विचार/लेख
मनीष सिंह
मोहनदास के शब्द सुनकर कस्तूर को झटका लगा। पलटकर चिल्लाई-आप कैसी बात करते हैं? कुछ भी कहते है? बच्चो के सामने ? दिमाग खराब हो गया है आपका?गांधी अखबार टेबल पर फेंकते हुए हॅंसे। ‘अरे, यह मैं नहीं, जनरल स्मट्स का नया कानून कह रहा है। उसने क्रिश्चियन तरीके से हुई मैरिज को छोडक़र बाकी सभी प्रकार की शादियां अवैध करार दे दी हैं।’
कस्तूर को बात समझ आयी। पूछा - ‘तो क्या हमे चर्च में जाकर फिर से शादी करनी होगी’?
‘नहीं। हम लड़ेंगे, यह कानून स्मट्स को बदलना होगा। हम अपने धार्मिक और परम्परागत रवायतों की रक्षा के लिए लड़ेंगे। हम सत्याग्रह करेंगे’ - गांधी की धीमी महीन सी आवाज कमरे की दीवारों से टकराकर गूंज रही थी। इसकी गूंज, दक्षिण अफ्रीका के शासक, जनरल स्मट्स की कुर्सी हिलाने वाली थी।
आप ब्याह कैसे करना चाहेंगे? फेरे लेकर, कबूल है- कबूल है कहकर, पादरी के सामने किस करके, या मजिस्ट्रेट के सामने पेपर दस्तखत करके? आपकी पसंद चाहे जो हो, क्या सरकार को अधिकार है कि वह शादी के किसी और तरीके को वैलिड कर दे, और दीगर तरीके अवैध।
भारत का संविधान बना तो इन सवालों से संविधान सभा को सोचना था, संसद को सोचना था। तय यही हुआ कि सत्ता धार्मिक, परम्परागत तरीको में हस्तक्षेप नहीं करेगी। शादी आपने अपनी रवायत के अनुसार फेरे लेकर की, या चुम्मा लेकर .. उसे कानूनी मान्यता होगी।
यही पर्सनल लॉ है। विवाह से शुरू होता है, परिवार की परिभाषा तय करता है, उत्तराधिकार की जो रवायतें उस कौम या धर्म के अनुसार हों, उसे यथावत स्वीकार करता है, और मान्यता देता है। उंसके अनुसार टैक्स के नियम रवायतों की इज्जत करते हुए बनते है। हिन्दू अन डिवाईडेड फेमली (॥ह्वस्न) का पैन कार्ड तो सुना होगा, बनवाया भी होगा?
यूनिफार्म सिविल कोड को लेकर बहस है। अधिकांश सिर्फ शब्दों में उलझे हैं। एक देश एक संहिता- हां बे, जनरल स्मट्स के नाती। तो ब्याह, चूमकर करना सबको अनिवार्य किया जाए?? या कबूल कबूल करके??? अच्छा चलो, सबको फेरे लेना कानूनी किया जाए? कौन सा सिस्टम डालेंगे ड्राफ्ट में, बताओ ?
पर्सनल लॉ किसी का व्यक्तिगत (निजी/पर्सनल) कानून नही है। यह उक्त समाज के पर्सन्स ( पीपुल/पेर्सनल्स) के बीच सदियों से चली आ रही रवायतें है, जिसे शासन ने लीगल पर्पज के लिए वैलिड मान लिया है।
कानून रवायतों के बीच पल रही बुराइयों को अनदेखा नही कर सकता। वह सती को आपकी परम्परा नही मान सकता, वह हत्या है। वह दहेज, अस्पृश्यता के निवारण के लिए कानून बनाता है, जो हर धर्म पर लागू है। एससी-एसटी में कोई जातिगत गाली दे, तो वह मुसलमान हो या पारसी, जेल जाएगा।
तमाम कन्फ्यूजन है मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को लेकर। किसी देश की गुणवत्ता इससे नापी जाती है कि अल्पसंख्यकों की निजता की रक्षा कितनी शिद्दत से करता है। यह ला बोर्ड सरकार के पास एक विंडो है, जो उनकी निजी रवायतों की समझ बनाने के लिए सलाहकारी काम करता है।
मुसलमान कितनी शादी करते हैं, कैसे तलाक लेते है, सारी बहस बस इन दो बिंदुओं पर टिकी है। शीर्ष मूर्ख यह भी समझते है कि शायद मुसलमानों के लिए कोई अलग से द्बश्चष्/ष्ह्म्श्चष् है। अज्ञान और उकसावे में मूर्खतापूर्ण नॉन ईशूज 70 साल से देश की छाती पर मचल रहे है।
शाहबानो केस इसमे उठता है। शाहबानो समृद्ध घर की लेडी थी। उसे पैसों की जरूरत नही थी, पति को हराना था। सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी, 200 रुपये की ऐलमोनी के लिए। कठमुल्ले कोर्ट के फैसले को अपनी रवायतों में अतिक्रमण मानकर लॉबीइंग करने लगे। राजीव ने माना कि ये लोग गड्ढे में रहना चाहते हैं, रहे।
आप भी यही मानिए। मुस्लिम महिलायें बुरके में रहे, या हिजाब में उन पर छोडिये। महिला सशक्तिकरण की ढेर चिंता है, तो पहले अपने घर मे इज्जत दीजिये, मा-बहन की गाली देना बंद कीजिए। हिन्दू या मुस्लिम या किसी भी महिला पर अत्याचार हुआ, तो डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट है। सब पर लागू है।
बहरहाल गांधी ने सत्याग्रह किया। खूब बमचक हुई। गांधी जेल गए। यह 1912-14 का दौर था। जिसके अंत मे गांधी भारत लौटे। स्मट्स ने चैन की सांस ली। जाते जाते गांधी ने अपनी चप्पलें स्मट्स को गिफ्ट भेजी, जो उन्होंने जेल में पहनी थी।
स्मट्स को अटपटा लगा होगा। तब तो नही, मगर बरसों बाद उन्होंने गांधी को लिखा
‘ÒI have worn these for many a summer, even though I may feel that I am not worthy to stand in the shoes of so great a man.Ó
आप आज, गांधी के हत्यारों के साथ मिलकर, गांधी की उन चप्पलों को तोडऩे पर आतुर है।
प्रकाश दुबे
बात तब से शुरु की जा सकती है, जब करुणानिधि, बाला साहब ठाकरे, माधव राव सिंधिया, राजेश पायलट, एस वाय राज शेखर रेड्डी, मुफ्ती मोहम्मद सईद, अजीत जोगी जीवित थे। और भी पीछे जा सकते हैं। जब नंदमूरि तारक रामाराव, बाबू जगजीवनराम, एस आर बोम्मई, एस बंगारप्पा राजनीति में सक्रिय थे। वर्तमान हलचल के हिसाब से शुरुआत सचिन पायलट से करना ठीक है। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक रात में बुलाई गई थी। मकसद साफ था। तब तक दिल्ली के अधिकांश वरिष्ठ पत्रकार थकान उतारने चेम्सफोर्ड क्लब के सामने बने राहत शिविर पहुंच जाते हैं। अखबार तैयार करने का दायित्व संभालने वाले संपादकीय सहयोगी संवाद एजेंसी पर आँख गड़ाये रहते हैं। 24, अकबर रोड पर कांग्रेस कार्यालय में मौजूद इक्का--दुक्का पत्रकार चल दिए थे। मैं अंधेरे की आड़ में जिस व्यक्ति की प्रतीक्षा कर रहा था-वे मुख्यालय से बाहर निकले। सफेद कपड़े पहने आर के धवन। देखकर चौंके- दुबेजी ? जी। सच बताइए। आपकी किस बात पर झड़प हुई? धवन का प्रतिप्रश्न था-किसने बताया? आप मुंह पर सच बोलने से नहीं हिचकते। बैठक में किससे झड़प हुई?
धवन के मन में जमा रोष फट पड़ा-इंदिराजी का बाबू होने का मुझे गर्व है। इस बाबू के घर सबेरे सबेरे आप दूध देने आप कई बार सपत्नीक आये। राजेश पायलट महत्वाकांक्षी नेता थे। बारीक दांव चलते थे। नारायण दत्त तिवारी गुम हुए तब वे आंतरिक सुरक्षा राज्यमंत्री थे। पायलट ने कहा-तिवारीजी को ढूंढ निकालेंगे। उनकी सुरक्षा के लिए एक (इंस्पेक्टर) चार (हवलदार) की स्थाई तैनाती करेंगे। गु़लाम नबी आज़ाद ने कहा-ये पायलट पंडत को मरवाएगा। पायलट कई बार प्रधानमंत्री नरसिंह राव से शिकायत कर चुके थे कि गृह मंत्री शंकर राव चव्हाण विश्वास में नहीं लेते।
चव्हाण अलग मिट्टी के बने थे। राजनीतिक-अपराधी गंठजोड़ पर वोहरा समिति की रपट संसद में पेश हुई। प्रधानमंत्री को छोडक़र चव्हाण ने किसी अन्य को हवा नहीं लगने दी। ज़मीनी संपर्क में प्रवीण राजेश पायलट की सडक़ दुर्घटना में मृत्यु हुई। उन्हें भावी प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल किया जाता था। दुर्घटना को लेकर संदेह जताया गया। पत्नी रमा पायलट को कांग्रेस ने लोकसभा उम्मीदवार बनाया। उसके बाद सचिन सक्रिय हुए। राहुल गांधी की युवा मंडली में उन्हें महत्व मिला। कम आयु में संसद और सरकार में शामिल होने का अवसर मिला। दूसरा चेहरा ज्योतिरादित्य का। सफदरजंग इलाके की विशाल कोठी में किसी शाम माधवराव से गपशप होती। ज्योतिरादित्य कारोबार संभालते थे। राजनीतिक चर्चा में ज्योतिरादित्य कभी माधवराव के जीते जी सहभागी नहीं हुए।
माधव राव का जीवन राजकुमार होने के बाद भारी उतार-चढ़ाव से गुजरा था। मां की राजनीतिक वैचारिकता तथा उनके निकटतम विश्वासपात्रों जैसे मसलों पर असहमति थी। प्रकाश चंद्र सेठी अड़े लेकिन कांग्रेस में शामिल किये गये। प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में माधवराव का नाम था। नरसिंह राव का नाम तय होने से पहले कमलनाथ ने चुटकी ली-एक सांसद के दम पर प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल होने वाले भी हैं। एक सांसद मतलब बस्तर से जीतकर आए-महेन्द्र कर्मा जिनका नक्सली हमले में निधन हुआ। इस हमले में छत्तीसगढ़ के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों अजीत जोगी और डॉ. रमन सिंह की मिलीभगत के कई किस्से आज भी हवा में तैरते हैं।
सचिन और ज्योतिरादित्य सहित जिन राजदुलारों को चांदी की चम्मच में पद मिले, उनकी महत्वाकांक्षा उसी अनुपात में आकाश निहारने लगी। सितारे छूने वाली सीढ़ी राजनीति में हमेशा उपलब्ध नहीं होती। कांग्रेस में आरम्भ से दो धाराएं रही हैं। एक संपन्नता के बावजूद सक्रिय राजनीति में अपने को झोंकने की। इसका फल पीढ़ी दर पीढ़ी चखा। वंश बेल से सत्ता का स्वाद चखने मिला। इसके बावजृद श्रम और समर्पण की अनदेखी नहीं की जा सकती। दूसरा प्रवाह मोहन दास गांधी का था। जीते जी उनके किसी परिवार जन को सत्ता में सहभागिता नहीं मिली। गौर करने वाली बात यह है कि गांधी ने किसी न किसी प्रयोग में किसी अपने को झोंक दिया। कुर्बान किया।
इस बात का ध्यान उन लोगों ने भी नहीं रखा जिन्हें गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय संगठन विसर्जित करने की सलाह दी थी ताकि सत्ता की दौड़ में समान अवसर मिले। बसंत राव नाईक, देवराज अरसु, वसंत दादा पाटील, माधव सिंह सोलंकी, करुणाकरण, तरुण गोगोई, कमल नाथ आदि ने परिवार के उद्धार को महत्व दिया। पार्टी ने पूरा सहयोग किया। शरद पवार ने परिवार की तीसरी पीढ़ी को तुरंत लोकसभा की उम्मीदवारी देने पर ऐतराज किया। घर में कलह छिड़ी। इस देश की खूबी है राजनीति, खेल, कारोबार हर क्षेत्र में वारिस की ताजपोशी की लंबी सूची है। प्रो प्रेम कुमार धूमल, वसुंधरा राजे, अमित शाह, राजनाथ सिंह, येदियुरप्पा नाम घोखते हुए थक जाएंगे। एक और धारा थी। परिवारवाद एवं व्यक्तिवाद के विरुद्ध जन्मी इस विचारधारा के बीजू पटनायक, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद, राम विलास पासवान आदि आदि। इनमें ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक को याद करें।
राजनीति में सक्रिय वर्ग के पास एक ज़ोरदार तर्क है। डॉक्टर, वकील, स भी तो यही करते हैं। कारोबार में तो यह आम है। वे सही कहते हैं। राजनीति को कारेाबार के नजरिए से तौलकर अंबानी सफलता के शिखर पर हैं।राजनीति के बारे में अब भी धारणा यही है कि यह समाज सेवा है। इस धारणा का अंत किए बगैर इस तरह के सवाल पूछे जाते रहेंगे। महाराष्ट्र में क्षेत्रीय पार्टी शेतकरी-किसान कामगार पक्ष के नेता नारायण ज्ञान देव पाटिल से किसी ने पूछा-आपने बेटे या किसी को राजनीति में नहीं उतारा। संघर्ष को जीवन समर्पित करने वाले पाटिल ने उत्तर दिया- जिनके लिए राजनीति संपत्ति है या कमाई का जरिया है, वे विरासत सौंपते हैं। मैं तो विचार का कार्यकर्ता हूं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजस्थान उच्च न्यायालय का फैसला कांग्रेस के बागी नेता सचिन पायलट के या तो पक्ष में आएगा या विरोध में आएगा। या हो सकता है कि अदालत सारे मामले को विधानसभा अध्यक्ष पर ही छोड़ दे। हर हालत में अब सचिन पायलट का राजस्थान की कांग्रेस में रहना लगभग असंभव है। उनका कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष का पद गया, उप-मुख्यमंत्री और मंत्री पद गया। अब वे साधारण विधायक हैं। यदि अदालत ने उनके विरुद्ध फैसला दे दिया तो विधानसभा अध्यक्ष उन्हें विधानसभा का सदस्य भी नहीं रहने देंगे।
दल-बदल विरोधी कानून की खूंटी पर सचिन और उनके साथियों को लटका दिया जाएगा। पार्टी की सदस्यता भी जाती रहेगी। और यदि अदालत ने सचिन के पक्ष में फैसला दे दिया तो विधानसभा अध्यक्ष शायद अपना नोटिस वापिस ले लेंगे। फिर आगे क्या होगा? आगे होगा विधानसभा का सत्र! सचिन गुट तब भी कांग्रेस का सदस्य माना जाएगा। यदि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपनी सरकार के प्रति विश्वास का प्रस्ताव लाएंगे तो सचिन-गुट क्या करेगा ? वह यदि उस प्रस्ताव के पक्ष में वोट देता है तो वह अपनी नाक कटा लेगा और यदि विरोध में वोट देता है तो दल-बदल विरोधी कानून के अंतर्गत पूरा का पूरा गुट विधानसभा की सदस्यता खो देगा।
इसीलिए अदालत में जाने का कोई फायदा दिखाई नहीं पड़ रहा है। इस वक्त राजस्थान की कांग्रेस भी सचिन-गुट को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेगी। मुख्यमंत्री गहलोत ने सचिन के लिए जितने कड़ुवे बोल बोले हैं, उसके बाद भी यदि सचिन-गुट राजस्थान की कांग्रेस में रहता है तो उसकी इज्जत दो कौड़ी भी नहीं रह जाएगी। ऐसी स्थिति में सचिन-गुट के लिए अपनी खाल बचाने का क्या रास्ता है ? एक तो यह कि पूरा का पूरा गुट और उसके सैकड़ों-हजारों कार्यकर्ता कांग्रेस से इस्तीफा देकर अपनी एक नई पार्टी बनाए। दूसरा, यह कि सचिन समर्थक विधानसभा में टिके रहें और गहलोत-भक्ति में निमग्न हो जाएं लेकिन स्वयं सचिन विधानसभा से इस्तीफा दें और राजस्थान की राजनीति छोडक़र दिल्ली में आ बैठे। कांग्रेस की डूबती नाव को बचाने में जी-जान लगाए। राजस्थान में सचिन ने जो बचकाना हरकत कर ली, उसका वह हर्जाना भी भर दे और अपनी राजनीति को किसी न किसी रुप में जीवित रखे। अब राजस्थान के जहाज में पायलट के लिए कोई जगह नहीं बची है। (nayaindia.com) (नया इंडिया की अनुमति से)
उत्तराखंड में इस साल बादल फटने से आई बाढ़ के कारण लगभग 20 लोगों की मौत हो चुकी है। यहां हर साल बादल फटने की घटनाएं हो रही हैं, जिसके कई कारण हैं। इसकी पड़ताल एक खास रिपोर्ट-
-वर्षा सिंह, त्रिलोचन भट्ट
बीते 8 अगस्त तक उत्तराखण्ड के लगभग सभी जिलों में सामान्य से कम बारिश दर्ज की गई थी। लेकिन, 8-9 की रात को ज्यादातर हिस्सों में तेज बारिश हुई और तीन जगहों पर बादल फटने की घटनाएं भी दर्ज की गई। इसके बाद 17 की रात से बादल फटने और भारी बारिश की खबरें आ रही हैं। इससे 14 लोगों की मौत और 17 लोगों के लापता हो चुके हैं। इससे पहले हुई घटना में 6 लोगों की मौत हुई थी और एक बच्ची अब तक लापता है। सवाल उठता है कि आखिर उत्तराखंड में बादल फटने की घटनाएं बार-बार क्यों हो रही हैं?
मौसम विज्ञान केंद्र देहरादून के निदेशक बिक्रम सिंह कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों के डाटा का आंकलन करने पर पता चलता है कि पूरे मानसून सीजन में बारिश तो एक समान रिकॉर्ड हो रही है लेकिन इस दौरान रेनी डे (किसी एक जगह, एक दिन में 2.5 मिलीमीटर या उससे अधिक बारिश रिकॉर्ड होती है, उसे रेनी डे कहते हैं) की संख्या में कमी आ रही है। यानी जो बारिश सात दिनों में होती थी, वो तीन दिन में ही हो जा रही है। जिससे स्थिति बिगड़ रही है। साथ ही जो मानसून सीजन जून से सितंबर तक एक समान होता था, वो अब जुलाई-अगस्त में सिकुड़ रहा है।
आपदा प्रबंधन विभाग के निदेशक पीयूष रौतेला के मुताबिक अत्यधिक भारी बारिश से सिर्फ उत्तराखंड ही नहीं हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर को भी बहुत नुकसान होता है। वर्ष 2018 में भारी बारिश से उत्तराखंड में 58 से अधिक मौतें हुईं थीं। वर्ष 2017 में मानसून सीजन में 84 लोगों की मौत हुई थी और 27 लोग लापता हो गए। एक हजार से अधिक मवेशियों की मौत हुई। 1602 आवासीय भवन क्षतिग्रस्त हुए। 1329 सडक़ें टूट गईं और 1244 पुल-पुलिया और सुरंगों का नुकसान हुआ। इसी तरह वर्ष 2010, 2012 और 2016 में भी बादल फटने और भारी बारिश से राज्य में काफी नुकसान हुआ है।
मिजोरम विश्वविद्यालय में प्रोफेसर विश्वंभर प्रसाद सती ने उत्तराखंड में बादल फटने की घटना पर अपना शोध पत्र वर्ष 2018 में स्विटजलैंड में पेश किया। उन्होंने वर्ष 2009 से 2014 के जून से अक्टूबर तक बारिश के आंकड़ों की पड़ताल की। इसी मौसम में बादल फटने की घटनाएं होती हैं। तथ्यों के आंकलन से उन्होंने पाया कि इस दौरान बारिश में अत्यधिक उतार-चढ़ाव आए हैं। बारिश में गिरावट भी दर्ज की गई है। हालांकि इस दौरान अपेक्षाकृत कम अवधि में बारिश की तीव्रता अधिक पायी गई, जो कि बादल फटने के बराबर है, जिससे प्राकृतिक आपदाएं आती हैं। उनके मुताबिक बारिश में अत्यधिक अनियमितता और जलवायु परिवर्तन की वजह से वर्षा की तीव्रता और फ्रीक्वेंसी दोनों बढ़ी हैं।
प्रोफेसर सती कहते हैं कि क्लाइमेट वेरिएबिलिटी पूरे हिमालयी क्षेत्र में बढ़ गई है। बारिश की तीव्रता भी बढ़ गई है। बारिश पॉकेट्स में हो रही है। किसी एक जगह बादल इकट्ठा होते हैं और अत्यधिक भारी वर्षा से बादल फटने जैसे हालात पैदा होते हैं। बारिश का सामान डिस्ट्रिब्यूशन नहीं है। अपने शोध के जरिये वे बताते हैं कि मानसून का टोटल टाइम ड्यूरेशन यानी कुल अवधि भी घट गई है। इसके साथ ही गर्मियों में हीट वेव बढऩे से घाटियां और मध्यम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में गर्मी बढ़ रही है। जिसका असर जलवायु में आ रहे बदलावों पर पड़ता है। प्रोफसर सती का कहना है कि क्लाइमेट चेंज बाद में है, पहले क्लाइमेट वैरिएबिलिटी की समस्या बड़ी हो गई है।
वाडिया इंस्टीट्यूट के जियो-फिजिक्स विभाग के अध्यक्ष डॉ सुशील कुमार कहते हैं कि निश्चित तौर पर बादल फटने की घटनाएं पिछले एक दशक में बढ़ी हैं। उत्तराखंड में पहले भी बादल फटते थे लेकिन वो दुर्गम इलाकों में किसी गांव में ऐसी इक्का-दुक्का घटनाएं होती थीं। जिससे नुकसान भी इतना अधिक नहीं होता था। लेकिन अब मल्टी क्लाउड बर्स्ट यानी बहुत सारे बादल एक साथ एक जगह पर फट रहे हैं। जिससे काफी नुकसान हो रहा है।
डॉ सुशील के मुताबिक टिहरी बांध के अस्तित्व में आने के बाद इस तरह की घटनाओं में खासतौर पर इजाफा हुआ है। टिहरी में भागीरथी नदी पर करीब 260.5 मीटर ऊंचा बांध बना है। जिसका जलाशय करीब 4 क्यूबिक किलोमीटर का करीब 3,200,000 एकड़ फीट में फैला है, जिसका उपरी हिस्सा करीब 52 वर्ग किलोमीटर का है। जिस भागीरथी नदी का कैचमेंट एरिया (जलग्रहण क्षेत्र) पहले काफी कम था, बांध बनने के बाद वो बहुत अधिक हो गया। वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक के मुताबिक इतनी बड़ी मात्रा में एक जगह पानी इकट्ठा होने से बादल बनने की प्रक्रिया में अत्यधिक तेज़ी आई। मानसून सीजन में बादल इस पानी को संभाल नहीं पाते हैं और फट जाते हैं। पूरे उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाएं चल रही हैं। नदी का प्राकृतिक बहाव रोकने से प्रकृति मुश्किल में आ गई है। इसलिए बादल फटने की घटनाओं में भी तेजी आई है।
हिमालयन पर्यावरण अध्ययन एवं संरक्षण संस्था के संस्थापक डॉ अनिल जोशी जो लगातार हिमालयी पर्यावरण का अध्ययन करते हैं, मानते हैं कि बादल फटने की घटनाओं में पिछले एक दशक में निश्चिततौर पर इजाफा हुआ है। पर्यावरणविद् अनिल जोशी का कहना है कि टिहरी बांध की विशाल झील से जो वाष्पीकरण होता है वो बरसात के मौसम में भारी बादल बनाता है। जिसका असर सिर्फ गढ़वाल पर ही नहीं कुमाऊं पर ही होता है। वे कहते हैं कि सरकार इसलिए भी बादल फटने की घटना से इंकार करती हैं क्योंकि उन्हें अभी काली नदी पर पंचेश्वर डैम बनाना है, जिसका आकार टिहरी झील से कई गुना बड़ा होगा। टिहरी झील बनाने के बाद पर्यावरण पर उसके प्रभाव का अध्ययन जरूरी हो जाता है।
उत्तराखंड में बादल फटने की पहली बड़ी घटना 1952 में सामने आई थी। जब पौड़ी जिले के दूधातोली क्षेत्र में हुई अतिवृष्टि से नयार नदी में अचानक बाढ़ आ गई थी। इस घटना में सतपुली कस्बे का अस्तित्व पूरी तरह से खत्म हो गया था। वहां खड़ी कई बसें बह गई थी और कई लोगों को मौत हो गई थी। 1954 में रुद्रप्रयाग जिले के डडुवा गांव में अतिवृष्टि के बाद भूस्खलन से पूरा गांव दब गया था। 1975 के बाद से लगभग हर साल इस तरह की घटनाएं होने लगी और अब हर बरसात में 15 से 20 घटनाएं दर्ज की जा रही हैं।
उत्तराखंड वानिकी एवं औद्यानिकी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के अध्यक्ष डॉ. एसपी सती इंटरगवर्नमेंट पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट का हवाला देते हैं। वे लगातार बढ़ रही अतिवृष्टि की घटनाओं को ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाले क्लाइमेट चेंज का असर मानते हैं। सती कहते हैं कि अब एक साथ सूखा और अतिवृष्टि का सामना करना पड़ रहा है। वर्ष में ज्यादातर समय सूखे की स्थिति बनी रहती है और कुछ दिन के भीतर इतनी बारिश आ जाती है कि जनधन का भारी नुकसान उठाना पड़ता है। वे कहते हैं अतिवृष्टि से होने वाला नुकसान इस बात पर निर्भर करता है कि उस क्षेत्र में पहाड़ी ढाल की प्रवृत्ति किस तहत की आमतौर पर भंगुर और तीव्र ढाल वाले क्षेत्र में अतिवृष्टि से ज्यादा नुकसान होता है।
सती पर्वतीय क्षेत्रों में बड़ी संख्या में बनने वाली सडक़ों को भी अतिवृष्टि से होने वाले नुकसान का कारण मानते हैं। उनका कहना है कि उत्तराखंड में पिछले 20 वर्षों में लगभग 50 हजार किमी सडक़ों का निर्माण हुआ है। एक किमी सडक़ निर्माण में औसतन 40 घन मीटर मलबा पैदा होता है। इस तरह इन 20 वर्षों में हम 200 करोड़ घनमीटर मलबा पैदा कर चुके हैं। इस मलबे के निस्तारण के लिए भी कोई वैज्ञानिक तरीका नहीं अपनाया जाता। मलबा पहाड़ी ढलानों में ही पड़ा रहता है और तेज बारिश होने पर निचले क्षेत्रों में नुकसान पहुंचाता है।
लेखक व पर्यावरण संबंधी मसलों के जानकार जयसिंह रावत पहाड़ों में अतिवृष्टि के लिए वनों के असमान वितरण को भी एक बड़ा कारण मानते हैं। वे कहते हैं कि उत्तराखंड के 70 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में वन हैं, लेकिन मैदानी क्षेत्रों में वन नाममात्र के ही हैं। ऐसे स्थिति में मानसूनी हवाओं को मैदानों में बरसने के लिए अनुकूल वातावरण नहीं मिल पाता और पर्वतीय क्षेत्रों में घने वनों के ऊपर पहुंचकर मानसूनी बादल अतिवृष्टि के रूप बरस जाते हैं। वे कहते हैं कि आज जरूरत सिर्फ पर्वतीय क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि मैदानी क्षेत्रों में भी तीव्र वनीकरण की आवश्यकता है। (downtoearth)
-श्रवण गर्ग
कोरोना प्रभावितों की संख्या ग्यारह लाख को पार कर गई है! हमें डराया जा रहा है कि दस अगस्त के पहले ही आंकड़ा बीस लाख को लांघ सकता है।यानि हम इस मामले में शीघ्र ही दुनिया में ‘नम्बर वन’ हो जाएँगे। देश में सामुदायिक विकास अभी भी एक अधूरा सपना है पर कहा जा रहा है कि कोरोना का सामुदायिक संक्रमण फैल चुका है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने चिंता ज़ाहिर की है कि हालात बहुत ही ख़राब हैं। संक्रमितों की तादाद तो लगातार बढ़ रही है पर ज़्यादा आश्चर्य यह है कि असंक्रमितों की निश्चिंतता पर इसका कोई असर दिखाई नहीं दे रहा है। लोगों को यह भी याद नहीं है कि कोरोना के सिलसिले में प्रधानमंत्री ने देश को आख़िरी बार कितनी तारीख़ को कितने बजे सम्बोधित किया था और क्या कहा था! मोदी ने हाल ही में इस सिलसिले में जो कुछ कहा उसे ज़रूर याद किया जा सकता है।
प्रधानमंत्री ने यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक परिषद) के एक उच्च-स्तरीय सत्र को हाल के अपने वर्चुअल सम्बोधन में बताया कि : 'भारत में कोरोना महामारी से लड़ने के लिए इसे एक जन आंदोलन बना दिया गया है जिसमें सरकार की कोशिशों के साथ-साथ नागरिक समाज भी अपना योगदान दे रहा है।’ कोरोना से लड़ाई निश्चित ही एक जन आंदोलन इस मायने में तो बन ही गई है कि ‘व्यवस्था’ अब अपनी व्यवस्था की ज़िम्मेदारी लोगों की व्यवस्था के हवाले करती जा रही है। लोगों को वर्चुअली सिखाया जा रहा है कि वे अपनी इम्यूनिटी को बढ़कर कैसे महामारी को मात दे सकते हैं। हो सकता है आगे चलकर, रहवासी बस्तियों में ही छोटे-छोटे अस्पताल और क्वॉरंटीन केंद्र स्थायी रूप से बनाने की योजना को भी लागू कर दिया जाए। कोरोना को मात देना जिंगल और गानों में बदला जा रहा है। इसे सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का ज़मीनी स्तर तक विकेंद्रीकरण भी कहा जा सकता है।
सरकारों और उन्हें चलाने वाली पार्टियों के पास वैसे भी कई और भी महत्वपूर्ण काम करने के लिए होते हैं ! और फिर, दिन और रात मिलाकर पास में होते तो चौबीस घंटे ही हैं। इतने में ही महामारी से भी लड़ना है, सीमाओं की रक्षा भी करनी है, अर्थ व्यवस्था भी सुधारनी है और चुनी हुई सरकारों को गिराने-बचाने का काम भी तत्परता से किया जाना है। इसलिए ज़रूरी है कि कम से कम एक काम में तो लोगों को आत्म निर्भर होने को कह दिया जाए। इससे माना जा सकता है कि जब महामारी के लिए जनता सरकार का मुँह देखना बंद कर देती है तो उसके साथ लड़ाई एक जन आंदोलन बन जाती है।
हक़ीक़त यह है कि जितनी रफ़्तार से कोरोना बढ़ रहा है, लोगों का अनुशासन भी उतनी ही तेज़ी से फूटकर सड़कों पर रिस रहा है। यह भी कह सकते हैं कि लोग बैठे-बैठे बुरी तरह थक गए हैं। ऐसा इसलिए है कि कोरना जैसी वैश्विक महामारी से लड़ना और वह भी किसी वैक्सीन के अभाव में जिस तरह के अनुशासन की माँग करता है उसके लिए एक राष्ट्रीय कर्तव्य के रूप में लोगों को कभी तैयार ही नहीं किया गया। समुद्र तटों पर बसने वाले मछुआरे जन्म-घूटी के साथ ही तूफ़ानों से लड़ने के लिए दीक्षित होते रहते हैं। अधिकांश जनता को तो केवल नारे लगाने वाली भीड़ की तरह ही प्रशिक्षित किया जाता रहा है।
थाईलैंड के बहादुर बच्चों की कहानी हमारी राजनीतिक तबियत से मेल नहीं खाती। उसे भूल-सा भी गए हैं हम। ग्यारह से सोलह साल के बारह फ़ुट्बॉल खिलाड़ी बच्चे अपने पच्चीस-वर्षीय कोच के साथ दो साल पहले 23 जून को थाइलैंड की थाम लुआंग गुफा में तीन सप्ताह के लिए फँस गए थे। दो किलो मीटर लम्बी और आठ सौ मीटर से ज़्यादा गहरी अंधेरी घुप्प गुफा में जहां जगह-जगह पानी भरा हुआ था ये बच्चे बिना किसी आहार के केवल अपनी उस इम्यूनिटी की ताक़त के बल पर बचे रहे जो प्रार्थनाओं के अनुशासन के ज़रिए उनकी साँसों में उनके कोच के द्वारा भरी गई थी। कहानी सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि बच्चे जो गुफा के अंदर थे सुरक्षित बचा लिए गए ! कहानी यह है कि बच्चे जब गुफा में क़ैद थे, उनका पूरा देश बाहर उनके लिए प्रार्थनाएँ कर रहा था। क्या हमारे यहाँ ऐसा हो रहा है ?
आत्म निर्भर बनाए जा रहे देश के लोग इस समय बड़ी संख्या में कोरोना की अंधेरी गुफा में प्रवेश करते जा रहे हैं, पर उन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं है कि प्रार्थनाएँ और अनुशासन क्या होता है ! जो पीड़ित हैं उनके लिए तो प्रार्थनाएँ उनके परिजनों के साथ-साथ वे लोग कर रहे हैं जो खुद की जान को जोखिम में डालकर उनकी चिकित्सा-सेवा में जुटे हुए हैं।पर जिन्हें जगह-जगह धक्के खाने के बाद भी उचित इलाज नसीब नहीं हो पा रहा है और जिनकी मौतें हो रही हैं उनकी कहानियाँ भी अब हज़ारों में हैं। हो यह भी रहा है कि कोरोना-पीड़ित जब विजेता बन कर अपने घर की तरफ़ लौटता है, तो आसपास के घरों के दरवाज़े बंद कर लिए जाते हैं। कोरोना से लड़ाई में इस समय कोच कौन है, देश को उसका भी पता नहीं है। पहले पता था।
महामारी न तो पार्टियों की कम-ज़्यादा सदस्य संख्या और न ही उनके झंडों के रंग देखकर हमला कर रही है। सवाल यह है कि कोरोना की जब मार्च में शुरुआत हुई थी और प्रतिदिन केवल सौ सैम्पलों की जाँच होती थी तब में और आज जबकि साढ़े तीन लाख से अधिक सैम्पलों की जाँच रोज़ाना हो रही है, हमारे और व्यवस्था के नागरिकत्व में कितना फ़र्क़ आया है ? हम देख रहे हैं कि बढ़ती जाँचों के साथ-साथ मरीज़ भी बढ़ते जा रहे हैं और साथ ही संवेदनशून्यता भी। हो सकता है वक्त के बीतने के साथ-साथ इनका बढ़ना हमारे सोच से काफ़ी बड़ा हो जाए।अतः चिंता कोरोना महामारी की नहीं उस संवेदनशून्यता की है जिसे पहले व्यवस्था ने जनता को हस्तांतरित कर दिया और अब वही अनुशासनहीनता के रूप में नागरिकों के स्तर पर व्यक्त हो रही है। जो गुफाओं में क़ैद हैं उनकी मज़बूरी तो समझी जा सकती है पर जो बाहर हैं वे भी अपने कोच को लेकर कोई सवाल अथवा पूछताछ नहीं कर रहे हैं। इस अवस्था को जीवन-मृत्यु के प्रति लोगों का निरपेक्ष भाव मान लिया जाए या फिर व्यवस्था का सामूहिक मौन तिरस्कार ?
-सरोज सिंह
बिहार, 21 जुलाई। बिहार में जुलाई के पहले 18 दिन में कोरोना के 15 हजार से ज्यादा मामले सामने आए हैं। मई और जून दोनों महीनों के आंकड़ों को मिला भी दिया जाए तो ये संख्या उससे अधिक है।
इसलिए विपक्ष नीतीश सरकार पर हमलावर है और तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि बिहार कोरोना का ग्लोबल हॉटस्पॉट बनने जा रहा है। कुछ इसी तरह की बात मेडिकल जर्नल लैंसेट की रिपोर्ट में कही गई है। 17 जुलाई की इस रिपोर्ट में भारत के तमाम राज्यों के 20 जिलों का वल्नरबिलिटी इंडेक्स बताया गया है। 20 में से 8 जिले अकेले बिहार के हैं।
आसान शब्दों में कहें तो इसमें ये बताया गया है कि कौन सा राज्य कोरोना की चपेट में आने के बाद उससे लडऩे के लिए कितना तैयार है। इस इंडेक्स में मध्य प्रदेश के बाद नंबर आता है बिहार का। यानी इन दोनों राज्यों की व्यवस्था चरमराने का खतरा सबसे ज्यादा है।
डब्ल्यूएचओ और आईसीएमआर दोनों ही संस्थाएं कोरोना के खिलाफ लड़ाई में टेस्टिंग को सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई मानती है। यानी टेस्ट अधिक से अधिक होगा, तो पॉजिटिव लोगों के बारे में जानकारी समय पर मिलेगी और फिर उनके कॉन्टेक्ट को ट्रेस और आइसोलेट करने में मदद मिलेगी।
लेकिन प्रदेश की सरकार उसी में पिछड़ती जा रही है। बिहार में प्रति मिलियन टेस्ट की बात करें, तो आंकड़ा 3000 है। बिहार से कहीं छोटा राज्य दिल्ली है। वहां प्रति मिलियन 45000 टेस्ट किए जा रहे हैं।
हालांकि ये आंकड़े महाराष्ट्र, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में इससे भी कहीं ज्यादा हैं। इन आंकड़ों से समझा जा सकता है कि बिहार में टेस्टिंग की हालत कितनी खराब है। अगर टेस्ट नहीं होंगे तो पॉजिटिव लोगों के बारे में पता नहीं चल पाएगा। और फिर कॉन्टेक्ट ट्रेसिंग भी नहीं हो पाएगी।
एलएनजेपी पटना के हड्डी रोग विभाग के पूर्व निदेशक डॉक्टर एचएन दिवाकर की मानें, तो जुलाई में आंकड़ों में इजाफा इसलिए भी आया है क्योंकि टेस्टिंग बढ़ी है। इसे केवल नकारात्मक तरीके से ही नहीं देखना चाहिए। जांच ज्यादा होगी तो मामले ज्यादा निकलेंगे ही। बिहार में आज सुबह तक कुल 3 लाख 78 हजार लोगों के टेस्ट हुए है, जिनमें से पिछले 24 घंटे में 10 हजार से ज्यादा टेस्ट हुए हैं।
बिहार की बिगड़ती गुई कोरोना स्थिति पर केंद्र सरकार की भी नजर है। इसलिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की तीन सदस्य टीम स्थिति का जायजा लेने रविवार को बिहार पहुंची है।
इस टीम में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल, नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल के डॉक्टर एसके सिंह और एम्स नई दिल्ली के डॉक्टर नीरज निश्चल शामिल हैं। सोमवार देर शाम इनकी वापसी है। लेकिन दो दिन में ये टीम इस बात का पता लगाएगी कि आखिर राज्य सरकार में चूक कहां हुई।
ये हाल तब है जब बिहार में बीजेपी सत्ता में शामिल है. बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे ख़ुद बीजेपी कोटे से स्वास्थ्य मंत्री हैं।
दिल्ली में एक समय पर कोरोना की स्थिति ऐसी बिगड़ती नजर आई थी। दिल्ली सरकार ने समय रहते अलार्म बेल बजाया, और केंद्र सरकार हरकत में आई। खु़द मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और स्वास्थ्य मंत्री से मदद माँगी और मामला काबू में आता दिख रहा है।
लोकजनशक्ति पार्टी के नेता और लोकसभा सांसद चिराग पासवान ने ट्वीट पर केंद्र सरकार द्वारा टीम भेजने की पहल की सराहना की है। लेकिन बिहार सरकार की अपनी तरफ से ऐसी कोई पहल नहीं दिखी।
लेकिन बिहार सरकार ने अपनी तरफ से खुल कर केन्द्र से ना कोई मदद मांगी ना ही खतरे की घंटी का जिक्र ही किया। केन्द्रीय टीम ने बिहार दौरे के दौरान केन्द्र सरकार के बनाए कंटेन्मेंट जोन प्लान को सख्ती से अमल में लाने की बात भी कही है। इन सबको देखते हुए विपक्ष भी राज्य सरकार को फेल बताने से भी परहेज नहीं कर रही है।
हालाँकि बिहार सरकार ने कोरोना की बिगड़ती हुई हालत से निपटने के एक बार फिर से लॉकडाउन लगाया है। उसका कितना फायदा मिलेगा इसका पता कुछ समय बाद चलेगा। लेकिन डॉक्टर दिवाकर का मानना है कि पिछले लॉकडाउन का सही इस्तेमाल ना तो सरकार ने किया और ना ही जनता ने। डॉक्टर दिवाकर कहते हैं कि अभी तक बिहार में प्राइवेट अस्पतालों में के लिए कोई टेस्टिंग प्रोटोकॉल सरकार की तरफ से जारी नहीं किया गया है।
इतना ही नहीं पटना में केवल दो अस्पतालों को ही कोविड19 अस्पताल बनाया गया है। इसके अलावा दो अस्पतालों को आइसोलेशन सेंटर बनाया गया है। नतीजा ये कि बाकी जिलों से ज्यादातर मरीजों को पटना रेफर किया जा रहा है और प्राइवेट अस्पतालों ने इलाज के लिए हाथ खड़े कर दिए हैं, उनका बोझ भी इन्ही अस्पतालों पर पड़ रहा है।
दिल्ली या बाकी राज्यों में प्राइवेट अस्पतालों को कोविड से लडऩे के लिए जिस तरह से तैयार रहने के आदेश राज्य सरकार से मिले हैं, वैसे आदेश बिहार सरकार की तरफ से जारी नहीं किए गए हैं।
बिहार का हेल्थ केयर सिस्टम
बिहार सरकार अपने विज्ञापनों और ट्वीट में राज्य के बेहतर रिकवरी रेट का हवाला देती आई है। बिहार में फिलहाल रिकवरी रेट 62.9 फीसदी है. लेकिन जानकारों की मानें, तो रिकवरी रेट कोरोना की सही तस्वीर पेश नहीं करते।
आईएमए बिहार के सचिव सुनील कहते हैं कि बिहार में हेल्थ केयर सिस्टम की खस्ता हालत ही बिहार के कोरोना विस्फोट के लिए जिम्मेदार है। बीबीसी से फोन पर बातचीत में डॉक्टर सुनील कहते हैं, नालंदा मेडिकल कॉलेज पटना में कोविड अस्पताल है. वहाँ एनेस्थेसिया विभाग में 25 सीनियर रेजिडेंट्स का पद हैं। उनमें से एक भी पद पर आज की तारीख में डॉक्टर नहीं हैं। 60 साल की उम्र से अधिक दो डॉक्टरों और 5 जूनियर रेजिडेंट डॉक्टरों की मदद से आज किसी तरह से काम चल रहा है।
डॉक्टर सुनील कहते हैं कि यही हाल ज़्यादातर मेडिकल कॉलेज का है। जब फ्रंटलाइन वर्कर ही नहीं होंगे तो कोरोना से निपटेगा कौन?
आईएमए के अनुमान के मुताबिक बिहार में सभी मेडिकल कॉलेजों को मिला कर 3000 पद खाली हैं। उनके मुताबिक आईएमए ने राज्य सरकार में मुख्यमंत्री से लेकर स्वास्थ्य सचिव तक सभी को तुरंत रिक्त पदों पर नियुक्ति के बारे में कई पत्र लिखे हैं लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। इसी तरह से मरीज और डॉक्टर अनुपात, मरीज और अस्पताल में बेड के अनुपात में भी बिहार देश के सबसे पिछले राज्यों में से एक हैं।
कोरोना और राजनीति
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं कि कोरोना के लिए बिहार सरकार की तैयारी वैसी ही थी, जैसी किसी को अपने दुश्मन के खिलाफ बिना हथियार के जंग लडऩे के लिए उतार दिया जाए।
राज्य सरकार ने कोरोना के कार्यकाल में स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव का ही तबादला कर दिया। इसके पीछे कई वजहें गिनाई गईं लेकिन महामारी के बीच में ऐसा करने पर विपक्ष को राजनीति का हथियार मिल गया।
मणिकांत आगे कहते हैं, जैसे बाकी प्रदेशों के मुख्यमंत्री चाहे वो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे हों, या फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हों या फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सभी समय समय पर कोरोना काल में हरकत में नजर आए। दूसरे मुख्यमंत्रियों की तुलना में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कम एक्टिव दिखे। विपक्ष हमेशा नीतीश कुमार के क्वारंटीन में होने की बात ही करता रहा।
हालांकि नीतीश कुमार पाटलिपुत्र स्पोर्टस सेंटर में बने कोविड केयर में मुआयना करने गए थे, लेकिन ज्यादातर वीडियो कॉन्फ्ररेंसिंग से ही स्थिति पर नजर रखते रहे।
मणिकांत ठाकुर के मुताबिक कुछ राज्यों ने कोरोना में आने वाले दिनों में हालात कितने बद से बदतर होने वाले हैं इसके लिए टास्क फोर्स बनाया लेकिन बिहार सरकार ने ऐसी कोई पहल नहीं की।
ये भी वजह थी कि सरकार के पास एक्सपर्ट नहीं थे जो उन्हें सही समय पर सही सलाह दे पाते. उनका मानना है कि राज्य सरकार में ज्यादातर फैसले नौकरशाहों ने किए बीमारी के जानकार डॉक्टरों ने नहीं।
वो मानते हैं कि राज्य सरकार ने प्रवासी मजदूरों पर भी निर्णय देर से लिया। लेकिन वो साथ में ये भी जोड़ते हैं कि उसमें नीतीश सरकार की ज्यादा गलती नहीं थी, क्योंकि उन्होंने केंद्र के प्रोटोकॉल को ही फोलो किया था।
इतना जरूर है कि प्रवासी मज़दूरों को ठीक से संभाल पाने में सरकार कामयाब नहीं रही। क्वारंटीन सेंटर में ना तो खाने की व्यवस्था अच्छी ना रहने की ना शौचालय की। इनकी हालत की और भ्रष्टाचार की भी खबरें सबने देखी ही है। इसलिए सबसे पहले क्वारंटीन सेंटर भी बिहार में ही बंद किया गया।
फिलहाल बिहार में कोरोना से मरने वालों का आंकड़ा दूसरे बड़े राज्यों के मुकाबले कम है। विपक्ष सरकार पर वर्चुअल रैली में व्यस्त रहने का आरोप लगा रही है लेकिन चौक चौराहों से जो तस्वीरें आ रही हैं वो अपने आप मे डराने वाली है।
डॉक्टर दिवाकर की मानें, तो पूरा दोष सरकार पर मढ़ देना भी सही नहीं है। बिहार में जगह-जगह कोरोना के लक्षण और बचाव के बारे में पोस्टर लगे हैं। बावजूद इसके किसी भी चौक चौराहे पर इसका पालन करते आपको लोग नहीं दिखेगें। जब मोबाइल फोन पर आपको इसके बारे में बताया जा रहा है, टीवी पर हर घंटे कई बार विज्ञापन दिखाया जा रहा है, फिर भी लोग ना तो मास्क पहनने को राजी है और ना ही सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे हैं।
बिहार में नेता प्रतिपक्ष ने ट्विटर पर एक वीडियो पोस्ट किया है, जिसमें जांच के लिए अस्पताल में खड़े लोग एक दूसरे के साथ पीठ से पीठ सटाए खड़े नजर आ रहे हैं।
डॉक्टर दिवाकर कहते हैं कि इसके लिए सरकार को नहीं जनता को दोषी मानना चाहिए। जब तक लोगों में कोरोना से भय नहीं होगा और बचाव के लिए ख़ुद लोग सजग नहीं होंगे, प्रशासन के सारे उपाय धरे के धरे रह जाएंगे।
तो बिहार को क्या करना होगा?
इसका जवाब लैंसेट की रिपोर्ट में है। इस रिपोर्ट को लिखने वाले राजीब आचार्य ने बीबीसी से बात की। राजीब पॉपुलेशन काउंसिल ऑफ इंडिया के साथ जुड़े हैं। उनके मुताबिक बिहार को हेल्थ सिस्टम पर ज्यादा खर्च करने की जरूरत है और वो भी जिला स्तर पर। इसके अलावा लोगों की समाजिक और आर्थिक स्थिति पर ध्यान देने की जरूरत है ताकि घरों में पानी, टॉयलेट जैसी बुनियादी सुविधाएं लोगों को मिल सके।
इसके अलावा बिहार में गरीब लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। कोरोना की स्थिति से कैसे निबटेंगे, ये राज्य सरकार को सुनिश्चित करने की जरूरत है कि उनका इलाज कैसे होगा और खर्च कैसे चलेगा।
जाहिर है ये सभी चीजें रातों रात नहीं होंगी। लेकिन पांच महीने में भी बिहार सरकार ने इस दिशा में क्या किया, ये अब सोचने का सही वक्त है।(bbc.com/hindi)
अपने नागरिकों की निगरानी एक बुरी नजीर है और हो सकता है कि यह इस स्वास्थ्य संकट के खत्म होने के बाद भी जारी रहे
-अक्षत संगोमला
कोविड-19 के मरीजों के नाम जारी करने से लेकर, मोबाइल ऐप के माध्यम से लोगों को उनकी निजी जानकारी साझा करने तक, केंद्र और राज्य सरकारें इस स्वास्थ्य संकट के समय खुलेआम लोगों की निजता और मानवीय मर्यादा का उल्लंघन कर रही हैं। दरअसल, सरकारें मोबाइल निगरानी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के उपयोग से चेहरे की पहचान का एक पुरातन कानून का दोहन कर रही है जो टेलीविजन के आविष्कार से पहले वजूद में आया था। यह कानून है महामारी अधिनियम (एपिडेमिक एक्ट) 1897, जो पिछले 123 वर्ष से बिना किसी बड़ा बदलाव के चल रहा है।
इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स में स्वास्थ्य सलाहकार पीएस राकेश द्वारा वर्ष 2016 में प्रकाशित एक शोधपत्र में पाया गया कि यह कानून सरकारों को लोगों की स्वायतता, गोपनीयता और स्वतंत्रता पर परिस्थिति को बिना स्पष्ट तौर पर परिभाषित करते हुए लगाम लगाने की इजाजत देता है। यह कानून किसी नैतिक और मानव अधिकारों पर तो कुछ नहीं कहता, साथ ही, अधिकारियों को भी किसी मुकदमे या कानूनी कार्रवाई से सुरक्षा देता है। 1897 का यह कानून, 2005 के राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून के साथ मिलकर कोविड-19 से लड़ने के कड़े कदमों को उठाने के लिए कानूनी नींव प्रदान करता है।
डिजिटल निगरानी के अलावा सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने के लिए राज्य सरकारें पुलिस के द्वारा इस्तेमाल में लाए दाने वाली तकनीकों का इस्तेमाल अपने नागरिकों के ऊपर नजर रखने के लिए कर रही हैं। प्रशासन हर वे तरीके इस्तेमाल करने के लिए उत्सुक है जिससे वायरस के प्रसार को रोका जा सके, लेकिन जनता के ऊपर बिना किसी मजबूत कानूनी ढांचे के निगरानी की वजह से सार्वजनिक सुरक्षा और व्यक्तिगत गोपनीयता के बीच अनिश्चित संतुलन बनने के खतरे की तरफ इशारा करता है। उदाहरण के लिए केंद्र सरकार द्वारा प्रचारित आरोग्य सेतु मोबाइल एप्लीकेशन को देखें तो इसमें भी निजता की चिंताएं शामिल हैं, जैसे ऐप पर दी गई जानकारी को कैसे उपयोग या साझा किया जाएगा।
इसी तरह, राज्य सरकारें ऐप और वेबसाइट का बिना निजता सुरक्षा उपायों के जारी कर रही हैं और जिसका उपयोग बड़ी संख्या में लोगों के गंभीर स्वास्थ्य और निजी जानकारी इकट्ठा करने में हो रहा है। तमिलनाडु अपने क्वारंटाइन ऐप से पुलिस के माध्यम से लोगों की निगरानी कर रही है। बिना गोपनीयता नीति और उपयोग की शर्तों के साथ ऐप को जारी कर दिया। मानव अधिकारों के लिए लड़ने वाली एक गैर लाभकारी संगठन एक्सेस नाउ की रिपोर्ट चेताती है कि स्थान की निगरानी बिना किसी सुरक्षा उपाय के रखने से वे जानकारियां भी साझा हो सकती हैं जिनका जिनका कोरोनावायरस के संग लड़ाई में कोई काम नहीं है और ऐसे पूरा देश निगरानी की जद में आ जाता है।
यह स्थिति वैश्विक स्तर पर भी समान रूप से गंभीर है क्योंकि कई देश अपने कानूनों में बदलाव कर निरंकुश होकर बिना जनता की सहमति के उन पर नजर रखने का अधिकार पा रहे हैं। प्राइवेसी इंटरनेशनल के एडवोकेसी डायरेक्टर एडिन ओमानोविक कहते हैं, “निगरानी का जो दौर हम लोग देख रहे हैं, वह वाकई अभूतपूर्व है। यह 9/11 के उस समय से भी आगे निकल गया है जब से विश्व में सरकारें जनता पर निगरानी रखने लगी हैं। कानून, ताकत और तकनीकों का उपयोग विश्वभर में मानव की आजादी पर एक गंभीर और लंबे समय तक चलने वाला खतरा पैदा कर रहा है।” यह संस्था 100 दूसरे नागरिक संगठनों के साथ मिलकर वैश्विक स्तर पर सरकारों से कोविड-19 के समय उठाए गए आक्रामक कदमों से मानव अधिकारों को सुरक्षित रखने की सिफारिश कर रही है। वह आगे कहते हैं कि यह जाहिर है कि असाधारण संकट के लिए असाधारण कदमों की जरूरत होती है, लेकिन ऐसे वक्त में अद्वितीय बचाव की भी जरूरत होती है।
सरकारें न केवल लापरवाही से प्रौद्योगिकी का उपयोग कर रही हैं, बल्कि लोग सवाल पूछने से भी डरते हैं। दिल्ली स्थित सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी की नीति अधिकारी मीरा स्वामीनाथन कहती हैं, “नागरिक अभी अपने परिवारों की चिकित्सीय जानकारी सार्वजनिक डेटाबेस और मोबाइल ऐप पर अंधाधुंध रूप से साझा कर रहे हैं, जो उन्होंने सामान्य परिस्थितियों में कभी नहीं किया होगा।”
साथिया वेंकटेशन 23 मार्च को न्यूयॉर्क से हैदराबाद लौंटी और सेल्फ क्वारंटाइन में लगातार उत्पीड़न और डर के माहौल में रही। वह कहती हैं, “पहले एयरपोर्ट के अधिकारियों ने मेरी कलाई पर सेल्फ-क्वारंटाइन का ठप्पा लगाया। तीन दिन के बाद नगर निगम के लोग आकर मेरे घर के आगे क्वारंटाइन का एक नोटिस चिपका गए। उन्होंने कहा कि वह उनका परीक्षण करने बीच-बीच में आएंगे। हालांकि, उसके बाद से कोई भी उनकी तरफ से नहीं आया। इस दौरान, वह नोटिस मेरे सोसाइटी के व्हाट्सऐप ग्रुप में हलचल मचाने लगा। इससे मुझे पता चला कि आपातकालीन जरूरत पड़ने पर मेरी मदद को कोई नहीं आने वाला।” वेंकटेशन ने एक और चिंताजनक बात कही, “सरकार के विभागों के बीच जानकारियां साझा नहीं हो रही हैं। मैंने एयरपोर्ट पर अपनी सारी जानकारी भरी थी। कुछ दिन बाद मुझे स्थानीय पुलिस का फोन आया कि उन्हें मेरा पता चाहिए। उनका कहना था कि एयरपोर्ट से उन्हें सिर्फ मेरा फोन नंबर मिला।”
कई देश निगरानी और लोगों की जानकारी इकट्ठा करने के तरीके अपनाया, लेकिन पुराने अनुभव कहते हैं कि ये जानकारियां किसी काम नहीं आतीं। वर्ष 2014 में अफ्रीका में इबोला के प्रसार पर हुए शोध में योगदान देने वाली सियन मार्टिन मेकडोनाल्ड लिखती हैं, “यह धारणा है कि लोगों की जानकारियां इकट्ठा कर उसका विश्लेषण कर स्वास्थ्य संबंधी कार्यों को गति और बल मिलेगी और मोबाइल नेटवर्क के माध्यम से इकट्ठा जानकारी से स्वास्थ्य का ढांचा ठीक किया जा सकता है।” मार्च 2016 के शोधपत्र में वह कहती है कि जानकारों ने सुझाव दिया था कि लोकेशन की जानकारी हासिल कर लोगों के संपर्क की जानकारी इकट्ठा की जा सकती है। इस प्रक्रिया में संक्रमण के फैलाव पर नजर रखने के लिए लोगों की आवाजाही की निगरानी होती है जिससे इसका पूर्वानुमान आसानी से लगाया जा सकता है। हालांकि, असल में इस घटना के बाद से मानवता के लिए काम करने वाली संस्थाओं ने पाया कि डिजिटल माध्यमों के जरिए संपर्कों की निगरानी लीबिया, जो इस संक्रमण का केंद्र था, में सामान्य बात हो गई।
सूचना प्रणाली के विभिन्न हिस्सों- सरकार, अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों और निजी कंपनियों के बीच समन्वय की अनुपस्थिति के कारण इबोला प्रतिक्रिया के डिजिटलीकरण ने मानवीय प्रतिक्रिया को और अधिक कठिन बना दिया। इसमें शामिल महत्वपूर्ण कानूनी, वित्तीय और व्यावहारिक जोखिमों को हल नहीं किया गया।” कुछ इसी तरह का अनुभव कोविड-19 के संक्रमण के समय भी सामने आ रहा है जिसमें निगरानी का स्तर इबोला से कहीं ज्यादा है। दक्षिण कोरिया में जब निगरानी अगले स्तर तक पहुंची तो लोग अपनी जांच कराने से बचने लगे। इस देश में लोगों की निगरानी जियो लोकेशन के साथ सीसीटीवी फुटेज और क्रेडिट कार्ड के रिकॉर्ड के माध्यम से की जा रही है। जनवरी तक यहां संक्रमित लोगों की जानकारी अपलोड होती रही जिसमें उन्होंने मास्क पहना था या नहीं, या वह कौन सी जगह घूमने गए, जैसी जानकारियां शामिल रहती थीं। लोग भीड़ के हमले के डर से अपनी जांच करवाने से बचने लगे और प्रशासन को सारी जानकारी ऑनलाइन साझा करने के अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना पड़ा। एक्सेस नाउ की रिपोर्ट कहती है, “एक महामारी व्यापक और अनावश्यक डेटा एकत्र करने का कोई बहाना नहीं है। स्वास्थ्य डेटा तक पहुंच उन लोगों तक सीमित होगी जिन्हें उपचार, अनुसंधान करने और अन्यथा संकट का समाधान करने के लिए जानकारी की आवश्यकता होती है।
जानकारी को एक अलग डेटाबेस में सुरक्षित रूप से संग्रहित किया जाना चाहिए।” यह रिपोर्ट आगे कहती है कि जानकारियों को संकट का समय खत्म होने के बाद मिटा देना चाहिए। निगरानी के मुद्दे पर रिपोर्ट गोपनीयता की सुरक्षा और सटीकता में सुधार करने के लिए मोबाइल उपकरणों के उपयोग के बजाय विस्तृत इन-पर्सन संपर्क ट्रेसिंग की सिफारिश करती है। जियो लोकेशन ट्रैकिंग के मामले में, डेटा को बिना नाम के होना चाहिए। रिपोर्ट में निजी कंपनियों द्वारा डेटा के दुरुपयोग के खिलाफ सख्त सुरक्षा उपायों की भी मांग की गई है।
रिपोर्ट के अनुसार, “सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिए एप्लिकेशन बनाते समय, निजी कंपनियों को अपने उत्पादों के उपयोग से प्राप्त डेटा से पैसा कमाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा, डेटा के बाद में होने वाले उपयोग या आगे की प्रक्रिया पर स्पष्ट सीमाएं होनी चाहिए।” भारत में अधिकांश राज्य सरकार के ऐप निजी कंपनियों द्वारा विकसित किए गए हैं और उनमें से कई बिना गोपनीयता नीति के हैं। कंपनियां संयुक्त राज्य में भी अग्रणी भूमिका निभा रही हैं।
निजता का हनन बड़ा खतरा है जिसे कोविड-19 अचानक से बढ़ा सकता है। कई देशों ने अपने कानून में मनमाने तरीके से बदलाव कर निजता हनन के अधिकार पा लिए हैं और यह स्वास्थ्य संकट के खत्म होने के बाद भी जारी रहेगा। लेखक युवाल नोआह हरारी ने फाइनेंशियल टाइम्स में प्रकाशित लेख के जरिए चेताया कि यह दौर न केवल निगरानी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तरीकों को सामान्य बना देगा बल्कि उन देशों में भी यह लागू हो जाएगा जो पहले इस निगरानी का खारिज कर चुके हैं। इससे सरकार द्वारा की जाने वाली हमारी निगरानी ओवर द स्किन से अंडर द स्किन हो जाएगी। यानी सरकार पता चल जाएगा कि हमारे जेहन में क्या चल रहा है। वह कहते हैं कि जब आप स्मार्टफोन के स्क्रीन को उंगली से टच करते थे तो सरकार ये जानना चाहती थी कि आप किस जगह क्लिक कर रहे हैं, लेकिन अब स्क्रीन छूते हैं तो सरकार ये भी जानना चाहती है कि आपकी उंगली का तापमान क्या है और आपकी त्वचा के भीतर का रक्तचाप कितना है।
नया खतरा
केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकाराें ने कोविड-19 की निगरानी वाले कई ऐप जारी किए हैं
आरोग्यसेतु
डेवलपर: नेशनल इंफॉर्मेटिक्स सेंटर
डाउनलोड्स: 12 करोड़ से अधिक
अनुमति चाहिए: ब्लूटूथ, जीपीएस, संपर्क और स्टोरेज
जानकारी चाहिए: निजी जानकारी जैसे नाम, उम्र, लिंग, स्थान, व्यवसाय और यात्रा का इतिहास के साथ स्वास्थ्य संबंधी जानकारी
गोपनीयता की समस्या
उपयोगकर्ता को उपयोग और गोपनीयता नीति की शर्तों तक पहुंचने के लिए सभी विवरणों को पंजीकृत और प्रस्तुत करना होगा। गोपनीयता नीति कई बार मैं शब्द का उपयोग करती है। इस बात पर अस्पष्टता रहती है कि बाद में डेटा का उपयोग कैसे किया जा सकता है। उपयोगकर्ता का डेटा लीक होने या अनधिकृत उद्देश्य के लिए उपयोग किए जाने के मामले में सरकार उत्तरदायी नहीं है। उपयोगकर्ता के डेटा का दुरुपयोग नहीं होगा, इस पर गोपनीयता नीति कुछ नहीं कहती।
टेस्ट योरसेल्फ
डेवलपर: इनोवैक्सर आईएनसी
उपयोगकर्ता: 50,000
जानकारी चाहिए: अगर उपयोगकर्ता देना चाहे तो निजी जानकारी जिसमें इंटरनेट उपयोग का इतिहास शामिल है, आईपी एड्रेस की सहायता से सामान्य भू-भाग की जानकारी और सोशल मीडिया की जानकारी।
गोपनीयता की समस्या
यह वेबसाइट जो खुद के माध्यम से कोविड-19 के संक्रमण का मूल्यांकन करने का दावा करती है, बहुत सारी स्वास्थ्य संबंधी इकट्ठा करती है जिससे उपयोगकर्ता को कोई लाभ नहीं मिलता। जानकारों ने आगाह किया है कि ऐसी गैर जरूरी जानकारियां इकट्ठा करने के बजाए सरकार को उपयोगकर्ता को सीधे किसी चिकित्सक से दूर से ही संपर्क करने की सुविधा देनी चाहिए थी।
तमिलनाडु क्वारंटाइन मॉनिटर
डेवलपर: पिक्सोन एआई सॉल्यूशन्स प्राइवेट लिमिटेड
डाउनलोड्स: 100,000
अनुमति चाहिए: लाइव निगरानी के लिए जीपीएस
जानकारी चाहिए: आवाजाही की जानकारी
गोपनीयता की समस्या
ऐप में गोपनीयता नीति या उपयोग की शर्तें नहीं हैं और इस बात की जानकारी नहीं देती है कि डेटा का उपयोग कैसे किया जाएगा, जो भारत में सामान्य डेटा सुरक्षा विनियमन के तहत अनिवार्य है।
महाराष्ट्र महाकवच
डेवलपर: कई सरकारी और निजी संस्थाएं
डाउनलोड्स: 10,000
अनुमति चाहिए: जीपीएस लोकेशन
जानकारी चाहिए: निजी जानकारी, स्थान की जानकारी, तस्वीरें
गोपनीयता की समस्या
ऐप में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग करने के बावजूद सामान्य गोपनीयता नीति है
(स्रोत: दिविज जोशी, मोज़िला में प्रौद्योगिकी नीति विशेषज्ञ और मीडिया रिपोर्ट)
गहन निगरानी
यूरोपीय संघ और कम से कम 23 देश नागरिकों पर नजर रख रहे हैं, जो कोविड संकट के दौरान गैर-सहमति से सरकार के डिजिटल निगरानी में अचानक वृद्धि को उजागर करते हैं। यहां कुछ कदम हैं जो चिंताएं बढ़ाते हैं
ऑस्ट्रिया
सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी ए-1, स्वैच्छा से सभी मोबाइल फोन उपयोगकर्ताओं के प्रोफाइल के साथ आवाजाही की जानकारी सरकार को प्रदान कर रही है। कंपनी ने अपने ग्राहकों को बिना बताए या उनकी सहमति के बिना सूचना साझा करने की शुरुआत की।
ऑस्ट्रेलिया
एडिलेड राज्य में पुलिस कोविड रोगियों और उनके आवाजाही पर नजर रखने के लिए आपराधिक जांच के लिए उपयोग किए जाने वाले एक निगरानी वाले तंत्र पर भरोसा कर रही है। पुलिस को किसी व्यक्ति की निगरानी के लिए सिर्फ उसका फोन नंबर चाहिए और इसके बाद सारी जानकारी स्वास्थ्य विभाग के साथ साझा की जा रही है।
बुल्गारिया
दूरसंचार से ग्राहक डेटा की मांग करने का अधिकार आंतरिक मंत्रालय को देने के लिए इलेक्ट्रॉनिक संचार अधिनियम में संशोधन किया गया है। संशोधन का मतलब है कि मंत्रालय को निगरानी करने के लिए अदालत के आदेश की आवश्यकता नहीं है और संकट खत्म होने के बाद भी यह विशेषाधिकार जारी रहेगा।
चीन
अली पे और वीचैट जैसे ऐप ऐसे व्यक्तियों को चिन्हित कर रहे हैं जिनमें संक्रमण का जोखिम अधिक है और उन्हें इसके बाद क्वारंटाइन में भेज दिया जाता है या भीड़भाड़ से अलग रख दिया जाता है। लोगों को कहीं आने-जाने के लिए इन ऐप के माध्यम से ग्रीन क्लियरेंस प्राप्त करना जरूरी होता है। कंपनियां ऐसे सॉफ्टवेयर भी विकसित कर रही हैं जो कैमरे के माध्यम से बिना संपर्क में आए तापमान का पता लगा सके। कुछ शहर संक्रमित पड़ोसियों की सूचना देने पर इनाम भी दे रहे हैं।
कोलंबिया
एक पुराने ऐप का नाम बदलकर इसे कोरोनऐप के नाम से वायरस की जानकारी हासिल करने के लिए जारी किया गया है। इस ऐप को भारी मात्रा में निजी जानकारी चाहिए जिसमें जातीयता की जानकारी भी शामिल है। इस बात की पारदर्शिता भी नहीं है कि इन जानकारियां का कौन कितना इस्तेमाल कर सकेगा।
यूरोपीय संघ
दूरसंचार कंपनियां और प्रशासन एक ऐसी व्यवस्था बनाने जा रही है जिसमें लोग अपने स्थान की जानकारी साझा करेंगे। अब तक इस व्यवस्था में कुछ पारदर्शिता थी जिससे पता रहता था कि कितनी जानकारी साझा की जा रही है और कितने समय तक यह कानूनन चलेगा। सरकारों के अलावा यूरोपीय कमिशन ने दूरसंचार कंपनियों से वायरस के फैलाव का पता लगाने के लिए और हॉटस्पॉट का पता लगाने के लिए जानकारियां मांगी हैं।
इजराइल
घरेलू सुरक्षा एजेंसी शिन बेट ने कोविड-19 प्रकोप पर नजर रखने के लिए आतंकवादियों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली अपनी सेलुलर जियोट्रैकिंग तकनीक को फिर से तैयार किया है।
केन्या
एमसफारी ऐप की मदद से संपर्क का पता लगाने के लिए इस ऐप को एक निजी कंपनी ने बनाया है। इसका इस्तेमाल सार्वजनिक परिवहन में लगी बस, टैक्सी और दूसरे परिवहन व्यवस्था में यात्रियों की निगरानी के लिए किया जा रहा है। चालकों से यह उम्मीद की जाता है कि वे इस ऐप को डाउनलोड करके सभी यात्रियों को इस पर पंजीकृत करेंगे। सरकार उन सभी यात्रियों पर निगरानी रखकर उन्हें 14 दिन के क्वारंटाइन में रखेगी।
दक्षिण कोरिया
यहां की सरकार उन लोगों की जानकारी इकट्ठी कर ऑनलाइन डाल रही है जो या तो संक्रमित हैं या इसकी आशंका है। यहां मौजूदा डाटाबेस को नए डेटाबेस से मिलाकर सीसीटीवी फुटेज, क्रेडिट कार्ड और लोकेशन के इतिहास की निगरानी की जा रही है। यह जानकारियां ऑनलाइन जारी की जा रही है जिसमें लोग कब काम से वापस निकले, सबवे में उन्होंने मास्क पहना या नहीं, वे किस स्थान पर बार-बार गए और किस स्थान पर उनकी जांच की गई आदि शामिल हैं। अब सरकार ने निजी जानकारी जारी करना बंद किया है क्योंकि भीड़ ने ऐसे लोगों को परेशान करना शुरू कर दिया था।
ताइवान
प्रशासन यहां एक्टिव मोबाइल नेटवर्क की निगरानी कर क्वारंटाइन को सुनिश्चित कर इसके संपर्क में आने वाले लोगों की पहचान कर रहा है। अगर किसी का मोबाइल नेटवर्क घर के बाहर एक्टिव होता है तो प्रशासन सतर्क हो जाता है।
ट्यूनीशिया
इनोवा रोबोटिक्स ने पीगार्ड रोबोट का संचालन शुरू करने के लिए आंतरिक मंत्रालय के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। ये रोबोट इंफ्रारेड कैमरों के एक सेट से लैस होंगे और लोगों को घर छोड़ने से रोकेंगे। इन रोबोटों को कहां तैनात किया जाएगा, वे कौन सी जानकारी जुटाएंगे, इसकी कोई जानकारी नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र
यहां शोधकर्ता फेसबुक के डेटा का इस्तेमाल सामाजिक दूरी का आकलन करने के लिए कर रहे हैं। जिन उपयोगकर्ताओं ने फेसबुक पर अपना लोकेशन साझा की है, उनके डेटा के इस्तेमाल से एक तरह का नक्सा खींचा जा रहा है। इस काम में गोपनीयता और जानकारियों की रक्षा प्रभावित होती है क्योंकि उपयोगकर्ता ने सिर्फ फेसबुक को यह जानकारी साझा करने की अनुमति दी होती है। गूगल की जैव प्रौद्योगिकी कंपनी वेरिली ने कोविड-19 की स्क्रीनिंग वेबसाइट लॉन्च की है। स्क्रीनिंग के लिए अर्हता प्राप्त करने के लिए, उपयोगकर्ताओं के पास गूगल खाता होना चाहिए और गूगल के साथ जानकारी साझा करने के लिए सहमत होना चाहिए। वेबसाइट कैलिफोर्निया के गवर्नर कार्यालय और अन्य संघीय अधिकारी के सहयोग से काम कर रही है। (downtoearth)
पिछले हफ़्ते स्टैंडअप कॉमेडियन अग्रिमा जॉशुआ का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। सालभर पुराने इस वीडियो में अग्रिमा ने कई चीजों के साथ मुंबई में बनने वाले छत्रपति शिवाजी स्मारक पर भी टिप्पणी की थी। इस टिप्पणी में उन्होंने बताया कि ‘कोरा’ वेबसाइट पर कुछ लोग इस स्मारक के बारे में बेबुनियाद दावे कर रहे थे, जैसे यह कि वह दरअसल स्मारक के रूप में, नई तकनीक से लैस एक हथियार है। इस बात पर अग्रिमा ने व्यंग्य किया कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक गौरव के नाम पर झूठे तथ्य फैलाना हमें स्वीकार है मगर ऐतिहासिक हस्तियों के ‘आदर’ और ‘सम्मान’ में ज़रा सी भी कमी हो तो हम जंग छेड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं।
अग्रिमा की यह टिप्पणी सही साबित हुई जब उनकी इस टिप्पणी से कई लोगों की भावनाएं बेहद आहत हो गई। लोगों ने अग्रिमा पर शिवाजी महाराज का अपमान करने और महाराष्ट्र की जनता की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाया। हज़ारों लोगों ने अग्रिमा की गिरफ़्तारी की मांग की और ख़ुद महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख ने अग्रिमा पर एफ़आईआर दर्ज करने की बात की। सोशल मीडिया पर उन्हें गालियां और धमकियां मिलीं। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कुछ कार्यकर्ताओं ने उस स्टूडियो को तहस-नहस कर दिया, जहां उन्होंने परफ़ॉर्म किया था। स्थिति इतनी बुरी हो गई कि ट्विटर पर एक वीडियो जारी कर अग्रिमा को शिवाजी महाराज पर की गई अपनी टिप्पणी के लिए माफ़ी मांगनी पड़ी।
इसके बाद सोशल मीडिया पर अग्रिमा को बलात्कार और जान से मारने की धमकियां देने वाले वीडियो आने लगे। भद्दी भाषा में अग्रिमा और उनके परिवार को नुक़सान पहुंचाने की बात करते इन वीडियोज़ का सोशल मीडिया पर समर्थन भी किया गया। ऐसे वीडियो बनानेवाले कुछ लोगों के नाम सामने आए और वे गिरफ़्तार भी हुए हैं। पर शिवाजी महाराज के इस तथाकथित ‘अपमान’ के लिए अग्रिमा के ख़िलाफ़ यह द्वेष एक विषैला रूप धारण कर चुका है। उनके यौन शोषण से लेकर उनके खुलेआम कत्ल की मांग करनेवालों की कमी नहीं है। ज़्यादातर ट्रोल्स को इसी बात से ऐतराज है कि अग्रिमा एक ईसाई हैं और एक बेबाक, उन्मुक्त सोच वाली औरत हैं। ये दो चीजें पितृसत्ता और धर्मांधता की सड़ांध में फल-फूल रहे इस समाज से बर्दाश्त नहीं होतीं।
आज अभिव्यक्ति की आज़ादी हमारे देश में एक मज़ाक बनकर रह गई है। एक फ़िल्म, एक किताब, एक कविता या महज़ एक ‘कॉमेडी शो’ से तथाकथित धर्मरक्षक आहत हो जाते हैं। लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों को ‘हिंदू विरोधी’, ‘देशद्रोही’, ‘आतंकवादी’, ‘नक्सली’ घोषित करके उन्हें नुकसान पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। सोशल मीडिया पर धमकियां, लांछन और चरित्र हनन तो है ही, उन्हें दिनदहाड़े जान से मार भी दिया जाता है। यही ज़हर गौरी लंकेश, नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे जैसे तमाम लेखकों और चिंतकों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार है, जिन्होंने सामाजिक कुरीतियों और नाइंसाफियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई।
सिर्फ़ बड़े लेखक और कलाकार ही नहीं, हर वह औरत जो मौजूदा सामाजिक या शासन व्यवस्था का विरोध करने की हिम्मत रखती है, इसी तरह के हमले का निशाना बनती है।
लेखक या पत्रकार हो या कोई अभिनेता या हास्य कलाकार, ‘देश विरोधी’ और ‘हिंदू विरोधी’ होने का इल्ज़ाम कभी भी, किसी पर भी लगाकर उसे हर तरह के शारीरिक हमले और धमकियों का निशाना बनाना अब आम बात हो गयी है और इसका सबसे बुरा प्रभाव पड़ रहा है महिलाओं पर। महिलाओं पर हमला करने का मुख्य तरीका है यौन उत्पीड़न और उनका चरित्र हनन। अग्रिमा अकेली नहीं हैं जिन्हें अपने विचारों के लिए ‘रंडी’ बुलाया गया या बीच सड़क पर उनका शोषण करने की धमकी दी गई। आए दिन हम देखते हैं कैसे सोशल मीडिया पर महिला पत्रकारों, राजनेताओं, कलाकारों, बुद्धिजीवियों के चरित्र और यौनिकता पर सवाल उठाए जाते हैं, उनके नाम पर अश्लील वीडियो और तस्वीरें फैलाई जाती हैं और गंदी भाषा में उन्हें अमानवीय शारीरिक हिंसा की धमकियां दी जातीं हैं।
सिर्फ़ बड़े लेखक और कलाकार ही नहीं, हर वह औरत जो मौजूदा सामाजिक या शासन व्यवस्था का विरोध करने की हिम्मत रखती है, इसी तरह के हमले का निशाना बनती है। हमें याद है किस तरह शाहीन बाग़ में नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाली महिलाओं पर वेश्यावृत्ति का इल्ज़ाम लगाया गया था। सफ़ूरा ज़रगर के गर्भवती अवस्था में गिरफ़्तार होने पर उनके बच्चे के पिता के परिचय पर सवाल उठे थे और छिछली टिप्पणियां की गई थीं। मुख्यधारा से विपरीत विचार रखनेवाली बेबाक औरतों पर उंगली उठाना तो लगभग रोज़ का मामला है ही।
जिस देश में लगभग हर चौथी औरत बलात्कार और यौन उत्पीड़न का शिकार रह चुकी है, जिसे ‘महिलाओं के लिए सबसे ख़तरनाक देश’ के तौर पर जाना जाता है, वहां इस प्रकार औरतों का लांछन और शोषण कल्पना से परे नहीं है। अग्रिमा जॉशुआ जैसे कलाकार ही नहीं, हम में से कोई भी इसका निशाना बन सकता है। दुख की बात यह है कि जिन ऐतिहासिक महापुरुषों के सम्मान के बहाने अग्रिमा जैसी महिलाओं पर आक्रमण किया जाता है, वे खुद ही कभी इसका समर्थन नहीं करते बल्कि वे खुद सबसे पहले इसका विरोध ही करते।
प्रकाश दुबे
कहते हैं, करमों की सजा इसी जनम में, इसी जग में मिल जाती है। भरोसा न हो तो अधीर रंजन बनर्जी से पूछ लो। अधीर बाबू लोकसभा में कांग्रेस पक्ष के नेता हैं। कम सांसद जीते, इसलिए नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं मिला। संसद की सबसे ताक़तवर लोक लेखा समिति के सभापति हैं। लोकतंत्र की मज़बूती चाहने वालों ने प्रथा डाल दी कि विपक्ष में बैठने वाला सांसद ही सभापति बनेगा। झख मारकर विपक्ष को पद देना पड़ता है। जनता पर होने वाले खर्च की पूछताछ करने का समिति को अधिकार है। समिति की बैठक हो जाने के बाद पता लगा कि लोकसभा का अतिरिक्त सचिव कोरोना संक्रमित पाया गया। वह बैठक में हाजिऱ था। सचिवालय ने अधीर सहित बैठक में हाजिऱ रहने वाले दर्जन भर सांसदों को तन-दूरी बनाने और जांच कराने कहा है। इसके ठीक पहले वाली बैठक में अधीर बाबू प्रधानमंत्री केयर फंड की जांच कराने के लिए अधीर थे। बहुमत सत्ता दल के सांसदों का है। उन्होंने पहल ठुकरा दी थी।
गजेन्द्र की गंगा में
केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ढंग से पुरोहिती नहीं कर पाए। सचिन पायलट भी नहीं समझ सके कि शादी-विवाह में कई अड़ंगे आते हैं। मर्जी से डा फारुक अब्दुल्ला की बिटिया से विवाह करने और मुख्यमंत्री बनने में अंतर है। शेखावत के विरुद्ध विधायकों को ललचाने का आरोप लगाते हुए प्राथमिकी दर्ज की गई। शेखावत ने सफाई देते हुए चुटकी ली--पति-पत्नी की तकरार में सात फेरे कराने वाले पुरोहित को दोष देना बेमानी हैं। शेखावत ने आडियो मंत्र पढ़ा या नहीं? इसकी जांच तो आवाज़ की पहचान करने वाले विशेषज्ञ करेंगे। दो बरस पहले प्रधानमंत्री से लेकर अमित शाह तक ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था। इसके बावजूद महारानी ने शेखावत को प्रदेश पार्टी का अध्यक्ष नहीं बनने दिया था। महारानी वसुंधरा राजे के मुकाबले गजेन्द्र और भांजे ज्योतिरादित्य असहाय हैं। दल बदल की गंगा में सचिन डुबकी लगाने पहुंचे जरूर। गंगा सफाई अभियान के मंत्री गजेन्द्र शेखावत तट पर खड़े देखते रहे।
श्रीराम ने कहा-हे भगवान
भगवान का नाम लेना गलत नहीं हो सकता। नाम श्री राम है और जनता जनार्दन के परम भक्त। खनन घोटाले के कारण जनार्दन रेड्?डी की मंत्री वाली लाल बत्ती छिनी थी। जेल की काल कोठरी पहुंचने वाले जनार्दन रेड्डी के साथी बलारी श्रीरामुलु ने पार्टी छोड़ दी थी। कर्नाटक और तेलंगाना सरकारें खनन घोटाला भूल चुकी हैं। श्रीरामुलु पुरानी नाराजग़ी भूलकर भाजपा में वापस लौटे। कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री हैं। तस्वीरों में मुंह पर पट्?टी, मास्क लगाए दिखने वाले श्रीरामुलु ने मन की बात कही-कोरोना के कोप से सिर्फ भगवान ही बचा सकता है। ऐसा कहने का मतलब यह कतई नहीं रहा होगा, कि कर्नाटक सरकार या केन्द्र सरकार के काम में कोताही-कमी है। संक्रमित संख्या 50 हजार और मृतक संख्या एक हजार पार करने पर भगवान ही यादआएगा। गुजरात को पीछे छोड़ कर्नाटक चौथे स्थान पर है।
खज़ाने की खोज
तेलंगाना राज्य में नया सचिवालय बनाने की योजना पर काम आरम्भ हो चुका है। पुरानी इमारत को ध्वस्त किया जा रहा है। जी ब्लाक को गिराते समय राज्य के मुख्य सचिव तथा पुलिस महानिदेशक उपस्थित थे। इसमें चकित होने जैसी क्या बात है? है। आधी रात में इमारत ढहाने का मकसद? चर्चा है कि पुरानी इमारत से गुप्त खज़ाने तक सुरंग है। पुरातत्व विभाग से मांग की जा रही है कि पहले सुरंग और खज़ाने की वास्तविकता का पता लगाएं। तब तक काम रुकवा दें। अपने को तुर्रम खां मत समझो। यदि कह दिया कि मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव खज़ाने की खोज करा रहे हैं तो धर लिए जाओगे। राव इन दिनों प्रत्यक्ष दर्शन नहीं देते। किसी पत्रकार ने उन्हें कोरोना संक्रमित बता दिया। अब अदालत के चक्कर काट रहा है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
डॉ. गोल्डी एम.जार्ज
वनों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया था-आरक्षित वन, संरक्षित वन और ग्रामीण वन। आमजनों का आरक्षित वनों में प्रवेश गैर-क़ानूनी घोषित कर दिया गया और झूम खेती पर और कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए।
भारत में आदिवासीयों का सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन वनों से गहराई से जुड़ी हैं। लेकिन आज वन क्षेत्रों में पहला हक़-अधिकार किसका है, इस सवाल पर देशव्यापी बहस छिड़ी हुई है। देश के भौगोलिक क्षेत्र का करीब 23 प्रतिशत भू-भाग वनभूमि है। आंकड़ों के अनुसार भारत का कुल वन क्षेत्र 7 करोड़ 70 लाख 10 हजार हेक्टेयर है। पूरे विश्व के कुल वन क्षेत्र का दो प्रतिशत आज भारत में है। वनों की भारत के आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। यह एक जाना-माना तथ्य है कि अधिकांश आदिवासी भारत के वन क्षेत्रों में सदियों से आपस में मिल-जुल पर्यावरण की सुरक्षा और परिस्थितिकी संतुलन के साथ रहते आए हैं। वनों के साथ उनका सम्बन्ध सहजीवी का है।
मानव सभ्यता सदियों से जंगलों पर निर्भर रही है। बीसवीं सदी के प्रारंभ में सिन्धु घाटी में हुई खुदाई में मिली सीलों और रंगे हुए मिट्टी के पात्रों में पीपल और बबूल के पेड़ों के प्रतीकात्मक चित्रण से यह संकेत मिलता है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता (5000-4000 ई.पू.) में भी इमारतों के लिए लकडिय़ां आदि तमाम वनोपजों का प्रयोग होता था। गुप्तकाल (200-600 ई.) का वनों से संबंधित विवरण, मौर्य काल से मेल खाता है। वहीं मुग़लकाल (1526-1707) में इमारती लकड़ी और खेती के लिए बड़े पैमाने पर जंगलों का सफाया किया गया। ब्रिटिश शासन आने के बाद, सरकार और आदिवासियों में सीधा टकराव शुरू हुआ और वन इसका एक प्रमुख कारण था।
अठारहवीं सदी के मध्य तक अंग्रेजों को यह समझ में आ गया था कि भारत के वनों में अकूत संपदा छिपी हुई है और इसलिए उन्होंने वनों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की कवायद शुरू कर दी। वे या तो सीधे अथवा ज़मींदारों और साहूकारों के जरिए जंगलों को अपने नियंत्रण में लेना चाहते थे। इसका एक कारण यह था कि उन्हें न केवल भारत वरन् इंग्लैंड में भी मकान बनाने और अन्य कामों के लिए इमारती लकड़ी की ज़रुरत थी। उन्होंने ज़मींदारी प्रथा को मज़बूत किया और उसके ढांचे में इस तरह के परिवर्तन किये ताकि वे प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर वन क्षेत्रों पर कब्जा जमा सकें। जाहिर तौर पर इसका खामियाजा स्थानीय रहवासियों को भुगतना पड़ा। अंग्रेजों ने ऐसे इलाकों में घुसपैठ करनी शुरू कर दी जो आदिवासियों के वास स्थल थे और इस कारण उनके बीच सीधा टकराव शुरू हुआ।
भारत में आदिवासी विद्रोहों के पहले 100 सालों (1760 के दशक से लेकर 1860 के दशक तक) में वन कानून नहीं थे और इस दौरान जंगलों से इमारती लकड़ी और अन्य संसाधनों का अनियंत्रित दोहन हुआ। भारत में रेल सेवा शुरू करने का निर्णय 1832 में लिया गया और इसके लिए मद्रास को चुना गया। रेलों की आवाजाही के लिए जो पटरियां बिछाई जानी थीं उनके स्लीपर इमारती लकड़ी से बनने थे। इसके अलावा, इंजनों और डिब्बों के निर्माण में भी लकड़ी का इस्तेमाल होना था। सन् 1837 में भारत की पहली रेल सेवा- जिसे रेड हिल रेलवे का नाम दिया गया-शुरू हुई। यह एक मालगाड़ी थी, जिसे भाप का रोटरी इंजन खींचता था। यह गाड़ी मद्रास में रेड हिल्स और चिंताद्रिपेट ब्रिज के बीच चलती थी।
सन् 1846 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने कलकत्ता से दिल्ली तक रेल लाइन बिछाने का निर्णय लिया, परन्तु यह योजना अमल में नहीं लाई जा सकी। देश की पहली यात्री रेलगाड़ी 1853 में बम्बई और ठाणे के बीच चली और बाद में, कलकत्ता और मद्रास में भी रेलगाडिय़ां चलने लगीं। रेलवे के निर्माण के इस दौर में, इमारती लकड़ी की मांग बहुत बढ़ गई। यही नहीं, भारत की इमारती लकड़ी पानी के जहाजों के निर्माण के लिए भी मुफीद थी। भारतीय इमारती लकड़ी से बने मज़बूत जहाजों की मदद से ही इंग्लैंड, नेपोलियन के साथ अपने युद्ध (1803-15) में विजय प्राप्त कर सका।
शुरुआत में अंग्रेज़ इमारती लकड़ी की अपनी ज़रुरत बर्मा के जंगलों से पूरी करते थे। सन् 1826 में वे तेनास्सेरिम पर कब्ज़े के बाद से मौल्में में इमारती लकड़ी का व्यापार करने लगे। बाद में, इमारती लकड़ी के लालच में ही उन्होंने पेगू प्रांत पर कब्जा किया। परन्तु समय के साथ, उन्होंने भारत के जंगलों का दोहन शुरू कर दिया।
सन् 1850 के दशक की शुरुआत में अंग्रेजों ने तेजी से भारत के उन वन क्षेत्रों में घुसपैठ करनी शुरू कर दी, जहां आदिवासी रहते थे। रेलवे के विस्तार के लिए इमारती लकड़ी की जरूरत बढ़ती जा रही थी। सन् 1855 के संथाल विद्रोह के मद्देनजर, 1856 में गवर्नर जनरल लार्ड डलहौज़ी ने एक स्थाई वन नीति बनाने पर जोर दिया ताकि इमारती लकड़ी के लिए वनों का दोहन करने में आ रही दिक्कतें दूर हो सकें। सन् 1857 के गदर से उपजी अस्थिरता पर काबू पाने के बाद, 1860 में अंग्रेजों के आदिवासियों द्वारा झूम खेती किए जाने को प्रतिबंधित कर दिया और 1864 में इम्पीरियल फॉरेस्ट डिपार्टमेंट की स्थापना की।
सन् 1855 में भारत के पहले वन कानून-इंडियन फॉरेस्ट एक्ट, 1855-के जरिए अंग्रेजों ने देश के संपूर्ण वन क्षेत्र पर अपने अधिपत्य की घोषणा कर दी। सन् 1876 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया और नये संशोधनों के साथ फॉरेस्ट एक्ट, 1878 लागू किया गया। इसके अंतर्गत, वनों के सामुदायिक उपयोग की सदियों पुरानी परिपाटी पर कई तरह की रोकें लगा दी गईं और सरकार को यह अधिकार दे दिया गया कि वह सार्वजनिक उपयोग के लिए वनों का अधिग्रहण कर सकती है। इस अधिनियम के ज़रिए एक ओर वनों पर राज्य का लगभग एकाधिकार स्थापित हो गया तो दूसरी ओर यह संदेश दिया गया कि ग्रामीणों द्वारा वनों का उपयोग किया जाना उनका ‘अधिकार’ नहीं, बल्कि एक ‘रियायत’ है जिसे ब्रिटिश सरकार कभी भी वापस ले सकती है।
वहीं सन् 1894 में अपनी वन नीति के आधार पर अंग्रेजों ने वनों को चार श्रेणियों में विभाजित किया-अ) वे वन, जिनका आवश्यक रूप से संरक्षण किया जाना है। ब) वे वन, जिनका इमारती लकड़ी के लिए व्यावसायिक दोहन किया जा सकता है। स) लघु वन और ड) चारागाह। सन् 1878 के अधिनियम के प्रावधानों को रद्द करते हुए, इस नीति के अंतर्गत कुछ सुरक्षा उपायों के साथ वन भूमि पर खेती की इजाजत दी जा सकती थी। इस नीति का यह प्रावधान कि आरक्षित वनों के बाहरी क्षेत्र का ग्रामीण अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रयोग कर सकते हैं, आदिवासियों और अन्य मूल निवासियों के लिए राहत का एकमात्र राहत था। परन्तु, कुल मिलाकर, इस नीति का सार यही था कि राज्य के हितों को जनता के हितों पर प्राथमिकता मिलेगी।
सन् 1927 का इंडियन फॉरेस्ट एक्ट, सन 1878 में वनों के दोहन के लिए बनाई गई नीति के अनुरूप था। इसका लक्ष्य अंग्रेजों की इमारती लकड़ी की ज़रुरत को पूरा करना था और इसमें वनों के संरक्षण के लिए कोई प्रावधान नहीं थे। इसके अंतर्गत, वनों को राज्य की संपत्ति घोषित कर, इमारती लकड़ी के दोहन का रास्ता साफ़ कर दिया गया और पारंपरिक वनाधिकारों और वन प्रबंधन प्रणालियों को दरकिनार कर दिया गया। इस अधिनियम में वनों की कोई सुस्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई थी। वनों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया था-आरक्षित वन, संरक्षित वन और ग्रामीण वन। आमजनों का आरक्षित वनों में प्रवेश गैर-क़ानूनी घोषित कर दिया गया और झूम खेती पर और कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए। हां, इसमें वनों को अनारक्षित करने का प्रावधान जरूर था। तब से अब तक वनों से जुड़े सारे कानून और नीतियां इसी अधिनियम पर आधारित हैं।
(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता है, तथा वर्तमान में फॉरवर्ड प्रेस नई दिल्ली में सलाहकार संपादक है।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में उत्तरप्रदेश हिंदी का सबसे बड़ा गढ़ है लेकिन देखिए कि हिंदी की वहां कैसी दुर्दशा है। इस साल दसवीं और बारहवीं कक्षा के 23 लाख विद्यार्थियों में से लगभग 8 लाख विद्यार्थी हिंदी में अनुतीर्ण हो गए। डूब गए। जो पार लगे, उनमें से भी ज्यादातर किसी तरह बच निकले। प्रथम श्रेणी में पार हुए छात्रों की संख्या भी लाखों में नहीं है। यह वह प्रदेश है, जिसने हिंदी के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकारों और देश के सर्वाधिक प्रधानमंत्रियों को जन्म दिया है।
हिंदी को महर्षि दयानंद ‘आर्यभाषा’ और महात्मा गांधी ‘राष्ट्रभाषा’ कहते थे। नेहरु ने उसे ‘राजभाषा’ का दर्जा दे दिया लेकिन 73 साल की आजादी के बाद हिंदी के तीनों नामों का हश्र क्या हुआ ? ‘आर्यभाषा’ तो बन गई ‘अनार्य भाषा’ याने अनाडिय़ों की भाषा ! कम पढ़े-लिखे, गांवदी, पिछड़े, गरीब-गुरबों की भाषा। ‘राष्ट्रभाषा’ आप किसे कहेंगे ? यह ऐसी राष्ट्रभाषा है, जिसका प्रयोग न तो राष्ट्र के उच्च न्यायालयों में होता हैं और न ही विश्वविद्यालयों की ऊंची पढ़ाई में होता है। राष्ट्रभाषा के जरिए आप न तो कानून, न चिकित्सा, न विज्ञान पढ़ सकते हैं और न ही कोई अनुसंधान कर सकते हैं। आज से 55 साल पहले मैंने जब ‘इंडियन स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़’ में अपना पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने का आग्रह किया था तो संसद में जबर्दस्त हंगामा हो गया था। मुझे ‘स्कूल’ से निकाल बाहर किया गया। संसद और प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद मुझे वापिस लिया गया लेकिन आज तक कितने पीएच.डी. भारतीय भाषाओं के माध्यम से हुए ? जहां तक ‘राजभाषा’ का सवाल है, आज भी देश में राज-काज के सारे महत्वपूर्ण काम अंग्रेजी में होते हैं। संसद और विधानसभाओं के कानून क्या हिंदी में बनते हैं ? सरकारी नौकरशाह क्या अपनी रपटें, टिप्पणियां, अभिमत, आदेश वगैरह अंग्रेजी में नहीं लिखते हैं ? सच्चाई तो यह है कि अंग्रेजी आज भी भारत की राजभाषा है। अंग्रेजी की इस भूतनी की आगे हमारे सारे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दब्बू साबित हुए हैं। ये स्वतंत्र भारत के गुलाम नेता हैं। इन बेचारों को पता ही नहीं कि कोई राष्ट्र संपन्न, शक्तिशाली और सुशिक्षित कैसे बनता है।
दुनिया का कोई भी राष्ट्र विदेशी भाषा के जरिए संपन्न और महाशक्ति नहीं बना है। जिस देश में किसी विदेशी भाषा का वर्चस्व होगा, उसके छात्र नकलची ही बने रहेंगे। उनकी मौलिकता लंगड़ाती रहेगी। जो देश तीन-चार सौ साल पहले तक विश्व-व्यापार में सर्वप्रथम था, जिस देश के नालंदा और तक्षशिला- जैसे विश्वविद्यालयों में सारी दुनिया के छात्र पढऩे आते थे और जो देश अपने आप को विश्व-गुरु कहता था, आज उस देश के लाखों छात्रों का प्रतिभा-पलायन क्यों हो जाता है ? क्योंकि उनकी रेल को बचपन से ही अंग्रेजी की पटरी पर चला दिया जाता है। मैं विदेशी भाषाएं सीखने का विरोधी बिल्कुल नहीं हूं। मैंने स्वयं अंग्रेजी के अलावा रुसी, फारसी और जर्मन भाषाएं सीखी हैं लेकिन अपने प्रत्येक काम में मैंने अपनी मातृभाषा हिंदी को प्राथमिकता दी है। सभी प्रांतों में यदि शिक्षा का अनिवार्य माध्यम मातृभाषा हो तो हिंदी आर्यभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा अपने आप बन जाएगी।(nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
हर महीने कमा रहे हैं 2 लाख रूपये
कोड़िकोड (कोझीकोड) के पेरिम्परा में आप बिंदु और जोजो के घर के सामने से गुज़रें और उसे पलट कर न देखें, ऐसा शायद मुमकिन नहीं। उनके घर में खिले बोगनविलिया फूलों के चटकीले रंग हर किसी को अपनी तरफ खींच ही लेते हैं। आपको इस बागीचे में हर रंग के फूल देखने मिल सकते हैं।
पिछले 36 सालों से यह कपल अपनी 15 हज़ार वर्ग फुट ज़मीन पर फूलों की खेती कर रहा है। खास बात यह है कि अब ये अपने बगीचे से हर महीने 2 लाख रूपये की कमाई भी कर रहे हैं। बगीचे में मौजूद फूलों के खूबसूरत रंग घर के सामने आने-जाने वाले लोगों को आकर्षित करते हैं। लोग रूक कर वहां के नज़ारे का मज़ा तो लेते ही हैं, साथ ही कई लोग फूलों से संबंधित सुझाव भी मांगते हैं।
केरल का यह कपल बोगेनविलिया फूल उगाने के साथ इन फूलों का व्यवसाय भी करता है। वो फूलों के खूबसूरत पौधे बेचते हैं, शादियों में फूलों की सप्लाई करते हैं और अपने ग्राहकों के लिए इंस्टेंट गार्डन यानी तत्काल बगीचा सेटअप करते हैं। ये दोनों नौकरी और खेती के कामों में काफी व्यस्त रहते हैं लेकिन फिर भी वीकेंड पर स्कूलों और कॉलेजों सहित कई संस्थानों के लिए प्रेरक और उद्यमिता कक्षाएं भी संचालित करते हैं।
अपने इस अद्भुत काम के लिए इस जोड़ी को 2003 में केरल राज्य युवा कृषक पुरस्कार और प्रधानमंत्री से राष्ट्रीय प्रगतिशील किसान पुरस्कार से मिल चुका है।
परिवार का साथ
40 वर्षीय बिंदु जोसफ गुज़रे वक्त को याद करते हुए बताती हैं कि जब वह पहली बार इस घर में आई थीं तो उन्होंने देखा कि जोजो की माँ, ट्रेसिया ने अपनी 12 एकड़ ज़मीन में एक छोटा अमेज़ॅन का जंगल बनाया हुआ था। वह कहती हैं कि वह भी एक किसान परिवार से ही संबंधित थीं लेकिन ऐसा नज़ारा उन्होंने कभी नहीं देखा था। वह कहती हैं, वहां नारियल के पेड़, मवेशी, सुंदर फूल और कई फलों के पेड़ थे।
बिंदु मुस्कुराते हुए बताती हैं कि जब उनकी शादी हुई तब उनका संयुक्त परिवार था जिसमें जोजो के 11 भाई-बहन और उनके परिवार साथ रहते थे। वह बताती हैं कि परिवार के सभी लोग खेतों में दिन रात काम करते थे, जिन्हें देख कर बिंदु को भी प्रेरणा मिली। जल्द ही उन्होंने भी खेती के लिए समय निकालना शुरू कर दिया और अपनी सास से खेती के कई गुर सीखे। बिंदु कहती हैं कि वह समय उनके लिए ट्रेनिंग अवधि की तरह था और इसने उन्हें जोजो के परिवार को समझने और हिस्सा बनने का मौका दिया।
अपने बच्चों के जन्म के बाद, बिंदु और जोजो अपने परिवार के घर से कुछ किलोमीटर दूर अपने नए घर पर चले गए और जल्द ही अपने घर के आसपास की 15 हज़ार वर्ग फुट जमीन में खेती शुरू कर दी। उसी समय, बिंदु ने पेरम्बरा के सेंट मीरा के हायर सेकेंड्री स्कूल में इकोनोमिक्स टीचर के रूप में अपना करियर फिर से शुरू किया।
जोजो जैकब एक फुलटाइम किसान हैं। वह कहते हैं कि बच्चों के बड़े होने के बाद बिंदु एक शिक्षक के रूप में अपने करियर को फिर से शुरू करने के लिए तैयार थीं। इसलिए उन्होंने घर के पास की ज़मीन पर खेती करने का फैसला किया। उन्होंने अपने घर से कुछ पौधे लिए और कुछ उन्होंने केरल के विभिन्न नर्सरी से इकट्ठा किया था। कई सारी चीज़ें उनके लिए नई थी लेकिन जोजो और बिंदु दोनों हर काम करने के लिए दृढ़ थे।
बोगनविलिया के अलावा, वो हल्दी, अदरक, काली मिर्च, लीची भी उगाते हैं। यहां तक कि उन्होंने एक नर्सरी भी शुरू की है, जहाँ से ग्राहक और उनके शानदार बगीचे को देखने आने वाले लोग पौधे खरीद सकते हैं।
…जहां बोगोनविलिया खिलते हैं
बिंदु और जोजो की छत
केवल एक वर्ष के समय में, इस दंपति ने जमीन के हर कोने पर पौधा लगाया। पौधों के लिए छत और बाड़ का इंतज़ाम भी किया गया था।
बिंदू कहती हैं कि उनके बगीचे में जो बोगोनविलिया उगाए जाते हैं वे स्थानीय किस्म के नहीं हैं इसलिए वे 7-8 फीट तक बढ़ जाते हैं और बाड़ पर गिर जाते हैं। यह नज़ारा लोगों को बहुत भाता है। वे आते हैं और उनसे इस खेती की तकनीक पूछते हैं। लोगों की दिलचस्पी देखते हुए जल्द ही इस कपल ने पौधे बेचना शुरू कर दिया। साथ ही शादियों के लिए फूलों की व्यवस्था करने का काम और यहां तक कि ग्राहकों को इंस्टेंट गार्डन स्थापित करने में मदद भी करने लगे।
इस जोड़े की एक ग्राहक हैं मारिया थॉमस। मारिया थॉमस ने इनके मदद से इंस्टेंट गार्डन बनाया है। वह अपने बगीचे से बहुत खुश हैं। अपनी खुशी जाहिर करते हुए वह बताती हैं, “बिंदू ने मेरे नए घर के लिए जो इंस्टेंट गार्डन बनाया है, वह बहुत शानदार है। सिर्फ एक हफ्ते में, उन्होंने उस जगह को बॉल अरालिया झाड़ियों और खूबसूरत बोगनविलिया से भर दिया। इसने मेरे गृह प्रवेश को बेहद खूबसूरत बना दिया था।”
इसके साथ ही, यह दंपति हल्दी, अदरक, लीची और आम जैसे कई अन्य पौधों की भी खेती करते हैं। जलवायु आवश्यकताओं के अनुसार वे पौधों के लिए जगह बनाते हैं ताकि ज़मीन का ठीक तरह से इस्तेमाल कर पाएं।
इस बारे विस्तार से समझाते हुए जोजो बताते हैं, “उदाहरण के लिए, बोगेनविलिया को धूप की बहुत ज़रूरत होती है, इसलिए गर्मियों के दौरान हम बगीचे में गमले रखते हैं और बरसात के मौसम में, हम उन्हें छत पर शिफ्ट कर देते हैं, जबकि हम हल्दी और अदरक को नीचे बगीचे में में ले आते हैं।”
धीरे-धीरे जोजो और बिंदू की 36 सेंट ज़मीन पर की जाने वाली खेती काफी लोकप्रिय होने लगी। आगे चल कर उन्होंने प्रधानमंत्री से राष्ट्रीय प्रगतिशील कृषि पुरस्कार सहित कई सम्मान मिला।
दंपति को जब राष्ट्रीय प्रगतिशील कृषि पुरस्कार मिला, उसके बाद, इंडियन इंस्ट्यूट ऑफ स्पाइस रिसर्च कोझीकोड प्रशासन के तहत आने वाली कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) ने इस जोड़े के लिए, एक नर्सरी सेटअप करने के साथ स्पॉन्सर करने का फैसला किया ताकि कोझीकोड में खेती को प्रोत्साहन मिले और प्रशिक्षण प्रदान किया जा सके।
इस बारे में बिंदू विस्तार से बताते हुए कहती हैं, “केवीके ने हमें एक मॉडल फार्म के रूप में स्थापित किया और जल्द ही कई छात्र और शोधकर्ता आने लगे। इनमें कई लोगों ने हमारे फार्म से पौधे भी खरीदे। हमारे पास हर हफ्ते करीब 60 वीजिटर आने लगे।”
बिंदू बताती हैं कि हर कोई उनके जैसा ही बगीचा चाहता था। इसलिए उनके लिए, इस कपल ने इंस्टेंट गार्डेन बनाना शुरू किया जिसमें उन्हें ये गमले में लगाए और पूरी तरह से खिले हुए बोगोविलिया देते थे। गमलों की संख्या के आधार पर इंस्टेंट गार्डन बनाने की लागत 20,000 से 30,000 रूपये तक आती है।
फल देने के प्रयास
पिछले कुछ वर्षों से, दंपति सुबह 5 बजे से रात के 11 बजे तक इसी काम में व्यस्त रहते हैं। इनकी रोज की रूटीन में खेती, बिक्री, शिक्षण और यहां तक कि प्रेरक वार्ता और कक्षाएं भी शामिल हैं!
दिनचर्या के बारे में बात करते हुए बिंदू कहती हैं कि क्योंकि उन्हें स्कूल जाना होता है इसलिए वह सुबह पांच बजे उठती हैं, नर्सरी साफ करती हैं और सबके लिए लंच पैक करती हैं। दिन के समय बगीचे का ध्यान जोजो रखते हैं। स्कूल से आने के बाद, शाम 4 बजे से वह फिर बगीचे के काम में जोजो का हाथ बंटाती हैं। वह कहती हैं कि कभी-कभी उन्हें रात के 11 बजे तक भी गार्डन में रुकना पड़ता है।
बिंदू का एक यूट्यूब चैनल भी है जिसके 64,000 से अधिक फॉलोअर्स हैं। बिंदु बताती हैं कि करीब दो साल पहले उन्होंने टेक फ्लोरा नाम से एक यूट्यूब चैनल शुरू किया था। वह कहती हैं, “यह प्रेरणा का एक बड़ा स्रोत है। मुझे यह जानकर बहुत खुशी होती है कि लोग वास्तव में उस कार्य की सराहना करते हैं जो हम करते हैं।”
वह मुस्कुराते हुए कहती हैं कि पैसे और लोकप्रियता से ज़्यादा खुशी उन्हें अपने फलते-फूलते बगीचे को देख कर मिलती है।
जोजो और बिंदु का फल और फूलों से भरा ये बगीचा अब कई शहरी बागवानों के लिए एक प्रेरणा बन गया है। इसके साथ ही यह इस सच्चाई को भी दर्शाता है कि समय और समर्पण के साथ छोटे से ज़मीन के टुकड़े पर पर भी फल और फूल उगाए जा सकते हैं। (thebetterindia)
वह उस पर बढ़ते चीनी प्रभाव की एक झलक भर है
-राकेश भट्ट
एक फ़ारसी कहावत है कि “आदम-ए खाबीदे फ़क़त रोयाये खुश मी बीनद न के खबर-ए खुश” यानी सोये हुए आदमी को मात्र सुन्दर सपने देखने को मिल सकते हैं, अच्छी ख़बरें नहीं. ईरान से आई यह खबर भी निश्चित तौर पर अच्छी नहीं कि उसने भारत को चाबहार-ज़ाहिदान रेल मार्ग निर्माण समझौते से बाहर कर दिया है.
चार साल पहले, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 22 और 23 मई 2016 को दो दिवसीय ईरान यात्रा पर गए जहां उन्होंने ईरानी सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई, राष्ट्रपति हसन रूहानी एवं अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के साथ मुलाक़ात की. इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच 12 समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए. इनमें से सबसे महत्वपूर्ण समझौता आईपीजीपीएल [इंडिया पोर्ट्स ग्लोबल प्राइवेट लिमिटेड] और ईरान के आर्या बनादर निगम के बीच चाबहार बंदरगाह के विकास और संचालन का था.
इसी अनुबंध से जुड़ा एक अन्य समझौता भारतीय सरकारी उपक्रम इंडियन रेलवेज कंस्ट्रक्शन लिमिटेड (इरकॉन) और ईरान के सड़क एवं रेल मार्ग विकास निगम (सीडीटीआईसी) के बीच हुआ. इस समझौते के तहत चाबहार से 628 किलोमीटर उत्तर में स्थित ज़ाहिदान तक और फिर वहां से होते हुए करीब 1000 किलोमीटर उत्तर-पूर्व ईरान-तुर्कमेनिस्तान के बार्डर पर स्थित सरख्स तक रेल मार्ग का निर्माण किया जाना था.
भारत के लिए इस रेलमार्ग के सामरिक महत्व का अंदाज़ा सिर्फ इस बात से ही लगाया जा सकता है कि सामान से लदे एक ट्रक को बेंगलुरु से दिल्ली पहुंचने में तीन से चार दिन लगते हैं जबकि गुजरात के पोर्ट से भेजा सामान नौ घंटे में चाबहार और वहां से तकरीबन 11 घंटों में काबुल पहुंच सकता था. इस लिहाज से यह समझौता तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, उज़्बेकिस्तान और इस क्षेत्र के अन्य देशों में भारत के लिए व्यापार के सुनहरा द्वार खोलने जैसा था. मगर अफ़सोस!
भारत को इस समझौते से क्यों निकाला
बीती सात जुलाई को ईरानी परिवहन और शहरी विकास मंत्री मोहम्मद इस्लामी ने इस रेलमार्ग पर ट्रैक बिछाने की प्रक्रिया का उद्घाटन किया. द हिंदू अख़बार ने ईरानी अधिकारियों के हवाले से बताया है कि यह परियोजना मार्च 2022 तक पूरी हो जाएगी, और यह रेल मार्ग भारत की सहायता के बिना ही आगे बढ़ेगा. ईरान ने इसके पीछे की वजह परियोजना के लिए भारत से मिलने वाले फंड में हो रही देरी को बताया है.
यह सच है कि चार साल की इस अवधि में ईरान ने भारत से अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए लगातार आग्रह किया लेकिन भारत ने उसके आग्रह पर कोई ठोस कदम नहीं उठाये. भारत ने अपने वित्तीय वादों को पूरा न करके ईरान को इस समझौते को तोड़ने का एक बड़ा कारण तो दिया लेकिन ईरान के इस कदम के पीछे उसकी चीन के साथ बढ़ती निकटता और दोनों के बीच हुआ 25 साला संयुक्त आर्थिक और सुरक्षा समझौता भी है.
ईरान-चीन व्यापक रणनीतिक साझेदारी समझौता
जून 2016 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ईरान यात्रा की थी. इस दौरान उन्होंने ईरान के समक्ष एक व्यापक रणनीतिक साझेदारी के तहत तेल, गैस एवं रक्षा क्षेत्र में निवेश का मसौदा रखा. इस निवेश की राशि इतनी आकर्षक थी कि ईरान के लिए चीन की पेशकश को ठुकरा पाना मुश्किल था. दोनों देशों ने इस मसौदे की शर्तों पर तेज़ी से काम करना शुरू कर दिया. अगस्त 2019 के अंत में ईरानी विदेश मंत्री मोहम्मद जवाद ज़रीफ़ ने अपनी चीन यात्रा के दौरान वहां के विदेश मंत्री वांग ली के साथ इस व्यापक साझेदारी का रोडमैप पेश किया.
इस समझौते के प्रारूप को दोनों देशों ने दुनिया से कभी भी छुपाकर नहीं रखा. पेट्रोलियम इकोनॉमिस्ट नामक ब्रिटिश थिंक-टैंक ने इस समझौते की जानकारी 2016 में प्रकाशित की तथा 11 जुलाई 2020 को अमरीकी समाचार पत्र न्यूयोर्क टाइम्स ने ईरान-चीन समझौते से सम्बंधित विस्तृत जानकारी छापी.
इस प्रस्तावित समझौते के तहत चीन ईरान में करीब 400 बिलियन डॉलर (करीब 32 लाख करोड़ रूपये) का निवेश करेगा जिसमे से 280 बिलियन डॉलर का निवेश ईरान के तेल और गैस क्षेत्र में किया जायेगा. इसके अलावा 120 बिलियन डॉलर सड़क, रेल-मार्ग, बंदरगाह तथा रक्षा सम्बन्धी क्षेत्रों में किया जायेगा.
इसके अलावा चीन ईरान में एयरपोर्ट, बुलेट ट्रेन जैसी हाई-स्पीड रेलवे और 5-जी दूरसंचार नेटवर्क के लिए बुनियादी ढांचे का निर्माण करेगा. चीन ईरान में अपने इस भारी भरकम निवेश को सुरक्षित रखने के लिए अपने 5,000 सैनिकों को भी तैनात करेगा.
ईरान-चीन समझौते का भारत पर प्रभाव
पहले डोकलाम में तनातनी और फिर लद्दाख सीमा पर आक्रामक सैन्य गतिविधियों के चलते यह तो स्थापित हो गया है कि चीन भारत का मित्र राष्ट्र नहीं है. दक्षिण एशिया में भारत का कद चीन को जरा भी नहीं भाता. इसलिए वह पश्चिम और उत्तर में पाकिस्तान द्वारा, पूरब में नेपाल और दक्षिण में श्रीलंका के जरिये भारत की घेराबंदी को अंजाम देना चाहता है. ईरान के साथ होने वाले समझौते के जरिये चीन अब भारत के प्रभुत्व और आर्थिक गतिविधियों को और भी हानि पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा.
चीन-ईरान के प्रस्तावित समझौते के एक अनुच्छेद के मुताबिक चीन को ईरान की हर रुकी या अधूरी पड़ी परियोजनाओं को दोबारा शुरू करने का प्रथम अधिकार होगा. यदि चीन इस विकल्प को चुनता है तो चाबहार बंदरगाह का प्रभावी नियंत्रण अपने हाथ में ले सकता है. इस बंदरगाह के नियंत्रण को यदि भारत चीन के हाथों खो देता है तो भारत की ऊर्जा आपूर्ति के लिए यह बहुत ही अशुभ संकेत होगा. ऐसा होने पर भारत को पश्चिम एशिया से कच्चा तेल उन समुद्री मार्गों से लाना होगा जिनका नियंत्रण चीन के पास होगा.
चाबहार-ज़ाहिदान रेल-मार्ग निर्माण से भारत को हटाया जाना एक झटके में अफगानिस्तान और मध्य एशियाई देशों को भारत की पहुंच से वंचित कर देना है. और यदि चीन चाबहार बंदरगाह को भी अपने नियंत्रण में लेता है तो इससे भारत की ऊर्जा सुरक्षा भी खतरे में पड़ सकती है.
समझौते का पश्चिम एशिया के देशों पर प्रभाव
पश्चिम एशिया में ईरान, सऊदी अरब और इजराइल ही वे तीन देश हैं जिनका प्रभाव न सिर्फ इस क्षेत्र पर असर डालता है बल्कि इन तीनों के बीच के नाज़ुक संतुलन में रत्ती भर अंतर आने से समूचा विश्व अछूता नहीं रहता.
ईरान में इतने बड़े पैमाने पर चीनी निवेश के कारण सऊदी अरब और इजराइल की चिंताएं बढ़ना स्वाभाविक है. ऊर्जा के क्षेत्र में 280 बिलियन डॉलर का चीनी निवेश निश्चित ही ईरान को तेल उत्पादन में सऊदी अरब से आगे ले जाने की क्षमता रखता है. साथ ही चीन और ईरान का सैन्य सहयोग क्षेत्र के संतुलन को ईरान के पक्ष में कर सकता है. पश्चिम एशिया में ईरान के बढ़ते वर्चस्व से इजराइल की चिंता और भी बढ़ सकती है. आर्थिक रूप से संपन्न और सैन्य शक्ति से लैस ईरान इस क्षेत्र में सऊदी अरब एवं इजराइल के प्रभुत्व को निश्चित तौर पर कमज़ोर कर सकता है.
अमेरिका और यूरोप पर प्रभाव
1979 के शुरुआत में हुई शिया इस्लामी क्रांति ने ईरान को यूरोप और अमेरिका से दूर कर दिया और तब से ही यह नया ईरान और विश्व का सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका एक दूसरे के दुश्मन बन गए. 2015 में इन दोनों देशों की दुश्मनी थोड़ी थम गई जब अमेरिका समेत सयुंक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के पांचों देश और जर्मनी ने ईरान के साथ परमाणु समझौता किया. इसे जॉइंट कॉम्प्रेहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (जेसीपीओए) के नाम से जाना जाता है. लेकिन 2018 में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एकतरफा तौर पर अमेरिका को इस समझौते से अलग कर दिया और ईरान पर कड़े आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिए. इन प्रतिबंधों ने ईरान के अर्थतंत्र को तब बुरी तरह से प्रभावित किया जब ईरानी बैंकों को स्विफ्ट नाम के बैंकिंग प्रोटोकॉल से अलग कर दिया जिसके कारण दूसरे देशों से ईरान का व्यापार लगभग ठप्प हो गया.
अब ईरान-चीन के प्रस्तावित समझौते के तहत दोनों देश एक-दूसरे के देशों में अपने बैंकों की शाखाएं खोलेंगे. इस समझौते में इस तरह के अनुबंधों को शामिल किया गया है जो अमेरिकी मुद्रा के वर्चस्व के लिए खतरा बन सकता है. क्योंकि चीन और ईरान स्विफ्ट को दरकिनार करते हुए एक नए बैंकिंग प्रोटोकॉल के तहत पैसे का लेनदेन करेंगे जिसमे डॉलर नदारद होगा. यानी कि पश्चिम एशिया में चीन का आगमन अमेरिका के लिए नयी चुनौतियां लेकर आएगा.
ईरान के लिए नफा या नुकसान?
ईरान वह देश है जहां सरकार और नागरिक चरित्र एक-दूसरे के विपरीत रहा करते हैं. चाहे वह तब का ईरान हो जब वहां राजशाही थी या अब जब देश की शासन प्रणाली इस्लामी हो चली है.
ऐसे में इस समझौते को लेकर जहां ईरानी सत्ता खुश है कि देश की ध्वस्त होती अर्थव्यवस्था दोबारा परवान चढ़ेगी, वहीं ईरानी जनता इस समझौते में चीनी गुलामी की आहट सुनती है.
ईरानी सरकार और जनता दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही हैं. नज़दीक भविष्य में यह समझौता भले ही ईरान के लिए हितकारी हो लेकिन मित्रता के मुखौटे में छिपी चीनी सहायता उस शहद की तरह है जो मीठा तो है लेकिन कालांतर में वही मिठास हलाहल में तब्दील हो जाती है. क्या ईरानी शासक वर्ग चीनी निवेश से अफ़्रीकी देशों में उपजे संकट को नज़रअंदाज़ कर रहा है और सिर्फ नज़दीकी भविष्य की रौशनी को ही सूरज का अमर उजाला समझ बैठा है.
चीन की चांदी
इस समझौते में किसका कितना नुकसान होता है यह तो आने वाला भविष्य बताएगा लेकिन निश्चित तौर पर चीन अपने धनबल से बदलते विश्व में अपना वर्चस्व बनाने की और अग्रसर है.
समझौते के तहत निवेश के एवज में चीन को ईरानी तेल 30 फीसदी रियायती दरों पर मिलेगा जिसका भुगतान वह दो साल की अवधि के बाद करेगा जो विश्व में अब तक अनदेखा और अनसुना तेल समझौता है. और इस पैसे का भुगतान वह डॉलर में नहीं बल्कि अपनी मुद्रा युआन में करेगा जिसका उसके पास अथाह भण्डार है. यानी हर दृष्टि से लाभ ही लाभ.
चीन जिस अंदाज़ में मदद के नाम पर दूसरे देशों को अपना आर्थिक गुलाम बना रहा है उसका नज़दीकी उदाहरण हमारा पडोसी देश पाकिस्तान है. पाकिस्तान के सबसे बड़े प्रान्त बलूचिस्तान में चीनी प्रभाव इतना बढ़ गया है कि वहां ज़मीन की खरीद-फरोख्त बिना चीनी इजाज़त के नहीं हो सकती.
अप्रैल 2020 में तंजानियाई राष्ट्रपति जॉन मागुफुली ने चीन के 10 बिलियन डॉलर के ऋण को ठुकराते हुए कहा था कि चीनी ऋण की शर्तें अफ्रीका में नव उपनिवेशवाद को जन्म देती हैं. उन्होंने कहा कि “कोई नशे में मदमस्त शराबी ही मदद के एवज में चीनी शर्तों को स्वीकारेगा.”
क्या ईरानी सत्ता इसलिए चीन को खतरा नहीं मानती क्योंकि ईरान में शराब पर प्रतिबन्ध है!(satyagrah)
मध्यप्रदेश में एक आईपीएस अफसर का वीडियो चर्चा में है, चर्चा ये नहीं है कि वे लिफाफे लेते कैमरे में कैद हुए, मुद्दा ये है कि इतने लापरवाही, पकडे गए ? आखिर समाज और सत्ता ने क्यों रिश्वत को तोहफा मान लिया
-पंकज मुकाती
(राजनीतिक विश्लेषक )
आखिर मधु बाबू एक्सपोज़ हो गए। ऐसा क्यों हुआ ? एक मंझा हुआ तपा तपाया अफसर और ऐसी लापरवाही? इसे लापरवाही इसलिए कह रहा हूं क्योंकि लिफाफा तो अब सौहार्द का प्रतीक है। इस सौजन्यता को स्वीकारना अफसरी के बने रहने का एकमात्र रास्ता है। मध्यप्रदेश या किसी भी राज्य में अफसरशाही ऐसे ही लिफाफों पर ज़िंदा है। ये जो लिफाफा रेल है। बड़ी लम्बी है।
इसमें सवार होकर आप मुख्य सचिव तक पहुंच सकते हैं। ऐसा नहीं करेंगे तो किसी अकादमी में अफसरों की मेस का जिम्मा संभालते रहेंगे। फील्ड की तैनाती के लिए आपके पास लिफाफे की बड़ी योग्यता जरुरी है। जो जितने सयानेपन से ये लिफाफा एकत्रीकरण करेगा वो उतना समझदार कहलायेगा। सत्ता ऐसे लोगों को खुद तलाश लेती है। स्क्रैच एंड विन जैसी योजना है सरकारी ओहदे।
रिश्वत लेना-देना कोई बुराई रहा ही नहीं। पर इस तरह से पकडे जाने ने अफसर की बरसों की मेहनत पर पानी फेर दिया। वे सत्ता की नजर में एक वीडियो से उतर गए। चर्चा ये नहीं है कि एक आईपीएस रिश्वत लेते दिख रहा है। चर्चा ये है कि ऐसी लापरवाही रिश्वत भी ठीक से नहीं ले सके। वीडियो साढ़े तीन साल पुराना है। जब साहब उज्जैन में पदस्थ थे।
अफसरों में और आम लोगों में ये भी चर्चा का विषय है कि बड़े कमजोर निकला मधु बाबू का मेनेजमेंट। चार साल में वीडियो बनाने वाले को पूरी तरह सेट नहीं कर पाए। उसने अब वायरल कर दिया। कुछ लोग उन्हें साजिश आपसी रंजिश का शिकार बता रहे हैं। लोगों की सहानुभूति है बेचारे साहब, उलझ गए। तर्क है कि ये वीडियो उस वक्त के एक एसपी ने उनसे खुन्नस में बनाया। यानी इस बात से किसी को आश्चर्य, पीड़ा नहीं है कि एक नौकरशाह इस सुशासन वाली सरकार में ऐसे लिफाफे लेता है। क्योंकि सब इसे स्वीकार चुके हैं। ये सबसे खतरनाक है।
एक बात ये भी उठ रही कि कांग्रेस के कमलनाथ ने जिस अफसर को ट्रांसपोर्ट कमिश्नर बनाया, वे लिफाफे लेते कैमरे में कैद हुए। पर सवाल ये भी है कि वे कैमरे में कैद तो शिव राज में हुए। सरकारें किसकी है, इससे धनबल वालों की आस्था में कोई फर्क नहीं पड़ता।
दरअसल, मधु कुमार बाबू दीवार की एक खूंटी है इस वक्त बात करने के लिए। वैसे तो पूरी दीवार ही गन्दी है। वरना सत्ता और नौकरशाही के बीच सेतु ही लिफाफे बने हुए हैं। चतुराई से लिफाफे लेने और उसे आगे बढ़ाने वाले शाबाशी पाते हैं। पर मधु कुमार बाबू अब उस दौड़ में पिछड़ गए। आखिर पकडे जो गए। अब नई पौध को मौका मिलेगा। कोरोनाकाल में कई नए ऐसे काबिल, कमाऊ अफसर सामने आये हैं। सरकार की निगाहें हैं, उनपर जल्द सम्मानित भी होंगे।
ऐसे वीडियो तमाम अफसरों के लिए प्रेरणा साबित होंगे। सबक और मिसाल बनेंगे। वे इससे सीखेंगे कि क्या-क्या नहीं करना है। लिफाफे ऐसे नहीं लेना है। अफसरशाही के प्रबंधन में इसे हिदायत के साथ पढ़ाया जाएगा। अक्सर जब अफसरों को ये लगने लगता है कि पूरी दुनिया मुट्ठी में है, तब वे अपनी मांद से निकलकर ऐसे खुले में शिकार करने लगते हैं।
सरकार की सदशयता देखिये, मधु कुमार बाबू को सस्पेंड नहीं किया। भोपाल पुलिस मुख्यालय भेज दिया। आखिर भेजते भी कैसे। उनके ऊपर केंद्र के एक बड़े नेता का हाथ। प्रदेश में कांग्रेस-भाजपा दोनों सरकारों के कई राज़ उनके पास है। बहुत संभव है कि बड़ी सजा देने से दूसरे अफसर ठिठक जाते और लिफाफा कारोबार प्रभावित होता। कुल मिलाकर सत्ता के लिए 'मधु' मेह अच्छा है।
इलायची ..थोड़ी सी पड़ताल करिये। सोचिये पहले जो अफसर आय से अधिक संपत्ति या रिश्वत में पकडे गए। वो अब कहां हैं। सब आपको आपने आसपास किसी बड़े ओहदे पर ही मिलेंगे। आखिर एक बड़ा लिफाफा सारे दाग धो देता है।
दसवीं अनु सूची के अनुरूप गठित है मंत्रि-परिषद?
-देवेंद्र वर्मा
(पूर्व प्रमुख सचिव छत्तीसगढ़ विधानसभा
संसदीय एवं संवैधानिक विशेषज्ञ)
संविधान की दसवीं अनु सूची (दल बदल कानून) का उद्देश्य यह है कि कोई निर्वाचित जन प्रतिनिधि अपने व्यक्तिगत कारणों, लोभ, लालच छल कपट से सरकार को अस्थिर करने के उद्देश्य से अपने मूल राजनीतिक दल जिससे वह निर्वाचित हुआ है, की सदस्यता स्वेच्छा से न छोड़े। प्रावधान निम्नानुसार है।
"(पैरा 2 (1)(क) उसने ऐसे राजनीतिक दल की सदस्यता स्वेच्छा से छोड़ दी है"
यदि कोई निर्वाचित जन प्रतिनिधि,उस राजनीतिक दल जिसकी विचारधारा,घोषणा पत्र,पर विश्वास प्रकट करते हुए,दल के कार्यक्रमों पर आस्था व्यक्त करके,जनता को लुभाते हुए,चुनाव लड़ता है, और फिर जितनी अवधि के लिए जनता ने उसे निर्वाचित किया है, बिना जनता को विश्वास में लिए स्वेच्छा से जिस राजनीतिक दल के टिकट पर जनता ने उसे निर्वाचित किया है उस राजनीतिक दल अर्थात विधान दल से त्याग-पत्र दे कर, विधान दल की सदस्यता स्वेच्छा से छोड़ देता है, जिस जनता ने उस पर विश्वास व्यक्त किया,जनता के साथ विश्वासघात करते हुए, किसी अन्य राजनीतिक दल मैं सम्मिलित हो जाता है, जनादेश को परिवर्तित कर देता है और उसके एवज में वह मंत्री पद अथवा अन्य कोई लाभ प्राप्त करने वाला पद प्राप्त कर लेता है, तो क्या यह दल बदल कानून,उपरोक्त पैरा (2)(1)(क),उसके उद्देश्य और उसकी मूल भावना के विपरीत नहीं है?
क्या केवल इस कारण से कि वह पुनः चुनाव लड़ने वाला है, मूल पद को तिलांजलि देने और जनादेश प्राप्त सरकार को अपदस्थ करने जैसे जघन्य अपराध से मुक्ति पाने और मंत्री पद पर नियुक्त होने अथवा नियुक्त किए जाने की अधिकारिता रखता है?
क्या कोई राजनीतिक दल जो ऐसे दलबदलू को राजनीतिक लाभ के लिए मंत्री अथवा अन्य लाभ के पद पर नियुक्त करता है तो क्या राजनीतिक दल का ऐसा कार्य प्रजातंत्र, संसदीय प्रणाली, संविधान, की अवज्ञा और दसवीं अनु सूचि(दल बदल कानून) के उल्लंघन और इसके उद्देश्यों के विपरीत नहीं है ?
संविधान की दसवीं अनु सूची(दल बदल कानून) जब वर्ष 1985 में संविधान में संशोधन करते हुए सम्मिलित की गई तब संसद में सदस्यों द्वारा व्यक्त विचारों में सामंजस्य स्थापित करने के उद्देश्य से जहां किसी सदस्य द्वारा दल बदलने पर सदस्यता से निरर्हरित (disqualify)करने जैसा प्रावधान लागू किया गया, और विभाजन(split) की स्थिति के लिए दल बदल कानून में निरहरित(disqualify)करने की अधिकारिता विधानसभा अध्यक्ष को दी गई और उनसे यह अपेक्षा की गई कि वह कानून और नियमों का निर्वचन करते हुए निरहंरित(disqualify) करने के संबंध में निर्णय दे.
राजनीतिक दलों में विभाजन पर दल बदल कानून एवं निर्मित नियमों के आधार पर विधानसभा अध्यक्षों के निर्णय प्राय: विवाद के विषय बने और आए दिन न्यायालयों में चुनौती भी दी जाने लगी।
किंतु वर्ष 1985 के पश्चात अनुभव यह भी रहा कि अधिकतर विभाजन छोटे दलों में ही हुआ और विभाजन के पश्चात, विभाजित समूह को दूसरे दलों की सरकार में मंत्री पद से नवाजा गया अथवा मंत्री पद के समान ही लाभ प्राप्त करने जैसे पदों पर नियुक्त किया गया।
1985 में दल बदल कानून के लागू होने के पश्चात इसमें अनुभव की गई कमियों आदि पर विचार करने हेतु चुनाव सुधार पर अध्ययन एवं प्रतिवेदन प्रस्तुत करने के लिए दिनेश गोस्वामी कमेटी की सिफ़ारिशें, तथा ला कमीशन की 170 वी रिपोर्ट 1999, भारत सरकार द्वारा वर्ष 2002 में संविधान की कार्य पद्धति को रिव्यू करने हेतु नियुक्त कमीशन ने भी दसवीं अनु सूची में विभाजन वाले पैरा को हटाने की अनुशंसा की।
उपरोक्त अनुशंसाओं के अनुरूप वर्ष 2003 में दसवीं अनु सूची को संशोधित करने हेतु लोकसभा में 97वां संशोधन विधेयक 5 मई 2003 को पूर:स्थापित(introduce) होने पर इसे प्रणव मुखर्जी के सभापतित्व में गठित संसद की स्थाई समिति को संदर्भित कर दिया गया।
इस समिति ने भी पैरा तीन को डिलीट करने की अनुशंसा के साथ-साथ यह भी अनुशंसा की कि यदि “सदन का कोई सदस्य दसवीं अनु सूची के पैरा दो के अंतर्गत सदस्यता के लिए निर्रहित हो जाता है।
{अर्थात उसने अपने
(क)मूल राजनीतिक दल की सदस्यता स्वेच्छा से छोड़ दी है, अथवा
(ख)ऐसे राजनीतिक दल जिसका वह सदस्य है के किसी निर्देश के विरुद्ध पूर्व अनुज्ञा के बिना ऐसे सदन में मतदान करता है या मतदान करने से विरत रहता है और ऐसे राजनीतिक दल ने ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने की तारीख से 15 दिन के भीतर माफ नहीं किया है।}
(कृपया संविधान की दसवीं अनु सूची का संदर्भ लें)
तो इस प्रकार दसवीं अनु सूची के अंतर्गत निरर्हरित(disqualify)सदस्य संविधान के अनुच्छेद 164(1)ख के अनुसार निरर्हरित होने की तारीख से,प्रारंभ होने वाली तारीख से उस तारीख तक, जिसको ऐसे सदस्य के रूप में उसकी पदावधि समाप्त होगी या जहां वह ऐसी अवधि की समाप्ति के पूर्व यथा स्थिति किसी राज्य की विधानसभा के लिए या विधान परिषद वाले किसी राज्य के विधान मंडल के किसी सदन के लिए कोई निर्वाचन लड़ता है उस तारीख तक जिसको वह निर्वाचित घोषित किया जाता है इनमें से जो भी पूर्वोत्तर हो, की अवधि के दौरान खंड1 के अधीन मंत्री के रूप में नियुक्त किए जाने के लिए भी निरहर्ररित(disqualify)होगा।
संविधान में 6 माह के लिए मंत्री पद पर नियुक्त करने के प्रावधानों के अंतर्गत भी ना तो उसे मंत्री पद पर नियुक्त किया जाए और ना ही सरकार में किसी अन्य रिमुनरेटिव (लाभकारी) पद पर नियुक्त किया जाए।
मंत्री पद पर नियुक्त नहीं किए जाने के साथ-साथ इस संभावना को सीमित करने के उद्देश्य से कि बिना किसी बंधन के मंत्रिमंडल का आकार ऐसे दलबदलूओं के कारण असीमित ना हो मंत्रिमंडल मैं मंत्रियों की संख्या को भी 15% रखने और छोटे राज्य जहां की संख्या 40,60 या 90 है, वहां कम से कम12 मंत्री, मंत्रिमंडल में सम्मिलित किए जाने की अनुशंसा की।
तत्कालीन विधि मंत्री श्री अरुण जेटली ने समिति की सिफ़ारिशो को स्वीकार करने का कथन कहते हुए संविधान में संशोधन का विधेयक समिति की अनुशंसा के साथ16 दिसंबर 2003 को लोकसभा में प्रस्तुत और पारित हुआ और पश्चात 18दिसंबर 2003 को राज्यसभा में प्रस्तुत और पारित हुआ जो भारत के राज पत्र में 91 वा संविधान संशोधन अधिनियम 2003, 2 जनवरी 2004 को भारत के राज पत्र में प्रकाशित होकर लागू हुआ।
इस विधेयक पर हुई चर्चा इसके उद्देश्य, संसद की मंशा आदि जानना इसलिए आवश्यक है, कि वर्तमान में राजनीतिज्ञों एवं राजनीतिक दलों का जो आचरण एवं व्यवहार देश की जनता देख रही है क्या वह वास्तव में विधेयक की शब्दावली, संसद मैं हुई चर्चा माननीय सदस्यों एवं माननीय विधि मंत्री जी द्वारा व्यक्त विचारों भावनाओं के अनुरूप है ?
इस संविधान संशोधन विधेयक पर लोकसभा एवं राज्यसभा में हुई चर्चा के कुछ महत्वपूर्ण अंश हूबहू स्वरूप में निम्नानुसार है:-
लोकसभा की कार्यवाही दिनांक 16 दिसंबर 2003 के अंश
Priya Ranjan Das Munshi:-
“...........in this parliament I defined defection in two categories- one is defection per se as per the statute and the other is deceptionThis legislation will give a wider scope that if a leader of a party resigned from that party joins another party it is also defection and if he does not get elected by the People's mandate he will not be considered as a Minister. Simply contesting election will not wash his whole sin or crime whatever it is.I agree it is good,you are giving the total emphasis on the mandate of the people,if the mandate of the people is the single criterion to honour the constitution then my submission to honorable minister of law and Justice is with due respect to the upper house here and the Council in States get the percentage of the legislators inducted in the ministry 15% or tomorrow you can further make it to 12% if there is a shortcoming.It should be done on the basis of the people elected by the people and not combining both the houses.Combining both the houses negates the very concept where you state that a member who resigns and joins other party cannot be considered as a member of council of minister and sworn in at the Rashtrapati Bhavan or the Governor house, unless he is elected. so elected by the people should be the basic criterion and if that is so in that case combining both the houses and deciding the strengths to determine the size of the Council of Ministers is not a correct approach……….”
………………
Shri Arun Jaitley: I am grateful to the hon. Member.Some other questions have been raised,and one questions which Members have repeatedly raised,which was asked to me in the end,as to what happens with regard to parties expelling their Members From the membership of the Political party.Now the provisions of the Tenth Schedule it self take care of that which is to the effect that the Tenth Schedule is triggered off or attracted only if somebody voluntarily relinquishes the membership of a political party.कोई अपनी मर्जी से वाल्यनटरली अपनी पार्टी की सदस्यता को छोड़ता है तभी संविधान के दसवे शेड्यूल के अंतर्गत प्रावधान उस पर लागू होते हैं। जो अपनी मर्जी से नहीं छोड़ता और जिसे पार्टी की तरफ से एक्सपेल कर दिया जाता है, एक्स्पल्शन की वजह से दसवाँ शेड्यूल अपने आप में अट्रैक्ट नहीं होता। इसलिए उसके ऊपर यह प्रावधान लागू नहीं होगा।……………………..
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राज्यसभा की कार्यवाही दिनांक 18 दिसम्बर के अंश:-
Shri Pranab Mukherjee; …………….But most important part of of this is the defection, and I do entirely agree with the Honorable minister that in the name of of expressing distant dissenting voice from the political parties or the leadership of the the political party this provision was used to to subserve self interest it was not in the question of the the dissent nobody prevents dissent no body can throttle dissent. What is Being prohibited is that you cannot take advantage of your elected strata being a member of a legislature either in the Assembly or in the The council or in Lok Sabha or or in Rajya Sabha and there after Express your decent. If you genuinely feel that you do not agree with the the views of the political party the most respectable course left to you would you resign from the party, you resign from the the membership and you seek the mandate on that Limited issue if a limited mandate could be obtained. ………………………………………….
One instance comes to to my mind immediately, when Mr Siddharth Shankar Ray was the the law minister of Dr B C Roy government of West Bengal he had differences with the Congress Party and he resigned immediately from the party,he resigned from the membership of the assembly and sought by-election and that is the normal democratic practice which we should have.Unfortunately we are not doing so therefore this is an attempt to prevent taking that advantage and power anxiety to eat the cake and at the same time have it.we have also suggested that it may happen that a Minister without being a member of either House for six months is being prohibited but the remunerative political office should also be. We suggested to the department, and thereafter the definition has come which we have incorporated in the report, the government has also accepted that. …………………………………………………..
SHRI ARUN JAITELY: :..........................................
One more question which was raised by some of the the Members as to whether this would also be applicable to Members who are expelled by political parties.The tenth schedule itself does not apply to Members who are expelled by political parties.The Tenth Schedule has triggered off only against a Member who voluntarily gives up the membership of a political party.If somebody voluntarily does not give up the membership of apolitical party.If somebody doesn't give up the membership of a political party and he is expelled by the political,the provisions of the Tenth Schedule Itself would be inapplicable in such case…………….
उपरोक्त संविधान की दसवीं अनु सूची के पैरा 2(1)(क),)(ख) संविधान के अनुच्छेद164(1B),एवं सदन में हुई चर्चा और विधी मंत्री के उत्तर के परिपेक्ष में विचारणीय यह है कि दल की सदस्यता स्वैच्छा से छोड़ने वाले सदस्यों को मंत्री पद पर नियुक्त किया जाना,अथवा लाभकारी पद पर नियुक्त करना संवैधानिक है?अथवा असंवैधानिक??
संदर्भ:-1 भारत का संविधान दसवीं अनुसूची एवं अन्य संबंधित अनुच्छेद
2 संविधान के 97 वेवा संशोधन विधेयक तथा उस पर लोकसभा में हुई चर्चा दिनांक 16 दिसंबर 2003 तथा राज्यसभा में हुई चर्चा दिनांक 18 दिसंबर 2003
दयानिधि
शोधकर्ताओं की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने लोगों के माध्यम से भारी मात्रा में वातावरण में जारी होने वाली नाइट्रोजन के प्रभाव का मूल्यांकन किया है। मूल्यांकन के इस काम में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन भी शामिल थे। हर साल वातावरण में जारी होने वाली इस नाइट्रोजन का पर्यावरण और स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
नाइट्रोजन का उपयोग नाइट्रिक एसिड, अमोनिया बनाने में होता है। अमोनिया से उर्वरक, नायलॉन, दवाओं और विस्फोटकों का उत्पादन किया जाता है।
जैसा कि शोधकर्ताओं ने बताया, पर्यावरण में जारी मानव-संबंधित नाइट्रोजन की मात्रा पिछले कई दशकों से लगातार बढ़ रही है। वायुमंडल में बहुत सी गैसे पहले से ही है, नाइट्रोजन की मात्रा के बढऩे से लोगों का जीवन खतरे में आ गया है। यह शोध पत्र नेचर फूड नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
इस नए प्रयास में, शोधकर्ताओं ने वातावरण में जारी नाइट्रोजन की मात्रा को मापने का प्रयास किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि हम ग्रहों की सीमा (प्लेनेटरी बाउंड्री) के कितने करीब आ रहे हैं। ग्रहों की सीमा (प्लेनेटरी बाउंड्री) एक अवधारणा है जिसमें पृथ्वी में होने वाली प्रक्रियाएं पर्यावरणीय सीमाओं के अंदर होने की बात कही गई है। ग्रहीय सीमाएं स्पष्ट रूप से वैश्विक स्तर के लिए डिज़ाइन की गई हैं। इसका उद्देश्य औद्योगिक क्रांति से पहले मौजूद सुरक्षित सीमाओं के भीतर पृथ्वी को बनाए रखना है। बहुत ज्यादा नाइट्रोजन हानिकारक हो सकती है क्योंकि इसमें से कुछ नाइट्रेट्स के रूप में उत्सर्जित होते हैं, जो जल प्रदूषण के लिए जाने जाते है। इसमें से कुछ को अमोनिया के रूप में भी उत्सर्जित किया जाता है, जो एक ग्रीनहाउस गैस है। नाइट्रोजन पानी में बहकर पानी के स्रोतों तक पहुच जाता है, जिससे वहां अधिक मात्रा में शैवालों को उगने में मदद कर सकती है जो उस क्षेत्र में रहने वाले अन्य सभी प्राणियों के लिए खतरनाक है। मनुष्य विभिन्न स्रोतों के माध्यम से नाइट्रोजन का उत्सर्जन करते हैं, जिनमें उर्वरक के रूप में इसका छिडक़ाव, सीवेज उपचार संयंत्रों, बिजली संयंत्रों और अन्य उद्योग शामिल है। नाइट्रोजन उत्सर्जन के लिए सबसे बड़ी पशुधन श्रृंखला जिम्मेदार है। पशुओं को खिलाने के लिए इस्तेमाल होने वाले भोजन को उगाने के लिए फसल पर भारी मात्रा में नाइट्रोजन युक्त उर्वरक डाला जाता है। उनकी खाद से भारी मात्रा में नाइट्रोजन निकलती है।
शोधकर्ताओं ने अकेले पशुधन श्रृंखला पर अपने प्रयासों को केंद्रित किया। दुनिया भर के आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद, उन्होंने गणना की कि पशुओं की वजह से हर साल 65 ट्रिलियन ग्राम नाइट्रोजन पर्यावरण में फैल रही है। यह वह संख्या है जो ग्रह की सीमा (प्लेनेटरी बाउंड्री) के लिए तय की गई गणना से अधिक है।
उन्होंने यह भी पाया कि पशुधन श्रृंखला पर्यावरण में जारी मानव-संबंधित नाइट्रोजन का लगभग एक-तिहाई हिस्से के लिए जिम्मेदार है। शोधकर्ताओं ने भविष्य में आपदा को रोकने के लिए नाइट्रोजन उत्सर्जन को कम करने पर जोर दिया है। (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजस्थान के राजनीतिक दंगल ने अब एक बड़ा मजेदार मोड़ ले लिया है। कांग्रेस मांग कर रही है कि भाजपा के उस केंद्रीय मंत्री को गिरफ्तार किया जाए, जो रिश्वत के जोर पर कांग्रेसी विधायको को पथभ्रष्ट करने में लगा हुआ था। उस मंत्री की बातचीत के टेप सार्वजनिक कर दिए गए हैं। एक दलाल या बिचैलिए को गिरफ्तार भी कर लिया गया है।
दूसरी तरफ यह हुआ कि विधानसभा अध्यक्ष ने सचिन पायलट और उसके साथी विधायकों को अपदस्थ करने का नोटिस जारी कर दिया है, जिस पर उच्च न्यायालय में बहस चल रही है। पता नहीं, न्यायालय का फैसला क्या होगा लेकिन कर्नाटक में दिए गए अदालत के फैसले पर हम गौर करें तो यह मान सकते हैं कि राजस्थान का उच्च न्यायालय सचिन-गुट के 19 विधायकों को विधानसभा से निकाल बाहर करेगा। यह ठीक है कि सचिन का दावा है कि वह और उसके विधायक अभी भी कांग्रेस में हैं और उन्होंने पार्टी व्हिप का उल्लंघन नहीं किया है, क्योंकि ऐसा तभी होता है जबकि विधानसभा चल रही हो।
मुख्यमंत्री के निवास पर हुई विधायक-मंडल की बैठक में भाग नहीं लेने पर आप व्हिप कैसे लागू कर सकते हैं ? इसी आधार पर सचिन-गुट को दिए गए विधानसभा अध्यक्ष के नोटिस को अदालत में चुनौती दी गई है। कांग्रेस के वकीलों का तर्क है कि दल-बदल विरोधी कानून के मुताबिक अध्यक्ष का फैसला इस मामले में सबसे ऊपर और अंतिम होता है। अभी अध्यक्ष ने बागी विधायकों पर कोई फैसला नहीं दिया है। ऐसी स्थिति में अदालत को कोई राय देने का क्या हक है ? इसके अलावा, जैसा कि कर्नाटक के मामले में तय हुआ था, उसके विधायकों ने औपचारिक इस्तीफा तो नहीं दिया था लेकिन उनके तेवरों से साफ हो गया था कि वे सत्तारुढ़ दल के साथ नहीं हैं यानि उन्होंने इस्तीफा दे दिया है। यदि यह तर्क जयपुर में भी चल पड़ा तो सचिन पायलट-गुट न इधर का रहेगा न उधर का !
यदि अदालत का फैसला पायलट के पक्ष में आ जाता है तो राजस्थान की राजनीति कुछ भी पल्टा खा सकती है। जो भी हो, राजस्थान की राजनीति ने आजकल बेहद शर्मनाक और दुखद रूप धारण कर लिया है। मुख्यमंत्री गहलोत के रिश्तेदारों पर आजकल पड़ रहे छापे केंद्र सरकार के मुख पर कालिख पोत रहे हैं और इस आरोप को मजबूत कर रहे हैं कि भाजपा और सचिन, मिलकर गहलोत-सरकार गिराना चाहते है। इतना ही नहीं, करोड़ों रु. लेकर विधायकगण अपनी निष्ठा दांव पर लगा रहे हैं। वे पैसे पर अपना ईमान बेच रहे हैं। क्या ये लोग नेता कहलाने के लायक हैं ?
भाजपा-जैसी राष्ट्रवादी और आदर्शोन्मुखी पार्टी पर रिश्वत खिलाने का आरोप लगानेवालों के खिलाफ कठोरतम कार्रवाई होनी चाहिए और यदि ये आरोप सच हैं तो भाजपा का कोई भी नेता हो, पार्टी को चाहिए कि उसे तत्काल निकाल बाहर करे और वह राजस्थान की जनता से माफी मांगे। (nayaindia.com) (नया इंडिया की अनुमति से)
-मृणाल पाण्डे
फ्रांसीसी कहावत हैः चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही पहले जैसी होती जाती हैं। 2019 में बीजेपी ने लोकसभा चुनावों में भारी जीत दर्ज कराई। पर इस बीच जिन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को बहुमत मिला था, उनको भी मौका पाते ही उसने धर दबोचा। नतीजतन बहुमत के बावजूद गोवा या गुजरात में उसकी बजाय भाजपानीत सरकारें बन गईं। कुछ शपथ लेकर राज-काज संभाल चुकी राज्य सरकारें (कर्नाटक, मध्य प्रदेश की) सामदाम-दंड-भेद से गिरा दी गईं। अभी भी कुछ गिरने की कगार पर बताई जा रही हैं (राजस्थान, महाराष्ट्र)। बंगाल, बिहार के चुनाव सर पर हैं, उनके नतीजे और उन नतीजों के बाद के नतीजे देखना राजनीतिशास्त्र के अध्येताओं के लिए काफी रोचक रहेगा।
कोविड का डरावना असर भी हमारी चुनावी राजनीति का चाल, चरित्र, चेहरा और चिंतन नहीं बदल सका है, इसके दो दुखद उदाहरण हैं: मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में जाने और अब राजस्थान में बगावती तेवर देखते हुए राज्य के पार्टी प्रमुख और उपमुख्यमंत्री- जैसे दो महत्वपूर्ण पदों से सचिन पायलट का यकायक हटाया जाना। अब तक एक स्थापित परंपरा बन चली है कि अक्सर चुनावी नतीजों से राज्यवार जिस दल की सरकार और उसके वादों के मुताबिक जैसे आमूलचूल बदलाव की गणनाएं टीवी के पंडित लगाते हैं, वह अक्सर फलीभूत नहीं होते।
कोविड के बीच भी खास तौर से बुक किए विमानों से जो कल के आयाराम थे, किसी रिसॉर्ट ले जाए जाते हैं जहां से राजकचोरी खाकर वे गया राम बन कर निकलते हैं और बिना सुर ताल के कल तक अपनी मातृ पार्टी रही संस्था के सार्वजनिक बखिये उधेड़ने लगते हैं। मध्य प्रदेश में यह मंजर सबसे साफ दिखा, जहां कोविड के बढ़ते सायों के बीच भी काबीना की बनवाई अटकी रही, जब तक कोई टाइगर एक अभयारण्य का वरदहस्त त्याग कर दूसरे अभयारण्य में जाकर पुराने रखवालों के खिलाफ जम कर न दहाड़ने लगा।
अब तक बंगाल में दीदी ने अपने तृणमूल दल को और केरल में विजयन ने सत्ता में मार्क्सवादी गठजोड़ को कस कर जमाए रखा है। असम में पूर्ण बहुमत रखने वाली बीजेपी भी कांग्रेस के लंबे शासन को हटा कर सत्ता में डटी दिखती है। लेकिन कल तक कांग्रेस में रहे उसके शीर्ष नेता पुराने आजमूदा हथकंडों से विपक्षी दल हिलवा कर हिमालयी राज्यों पर केंद्र की जकड़बंदी को और भी सख्त बनाने में जुटे हैं। कोविड की मार न होती तो नागरिक रजिस्टर का विभेदकारी मुद्दा भी जोरों से धुकाया जाता, इसमें संशय नहीं।
उधर, गैर बीजेपी राज्य सरकारों में ईमानदार अंतर्मंथन से सूबे के भीतरी झगड़े समय पर भीतर ही सुलझाने की इच्छा और क्षमता चिंताजनक तौर से कम दिख रही है। ‘जे बिनु काज दाहिने बाएं’ हिसाबी-किताबी किस्म के विश्लेषक जो कहें, शीर्ष पर दो बड़ी पार्टियों के सनातन झगड़ों के बीच राज्यस्तर पर कई महत्वपूर्ण फैसले सलट नहीं पा रहे।
कोविड से जूझने और प्रवासी मजदूरों को अन्न-धन देने की योजनाएं बिना राज्य सरकारों को भरोसे में लिए अगला चुनाव जीतने की नीयत से बनाई जा रही हैं और पुलिस की दमनकारिता को शह देकर जनता की छटपटाहट को लोकतांत्रिक आवाज नहीं मिल रही। सत्ता की मलाई कुछेक केंद्र के चहेते राज्यों के दल और उनके वे एकछत्र नेता काट रहे हैं, जिनके तेवर दिल्ली का मुख देखकर हर पल बदलते रहते हैं।
यह बात सब मानते हैं कि अगले क्षेत्रीय चुनावों में दोनों राष्ट्रीय दलों को मुंह में तिनका दबा कर ताकतवर क्षेत्रीय दलों और उनके वोटों के सौदागरों से चुनावी गठजोड़ के लिए चिरौरी करनी होगी। यह भी नितांत संभव है कि कुछ क्षेत्रीय दल जनता पार्टी युग में लौट कर चुनाव आते-आते अपने ही बीच से किसी एक क्षेत्रीय क्षत्रप को केंद्रीय धुरी बना कर राष्ट्रीय चुनावों में अपना चूल्हा अलग सुलगाने की तैयारी करने लगें।
जब वैचारिकता का राजनीति में चौथा उठाला हो चुका हो तो कैसे वैचारिक मतभेद, कैसे वैचारिक विभाजन? अस्सी पार के अभी भी दमखम वाले शरद पवार इस आशय की बात कह भी चुके हैं कि केंद्र को बड़ी चुनौती देने के लिए सभी विपक्षी दलों को जल्द से जल्द अपना संगठन बना लेना चाहिए।
उत्तर कोविड काल में बीजेपी के प्रचारक प्रकोष्ठ हालांकि शीर्ष नेता की चुनावी पकड़ एकदम पक्की होने का दावा कर रहे हैं, पर 2014 या 2019 की बीजेपी अब पुरानी तहरीरों, सीमा की सुरक्षा के लिए एकजुट होकर देश बचाने के नारों के बीच रंगारंग वक्तृता से जनता को दोबारा उसी तरह रिझा सकेगी इसमें संशय है। थैलियां चाहे जितनी बड़ी हों, कोविड संक्रमण के डर से रैलियां पहले की तरह करना नाममुकिन हो गया है।
दुनिया की आर्थिक हालत खस्ता है और चीन तथा अमेरिका- दो महाशक्तियों के बीच शीतयुद्ध का तनाव गहरा रहा है। चीन का सामूहिक हुक्का-पानी बंद करने का नारा आकर्षक भले हो, पर आसान नहीं। पुरानी चुनावी रैलियों में बीजेपी ने भरोसा दिलाया था कि जैसे-जैसे नई अर्थव्यवस्था और विदेशी निवेश रंग लाएंगे शहरी उद्योगों का विकास होगा, ग्राम समाज की अंधविश्वासी और प्रतिगामी सामाजिक परंपराएं टूटेंगी, खेती की बजाय उद्योग-धंधे आर्थिक धुरी बन जाएंगे। महिलाएं तरक्की करती हुई हर क्षेत्र में पैठ बनाएंगी।
जब लिंग, जाति, क्षेत्र वगैरा के भेदभाव कम होंगे तब सारे समाज में एक नई रोशनी आएगी। बड़ी आर्थिक क्रांति के बाद सामाजिक क्रांति तो खुद-ब-खुद हो जाया करती है इसलिए हम चीन की टक्कर की एशियाई ताकत बन कर उभरेंगे। लेकिन पिछले चार महीनों में हमने इस सपने को धुंधलाते देखा है। देशों के बीच नस्लवादी आर्थिक गुटबंदियां या सोच और सदियों पुरानी साम्राज्यवादी परंपराओं की जड़ें आसानी से नहीं खत्म होतीं।
कई बार ऊपरी छंटाई के बाद बदलाव का भ्रम बन जाता है। कोई बड़ी चुनौती सामने आई नहीं, कि पुरानी सांस्कृतिक जड़ें फिर फुनगियां पत्ते फेंकने लगती हैं: वही श्वेत-अश्वेत टकराव, चीन की वही पड़ोसी सीमा को पार कर जमीन हथियाने की साम्राज्यवादी आदत और यूरोप बनाम मुस्लिम विश्व के सदियों पुराने राग-विराग। घर भीतर देखें तो यहां भी वही मंदिर, मंडल, वही सरकारी खजाने खाली कराने और सरकारी बैंकों को दिवालिया कराने वाली सब्सिडियां, वही लैपटॉप, मिक्सी, टीवी और मुफ्त अनाज का बेशर्म वितरण फिर हो रहा है। विधायकों को रिसॉर्ट भेजकर जबरन तोड़ने की कोशिशें भी जारी हैं।
शंकराचार्य ने कहा था- ब्रह्म ही सच है, जगत मिथ्या है। भारत में भी लगता है चुनाव ही सच है, कोविड और गरीबी मिथ्या। उज्जवला योजना, बेटी पढ़ाओ सरीखी योजनाओं के गुब्बारों से रीझी महिलाओं के सघन वोट बैंक को साम-दाम से समेट कर बीजेपी दूसरी पारी जीत गई और केरल में भी लाल किताब के बाहर जाकर खालिस भारतीय सुपरस्ट्रक्चर के एझवा-ईसाई-नायर-लीगी जैसे वोट बैंकों का महत्व मार्क्सवादी सर माथे रख कर सत्ता में आ गए।
रही मुस्लिम वोट बैंक की बात। बीजेपी तो उसका मोह-छोह कबका त्याग चुकी है। पर मुसलमान क्या सोचता है? खासकर काश्मीर के विभाजन और मंदिर मसले पर सरकारी पक्ष की जीत के बाद? इस पर शेष दलों की नजर है। आजादी के बाद कुछ दशकों तक जो मुसलमान क्रांति कामना रखता था, कम्युनिस्ट बन जाता था। लेकिन नाना थपेड़े खाकर अब वह राज्यवार अलग-अलग तरह से नए भावताव की सोच रहा है।
देश में जिन शब्दों का पिछले दो सालों में सबसे ज्यादा अवमूल्यन हुआ है, धर्मनिरपेक्षता उनमें से एक है। शाब्दिक स्तर पर जिन दलों ने धर्मनिरपेक्ष राजनीति अंगीकार की भी हुई है, जैसे कि जेडीयू, मुसलमान पाता है कि वह उनके राजकाज को कोई आंतरिक धार्मिक संतुलन नहीं देती। न ही उसकी प्रशासकीय मशीनरी में सेक्युलर कर्तव्य का बोध कराती है जो केंद्र से भिन्न हो।
चुनाव आता है तो धर्म की बातें करने वाले भी धर्म के नाम पर कुछ स्वयंभू किस्म के साधु-साध्वियों की अनकहनी बातों को खंडित करने की बजाय हर मंच पर उनकी मौजूदगी सनिुश्चित करने लगते हैं। संगीन आतंकी हमलों के चार्जशीटेड अपराधियों को नई जांच बिठा कर मुक्त करवा दिया गया है, जबकि कई उदारवादी समाजसेवी एकदम पोच किस्म के मुकदमों में फंस कर सलाखों के भीतर हैं।
कुल मिलाकर हमारी महत्तर राजनीति कभी योग और कभी (उप)भोग के रूपों को हिंदुत्ववादी भाषा से जोड़ कर जाहिर कर रही है कि उसे सचमुच के धर्म की गहरी समझ कतई नहीं है। धर्म और धर्मनिरपेक्षता दोनों की सारी बुराइयां चुनावी फायदे के लिए हमारे राजनीतिक दल बेशर्मी से अंगीकार करने लगे हैं। असली मूल्य इतनी बुरी तरह से परे कर दिए हैं कि जब राहुल गांधी सत्यनिष्ठा और अहिंसक आंदोलनों का ज़िक्र करें तो उनकी खिल्ली उड़ाई जाती है और जब अनुराग ठाकुर देश के गद्दारों का विवादास्पद नारा उठाते हैं तो उसे कानून का उल्लंघन नहीं माना जाता, उल्टे उसकी प्रतिध्वनियां गली-कूचों में जल्द ही गूंजने लगती हैं।
यही सब देख-समझ कर अल्पसंख्य समुदायों और दलितों की प्राथमिकता फौरी तौर से ही सही, अपने जान-माल की सुरक्षा और बीजेपी को सत्ता से दूर रखने की सामर्थ्यवाली क्षेत्रीय पार्टी की मदद करने की बन चली है। केंद्र में विपक्षी गठजोड़ को सत्ता में लाने का सपना देखने वालों के आगे जनता का ईमानदार सवाल यह है कि क्या वे इस बात का ठोस सबूत दे सकते हैं कि आने वाले समय में राष्ट्रीय दलों का क्षेत्रीय दलों से समन्वय बन गया, तब ऐसे समय में विपक्षी गठजोड़ क्षेत्रीय और राष्ट्रीय हितों का एक धड़कता हुआ प्राणवान समन्वय किस तरह कायम कर सकेगा?(navjivan)
हमारे देश में बेचने-खरीदने वाले का धंधा कोरोना काल में भी जोरों पर है। इसमें इतना उछाल आया हुआ है कि कामधंधे भले चौपट हो गए मगर सेंसेक्स ऊपर और ऊपर और ऊपर ही चढ़ता जा रहा है। मैंने सेंसेक्स को दोस्त समझकर कहा कि ए, ताऊ, इस हालत में तो इतना ऊपर मत जा, गिरेगा तो तेरे कलपुर्जे भी नहीं मिलेंगे। उसने कहा, ‘अबे हट, बे कलमघिस्सू। तू क्या जाने हमारा खेल! तूने तो कभी एक पैसा भी शेयर बाजार में नहीं लगाया है।कायर कहीं के, बुझदिल, मुझे शिक्षा देता है! तेरी ये मजाल! तू है क्या चीज।आदमी का चोला पाकर तू मुझसे भिडऩे आया है। तू समझता है, तू मुझसे ताकतवर है? बेट्टा मेरे सामने पूरा बाजार, सारे मंत्री-प्रधानमंत्री शीश नवाते हैं जबकि तेरे ऊपर गली का खजेला कुत्ता भी भोंकने को भी तैयार नहीं होगा। जा पहले गंदे नाले के पानी में अपनी शकल धोकर आ, फिर आकर बात करना। हट जा, मेरी नजरों के सामने से वरना तेरा कत्ल कर दूँगा।
क्यों रे गधे, जब देश बेचनेवाले, देश बेच रहे हैं। बेच-बेच कर एमएलए, मंत्री और सरकारें खरीद रहे हैं, तब तू मुझसे कह रहा है, ज्यादा उछल मत। क्यों नहींं उछलूँ? तुझसे पूछ कर उछलूँगा क्या? और नीचे धड़ाम से गिरा भी तो तेरे पिता श्री का क्या जाता है बे। तू अपने काम से काम रख।
सही कहा, ताऊ तुमने। मैं क्षमा माँगता हूँ। क्षमा बडऩ को चाहिए, छोटन को उत्पात। इतना कह कर मैंने मामला शांत करना चाहा।यह सुन कर उसने कहा, अबे ये कौनसी छोटन-बडऩ भाषा बोल रहा है, हिंदी बोल, हिंदी। अंग्रेजी आती हो तो अंग्रेजी बोल।
खैर मैंने किसी तरह राम-राम करते मामला सुलझाया। संकट टलने के पंद्रह मिनट बाद दिमाग थोड़ा शांत हुआ तो सोचा, वाकई ताऊ सही कह रह था। जब बेचनेवाले बैंक बेच रहे हैं, बीमा कंपनियाँँ बेच रहे हैं, तेल कंपनियाँ, विमान सेवा, हवाई अड्डे, ओनजीसी, भारतीय रेल बेच रहे हैं। एयर इंडिया न बिके तो लोहेलंगर के भाव बेचने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे मैं भी सेंसेक्स बेचारा न उछले तो क्या सुस्त पड़ा रहे?
अरे जब एक सुपर स्टार तेल से लेकर ऐप तक सबकुछ बेच चुका और अभी भी उसका बेचने का हौसला बुलंदी पर है तो सेंसेक्स क्यों मृतप्राय: रहे? अभी वह कोरोना पॉजिटिव हो गया तो इसे भी उसने एक प्राइवेट अस्पताल का विज्ञापन करके भुना लिया। नाम और कमा लिया, नामा इसी से मिलेगा। किसी ने कभी सोचा था कि बेचने वाला स्टार अगर कोरोना पाजिटिव भी हो जाए तो घबराता नहीं, इसे भी बेच देता है! यह पक्का है कि अस्पताल से बाहर आकर, वह कोरोना से लडऩे का अपना ‘साहस’ भी ऊँची कीमत में बेचेगा।इस बीच कोरोना का टीका बन गया तो उसे भी बेचेगा। कोरोना का ब्रांड एंबेसडर वही बनेगा। प्रधानमंत्री की ‘उज्ज्वल छवि’ उसने पहले भी बेची है अब और भी जोरशोर से बेचेगा।
कहानी इन दो पर ही खत्म नहीं होती। क्रिकेट खिलाड़ी तो सरेआम बिकते हैं। फिर उनकी कैप, उनकी शर्ट, उनकी पैंट के घुटने भी बिकती है। बल्ला भी बिकता है।खेल का मैदान भी बिकता है। फिर तरह -तरह के सामान बेचना रह जाता है, तो उसे भी ये खिलाड़ी बेचने लगते हैं। ‘भारतरत्न’ पा जाएँ तो भी ईश्वर की कृपा के वशीभूत होकर ये बेचते रहते हैं।
अभी कुछ युवा कांग्रेसी नेताओं ने भाजपा को अपनी धर्मनिरपेक्षता आस्था बेच दी और सांप्रदायिकता खरीद ली। साथ में राज्यसभा की सीट भी हासिल कर ली। इतना ही नहीं, अपनों को अपने राज्य में मंत्री पद दिलवाकर, अब खुद भी केंद्र में मंत्री बनेंगे। फिर न जाने क्या-क्या खरीदेंगे-बेचेंगे। गैरभाजपाई नेता और एमएलए तो भाजपा मंडी में थोक के भाव खरीदती है। सुनते हैं कि हर विधायकी की कीमत तीस-पैंतीस करोड़ तक है। पचास करोड़ भी हो सकती है और एक राजस्थानी नेता तैयार बैठे हैं। जीवनभर में भी जितनी काली कमाई नहीं होती, वह एक झटके में हो जाती है।ईमान ही तो बेचना होता है, मतदाताओं को धोखा ही तो देना होता है। ईमान कोई कीमती चीज तो है नहीं, दस रुपये के नोट बराबर इसकी वैल्यू है। और धोखा देना तो खैर आज की राजनीतिक शैली है।
खरीदनेवाले में यह आत्मविश्वास होता है कि सबकुछ खरीदा जा सकता है। यह दुनिया एक बाजार के सिवाय कुछ नहीं है। यहाँ न्याय भी खरीदा जा सकता है, गवाह, वकील, जज भी। धर्म, ईमान, इंसानियत सब खरीदे जा सकते हैंं। उन्हें ताज्जुब होता है कि इस दुनिया में ऐसा भी कुछ होता है, जो बिकशनशील नहीं होता, जो खरीदा नहीं जा सकता! उधर जो जितनी जल्दी बिक जाता है, जितनी जल्दी ऊँची सीढिय़ाँ चढ़ जाता है, वह उतना ही ज्यादा गरीबों का हमदर्द होने की घोषणाएँ भी करता रहता है। खुद गरीबी से, पिछड़ी जाति से आने की मुनादी इतनी बुलंद आवाज में करता है कि दूसरे किसी की आवाज सुनाई नहीं देती।वह सत्ता को खरबपतियों को बेच कर आराम से 18-18 घंटे सोता है। वह सोने को ही जागना घोषित कर देता है। हाँ जब कोई अडाणी-अंबानी मोबाइल पर उसे याद करता है तो आधी रात को भी जी सर, कहते-कहते बिस्तर से उठकर खड़ा हो जाता है। जी, जी बस हो गया आपका काम।सुबह हम बेच देंगे, शाम को आप खरीद लेना। नमस्ते-नमस्ते, गुडनाइट, गुडनाइट।
-विष्णु नागर
(इस साल के अंत में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर दरभंगा की रहने वाली पुष्पम प्रिया चौधरी ने विज्ञापन के जरिए खुद को बिहार के मुख्यमंत्री पद की प्रबल दावेदार बताया था। पुष्पम प्रिया ने कुछ समय पहले ‘प्लूरल्स’ नाम के एक राजनीतिक दल के गठन का ऐलान किया था और खुद को प्रदेश के मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया। पुष्पम प्रिया चौधरी दरभंगा की रहने वाली हैं और उन्होंने लंदन से अपनी पढ़ाई पूरी की है। उनके पिता विनोद चौधरी जेडीयू के वरिष्ठ नेता हैं और एमएलसी रह चुके हैं. पुष्पम प्रिया ने जनसंपर्क अभियान की शुरुआत मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिला नालंदा से की। जनसंपर्क अभियान की शुरुआत करने के दौरान पुष्पम प्रिया चौधरी ने फेसबुक पर लिखा, उनकी पार्टी ‘प्लूरल्स’ की योजना बहुत स्पष्ट है -अंतरराष्ट्रीय ज्ञान और जमीनी अनुभव की साझेदारी ताकि कृषि क्रांति, औद्योगिक क्रांति और नगरीय क्रांति की नई कहानी लिखी जा सके। (यह जानकारी ‘आजतक’ से) -संपादक, ‘छत्तीसगढ़’)
-पुष्य मित्र
इन दिनों पुष्पम प्रिया चौधरी का नाम सोशल मीडिया में तेजी से फैल रहा है। इस कोरोना काल में भी वह पूरे बिहार में घूम रही हैं, हर इलाके की प्रमुख समस्या को उठा रही हैं। वे जिन मुद्दों को लेकर सोशल मीडिया को लेकर मुखर हैं, वे बिहार के विकास से संबंधित जरूरी सवाल हैं। कई लोग उनमें विकल्पहीन होती बिहार की राजनीति के लिए एक सकारात्मक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं।
उनकी यात्राओं से संबंधित पोस्ट देखता हूँ तो मुझे एक रिपोर्टर के तौर पर 2015 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव की गई अपनी यात्राएं याद आती हैं। इनमें से ज्यादातर जगहों पर मैं इस दौरान जा चुका हूँ। बिहार के जो कुछ चुनिंदा घुमंतू रिपोर्टर हैं, वे इन जगहों पर जाते रहते हैं, अपने सीमित संसाधनों में। मगर उनकी कैमरा टीम काफी प्रोफेशनल है, इसलिये उनकी यात्राओं की तस्वीरें काफी प्रभावशाली दिखती हैं।
मगर पुष्पम प्रिया रिपोर्टर नहीं हैं, वे टीवी जर्नलिस्ट भी नहीं हैं। वे राजनीति करने आई हैं और राजनीति में जरूरी मुद्दों की समझ होना काफी नहीं है। यह तो राजनीति का पहला अध्याय है। मुद्दों की समझ के साथ साथ राजनेताओं को इन मुद्दों के लिये संघर्ष करना और संघर्ष के साथियों की टीम बनाना जरूरी होता है। लोग यह भी देखना चाहते हैं कि आपमें समझ के साथ-साथ बदलाव की क्षमता है कि नहीं। बदलाव कैसे आएगा यह विजन है कि नहीं। इस लिहाज से अभी उन्हें काफी काम करना है।
हां, यह कहा जा सकता है कि उनकी शुरुआत सही है। हालांकि इसके बदले यह कहा जाना चाहिए कि उनकी रिसर्च टीम अच्छी है, उनके प्रेजेंटर अच्छे हैं, उनका विजुअल प्रेजेंस बेहतरीन है। उन्होंने अच्छी पीआर टीम हायर की है। मगर इन सबका प्रभाव सिर्फ सोशल मीडिया पर है।
इन दिनों गांव में हूँ और पिछले डेढ़ महीने में किसी को पुष्पम प्रिया के बारे में बात करते नहीं सुना। हो सकता है वे उन्हें जानते हो मगर उनकी यात्राओं के बारे में उन्हें ज्यादा नहीं मालूम। फेसबुक और ट्विटर एक भ्रम है, इसके संदेश जमीन पर बहुत कम पहुंचते हैं। इसके बदले टीवी और वाट्सएप राजनीति के लिहाज से ज्यादा पॉवरफुल और प्रभावी माध्यम है। इन माध्यमों तक उनकी पहुंच नहीं बनी है।
उनकी टीम कार्यकर्ताओं का नेटवर्क बना रही है या नहीं, यह मालूम नहीं। यह सब इसलिये लिख रहा हूँ, क्योंकि देखता हूँ कई मित्र उनसे काफी प्रभावित दिख रहे हैं। मगर उन्हें यह भी समझना चाहिए कि पुष्पम प्रिया आजतक की स्टार रिपोर्टर नहीं हैं, वे बिहार जैसे भदेस राज्य की स्वघोषित मुख्यमंत्री पद की दावेदार हैं। दिल्ली जैसे मेट्रोपोलिटन शहर में भी आम आदमी पार्टी को जमीन बनाने में प्रभावी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के साथ साथ हर मुहल्ले में जाकर संघर्ष करना पड़ा था। उनके पास प्रतिबद्ध युवाओं की एक बेहतरीन टीम थी और वैचारिक लोगों का मार्गदर्शन भी। राजनीति इतनी आसान चीज नहीं है।
जीवन के सरस दस बरस मैंने ‘जनसत्ता’ के चंडीगढ़ संस्करण का संपादन करते हुए बिताए। वास्तुकला में वह शहर दुनिया भर में जाना जाता है, जिसे मूल रूप से स्वीडी, मगर फ्रांस में रहने वाले शार्ल-एदुआ जेनेरे उर्फ ल कार्बूजिए ने आकार दिया था। यानी शहर की योजना और वास्तुशिल्प को उन्होंने अंजाम दिया। उन्हें पं. नेहरू ने पंजाब-हरियाणा की नई राजधानी बनाने का जिम्मा सौंपा था।
कार्बूजिए को पिछली सदी के महान वास्तुकारों में गिना जाता है। उन्होंने वास्तुकला को ‘शुचिता’ का सिद्धांत दिया। आज कई वास्तुकार उनके नक्शे-कदम पर चलते हैं। कुछ वास्तुकार कार्बूजिए सरीखा मोटे घेरे का बड़ा चश्मा लगाते हैं। चाल्र्स कोरिया भी लगाते थे।
इस्ताम्बुल की एक छोटी दुकान में बड़ी किताबों के बीच दुबकी दुर्लभ किताब मुझे मिली — तुर्की वास्तुकला और शहरीकरण, एल-सी की दृष्टि में। कार्बूजिए को अपनापे से लोग ‘एल-सी’ बोलते थे। किताब के लेखक रहे प्रो. (डॉ.) अनीस कोरतन। छोटी-छोटी टिप्पणियाँ। अंगरेजी, तुर्की और फ्रांसीसी में एक साथ।
इस्ताम्बुल से एथेंस के सफर में मैंने किताब को मनोयोग से पढ़ा। चंडीगढ़ में कार्बूजिए के बारे में बहुत सुना-पढ़ा था, मगर यह जिक्र कभी नहीं सुना कि कार्बूजिए ने वास्तुकला का पाठ इस्ताम्बुल में पाया था।
मारियो सल्वादोरी की एक सुंदर उक्ति है: ‘वास्तुकला को पढ़ाया नहीं जा सकता। मगर उसका अध्ययन किया जा सकता है।’ शायद यही वजह हो वास्तुकला के श्रेष्ठ अच्छे शिक्षण संस्थान नहीं हैं; मगर श्रेष्ठ वास्तुकार दुनिया में बहुत हैं।
कार्बूजिए ने कभी वास्तुकला की औपचारिक पढ़ाई नहीं की। मगर स्वैच्छिक अध्ययन खूब किया। बचपन में वे चित्र अच्छे बनाते थे। लडक़पन में वास्तुकला में दिलचस्पी पैदा हुई। रोम, विएना और लियों जाकर मशहूर वास्तुकारों के काम का अध्ययन किया। फिर पेरिस के ऑगस्त पेरे के साथ काम शुरू किया। पैरिस में रहते हुए कला में ‘घनवाद’ का भी गहन अध्ययन कर डाला।
1911 में चौबीस वर्ष की उम्र में कंधे पर झोला लटका कर अपने एक दोस्त के साथ कार्बूजिए जर्मनी, सर्बिया, रोमानिया और बुल्गारिया होते हुए तुर्की पहुंचे। सात महीने के उस शिक्षा-सफर को कार्बूजिए ने ‘पूरब की फलदायी मुसाफिरी’ की संज्ञा दी है।
उन्होंने तुर्की वास्तुशिल्प को देख सौ के ऊपर रेखाचित्र बनाए। और कुछ जलरंग-चित्र भी। 1948 में, जब वे एक वास्तुकार के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे, कुछ रोज के लिए फिर तुर्की गए तो उन्हें लगा कि अच्छा हो वे अपने सैंतीस साल पुराने उस सफर की डायरी के पन्ने भी पलटें। उन्होंने पलटे।
उस पहली यात्रा की डायरी में एक जगह उन्होंने लिखा था: ‘चाहे वास्तुकला हो, चित्रकला हो या मूर्तिकला—सफर में आप अपनी आंख से देखते हैं और हाथ से रेखाचित्र बनाते हुए अपने अनुभव आंकते हैं, दर्ज करते हैं। ...कैमरा तो निठल्लों के लिए है, जो चाहते हैं कि मशीन उनके लिए देखने का काम करे। जब आप अपने हाथ से कुछ उतारते हैं, उकेरते हैं, आकारों को सहेजते हैं, सतह को सुव्यवस्थित करते हैं — इस सबका अर्थ होता है कि आप पहले देखते हैं, फिर निरखते हैं और फिर शायद कुछ उद्घाटित कर पाते हैं। इसी में कुछ सार्थकता है। आविष्कार करना, रचना, अपने पूरे अस्तित्व को सक्रिय करना... इसी सक्रियता का महत्त्व है।’
लगता है रोदाँ के इस सच को कार्बूजिए ने बड़ी जवानी में आत्मसात कर लिया था कि आम आदमी नजर डालता है। जबकि कलाकार देखता है। इसी विचार का कार्बूजिए ने बाद में अपनी किताब ‘नए वास्तुशिल्प की ओर’ (1923) के एक अध्याय में विवेचन किया, जिसका शीर्षक है : ‘जिसे आंखें नहीं देखतीं।’
जाहिर है, तुर्की की यात्रा ने कार्बूजिए के भीतर छिपे कलाकार और चिंतक को बाहर आने में बहुत मदद की।
इस्ताम्बुल पहुंचते ही कार्बुजिए को लगा था कि जिस चीज की तलाश थी वह मिल गई। उन्होंने लिखा, ‘इस्ताम्बुल एक बगिया है, हमारे शहरों की तरह पत्थर की खदान नहीं।’
तुर्की की मसजिदों के बारे में कार्बूजिए ने कहा: ‘अतीत, वर्तमान, उसके पार निर्विकार — गोया आकारों की रंगावली का एक करुण गान’।
उनका कहना था वे मसजिदें काव्य से ओतप्रोत हैं। सरल, सहज और पवित्र।
तुर्की की मसजिदों के अपने हर रेखांकन के नीचे कार्बूजिए ने सुंदर इबारत लिखी है। मसलन, इस्तांबुल में सुल्तान सलीम की मसजिद के रेखांकन पर लिखा : ‘कोमल आकारों का मधुर राग’।
दशकों बाद उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘शहरीकरण’ में ‘दुख या आनंद’ शीर्षक से लिखा कि ‘अगर हम न्यूयार्क से इस्ताम्बुल की तुलना करें तो पाएंगे कि पहला तबाही का रूप है, दूसरा जैसे धरती पर आनंदधाम है। न्यूयार्क सुंदर नहीं है; व्यावहारिक गतिविधियों में भले वह कुछ काम का प्रतीत होता हो, मगर वह हमारे आनंद के संवेदन को आहत करता है।’
इस्ताम्बुल की हरियाली ने कार्बूजिए को भीतर तक छुआ।
कार्बूजिए के वास्तुकला सिद्धांत में तीन तत्तव हैं, जो हर पारंपरिक वास्तुशिल्प में मिलेंगे: सूर्य, आकाश और हरियाली।
-ओम थानवी
शोधकर्ताओं ने नाइट्रोजन को मापने का किया प्रयास
- दयानिधि
शोधकर्ताओं की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने लोगों के माध्यम से भारी मात्रा में वातावरण में जारी होने वाली नाइट्रोजन के प्रभाव का मूल्यांकन किया है। मूल्यांकन के इस काम में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन भी शामिल थे। हर साल वातावरण में जारी होने वाली इस नाइट्रोजन का पर्यावरण और स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
नाइट्रोजन का उपयोग नाइट्रिक एसिड, अमोनिया बनाने में होता है। अमोनिया से उर्वरक, नायलॉन, दवाओं और विस्फोटकों का उत्पादन किया जाता है।
जैसा कि शोधकर्ताओं ने बताया, पर्यावरण में जारी मानव-संबंधित नाइट्रोजन की मात्रा पिछले कई दशकों से लगातार बढ़ रही है। वायुमंडल में बहुत सी गैसे पहले से ही है, नाइट्रोजन की मात्रा के बढ़ने से लोगों का जीवन खतरे में आ गया है। यह शोध पत्र नेचर फूड नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
इस नए प्रयास में, शोधकर्ताओं ने वातावरण में जारी नाइट्रोजन की मात्रा को मापने का प्रयास किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि हम ग्रहों की सीमा (प्लेनेटरी बाउंड्री) के कितने करीब आ रहे हैं। ग्रहों की सीमा (प्लेनेटरी बाउंड्री) एक अवधारणा है जिसमें पृथ्वी में होने वाली प्रक्रियाएं पर्यावरणीय सीमाओं के अंदर होने की बात कही गई है। ग्रहीय सीमाएं स्पष्ट रूप से वैश्विक स्तर के लिए डिज़ाइन की गई हैं। इसका उद्देश्य औद्योगिक क्रांति से पहले मौजूद सुरक्षित सीमाओं के भीतर पृथ्वी को बनाए रखना है।
बहुत ज्यादा नाइट्रोजन हानिकारक हो सकती है क्योंकि इसमें से कुछ नाइट्रेट्स के रूप में उत्सर्जित होते हैं, जो जल प्रदूषण के लिए जाने जाते है। इसमें से कुछ को अमोनिया के रूप में भी उत्सर्जित किया जाता है, जो एक ग्रीनहाउस गैस है। नाइट्रोजन पानी में बहकर पानी के स्रोतों तक पहुच जाता है, जिससे वहां अधिक मात्रा में शैवालों को उगने में मदद कर सकती है जो उस क्षेत्र में रहने वाले अन्य सभी प्राणियों के लिए खतरनाक है।
मनुष्य विभिन्न स्रोतों के माध्यम से नाइट्रोजन का उत्सर्जन करते हैं, जिनमें उर्वरक के रूप में इसका छिड़काव, सीवेज उपचार संयंत्रों, बिजली संयंत्रों और अन्य उद्योग शामिल है। नाइट्रोजन उत्सर्जन के लिए सबसे बड़ी पशुधन श्रृंखला जिम्मेदार है। पशुओं को खिलाने के लिए इस्तेमाल होने वाले भोजन को उगाने के लिए फसल पर भारी मात्रा में नाइट्रोजन युक्त उर्वरक डाला जाता है। उनकी खाद से भारी मात्रा में नाइट्रोजन निकलती है।
शोधकर्ताओं ने अकेले पशुधन श्रृंखला पर अपने प्रयासों को केंद्रित किया। दुनिया भर के आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद, उन्होंने गणना की कि पशुओं की वजह से हर साल 65 ट्रिलियन ग्राम नाइट्रोजन पर्यावरण में फैल रही है। यह वह संख्या है जो ग्रह की सीमा (प्लेनेटरी बाउंड्री) के लिए तय की गई गणना से अधिक है।
उन्होंने यह भी पाया कि पशुधन श्रृंखला पर्यावरण में जारी मानव-संबंधित नाइट्रोजन का लगभग एक-तिहाई हिस्से के लिए जिम्मेदार है। शोधकर्ताओं ने भविष्य में आपदा को रोकने के लिए नाइट्रोजन उत्सर्जन को कम करने पर जोर दिया है।(downtoearth)
तो क्या सचिन की बात के अनुसार आउट देना चाहिए या नहीं.
-आदेश कुमार गुप्त
बीते दिनों भारत के पूर्व कप्तान और बल्लेबाज़ सचिन तेंदुलकर ने वेस्टइंडीज़ के पूर्व कप्तान और बल्लेबाज़ ब्रायन लारा के साथ वीडियो चैट के दौरान कहा कि क्रिकेट में तकनीक के इस्तेमाल का मक़सद यही है कि निर्णय सही हों.
सचिन ने उस दौरान अंपायरों के फ़ैसले की समीक्षा प्रणाली यानी डीआरएस से अंपायर्स कॉल को हटाने का सुझाव देते हुए कहा कि एलबीडब्ल्यू में जब गेंद स्टंप्स से टकरा रही हो तो बल्लेबाज़ को आउट दिया जाना चाहिए.
सचिन ने यह साफ़ लहज़े में कहा कि वो एलबीडब्ल्यू को लेकर डीआरएस के फ़ैसले पर आईसीसी से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि डीआरएस में मैदानी फ़ैसला तभी बदला जा सकता है जब गेंद का 50% हिस्सा स्टंप्स से टकराता दिखे जो सही नहीं है.
सचिन कहते हैं कि जब मामला तीसरे अंपायर के पास जाता है तो इसमें तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, फिर तकनीक से ही फ़ैसला तय होना चाहिए, जैसा कि टेनिस में होता है कि गेंद या तो कोर्ट के अंदर है या बाहर. वहां इसके बीच की कोई स्थिति नहीं होती.
सचिन की बात का पूर्व स्पिनर हरभजन सिंह ने भी ट्वीट करके समर्थन किया.
उन्होंने लिखा, "पाजी मैं आपसे सौ फ़ीसदी सहमत हूं कि अगर गेंद स्टंप्स को छूकर भी निकल रही है तो बल्लेबाज़ को आउट दिया जाना चाहिए. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि गेंद का कितना प्रतिशत हिस्सा स्टंप्स से टकराया. ऐसे में खेल की बेहतरी के लिए नियमों में बदलाव होने चाहिए जिसमें से एक यह होना चाहिए."
क्या कहते हैं यूडीआरएस के नियम
दरअसल, यूडीआरएस नियम के तहत जब खिलाड़ी को अंपायर के किसी फ़ैसले पर एतराज़ होता है तो वह इसकी अपील कर सकता है और तीसरा अंपायर टीवी पर रिकॉर्डिंग देखकर उस फ़ैसले को सही या ग़लत बताता है, लेकिन यूडीआरएस के लिए सिरीज़ से पहले दोनों क्रिकेट बोर्ड की सहमति ज़रूरी है.
पहले भी इस बात को लेकर बहस हो चुकी है कि आईसीसी को सभी देशों में यूडीआरएस को लागू करना चाहिए इससे खेल में सुधार होगा, लेकिन बीसीसीआई इसका विरोध करती रही है.
वैसे यूडीआरएस के लिए ज़रूरी तकनीक सभी देशों के पास नहीं है. जाँच में यह पता चला है कि यूडीआरएस का इस्तेमाल करने से 96% प्रतिशत फ़ैसले सही होते हैं लेकिन उसके बिना भी 92% प्रतिशत फ़ैसले सही होते हैं.
बीसीसीआई का मानना है कि तकनीक सौ प्रतिशत फ़ैसला सही नहीं दे सकती इसलिए इसे लागू करने की ज़रूरत नहीं है.
अंतरराष्ट्रीय अंपायर के. हरिहरन क्या कहते हैं?
इसे लेकर अंतरराष्ट्रीय अंपायर के. हरिहरन कहते हैं, "इसमें दो-तीन बातें महत्वपूर्ण हैं ख़ासकर एलबीडब्लू के मामले में. अंपायर सबसे पहले देखता है कि गेंद कहां पिच हुई यानी टप्पा खाई, पैड पर लगी और सुनिश्चित किया कि बल्ले पर नहीं लगी. इसके बाद कि क्या गेंद स्टंप्स पर लगेगी. अब यह महत्वपूर्ण नहीं है कि गेंद बीस, तीस या पचास प्रतिशत स्टंप्स पर लग रही है, यह एक पहला पॉइंट है."
"दूसरा पॉइंट है कि गेंद स्टंप्स पर लगेगी या नहीं यह बात अगर अंपायर के मन में दुविधा पैदा करती है तो वो डीआरएस निर्णय के लिए तीसरे अंपायर के पास जाते हैं. वो ये देखता है कि गेंद सही जगह पिच हुई है या नहीं. इसके बाद थर्ड अंपायर, फील्ड अंपायर के निर्णय को सुनिश्चित करता है."
"वह देखता है कि गेंद स्टंप्स पर लग रही है या नहीं, इसमें दस, बीस या पचास प्रतिशत महत्वपूर्ण नहीं है. अगर गेंद स्टंप्स से टकरा रही है तो बल्लेबाज़ आउट है. सबसे महत्त्वपूर्ण है गेंद कहां टप्पा खा रही है, गेंद की दिशा और प्रभाव और उसका स्टंप्स से टकराना. अब अगर इनमें से किसी बात पर अंपायर या थर्ड अंपायर के मन में कोई शंका होती है तो वह बल्लेबाज़ को शंका का लाभ देकर नॉटआउट देता है."
के. हरिहरन अंपायर गेंद की पिचिंग कहां हुई यानी कहां टप्पा खाई, इम्पैक्ट यानी गेंद का असर या प्रभाव और हिटिंग यानी स्टंप्स से टकराना, को पूरी तरह से स्पष्ट करते हैं. अगर अंपायर को इनमें से किसी दो बात पर शंका हुई तो वह सौ फ़ीसदी बल्लेबाज़ को नॉटआउट क़रार देगा.
जब मैदानी अंपायर के मन में शंका होती है तभी वह थर्ड अंपायर के पास जाता है. तकनीक कहती है कि अगर गेंद स्टंप्स से टकरा रही है तो बल्लेबाज़ को आउट दे दो.
सचिन के उठाए सवाल पर क्या बोले हरिहरन
अब सवाल तो यही है कि अगर टीवी रीप्ले में गेंद स्टंप्स को केवल छूकर या स्टंप्स से ऊपर जा रही है तो बल्लेबाज़ को नॉटआउट क्यों दिया जाता है?
जवाब में अंपायर के. हरिहरन कहते हैं कि कई बार देखा गया है कि गेंद के स्टंप्स पर लगने के बाद भी गिल्लियाँ नहीं गिरतीं और बल्लेबाज़ आउट नहीं होता. वहीं कई बार हल्का सा छूकर निकलने पर भी गिर जाती हैं और बल्लेबाज़ आउट हो जाता है. लिहाज़ा डीआरएस में ऐसी स्थिति आने पर बल्लेबाज़ को आउट नहीं देते.
तो क्या सचिन तेंदुलकर की बात के अनुसार बल्लेबाज़ को आउट देना चाहिए या नहीं.
जवाब में अंपायर के. हरिहरन कहते हैं कि आउट तो देना चाहिए लेकिन तीन अलग-अलग तरह की विविधता पिचिंग, इम्पैक्ट और हिटिंग द स्टंप्स में पिचिंग में थोड़ा बहुत बाहर भी चलेगा. इम्पैक्ट में बल्लेबाज़ विकेट के सामने होना चाहिए और हिटिंग द स्टंप्स अंपायर्स का कॉल है, केवल इसके आधार पर बल्लेबाज़ को आउट दिया जा सकता है.
दूसरी तरफ़ यूडीआरएस तकनीक को अपनाना न तो सस्ता है और न ही हर देश के पास यह सुविधा उपलब्ध है.
इसे लेकर अंपायर के. हरिहरन तीखा जवाब देते हैं कि क्रिकेट भी खेलना चाहते हैं और तकनीक भी इस्तेमाल करना चाहते हैं तो इसमें सस्ता-महंगे का सवाल कहां से आ गया.
तो क्या इस तकनीक पर विवाद होते रहेंगे?
के. हरिहरन इसे विवाद न मानते हुए कहते हैं कि खिलाड़ी ही अंपायर के निर्णय को मानने को तैयार नहीं है.
इस तकनीक के 96 फ़ीसदी कामयाब होने को लेकर के. हरिहरन कहते हैं कि यह तो सही है लेकिन एलबीडब्लू वाले मामले में हिटिंग द स्टंप्स का अनुमान सबसे महत्वपूर्ण है. इसका अनुमान अंपायर भी लगाता है और कैमरा भी. इस तकनीक को ही 100 फ़ीसदी सही करने की कोशिश होनी चाहिए. हरिहरन अपनी बात को समाप्त करते हुए कहते हैं कि यह निर्णय तो दोनों टीमों के लिए है एक के लिए नहीं.
'क्रिकेट को तकनीक पर छोड़ा गया तो रोमांच चला जाएगा'
क्रिकेट समीक्षक विजय लोकपल्ली कहते हैं कि सचिन सही कह रहे हैं. अब अगर गेंद स्टंप्स पर लग रही है लेकिन अगर अंपायर ने नॉटआउट दे दिया तो यह अंपायर्स कॉल है.
बेल्स के मामले में लोकपल्ली कहते हैं कि क्रिकेट में ऐसा बहुत कम हुआ है.
वो कहते हैं, "कई बार तेज़ हवा से बेल्स गिरे हैं लेकिन अब ये पहले से अधिक भारी हैं. ऐसे में क्रिकेट अंपायर पर छोड़ दो. लेकिन ये भी नहीं हो सकता क्योंकि क्रिकेट पर बहुत पैसा लगा है और जनता देख रही है. तकनीक है तो इस्तेमाल करो लेकिन अगर इसे तकनीक आधारित ही बना दिया तो इस खेल का रोमांच चला जाएगा."
विजय लोकपल्ली कहते हैं कि अगर सचिन तेंदुलकर जैसा बल्लेबाज़ कह रहा है तो सोचिए इसमें कितनी दुविधा है. आईसीसी को सोचना चाहिए कि एक महान खिलाड़ी क्रिकेट को लेकर चिंतित है, कुछ बदलाव होना चाहिए. पहले तो गेंदबाज़ को एलबीडब्लू मिलता ही नहीं था अब वह सोच तो सकता है. आईसीसी के सामने क्रिकेट को बचाने की चुनौती है, उसे सचिन तेंदुलकर की बात पर विचार करना चाहिए.
कमेंटेटर आकाश चोपड़ा क्या कहते हैं
वहीं पूर्व सलामी बल्लेबाज़ और कमेंटेटर आकाश चोपड़ा कहते हैं कि जब हम देखते हैं कि गेंद बल्लेबाज़ के पैड पर लगी है तो दस में से नौ बार आपको भी पता चल जाता है कि बल्लेबाज़ आउट है या नहीं या क़रीबी मामला है. रही बात सचिन की बात की तो यह तो सिर्फ़ अनुमान दिखाया जाता है कि गेंद स्टंप्स से टकराएगी क्योंकि बीच में पैड आ जाते हैं. अब ऐसे में सचिन ऐसा क्यों कह रहे हैं इसे समझा जा सकता है कि अगर गेंद स्टंप्स पर लगेगी तो बेल्स गिरेगी और खेल ख़त्म.
अब ऐसा क्यों कि गेंद अगर पचास प्रतिशत से अधिक स्टंप्स पर लगे तो आउट और बीस प्रतिशत लगे तो नॉटआउट?
आकाश चोपड़ा कहते हैं, "तकनीक में कुछ कमियाँ हैं. शंका यह है कि अगर तकनीक पचास प्रतिशत से अधिक गेंद स्टंप्स पर टकराती दिखाती है तो 99% वह स्टंप्स पर लगने वाली है लेकिन अगर उससे कम दिखाती है तो फिर संभावना कम होती है. यहां तक तो मामला ठीक है. अब इसमें मुश्किल यह है कि 50% से कम होते ही अंपायर्स कॉल आ जाती है. यह समझ से बिलकुल परे है."
"अगर पचास प्रतिशत से अधिक गेंद स्टंप्स पर लग गई तो अंपायर ने आउट दिया या नहीं इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता लेकिन नियम कहते हैं 5% भी गेंद अगर स्टंप्स पर लग गई और अंपायर ने आउट दे दिया तो उसे माना जाएगा. लेकिन अगर अंपायर ने नॉटआउट दे दिया तो उस निर्णय को पलट नहीं सकते. यही एक बड़ी ग़लती है."
क्या सचिन तेंदुलकर की बात को माना जाएगा?
आकाश चोपड़ा साफ़ साफ़ कहते हैं कि सचिन की बात को नहीं माना जाएगा क्योंकि इसमें बुनियादी कमी है. हो सकता है आने वाले दिनों में यह नियम आ जाए कि अगर अंपायर्स कॉल है तो उसे आउट माना जाएगा या नॉटआउट क्योंकि इसमें दो बातें नहीं हो सकती. एक नियम बनाना पड़ेगा.
आकाश चोपड़ा यह भी कहते हैं कि यहां एक परेशानी यह भी है कि अगर अंपायर ने आउट दिया तो आउट और नॉटआउट दिया तो नॉटआउट जबकि गेंद उतना ही स्टंप्स पर लगती नज़र आ रही है तो शायद यह नियम बदल जाए लेकिन अगर कोई यह सोचे कि पांच फ़ीसदी भी गेंद अगर विकेट पर लगे और बल्लेबाज़ को आउट दे दिया जाए ऐसा नहीं होगा. तकनीक में जब तक कमी है, शंका है तब तक बल्लेबाज़ अपना विकेट इतनी आसानी से नहीं गँवा सकते.
बैडमिंटन या टेनिस से तुलना पर आकाश चोपड़ा कहते हैं कि वहाँ अनुमान नहीं है. क्रिकेट में पिच पर बल्लेबाज़ है, उसके बाद गेंद पैड या शरीर पर लग गई तो लग गई, तो उसके बाद क्या होगा इसे कोई देख नहीं सकता बस अनुमान लगाया जाता है या सोचा जाता है.
अब देखना है सचिन तेंदुलकर की सलाह भविष्य में क्या रंग लाती है.(bbc)
-आकाश शुक्ला
घुमावदार लोकतंत्र के रेत में से तेल निकालने वाले बिन पेंदी के महारथी विधायक जब इस्तीफा देकर मंत्री बन कर दोबारा चुनाव में आते हैं तो अपनी विचारधारा में परिवर्तन के ऐसे-ऐसे कुतर्क जनता के सामने रखते हैं, की जनता भी घुमावदार लोकतंत्र की घुमावदार बातों में आ जाती है और तमाम नैतिक अनैतिक बातों को छोड़कर ऐसे ढुलमुल घुमावदार लोकतंत्र के सिपहसालार उम्मीदवार को दोबारा जिताकर घुमावदार लोकतंत्र की जय जयकार करती है।
हमारे देश का लोकतंत्र घुमावदार हो गया है घुमावदार के साथ साथ एक पार्टी का पर्याय हो गया है। घुमावदार लोकतंत्र की विशेषता है, वोट किसी भी पार्टी को दो सरकार एक पार्टी की ही बन ही जाती है। पूर्ण बहुमत हो, आधा बहुमत हो या अल्पमत हो यह घुमावदार लोकतंत्र जनता की भावना समझता ही नहीं है। पूरे समय मनमानी में लगा रहता है घूम फिर कर एक पार्टी की सरकार हर राज्य में बना देता है। इसीलिए अब वह पार्टी भी जनता के हितों से विमुख होकर यह समझ गई है की जनता से ज्यादा जनता के चुने हुए लोगों को बस में करना आसान है और यह आज के घुमावदार लोकतंत्र में सरकार बनाने का आसान तरीका है ।
वैसे इस अकेली पार्टी को इन सब के लिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता । क्योंकि जब तक दूसरी पार्टियों में लालची और अवसरवादी नेता और विधायक नहीं रहेंगे तब तक उनको खरीदने वाला तो बेकार ही बैठा रहेगा।
घुमावदार लोकतंत्र ने दो प्रथाओं को जन्म दिया है, पहली प्रथा मंत्रिमंडल के गठन की परिपाटी बदल गईं है अब विधायक मुंह देखते रह जाता और विधायक से इस्तीफा देने वाले मंत्री बन जाता है और जनता को यह समझना मुश्किल हो जाता है, की उसने उम्मीदवार को विधायक बनने के लिए चुना था के विधायक के पद से इस्तीफा देने के लिए। निर्दलीयों छोटी पार्टियों के विधायकों का वजन भी इस घुमावदार लोकतंत्र में बढ़ा है, उनके मंत्री बनने की संभावनाएं बढ़ी है। पहले निर्दलीय या 5-10 सदस्यों वाली पार्टियों के विधायकों का मंत्री बनना असंभव था परंतु घुमावदार लोकतंत्र में दल बदल कानून का प्रभाव कम पढ़ने की उज्जवल संभावना के कारण मंत्री बनने की संभावना बड़े दलों के उम्मीदवार से अधिक रहती है।
दूसरी प्रथा चाहे कोई भी दल कितना भी बहुमत में रहे वह यह नहीं बता सकता की सरकार 5 साल चलेगी कि नहीं, इसलिए कम समय में सरकार का दोहन अधिक से अधिक कैसे किया जा सकता है इसमें राजनीतिक दल माहिर हो गए है। अब कोई भी पार्टी दूरगामी योजनाओं के आधार पर सरकार नहीं चलाती।
घुमावदार लोकतंत्र के माहिर खिलाड़ी आर्थिक रूप से भी संपन्न हो जाते हैं, विधायक से इस्तीफा देकर भी करोड़ों कमाते हैं बाद में मंत्री बन कर भी सत्ता का पूरा दोहन करते हैं, ऐसे लोगों को नुकसान की संभावना बहुत कम रहती है क्योंकि उनके राजनैतिक विरोधी भी दलबदल करने पर उनके तलवे चाटने पर मजबूर होते हैं। जनता समझने की कोशिश करे तो यह समझ आता है की ढुलमुल और बिन पेंदी के लोटो का जमाना आ गया है, घुमावदार लोकतंत्र में सबसे अच्छा विधायक वही है जिस पर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही भरोसा ना कर सके, ऐसे गैर भरोसेमंद विधायकों की मंत्री बनने की संभावना 100% के करीब रहती है।
घुमावदार लोकतंत्र के रेत में से तेल निकालने वाले बिन पेंदी के महारथी विधायक जब इस्तीफा देकर मंत्री बन कर दोबारा चुनाव में आते हैं तो अपनी विचारधारा में परिवर्तन के ऐसे-ऐसे कुतर्क जनता के सामने रखते हैं, की जनता भी घुमावदार लोकतंत्र की घुमावदार बातों में आ जाती है और तमाम नैतिक अनैतिक बातों को छोड़कर ऐसे ढुलमुल घुमावदार लोकतंत्र के सिपहसालार उम्मीदवार को दोबारा जिताकर घुमावदार लोकतंत्र की जय जयकार करती है।
इस घुमावदार लोकतंत्र में पार्टी की विचारधारा पर जिंदगी कुर्बान करने वाले कार्यकर्ता और नेताओं को अपने आप को इसके अनुरूप अभ्यस्त करने मैं परेशानी महसूस हो रही है क्योंकि उन्हें यह समझ नहीं आता की विपक्षी उम्मीदवारों का विरोध किस स्तर तक करना है, क्योंकि विपक्षी उम्मीदवार उनकी पार्टी के भविष्य की संभावना भी हो सकता है ,इस पहलू पर उसका विरोध करने से पहले विचार करना आवश्यक हो गया है। उनके अपनी पार्टी में राजनीतिक कद बढ़ने के विकल्प भी खत्म करने में घुमावदार लोकतंत्र के माहिर खिलाड़ी पारंगत होते है, बरसों पुराने विचारधारा से बंधे हुए कार्यकर्ताओं से भी अपनी जय जयकार करवा लेते हैं।
इस घुमावदार लोकतंत्र में किसी भी पार्टी में आयातित उम्मीदवारों का स्वागत ऐसे उत्साह से किया जाता है जैसे कोई अपने बच्चे को जन्म देने के बाद जवान और काबिल कर उसे घर जमाई बनने के लिए किसी और को सौंपता हैऔर उसका स्वागत होता है। वर्तमान में कई राजनीतिक दलों के हालात आयातित नेताओं के कारण ऐसे हो गए है, जैसे घर जमाई ससुर की संपत्ति पर कब्जा कर लेता है।
पूरे घुमावदार लोकतंत्र में जनता की स्थिति सबसे बेबस और दयनीय है । क्योंकि एक बार वोट देने के बाद उसकी उपयोगिता, उसका मूल्य, कीमत शुन्य और दो कौड़ी की रह जाती है। वोट मांगने तक तो लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा शासन होता है लेकिन एक बार जहां सरकार बन गई तो उसके बाद लोकतंत्र नेता का, नेता के लिए, नेताओं के द्वारा शासन हो जाता है। मेरे देश के ऐसे करामाती, हरकती, घुमंतू, ढुलमुल नेताओं के प्रति वफादार और चक्रव्यूही, घुमावदार लोकतंत्र को बारंबार प्रणाम।(सप्रेस )
मंगलेश डबराल
पाब्लो पिकासो की आखिरी पत्नी और चित्रकार फ्रांस्वा जिलों ने अपने संस्मरणों की किताब ‘लाइफ विद पिकासो’ में लिखा है कि एक दिन पिकासो अपने गहरे मित्र और जाने-माने चित्रकार आनरी मातिस के घर में बैठे थे। उनकी रसोई में एक भेड पकाई जा रही थी। पिकासो ने पूछा-तो आज भेड़ पक रही है तुम्हारे यहाँ? पक गई है क्या?
मातिस ने कहा-अभी पकी नहीं।
भेड़ के पकने की खुशबू रह-रहकर पिकासो के नथुनों में प्रवेश कर रही थी। दो मिनट बाद वे मातिस से बोले-जरा देख कर आओ। पक गयी होगी।
मातिस ने भावहीन तरीके से कहा-पूरी नहीं पकी है।
दो मिनट बाद पिकासो फिर बोले-भई, अब तुम देख कर ही आओ। कहीं ज्यादा न पक जाए। मातिस ने पिकासो की अधीरता की अनदेखी करते हुए कहा-अभी कुछ कसर बाकी है।
कहते हैं ऐसी ही बेसब्री और बेचैनी महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन में भी वायलिन के बारे में थी। वे वायलिन बजाते थे निहायत अधकचरे ढंग से। लेकिन वायलिन वादन की सभाओं में वे अपना हाथ आजमाने के लिए आतुर हो उठते और संगीतकार भी उनका मान रखने के लिए वाद्य उनके हाथ में दे देते। दो-तीन मिनट बजाने के बाद आइन्स्टाइन संतुष्ट होकर बैठ जाते, लेकिन पांच मिनट बाद ही फिर अपनी सीट से उठकर कहते--क्या थोडा सा और बजा सकता हूँ? बार-बार सुर छेडऩे के लिए मचल उठने की उनकी यह आदत कभी गयी नहीं। इस ढंग से कुछ संगीत सभाओं को बर्बाद करने का श्रेय भी उन्हें दिया जाता है।
यह अधीरता,और बेचैनी बहुत प्रिय लगती है। महान लोगों की बौड़म बेसब्री। महानता की कोई फिक्र, उसका कोई मुगालता नहीं है, फिर भी महान लोगों की एकाधिक खब्तें और आतुरताएं नक़ल कर ली जाएँ तो क्या हजऱ्! सो आज सुबह जब संयुक्ता मूंग के पकौड़े तलने जा रही थी तो पांच मिनट बाद ही मैं अधीर हो उठा। रसोई में जाकर पूछा-पकोड़े बन गए?
उसने कहा-अरे, अभी कहाँ! सामान तैयार कर रही हूँ।
कुछ ही वक्त बीता था कि फिर से दरयाफ्त की, बन गए?
अभी नहीं। तेल गरम हो रहा है अभी, उसने कहा।
चीजें अनुपस्थित होने के बावजूद अपनी गंध, रंग, स्पर्श, स्वाद आदि भेजती रहती हैं। जब मुझसे रहा नहीं गया तो फिर से रसोईं में जाकर कहा-अभी भी नहीं तैयार हुए।
संयुक्ता ने कहा--बस, थोड़ी ही देर में।
अधीरता के प्रतिवाद के तौर पर एक किस्सा यह भी है कि एक बार जवाहर लाल नेहरू ने कुछ दोस्तों को दावत पर बुलाया। जब मेज पर चिकन परोसा जाने लगा तो मेहमान बेचैन हो उठे। नेहरू ने चुटकी ली-भई, कुछ सब्र कीजिये। सभी मुर्गे मरे हुए हैं। वे उडकऱ कहीं नहीं जाएंगे!