विचार / लेख

पढऩा जरूरी है...मगर अच्छा पढऩा उससे ज्यादा जरूरी है
08-Jul-2024 4:41 PM
पढऩा जरूरी है...मगर अच्छा पढऩा उससे ज्यादा जरूरी है

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दिनेश श्रीनेत

हम सब्जी मंडी में जाकर टमाटर तक हाथ से दबा-दबाकर देखते हैं, भिंडी तोडक़र देखते हैं। किताबें खरीदते समय कितना सोचते हैं?

कोई भी रचनाकार अहम कैसे बनता है? किताबों की बिक्री से? सस्ती, हल्की, सतही कथानक वाली किताबें तो बहुत-बहुत ज्यादा बिकती हैं, तो क्या उनके लेखक महान होते हैं?

पुरस्कार से? किताबों के नामांकन, ज्यूरी में जाने और पुरस्कार पाने तक की प्रक्रिया में कितना लोचा है, यह किसी से छिपा नहीं है। इसका सबसे रोचक उदाहरण बुकर पुरस्कार हैं, जिनकी लॉन्ग लिस्ट और शॉर्ट लिस्ट दोनों ही उसकी वेबसाइट पर मौजूद होती है। अक्सर यह लगता है कि ये नामांकित पुस्तकें विजेता पुस्तक के मुकाबले- अपने में ज्यादा रोचक कथा-संसार लेकर चल रही हैं।

यह तो बात हुई उन पुरस्कारों की जिनकी विश्वसनीयता बनी हुई है, इसके अलावा जाने कितने पुरस्कार सिर्फ राजनीतिक वजहों, जान-पहचान या खरीद-फऱोख़्त के माध्यम से मिलते हैं। कुछ ऐसे पुरस्कार होते हैं, जिनका कोई नामलेवा नहीं होता, मगर साहित्यकार वहां मिली ट्राफियों को अपने ड्राइंगरूम में और उस खिताब को अपने बायोडाटा में शामिल करके खुद का वजन बढ़ाने की कोशिश करते हैं।

लेखक को वैधता मिले और उसे महत्व मिले, इसके जाने कितने शॉर्टकट साहित्य के बाजार में मौजूद हैं। पहले किताब लिखिए, फिर उस किताब के लिए प्रकाशक खोजिए, उसके बाद से उस किताब का सोशल मीडिया प्रचार-प्रसार कीजिए- कुछ इस तरह कि लोगों को लगे कि किताब चर्चा में है। यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो बेशर्मी से खुद ही मैदान में उतर आइए।

अब बारी आती है कि किताब के बारे में कुछ लोग बोल दें। जो ऐवें ही बोलते हैं वो तो बोलें ही कुछ ऐसे लोग बोलें जिनकी बोली का महत्व है। यानी जिनकी बात को गंभीरता से लिया जाता है। उन्हें प्रसन्न करके, संबंधों का वास्ता देकर, कुछ लालच देकर लिखवा ही लिया जाता है। कुछ बेचारे सामाजिकता का निर्वाह करने में लिख देते हैं, कुछ इसे अपनी सामाजिक नियति मान लेते हैं और उदार भाव से कलम चलाते रहते हैं।

इतना काफी नहीं होता है क्योंकि किताब विमर्श का हिस्सा भी तो बननी चाहिए। लिहाजा एक प्रायोजित विमर्श होता है, जिसमें मंचासीन लोगों ने हड़बड़ी में, या कार्यक्रम वाले दिन नित्य क्रिया से निवृत होते वक्त उसके आठ-दस पन्ने पलट लिए होते हैं, उनके पास पहले से बनी-बनाई वाक्य संरचनाएं होती हैं, जिसमें वह लेखक और किताब का नाम फिट कर देते हैं।

पर सोशल मिडिया और मंचीय विमर्श तो खुश्बू की तरह है, जिसे समय ही हवा उड़ा ले जाएगी। लिहाजा पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा छपवाने की कवायद आरंभ होती है। इसके लिए पहले पत्रिका के संपादक को पटाना पड़ता है, उसके बाद लिखने वाला कोई न कोई मिल जाता है, जो एक अच्छी दावत के बदले में किताब की तारीफ करने को तैयार हो जाता है।

जिन दिनों यह सब कुछ नैसर्गिक रूप से होता था, इसमें तीन-चार वर्ष का समय लगता था। लेकिन अब लेखक को यह सब कुछ छह से आठ महीनों में चाहिए, इसकी एक वजह तो यह कि अगले बरस तो उसकी दूसरी किताब आने वाली है। दूसरी वजह जो ज्यादा बड़ी है, अगले बरस तक उनकी इस बरस आई किताब को याद कौन रखेगा?

लेखक को बाजार में टिके रहने के लिए लगातार चर्चा में बने रहना है, लेखक दिखने से उसे जो टुच्चे लाभ होते हैं, उसे वह कायम रखना चाहता है। प्रकाशकों को अपने टाइटल बढ़ाने हैं, उनको लगता है कि लेखक खुद के प्रचार-प्रसार के दम पर 100-150 प्रतियां तो बेच ही देगा, कुछ खुद खरीदेगा, कुछ खरीदवाएगा, कुछ नासमझी में खरीद ली जाएंगी। पत्रिकाओं को खाली पन्ने भरने हैं। जिन्हें साहित्य की दुनिया एंट्रियां मारनी हैं, उन्हें तारीफ करके जमे-जमाए लोगों के दिलों में घंटियां बजानी हैं।।। तभी तो बदले में उन्हें वैधता मिलेगी।

तो हाथ में किताब उठाने से पहले यह सोचना चाहिए, क्या यह रचनाकार वास्तव में अहम है? क्या यह किताब वास्तव में जरूरी है? इसे पढ़ा जाना चाहिए? सस्टेनेबिलिटी के इस दौर में सिर्फ अपने अहं और आत्ममुग्धता को तृप्त करने के लिए कई किलो कागज और लोगों का वक्त बरबाद करने क्या फायदा है?

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