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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : संसद के भीतर-बाहर हमला नहीं, प्रदर्शन के ऐसे खतरे, और सबक
14-Dec-2023 6:24 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : संसद के भीतर-बाहर  हमला नहीं, प्रदर्शन के ऐसे खतरे, और सबक

हिन्दुस्तान की संसद पर आतंकी हमले की 22वीं सालगिरह पर लोकसभा के भीतर और संसद परिसर में एक अहिंसक हमला हुआ। इसमें सिर्फ नारों और रंगीन गैस का इस्तेमाल करते हुए कुछ लोकतांत्रिक मांगें की गईं। वैसे तो संसद पर हमले की सालगिरह का यह दिन थोड़ी सी अधिक सावधानी का रहना चाहिए था, लेकिन गैरहथियारबंद और कुछ लोकतांत्रिक किस्म के इस ‘हमले’ से बचाव और रोकथाम करना कुछ मुश्किल भी रहा होगा क्योंकि इसमें मैटल डिटेक्टर वगैरह काम नहीं आए होंगे। अब यह जरूर है कि ऐसे असाधारण विरोध-प्रदर्शन को लेकर संसद की सुरक्षा पर कई सवाल खड़े होंगे, और देश में यह भी एक फिक्र की बात हो सकती है कि महज सोशल मीडिया पर एक-दूसरे से जुड़े हुए आधा दर्जन लोग किस तरह ऐसी कार्रवाई कर सकते हैं। यह भी है कि अगर एक-दूसरे से सिर्फ सोशल मीडिया पर जुड़े हुए लोग ऐसा कर सकते हैं, तो फिर उनके हथियारबंद होने पर ऐसा कोई भी खतरा और कितना बड़ा हो सकता था। ऐसी बहुत सी बातें हैं, जिन पर सोच-विचार होना चाहिए। यह जरूर है कि संसद के भीतर सदन में बैठे सांसदों के लिए खतरनाक साबित हो सकने वाले ऐसे प्रदर्शन में जिन मुद्दों को उठाया गया है, उन पर इस मौके पर चर्चा नहीं होगी, और महज प्रदर्शन के तौर-तरीके एक आतंकी हमला करार दे दिए जाएंगे। अभी तक की जानकारी के मुताबिक गिरफ्तार पांच लोगों के साथ-साथ दो और लोगों की तलाश चल रही है, और खबर है कि इन पर यूएपीए जैसा कड़ा कानून लगाया गया है। एक राहत की बात यह है कि इसमें गिरफ्तार तमाम लोग कश्मीर, पंजाब, या उत्तर-पूर्व जैसे राज्यों के नहीं हैं, वे न मुस्लिम हैं, न सिक्ख हैं, इसलिए उन पर पाकिस्तानी या खालिस्तानी साजिश की तोहमत नहीं लग सकती। सारे के सारे नाम हिन्दू नाम हैं, और चाहे कितने ही हिन्दू पाकिस्तान के लिए जासूसी करते पकड़ाए न जा चुके हों, आज अगर संसद में इस प्रदर्शन के पीछे गैरहिन्दू होते, तो देश एक अलग किस्म से जलता-सुलगता रहता। प्रदर्शनकारियों ने कहा है कि वे किसानों के आंदोलन, मणिपुर संकट, और बेरोजगारी की वजह से नाराज थे, इसलिए उन्होंने ऐसा किया है। 

हम अभी इस चर्चा में संसद की हिफाजत की लापरवाही पर अधिक जोर डालना नहीं चाहते क्योंकि हमारा मानना है कि यह कोई हथियारबंद हमला नहीं था, यह एक विरोध-प्रदर्शन था, और इससे संसद के हिफाजत के इंतजाम को बेहतर करने का एक मौका भी मिला है। कल अगर रंगीन गैस के बजाय जहरीली गैस का कोई स्प्रे लिए हुए प्रदर्शनकारी आत्मघाती जत्थे की शक्ल में सदन के बीच इतना स्पे्र करते रहते, तो दर्जनों सांसद मारे जा सकते थे। इसलिए इस प्रदर्शन को एक बड़े हमले से बचाव का मौका मानकर चलना बेहतर होगा। अभी संसद और सरकार को यह नसीहत देने का मौका नहीं है कि इन प्रदर्शनकारियों के उठाए मुद्दों पर भी चर्चा की जरूरत है क्योंकि ये मुद्दे तो पहले से संसद के भीतर और बाहर लगातार चर्चा का सामान है, फिर चाहे संसद और सरकार से इन पर देश को कुछ हासिल न हो रहा हो। संसद अभी तक खत्म नहीं हुई है, और संसद के बाहर उठाए मुद्दे भी थोड़ी बहुत जगह तो पा ही लेते हैं, ऐसे में अंग्रेजी की पार्लियामेंट में भगत सिंह की तरह हथगोला फेंकने की जरूरत अभी नहीं थी, और कल का यह प्रदर्शन एक हिंसक और खतरनाक प्रदर्शन ही कहलाएगा, और सरकार और अदालतें इसे आतंकी कार्रवाई मान लेंगी, तो भी उसमें कुछ अटपटा नहीं होगा। लोकतंत्र में प्रदर्शन का यह तरीका मंजूर नहीं किया जा सकता। 

अब देश की खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों के लिए यह सोचने का एक मुद्दा है कि अलग-अलग शहरों में बसे लोग सोशल मीडिया पर आपस में जुडक़र इस तरह दिल्ली में एकजुट होते हैं, और इस तरह संसद के भीतर और बाहर देश का ध्यान खींचते हैं। ऐसे में किसी बड़े आतंकी संगठन की जरूरत भी नहीं रह जाती, और अगर वैचारिक आधार पर देश की असल दिक्कतों पर कुछ नौजवान कई बरस जेल में काटने का खतरा उठाकर भी ऐसा प्रदर्शन करते हैं, तो फिर कुछ हिंसक किस्म के नौजवानों को इसी अंदाज में और अधिक हिंसा करने के लिए भी तैयार किया जा सकता है। फिर यह भी जरूरी नहीं है कि ऐसा कोई हमला संसद जैसी महफूज समझी जा रही जगह के भीतर ही हो, यह भी हो सकता है कि देश में कहीं भी भीड़भरी जगह पर ऐसा महज रंगीन-गैस हमला किया जाए, और बिना किसी जानलेवा खतरे के भी महज भगदड़ में सैकड़ों लोग मारे जाएं। ऐसे में अगर किसी की नीयत देश में अधिक बदअमनी फैलाने की होगी, तो इसमें हमलावर को भीड़ से अलग धर्म का बताकर साम्प्रदायिक हिंसा भी फैलाई जा सकती है। कल संसद तो किसी जान-माल के नुकसान से बच गई है, लेकिन देश को एक नई किस्म के खतरे का पता चल गया है, जो कि अधिक फायदे की बात लगती है। न सिर्फ संसद, विधानसभाओं, और अदालतों को ऐसी नौबत से बचाना चाहिए, बल्कि दूसरे किस्म की गैसों के असली आतंकी हमलों की शिनाख्त और उनसे बचाव के रास्ते भी तलाश लेने चाहिए। 

संसद खबरों में अधिक महत्वपूर्ण है, लेकिन मजदूरों के बाजार या गरीबों के किसी स्कूल में बच्चों की जिंदगी भी उतना ही मायने रखती है। इसलिए देश को पहली बात तो यह कि हमलों से बचाव की तरकीबें सीखनी चाहिए, और साथ-साथ देश में सामाजिक अमन-चैन, इंसाफ, और लोकतंत्र को कायम रखने की कोशिश भी करनी चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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