साहित्य/मीडिया
आज परसाईजी का जन्मदिन है। परसाई जी की स्मृति को नमन करते उनके कुछ उद्धरण यहां पेश हैं:
1.इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं,पर वे सियारों की बरात में बैंड बजाते हैं.
2.जो कौम भूखी मारे जाने पर सिनेमा में जाकर बैठ जाये ,वह अपने दिन कैसे बदलेगी!
3.अच्छी आत्मा फोल्डिंग कुर्सी की तरह होनी चाहिये.जरूरत पडी तब फैलाकर बैठ गये,नहीं तो मोडकर कोने से टिका दिया.
4.अद्भुत सहनशीलता और भयावह तटस्थता है इस देश के आदमी में.कोई उसे पीटकर पैसे छीन ले तो वह दान का मंत्र पढने लगता है.
5.अमरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं.बम बरसते हैं तो मरने वाले सोचते है,सभ्यता बरस रही है.
6.चीनी नेता लडकों के हुल्लड को सांस्कृतिक क्रान्ति कहते हैं,तो पिटने वाला नागरिक सोचता है मैं सुसंस्कृत हो रहा हूं.
7.इस कौम की आधी ताकत लडकियों की शादी करने में जा रही है.
8.अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ बैठता है तब गोरक्षा आन्दोलन के नेता जूतों की दुकान खोल लेते हैं.
9.जो पानी छानकर पीते हैं, वे आदमी का खून बिना छना पी जाते हैं .
10.नशे के मामले में हम बहुत ऊंचे हैं.दो नशे खास हैं--हीनता का नशा और उच्चता का नशा,जो बारी-बारी से चढते रहते हैं.
11.शासन का घूंसा किसी बडी और पुष्ट पीठ पर उठता तो है पर न जाने किस चमत्कार से बडी पीठ खिसक जाती है और किसी दुर्बल पीठ पर घूंसा पड जाता है.
12.मैदान से भागकर शिविर में आ बैठने की सुखद मजबूरी का नाम इज्जत है.इज्जतदार आदमी ऊंचे झाड की ऊंची टहनी पर दूसरे के बनाये घोसले में अंडे देता है.
13.बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज्जत बच जाती है.
14.मानवीयता उन पर रम के किक की तरह चढती - उतरती है,उन्हें मानवीयता के फिट आते हैं.
15.कैसी अद्भुत एकता है.पंजाब का गेहूं गुजरात के कालाबाजार में बिकता है और मध्यप्रदेश का चावल कलकत्ता के मुनाफाखोर के गोदाम में भरा है.देश एक है.कानपुर का ठग मदुरई में ठगी करता है,हिन्दी भाषी जेबकतरा तमिलभाषी की जेब काटता है और रामेश्वरम का भक्त बद्रीनाथ का सोना चुराने चल पडा है.सब सीमायें टूट गयीं.
16.रेडियो टिप्पणीकार कहता है--'घोर करतल ध्वनि हो रही है.'मैं देख रहा हूं,नहीं हो रही है.हम सब लोग तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं.बाहर निकालने का जी नहीं होत.हाथ अकड जायेंगे.लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं फिर भी तालियां बज रही हैं.मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं ,जिनके पास हाथ गरमाने को कोट नहीं हैं.लगता है गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है.गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की तालियां मिलती हैं,जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा नहीं है.
17.मौसम की मेहरवानी का इन्तजार करेंगे,तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी.मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होता.वसंत अपने आप नहीं आता,उसे लाना पडता है.सहज आने वाला तो पतझड होता है,वसंत नहीं.अपने आप तो पत्ते झडते हैं.नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं.वसंत यों नहीं आता.शीत और गरमी के बीच जो जितना वसंत निकाल सके,निकाल ले.दो पाटों के बीच में फंसा है देश वसंत.पाट और आगे खिसक रहे हैं.वसंत को बचाना है तो जोर लगाकर इन दो पाटों को पीचे ढकेलो--इधर शीत को उधर गरमी को .तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसंत.
18.सरकार कहती है कि हमने चूहे पकडने के लिये चूहेदानियां रखी हैं.एकाध चूहेदानी की हमने भी जांच की.उसमे घुसने के छेद से बडा छेद पीछे से निकलने के लिये है.चूहा इधर फंसता है और उधर से निकल जाता है.पिंजडे बनाने वाले और चूहे पकडने वाले चूहों से मिले हैं.वे इधर हमें पिंजडा दिखाते हैं और चूहे को छेद दिखा देते हैं.हमारे माथे पर सिर्फ चूहेदानी का खर्च चढ रहा है.
19.एक और बडे लोगों के क्लब में भाषण दे रहा था.मैं देश की गिरती हालत,मंहगाई ,गरीबी,बेकारी,भ्रष्टाचारपर बोल रहा था और खूब बोल रहा था.मैं पूरी पीडा से,गहरे आक्रोश से बोल रहा था .पर जब मैं ज्यादा मर्मिक हो जाता ,वे लोग तालियां पीटने लगते थे.मैंने कहा हम बहुत पतित हैं,तो वे लोग तालियां पीटने लगे.और मैं समारोहों के बाद रात को घर लौटता हूं तो सोचता रहता हूं कि जिस समाज के लोग शर्म की बात पर हंसे,उसमे क्या कभी कोई क्रन्तिकारी हो सकता है?होगा शायद पर तभी होगा जब शर्म की बात पर ताली पीटने वाले हाथ कटेंगे और हंसने वाले जबडे टूटेंगे .
20.निन्दा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं.निन्दा खून साफ करती है,पाचन क्रिया ठीक करती है,बल और स्फूर्ति देती है.निन्दा से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं.निन्दा पयरिया का तो सफल इलाज है.सन्तों को परनिन्दा की मनाही है,इसलिये वे स्वनिन्दा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं.
21.मैं बैठा-बैठा सोच रहा हूं कि इस सडक में से किसका बंगला बन जायेगा?...बडी इमारतों के पेट से बंगले पैदा होते मैंने देखे हैं.दशरथ की रानियों को यज्ञ की खीर खाने से पुत्र हो गये थे.पुण्य का प्रताप अपार है.अनाथालय से हवेली पैदा हो जाती है.
- अनूप शुक्ल
-दिनेश श्रीनेत
यह जरूरी नहीं कि रचनाकार जिस मकसद से किताब लिखे, अपनी संपूर्णता में किताब उसी अर्थ को संप्रेषित करे। किशोरवस्था या जिसे हम वय:संधि कहते हैं, यानी 11-12 साल की उम्र में मैंने लियो तोलस्तोय का उपन्यास पहली बार पढ़ा था। वैसे यह उनका आखिरी उपन्यास था। उसका विषय मेरी उम्र के अनुकूल नहीं था। यही वजह थी कि मैं उसे पहली बार में समझ नहीं पाया। जब मैं थोड़ा और बड़ा हुआ तब उपन्यास पूरी तरह से मेरे समझ में आया। जब समझ में आया तो उसने मुझे एक गहरे नैतिकबोध से भर दिया।
यह उपन्यास था ‘पुनरुत्थान’ जो अंगरेजी में ‘रिसरेक्शन’ के नाम से जानी जाती है। इसका भीष्म साहनी ने बहुत सुंदर अनुवाद किया था। कहानी दो अलग-अलग समय रेखाओं में चलती है। इसकी नायिका कात्यूशा जो एक वेश्या है कभी एक मासूम युवती थी। कात्यूशा पर चलने वाले मुकदमे की ज्यूरी में मौजूद नेख्लूदोव ने कभी अपनी जवानी के दिनों में कात्यूशा के साथ जबदस्ती यौन संबंध बनाए थे और उसे गर्भवती छोडक़र चला गया था। कात्यूशा जो एक उमंगों से भरी स्त्री थी और नेख्लूदोव की वासना को अपने प्रति प्रेम समझने की भूल कर बैठी थी, उस भयानक घटना के बाद पतन की ओर बढ़ती चली जाती है। पहले काम से और घर से निकाला जाना, नवजात शिशु की मौत और अंत में वेश्यालय में शरण।
नेख्लूदोव प्रायश्चित में डूबा हुआ है। वह कात्यूशा की मदद करना चाहता है मगर उसकी भूल के लिए न तो माफी की गुंजाइश बची है और न ही कात्यूशा की त्रासद जिंदगी में वह कोई सुधार ला सकता है। उपन्यास के अंत में वह बाइबिल की शरण में जाता है। कहानी संकेत देती है कि वह अपना जीवन दूसरों की भलाई के समर्पित करने का संकल्प लेता है। तोलस्तोय को अपना यह उपन्यास अन्ना कैरेनीना तथा युद्ध और शांति से ज्यादा पसंद था। जबकि आलोचकों को उनका यह उपन्यास कमजोर लगता है। इसके चरित्र एकरेखीय लगते हैं। यहां तक आते-आते तोलस्तोय ईसाई नैतिकता की शरण में सामाजिक दुखों का हल खोजने लगे थे। इस लिहाज से भी पुनरुत्थान को कमजोर उपन्यास माना गया है।
उसी दौरान संभवत: मदनलाल मधु की आलोचनात्मक पुस्तक ‘गोर्की और प्रेमचंद’ में इन्हीं नैतिक आग्रहों की वजह से मॅक्सिम गोर्की के समक्ष तोलस्तोय को कमजोर लेखक ठहराया गया है। मुझे यह उपन्यास अपनी बारीकियों और डिटेलिंग के कारण पसंद है। इसमें तत्कालीन रूसी जीवन के करीब-करीब सभी पहलुओं को छुआ गया है। इसमें जमींदार, कुलीन वर्ग, सरकार, न्यायालय, चर्च, जेल और वेश्यावृति का बहुत विस्तार से जिक्र है। उपन्यास का अंत बाइबिल के उपदेशों से भरा है, जो मुझे भी खास पसंद नहीं आया क्योंकि अंत तक पहुँचते-पहुँचते नेख्लूदोव अपनी पीड़ा और समाज में बहुत व्यापक स्तर पर फैली विषमताओं का जैसे बहुत आसान हल निकाल लेता है।
मगर इसमें बहुत कुछ ऐसा है जो इसे एक महान उपन्यास का दर्जा देता है। उपन्यास में मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया कात्यूशा के किरदार ने। यह एक भोली सी निर्दोष युवती से दृढ़ स्त्री बनने की कहानी है। सामाजिक रूप से एक अपराधी और पेशे से वेश्या महिला अपनी आंतरिक मजबूती की वजह से एक बेहद मजबूत स्त्री के रूप में उभरती है। दूसरे, अतीत के गुनाह से उपजे अपराधबोध से छुटकारा पाने के लिए नेख्लूदोव जब जेल में कात्यूशा से मिलने जाता है तो उसका सामना अन्य कैदियों से भी होता है। वह उनकी कहानियां सुनता है। धीरे-धीरे उसे यह एहसास होता है कि उसके आसपास क्रूरता, अन्याय और पीड़ा की एक बहुत बड़ी दुनिया है।
वह एक के बाद दूसरी कहानी सुनता चला जाता है। वह देखता है कि लोगों को बिना कारण जंजीर में बांधा गया है, बिना कारण पीटा जा रहा है, बहुत से लोग बिना कारण पूरा जीवन काल कोठरी में बिता रहे हैं। भीतर से बाहर की तरफ नेख्लूदोव की इस यात्रा में बहुत गहराई है। तोलस्तोय आहिस्ता-आहिस्ता नेख्लूदोव की निजी ग्लानि और अपराधबोध को तत्कालीन रूसी समाज की व्यापक पीड़ा से जोड़ देते हैं। खुद की निगाहों मे दोषमुक्त होने के लिए नेख्लूदोव एक रास्ता चुनता है और वह है खुद को लोगों की भलाई के लिए समर्पित कर देना। उपन्यास की अंतिम लाइनें हैं, ‘उस रात नेख्लूदोव के लिए एक बिल्कुल ही नया जीवन आरंभ हुआ। इसलिए नहीं कि उसके लिए जीवन की परिस्थितियां बदल गई थीं, बल्कि इसलिए कि उस रात के बाद जो कुछ भी वह करता उसका उसके लिए नया और सर्वथा भिन्न अर्थ होता। समय ही बताएगा कि उसके जीवन के इस नए अध्याय का अंत किस भांति होगा।’
कहते हैं कि ‘पुनरुत्थान’ ने मोहनदास को महात्मा गांधी बनने की राह दिखाई थी। सामाजिक जीवन की कुरूपताओं और विद्रूपताओं का चित्रण करने वाले इस उपन्यास को पढ़ते हुए आप मानव मन के कलुषित पक्ष से भी परिचित होते हैं। यह उपन्यास हमें मुक्त करता है। ज्यादा मानवीय और उदार बनाता है और यह सब कुछ मन के भीतर अंत में आई बाइबिल की प्रार्थनाओं से नहीं जगता बल्कि पाप मुक्ति की तलाश में भटकते दो मनुष्यों की कहानी से जगता है जो आपस में न तो प्रेमी थे, न शत्रु और न ही एक-दूसरे का जीवन निर्धारित करने वाले। अभिशप्त आत्माओं की तरह भटकते हुए वे अंत में जीवन को किसी उजाले की तरफ ले जाने में सफल होते हैं। (फेसबुक से)
-दिनेश श्रीनेत
‘गर्म हवा’ पर ‘पहल’ में प्रकाशित आलेख का पिछले दिनों पंजाबी साहित्यिक पत्रिका ‘फिलहाल’ में अनुवाद प्रकाशित हुआ है। आज सुबह जालंधर से मेरे एक मित्र आरपी सिंह ने फोन करके इसके बारे में जानकारी दी साथ ही संपादक का फोन नंबर भी शेयर किया। पहले तो बिना सूचना अनुवाद और प्रकाशन पर थोड़ी हैरानी हुई लेकिन जब फोन किया तो पता लगा कि पत्रिका के संपादक व प्रकाशक गुरूदयाल अस्सी वर्षीय बुजुर्ग हैं और बड़ी शिद्दत के साथ अकेले ही बीते 12-13 सालों से पंजाबी की इस सम्मानित साहित्यिक पत्रिका को निकाल रहे हैं। अभी वे मोहाली, चंडीगढ़ में रहते हैं। लंबा समय दिल्ली में बिताया है और सिनेमा प्रेमी रहे हैं। विष्णु खरे और सौमित्र मोहन उनके बहुत अच्छे मित्र रहे हैं। उनका कहना है कि विभाजन की त्रासदी को पंजाब ने सबसे करीब से देखा है और आज यह फिल्म दोबारा प्रासंगिक हो गई है, इसी सोच के चलते उन्होंने इस लेख का पंजाबी अनुवाद प्रकाशित किया। मेरी किशोरावस्था का बड़ा हिस्सा हिंदी में अनुदित पंजाबी साहित्य या पंजाब के परिवेश वाला उर्दू-हिंदी साहित्य पढ़ते बीता है, जिसमें बलवंत सिंह, गुरूदयाल सिंह, कृश्न चंदर, यशपाल, भीष्म साहनी, राजिंदर सिंह बेदी शामिल हैं। इस लिहाज से पंजाबी में अपना लिखा देखना मेरे लिए कुछ ज्यादा ही सुखद था।
- हुसैन अयाज
राहत इंदौरी कल यानी 11 अगस्त को एक लंबा और मुशायरों के शोर-शराबे से भरा जीवन गुज़ार कर चले गए। वो जिस कम-उम्री में, आम सी शक्ल-ओ-सूरत और ग़ैर-रिवायती हाव-भाव के साथ मुशायरों की दुनिया में आए थे उस वक़्त किसी के लिए यह अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल रहा होगा कि ये शख़्स एक समय में इस दुनिया का बे-ताज बादशाह होगा और मुशायरागाह में उसका नाम पुकारे जाते ही श्रोताओं के दिलों की धड़कनें तेज़ होने लगेंगी।
राहत जिस समय मुशायरों में बिल्कुल नए थे उस वक़्त की एक महफ़िल को याद करते हुए विख्यात साहित्यकार रिफ़अत सरोश ने लिखा है,
'शाहगंज के मुशायरे में राहत इंदौरी से पहली बार मिलने का इत्तिफ़ाक़ हुवा। मैं मुशायरे की निज़ामत कर रहा था। मेरे सामने एक बिल्कुल नया नाम आया ‘राहत इंदौरी’। मैंने मुख़्तसर तआरुफ़ के बाद उन्हें दावत-ए-कलाम दी। राहत माईक पर आए। एक-आध फ़िक़रा मेरी तरफ़ उछाला, कुछ अपने बारे में कहा। और फिर ऐसा लगा जैसे किसी तेज़ शराब की बोतल का काग उड़ गया हो और शराब उबलने लगी हो, सामईन उसके नशे में बहते चले गए।'
मुशायरों में लोकप्रियता और नवाज़े जाने का ये सिलसिला राहत के साथ उनके इब्तिदाई दिनों से ही शुरू हो गया था। और धीरे-धीरे श्रोताओं पर बरसने वाली उनकी ये शराब और तेज़ होती चली गई।
राहत की चुभती हुई शायरी, शेर सुनाने के ड्रामाई अंदाज़ और मौके़-मौके़ पर उनकी तरफ़ से फेंके जाने वाले लतीफ़ों और जुमलेबाज़ी ने उन्हें एक दूसरे ही जहान का शायर बना दिया था। वो माईक पर आते ही मुशायरे की ख़ामोशी को दाद-ओ-तहसीन की गर्मी से ऐसा पिघलाते थे कि देर तक मुशायरा अपने मामूल पर नहीं रह पाता था।
सैकड़ों मुशायराबाज़ शायरों के बीच राहत इंदौरी की ये ख़ूबी रही कि उन्होंने मुशायरों के गिरते मयार के बावजूद भी अच्छी शायरी के लिए जगह बनाए रखी। उनमें वो रचनात्मक हौसला पूरी तरह मौजूद था जो ख़ुद अपनी शायरी में अच्छे और बुरे को साफ़ तौर पर पहचानने में सहायक होता है। जिन लोगों को राहत को मुशायरे में सुनने का मौक़ा मिला है उन्हें ये बात अच्छी तरह याद होगी कि राहत शेर पढ़ते हुए बताते जाते थे कि कब वो अच्छा शेर सुना रहे हैं और कब ‘चूर्ण’ बेच रहे हैं या ‘धंधा’ कर रहे हैं। राहत ख़ुद अपने मुशायरा टाइप शेरों के लिए इस तरह के शब्द इस्तिमाल करते थे।''
उर्दू के प्रसिद्ध शायर और साहित्यकार मुज़फ़्फ़र हनफ़ी ने कानपुर के एक मुशायरे को याद करते हुए लिखा है,
“मैं सदारत की सूली पर लटका हुआ था। राहत ने माईक पर आकर कहा, सर मैं आपके मयार की चीज़ें पढूँगा तो सामईन (श्रोता) मुझे हूट करेंगे। प्लीज़ मुझे ‘धंधा’ करने की इजाज़त दीजिए।”
राहत अपनी शायरी और मुशायरे में अपने काम को लेकर पूरी तरह मुतमइन थे। उन्हें अच्छी तरह अंदाज़ा था कि वो कब क्या कर रहे हैं और लोगों की उनके बारे में क्या प्रतिक्रियाएं हैं।
राहत इंदौरी को सिर्फ़ मुशायरों के तनाज़ुर में देखना और उनके फ़नकाराना क़द का अंदाज़ा लगाना ग़लत होगा। राहत मुशायरों के दूसरे शायरों से बहुत अलग क़िस्म के शायर थे। उनके विषय अलग थे, उनको शायरी में बरतने का अंदाज़ और तेवर अलग था। भाषा की तराश अलग थी। देखा जाये तो राहत की सरिश्त बुनियादी तौर पर ख़ालिस रचनात्मक व्यक्ति और फ़नकार की थी। उन्होंने अपने तख़्लीक़ी जीवन की शुरूआत पेंटर के तौर पर की लेकिन धीरे-धीरे शायरी की तरफ़ आ गए और शेर कहने लगे। मुशायरे उनके जीवन और फ़नकाराना शख़्सियत की पहचान ज़रूर बने लेकिन इसके पीछे उनकी रचनात्मक जरूरतों से ज़्यादा आर्थिक और अन्य दूसरे कारण थे। यही वजह है कि राहत मुशायरों के स्टेज से भी बराबर अपनी ख़ालिस शायराना पहचान के लिए आवाज़ उठाते रहे।
राहत के मित्र और सैकड़ों मुशायरों में उनके साथ रहे उर्दू के नामवर शायर मुनव्वर राना ने राहत पर लिखे अपने एक लेख में ऐसे लोगों से कई सख़्त सवाल किए हैं जो राहत को सिर्फ़ मुशायरों तक महदूद रखकर देखते हैं और उनकी शायरी को मुशायरों की शायरी कह कर नज़र-अंदाज करते हैं। इसी हवाले से एक जगह वे लिखते हैं,
“ज़िंदगी के मसाइल, घर की मुँह ज़ोर ज़रूरतें, अहबाब की बेरुख़ी, रिश्तों की टूट-फूट, दिहात की उजड़ी दोपहरें, शहर की कर्फ़्यू-ज़दा रातें, सियासी बे-एतदाली, फ़िरक़ा-परस्ती की गर्म हवा, नुमाइश की तरह सजे हुए मज़हबी रहनुमा और उन मज़हबी रहनुमाओं के मुँह से निकले हुए भोंडे नारों पर शायरी के ज़रिए से ज़िंदा तन्क़ीद करने को अगर मुशायरे की शायरी कहा जाता है तो मैं ऐसी शायरी को सलाम करता हूँ और मुबारक देता हूँ इस शायरी के शायर को…''
मुनव्वर राना के ये जुमले राहत के प्रतिद्वंदियों के लिए एक सबक़ तो हैं ही, साथ ही राहत के रचनात्मक संसार का भरपूर परिचय भी कराते हैं। राहत हमेशा अपनी शायरी के ज़रिए सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों से बर-सर-ए-पैकार रहे। समाज और सियासत में फैली ग़लाज़तों पर तंज़ कसे, धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति और मसनद पर बैठे सियासतदानों को बेधड़क निशाना बनाया। अपनी पहचान और अस्तित्व को स्वीकार कराने के लिए लड़ते रहे।
अगर क़रीब से देखा जाये तो राहत की शायरी जैसा तंज़, तान, शिकवा और एहतिजाज उनके समकालीन शायरों में दूर-दूर तक किसी के यहां नज़र नहीं आता। इसका कारण तलाश करना और उसे विस्तार में समझना अपने आप में ख़ुद राहत पर एक शोध का विषय है।
राहत का जन्म 1950 की जनवरी को इंदौर में हुआ था। वहीं परवरिश हुई। घर में शिक्षा का माहौल ज़रूर था लेकिन ऐसी कोई रिवायत नहीं थी जो उन्हें शायरी की तरफ़ मुतवज्जे करती। ये तो बस एक संयोग था कि वो शेर कहने लगे और राहत क़ुरैशी से राहत इंदौरी हो गए। और ख़ुद उनके साथ एक शहर भी उनसे वाबस्ता हो कर लाखों लोगों की याददाश्त में शामिल हो गया।
मरहूम राहत के मरहूम दोस्त अनवर जलालपुरी ने लिखा है कि एक वक़्त था अगर राहत का नाम किसी मुशायरे में नहीं होता था तो वो मुशायरा ‘ऑल इंडिया मुशायरा’ नहीं समझा जाता था। आज राहत हमारे बीच नहीं हैं। उनके जाने से उर्दू की साहित्यिक दुनिया में कोई ‘खला’ पैदा हुआ हो या न हुआ हो। हाँ इतना ज़रूर है कि उर्दू मंचों की वो रौनक़ जो राहत के होते होती थी अब ना होगी और कोई मुशायरा अब ‘ऑल इंडिया मुशायरा’ नहीं रहेगा। (blog.rekhta.org)
-अनुराग भारद्वाज
किस्सा है कि राम भक्त तुलसी एक बार घाट से स्नान करके घर जा रहे थे. रास्ते में उन्हें कन्हैया जी के दर्शन हो गए. और दर्शन भी क्या हुए! बांके बिहारी वाली छवि में खड़े हुए थे कन्हैया जी. यानी सिर पर मोर पंखी और होंठों पर बांसुरी और त्रिभंगी मुद्रा. तुलसी ने उन्हें प्रणाम किया और चल दिए. कृष्ण हतप्रभ रह गए! आख़िर तीन लोक के नाथ थे, महाभारत के सूत्रधार थे, द्वापर के सबसे बड़े पात्र थे. राम में तो 12 कलाएं मानी जाती हैं. कृष्ण 16 कलाओं से परिपूर्ण थे. उनकी अनदेखी! कृष्ण ने जब उनसे इस उपेक्षा का कारण पूछा तो तुलसी बोले, ‘क्या कहूं छबि आपकी, भले बने हो नाथ. तुलसी मस्तक जब नवे, धनुस बान हो हाथ.’
अब तुलसी तो सबसे बड़े राम भक्त, शायद हनुमान से भी बड़े. पर कृष्ण के भी भक्त कम नहीं हुए हैं. हिंदू धर्म के अलावा इस्लाम, ईसाई, जैन और सिख मज़हबों के अनुयायी तक कृष्ण की लीला से विस्मित रहे हैं. ग़लत नहीं होगा अगर कहें कि कृष्ण गंगा-जमुनी तहज़ीब के सबसे बड़े प्रतीक हैं.
कृष्ण भक्ति और सूफ़ीवाद का मिलन
ग्यारहवीं शताब्दी के बाद इस्लाम भारत में तेज़ी से फैला. लगभग इसी समय भक्ति काल और सूफ़ीवाद में ज़बरदस्त संगम हुआ और भारत में इस्लाम कृष्ण के प्रभाव से अछूता नहीं रह पाया. सूफ़ीवाद ईश्वर और भक्त का रिश्ता प्रेमी और प्रेमिका के संबंध की मानिंद मानता है. इसलिए राधा या फिर गोपियां या सखाओं का कृष्ण से प्रेम सूफ़ीवाद की परिभाषा में एकदम सटीक बैठ गया. नज़र ज़ाकिर अपने लेख ‘ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ बांग्ला लिटरेचर’ में लिखते हैं कि चैतन्य महाप्रभु के कई मुस्लिम अनुयायी थे.
स्वतंत्रता सेनानी, गांधीवादी और उड़ीसा के गवर्नर रहे बिशंभर नाथ पांडे ने वेदांत और सूफ़ीवाद की तुलना करते हुए एक लेख में कुछ मुसलमान कृष्ण भक्तों का ज़िक्र किया है. इनमें सबसे पहले थे सईद सुल्तान जिन्होंने अपनी क़िताब ‘नबी बंगश’ में कृष्ण को नबी का दर्ज़ा दिया. दूसरे, अली रज़ा. इन्होंने कृष्ण और राधा के प्रेम को विस्तार से लिखा. तीसरे, सूफ़ी कवि अकबर शाह जिन्होंने कृष्ण की तारीफ़ में काफी लिखा. बिशंभर नाथ पांडे बताते हैं कि बंगाल के पठान शासक सुल्तान नाज़िर शाह और सुल्तान हुसैन शाह ने महाभारत और भागवत पुराण का बांग्ला में अनुवाद करवाया. ये उस दौर के सबसे पहले अनुवाद का दर्ज़ा रखते हैं.
और उस दौर के सबसे मशहूर कवि अमीर ख़ुसरो की कृष्ण भक्ति की बात ही कुछ और है. बताते हैं एक बार निज़ामुद्दीन औलिया के सपने में श्रीकृष्ण आये. औलिया ने अमीर ख़ुसरो से कृष्ण की स्तुति में कुछ लिखने को कहा तो ख़ुसरो ने मशहूर रंग ‘छाप तिलक सब छीनी रे से मोसे नैना मिलायके’ कृष्ण को समर्पित कर दिया. इसमें कृष्ण का उल्लेख यहां मिलता है, ‘...ऐ री सखी मैं जो गई थी पनिया भरन को, छीन झपट मोरी मटकी पटकी मोसे नैना मिलाईके...’
भक्ति काल के रसखान
भक्ति काल के कबीर, नामदेव और एकनाथ तुकाराम जैसे चिंतकों ने निर्विकार की पूजा को महत्व दिया, पर वहीं कुछ मुसलमान कवियों पर कृष्ण हावी हो गए. इनमें सईद इब्राहिम उर्फ़ ‘रसखान’ का नाम सबसे पहले आता है. बिल्कुल सूरदास की तरह उन्होंने भी कृष्ण लीलाओं का वर्णन किया है. रसखान की कृष्ण भक्ति को अब क्या कहिए. भागवत पुराण का फ़ारसी में अनुवाद करने वाले रसखान की कृष्ण कल्पना में ठेठ ब्रज भाषा छलकती है. उनका कृष्ण वर्णन कुछ ऐसा है मानो कृष्ण उनके सामने ही लीला कर रहे हैं. मसलन, वे देख रहे हैं कि कभी कृष्ण पहाड़ उठा रहे हैं तो कभी धूल से सने हुए हैं. कभी व्यास, नारद को छका रहे हैं तो कभी कृष्ण गोपियों की चिरोरी करते हुए छाछ मांग रहे हैं.
‘सेस, गनेस, महेस, दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावें
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुभेद बतावें
नारद से सुक ब्यास रहें पचि हारे तऊ पुनि पार न पावें
ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भर छाछ पे नाच नचावें
गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा लेने के बाद रसखान वृन्दावन में ही बस गए. अंतिम सांस उन्होंने मथुरा में ली थी और वहीं उनका मकबरा भी है.
आलम शेख़
आलम शेख़ रीति काल के कवि थे. उन्होंने ‘आलम केलि’, स्याम स्नेही’ और माधवानल-काम-कंदला’ नाम के ग्रंथ लिखे. ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि आलम हिंदू थे जो मुसलमान बन गए. उनका मानना है कि प्रेम की तन्मयता की दृष्टि से आलम की गणना ‘रसखान’ से होनी चाहिए.
‘पालने खेलत नंद-ललन छलन बलि,
गोद लै लै ललना करति मोद गान है ।
‘आलम’ सुकवि पल पल मैया पावै सुख,
पोषति पीयूष सुकरत पय पान है ।
नंद सों कहति नंदरानी हो महर सुत,
चंद की सी कलनि बढ़तु मेरे जान है ।
आइ देखि आनंद सों प्यारे कान्हा आनन में,
आन दिन आन घरी आन छबि आन है ।
नज़ीर अकबराबादी
रीति काल के अंतिम सालों में नज़ीर अकबराबादी का कृष्ण प्रेम तो रसखान के कृष्ण प्रेम से टक्कर लेता हुआ दिखता है. कुछ ऐसी रार जैसी मीरा को राधा से रही होगी. वैसे इतिहास में राधा का पात्र जयदेव के ‘गीत गोविन्द’ के बाद ही आता है.
कृष्ण उपासना का प्रचलन इसी दौरान अधिक हुआ. नज़ीर की दृष्टि में श्रीकृष्ण दुःख हरने वाले, कृपा करने वाले और परम आराध्य ही हैं. उनके लिए कृष्ण पैगंबर जैसे हैं. उन्होंने कृष्णचरित के साथ रासलीला का वर्णन किया है तो कृष्ण के बड़े भाई बलदेव पर ‘बलदेव जी का मैला’ नामक कविता लिखी. कृष्ण की तारीफ़ में लिखते हुए वे उन्हें सबका ख़ुदा बताते हैं.
‘तू सबका ख़ुदा, सब तुझ पे फ़िदा, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी
हे कृष्ण कन्हैया, नंद लला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी
तालिब है तेरी रहमत का, बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा
तू बहरे करम है नंदलला, ऐ सल्ले अला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी.’
एक कविता में वे कृष्ण पर लिखते हैं:
‘यह लीला है उस नंदललन की, मनमोहन जसुमत छैया की
रख ध्यान सुनो, दंडौत करो, जय बोलो किशन कन्हैया की.’
बताते हैं कि भीख मांगने वाले जोगी के निवेदन पर नज़ीर ने ‘कन्हैया का बालपन’ कविता कही
‘क्या-क्या कहूं किशन कन्हैया का बालपन
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन.’
इस कविता में पूरे 32 छंद हैं जिनमें कृष्ण के एश्वर्य और माधुर्य दोनों का ज़बरदस्त वर्णन है.
वाजिद अली शाह का कृष्ण प्रेम
देखिये यूं तो फैज़ाबाद का राम लला प्रेम जगज़ाहिर है. पर वहां से निकले और लखनऊ आकर बसे नवाबों के आख़िरी वारिस वाजिद अली शाह कृष्ण के दीवाने थे. 1843 में वाजिद अली शाह ने राधा-कृष्ण पर एक नाटक करवाया था. लखनऊ के इतिहास की जानकार रोज़ी लेवेलिन जोंस ‘द लास्ट किंग ऑफ़ इंडिया’ में लिखती हैं कि ये पहले मुसलमान राजा (नवाब) हुए जिन्होंने राधा-कृष्ण के नाटक का निर्देशन किया था. लेवेलिन बताती हैं कि वाजिद अली शाह कृष्ण के जीवन से बेहद प्रभावित थे. वाजिद के कई नामों में से एक ‘कन्हैया’ भी था.
कृष्ण और बॉलीवुड
वाजिद अली शाह के बाद तो अंग्रेज़ आ गए थे. विलियम जे हंटर, जॉन मिल, जॉन बेर्वेर्ली निकोल्स जैसे लेखकों और विचारकों ने हमारे ज़हनों में झूठ ठूंस-ठूंस कर साबित कर दिया कि हिंदू और मुस्लिम साथ नहीं रह सकते क्यूंकि दोनों मुख्तलिफ़ कौमें हैं. आज़ादी के बाद बॉलीवुड में राजा मेहदी अली खान, शकील बदायूंनी जैसे गीतकारों का कृष्ण वर्णन बेहद शानदार है. पर एक शायर का नाम लिए बिना यह लेख ख़त्म नहीं हो सकता. वे थे निदा फ़ाज़ली. जितना अच्छा उन्होंने कृष्ण पर लिखा इस दौर में शायद ही कोई लिख पाया. उनका एक शेर देखिये:
‘फिर मूरत से बाहर आकर चारों ओर बिखर जा
फिर मंदिर को कोई मीरा दीवानी दे मौला.’
हम मुख्तलिफ़ थे, कोई शक नहीं. पर साथ थे, इसमें भी कोई शक नहीं.(satyagrah)
बुलाती है मगर जाने का नईं
ये दुनिया है इधर जाने का नईं
मेरे बेटे किसी से इश्क़ कर
मगर हद से गुजर जाने का नईं
सितारें नोच कर ले जाऊँगा
मैं खाली हाथ घर जाने का नईं
वबा फैली हुई है हर तरफ
अभी माहौल मर जाने का नईं
वो गर्दन नापता है नाप ले
मगर जालिम से डर जाने का नईं ...
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नफ़रत का बाज़ार न बन
फूल खिला, तलवार न बन
रिश्ता-रिश्ता लिख मंज़िल
रस्ता बन, दीवार न बन
कुछ लोगों से बैर भी ले
दुनिया भर का यार न बन
अपना दर ही दार लगे
इतना दुनियादार न बन
सब की अपनी साँसे है
सबका दावेदार न बन
कौन खरीदेगा तुझको
उर्दू का अख़बार न बन
-राहत इंदौरी
-शुभम उपाध्याय
कहते हैं कि गोपालदास नीरज जब सार्वजनिक मंचों पर कविता पाठ किया करते थे तो युवाओं के दिल की धड़कनें तेज हो जाती थीं. आज जो हमारी मां हैं मौसी हैं, वे उन दिनों को याद करके खिल उठती हैं जब उनके कॉलेज के मुक्ताकाश मंच पर गोपालदास नीरज अपनी अलहदा अदा में गीत और कविताएं सुनाया करते थे. यह उन दिनों की बात है जब उनके बाल सफेद नहीं हुए थे और वे अपनी मशहूरियत के शिखर पर थे. वे ‘फूलों के रंग से, दिल की कलम से’ जैसे अपने फिल्मी गीत कविता की रवानगी में सुनाते थे और ‘कारवां गुजर गया’ जैसी अपनी कविताएं गीतों की तरह स्वरबद्ध करके महफिलें लूटा करते थे.
आधुनिक दौर की शेरो-शायरी की दुनिया में ऐसे कई कवि और शायर हुए हैं जिन्होंने सार्वजनिक मंचों पर अपनी शायरी अपनी कविता सुनाने के तरीके से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया. किसी कवि या शायर का लिखा हुआ पढ़ना और उसका पढ़ा हुआ सुनना अलग-अलग असर रखते हैं. गुलजार अपनी नज्में सुना दें तो उनकी इमेजरी में चार-चांद लग जाते हैं और मुनव्वर राणा किसी मुशायरे में मां से जुड़ी अपनी किसी गजल में भावुकता भर दें तो वह गजल हमारे जेहन में उस आवाज के साथ सालों-साल जिंदा रह जाती है.
राहत इंदौरी साहब इसी लीक के शायर थे. उनको सिर्फ पढ़ कर आप जितना उनकी शायरी के करीब जा सकते हैं उससे कई गुना ज्यादा उनको सुनकर आप उनकी गजलों से इश्क फरमा सकते हैं. आज से कुछ दस-बारह बरस पहले जब पहली बार उन्हें खचाखच भरे कवि सम्मेलन में एक मुक्ताकाश मंच पर सुनने का सौभाग्य मिला था, तो मिलेनियल की शब्दावली में कहें तो वे ‘रॉकस्टार शायर’ प्रतीत हुए थे. पारंपरिक तरीके से गजलें पढ़ने वाले मुकम्मल शायरों से दूर उनके अंदाज में कुछ ऐसी बेफिक्री थी जो कि अक्सर पश्चिम के ‘रेबल’ रॉकस्टारों में नजर आती रही है.
सादी-सी शर्ट के ऊपर एक काला कोट जो मालूम होता था कि कई महीनों पहले ड्रायक्लीन हुआ होगा. सफेद होने की तैयारी में लगे हुए बिखरे काले बाल जिनके लिए राहत साहब की उंगलियां ही कंघी थीं. चमड़े की चप्पलें जिनमें न जाने कब आखिरी बार काली पॉलिश हुई होगी. सजे-धजे समकालीन शायरों के बीच उनके इस फक्कड़ मिजाज में आंखों को भाने वाली फकीरी थी, जो बाद में लगातार उनके मुशायरों में शिरकत करके समझ आयी कि असली है. अन्याय की मुखालफत करने वाले एक निडर आवामी शायर की पोयट्री जितनी ही ईमानदार.
फिर उनका आसमान की तरफ हाथ उठाकर शायरी पढ़ना! यह अंदाज कुछ ऐसा था कि शास्त्रीय गायकों की महफिल में जैसे कोई बिना संगीत सीखा किशोर कुमार आ जाए, और अपने खिलंदड़ अंदाज और शास्त्रीयता का विलोम साबित होने वाली मुरकियों से सुनने वालों के कान शहद से भर दे. कुमार विश्वास से पहले वाले युग में जब हमारे यहां कवि सम्मेलन और मुशायरे हुआ करते थे तो उनमें गोपालदास नीरज भी शिरकत करते थे और बशीर बद्र भी. मुन्नवर राणा मौजूद रहते थे तो हास्य कवि अशोक चक्रधर और ओम व्यास भी. कोई किसी पर हावी नहीं रहता था और सभी को श्रोता बराबर से सराहते थे. लेकिन तब भी राहत इंदौरी की बात अलग थी! उनका गजल सुनाने का तरीका अपने सभी वरिष्ठ और समकालीन शायरों से मुख्तलिफ था. इतना ज्यादा अलग कि जैसे वे शायरी सुनाते-सुनाते किसी से आसमान में बातें करने लग जाते थे. ये ‘किसी से’ किसी के लिए खुदा हो सकता है, किसी के लिए सूफी संतों की परंपरा वाला आध्यात्म और किसी के लिए स्टेज परफॉर्मेंस यानी कि अदाकारी. मगर सुनने में तो वह जादू था - प्योर मैजिक!
उनके एक शेर पर गौर फरमाइए – ‘सोचता हूं सबकी पगड़ी को हवाओं में उछाला जाए, सोचता हूं कोई अखबार निकाला जाए....आसमां ही नहीं एक चांद भी रहता है यहां, भूल कर भी कभी पत्थर न उछाला जाए.’ अब नीचे दिए वीडियो में इन अशआर से जुड़े राहत साहब के ‘एक्सप्रेशन्स’ सुनिए और देखिए. यही उनकी गजलों को उनकी जवानी के दिनों से ही यादगार बनाते आए हैं.
तो ये तो थे वे राहत इंदौरी साहब जिनके बाल सारे सफेद हो चुके थे. एक राहत इंदौरी वे भी थे जिनके बाल काले थे और अथाह ऊर्जा और शायरी पढ़ने के गैर पारंपरिक तरीके से उन्होंने कवि सम्मेलनों और मुशायरों की दुनिया में तहलका मचाया था. उनकी एक बड़ी मकबूल गजल है जिसे आज की युवा पीढ़ी शायद कम जानती है – ‘उसकी कत्थई आंखों में है जंतर-मंतर सब, चाकू-वाकू, छुरियां-वुरियां, खंजर-वंजर सब/ जिस दिन से तुम रूठीं मुझ से रूठे रूठे हैं, चादर-वादर, तकिया-वकिया, बिस्तर-विस्तर सब.’ मोहब्बत पर लिखी इस गजल को कहने में राहत साहब ने न सिर्फ गैर पारंपरिक शब्दों का चुनाव किया था (चाकू-वाकू, छुरियां-वुरियां, कपड़े-वपड़े, जेवर-वेवर), बल्कि कवि सम्मेलनों और मुशायरों में इसे पढ़ने का उनका अलहदा अंदाज भी सुनने वालों के लिए एक यादगार अनुभव बन जाता था. नीचे दिया एक बहुत पुराना वीडियो देखिए, ऑडियो में खराश जरूर है, लेकिन राहत इंदौरी के लंबे सफर से नावाकिफ रहने वालों को पता चलेगा कि आखिर वे क्या शख्सियत थे!
गजल से अलग होकर भी राहत इंदौरी के कई शेरों ने मकबूलियत पाई है. खुद की पहचान बनाई है:
‘झूठों ने झूठों से कहा है सच बोलो, सरकारी ऐलान हुआ है सच बोलो’
‘आप हिंदू मैं मुसलमान ये ईसाई वो सिख, यार छोड़ो ये सियासत है चलो इश्क करें’
‘सरहदों पर बहुत तनाव है क्या/ कुछ पता तो करो चुनाव है क्या’
फिर एक तरह से हमारे जीवन का दर्शन साबित होने वाली एक गजल है जिसका बेइंतिहा खूबसूरत मतला है, ‘उंगलियां यूं न सब पर उठाया करो, खर्च करने से पहले कमाया करो/ जिंदगी क्या है खुद ही समझ जाओगो, बारिशों में पतंगें उड़ाया करो’
एक और शेर है, जो उनके लिए हमारे इस वक्त की पीड़ा को जाहिर करता है, ‘मैं जब मर जाऊं तो मेरी एक अलग पहचान लिख देना, लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना’.
हमारे मौजूदा वक्त ने उनके शेर को मीम में भी बदला (‘बुलाती है मगर जाने का नहीं’) और उनके शेरों ने सत्ता के खिलाफ निकले जुलूसों में भी तख्तियों से लेकर जुबानों तक पर जगह पाई (‘किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है’). 1950 में एक मिल मजदूर के यहां इंदौर में पैदा हुए राहत इंदौरी उर्दू साहित्य में एमए और पीएचडी थे और हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब के मुखर समर्थक भी. इमरजेंसी के वक्त सरकार का विरोध करने से लेकर वे मौजूदा निजाम की निगरानी में भी अपनी बात कहने से हिचकिचाते नहीं थे. आवाम का शायर होना आसान नहीं होता और दरबारी कवियों तथा शायरों के इस युग में राहत इंदौरी ने अपनी उसी आवामी शायर वाली धार को बनाए रखा था. एक गजल भले ही पुरानी हो, लेकिन उसे बेहद शिद्द्त के साथ बार-बार लगातार इतनी बार अनेकों मंचों से उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान को सच में प्यार करने वाले हर शख्स के दिल में उनके इन शब्दों ने जगह बनाई – ‘सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है’.(satyagrah)
समकालीन उर्दू शायरी की सबसे लोकप्रिय आवाज़ आज सदा के लिए ख़ामोश हो गई। कोरोना से संक्रमित हरदिलअज़ीज़ शायर राहत इंदौरी की आज शाम इंदौर के एक अस्पताल में हृदयगति रुक जाने से निधन स्तब्ध कर देने वाली ख़बर है जिस पर सहसा यक़ीन नहीं होता। ग़ज़लों में उनके नए प्रयोग, उनके ज़ुदा तेवर और लफ़्ज़ों के साथ खेलने का उनका सलीका हमेशा याद किए जाएंगे। देश और विदेश में भी बड़े मुशायरों की वे जान थे। कोमल मानवीय भावनाओं पर उनकी जबरदस्त पकड़, सियासत के पाखंड को बेनकाब करने का उनका वो बेख़ौफ़ अंदाज़ और समकालीन मुद्दों की पड़ताल की उनकी अदा मुशायरों को एक अलग स्तर तक ले जाती थी। मुशायरों की दुनिया में जो खालीपन वे छोड़ गए हैं उसे भरने में शायद लंबा वक़्त लगेगा। राहत साहब को खिराज़-ए-अक़ीदत, उनकी ही एक ग़ज़ल के साथ !
ये हादसा तो किसी दिन गुज़रने वाला था
मैं बच भी जाता तो इक रोज़ मरने वाला था
तेरे सलूक तेरी आगही की उम्र दराज़
मेरे अज़ीज़ मेरा ज़ख़्म भरने वाला था
बुलंदियों का नशा टूट कर बिखरने लगा
मेरा जहाज़ ज़मीं पर उतरने वाला था
मेरा नसीब मेरे हाथ कट गए वर्ना
मैं तेरी मांग में सिंदूर भरने वाला था
मेरे चिराग, मेरी शब, मेरी मुंडेरें हैं
मैं कब शरीर हवाओं से डरने वाला था
-ध्रुव गुप्त
पुराने शहरों के मंज़र निकलने लगते हैं
ज़मीं जहाँ भी खुले घर निकलने लगते हैं
मैं खोलता हूँ सदफ़ मोतियों के चक्कर में
मगर यहाँ भी समन्दर निकलने लगते हैं
हसीन लगते हैं जाड़ों में सुबह के मंज़र
सितारे धूप पहनकर निकलने लगते हैं
बुरे दिनों से बचाना मुझे मेरे मौला
क़रीबी दोस्त भी बचकर निकलने लगते हैं
बुलन्दियों का तसव्वुर भी ख़ूब होता है
कभी कभी तो मेरे पर निकलने लगते हैं
अगर ख़्याल भी आए कि तुझको ख़त लिक्खूँ
तो घोंसलों से कबूतर निकलने लगते हैं
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सारी बस्ती क़दमों में है, ये भी इक फ़नकारी है
वरना बदन को छोड़ के अपना जो कुछ है सरकारी है
कालेज के सब लड़के चुप हैं काग़ज़ की इक नाव लिये
चारों तरफ़ दरिया की सूरत फैली हुई बेकारी है
फूलों की ख़ुश्बू लूटी है, तितली के पर नोचे हैं
ये रहजन का काम नहीं है, रहबर की मक़्क़ारीहै
हमने दो सौ साल से घर में तोते पाल के रखे हैं
मीर तक़ी के शेर सुनाना कौन बड़ी फ़नकारी है
अब फिरते हैं हम रिश्तों के रंग-बिरंगे ज़ख्म लिये
सबसे हँस कर मिलना-जुलना बहुत बड़ी बीमारी है
दौलत बाज़ू हिकमत गेसू शोहरत माथा गीबत होंठ
इस औरत से बच कर रहना, ये औरत बाज़ारी है
कश्ती पर आँच आ जाये तो हाथ कलम करवा देना
लाओ मुझे पतवारें दे दो, मेरी ज़िम्मेदारी है
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जो मंसबो के पुजारी पहन के आते हैं।
कुलाह तौक से भारी पहन के आते है।
अमीर शहर तेरे जैसी क़ीमती पोशाक
मेरी गली में भिखारी पहन के आते हैं।
यही अकीक़ थे शाहों के ताज की जीनत
जो उँगलियों में मदारी पहन के आते हैं।
इबादतों की हिफाज़त भी उनके जिम्मे हैं।
जो मस्जिदों में सफारी पहन के आते हैं।
रोज तारों को नुमाइश में खलल पड़ता है
चांद पागल है अंधेरे में निकल पड़ता है
एक दीवाना मुसाफिर है मेरी आंखों में
वक्त-बे-वक्त ठहर जाता है, चल पड़ता है
अपनी ताबीर के चक्कर में मेरा जागता ख्वाब
रोज सूरज की तरह घर से निकल पड़ता है
रोज पत्थर की हिमायत में गजल कहते हैं
रोज शीशों से कोई काम निकल पड़ता है
उसकी याद आई है, सांसों जरा आहिस्ता चलो
धड़कनों से भी इबादत में खलल पड़ता है.
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किसने दस्तक दी ये दिल पर कौन है
आप तो अंदर हैं, बाहर कौन है
रोशनी ही रोशनी है हर तरफ
मेरी आंखों में मुनव्वर कौन है
आसमां झुक-झुक के करता है सवाल
आप के कद के बराबर कौन है
हम रखेंगे अपने अश्कों का हिसाब
पूछने वाला समुंदर कौन है
सारी दुनिया हैरती है किस लिये
दूर तक मंजर ब मंजर कौन है
मुझसे मिलने ही नहीं देता मुझे
क्या पता ये मेरे अंदर कौन है
(राहत इंदौर की 'दो कदम और सही' से)
हिंदी के सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार कहे जाने वाले हरिशंकर परसाई पर यह आलेख जनसत्ता के पूर्व संपादक प्रभाष जोशी ने 'पवन के खंबे का कुछ और मलबा' शीर्षक से लिखा था
खबर तो सबेरे ही मिल गई थी. लिखना भी मुझे ही चाहिए था. खबर के साथ नहीं तो कागद कारे में. लेकिन आजकल अपने किसी के जाने पर पत्रकारीय काम करने से अपने को रोकता हूं. यह नहीं कि तात्कालिकता के दबाव में किए गए काम को हल्का या गलत मानने लगा हूं. अपना विश्वास दृढ़ है कि जो पिंड में है वही ब्रह्मांड में है और जो तत्काल में है वही शाश्वत में है.
लेकिन पिछले चार वर्षों में अपने जीवन की कई बालू की भीत, पवन के खंबे ढह गए हैं. एक और खंबा ढह गया तो टटोलता रहा कि जान लूं कि क्या-क्या गिर गया है. उसे महसूस कर लूं और ठीक से देख लूं कि अब अपने भवन के क्या हाले गए हैं. फिर बताऊं कि क्या हुआ?
परसाई जी से मिलना बरसों से नहीं हुआ था. मध्यप्रदेश का पहला शरद जोशी सम्मान तय करने की बैठक में कहा था कि व्यंग्य का पहला सम्मान तो हरिशंकर परसाई को ही जाना चाहिए. वही हिंदी व्यंग्य के प्रथम पुरुष हैं और भले ही शरद जोशी उनके बाद आए और पहले चले गए हों सम्मान तो परसाई जी को ही जाएगा. समितियों की बैठकों में इस तरह बोला नहीं जाता. जानता हूं. लेकिन समिति के सभी सदस्य मेरी बात से एकदम और शत-प्रतिशत सहमत थे.
हिचक एक ही थी. पता नहीं परसाई जी सम्मान लेंगे या नहीं. जब सभी कोणों से विचार हो गया तो मैंने कहा कि कोई बात नहीं. बताए जाने पर अगर वे थोड़ी भी उदासीनता दिखाएं तो मुझे तत्काल सूचित किया जाए. आजकल जबलपुर विमान तो नहीं जाता लेकिन मैं कैसे भी जाऊंगा और मनाऊंगा. हम तय करें कि पहला सम्मान परसाई जी का ही होगा.
इतना भरोसा था मुझे परसाई जी पर हालांकि तब भी उनसे मिले बीस से ज्यादा साल हो गए थे. हिचक यह थी कि परसाई शरद जोशी से कम से कम सात साल बड़े थे. व्यंग्य लिखना भी उनने शरद जोशी के पहले शुरू किया था. व्यंग्यकार के नाते प्रतिष्ठित भी वही पहले हुए और व्यंग्य को एक विधा के रूप में स्थापित भी उन्हीं ने किया.
शरद जोशी उनके बाद में आए और पहले चले गए इसलिए उनके नाम पर सम्मान पहले शुरू हुआ. इस में कोई क्या कर सकता था. यमराज हर एक की डेट ऑफ़ बर्थ देखकर तो वरिष्ठता के अनुसार लोगों को उठाते नहीं. अपने से छोटे शरद जोशी के नाम पर चले सम्मान को स्वीकार करने में कहीं परसाई जो को संकोच तो नहीं होगा?
ऐसे संकेत पर लोग समझेंगे कि हो न हो दोनों में प्रतिद्वंदिता रही होगी और शायद बड़े छोटे की भावना भी रही हो. लेकिन परसाई जी से तो अपना तो मिलना ही शरद जोशी के कारण और उनके जरिये हुआ था. दोनों के व्यक्तित्व की बनावट भिन्न जरुर थी और परसाई जैसी राजनैतिकता शरद जोशी में नहीं थी. लेकिन अपने को याद नहीं कि दोनों में खटपट हुई हो या सामान रूप से व्यंग्य लेखक होने के कारण प्रतिद्वंदिता रही हो. बल्कि अपन तो दोनों को साथ ही जानते थे और अपने मन में यह कभी नहीं कि आया गड़बड़ है.
भोपाल छोड़ देने के बाद भी शरद जोशी से तो तार जुड़ा रहा लेकिन परसाई जी से तो बस उनके लिखे को पढ़ने का संबंध रह गया. जनसत्ता निकलने के बाद एकाध छोटा सा पत्र उनने लिखा जरुर लेकिन मिलना नहीं हुआ. मुझे लग रहा था ‘शरद जोशी सम्मान’ स्वीकार करने से वे इनकार कर दें तो मैं जबलपुर जा कर उनसे मिलूं. मालूम था कि वे आजकल उठते नहीं. लगभग सारे काम बिस्तर से ही होते हैं.
लेकिन परसाई जी ने निराश किया. उनने सम्मान लेना नामंजूर नहीं किया और इस तरह अपने जबलपुर जाने की नौबत ही नहीं आई. जब उनका नाम तय हो रहा था तभी किसी ने कहा था कि वे कहीं आ जा नहीं सकते. तो कोई बात नहीं, उनका सम्मान उनके घर जाकर ही करेंगे – ऐसा कहते हुए भी उम्मीद थी कि समिति के सदस्य और मित्र होने के नाते सम्मान समारोह में अपने को बुलाया जाएगा.
बाद में भोपाल के अखबारों में पढ़ा कि राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल ने जबलपुर उनके घर जा कर उन्हें ‘शरद जोशी सम्मान’ दे दिया. अपन फिर बुलाए जाने का रास्ता देखते हुए टापते रह गए. किसी ने पूछा तक नहीं. बाद में पता ही नहीं चला कि उस समिति का क्या हुआ हालांकि परसाई जी के बाद जो दो नाम हमने सम्मान के लिए तय किये थे उनमें से एक को तो गए साल वह मिला ही है.
आप पूछ सकते हैं परसाई जी से मिलने जाने के इतने बहाने ढूंढने की जरुरत क्यों पड़नी चाहिए? तो मन में एक बोल्डर ठसा हुआ था. जब अपन नई दुनिया के साहित्य संपादक हुआ करते थे तब परसाई जी का एक कॉलम ‘सुनो भई साधो’ छापा करते थे. वह हमें जबलपुर से मिला करता था जहां की नई दुनिया में वह पहले छपता था. उस नई दुनिया को मायाराम सुरजन निकाला करते थे जो तब नई दुनिया के एक भागीदार हुआ करते थे. और मायाराम सुरजन जैसा कि आप अब तक कहीं न कहीं पढ़ चुके होंगे परसाई जी के अनन्य मित्रों में से एक थे.
‘सुनो भई साधो’ तब हमारी नई दुनिया का बड़ा लोकप्रिय कॉलम हुआ करता था. अपन ने तो वही कॉलम दुबारा छापकर परसाई जी को जानना शुरू किया. कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर गांव-गांव घूमने और गांधी-विनोबा का काम करने और विनोबा को रिपोर्ट करते हुए पत्रकार हो जाने वाला प्रभाष जोशी बेचारा परसाई जी के व्यंग्य का पात्र ही हो सकता था.
वह कॉलम पढ़ते यानी उसका प्रूफ पढ़ते हुए अपने को कई बार लगता कि मखौल तो अपना ही उड़ाया गया है. लेकिन तब तक अपन एंटन चेखव काफी पढ़ चुके थे और जानते थे कि असली व्यंग्य के मूल में सहानुभूति होती है, करुणा होती है. बड़ा व्यंग्यकार व्यंग्य में अपने को सूली पर टांगता है और फिर अपनी ही कमजोरियों पर कीलें ठोकता है. अपना क्रुसीफिकेशन किए बिना कोई महान ही नहीं अच्छा व्यंग्य भी नहीं लिख सकता. दूसरी भारतीय भाषाओं में लिखा व्यंग्य अपन ने ज्यादा पढ़ा नहीं. लेकिन अंग्रेजी के अच्छे से अच्छे व्यंग्यकार के सामने हमारे परसाई जी बित्ता भर ऊंचे ही निकलेंगे, ऐसा विश्वास तब भी अपने को था.
परसाई ऐसे आदमी नहीं थे कि जिनसे संपादक-लेखक का औपचारिक संबंध रह सके. फिर अपन तो सिर्फ साहित्य संपादक थे और परसाई जी की मित्रता के दावेदार भी नहीं हो सकते थे. इतने छोटे थे. लेकिन पहले छोटे-छोटे पत्रों से और बाद में सामने सीधी मुठभेड़ से परसाई जी से ऐसे सम्बन्ध हो गए कि जब अपना ब्याह होना तय हुआ और उनको अपन ने एक निजी पत्र लिखा आने के लिए.
ब्याह होता उसके पहले ही उनका पत्र आ गया. उनके पत्र अब अपने पास नहीं हैं. किसी के नहीं हैं. लेकिन वह याद है. परसाई जी ने लिखा कि आता जरूर, लेकिन तुम उस स्थिति से बाहर निकल गए हो जब मेरी सलाह किसी काम आ सकती है. लेकिन शरद जोशी भोपाल से आए, फिर कहा-जिसे फांसी लगनी होती है उसे भी दोस्त लोग इतनी दूर छोड़ने आते हैं. शादी में भी यहीं तक छोड़ने आ सकते हैं. इसके आगे और इसके बाद अपनी आप जानो. कोई काम नहीं आएगा.
तब नई दुनिया में- घर की दुनिया- यानी महिलाओं का कॉलम वीणा नागपाल देखा करती थीं. उनके पति ओम नागपाल क्रिश्चियन कॉलेज में राजनीति विज्ञान पढ़ाया करते थे और जब-तब नई दुनिया में लिखते भी थे. परसाई जी तब तक बहुत पीने लग गए थे. लेकिन उनकी कीर्ति तो थी ही और हम इंदौर वालों के लिए तो वे विभूति थे. वीणा नागपाल ने उन्हें भोजन के लिए अपने घर बुलाया.
हमारे साथ उस भोजन पर और कौन-कौन बुलाए गए थे यह तो अब याद नहीं है लेकिन रज्जू बाबू (राजेंद्र माथुर) सपत्नीक और अपन भी सपत्नीक निमंत्रित थे. उस भोज में क्या हुआ उसका पूरा वर्णन तो नहीं करूंगा. लेकिन चूंकि तब परसाई जी प्रातःकाल की मंगल बेला से पीना शुरू कर देते थे इसलिए इतने पिए हुए आए कि सूफी लोगों की उस कंपनी में उनका मुख्य अतिथि बने रहना संभव नहीं था. वह भोजन लगभग हुआ ही नहीं.
ये वे दिन थे जब हम लोग- यानी शरद जोशी, रज्जू बाबू और अपन इस चक्कर में रहा करते कि परसाई जी का विवाह करवा दिया जाए. इंदौर के एक कॉलेज में हिंदी साहित्य पढ़ाने वाली प्राध्यापिका हमारी नजर में थीं. उनकी भी काफी उम्र हो गई थी और वे भी परसाई जी की तरह कुंआरी रह गई थीं. परसाई जी की पहले मां चल बसी थीं फिर पिता. पांच भाई-बहनों में वे सबसे बड़े थे. परिवार का भार उन्हीं पर था इसलिए वे पहले बहनों की शादी करना चाहते थे. सबसे बड़ी बहन की शादी की और फिर अपनी करने की सोचते उसके पहले वे विधवा हो गईं. उनका परिवार पालने में परसाई जी कुंआरे रह गए.
हमें जाने क्यों भरोसा था कि प्राध्यापिका को दिखा कर हम परसाई जी को शादी के लिए तैयार कर लेंगे. मालूम नहीं नागपालों के दिए गए उस भोज में वे प्राध्यापिका निमंत्रित थीं या नहीं. लेकिन वहां अगर उनने परसाई जी को देखा होता तो कम से कम वे तो तैयार नहीं होतीं. न हुए उस भोज से हमारी निराशा दुहरी थी. एक तो पहली बार परसाई जी को ऐसे रूप में देखा जिसमें कभी देखा नहीं था, न देखना बर्दाश्त कर सकते थे. अपने संस्कारों में उलाल होने वाले आदमी के लिए सम्मान टिक पाना मुश्किल था. प्रेम शायद फिर भी बच रहता. लेकिन उनके पिए होने की स्थिति और भोज के बिगड़ने ने हमें उतना अपसेट नहीं किया जितना इस बात ने कि इसके बाद परसाई जी के ब्याह की बात चलाने की हिम्मत नहीं रही. फिर कभी कोशिश नहीं की कि परसाई जी को उस स्थिति के परे ले जाते जहां उनकी सलाह उन्हीं के काम न आती.
अब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो लगता है कि उस भोज के बाद मेरे मन में जो हुआ वह बचकाना था. मुझे मालूम नहीं था कि आदमी क्यों पीता है और ऐसी बुरी तरह क्यों पीता है? अनुभव से इतना बालक था कि ऐसे पीने को आम बात मान नहीं सकता था. ऐसा नहीं था कि परसाई जी को ऐसे ओटाले पर बैठा रखा था कि उन्हें देखकर मन में उनकी मूर्ति टूट गई हो. मालूम था कि वे खुद ही मूर्ति भंजक हैं. फिर भी सच कहूं-उस भोजन के बाद जैसे उनके अपने बीच का दूध फट गया.
फिर अपन भोपाल आए और वहां से दिल्ली आ गए. परसाई जी का लिखा तो पढ़ने मिल जाता लेकिन यह भी सुनने को मिलता कि वे बहुत काम करवाने लगे हैं. हर किसी की मदद करना, हर किसी के लिए चिट्ठी लिख देना, हर किसी की पैरवी करना तो उनके स्वभाव और उनकी बनावट में था. हमारे मन्ना (भवानी प्रसाद मिश्र) भी इसी तरह किसी का भी काम करवाने को तैयार रहते थे और फिर उलझन में पड़ जाते थे.
दोनों में यह समानता थी. शायद इसलिए कि दोनों होशंगाबाद जिले के नजदीक गांवों में जन्मे थे. मन्ना टिकरिया में और परसाई जमानी में. मनोहर नायक ने बताया परसाई जी अपने को मन्ना वाले अखाड़े का ही पट्ठा मानते थे. ‘हम लोग एक ही मिट्टी पर कुश्ती लड़के निकले हैं.’ हालांकि भवानी बाबू परसाई जी से कोई ग्यारह साल बड़े थे. लेकिन एक ही अखाड़ा दोनों का रहा होगा यह जानने के लिए तो भवानी बाबू की कविता और परसाई जी का व्यंग्य पढना ही काफी है. शायद उस अखाड़े में ‘जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख’ की सहज ललक थी इसीलिए किसी की भी मदद में लग जाते थे.
लेकिन परसाई जी के बारे में जो बात सबसे परेशान कर गई वह दिल्ली में यह सुनना कि वे काम करवाने के पैसे भी ले लेते हैं. अपने को मालूम नहीं, न अपने को भरोसा होता लेकिन इंदौर, भोपाल, जबलपुर आदि का कोई परिचित आता तो ऐसे किस्से सुनाता. परसाई जो को छुटभैया नेताओं, विधायकों जैसा काम करवाने वाला मानना अपने लिए संभव नहीं था. शरद जोशी को सत्ता से छड़क पड़ती थी. परसाई जी सत्ता के आसपास रहने का बुरा नहीं मानते थे. लेकिन किसी सत्ताधारी की वे तारीफ़ करें या उससे वे कोई काम करवा लें ऐसा हो नहीं सकता.
मेरे लिए यह अचरज की बात थी कि व्यंग्य लेखक और हिंदी के-शायद भारत के- सबसे अच्छे व्यंग्यकार होते हुए वे इमरजेंसी और सेंसरशिप जैसी दमनकारी कार्रवाई का समर्थन कैसे कर सकते थे?
इसलिए अपन ने किसी आने जाने वाले से पूछना ही बंद कर दिया. नई दुनिया और इंदौर में रहते हुए जिन परसाई जी को जाना था उन्हीं को सुरक्षित रखने की शायद यह कोशिश थी. इसीलिए उनके बाथरूम में गिर जाने, रीढ़ की हड्डी टूट जाने, इलाज करवाने के बावजूद ठीक से चल न पाने की ख़बरें मिलने पर उनसे मिलने दौड़ जाने की इच्छा नहीं हुई.
लेकिन दूर रहने का एक और बड़ा कारण था. परसाई जी ने इमरजेंसी का समर्थन किया था. मालूम था कि वे जेपी का मखौल उड़ाने वाले लेखक थे लेकिन ऐसे लोग तो सर्वोदय आंदोलन में भी थे. यह भी मालूम था कि वे इंदिरा गांधी के प्रशंसकों में थे. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तो इमरजेंसी का समर्थन किया ही था और परसाई जी भी करते तो अचरज नहीं होना चाहिए था.
लेकिन परसाई अगर सिर्फ भाकपाई होते तो कुछ नहीं होते. वे पहले और हमेशा लेखक थे. उसमें भी व्यंग्य लेखक और हिंदी के- शायद भारत के - सबसे अच्छे व्यंग्यकार. वे इमरजेंसी और सेंसरशिप जैसी दमनकारी कार्रवाई का समर्थन कैसे कर सकते थे? राजनैतिक पाखंड, वैचारिक पाखंड और व्यवहार के पाखंड के धुर्रे बिखेरने वाला परसाई जी से प्रखर कोई लेखक अपनी भाषा में नहीं हुआ. उन्हें इमरजेंसी का पाखंड क्यों नहीं दिखा? जो लोग जेपी के विरोधी थे उन्हें भी इमरजेंसी रास नहीं आई. फिर हमारे हरिशंकर परसाई को क्या हो गया था?
अपने पास इसका कोई उत्तर और औचित्य नहीं है. लेकिन इसके बावजूद अपने परसाई अपने अंदर अभी सुरक्षित हैं. मैंने कहा कि अपना एक और पवन का खंबा गिर गया और जीवन खंडहर में और मलबा जम गया. अपन इस मलबे में कुछ और दब गए हैं. थोड़ी ऑक्सीजन दो, थोड़ा सा पानी मुंह में डाल दो. नहीं, गंगाजल अभी नहीं. (satyagrah.scroll.in)
-अशोक वाजपेयी
(इब्राहीम अलकाज़ी ने हिन्दी रंगमंच को भारतीय रंगमंच का उल्लेखनीय अंग बनाया तो मुकुंद लाठ हिन्दी में गंभीर दार्शनिक चिंतन करने वाले लगभग आखिरी मूर्धन्य थे)
इब्राहीम अलकाज़ी
रंगकर्मी, रंगगुरु, कलाकार, कलाप्रोत्साहक, कलासंग्राहक, इब्राहीम अलकाज़ी का देहावसान सचमुच युगान्त है. उन्होंने बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सांस्कृतिक भारत के रूपाकार को गढ़ने, समझने और प्रसारित करने में बहुत महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका निभायी. स्वतंत्र और लोकतांत्रिक भारत का, सांस्कृतिक बहुलता से समृद्ध भारत का आधुनिक रंगमंच और रूपंकर कला क्या-कैसे होंगे इसका एक सशक्त विकल्प उनके रंगकर्म से उभरा. यथार्थवाद को रंगव्यापार में अलकाज़ी ने जो परिष्कार, तीक्ष्णता और सौष्ठव दिया वह अपने आप में एक प्रतिमान बन गया. उनका रंगमंच यथार्थवादी शास्त्र का एक बहुत सक्षम और कुशल संस्करण था.
इब्राहीम अलकाज़ी द्वारा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दीक्षित अभिनेताओं और निर्देशकों की बड़ी संख्या है और उनमें से अधिकांश ने अपने ढंग से भारतीय रंगमंच को आगे बढ़ाया है. यह उल्लेखनीय है कि उनके शिष्यों में से अनेक ने, जैसे ब व कारन्त, नीलम मानसिंह, रतन थियाम आदि ने यथार्थवादी रंगमंच से अलग राहें चुनीं. उन्हें अपने गुरु से अलग रास्ता चुनने की स्वतंत्रता और निर्भीकता भी, निश्चय ही, गुरु अलकाज़ी की ही देन रही होगी. शम्भु मित्र, हबीब तनवीर, ब व कारन्त, कावलम पणिकर के बाद अलकाज़ी का निधन युगान्त है. ‘अब न रहे वे पीने वाले, अब न रही वह मधुशाला’.
हिन्दी रंग-संसार को अलकाज़ी के प्रति गहरी कृतज्ञता इस कारण भी है कि उनके निर्देशन में ‘अन्धा युग’ (धर्मवीर भारती), ‘आषाढ़ का एक दिन’ (मोहन राकेश) जैसे हिन्दी नाटकों की रंगप्रस्तुतियों ने हिन्दी रंगमंच को भारतीय रंगमंच का उल्लेखनीय अंग बनाया जिसे आगे बढ़ाया उन्हीं के शिष्य कारन्त, मोहन महर्षि, बी एस शाह, भानु भारती, बंसी कौल, एम के रैना, अमाल अलाना, कीर्ति जैन, अनुराधा कपूर आदि ने. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से मुक्त होने के बाद अलकाज़ी ने आर्ट हैरिटेज़ नामक कलावीथिका खोली जिसमें कई दशकों से श्रेष्ठ और प्रतिभाशाली कलाकारों की प्रदशनियां होती आयी हैं. वहां की सुघरता और चयन में कल्पनाशीलता, कलाकारों के चुनाव में जोखिम ले सकने का माद्दा कला-जगत् में प्रतिमान ही बन गये.
अलकाज़ी के यहां किसी भी स्तर पर ढीलेपन, काम चलाऊ रुख़ की कोई जगह नहीं बन सकी. कलाकर्म में हर घटक पर पूरा ध्यान होना चाहिये यह शिक्षा उनसे कइयों ने ग्रहण की. ब्योरों में जाने से न ऊबना, साफ़-सफ़ाई, घण्टों काम करके भी थकान अनुभव न करना आदि ऐसे गुण हैं जो अलकाज़ी ने अपने कर्म से सिखाये. उनके बारे में यह सही है कि आने वाली नस्लें हम पर रश्क करेंगी कि हमने अलकाज़ी को, उनके काम को देखने का सौभाग्य पाया था.
हंसमुख विद्वत्ता
मुकुन्द लाठ से जब पहली मुलाक़ात दशकों पहले हुई थी तो वे सहज हंसमुख और शालीन लगे थे. यह पहला प्रभाव अन्त तक वैसा ही बना रहा. वे विद्वान् थे, दर्शन और संस्कृति के, परम्परा और आधुनिकता के, शास्त्रीय संगीत और आधुनिक कला के ऐसे विशेषज्ञ थे जो उनमें उठने वाले गम्भीर प्रश्नों को लगातार सम्बोधित करते थे और बहुत प्रेषणीय गद्य में विवेचन और विश्लेषण, सप्रमाण, करते रहे. वे न तो परम्परा से, न ही आधुनिकता से कभी आतंकित हुए. उनकी दोनों की समझ बहुत गहरी और प्रश्नाकुल थी. वे उन थोड़े से मर्मज्ञों में थे जो परम्परा और आधुनिकता को निरन्तरता में देख और समझ-समझा पाते थे. हिन्दी में साफ़-सुधरे गद्य में गम्भीर दार्शनिक चिन्तन करने वाले वे लगभग आखि़री मूर्धन्य थे. शास्त्रीय संगीत और नृत्य, नाट्य शास्त्र, आधुनिक कला आदि में फैली उनकी रुचि और समझ का वितान इतना विस्तृत था कि कोई दूसरा उदाहरण याद नहीं आता.
उनसे बरसों का घनिष्ठ परिचय, संवाद और दूर रहकर भी सहज साहचर्य था. वे संवेदनशील कवि और बहुत सर्जनात्मक अनुवादक थे. उन्होंने पृथ्वी सूक्त का जो सुन्दर अनुवाद किया है वह रज़ा पुस्तकमाला में जल्दी ही प्रकाशित हो रहा है. उनके साहित्य और अन्य कलाओं पर निबन्धों का एक संचयन ‘भावन’ इसी पुस्तकमाला के अन्तर्गत प्रकाशित हो चुका है. कलाप्रेमी होने के साथ-साथ मुकुन्द जी बड़े कलासंग्राहक भी थे. उनका आधुनिक भारतीय कलाकारों का निजी संग्रह ऐसे संग्रहों में अद्वितीय है. उनसे जयपुर में उनके अत्यन्त सुकल्पित निवास पर आखि़री भेंट पिछली जनवरी में तब हुई थी जब उनके निजी संग्रह को देखने फ्रांस के कई संग्रहालयों के विशेषज्ञ आये थे और उस संग्रह की विविधता और सुरुचिपूर्ण चयन को चकित भाव से देख रहे थे.
हिन्दी में दार्शनिक विमर्श की एक पत्रिका ‘उन्मीलन’ भी मुकुन्द जी ने अपने साधनों से निकाली और उसमें लगातार दर्शन संबंधित मौलिक सामग्री लिखते और प्रकाशित करते रहे. ‘धर्मसंकट’ पर उनका चिन्तन बेजोड़ है और हमारी परम्परा से लेकर आज तक उसकी क्या स्थिति और परिणति रही है इस पर विस्तार से विचार करता है. मुकुन्द जी ने गहरी रसिकता और समझ से ‘राम की शक्तिपूजा’, अज्ञेय, रमेशचन्द्र शाह, ज्योत्स्ना मिलन आदि की कृतियों और यशदेव शल्य के काव्य-विमर्श पर लिखा है. पश्चिम के कलाचिन्तन से भारतीय कला चिन्तन कहां और कैसे अलग है इसकी बड़ी सटीक पहचान और तर्क-तथ्य-संगत समझ मुकुन्द जी को थी और वे उसका गम्भीर विश्लेषण कर पाये थे, वह भी अन्यथा विचार-विपन्न हिन्दी में. शास्त्रीय संगीत पर मुकुन्द जी ने जिस सघन विचारशक्ति के साथ लिखा है वह हिन्दी में तो अद्वितीय है ही, भारतीय संगीत परिदृश्य में भी बेजोड़ है. उनके देहावसान से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का आखि़री मूर्धन्य शास्त्री चला गया. उनके अलावा और किसने यह कहा है - ‘... संगीत, नृत्य, और साहित्य, शिल्प किसी एक को समझने के लिए दूसरे में उतरना आवश्यक है इन कलाओं के आत्मबोध में (इनके शास्त्र और चिन्तन में) भी यह परस्पर भाव स्पष्ट है.’
अन्तःकरण का गणतन्त्र
दशकों पहले साम्यवादी सत्ताओं के रहते पोलिश और चैक कवियों हेर्बेत और होलुव के हवाले से आयरिश कवि शीयस हीनी ने अन्तःकरण के गणतन्त्र की अवधारणा की थी. हमारे यहां धूमिल ने लगभग तभी ‘दूसरे प्रजातन्त्र’ की तलाश की बात की थी. व्यापक रूप से यह मान्य है कि लगभग तभी मुक्तिबोध ने अपनी मार्क्सवादी प्रतिबद्धता में अन्तःकरण की अवधारणा जोड़ी थी.
आज की कविता किस हद तक, वर्तमान सत्ता के निरंकुश व्यवहार और असहमति को द्रोह मानने की नीति के चलते, अन्तःकरण का गणतन्त्र बन पा रही है, यह सोचने का मन करता है. हेर्बेत और होलुब दोनों ही अपने देशों में रहे थे - वे उसे छोड़कर कहीं गणतन्त्र की तलाश में नहीं गये थे. लगभग कगार पर ढकेल दिये जाने के बावजूद किसी लेखक या कवि ने तंग आकर भारत छोड़ा नहीं है. इसका सीधा अर्थ यही है कि अगर अन्तःकरण का गणतन्त्र रूपायित होना है तो यहीं होना है, अन्यत्र नहीं.
आज की कविता के बड़े हिस्से में प्रतिरोध बुजुर्गों और अधेड़ों के ज़िम्मे आ पड़ा है. युवा लेखकों के बड़े हिस्से पर रोज़मर्रा की मुश्किलें, बाधाएं, अत्याचार, हिंसा आदि कोई प्रभाव नहीं डालते ऐसा संभव नहीं है. युवा पीढ़ी में, फिर भी, अपेक्षाकृत बहुत थोड़े हैं जिनका अन्तःकरण निर्भीक और साहसी कविता में चरितार्थ हो रहा है. ज़ाहिर है कि अन्तःकरण कविता में घोषणा या वक्तव्य की आसानी से चस्पां की जा सकने वाली हरकत का सहारा नहीं लेगा - वह जीवन्त ब्योरों में, जीवन-छवियों, क्रियाओं आदि में चरितार्थ होगा, आकार लेगा. वह बार-बार क़समें नहीं खायेगा बल्कि हलफ़ उठायेगा तो, बिना कोई रियायत मांग-चाहे, भाषा और शिल्प में शिरकत, साहचर्य, आत्माभियोग आदि के बिम्बों-अभिप्रायों में मुखर होगा, सक्रिय भी. (satyagrah)
जन्मदिन
कविता
आजकल महानगरों के कुछ ‘अतिकुलीन’ परिवारों में चलन शुरू हुआ है कि बच्चे अपने अभिभावकों को मम्मी-पापा कहने के बजाय उनका नाम लेते हैं। इस चलन के पीछे तर्क है कि एक उम्र के बाद मां-बाप बच्चों के दोस्त हो जाने चाहिए और वे जब दोस्त होंगे तो संबोधन भी बदल जाएगा। हो सकता है यही तर्क हो या इससे आगे की बात लेकिन, यह जानकारी आम पाठकों को हैरान करती है कि भीष्म साहनी की बेटी कल्पना अपने पिता को हमेशा भीष्म जी कहती थीं और इसपर कभी भीष्म साहनी को ऐतराज नहीं हुआ।
दरअसल यही सहजता इस महान लेखक की काबिलियत थी और इसी ने उन्हें अपने और दूसरे इंसानों के अंतर्मन में छिपी कुरूपताओं और विरोधाभासों से नजर मिलाने की समझ दी थी। ऐसा न होता तो ‘तमस’ जैसी कृति कभी न रची जाती। भीष्म साहनी को 1975 में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। इसी वर्ष वे पंजाब सरकार के शिरोमणि लेखक पुरस्कार से सम्मानित किए गए। उन्हें 1980 में एफ्रो-एशिया राइटर्स एसोसिएशन का लोटस अवॉर्ड और 1983 में सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड दिया गया था। 1986 में भीष्म साहनी को पद्मभूषण अलंकरण से भी विभूषित किया गया। इन बड़े पुरस्कारों और सम्मानों की सूची बस यह बताने के लिए है कि पाठकों की तारीफें मिलने के साथ-साथ बतौर लेखक समाज-सरकार भी उन्हें सराहते रहे हैं फिर भी उनकी सहजता-सरलता कभी कम नहीं हुई। शायद इसी कारण उन्होंने जिस भी विधा को छुआ, कुछ अनमोल उसके लिए छोड़ ही गए। कहानियों में चाहे वह ‘चीफ की दावत’, हो या फिर ‘साग मीट’, उपन्यास में ‘तमस’ और नाटकों में ‘हानूश’ और ‘कबिरा खड़ा बजार में’ जैसी अनमोल कृतियां।
भीष्म साहनी की बेटी कल्पना बताती हैं, ‘वो जो कुछ भी लिखते थे सबसे पहले मेरी मां को सुनाते थे। मेरी मां उनकी सबसे पहली पाठक और सबसे बड़ी आलोचक थीं’
भीष्म साहनी के व्यक्तित्व की सहजता-सरलता वाले आयाम पर उनकी बेटी कल्पना साहनी की वह बात बेहद दिलचस्प है जो उन्होंने अपने पिता के आखिरी उपन्यास ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ के विमोचन के मौके पर कही थी। यहां उन्होंने बताया, ‘वो जो कुछ भी लिखते थे सबसे पहले मेरी मां को सुनाते थे। मेरी मां उनकी सबसे पहली पाठक और सबसे बड़ी आलोचक थीं। इस उपन्यास को भी मां को सौंपकर भीष्म जी किसी बच्चे की तरह उत्सुकता और बेचैनी से उनकी राय की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब मां ने किताब के ठीक होने की हामी भरी तब जाकर उन्होंने चैन की सांस ली थी।’
‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ सन 2000 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था और यह एक अद्भुत संयोग है कि उसी वक़्त इस प्रकाशन से दो और बड़े लेखकों के उपन्यास प्रकाशित हुए, निर्मल वर्मा का ‘अंतिम अरण्य’ और कृष्णा सोबती का ‘समय सरगम’। ध्यान देने वाली बात यह थी कि जहां अन्य दो लेखकों के उपन्यास के केंद्र में उनकी वृद्धावस्था और उसके एकांतिक अनुभव थे, वहीं भीष्मजी की किताब के केंद्र में एक प्रेमकथा थी। तब अंतर्धार्मिक प्रेम और विवाह के लिए ‘ऑनर किलिंग’ पहली बार किसी उपन्यास या कहें कि एक बड़े कद के लेखक की किताब का केंद्रबिंदु बनी थी।
भीष्मजी के आखिरी उपन्यास में तमस वाली वही साम्प्रदायिकता थी और उससे लड़ते हुए कुछ असहाय और गिनेचुने लोग, पर कथा के विमर्श का फलक कुछ नया सा था। यहां न सोबती जी के उपन्यास का केंद्र-मृत्यु से लडऩे का वह महान दर्शन स्थापित हो रहा था, न निर्मल जी के लेखन में पाया जाने वाला आत्मचिंतन। ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ के केंद्र में तत्कालीन समाज और उसकी जटिलताएं और उनसे पैदा होने वाली समस्याएं थीं। दरअसल यह भीष्मजी के लेखन की विशेषता थी जहां वे जीवन की सच्चाई से आंख मिलाते थे और उनके माध्यम से पाठक भी ऐसा कर पाते थे। आलोचक नामवर सिंह ने भीष्म साहनी के लिए कहा था, ‘हैरानी होती है यह देखकर कि रावलपिंडी से आया हुआ आदमी जो पेशे से अंग्रेज़ी का अध्यापक था और जिसकी भाषा पंजाबी थी, वह हिंदी साहित्य में एक प्रतिमान स्थापित कर रहा था’
समाज को इस तरह देखने का काम मुंशी प्रेमचंद ने भी अपनी रचनाओं में किया लेकिन भीष्म साहनी का देखा-समझा समाज प्रेमचंद के आगे के समय का समाज है। साथ ही भीष्म जी ने अपनी भाषा में वैसी ही सादगी और सहजता रखी जो रचनाओं को बौद्धिकों के दायरे निकालकर आम लोगों तक पहुंचा देती है। यदि विष्णु प्रभाकर की अद्भुत रचना ‘आवारा मसीहा’ के बजाय तमस को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो इसकी एक वजह इस उपन्यास की वह भाषा भी होगी जिससे विषय की मार्मिकता लोगों को दिलों तक पहुंच जाती है। आलोचक नामवर सिंह ने भीष्म साहनी के लिए कहा था, ‘मुझे उनकी प्रतिभा पर आश्चर्य होता है कि कॉलेज में पढ़ते हुए वे लिखने, प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुडऩे का समय निकाल लेते थे। मैं यह नहीं कहता कि उनकी सभी रचनाओं का स्तर ऊंचा है लेकिन अपनी हर रचना में उन्होंने एक स्तर बनाए रखा। हैरानी होती है यह देखकर कि रावलपिंडी से आया हुआ आदमी जो पेशे से अंग्रेजी का अध्यापक था
और जिसकी भाषा पंजाबी थी, वह हिंदी साहित्य में एक प्रतिमान स्थापित कर रहा था।’
यह भी एक दिलचस्प बात है कि कहानी-उपन्यास में प्रेमचंद के साथ खड़े भीष्म साहनी जब नाटक लिखते हैं तो फिर उनके समकालीन और पहले के लेखकों में ढूंढने पर भी कोई एक नाम उनके साथ खड़ा नजर नहीं आता। बाद में जरूर मोहन राकेश ने नाटक लिखे थे लेकिन इस विधा के इतने प्रभावशाली होने के बावजूद भीष्मजी के किसी समकालीन लेखक ने नाटक लेखन में हाथ नहीं आजमाया।
भीष्म साहनी के पहले नाटक ‘हानूश’ से जुड़ा भी एक दिलचस्प वाकया है। यह लिखने के पहले तक वे हिंदी के प्रतिष्ठित कहानीकार-उपन्यासकार बन चुके थे। पर जब उन्होंने पहली बार नाटक लिखा तो इसे लेकर उनके मन में कई तरह के संदेह आ गए। इसी वजह से वे ‘हानूश’ को लेकर अपने बड़े भाई और फिल्म अभिनेता बलराज साहनी के पास जाते थे, और वहां से खारिज होकर हरबार मुंह लटकाए वापस आते थे। बाद में उन्होंने यह नाटक एक थियेटर निर्देशक को दिया लेकिन उसने भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। आखिरकार भीष्म जी ने वह किताब मूल रूप में ही प्रकाशित करवाई। उन्होंने हानूश की भूमिका में इन सब वाकयों का मजे के साथ वर्णन किया है।
वैसे भीष्म साहनी के मन-मस्तिष्क में ‘तमस’ के लेखन बीज पड़वाने में उनके बड़े भाई बलराज साहनी का भी योगदान था। एक बार जब भिवंडी में दंगे हुए तो भीष्म साहनी अपने बड़े भाई के साथ यहां दौरे पर गए थे। यहां जब उन्होंने उजड़े मकानों, तबाही और बर्बादी का मंजर देखा तो उन्हें 1947 के दंगाग्रस्त रावलपिंडी के दृश्य याद आ गए। भीष्म साहनी फिर जब दिल्ली लौटे तो उन्होंने इन्हीं घटनाओं को आधार बनाकर तमस लिखना शुरू किया था। ‘तमस’ सिर्फ दंगे और कत्लेआम की कहानी नहीं कहता। वह उस सांप्रदायिकता का रेशा-रेशा भी पकड़ता है जिसके नतीजे में ये घटनाएं होने लगती हैं। उतनी भयावह न सही लेकिन आज हमारे आसपास जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं वे इस उपन्यास और भीष्म साहनी जैसे लेखकों को और प्रासंगिक बना देती हैं। (satyagrah.scroll.in)
आजकल मुझे कुछ अपरिचित औरतें
जाने क्यों बहुत याद आ रही है
जैसे वह जिसने ट्रेन में मेरे साथ
अपना खाना बांटकर खाया था
वह जिसने रेगिस्तान में मेरी प्यास महसूस कर
अपना पानी का बोतल मुझे थमा दिया था
वह जिसने अपने बेटे को गोद में बिठाकर
बस की अपनी एक सीट मुझे दे दी थी
वह जिसने पहाड़ से फिसलते वक्त
सहारा देकर मुझे गिरने से बचा लिया था
वह जिसने देर शाम बर्फीली वादियों में
अपना छोटा-सा होटल खोलकर मुझे
मिर्च की चटनी के साथ गर्म मोमो खिलाया था
यहां तक कि वह औरत भी
जो मेट्रो की भीड़-भाड़ में एक बार
मुझे एकटक घूरते देखकर मुस्कुराई थी
और मैं बुरी तरह झेंप गया था
ऐसी और भी औरतें हैं
मेरे जीवन में जिनकी कोई बड़ी भूमिका नहीं
मगर वे इन दिनों बहुत याद आने लगी हैं
क्या यह चौतरफ़ा महामारी में
जीवन के प्रति कम हो रहे भरोसे का असर है ?
जो बात तब कहना जरूरी नहीं लगा था मुझे
मुझे लगता है मुझे अब कह देनी चाहिए
सुन रही हो तुम सब ?
मुझे तुम सबसे बहुत प्यार है।
-ध्रुव गुप्त
-हरिशंकर परसाई
पोथी में लिखा है - जिस दिन राम, रावण को परास्त करके अयोध्या आए, सारा नगर दीपों से जगमगा उठा। यह दीपावली पर्व अनन्तकाल तक मनाया जाएगा। पर इसी पर्व पर व्यापारी बही-खाता बदलते हैं और खाता-बही लाल कपड़े में बांधी जाती है।
प्रश्न है - राम के अयोध्या आगमन से खाता-बही बदलने का क्या सम्बन्ध? और खाता-बही लाल कपड़े में ही क्यों बांधी जाती है?
बात यह हुई कि जब राम के आने का समाचार आया तो व्यापारी वर्ग में खलबली मच गई। वे कहने लगे - ‘सेठ जी, अब बड़ी आफत है। भरत के राज में तो पोल चल गई। पर राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वे टैक्स की चोरी बर्दाश्त नहीं करेंगे। वे अपने खाता-बही की जांच करेंगे। और अपने को सजा होगी।’
एक व्यापारी ने कहा, ‘भैया, अपना तो नम्बर दो का मामला भी पकड़ लिया जाएगा।’
अयोध्या के नर-नारी तो राम के स्वागत की तैयारी कर रहे थे, मगर व्यापारी वर्ग घबरा रहा था।
अयोध्या पहुंचने के पहले ही राम को मालूम हो गया था कि उधर बड़ी पोल है। उन्होंने हनुमान को बुलाकर कहा - सुनो पवनसुत, युद्ध तो हम जीत गए लंका में, पर अयोध्या में हमें रावण से बड़े शत्रु का सामना करना पड़ेगा - वह है, व्यापारी वर्ग का भ्रष्टाचार। बड़े-बड़े वीर व्यापारी के सामने परास्त हो जाते हैं। तुम अतुलित बल - बुद्धि निधान हो। मैं तुम्हें इनफोर्समेंट ब्रांच का डायरेक्टर नियुक्त करता हूं। तुम अयोध्या पहुंचकर व्यापारियों की खाता-बहियों की जांच करो और झूठे हिसाब पकड़ो। सख्त से सख्त सजा दो।
इधर व्यापारियों में हडक़ंप मच गया। कहने लगे - अरे भैया, अब तो मरे। हनुमान जी इनफोर्समेंट ब्रांच के डायरेक्टर नियुक्त हो गए। बड़े कठोर आदमी हैं। शादी-ब्याह नहीं किया। न बाल, न बच्चे। घूस भी नहीं चलेगी।
व्यापारियों के कानूनी सलाहकार बैठकर विचार करने लगे। उन्होंने तय किया कि खाता-बही बदल देना चाहिए। सारे राज्य में ‘चेंबर ऑफ कामर्स’ की तरफ से आदेश चला गया कि ऐन दीपोत्सव पर खाता-बही बदल दिए जाएं।
फिर भी व्यापारी वर्ग निश्चिन्त नहीं हुआ। हनुमान को धोखा देना आसान बात नहीं थी। वे अलौकिक बुद्धि संपन्न थे। उन्हें खुश कैसे किया जाए ? चर्चा चल पड़ी -
- कुछ मुट्ठी गरम करने से काम नहीं चलेगा?
- वे एक पैसा नहीं लेते।
- वे न लें, पर मेम साब?
- उनकी मेम साब ही नहीं हैं। साहब ने ‘मैरिज’ नहीं की। जवानी लड़ाई में काट दी।
-कुछ और शौक तो होंगे ? दारु और बाकी सब कुछ ?
- वे बाल ब्रह्मचारी हैं। काल गर्ल को मारकर भगा देंगे। कोई नशा नहीं करते। संयमी आदमी हैं।
- तो क्या करें ?
- तुम्हीं बताओ, क्या करें ?
किसी सयाने वकील ने सलाह दी - देखो, जो जितना बड़ा होता है वह उतना ही चापलूसी पसंद होता है। हनुमान की कोई माया नहीं है। वे सिन्दूर शरीर पर लपेटते हैं और लाल लंगोट पहनते हैं। वे सर्वहारा हैं और सर्वहारा के नेता। उन्हें खुश करना आसान है। व्यापारी खाता-बही लाल कपड़ों में बांध कर रखें।
रातों-रात खाते बदले गए और खाता-बहियों को लाल कपड़े में लपेट दिया गया।
अयोध्या जगमगा उठी। राम-सीता-लक्ष्मण की आरती उतारी गई। व्यापारी वर्ग ने भी खुलकर स्वागत किया। वे हनुमान को घेरे हुए उनकी जय भी बोलते रहे।
दूसरे दिन हनुमान कुछ दरोगाओं को लेकर अयोध्या के बाज़ार में निकल पड़े।
पहले व्यापारी के पास गए। बोले, खाता-बही निकालो। जांच होगी।
व्यापारी ने लाल बस्ता निकालकर आगे रख दिया। हनुमान ने देखा - लंगोट का और बस्ते का कपड़ा एक है। खुश हुए,
बोले - मेरे लंगोट के कपड़े में खता-बही बांधते हो?
व्यापारी ने कहा- हां, बल-बुद्धि निधान, हम आपके भक्त हैं। आपकी पूजा करते हैं। आपके निशान को अपना निशान मानते हैं।
हनुमान गद्गद हो गए।
व्यापारी ने कहा - बस्ता खोलूं। हिसाब की जांच कर लीजिए।
हनुमान ने कहा - रहने दो। मेरा भक्त बेईमान नहीं हो सकता।
हनुमान जहां भी जाते, लाल लंगोट के कपडे में बंधे खाता-बही देखते। वे बहुत खुश हुए। उन्होंने किसी हिसाब की जांच नहीं की।
रामचंद्र को रिपोर्ट दी कि अयोध्या के व्यापारी बड़े ईमानदार हैं। उनके हिसाब बिलकुल ठीक हैं।
हनुमान विश्व के प्रथम साम्यवादी थे। वे सर्वहारा के नेता थे। उन्हीं का लाल रंग आज के साम्यवादियों ने लिया है।
*पर सर्वहारा के नेता को सावधान रहना चाहिए कि उसके लंगोट से बुर्जुआ अपने खाता-बही न बांध लें*
-दिनेश श्रीनेत
ली फॉक की तमाम खूबियों के बावजूद उन पर नस्लवाद का आरोप लगता है और यह माना जाता है कि वेताल और मेण्ड्रेक कहीं न कहीं उसे स्थापित करते थे। गौर करें तो यह पॉपुलर कल्चर के साथ हमेशा से दिक्कत रही है। टार्जन भी इस आरोप से बरी नहीं हुआ और कुछ हद तक टिनटिन भी। साठ और सत्तर के दशक में छपने वाले हर जासूसी उपन्यास में खलनायक चीनी होता था। इब्ने सफी भी इसका अपवाद नहीं हैं।
वेताल की परिकल्पना किसी राजवंश जैसी है जो पीढ़ी दर पीढ़ी अफ्रीका के जंगलों में आदिवासियों पर राज करता है। वहीं मेण्ड्रेक का सहयोगी लोथार एक ब्लैक है और उसका खानसामा एक एशियाई। देखा जाए तो ली फॉक ने कोई क्रांति नहीं की मगर वे एक लिबरल अवश्य थे जिसकी आज इस राजनीतिक वैचारिक धु्रवीकरण के दौर में सबसे ज्यादा जरूरत है। वेताल यानी फैंटम कभी खुद को जंगलों का मालिक नहीं समझता। उसने खुद को जंगल का सेवक और संरक्षक माना। वेताल आधुनिक पश्चिमी सभ्यता का आलोचक है। समुद्री लुटेरों के हमले में नष्ट जहाज से बच निकले उसके पुरखे ने न सिर्फ खुद के लिए जंगल में रहने का विकल्प चुना था बल्कि उसकी आने वाली 21 पीढिय़ों ने भी उसी परंपरा और विचारधारा का पालन किया। जंगल की सुरक्षा के लिए बने गश्ती सेना
केंद्र का सर्वोच्च मुखिया यानी सेनापति वेताल था। उसके नीचे लंबे समय तक रहे कर्नल वीक्स के बाद अश्वेत कर्नल वोरेबू को पद सौंपा गया।
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यहां पर मैं वेताल की एक ऐसी कॉमिक्स का जिक्र करूंगा जिसने अमरीका में गुलामी प्रथा के प्रति बचपन में ही मेरा दृष्टिकोण काफी स्पष्ट कर दिया था। ‘आदमफरोश’ के नाम के से यह कॉमिक्स प्रकाशित तो 1977 में ही हो गई थी मगर तब मैं अक्षर ज्ञान हासिल ही कर रहा था। तो बाद के सालों में करीब 9-10 साल की उम्र और उसके बाद भी मैं बार-बार इस कॉमिक्स को पढ़ता रहा तो यह धीरे-धीरे समझ में आती गई।
इस कहानी का आरंभ होता है 1776 से जब दुनिया में गुलामों का व्यापार जोरों पर था। अफ्रीका में हमला करते श्वेत लुटरों की पूरे पेज की तस्वीर के साथ लिखा होता है, ‘18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गुलामों का व्यापार जोरों पर था। अनेक समुद्र डाकू अफ्रीका से लोगों को पकडक़र ले जाते थे। उनका सामना किया केवल एक आदमी ने- वह था 1776 का वेताल।’ नैरेशन खत्म होता है और सुबह के धुंधलके में कमर में तलवार खोंसे एक जंगल का एक अश्वेत चीखता हुआ भाग रहा है, ‘वेताल! वेताल!! वेताल से मिलना जरूरी है...’ पता चलता है थोंगी गांव पर हमला हुआ है और सरदार के बेटे के साथ कई लोगों को लुटेरे पकडक़र ले गए। वेताल गांव के सरदार से मिलने जाता है जो बूढ़ा और बीमार है। वह उसे वचन देता है कि बरसात से पहले उसके बेटे को लेकर आएगा। सूत्र सिर्फ एक है। आदिवासियों ने एक नाम सुना था व्रूले।
व्रूले यानी व्लास्को व्रूले... इस बदनाम डाकू से वेताल की मुठभेड़ पहले भी हो चुकी थी। उसे पता था व्रूले का जहाज मार्काडोस में होगा, एक बंदरगाह, जहां लुटेरों और डाकुओं का स्वागत होता है। वेताल एक नाविक के वेश में छानबीन करता है और फिर उसे पता चलता है कि व्रूले अमरीका की तरफ चल पड़ा है। वेताल खुद भी व्रूले के एक दोस्त के जहाज पर नौकरी करते हुए पीछे-पीछे अमरीका रवाना हो जाता है। अनंत सागर में उड़ते परिंदों के बीच पुरानी पालों वाला जहाज चल पड़ता है। इस रवानगी को बड़े ही खूबसूरत शब्दों में बयान किया गया है, ‘सूरज की पहली किरण फूटने के साथ सागर कूकर धीमी गति से मार्काडोस के बंदरगाह से निकला। पछायीं हवा उसके पुराने पालों में भर गई। इससे जहाज में नई जान पड़ गई और वह हरहराती लहरों को चीरता हुआ चल पड़ा। नाविक वॉकर जहाज से सागर तट की ओर ताक रहा था। धीरे-धीरे तट आँखों से ओझल हो गया तब उसने अनंत सागर पर दृष्टि दौड़ाई।’ यह एक अद्भुत गद्य है मानों जॉन स्टेनबेक या हरमन मेलविल का कोई उपन्यास पढ़ रहे हों।
व्रूले का पता चल जाता है मगर वह बताता है कि उसने कब्जे में आए सारे अश्वेत एक दलाल को बेच दिए हैं। आगे लिखते हैं, ‘काफी सोना साथ में लेकर वेताल ने अपने और व्रूले के लिए जो बेचारा थर-थर कांप रहा था- घोड़ागाड़ी भाड़े पर ली। गाड़ी खडख़ड़ाती हुई पिकेटबरो की सडक़ों पर चल पड़ी।’ वे आधी रात को उस दलाल वाटली के घर में दाखिल होते हैं। वहां सन्नाटा छाया है। वेताल ने मोमबत्ती जलाई तो पता चलता है कि वाटली के सीने में किसी छूरा घोंप दिया है। अभी वे हालात को समझने का प्रयास करते हैं कि परदे के पीछे से क्वेंच निकलता है।
यह वही शख्स है जिसके साथ वेताल ने वेश बदलकर व्रूले का पीछा किया था, उसे भनक लग गई थी कि वेताल किसी मकसद से अमरीका जा रहा है। आपसी झगड़े में व्रूले धोखे से क्वेंच को गोली मार देता है और उसके बाद वेताल पर हमला करता है। वह अपनी भारी-भरकम तलवार से वेताल पर भारी पड़ रहा होता है मगर तभी घायल क्वेंच व्रूले को गोली मार देता है। कमरे में तीन लाशें पड़ी होती हैं। घड़ी मे रात के दो बजने की आवाज आती है और वेताल की तलाश अभी अधूरी है। वहां मिले कुछ कागजात के आधार पर वह अपनी खोज जारी रखता है।
अंतत: वह उस युवक को खोज लेता है, जिसकी तलाश में उसने इतना लंबा सफर तय किया था। वेताल का एक अमरीकी दोस्त इसमें उसक मदद करता है। वेताल चाहता है वह बाकी लोगों को भी छुड़ाकर ले जाए मगर फिलाडेल्फिया का उसका दोस्त जो चेहरे-मोहरे और अलमारी में सजी अपनी किताबों से एक कानूनविद लगता है उसे समझाता है। यह लंबा संवाद कुछ इस तरह है, ‘कई वर्ष पहले तुमने मुझे पेरिस में चोरों से बचाया था। वे छह थे और तुम अकेले। लेकिन गुलामों को छुडाऩे का प्रयत्न किया तो एक तरफ तुम अकेले होगे और दूसरी तरफ एक पूरा राष्ट्र। इस राष्ट्र में आजादी की लड़ाई चल रही है। तुम अपनी जान व्यर्थ में गंवाओगे। अपने देश लौट जाओ वहां तुम ज्यादा अच्छे काम कर सकते हो। अपनी लड़ाई वहीं जारी रखो। कल इसी शहर में बड़े महत्व के दस्तावेज पर दस्तखत किए जाएंगे। तुम देखना उस कार्रवाई को और स्वतंत्रता तथा स्वाधीनता का संदेश अपने देश ले जाना।’
वेताल उस युवा को लेकर अफ्रीका वापस आता है। अंतिम दृश्य में एक ऊंची पहाड़ी पर कबीले के सरदार का साथी सवाल करता है, ‘आगे क्या होगा हम लोगों का? और उस देश में क्या होगा जिसका नाम है अमरीका?’ वेताल का जवाब आता है, ‘मुझे आंशिक सफलता ही मिली तथापि मैंने जो देखा उससे मुझे पूरा विश्वास है कि गुलामी की प्रथा का कलंक एक दिन मिटकर रहेगा। इसमें वर्षों लगेंगे... शायद सैकड़ों बरस लग जाएं परंतु जब तक वह दिन नहीं आएगा वेताल चैन से नहीं बैठेगा।’
यह कॉमिक्स का आखिरी फे्रम था। ये अनोखी कहानी इतिहास की अनिवार्यता को चिह्नित करती है और परिवर्तन के प्रति उम्मीद जगाती है। कितनी भी बड़ी और ताकतवर सत्ता हो, बदलाव की बयार के आगे उसे नेस्तनाबूद होना पड़ता है। कहानी यह भी बताती है कि किस तरह हर परिवर्तन के पीछे मु_ी भर लोग होते हैं जो अंधेरी रात को किसी बैठक या सूनी सडक़ों पर अपनी कोशिशें जारी रखते हैं। डार्क नॉयर शैली में रेखांकन वाली इस कॉमिक्स ऐतिहासिक नैरेटिव और नाटकीय घटनाक्रम का अद्भुत संतुलन है। हम एक बार फिर मान जाते हैं कि कहानी बयान करने में ली फॉक का कोई जवाब नहीं। (फेसबुक)
-दिनेश श्रीनेत
इंद्रजाल कॉमिक्स में जाहिर तौर पर ली फॉक के किरदार ही छाए रहे, मगर बीच का एक दौर ऐसा था जब इसने कुछ नए और बड़े ही दिलचस्प कैरेक्टर्स से भारतीय पाठकों से रू-ब-रू कराया। मैं उन्हीं किरदारों पर कुछ चर्चा करना चाहूंगा। कॉमिक्स की बढ़ती लोकप्रियता के चलते 1980 में टाइम्स ग्रुप ने इसे पाक्षिक से साप्ताहिक करने का फैसला कर लिया। यानी हर हफ्ते एक नया अंक। शायद प्रकाशकों के सामने हर हफ्ते नई कहानी का संकट खड़ा होने लगा। 1981-82 में अचानक इंद्रजाल कॉमिक्स ने किंग फीचर्स सिंडीकेट की मदद से चार-पांच नए किरदार इंट्रोड्यूस किए। मेरी उम्र तब करीब नौ-दस बरस की रही होगी। मुझे ये किरदार बहुत भाए। इसकी एक सबसे बड़ी वजह यह थी कि ये सारे कैरेक्टर वास्तविकता के बेहद करीब थे। उन कहानियों में हिंसा बहुत कम थी और वे एक खास तरीके से नैतिक मूल्यों का समर्थन करते थे।
सबसे पहले जो कैरेक्टर सामने आया वह था कमांडर बज सॉयर का। कमांडर सॉयर की पहली स्टोरी इंद्रजाल कॉमिक्स में ‘खूनी षडय़ंत्र’ थी। दृतीय विश्वयुद्ध में यूएस नेवी का एक फाइटर पायलट की सिविलियन लाइफ देखने को मिलती थी। सॉयर की उम्र आम नायकों से ज्यादा था। जो कहानियां मैंने पढ़ीं उनमें उसकी उम्र 45-50 के बीच रही होगी। कमांडर सॉयर की कहानियों की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि उनके किरदार वास्तविक जीवन से उठाए हुए होते थे। इनके नैरेशन में ह्मयूर का तडक़ा होता था। इनमें से कई कहानियां क्राइम पर आधारित नहीं होती थीं। कई बार वे सोशल किस्म की कहानियां होती थीं। इनमें मानवीय भावनाओं का हल्के-फुल्के ढंग से चित्रण किया जाता था, बासु चटर्जी की फिल्मों की तरह। उदाहरण के लिए एक कहानी सिर्फ इतनी सी थी कि एक बिल्ली का बच्चा पेड़ पर चढ़ जाता है और उतरने का नाम नहीं लेता। फायर ब्रिगेड वाले भी कोशिश करके हार जाते हैं। आखिर कमाडंर सॉयर पेड़ पर चढक़र उसे पुचकार कर उतारते हैं। इसी तरह से एक अकेली विधवा मां और उसके बच्चे की कहानी, अनजाने में अपराधी बन गए दो बच्चों की कहानी जिस शीर्षक था ‘मासूम गुनाह’... ये बज सॉयर के कुछ यादगार अंक हैं, जिन पर कभी लिखना चाहूँगा। आम तौर पर इनका कैनवस अमेरिकन गांव हुआ करते थे।
इसके तुरंत बाद दूसरा कैरेक्टर इंट्रोड्यूस हुआ था कैरी ड्रेक का। ड्रेक एक पुलिस आफिसर था। यहां भी कुछ खास था। पहली बात किसी भी कॉमिक्स मे कैरी ड्रेक बहुत कम समय के लिए कहानी में नजर आता था। अक्सर ये कहानियां किसी दिलचस्प क्राइम थ्रिलर की बुनावट लिए होती थीं। इन कहानियों का मिजाज जेम्स हेडली चेज़ के उपन्यासों के बहुत करीब होता था। साथ ही हर कहानी के किरदारों पर काफी मेहनत की जाती थी। अक्सर कैरी ड्रेक की कहानियों में अपराधी किसी प्रवृति के चलते अपराध नहीं करते थे। परिस्थितियां उन्हें अपराध की तरफ ढकेलती थीं और वे उनमें फंसते चले जाते थे। इन कहानियों का सीधा सा मॉरल यह था कि अगर अनजाने में भी आपने गुनाह की तरफ कदम बढ़ा लिए तो आपको अपने जीवन में उसकी एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी और तब पछतावे के सिवा कुछ हाथ नहीं लगे। कुछ अपनी जिद, तो कुछ अपनी गलत मान्यताओं के कारण अपराध के दलदल में फंसते चले जाते थे। हर कहानी में एक केंद्रीय किरदार होता था। उसके इर्द-गिर्द कुछ और चरित्र होते थे। उन्हें बड़ी बारीकी से गढ़ा जाता था। अब मैं उन तमाम चरित्रों को याद करता हूं तो यह समझ मे आता है कि उसके रचयिता ने तमाम मनोवैज्ञानिक पेंच की बुनियाद पर उन्हें सजीव बनाया जो कि वास्तव में एक कठिन काम है और हमारे बहुत से साहित्यकार भी इतने वास्तविक और विश्वसनीय चरित्र नहीं रच पाते।
इसके बाद बारी आती है रिप किर्बी की। आंखों पर चश्मा, पाइप, किताबों और पुरातत्व में दिलचस्पी, सभ्य और शालीन और साथ में बॉक्सिंग का शौकीन। यह एक प्राइवेट डिटेक्टिव था मगर ज्यादा सॉफिस्टिकेटेड और अरबन मिजाज वाला- कुछ-कुछ शारलॉक होम्स जैसा। इंद्रजाल कॉमिक्स में रिप किर्बी की पहली कहानी हिन्दी में ‘रहस्यों के साये’ और अंग्रेजी में ‘द वैक्स ऐपल’ के नाम से प्रकाशित हुई थी। साफ-सुथरे रेखांकन वाली इन कहानियों मे एक्शन बहुत कम होता था। मुझे रिप किर्बी की एक कहानी आज भी याद है, जिसमें रिप किर्बी और उनका सहयोगी एक ऐसे टापू पर जा पहुंचते हैं जो अभी भी 1830 के जमाने में जी रहा है। बाहरी दुनिया से उनका संपर्क हमेशा के लिए कट चुका है। वहां पर अभी भी घोड़ा गाड़ी और बारूद भरकर चलाई जाने वाली बंदूके हैं।
इस पूरी सिरीज में मुझे सबसे ज्यादा पसंद माइक नोमेड था। अभी तक मैंने किसी भी पॉपुलर कॉमिक्स कैरेक्टर का ऐसा किरदार नहीं देखा जो बिल्कुल आम आदमी हो। उसके भीतर नायकत्व के कोई गुण नहीं हों। यदि आपने नवदीप सिंह की पहली फिल्म ‘मनोरमा सिक्स फीट अंडर’ देखी हो तो अभय देओल के किरदार में आप बहुत आसानी से माइक नोमेड को आइडेंटीफाई कर सकते हैं। यह इंसान न तो बहुत शक्तिशाली है, न बहुत शार्प-तीक्ष्ण बुद्धि वाला, न ही जासूसी इसका शगल है। माइक नोमेड के भीतर अगर कोई खूबी है तो वह है ईमानदारी। अक्सर माइक को रोजगार की तलाश करते और बे-वजह इधर-उधर भटकते दिखाया जाता था।
एक और कैरेक्टर था गार्थ का। इस किरदार का संसार सुपरनैचुरल ताकतों से घिरा था। गार्थ अन्य कैरेक्टर्स के मुकाबले थोड़ा वयस्क अभिरुचि वाला था। इस कॉमिक्स में काफी न्यूडिटी भी होती थी। कहानियां बहुत ही पॉवरफुल होती थीं और उतना ही शानदार और एक्सपेरिमेंटल रेखांकन। कॉमिक्स फ्रेम-दर-फ्रेम चित्रों के माध्यम से कहानी कहने कला है। गुफाओं में मिलने वाले पाषाणकालीन रेखांकन से लेकर आधुनिक सिनेमा तक कहानी इसी बुनियादी रूप में कही जाती है। इसका उत्कृष्ट रूप गार्थ में देखने को मिलता था। गार्थ के रचयिताओं ने कई बेहतरीन क्राइम थ्रिलर भी दिए हैं। इसमें से एक तो इतना शानदार है कि बॉलीवुड उसकी नकल पर एक शानदार थ्रिलर बन सकती है। कहानी है जुकाम के उत्परिवर्ती वायरस की जो बेहतर घातक है (कुछ-कुछ कोरोना वायरस की तरह), इसकी खोज करने वाले प्रोफेसर की हत्या हो जाती है। प्रोफेसर की भतीजी, गार्थ और गार्थ के प्रोफेसर मित्र इस मामले का पता लगाने की कोशिश करते हैं। पता लगता है कि कुछ सेवानिवृत अधिकारियों और रसूख वालों ने अपराधियों को खत्म करने का जिम्मा उठाया है, एक गोपनीय संगठन के माध्यम से। वे एक के बाद एक अपराधियों को पहचान कर उन्हें ठिकाने लगाने में जुटे हैं। यह रोमांचक तलाश उन्हें ले जाती है हांगकांग तक, जहां एक बेहतर खूबसूरत माफिया सरगना इस त्रिकोणीय संघर्ष का हिस्सा बनती है। संगठन से जुड़े लोग हांगकांग की सडक़ों पर मारे जाते हैं और उनका सरगना अपना मिशन फेल होने पर आत्महत्या कर लेता है। यह कहानी साध्य और साधन के नैतिक प्रश्न का सामना भी करती है और अंत में स्थापित करती है कि सही मकसद के लिए भी गलत रास्ते को अपनाने का अंजाम बुरा ही होता है।
इंद्रजाल की इस श्रंृखला का आखिरी कैरेक्टर था सिक्रेट एजेंट कोरिगन। इस सिरीज के तहत प्रकाशित कहानियां दो किस्म की थीं। दोनों के चित्रांकन और कहानी कहने का तरीका बेहद अलग था। पहला वाला बेहद उलझाऊ और दूसरा बहुत ही सहज और स्पष्ट। पहले किस्म की कोरिगन की कहानियों को पढक़र समझ लेना मेरे लिए उन दिनों एक चुनौती हुआ करता था। उन्हें पढऩे के लिए विशेष धैर्य की जरूरत पड़ती थी, लगभग गोदार की फिल्मों की तरह। इसके रचयिता कम फे्रम में बात कहने की कला में माहिर थे। मगर नैरेशन की कला का वे उत्कृष्ट उदाहरण थीं इनमें कोई शक नहीं। वहीं दूसरे किस्म की कहानियां को एक अच्छी पटकथा के बरक्स रखा जा सकता था। कोरिगन पर कभी विस्तार से बात होगी। (फेसबुक)
22 मार्च को भारत में हुए जनता कर्फ्यू और 24 मार्च से लगातार चल रहे लॉकडाऊन के बीच साहित्य के पाठकों की एक सेवा के लिए देश के एक सबसे प्रतिष्ठित साहित्य-प्रकाशक राजकमल, ने लोगों के लिए एक मुफ्त वॉट्सऐप बुक निकालना शुरू किया जिसमें रोज सौ-पचास पेज की उत्कृष्ट और चुनिंदा साहित्य-सामग्री रहती थी। उन्होंने इसका नाम ‘पाठ-पुन: पाठ, लॉकडाऊन का पाठाहार’ दिया था। अब इसे साप्ताहिक कर दिया गया है। इन्हें साहित्य के इच्छुक पाठक राजकमल प्रकाशन समूह के वॉट्सऐप नंबर 98108 02875 पर एक संदेश भेजकर पा सकते हैं। राजकमल प्रकाशन की विशेष अनुमति से हम यहां इन वॉट्सऐप बुक में से कोई एक सामग्री लेकर ‘छत्तीसगढ़’ के पाठकों के लिए सप्ताह में दो दिन प्रस्तुत कर रहे हैं। पिछले दिनों से हमने यह सिलसिला शुरू किया है।
यह सामग्री सिर्फ ‘छत्तीसगढ़’ के लिए वेबक्लूजिव है, इसे कृपया यहां से आगे न बढ़ाएं।
-संपादक
‘सच्ची रामायण’ पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला
-अनुवादक
देविना अक्षयवर
देविना अक्षयवर का जन्म 22 जून, 1985। मॉरीशस में जन्मीं देविना अक्षयवर ने नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से ‘समकालीन स्त्री उपन्यास-लेखन में राजनीतिक चेतना (1990-2010)’ विषय पर पीएच.डी. की उपाधि हासिल की है। डॉ. गणपत तेली के साथ ‘आधुनिक भारत के इतिहास लेखन के कुछ साहित्यिक स्रोत’ (2016) पुस्तकों का सह-सम्पादन किया है। विभिन्न राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में इनकी समीक्षात्मक रचनाएँ एवं लेख प्रकाशित होते हैं।
(9 दिसम्बर, 1969 को उत्तर प्रदेश सरकार ने ई.वी. रामासामी नायकर ‘पेरियार’ की अंग्रेजी पुस्तक ‘रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ व उसके हिन्दी अनुवाद ‘सच्ची रामायण’ को जब्त कर लिया था, तथा इसके प्रकाशक पर मुकदमा कर दिया था। इसके हिन्दी अनुवाद के प्रकाशक उत्तर प्रदेश-बिहार के प्रसिद्ध मानवतावादी संगठन अर्जक संघ से जुड़े लोकप्रिय सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता ललई सिंह यादव थे। उन्होंने ‘सच्ची रामायण’ का प्रकाशन 1968 में किया था।
बाद में उत्तर भारत के पेरियार नाम से चर्चित हुए ललई सिंह ने जब्ती के आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट मेंचुनौती दी। वे हाईकोर्ट में मुकदमा जीत गए। सरकार ने हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई तीन जजों की खंडपीठ ने की। खंडपीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर थे तथा दो अन्य न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती और सैयद मुर्तज़ा फज़़ल अली थे।
सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले पर 16 सितम्बर, 1976 को सर्वसम्मति से फैसला देते हुए राज्य सरकार की अपील को खारिज कर दिया।
निम्नांकित सुप्रीम कोर्ट के अंग्रेजी में दिए गए फैसले के प्रासंगिक अंशों का अनुवाद है।)
भारत का सर्वोच्च न्यायालय उत्तर प्रदेश राज्य बनाम ललई सिंह यादव
याचिकाकर्ता : उत्तर प्रदेश राज्य बनाम प्रत्यर्थी : ललई सिंह यादव
निर्णय की तारीख : 16 सितम्बर, 1976
पूर्णपीठ : कृष्ण अय्यर, वी.आर. भगवती, पी.एन.फज़ल अली सैयद मुर्तज़ा
निर्णय : आपराधिक अपीली अधिकारिता: आपराधिक अपील संख्या 291, 1971
(इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिनांक 19 जनवरी, 1971 के निर्णय और आदेश से विशेष अनुमति की अपील। विविध आपराधिक केस संख्या 412/70)
अपीलकर्ता की ओर सेडी.पी. उनियाल तथा ओ.पी. राणा। प्रत्यर्थी की ओर से एस.एन. सिंह सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय कुछ मामले ऊपर से दिखने में अहानिकर लग सकते हैं; किन्तु वास्तविक रूप में ये लोगों की स्वतंत्रता के संदर्भ में अत्यधिक चिंताजनक समस्याएँ पैदा कर सकते हैं। प्रस्तुत अपील उसी का एक उदाहरण है। इस तरह की समस्याओं से मुक्त होकर ही ऐसे लोकतंत्र की नींव पड़ सकती है, जो आगे चलकर फल-फूल सके।
इस न्यायालय के समक्ष यह अपील विशेष अनुमति से उत्तरप्रदेश की राज्य सरकार द्वारा की गई है। अपील तमिलनाडु के दिवंगत राजनीतिक आंदोलनकर्ता तथा तर्कवादी आन्दोलन के नेता पेरियार ई.वी.आर. द्वारा अंग्रेजी में लिखित ‘रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ नामक पुस्तक और उसके हिन्दी अनुवाद की जब्ती के आदेश के संबंध में की गई है। अपील का यह आवेदन दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 99-ए के तहत दिया गया है। अपीलकर्ता उत्तर प्रदेश सरकार के अनुसार [जब्ती की अधिसूचना इसलिए जारी की गई है क्योंकि], ‘यह पुस्तक पवित्रता को दूषित करने तथा अपमानजनक होने के कारण आपत्तिजनक है। भारत के नागरिकों के एक वर्ग, हिन्दुओं के धर्म और उनकी धार्मिक भावनाओं को अपमानित करते हुए जान-बूझकर और दुर्भावनापूर्ण तरीके से उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने की मंशा [इसमें] है। अत: इसका प्रकाशन धारा 295 एआईपीसी के तहत दंडनीय है।’ [उत्तर प्रदेश सरकार ने अपनी] अधिसूचना में सारणीबद्ध रूप में एक परिशिष्ट प्रस्तुत किया है, जिसमें पुस्तक के अंग्रेज़ी और हिन्दी संस्करणों के उन प्रासंगिक पृष्ठों तथा वाक्यों का सन्दर्भ दिया गया है, जिन्हें संभवत: अपमानजनक सामग्री के रूप में देखा गया है। उत्तरप्रदेश सरकार की इस अधिसूचना के बाद प्रत्यर्थी प्रकाशक [ललई सिंह] ने धारा 99-सी के तहत [इलाहाबाद] उच्च न्यायालय को आवेदन भेजा था। उच्च न्यायालय की विशिष्ट पीठ ने उनका आवेदन स्वीकार किया तथा सच्ची रामायण पर प्रतिबंध लगाने और इसकी जब्ती करने से संबंधित उत्तरप्रदेश सरकार की अधिसूचना को खारिज कर दिया। [इलाहाबाद] उच्च न्यायालय द्वारा [उपरोक्त अधिसूचना को खारिज करना] के निर्णय से असन्तुष्ट राज्य सरकार ने विशेष अनुमति से इस न्यायालय (सर्वोच्च न्यायालय) में अपील दायर की है। अपीलकर्ता के अधिवक्ता ने हमारे समक्ष जोर देकर कहा कि ‘सरकार की अधिसूचना में ऐसा कोई दोष नहीं है, जिसके कारण उच्च न्यायालय ने उसे अमान्य घोषित किया गया है।’ राज्य सरकार के अधिवक्ता ने यह भी कहा कि ‘चूँकि इस विवादित पुस्तक के लेखक ने कठोर शब्दों में श्रीराम जैसे महान अवतारों की निंदा की है और सीता तथा जनक की छवि को तिरस्कारपूर्वक धूमिल किया है, इसीलिए यह पुस्तक इन समस्त दैवीय महाकाव्यात्मक चरित्रों की आराधना या पूजा करने वाले विशाल हिन्दू समुदाय की धार्मिक भावनाओं पर अनुचित प्रहार करती है। लेखक का यह कार्य निंदनीय है।’
[लेकिन] उच्च न्यायालय ने बहुमत से इन तर्कों को किनारे लगाते हुए सरकारी आदेश को इस आधार पर निरस्त कर दिया कि ‘राज्य सरकार ने धारा 99-ए के अनुसार अपनी अधिसूचना में उन तथ्यों का विवरण नहीं दिया है, जिनके आधार पर उसने किताब के बारे में [उपरोक्त] राय बनाई। [राज्य सरकार का कहना है कि] सिर्फ इसी एकमात्र कारण से उसे याचिका की अनुमति दी जानी चाहिए और इलाहाबाद [उच्च न्यायालय] के आदेश को खारिज कर दिया जाना चाहिए।
[लेकिन धारा 99-ए से संबंधित] प्रावधान में तीन ऐसी स्थितियों [का जिक्र] है, जो नागरिकों द्वारा सृजित रचनाओं को जब्त करने का अधिकार देती हैं। इसके तीन प्रासंगिक भागों को [हम] पुन: उद्धृत कर रहे हैं:-
‘99 ए (1): कोई समाचार पत्र या पुस्तक अथवा कहीं से भी मुद्रित ऐसा दस्तावेज, जिसमें निहित सामग्री या कोई अंश राज्य सरकार को भारत के नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच दुश्मनी या घृणा की भावनाओं को बढ़ावा देता हुआ या देने की मंशा रखता हुआ प्रतीत हो, या जिसका उद्देश्य जान-बूझकर और दुर्भावनापूर्ण रूप से किसी भी ऐसे वर्ग के धार्मिक विश्वासों का अपमान कर उसकी धार्मिक भावनाओं को आहत करना हो। अर्थात, कोई भी सामग्री; जिसका प्रकाशन भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए, धारा 153-ए या धारा 295-ए के तहत दंडनीय है। राज्य सरकार अपनी राय का आधार बताते हुए, आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना द्वारा ऐसी सामग्री का प्रसार करने वाले समाचार पत्र, पुस्तक या अन्य दस्तावेज की हर प्रति को जब्त करनेका आदेश दे सकती है।’
अत: एक प्रामाणिक आदेश के त्रिपक्षीय पहलू इस प्रकार हैं:-
(1) कि पुस्तक या दस्तावेज में कोई सामग्री हो।
(2) ऐसी सामग्री या तो भारत के नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच शत्रुता या घृणा की भावनाओं को बढ़ावा देती हो या देने का इरादा रखती हो।
(3) तथा सरकार ने [सामग्री के संबंध में अपनी] राय किन तथ्यों के आधार पर बनाई, इसका विवरण दिया जाए।
[उपरोक्त तीन पहलुओं को परखने के] पश्चात् ही राज्य सरकार अधिसूचना के माध्यम से ऐसी सामग्री का प्रचार करने वाली पुस्तक या दस्तावेज की सभी प्रतियों को जब्त करने का आदेश देसकती है।
[इस न्यायालय के सामने प्रश्न यह है कि] क्या [उत्तर प्रदेश सरकार की उपरोक्त] अधिसूचना वैधानिक तौर पर अनिवार्य उपरोक्त तीसरी माँग (सरकार ने सच्ची रामायण की प्रतियों की जब्ती की राय किन आधारों पर बनाई, इसका विवरण दिया जाए) को पूरा करती है या फिर यह कारणों [जब्ती के कारणों] के विवरण के अभाव में अपनी वैधता खो देती है? इसी तीसरी माँग जैसे महत्वपूर्ण तत्व की कमी को देखते हुए [इलाहाबाद] उच्च न्यायालय ने [राज्य सरकार द्वारा दिए गए जब्ती के] आदेश को खारिज कर दिया [था]। परन्तु सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील, मि. उनियाल ने [हमारे समक्ष] कहा है कि यद्यपि सरकार की राय के आधार का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है; तथापि [राज्य सरकार द्वारा जारी अधिसूचना के साथ संलग्न] परिशिष्ट द्वारा इसकी पूर्ति हो जाती है।
उनका तर्क है कि आपत्तिजनक पुस्तक के पृष्ठों तथा पंक्तियों की संख्या मामलेके ‘विषयवस्तु’ तथा ‘आधार’ दोनों पर प्रकाश डालती है; खासकर ‘आधार’ तो इतना प्रत्यक्ष है कि उसे किनारे लगाना असंगत है। राज्य के अधिवक्ता का कहना है कि यह ऐसा मामला है, जिसका पर्याप्त रूप से विस्तृत विवरण दिया जा चुका है। यह विवरण चाहे विशिष्ट रूप से दिया गया हो, चाहे अन्तर्निहित अर्थ के माध्यम से अथवा निहितार्थ द्वारा, ये विवरण कानूनी आवश्यकता को पूरा करते हैं तथा इनसे सरकारी निष्कर्ष का आधार अथवा कारण प्रस्तुत करने की आवश्यकता काफी हद तक पूरी हो जाती है। हालाँकि, औपचारिक तौर पर न सही, लेकिन [उनका कहना है कि यह आवश्यकता] परिशिष्ट से पूरी हो जाती है।
उन्होंने यह भी कहा है कि परिशिष्ट भी आदेश का एक अभिन्न अंग है, जो स्वत: ही स्पष्ट सामग्री प्रस्तुत कर देता है। [उनका कहना है कि] जब कारण स्वत: स्पष्ट हों, तो चुप्पी बहुत कुछ कह जाती है और कानून महज औपचारिकता की पूर्ति के लिए उनकी अलग से व्याख्या करने की माँग नहीं करता है। [उत्तरप्रदेश सरकार के अधिवक्ता की उपरोक्त दलीलों का प्रतिवाद करते हुए इस न्यायालय ने कहा कि] दंड संहिता द्वारा अभिव्यक्ति की मौलिक स्वतंत्रता पर रोक लगाने की शर्तों को निहितार्थ के सुविधाजनितवाद के सिद्धांत द्वारा कमजोर नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह शर्त बहुत सोच-समझकर लगाई गई है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की मूल प्रकृति के मद्देनजर विशिष्ट प्रावधानों के सख्त और प्रकट अनुपालन के बिना इसे बाधित नहीं किया जाना चाहिए।
आखिरकार एक मुक्त गणराज्य में सभी मौलिक अधिकार मौलिक होते हैं, सिर्फ राष्ट्रीय आपातकाल के समय को छोडक़र। क्योंकि आपातकाल के समय संवैधानिक रूप से स्वीकृत कठोर प्रतिबंधों को सीमित कर दिया जाता है। हमारे विचार के केन्द्र में दंड प्रक्रिया संहिता और दंड संहिता हैं और ये कानून हर समय लागू रहते हैं। इसलिए हमें कानून की व्याख्या इस तरह से करनी होगी कि संविधान और कानूनों में निर्धारित देश की सुरक्षा-आवश्यकताओं को पूरा करते हुए भी स्वतंत्रता को पूर्ण रूप से संरक्षित रखा जा सके।
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[लेकिन] अपीलकर्ता के वकील का तर्क है कि जब्त किताब में दिए गए संदर्भ श्री राम, सीता और जनक के इतने कठोर तरीके से प्रतिकारक हैं और इनकी ऐसी निंदा करते हैं कि न्यायालय को उत्तर प्रदेश के हिन्दुओं की अपमानित भावनाओं की कल्पना स्वयं कर लेनी चाहिए तथा यह मान लेना चाहिए कि आदेश में कारणों को अदृश्य स्याही से लिखा गया है। [सरकारी वकील के] इन तर्क की महत्ता का आंकलन करते हुए, हमें दो बिंदुओं पर ध्यान देना होगा (अ) संवैधानिक परिप्रेक्ष्य, अर्थात क्या मौलिक स्वतंत्रता को कानूनी रूप से बाधित करने की कोशिश की जा रही है; और (ब) प्रकाशित सामग्री के बारे में आमतौर पर लोग जो विचार रखते हैं, उससे भिन्न अन्य तरह के विचारों की संभावनाएँ भी मौजूद हैं। ये संभावनाएँ सरकार लिए उन परिस्थितियों और कारणों का विवरण देना अनिवार्य बना देती हैं; जिस आधार पर सरकार ने प्रकाशित सामग्री के बारे में राय कायम की और उसे जब्त करने का निर्णय लिया।
भारत में राज्य धर्मनिरपेक्ष है और उसका हमारे बहुलतावादी समाज में प्रचलित किसी एक या अन्य धर्म की आस्थाओं से कोई सीधा सरोकार नहीं है। लेकिन, वह मात्र शान्ति और लोक-व्यवस्था के उल्लंघन के विरुद्ध समाज का संरक्षण और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ही बाध्य नहीं है; बल्कि वह ऐसी स्थिति बनाए रखने के लिए भी बाध्य है, जिसमें अशिष्ट भाषा में लिखित लेख या आपत्तिजनक प्रकाशन भिन्न या विरोधी मान्यताओं के लोगों की भावनाओं को इस तरह आहत न करें, जिससे ये जनसमूह हिंसक कृत्यों की ओर प्रवृत्त हों। अच्छी सरकार को अनिवार्य रूप से शान्ति और सुरक्षा की दरकार होती है और जो कोई भी बम अथवा पुस्तकों के माध्यम से सामाजिक शांति भंग करता है, वह सरकार की कानूनी कार्रवाई के निशाने पर होता है।
हमारा प्रस्ताव है कि हम अपने समक्ष आए इस मसले को विषय-वस्तु की दृष्टि से तथा व्यापक परिप्रेक्ष्य दोनों ही संदर्भ में देखें और इन दोनों के समागम से इस निष्कर्ष पर पहुँचें कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय गलत नहीं था और अपील नामंजूर होनी चाहिए। भारत में विभिन्न उच्च न्यायालयों को इस [तरह के] प्रश्न पर विचार करनेका अवसर प्राप्त हुआ है; लेकिन वे अलग-अलग निष्कर्ष पर पहुँचे हैं, जैसा कि हम देख रहे हैं।
जब कानून द्वारा एक नागरिक के अधिकार पर कठोर प्रतिबंध लगाया जाता है, तो उसके पीछे एक ठोस कारण की आवश्यकता होती है। खासकर तब, जब इसके अद्र्ध-दंडात्मक (चसी पीनल) परिणाम भी होते हैं। दंड प्रक्रिया संहिता के माननीय रचयिताओं ने धारा 99-ए को इस प्रकार तैयार किया है, जिससे नागरिकों की चिन्ताओं का समाधान हो सके तथा सरकार द्वारा इसके प्रयोग पर सतर्क नियंत्रण बरता जा सके। इसके प्रावधानों का प्रयोग विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही किया जा सकता है। स्पष्ट रूप से यह धारा सरकार को ऐसे मामले में हस्तक्षेप करने के लिए बाध्य करती है, जहाँ सरकार को नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच दुश्मनी और घृणा की भावना को बढ़ावा देने के स्पष्ट और वर्तमान खतरे पर विचार करना हो अथवा इसकी प्रवृत्ति या मंशा नागरिकों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने की हो। [हालाँकि] धारा में अन्य प्रवृत्तियाँ भी व्यक्त हैं, जिनका सरोकार वर्तमान मामले से नहीं है। लेकिन, [इतना तय है कि] ऐसे मामले में सरकार अपनी राय के आधार को वर्णित करने के लिए बाध्य है। हमारा सरोकार [उपरोक्त त्रिपक्षीय पहलू के] अंतिम भाग से है।
जब [वह] धारा स्पष्टत: कहती है कि आपको यह आधार बताना होगा, तो यह कोई जवाब नहीं है कि उन्हें वर्णित करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वे अन्तर्निहित हैं।...किसी पुस्तक को दंडनीय अपराध के अन्तर्गत जब्त करना एक गंभीर मामला है; न कि उदासीनता के साथ निष्पादित किया जाने वाला एक नियमित कार्य। दंड संहिता के अनुसार इसमें की गई उपेक्षा का परिणाम इसकी वैधानिक मान्यता का खात्म होना है। [संविधान के निर्माण में निहित] ये विचार और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं जब हम राज से गणतंत्र में बदलाव को स्वीकारते हैं और लोगों को सौंपे गए महान अधिकारों के उच्च स्थान का सम्मान करते हैं। जहाँ बोलना एक संवैधानिक कर्तव्य है, वहाँ मौन रहना एक घातक अपराध है। यह बात [संविधान की] विभिन्न धाराओं को समन्वित रूप से देखने पर स्पष्ट होती है। मसलन, धारा 99-सी असन्तुष्ट पक्ष को निषेधात्मक आदेश को खारिज करने के लिए उच्च न्यायालय में आवेदन करने का अधिकार देती है और अदालत सरकारी आदेश में दिए गए कारणों की जाँच कर उसकी पुष्टि करती है या उसे खारिज करती है।
अदालत आदेश में निर्धारित कारणों से परे जाँच नहीं कर सकती है और यदि इन कारणों को पूरी तरह से निकाल दिया जाता है, तो अदालत किसकी जाँच करेगी? और, इस चूक से न्यायालय में [असन्तुष्ट पक्ष द्वारा] अपील करने का महत्वपूर्ण अधिकार अर्थहीन हो जाता है। चाहे वह चूक लापरवाही से हो या सुनियोजित रूप से। कानून जिस हद तक प्रकाशन की स्वतंत्रता देता है, यदि प्रकाशन उसी दायरे तक सीमित है; तो प्रतिबंध लगाने वाली धारा के इस्तेमाल से अदालत को असहमति जरूर प्रकट करनी चाहिए। ऐसा नहीं करने से इस तरह के खतरनाक नतीजे की संभावना पैदा होती है।
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...धारा 99-ए में दिए गए निर्देश के बावजूद राज्य को जब्ती के कारणों का विवरण देने के दायित्व से मुक्त करना लोगों की निश्चित स्वतंत्रता पर शक्ति के उपयोग का हिंसात्मक अवसर देना है। हम ऐसा क्यों कहते हैं? निश्चित रूप से राष्ट्र की सुरक्षा और समाज की शान्ति व्यक्तिगत अधिकारों पर प्रतिबंध की माँग करती है। हम चाहे स्वतंत्र क्यों न हों, फिर भी कानून के अधीन हैं।
(1) ए.आई.आर 1961 एस.सी.1662, 1666.
विरोधी मतों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हमारे संविधान निर्माताओं की आस्था मिल्स के प्रसिद्ध कथन और वाल्तेयर की प्रेरित करने वाले इस कथन का सम्मान करती थी जो इस प्रकार है-
‘यदि एक व्यक्ति को छोडक़र सम्पूर्ण मानव जाति का एक मत हो और केवल उस एक व्यक्ति का विरोधी मत हो, तो भी मानवजाति द्वारा उसको चुप करा देना न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन, यदि उस अकेले व्यक्ति में मानव जाति को मौन करने की शक्ति हो तो यह न्यायसंगत होगा। (अपने निबंध ‘ऑन लिबर्टी’ में मिल्स, पृ. 19-20: थिंकर लाइब्रेरी सं., वाट्स)’
‘तुम जो कहते हो, मैं उसे अस्वीकार करता हूँ, परन्तु तुम्हारे यह कहने के अधिकार की रक्षा, मैं अन्तिम श्वास तक करूँगा। (वाल्तेयर, एस.जी. टालंटयर, द फ्रेंड्स ऑफ वाल्तेयर, 1907)’
अधिकार और उत्तरदायित्व ‘एक जटिल प्रणाली’ है और हमारे संविधान के रचयिताओं ने स्वतंत्रता के उदारवादी प्रयोग पर तर्कसंगत प्रतिबंध निर्धारित किए; क्योंकि, वे लोग अराजकता के स्वरूप से भली-भाँति अवगत थे। संविधान सभा में डॉ. आंबेडकर ने तर्क दिया था कि यह कहना गलत है कि मौलिक अधिकारों पर कोई प्रतिबंध लगाना वर्जित है और उन्होंने गितलो बनाम न्यूयॉर्क के दो स्वत: स्पष्ट अनुच्छेदों को उद्धृत किया है; जो इस प्रकार हैं:
‘बोलने की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता एक लम्बे अरसे से स्थापित बुनियादी सिद्धान्त है, जो कि संविधान द्वारा सुरक्षित अधिकार हैं। लेकिन, यह वस्तुत: गैर-जिम्मेदाराना तरीके से बोलने या प्रकाशित करने की पूरी छूट नहीं देते हैं। हमें चुनना होगा, या तो हमें अपने भावों को व्यक्त करने का उचित अधिकार मिले, या फिर एक अप्रतिबंधित और अनियंत्रित अधिकार; जो भाषा के हरसंभव प्रयोग को उन्मुक्तता प्रदान करे और उन लोगों को दण्डित होने से बचाए, जो इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग करते हैं।’
‘सरकार पुलिस के माध्यम से अपनी शक्ति का उपयोग करते हुए उन लोगों को दण्डित कर सकती है, जो लोक कल्याण के प्रतिकूल बातें करके अपनी इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग करते हैं, जो आम जनता की नैतिकता को भ्रष्ट करने में प्रवृत्त होते हैं; अपराध करने के लिए उकसाते हैं और जन-शांति को भंग करते हैं। इस पर विवाद या संदेह नहीं किया जा सकता।...’
इस संवैधानिक सारांश से सुस्पष्ट रूप से यह व्याख्यायित हो जाता है कि संहिता की धारा 99-ए हमारा स्पष्टीकरण सिद्ध करती है। लोक व्यवस्था तथा शांति के हित में जन-शक्ति की भूमिका इसलिए नहीं होती कि बहुसंख्यक रूढि़वादियों को संतुष्ट करने के लिए चन्द रूढि़-विरोधियों का दमन किया जाए; बल्कि उसकी उपस्थिति इसलिए होती है, ताकि ऐसे विचारों को समय रहते रोका जाए, जो लोगों के दिमागों में खलबली मचा सकते हैं और उन्हें उत्पात के लिए प्रेरित कर सकते हैं। विशाल जनसमूह के बीच घृणा एवं उपद्रव जैसी भावनाएँ गुप्त रूप से हिंसा भडक़ा सकती हैं और सरकार समाज की सुरक्षा और शांति बनाए रखने के लिए अपने सुविचारित आधारों पर लिए गए निर्णय के जरिये पुस्तक के प्रसार पर रोक को वरीयता दे सकती हैं।
एक प्रबुद्ध सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने की इस शक्ति का उपयोग उन्नत आर्थिक विचारों, विवेकशील तथा तर्कसंगत आलोचनाओं या पुरातन रूढि़वादी सच्चाई को साहस के साथ सामने लाने के प्रयास को कुचलने के लिए नहीं करगी। सुव्यवस्थित सुरक्षा एक संवैधानिक मूल्य है। यदि प्रगतिशील तथा प्रतिगामी लोगों का शांतिपूर्वक सहअस्तित्व सुनिश्चित करना है, तो इसका संरक्षण समझदारी से किया जाना चाहिए। संहिता की धारा 99-ए का यही सार है।
मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध के अधिकार का वास्तविक इस्तेमाल सैद्धान्तिक तर्क पर नहीं, बल्कि व्यावहारिक ज्ञान पर निर्भर करेगा। जहाँ मौलिक अधिकारों के प्रतिबंध पर आधारित ‘सुस्पष्ट और आसन्न खतरा’ का अमेरिकी सिद्धान्त भारत में अनिवार्य रूप से लागू नहीं भी हो सकता है, वहीं होम्स जे. के ज्ञानवर्धक विचार प्रशासक और न्यायाधीश को सीख देने में सहायक हैं। शेनेक बनाम यू.एस.(1) मामले में होम्स जे. ने इस वास्तविक परीक्षण को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया है। उन्होंने कहा है—
‘हम यह मानते हैं कि कई जगहों पर और सामान्य परिस्थितियों में प्रतिवादी अपने द्वारा प्रसारित परिपत्र में जो कुछ भी कहता है, वह अपने संवैधानिक अधिकारों के दायरे में रहकर ही कहता है। लेकिन, प्रत्येक व्यवहार का स्वरूप उन परिस्थितियों पर निर्भर करता है, जिनमें वैसा व्यवहार किया जाता है।...कानून द्वारा बोलने की स्वतंत्रता की कड़ी सुरक्षा ऐसे व्यक्ति का बचाव नहीं करेगी जो थिएटर में ‘आग-आग’ चिल्लाकर भगदड़ मचाएगा। यह ऐसे व्यक्ति को दी गई निषेधाज्ञा से भी नहीं बचाती है, जो अपने शब्दों के बल से समाज पर अनुचित प्रभाव डालता हो। हर मामले में उठने वाला सवाल यह होता है कि क्या प्रयुक्त शब्द ऐसी ही परिस्थितियों में प्रयोग किए गए थे और क्या वे ऐसी प्रकृति के थे, जो प्रत्यक्ष और तात्कालिक खतरा पैदा करने वाले थे। जो वास्तविक खतरा पैदा करते हों, जिन्हें रोकने का अधिकार [अमेरिकी] कांग्रेस को है? यह खतरा कितना और किस स्तर का है, इससे जुड़ा हुआ प्रश्न है?’
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एब्राइन्स बनाम यू.एस. (2) मामलों में एक प्रसिद्ध परिच्छेद में भी उन्होंने इस सिद्धान्त को विकसित करते हुए कहा कि-
‘विचारों की अभिव्यक्ति पर दंड देना मुझे पूरी तरह से तर्कसंगत लगता है। यदि आपको अपने प्रत्युत्तर या अपनी शक्ति पर कोई संदेह नहीं है और तहे-दिल से कोई परिणाम चाहते हैं, तो आप स्वाभाविक रूप से अपनी अभिव्यक्ति कानून के दायरे में रहकर करेंगे, और वह अभिव्यक्ति विपक्ष को परास्त कर देगी। विरोध को अस्वीकार करने से यह इंगित होता है कि आप कहने को प्रभावी शक्ति नहीं मानते हैं, जैसे कि जब कोई व्यक्ति कहता है कि उसने कोई असंभव कार्य को संभव कर दिया हो, या यह कि आप परिणाम के लिए पूरे मन से परवाह नहीं करते हैं, या यह कि आपको या तो अपनी शक्ति पर या फिर अपने प्रत्युत्तर पर संदेह है। लेकिन जब मनुष्य को यह महसूस होगा कि समय के साथ कई विरोधी विचारधाराएँ औंधे मुंह गिरी हैं, तो उन्हें अपने आचरण के आधारों से भी ज्यादा विश्वास इस विचार पर हो सकेगा कि वे जिस सर्वोत्तम स्थिति की इच्छा करते हैं, वह विचारों के मुक्त आदान-प्रदान के बेहतर तरीके से हासिल की जा सकती है। सत्य की उत्तम परीक्षा तब होती है, जब मनुष्य की विचार-शक्ति को दूसरों के समक्ष रखा जा सके और उनके विचारों की अभिव्यक्ति स्वीकार की जा सके और जब उन्हें यह अहसास हो कि सत्य ही वह एकमात्र आधार है, जिस पर वे अपनी इच्छाओं को निरापद रूप से पूरा कर सकते हैं। हर हाल में वही हमारे संविधान का सिद्धान्त है। यह एक प्रयोग है, क्योंकि हमारा सम्पूर्ण जीवन ही एक प्रयोग है।’
बोमेन बनाम सेकुलर सोसाइटी लिमिटेड (2) मामले में लॉर्ड समर ने एक बार फिर आलंकारिक भाषा में लिखित एक परिच्छेद में स्वतंत्रता तथा सुरक्षा की गतिशीलता को रेखांकित किया था, जो कि एक साथ बोधगम्य हैऔर सुरुचिपूर्ण भी-
(1) (1918) 249 यू.एस. 47.52=63 एल.ई.डी. 470.473-474.
(2) (1919) 250 यू.एस. 616, 629=63 एल.ई.डी. 1173, 1180.
(3) (1917) ए.सी. 406, 466-7.
‘समाज को खतरे में डालने वाले शब्द तथा कृत्य समय-समय पर अनुपात में भिन्न होते हैं। क्योंकि, वास्तव में समाज स्थिर या असुरक्षित होता है, या उसके विवेकशील सदस्य यह मानते हैं कि उस पर हमला हो सकता है। वर्तमान समय में ऐसी सभाओं तथा जुलूसों को कानूनी तौर पर वैध माना जाता है, जिन्हें डेढ़ सौ साल पहले राजद्रोही माना जाता था और ऐसा इसलिए नहीं है कि कानून कमजोर पड़ गया है या बदल गया है; बल्कि इसलिए कि समय के बदलने से समाज पहले से ज्यादा सशक्त हुआ है।’
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वर्तमान समय में विवेकशील मनुष्यों को समाज के विघटन या पतन का डर नहीं होता; क्योंकि धर्म पर सार्वजनिक तौर पर जिन युक्तियों से चोट की जाती है, वे अवमाननापूर्ण नहीं होतीं। इसकी कोई संभावना नहीं है कि भविष्य में हमारे समाज की महत्वपूर्ण संस्थाओं को क्षीण करने के लिए अभिकल्पित धर्म-विरोधी हमले जनसाधारण के लिए खतरा पैदा करनेके दोष से अपने आप में अपराध सिद्ध होंगे। कानून की नजर में एक दिशा में आगे बढऩे वाला विचार खुद को नए अनुभवों के आधार पर दूसरी दिशा में मुडऩे से नहीं रोकता, न ही परिस्थितियों के फिर से बदलने पर वह अपनी उत्तरवर्ती पीढिय़ों को बाँधे रखता है।
आखिर, किसी भी मत का समाज के लिए खतरा होना, समय तथा वास्तविकता पर निर्भर है। मैं ऐसा कुछ नहीं कहना चाहूँगा, जिससे समाज का खुद को आवश्यकतानुसार खतरों से बचाव करने का कानूनी अधिकार सीमित हो जाए। लेकिन, इतना कहना चाहूँगा कि जो अनुभव कभी खतरे को वास्तविक सिद्ध करते थे, अब नगण्य हो चुके हैं; और जो खतरे कभी बहुत निकट महसूस होते थे, अब टल गए हैं। सामान्य नियमों के अनुसार ईश्वर-निन्दा और अधर्म जैसा कुछ भी नहीं होता...जो हमें अपने समय में उस अनुभव के अनुसार विशेष परिस्थितियों में उन्हें लागू करने के अलग-अलग तरीकों को अपनाने से रोक सके।’
ऐसी है हमारी संवैधानिक योजना। ऐसी विधिशास्त्र संबंधी गतिशीलता और स्वतंत्रता एवं संयम के तात्विक आधार। कानून एवं राजनीति के सूक्ष्म संगम की संवेदनशीलता को न्यायाधीशों को कर्तव्यनिष्ठा से सँभालना पड़ता है।
इस मामले समापन से पहले, हम यह स्पष्ट करते हैं कि हम पुस्तक की गुणवत्ता या उसकी भडक़ाऊ और अपमानसूचक शब्दावली पर कोई विचार व्यक्त नहीं कर रहे हैं। यह कई कारक तत्वों की मेल पर निर्भर करता है। जो विचार रूढि़वादियों को ठेस पहुँचा सकता है, वह प्रगतिशील समुदायों के लिए हास्यास्पद हो सकता है। जनश्रुति के आधार पर किसी एक धर्म, सम्प्रदाय, देश या समय के लिए जो विचार या शब्द अपमानजनक हो सकता है, वह दूसरों के लिए उतना ही पवित्र हो सकता है। रूढि़वादियों को स्वामी विवेकानन्द की इस फटकार से अब भी आक्रोश पैदा हो सकता है—
‘हमारा धर्म रसोई में है, हमारा ईश्वर वह बर्तन है जिसमें हम खाना पकाते हैं और हमारा धर्म कहता है—‘मुझे मत छूना, मैं पवित्र हूँ’ (जवाहरलाल नेहरू द्वारा उनकी ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ के पृ.-339 से उद्धृत)। मानव उन्नति का सूत्र स्वतंत्र विचार और उनकी अभिव्यक्ति में निहित है। लेकिन, जहाँ जनहित का प्रश्न हो, वहाँ सामाजिक अस्तित्व यथोचित नियंत्रणों का भी विधान करता है। न्यायिक समीक्षा की देखरेख में शासकीय विवेक संतुलन बनाए रखता है। हम न तो आपातकालीन स्थितियों की बात कर रहे हैं और न ही संवैधानिक रूप से पवित्र माने गए विशेष निर्देशों की, बल्कि हम तो सामान्य समय और व्यावहारिक कानूनों का समर्थन करते हैं, जो सब के काम आएँ।’
हम अपीलकर्ता राज्य सरकार के अधिवक्ता से यह कहना चाहेंगे कि यदि सरकार वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए विवादित पुस्तक के विरुद्ध धारा 99-ए लागू करने के लिए खुद को विवश महसूस करे, तो वह ऐसा करने के लिए स्वतंत्र है; लेकिन निश्चित रूप से उसे अपने मत के आधारों के विवरण और धारा 99-सी के तहत कार्यवाही करने के कारणों की न्यायालयीय माँग को पूरा करना होगा। हमारा विस्तृत विचार-विमर्श कानूनी प्रश्नों को हल करता है और एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े विभिन्न उच्च न्यायालयों के निर्णयों में आन्तरिक या प्रत्यक्ष द्वंद्वों का समाधान प्रस्तुत करता है।
विभिन्न उच्च न्यायालयों के मुकदमे निम्न हैं-
अरुण रंजन घोष बनाम पश्चिम बंगाल राज्य।
(1) और ज्वालामुखी बनाम ए.पी. राज्य।
(2) जो अपीलकर्ता द्वारा प्रस्तावित विचार का समर्थन करते हैं; और मोहम्मद खालिद बनाम मुख्य आयुक्त।
(3) चिन्ना अन्नामलाई बनाम राज्य।
(4) और बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य।
(5) जो अपील के तहत इलाहाबाद के निर्णय सेसहमत थे। संभवत: उपरोक्त मामलों में से प्रत्येक में अनुपात पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि इस निर्णय के पहले हिस्से में प्रत्यर्थियों के विचारों पर अमल किया जा चुका है।
विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा कई मौकों पर दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 99-ए के तहत शक्तियों के प्रयोग की माँग की संभाव्यता हमें विरोध की स्थिति में ला देती है। विविधता में एकता के अलावा, भारत सांस्कृतिक विपर्ययों, कई धर्मों तथा विधर्मों, तर्कवाद और धार्मिक कट्टरता तथा आदिम पंथों और भौतिकवादी सिद्धान्तों के सह-अस्तित्व का देश है। इतिहास और भूगोल की बाध्यताएँ और मध्ययुगीन संस्कृति के शिथिल पड़ते प्रभावों पर आधुनिक विज्ञान का प्रहार, प्रिय-अप्रिय लडिय़ों से बने एक मोजाइकनुमा चित्रपट प्रस्तुत करते हैं; जिसने उनकी आपसी आलोचना की उदारचेता सहिष्णुता को व्यापक रूप से जीवन का एक आवश्यक अंग बना दिया है; भले ही उनकी अभिव्यक्ति अनर्गल ढंग से क्यों न होती हो। हमें विश्वास है कि जब्ती के कठोर निर्देशों की कार्यवाही में सरकारें अपने अभिमान को हावी नहीं होने देंगी, बल्कि हमारे समाज की इन अटल सच्चाइयों पर गौर करेंगी।
यदि कुछ क्षण के लिए हम भारत के महान विचारकों-मनु से लेकर नेहरू तक को छोड़ भी दें, तो पाएँगे कि गैलीलियो और डार्विन, थॉरो और रस्किन से लेकर कार्ल माक्र्स, एच.जी. वेल्स, बर्नार्ड शॉ तथा बट्र्रेंड रसेल तक, कई मनीषियों के विचारों एवं कथनों पर आपत्ति जताई गई है। आज भी हमारे देश में कहीं-न-कहीं ऐसे कट्टर लोग मिल जाते हैं, जो उनके लेखन से आहत होते हैं; लेकिन कोई भी सरकार इतनी रूढि़वादी नहीं होगी कि उनके बारे में चन्द कट्टरपंथियों के दुराग्रही विचारों के मद्देनजर उनके महान लेखन को जब्त करने के अधिकार की माँग कर।
(1) आई.एल.आर (1957) कलकत्ता 396.
(2) आई.एल.आर (1973) ए.पी. 114.
(3) ए.आई.आर 1968 दिल्ली 18 (एफ.बी.)।
(4) ए.आई.आर. 1971 मद्रास 44 (एफ.बी.)।
(5) 1964 जे. एंड के.एल.आर. 591।1974.
विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के प्रति एक प्रसिद्ध माओवादी विचार उदार दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से इस प्रकार व्यक्त करता है—
‘कला और विज्ञान की उन्नति को बढ़ावा देने के लिए सौ फूलों को खिलने तथा सौ विचारधाराओं के बीच वाद-विवाद का अवसर देने की नीति उपयोगी होती है।’
हेराल्ड लास्की, जिन्होंने अपनी ‘ए ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स’ के जरिये भारत के कई प्रगतिशील विचारकों को प्रभावित किया है। उनके निम्नांकित कथन में एक चिरकालिक सच्चाई दृष्टिगत प्रकट होती है-
‘ कोई भी सरकार सामाजिक मुद्दों को लेकर कभी-भी इतनी दृढ़ मत नहीं होती कि वह राष्ट्र के नाम पर उन्हें दंडनीय घोषित कर दे। पिछले कुछ वर्षों के अमेरिकी अनुभवों से यह दुखद रूप से स्पष्ट होता है कि सरकारी तंत्र में कभी-भी सटीक तौर पर अंतर करने की पर्याप्त क्षमता नहीं होती, जिससे वह यह तय कर सके कि अक्षेपित विचार समुचित रूप सेवर्तमान अव्यवस्था को जन्म देता है।’
‘इसका यह तात्पर्य नहीं है कि अव्यवस्था का महिमा मंडन किया जा रहा है। यदि हिंसात्मक विचारों का सरकार पर इतना नियंत्रण हो कि उसकी बुनियाद ही हिल जाए, तो उसकी शासन-प्रणालियों में कोई घोर गड़बड़ी है।’
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‘लगभग हमेशा ही, ऐसे मामले कम देखने को मिलते हैं, जिनमें दमन करने वाला पक्ष जीतता है। चूँकि, स्वतंत्र अभिव्यक्ति से तनावग्रस्त स्थिति में शांति बहाल की जा सकती है; इसलिए लगभग हमेशा ही उसका प्रयोग न्यायसंगत सिद्ध होता है। इसके साथ ही बोलने की स्वतंत्रता पर रोक लगाने का अर्थ है—किसी आंदोलन को भूमिगत रूप से चालित होने के लिए बाध्य करना; जो अवैधानिक है। वोल्तेयर से फ्रांस को खतरा उनके अकादमी के लिए चुने जाने से नहीं था, बल्कि उनकी इंग्लैंड यात्रा से था।’
‘लेनिन रूसी जारशाही के लिए ड्यूमा में उतना खरनाक नहीं होता, जितना कि वह स्विट्जरलैंड में रूसी जारशाही व्यवस्था के लिए था। वस्तुत: बोलने की स्वतंत्रता, जिसमें वैधानिक स्वीकृति अन्तर्निहित होती है, एक साथ असंतोष का भाव-विरेचन तथा यथास्थिति में सुधार लाने की आवश्यकता का आह्वान है। एक सरकार अपने समर्थकों द्वारा अपने प्रशस्ति-गान की तुलना में अपने विरोधियों की आलोचना से अधिक सीख सकती है। उस आलोचना का दम घोटना अंतत: कम-से-कम स्वयं के विनाश की ही तैयारी है।’
निर्णय के अन्त में सर्वोच्च न्यायालय नेएक टिप्पणी जोड़ते हुए कहा कि संवैधानिक रूप से घोषित आपातकाल [सच्ची रामायण पर सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के समय देश में आपातकाल लागू था] के वर्तमान संदर्भ में, कानून को आपातकाल संबंधी प्रावधानों में अंकित परिमित दायरों में रहकर ही कार्यवाही करनी पड़ेगी और यह निर्णय पूर्व-आपातकालीन कानूनी आदेश से संबंधित है। अत: हम अपील को खारिज करते हैं।
(सच्ची रामायण पुस्तक से)
हिन्दी साहित्य की अंकेक्षण विधि ने तो डॉ. धर्मवीर भारती के उपन्यास-गुनाहों का देवता को, एक तरह से खारिज ही कर दिया है। लेकिन गुनाहों का देवता ने इलाहाबाद की संवेदनात्मक अनुभूतियों को उनके स्पन्दित स्पर्श के साथ हिन्दी साहित्य में सहेजा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय, वहाँ के सिविल लाईंस और इंडियन कॉफी हाऊस में वह स्पर्श अपनी सघनता में मिलता है। इंडियन कॉफी हाऊस मुझे उसके केन्द्र में मिलता रहा।
जिन दिनों मैंने लिखना शुरू किया था, यह इंडियन कॉफी हाऊस उस समय के जाने-माने बौद्धिकों और साहित्य के बड़े लोगों का अड्डा हुआ करता था। कभी-कभार अमृत राय, डॉ. विजय देव नारायण साही, डॉ. भारती स्वयं और कमलेश्वर और बहुधा मार्कण्डेय, नरेश मेहता, डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, डॉ. फिराक गोरखपुरी जैसे लोगों को वहां एक साथ देखना मेरे लिए एक अनुभव हुआ करता था।
मेरे इस अनुभव में उन बड़े लोगों की छोटी-छोटी तुनकमिजाजियाँ भी शामिल हैं, जो आज किसी किस्से-कहानी की तरह दिलचस्प भी लगती हैं। और कभी बताने का मन करता है।
इन बड़े लोगों से अलहदा भी कोई एक रुआबदार व्यक्ति वहाँ आया करते थे। अकेले आते थे और अकेले ही वहाँ बैठते थे। उनकी टेबल के साथ केवल दो कुर्सियां लगती थीं। लेकिन उस दूसरी कुर्सी पर किसी को उनके साथ बैठे हुए मैंने नहीं देखा। वो नाटे कद,पक्की उम्र और पक्के रंग वाले व्यक्ति थे। सुनहरे फ्रेम वाला उनका चश्मा उनके पक्के रंग पर चमकता हुआ अलग से दिखता था। खालिस सींग की एक महँगी छड़ी भी उनके हाथ में होती थी, जिसकी उनके लिए कोई जरूरत नहीं दिखती थी। अधिक से अधिक उनकी रईसी शान में इजाफा करने के ही काम में आती थी। अद्धे का चुन्नटदार कुरता, परमसुख ब्राण्ड वाली धोती और पैरों में महंगे पम्प शूज उन दिनों के पुराने रईसों की पोशाक हुआ करती थी। यही वो पहना करते थे। इसके ऊपर ‘लाल इमली’ के मशहूर ‘सर्ज’ की गाढ़े नीले रंग की ‘वास्केट।’ मुझे वो कोई एक सशक्त कथा पात्र दिखते थे। इसलिए वहाँ उनके आने-जाने और वहाँ बैठने पर मेरा ध्यान रहता था। मुझे बराबर लगता रहता कि उनके वास्केट की भीतरी जेब में, जरूर ही सोने की चेन वाली जेब घड़ी होगी। उनके आने-जाने और वहाँ बैठने का उनका समय उस चेन के साथ बंधा हुआ है।
उन दिनों इंडियन कॉफी हाउस में क्रीम कॉफी भी मिला करती थी। वह महंगी होती थी। लेकिन उनके लिये वही आती थी। क्रीम कॉफी की पूरी ट्रे। और वह कॉफी पीने का उनका तरीका भी उनकी तरह रईसाना ही था। पहले वो क्रीम वाला पूरा पॉट अपने कप में उड़ेल लेते, फिर जितनी जगह बचती उसमें कॉफी। और बस।
वहाँ, मैंने अपने लिए बाईं तरफ वाली खिडक़ी से साथ लगी हुई टेबल हथिया रखी थी। उस खिडक़ी से, बड़े चौराहे पर गुलाबी पत्थरों वाला वह सुन्दर चर्च सामने दिखाई देता रहता था। सर्दियों की किन्हीं सुबहों में अपनी इस खिडक़ी से उस चर्च को देखना एक दिव्य अनुभव होता था। सर्दी के उन दिनों का आसमान नीले कांच की तरह चर्च के ऊपर तना होता था। कांच के आसमान पर कपास के सफेद फाहे यहां-वहाँ तैरते हुए होते थे। और सुबह की कोमल धूप में चर्च के गुलाबी पत्थर खिल रहे होते थे।
वह कॉफी हाऊस के खुलने का समय होता था। दक्षिण भारतीय चन्दन की अगरबत्तियों का धुंआ वहाँ लहरा रहा होता। और चन्दन की सुवास बाहर दूर तक जा रही होती थी। भीतर, लकड़ी के पार्टीशन के पीछे से कप-प्लेटों और चम्मचों की मिलीजुली आवाजें बाहर आकर किन्हीं घंटियों की सी तरंग में मिलती थीं। या, कुछ ऐसे कि किसी की कोई प्रेमिका पर्दा हटाकर बाहर आए तो परदे के किनारों पर टंकी घंटियाँ हवा में तैरने लगें, और वहाँ उजाला हो जाये।
इलाहाबाद का इंडियन कॉफी हॉउस अंग्रेज़ी दिनों की शानदार ‘दरबारी बिल्डिंग’ के एक हिस्से में है। इसकी छतें खूब ऊंची थीं और दरवाज़े मेहराबों वाले थे। यह सब किसी दृश्य से अधिक अपनी अनुभूति में होता था। और वह किसी पूजा-स्थल का सा बोध करता रहता था।
सुबह के समय, अभी जब कॉफी के शौकीनों की भीड़ वहाँ नहीं होती थी, एक थिरी हुई शांति वहाँ होती थी। वह थिरी हुई शांति एक भ्रांति की रचना करती थी। खूब ऊंची छत और मेहराबों में खुलते हुए दरवाज़े उस बड़े से हॉल को किसी ग्रीक थिएटर के मंच में बदलने लगते थे।
लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होता। अंग्रेजी दिनों की वो खूब ऊंची छत अब नीची हो गई है। निचली फाल्स सीलिंग ने पुरानी छत की ऊंचाई को ढाँक लिया है। अपनी पुरानी ऊंचाइयों को नीचा दिखाने कई तरीके हमारे हाथ लग चुके हैं। और ये तरीके हमारी आज की जरूरतों का हिस्सा हो चुके हैं।
वह खिडक़ी भी मुंद गई है, जहां से खुले हुए बड़े चौराहे तक साफ दिखता था। अब वहाँ से गुलाबी पत्थरों वाला वह चर्च नहीं दिखता। अब कॉफी हाउस में अँधेरा-अँधेरा सा रहता है। इधर के 2-3 बरसों में मेरा इलाहाबाद आना-जाना बराबर हुआ है। और कॉफी हाऊस हर बार पहले से बदतर मिला है। इलाहाबाद का कॉफी हाऊस धीरे-धीरे किसी अवसाद में डूब रहा है। और यह बात मन को उदास करती है।
अब कॉफी हाऊस के बगल में विश्वभारती प्रकाशन और उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ का नीलाभ प्रकाशन भी नहीं हैं। अश्कजी के नहीं रहने के बाद भी ‘नीलाभ प्रकाशन’ एक जगह थी जहाँ उनकी उपस्थिति मिलती थी। उनकी इस उपस्थिति में उनका वह समय भी उपस्थित होता था जिसके साथ हमारा परिचय था। अब वहां अपरिचय है। हमारा परिचय उस समय से था जो अब असमय होता जा रहा है। अब नीलाभ भी नहीं रहे।
‘गुनाहों का देवता’ में ‘पैलेस सिनेमा’ का उल्लेख मिलता है। वहाँ की बालकनी की पिछली कतार की किन्हीं शानदार कुर्सियों में बैठकर चन्दर और सुधा ने एक अंग्रेजी फिल्म देखी थी। उस फिल्म का नाम है-सेलोमी, व्हेअर शी डाँस्ड।’
पैलेस सिनेमा की बालकनी की कुर्सियां सचमुच ही शाही और आरामदेह थीं। मैंने कई बार उन कुर्सियों को पहिचानने की कोशिश की जिनमें बैठकर एक उपन्यास के नायक और नायिका ने वह फिल्म देखी थी। यह वह कैशोर्य जिज्ञासा ही थी जिस आरोप में उस समय के एक उपन्यास को खारिज कर दिया गया। अब वहाँ एक बड़ा और आधुनिक ‘मॉल’ बन गया है, जहां किन्हीं भी कोमल स्मृतियों के लिए कोई जगह नहीं हो सकती।
लेकिन उन कोमल स्मृतियों की नायिका सुधा के साथ, बाद के दिनों में और कई निकटताओं में मेरी मुलाकातें रही हैं। अविभाजित मध्यप्रदेश के शिक्षा विभाग की एक उच्चस्तरीय समिति में उनके साथ एक सदस्य मैं भी था। लेकिन उन्होंने मुझे हर बार बरजा कि मैं उनमें सुधा को नहीं देखूं। उस एक कथा नायिका का कथात्मक अन्त हुआ। और वह दुखद था।
सिविल लाईंस की मशहूर चन्द्रलोक बिल्डिंग के एक विंग में ‘कहानी’ का दफ्तर हम समकालीन लोगों का अड्डा हुआ करता था। वहाँ सतीश जमाली बैठा करते थे। हम लोग उनको उनकी टेबल से उठाकर नीचे चले आया करते थे। नीचे, लक्ष्मी बुक हाउस में थोड़ी देर तक पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें देखा करते। फिर सामने, सेन्ट्रल बैंक के सामने वाले किसी ठेले पर आधी-आधी चाय पिया करते। ‘कहानी’ के दफ्तर में या वहाँ, चाय के ठेले पर सरदार बलवन्त सिंह, रविन्द्र कालिया, दूधनाथ वगैरह और शायद बाद के दिनों में अब्दुल बिस्मिल्लाह से भी मिलना-जुलना हो जाया करता था।
ज्ञान रंजन के साथ भी मेरी शुरुआती मुलाकातें सतीश जमाली के इसी समुदाय में हुआ करती रही। बाद में विद्याधर शुक्ल भी वहाँ आने लगे थे। विद्याधर आलोचना पर केंद्रित एक अनियतकालीन पत्रिका लेखन का सम्पादन करते थे। अब नहीं रहे। और उनके बाद, उनके-लेखन का क्या हुआ ? कुछ पता नहीं। लेकिन जब तक वो रहे अपने तेज-तर्रार तेवरों के साथ रहे, और खरी-खरी कहने में किसी को भी नहीं बख्शा।
इलाहाबाद के वो दिन और उन दिनों की यादें बताने की भी हैं और किन्हीं सुपात्र साझेदारियों में सहेजने की भी हैं। भारतीय रेलवे के एक अधिकारी तनवीर हसन इन दिनों मेरे संपर्क में हैं। और साहित्य में अपनी जगह तय कर रहे हैं। इस बार तनवीर मेरे साथ थे। और यह अच्छा रहा। किन्हीं पुराने दिनों में जाने के लिए अपने समय का कोई साथ मिल जाये तो उदासियों का डर कम हो जाता है। जहां ‘कहानी’ का दफ्तर था, आज वह उन पुराने दिनों की एक ऐसी ही जगह है। इसलिए तनवीर को मैंने अपने साथ ले लिया। हालाँकि मैं उनको नहीं बताऊंगा कि अपने डर से बचने के लिए मैंने उनको अपने साथ लिया।
श्रीपत राय ‘कहानी’ के सम्पादक थे। लेकिन दिल्ली में रहते थे। यहाँ सतीश जमाली ही ‘कहानी’ के अंकों की देखभाल किया करते थे। आधुनिक चित्रकला में श्रीपत राय का बड़ा नाम था। और ‘कहानी’ के प्रत्येक अंक के आवरण पृष्ठ पर उनकी कोई एक चित्रकृति प्रकाशित हुआ करती थी। उनकी पेंटिंग्ज से होने वाली आमदनी का कोई हिस्सा ‘कहानी’ के प्रकाशन में लग रहा था। लेकिन ‘कहानी’ के उस दफ्तर में हमें सूना सन्नाटा मिला। और नीचे की तरफ लक्ष्मी बुक हाउस में तोडफ़ोड़ हो रही थी। पता नहीं क्यों? लेकिन वह भी उदास करने वाली ही थी। कोई भी तोड़-फोड़ उदास ही करती है।
किंग्ज मेडिकल वाली लाइन में एक ‘ऑक्शन हाउस’ था। इंडियन कॉफी हाउस के अलावा यह ऑक्शन हाउस भी एक जगह थी जहाँ डॉ. फिराक गोरखपुरी आया करते थे, और बैठा करते थे। फिराक साहब चेन-स्मोकर थे, और उनका व्यक्तित्व रुतबेदार था। उनकी उँगलियों में एक जलती हुई सिगरेट फंसी ही रहती थी। सिगरेट पीने का उनका अपना तरीका था। यह तरीका उनके रुतबे के साथ मेल खाता था। और वहाँ, लोग उनका रुतबा माना करते थे। लेकिन, वह ‘ऑक्शन हॉऊस’ भी शायद अब वहाँ नहीं रहा। या, शायद मैं ही नहीं ढूंढ पाया। सचाई, शायद यह है कि मैं इलाहाबाद ढूंढ रहा था और ढूंढ नहीं पा रहा था।
‘कहानी’ दफ्तर से आगे वाला वह जो चौराहा है, क्रास्थवेट रोड का चौराहा, उसकी दाईं-बाईं वाली लेनों में मेहंदी के बाड़ों और गुलाब की रंगीन क्यारियों वाली छोटी-छोटी लेकिन खूबसूरत कॉटेज हुआ करती थीं, उन्हीं में से किसी एक में पम्मी रहती होगी जिसका भाई पागल था। और वहां पैलेस सिनेमा में यह पम्मी भी सुधा और चन्दर के साथ थी। एक बार मन किया कि उसकी कॉटेज को ढूंढूं। और वहां जाकर उसे बता दूँ कि अब सुधा नहीं रहीं। लेकिन यहाँ, इलाहाबाद में मैं तो कुछ ढूंढ ही नहीं पा रहा हूँ। शायद अब पम्मी भी काफी बूढ़ी हो चुकी होगी। पता नहीं उन दिनों की बातें उसे याद भी होंगी या नहीं? पता नहीं, अब वो भी होगी या नहीं।
ज्ञान रंजन हमारे समय की हिंदी कहानी के एक बड़े प्रवक्ता हैं। रायपुर में उन्हें मुक्तिबोध सम्मान दिया गया था। वहां से वापसी में थोड़ी देर के लिए बिलासपुर के रेलवे स्टेशन पर उनसे मुलाकात हुई थी, और हमने इलाहाबाद को उन दिनों में ढूँढने की कोशिश की थी जो साठोत्तरी हिन्दी कहानी का भरोसेमंद समय था। लेकिन अब वो लोग ही वहाँ नहीं रहे जिनसे उस समय का भरोसा था। रविन्द्र कालिया अब नहीं रहे। सतीश जमाली ने इलाहाबाद छोड़ दिया। दूधनाथ दिखते नहीं। अब एक अपरिचय वहाँ बसता है। और वह उदास करता है। इलाहाबाद अब उदास करता है।
अब सतीश जमाली भी नहीं रहे। कानपुर में, जहाँ वह अपने बेटे के साथ रह रहे थे, उनका देहावसान हो गया।
(दिल्ली से प्रकाशित होने वाले पाक्षिक ‘शुक्रवार’ के 16-31 जुलाई 2016 के अंक में बदले हुए शीर्षक के साथ प्रकाशित इलाहाबाद : उदासियों का शहर। सतीश जायसवाल का यह संस्मरण 2016 का लिखा हुआ है। तब से अब तक रविन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह, सतीश जमाली और विद्याधर शुक्ल इस दुनिया में नहीं रहे।)
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-संपादक
ठोकू गोसाईं नाच रहा था
बिहार के लौंडा नाच की याद
गीता श्री कथाकार एवं पत्रकार हैं। अब तक पाँच कहानी संग्रह, दो उपन्यासों के साथ-साथ स्त्री विमर्श पर चार शोध पुस्तकें प्रकाशित हैं। कई चर्चित किताबों का संपादन-संयोजन किया है। इन्हें वर्ष 2008-09 में पत्रकारिता का सर्वोच्च पुरस्कार रामनाथ गोयनका, बेस्ट हिंदी जर्नलिस्ट ऑफ द इयर समेत अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हैं। 24 सालों तक पत्रकारिता के बाद फिलहाल स्वतंत्र पत्रकारिता और साहित्य लेखन में सक्रिय हैं।
-गीता श्री
पिया...मोरे जोबना पर लोटे सांप हो, तनि बीन बजा दअ...
1978 की बात है। यही सावन का महीना था। झमाझम बारिश हो रही थी। अब सावन सूखा होता है। तब सावन बरसता था झूम के। पानी केसाथ कई बार मछलियाँ भी बरसती थीं। उस दोपहर भी सावन मन भर बरस रहा था। मैं आठवीं क्लास में पढ़ती थी। मुझे पहलेही देर हो चुकी थी। इसलिए तेज-तेज कदम बढ़ाती हुई घर की ओर सरपट बढ़ी चली जा रही थी। पैरो मेंप्लास्टिक की चप्पलें थीं जो छींटे उड़ाती हुई चल रही थीं मेरेसंग-संग।
मेरा कोई दोस्त नहीं था। किसी सेमन बंधता ही न था। सरकारी स्कूल में माहौल इतना अजीब था, लडक़े इतने बेढब थे कि दोस्ती करते नहीं बनता था। मैं उनकी तरफ गौर से देख भी नहीं पाती थी। जबकि मेरे भीतर बहुत कुछ बदल रहा था। देह जगने की उम्र थी वह। सवाल मछलियों की तरह देह में तैरते सारे सवाल अनुत्तरित!
एक अबूझ बेचैनी-सी रहती पुराने दोस्तों के बिछडऩे से बोझिल मैं अजीब-सी तरस का सामना कर रही थी। मेरी कक्षा में कई लड़कियाँ थीं। उनमें एक लडक़ी मीना मुझे रोज स्नेह से निहारा करती थी। जब देखूं, वो टकटकी लगाए मुझे घूरे जाए। मेरे भीतर का जमा हुआ सन्नाटा दरकने लगा था।
फिर एक दिन अचानक कुछ घटित हुआ। मेरे लिए पहली पहली बार था यह सब कुछ। मैं इसके लिए बिल्कुल तैयार न थी। एक दिन स्कूल से लौटते हुए मीना कुचायकोट के पास अपने गाँव पकडक़र ले गई। वहाँ नजारा ही कुछ और था। उसकी माँने वहाँ सखि लगाने की पूरी तैयारी कर रखी थी। बाकायदा मेरे कपड़े बदले गए। एक जैसे फ्रॉक हम दोनों को पहनाए गए। उपहार मिले, पैसे मिले और फिर मुझे घर आने की इजाजत मिली। मैं बढिय़ा, सुस्वादु भोजन खाकर लौट रही थी।
माँ गाँव गई हुई थीं। वहाँ खेती-बाड़ी का काम देखने उन्हें बीच-बीच में जाना पड़ता था। बाबा भी वहाँ इनके हिस्से आए थे। सबकी बारी आती थी। पाँच बहुएँ बारी-बारी से एक महीना वहाँ रहकर बाबा और खेती की देखभाल करती थीं। नौकर-चाकरों से काम लेती थीं। संयुक्त परिवार था और चाचा लोग बाहर काम पर जाते थे। दादी गुजर चुकी थीं।
गोपालगंज छूटने का गम इतना था कि माँ के गांव जाने का दुख कभी हुआ ही नहीं। मैं जैसे बेसुधी में दिन काट रही थी। स्कूल जाना और आना। न सिनेमा देखना न बाजार जाना। शहर गोपालगंज और उसकी मस्ती छिटककर दूर जा चुकी थी। बड़े भइया रोज गोपालगंज जाते-आते, बस से। बहनें अपनी दुनिया में मस्त थीं। हम दो छोटे भाई-बहन थाना-परिसर में कैदी जैसेहो गए थे। बाबूजी को चोर-उचक्कों से फुरसत कहाँ! मेरा मन बावरा हो गया था। मुझे मनोरंजन चाहिए था। सिनेमा या नाटक। कुछ तो चाहिए था। घर में एकमात्र रेडियो था जिसका सिग्नल सिर्फ दीदी के हाथों के स्पर्श को पहचानता और पकड़ता था। दीदिया ससुराल थी और बाबूजी अति व्यस्त, इसलिए इन दोनों के सिरहाने से गुलशन नंदा गायब थे। अब सिरहाने में कोई किताब नहीं मिलती थी। किताबों के मुफ्त आपूर्तिकर्ता गौरी चाचा गोपालगंज में छूट चुके थे। मेरे लिए मनोरंजन का घोर अकाल हो गया था। एक तन्हा जान, तन्हा मन लेकर जल बिन मछली की तरह छटपटाती घूमे।
मैं मीना के गांव से पैदल चलती हुई कुचायकोट पहुँची थी। गांव के छोर तक सीधा रास्ता पकड़ाने मीना की विधवा माई आई थीं जो रास्ता बताकर, उपहार वगैरह पकड़ाकर लौट गईं। मैं कच्चे रास्ते पर चलती हुई, कीचड़ से सने पैर लिए, कभी रिमझिम में भींग जाऊं तो कभी झमाझम में। मुझे लग रहा था कि मीना के अलावा ये बारिशें भी मुझसे सखि लगाना चाह रही हैं। तब मैं इसे किस नाम से पुकारुंगी!
मीना को तो अब नाम से नहीं पुकारना था कभी। सखि ही बोलना था। यह सखि लगाने के बाद का बदलाव है। बारिशें राह रोक रही थीं और मैं बाबूजी केडर से दौड़ रही थी। आज तो पिटाई तय। पिटाई मतलब दारोगा वाला काला रुल लेकर दरवाजे पर खड़े होंगे—डील-डौल वालेएक सुदर्शन प्रौढ़। गाँव जाते समय माई मेरी जिम्मेदारी उन्हें थमा गई थी, जिसे निभाने की बाबूजी भरसक असफल कोशिश कर रहे थे।
जैसे ही मैं पानी से लथपथ कुचायकोट थाना के पास पहुँची, पक्की सडक़ आ चुकी थी। पक्की सडक़ से दाएँ उतरकर एक रास्ता थाना के कैंपस में जाता था, जहाँ पहला चर्टर ही हमारा था। गेट के आसपास दो चौड़ी नालियाँ थीं जो बारिश में किसी नदी की तरह उफनती रहती थीं। उसी में मैं समंदर और दरिया देख लेती थी।
मैं अब लगभग दौडऩे लगी थी कि अचानक गाने की किसी तेज आवाज ने रोक लिया। मुझे वीराने में बहार जैसा महसूस हुआ। ये कौन है, जिसकी आवाज न स्त्री जैसी है, न पुरुष जैसी! दोनों को घोलकर एक अलग ही आवाज बनाई गयी थी। वह जो भी आवाज थी, मुझे रोक रही थी। बाबूजी का भय जाता रहा। मनोरंजन या मनोविलास की चाहत कई बार भय पर भारी पड़ जाती है।
गोपालगंज में इसका भरपूर अनुभव हम ले चुके थे। मेरे कदम उस रिमझिम में उधर बढ़ते चले गए जिधर से यह तीसरे किस्म की आवाज आ रही थी। नया फ्रॉक गीला हो चुका था। हाथ का सब सामान भी पानी से लथपथ। किसे परवाह! मन खींचा चला जा रहा था।
गाने के बोल उभरे—‘पिया...मोरे जोबना पर लोटे सांप हो...’
भोजपुरी ही तब मेरी मातृभाषा थी। हिंदी कम बोलती थी। बज्जि का बिल्कुल नहीं आती थी। मैं मंत्रमुग्ध-सी बढ़ती चली जा रही थी... कोई डोर खींचेजा रहा था। बीच-बीच में धमाधम की आवाज आती, पैर पटकने की। फिर गाना बंद। कोई जोर-जोर से बोलता...
मैं पहुँच गई, एकदम पास। जैसे पानी पहुँचता हैकंठ के पास। जैसे बिजुरी बदरा केपास। टेंट लगा हुआ था। थोड़ा ऊंचा मंच बना हुआ था। उस पर कुछ साजिंदे बैठे थे। एक स्त्री नाच रही थी। कुछ लोग आधे गीले, आधे सूखे से झूम रहे थे। टेंट के खंबे से टिककर देखने लगी। वह स्त्री नाचती हुई पास आई, हाथ वैसे नहीं लहरा रही थी जैसे सिनेमा में हीरोइने या मुजरे वाली लहराती हैं। ताजा फिल्म ‘खिलौना’ देखा था, जिसमें का मुमताज वाला मुजरा याद आया...‘अगर दिलवर की रुसवाई हमें मंजूर हो जाए...’
मैंने जरा गीली पलकों को ठीक से पोंछा और उस नर्तकी की तरफ देखा।
अरे, ये अजीब-सी क्यों लग रही है! और ये अजीब-सी हरकते क्यों कर रही हैं? ऐसे नाचता है कोई? जरा सलीके से नाचे...जब वह गाती—‘जोबना पर सांप लोटे...’—तो हाथ को सांप बनाकर अपनी छातियों पर फिराती और खुद ही दबा लेती...उपस्थित लोग फिस्स-फिस्स करके हँस पड़ते।
गाना बंद करके वह रुकती...दो लाइन का कुछ पढ़ती...लोग तालियाँ बजाते...फिर वह मंच के चारो तरफ चक्कर काटती...और कूद-कूदकर नाचने लगती। उसका लंहगा लहराने लगता, कमर ठुमकने लगती। वह गोल-गोल चक्कर काटता, मानो हवा में भंवर पड़ गए हों। लोग रुपये फेंकते, सिक्के उछालते। एक सहायक आता, सब बटोरकर ले जाता।
मैं खो गई थी उसके नाच में। थोड़ी देर में उसकी नजर मुझ पर पड़ी।
वह पास आई, नाचते-नाचते...
‘क्या सुनोगी गुडिय़ा...हम कुछ तुम्हारी पसंद का सुनाएँ?’
मैं एकदम हड़बड़ा गई। सब लोग मुझे नोटिस करने लगे। किसी ने कहा—अरे, ये तो दारोगा जी की बेटी है! नाच देखने आई है!
मैं तो सुध-बुध खोकर उसके नाच में डूबी थी। कुछ कहते न बना।
सच कहूँ तो उस वक्त मेरी रुह नाच रही थी। मन किया, मंच पर उसे हटाकर खुद नाचूं...
जाने कैसे बेसुधि में मुँह से निकला—‘हाय, हाय येमजबूरी...तेरी दो टकिये की नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए’
‘आय-हाय, मेरी नन्हीं जान! क्या फरमाईश करे हो...लो सुन लो...’
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उसने पलटकर साजिंदों की तरफ इशारा किया और मंच पर कमर मटका-मटका कर गाने लगी—‘हाय, हाय ये मजबूरी...’
मुझे जीनत अमान इस नाच के आगे फीकी लग रही थीं। मन ही मन मैंने उनसे क्षमा माँगी और लीन हो गई इस नाच-गान में। एक पैरा गाकर वह रुकी। दो लाइन कुछ पढ़ा उसने...मेरी तरफ इशारा करके—
‘सागर से सुराही टकराती, बादल को पसीना आ जाता तुम जुल्फें अगर बिखरा देती, सावन का महीना आ जाता’
कोई भीड़ में से चिल्लाया—‘सावन का महीना त आ गईल बा हो मोरे राजा, भादो के बुला दअ...काहे आग लगावे पर उतारु बारअ हो...’
‘सवनवा मेंमोरा जियरा तरसे...जियरा तरसे...हो जियरा तरसे...’
वह एक रसिक था जो झूम-झूमकर खुद भी गाने लगा था। ठुमक भी रहा था। एक और आवाज आई—‘फिल्मी गाना छोड़ द रज्जा... बिदेसिया गाव...’ रोई रोई पतिया... लिखेलेरजमतिया... ‘ई का तू फिल्मी गाना सुरु कर देलअ हो ठोकू गोंसाई!’
मैं चौंकी। इस स्त्री को ठोकू गोंसाई क्यों कहा इसने! मैंने आंखों को और साफ किया। थोड़ा और पास जाकर उसे देखना चाहती थी।
लंबी-लंबी चोटियाँ ऐसे लहरातीं कि उसके बदन से लिपट जातीं। मुझे वह कहानी याद आई कि एक राजकुमारी से एक नाग को प्यार हो गया था। रोज रात को सोते समय उसके पास आता और उसके बदन से लिपट जाता। धीरे-धीरे यह बात फैल गई और लोग राजकुमारी से डरने लगे। कथा लंबी है। राजा ने ऐलान किया कि जो नाग को भगा देगा, उसे ही राजकुमारी से ब्याह देंगे...और फिर शुरू हुआ खेला! फिलहाल तो मुझे इसकी देह राजकुमारी-सी लग रही थी, जिस पर काला नाग लिपट रहा था। मेरा मन हुआ, पास जाकर नाग को पकड़ लूं। गेट के पास उफनते हुए बरसाती नाले में से कितने सांपों को लकड़ी से पकडक़र हमने घुमाकर दूर फेंका था।
मैं उस दोपहर सब भूल चुकी थी। बाद में मेरे साथ क्या होने वाला है, कुछ अहसास नहीं था। तंद्रा तब टूटी जब वह स्त्री घोषणा कर रही थी—रोज यहाँ इसी समय नाच होगा। आप लोग पधारें, अपनी-अपनी फरमाइश लेकर। ठोकू गोसांई एवं मंडली यहीं मिलेगी...
ठोकू...ये क्या नाम हुआ भला! मुझे शंका हुई। मैं उसे पास से देखना चाहती थी। बात करना चाहती थी। कुछ लोग मुझे पहचान रहे थे। गीले कपड़ों में मैं वैसे भी अजीब लग रही थी। असमंजस में थी। भीड़ छंटने लगी थी। मैं मुड़ी, घर जाने के लिए। अचानक नजर गई, मंच के पीछे। नर्तकी खड़ी होकर बीड़ी फूंक रही थी। मंच के एक साइड में जाकर लंहगा उठा खड़ी हो गई। मुँह में बीड़ी सुलग रही थी। अजीब लगा। मैं भाग जाना चाहती थी। मैंपलटी कि पीछे से धर लिया किसी ने। मेरे हाथ में जो सामान था, सब बिखर गया।
‘कहाँ भाग रही हो बबुनी...डरो मत...हमको पहचानती हो...हम औरत नहीं हैं...हम हैं मरद...ये देखो...’
उसके मुँह से बीड़ी की तेज गंध आई। मुझे इस गंध से कुछ अटपटा नहीं लगा। माई और रजौली वाली चाची की गप्प-गोष्ठियों में यह गंध फैली रहती थी।
‘रोज आना...हमारा नाच देखने। आजकल लगन का सीजन नहीं है न तो हम कमाई के लिए बाजार मेंही नाच करते हैं...तुम कुछ मत देना हमको...बस देखने आ जाना...ठीक हय!’
वह औरत अब मर्द में बदल रही थी। उसके हाथ में काले-काले रोएँ थें। चोटी खुल चुकी थी। बाल लंबे थे। कमर तक लंबे। उसने चोली में हाथ डालकर कुछ बाहर निकाला, रुई के गोले जैसा...वह आदमी हँसता रहा...देखते-देखते लहंगा भी उतारने लगा...हमसे इतना न देखा गया...बेतहाशा भागी...दरवाजे पर ही जाकर सांस लिया।
इस तरह का नाच देखने का पहला मौका था, जहाँ कोई औरत मर्द में बदल जाए। मर्द भी औरतनुमा। उसे आंख भर देख नहीं पाई थी। बस, उसकी आवाज कानों में देर तक पीछा करती रही—‘बबुनी...ठोकू गोसांई को भूल मत जाना। आना नाच देखने...हर तरह का नाच दिखाएँगे...फरमाइशी...
मनोरंजन के लिए तरसते मेरे किशोर मन को यह नए किस्म का मनोरंजन विचित्र सुख देरहा था।
‘लौंडा-नाच देखोगी...तुम्हारी उम्र है ये नाच देखने की...लौंडा-लपारे
देखते हैं ये नाच-गाना! भले घर की लड़कियाँ नहीं देखती हैं। कोई और लडक़ी थी वहाँ? कोई औरत...बताओ...क्यों गई थी वहाँ?’
आंगन में बाबूजी का प्रलाप चल रहा था—‘आने दो माई को...उसके बाद ही स्कूल जाओगी...घर में बंद रहो...बिना बताए, सखि लगाने चली गई...कौन लोग हैं, कैसे लोग हैं, कुछ होश है? कब समझोगी? अकेली, पैदल तीन कोस गांव चली गई...हद है! हम कोई सिपाही भेज देते साथ में...हे भगवान...’
हाथ में काला रुल लहरा रहा था, मगर मेरी तरफ बढ़ा नहीं। मुझे तो गाना याद आनेलगा...‘जोबना पर लोटे सांप...’
मुझे वो काला रुल किसी कालेनाग की तरह दिखाई देरहा था जो किसी राजकुमारी की बदन से नहीं लिपटा था, हवा में लहरा रहा था...दूर कहीं बीन बजा रहा था कोई...
‘देखता हूँ...कौन था वो लौंडा...बीच बाजार में कैसे नाच शुरु कर दिया है...खबर लेता हूँ...हाजत में बंद करेंगे न, तब साला सब नाच भूल जाएगा...बड़ा मउगी बनने का शौक चर्राया है...’
मुझ पर उनकी डांट का कोई असर नहीं हुआ। ठोकू गोसांई के नाच का असर ज्यादा गहरा था। वह जो गान-नाच केबीच-बीच में फकरा पढ़ता था, वो मेरे कानों को प्रिय लगा था। कुछ स्मृति में दर्ज कर लाई थी। उसका इस्तेमाल करना था कहीं। कुछ दिन उसके नाच से वंचित रहना था। सोचा, गोपालगंज की सखियों को पत्र लिख कर सजा के कुछ दिन काट लूँ।
फूल है गुलाब का सुगंध लीजिए, पत्र है गरीब का जवाब दीजिए
बड़े भैया गोपालगंज से दो दिन बाद लौटे। तब तक मैं तीन-चार चिट्ठी लिख कर रख चुकी थी। मिकी, सीमा और हनी के नाम।
सीमा सबसे करीब थी। पहली बार मैंने पत्र मेंएक फकरा लिखा—
‘फूल है गुलाब का सुगंध लीजिए, पत्र है गरीब का जवाब दीजिए’
पत्र के साथ गुलाब का एक फूल भी रख दिया था। मुझे इतनी सुंदर अनुभूति हो रही थी, पत्र लिखते हुए कि क्या बताऊं! मुझे मेरी भावनाओं को व्यक्त करनेके लिए कुछ पंक्तियाँ मिल गई थीं। मेरा मन हो कि और ऐसी और पंक्तियाँ मिलेंतो चिट्ठी मेंऔर लिखूं।
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सहेलियों पर रोब भी जमेगा और मेरी छटपटाहट भी उन तक पहुँच जाएगी। इसके लिए ठोकूगोसाई से बेहतर मददगार कौन!
नाच देखने पर पाबंदी थी और मुझे मालूम नहीं था कि ठोकू रहता कहाँ पर है। माई के आने में समय था। वह धनरोपनी के बाद ही आने वाली थीं। बारिश की वजह से गांव की सडक़ें भी खराब हो गई थीं। दो-तीन दिन बीतने पर बाबूजी ने स्कूल जाने के लिए कहा। उधर मीना यानी मेरी सखि पगला गई थी। सखि लगानेकेबाद तीन दिनों तक उसने मुझे नहीं देखा तो वह अलग बावरी-सी हुई जा रही थी। मुझे उससे अभी कोई खास लगाव न था। मैं तो तब तक गोपालगंज की सखियों के मोह मेंही पड़ी हुई थी। इस उम्मीद मेंथी कि एक दिन फिर वहाँ वापस जाना है। भैय्या वहाँ एक फेमस डॉक्टर की बेटी से मोहब्बत कर बैठे थे। बस, पढ़ाई खत्म होनेका इंतजार हो रहा था।
स्कूल में मेरे गले लगकर सुबकती हुई सखि को मैंने सारा कांड बता दिया। वह रोना भूल गई। बोली—‘अरे, तुम नही जानती। दुबौली गांव का है ठोकू गोसांई। हमारे इलाके का सबसे प्रसिद्ध लौंडा। उसका नाच देखने लोग दूर-दूर से आते हैं। लगन में उसके पास टाइम नहीं रहता। नेटुआ, पमरिया, बाई जी, सबको फेल कर दिया है...सबसेआगे है, आगे...’
सखि हाथ नचा-नचा कर बोल रही थी। जैसेगर्व से भरी हो।
‘मुझे ठोकू से मिलना है...’
‘काहे?’, कमर पर हाथ रख कर पूछी सखि।
मैंने झेंपते हुए कहा, ‘मुझे उससे फकरा लिखवाना है...गाने के बीच में वह सुंदर-सुंदर फकरा पढ़ता है...हमको चाहिए...’
‘अरे, उसका त किताब भी मिलता हैरे...चल बाजार, हम दिलवाते हैं...’
‘नहीं, हमको ठोकूसे मिलवा दो...’
‘ये नहीं हो पाएगा, सखि! वो बहता पानी है, आज यहाँ, कल वहाँ... कहीं नाचते हुए दिखा तो हम उसको बता देंगे, वो मिलना चाहे तो मिल लेगा।’
सखि छुट्टी के बाद हमको किताबों की एक फुटपाथी दुकान पर ले गई। जहाँ हमने शीत-बसंत, तोता-मैना की कहानी, रानी सारंगा की, रानी केतकी की...अल-बल किताबें खरीदीं। एक देसी दोहों की, चटपटी शायरी की किताब भी मिली।
पहला पन्ना पलटा तो लिखा था—
‘गुड है अच्छा, बैड खराब वाटर पानी, वाइन शराब’
मैंने वह किताब वही फेंक दी, ‘ये क्या बकवास लिखा है। ये मेरे किस काम का।’
सखि ने कहा, ‘रे, अंदर तो देख...’
दो पन्ने के बाद मिला—प्रेमी-प्रेमिका की शायरी और उनके सवाल-जवाब.
उफ्फ! फिल्मी गानों के बीच से लाइनें उठाकर शायरी बना दी गई थी। प्रेमी रुठ कर लिखता है—
‘मेरी मोहब्बत, तेरी जवानी...
मिलकर करेंगे बहारों की बातें...’
प्रेमिका का जवाब—
‘दिल पुकारे...आ रे, आ रे...
अन्हियारे रातों में करेंगे सितारों की बातें...’
और भी जाने कितने गानों की पैरोडी थी! मेरा मन हुआ, गुलशन बावरा को बोलूं कि इस किताब के लेखक पर फिल्मी मुकदमा कर दे।
ये किताबें वहीं छोड़ आई। मेरे सामने अब फकरा का संकट खड़ा हो गया था। एक सुना था, ‘फूल है गुलाब का...’, वो लिख चुकी थी। आगे जारी कैसे रहे? और मुझे नाच भी तो देखने का मन था। स्कूल से लौटते हुए उस जगह पर गई, जहाँ तीन-चार दिन पहले ठोकू नाच रहा था। पता चला कि वहाँ उजाड़ है, वह कहीं और तंबू गाड़ चुका है।
‘यहाँ कुछ सिपाही आए थे, भगा दिए उसको। थाना के आसपास इस तरह का नाच-गाना असभ्य लगता है। माहौल खराब होता है, चोर-डाकू आ सकते हैं।’
ओह, तो मेरे नाच देखने का ये इनाम मिला ठोकू को! मेरे मनोरंजन का सामान फिर सेखो गया था। मुझ पर वज्रपात हुआ। सखि से मेरी दशा देखी न गई। उसने ठोकू को ढूंढना शुरु किया। वह स्थानीय थी। सारा इलाका जानती थी।
सावन अभी तक मेहरबान था और धूप आंखमिचौली खेल रही थी।
सखि मेरे लिए अपन मां सेगांती बनवा कर लेआई थी। खाद के प्लास्टिक का बोरा था, उसे बहुत कलात्मक ढंग से उसकी मां ने गांती में बदल दिया था। हम दोनों गांती पहनकर बारिश में ठोकू को ढूंढ रहे थे। क्लास छोड़ दी थी।
एक नहीं, कई दिन यही चला। स्कूल से टिफिन केसमय निकल लेते, ठोकू को ढूंढते। शाम के चार बजे छुट्टी होती तो स्कूल की भीड़ में शामिल होकर घर की तरफ निकल आते। ऐसा लगता, हम सीधे स्कूल से चले आ रहे हैं।
उधर गोपालगंज से सीमा का पत्र आ चुका था, जिसमें उसने खूब शायरी लिखी थी। एक शायरी के जवाब में तीन-चार शायरी झोंक दी थी। अब मेरे लिए उसके टक्कर की शायरी भेजने की चुनौती हो गई थी। ठोकू का मिलना बहुत जरुरी था, नही तो मेरी प्रतिभा पर सवाल खड़े हो जाते। किसी तरह ढूंढना ही होगा।
सखि ने सुझाव दिया, ‘तब तक खुद ही क्यों नहीं दो-चार लाइन का फकरा गढ़ लेती है! गाना उठाओ, अपने हिसाब से बना लो। चल, हम मिलकर बनाते हैं...’
‘बताओ...सखि नेक्या लिखा है तुम्हारे लिए...फिर हम लोग दिमाग चलाते हैं...’
मैंने सीमा का पत्र आगे बढ़ा दिया—
लिखती हूँ खत खून से स्याही मत समझना
मरती हूँ तेरी याद में जिंदा मत समझना
सखि ने कहा, ‘इसके उल्टा लिख दे।’ मैं उसके झांसे में आ गई। आज तक झांसे में आने का स्वभाव वैसे ही बरकरार है।
तो मैने शायरी इस प्रकार बनाई—
लिखती हो खत क्यों खून से, क्या स्याही नहीं मिलती मरती हो क्यों मेरी याद में, क्या दूसरी नहीं मिलती मैं उछल पड़ी कि मुझे शायरी करनी आ गई। उधर गोपालगंज से ‘बॉबी’ फिल्म की गूंज आ रही थी—‘मैं शायर तो नहीं...मगर ऐ हसीं...जब से देखा, तुझको, मुझको...’
भैया गोपालगंज से हमारे लिए ‘बॉबी’ प्रिंट का फ्रॉक ले आए थे। पत्र सीमा केपास पहुँचा और मेरी जवाबी शायरी को पढ़ते ही उसका मुझसे मोहभंग हो गया। आज लगता है कि मोहभंग नहीं, उसका रसभंग हुआ होगा। उसके पत्र आने बंद हो गए। एक बनावटी शायरी नेमेरी दोस्त का दिल तोड़ दिया। मैं बहुत दिनों तक अपना गुनाह समझ ही नहीं पाई। आज भी अनजाने में कितने गुनाह किए होंगे, गुनाह अबूझ रहा।
गोदिया में बइठा के सिनेमवा दिखइअ हो करेजऊ
मेरा मन कमससाता रहता कि आखिर क्यों मैं लौंडा नाच नहीं देख सकती। हमें बाईजी का नाच भी नहीं देखने दिया जाता है। और तो और, जब बीते कार्तिक मास में सोनपुर मेला में बाबूजी की डयूटी लगी तो हम सबको वहाँ उठाकर ले गए थे। टेंट में रहते थे, पुआल के बिस्तर पर सोते थे। वहाँ गुलाब बाई कंपनी की नौटंकी आई हुई थी। वहीं पर पहली बार बिजली वाली लडक़ी देखे थे, टिकट लगाकर लोग देखने जाते थे। नीलेरंग की साड़ी मेंएक गोरी-पतली लडक़ी कुर्सी पर बैठी रहती। एक आदमी आता, उसकी देह से टयूब लाइट छुआता, बल्ब छुआता, वो भक्क सेजल जाते। लोग तालियाँ बजाते। मैं हाथ बढ़ाकर उसे छूना चाहती। जोर से चीखता हुआ वह आदमी मुझे खदेड़ देता। खदेड़ी तो मैं नौंटकी से भी गई थी। जब चुपके से हम शो में घुस गए थे। मंच पर सचमुच पहली बार हीरो-हीरोइन को नाचते देखा तो लगा, परदा जीवित हो उठा है। आज की भाषा में कहूँ तो लाइव सिनेमा देखा था। हरेक तरह के खुले सीन थे और सीटियाँ मारी जा रही थीं। बाबूजी का सहयोगी हमें वहाँ से खदेड़ता हुआ ले आया, जैसे बच्चे गाड़ी के पुराने टायर हाँकते घूमते रहते हैं। हम उसी टायर की तरह हाँक दिए गए। हम चले तो आए, लेकिन वहाँ गाना बजता रहा... ‘एगो चुमा देलेजइअह हो करेजऊ...’
अब हमारे नौटंकी देखने पर भी संकट! मेरे भीतर विद्रोह जमने लगा। तय कर लिया, देखेंगे जरुर, मगर चोरी-चोरी चुपके-चुपके। और जिस दिन खुदमुख्तार होंगे, उस दिन बाबू साहब की तरह दुआर पर ठाट से बैठकर देखेंगे...पैर पर पैर चढ़ाकर पैसा फेंकेंगे। तब ऐसा सोचे थे। मन ही मन हम ठोकू गोसाई पर कितना रुपया, सिक्का फेंक चुके थे, उसका हिसाब आज तक नहीं किए हम। हिसाब लगाने बैठूं तो ठोकू पर बहुत कर्ज निकलेगा मेरा।
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हाँ तो, हम दुखड़ा यह रो रहे थे कि मनोरंजन के तमाम साधन लडक़ी-विरोधी, बच्चा-विरोधी थे उस जमाने में। लौंडा नाच देखने से वंचित मैं बेचारी तड़प रही थी। ठोकू के रूप में मुझे एक दोस्त नजर आ रहा था जो मेरी मदद कर सकता था। जिसे नाचते हुए देखना सुखद अहसास था। वह नाचते हुए भरपूर मनोरंजन करता था। बदले में लोग उसे अपनी मर्जी से रुपये देते थे। वह माँगता नहीं था। सुना था कि लगन में नाचने का वह मोटा शुल्क लेता था। फिर भी बाई जी से पिछड़ जाता था। ठोकू को लोग अन्न के बदले भी नचवा लेते थे। वो उपहार भी ले लेता था। औरतें उसे सिंगार-पटार का सामान देती थीं। लगन में तो सलमा सितारा वाली साड़ी से कम कुछ न लेता था। वो खूब सजता और औरतों को दिखाने जाता। तरह-तरह से मुँह बना-बनाकर दिखाता, औरतें हंसती। उनके मर्दो को लौंडा से खतरा महसूस नहीं होता। उन्हें औरतों की तरह ही देखते थे। लौंडे भी मर्दो से ज्यादा औरतों की संगति में खिल-खिलाते थे। यह सब मैंने अपनी आंखों से देखा, जब एक दिन मेरी खोज पूरी हुई। मीना मुझसे ज्यादा आजाद थी। कहीं भी घूमने-फिरने और टंडइली के लिए। अपनी मां की वह इकलौती संतान थी। लडक़ों की तरह उसे छूट मिली हुई थी। मुझे मुक्ति का मार्ग उसी ने समझाया था। विद्रोह का पहला पाठ भी। मीना यानी सखि ने सखि-धर्म का सही-सही निर्वाह किया और एक दिन फिर स्कूल से पकडक़र कुचायकोट के ही एक टोले में ले गई। जहाँ औरतों की टोली के पास बैठा ठोकू ठिठोली कर रहा था। औरतें उससे फिकरा सुनतीं और ठठा कर हंसतीं। ठोकू मुझे देखकर खिल उठा था। ऐसा उसके चेहरे से मुझे लगा। वह अचानक पैंतरा बदल कर वहाँ से उठा और मेरे और मीना के संग-संग चलने लगा।
भादो आ चुका था। लगभग समाप्ति की ओर था। ठोकू के संग-संग चलते हुए मैंने उसके गायब होने पर खूब लानतें दीं। वह मुझसे खरी-खोटी सुनता रहा। हम दोनों को साथ लेकर वह दूर खेतों की तरफ निकल आया था। वहाँ हम एक मचान पर बैठे।
‘खाली समय में हम यहाँ पहरा देते हैं...मेरा मचान है...बैठो...वो देखो, सामने पुतला...बिजू का बोलते हैं उसको। एक जीवित बिजू का हम...इहाँ बैठकर हम गाने का अभ्यास करते हैं।’
‘मुझे फकरा सुनाओ...मुझे लिखना है। अपनी सहेलियों को भेजना है...तुम बहुत सुंदर-सुंदर फकरा पढ़ते हो। कहाँ से लाते हो?’
‘खाली लडक़ी को लिखिएगा...लडक़ों को लिखना हो तो बहुते माल है अपने पास...दें क्या?’
मैं झेंप गई। मीना ने उसको घुडक़ी दी, ‘तुम लडक़ी वाला कविता दो...छोड़ो लडक़ा-फडक़ा वाला। बूझे...’
ठोकू को मुँह जबानी सैकड़ों गाने, शायरी, फिल्मी गीत याद थे। जैसे फूल झरते हों। वह एक-से-एक फकरा पढ़ता गया...मैंन नोट कर पाई, न याद रख पाई। बस, इतना याद है कि वह मचान से कूद गया और खेत में ही पैर पटक-पटक के नाचने लगा। खेतों में पानी भरा था। छप-छप करे, पानी के छींटे उड़ाए। मुझे लगा, उसके पैरों से छिटकता पानी बादलों तक पहुँच रहा है। लौटेगा पानी, साथ में कुछ मछलियाँ लेकर।
हम तीनों अक्सर मिलते। ठोकू फुर्सत पाकर स्कूल कैंपस तक आ जाता। हमेशा अपने बाल का जूड़ा बनाकर रखता। उसकी चाल में नाच की लय थी। मेरा मन करता कि मैं भी उसके साथ कभी नाचूं।
नाचना-गाना सपना बन कर रह गया था। एक दिन ठोकू उदास-सा आया। हमने पूछा तो सिर्फ इतना बोला कि लोग गंदे-गंदे गाने की फरमाइश करते हैं। कोई नया भोजपुरी गायक आया है, उसका गाना जोर पकड़ लिया है। लोग उस पर नाचने को बोलते हैं। हमारा नाच औरतें भी देखती हैं, बच्चे भी देखते हैं, हम कैसे गाएँगे! एक छौरा है, सुंदरवा, नया लौंडा तैयार हुआ है। वह सब कुछ करने को तैयार है। अपनेको औरत ही समझने लगा है। हम औरत बन कर नाचते जरुर हैं, औरत थोड़े न हैं। लेकिन औरतन को समझते हैं। जब हमको इतना छेड़ता है सब, औरतन को कितना तंग करता होगा...’
मैंने उस दिन उसे अपने हाथों से बनाया हुआ सूती रुमाल उपहार दिया। बोला, ‘रुमाल नहीं देते, अशुभ होता है। इसके बदले ये चवन्नी लीजिए।’
मैं उसे अनसुना करते हुए चवन्नी झटक कर बढ़ आई।
धरमेंदर से एक बार मिला द, सजन बेलबाटम सिला दअ ना वो बरसाती रात थी। भादो बरस रहा था, घनघोर! माई लौटकर आ चुकी थी। ठोकू की तलाश छोड़ दी मैंने। घर पर यह बातें चलने लगी थीं कि माई हम सब भाई-बहनों को लेकर कुछ महीने गांव में ही रहेंगी, वहीं ढबढब स्कूल में हम पढ़ेंगे। बाद में किसी नई जगह पर बाबूजी हमें बुला लेंगे। किसी खास मिशन में लगना है। परिवार से अलग रहना होगा कुछ समय़।
सो हम गांव जाने की तैयारी मेंलग गए। पहले गोपालगंज, अब कुचायकोट...और ठोकू गोंसाई का नाच—सब पीछे छूट रहा था।
एक रात जब हम सब सोने जा चुके थे। थाने का परिसर कोलाहल से भर गया था। बरसाती रात थी। मुझे नींद नहीं आ रहा थी। मुझे बाहर बारिश के साथ जमीन पर बरसती छोटी-छोटी मछलियाँ याद आने लगीं। जिन्हें मैं पकडक़र पानी में डाल देती थी या कभी बोतल में पानी डालकर उसमें रख लेती थी। बादल बूंदों के साथ तब छोटी मछलियाँ बरसाते थे। मुझे वो उफनते हुए दो नाले याद आने लगे, जिनमें कागज के जाने कितनेनाव बहा दिए थे, अपने सपने लादकर...जाने वे कहाँ बिला गए होंगे...
सखि मीना याद आनेलगी जो किसी दूसरी लडक़ी को ढूंढकर सखि बना लेगी। मैं करवट बदलते-बदलते उठ गई। पहले आंगन में पानी बरसते देखा। फिर खिडक़ी से बाहर झांका। दूर कैंपस में लाइट झिलमिला रही थी। गाने-बजाने की आवाजें थीं। बाबूजी घर नहीं लौटे थे। दिन में सुना था कि निरीक्षण के लिए सीनियर आने वाले हैं। नेता लोग भी आएँगे। नाच-गाने और खाने-पीने का इंतजाम हो रहा था।
घर में सब सोये पड़े थे।
मैं दबे कदमों से उठी तो हमारा सेवक मुन्ना जाग गया। मैंने इशारे से उसे चुप कराया। उसको साथ लेकर वहाँ पहुँची, जहाँ महफिल जमी थी।
दस बीस लोग थे। चौकी जमाकर मंच बनाया गया था। उस पर बजनिया बजा रहे थे। ठोकू गोंसाई की मंडली नाच रही थी। आज ठोकू अकेला नहीं नाच रहा था, साथ में एक सुंदर लौंडा भी नाच रहा था, जिसे देखकर कोई भी मोहित हो जाए। ठोकू उसके सामने साधारण दीख रहा था। नाच में ठोकू भारी पड़ रहा था और अदाओ में वो नया लडक़ा।
महफिल से फरमाइशें उठ रही थीं—‘अरे, वो गाना गाओ...धरमेंदर से एक बार मिला दअ सजन बेट लाटम सिला दअ न...’
‘अरे, का बेकार गाना है! ई छोड़ो...दोसर गाओ, नाचो...’
‘कटहल के कोआ तू खइलअ...’
उस समय ठोकू डाकू सुल्ताना पर नाच-गान कर रहा था। बीच-बीच में वही फकरा यानी शायरी पढ़ता।
बहुत शोरगुल होने पर ठोकू नाच रोककर चिल्लाया—‘साहब लोग, हम अश्लील गाना न गायब, न नाचब। बूझ जाईं रउआ लोग।’
नीचे बैठा हुआ एक सफेद कुरते वाला आदमी बोला, ‘हमें लैला-मजनू सुना दो...’
ठोकू बोला, ‘सुना देंगे हुजूर...लौंडा नाच का एक कायदा-कानून होता है, सरकार। हम लोग उसके बाहर नहीं जा सकते। थोड़ा-बहुत ऊपर-नीचे चलता है। एकदम्मे सेएतना गंदा नहीं गा सकते।‘
ठोकू ने अपने दोनों कानों से हाथ को लगाया। बोलते हुए भी अपना पैर बार-बार मंच पर पटक रहा था। यह नाच का तरीका है...
हाथ खूब नचाना और पैर खूब पटकना...गोल-गोल घूमना...कमर के ठुमके...
यह ठोकू के नाच की विशेषता थी। एक सिपाही उठा, ‘तुम बैठ जाओ ठोकूआ...ई सुंदरी है न...नई लैला...उसको नचवाएँगे हम... नाच रे सुंदर...’
बाबूजी एक कोने में बैठे सारा तमाशा देख रहे थे। उन्हें आनंद आ रहा होगा, मगर वे इसमें शरीक नहीं थे।
ठोकू अपमानित होकर एक तरफ जाकर खड़ा हो गया। सुंदर, कोमल-सा लडक़ा उठा, जिसे सब सुंदरी-सुंदरी कहकर पुकार रहे थे। उसने अदाएँ दिखाकर नाचना शुरु किया। फिल्मी गाने की फरमाईश होती रही। सुंदर ठुमक-ठुमक कर नाचता रहा। उसकी भी जान सांसत में रही होगी। ठोकू डर के मारे सटका हुआ था। थाना परिसर में उसकी हिम्मत न हुई कि विरोध करे। मन ही मन ठान लिया था कि अपने पांरपरिक नाच से समझौता नहीं करेगा। चाहे सुंदर नचनियाँ कुछ भी नाचे-गाए। सफेद कुरते वाला उठकर सुंदर नचनिया से देह में देह रगड़ कर नाचने लगा था। बाकी लोग सिसकारियाँ भरने लगे। ठोकू सन्न अवस्था में बैठा रहा। अपने नाच की ऐसी गति की कल्पना न की हो शायद उसने!
नीचे से एक सिपाही चिल्लाया, ‘हुजुर , इसको लौंडा फौज में भर्ती कर लीजिए न! कोठी का सोभा बढ़ाएगा।’
‘भक्क, बुरबक...’
वह नशे में झूमता रहा। तालियाँ बजती रहीं। चुन-चुनकर गानों की फरमाइश हो रही थी। सुंदर अपनी फटी हुई आवाज में गाने की कोशिश करता। वह ठोकू जितना सुरीला न था। कोई चिल्लाया, ‘अरे ठोकूआ, गला काहेबंद करके खड़ा हो गया हैरे, गाओ...’
ठोकू गाने लगा। थोड़ी देर में ठोकू लडक़ा बना, सुंदर लडक़ी; और दोनों गाना गाने लगे—‘हो तेरा...रंग है नशीला, अंग-अंग है नशीला...’
मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं। ऐसे नजारे की कल्पना न की थी। ऐसा तो चचेरी बहन की शादी में शामियाना फाड़ कर छेद से देखे थे। तब नाचने वाली वे लड़कियाँ थीं। यहाँ लडक़े हैं, जो स्त्रियों की तरह नाच रहे हैं। ठोकू बीच-बीच में बोलता है, ‘ये हमारी पंरपरा है, लौंडा नाच की परंपरा। बहुत पुरान नाच है सरकार लोग...हम आज प्रस्तुत करेंगे...’
‘चोप्प...तुम वही प्रस्तुत करोगे जो हम कहेंगे...बंद करो ये अपना लैला-मजनू, डाकू सुल्ताना का ड्रामा...’
हमारा सेवक मुन्ना फुसफुसाया, ‘बबुनी, चलिए यहाँ से। पकड़े गए तो हम दोनों को मार पड़ेगी। हमको तो साहब हाजत में ही बंद कर देंगे।’
हम दोनों भादो की बरसात में भींग भी रहे थे। छींक आती तो भेद खुल जाता, सो हम वापस भागे। ठोकू से मिलने की लालसा मन में रह गई।
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कुछ दिनों के बाद हमारा सामान ट्रक पर लादा जा रहा था। हमें भी सामान के साथ ट्रक पर ही बैठकर जाना था। बैठने की अच्छी-सी जगह बनाई गई थी। लेकिन चारों तरफ से तिरपाल लगा था, बारिश से बचाव के लिए। मेरी माई को जतरा बनाने में बहुत विश्वास था। बिना जतरा के कहीं नहीं निकलती थीं। उस दिन सुबह जतरा के लिए कुछ और निर्धारित था। माई ने कहा कि चलने से पहले रतन-चौकी जमाएँगी। ‘बहुत शुभ होता है।’
माई द्वार पर अंचरा फैलाकर बैठी थीं। उस पर ठोकू गोंसाई नाच रहा था। उसके लंबे, घने बाल खुले थे। हवा मेंलहरा रहे थे। वह भर-भर हाथ चूड़ी पहने हुए था। होंठों पर गहरी लाली, आँखों में काजल की मोटी लकीरें खींचे हुए, माथे पर टिकुली, लाल-पीला लगाए हुए पूरा मेकअप में था। वह देवी-गान गा रहा था। फूल बरसा रहा था। अक्षत छींट रहा था।
ठोकूजब हटा तो माई अपना अंचरा संभाल कर, फूल-अक्षत समेत कमर में बांध लीं। वे बहुत गदगद थीं। बाबूजी ने उनकी बात रख ली थी। ठोकू मुझे देखे जाए...गाए जाए। कभी हैरान हो तो कभी बेचारगी दिखाए। कभी उदासी लाए तो कभी हरियाए। कभी शिकायती मुँह बनाए तो कभी दुलार भर लाए।
मैं बस एक बार उससे कहना चाहती थी, ‘कुछ फकरा पढ़ दो...या लिखकर देदो...अपनी रूठी दोस्त को मनाने के काम आएगा।’
मैं कह नहीं सकी, वह सुन नहीं सका। बारिश तेज होने लगी थी। पानी में छपछप चलते हुए जब ट्रक तक पहुँची तो अनेक छोटी मछलियाँ इधर-उधर छितराई हुई, छटपटा रही थीं...
-दिनेश श्रीनेत
बचपन में इंद्रजाल कामिक्स की जिन कहानियों ने मुझ पर सबसे गहरा असर डाला गृहस्थ वेताल उन्हीं में से एक है। इस कॉमिक्स में ली फॉक बिल्कुल ईवान इलीच की तरह आधुनिक सभ्यता के गहरे आलोचक के रुप में सामने आते हैं। शायद इसीलिए इस कहानी को कॉमिक्स के इतिहास की कुछ असाधारण रचनाओं में गिना जाना चाहिए। यह भी सच है कि आधुनिक शहरी सभ्यता की आलोचना के लिए वेताल से बेहतर कोई किरदार नहीं हो सकता था। एक आम इंसान की तरह जीने के संकल्प के साथ वेताल का शहर जाना दरअसल एक ऐसी काव्यात्मक विडंबना को जन्म देता है- जो गृहस्थ वेताल एक आम कहानी से ऊपर का दर्जा दे देती है।
वेताल की आम कॉमिक कथाओं से अलग इस कहानी की शुरुआत में ही एक अवसाद है। उसकी गुफा में लोग उसे उदास देखते हैं मगर पूछते नहीं हैं। सिर्फ गुर्रन उस फैसले का राजदार है। कहानी की शुरुआत अपनी सारी शानदार विरासत छोडऩे की दुविधा से शुरु होती है। वेताल गुर्रन से कहता है, ‘मैं वेतालों की 21वीं पीढ़ी में हूं। बचपन से यही कुछ देखा है... यह सब छोड़ दूं?’ इन संवादों के साथ हम देखते हैं भव्य खोपड़ीनुमा गुफा, मशाल की रोशनी में जगमगाती वेताल की पिछली पीढिय़ों की महागाथाएं और गुफा में रखी बेशुमार संपत्ति। इस फैसले के पीछे 21वीं पीढ़ी के वेताल की मार्मिक प्रेम कहानी झिलमिला रही है।
यह एक नितांत निजी फैसला है- अपने प्रेम और खुशियों के लिए वेताल परंपरा के बोझ से छुटकारा पाना चाहता है। ठीक वैसे ही जैसे हमारे भारतीय समाज में कदम-कदम पर निजी खुशियां और परंपरा की विरासत आपस में टकराती हैं। वेताल की यह दुविधा ही पूरी कथा पर उदासी की चादर डाल देती है। शुरुआती फ्रेमों में जहां अपनों से और अपनी विरासत से बिछुडऩे की तकलीफ है वहीं एक अनिश्चित भविष्य को लेकर ढेर सारे संशय भी। इस वेताल ने भी अपने पुरखों की तरह परंपरा को जारी रखने की शपथ ली थी। खुद वेताल के शब्दों में, ...जीवन भर- जब तक किसी हत्यारे की गोली या छूरा मुझे खत्म न कर दे! यहां वेताल के मन में खुद की मौत को लेकर दुविधा नहीं है बल्कि अपने न होने पर किसी प्रिय के अकेले रह जाने की चिंता है।
आखिर वेताल ने फैसला ले लिया, बांदार लोगों मैं जा रहा हूं। इस बीच कोई वेताल नहीं रहेगा। वे पूछते हैं, तुम वापस तो आओगे? एक अन्य वनवासी कहता है, वेताल तो हमेशा ही होता है। इन दो वाक्यों से हम वेताल के फैसले की गहराई और अफ्रीका के उन बीहड़ जंगलों में उस शख्स की जड़ों को समझ जाते हैं। गुर्रन खर्च के लिए कुछ सोना ले जाने को कहता है मगर वेताल यह कहकर मना कर देता है कि इस निधि का इस्तेमाल सिर्फ बुराई को मिटाने के काम में करना चाहिए। यहां पर वेताल के संकल्प की गहराई हमें समझ में आने लगती है। वह खुद को एक आम इनसान की कसौटी पर रखना चाहता है। क्या वह डायना पामर के लायक एक आम इनसान बनकर रह सकेगा? गुर्रन पूछता है, वहां के लोग क्या करते हैं महाबली? वेताल जवाब देता है, उसे रोजी कमाना कहते हैं... गुर्रन का जवाब, यह कुछ जंचता नहीं। यहां जंगल और शहर के मूल्य साफ तौर पर विभाजित होते दिखते हैं।
वेताल शहर में अपनी चिरपरिचित वेशभूषा में निकलता है। ओवरकोट, चेहरे पर गॉगल्स और हैट। अपने और शेरा के खाने के लिए वेताल एक होटल में बर्तन धोने का काम करता है। इसके बाद वह रोजी की तलाश में आगे बढ़ता है। कहीं नौकरी नहीं मिलती। उसे अपने रहने का ठिकाना भी चाहिए। मगर हर जगह पेशगी (एडवांस) किराया चाहिए। एक कमरे का इंतजाम करके वह निकलता है तो आखिरकार उसे खाई खोदने के एक मामूली काम पर रख लिया जाता है।
यहां से वेताल का हम एक नया रूप देखते हैं, जो न तो किसी पहले की कॉमिक्स में दिखा और न बाद की। सिर पर कैप, आंखों में गॉगल्स, सफेद शर्ट और नीली जींस। वहां उसका कुछ लोगों से झगड़ा हो जाता है- वेताल अपने चिर-परिचित अंदाज में उनसे निपट भी लेता है। बाद में काम खत्म होने पर ली फॉक का सधा हुआ व्यंग सामने आता है- जब वेताल को आधा वेतन मिलता है। वेतन देने वाला बताता है कि आधा वेतन कट गया- यूनियन के चंदे, पेंशन फंड और तमाम टैक्स में। वेताल हतप्रभ होकर अपना आधा वेतन लिए शेरा के साथ खड़ा रह जाता है और कहता है, किसी ने बताया नहीं कि सामान्य जीवन में यह भी होता है। है न कचोटने वाला तीखा व्यंग! हममें से शायद बहुतों को न पता हो कि ली फॉक कॉमिक्स के रचयिता होने के साथ-साथ एक बेहतरीन थिएटर डायरेक्टर भी थे। शायद इसीलिए वे वेताल की बेहद सामान्य सी दिखने वाली कहानियों में असाधारण नाटकीयता पैदा कर सके। ये वो निर्देशक था जिसने मार्लिन ब्रैंडो, पॉल न्यूमैन और जेम्स मैसन जैसे अभिनेताओं से अपने नाटकों में अभिनय कराया।
जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है शहरी जीवन की विकृतियां सामने आती जाती हैं। एक शख्स पिस्तौल दिखाकर वेताल की पहली कमाई लूट लेता है। वेताल सोचता है कि उसे कानून अपने हाथ मे नहीं लेना चाहिए। शहर में कानून-व्यवस्था के रखवाले उसकी मदद करेंगे मगर सिपाही भागते हुए चोर को देखने के बावजूद यह कहकर निकल जाता है कि मेरी ड्यूटी पार्क में लगी है यह मेरा काम नहीं है। पैसा न जमा करने के कारण उसे किराए का घर भी नहीं मिलता है। वह कहीं सोने की कोशिश करता है तो पुलिस वाले उसे चलता करते हैं। पूरी कहानी में वेताल का अपने कुत्ते (या भेडि़ए?) से एकालाप चलता रहता है। एक मूक जीव के साथ एक-तरफा संवाद वेताल की इस कहानी को अद्भुत अभिव्यंजना प्रदान करता है।
यह शायद वेताल की इकलौती कॉमिक्स होगी जिसमें किसी एक कहानी के सूत्र में घटनाएं नहीं पिरोई गई हैं। पुरी कॉमिक्स में छोटी-छोटी एक दूसरे से असंबद्ध कहानियां हैं। इसकी वजह से उनके ही पेज होने के बावजूद इस कथा का कैनवस बहुत बड़ा महसूस होता है। वह एक असहाय वृद्ध को लूटने वाले लुटेरों को खोज निकालता है। जब गुंडे उसे पूछते हैं कि वह किस हैसियत से उनकी खोजबीन करता है तो वेताल का एक असाधारण जवाब सामने आता है। वेताल कहता है, नागरिक द्वारा गिरफ्तारी समझते हो? मैं तुम दोनों को लूट-मार के अपराध में गिरफ्तार करता हूं।
आगे वेताल नाइट गाउन पहनी एक सुंदर सी युवती को धधकती इमारत से बचाता है। फिर वह उचक्कों के एक गैंग में जा फंसता है। यहां जीवन का बेहद यथार्थवादी चित्रण सामने आता है। वहां रात को एक व्यक्ति वेताल की चाकू से हत्या करके उसके जूते चुराना चाहता है। मगर शेरा की सतर्कता के चलते वेताल जाग जाता है। बाकी लोग वेताल पर हमला करने वाले को जान से मारना चाहते हैं तो वेताल उन्हें रोकता है। नतीजे में उनसे झड़प हो जाती है।
सभी वेताल से पिटकर भाग जाते हैं तो इस कॉमिक्स का एक और न भूलने वाला दृश्य सामने आता है। उचक्का अपनी सफाई में कहता है, मेरा इरादा तुम्हें मारने का नहीं था, सिर्फ तुम्हारे जूते लेना चाहता था। मेरे पास हैं जो नहीं... वेताल कहता है तो मांग लेते- मैं दे देता। तस्वीर में वेताल यह कहते हुए अपने जूते उतार रहा है और वह व्यक्ति हतप्रभ सा उसे देख रहा है। बहुत बेहतरीन साहित्यिक रचनाओं में नैतिकता का इतना सहज और सुंदर पाठ दुर्लभ है।
कहानी अभी खत्म नहीं होती- आगे वेताल का सामना बैंक में कुछ लोगों को बंधक बनाकर रखे लुटेरों से होता है। इस मोड़ तक आते-आते वेताल के फैसले दुविधा से परे नजर आने लगते हैं। वह बंधकों को लुटेरों के चंगुल से छुड़ाता है। और फिर कहानी एक दिलचस्प मोड़ पर पहुंचती है। यहां एक रात का ब्योरा है। रात मानों ठहर जाती है। शहर की एक ऐसी रात जो असाधारण है। जिस रात कोई गुनाह नहीं हुए। क्योंकि चार्ल्स ब्रानसन की डेथ विश की तरह कोई अपराधियों के गुनाहों की सजा देने के लिए रात को घूम रहा है।
कहानी के अंतिम हिस्से में वेताल एक दुकान पर सेल्समैन की नौकरी करने पहुंचता है। यहां एक संवाद देखें... वेताल कहता है, आधी दुनिया बिकवाली का धंधा करती है, आधी खरीदती है। मैं यही करके देखूं। पूंजीवादी व्यवस्था पर एक बेहद साफ-साफ तंज़ नजर आता है यहां पर। दुकान पर वेताल की सेल्समैनी चलनी नहीं थी, क्योंकि वह ग्राहकों को हर प्रोडक्ट की असलियत बताता चलता है।
अंतत: उस दुकान के मालिक से अपमानित होकर निकलने के बाद वेताल का फैसला हमें सुनाई देता है, मेरा जी भर गया- झूठ, फरेब, चोरी, अन्याय, घृणा...
और वह लौट पड़ता है। आगे के कुछ बेहद शानदार फे्रमों में हम वेताल के सफेद घोड़े की टापों से गूंजते जंगल को देखते हैं। वेताल वापस लौट आता है। बीहड़वन में खुशियों की लहर दौड़ जाती है- और वेताल अकेले में कहता है- डायना मैंने कोशिश की- जैसा हूं मुझे वैसा ही स्वीकार करो-
यह वेताल की प्रेमिका की गैरमौजूदगी में भी एक खूबसूरत प्रेम कहानी है। कॉमिक्स में कहीं भी डायना मौजूद नहीं है। सिर्फ वह बीच-बीच में वेताल के ख्यालों में आती है। आर्टिस्ट ने हर बार बड़ी खूबसूरती से डायना को प्रस्तुत किया है। वह मुस्कुराती-खुद में डूबी किसी स्वप्न सरीखी दिखती है। वेताल की आकांक्षा का इससे सुंदर प्रतिरूप नहीं बन सकता था।
इस कहानी में वेताल एक जगह जब अपने भविष्य की कल्पना करता है तो शाम को घर लौटने पर डायना और दो बच्चे (एक लडक़ा और एक लडक़ी) उसका इंतजार कर रहे होते हैं। (काफी कुछ भारतीय है न? शायद इसीलिए फैंटम भारत में इस कदर लोकप्रिय हुआ...) बहुतों को पता है कि बाद में वेताल के जुड़वां बच्चे हुए किट और हेलोइस। वे बिल्कुल उसी तरह दिखते थे जैसे वेताल ने इस कॉमिक्स में अपने परिवार को ख्वाबों में देखा था। शायद ली फॉक के चेतन-अवचेतन में वेताल ये दो जुड़वां बच्चे बहुत पहले से ही थे। मैंने तो शायद इस कॉमिक्स के जरिए (तब मैं बहुत छोटा था- अभी पढऩा सीख ही रहा था- हालांकि बाद में जाने कितनी बार इस कॉमिक्स को पढ़ा होगा) वेताल के चरित्र को इतनी गहराई से समझ लिया कि यह किरदार हमेशा के लिए मन में अंकित हो गया।
"To me, The Phantom and Mandrake are very real - much more than the people walking around whom I don't see very much. You have to believe in your own characters."
Lee Falk, creator of the character Phantom
आज सत्ता तो लोकतांत्रिक भावना में कटौती कर रही है लेकिन साधारण नागरिक, अलग-अलग मोर्चों पर, प्रश्नवाचक और मुखर होकर भारतीय लोकतंत्र में बढ़त कर रहे हैं
-अशोक वाजपेयी
चार वर्ष पहले
चार वर्ष पहले यही जुलाई का महीना था. मई के उत्तरार्द्ध से हम हर रोज़ दिल्ली के मैक्स साकेत अस्पताल में सुबह-शाम उसकी सघन चिकित्सा इकाई में अचेत लेटे उनका हाल जानने जाते थे. वेण्टीलेटर पर वे शान्त-मौन आंखें बन्द किये लेटे रहते थे. उनकी ज़रा सी हरकत, जैसे पल भर के लिए आंखें खोलना, हमें उम्मीद से भर देती थी. वे 94 बरस के हो चुके थे और कई बार अप्रत्याशित रूप से स्वस्थ होकर अस्पताल से घर वापस आ चुके थे. इस बार भी हमें ऐसे ही किसी चमत्कार की प्रतीक्षा थी. पर वह हुआ नहीं. 23 जुलाई 2016 को सुबह 11 बजे के थोड़ा बाद उनका निधन हो गया. हमारे सचिव संजीव चौबे और मैं बाहर ही थे और एक तरह से मैंने मुक्तिबोध, अपने पिता और अब रज़ा को अपनी आंखों के सामने मरते देखा. पिता तो उस समय सजग थे, भले अस्पताल में थे. मुक्तिबोध और रज़ा दोनों ही महीनों अचेत रहकर दिवंगत हुए, अस्पताल में ही. 24 जुलाई को इस मूर्धन्य चित्रकार के शव को उनकी इच्छा के अनुसार हमने मण्डला की कब्रगाह में उनके पिता की कब्र के बगल में, राजकीय सम्मान के साथ, दफ़्न किया.
इन चार वर्षों में मण्डला में सैयद हैदर रज़ा और उनके पिता की कब्र को सादा-सुघर रूप दे दिया गया है. हिन्दी कवि असंग घोष की पहल पर यहां के एक मार्ग का नाम उन पर रख दिया गया है और एक सुकल्पित रज़ा कलावीथिका भी बना दी गयी है जहां कलाप्रदर्शन के अलावा संगीत, साहित्य आदि की महफ़िलें आयोजित हो सकती हैं. हर वर्ष रज़ा की प्रिय और वरेण्य नर्मदाजी के तट पर रज़ा फ़ाउण्डेशन उनके जन्म और देहावसान के महीनों अर्थात् फ़रवरी और जुलाई में छात्रों-युवाओं के लिए कला-कर्मशाला, नागरिकों के लिए कला-शिविर, लोकसंगीत-नृत्य आदि के आयोजन करता है. अपने देहावसान के बाद एसएच रज़ा मण्डला शहर के जनजीवन में अब एक प्रेरक उपस्थिति हैं और यह शहर प्रीतिकर विस्मय से यह पहचान रहा है कि वहां के साधारण मध्यवर्ग के एक लड़के ने कला में कैसी कालजयी मूर्धन्यता अर्जित की, और 70 से अधिक बरस उससे दूर रहकर भी, उसको अपनी स्मृति और कला में संजोये रहा.
इस बीच रज़ा फ़ाउण्डेशन, जिसे रज़ा ने ही स्थापित और पोषित किया, लगातार अपनी सक्रियता और जीवन्त उपस्थिति देश के कला-संगीत-साहित्य-नृत्य-विचार जगत् में बनाये हुए है. उसके द्वारा प्रेरित और वित्तपोषित रज़ा पुस्तकमाला में 100 के लगभग पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और यह संख्या अगले वर्ष के अन्त तक 150 होने की सम्भावना है. किसी कलाकार की उदारता से सम्भव हुई यह पुस्तकमाला हिन्दी में सबसे बड़ी पुस्तकमाला होने जा रही है. रज़ा को यह जानकर बेहद सन्तोष होगा, वे जहां भी हैं, कि उनकी प्रिय मातृभाषा हिन्दी में यह सम्भव हुआ है.
इस वर्ष कोरोना महामारी और लॉकडाउन के कारण फ़ाउण्डेशन की गतिविधियों की निरन्तरता बाधित हुई है. फिर भी, ककैया के एक विद्यालय में, जहां रज़ा का विद्यारम्भ हुआ और मण्डला के एक विद्यालय में छात्र अपने परिसरों में चित्र बनाकर रज़ा को प्रणति दे रहे हैं. रंगसामग्री और मण्डला में घर बैठकर चित्रकारी करने के लिए इच्छुक नागरिकों को गमले और रंग उपलब्ध कराये गये हैं. एक अनाथाश्रम और एक वृद्धाश्रम में अनाज-वितरण की व्यवस्था भी फ़ाउण्डेशन ने की. पिछले तीन महीनों से 40 के लगभग अर्थाभावग्रस्त लेखकों-कलाकारों को फ़ाउण्डेशन साढ़े सात हज़ार रुपये प्रति माह प्रति व्यक्ति की वित्तीय सहायता भी कोरोना संकट में दे रहा है. फ़रवरी 2021 से रज़ा का सौवां वर्ष शुरू होगा और उसकी तैयारी चल रही है.
छोटी कविताएं
छोटी कविताओं का अपना आकर्षण होता है. वे बड़ी मुद्राएं नहीं बनातीं और सीधे मर्म को बेंधती हैं. उनकी संक्षिप्ति कथ्य की अल्पता नहीं होती. वे अकसर संक्षेप में या तो अधिक कह जाती हैं या उस अधिक की ओर गहरा संकेत करती हैं. अमेरिका से प्रकाशित नाओमी शिहाब नाई द्वारा सम्पादित एक अंग्रेजी काव्य संचयन ‘दिस सेम स्काई’ इधर फिर पलट रहा था तो कई छोटी कविताओं में मन रमा. उनमें से तीन के हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत हैं:
कलम - मोहम्मद अल-गज़ी (ट्यूनीशिया)
अपनी अनाश्वस्त उंगलियों में एक कलम लो
भरोसा करो, आश्वस्त होओ
कि सारा संसार एक नभ-नील तितली है
और शब्द जाल हैं उसे पकड़ने का.
समुद्र-तट पर - कमाल ओज़र (तुर्की)
लहरें पदचिह्नों को मिटा रही हैं
उनके जो तट पर चल रहे हैं
हवा शब्दों को दूर ले जा रही है
जो दो व्यक्ति एक-दूसरे से कह रहे हैं
लेकिन वे फिर भी तट पर चल रहे हैं
उनके पांव नये चिह्न बनाते हुए
फिर भी वे दो साथ-साथ बतिया रहे हैं
नये शब्द पाकर.
चाहत की दूरियां - फ़ौजिया अबू ख़ालिद (सऊदी अरब)
जब तुम दूर चले गये हो और मैं
तुम्हें एक चिट्ठी से पछिया नहीं सकती
इसलिए कि दूरी
तुम्हारे और मेरे बीच
‘ओह’ की आवाज़ से कमतर है
क्योंकि शब्द छोटे हैं
मेरी चाहत की दूरी से
कटौती और बढ़त
लोकतंत्र की एक बड़ी विशेषता यह होती है कि उसमें नागरिकता अपनी सजगता और सक्रियता से सत्ता को जवाबदेह बनाने की लगातार कोशिश करती रहती है. हमारे लोकतंत्र में, दुर्भाग्य से, सत्ता केन्द्रीकृत और संवेदनहीन हो रही है. उसकी अविचारित हड़बड़ी ने करोड़ों ग़रीब और प्रवासी मज़दूरों को बहुत ही दारुण स्थिति में डालकर शहरों से अपने गांव-घर लौटने को, भयानक कठिनाइयों के चलते, मजबूर किया. उनके अनेक दारुण यंत्रणामय चित्र हमने सोशल मीडिया पर लगातार देखे हैं. वापसी के लिए रेल या बसों आदि की व्यवस्था में भी सत्ताओं की अक्षम्य कोताही हमने देखी है.
गोदी मीडिया इस दृश्यावली और उससे ज़ाहिर होने वाली सत्ता की निर्मम अक्षमता को भले हाशिये पर डालता रहा हो, सोशल मीडिया ने उन्हें दिखाकर लोकतांत्रिक कर्तव्य और नैतिकता निभाये. सत्ता का जवाबदेही निभाने से क्रूर इनकार और नागरिकता द्वारा अपनी सजगता से उसका प्रतिकार हमने दोनों एक साथ देखे. सत्ता लोकतांत्रिक भावना में कटौती कर रही है, जिसमें प्रशासन के कई अंग ख़ास कर पुलिस और अदालतें तक शामिल हैं. लेकिन साथ ही साधारण नागरिक, अलग-अलग मोर्चों पर, प्रश्नवाचक और मुखर होकर लोकतंत्र में बढ़त कर रहे हैं.
कोरोना महामारी और उसके कारण लागू किये गये लॉकडाउन में भय बहुत व्यापक हो गया है. लगता है कि हम अब एक भयाक्रान्त व्यवस्था बन गये हैं. पर इसके साथ-साथ यह भी अलक्षित नहीं जा सकता कि गाली-गलौज, लांछन, झगड़े से किसी संवाद को असंभव बनाने वाली भक्ति और पालतू प्रवृत्तियों के बरक़्स लोग लगातार प्रश्न भी पूछ रहे हैं. पेट्रोल-डीजल के हर रोज़ बढ़ते दाम, चीन की भारत में घुसपैठ, कोरोना प्रकोप को लेकर की गयी कई नयी-पुरानी घोषणाओं और वक्तव्यों को सामने लाकर लगातार बेचैन करने वाले प्रश्न पूछे जा रहे हैं.
सत्ताएं ऐसी प्रश्नवाचकता को, कई क़ानूनों की अनैतिक और मनमानी व्याख्या कर, द्रोही आदि क़रार देने के लोकतंत्र-विरोधी कारनामों में लिप्त हैं. पर वे इस प्रश्नवाचकता को कम नहीं कर पा रही हैं. शीर्षस्थ राजनेताओं की गतिविधि पर यह सजग नागरिकता कड़ी नज़र रख रही है और उनकी असंगतियों और चूकों को सामने ला रही है. इसका राजनैतिक प्रतिफल क्या और कब होगा यह कहना मुश्किल है. पर लगता है कि, राजनैतिक दलों से अलग और विपक्ष से विच्छिन्न, एक तरह का अव्यवस्थित पर सजग-सक्रिय प्रतिपक्ष अब साधारण अज्ञातकुलशील नागरिकता रूपायित कर रही है.
यह आकस्मिक नहीं है कि इसमें रचने-सोचने वाला बड़ा समुदाय शामिल है. यह ज़्यादातर साम्प्रदायिक, लालची, धर्मान्ध, जातिवादग्रस्त मध्यवर्ग से अलग एक ढीला-ढाला वर्ग है. सत्ता द्वारा उसे दबाना या नष्ट करना, जिसकी हर चन्द कोशिश वह निश्चय ही करेगी, आसान नहीं होगा. लेकिन आगे आने वाले तनावों और बाधाओं के सामने इस अल्पसंख्यक वर्ग का टिक पाना और बढ़ पाना भी बेहद कठिन होगा. लोकतंत्र कितना बचता-बढ़ता है वह, कुछ हद तक, इसकी परिणति पर निर्भर करेगा.(satyagrah)
जन्मदिन
‘मैं जो कुछ पेश कर रहा हूं उसे किसी अदब से कमतर नहीं समझता. हो सकता है कि मेरी किताबें अलमारियों की जीनत न बनती हों लेकिन तकियों के नीचे जरूर मिलेंगी. हर किताब बार-बार पढ़ी जाती है. मैंने अपने लिए ऐसे माध्यम का इन्तखाब (चयन) किया है जिससे मेरे विचार ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचें’ जासूसी उपन्यास लिखने की वजह बताते हुए इब्ने सफी यही कहते थे. दरअसल उस दौर में (1950 से लेकर 1980 तक) जासूसी कथा लेखन की साहित्य में कोई खास प्रतिष्ठा नहीं थी. यह अलग बात है कि इब्ने सफी की वजह से जासूसी लेखन भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे ज्यादा पढ़ी जानी वाली साहित्यिक विधा थी.
उस दौर में इब्ने सफी अकेले ऐसे लेखक थे जिन्हें पढ़ने के लिए पाठक किताबें ब्लैक में खरीदते थे. 26 जुलाई,1928 को इलाहाबाद में जन्मे सफी 1952 में पाकिस्तान चले गए थे. इस समय वे जासूसी कथा लेखन में तेजी से पहचान बना रहे थे. पाकिस्तान में रहते हुए कुछ ही सालों के दौरान वे भारतीय प्रायद्वीप में जासूसी लेखन का सबसे बड़ा नाम बन गए. तब उनके हर उपन्यास का पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि भारत में भी बेसब्री से इंतजार किया जाता था.बाद में यह भी हुआ कि इब्ने सफी के उपन्यासों के मुरीद यूरोप में भी पैदा हो गए. यहां तक कि अंग्रेजी के साहित्यकार भी उनके नाम-काम से परिचित होने लगे. अंग्रेजी भाषा की प्रसिद्ध लेखिका अगाथा क्रिस्टी का उनके बारे में कहना था, ‘मुझे भारतीय उपमहाद्वीप में लिखे जाने वाले जासूसी उपन्यासों के बारे में पता है. मैं उर्दू नहीं जानती लेकिन मुझे पता है कि वहां एक ही मौलिक लेखक है और वो है – इब्ने सफी.’ हालांकि इब्ने सफी अपने कुछ शुरुआती उपन्यासों को मौलिक नहीं मानते थे. उन्होंने तकरीबन 250 उपन्यास लिखे थे और खुद उनके मुताबिक इनमें से 8-10 की आत्मा (कहानी) यूरोपीय उपन्यासों से उधार ली गई थी लेकिन जिस्म देसी मिट्टी से बना था.
यह बड़ी दिलचस्प बात है कि इब्ने सफी का झुकाव जब लेखन की तरफ हुआ तो वे जासूसी कथा लेखक नहीं बनना चाहते थे. वे कविताएं और गजल लिखा करते थे और बतौर शायर पहचान बनाना चाहते थे. जासूसी लेखन की शुरुआत उनके लिए बड़े अजब ढंग से हुई. बकौल सफी एकबार उन्होंने अपने एक दोस्त से कहा कि बिना सेक्स को विषय बनाए भी ऐसी किताबें लिखी जा सकती हैं जो लाखों की संख्या में बिकें. इस दोस्त ने बातों ही बातों में सफी को चुनौती दे दी कि यदि ऐसा है तो वे ही कुछ ऐसी किताब लिखकर बताएं. इब्ने सफी ने इस चुनौती को दिल से स्वीकारा और बनी-बनाई शायर वाली पहचान किनारे रखते हुए जासूसी उपन्यासों की दुनिया में चले आए. इब्ने सफी की आज तक जारी लोकप्रियता बताती है कि उन्होंने इस चुनौती को किस गंभीरता से लिया था.
उनका पहला उपन्यास ‘दिलेर मुजरिम’ 1952 में आया था और कहते हैं कि इस पहले उपन्यास के साथ ही उन्होंने तमाम आम-ओ-खास पाठकों को अपनी लेखनी का कायल बना लिया था. इसके बाद फिर उनके उपन्यासों का जो सिलसिला शुरू हुआ तो आगे कई सालों तक उनका हर उपन्यास पिछले से ज्यादा बिका. इब्ने सफी अकेले लेखक रहे जिसने उस दौर में लोकप्रियता के मामले में चंद्रकांता संतति से होड़ ली थी और जो गोपाल राम गहमरी की जासूसी उपन्यासों की परंपरा को बड़ी शानो-शौकत से आगे बढ़ा रहा था.
इब्ने सफी से पहले जासूसी साहित्य के नाम पर जो कुछ भी चलता आया था उसका कुल जमा सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन था. वह चाहे चन्द्रकान्ता संतति हो या फिर गहमरी जी के उपन्यास, उनमें कोई बड़े उद्देश्य नहीं छिपे थे. लेकिन इब्ने सफी के लेखन में यह बात खूब दिखती थी. देशप्रेम और काले कारनामों की हार को दिखाना उनके जासूसी उपन्यासों का एक अहम मकसद रहा. इसके अलावा दूसरे लोकप्रिय और ठेठ देसी उपन्यासों से इतर सफी के उपन्यास कहानी के कसे हुए प्लॉट, मनोविज्ञान की गहरी पकड़ और भाषाई रवानगी के मामलों में कहीं बेहतर थे.
इब्ने सफी अकेले लेखक रहे जिसने उस दौर में लोकप्रियता के मामले में चंद्रकांता संतति से होड़ ली थी और साथ ही जो गोपाल दास गहमरी की जासूसी उपन्यासों की परंपरा को बड़ी शानो-शौकत से आगे बढ़ा रहा था
इब्ने सफी का रचनाकाल 1952 से 1980 का वह समय था जो हमारे देश या फिर पाकिस्तान के लिए भी सामाजिक-राजनैतिक दृष्टियों से बड़ा ही उथल-पुथल का समय था. विभाजन की त्रासदी से दोनों तरफ के समाज प्रभावित हुए थे. भारी उम्मीदों के साथ सरकारें बनीं और वे नाकामयाब होते हुए भी दिख रही थीं. सफी भारत में पैदा हुए थे लेकिन अब पाकिस्तान में रह रहे थे. और जैसा कि उनका मकसद था- अपने लेखन की लोकप्रियता बरकरार रखना, इसके लिए वे अपनी कहानियों को किसी सरहद से बांटना नहीं चाहते थे. उनके उपन्यासों में वर्णित तमाम जगहों के नाम काल्पनिक थे और इसलिए वे किसी एक देश की संपत्ति नहीं हुए. उनके पात्र जब एक देश से दूसरे देश जाते तो उसकी मिट्टी में रंग जाते. जैसे उनकी कहानियां जब भारत में प्रकाशित होतीं तो जासूस इमरान जासूस विनोद बन जाता और दूसरे जरूरी पात्रों का भी ऐसे ही धर्मांतरण हो जाता था.
इब्ने सफी 1952 में पाकिस्तान चले गये थे लेकिन वे 1947 में पाकिस्तान न जाकर पांच साल बाद क्यूं गए, इसबारे में कोई ठोस जानकारी कहीं नहीं मिलती. हालांकि वे वहां जाकर भी भारतीयों के तकियों ने नीचे पाए जाते रहे. उनके उपन्यासों में जोड़ीदार जासूस (एक मुख्य जासूस और दूसरा उसका सहायक) जैसे फरीदी और हमीद या कासिम और इमरान जैसे किरदार थे और माना जाता है कि साहित्य में जोड़ीदार किरदार की यह परंपरा उन्होंने ही शुरू की थी.
इब्ने सफी की रचनाओं का संसार जितना रहस्यमय था उतना ही हैरतंगेज भी था. यहां जासूसी कथाओं के साथ साइंस फिक्शन की शुरुआत भी मिलती है. इन कहानियों में कुछ ऐसे कल्पित मनुष्य हैं जो जेब्रा की तरह धारीदार हैं, और जिनमें हाथियों से ज्यादा बल है. यहां कुछ ऐसे पक्षी भी हैं जिनकी आंखों में कैमरे फिट हैं. मशीनों से नियंत्रित होनेवाले कृत्रिम तूफ़ान भी यहां आते हैं. इन सब के साथ खास सांचे में ढले चरित्र भी यहीं हैं. किरदारों के मनोविज्ञान पर इब्ने सफी की इतनी मजबूत पकड़ हुआ करती थी कि पाठक के दिलो-दिमाग में खलनायक भी एक खास जगह बना लेते थे.
जासूसी कहानियों में अक्सर कुछ विचित्र संयोग भी हुआ करते हैं. आम लोगों के साथ शायद ही ऐसा होता हो लेकिन एक अजब संयोग इब्ने सफी के साथ भी जुड़ा हुआ है. 1980 में आज के ही दिन उनकी मृत्यु हुई थी यानी उनका जन्मदिन और पुण्यतिथि एक ही दिन है. इब्ने सफी जैसे-जैसे लोकप्रिय होते गए उनके ऊपर लुगदी साहित्यकार का तमगा चिपकता गया. हालांकि वे ऐसी किसी छवि से न कभी परेशान हुए और न ही उन्होंने अपने लिखने का क्रम तोड़ा. उन्होंने तकरीबन 250 उपन्यास लिखे हैं और इनमें हर दूसरे उपन्यास को पहले से बेहतर करने की कोशिश साफ दिखती है. शायद यही वजह है कि वक़्त की तहों से निकलकर उनकी कहानियां आज फिर ज़िंदा हुई हैं. जानेमाने विश्विद्यालयों में विद्यार्थी उनकी किताबों को शोध का विषय बना रहे हैं. वहीं हाल ही में हार्पर कॉलिन्स ने उनकी 13 किताबें पुनर्प्रकाशित की हैं. इब्ने सफी चाहते थे कि वे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे और इस समय उनके उपन्यासों की तरफ पाठकों की बढ़ती रुचि उनके इसी सपने को असलियत में बदल रही है.
(मशहूर लेखिका अरुंधति राय ने नागपुर सेंट्रल जेल में बंद प्रोफेसर जीएन साई बाबा को खत लिखा है जिसमें उन्होंने अपनी मुलाकातों के भावुक क्षणों का जिक्र किया है। साथ ही इस दौर में देश की सत्ता और उसकी व्यवस्था द्वारा बरती जा रही क्रूरता का विस्तार से विवरण दिया गया है। इसमें जेल में बंद उनके दूसरे साथियों के साथ अदालतों के व्यवहार से लेकर कोविड-19 और तालाबंदी से उपजी दुरूह परिस्थितियों तक की बातें शामिल हैं। स्क्रोल पोर्टल पर प्रकाशित इस पत्र का हिंदी अनुवाद लेखक और एक्टिविस्ट अंजनी कुमार ने किया है। पेश है उनका पूरा पत्र-संपादक)
17 जुलाई, 2020
प्रति,
प्रोफेसर जीएन साई बाबा
अंडा सेल, नागपुर सेंट्रल जेल, नागपुर, महाराष्ट्र;
प्रिय साई,
आपको दुखी किया, इसके लिए मुझे खेद है। लेकिन यहां मैं, अरुंधति राय लिख रही हूं; अंजुम नहीं। आपने उसे तीन साल पहले लिखा था। उसने निश्चय ही आपको उत्तर लिखना चाहा था। लेकिन मैं क्या कहूं- उसके समय की गिनती आपके और हमारे पैमाने से एकदम अलग है। व्हाट्सअप और ट्विटर की तेज रफ्तार दुनिया को तो बस जाने ही दें। एक पत्र का जवाब लिखने में तीन सालों के दौरान उसने कुछ भी नहीं सोचा (एकदम ही नहीं)। अभी तो, उसने खुद को जन्नत गेस्ट हाउस में बंद कर रखा है। और, सारा समय गाना गाने में गुजऱता है।
इन सालों के गुजर जाने के दौरान जो मुख्य बात हुई है वह यह कि उसने एक बार फिर गाना गाना शुरू कर दिया है। उसके दरवाजे से गुजरते हुए उसे गाते हुए सुनना अच्छा लगता है कि वह जिंदा है। ‘तुम बिन कौन खबरिया मोरी लाए’ हर दम यही वह गाती रहती है। यह मेरे दिल को तोड़ता है। यह आपकी याद दिलाती है। जब वह गा रही होती है, तो मुझे एकदम लगता है कि वह आपके बारे में सोच रही है। इसीलिए, हालांकि उसने आपको जवाबी पत्र नहीं लिखा लेकिन फिर भी आप समझ ही सकते हैं कि वह अक्सर आपके लिए गाती है। यदि आप सुनने की सांद्रता बढ़ायें तो शायद आप उसे सुन सकेंगे।
पत्नी बसंथा के साथ साईबाबा।
जब मैंने समय की समझदारी के बारे में कहा तब मैं जो आसानी से कह गई ‘‘आपका और मेरा’’, यह लिखना गलत था। क्योंकि, एक खूंखार किस्म के अंडा सेल में आजीवन कारावास की जिंदगी गुजारना आपको अंजुम का करीबी बनाता है न कि मेरा। या, हो सकता है उससे भी यह बेहद अलग तरह का हो। मैं हमेशा अंग्रेजी भाषा के ‘डूइंग टाइम’-जेल में खटना, शब्दबंध के बारे में सोचती रही हूं। जिन तरीकों से इसका इस्तेमाल होता है उससे कहीं अधिक इसका गहरा निहितार्थ है। बहरहाल, इस विचारहीन रेखांकन के लिए मुझे खेद है। अंजुम अपने ही तरीके से आजीवन कारावास में है। वह अपने कब्रिस्तान में है- उसके जीवन का ‘‘बुचर्स लक’’(मंजर)। लेकिन निश्चय ही वह जेल की सलाखों के पीछे नहीं है या उसके साथ जेलर नहीं है। उसके जेलर वे जिन्न हैं और जाकिर मियां की यादें हैं।
खाकी कथानक
मैं आपसे नहीं पूछ रही हूं कि आप कैसे हैं, क्योंकि मैं यह बात वसंथा से जानती हूं। मैंने आपका विस्तार से मेडिकल रिपोर्ट देखा। यह मेरी कल्पना से भी बाहर है कि वे आपको क्यों नहीं जमानत पर रिहा कर रहे हैं या पैरोल पर छोड़ रहे हैं। सच् यही है कि ऐसा कोई दिन नहीं गुजरा जब मैंने आपके बारे में सोचा नहीं। क्या वे अब भी अखबारों पर प्रतिबंध लगाकर रखे हुए हैं और किताबों को रोक लेते हैं? क्या आपके साथ जेल के वे संगी जो आपकी दिनचर्या में आपका सहयोग करते हैं, अब भी आपके साथ हैं, क्या वे शिफ्ट में आते हैं? क्या उनका व्यवहार दोस्ताना है? आपका व्हील चेयर अभी कैसा काम कर रहा है?
मुझे मालूम है कि वे आपको गिरफ्तार किये थे-दरअसल, घर आते समय आपका अपहरण कर लिया गया था। मानों आप दुर्दांत अपराधी हों; तब यह टूट गया था। (हम उनके आभारी हैं कि उन्होंने अपनी ‘आत्मरक्षा’ में आपको विकास दुबे नहीं बनाया नहीं तो वह कहते कि आपने उनका बंदूक छीना और तेजी के साथ एक हाथ से व्हीलचेयर लेकर भागे। हमें साहित्य की एक नई शैली बनानी चाहिए, वह है खाकी कथानक। वार्षिक समारोह के लिए हमारे पास काफी कुछ होगा। पुरस्कार देना भी अच्छा होगा और इसमें हमारे तटस्थ न्यायालयों से तटस्थ जजों की शानदार भूमिका भी अच्छी रहेगी।)
साईबाबा की रिहाई के लिए आयोजित एक सभा में संजय काक।
मुझे वह दिन याद है जब आप मुझसे मिलने आये थे। कैब ड्राइवर मेरे घर के दूसरी ओर था, आपको व्हीलचेयर पर लेकर मेरे घर तक सीढिय़ों से लेकर आया। मेरा घर इस व्हीलचेयर के अनुकूल नहीं था। इन दिनों सीढिय़ों के हर कदम पर घुमंतू कुत्ते हैं। चड्ढा साहिब (पिता), बंजारन (जिप्सी की मां) और उनके बच्चे लीला और शीला बैठे हुए थे। ये कोविड की तालाबंदी के दौरान पैदा हुए। ऐसा लगता है उन्होंने मुझे अपना लेने का निर्णय लिया हो। कोविड तालाबंदी के बाद हमारे कार चालक मित्र लोग चले गये हैं। उनके लिए कोई काम नहीं बचा। गाडिय़ां बेधुली धूल से भर गई हैं। धीरे-धीरे पौधे जम रहे हैं, बढ़ते हुए टहनियां और पत्तियां खोल रहे हैं। बड़े शहरों से छोटे लोग लापता हो चुके हैं। सभी तो नहीं लेकिन बहुत से लोग। लाखों लोग।
मैं अब भी अचार के उन डिब्बों को रखे हुए हूं जिन्हें आपने मेरे लिए बनाया था। मैं आपके बाहर आने का इंतजार करूंगी और इन्हें खोलने के इंतजार में हूं जब हम साथ में खाना खायेंगे। तब तक यह एकदम पक जायेगा।
मैं आपकी वसंथा और मंजिरा से केवल कभी-कभी मिलती हूं। क्योंकि हमारे साझे दुख का भार उन मुलाकातों को और कठिन बना देता है। यह सिर्फ उदासी भरा ही नहीं है। इसमें गुस्सा, असहायता और मेरे हिस्से की शर्मिंदगी भी जुड़ जाती है। शर्मिंदगी इस बात की कि अधिकतम लोगों का ध्यान आपके हालात से जोड़ नहीं सकी। यह किस हद तक की क्रूरता है कि एक व्यक्ति मान्य तौर पर 90 प्रतिशत आंगिक-अक्षमता की स्थिति में है और वह जेल में है। उसे बेतुके किस्म के अपराध की सजा में ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया गया। शर्मिंदगी इस बात के लिए कि हम तेजी के साथ न्याय व्यवस्था की उलझाव भरी गलियों से होते हुए आपकी अपील का कुछ भी नहीं कर सके। न्याय व्यवस्था की यही गलियां थीं जो सजा की प्रक्रिया पूरी कीं। मैं मुतमईन हूं कि सर्वोच्च न्यायालय आपको अंतत: बरी कर देगा। लेकिन जब यह हो रहा होगा तब तक आप और आपके लोग कितना कुछ भुगत चुके होंगे।
भारत में कोविड-19 एक के बाद दूसरी जेलों में फैलता जा रहा है। इसमें आपकी भी जेल शामिल है। वे आपके हालात को जानते हैं। एक आजीवन कारावास कितनी आसानी से मौत की सजा में बदल सकता है।
बहुत से दोस्त जो हमारे और आपके भी दोस्त हैं- छात्र, वकील, पत्रकार, कार्यकर्ता; जिनके साथ हमने रोटियां खायीं, ठहाके लगाये और तीखे स्वरों में बहस किया, वे भी अब जेल में हैं। मुझे नहीं मालूम कि आपको वीवी (मैं वरवर राव के बारे में बात कर रही हूं, हो सकता है जेल सेंसर इसे किसी चीज का कोड न समझ ले) के बारे में जानकारी है या नहीं। 81 साल के इस महान बूढ़े कवि को जेल में रखकर मानो जेल में एक आधुनिक स्मारक रख दिया गया है। उनके स्वास्थ्य की खबर काफी सोचनीय है। लंबे समय से चल रहे बुरे स्वास्थ्य जो बेहद उपेक्षा के कारण हुआ है, के बाद अब वे कोविड से संक्रमित हैं।
उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया है। उनका परिवार जो उनसे मिल सका, ने बताया कि वे बिस्तर पर अकेले ही लेटे हुए थे, कोई देखभाल के लिए नहीं था, चादरें गंदी पड़ी थीं। वे असंगत तरीके से बोल रहे थे और चल सकने में सक्षम नहीं थे। वीवी! असंगत! वह व्यक्ति जो हजारों लाखों को संबोधित करने के लिए एक क्षण भी नहीं लगाता था, जिसकी कविताओं ने आंध्र, तेलंगाना और पूरे भारत के लाखों करोड़ों लोगों को कल्पनाओं की ऊंचाइयों तक पहुंचाया। मुझे वीवी की जिंदगी को लेकर चिंता हो रही है। ठीक वैसे ही जैसे आपकी जिंदगी की चिंता बनी हुई है।
वरवर राव
भीमा कोरेगांव केस के अन्य दूसरे आरोपी-‘भीमा कोरेगांव ग्यारह’, भी बहुत ठीक नहीं हैं। उन्हें भी कोविड-19 होने की तीव्र आशंका बनी हुई है। वर्नन गोंजाल्वेस जो जेल में वीवी की देखभाल कर रहे हैं, के संक्रमित होने की गंभीर आशंका है। गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबडे भी उसी जेल में हैं। लेकिन हर बार और बार-बार जमानत पर रिहाई की अर्जी को न्यायपालिका खारिज कर दे रही है। और, अब अखिल गोगोई जो गुहावटी के जेल में बंद हैं, कोविड से संक्रमित हो चुके हैं।
हम किस तरह के तंगदिल, क्रूर और कमजोर दिमाग (या सीधे बढ़ जायें और कहें भयानक मूर्ख) लोगों से शासित हैं। हमारे जैसे एक विशाल देश की सरकार कितनी दयनीय हो चुकी है जो अपने ही लेखकों और विद्वानों से डरी हुई है।
संगीत, कविता और प्रेम
यह चंद महीनों पहले की ही बात है जब लगा कि हालात बदल रहे हैं। लाखों लोग सीएए और एनआरसी के खिलाफ सडक़ पर उतर गये, खासकर छात्र। यह रोमांचक था। इसमें कविताएं थीं, संगीत और प्यार था। कम से कम यह विद्रोह तो था ही, यदि यह क्रांति नहीं था तब भी। यह आपकी पसंदगी होती।
लेकिन अंत खराब हुआ। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में फरवरी के महीने में 53 लोग मारे गये और इसका सारा आरोप पूरी तरह शांतिपूर्ण सीएए-विरोधी आंदोलनकारियों पर डाल दिया गया। हथियारबंद निगरानी गिरोहों जो आसपास के मजदूर इलाकों में दंगा, आगजनी और हत्याएं कर रहे थे और बहुधा पुलिस का उन्हें सहयोग मिला, के आये वीडियो से साफ पता चलता है कि यह योजनाबद्ध हमला था। यह तनाव कुछ दिनों से बन चुका था। स्थानीय लोग भी बिना तैयारी के नहीं थे। वे लोग भी लड़े। लेकिन निश्चय ही जैसा होता है पीडि़त लोगों को उत्पीडक़ बना दिया गया। कोविड तालाबंदी के आवरण में सैकड़ों युवाओं, जो ज्यादातर मुसलमान हैं और जिसमें बहुत से छात्र हैं, को दिल्ली और उत्तर प्रदेश से गिरफ्तार किया गया है। यह बात भी फैल रही है कि कुछ पकड़े गये युवाओं पर दबाव डालकर अन्य दूसरे वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को लपेटे में लिया जा रहा है। उन लोगों के खिलाफ पुलिस के पास कोई वास्तविक साक्ष्य नहीं है।
सफूरा जरगर। फेसबुक से साभार।
कथानक लेखक एक नई कहानी को विस्तार देने में व्यस्त है। कथासूत्र यह है कि राष्ट्रपति ट्रम्प के दिल्ली में होने के दौरान दिल्ली नरसंहार कर सरकार को शर्मिंदगी में डालने का एक बड़ा षडयंत्र है। इन योजनाओं के बनने के मामले में पुलिस जब उन तिथियों को लेकर आई तो पता चला कि वे ट्रम्प की यात्रा के निर्णय होने के पहले के निकले; किस तरह से सीएए विरोधी कार्यकर्ता व्हाइट हाउस तक में घुसे पड़े थे! और, किस तरह का यह षड्यंत्र था? प्रदर्शनकारियों ने खुद को ही मार लिया ताकि सरकार का नाम न खराब हो जाये?
सब कुछ सिर के बल खड़ा है। मार दिया जाना ही अपराध है। वे आपकी लाश के खिलाफ केस दर्ज करेंगे और आपकी आत्मा को पुलिस स्टेशन आने का सम्मन भेजेंगे। जब मैं लिख रही हूं उसी समय अररिया, बिहार से एक महिला की खबर आ रही है जिसने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी कि उसके साथ गैंग रेप हुआ है। उस महिला और उसके साथ आई महिला कार्यकर्ता को गिरफ्तार कर लिया गया है।
कुछ ऐसी बेचैन करने वाली घटनाएं होती हैं जिनमें जरूरी नहीं कि खून बहे, उन्मादी हत्या हो, भीड़ द्वारा हत्या हो या बड़े पैमाने पर लोगों को जेल में डाल दिया जाए। कुछ ही दिनों पहले कुछ लोगों या कहें ठगों ने इलाहाबाद में जबरदस्ती एक गली के निजी घरों को भगवा रंग मे रंग दिया और उन्हें हिंदू देवों के चित्रण से भर दिया गया। कुछ कारण ही है जिससे मुझे सिहरन सी हुई है।
सच में, मुझे नहीं पता कि भारत इस राह पर और कितने दिन चल पायेगा।
जब आप जेल से बाहर आओगे तब आप देखोगे यह दुनिया किस हद तक बदल चुकी है। कोविड-19 और जल्दबाजी और रूग्ण सोच वाली तालाबंदी ने तबाही ला दिया है। इसके शिकार सिर्फ गरीब ही नहीं हैं बल्कि मध्यवर्ग भी है। हिंदुत्व ब्रिगेड के लोग भी इसकी जद में आये। क्या आप इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि महीनों तक चलने वाली देशव्यापी कर्फ्यू जैसी तालाबंदी लगा देने के लिए 1 अरब 38 लाख जनता को सिर्फ चार घंटे (रात के 8 बजे से मध्यरात्रि तक) का समय दिया गया?
राहों पर चलती हुई जनता, सामान, मशीन, बाजार, फैक्ट्री, स्कूल, विश्वविद्यालय शब्दश: ठहर गये। चिमनियों से उठता धुंआ, सडक़ पर चलते हुए ट्रक, शादियों में आये हुए मेहमान, अस्पतालों में दवा कराते मरीज वहीं के वहीं थम गए। कोई नोटिस तक जारी नहीं हुआ। यह विशाल देश वैसे ही एकदम से बंद हो गया जिस तरह घड़ी पर चलने वाले खिलौने की सूई को धनी बिगड़ैल बच्चा एकदम से खींचकर बाहर कर दे। क्यों? क्योंकि वह ऐसा कर सकता है।
इलाका जहां कोल ब्लाक स्थित है।
कोविड-19 एक ऐसे एक्स-रे में बदल चुका है जिससे व्यापक सांस्थानिक अन्याय- जाति, वर्ग, धर्म और लैंगिक जिनसे हमारा समाज ग्रस्त है, साफ साफ दिखने लगा है। तबाहीपूर्ण तालाबंदी योजना को धन्यवाद। अर्थव्यवस्था लगभग ढह जाने को है। जबकि वायरस अपनी राह पर है और बढ़ रहा है। ऐसा लग रहा है मानो ठहराव की सतह से ऊपर चल रहे विस्फोटों में हम जी रहे हों। इस दुनिया के टूटे बिखरे टुकड़े जिनके बारे में हमें पता है, सब कुछ हवा में लटके हुए हैं ज्हम अब भी नहीं जान रहे हैं ये टूटी बिखरी दुनिया कहां आकर गिरेगी और किस हद तक का नुकसान होगा।
लाखों मजदूर शहरों में ठहर गये। उनके लिए न आवास, न भोजन, न पैसा और न ही परिवहन व्यवस्था थी। वे अपने गांव के लिए सैकड़ों और हजारों किलोमीटर पैदल ही चल पड़े। जब वे चल रहे थे तब वे पुलिस के हाथों मार खाये और अपमानित हुए। इस हिजरत में ऐसा कुछ था जिसने जॉन स्टेनबेक की ‘द ग्रेप्स ऑफ रेथ’ की याद दिला दी। इसे मैंने हाल ही में पढ़ा था। क्या पुस्तक है। उपन्यास में जो घटित होता है (अमेरीका में मंदी के दौरान हुआ विशाल प्रवास का वर्णन है) और यहां के बीच जो भेद है वह यही दिखाता है कि भारत की जनता में गुस्से का एकदम अभाव था। हां, कभी कभार गुस्सा विस्फोट में बदला लेकिन ऐसा नहीं था जिसे सुव्यवस्थित न किया जा सके। यह सिहरा देने वाली बात थी कि लोगों ने तबाही को स्वीकार कर लिया। जनता किस हद तक आज्ञाकारी है। यह शासक वर्ग (और जाति) के लिए आसानी ही है। इससे पता चलता है कि ‘जनता’ में भुगतने और सहने की कितनी क्षमता है। लेकिन यह जो आशिर्वाद या श्राप को झेलने की क्षमता है, यह क्या है कैसा गुण है? मैंने इस पर खूब सोचा।
जब लाखों मजदूर वर्ग के लोग अपनी महान यात्रा पर निकल पड़े थे तब टीवी चैनल्स और मुख्यधारा के मीडिया ने अचानक ही ‘प्रवासी मजदूर’ की अवधारणा खोज निकाली। बहुत सारे कॉरपोरेट-प्रायोजित मगरमच्छी आंसुओं को इन प्रवासी मजदूरों के शोषण के लिए बहाया जाने लगा। रिपोर्टरों ने अपने माइक्रोफोन को चल रही जनता के मुंह में ठेल दिया ‘‘आप कहां जा रहे हैं? आपके पास कितना पैसा बच पा रहा है? आप कितने दिन चलना जारी रखेंगे?’’
लेकिन आप और आप जैसे दूसरे लोग जो जेलों में बंद हैं इसी मशीन के खिलाफ आंदोलन करते रहे हैं जो इस उजाड़ और गरीबी को पैदा करती है। वही मशीन जो पर्यावरण को बर्बाद करती है और लोगों को बलपूर्वक गांव से उजाड़ती है। आप जैसे लोग न्याय की बात करते हैं। और, ठीक ये ही टीवी चैनेल्स और कुछ मामलों में वे ही पत्रकार और बात रखने वाले इस मशीन का गुणगान करते हैं। वे ही आप पर इल्जाम डालते हैं, दागदार करते हैं और बदनाम करते हैं। और अब देखिये, वह अपना मगरमच्छी आसूं बहा रहा हैं। वे भारत की अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद के ऋणात्मक 9.5 प्रतिशत विकास से डरे हुए हैं- जबकि आप जेल में हैं।
प्रवासी मजदूर।
चीन की सेना सीमा पार कर चुकी है। लद्दाख में कई बिंदुओं, पर उसने वास्तविक नियंत्रण रेखा को पार कर लिया है ज्वार्ता जारी है। जैसा भी हो, भारत जीत रहा है। भारतीय टेलीविजन पर।
इन बहते आंसुओं के बीच भी सरकार के नहीं झुकने की बात की पेशकदमी पर मीडिया तारीफ में जुटा हुआ है। कई बार तो उत्साहपूर्ण स्वागत की बाढ़ सी आ जाती है। इस तालाबंदी के दौरान मैंने पहला उपन्यास वैसीली ग्रासमॉन की स्टालिनग्राद पढ़ी। (ग्रासमॉन लाल सेना के अग्रिम कतार में थे। उनका दूसरा उपन्यास जीवन और भाग्य था जिसने सोवियत सरकार को नाराज कर दिया और पांडुलिपि को ‘गिरफ्तार’ कर लिया गया- मानों वह इंसानी वजूद हो।) यह जीवटता भरी महत्वाकांक्षी किताब है। ऐसी जीवटता सृजनात्मक लेखन की कक्षाओं में नहीं पढ़ाई जा सकती। बहरहाल, जिन कारणों से इस किताब का मेरे मन में विचार आया वह अद्भुत तरीके से किया गया वह वर्णन है जिसे एक वरिष्ठ नाजी जर्मन ऑफिसर ने रूस में अग्रिम मोर्चे की लड़ाई से भागने के बाद बर्लिन पहुंचने पर किया है। युद्ध शुरू से ही जर्मनी के लिए गलत दिशा में मुड़ गया था। और वह आफिसर हिटलर को इस बात की जमीनी हकीकत बताना चाह रहा है। लेकिन जब वह हिटलर के सामने आता है तब वह अपने मालिक से इस कदर डर जाता है और इतना रोमांचित हो उठता है कि उसका दिमाग ही बंद हो जाता है। यह फ्युहरर के आसपास वह धक्कमपेल है जो उसे खुश करने के तरीकों में लगे हुए हैं, यह पूछने में लगे हुए हैं कि वह क्या सुनना पसंद करेगा।
यही वह बात है जो हमारे देश में हो रहा है। एकदम सक्षम लोगों का दिमाग डर और चापलूसी करने की इच्छा से सुन्न पड़ गया है। वास्तविक खबर को एक मौका तक नहीं मिल रहा है।
बहरहाल, महामारी तेजी से आगे बढ़ रही है। यह कोई संयोग नहीं है कि इस महामारी से दुनिया में सबसे अधिक प्रभावित देशों की घुड़दौड़ में जीत हासिल करने वाले देश इक्क्सवीं सदी के तीन जीनियस लोगों के नेतृत्व में है। मोदी, ट्रम्प और बोल्सोनॉरो। उनका सिद्धांत, दिल्ली के अब के मुख्यमंत्री (भाजपा के इर्दगिर्द ऐसे मंडरा रहे हैं मानो निसेचन करने वाली मधुमक्खी) के अमिट शब्दों में है: हम अब दोस्त हैं ना?
पीएम मोदी लैंप जलाते हुए।
ज्यादा उम्मीद है कि नवम्बर में होने वाले चुनाव में ट्रम्प हार जायें। लेकिन भारत में ऐसी कोई हवा नहीं दिख रही। विपक्ष भुरभुराते गिर रहा है। नेता शांत हैं, झुक गये हैं। चुनी हुई सरकारें इस तरह से उड़ा दी जा रही हैं जैसे कप में काफी के उठते झाग को हटा दिया जाता है। गद्दारी और दलबदल को दैनिक समाचारों में खुशनुमा विषय की तरह पेश किया जा रहा है। विधायकों का हांकना जारी है और छुट्टी बिताने वाले रिसार्ट्स में ले जाकर उन्हें बंद कर दिया जाता है जिससे उन्हें घूस और खरीददारी से बचाया जा सके। मेरा मानना है कि जो बिकने के लिए तैयार हैं उनकी बोली पब्लिक में लगनी चाहिए जिससे उसकी ऊंची खरीददारी हो सके। आपके क्या विचार हैं? उनसे किसी को कोई फायदा होगा क्या? छोडिय़े उन्हें। आइए, वास्तविक बातों से रूबरू हों: हम लोग, वास्तव में, एक पार्टी लोकतंत्र के दो व्यक्तियों से शासित हैं। मैं नहीं जानती कि कितने लोग इसे जानते हैं कि यह एक विरूद्धाविरूद्ध एकता है।
तालाबंदी के दौरान बहुत से मध्यवर्ग के लोगों ने शिकायतें कीं कि वे जेल जैसा महसूस कर रहे हैं। लेकिन आप लोग जानते हैं कि यह बात सच्चाई से कितनी दूर है। ये लोग अपने घरों में अपने परिवारों के साथ हैं (हालांकि बहुत से लोग, खासकर महिलाओं ने सभी तरह की हिंसा के परिणाम को झेला)। ये लोग अपने चहेते लोगों के साथ राबता बन सकते थे। वे अपना काम भी जारी रख सकते थे। उनके पास फोन थे। उनके पास इंटरनेट था। ये आप जैसी हालात में नहीं थे। और, न ही ये कश्मीर की जनता जैसी हालात में थे जो एक खास तरह की आसन्न तालाबंदी और इंटरनेट बंदी में पिछले 5 अगस्त से ही हैं जब धारा 370 को खत्म कर दिया गया और जम्मू और कश्मीर से उसका विशेष दर्जा और राज्य होना ही खत्म कर दिया गया।
यदि दो महीने की तालाबंदी ने भारत की अर्थव्यवस्था पर इस कदर असर डाला है तो आप कश्मीर के बारे में सोच सकते हैं जहां एक बड़े हिस्से में इंटरनेट बंदी के साथ-साथ सैन्य लॉकडाउन भी सालभर से चला आ रहा है। व्यापार खत्म हो रहे हैं, डॉक्टरों पर अपने मरीजों को देखने का गहरा दबाव है, छात्र ऑनलाइन कक्षाओं में उपस्थिति बना सकने में सक्षम नहीं हैं। इसके साथ ही, 5 अगस्त के पहले ही हजारों कश्मीरी जनता को जेलों में डाल दिया गया। यह पूर्व-तैयारी थी-सुरक्षा कारणों से की गई गिरफ्तारियां। अब ये जेल ऐसे लोगों से भर गये हैं जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया है, अब कोविड के लिए हो गये हैं। यह सब कैसा है?
गलवान घाटी इलाका का सैटेलाइट चित्र।
धारा 370 खत्म करना घमंड का नतीजा है। मामले को ‘‘एक बार और अंतिम बार’’ जैसी कि डींग हांकी जा रही है, के लिए हल करने के बजाय एक ऐसी बात बना दी गई है जिससे पूरे क्षेत्र में कुलबुलाहट वाला भूकंप पैदा हो गया है। बड़ी चट्टानें हिल रही हैं और खुद को पुनर्व्यवस्थित कर रही हैं। जो लोग इन बातों को जानते हैं उनके अनुसार चीन की सेना ने सीमा पार कर लिया है, वास्तविक नियंत्रण रेखा भी और लद्दाख के बहुत से बिंदुओं को भी पार किया है और रणनीतिक पोजीशन पर कब्जा जमा लिया है। चीन के साथ युद्ध पाकिस्तान के साथ युद्ध की तरकीबियों से एकदम अलग है। इसीलिए, आमतौर पर चलने वाली छाती-ठोंक बात की कम ही महत्ता है- ठोंकने के बजाय प्यार से थपथपाना जैसा ही हो। बातें हो रही हैं। जो भी हो, भारत जीत रहा है भारत के टीवी पर। लेकिन टीवी के बाहर एक नई दुनिया बनते हुए दिख रही है।
मैंने जितनी उम्मीद की थी यह पत्र उससे कहीं अधिक लंबा हो गया। अब मैं विदा लेती हूं। मेरे मित्र साहस रखो। और धैर्य भी। यह अन्याय हमेशा के लिए नहीं रहने वाला है। जेल के दरवाजे खुलेंगे और तुम हम लोगों के बीच वापस आओगे। जैसा चल रहा है वैसा चल नहीं सकता। यदि वे ऐसा ही करते रहे, तो यह जो गति है जिसमें हम चले आ रहे हैं, नष्ट होने की गति खुद ही पकड़ लेगा। हमें कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। यदि ऐसा होता है तो यह एक महान त्रासदी होगी और जिसका परिणाम अकल्पनीय होगा। लेकिन इस तबाही के मंजर में उम्मीद है कुछ अच्छा होगा और बुद्धिमत्ता फिर से उठ खड़ी होगी।
प्यार के साथ
अरुंधति
-विष्णु नागर
मुल्ला नसरुद्दीन को पता था कि मोदीजी को दिन में छह ड्रेस बदलने में जो ‘सुख’ मिलता है,वही ‘सुख’ ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करने में भी मिलता है। वह देश के बाहर तो बाहर बल्कि भीतर भी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ जब -तब करते-करवाते रहते हैं। बहुमत किसी और का हो,सरकार वह बना लेते हैं। एमएलए तो एमएलए, वह पार्टी तक पर ऐसी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कर देते हैं कि पार्टी तो पार्टी खुद मोदी जी भी चित और चकित हो जाते हैं कि अच्छा परिणाम इतने ज्यादा अच्छे निकले! कमाल है! वैसे उनके लिए एक कव्वे को मारना भी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ है, हालांकि कहते हैं वह विशुद्ध शाकाहारी हैं बल्कि अधिक न्यायसंगत होगा यह कहना कि वह अशुद्ध-विशुद्ध खिचड़ीहारी हैं।
यह खिचड़ीहारी ‘फर्जीकल’ को ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ बनाने की कला में इतना माहिर है कि इतना तो यह देश भी अपने को ‘विश्वगुरु’ बताने की कला में माहिर नहीं है। इस तरह उनकी प्रसिद्धि प्रधानमंत्री से अधिक ‘सर्जिकल स्ट्राइकर’ के रूप में अधिक है।
उधर मुल्ला नसरुद्दीन अपने शब्दबाणों से ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करनेवालों की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करना जानते हैं,हालांकि ‘फर्जीकल स्ट्राइक’ की कला में उनका हाथ बहुत तंग है। सच कहें तो उन्हें संस्कार ही ऐसे ‘खराब’ मिले हैं कि यह कला उन्हें आती ही नहीं मगर लोग उनकी इस कमजोरी को नजरअंदाज कर दिया करते हैं।
उनके मजेदार किस्से सुन- सुनकर एक बार उनसे किसी ने डिमांड कर दी कि मुल्ला नसरुद्दीन आप ‘फर्जिकल स्ट्राइक’ को लेकर इतने मजेदार किस्से सुनाते हो, ‘सर्जिकल’ और ‘फर्जीकल’ के बारीक अंतर को इतना अधिक जानते हो, तो खुद क्यों नहीं प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन जाते, चुनाव क्यों नहीं लड़ जाते?अभी तो कथित ही सही, लोकतंत्र है।
मुल्ला नसरुद्दीन यह सुनकर बिगड़ गए। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उन जैसे किस्सागो के सामने उनके प्रशंसक इतना बेहूदा प्रस्ताव कर सकते हैं, उन्हें मोदी जी समझने की गलती कर सकते हैं। उन्होंने कडक़ आवाज में जवाब दिया तो फिर तुम्हें किस्से कौन सुनाने आएगा, तुम्हारा बाप?
लोगों को उम्मीद नहीं थी कि मुल्ला नसरुद्दीन इतना बिगड़ जाएँगे और ऐसी जुबान इस्तेमाल करेंगे। उनका यह रूप लोगों ने पहली बार देखा था। उधर मुल्ला नसरुद्दीन को भी लगा कि उन्हें इतना नाराज नहीं होना चाहिए था। लोगों ने प्रेमवश या उनसे मजाक उड़ाने के लिए यह बात कही है। उन्होंने ठंडे दिमाग से कहा कि देखो यह मुल्क अब भारत के लोगों का नहीं, मोदी जी का हो चुका है। फिर भी मान लो-हालांकि मानना मूर्खता है-मैं प्रधानमंत्री बन गया तो मोदी जी ने जो ट्रेंड चला दिया है, उसके कारण मुझे भी ‘फर्जीकल स्ट्राइकें’ करते रहना पड़ेगा, तब मेरा मजाक कौन बनाएगा? तुम सोचते हो कि मैं प्रधानमंत्री होते हुए ऐसा कर सकूँगा, बिल्कुल नहीं। तुम सोचते हो, मैं खुद कहूँगा कि मैं राजा हूँ मगर देख लो, समझ लो कि मैं बिल्कुल ही नंगा हूं? सोचो मैंने ऐसा कह दिया तो मेरे दरबारी और भक्त मुझे बख्श देंगे?कभी नहीं।मार -मारकर मेरा भुर्ता बना देंगे। इसलिए कभी किसी मुल्ला नसरुद्दीन से मत कहना कि वह प्रधानमंत्री बन जाए।
इतना कहकर वह मुस्कुरा दिए तो लोगों की जान में जान आई।