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हम तंगदिल, क्रूर और कमजोर दिमाग के लोगों से शासित हैं : अपने दोस्त साई बाबा को लिखे खत में अरुंधति राय
25-Jul-2020 4:37 PM
हम तंगदिल, क्रूर और कमजोर दिमाग के लोगों से शासित हैं : अपने दोस्त साई बाबा को लिखे खत में अरुंधति राय

अरुंधति और साईबाबा।

(मशहूर लेखिका अरुंधति राय ने नागपुर सेंट्रल जेल में बंद प्रोफेसर जीएन साई बाबा को खत लिखा है जिसमें उन्होंने अपनी मुलाकातों के भावुक क्षणों का जिक्र किया है। साथ ही इस दौर में देश की सत्ता और उसकी व्यवस्था द्वारा बरती जा रही क्रूरता का विस्तार से विवरण दिया गया है। इसमें जेल में बंद उनके दूसरे साथियों के साथ अदालतों के व्यवहार से लेकर कोविड-19 और तालाबंदी से उपजी दुरूह परिस्थितियों तक की बातें शामिल हैं। स्क्रोल पोर्टल पर प्रकाशित इस पत्र का हिंदी अनुवाद लेखक और एक्टिविस्ट अंजनी कुमार ने किया है। पेश है उनका पूरा पत्र-संपादक)

17 जुलाई, 2020

प्रति, 

प्रोफेसर जीएन साई बाबा

अंडा सेल, नागपुर सेंट्रल जेल, नागपुर, महाराष्ट्र;

प्रिय साई, 

आपको दुखी किया, इसके लिए मुझे खेद है। लेकिन यहां मैं, अरुंधति राय लिख रही हूं; अंजुम नहीं। आपने उसे तीन साल पहले लिखा था। उसने निश्चय ही आपको उत्तर लिखना चाहा था। लेकिन मैं क्या कहूं- उसके समय की गिनती आपके और हमारे पैमाने से एकदम अलग है। व्हाट्सअप और ट्विटर की तेज रफ्तार दुनिया को तो बस जाने ही दें। एक पत्र का जवाब लिखने में तीन सालों के दौरान उसने कुछ भी नहीं सोचा (एकदम ही नहीं)। अभी तो, उसने खुद को जन्नत गेस्ट हाउस में बंद कर रखा है। और, सारा समय गाना गाने में गुजऱता है।

इन सालों के गुजर जाने के दौरान जो मुख्य बात हुई है वह यह कि उसने एक बार फिर गाना गाना शुरू कर दिया है। उसके दरवाजे से गुजरते हुए उसे गाते हुए सुनना अच्छा लगता है कि वह जिंदा है। ‘तुम बिन कौन खबरिया मोरी लाए’ हर दम यही वह गाती रहती है। यह मेरे दिल को तोड़ता है। यह आपकी याद दिलाती है। जब वह गा रही होती है, तो मुझे एकदम लगता है कि वह आपके बारे में सोच रही है। इसीलिए, हालांकि उसने आपको जवाबी पत्र नहीं लिखा लेकिन फिर भी आप समझ ही सकते हैं कि वह अक्सर आपके लिए गाती है। यदि आप सुनने की सांद्रता बढ़ायें तो शायद आप उसे सुन सकेंगे।


पत्नी बसंथा के साथ साईबाबा।

जब मैंने समय की समझदारी के बारे में कहा तब मैं जो आसानी से कह गई ‘‘आपका और मेरा’’, यह लिखना गलत था। क्योंकि, एक खूंखार किस्म के अंडा सेल में आजीवन कारावास की जिंदगी गुजारना आपको अंजुम का करीबी बनाता है न कि मेरा। या, हो सकता है उससे भी यह बेहद अलग तरह का हो। मैं हमेशा अंग्रेजी भाषा के ‘डूइंग टाइम’-जेल में खटना, शब्दबंध के बारे में सोचती रही हूं। जिन तरीकों से इसका इस्तेमाल होता है उससे कहीं अधिक इसका गहरा निहितार्थ है। बहरहाल, इस विचारहीन रेखांकन के लिए मुझे खेद है। अंजुम अपने ही तरीके से आजीवन कारावास में है। वह अपने कब्रिस्तान में है- उसके जीवन का ‘‘बुचर्स लक’’(मंजर)। लेकिन निश्चय ही वह जेल की सलाखों के पीछे नहीं है या उसके साथ जेलर नहीं है। उसके जेलर वे जिन्न हैं और जाकिर मियां की यादें हैं।

खाकी कथानक

मैं आपसे नहीं पूछ रही हूं कि आप कैसे हैं, क्योंकि मैं यह बात वसंथा से जानती हूं। मैंने आपका विस्तार से मेडिकल रिपोर्ट देखा। यह मेरी कल्पना से भी बाहर है कि वे आपको क्यों नहीं जमानत पर रिहा कर रहे हैं या पैरोल पर छोड़ रहे हैं। सच् यही है कि ऐसा कोई दिन नहीं गुजरा जब मैंने आपके बारे में सोचा नहीं। क्या वे अब भी अखबारों पर प्रतिबंध लगाकर रखे हुए हैं और किताबों को रोक लेते हैं? क्या आपके साथ जेल के वे संगी जो आपकी दिनचर्या में आपका सहयोग करते हैं, अब भी आपके साथ हैं, क्या वे शिफ्ट में आते हैं? क्या उनका व्यवहार दोस्ताना है? आपका व्हील चेयर अभी कैसा काम कर रहा है?

मुझे मालूम है कि वे आपको गिरफ्तार किये थे-दरअसल, घर आते समय आपका अपहरण कर लिया गया था। मानों आप दुर्दांत अपराधी हों; तब यह टूट गया था। (हम उनके आभारी हैं कि उन्होंने अपनी ‘आत्मरक्षा’ में आपको विकास दुबे नहीं बनाया नहीं तो वह कहते कि आपने उनका बंदूक छीना और तेजी के साथ एक हाथ से व्हीलचेयर लेकर भागे। हमें साहित्य की एक नई शैली बनानी चाहिए, वह है खाकी कथानक। वार्षिक समारोह के लिए हमारे पास काफी कुछ होगा। पुरस्कार देना भी अच्छा होगा और इसमें हमारे तटस्थ न्यायालयों से तटस्थ जजों की शानदार भूमिका भी अच्छी रहेगी।) 


साईबाबा की रिहाई के लिए आयोजित एक सभा में संजय काक।

मुझे वह दिन याद है जब आप मुझसे मिलने आये थे। कैब ड्राइवर मेरे घर के दूसरी ओर था, आपको व्हीलचेयर पर लेकर मेरे घर तक सीढिय़ों से लेकर आया। मेरा घर इस व्हीलचेयर के अनुकूल नहीं था। इन दिनों सीढिय़ों के हर कदम पर घुमंतू कुत्ते हैं। चड्ढा साहिब (पिता), बंजारन (जिप्सी की मां) और उनके बच्चे लीला और शीला बैठे हुए थे। ये कोविड की तालाबंदी के दौरान पैदा हुए। ऐसा लगता है उन्होंने मुझे अपना लेने का निर्णय लिया हो। कोविड तालाबंदी के बाद हमारे कार चालक मित्र लोग चले गये हैं। उनके लिए कोई काम नहीं बचा। गाडिय़ां बेधुली धूल से भर गई हैं। धीरे-धीरे पौधे जम रहे हैं, बढ़ते हुए टहनियां और पत्तियां खोल रहे हैं। बड़े शहरों से छोटे लोग लापता हो चुके हैं। सभी तो नहीं लेकिन बहुत से लोग। लाखों लोग। 

मैं अब भी अचार के उन डिब्बों को रखे हुए हूं जिन्हें आपने मेरे लिए बनाया था। मैं आपके बाहर आने का इंतजार करूंगी और इन्हें खोलने के इंतजार में हूं जब हम साथ में खाना खायेंगे। तब तक यह एकदम पक जायेगा। 

मैं आपकी वसंथा और मंजिरा से केवल कभी-कभी मिलती हूं। क्योंकि हमारे साझे दुख का भार उन मुलाकातों को और कठिन बना देता है। यह सिर्फ उदासी भरा ही नहीं है। इसमें गुस्सा, असहायता और मेरे हिस्से की शर्मिंदगी भी जुड़ जाती है। शर्मिंदगी इस बात की कि अधिकतम लोगों का ध्यान आपके हालात से जोड़ नहीं सकी। यह किस हद तक की क्रूरता है कि एक व्यक्ति मान्य तौर पर 90 प्रतिशत आंगिक-अक्षमता की स्थिति में है और वह जेल में है। उसे बेतुके किस्म के अपराध की सजा में ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया गया। शर्मिंदगी इस बात के लिए कि हम तेजी के साथ न्याय व्यवस्था की उलझाव भरी गलियों से होते हुए आपकी अपील का कुछ भी नहीं कर सके। न्याय व्यवस्था की यही गलियां थीं जो सजा की प्रक्रिया पूरी कीं। मैं मुतमईन हूं कि सर्वोच्च न्यायालय आपको अंतत: बरी कर देगा। लेकिन जब यह हो रहा होगा तब तक आप और आपके लोग कितना कुछ भुगत चुके होंगे।

भारत में कोविड-19 एक के बाद दूसरी जेलों में फैलता जा रहा है। इसमें आपकी भी जेल शामिल है। वे आपके हालात को जानते हैं। एक आजीवन कारावास कितनी आसानी से मौत की सजा में बदल सकता है। 

बहुत से दोस्त जो हमारे और आपके भी दोस्त हैं- छात्र, वकील, पत्रकार, कार्यकर्ता; जिनके साथ हमने रोटियां खायीं, ठहाके लगाये और तीखे स्वरों में बहस किया, वे भी अब जेल में हैं। मुझे नहीं मालूम कि आपको वीवी (मैं वरवर राव के बारे में बात कर रही हूं, हो सकता है जेल सेंसर इसे किसी चीज का कोड न समझ ले)  के बारे में जानकारी है या नहीं। 81 साल के इस महान बूढ़े कवि को जेल में रखकर मानो जेल में एक आधुनिक स्मारक रख दिया गया है। उनके स्वास्थ्य की खबर काफी सोचनीय है। लंबे समय से चल रहे बुरे स्वास्थ्य जो बेहद उपेक्षा के कारण हुआ है, के बाद अब वे कोविड से संक्रमित हैं।

उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया है। उनका परिवार जो उनसे मिल सका, ने बताया कि वे बिस्तर पर अकेले ही लेटे हुए थे, कोई देखभाल के लिए नहीं था, चादरें गंदी पड़ी थीं। वे असंगत तरीके से बोल रहे थे और चल सकने में सक्षम नहीं थे। वीवी! असंगत! वह व्यक्ति जो हजारों लाखों को संबोधित करने के लिए एक क्षण भी नहीं लगाता था, जिसकी कविताओं ने आंध्र, तेलंगाना और पूरे भारत के लाखों करोड़ों लोगों को कल्पनाओं की ऊंचाइयों तक पहुंचाया। मुझे वीवी की जिंदगी को लेकर चिंता हो रही है। ठीक वैसे ही जैसे आपकी जिंदगी की चिंता बनी हुई है।

वरवर राव

भीमा कोरेगांव केस के अन्य दूसरे आरोपी-‘भीमा कोरेगांव ग्यारह’, भी बहुत ठीक नहीं हैं। उन्हें भी कोविड-19 होने की तीव्र आशंका बनी हुई है। वर्नन गोंजाल्वेस जो जेल में वीवी की देखभाल कर रहे हैं, के संक्रमित होने की गंभीर आशंका है। गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबडे भी उसी जेल में हैं। लेकिन हर बार और बार-बार जमानत पर रिहाई की अर्जी को न्यायपालिका खारिज कर दे रही है। और, अब अखिल गोगोई जो गुहावटी के जेल में बंद हैं, कोविड से संक्रमित हो चुके हैं।

हम किस तरह के तंगदिल, क्रूर और कमजोर दिमाग (या सीधे बढ़ जायें और कहें भयानक मूर्ख) लोगों से शासित हैं। हमारे जैसे एक विशाल देश की सरकार कितनी दयनीय हो चुकी है जो अपने ही लेखकों और विद्वानों से डरी हुई है।

संगीत, कविता और प्रेम

यह चंद महीनों पहले की ही बात है जब लगा कि हालात बदल रहे हैं। लाखों लोग सीएए और एनआरसी के खिलाफ सडक़ पर उतर गये, खासकर छात्र। यह रोमांचक था। इसमें कविताएं थीं, संगीत और प्यार था। कम से कम यह विद्रोह तो था ही, यदि यह क्रांति नहीं था तब भी। यह आपकी पसंदगी होती। 

लेकिन अंत खराब हुआ। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में फरवरी के महीने में 53 लोग मारे गये और इसका सारा आरोप पूरी तरह शांतिपूर्ण सीएए-विरोधी आंदोलनकारियों पर डाल दिया गया। हथियारबंद निगरानी गिरोहों जो आसपास के मजदूर इलाकों में दंगा, आगजनी और हत्याएं कर रहे थे और बहुधा पुलिस का उन्हें सहयोग मिला, के आये वीडियो से साफ पता चलता है कि यह योजनाबद्ध हमला था। यह तनाव कुछ दिनों से बन चुका था। स्थानीय लोग भी बिना तैयारी के नहीं थे। वे लोग भी लड़े। लेकिन निश्चय ही जैसा होता है पीडि़त लोगों को उत्पीडक़ बना दिया गया। कोविड तालाबंदी के आवरण में सैकड़ों युवाओं, जो ज्यादातर मुसलमान हैं और जिसमें बहुत से छात्र हैं, को दिल्ली और उत्तर प्रदेश से गिरफ्तार किया गया है। यह बात भी फैल रही है कि कुछ पकड़े गये युवाओं पर दबाव डालकर अन्य दूसरे वरिष्ठ कार्यकर्ताओं को लपेटे में लिया जा रहा है। उन लोगों के खिलाफ पुलिस के पास कोई वास्तविक साक्ष्य नहीं है। 

सफूरा जरगर। फेसबुक से साभार।

कथानक लेखक एक नई कहानी को विस्तार देने में व्यस्त है। कथासूत्र यह है कि राष्ट्रपति ट्रम्प के दिल्ली में होने के दौरान दिल्ली नरसंहार कर सरकार को शर्मिंदगी में डालने का एक बड़ा षडयंत्र है। इन योजनाओं के बनने के मामले में पुलिस जब उन तिथियों को लेकर आई तो पता चला कि वे ट्रम्प की यात्रा के निर्णय होने के पहले के निकले; किस तरह से सीएए विरोधी कार्यकर्ता व्हाइट हाउस तक में घुसे पड़े थे! और, किस तरह का यह षड्यंत्र था? प्रदर्शनकारियों ने खुद को ही मार लिया ताकि सरकार का नाम न खराब हो जाये?

सब कुछ सिर के बल खड़ा है। मार दिया जाना ही अपराध है। वे आपकी लाश के खिलाफ केस दर्ज करेंगे और आपकी आत्मा को पुलिस स्टेशन आने का सम्मन भेजेंगे। जब मैं लिख रही हूं उसी समय अररिया, बिहार से एक महिला की खबर आ रही है जिसने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी कि उसके साथ गैंग रेप हुआ है। उस महिला और उसके साथ आई महिला कार्यकर्ता को गिरफ्तार कर लिया गया है।

कुछ ऐसी बेचैन करने वाली घटनाएं होती हैं जिनमें जरूरी नहीं कि खून बहे, उन्मादी हत्या हो, भीड़ द्वारा हत्या हो या बड़े पैमाने पर लोगों को जेल में डाल दिया जाए। कुछ ही दिनों पहले कुछ लोगों या कहें ठगों ने इलाहाबाद में जबरदस्ती एक गली के निजी घरों को भगवा रंग मे रंग दिया और उन्हें हिंदू देवों के चित्रण से भर दिया गया। कुछ कारण ही है जिससे मुझे सिहरन सी हुई है। 

सच में, मुझे नहीं पता कि भारत इस राह पर और कितने दिन चल पायेगा। 

जब आप जेल से बाहर आओगे तब आप देखोगे यह दुनिया किस हद तक बदल चुकी है। कोविड-19 और जल्दबाजी और रूग्ण सोच वाली तालाबंदी ने तबाही ला दिया है। इसके शिकार सिर्फ गरीब ही नहीं हैं बल्कि मध्यवर्ग भी है। हिंदुत्व ब्रिगेड के लोग भी इसकी जद में आये। क्या आप इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि महीनों तक चलने वाली देशव्यापी कर्फ्यू जैसी तालाबंदी लगा देने के लिए 1 अरब 38 लाख जनता को सिर्फ चार घंटे (रात के 8 बजे से मध्यरात्रि तक) का समय दिया गया?

राहों पर चलती हुई जनता, सामान, मशीन, बाजार, फैक्ट्री, स्कूल, विश्वविद्यालय शब्दश: ठहर गये। चिमनियों से उठता धुंआ, सडक़ पर चलते हुए ट्रक, शादियों में आये हुए मेहमान, अस्पतालों में दवा कराते मरीज वहीं के वहीं थम गए। कोई नोटिस तक जारी नहीं हुआ। यह विशाल देश वैसे ही एकदम से बंद हो गया जिस तरह घड़ी पर चलने वाले खिलौने की सूई को धनी बिगड़ैल बच्चा एकदम से खींचकर बाहर कर दे। क्यों? क्योंकि वह ऐसा कर सकता है। 

इलाका जहां कोल ब्लाक स्थित है।

कोविड-19 एक ऐसे एक्स-रे में बदल चुका है जिससे व्यापक सांस्थानिक अन्याय- जाति, वर्ग, धर्म और लैंगिक जिनसे हमारा समाज ग्रस्त है, साफ साफ दिखने लगा है। तबाहीपूर्ण तालाबंदी योजना को धन्यवाद। अर्थव्यवस्था लगभग ढह जाने को है। जबकि वायरस अपनी राह पर है और बढ़ रहा है। ऐसा लग रहा है मानो ठहराव की सतह से ऊपर चल रहे विस्फोटों में हम जी रहे  हों। इस दुनिया के टूटे बिखरे टुकड़े जिनके बारे में हमें पता है, सब कुछ हवा में लटके हुए हैं ज्हम अब भी नहीं जान रहे हैं ये टूटी बिखरी दुनिया कहां आकर गिरेगी और किस हद तक का नुकसान होगा।

लाखों मजदूर शहरों में ठहर गये। उनके लिए न आवास, न भोजन, न पैसा और न ही परिवहन व्यवस्था थी। वे अपने गांव के लिए सैकड़ों और हजारों किलोमीटर पैदल ही चल पड़े। जब वे चल रहे थे तब वे पुलिस के हाथों मार खाये और अपमानित हुए। इस हिजरत में ऐसा कुछ था जिसने जॉन स्टेनबेक की ‘द ग्रेप्स ऑफ रेथ’ की याद दिला दी। इसे मैंने हाल ही में पढ़ा था। क्या पुस्तक है। उपन्यास में जो घटित होता है (अमेरीका में मंदी के दौरान हुआ विशाल प्रवास का वर्णन है) और यहां के बीच जो भेद है वह यही दिखाता है कि भारत की जनता में गुस्से का एकदम अभाव था। हां, कभी कभार गुस्सा विस्फोट में बदला लेकिन ऐसा नहीं था जिसे सुव्यवस्थित न किया जा सके। यह सिहरा देने वाली बात थी कि लोगों ने तबाही को स्वीकार कर लिया। जनता किस हद तक आज्ञाकारी है। यह शासक वर्ग (और जाति) के लिए आसानी ही है। इससे पता चलता है कि ‘जनता’ में भुगतने और सहने की कितनी क्षमता है। लेकिन यह जो आशिर्वाद या श्राप को झेलने की क्षमता है, यह क्या है कैसा गुण है? मैंने इस पर खूब सोचा। 

जब लाखों मजदूर वर्ग के लोग अपनी महान यात्रा पर निकल पड़े थे तब टीवी चैनल्स और मुख्यधारा के मीडिया ने अचानक ही ‘प्रवासी मजदूर’ की अवधारणा खोज निकाली। बहुत सारे कॉरपोरेट-प्रायोजित मगरमच्छी आंसुओं को इन प्रवासी मजदूरों के शोषण के लिए बहाया जाने लगा। रिपोर्टरों ने अपने माइक्रोफोन को चल रही जनता के मुंह में ठेल दिया ‘‘आप कहां जा रहे हैं? आपके पास कितना पैसा बच पा रहा है? आप कितने दिन चलना जारी रखेंगे?’’

लेकिन आप और आप जैसे दूसरे लोग जो जेलों में बंद हैं इसी मशीन के खिलाफ आंदोलन करते रहे हैं जो इस उजाड़ और गरीबी को पैदा करती है। वही मशीन जो पर्यावरण को बर्बाद करती है और लोगों को बलपूर्वक गांव से उजाड़ती है। आप जैसे लोग न्याय की बात करते हैं। और, ठीक ये ही टीवी चैनेल्स और कुछ मामलों में वे ही पत्रकार और बात रखने वाले इस मशीन का  गुणगान करते हैं। वे ही आप पर इल्जाम डालते हैं, दागदार करते हैं और बदनाम करते हैं। और अब देखिये, वह अपना मगरमच्छी आसूं बहा रहा हैं। वे भारत की अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद के ऋणात्मक 9.5 प्रतिशत विकास से डरे हुए हैं- जबकि आप जेल में हैं। 

प्रवासी मजदूर।

चीन की सेना सीमा पार कर चुकी है। लद्दाख में कई बिंदुओं, पर उसने वास्तविक नियंत्रण रेखा को पार कर लिया है ज्वार्ता जारी है। जैसा भी हो, भारत जीत रहा है। भारतीय टेलीविजन पर। 

इन बहते आंसुओं के बीच भी सरकार के नहीं झुकने की बात की पेशकदमी पर मीडिया तारीफ में जुटा हुआ है। कई बार तो उत्साहपूर्ण स्वागत की बाढ़ सी आ जाती है। इस तालाबंदी के दौरान मैंने पहला उपन्यास वैसीली ग्रासमॉन की स्टालिनग्राद पढ़ी। (ग्रासमॉन लाल सेना के अग्रिम कतार में थे। उनका दूसरा उपन्यास जीवन और भाग्य था जिसने सोवियत सरकार को नाराज कर दिया और पांडुलिपि को ‘गिरफ्तार’ कर लिया गया- मानों वह इंसानी वजूद हो।) यह जीवटता भरी महत्वाकांक्षी किताब है। ऐसी जीवटता सृजनात्मक लेखन की कक्षाओं में नहीं पढ़ाई जा सकती। बहरहाल, जिन कारणों से इस किताब का मेरे मन में विचार आया वह अद्भुत तरीके से किया गया वह वर्णन है जिसे एक वरिष्ठ नाजी जर्मन ऑफिसर ने रूस में अग्रिम मोर्चे की लड़ाई से भागने के बाद बर्लिन पहुंचने पर किया है। युद्ध शुरू से ही जर्मनी के लिए गलत दिशा में मुड़ गया था। और वह आफिसर हिटलर को इस बात की जमीनी हकीकत बताना चाह रहा है। लेकिन जब वह हिटलर के सामने आता है तब वह अपने मालिक से इस कदर डर जाता है और इतना रोमांचित हो उठता है कि उसका दिमाग ही बंद हो जाता है। यह फ्युहरर के आसपास वह धक्कमपेल है जो उसे खुश करने के तरीकों में लगे हुए हैं, यह पूछने में लगे हुए हैं कि वह क्या सुनना पसंद करेगा। 

यही वह बात है जो हमारे देश में हो रहा है। एकदम सक्षम लोगों का दिमाग डर और चापलूसी करने की इच्छा से सुन्न पड़ गया है। वास्तविक खबर को एक मौका तक नहीं मिल रहा है। 

बहरहाल, महामारी तेजी से आगे बढ़ रही है। यह कोई संयोग नहीं है कि इस महामारी से दुनिया में सबसे अधिक प्रभावित देशों की घुड़दौड़ में जीत हासिल करने वाले देश इक्क्सवीं सदी के तीन जीनियस लोगों के नेतृत्व में है। मोदी, ट्रम्प और बोल्सोनॉरो। उनका सिद्धांत, दिल्ली के अब के मुख्यमंत्री (भाजपा के इर्दगिर्द ऐसे मंडरा रहे हैं मानो निसेचन करने वाली मधुमक्खी) के अमिट शब्दों में है: हम अब दोस्त हैं ना?

पीएम मोदी लैंप जलाते हुए।

ज्यादा उम्मीद है कि नवम्बर में होने वाले चुनाव में ट्रम्प हार जायें। लेकिन भारत में ऐसी कोई हवा नहीं दिख रही। विपक्ष भुरभुराते गिर रहा है। नेता शांत हैं, झुक गये हैं। चुनी हुई सरकारें इस तरह से उड़ा दी जा रही हैं जैसे कप में काफी के उठते झाग को हटा दिया जाता है। गद्दारी और दलबदल को दैनिक समाचारों में खुशनुमा विषय की तरह पेश किया जा रहा है। विधायकों का हांकना जारी है और छुट्टी बिताने वाले रिसार्ट्स में ले जाकर उन्हें बंद कर दिया जाता है जिससे उन्हें घूस और खरीददारी से बचाया जा सके। मेरा मानना है कि जो बिकने के लिए तैयार हैं उनकी बोली पब्लिक में लगनी चाहिए जिससे उसकी ऊंची खरीददारी हो सके। आपके क्या विचार हैं? उनसे किसी को कोई फायदा होगा क्या? छोडिय़े उन्हें। आइए, वास्तविक बातों से रूबरू हों: हम लोग, वास्तव में, एक पार्टी लोकतंत्र के दो व्यक्तियों से शासित हैं। मैं नहीं जानती कि कितने लोग इसे जानते हैं कि यह एक विरूद्धाविरूद्ध एकता है।

तालाबंदी के दौरान बहुत से मध्यवर्ग के लोगों ने शिकायतें कीं कि वे जेल जैसा महसूस कर रहे हैं। लेकिन आप लोग जानते हैं कि यह बात सच्चाई से कितनी दूर है। ये लोग अपने घरों में अपने परिवारों के साथ हैं (हालांकि बहुत से लोग, खासकर महिलाओं ने सभी तरह की हिंसा के परिणाम को झेला)। ये लोग अपने चहेते लोगों के साथ राबता बन सकते थे। वे अपना काम भी जारी रख सकते थे। उनके पास फोन थे। उनके पास इंटरनेट था। ये आप जैसी हालात में नहीं थे। और, न ही ये कश्मीर की जनता जैसी हालात में थे जो एक खास तरह की आसन्न तालाबंदी और इंटरनेट बंदी में पिछले 5 अगस्त से ही हैं जब धारा 370 को खत्म कर दिया गया और जम्मू और कश्मीर से उसका विशेष दर्जा और राज्य होना ही खत्म कर दिया गया।

यदि दो महीने की तालाबंदी ने भारत की अर्थव्यवस्था पर इस कदर असर डाला है तो आप कश्मीर के बारे में सोच सकते हैं जहां एक बड़े हिस्से में इंटरनेट बंदी के साथ-साथ सैन्य लॉकडाउन भी सालभर से चला आ रहा है। व्यापार खत्म हो रहे हैं, डॉक्टरों पर अपने मरीजों को देखने का गहरा दबाव है, छात्र ऑनलाइन कक्षाओं में उपस्थिति बना सकने में सक्षम नहीं हैं। इसके साथ ही, 5 अगस्त के पहले ही हजारों कश्मीरी जनता को जेलों में डाल दिया गया। यह पूर्व-तैयारी थी-सुरक्षा कारणों से की गई गिरफ्तारियां। अब ये जेल ऐसे लोगों से भर गये हैं जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया है, अब कोविड के लिए हो गये हैं। यह सब कैसा है? 

गलवान घाटी इलाका का सैटेलाइट चित्र।

धारा 370 खत्म करना घमंड का नतीजा है। मामले को ‘‘एक बार और अंतिम बार’’  जैसी कि डींग हांकी जा रही है, के लिए हल करने के बजाय एक ऐसी बात बना दी गई है जिससे पूरे क्षेत्र में कुलबुलाहट वाला भूकंप पैदा हो गया है। बड़ी चट्टानें हिल रही हैं और खुद को पुनर्व्यवस्थित कर रही हैं। जो लोग इन बातों को जानते हैं उनके अनुसार चीन की सेना ने सीमा पार कर लिया है, वास्तविक नियंत्रण रेखा भी और लद्दाख के बहुत से बिंदुओं को भी पार किया है और रणनीतिक पोजीशन पर कब्जा जमा लिया है। चीन के साथ युद्ध पाकिस्तान के साथ युद्ध की तरकीबियों से एकदम अलग है। इसीलिए, आमतौर पर चलने वाली छाती-ठोंक बात की कम ही महत्ता है- ठोंकने के बजाय प्यार से थपथपाना जैसा ही हो। बातें हो रही हैं। जो भी हो, भारत जीत रहा है भारत के टीवी पर। लेकिन टीवी के बाहर एक नई दुनिया बनते हुए दिख रही है। 

मैंने जितनी उम्मीद की थी यह पत्र उससे कहीं अधिक लंबा हो गया। अब मैं विदा लेती हूं। मेरे मित्र साहस रखो। और धैर्य भी। यह अन्याय हमेशा के लिए नहीं रहने वाला है। जेल के दरवाजे खुलेंगे और तुम हम लोगों के बीच वापस आओगे। जैसा चल रहा है वैसा चल नहीं सकता। यदि वे ऐसा ही करते रहे, तो यह जो गति है जिसमें हम चले आ रहे हैं, नष्ट होने की गति खुद ही पकड़ लेगा। हमें कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। यदि ऐसा होता है तो यह एक महान त्रासदी होगी और जिसका परिणाम अकल्पनीय होगा। लेकिन इस तबाही के मंजर में उम्मीद है कुछ अच्छा होगा और बुद्धिमत्ता फिर से उठ खड़ी होगी। 

प्यार के साथ

अरुंधति 

(janchowk)

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