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बदल रही है देश के पहले गांव किबिथू की तस्वीर
17-Apr-2024 12:47 PM
बदल रही है देश के पहले गांव किबिथू की तस्वीर

पूर्वोत्तर भारत में देश की सीमा शुरु होने पर पहला गांव आता है किबिथू. बीते सालों में यहां सरकार ने विकास के कुछ काम शुरू किए हैं जिनसे यहां की तस्वीर धीरे धीरे बदल रही है. हालांकि ज्यादातर काम अभी शुरुआती दौर में ही हैं.

   डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट

पूर्वोत्तर में भारत के साथ लगी चीन और म्यांमार की सीमा पर लोहित नदी के किनारे खूबसूरत पहाड़ियों पर बसा किबिथू गांव बीते साल अप्रैल में पहली बार उस समय सुर्खियों में आया था जब केंद्र सरकार ने इसे जीवंत गांव कार्यक्रम (वाइब्रेंट विलेज प्रोग्राम) में शामिल किया था. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह तब खुद यहां पहुंचे थे.

इलाके के विकास के लिए तमाम आधारभूत योजनाओं की घोषणा के बाद इस दुर्गम गांव के लोगों की आंखों में सुनहरे सपने उभरने लगे थे. अब धीरे-धीरे इलाके की तकदीर और तस्वीर बदल रही है. सामरिक रूप से इस गांव की बहुत अहमियत है.

केंद्र सरकार ने सीमावर्ती इलाकों में बढ़ती चीनी गतिविधियों से निपटने के लिए जिस वाइब्रेंट विलेज प्रोग्राम की शुरुआत की थी, उसमें अंजाव जिले के किबिथू के साथ लोहित नदी के पार बसे काहो के अलावा मेशाई गांव शामिल हैं.

बुनियादी सुविधाओं की कमी
अपनी बेमिसाल प्राकृतिक खूबसूरती और काफी हद तक अछूते इस इलाके में आधारभूत सुविधाओं की कमी के कारण पर्यटन को उम्मीद के मुताबिक बढ़ावा नहीं मिल सका है. लोगों को उम्मीद थी कि अब विकास परियोजनाएं तेजी से लागू होंगी और इलाके का चेहरा बदल जाएगा.

बीते साल गांव में एयरटेल का एक टावर लगाया गया. हालांकि मोबाइल नेटवर्क अब भी बेहतर नहीं हो सका है. अब स्थानीय लोगों की उम्मीदें इलाके में बिछने वाली ऑप्टिकल फाइबर केबल पर टिकी हैं. इसके इस महीने के आखिर तक तक वालोंग पहुंचने की उम्मीद है.

इलाके में मौजूद ईस्टर्न बेकरी यहां की पहली बेकरी है. इसके मालिक प्रेम कुमार सोनम उम्मीद जताते हैं कि ऑप्टिकल फाइबर केबल के यहां पहुंचने के बाद कनेक्टिविटी की समस्या खत्म हो जाएगी. वह बताते हैं, "किसी वीआईपी के यहां पहुंचने पर तो मोबाइल नेटवर्क ठीक काम करता है. लेकिन बाद में पता नहीं उसे क्या हो जाता है."

जगह जगह साइन बोर्ड  
अंजाव जिला मुख्यालय हवाई में है जो यहां से 80 किलोमीटर की दूरी पर है. यहां के जिला उपायुक्त तालो जेरांग कहते हैं, "वाइव्रेंट विलेज प्रोग्राम के तहत तमाम योजनाएं फिलहाल निविदा की प्रक्रिया से गुजर रही हैं. उनका काम शीघ्र शुरू होगा. फिलहाल राज्य सरकार के पैसों से कुछ काम शुरू हुआ है." इस गांव में जगह-जगह वाइब्रेंट विलेज कार्यक्रम के तहत होने वाले निर्माण के बोर्ड नजर आते हैं.

जिला योजना अधिकारी मार्तो दिरची इन परियोजनाओं के नोडल अधिकारी भी हैं. उनका कहना है कि वाइब्रेंट विलेज कार्यक्रम के तहत 47 सामान्य और 16 सड़क परियोजनाओं पर काम होना है. इनमें से हवाई वालोंग ब्लॉक के तहत अकेले किबिथू में ही आठ परियोजनाएं हैं. इनमें अस्पताल, स्कूल, बैडमिंटन कोर्ट, स्वास्थ्य केंद्र और सरकारी कर्मचारियों के लिए आवासीय परियोजनाएं शामिल हैं.

ईस्टर्न बेकरी के प्रेम कुमार को उम्मीद है कि जल्दी ही तमाम परियोजनाएं शुरू हो जाएंगी. ईस्टर्न  बेकरी भारतीय सेना ने शुरू की है. फिलहाल इसमें चार महिलाएं काम करती हैं. सेना इसके आधुनिकीकरण की एक योजना पर काम कर रही है. प्रेम कुमार के मुताबिक, गांव में होम स्टे शुरू करने की योजना पर भी काम चल रहा है. लोहित के दूसरे किनारे पर बसे काहो गांव में कुछ होम स्टे शुरू हुए हैं. उम्मीद है किबिथू में भी यह जल्दी शुरू हो जाएगा. तब पर्यटकों के आने की भी संभावना है.

मुश्किल है किबिथू पहुंचना
समुद्रतल से करीब तेरह सौ मीटर की ऊंचाई पर बसा यह इलाका कितना दुर्गम है, यह समझने के लिए इलाके का भूगोल समझना जरूरी है. पूर्वोत्तर में अरुणाचल प्रदेश से लगी असम सीमा में स्थित डिब्रूगढ़ यहां पहुंचने के लिए सबसे नजदीकी एयरपोर्ट है जो 390 किमी दूर है. इसी तरह सबसे नजदीकी स्टेशन तिनसुकिया से इस गांव की दूरी 340 किमी है. वहां से एक दिन में यह दूरी तय करना मुमकिन नहीं है.

यहां तक पहुंचने के लिए रास्ते में या तो तेजू में रात को रुकना पड़ेगा या फिर जिला मुख्यालय हवाई या वालोंग में. किबिथू गांव में फिलहाल पर्यटकों के रहने की कोई सुविधा नहीं है. इसलिए यहां तक पहुंचने वाले पर्यटकों को 30 किमी दूर स्थित वालोंग या नदी पार काहो स्थित होमस्टे में ठहरना होता है. वहां से आकर किबिथू घूमने के बाद फिर वहीं लौटना जरूरी है.

किबिथू से करीब 18 किमी पहले वह डांग कस्बा भी है जहां सूरज की किरणें सबसे पहले भारतीय जमीन को स्पर्श करती हैं. गांव के लोगों का कहना है कि पर्यटकों की तादाद धीरे-धीरे बढ़ तो रही है. लेकिन उनके रहने का कोई इंतजाम नहीं होने के कारण इससे स्थानीय लोगों को कोई खास फायदा नहीं होता. अब प्रशासन यहां होम स्टे शुरू करने पर विचार कर रहा है.

सेना से मिलता है रोजगार
फिलहाल गांव में तीन तरह के ही रोजगार हैं. इनमें भारतीय सेना के साथ पोर्टर के तौर पर काम करने के अलावा निर्माण कार्यों में मजदूरी और खेती शामिल है. लंबे समय से यहां तैनात इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस (आईटीबीपी) और सेना के जवान ही गांव के लोगों की जीवनरेखा बने हुए हैं.

फिलहाल गांव के स्कूल में आठवीं तक ही पढ़ाई होती है. अब इसे बढ़ा कर दसवीं तक करने की योजना है. इसके अभाव में गांव के बच्चों को पढ़ने के लिए मजबूरी में दूसरे कस्बों तक भेजना पड़ता है.

वाइब्रेंट विलेज योजना के तहत किबिथू स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षकों के लिए आवास भी तैयार किए जाएंगे. गांव वालों का कहना है कि पहले तो यहां ना अच्छी सड़कें थी और ना ही बिजली का कोई भरोसा था. अब सड़कें बेहतर है और बिजली भी रहती है, लेकिन अभी बहुत काम होना बाकी है.

चीन का हमला
यह अनाम-सा कस्बा साल 1962 के भारत-चीन युद्ध में टकराव का एक प्रमुख केंद्र था. 21 अक्टूबर, 1962 को आधी रात के समय चीनी सैनिकों ने यहां भारतीय चौकियों पर तोप से गोलाबारी शुरू कर दी थी.

चीनी सेना के मुकाबले तादाद कम होने के बावजूद उस समय 6 कुमायूं रेजिमेंट के जवानों ने बेहद बहादुरी से चीनी हमले का सामना किया था. बाद में हथियारों की कमी के कारण उन सैनिकों को वालोंग लौटने का निर्देश दिया गया था. वालोंग की रक्षा के लिए करीब तीन सप्ताह तक चली लड़ाई सेना के इतिहास में बहादुरी और साहस के इतिहास के तौर पर दर्ज है.

दो साल पहले यहां के सैन्य शिविर का नाम बदल कर भारत के पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत के नाम पर रख दिया गया. यहां उनकी याद में एक द्वार भी है. जनरल रावत ने साल 1999-2000 के दौरान यहां अपनी बटालियन 5/11 गोरखा राइफल्स की कमान संभाली थी, तब वो सेना में कर्नल थे.

किबिथू में सैन्य शिविर के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसके ठीक सामने चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की सीमा चौकी है, जो यहां से दिखाई देती है. (dw.com)
 

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