विचार / लेख
कनुप्रिया
मेरे घर के सामने बाबा रामदेव के मंदिर में दिन-रात लाउडस्पीकर पर कर्कश आवाज में औरतें कुछ न कुछ गाती रहती हैं, छोटे से छोटा पर्व मनता है, मन्नत मणौतियों के आयोजन होते हैं, एक मिनट की भी शांति नहीं।
मगर आप कुछ नहीं कह सकते क्योंकि धर्म का मामला है। दो-तीन बार मैंने विरोध किया कि आप आवाज धीमी कर लें, कम से कम लाउडस्पीकर न बजाएँ तो मुझे कहा गया कि आप लोग तो नास्तिकों के घर से हैं आप को तो दिक्कत होगी ही। मुहल्ले वाले बोले हमें तो कोई दिक्कत नहीं है घर बैठे, कमरे में लेटे लेटे ईश्वर का नाम सुनने को मिलता जाता है।
एक तरफ कमरे में ईश्वर का नाम सुनते हैं दूसरी तरफ सडक़ों पर ढेरों कचरा पटक जाते हैं, कुत्ते सैनिटरी पैड्स की पॉलीथिन फाड़ देते हैं रात को, सुबह सडक़ों पर गंदगी पसरी होती है उसी बीच मंदिर आना-जाना चलते रहता है।
एक बार पुलिस को कॉल किया तो सामने वाले ने मेरी धर्म, जाति सब पूछ ली मगर लाउडस्पीकर की आवाज कम नहीं करवाई। एक जरा सी लाउडस्पीकर की आवाज जिस देश में धर्म के नाम पर कम न करवाई जा सकती हो वहाँ धर्म के नाम पर क्या नहीं हो सकता।
कानों में ईयरफोन ठूँसकर महाराज मूवी आज देखी गई और देखकर जो पहली बात दिमाग में आई वो ये कि क्या ये शुक्र था कि अंग्रेजों की अदालत में महाराज का मामला गया और करसन दास जीत गए। कई सौ साल से चली आ रही चरण सेवा जैसी कुप्रथा समाप्त हुई जिसमें लोग खुद धर्म के नाम पर खुशी-खुशी अपने घर की बच्चियों, स्त्रियों को महाराज को सौंप देते थे।
आज का वक्त होता तो ऐसे बाबा के खिलाफ आवाज उठाना नामुमकिन हो जाता, जजों से न के बराबर उम्मीद होती, मीडिया चुप मार जाता और उसके खिलाफ आवाज उठाने वाले हिंदू विरोधी साबित हो जाते। इस प्रकार स्त्रियों के शोषण की परम्परा चलती रहती।
मुझे बार-बार और हमेशा लगता है कि इस देश की आबादी का सबसे बड़ा दुश्मन धर्म है, शुचिता की बात करने वाले इसके नाम पर व्याभिचार को भी समर्थन करते हैं, अहिँसा की बात करने वाले हत्याओं को। अगर धर्म नहीं होता तो लोग शायद इतने गाफिल नहीं रहते, अपनी बदहाली के लिये कब के सडक़ों पर आ जाते।