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बिहार चुनाव: बीजेपी-जेडीयू गठबंधन से ना मुसलमान विधायक बना, ना कैबिनेट में जगह मिली
17-Nov-2020 7:17 PM
बिहार चुनाव: बीजेपी-जेडीयू गठबंधन से ना मुसलमान विधायक बना, ना कैबिनेट में जगह मिली

पटना​, 17 नवंबर | बिहार में दो घटनाएं एक साथ घट रही हैं. पहली तो ये कि सत्ता पक्ष में एक भी मुस्लिम विधायक नहीं है. दूसरा, बीजेपी सबसे बड़े बनकर उभरे दल यानी राजद से महज एक सीट कम है.

इन दोनों ही घटनाओं को अगर एक साथ जोड़कर देखा जाए तो बिहार जैसे समाजवादी राज्य में हो रहे राजनीतिक परिवर्तनों की व्याख्या, अपने आप कर देने में सक्षम है.

अगर टिकट बंटवारे के लिहाज से देखें तो सत्ता पक्ष के चार घटक दलों में जेडीयू को छोड़कर किसी पार्टी ने मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट ही नहीं दिया था.

जेडीयू ने 11 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था, लेकिन उन सभी को हार का मुंह देखना पड़ा. जेडीयू प्रवक्ता राजीव रंजन ने बीबीसी से बातचीत में ये स्वीकारा कि ये उनके लिए थोड़ी निराशाजनक स्थिति है.

उन्होने कहा, "हमारा गठबंधन किसी भी दल के साथ रहा हो लेकिन जेडीयू की राजनीति समावेशी रही है. हमारा ये मानना है कि ये एक अस्थाई स्थिति है जो गुजर जाएगी. मुस्लिम समाज के प्रति हमारा कमिटमेंट रहा है और वो आगे भी जारी रहेगा."

वहीं, राज्य में बीजेपी के एकमात्र मुस्लिम प्रवक्ता अजफर शम्सी कहते हैं, "बीजेपी सबका साथ, सबका विश्वास और सबका विश्वास पर यकीन रखने वाली पार्टी है. और ये बात बेमानी है कि बीजेपी से किसी मुसलमान को टिकट नहीं मिला. एनडीए ने टिकट दिया है मुसलमानों को. टिकट बंटवारे में तो मुस्लिम समाज का प्रतिनिधित्व रहा ही. बाकी यूपी सरकार की तर्ज पर बिहार में भी अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व मिलेगा."

कैबिनेट में एक भी मुस्लिम नहीं

नीतीश कुमार सरकार में जिन 14 मंत्रियों को शपथ 16 नवंबर को दिलाई गई, उसमें एक भी मुसलमान नहीं है. जिन 14 मंत्रियों ने शपथ ली है उनमें 4 सवर्ण, 4 पिछड़ा वर्ग, 3 अति पिछड़ा और 3 दलित मंत्री हैं.

सत्ता पक्ष से ये सवाल पूछने पर जवाब आता है कि कैबिनेट के अगले विस्तार में मुस्लिम समाज का भी प्रतिनिधित्व होगा.

लेकिन एआईएमआईएम के प्रदेश अध्यक्ष और अमौर विधानसभा क्षेत्र के विधायक अख्तरूल ईमान सवाल करते हैं, "मुकेश सहनी भी तो चुनाव हार गए थे, उनको क्यों शपथ दिलाई गई? ये सब कुछ सरकार की इच्छाशक्ति पर निर्भर है जो बीजेपी जेडीयू की सरकार के पास नहीं है. इन पार्टियों से कोई मुस्लिम उम्मीदवार जीत भी जाए तो वो पार्टी के प्रति लगातार अपनी वफादारी 'एंटी-माइनॉरिटी एक्टिविटी' करके साबित करता रहता है."

हालांकि डुमरांव विधानसभा क्षेत्र से जेडीयू उम्मीदवार अंजुम आरा जो चुनाव हार गईं, वो नुमांइदगी के सवाल को समुदाय विशेष के साथ जोड़ने से इनकार करती हैं.

वो कहती हैं, "ये जरूरी नहीं कि मुस्लिम समुदाय की तरक्की कोई मुस्लिम समुदाय का व्यक्ति ही करे. समुदाय की नुमाइंदगी से अहम बात समुदाय की तरक्की है. जो हमारे नेता नीतीश कुमार करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे. बाकी जेडीयू के सभी मुस्लिम उम्मीदवार क्यों हारे, इस मसले पर मेरे ख्याल से गंभीर समीक्षा की जरूरत है."

मुस्लिम विधायक

बिहार विधानसभा चुनावों में एआईएमआईएम ने महत्वपूर्ण जीत हासिल की है. पार्टी ने 5 सीट जीती है. वहीं, अगर अन्य पार्टियों से जीते मुस्लिम उम्मीदवारों की बात करें तो राजद से 8, कांग्रेस से 4, भाकपा (माले) से एक और बसपा से एक मुस्लिम उम्मीदवार ने जीत दर्ज की है. यानी 243 की विधानसभा में कुल 19 मुस्लिम चेहरे चुनकर आए हैं.

बिहार में मुस्लिम आबादी 16 फीसदी है. विधानसभा के लिहाज से देखें तो 47 सीट ऐसी हैं जहां मुस्लिम वोटर निर्णायक साबित होते रहे हैं. साल 2015 की बात करें तो बिहार विधानसभा में 24 मुस्लिम चेहरे थे. जिसमें राजद के 11, वहीं, जेडीयू से 5 चेहरे सदन में आए.

जेडीयू का इस बार खाता भी नहीं खुलने की दो वजहें अयूब राइन बताते हैं. वो साल 2012 से पिछड़े मुसलमानों के बीच काम कर रहे संगठन दलित मुस्लिम समाज के समन्वयक हैं.

अयूब कहते हैं, "मुस्लिमों की पिछड़ा-अतिपिछड़ा आबादी जो कुल मुस्लिम आबादी का 85 फीसदी से भी ज्यादा है, उसे टिकट देने में कंजूसी की गई. नीतीश सरकार ने 15 साल में मुसलमानों के लिए काम किया, उन्हें विभिन्न पदों पर भी भेजा लेकिन बीजेपी के खिलाफ मुसलमानों में जो एनआरसी और सीएए को लेकर गुस्सा है, उसको कांउटर करने में जेडीयू असफल रही."

क्या बिहार मुस्लिम तुष्टीकरण की राह पर है?

इस सवाल पर बिहार की राजनीति को समझने-परखने वालों की राय बंटी हुई है. एआईएमआईएम के उभार को सीमांचल इलाके में महागठबंधन की हार की एक वजह के तौर पर देखा जा रहा है.

वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद कहते हैं, "मुसलमानों के 76 फीसदी वोट इस बार चुनाव में महागठबंधन को मिले हैं और जीडीएसएफ गठबंधन जिसमें एआईएमआईएम भी थे उसे तकरीबन 11 फीसदी वोट मिले हैं. ऐसे में ओवैसी की पार्टी को सोशल मीडिया और टीवी जितना बढ़ा चढ़ाकर बोल रहे हैं, वैसा ज़मीन पर नहीं है. हालांकि इस बात से इनकार नहीं कि बिहार में पोलराइजेशन और कांउटर पोलराइजेशन बढ़ रहा है. तारकिशोर प्रसाद जो कटिहार यानी सीमांचल से ही आते है, उनका उपमुख्यमंत्री बनना इसका संकेत है."

वहीं, इस सवाल पर अख्तरूल ईमान कहते हैं, "हम खुद को किसी समुदाय से बांध कर नहीं देखते हैं. बाकी सीमांचल के जिस इलाके में हम जीते वो विकास के सारे मापदंडों पर बिहार जैसे राज्य में भी सबसे नीचे है. सदन में हम सरकार की किसी भी नीति का हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से नहीं देखेंगे. बल्कि नीति संतुलित विकास लाने वाली है या नहीं, इस आधार पर जाचेंगे-परखेंगे. और जरूरत पड़ी तो सदन से लेकर सड़क तक उस पर संघर्ष करेंगे."

इस बीच बिहार का आम मुसलमान असमंजस में है.

सामाजिक कार्यकर्ता असमां खान कहती हैं, "इस वक्त एक आम मुसलमान नाउम्मीद है. मुस्लिम महिलाओं पर हिंसा बढ़ रही है, एनआरसी-सीएए का मसला भी है और कोई आदमी हमारी आवाज उठाने वाला नहीं. एआईएमआईएम का उभार हुआ है बिहार में, लेकिन बहुत सारे मुसलमान इस पार्टी की राजनीति से इत्तेफाक नहीं रखते हैं. हम सिर्फ वेट एंड वॉच कर सकते हैं."

मुस्लिम समाज की भूमिका

'जंग-ए-आजादी में मुस्लिम समाज' के लेखक राघव शरण शर्मा बताते हैं कि बिहार में जिन्ना का जबरदस्त विरोध करने वालों में अब्दुल बारी, मजहरूल हक, अब्दुल कयूम अंसारी थे.

राघव शरण शर्मा कहते हैं, "मुस्लिम राजनीति को दो भागों में बांट कर देखें तो, एक हिस्सा प्रगतिशील राजनीति करने वालों का था और दूसरा हिस्सा जिन्ना जमात का था, जिनका मक़सद हिन्दुओं के अंर्तविरोध का फायदा उठाना था. मुस्लिम राजनीति में जो प्रगतिशील थे वो आपको कांग्रेस, सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट तीनों जगह मिल जाएंगे."

वो आगे कहते हैं, "बिहार में लालू यादव ने मुसलमानों को विचारधारा से इतर ले जाकर एक जमात में तब्दील कर दिया. जिसका नुकसान पार्टी को उत्तर बिहार में हुआ. अब अगर इस प्रवृत्ति को सामाजिक पहचान मिलती है तो इसके नतीजे भविष्य में बहुत खतरनाक होने वाले हैं." (bbc)

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