अंतरराष्ट्रीय
दशक के सबसे बुरे सूखे के कारण यहां गेहूँ की एक चौथाई फसल बर्बाद हो गई है और कड़कड़ाती सर्दियों में यहां के 2 करोड़ 30 लाख लोगों के सिर पर भुखमरी का ख़तरा मंडरा रहा है.
दूसरी तरफ यहां सत्ता परिवर्तन के बाद देश को पश्चिमी देशों और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों से मिलने वाली आर्थिक मदद बंद हो गई है, अर्थव्यवस्था संकट में घिर चुकी है और सरकारी मुलाज़िमों की तनख़्वाह रुक गई है. लोगों को ये भी नहीं पता कि हालात सामान्य होंगे या नहीं, और अगर हुए, तो कब तक.
वो कहते हैं, "जिन लोगों के पास सरकारी नौकरी थी, जो स्वास्थ्यकर्मी या टीचर थे उन्हें चार-पांच महीनों से पैसा नहीं मिला है. वो काम पर तो जा रहे हैं लेकिन उनके लिए ज़िंदगी मुश्किल होती जा रही है. ग्रामीण इलाक़ों में लंबे वक्त से हालात गंभीर थे, लेकिन अब वहां से लेकर शहरों के मध्यवर्ग तक के लिए मुश्किलें बढ़ गई हैं."
अफ़ग़ानिस्तान न केवल मानवीय संकट से जूझ रहा है बल्कि बदलाव के दौर से भी गुज़र रहा है और इसका सीधा असर यहां की आधी आबादी पर पड़ रहा है. तालिबान ने महिलाओं को अर्थव्यवस्था और शिक्षा से लगभग पूरी तरह निकाल बाहर कर दिया है.
सिकंदर कहते हैं, "पहले के मुक़ाबले अब महिलाएं, ख़ास कर युवा महिलाएं कम ही घरों से बाहर दिखती हैं. ग्रामीण इलाक़ों के मुक़ाबले काबुल और दूसरे बड़े शहरों में महिलाएं बाहर निकलती तो हैं, लेकिन कुछ महीने पहले की तुलना में वो अधिक रूढ़िवादी तरीके से कपड़े पहने दिखती हैं. पहले वो जीन्स पहनती थीं, भले ही चेहरे पर हिजाब हो. लेकिन अब ऐसा नहीं दिखता. हालांकि ये भी है कि 90 के दशक में तालिबान सत्ता की निशानी बन चुका बुर्क़ा पहनने के लिए उन्हें बाध्य नहीं किया जा रहा."
वो बताते हैं कि अधिकतर महिलाओं से कह दिया गया है कि वो काम पर नहीं लौट सकेंगी, सेकंडरी स्कूल की छात्राओं को स्कूल जाने की इजाज़त नहीं दी गई है.
हालांकि तालिबान ने कहा है कि सर्दियों के बाद छात्राएं स्कूल जा सकेंगी, लेकिन उसके वादे पर कम ही भरोसा किया जा सकता है.
सत्ता में आने के बाद तालिबान ने और भी कुछ वादे किए हैं, लेकिन वो इन्हें पूरा करेगा, इस पर यकीन करना मुश्किल है. उसने अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार की बात की है, लेकिन देखा जाए तो उसके सत्ता में आने के कुछ महीनों बाद 4 करोड़ की आबादी वाले इस देश के एक बड़े हिस्से के सिर पर भुखमरी की तलवार लटक रही है.
सिकंदर कहते हैं, "कुपोषण बढ़ रहा है और ये गंभीर मुद्दा बन रहा है. कंधार में मेरी मुलाक़ात एक डॉक्टर से हुई थी. दो साल पहले जब उनसे मेरी मुलाक़ात हुई थी तो वो युद्ध में घायल लोगों का इलाज करते थे. उन्होंने बताया कि हाल के दिनों में अस्पताल में कुपोषित बच्चे और माएं अधिक आ रहे हैं. अफ़ग़ानिस्तान में हालात हमेशा से बुरे रहे हैं. बीते साल भी सर्दियों में यहां 1 करोड़ 80 लाख लोगों के सामने खाने की कमी की समस्या थी. ये आंकड़ा अब 2 करोड़ 30 लाख तक पहुंच गया है."
अफ़ग़ानिस्तान ने संघर्ष का लंबा दौर देखा है और विदेशी सेनाओं के जाने के बाद यहां स्थिति तेज़ी से बिगड़ी है. देश पर तालिबान का कब्ज़ा होते ही पश्चिमी मुल्कों ने उसे दी जा रही आर्थिक मदद रोक दी. ये यहां के लिए लाइफ़लाइन की तरह थी.
लेकिन कई अफ़ग़ानों का मानना है कि विदेशी सेनाओं के यहां से जाने से जो एक अच्छी चीज़ हुई है वो ये कि यहां युद्ध ख़त्म हो गया है.
सिकंदर कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि तालिबान अधिक लोकप्रिय है, लेकिन उसे इसकी ज़रूरत भी नहीं. वो चाहता है कि लोग निर्विरोध उसे स्वीकार करें. और फिर लोग पहले की सरकार के दौर में फैले भ्रष्टाचार से थक चुके थे. अगर आप ऐसे ग्रामीण इलाक़ों में जाएं जो संघर्ष की मार झेल चुके हैं तो आप पाएंगे कि वहां लोग युद्ध ख़त्म होने से खुश हैं. और पश्तून बहुल इलाक़ों में लोग कुछ मुद्दों पर तालिबान के रूढ़िवादी नज़रिए से इत्तेफ़ाक भी रखते हैं."
ये एक महत्वपूर्ण फर्क की तरफ इशारा करता है. ग्रामीण इलाक़ों में पारंपरिक तौर तरीकों को मानने वाले, तालिबान के पहले के शासन के दौर में लौटने की कोशिश कर रहे हैं, तो शहरों में रहने वाले अब आज़ाद ख़्याल ज़िंदगी चाहते हैं.
वो कहते हैं, "बड़े शहरों में रहने वालों का मानना है कि देश 20 साल पीछे चला गया है. लोग यहां से जाना चाहते हैं. दक्षिण पश्चिम में मानव तस्करी के एक अड्डे पर मैंने देखा कि बेहतर जिंदगी की उम्मीद में रोज़ क़रीब चार से पांच हज़ार लोग अवैध तरीके से सीमापार जा रहे हैं."
यानी अस्थिरता के माहौल के बीच देश से लोगों का पलायन शुरू हो चुका है. लेकिन ऐसा नहीं है कि मौजूदा हालातों से केवल आम लोग परेशान हैं.
अर्थव्यवस्था की स्थिति तालिबान के लिए भी चिंता का सबब बनी हुई है. लेकिन उसके सामने एक और बड़ी चुनौती है. संगठन में मतभेद उठने लगे हैं और उसे सुलझाना उसके लिए मुश्किल हो रहा है.
तालिबान के भीतर गहरे मतभेद
डॉक्टर माइक मार्टिन किंग्स कॉलेज लंदन में विज़िटिंग रीसर्च फैलो हैं. वो कहते हैं कि तालिबान को समझने के लिए हमें ये जानना होगा कि ये संगठन असल में गुटों में बंटा हुआ है.
डॉक्टर मार्टिन कहते हैं, "स्पष्ट तौर पर तालिबान दो बड़े गुटों में बंटा हैं, पहला हक्कानी नेटवर्क जिसका नाम अमेरिका के 'आतंकवादी संगठनों' की लिस्ट में है और दूसरा दक्षिण की तरफ का वो समूह जो 90 के दशक में तालिबान का पहला संगठन हुआ करता था, ये असली तालिबान था. हक्कानी को पाकिस्तान के क़रीब माना जाता है जबकि दूसरे गुट को ईरान के क़रीब माना जाता है. ये दोनों ही नई सरकार में अधिक ताकत चाहते हैं."
अब ये मतभेद हिंसक हो गया है. दोनों गुटों के लड़ाकों के बीच हाथापाई और गोलीबारी हो चुकी है.
डॉक्टर माइक मार्टिन कहते हैं, "दोनों गुटों के लड़ाकों के बीच हाथापाई और गोलीबारी हो चुकी है. हम दफ्तरों पर हमले भी देख चुके हैं, ख़ास कर अफ़ग़ान क्रिकेट बोर्ड का प्रमुख चुनने के मसले पर. दोहा में अमेरिका के साथ समझौते पर चर्चा कर रहे मुल्ला ग़नी बरादर अंतरिम सरकार में मनचाहा पद न मिलने के बाद कई दिनों तक देखे नहीं गए थे."
तालिबान गुरिल्ला लड़ाकों की फौज से देश चलाने वाली सरकार बनने के बदलाव से गुज़र रहा है. बीते साल के सितंबर से वो ये कि संगठन के रूप में ये बहुकेंद्रीय व्यवस्था से बाहर निकलकर एक ठोस केंद्रीय ताकत बनने की प्रक्रिया में है.
डॉक्टर माइक मार्टिन समझाते हैं कि बीते दो दशकों में दुनिया की ताकतवर सेनाओं से जूझने और अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए उसका विकेंद्रित होना ज़रूरी था. लेकिन उसे सरकार बनानी है और इसके लिए एक ख़ास ढांचा ज़रूरी है.
वो कहते हैं, "वो इसी प्रक्रिया में है. लेकिन क़बायली नेता तालिबान की नीतियों को कितना मानेंगे ये बड़ा सवाल है. संघर्ष के वक्त से तालिबान की ताकत लड़ाकों के ऐसे समूह थे जिनका नेतृत्व प्रभावी माने जाने वाले मुहाजिर नेता कर रहे थे. इन्हें अब सरकारी पद दिए गए हैं. लेकिन असल में तालिबान अभी भी लड़ाकों की फौज है जिनमें मुहाजिर ताकतवर हैं और लड़ाकों पर नियंत्रण रखते हैं. उन्हें सरकार में शामिल किया गया है, ताकि ज़रूरत पड़ने पर सेना और पुलिस में उनकी मदद ली जा सके."
देश में कई ऐसे समुदाय हैं जो या तो इस्लाम की दूसरी शाखा को मानते हैं या दूसरी नस्ल के हैं. तालिबान उनका प्रतिनिधित्व नहीं करता. इनमें पश्तून, ताज़िक, उज़्बेक और ख़ास कर शिया हज़ारा समुदाय शामिल हैं.
लेकिन एक और गुट है जो अफ़ग़ानिस्तान में अपनी जड़ें जमाना चाहता है और तालिबान के लिए सिरदर्द बना हुआ है.
डॉक्टर माइक मार्टिन कहते हैं, "इस्लामिक स्टेट एक धुर-दक्षिणपंथी गुट है जिसे लेकर तालिबान बेहद चिंतित है. हम ये इसलिए जानते हैं क्योंकि सत्ता में आने के बाद तालिबान के प्रमुख नेता हिबतुल्लाह अख़ुंदज़ादा ने एक ऑडियो संदेश जारी कर कहा था कि आंदोलन में कुछ गद्दार मौजूद हैं जिनसे सावधान रहने की ज़रूरत है. वो चिंतित थे क्योंकि कुछ लोग तालिबान छोड़ कर इस्लामिक स्टेट में शामिल हो सकते थे."
इस्लामी क़ानून के मामले में इस्लामिक स्टेट तालिबान से अधिक कट्टर विचार रखता है. आने वाले वक्त में वो तालिबान के लिए बड़ा राजनीतिक ख़तरा बन सकता है.
वो कहते हैं, "तालिबान में कई ऐसे युवा हैं जिनका जन्म 9/11 के बाद हुआ है. ये लोग अधिक उग्र हैं. ये सुनते आए हैं कि तालिबान विदेशियों को देश से निकालेगा और महिलाओं को अधिकार नहीं दिए जाएंगे. अब अचानक वो देख रहे हैं कि तालिबान उदार दिखना चाहता है और उसके नेता संयुक्त राष्ट्र और रिफ्यूजी काउंसिल की महिला प्रतिनिधियों से मुलाक़ातें कर रहे हैं."
अंतरराष्ट्रीय समुदाय चाहता है कि तालिबान उदारवादी रुख़ अपनाए. लेकिन इससे संगठन के टूटने का ख़तरा हो सकता है.
तालिबान दो पाटों के बीच फंसा है, वो उदारवादी भी दिखना चाहता है और रूढ़िवादी तबके को नाराज़ भी नहीं करना चाहता. और आर्थिक स्थिति बुरी तरह लड़खड़ाने के कारण उसकी ये कश्मकश और बढ़ गई है.
रुकी आर्थिक मदद
लॉरेल मिलर इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप की एशिया प्रोग्राम निदेशक हैं. उनका कहना कि मुसीबत इसलिए गंभीर हो गई हैं क्योंकि बीते दो दशकों से अफ़ग़ान सरकार विदेशी मदद पर निर्भर थी.
अशरफ़ ग़नी के नेतृत्व वाली सरकार की जीडीपी का 43 फीसदी हिस्सा विदेशी मदद से आता था. तालिबान के आने के बाद आर्थिक मदद तो बंद हुई है बल्कि अमेरिका ने उस पर कई प्रतिबंध भी लगा दिए हैं.
वो कहती हैं, "अफ़ग़ान सरकार की संपत्ति, केंद्रीय बैंक का रिज़र्व सब फ्रीज़ कर दिया गया है. प्रतिबंधों के कारण वहां की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई है. तालिबान पिछले साल पेश किए गए बजट का एक चौथाई तक भी जमा नहीं कर पाया है. संयुक्त राष्ट्र ने हाल में कहा है कि इस कारण मानवीय संकट पैदा हो सकता है."
आर्थिक तंगी का असर भी दिखने लगा है. सरकारी सेवाएं ठप पड़ गई हैं और सरकारी मुलाज़िमों को तन्ख़्वाह नहीं मिल रही.
तालिबान अवैध काम के ज़रिए पैसे इकट्ठा करता रहा है. लेकिन अब उसके लिए लेनदेन को पारदर्शी रखना मजबूरी हो गया है. लेकिन ऐसा करने का उसे कोई अनुभव नहीं है.
लॉरेल मिलर कहती हैं, "तालिबान को जिसका अनुभव है वो है समांतर अर्थव्यवस्था या अवैध पैसों पर टिकी आर्थिक व्यवस्था को चलाना, बैंकों की बजाय अनौपचारिक हवाला नेटवर्क के ज़रिए लेनदेन करना. ये व्यवस्थाएं न तो पारदर्शी हैं और न ही अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार हैं."
तालिबान की आय का मुख्य स्रोत था अफ़ीम की खेती, जिससे नशीला पदार्थ हेरोइन बनाया जाता है. अमेरिकी सेना ने इस कारोबार पर लगाम लगाने के लिए काफी मशक्कत की थी लेकिन हालात बिगड़े तो ये कारोबार एक बार फिर फलफूल सकता है.
लॉरेल मिलर कहती हैं, "मौजूदा हालत के लिए तालिबान विदेशी ताकतों को ज़िम्मेदार ठहरा रहा है. उनके लिए ये कहना आसान है कि देश में संसाधनों की कमी के लिए विदेशी ताकतें ज़िम्मेदार हैं."
ऐसा भी नहीं है कि विदेशों से मदद पूरी तरह रुकी है. पश्चिमी देशों से लाखों डॉलर आपात मानवीय मदद संयुक्त राष्ट्र और राहत एंजेंसियों के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान पहुंच रही है, लेकिन ये नाकाफी है.
वो कहती हैं, "देखा जाए तो एशिया के मुल्क काफी कम मदद दे रहे हैं. चीन ने 3 करोड़ डॉलर मदद की घोषणा की है. उन्हें लगता है कि अमेरिका और नेटो देशों ने अपनी सेनाएं अफ़ग़ानिस्तान भेजी थीं, इसलिए वहां की स्थिति के लिए उन्हें ही ज़िम्मेदार होना चाहिए."
"तालिबान का कहना है कि मदद न मिली तो ड्रग्स का कारोबार बढ़ेगा, पलायन बढ़ेगा और आम लोग परेशान होंगे. वहीं अंतरराष्ट्रीय समुदाय का कहना है कि सत्ता पर काबिज़ संगठन उन्हें पसंद नहीं इसलिए वो मदद नहीं कर सकते."
और इस बहस के बीच जो फंसे हैं वो हैं अफ़ग़ानिस्तान के आम नागरिक. संकट गहरा रहा है, और सवाल उठना लाज़मी है कि आगे क्या होगा.
भुखमरी की कगार पर
ऐशली जैक्सन ओवरसीज़ डेवेलपमेंट इंस्टीट्यूट के सेंटर फ़ॉर स्टडीज़ ऑफ़ आर्म्ड ग्रुप्स में सह-निदेशक हैं. वो कहती हैं कि तालिबान ने आज से पहले ऐसी मुश्किल परिस्थिति का कभी सामना नहीं किया.
वो कहती, "तालिबान जिस तरह के संकट का मुक़ाबला कर रहा है वैसी स्थिति किसी भी सरकार के लिए चुनौतीपूर्ण होती. लेकिन तालिबान के साथ मुश्किल ये है कि न तो वो इस काम में सक्षम है और न ही उसके पास इससे निपटने की कोई योजना है."
ऐशली मानती हैं कि अफ़ग़ानिस्तान को मिलने वाली आर्थिक मदद बंद करने से कोई लाभ नहीं होगा.
उनके अनुसार, "ये ऑक्सीजन की सप्लाई बंद करने जैसा है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने अफ़ग़ान अर्थव्यवस्था की गरदन पर अपना घुटना टिका दिया है. आपको इसे हटाना ही पड़ेगा, आपको उसकी अर्थव्यवस्था को चलाना होगा."
लेकिन अफ़ग़ानिस्तान को विदेशी मदद बिना शर्त नहीं मिलेगी, ऐसा नहीं लगता.
वो कहती, "मुझे लगता है कि तालिबान ये समझने की कोशिश कर रहा है अंतरराष्ट्रीय समुदाय उससे क्या चाहता है. मुश्किल ये है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय मांगें तो कर रहा है, लेकिन सही मायनों में न तो बातचीत हो रही है और न ही कोई रोडमैप दिया जा रहा है."
ऐशली कहती हैं तालिबान चर्चा की मेज़ तक आने को तैयार है. उसने कहा है कि लड़कियों को पढ़ाई करने का मौक़ा मिलेगा. हमें सुनिश्चित करना है कि वो अपना वादा पूरा करे. लेकिन इसके लिए पश्चिमी देशों को अपना रवैया बदलना होगा.
वो कहती, "अभी इसकी कल्पना करना मुश्किल है. अमेरिका, ब्रिटेन और दूसरे देशों ने अफ़ग़ानिस्तान को लेकर जो नीति अपनाई है उससे पलायन जैसी समस्या हल नहीं होगी. आपको प्रतिबंधों वाली नीति को छोड़ना होगा. अफ़ग़ान नागरिक अनाड़ी नहीं हैं. वो जानते हैं कि तालिबान अपने बूते इस संकट का सामना नहीं कर सकेगा. उन्हें भरोसा है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय मदद करेगा."
ऐशली कहती हैं कि हमें ये समझना चाहिए कि हालात टाले जा सकते हैं. आरोप-प्रत्यारोप से परे लोगों को आपात मदद की ज़रूरत है और ऐसा न हुआ तो भुखमरी से लाखों बच्चों के मरने का ख़तरा है.
तो अफ़ग़ानिस्तान कड़कड़ाती ठंड में भुखमरी के ख़तरे का सामना कैसे करेगा?
अतीत को देखा जाए तो पश्चिमी देशों से आर्थिक मदद मिलने से पहले भी अफ़ग़ानिस्तान के लिए मुश्किलों का सामना करना नई बात नहीं थी. लेकिन अब विदेशी मदद बंद है और सत्ता में बैठे नए शासक के पास संकट से जूझ रहे मुल्क और अर्थव्यवस्था को चलाने का कोई अनुभव नहीं.
हालात गंभीर हैं. कुछ आपात मदद पहुंच तो रही है लेकिन उतना काफी नहीं. अफ़ग़ान सरकार को तुरंत कैश चाहिए.
देश का नेतृत्व कमज़ोर कंधों पर है. ऐसे में कुछ के लिए ड्रग्स के धंधे में घुसने की मजबूरी है तो कुछ के लिए देश छोड़ने की.
फ़ैसला जो भी हो, अफ़ग़ानिस्तान पश्चिमी देशों के लिए गले की वो हड्डी बन गया है जो न उगलते बनता है और न निगलते. (bbc.com)