विचार / लेख

गठबंधन सरकार, संवैधानिक पहलू
08-Jul-2024 4:47 PM
गठबंधन सरकार, संवैधानिक पहलू

-चंद्रशेखर गंगराड़े

( लेखक - पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधानसभा  हैं​ )

9 जून, 2024 को श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय  जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की सरकार ने शपथ ले ली है और उसी के साथ 18वी लोकसभा के गठन की अधिसूचना भी राष्ट्रपति द्वारा 6 जून, 2024 को जारी की जा चुकी है। 18वी लोकसभा हेतु संपन्न आम चुनाव में किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिलने के कारण चुनाव पूर्व राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का गठन हुआ था जिसमें भारतीय जनता पार्टी, जनता दल (यूनाईटेड), तेलगु देशम पार्टी, जन सेना, शिवसेना (शिंदे गुट), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजीत पवार गुट), राष्ट्रीय लोकदल, अपना दल (सोनेलाल), हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम), जनता दल (सेक्यूलर), लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (पशुपतिनाथ पारस), राष्ट्रीय लोक दल, रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया, असम गण परिषद, ए।जे।एस।यू।, हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा (सेक्यूलर), सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा, तिपरा मोथा पार्टी, यूनाईटेड पीपुल्स पार्टी (यूनाईटेड) शामिल थे और चूंकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिला था इसलिए राष्ट्रपति ने उन्हें सरकार बनाने का अवसर दिया और इस प्रकार देश में 10 वर्षों के बाद पुन: गठबंधन सरकार का युग आ गया।

इस अवसर पर हम इस बात पर विचार करेंगे कि चुनाव में इस प्रकार के विभिन्न राजनैतिक दलों का जो गठबंधन बनता है, उसकी विधिक स्थिति क्या है?विधिक दृष्टि से देखा जाये तो गठबंधन में ऐसे दल शामिल होते हैं, जिनकी विचारधारा परस्पर समान होती है या वे एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत एक-दूसरे की नीतियों में विश्वास व्यक्त करते हुए, एक साथ काम करने के लिए तैयार होते हैं। लेकिन उन पर कोई विधिक बंधन नहीं होता, वे जब चाहें गठबंधन से अलग हो सकते हैं और किसी दूसरे गठबंधन में शामिल हो सकते हैं। इसीलिए गठबंधन सरकारों को स्थिर और मजबूत सरकार की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। गठबंधन में शामिल दल अपने समर्थन की कीमत वसूल करना चाहते हैं और मुख्य दल के लिए यह संभव नहीं होता कि वे हमेशा गठबंधन में शामिल दलों की मांग पूरी कर सकें।

पूर्व में जब राजनैतिक दलों के सदस्य दल-बदल करते थे तो उस समस्या के निराकरण के लिए संविधान में दसवीं अनुसूची को शामिल करते हुए आंशिक तौर पर दल परिवर्तन को हतोत्साहित किया गया था लेकिन दल-बदल के मामले जब और बढऩे लगे तो वर्ष 2003 में उसे और संशोधित करते हुए, यह प्रावधान कर दिया गया कि जब किसी विधान दल के कम से कम दो-तिहाई सदस्य विलय के लिए सहमत हों तभी उस दल के सदस्य अपने दल को छोड़ सकेंगे। इसमें यह भी  प्रावधान है कि यदि कोई निर्दलीय सदस्य निर्वाचन के पश्चात, किसी राजनैतिक दल में सम्मिलित हो जाता है तो उसकी भी सदस्यता समाप्त हो जाती है और जब से संविधान में दल परिवर्तन के आधार पर सदस्?यता समाप्त होने का प्रावधान वर्ष 2003 में जोड़ा गया है, दल परिवर्तन के मामले कम होते जा रहे हैं। लेकिन जब गठबंधन की सरकार बनती है तो गठबंधन में शामिल दलों पर कोई कानूनी बाध्यता नहीं रहती है और वे कभी-भी उनकी शर्तें या मांगें पूरी न होने पर गठबंधन से अलग हो जाते हैं। जिससे सरकार अस्थिर हो जाती है। इसलिए चुनाव पूर्व जिन दलों को मिलाकर गठबंधन किया जाता है, उनका भी पंजीयन होना चाहिए। जैसे चुनाव में केवल वही राजनैतिक दल भाग लेते हैं, जिनका चुनाव आयोग में पंजीयन होता है।

इसलिए मेरा यह मत है कि अब समय आ गया है, जब इस विषय पर चर्चा हो कि चुनाव पूर्व जो गठबंधन बनें, उसका चुनाव आयोग में पंजीयन हो और चुनाव के बाद यदि वे गठबंधन से किसी कारणवश अलग होते हैं तो उन पर भी दल परिवर्तन के आधार पर सदस्यता समाप्त होने की कार्यवाही हो ताकि स्थिरता बनी रहे और यदि चुनाव में किसी भी दल या चुनाव पूर्व बने गठबंधन को बहुमत न मिले और चुनाव के बाद मात्र सरकार बनाने के लिए गठबंधन किया जाये तो उसे भी कानून की परिधि में लाया जाये। इस प्रकार जहां सरकार में स्थिरता आयेगी, वहीं राजनैतिक शुचिता भी कायम रहेगी और सरकार मजबूती से निर्णय ले सकेगी। क्?योंकि जिस प्रकार के पूर्व में हमारे सामने उदाहरण रहे हैं कि जब गठबंधन की सरकारें बनीं तो कभी भी, किसी-भी दल ने समर्थन वापस ले लिया और ऐसे सिद्धांतहीन गठबंधन से देश में राजनैतिक नैतिकता का भी पतन हुआ और गठबंधन से कोई दल अलग हो तो उसकी मान्?यता समाप्त हो या यदि वे गठबंधन से अलग होते हैं तो उन्हें इसका कोई लाभ न मिले।

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