मशहूर किताब 'विटनेस टू ब्लंडर- कारगिल स्टोरी अनफ़ोल्ड्स' लिखने वाले पाकिस्तानी सेना के रिटायर्ड कर्नल अशफ़ाक़ हुसैन ने बीबीसी को बताया, "मेरी ख़ुद कैप्टेन इफ़्तेख़ार से बात हुई है. उन्होंने मुझे बताया कि अगले दिन फिर भारतीय सेना के लामा हेलिकॉप्टर वहाँ पहुंचे और उन्होंने आज़म, तारिक़ और तशफ़ीन चौकियों पर जम कर गोलियाँ चलाईं. कैप्टेन इफ़्तेख़ार ने बटालियन मुख्यालय से भारतीय हेलिकॉप्टरों पर गोली चलाने की अनुमति माँगी लेकिन उन्हें ये इजाज़त नहीं दी गई, क्योंकि इससे भारतीयों के लिए 'सरप्राइज़ एलिमेंट' ख़त्म हो जाएगा."
भारत के राजनीतिक नेतृत्व को भनक नहीं
उधर भारतीय सैनिक अधिकारयों को ये तो आभास हो गया कि पाकिस्तान की तरफ़ से भारतीय क्षेत्र में बड़ी घुसपैठ हुई है लेकिन उन्होंने समझा कि इसे वो अपने स्तर पर सुलझा लेंगे. इसलिए उन्होंने इसे राजनीतिक नेतृत्व को बताने की ज़रूरत नहीं समझी.
कभी इंडियन एक्सप्रेस के रक्षा मामलों के संवाददाता रहे जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह याद करते हैं, "मेरे एक मित्र उस समय सेना मुख्यालय में काम किया करते थे. फ़ोन करके कहा कि वो मुझसे मिलना चाहते हैं. मैं उनके घर गया. उन्होंने मुझे बताया कि सीमा पर कुछ गड़बड़ है क्योंकि पूरी पलटन को हेलिकॉप्टर के माध्यम से किसी मुश्किल जगह पर भेजा गया है किसी घुसपैठ से निपटने के लिए. सुबह मैंने पापा को उनको सारी बात बताई उन्होंने तब के रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडिस को फ़ोन किया. वे अगले दिन रूस जाने वाले थे. उन्होंने अपनी यात्रा रद्द की और इस सरकार को घुसपैठ के बारे में पहली बार पता चला."
मक़सद था सियाचिन से भारत को अलग-थलग करना
दिलचस्प बात ये थी कि उस समय भारतीय सेना के प्रमुख जनरल वेदप्रकाश मलिक भी पोलैंड और चेक गणराज्य की यात्रा पर गए हुए थे. वहाँ उनको इसकी पहली ख़बर सैनिक अधिकारियों से नहीं, बल्कि वहाँ के भारतीय राजदूत के ज़रिए मिली.
सवाल उठता है कि लाहौर शिखर सम्मेलन के बाद पाकिस्तानी सैनिकों के इस तरह गुपचुप तरीक़े से कारगिल की पहाड़ियों पर जा बैठने का मक़सद क्या था?
इंडियन एक्सप्रेस के एसोसिएट एडिटर सुशांत सिंह कहते हैं, "मक़सद यही था कि भारत की सुदूर उत्तर की जो टिप है जहाँ पर सियाचिन ग्लेशियर की लाइफ़ लाइन एनएच 1 डी को किसी तरह काट कर उस पर नियंत्रण किया जाए. वो उन पहाड़ियों पर आना चाहते थे जहाँ से वो लद्दाख़ की ओर जाने वाली रसद के जाने वाले क़ाफ़िलों की आवाजाही को रोक दें और भारत को मजबूर हो कर सियाचिन छोड़ना पड़े."
सुशांत सिंह का मानना है कि मुशर्रफ़ को ये बात बहुत बुरी लगी थी कि भारत ने 1984 में सियाचिन पर क़ब्ज़ा कर लिया था. उस समय वो पाकिस्तान की कमांडो फ़ोर्स में मेजर हुआ करते थे. उन्होंने कई बार उस जगह को ख़ाली करवाने की कोशिश की थी लेकिन वो सफल नहीं हो पाए थे.
जब दिलीप कुमार ने नवाज़ शरीफ़ को लताड़ा
जब भारतीय नेतृत्व को मामले की गंभीरता का पता चला तो उनके पैरों तले ज़मीन निकल गई. भारतीय प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को फ़ोन मिलाया.
पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री ख़ुर्शीद महमूद कसूरी अपनी आत्मकथा 'नीदर अ हॉक नॉर अ डव' में लिखते हैं, "वाजपेयी ने शरीफ़ से शिकायत की कि आपने मेरे साथ बहुत बुरा सलूक किया है. एक तरफ़ आप लाहौर में मुझसे गले मिल रहे थे, दूसरी तरफ़ आप के लोग कारगिल की पहाड़ियों पर क़ब्ज़ा कर रहे थे. नवाज़ शरीफ़ ने कहा कि उन्हें इस बात की बिल्कुल भी जानकारी नहीं है. मैं परवेज़ मुशर्रफ़ से बात कर आपको वापस फ़ोन मिलाता हूँ. तभी वाजपेयी ने कहा आप एक साहब से बात करें जो मेरे बग़ल में बैठे हुए हैं."
नवाज़ शरीफ़ उस समय सकते में आ गए जब उन्होंने फ़ोन पर मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार की आवाज़ सुनी. दिलीप कुमार ने उनसे कहा, "मियाँ साहब, हमें आपसे इसकी उम्मीद नहीं थी क्योंकि आपने हमेशा भारत और पाकिस्तान के बीच अमन की बात की है. मैं आपको बता दूँ कि जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ता है, भारतीय मुसलमान बुरी तरह से असुरक्षित महसूस करने लगते हैं और उनके लिए अपने घर से बाहर निकलना भी मुहाल हो जाता है."
रॉ को दूर-दूर तक हवा नहीं
सबसे ताज्जुब की बात थी कि भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों को इतने बड़े ऑपरेशन की हवा तक नहीं लगी.
भारत के पूर्व उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाकार, पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त और बाद में बनाई गई कारगिल जाँच समिति के सदस्य सतीश चंद्रा बताते हैं, "रॉ इसको बिल्कुल भी भांप नहीं पाया. पर सवाल खड़ा होता है कि क्या वो इसे भाँप सकते थे? पाकिस्तानियों ने कोई अतिरिक्त बल नहीं मंगवाया. रॉ को इसका पता तब चलता जब पाकिस्तानी अपने 'फ़ॉरमेशंस' को आगे तैनाती के लिए बढ़ाते."
सामरिक रूप से पाकिस्तान का ज़बरदस्त प्लान
इस स्थिति का जिस तरह से भारतीय सेना ने सामना किया उसकी कई हल्क़ों में आलोचना हुई. पूर्व लेफ़्टिनेंट जनरल हरचरणजीत सिंह पनाग जो बाद में कारगिल में तैनात भी रहे, वे कहते हैं, "मैं कहूँगा कि ये पाकिस्तानियों का बहुत ज़बरदस्त प्लान था कि उन्होंने आगे बढ़कर ख़ाली पड़े बहुत बड़े इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर लिया. वो लेह कारगिल सड़क पर पूरी तरह से हावी हो गए. ये उनकी बहुत बड़ी कामयाबी थी."
लेफ़्टिनेंट पनाग कहते हैं, "3 मई से लेकर जून के पहले हफ़्ते तक हमारी सेना का प्रदर्शन 'बिलो पार' यानी सामान्य से नीचे था. मैं तो यहाँ तक कहूंगा कि पहले एक महीने हमारा प्रदर्शन शर्मनाक था. उसके बाद जब 8वीं डिवीजन ने चार्ज लिया और हमें इस बात का एहसास होने लगा कि उस इलाक़े में कैसे काम करना है, तब जाकर हालात सुधरना शुरू हुए. निश्चित रूप से ये बहुत मुश्किल ऑपरेशन था क्योंकि एक तो पहाड़ियों में आप नीचे थे और वो ऊँचाइयों पर थे."
पनाग हालत को कुछ इस तरह समझाते हैं, "ये उसी तरह हुआ कि आदमी सीढ़ियों पर चढ़ा हुआ है और आप नीचे से चढ़ कर उसे उतारने की कोशिश कर रहे हो. दूसरी दिक़्क़त थी उस ऊंचाई पर ऑक्सीजन की कमी. तीसरी बात ये थी कि आक्रामक पर्वतीय लड़ाई में हमारी ट्रेनिंग भी कमज़ोर थी."
क्या कहते हैं जनरल मुशर्रफ़
जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने भी बार-बार दोहराया कि उनकी नज़र में ये बहुत अच्छा प्लान था, जिसने भारतीय सेना को ख़ासी मुश्किल में डाल दिया था.
मुशर्रफ़ ने अपनी आत्मकथा 'इन द लाइन ऑफ़ फ़ायर' में लिखा, "भारत ने इन चौकियों पर पूरी ब्रिगेड से हमले किए, जहाँ हमारे सिर्फ़ आठ या नौ सिपाही तैनात थे. जून के मध्य तक उन्हें कोई ख़ास सफलता नहीं मिली. भारतीयों ने ख़ुद माना कि उनके 600 से अधिक सैनिक मारे गए और 1500 से अधिक ज़ख़्मी हुए. हमारी जानकारी ये है कि असली संख्या लगभग इसकी दोगुनी थी. असल में भारत में हताहतों की बहुत बड़ी तादाद के कारण ताबूतों की कमी पड़ गई थी और बाद में ताबूतों का एक घोटाला भी सामने आया था."
तोलोलिंग पर क़ब्ज़े ने पलटी बाज़ी
जून का दूसरा हफ़्ता ख़त्म होते होते चीज़ें भारतीय सेना के नियंत्रण में आने लगी थीं. मैंने उस समय भारतीय सेना के प्रमुख जनरल वेद प्रकाश मलिक से पूछा कि इस लड़ाई का निर्णायक मोड़ क्या था? मलिक का जवाब था 'तोलोलिंग पर जीत. वो पहला हमला था जिसे हमने को-ऑरडिनेट किया था. ये बहुत बड़ी सफलता थी हमारी. चार-पाँच दिन तक ये लड़ाई चली. ये लड़ाई इतनी नज़दीक से लड़ी गई कि दोनों तरफ़ के सैनिक एक दूसरे को गालियाँ दे रहे थे और वो दोनों पक्षों के सैनिकों को सुनाई भी दे रही थी."
जनरल मलिक कहते हैं, "हमें इसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी. हमारी बहुत कैजुएल्टीज़ हुईं. छह दिनों तक हमें भी घबराहट-सी थी कि क्या होने जा रहा है लेकिन जब वहाँ जीत मिली तो हमें अपने सैनिकों और अफ़सरों पर भरोसा हो गया कि हम इन्हें क़ाबू में कर लेंगे."
कारगिल पर एक पाकिस्तानी जवान को हटाने के लिए चाहिए थे 27 जवान
ये लड़ाई क़रीब 100 किलोमीटर के दायरे में लड़ी गई जहाँ क़रीब 1700 पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सीमा के क़रीब 8 या 9 किलोमीटर अंदर घुस आए. इस पूरे ऑपरेशन में भारत के 527 सैनिक मारे गए और 1363 जवान आहत हुए.
वरिष्ठ पत्रकार सुशांत सिंह बताते हैं, "फ़ौज में एक कहावत होती है कि 'माउंटेन ईट्स ट्रूप्स,' यानी पहाड़ सेना को खा जाते हैं. अगर ज़मीन पर लड़ाई हो रही हो तो आक्रामक फ़ौज को रक्षक फ़ौज का कम से कम तीन गुना होना चाहिए. पर पहाड़ों में ये संख्या कम से कम नौ गुनी और कारगिल में तो सत्ताइस गुनी होनी चाहिए. मतलब अगर वहाँ दुश्मन का एक जवान बैठा हुआ है तो उसको हटाने के लिए आपको 27 जवान भेजने होंगे. भारत ने पहले उन्हें हटाने के लिए पूरी डिवीजन लगाई और फिर अतिरिक्त बटालियंस को बहुत कम नोटिस पर इस अभियान में झोंका गया."
पाकिस्तानियों ने गिराए भारत के दो जेट और एक हेलिकॉप्टर
मुशर्रफ़ आख़िर तक कहते रहे कि अगर पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व ने उनका साथ दिया होता तो कहानी कुछ और होती.
उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा, "भारत ने अपनी वायु सेना को शामिल कर एक तरह से 'ओवर-रिएक्ट' किया. उसकी कार्रवाई मुजाहिदीनों के ठिकानों तक ही सीमित नहीं रही, उन्होंने सीमा पार कर पाकिस्तानी सेना के ठिकानों पर भी बम गिराने शुरू कर दिए. नतीजा ये हुआ कि हमने पाकिस्तानी ज़मीन पर उनका एक हेलिकॉप्टर और दो जेट विमान मार गिराए."
भारतीय वायु सेना और बोफ़ोर्स तोपों ने बदला लड़ाई का रुख़
ये सही है कि शुरू में भारत को अपने दो मिग विमान और हेलिकॉप्टर खोने पड़े लेकिन भारतीय वायु सेना और बोफ़ोर्स तोपों ने बार-बार और बुरी तरह से पाकिस्तानी ठिकानों को 'हिट' किया.
नसीम ज़ेहरा अपनी किताब 'फ़्रॉम कारगिल टू द कू' में लिखती हैं कि 'ये हमले इतने भयानक और सटीक थे कि उन्होंने पाकिस्तानी चौकियों का 'चूरा' बना दिया. पाकिस्तानी सैनिक बिना किसी रसद के लड़ रहे थे और बंदूक़ों का ढंग से रख-रखाव न होने की वजह से वो बस एक छड़ी बन कर रह गई थीं."
भारतीयों ने ख़ुद स्वीकार किया किया कि एक छोटे-से इलाक़े पर सैकड़ों तोपों की गोलेबारी उसी तरह थी जैसे किसी अख़रोट को किसी बड़े हथौड़े से तोड़ा जा रहा हो.' कारगिल लड़ाई में कमांडर रहे लेफ़्टिनेंट जनरल मोहिंदर पुरी का मानना है कि कारगिल में वायु सेना की सबसे बड़ी भूमिका मनोवैज्ञानिक थी. जैसे ही ऊपर से भारतीय जेटों की आवाज़ सुनाई पड़ती, पाकिस्तानी सैनिक दहल जाते और इधर-उधर भागने लगते.
क्लिन्टन की नवाज़ शरीफ़ से दो टूक
जून के दूसरे सप्ताह से भारतीय सैनिकों को जो 'मोमेनटम' मिला, वो जुलाई के अंत तक जारी रहा. आख़िरकार नवाज़ शरीफ़ को युद्ध विराम के लिए अमरीका की शरण में जाना पड़ा. अमरीका के स्वतंत्रता दिवस यानी 4 जुलाई, 1999 के शरीफ़ के अनुरोध पर क्लिन्टन और उनकी बहुत अप्रिय परिस्थितियों में मुलाक़ात हुई.
उस मुलाक़ात में मौजूद क्लिन्टन के दक्षिण एशियाई मामलों के सहयोगी ब्रूस राइडिल ने अपने एक पेपर 'अमरिकाज़ डिप्लोमेसी एंड 1999 कारगिल समिट' में लिखा, 'एक मौक़ा ऐसा आया जब नवाज़ ने क्लिन्टन से कहा कि वो उनसे अकेले में मिलना चाहते हैं. क्लिन्टन ने रुखेपन से कहा ये संभव नहीं है. ब्रूस यहाँ नोट्स ले रहे हैं. मैं चाहता हूँ कि इस बैठक में हमारे बीच जो बातचीत हो रही है, उसका दस्तावेज़ के तौर पर रिकॉर्ड रखा जाए."
राइडिल ने अपने पेपर में लिखा है, "क्लिन्टन ने कहा मैंने आपसे पहले ही कहा था कि अगर आप बिना शर्त अपने सैनिक नहीं हटाना चाहते, तो यहाँ न आएं. अगर आप ऐसा नहीं करते तो मेरे पास एक बयान का मसौदा पहले से ही तैयार है जिसमें कारगिल संकट के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ पाकिस्तान को ही दोषी ठहराया जाएगा. ये सुनते ही नवाज़ शरीफ़ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी थीं."
उस पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य तारिक फ़ातिमी ने 'फ़्रॉम कारगिल टू कू' पुस्तक की लेखिका नसीम ज़ेहरा को बताया कि 'जब शरीफ़ क्लिन्टन से मिल कर बाहर निकले तो उनका चेहरा निचुड़ चुका था. उनकी बातों से हमें लगा कि उनमें विरोध करने की कोई ताक़त नहीं बची थी.' उधर शरीफ़ क्लिन्टन से बात कर रहे थे, टीवी पर टाइगर हिल पर भारत के क़ब्ज़े की ख़बर 'फ़्लैश' हो रही थी.
ब्रेक के दौरान नवाज़ शरीफ़ ने मुशर्रफ़ को फ़ोन कर पूछा कि क्या ये ख़बर सही है? मुशर्रफ़ ने इसका खंडन नहीं किया.(bbc)
-अनुराग भारद्वाज
कारगिल की जंग देश की सेना के अफ़सरों और जवानों के अदम्य साहस की दास्तां है. एक तरफ यह स्क्वैड्रन लीडर अजय आहूजा, लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया, कैप्टेन विक्रम बत्रा, लेफ्टिनेंट हनीफउद्दीन, हवलदार अब्दुल करीम, और राइफलमैन संजय कुमार जैसे जाबाज़ सैनिकों के बलिदान की गाथा है तो दूसरी ओर यह राजनैतिक भूल, विश्वासघात और खुफिया व्यवस्था के विफल होने की कीमत भी है.
कुल मिलाकर देखा जाए तो यह भी कहा जा सकता है कि कारगिल की लड़ाई पूरे सिस्टम की चूक का नतीजा थी. आइए, अलग-अलग स्रोतों के हवाले से इस जंग से जुड़े पूरे घटनाक्रम पर नजर डालते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि स्थितियां यहां तक कैसे पहुंचीं.
शुरुआत
तीन मई, 1999 की बात है. कश्मीर के बटालिक में ताशी नमगयाल और त्सेरिंग मोरूप नाम के दो गड़रियों ने काली सलवार कमीज़ पहने कई लोगों को बर्फीले इलाकों में इस्तेमाल की जाने वाली सफ़ेद जैकेट पहने पहाड़ों पर चढ़ते देखा. लंबी दाढ़ी वाले इन लोगों के हाव-भाव कुछ अलग थे. सेना के मुखबिर दोनों गड़रियों ने जाकर हिंदुस्तानी फौजी अफसरों को खबर पहुंचा दी. अफसरों ने सुना और बात आगे बढ़ा दी.
बात छुपाई गई
इसके दो दिन बाद लेफ्टिनेंट जनरल निर्मल चंद्र विज, जो डायरेक्टर जनरल (मिलिट्री ऑपरेशंस) के महत्वपूर्ण पद पर काम कर रहे थे, कारगिल गए. वे वहां तैनात जनरल ऑफिसर कमांडिंग मेजर जनरल वीएस बधवार और कारगिल ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर सुरिंदर सिंह से मिले. काले-सलवार कमीज़ पहने लोगों की बात उन्हें नहीं बताई गयी.
सेना प्रमुख वीपी मलिक का विदेशी दौरा
10 मई को तत्कालीन सेनाध्यक्ष वीपी मलिक पोलैंड और चेक गणराज्य के दौरे पर निकल गए. कारण था वहां की कंपनियों के साथ सेना को गोला-बारूद की आपूर्ति के लिए करार. इधर, बटालिक, मुश्कोह और द्रास में हलचल बढ़ गई थी. लेकिन बताते हैं कि जब हर शाम वे खोज-खबर लेने के लिए फ़ोन करते तो उन्हें सब-कुछ ठीक-ठाक होने या छुटपुट वारदात की बात ही बताई जाती.
जब लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और जवान वापस नहीं लौटे
लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और उनकी यूनिट के छह जवान काकसार पहाड़ों पर गश्त करने निकले थे. वे वापस नहीं आये तो खोज-खबर हुई. काफ़ी दिनों तक तो देश को यही बताया गया कि पाकिस्तान की तरफ से छुटपुट गोलाबारी हो रही है और उसका माकूल जवाब दिया जा रहा है. बाद में सौरभ कालिया और जवानों के क्षत-विक्षत शव लौटाए गए.
रक्षा मंत्री का दौरा
तब तक रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस को कुछ-कुछ आभास होने लगा था. वे कारगिल दौरे पर चले गए. इसके बाद उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेंस करके ऐलान किया, ‘हां, कुछ 100-150 आतंकवादी घुस आये हैं. उन्हें 48 घंटों में बाहर निकाल दिया जाएगा.’
इस पूरी जंग को देखने वाले इंडियन एक्सप्रेस के गौरव सावंत ने इस पर ‘डेटलाइन कारगिल’ नाम से किताब भी लिखी है. सावंत के मुताबिक उन्होंने कमांड के अफ़सरों से पूछा कि 48 घंटों में आतंकवादियों को निकाल बाहर करने की घोषणा फर्नांडिस साहब ने की थी, उसका क्या हुआ? उन्हें जवाब मिला, ‘हमने फर्नांडिस से ये कहा था कि कारगिल में सही हालात का जायज़ा 48 घंटे बाद ही मिल पायेगा.’
तो सही स्थिति का पता कब चला?
नीचे से बैठकर और ख़राब मौसम की वजह से ऊपर की चोटियों का सही आकलन नहीं हो पा रहा था. 17 मई को चोटियों का पहला हवाई सर्वेक्षण किया गया. 21 मई को जब दूसरा हवाई जहाज द्रास, कारगिल और बटालिक की चोटियों की सही स्थिति जानने के लिए गया तो वहां उस पर स्टिंगर मिसाइल से हमला हुआ. पायलट ए पेरूमल दुर्घटनाग्रस्त जहाज को सकुशल वापस ले आये और आकर उन्होंने वहां के हालात बताए. तब जाकर मालूम हुआ कि वो ‘काली सलवार वाले’ पूरे लाव-लश्कर से साथ एक-एक चोटी पर मजबूती से बैठे हैं और उनकी संख्या 100-150 की नहीं बल्कि पूरी-पूरी आर्मी यूनिट जैसी है!
ऑपरेशन विजय की शुरुआत और जीत के साथ खात्मा
जनरल मलिक 21 मई को भारत वापस आये. वे लाहौर समझौते को अपनी जीत मानने वाले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिले. सेना के मुखिया ने प्रधानमंत्री को बताया कि उनकी पीठ पर छुरा घोंप दिया गया है. 26 मई, 1999 को सेना ने ‘ऑपरेशन विजय’ और एयर फ़ोर्स ने ‘ऑपरेशन सफ़ेद सागर’ शुरू किया. ठीक दो महीने बाद यानी 26 जुलाई को यह भारतीय सेना की जीत के साथ खत्म हुआ.
पहाड़ की लड़ाई में फ़ायदा उसे मिलता है जो ऊपर बैठा होता है, पर कई मौकों पर जीत उसकी होती है जो नीचे है क्योंकि नीचे वाली सेना अपने साज़ो-सामान को आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जा सकती है. अंततः जीत भारत की हुई थी, लेकिन नुकसान भी हमारा ज़्यादा हुआ था. कारगिल में सेना के कुल 34 अफसर और 493 जवान शहीद हुए और 1363 घायल. आर्थिक तौर देश को लगभग दो हज़ार करोड़ की चपत लगी थी.
खुफिया तंत्र की विफलता
कारगिल की जंग खुफिया तंत्र की विफलता भी थी. मिलिट्री इंटेलिजेंस यूनिट और रॉ जैसी पेशेवर संस्थाएं पाकिस्तानी हलचल को भांप नहीं पाई थीं.अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन ने कारगिल पर भारतीय सेना के रिटायर्ड अफ़सर सुरेंद्र राणा और अमेरिका के नौसेना पोस्टग्रेजुएट स्कूल के जेम्स जे विर्त्ज़ द्वारा तैयार एक रिपोर्ट पेश की थी. यह इस बात का इशारा करती है कि कारगिल भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र की विफलता का नतीजा था. रिपोर्ट में लिखा है कि रॉ जैसी संस्था का भारतीय सेना के प्रति उदासीन रवैया है. यह भी कि जो रिपोर्ट रॉ के अफसर भेजते हैं वह अक्सर स्तरीय नहीं होती और उसके अफसर सेना के अफसरों के साथ तालमेल नहीं रखते. रिपोर्ट में यह भी लिखा गया है कि देश का ख़ुफ़िया तंत्र अपारदर्शिता और आपसी तालमेल की कमी जैसी कई समस्याओं से जूझ रहा है.
रॉ ने कारगिल की जिम्मेदरी से साफ पल्ला झाड़ लिया था. उसके अफ़सरों ने दलील दी थी कि संस्था का काम रणनीतिक जानकारियां देना था और सामरिक जानकारी तो मिलिट्री इंटेलिजेंस को जुटानी थी. जो भी हो, दोनों संस्थाओं की मिली-जुली चूक देश पर भारी पड़ी.
राजनैतिक पहलू
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अप्रैल 1999 की गई लाहौर यात्रा और इस दौरान हुए समझौते की झोंक में राजनेता समझ ही नहीं पाए कि पाकिस्तान उलटी चाल भी चल सकता है. वे इस घुसपैठ को कश्मीरी जेहादियों की समस्या मानकर ही देख रहे थे.
सेना के अफ़सरों की चूक
गड़रियों की खबर को संजीदगी से नहीं लिया गया था. ब्रिगेडियर सुरिंदर सिंह, मेजर जनरल वीएस बधवार और लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल, तीनों के बीच में आपसी तालमेल और विश्वास की कमी भी रही. जिस ब्रिगेडियर की एसीआर में बधवार साहब ने तारीफों के पुल बांधे थे उसी ब्रिगेडियर पर उन्होंने इस हादसे का ठीकरा यह कहकर फोड़ दिया कि उन्होंने सीमा पर गश्त में ढिलाई बरती. उनका यह भी कहना था कि ब्रिगेडियर ने उन्हें गड़रियों वाली कोई जानकारी नहीं दी.
उधर, ब्रिगेडियर सुरिंदर सिंह का कहना था कि उन्होंने कारगिल में पाकिस्तान की बढती गतिविधि की जानकारी मेजर जनरल बधवार को बार-बार दी. और यह भी कि उन्होंने ज़्यादा फ़ोर्स और सीमा पर बेहतर निगरानी के साज़ो-सामान मांगे थे जो कमांड ने नहीं दिए.
पाकिस्तान ने यह दुस्साहस क्यों किया
भारत-पाकिस्तान में एक अलिखित समझौता था कि सर्दियों में पहाड़ों से अपने-अपने सैनिक वापस बुला लिए जाएंगे और जब गर्मियां शुरु होंगी तो फिर अपनी-अपनी चौकी स्थापित कर ली जायेगी. पाकिस्तान ने इसमें वादा खिलाफी की. सर्दियों में जब भारतीय सेना वहां पर नहीं थी, उसने अपने सैनिक भेजकर हर एक चोटी पर कब्ज़ा कर लिया था. चूंकि उन चोटियों से लेह और लद्दाख जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर सीधा हमला बोला जा सकता था, पाकिस्तानी सेना ने प्लान बनाया कि इससे वह देश का लद्दाख से संपर्क तोड़ देगी और फिर इसके ज़रिए कश्मीर मुद्दे पर फ़ायदा उठा लिया जायेगा.
शुरुआत में तो पाकिस्तान कहता रहा कि वे उसके सैनिक नहीं बल्कि कश्मीर की आज़ादी की जंग लड़ने वाले सिपाही हैं. भारतीय सेना के सबूत दिए जाने के बाद भी पाकिस्तान अपने सैनिक होने की बात नकारता रहा.
इस युद्ध के दौरान नवाज़ शरीफ जब अमेरिका गए तो उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने इस दुस्साहस पर झाड़ लगायी. अपनी किताब ‘कारगिल: फ्रॉम सरप्राइज टू विक्ट्री’ जनरल मलिक लिखते हैं कि लगभग गिड़गिड़ाते हुए शरीफ ने क्लिंटन से यह कहते हुए सहयोग मांगा कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो पाकिस्तान में उनकी जान को खतरा हो जाएगा. लेकिन बिल क्लिंटन ने मना कर दिया और उनके दबाव के बाद शरीफ अपने सैनिकों को वापस बुलाने पर मजबूर हुए.
एक पुराना घाव
कारगिल जंग के बीज 1984 में ही पनपने लग गए थे जब सियाचिन को लेकर हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच तनातनी शुरु हो गयी थी. सियाचन ग्लेशियर काराकोरम पर्वतमाला का हिस्सा है. यह दुनिया का सबसे ऊंचा युद्ध का मैदान है. 1949 में हुए कराची समझौते के तहत सियाचिन हिंदुस्तान का हिस्सा है. यह बात पाकिस्तान को नागवार थी.
1984 में खुफिया विभाग की कुछ रिपोर्टों में इस बात का खुलासा हुआ कि पाकिस्तान सियाचिन ग्लेशियर पर अपने सैनिक भेज कर इसे हथियाना चाहता है. भारतीय सुरक्षा तंत्र तुरंत हरकत में आ गया. अप्रैल 1984 में सेना ने ऑपरेशन मेघदूत शुरू किया और सियाचिन पर अपने सैनिक भेजकर एक तरह से इसकी घेराबंदी कर ली. इस तरह तकरीबन पूरा ग्लेशियर भारत के पास आ गया.
1987 में पाकिस्तानी सेना ने एक ब्रिगेडियर की अगुवाई में धावा बोलते हुए इसके कुछ हिस्से हथिया लिए. भारतीय सेना ने पलटवार किया और नायब सूबेदार बानासिंह के नेतृत्व में पाकिस्तान की सबसे ऊंची पोस्ट ‘क़ायदे आज़म’ पर फ़तेह पा ली. तब इस हार से बौखलाई बेनजीर भुट्टो ने अपनी ही सेना पर तंज़ कसते हुए कहा था, ‘पाकिस्तानी सेना अपने ही लोगों के खिलाफ़ लड़ सकती है.’ शायद सबसे ज़्यादा बौखलाहट उस पाकिस्तानी ब्रिगेडियर को हुई थी जो उस जंग को हार गया था. तभी शायद जब वह पाकिस्तान का सेनाध्यक्ष बना तो उसने कारगिल को अंजाम दिया. उस ब्रिगेडियर का नाम था परवेज़ मुशर्रफ.
जनरल मलिक लिखते हैं, ‘पाकिस्तान को सियाचिन की हार आज भी चुभती है. इसका उसकी सेना पर भारी मानसिक दवाब है.’ वे आगे लिखते हैं, ‘ऐसा अक्सर कहा जाता रहा था कि पाकिस्तान के पूर्व जनरल मिर्ज़ा असलम बेग ने अपनी सरकार को 1987 में सियाचिन की हार का बदला लेने के लिए कारगिल में सैन्य ऑपरेशन का सुझाव दिया था.
चलते-चलते
जंग दो जनरलों के रणनीतिक कौशल और अहम का भी टकराव होती है. जब प्रधानमंत्री वाजपेयी लाहौर गए थे तो जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने उन्हें सैल्यूट करने से इनकार कर दिया था. जब मुशर्रफ़ बतौर पाकिस्तानी राष्ट्रपति भारत आये तो तत्कालीन एयर चीफ मार्शल यशवंत टिपणिस ने उन्हें सैलूट नहीं किया.
जनरल वेद प्रकाश मलिक का जन्म पाकिस्तान के डेरा इस्माइल खां में हुआ था. परवेज़ मुशर्रफ़ का जन्म दिल्ली में!
कारगिल युद्ध 26 जुलाई 1999 को खतम हुआ. ठीक उसी दिन पाकिस्तान की जेल में रॉ के एजेंट रवींद्र कौशिक की मृत्यु हुई. ‘एक था टाइगर’ रवींद्र कौशिक की ही कहानी बताई जाती है.(satyagrah)
देवेन्द्र वर्मा
पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधानसभा
संसदीय एवं संवैधानिक विशेषज्ञ
संसदीय प्रजातंत्र अर्थात जनता के द्वारा जनता के लिए जनता का शासन। क्या यह मूलाधार राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर विराजमान और राजनीति के क्षेत्र में लगभग 50 वर्ष का अनुभव प्राप्त व्यक्ति के संज्ञान में नहीं है,यह प्रश्न बार-बार विचार में आता है और ऐसा विश्वास भी नहीं होता। तब क्या यह बात विश्वास योग्य है, जो राजस्थान के परिपेक्ष में इन दिनों देश में न केवल चर्चा में, अपितु समाचार पत्रों एवं मीडिया में भी सुनाई आ रही है कि राजस्थान के राज्यपाल पर ऊपर से दबाव है?
राज्यपाल के पद पर विराजमान व्यक्ति भारत के संविधान जिसका मूलाधार गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 है, के तहत केंद्र का प्रतिनिधि के रूप में संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा के लिए नियुक्त किया जाता है और उससे यह अपेक्षा की जाती है कि यदि राज्यों में संविधान के प्रावधानों का पूर्ण तरह पालन नही हो रहा हो, तथा यदि कोई असंवैधानिक कार्य होता दिखे तो वह समुचित कार्यवाही करें।
किंतु कितना आश्चर्यजनक है कि जिन पर संविधान की रक्षा का दायित्व है, उन पर संविधान के प्रावधानों का मखोल उड़ाने के आरोप लग रहे हैं। संसदीय प्रणाली एवं व्यवस्था में संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत सामान्यत: प्रत्येक 5 वर्ष में जनता के द्वारा उनके प्रतिनिधि को निर्वाचित किया जाता है। जो राज्यों के लिए विधानसभा और देश के लिए लोकसभा में अपने-अपने प्रदेश तथा देश की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। अर्थात विधायिका का गठन करते है। ये चुने हुए जनता के प्रतिनिधि ही अपने में से कुछ सदस्यों को चयनित करके मंत्री परिषद अर्थात राजनीतिक कार्यपालिका का गठन करते हैं। और यह राजनीतिक कार्यपालिका संविधान की व्यवस्थाओं के अनुरूप जनता के लिए, शासन व्यवस्था के संचालन के लिए जिम्मेदार होती है।
विधायिका जो अपरोक्ष रूप से प्रदेश अथवा देश की संपूर्ण जनता का प्रतिनिधित्व करती है, को अधिकार प्राप्त है कि वह राजनीतिक कार्यपालिका से समय-समय पर उनके द्वारा संपादित किए जा रहे कार्यों का विवरण ले,अर्थात राजनीतिक कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदाई रहती है।इस राजनीतिक कार्यपालिका के प्रमुख कि यह महती जिम्मेदारी है कि वह समय-समय पर कार्यपालिका द्वारा संपादित किए जा रहे कार्यों की जानकारी न केवल विधायिका के माध्यम से जनता की जानकारी में लाए अपितु जन प्रतिनिधि के माध्यम से जनता यह भी सुनिश्चित करती है कि वह राजनीतिक कार्यपालिका से उनके द्वारा संपादित कार्यों की जानकारी ले। अर्थात विधायिका जनता के प्रति उत्तरदाई जवाब दे है।
संविधान सभा में संसदीय प्रणाली के उपरोक्त मूलभूत सिद्धांत की पूर्ति के लिए संपूर्ण व्यवस्थाएं किस प्रकार से रचित की जाएं इस संबंध में संविधान सभा में विस्तृत विचार विमर्श हुआ और सिद्धांत:, क्योंकि राजनीतिक कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तर उत्तरदाई होती है, जवाबदेह होती है। अत: विधानसभा के सत्र बुलाने का अधिकार राजनीतिक कार्यपालिका के प्रमुख अर्थात मुख्यमंत्री मैं निहित किया गया ताकि वह जब भी आवश्यक समझे अपनी जवाबदेही या उत्तरदायित्व की पूर्ति के लिए विधानसभा के सत्र आहूत कर सकें, और जनता के प्रति उत्तरदायित्व,जवाबदेही को सुनिश्चित कर सके।
क्योंकि हमने ब्रिटिश शासन व्यवस्था को आधार रूप में अपनाया है जहां समस्त कार्य यद्यपि किंग के नाम से संपादित होता है किंतु कार्यों में किंग का किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं रहता,उसी व्यवस्था के अनुरूप हमने देश में राष्ट्रपति एवं राज्यपाल के पदों को निर्मित किया और कार्यपालिका के समस्त कार्य उनके नाम से तथा आदेशानुसार ही किए जाते हैं। संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत राज्यपाल मंत्रिमंडल की सलाह पर ही कार्य करता है केवल कुछ मामलों में उसे अपने विवेक से कार्य करने की स्वतंत्रता दी गई है जैसे कि सभा द्वारा पारित विधेयक।
संविधान के अनुच्छेद 174 में राज्य के विधान मंडल के सत्र सत्रावसान और विघटन के प्रावधान किए गए हैं और इसमें यह उल्लेखित है कि राज्यपाल समय-समय पर राज्य के विधान मंडल के सदन या प्रत्येक सदन को ऐसे समय और स्थान पर जो वह ठीक समझे अधिवेशन के लिए आहूत करेगा किंतु उसके एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिए नियत तारीख के बीच 6 माह का अंतर नहीं होगा।
संविधान सभा में जब सत्र को आहूत करने के संबंध में इस अनुच्छेद पर चर्चा हो रही थी तब संविधान सभा के विद्वान सदस्य श्री के.टी शाह और कुछ अन्य सदस्यों ने संशोधन के प्रस्ताव भी रखें (संशोधन क्रमांक 1473 और 1478 संविधान सभा की कार्यवाही दिनांक 18 मई 1940 9 पार्ट 2) और यह आशंका भी जाहिर की कि, यदि राष्ट्रपति/ राज्यपाल साधारण समय में अथवा असामान्य समय में इस अनुच्छेद के अंतर्गत प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री की सलाह को न मानते हुए यदि सत्र आहूत नहीं करते हैं, ऐसी स्थिति में संविधान में यह भी प्रावधानित करना चाहिए कि, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री विधान मंडल के अध्यक्ष/परिषद के सभा पति से सलाह कर सत्र आहूत कर सकेंगे।
ऐसे संशोधन का आधार यह था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व जब गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के अंतर्गत काउंसिल का गठन किया गया और इंग्लैंड के प्रतिनिधि के रूप में गवर्नर जनरल के पास में यह अधिकार था कि वह काउंसिल की बैठकों के लिए समन जारी करें तब एकाधिक अवसरों पर एक 1 वर्ष तक काउंसिल की बैठक आहूत नहीं की जा सकी थी। इन संशोधनों पर बाबा साहब अंबेडकर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए निम्नानुसार अपनी बातें रखी-
The Honourable Dr. B.R. Ambedkar : You better let that lie. I can tell my honourable Friend privately which province it was. It was felt that if such a thing happened as did happen before 1935, it would be a travesty of popular government. To summon the legislature merely for the purpose of getting the revenue and then to dismiss it summarily and thus deprive it of all the legitimate opportunities which the law had given it to improve the administration either by question or by legislation was, as I said, a travesty of democracy.
Similarly there will be many private members who might also wish to pilot private legislation in order to give effect to either their fads or their petty fancies. Again, there may be a further reason which may compel the executive to summon the legislature more often. I think the question of getting through in time the taxation measures, demands for grants and supplementary grants is another very powerful factor which is going to play a great part in deciding this issue as to how many times the legislature is to be summoned.
Then I take the two other amendments of Prof. Shah (Nos. 1473 and 1478). The amendments as they are worded are rather complicated. The gist of the amendments is this. Prof. Shah seems to think that the President may fail to summon the Parliament either in ordinary times in accordance with the article or that he may not even summon the legislature when there is an emergency. Therefore he says that the power to summon the legislature where the President has failed to perform his duty must be vested either in the Speaker of the lower House or in the Chairman or the Deputy Chairman of the Upper House. That is, if I have understood it correctly, the proposition of Prof. K.T. Shah. It seems to me that here again Prof. Shah has entirely misunderstood the whole position. “First of all, I do not understand why the President should fail to perform an obligation which has been imposed upon him by law. If the Prime Minister proposes to the President that the Legislature be summoned and the President, for no reason, purely out of wantonness or cussedness, refuses to summon it, I think we have already got very good remedy in our own Constitution to displace such a President.”
“We have the right to impeach him, because such a refusal on the part of the President to perform obligations which have been imposed upon him would be undoubtedly violation of the Constitution. There is therefore ample remedy contained in that particular clause.”
बाबा साहब अंबेडकर के उपरोक्त विचारों से यह स्पष्ट है कि विधानसभा का सत्र बुलाना कार्यपालिका के प्रमुख अर्थात मुख्यमंत्री के अधिकार क्षेत्र की बात है और यदि मुख्यमंत्री/ मंत्री परिषद यह निर्णय लेती है, कि विधानसभा का सत्र आहूत किया जाना है, तब यह राज्यपाल के विचार क्षेत्र की बात नहीं है कि वह मुख्यमंत्री के प्रस्ताव को तनिक भी रोके।
राज्यपाल को केवल विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों के मामलों में ही, विचार करने कारण बताते हुए पुन: विधानसभा को भेजने की अधिकारिता संविधान के अंतर्गत है विधानसभा के सत्र आहूत करने के प्रस्ताव पर विचार करने अथवा वापस करने या अस्वीकृत करने जैसा कोई भी प्रावधान संविधान में नहीं है, अपितु इस अनुच्छेद पर चर्चा के समय तो बाबा साहब अंबेडकर ने यहां तक कहा कि यदि ऐसा होता है राष्ट्रपति/ राज्यपाल उनके कर्तव्यों का पालन नहीं करते हैं स्वच्छंदता पूर्ण व्यवहार करते हैं, यह तो संविधान का उल्लंघन होगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जयपुर में कमाल की नौटंकी चल रही है। क्या आज तक किन्हीं नाराज़ विधायकों ने कभी राजभवन के अंदर धरना दिया है ? मेरी स्मृति में ऐसा पहली बार हुआ है। राष्ट्रपति भवन और राजभवनों में विधायकों और सांसदों ने परेडें जरुर की हैं लेकिन इस समय जैसा दृश्य जयपुर के राजभवन में दिखाई पड़ रहा है।
भारत के किसी भी प्रांत में पहले नहीं दिखाई पड़ा। राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र के विरोध में यह धरना चल रहा है, क्योंकि उन्होंने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को साफ़-साफ़ कह दिया है कि कोरोना के इस संकटकाल में विधानसभा का सत्र बुलाना संभव नहीं है। मोटे तौर पर राज्यपाल का दृष्टिकोण व्यावहारिक मालूम पड़ता है लेकिन कलराजजी से कोई पूछे कि आप 200 विधायकों के मिलने पर कोरोना का खतरा महसूस कर रहे हैं लेकिन क्या बात है कि नरेंद्र मोदी बिल्कुल नहीं डर रहे हैं। वे 5 अगस्त को राम मंदिर कार्यक्रम में अयोध्या जाएंगे और वहां 200 से भी अधिक महामहिम इक_े होंगे। उनके साथ सैकड़ों सुरक्षाकर्मी भी होंगे। अभी जो कांग्रेसी विधायक राजभवन के अंदर धरना दे रहे हैं, उन्होंने मुखपट्टियां लगा रखी हैं और शारीरिक दूरी भी वे बनाए हुए हैं।
किस दल के पास बहुमत है, यह तय करने का सबसे अधिक प्रामाणिक तरीका तो सदन में होनेवाला मतदान ही है। अदालतों की राय कुछ भी हो, ऐसे मुद्दों पर अंतिम फैसला सदन का ही होता है। राजस्थान के मामले को अदालतों में घसीटने का काम दोनों पक्षों ने किया है। ऐसा करके दोनों पक्षों ने विधानपालिका को न्यायपालिका की चरण-वंदन के लिए बाध्य कर दिया है। ऐसा करके उन्होंने अपनी और संसदीय लोकतंत्र की गरिमा तो गिराई ही है, राजस्थान की राजनीति को भी अधर में लटका दिया है। पिछले एक हफ्ते से क्या राजस्थान की सरकार कोई काम कर पा रही है ? कारोना के विरुद्ध संग्राम में उसने जो नाम कमाया था, वह भी पृष्ठभूमि में खिसक गया है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों की कथनी और करनी, उनकी प्रतिष्ठा को रसातल में पहुंचा रही है।
यदि राजस्थान विधानसभा का सत्र विधान भवन में नहीं बुलाया जा सकता हो तो जयपुर की महलनुमा होटलों में या किसी लंबे-चौड़े मैदान में भी बुलाया जा सकता है या दोनों पक्षों को बुलाकर राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष अपने सामने परेड करवाकर भी फैसला करवा सकते हैं। इस मामले को तय करने में जितनी देर लगेगी, भ्रष्टाचार उतना ही बढ़ेगा, नेताओं की इज्जत उतनी ही गिरेगी और लोकतंत्र उतना ही कमजोर होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार राम वन गमन पथ योजना के तहत 51 स्थानों पर राम मंदिरों का निर्माण करा रही है। इसके विरोध में जंगो-लिंगो आदिवासी महिला समिति की ओर से राज्यपाल अनुसूईया उईके को ज्ञापन दिया गया है। तामेश्वर सिन्हा की खबर
छत्तीसगढ़ में आदिवासी अपने ऊपर हिन्दू धर्म थोपे जाने के विरोध में अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं। उनका मानना है कि वे हिंदू नहीं हैं और उनका अपना आदिवासी धर्म और अपनी परंपराएं हैं जो प्रकृति पर केंद्रित है। वे सूबे में के विभिन्न इलाकों में राम मंदिर बनाए जाने की सरकारी योजना पर सवाल उठा रहे हैं। अब इस लड़ाई में छत्तीसगढ़ की आदिवासी महिलाएं भी शामिल हो गई हैं। बीते 21 जुलाई, 2020 को छत्तीसगढ़ के भिलाई में जंगो-लिंगो आदिवासी महिला समिति ने दुर्ग एसडीएम कार्यालय पहुंच कर राम गमन पथ एवं राम मंदिर निर्माण के विरोध में राज्यपाल अनुसईया उईके के नाम ज्ञापन सौंपा।
दरअसल, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार राम वन गमन पथ योजना के तहत 51 स्थानों पर 10 करोड़ की लागत से राम मंदिरों का निर्माण करा रही है। बताते चलें कि इस योजना के तहत मंदिर निर्माण की योजना अधिकतर आदिवासी, पिछड़ा बहुल क्षेत्रों में है। सरकार का कहना है कि इन 51 स्थानों का राम से संबंध है जहां कथित तौर पर वे वनवास के दौरान गए थे।
सनद रहे कि भूपेश बघेल सरकार की उपरोक्त योजना का उनके पिता नंद कुमार बघेल ने भी पुरजोर विरोध किया है।
इस बीच जंगो-लिंगो महिला आदिवासी समिति ने अपने ज्ञापन में कहा है कि राम गमन पथ एवं राम मंदिर निर्माण जिसे भूपेश बघेल सरकार की महत्वाकांक्षी योजना बताई जा रही है, सर्वथा अनुचित व असंवैधानिक कार्य है। वजह यह कि पूरा बस्तर संभाग पांचवीं अनुसूची क्षेत्र घोषित है। इस क्षेत्र की अपनी एक व्यवस्था है। पेसा एक्ट, 1996 के तहत अनुसूचित क्षेत्र की सर्वोच्च संस्था ग्रामसभा है और बगैर ग्रामसभा अनुमोदन के कोई भी निर्माण व विकास कार्य असंवैधानिक है। लेकिन स्थानीय सरकार की शह पर स्थानीय विधायक शिशुपाल सोरी कांकेर में राम मंदिर निमार्ण को बढ़ावा दे रहे हैं। इससे इलाके में अशांति व धार्मिक संघर्ष की स्थिति उत्पन्न की जा रही है। जंगो-लिंगो आदिवासी महिला समिति के सदस्यों ने राज्यपाल से मांग की है कि वे धर्म के नाम पर कराए जा रहे इन निर्माण कार्यों पर अविलम्ब रोक लगाएं।
महिलाओं ने अपने ज्ञापन में यह भी कहा है कि सरकार जनता से वसूले गए टैक्स की राशि का दुरूपयोग कर रही है। जो धन राशि राज्य में गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और स्वास्थ्य समस्या आदि दूर करने के लिए उपयोग में लायी जा सकती है, उसका दुरूपयोग कर वह आदिवासियों पर हिन्दू धर्म व इसकी मान्यताएं थोपने का प्रयास कर रही है।
जंगो-लिंगो महिला समिति भिलाई की अध्यक्ष तामेश्वरी ठाकुर ने बताया कि भूपेश बघेल सरकार मनुवादी साजिश कर रही है। पर्यटन विकास का नाम देकर राम मंदिर का निर्माण किया जा रहा है। जबकि हम आदिवासी कभी भी मूर्तिपूजक नही रहे हैं। हम तो पेड़, जंगल, पहाड़ और नदियों को अपना पुरखा मानते हैं। हमारे लिए न राम का मन्दिर महत्वपूर्ण है और ना ही कोई चर्च-मस्जिद। हमारा अपना जंगल है और हमारी अपनी मान्यताएं हैं। हम इसी में खुश हैं।
वहीं ज्ञापन देने वालों में शामिल सर्वआदिवासी समिति की महिला अध्यक्ष चंद्रकला तारम ने बताया कि छत्तीसगढ़ में हम राम वन गमन पथ नही चाहते हैं। बस्तर हमारा अनुसूचित क्षेत्र है, जहां शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, रोजगार के क्षेत्र में काम करने की आवश्यकता है न कि मंदिर निर्माण की। हम कई वर्षों से स्कूलों में गोंडी भाषा मे पढ़ाने की मांग कर रहे हैं। बस्तर में स्वास्थ्य सुविधा बदहाल है। सरकार इन मुद्दों से अलग लोगों का ध्यान भटकाने के लिए मंदिर निर्माण में लगी है।
हिंदुत्व के आसरे भूपेश : एक मंदिर में पूजा करते मुख्यमंत्री भूपेश बघेल
चन्द्रकला तारम आगे कहती हैं कि हमारी परंपरा राम वाली संस्कृति से अलग है। हम फसल बोने से लेकर काटने तक हम प्रकृति की पूजा करते हैं। हम एक पेड़ की टहनी भी तोड़ते हैं तो उससे पूछ कर तोड़ते हैं। हमारा आंगा देव् होता है, जिसकी जात्राओं में कभी राम का जिक्र नहीं हुआ। हमारी गीतों में कभी राम का जिक्र नहीं हुआ। हमारी भाषा-बोली सब अलग है तो भूपेश बघेल सरकार जबरदस्ती राम वन गमन पथ योजना के तहत मंदिर निर्माण क्यों कर रही है। तारम कहती हैं कि छत्तीसगढ़ में जब भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बने तब जनता ने कहा कि एक बहुजन मुख्यमंत्री बने हैं, लेकिन वे तो मनुवादी एजेंडे के आधार पर काम कर रहे हैं। राम को हम आदिवासियों और बहुजनों पर थोप रहे हैं।
ज्ञापन देने वालों में शामिल वकील शकुंतला राजसिंह कहती हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित अन्तराष्ट्रीय इंडिजीनस घोषणापत्र के अनुच्छेद 11 में कहा गया है कि आदिवासियों को अपनी सांस्कृतिक परंपराएं और रीतिरिवाज अपनाने और उन्हें अधिक सशक्त बनाने का अधिकार है। भारतीय संविधान में वर्णित पांचवीं अनुसूची के अनुसार भी अनुसूचित क्षेत्रों में पेसा कानून के तहत आप कोई भी धार्मिक आस्था आदिवासियों पर नहीं थोप सकते। इसके लिए ग्रामसभा की सहमति अनिवार्य है। इतना ही नहीं, एक राज्य सरकार धार्मिक संरचनाएं जैसे कि मंदिर आदि का निर्माण करा ही नहीं सकती है क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है।
बहरहाल, 13 जुलाई को छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल के कांकेर जिले में राम वन गमन पथ योजना के तहत स्थानीय कांग्रेसी विधायक शिशुपाल सोरी और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के संसदीय सलाहकार राजेश तिवारी की उपस्थिति में राम मंदिर निर्माण का भूमिपूजन किया गया। विधायक शिशुपाल सोरी अखिल भारतीय गोंडवाना गोंड महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। उनके द्वारा राम मन्दिर का भूमिपूजन को लेकर आदिवासी समाज मे गहरा आक्रोश है। (forwardpress)
(संपादन : नवल/गोल्डी)
-अमिताभ श्रीवास्तव
इन दिनों विकास दुबे की कहानियां पढ़-सुनकर आप थक गए होंगे। हो सकता है, आप इससे भी इन दिनों इत्तफाक नहीं रख रहे हों कि इस घटनाक्रम से नाराज ब्राह्मणों को मनाने के लिए योगी सरकार से जुड़े कद्दावर नेता-अफसर यूपी के 55 ब्राह्मण विधायकों की कुछ ज्यादा ही खोज-खबर रख रहे हैं। इसलिए आपके लिए हाजिर है यूपी की ही एक और कथा। यह शेर सिंह राणा की है। अगर आप सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं तो आपने यू-ट्यूब पर उसके वीडियो भी देखे होंगे। पर इसमें इतने ट्विस्ट हैं कि आपकी आंखें अब भी चौड़ी हो जाएंगी।
शेर सिंह राणा ने डाकू से सांसद बनी फूलन देवी की 26 जुलाई, 2001 को दिल्ली में संसद मार्ग-स्थित उनके सरकारी आवास में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी थी। दिल्ली और उत्तराखंड की पुलिस दो दिनों तक एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद राणा को नहीं पकड़ पाई। अचानक मीडिया में सूचना आई कि वह देहरादून में प्रेस क्लब में आत्मसमर्पण करेगा। एक दिन पहले ही उसने एक हिंदी दैनिक के रिपोर्टर को साफ कहा था कि वह प्रेस क्लब में आत्मसमर्पण इसलिए करना चाहता है, क्योंकि वह नहीं चाहता कि पुलिस उसे मुठभेड़ में मार डाले।
मैं उस वक्त एक अंग्रेजी दैनिक के लिए देहरादून में काम कर रहा था। हम लोग प्रेस क्लब पहुंचते, उससे पहले ही पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया था। लेकिन इस बारे में पुलिस ब्रीफिंग के लिए हम लोगों को दो घंटे तक लटकाए रखा गया। बाद में पता चला कि राणा को दिल्ली की स्पेशल सेल की टीम ले गई। उसे तिहाड़ जेल में रखा गया। लेकिन यह भी कम रोचक प्रसंग नहीं है कि इस मुद्दे पर कम तू-तू मैं-मैं नहीं हुई कि राणा को किसने पकड़ा- दिल्ली पुलिस ने या उत्तराखंड पुलिस ने। वैसे, सच्चाई तो यही है कि राणा ने खुद ही मीडिया को यह कहते हुए बुलाया था कि वह आत्मसमर्पण करना चाहता है।
विकास और उसके साथियों के मामले में तो ब्राह्मण कार्ड उन लोगों को मार गिराए जाने के बाद खेला जा रहा, राणा अपना राजपूत कार्ड शुरू से खेलता रहा है। उसने पुलिस और मीडिया से यही कहा कि चूंकि फूलन देवी ने डकैत रहते हुए ऊंची जातियों के लोगों की हत्या की, इसलिए उसने इनका बदला लेने के लिए फूलन की हत्या की। वह 2004 में तिहाड़ जेल से फरार हो गया। बाद में लिखी किताब ‘जेल डायरीः तिहाड़ से काबुल-कंधार तक’ में उसने दावा किया है कि खतरों से जूझते हुए वह फर्जी पासपोर्ट पर बांग्लादेश और पाकिस्तान होते हुए अफगानिस्तान में उस जगह पर पहुंचा जहां पृथ्वीराज चौहान का शव दफनाया गया है। उसने इस किताब में दावा किया है कि मुसलमान उस जगह पर अब भी जूते से ठोकर मारते हैं और उसके बाद बगल की मस्जिद में जाते हैं। राणा ने यू-ट्यूब पर एक वीडियो डालकर यह दावा भी किया हुआ है कि उसने कैसे अपनी जान जोखिम में डालकर चोरी-छुपे वहां से मिट्टी जमा की और उसे भारत लेकर आया। इस नाम पर उसने अपने समर्थकों के साथ मिलकर रुड़की में एक स्मारक भी बनवाया है।
राणा की किताब ने प्रोड्यूसर-डायरेक्टर-एक्टर अजय देवगन को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने पृथ्वीराज चौहान पर एक फिल्म बनाने की घोषणा कर दी और इसमें राणा का रोल खुद करने की इच्छा जताई। एक अखबार ने लिखाः ‘राणा के रोचक जीवन ने अजय का ध्यान खींचा। राणा तिहाड़ से फरार हुआ और उसने 2006 में कोलकाता में गिरफ्तारी से पहले 12वीं शताब्दी के शासक पृथ्वीराज चौहान के अवशेष अफगानिस्तान से लाने का दावा किया है।’
वैसे तो राणा ने अपनी किताब में बताया है कि वह कोई पेशेवर अपराधी नहीं है और उसने फूलन देवी से पहले या बाद में किसी की हत्या नहीं की है लेकिन सच्चाई यह है कि वह शातिर मिजाज तो रहा ही है। उसकी गिरफ्तारी के बाद एक डीजीपी ने मुझे देहरादून में बताया कि राणा की गिरफ्तारी से पहले ही एक व्यक्ति उसके नाम से गिरफ्तार होकर जेल में बंद था। उस अधिकारी ने कहाः ‘हम तो इस बारे में नहीं जान पाते। वह तो एक सतर्क इन्सपेक्टर ने इसका खुलासा कर दिया। उसने टीवी पर शेर सिंह राणा की तस्वीर देखी, तो उसने कहा कि अगर राणा यह है, तो फिर इसी नाम से हरिद्वार जेल में कैद व्यक्ति कौन है।’ खैर।
करीब दस साल की सुनवाई के बाद कोर्ट ने अगस्त, 2014 में राणा को आजीवन कारावास की सजा और एक लाख रुपये दंड का आदेश दिया। उसने इसके खिलाफ अपील की है और इसी वजह से वह जमानत पर जेल से बाहर है। उसने राष्ट्रवादी जनलोक पार्टी (आरजेपी) बना ली है। इस पार्टी ने अभी हाल में हरियाणा विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार भी उतारे। राणा का दावा है कि उसकी पार्टी को इतने वोट मिले कि उसने वहां किसी को बहुमत नहीं लाने दिया। वह यहां-वहां घूमता रहता है और उसकी पार्टी ने किसी-न-किसी के साथ गठबंधन कर मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली में भी चुनाव लड़ा।
मध्यप्रदेश के एक पूर्व विधायक की बेटी से उसने 2018 में शादी कर ली और उसे डेढ़ साल की बेटी है। शादी के बाद उसने मीडिया से कहाः ‘अब मैंने सबकुछ भगवान पर छोड़ दिया है। मुझे नहीं पता कि मेरे मामले के निबटारे में कितना वक्त लगेगा।’(navjivan)
-सुहैल ए शाह
पूरे देश में कोरोना वाइरस के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं और जम्मू-कश्मीर (जो कि अब एक केंद्रशासित राज्य है) में भी इन मामलों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. यहां अब तक 15 हजार से ज्यादा कोरोना वाइरस पॉज़िटिव मामले दर्ज हो चुके हैं, जिनमें से करीब 12 हजार मामले कश्मीर घाटी के 10 जिलों में ही हैं. करीब पौने दो सौ लोगों ने इस बीमारी से अभी तक जम्मू-कश्मीर में अपनी जान गंवाई है.
केंद्र सरकार ने जब अनुच्छेद-370 को अप्रभावी करने और जम्मू-कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश में बदलने का निर्णय लिया था तब उसकी ओर से कहा गया था कि इससे बेहतर शासन को सुनिश्चित करके राज्य का सही मायनों में विकास किया जा सकेगा. जानकारों के मुताबिक कोरोना संकट के समय मोदी सरकार के पास यह दिखाने का अवसर था कि अगस्त 2019 में उसने जो कहा था वह सही था. कहा गया कि अगर कोविड-19 के समय केंद्र सरकार थोड़ी सूझ-बूझ के साथ काम करेगी तो कश्मीर में मौजूद अविश्वास के माहौल को थोड़ा ठीक किया जा सकता है. लेकिन अगर राज्य के जमीनी हालात को आज देखें तो कश्मीर घाटी के लोग पिछले चार महीनों में नई दिल्ली के पास नहीं बल्कि उससे और दूर होते दिखाई देते हैं.
अगर कश्मीर घाटी में रहने वाले लोगों से बात करके उनके आक्रोश को समझने की कोशिश की जाये तो इस मुश्किल वक्त में भी दिल्ली से उनका इतना नाराज होना उतना चौंका देने वाली बात भी नहीं लगती है.
5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर राज्य में अभूतपूर्व लॉकडाउन के बीच देश के गृह मंत्री, अमित शाह ने संविधान के अनुच्छेद-370 को अप्रभावी बनाने का ऐलान किया. यह अनुच्छेद पहले जम्मू-कश्मीर को भारत में एक विशेष स्थिति दिया करता था. लेकिन इसके बाद से देश का संविधान पूरी तरह से जम्मू-कश्मीर पर लागू हो गया.
इसके साथ-साथ भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर राज्य के दो टुकड़े करके लद्दाख और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र प्रशासित राज्यों में तब्दील कर दिया. इसके बाद कश्मीर घाटी में छह महीने से ज़्यादा तक कर्फ्यू जैसी स्थिति बनी रही, दो महीने से ज़्यादा समय तक यहां पर फोन पूरी तरह से बंद रहे, छह महीनों से ज़्यादा समय तक कश्मीर के ज्यादातर राजनेता हिरासत में रहे (इनमें से कई अभी भी बंद ही हैं) और राज्य में 4जी मोबाइल इंटरनेट सेवा अभी तक बंद ही है.
“इस सब के बीच जब कोरोना वाइरस का आगमन हुआ तो लोगों ने यह सोचा कि शायद इस वजह से भारत सरकार की विशेष स्थिति को खतम करने की कोशिशों और उसके स्वभाव में थोड़ी सी नरमी देखने को मिलेगी. लेकिन हुआ बिलकुल उल्टा. उसकी गतिविधियां कोरोना वाइरस वाले लॉकडाउन के बीच और तेज़ हो गयीं” दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविध्यालय में कश्मीर पर अनुसंधान कर रहे, बशारत अली, सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं. अली के मुताबिक भारत सरकार राज्य में कोरोना वाइरस की वजह से हुए लॉकडाउन को कई तरीकों से अपने हितों को साधने के लिए इस्तेमाल कर रही है.
डोमिसाइल सर्टिफिकेट (मूल निवासी प्रमाण पत्र):
मई के महीने में कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर के नेतृत्व वाले प्रशासन ने लोगों को डोमिसाइल सर्टिफिकेट जारी किए जाने की घोषणा की. नए नियमों के अनुसार कोई भी ऐसा व्यक्ति जो जम्मू-कश्मीर में 15 साल से अधिक समय के लिए रहा हो, या राज्य में सात साल के लिए पढ़ा हो या फिर उसने दसवीं, बारहवीं की परीक्षा यहां से पास की हो, वह इस प्रमाण पत्र का हकदार हो जाता है.
पहले ऐसा नहीं था. पहले अनुच्छेद 35 ए के मुताबिक जम्मू-कश्मीर की विधानसभा यह तय करती थी कि कौन इस राज्य का मूल निवासी है और कौन नहीं. लेकिन अब लोगों को डोमिसाइल सर्टिफिकेट ऑनलाइन मिलने लगा है.
“यहां के लोगों को यह तो पता था कि अनुच्छेद-370 हटने के बाद यह सब ज़रूर होगा, लेकिन जिस वक़्त पूरा देश कोरोना वाइरस से लड़ रहा है उस वक़्त ऐसा करना लोगों के मन में भारत सरकार के इरादों को लेकर कई सवाल खड़े कर देता है” श्रीनगर में काम कर रहे एक वरिष्ठ पत्रकार सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं. वे कहते हैं कि ऐसे समय पर जब कश्मीर में इंटरनेट अभी भी पूरी तरह से बहाल नहीं हुआ है और कोरोना वाइरस के चलते लोगों को अपने घरों से निकलने की अनुमति नहीं है यह निर्णय लेना साफ-साफ दर्शाता है कि भारत सरकार का इरादा सिर्फ जम्मू-कश्मीर की ‘डेमोग्राफी’ को बदलना है.
“जब पूरा प्रशासन एक बीमारी के खिलाफ लड़ने में व्यस्त हो, ऐसे समय पर तहसीलदारों पर यह दबाव डालना कि डोमिसाइल सर्टिफिकेट देने में देर लगने की सूरत में उन पर 50,000 रुपए का जुर्माना लगेगा और क्या दिखाता है” वे पत्रकार नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर सत्याग्रह को बताते हैं.
आम लोगों से बात करें तो उनका भी यही मानना है.
“हमारे पास इंटरनेट नहीं है, ऑनलाइन अप्लाई करने के लिए, हम बाहर नहीं जा सकते लॉकडाउन के चलते. और बाहर के लोग, जिनमें बाहर के ही नौकरशाह लोग शामिल हैं, आराम से इस सर्टिफिकेट के लिए ऑनलाइन अप्लाई कर रहे हैं” दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले से आने वाले 70 साल के एक दुकानदार ग़ुलाम मुहम्मद भट, ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.
इस बात पर मई, जून के महीनों में कश्मीर के लोगों में खूब चर्चा हुई. अब बात पुरानी हो गयी है, लेकिन यह भाव कि भारत सरकार कश्मीर के लोगों को दोयम दर्जे का नागरिक समझती है पुराना नहीं हुआ है. वह अब थोड़ा और मजबूत हो गया है और उसके सिर्फ यही एक कारण नही है.
cartoon credit : Greater Kashmir
पर्यटन, अमरनाथ यात्रा और बाहर के मजदूर
हाल ही में कोरोना वाइरस के बढ़ते हुए मामलों के चलते कश्मीर में प्रशासन ने फिर से लॉकडाउन घोषित कर दिया. कई जिलों में दफा-144 लागू कर दी गई और लोगों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जाने पर रोक लगा दी गयी. श्रीनगर, अनंतनाग, पुलवामा और कई अन्य जिलों में सड़कें बंद कर दी गयीं और उन पर सुरक्षा बलों की तैनाती बढ़ा दी गयी, ताकि लोग ज़्यादा लोग एक जगह से दूसरी जगह न जा सके.
प्रशासन के इन फैसलों का सब, हिचकिचाते हुए ही सही, पर स्वीकार कर रहे थे. लेकिन तभी प्रशासन के कुछ और निर्णय सामने आए जिन्होंने कश्मीर के लोगों में पहले से ही पनप रहे संदेह को और गहरा कर दिया. इसके बाद कश्मीर में लोग पूछ रहे थे कि अगर वे बाहर नहीं जा सकते, दुकानें नहीं खोल सकते, अपने काम काज पर नहीं जा सकते तो अमरनाथ यात्रियों को राज्य में आने देना कितना बुद्धिमानी का काम है.
“मेरी दुकान पिछले लगभग एक साल से बंद ही पड़ी है. मैं अब इसे खोलने की कोशिश भी नहीं कर रहा हीं क्यूंकि महामारी फैली हुई है. लेकिन क्या महामारी के बीच अमरनाथ यात्रा की इजाज़त देना सही है?” अनंतनाग जिले के पहलगाम में किराने की दुकान चलाने वाले, अली मुहम्मद शाह पूछते हैं.
हालांकि राज्य में कोरोना वायरस की स्थिति को देखते हुए श्री अमरनाथ बोर्ड ने 21 जुलाई को एक बैठक कर इस साल की यात्रा स्थगित करने का फैसला ले लिया है, लेकिन इससे पहले स्थानीय लोगों के मन में जो भाव आ गया था वह शायद अभी रहने वाला है.
जम्मू-कश्मीर के प्रशासन ने कश्मीर में हवाई जहाज़ से आने वाले पर्यटकों के लिए भी अपने द्वार खोल दिये हैं और यह बात भी लोगों को काफी खल रही है, क्यूंकि अगस्त 2019 से लगभग कोई भी पर्यटक कश्मीर नहीं आया है.
“अब कोरोना वाइरस के बीच पर्यटकों को आने देना कौन सी समझदारी है? क्या यह सिर्फ यहां के लोगों को यह बताने के लिए किया जा रहा है कि कश्मीर कश्मीरियों का न रहकर भारत के अन्य राज्यों में बसे लोगों का हो गया है?” बशारत अली पूछते हैं.
इसी बीच कश्मीर में कुछ क़ानूनों में भी बदलाव हुआ है जिसमें से एक यह है कि सुरक्षा बल अब अपनी छावनियों के बाहर भी, कुछ सामरिक स्थानों पर, निर्माण कार्य कर सकते हैं. यह अनुमति ‘कंट्रोल ऑफ बिल्डिंग ऑपरेशन एक्ट-1988’ और ‘जेएंडके डेव्लपमेंट एक्ट-1970’ में संशोधनों के द्वारा दी गयी है. इसके साथ-साथ हजारों मजदूर भी भारत के अन्य राज्यों से कश्मीर की तरफ लाये जा रहे हैं. अगर सोशल मीडिया पर वाइरल हुए एक स्थानीय न्यूज चैनल - गुलिस्तान न्यूज - के वीडियो की मानें तो इन मजदूरों का कोरोना वाइरस टेस्ट भी नहीं किया जा रहा है.
“कश्मीर में लॉकडाउन के चलते सारा काम ठप पड़ा हुआ है, ऐसे में मजदूरों का आना एक ही चीज़ की तरफ इशारा करता है कि इनको सुरक्षा बालों के द्वारा किए जाने वाले निर्माण में लगाया जाएगा” इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ साइन्स एंड टेक्नोलोजी में अन्तरराष्ट्रीय संबंध पढ़ाने वाले, डॉ उमर गुल, सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं.
गुल कहते हैं कि कश्मीर के लोग इस समय बंद हैं और किसी भी तरफ से कोई विरोध होने की कोई संभावना नहीं है “लेकिन कम से कम मानवीय आधार पर ही सही, इन मजदूरों का टेस्ट वगैरह हो जाना चाहिए. यह न सिर्फ यहां के लोगों की सुरक्षा के लिए है बल्कि सुरक्षा बलों की सुरक्षा के लिए भी ज़रूरी है.”
लेकिन स्थानीय लोगों को लगता है कि लेकिन सुरक्षा के नाम पर कश्मीर में पिछले पांच महीनों में सिर्फ मिलिटेंटस और सुरक्षा बलों में मुठभेड़ हुई हैं और जगह-जगह नए बंकर बना दिये गए हैं.
इस साल जनवरी से लेकर अभी तक कम से कम 130 मिलीटेंट्स अलग-अलग मुठभेड़ों में मारे गए हैं. जहां कश्मीर में मिलीटेंट्स का मारा जाना कोई नई बात नहीं है, वहीं उनके शव उनके परिजनों को न देना बिलकुल नया है.
पिछले चार महीनों में लगभग हर मुठभेड़ के बाद पुलिस ने यह कहा है कि मारे गए मिलीटेंट्स के शव कोरोना वाइरस के चलते उनके परिजनों को नहीं दिये जाएंगे. उनके शव उत्तर कश्मीर में, घर के एक या दो सदस्यों के सामने, दफन किए जा रहे हैं.
इस बात से कश्मीर के लोगों में, खास तोर पर मारे गए मिलीटेंट्स के घरवालों में, काफी आक्रोश है.
“अगर 4000 सुरक्षाकर्मी पूरे गांव को घेर कर दो मिलीटेंट्स को मार गिरा सकते हैं तो क्या दो दर्जन लोग अपने किसी मारे गए बच्चे का अंतिम संस्कार नहीं कर सकते? यह किस तरह की नीति है जहां मां-बाप अपने बच्चे को अपने कब्रिस्तान में नहीं दफन कर सकते?” अनंतनाग जिले के अरविनी गांव में एक मारे गए मिलीटेंट के घरवालों ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.
लेकिन कई जानकार इस बात को भावनाओं से परे रख कर देखते हैं.
“जब किसी मिलीटेंट के जनाजे में हजारों लोग जमा होते थे तो प्रशासन के लिए मुश्किल हो जाती थी उनको संभालना. और वहीं इन जनाज़ों में और युवक हिंसा के रास्ते पर चल पड़ते थे. भारत सरकार इन जनाज़ों का तोड़ काफी समय से ढूंढ रही थी और उन्हें कोरोना वाइरस के रूप में यह बहाना मिल गया” कश्मीर को बहुत बारीकी से जानने वाले एक सुरक्षा अधिकारी ने सत्याग्रह को, उनका नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर बताया.
पिछले पांच महीनों में कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों के बंकरों में भी काफी इजाफा हुआ है, जिससे लोगों को काफी दिक्कतें भी आ रही हैं.
“सड़क पर देखें तो हर 50 मीटर पर न सिर्फ एक बंकर है बल्कि पूरी सड़क कांटेदार तार या अन्य चीजों से घिरी पड़ी है. हर जगह चेकिंग, कहीं जाना है तो बार-बार रोका जाता है, ट्रैफिक न होने के बावजूद घंटों गाड़ी में खड़े रहना पड़ता है. ये सब चीज़ें लोगों को दिल्ली से दूर नहीं करेंगी तो और क्या होगा” डॉ उमर गुल ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं.
वे कहते हैं कि लोगों के मन में यह बैठ गया है कि ये सब चीज़ें जान-बूझ कर की जा रही हैं, कश्मीर के लोगों को “भारत में उनकी जगह दिखाने के लिए.”
ये तो वे चीज़ें हैं जो भारत सरकार ने कोरोना वाइरस महमारी के दौरान कश्मीर में की हैं और जिनसे कश्मीर के लोगों में निराशा और संदेह ने और भी गहरी जड़ पकड़ ली है. वहीं कुछ चीज़ें ऐसी भी हैं जो सरकार ने कोरोना महामारी के दौरान नहीं की हैं लेकिन वे लोगों के मन में केंद्र सरकार के प्रति आक्रोश बढ़ाने का काम कर रही हैं.
महमारी में 4जी इंटरनेट बहाल न करना ऐसी ही एक चीज़ है:
जैसा कि शुरू में हमने बताया कि कश्मीर में चार अगस्त 2014 को इंटरनेट सेवायें बंद कर दी गई थीं और अभी तक भी 4जी इंटरनेट बहाल नहीं हुआ है. सरकार 4जी इंटरनेट को सुरक्षा व्यवस्था के लिहाज से एक खतरे के तौर पेश करती आ रही है.
लोग जैसे-तैसे बिना इस सुविधा के गुज़ारा कर रहे थे, लेकिन कोरोना वाइरस के आने से ज़िंदगी इंटरनेट के बिना काफी मुश्किल हो गयी है. सबसे ज़्यादा 4जी इंटरनेट न होने से जो लोग प्रभावित हुए हैं वै हैं डॉक्टर, क्यूंकि पूरी दुनिया में कोरोना वाइरस से लड़ने के लिए जो चीज़ सब से ज़रूरी मानी जा रही है वह है जानकारी.
“और आजकल की दुनिया में सारी जानकारी इंटरनेट से आती है, जो हमारे पास है तो लेकिन 2जी जो आजकल की दुनिया में किसी काम का नहीं है,” श्रीनगर के श्री महाराजा हरि सिंह (एसएमएचएस) अस्पताल में काम करने वाले एक डॉक्टर ने सत्याग्रह से बात करते हुए कहा. यहां डॉक्टरों को पत्रकारों से बात करने की अनुमति नहीं है, इसीलिए डॉक्टर से बात करना उतना आसान नहीं है.
वे कहते हैं कि इंटरनेट के बिना उनका काम बहुत मुश्किल है, “क्यूंकि हर घंटे दुनिया के किसी न किसी कोने से कोरोना वाइरस के बारे में कोई नयी जानकारी आती है और हम उस जानकारी से महरूम रहते हैं.”
दूसरा तबका जो 4जी इंटरनेट न होने के चलते तमाम परेशानियां झेल रहा है वह है यहां के छात्र. कश्मीर घाटी में पिछली पांच अगस्त से अभी तक सिर्फ मार्च में कुछ दिन स्कूल खुले थे. “और अब जबकि पूरी दुनिया में छात्र ऑनलाइन पढ़ रहे हैं हमारे पास वह विकल्प भी नहीं है. 2जी इंटरनेट पर क्या ऑनलाइन क्लास होगी और क्या तो समझ में आएगा” कश्मीर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की पढ़ाई कर रहे गुलजार अहमद सत्याग्रह को बताते हैं.
अहमद की तरह ही हजारों छात्र 4जी इंटरनेट के न होने से पढ़ाई में देश के दूसरे हिस्सों के छात्रों से पीछे छूट रहे हैं.
“जहां पूरे देश में बच्चे ऑनलाइन पढ़ रहे हैं, हमारे साथ ही यह अन्याय क्यूं हो रहा है. क्या हमें हक़ नहीं है पढ़ने का? और फिर दिल्ली में बैठे लोग कहते हैं कि कश्मीर भारत का अटूट अंग है. कश्मीर का मतलब क्या सिर्फ ज़मीन है? लोग नहीं?” दसवीं क्लास में पढ़ रही, साइमा अमीन, ने श्रीनगर में सत्याग्रह से बात करते हुए कहा.
इन सब चीजों को परे भी रखें तो छोटे-छोटे मामले, जैसे अस्पतालों में सही से इलाज न होना, वक़्त पर कोरोना वाइरस का टेस्ट न होना, अस्पतालों में कोरोना वाइरस के अलावा और किसी चीज़ का इलाज न होना, क्वारंटीन सेंटरों में सुविधाओं का न होने जैसी चीज़ें भी लोगों को खल रही हैं. हालांकि इस तरह की अव्यवस्थायें दूसरे राज्यों और देशों में भी देखने को मिल रही हैं लेकिन कश्मीर में कई लोग बाकी चीजों के साथ रखकर इन्हें एक अलग ही निगाह से देखते हैं.
कुल मिलाकर यह कि जहां भारत सरकार को कोरोना वाइरस जैसी महमारी में कश्मीर के लोगों को जीतने का जो एक मौका मिला था, वह शायद उसने गंवा दिया है. लोगों में संदेह और आक्रोश अब पिछले साल की अगस्त से भी ज़्यादा है और यह कश्मीर को किस दिशा में लेकर जाएगा, कह पाना मुश्किल है.(satyagrah)
पुष्य मित्र
लगातार हुई फजीहत के बाद बिहार सरकार सक्रिय हुई है। आनन-फानन में दो तीन फैसले लिए गए हैं।
पहला यह कि अब रिपोर्ट 24 घंटे में मिल जाएगी। अब तक अमूमन 4 से 8 दिन लग जाते थे। कई मित्रों ने तो बिना रिपोर्ट के ही खुद को सुरक्षित मान लिया है।
दूसरा यह कि एनएमसीएच में अब मृत मरीज के शव को 3 घंटे में बेड से हटा लिया जाएगा। वहां अब तक दो फो दिन मरीज पड़े रहते थे। हैरत की बात है कि क्या एनएमसीएच के पास मोरचुरी नहीं है?
कुछ बेड बढ़ाने की बात चल रही है।
पता नहीं इन फैसलों को लागू होने में कितना वक्त लग जाये। पर यह भी सच है कि इन फैसलों के लागू हो जाने से भी मसला इतनी आसानी से नियंत्रित नहीं होने वाला।
वजह यह है कि बिहार की स्वास्थ्य सेवाओं की बुनियाद ही कमजोर हो गई है। डॉक्टरों और नर्सों के साठ से सत्तर फीसदी पद खाली हैं। सदर अस्पतालों और प्रखंड, अनुमंडल स्तरीय अस्पतालों को मरीजों के इलाज करने का अभ्यास छूट गया है। कई दशकों से पूरा सिस्टम कोलैप्स है। सब कुछ प्राइवेट के भरोसे छोड़ दिया गया था। अब अचानक इन पर भार पड़ गया है।
पटना से लेकर पंचायतों तक काम करने वाले डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की सरकारी सेवा में काम करने की आदत छूट गई है। डॉक्टर पहले सिर्फ हाजिरी लगाने पीएचसी पहुंचते थे फिर अपने क्लीनिक भागते थे। हेल्थ वर्कर बैठकर टाइम पास करते थे।
फरवरी से पहले तक स्वास्थ्य विभाग का काम सिर्फ टीकाकरण करना और आंकड़ेबाजी करना रह गया था, अचानक उसे आपदा से जूझना पड़ रहा है। इस सुस्त और जंग लगी मशीनरी को चालू करना आसान नहीं है।
नीतीश सरकार का भी फोकस कभी शिक्षा और स्वास्थ्य की तरफ नहीं रहा। अस्पतालों को दुरुस्त करने के बदले स्मारकों के निर्माण पर पैसे खर्च किये गए। इससे पैसे बचे तो हर शहर में फ्लाई ओवर बनाए गए। जब इन मुद्दों पर काम करने कहा गया तो सरकार पैसों का रोना रोती रही। अब भुगतना पड़ रहा है।
यह सब एक झटके में नहीं होगा। मंगल पांडे जैसे मंत्री और उमेश कुमावत जैसे प्रशासक के बस की बात नहीं। इसके लिये डायनेमिक प्रशासक चाहिए। जो फ्रंट से लीड करे। अथाह काम है। समझ नहीं आता यह व्यवस्था कैसे सुधरेगी।
स्मिता अखिलेश
लॉक डाउन के मद्दे नजऱ चूँकि बड़ी संख्या में प्रवासी अपने गाँवों की ओर लौट गए है और बुरी तरह से प्रभावित अर्थव्यवस्था में एक आशा की किरन कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर जा टिकी है। इसी को ध्यान में रखते हुए सरकार ने कृषि क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन करते हुए कृषि मंडियों के बाहर अपनी फसल बेचने और कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग को लेकर किसानों के लिए अध्यादेश जारी किए।
अध्यादेश के मुताबिक किसानों को अपनी पसंद के बाजार में उत्पाद बेचने की छूट मिलेगी. आधिकारिक बयान के मुताबिक, ‘कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश 2020 को अधिसूचित किया गया है. इसके तहत किसान अपनी पसंद के बाजार में उपज बेच पाएंगे. सरकार को उम्मीद है कि किसानों को फसलों का बेहतर दाम मिलेगा।
चूँकि कृषि उत्पादों को सीधे व्यापारियों को बेचे जाने के कानून से मंडी बोर्ड का नियंत्रण खत्म हो जायेगा . मंडी बोर्ड को केंद्र सरकार से मिलने वाले 2 प्रतिशत का टैक्स में कटौती हो जाएगी। गौरतलब है कि इस टैक्स मद का बड़ा हिस्सा राज्य शासन को रिसर्व फण्ड और सडक़ निर्माण में दिया जाता है। जिससे राज्य शासन को आर्थिक नुकसान होना तय है।
रही बात किसानों के हित की तो छत्तीसगढ राज्य में 85 प्रतिशत किसान छोटे रकबे वाले है अमूमन यहाँ सरना धान की पैदावार अधिक होती है, जिसे राज्य शासन द्वारा अधिक दामों में खरीदी पहले से ही किया जा रहा है।
मंडी बोर्ड का नियंत्रण खत्म होने से व्यापारियों में फिर से जमाखोरी की प्रवृति को बढ़ावा मिलेगा और कृत्रिम महंगाई की सम्भावना से भी इंकार नही किया जा सकता। वहीँ इस राज्य में लगभग 1700 मंडी कर्मी का रोजगार भी संशय में है।
यह अध्यादेश बड़े किसानों या जो वैकल्पिक खेती करते हैं उनके लिए अधिक लाभप्रद है। इससे राज्य और केंद्र के बीच तारतम्यता स्थापित हो सकेगी इसमें संदेह है बेहतर होता कि इसे राज्य सरकारों की इच्छा के आधार पर लागु किया जाना था ताकि सभी राज्य अपने भौगोलिक और जलवायु के आधार पर होने वाले कृषि उत्पादों को देखते हुए अधिक उपयुक्त निर्णय लेते।
हालाँकि पिछले दिनों कृषि मंत्री ने कृषि सुधारों को लेकर सभी मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर इन सुधारों को सफल तरीके से लागू करने में सहयोग का आग्रह किया था।