विचार / लेख

हेमंत सोरेन ने क्या दोबारा मुख्यमंत्री बनने में जल्दबाजी दिखाई?
07-Jul-2024 4:09 PM
हेमंत सोरेन ने क्या दोबारा मुख्यमंत्री  बनने में जल्दबाजी दिखाई?

-प्रेरणा

ये 15 मई, 2024 की बात है। झारखंड मुक्ति मोर्चा की विधायक और हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन गांडेय विधानसभा क्षेत्र में चुनाव प्रचार कर रही थीं। उनकी चुनावी सभा में राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंपई सोरेन और बिहार के पूर्व उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी शामिल हुए थे, पर समर्थकों में बेचैनी और उत्साह कल्पना सोरेन को देखने और सुनने का था।

जैसे ही कल्पना सोरेन का भाषण समाप्त हुआ और चंपई सोरेन मंच पर आए, भीड़ की एक बड़ी तादाद छंटनी शुरू हो गई। जाने वाले लोगों से जब बीबीसी ने पूछा कि वो मुख्यमंत्री का भाषण सुने बगैर क्यों लौट रहे हैं?

तो उन्होंने जवाब दिया कि चंपई सोरेन की लोकप्रियता उतनी नहीं हैं। उनकी जगह कल्पना सोरेन को मुख्यमंत्री होना चाहिए था।

मैंने पूछा, ‘अगर कल्पना चुनाव जीत जाती हैं, तो क्या पार्टी को चंपई सोरेन की जगह उन्हें मुख्यमंत्री बना देना चाहिए?’

जवाब आया, ‘नहीं, चुनाव में कुछ ही महीने बचे हैं। ऐसे में चुनाव के बाद ही अब ऐसा कोई फ़ैसला लेना चाहिए। फिलहाल जैसा चल रहा है। वैसे ही चलते छोड़ देना चाहिए।’

इस वाकये को लगभग दो महीने बीत चुके हैं और प्रदेश की राजनीतिक तस्वीर एक बार फिर बदल गई है।

फिर झारखंड के मुख्यमंत्री बने हेमंत सोरेन

मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अब न तो चंपई सोरेन आसीन हैं, न ही कम समय में लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचने वालीं कल्पना सोरेन को ही इस पद की जि़म्मेदारी सौंपी गई है।

कथित ज़मीन घोटाले से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में बीते 31 जनवरी, 2024 को गिरफ्तार हुए और फिर 28 जून को जमानत पर रिहा हो चुके हेमंत सोरेन ने एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की बागडोर संभाल ली है। उनके समर्थकों और कार्यकर्ताओं में खुशी और उत्साह का माहौल तो है, लेकिन एक खेमा चुनाव के चंद महीने पहले चंपई सोरेन को मुख्यमंत्री के पद से हटाने के फैसले पर भी सवाल उठा रहा है।

इस खेमे का मानना है कि हेमंत सोरेन पहले से ही सर्वमान्य नेता हैं, ऐसे में अगर वो चुनाव के बाद ही मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालते तो क्या बिगड़ जाता?

रांची के स्थानीय पत्रकारों का कहना है कि हेमंत सोरेन ने बैठे बिठाए मुख्य विपक्षी दल बीजेपी को मुद्दा दे दिया है। आने वाले विधानसभा चुनाव में परिवारवाद का विषय बीजेपी और जोर-शोर से उठाएगी।

हालांकि झारखंड मुक्ति मोर्चा और महागठबंधन के अन्य सहयोगी दलों का मानना है कि जब साल 2019 में हेमंत सोरेन के चेहरे पर चुनाव लड़ा गया, जनादेश उनके चेहरे पर आया, वे ही प्रदेश के मुख्यमंत्री चुने गए तो उनके दोबारा कमान संभालने से किसी को क्यों दिक्कत होनी चाहिए?

हालांकि राजनीति के जानकारों का यह भी मानना है कि चंपई सोरेन ख़ुद अपने इस्तीफे के लिए तैयार नहीं थे।

इस्तीफे की मांग पर भावुक हुए चंपई सोरेन?

कुछ मीडिया रिपोर्ट्स ये दावा करती हैं कि बीते दो जुलाई को मुख्यमंत्री आवास पर बुलाई गई विधायक दल की बैठक में चंपई सोरेन थोड़े भावुक हो गए थे। उनका कहना था कि चुनाव से दो महीने पहले इस्तीफा देने से लोगों के बीच ग़लत संदेश जाएगा।

बैठक कवर करने पहुंचे स्थानीय पत्रकारों ने बीबीसी को बताया कि चंपई सोरेन मीटिंग खत्म होने से पहले ही उठकर चले गए थे। हालांकि उन्होंने जाने से पहले विधायकों को आश्वस्त किया कि वो इस्तीफा दे देंगे। बस राजभवन पहुंचने का तय समय उनके साथ साझा कर दिया जाए।

बैठक में शामिल हुए एक विधायक ने नाम न बताने की शर्त पर बीबीसी से कहा, ‘चंपई सोरेन का भावुक होना स्वाभाविक है, लेकिन इसे वैमनस्यता के नजरिए से देखने की जरूरत नहीं है।’

उन्होंने कहा, ‘राज्यपाल को इस्तीफा सौंपने से लेकर, हेमंत सोरेन के नई सरकार बनाने का दावा पेश करने और फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने तक, चंपई सोरेन की उपस्थिति हर जगह मौजूद रही। उनके रिश्ते सोरेन परिवार के साथ बहुत मधुर और पुराने रहे हैं।’

वहीं महागठबंधन के सहयोगी दल सीपीआई (माले) के विधायक विनोद सिंह का कहना है कि सत्ता का इतना सहज हस्तांतरण तो दूसरे किसी राज्य में पहले कभी देखा ही नहीं गया।

ऐसे में महागठबंधन के नेता भले ही इसे बहुत सामान्य और सहज प्रक्रिया के रूप में पेश कर रहे हों लेकिन राजनीतिक विश्लेषक ऐसा नहीं मानते।

हेमंत सोरेन के फ़ैसले के पीछे क्या वजह रही?

झारखंड की राजनीति पर लंबे समय से नजर बनाए रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार सुधीर पाल का मानना है कि चंपई सोरेन के हालिया लिए कुछ फैसलों ने हेमंत सोरेन को असुरक्षित महसूस करवाया।

वे कहते हैं, ‘चुनाव से पहले चंपई सोरेन लगातार लोक लुभावन घोषणाएं कर रहे थे, उन्होंने कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू कर दीं, नौकरियों के मामले में भी घोषणाएं की गईं।’

‘अब भले ही ये सारी घोषणाएं हेमंत सोरेन की सहमति से की गईं लेकिन चुनाव में महत्वपूर्ण ये हो जाता है कि किसके कार्यकाल या किसके नेतृत्व में फैसले लिए गए।’

‘इसलिए हेमंत सोरेन नहीं चाहते थे कि चुनाव के दौरान चंपई सोरेन एक बड़े फैक्टर के रूप में उभरे। उन्हें चंपई सोरेन के लोकप्रिय होने का एक खतरा हो सकता था।’

सुधीर पाल कहते हैं कि हेमंत सोरेन के सामने गुटबाजी का भी खतरा मंडरा रहा था। सीता सोरेन के प्रकरण के बाद वो नहीं चाहते थे कि उनके खिलाफ एक और गुट तैयार हो। उन्हें डर था कि चुनाव के बाद कहीं चंपई सोरेन के नेतृत्व में कोई प्रेशर ग्रुप न खड़ा हो जाए।

झारखंड के एक और वरिष्ठ पत्रकार पीसी झा भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि हेमंत सोरेन का ये फ़ैसला असुरक्षा की भावना से प्रभावित है।

उनके मुताबिक चंपई सोरेन को मुख्यमंत्री पद से हटाने के पीछे कांग्रेस के कुछ स्थानीय नेताओं की भी अहम भूमिका रही।

झा कहते हैं, ‘कांग्रेस चंपई सोरेन से नाखुश थी। पार्टी की प्रेशर पॉलिटिक्स चंपई सोरेन पर काम नहीं कर रही थी। ऐसे में ये नाराजगी और न बढ़ जाए इसलिए आनन-फानन में ये फैसला लिया गया।’

क्या स्वाभाविक था हेमंत का फिर से मुख्यमंत्री बनना

हालांकि पिछले तीस सालों से झारखंड मुक्ति मोर्चा की राजनीति को देखने-समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार हरिनारायण सिंह का मानना है कि जो फैसला हेमंत सोरेन ने लिया, वो बहुत स्वाभाविक था। इसे शक की निगाह से देखने की जरूरत नहीं है।

उनका कहना है, ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा के लोगों की आस्था सोरेन परिवार में है। चंपई सोरेन को एक खास परिस्थिति में मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।’

‘अब जब हेमंत सोरेन के ख़िलाफ़ कोर्ट में कोई ठोस सबूत मौजूद नहीं था, वो एक तरह से अपराध मुक्त होकर जमानत पर रिहा हो गए हैं, तो जाहिर सी बात है कि उनके कार्यकर्ता उन्हें ही सीएम की कुर्सी पर देखना चाहेंगे।’

इस सवाल पर कि चुनाव तक चंपई सोरेन को ही मुख्यमंत्री बनाए रखने में क्या समस्या थी?

हरिनारायण सिंह कहते हैं, ‘चुनाव के मद्देनजर हेमंत सोरेन का मुख्यमंत्री बनना और जरूरी हो गया था। अगर चंपई सोरेन सीएम बने रहते और हेमंत सोरेन कार्यकारी अध्यक्ष रहते तो वो चुनाव प्रचार के दौरान किसी सरकारी पद पर न होने का खामियाजा भुगतते।’

‘जैसे- कहीं जाने से लेकर दूसरे सरकारी संसाधनों के इस्तेमाल के लिए उन्हें चंपई सोरेन पर निर्भर होना पड़ता। जबकि किसे टिकट देना है, कहां चुनावी रैली करनी है इससे जुड़े सारे फ़ैसले तो हेमंत सोरेन ही ले रहे होते।’

वो मानते हैं कि चंपई सोरेन भले ही हेमंत सोरेन से उम्र में बड़े हैं, उनका राजनीतिक करियर लंबा है। लेकिन मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी निभाने और प्रशासनिक फैसले लेने का अनुभव हेमंत सोरेन के पास अधिक है। वहीं नाम न बताने की शर्त पर महागठबंधन में शामिल दलों के एक विधायक ने बीबीसी से कहा कि हेमंत सोरेन का मुख्यमंत्री पद संभालना इसलिए भी ज़रूरी हो गया था क्योंकि जनता में चुनाव के दौरान असमंजस की स्थिति पैदा हो सकती थी।

वे कहते हैं, ‘आपको याद होगा कुछ दिनों पहले ये बात हो रही थी कि कल्पना सोरेन अगली मुख्यमंत्री बनाई जाएंगी, चंपई सोरेन तो ख़ुद मुख्यमंत्री थे ही।’

‘ऊपर से हेमंत सोरेन भी जमानत के बाद बाहर आ गए। ऐसे में एक स्पष्ट संदेश देने की जरूरत थी। सत्ता के कई केंद्र होने से न केवल दुविधा की स्थिति पैदा होती है, बल्कि कुछ गलत फैसले भी ले लिए जाते हैं।’

विधायक ने बीबीसी को बताया, ‘हाल में जब देशभर में लागू हुए तीन नए आपराधिक क़ानूनों के खिलाफ विरोध हो रहा था। कांग्रेस से लेकर क्षेत्रीय विपक्षी पार्टियां कानून के विरुद्ध अपनी असहमति जता रही थीं, तब झारखंड में कानून के स्वागत में सरकारी विज्ञापन छप जाता है। तो ऐसी स्थिति चुनाव के मद्देनजर और खतरनाक हो सकती है।’

पर क्या इस फैसले से पार्टी को या कहें इंडिया ब्लॉक को आगामी विधानसभा चुनाव में किसी तरह का कोई नुकसान भी हो सकता है? खासकर कोल्हान के क्षेत्र में, जहां से चंपई सोरेन आते हैं।

चंपई को सीएम पद से हटाना भारी पड़ सकता है?

झारखंड राज्य पांच प्रशासनिक क्षेत्रों में बंटा है- दक्षिण छोटानागपुर, उत्तर छोटानागपुर, संथाल परगना, पलामू और कोल्हान।

कोल्हान क्षेत्र के अंतर्गत कुल 14 विधानसभा सीटें हैं। यहां के स्थानीय पत्रकार उपेंद्र गुप्ता का कहना है कि इनमें से ऐसी 7-8 सीटें ऐसी हैं, जिन पर चंपई सोरेन का खासा प्रभाव है। ऐसे में अगर वो पार्टी के प्रति थोड़ी भी नाराजगी सार्वजनिक रूप से जाहिर करते हैं, तो इसका असर चुनाव में पडऩा तय है।

वरिष्ठ पत्रकार सुधीर पाल कहते हैं कि चंपई सोरेन के प्रति लोगों की सहानुभूति न बढ़े इसके लिए उनके खिलाफ मीडिया में नैरेटिव चलाया गया कि चंपई सोरेन के पारिवारिक सदस्य टेंडर सेटिंग जैसी चीजों में संलिप्त थे, जिसके कारण पार्टी की छवि खराब हो रही थी।

उन्होंने कहा, ‘जिस राजनीतिक सुचिता का हवाला देकर इस फैसले के बचाव की कोशिश की जा रही है, वो खुद सोरेन परिवार में नहीं बची। इसलिए उनका ये तर्क गले नहीं उतरता।’

‘दूसरा तर्क पार्टी जो अपने-अपने क्षेत्र में कार्यकर्ताओं के हवाले से पेश कर रही है, वो ये कि सरकार को ऑपरेशन लोटस का डर था। जबकि सरकार गिरने का डर तो तब भी था जब हेमंत सोरेन ईडी की गिरफ्त में जा रहे थे।’

उधर पीसी झा का मानना है कि अगर चंपई सोरेन चुनाव तक मुख्यमंत्री बने रहते और हेमंत सोरेन कैंपेनिंग संभालते, संगठन को मजबूत करते तो इससे उनकी पार्टी को अच्छा फायदा होता।

ऐसे में अगर मान लिया जाए कि चंपई सोरेन के मुख्यमंत्री रहते ही महागठबंधन चुनाव लड़ता और जीत जाता तो क्या होता, क्या हेमंत सोरेन अगले सीएम होते या चंपई सोरेन भी अपनी दावेदारी पेश कर सकते थे?

इस सवाल के जवाब में पीसी झा कहते हैं, ‘बेशक चंपई सोरेन अपनी दावेदारी पेश कर सकते थे। ऐसी परिस्थिति में उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता।’

‘रही बात हेमंत सोरेन की, तो वो शिबू सोरेन की जगह पार्टी के अध्यक्ष का पद संभालते। लेकिन अब ऐसी बातों का कोई मतलब नहीं है।’

ऐसे में अब चंपई सोरेन का राजनीतिक भविष्य क्या होगा। नई सरकार में उनकी क्या भूमिका होगी? वो क्या वापस मंत्री पद संभालने के लिए तैयार होंगे?

इस सवाल पर पीसी झा कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता चंपई सोरेन दोबारा मंत्रिमंडल में शामिल होंगे। पार्टी को उन्हें कोई न कोई बड़ी जिम्मेदारी या पद देना ही पड़ेगा।’

(bbc.com/hindi)

अन्य पोस्ट

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news