विचार/लेख
भारतीय जनसंघ के संस्थापक और इसके पहले अध्यक्ष डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आज 67वीं पुण्यतिथि है।
23 जून 1953 को उनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी। भारतीय जनता पार्टी इस दिन को बलिदान दिवस के रूप में मनाती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुखर्जी को याद करते हुए ट्वीट किया है, मां भारती के महान सपूत डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को उनकी पुण्यतिति पर शत-शत नमन।
डॉक्टर मुखर्जी अनुच्छेद 370 के मुखर विरोधी थे और चाहते थे कि कश्मीर पूरी तरह से भारत का हिस्सा बने और वहां अन्य राज्यों की तरह समान क़ानून लागू हो।
अनुच्छेद 370 के विरोध में उन्होंने आज़ाद भारत में आवाज़ उठाई थी। उनका कहना था कि एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान नहीं चलेंगे।
33 साल की उम्र में बने कुलपति
डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म छह जुलाई 1901 को कलकत्ता के एक संभ्रांत परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम आशुतोष मुखर्जी था, जो बंगाल में एक शिक्षाविद् और बुद्धिजीवी के रूप में जाने जाते थे।
कलकत्ता विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करने के बाद 1926 में सीनेट के सदस्य बने। साल 1927 में उन्होंने बैरिस्टरी की परीक्षा पास की।
33 साल की उम्र में कलकत्ता यूनिवर्सिटी के कुलपति बने थे। चार साल के कार्यकाल के बाद वो कलकत्ता विधानसभा पहुंचे।
कांग्रेस से मतभेद होने के बाद उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दिया और उसके बाद फिर से स्वतंत्र रूप से विधानसभा पहुंचे।
यह माना जाता है कि वो प्रखर राष्ट्रवाद के अगुआ थे।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने डॉ। श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपनी अंतरिम सरकार में मंत्री बनाया था। बहुत छोटी अवधि के लिए वो मंत्री रहे।
उन्होंने नेहरू पर तुष्टिकरण का आरोप लगाते हुए मंत्री पद से इस्तीफा दिया था। वो इस बात पर दृढ़ थे कि एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान नहीं चलेंगे।
वो चाहते थे कि कश्मीर में जाने के लिए किसी को अनुमति न लेनी पड़े। 1953 में आठ मई को वो बिना अनुमति के दिल्ली से कश्मीर के लिए निकल पड़े।
दो दिन बाद 10 मई को जालंधर में उन्होंने कहा था कि हम जम्मू कश्मीर में बिना अनुमति के जाएं, ये हमारा मूलभूत अधिकार होना चाहिए।
11 मई को वो श्रीनगर जाते वक्त गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें वहां के जेल में रखा गया फिर कुछ दिनों बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
22 जून को उनकी तबीयत खराब हो गई और 23 जून को उनका रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई।
जनसंघ का गठन
तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कई मतभेद रहे थे।
यह मतभेद तब और बढ़ गए जब नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के बीच समझौता हुआ। इसके समझौते के बाद छह अप्रैल 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर-संघचालक गुरु गोलवलकर से परामर्श लेकर मुखर्जी ने 21 अक्टूबर 1951 को राष्ट्रीय जनसंघ की स्थापना की, जिसका बाद में जनता पार्टी में विलय हो गया और फिर पार्टी के बिखराव के बाद 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ।
1951-52 के आम चुनावों में राष्ट्रीय जनसंघ के तीन सांसद चुने गए जिनमें एक मुखर्जी भी थे।
जब नेहरू ने मांगी माफी
टाईम्स ऑफ इंडिया के पूर्व संपादक इंदर मल्होत्रा ने कुछ साल पहले बीबीसी को एक दिलचस्प किस्सा सुनाया था, श्यामा प्रसाद मुखर्जी नेहरू की पहली सरकार में मंत्री थे। जब नेहरू-लियाकत पैक्ट हुआ तो उन्होंने और बंगाल के एक और मंत्री ने इस्तीफ़ा दे दिया। उसके बाद उन्होंने जनसंघ की नींव डाली।
आम चुनाव के तुरंत बाद दिल्ली के नगरपालिका चुनाव में कांग्रेस और जनसंघ में बहुत कड़ी टक्कर हो रही थी। इस माहौल में संसद में बोलते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कांग्रेस पार्टी पर आरोप लगाया कि वो चुनाव जीतने के लिए वाइन और मनी का इस्तेमाल कर रही है।
इस आरोप का नेहरू ने काफ़ी विरोध किया। इस बारे में इंदर मल्होत्रा ने बताया था, जवाहरलाल नेहरू समझे कि मुखर्जी ने वाइन और वुमेन कहा है। उन्होंने खड़े होकर इसका बहुत जोर से विरोध किया।
मुखर्जी साहब ने कहा कि आप आधिकारिक रिकॉर्ड उठा कर देख लीजिए कि मैंने क्या कहा है। ज्यों ही नेहरू ने महसूस किया कि उन्होंने गलती कर दी। उन्होंने भरे सदन में खड़े होकर उनसे माफी मांगी। तब मुखर्जी ने उनसे कहा कि माफ़ी मांगने की कोई जरूरत नहीं है। मैं बस यह कहना चाहता हूँ कि मैं गलतबयानी नहीं करूँगा। (bbc.com)
सरकारें स्वतंत्र मीडिया को ऐसे माध्यम की तरह देख सकती हैं जो इस महामारी से जल्दी और ज्यादा प्रभावी रूप से निपटने में उनकी मदद करे, पर वे उलट राह पर चल रही हैं
-रामचंद्र गुहा
1824 की बात है. बंगाल सरकार (जिसकी कमान तब ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ में थी) ने एक अध्यादेश पारित करते हुए प्रेस की आजादी पर कड़ी बंदिशें लगा दीं. नये नियमों के तहत सरकार कोई भी स्पष्टीकरण दिए बगैर किसी भी अखबार का लाइसेंस खत्म कर सकती थी. इस अध्यादेश से कोलकाता के बुद्धिजीवी समाज में आक्रोश फैल गया जो बांग्ला और हिंदी में कई अखबारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन कर रहा था. अध्यादेश रद्द करवाने के लिए सरकार को एक ज्ञापन भेजा गया. इसका मसौदा प्रख्यात बुद्धिजीवी राम मोहन राय ने तैयार किया था. राम मोहन राय ने इस पर टैगोर परिवार के सदस्यों सहित कई लोगों के हस्ताक्षर भी करवाए थे.
मैंने कई साल पहले राम मोहन राय का वह ज्ञापन पढ़ा था जिसमें इस घटना का जिक्र था. आज भारत में जिस तरह से पत्रकारों पर हमले बढ़ रहे हैं उसे देखते हुए मुझे इसे एक बार फिर देखने की उत्सुकता हुई. एक ऐसे समय में जब स्वतंत्र भारत की सरकार प्रेस की आजादी की उसी तरह दुश्मन दिखने लगी है जैसी कि औपनिवेशिक सरकार हुआ करती थी, राम मोहन राय के शब्द सचेत करते हैं.
ईस्ट इंडिया कंपनी को भेजे गए इस ज्ञापन में इस महान शख्सियत ने ब्रिटिश शासकों से आग्रह किया है कि वे उस राजनीतिक नीति पर न चलें जो एशिया के दूसरे शासकों द्वारा अक्सर अपनाई जाती है, जिसका आधारभूत सिद्धांत यह है कि लोगों को जितने ज्यादा अंधेरे में रखा जाएगा, शासकों को उनसे उतना ही फायदा होगा. राममोहन राय का कहना था, ‘यह सर्वविदित है कि निरंकुश सरकारें स्वाभाविक रूप से ऐसी किसी भी अभिव्यक्ति की आजादी का दमन करना चाहती हैं जो उनके कृत्यों को उजागर कर उनके लिए अपयश का कारण बन सकती हो.’
राम मोहन राय को उम्मीद थी कि पुराने शासकों की तुलना में नए शासक खुले दिमाग वाले होंगे. जैसा कि उन्होंने लिखा, ‘मानव की प्रकृति अपूर्ण है और यह मानने वाले हर अच्छे शासक को जानना चाहिए कि एक विशाल साम्राज्य को चलाने में गड़बड़ी हो सकती है. इसलिए वह ऐसे हर व्यक्ति को वे साधन देने के लिए उत्सुक होगा जो उसके ध्यान में कोई भी ऐसी चीज ला सकें जहां पर उसके हस्तक्षेप की जरूरत है. प्रकाशन की निर्बाध स्वतंत्रता ही वह अकेला और प्रभावी तरीका है जिससे यह काम लिया जा सकता है.’
राम मोहन राय का तर्क था कि सुशासन के लिए जानकारी का मुक्त प्रवाह जरूरी है. उन्होंने यह भी कहा कि अगर कोई शासक बुद्धिमत्ता के साथ अच्छा शासन करना चाहता है तो उसे अपनी प्रजा को इसकी इजाजत देनी चाहिए कि वह देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रशासन के मोर्चे पर हो रही भूलों की तरफ उसका ध्यान खींचे. बल्कि उसे तो लोगों को इसके लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.
19 सदी के इस उदारवादी की बातें 20वीं सदी में हुए उसके उत्तराधिकारी अमर्त्य सेन से मेल खाती हैं. 1977 में आई अपनी चर्चित किताब पॉवर्टी और फैमिन्स (गरीबी और अकाल) में अमर्त्य सेन ने कहा था कि निरंकुश सत्तावादी शासन की तुलना में लोकतंत्र में अकाल की संभावना कहीं कम होती है. इसके पीछे उनका तर्क था कि लोकतंत्र वाली व्यवस्था में अगर किसी जिले या राज्य में खाने-पीने की चीजों की कमी हो तो यह खबर तुरंत प्रेस में आ जाती है और सरकार वहां जल्द इन चीजों की आपूर्ति के लिए बाध्य हो जाती है. किसी भी लोकतंत्र में वैसा भयानक अकाल नहीं पड़ा है जैसा 1960 के दशक में चीन में पड़ा था. तब वहां पार्टी के निचले स्तर के अधिकारी डर के मारे खाने-पीने की चीजों की कमी की बात बीजिंग में बैठे अपने शीर्ष नेतृत्व को बताते ही नहीं थे.
राम मोहन राय और अमर्त्य सेन के शब्द और काम उस संकट में अनिवार्य रूप से प्रासंगिक हैं जो कोविड-19 महामारी के चलते पैदा हुआ है. सरकारें स्वतंत्र मीडिया को खबरों के एक ऐसे मूल्यवान स्रोत की तरह काम में ले सकती हैं जो इस महामारी से जल्दी और ज्यादा प्रभावी रूप से निपटने में उनकी मदद करे. लेकिन इसके बजाय कई सरकारें पत्रकारों के साथ दुश्मन जैसा बर्ताव कर रही हैं. एक हालिया रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त ने कोविड-19 संकट के दौरान एशिया में अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमलों के प्रति आगाह किया है. इस रिपोर्ट में भारत का जिक्र भी है. इसमें कहा गया है कि भारत में कई पत्रकारों और कम से कम एक डॉक्टर पर इसलिए मामला दर्ज हो गया कि उन्होंने कोविड-19 को लेकर व्यवस्था की प्रतिक्रिया की सार्वजनिक रूप से आलोचना की थी. पिछले दिनों मुंबई पुलिस ने एक आदेश पर भी काफी विवाद हुआ. इसमें कहा गया था, ‘कोई भी व्यक्ति ऐसी जानकारी शेयर न करे जिससे सरकारी कर्मचारियों में लोगों का भरोसा कम हो या फिर कोविड-19 महामारी को रोकने के उनके काम में बाधा पैदा हो, और न ही ऐसी जानकारी शेयर करे जिससे किसी की जान को ख़तरा हो या समाज में अशांति फैले.’
अपनी रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयुक्त ने चेतावनी दी कि इस तरह का दमन नीतियों को प्रभावी बनाने के बजाय इस काम में बाधा पैदा करेगा. उन्होंने कहा, ‘असाधारण अनिश्चितता के इस दौर में स्वास्थ्यकर्मियों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और आम लोगों को जनहित से जुड़े अहम मुद्दों पर अपने विचार प्रकट करने की आजादी दी जानी चाहिए. रिपोर्ट में स्वास्थ्य सेवा से जुड़े नियम-कायदों, सरकार द्वारा सामाजिक-आर्थिक संकट के प्रबंधन और राहत सामग्री के वितरण को इन मुद्दों के तौर पर गिनाया गया.
इस रिपोर्ट में आगे कहा गया, ‘इस संकट को सूचनाओं के प्रवाह या उन पर चर्चा को रोकने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. नजरिये में विविधताओं से उन चुनौतियों के बारे में समझ बनाने और उनसे बेहतर तरीके से निपटने में मदद मिलेगी जिनका हम सामना कर रहे हैं. इससे कई देशों को समस्या की जड़ों के अलावा इसके दीर्घकालिक सामाजिक-आर्थिक संकटों और अन्य प्रभावों से निपटने के उपायों पर एक जीवंत बहस खड़ी करने में भी मदद मिलेगी. संकट के बाद खुद को फिर से खड़ा करने के लिहाज से ऐसी बहस बहुत अहम है.’
इसकी संभावना कम ही है कि केंद्र या फिर राज्यों की सत्ता में बैठे लोगों ने इन शब्दों पर ध्यान दिया होगा. कुछ ही दिन पहले दिल्ली स्थित राइट्स एंड रिस्क एनैलिसिस ग्रुप ने एक रिपोर्ट जारी की थी. इसमें कहा गया कि मौजूदा महामारी पर अपनी रिपोर्टिंग के चलते करीब 55 पत्रकारों को सरकार या राजनीतिक तत्वों से उत्पीड़न और धमकी का सामना करना पड़ा है. इनमें से कई पत्रकार गिरफ्तार किए गए, कइयों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई तो कइयों के साथ मारपीट भी हुई. यानी सरकार साफ तौर पर सभी पत्रकारों को संदेश देना चाहती है कि या तो चुप रहिए या फिर जो हम चाहते हैं करिए, नहीं तो हम आपको छोड़ेंगे नहीं.
ऊपर जिन 55 पत्रकारों के मामलों का जिक्र हुआ उनमें से 11 भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में हैं और छह जम्मू-कश्मीर में जहां केंद्र का शासन है. पांच हिमाचल प्रदेश में हैं. यहां भी भाजपा की सरकार है. लेकिन इस सूची में गैरभाजपा शासित राज्य भी हैं. तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और महाराष्ट्र में भी चार-चार मामले हैं. ताजा मामला स्क्रोल.इन की पत्रकार सुप्रिया शर्मा का है जिनके खिलाफ उत्तर प्रदेश में एफआईआर दर्ज हुई है. उन्होंने प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में लॉकडाउन के दौरान गरीबों को हुई परेशानियों पर रिपोर्टों की एक सीरीज की थी.
इन पत्रकारों पर आईपीसी की औपनिवेशिक दौर की धाराओं के तहत आरोप दर्ज किए गए हैं.. उदाहरण के लिए धारा 124ए (राजद्रोह), 153ए (धार्मिक आधार पर दो समुदायों के बीच द्वेष भड़काना), 182 (गलत जानकारी देना), 188 (किसी लोकसेवक के आदेश की अवज्ञा), 504 (शांति भंग भड़काने के इरादे से जानबूझकर किसी का अपमान), 505(2) (विभिन्न समुदायों के बीच शत्रुता, घॄणा या वैमनस्य की भावनाएं पैदा करने के आशय से झूठे बयान देना) आदि. ये वही धाराएं हैं जिनका सहारा लेकर कभी ब्रिटिश सरकार लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी महान और देशभक्त पत्रकारों को जेल में डाला करती थी.
सच्चाई को खुलेआम दबाने की ये कोशिशें देखकर राम मोहन राय के शब्द याद आते हैं जिन्होंने कहा था कि निरंकुश सत्तावादी ताकतें स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्ति की आजादी को दबाना चाहती हैं. यह वास्तव में सच है कि इस सोच पर चलने वाली सरकारों को इस विचार से प्रोत्साहन मिलता है कि लोगों को जितना ज्यादा अंधेरे में रखा जाएगा, उनके शासकों को उनसे उतना ही फायदा होगा.
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स नाम का चर्चित संगठन प्रेस की आजादी से जुड़ी जानकारियां इकट्ठी कर हर साल एक सूचकांक यानी इंडेक्स जारी करता है. 2010 में भारत इस इंडेक्स में 105वें स्थान पर था. एक दशक बाद यह आंकड़ा बड़ा गोता लगाते हुए 142 तक पहुंच गया है. हम यह सोचकर तसल्ली कर सकते हैं कि हमारे कुछ पड़ोसियों का हाल इससे भी बुरा है. पाकिस्तान 145वें स्थान पर है तो बांग्लादेश 151वें. हालांकि नेपाल (112) और श्रीलंका (127) जैसे पड़ोसी भी हैं जिनका प्रदर्शन हमसे बेहतर है.
प्रेस की आजादी के मामले में भारत के प्रदर्शन में आई इस गिरावट का अहसास मुझे निजी तौर पर भी हुआ है. मैं 30 साल से अलग-अलग अखबारों और वेबसाइटों के लिए लिख रहा हूं. इस दौरान मैंने उनके मालिकों और संपादकों पर दबाव लगातार बढ़ते हुए देखा है. एक वक्त था जब मालिकों को ताकतवर राजनेताओं की तुलना में बड़े विज्ञापनतादाओं की नाराजगी की ज्यादा चिंता रहती थी. अब मामला बिल्कुल उल्टा है. हमारे प्रधानमंत्री को प्रेस की आजादी से लगाव नहीं है, लेकिन यही बाद ज्यादातर (बल्कि सभी) मुख्यमंत्रियों के बारे में कही जा सकती है. बीते कुछ सालों के दौरान पूरे भारत में संपादकों को राजनेताओं से धमकी भरे कॉल मिलना आम बात हो चुकी है. और अब पत्रकारों को डराने के लिए उनके खिलाफ एफआईआर भी सामान्य बात होती जा रही है.
हालांकि अब भी भारत मे कुछ हिम्मती, स्वतंत्र अखबार और वेबसाइटें सक्रिय हैं. यही बात पत्रकारों के बारे में भी कही जा सकती है. लेकिन समग्र रूप में देखें तो तस्वीर धूमिल है. भारतीय पत्रकारिता आपातकाल के बाद से इतनी कम स्वतंत्र और राज्य व्यवस्था के उत्पीड़न की इतनी ज्यादा शिकार कभी नहीं हुई थी. आज राम मोहन राय जिंदा होते तो निश्चित रूप से वे सत्ताधारियों के नाम एक नया ज्ञापन तैयार करना चाहते. हालांकि इस पर दूसरी तरफ से चुप्पी ही रहती, या हो सकता है कि लेखक पर राजद्रोह के आरोप में मुकदमा दर्ज हो जाता. (satyagrah.scroll.in)
समाजशास्त्रियों का ऐसे मानना है कि महामारी के समय में दुनिया एकजुट होगी; जातिवाद, वर्ग संघर्ष और नस्लवाद का असर कुछ कम होगा। परंतु आज कोविड-19 के दौर में पूरी दुनिया में इसके ठीक विपरीत घटनायें हो रही है। इस संकट की घड़ी में भी भारतीय समाज और राष्ट्र ने अपने कई रंग दिखाए हैं।
अमेरिका के मिनियापोलिस में इसी दरमियान एक अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की मौत श्वेत पुलिस ऑफिसर डेरिक शॉविन के हाथों हुआ। शॉविन ने दिनदहाड़े भरी सडक़ में फ्लॉयड के गर्दन पर अपने घुटने आठ मिनट से अधिक समय तक दबाये रखा, जिससे दम घुटकर फ्लॉयड की मौत हुई। इस आधार पर अमेरिका से लेकर पूरे दुनिया में ब्लैक लाईव्स मैटर्स के नारे लगाते हुए रंग भेद के खिलाफ आंदोलन हो रहा है। इसपर गंभीर वैचारिक और बौद्धिक विमर्श टीवी व समाचार आदि के माध्यम से चल रहा है। इसे ब्लैक वर्ग के लोग रंगभेद के खिलाफ हक-अधिकार के निर्णायक और अंतिम लड़ाई मान रहे हैं। इस पर अभी टीका टिप्पणी करना संभव नहीं है, क्योंकि यह तो समय ही बताएगा की यह आंदोलन दुनिया के इतिहास में क्या बुनियादी परिवर्तन लाता है। पर यह तो सच है कि इतनी बड़ी महामारी के काल में भी अश्वेत लोगों ने अपने ताकत और धर्य का इम्तिहान दिया।
इसी दरमियान भारत में देखे तो इससे भी भयानक कई घटनाएं हमारे सामने आयी। कोरोना महामारी जैसे संकटकाल में जब पूरे देश में लॉकडाउन रहा, तब जातिगत उत्पीडऩ कम होने की उम्मीद थी, लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत और सभी समाजशास्त्रीय भ्रम भी टूट गया। भारतीय समाज की नस-नस में फैला हुआ जातिवाद का जहर इस दौरान पहले से भी अधिक शक्ति से अपने रंग रूप दिखाती रही। भेदभाव, जातिवाद, छुआछुत की कई पुरानी पद्धतियों के अलावा नये आधुनिक स्वरूप भी देखने को मिला।
देश भर में कई जगह दलितों की हत्या, बलात्कार, मारपीट, भेदभाव आदि लॉकडाउन के पहले से अधिक तेवर के साथ इस दौरान उभरकर आया। कुछेक भेदभाव के स्वरुप तो अब समाज में एकदम नॉर्मल यानी बहुत सामान्य हो चुके हैं। उदाहरण से गांव में जाति आधारित पारा-मोहल्ला का सीमांकन, जातिगत गाली-गलौज, सिंचाई के पानी का पहला हक़, हैण्डपंप का पहला हक़, तालाबों में नहाने के अलग-अलग घाट, उच्च जाति के लोगों के गली-मोहल्ले में दलितों का नहीं जाना, दलित महिलाओं के साथ छेडख़ानी, आदि नॉर्मल दिनचर्या बन चुका है। इस पर गांव के दलितों को भी कुछ असामान्य सा महसूस नहीं होता है। कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति यदि ऐसे जातिगत प्रवित्तियों पर सवाल उठाये तो पूरा समाज मिलकर उसे ही जातिवादी घोषित कर देती है।
बाबासाहेब आंबेडकर ने जाति के विनाश में ठीक ही कहा है कि जाति एक धारणा है, यह मन की स्थिति है। जाति का विनाश आंबेडकर का सर्वाधिक चर्चित ऐतिहासिक व्याख्यान है, जो उनके द्वारा लाहौर के जातपात तोडक़ मंडल के 1936 के अधिवेशन के लिए अध्यक्षीय भाषण के रूप में लिखा गया था, पर विचारों से असहमति के कारण अधिवेशन ही निरस्त हो गया। यह व्याख्यान आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि जाति का सवाल भारतीय समाज का आज भी सबसे ज्वलंत प्रश्न है। डॉ. आंबेडकर पहले भारतीय समाजशास्त्री थे, जिन्होंने हिन्दू समाज में जाति के उद्भव और विकास का वैज्ञानिक अध्ययन किया था।
कोरोना लॉकडाउन के दरमियान यही भारतीय मन की स्थिति बार-बार सामने आती रही। वैसे इस प्रकार की खबरें एक समाचार से बढक़र बौधिक, वैचारिक या नीतिगत बहस नहीं बन पाती। हाल की कुछ घटनाओं में से कुछेक का जिक्र इस बिंदु को समझने हेतु रख रहा हूं। मई के महीने में नागपुर के एक दलित युवक की हत्या हुई, वहीं ओडिशा के कालाहांडी में इस दौरान एक दलित युवती की बलात्कार और हत्या का मामला प्रकाश में आया।
कुछ दिन पहले मीडिया में खबर आई थी कि नैनीताल जिले के ओखलकांडा ब्लॉक के भुमका गांव में हिमाचल प्रदेश और हल्द्वानी से आए चाचा-भतीजे को स्कूल में बने क्वारंटाइन सेंटर में रखा गया था। सेंटर में भोजन बनाने की जिम्मेदारी स्कूल की भोजनमाता को दी गई, जो एक दलित समुदाय से है। क्वारंटाइन के दौरान दोनों चाचा-भतीजे ने इस महिला के हाथों से बना हुआ खाना खाने से इंकार कर दिया। साथ ही उन्होंने महिला को अभद्र जातिगत गली-गलौज कर डेस्क को महिला के पैरों में उल्टा दिया। इस घटना के उपरांत, ये दोनों क्वारंटाइन सेंटर में अपने घर से खाना बनवाकर मंगाए और खाए।
इस बीच इसी तरह की घटनाएं उत्तरप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान से भी मीडिया में आती रही। मध्यप्रदेश में तो एक दलित दंपत्ति को शौचालय में क्वारेंटाइन किया गया और भोजन भी वहीं दिया गया। मीडिया से खबर सामने आने के बाद उन्हें स्कूल भवन ले जाया गया। बिहार में सवर्ण जाति की लडक़ी से शादी करने वाले विक्रम की संदिग्ध परिस्थितयों में मौत होती है। उसकी मौत की जांच की मांग करने वाले संतोष को पुलिस के मार-पीट का सामना करना पड़ता है।
समाचार पत्रों के मुताबिक दक्षिण भारत के तमिलनाडु में कोविड-19 लॉकडाउन के बीच राज्य में सामान्य से अधिक दलित अत्याचार की रिपोर्टिंग हुई। आंध्रप्रदेश के विजयवाड़ा जिले की पहाड़ी इलाकों में पडऩे वाला एक गांव का टोला, जिसमें दलित समुदाय के 57 परिवार निवासरत हैं। उन पर नीचे मैदानी इलाकों में रहने वाले ऊंचे जातियों ने पहाड़ से उतरने पर रोक लगा रखी है। इन दबंग जातियों के अनुसार दलित समुदाय के लोग कचरा चुनते हैं, जिनकी वजह से गांव में बीमारी फैल सकती है।
लॉकडाउन के बहाने उन पर ऐसी सख्तियां लगा दी गई जो बाकी गांव वाले खुद पर लागू नहीं करते हैं। उन्हें कोई सामान तक लेने नहीं दिया गया। सामाजिक संगठनों के माध्यम से जब यह मामला उजागर हुआ, तब लोगों को सरकार ने कुछ राहत उपलब्ध करवाया। कर्नाटक में भी कई तरह के भेदभाव और छुआछुत के अनेक मामले सामने आए हैं। हैदराबाद के एक तेलुगु गीतकार ने कोरोना लॉकडाउन पर जाति व्यवस्था को सही ठहराते हुए एक गीत भी लिखकर सोशल मीडिया में प्रसारित किया। और इसी दौरान दलित लेखक एवं बुद्धिजीवी आनंद तेलतुंबडे की गिरफ्तारी भी हुई।
यह एक सत्य है कि संकटकाल में व्यक्ति, समाज और देश की सबसे बड़ी सामाजिक एवं राजनीतिक विरोधाभास उभरकर सामने आती है और इस दौरान वे दरारें और चौड़ी हो जाती हैं जो पहले से मौजूद होती है। कोरोना के बहाने जातिवादी सामंती तत्व लगातार दलितों पर हमला कर रहे हैं और ऐसे समय में सरकार का अपराधियों को अप्रत्यक्ष संरक्षण देना और ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है।
डॉ आंबेडकर ने सही ठहराया था कि जाति के जहर इंसानों को इतना घिनौना बना देती है कि वह स्वनिर्मित गुलामगिरी की भंवर में फंस जाता है, जहां से निकलना ना केवल असंभव सा है, बल्कि नामुमकिन जैसा है। स्वतंत्र भारत में संवैधानिक संरक्षण के बावजूद दलित समुदाय के लोग आज तक स्वयं को एक संपूर्ण स्वतंत्र, समतामूलक नागरिक के रूप में न ही समझ पाए और न ही स्थापित कर पाए। यही वजह है कि कोरोनाकाल में भी अमेरिका से कई अधिक घटनायें होने के बावजूद ब्लैक लाईव्स मैटर्स की तजऱ् में दलित लाईव्स मैटर्स पर कोई आवाज नहीं उठ पाया।
(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता है, तथा वर्तमान में फॉरवर्ड प्रेस नई दिल्ली में सलाहकार संपादक है)
जब जंगलों को उजाड़े बिना देश की जरूरत पूरा करने के लिए पर्याप्त कोयला भंडार मौजूद हैं, तो जैव-विविधता से भरपूर इस खजाने को क्यों उजाड़ा जाए?
मोदी सरकार द्वारा 18 जून को देश की 41 कोयला खदानों की नीलामी के ऐलान के बाद झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने शनिवार को सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। सोरेन ने इससे पहले केंद्र सरकार को चि_ी लिखकर मांग की थी कि कोरोना महामारी के वक्त आनन-फानन में घने जंगलों वाले इलाके कोयला खनन के लिए न खोले जाएं। अब झारखंड सरकार ने सर्वोच्च अदालत में केंद्र सरकार के इस कदम को चुनौती दी है। इसके अलावा छत्तीसगढ़ के वन और पर्यावरण मंत्री ने भी केंद्र सरकार से कहा है कि वनों और पर्यावरण की सुरक्षा और भविष्य में मानव-हाथी द्वंद रोकने के लिए राज्य के हसदेव अरण्य जैसे घने जंगल क्षेत्र में खनन न किया जाए। कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने इस बारे में केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को पत्र लिख कर कहा है कि इस नीलामी को निरस्त किया जाए।
क्या चाहती है केंद्र सरकार?
केंद्र सरकार ने बीते गुरुवार देश के पांच राज्यों की 41 कोयला खदानों की नीलामी का ऐलान किया। ये खदानें कमर्शियल माइनिंग के लिए खोली जा रही हैं। यानी खनन करने वाली निजी कंपनियां भी अब कोयले को खुले बाजार में किसी को भी बेच सकती हैं। कुल 41 में से 29 खदानें तो देश के तीन राज्यों झारखंड, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में ही हैं। बाकी तेरह खदानें ओडिशा और महाराष्ट्र में हैं।
प्रधानमंत्री ने कहा कि इस नीलामी के जरिए कोरोना महामारी से पैदा संकट को अवसर में बदला जाएगा। उन्होंने कहा कि कोल माइनिंग से भारत का कोयला आयात घटेगा जिससे विदेशी मुद्रा बचेगी और वह आत्मनिर्भर बनेगा। गृहमंत्री अमित शाह ने एक ट्वीट में कहा कि इस फैसले से 2।8 लाख से अधिक नौकरियां मिलेंगी, 33,000 करोड़ रुपये का निवेश आएगा और राज्यों को सालाना 20,000 करोड़ रुपये की कमाई होगी।
घने वन क्षेत्र हो जाएंगे बर्बाद
मोदी सरकार के इस फैसले पर जिन वजहों से सवाल उठे हैं उनमें पहली बड़ी चिंता पर्यावरण का विनाश होने की है क्योंकि जिन जंगलों को नीलामी के लिए खोला जा रहा है वह नदियों, झरनों और जैव विविधता से भरपूर हैं जहां वन्य जीवों की भरमार है। मिसाल के तौर पर छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में चार कोयला खदानें नीलाम हो रही हैं जिनका कुल 87 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रफल घना जंगल है।
इसी तरह महाराष्ट्र के बंदेर और मध्यप्रदेश के गोटीटोरिया (पूर्व) कोयला खान क्षेत्र 80 फीसदी जंगलों से ढका है। झारखंड के चकला में 55त्न जंगल हैं और यह दामोदर और बकरी जैसी नदियों का जलागम क्षेत्र है। जानकार कहते हैं कि यूपीए सरकार के वक्त घने जंगलों में खनन प्रतिबंधित करने की ‘गो' और ‘नो-गो' कोल एरिया नीति धीरे-धीरे कमजोर होती गई है और इसी कारण अब प्रचुर वन संपदा वाले जंगल खनन के लिए दिए जा रहे हैं। सदेव अरण्य का यह इलाका न केवल अमूल्य जैव विविधता का भंडार है बल्कि सिंचाई की जरूरत पूरा करने वाली नदियों का जलागम क्षेत्र भी है।
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता आलोक शुक्ला कहते हैं कि हसदेव अरण्य में खनन से न केवल अमूल्य वन संपदा खत्म होगी, बल्कि पानी का गंभीर संकट भी पैदा हो जाएगा, टेयर की सिंचाई होती है। यह क्षेत्र हाथियों का प्राकृतिक बसेरा और कॉरिडोर भी है। साथ ही ये गोंड आदिवासियों का घर है और उनकी आजीविका और संस्कृति इसके साथ जुड़ी है। इसी आधार पर साल 2009 में सरकार ने ही इस इलाके को नो-ग क्षेत्र घोषित किया था। यह खुद सरकारी दस्तावेजों में कहा गया है कि अगर हसदेव अरण्य को छोड़ भी दिया जाए तो कोयला उपलब्धता पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
जानकार सवाल उठाते हैं कि जब भारत जलवायु परिवर्तन से लडऩे के लिए प्रतिबद्ध है तो फिर वह घने जंगलों को काट कर कोयला कैसे निकाल सकता है। पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने इस नीलामी को रोकने की मांग करते हुए कहा, जैव विविधता से भरे इलाकों में कोल-ब्लॉक्स की नीलामी और ‘गो और ‘नो-गो वर्गीकरण की अनदेखी से तीन-तरफा विनाश होगा। (बाकी पेज 7 पर)
इसे (नीलामी को) तुरंत रद्द किया जाना चाहिए। राजनीतिक रूप से मजबूत बिजली कंपनियों का असर दिख रहा है। प्रधानमंत्री को जलवायु परिवर्तन पर किए वादे को पूरा करना चाहिए। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने कोल ब्लॉक्स की नीलामी के वक्त कहा है कि खनन की इस प्रक्रिया में पर्यावरण संरक्षण का पूरा ध्यान रखा जाएगा।
कोयले की जरूरत का गणित
सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रहे झारखंड के मुख्यमंत्री सोरेन ने जहां राज्यों की सहमति के बिना नीलामी को संघीय भावना का खुला अपमान बताया है, वहीं जानकार यह सवाल भी उठा रहे हैं कि क्या भारत को कोयले के किए ज रूरत पूरा करने के लिए उन जंगलों में घुसने की जरूरत है जहां कोयले की मौजूदगी की पूरी जांच नहीं की गई है।
साल 2019-20 में भारत का कुल कोयला उत्पादन 72.1 करोड़ टन रहा और उसने 24.29 करोड़ टन आयात किया गया। यानी उत्पादन और आयात मिलाकर कुल 97.2 करोड़ टन। जबकि इस साल कोयले की कुल खपत 88.71 करोड़ टन रही है। कोयला मंत्रालय के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि देश में अभी कुल 14,800 करोड़ टन का कोयला भंडार (प्रूवन कोल) ऐसा है जिसके लिए नए जंगलों (नो-गो क्षेत्र) को काटने की जरूरत नहीं है। कोल इंडिया की रिपोर्ट कोल विजन-2030 के मुताबिक साल 2030 तक देश में 150 करोड़ टन कोयले की सालाना जरूरत का अनुमान है। इस हिसाब से अभी उपलब्ध 14,800 करोड़ टन का भंडार तो अगले कई दशकों तक भारत की जरूरतों के पर्याप्त है।
सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर के नंदीकेश शिवलिंगम कहते हैं, देश में अभी भले ही 600 से अधिक कोल ब्लॉक हैं लेकिन 50 या 60 कोल ब्लॉक ही हैं जहां से अधिकांश कोयला निकाला जाता है। ये सारे बड़े कोल ब्लॉक हैं और इनकी उत्पादन क्षमता अधिक है। बहुत सारी खानें प्रोडक्टिव नहीं हैं। इसलिए हमें सिर्फ जंगलों को खोलने पर ही जोर नहीं देना चाहिए, बल्कि अगर हम समझदारी के साथ माइनिंग करें, तो अगले कई दशकों तक बहुमूल्य जंगलों को बचा सकते हैं।
साफ ऊर्जा का बढ़ता ग्राफ
घने जंगलों में कमर्शियल कोयला खनन के खिलाफ एक अहम तर्क भारत की साफ ऊर्जा पॉलिसी से जुड़ा है। कोयला बिजलीघर अभी भारत के कुल उत्पादन का करीब 65फीसदी पॉवर देते हैं और आने वाले वक्त में भी कोयले पर भारत की निर्भरता बनी रहेगी लेकिन पिछले एक दशक में देश में साफ ऊर्जा (मुख्य रूप से सोलर पावर) का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। इससे यह सवाल भी उठता है कि आने वाले दिनों में क्या कोल पावर का हिस्सा नहीं घटेगा।
अपनी ताजा रिपोर्ट में सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी यानी सीईए ने कहा है कि साल 2030 तक भारत में सोलर पावर जनरेशन, कोल पावर को पीछे छोड़ देगा। अभी साफ ऊर्जा (सौर, पवन, बायोमास, हाइड्रो और न्यूक्लीयर) कुल पॉवर जनरेशन का करीब 22 प्रतिशत है। सीईए की रिपोर्ट के मुताबिक 2030 तक यह आंकड़ा 44 प्रतिशत से अधिक हो जाएगा। दिल्ली स्थित द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट (टेरी) का अध्ययन बताता है कि 2030 तक सौर ऊर्जा 2.30 से 1.90 रुपये प्रति यूनिट तक सस्ती हो सकती है और इसकी स्टोरेज का खर्च भी 70 फीसदी घटेगा।
जलवायु परिवर्तन पर नजर रखने वाली कंपनी क्लाइमेट ट्रेंड की आरती खोसला कहती हैं, सोलर पॉवर लगातार सस्ती हो रही है और कोयला बिजली कंपनियों के लिए कीमतों का कम्पटीशन झेलना मुश्किल हो रहा है। अगर हम इसके साथ कोयला बिजलीघरों से निकलने वाले धुएं का सेहत पर पड़ रहा दुष्प्रभाव जोड़ दें तो साफ नजर आता है कि यह भारत के लिए आने वाले दिनों का रास्ता नहीं है। सरकार को उन स्वस्थ जंगलों को काटने से पहले कई बार सोचना चाहिए जो ग्लोबल वॉर्मिंग के खिलाफ एक महत्वपूर्ण ढाल तैयार करते हैं।
उद्योगों को चाहिए कोयला
यह सच है कि कोयले की जरूरत पावर सेक्टर के अलावा स्टील, सीमेंट, कंस्ट्रक्शन और खाद जैसे उद्योगों के लिए भी है और नई खदानों के पीछे यह तर्क है कि इंडस्ट्री को इसके लिए सौर ऊर्जा के बजाय कोयला ही चाहिए औद्योगिक क्षेत्र के जानकार कहते हैं कि कोरोना महामारी की वजह से अभी उद्योग-धंधे भले ही ठंडे पड़े हैं लेकिन जल्द ही इन उद्योगों को कोयला चाहिए होगा।
लेकिन स्टील उद्योग में इस्तेमाल होने वाला कोकिंग कोल भारत में बहुत कम पाया जाता है और ज्यादातर कंपनियों को इसे आयात ही करना पड़ता है। सरकार ने इस नीलामी में 4 खदानें कोकिंग कोल की भी रखी हैं लेकिन भारत में कोकिंग कोल की क्वॉलिटी बहुत अच्छी नहीं है। इसके अलावा समुद्र तटीय इलाकों में पावर प्लांट हों या कोई औद्योगिक कारखाना, कई बार उनके लिए देश के भीतर से कोयला खरीदने के बजाय समुद्री रास्ते से विदेश से कोयला आयात करना सस्ता पड़ता है। यह देखना दिलचस्प रहेगा कि क्या इस नीलामी में हिस्सा लेने वाली माइनिंग कंपनियां इस तथ्य पर विचार करेंगी। (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गालवान घाटी में हुई मुठभेड़ के बाद भारत में कितना कोहराम मचा हुआ है। हमारे विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री को सफाइयों पर सफाइयां देनी पड़ रही हैं, प्रधानमंत्री कार्यालय को प्रधानमंत्री की सफाई को और भी साफ-सूफ करना पड़ रहा है, विरोधी दल ऊटपटांग और भोले-भाले सवाल किए जा रहे हैं और भारत की जनता है कि उसका पारा चढ़ा जा रहा है। वह जगह-जगह प्रदर्शन कर रही है, चीनी राष्ट्रपति के पुतले जला रही है, चीनी माल के बहिष्कार की आवाज़ें लगा रही हैं।
हमारे कई टीवी एंकर गुस्से में अपना आपा खो बैठते हैं। हमारे 20 जवानों की अंतिम-यात्राओं के दृश्य देखकर करोड़ों लोगों की आंखें आसुओं से भर जाती हैं। लेकिन हम जरा देखे कि चीन में क्या हो रहा है ? चीन के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने गलवान के हत्याकांड पर अपना मुंह तक नहीं खोला है। उसके विदेश मंत्री ने हमारे विदेश मंत्री के आरोप के जवाब में वैसा ही आरोप लगाकर छोड़ दिया है कि भारतीय सैनिकों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया है। वे वैसा न करें। दोनों विदेश मंत्रियों ने अपनी संप्रभुता की रक्षा की बात कही और सीमा पर शांति बनाए रखने की सलाह एक-दूसरे को दे दी ?
चीन में न तो भारत-विरोधी प्रदर्शन हो रहे हैं, न ही वहां के टीवी चैनल और अखबारों ने इसे अपनी सबसे बड़ी खबर बनाया है और न ही भारतीय माल के बहिष्कार की बात कोई चीनी संस्था कर रही है। चीनी सरकार तो बिल्कुल चुप ही है। आपने जरा भी सोचा कि ऐसा क्यों हैं ? इसका जवाब ढूंढिए, हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान में, जो उन्होंने बहुदलीय बैठक में दिया था।
उन्होंने कहा था कि हमारी सीमा में कोई नहीं घुसा है और हमारी जमीन के किसी भी हिस्से पर किसी का कब्जा नहीं है। मोदी ने चीन के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला। याने चीन ने कुछ किया ही नहीं है। यह बयान नरेंद्र मोदी का नहीं, चीनी राष्ट्रपति शी चिन फिंग का-सा लगता है। उन्होंने नहीं लेकिन उनके प्रवक्ता ने यही कहा है कि चीन ने किसी रेखा का उल्लंघन नहीं किया है। याने अभी तक देश को यह ठीक-ठाक पता ही नहीं है कि गालवान घाटी में हुआ क्या है ? यह सवाल मैंने पहले दिन ही उठाया था। जब मोदी अपनी सफाई पेश कर रहे थे, तब नेता लोग क्या खर्राटे खींच रहे थे ?
मोदी को चाहिए था कि प्रमुख नेताओं के साथ बैठकर वे सब बातें सच-सच बताते और जरूरी होता तो उन्हें गोपनीय रखने का प्रवाधान भी कर देते। अब भी स्थिति संभाली जा सकती है। मोदी चीनी राष्ट्रपति शी से सीधी बात करें। इस स्थानीय और अचानक झड़प पर दोनों नेता दुख और पश्चाताप व्यक्त करें। यदि वे यह नहीं करते तो माना जाएगा कि दोनों के व्यक्गित संबंध शुद्ध नौटंकी मात्र थे। यह स्थिति शी के लिए नहीं, मोदी के लिए बहुत भारी पड़ जाएगी। नेहरू पर उठी भाजपा की उंगली सदा के लिए कट जाएगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
भाषा के अभाव में भेदभाव से इंसान को नहीं प्यार से इंसान को समझिए
-सैयद रज़ा हुसैन ज़ैदी
जैसा कि पीके ने बोला था कि उसके गोले में लोग एक दुसरे से बात करने के लिए अल्फाजो का इस्तेमाल नहीं करते बल्कि एक दूसरे को समझ जाते है।’ सोचने वाली बात है अगर सिर्फ हाथ पकड़कर हमारे गोले मतलब हमारी धरती पर भी ऐसा होता की हमको अलफ़ाज़ इस्तेमाल ना करने पड़ते तो क्या आपस में जो इतनी असमानताए हैं जेंडर को लेकर शायद वो न होती। लेकिन वास्तव में ये एक नामुमकिन ख़्वाब जैसा ही है कि इंसान अल्फाज को खल्क ना करता तो आज क्या होता?
खैर इंसान ज़मीन पर आया और विकास के क्रम में लफ्जो को भी बनाता चला गया और जैसे की हमारे समाज में सत्ता हमेशा से पुरुषों के हाथो में रही तो लफ़्ज़ भी हमेशा ऐसे है बने, जो कमज़ोर वो ‘ज़नाना’ कहलाया और जो कद्दावर वो ‘मर्दाना।’ ये हमेशा से चला आ रहा है कि भाषा किस तरह से भेदभाव करती है और आज ये बात हिंदी भाषा में करना इसलिए भी अहम् है क्योंकि हम उस देश में रहते है जहां सेन्सस 2011 के अनुसार 52 करोड़ से ज्यादा जनता हिंदी को अपनी मातृभाषा मानती है और सिर्फ 2,59,678 लोग हैं जो कि अंग्रेजी को अपनी पहली भाषा मानते हैं। इसके अलावा जितने लोग हैं वह हमारी स्थानीय भाषाओं को इस्तेमाल करते है, चाहे वो मराठी हो, गुजराती हो, भोजपुरी हो या पंजाबी या कोई और स्थानीय भाषा। खैर इस लेख में हम ये जानने की कोशिश करेंगें कि कैसे भाषा की वजह से एल जी बी टी क्यू + समुदाय मुश्किल झेलता है।
लॉकडाउन में मैंने अपने दोस्त को फोन किया और बोला ये बता जेंडर को हिंदी में क्या कहते है, वो बोला लिंग, मैंने बोला और सेक्स को, बोला लिंग। मैंने कहा मतलब हिंदी में जेंडर और सेक्सुअलिटी में कोई फर्क ही नहीं है, उसने बोला फर्क है मगर शब्द नहीं है और ये तो सिर्फ एक जेंडर की बात है जिसका स्थानीय भाषा में शब्द नहीं है। ऐसे में सोचने वाली बात है कि अब तक 30 से ज्यादा जेंडर की खोज करी है, तो हम उन सबको क्या कहेंगे?
नारीवादी कमला भसीन ने जेंडर का हिंदी शब्द बनाया हैं, इसे ‘सामाजिक लिंग’ बोलते हैं जो की बिलकुल ही प्रचलन में नहीं है, हम में से 90 फ़ीसद लोगों को नहीं पता है क्योंकि ये अधिकारिक नहीं है।
ऐसे में जब भी सशक्तिकरण की बात शुरु होती है तो बात हमेशा शब्दों पर भाषा पर और शिक्षा पर आती है, क्योंकि हम शिक्षा की बात तब तक नहीं कर सकते हैं, जब तक कि हमारे पास कुछ हो ना शिक्षा देने के लिए। यानी कि अगर विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रम ही नहीं है तो शिक्षा किस बात की दी जाएगी और अगर हिंदी का पाठ्यक्रम अंग्रेजी में है तो कैसे पढ़ाया जाएगा। अब बात घूम फिर कर आती है हमारी ‘शब्दावली’ पर। हमारे ‘लफ्जों।’ पर हमारी ‘बातचीत’ पर।
और हिंदुस्तान को ध्यान देते हुए स्थानीय भाषा और भी अहम् हो जाती है। मुझे आज भी याद है की पिछले साल प्राइड परेड से पहले लखनऊ में प्रेसवार्ता थी। वहाँ पर एक पत्रकार ने सवाल किया कि क्या समलैंगिक और किन्नर एक होते है? मुझे एक पल को तो गुस्सा आया, मगर अपनी जगह को समझते हुए मैंने उसे समझाया। वहाँ मैंने ये सोचा कि स्थानीय भाषा का विकास जब तक नहीं होगा तब तक लोगों के दिलों से डर नहीं जाएगा।
सत्रह मई को ई-डा-हो-ट-बी (इंटरनेशनल डे अगेंस्ट होमोफोबिया, ट्रांस्फोबिया और बाईफोबिया) होता है और इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि मैं इस शब्द को ही हिंदी या उर्दू में नहीं लिख सकता हूं। क्योंकि होमोफोबिया का कोई हिंदी, उर्दू शब्द नहीं है। ट्रांस्फोबिया का कोई हिंदी या उर्दू शब्द नहीं है।
आप ज़्यादा से ज़्यादा यह कह सकते हैं कि समलैंगिकता से भय के लिए ‘भाषा’ भी ज़िम्मेदार है। सही शब्दावली का ना होना एक बहुत बड़ा कारण है कि छोटे प्रांतों, शहरों, कस्बों और प्रदेशों में लोगों को लगता है कि ये ‘बड़े लोगों की बीमारी’ है, क्योंकि उनके पास खुद के स्थानीय शब्द नहीं है। बहुत ज्यादा हुआ तो वह लड़कों को हिजड़ा बोल देते हैं और घर से निकाल देते है। अगर कोई लड़की समलैंगिक है तो उसे अक्सर चुड़ैल कह देते है या फिर रूपांतरण चिकित्सा (कन्वर्सन थेरेपी) के लिए ले जाते है।
सही भाषा और शब्दावली के न होने से छोटे प्रांतों, शहरों, कस्बों और प्रदेश के लोगों में समलैंगिकता को लेकर भय रहता है, जिससे वे असहज रहते हैं।
इसी तरीके से एक गलतफहमी यह है कि हिजरा या किन्नर पैदा होता है। मानो कि ये प्राकृतिक पहचान है। हिजरा और किन्नर दोनों ही पूर्वी एशिया के कल्चरल पहचान है और अगर यह प्राकृतिक पहचान होती पूर्वी एशिया में ही क्यों मिलती है पूरी दुनिया में क्यों नहीं हो आपको हिजड़ा समुदाय के लोग सिर्फ और सिर्फ पूर्वी एशिया में ही मिलेंगे हिंदुस्तान, पाकिस्तान बांग्लादेश और नेपाल के कुछ हिस्सों में बाकी पूरी दुनिया के किसी भी हिस्से में किन्नर समाज नहीं मिलेगा, क्योंकि यह प्राकृतिक पहचान और बॉर्न आईडेंटिटी नहीं है।
अब सवाल है कि फिर यह क्या है? तो जैसा मैंने कहा कि ये एक कल्चरल पहचान है। कोई भी इंसान जो अपने आपको उस समाज का हिस्सा महसूस करता है, उसका हिस्सा हो सकता है, उनकी खुद की अलग भाषा है, अलग पहचान है। हमारी एक बहुत अज़ीज़ किन्नर मित्र ज़ैनब एक सवाल के जवाब में कहती है की हमने खैरात घर नहीं खोला है जो आप कहते है की किन्नर बच्चों को घर से उठा ले जाते है। आप लोगो को ज्ञान और समझ ना होने की वजह से उस मासूम बच्चे को जिसको कोई मेडिकल कंडीशन है आप किन्नर समझ रहे हो। अब बात आती है कि जन्म के वक़्त अगर योनि और लिंग विकसित नहीं है, तो वो बच्चे को हम क्या कहेंगे? क्या इसके लिए हमारी लोकल भाषा में कोई शब्द है? इसका सीधा सा जवाब है-नहीं।
इंग्लिश में जरूर है हम ऐसे बच्चो को जिनके जननांगों में कुछ अलग है तो उसे इंटरसेक्स कहते है। कहीं-कहीं पर हिंदी में इसे उभयलिंगी कहा जाता है। मगर ये प्रचलित नहीं है, सामाजिक लिंग की तरह तो अब फिर से हम वहीं आ गए। अगर शब्द नहीं है तो बच्चा ‘हिजड़ा।’ शायद भाषा की ये खीचातानी कभी ख़त्म न हो या हो भी जाए तो हमें उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए।
और सबसे आखिर में किसी शायर ने कहा है –
“लफ़्ज़ तासीर से बनते है, तलफ़्फ़ुज़ से नहीं,
अहले दिल आज भी है, अहले ज़ुबान से आगे…“
तो बस अल्फाजो, जज्बातों और मुहब्बतों की चुप्पी तोड़िए और अगर हमारे लिए या किसी के लिए भी कोई लफ़्ज़, अल्फ़ाज़ कुछ भी नहीं समझ आ रहा तो भागने के बजाए दिल में पीके की तरह मुहब्बत रखिए। क्योंकि इश्क़ से बेहतर कोई ज़ुबान नहीं होती।
(यह लेख पूर्व में फेमिनिज्म इंडिया में प्रकाशित किया जा चुका है ) (hindi.feminisminindia.com)
-मनजीत कौर बल
विगत दो दिन पहले सपने में एक सांप से लंबी चर्चा हुई। सुबह उठने पर थोड़ा परेशां रही कि सपना था या मेरा अपराधबोध। पिछले एक साल से स्नेक रेस्क्यू के कॉल में मेरा जाना कम ही हो रहा है। व्यस्तता बढ़ रही है और टीम भी जाने को तैयार रहती है। शायद इसलिए ही लेकिन कई बार जाना जरूरी होता है जब विशेष रूप से समझाना हो कि हम रेस्क्यू करने वाले लोग नहीं हैं। पर्यावरण के हर घटक के साथ रहने की आदत बनाने वाले लोग हैं। ऐसे ही दो कॉल में जाना हुआ और पहुँचने पर मेंढक या चूहे के साथ ही सांप मिले। घरवालों को बहुत मनाने के प्रयास में विफल रहे कि उसे खाने दिया जाए और थोड़ा इंतजार करके जाने दिया जाए। लेकिन जब मारने को तैयार होने लगे तो उन्हें वहां से हटाना पड़ा।
अब सारी चर्चा तो सांप को मालूम नहीं होती। उनकी भाषा हमारी तरह नहीं है, तो संवाद की बेहद कमी सी लगती ही है।
ऐसे में जब उसको हटाने लगी तो क्यों ऐसा लगा उस दिन कि सांप जोरों से चिल्ला रहा हो। बस यही सोचते हुए घर पहुंची और उस रात के सपने का वाकया कुछ इस तरह से याद है।
सांप चिल्लाते हुए बोल रहा हो अभी तो आया था। किसको समस्या हो रही। मुझे तो किसी से कोई मतलब नहीं रहता। अब मैं क्या करूं अगर वो चूहे लोगों के घरों में घुस जाते हैं। मैं तो उन चूहों के लिए घुसता हूँ और पता नहीं घर के लोग ऐसे इधर-उधर दौड़ते हैं। मानो मैं उनसे मिलने पहुंचा हूँ, बिन बुलाए मेहमान की तरह। शुरू में तो लगता था कि लोग मुझे देखकर खुशी में उछल रहे, धीरे-धीरे समझ आया कि डरते हैं क्यों, नहीं मालूम?
जो भी हो ऐसे सामने खाने को मिले और आप जैसे लोग उठाने आ जाते हो। लोगों को समझाते क्यों नहीं कि अगर मुझे ले जाओगे तो कोई दूसरा आएगा और आखिर चूहे को खाकर हम सबका भला ही तो करते हैं। फिर क्यों इतना हंगामा। मेरा एरिया बदलकर नए तरीके से पूरा माहौल समझना भी तो एक बड़ी चुनौती, इसके बारे में क्यों नहीं सोचते? नई जगह ले जाने पर नए दुश्मन नई रुकावटें। कुछ तो मेरे जीवन को समझो। आजकल सब गूगल में उपलब्ध है। एक बार समय निकालकर पढ़ ही लेते, आप लोग ही समय निकालकर लोगों को बताओ कि पूरे शहर में कितने साँपों ने कितनों को काटा और कितने मरे? फिर क्यों इतना डरना। साँपों को कौन सा शौक होता है कि मनुष्य को काटने जाएँ। न हमारे हाथ, पैर और न ही कान कि कुछ सुन पाएं कि हमारे बारे में चर्चा क्या हो रही है? दिखाई भी पूरा आदमी नहीं देता, उसके बाद पैर और कुछ लाठियां ही रहतीं हैं। उसके भी विपरीत ही भागना ठीक समझते हैं..फिर भी इतना हंगामा।
आपके बच्चे के सामने भूख में थाली हटाएंगे तो कैसा लगेगा? सोचकर देखिए और अगली बार फिर मेरा खाना छिनिये। थोड़ा संवेदनशील तो बनिए। तभी कुछ बेहतर होगा, पर्यावरण में और फायदा मिलेगा आपको।
इतने में नींद खुल गई। आसपास देखा तो कोई सांप नहीं था लेकिन मेरा अपराधबोध मेरे भीतर ही था। तब तक रहेगा जब तक इस सांप की बातों तो लोगों तक न पहुंचा दिया जाए और भोजन करते साँपों को परेशां न करने का संदेश सबको दिया जाए।
- लक्ष्मण सिंहदेव
7 दिवसीय पुस्तक समीक्षा चुनौती श्रृंखला में पहली पुस्तक जिसकी मैं समीक्षा कर रहा हूँ आखिरी मुगल का हिन्दी अनुवाद। इसे विलियम डैलरिम्पल ने लिखा है। मुगल बादशाह जफर के आखिरी दिनों का दिल्ली का वर्णन है, और बादशाह के आखिरी बर्मा वाले दिनों का। पुस्तक का आधार राष्ट्रीय अभिलेखागार में मौजूद दस्तावेज एवम तत्कालीन जासूसों के पत्राचार है। डैलरिम्पल ने इन्हें अपने सहायक फारुकी की सहायता से पढ़ा और निष्कर्ष निकालकर अपने हिसाब से इतिहास की विवेचना की। ये दस्तावेज 1857 के गदर के आसपास के हैं। और बादशाह के पत्राचार के, जासूसों के खतों के।
वैसे मुझे पता चला कि असल काम फारूकी ने किया, डैलरिम्पल, मजा ले गया। जैसे आजकल कोई भी बिना समाज शास्त्र के बेसिक सिद्धांत जाने कुछ-कुछ सामाजिक मुद्दों पर विशेषज्ञ के समान राय प्रकट कर देता है और पॉप सोशियोलॉजी उभरी है, वैसे ही यह किताब पॉप हिस्ट्री का एक अनुपम उदाहरण है। पॉप हिस्ट्री मतलब ज्यादा नहीं सोचना, इतिहास को मेरठ में छपने वाले उपन्यास की भांति पढ़ो, ज्यादा दिमाग न लगाओ और इसके पीछे अंग्रेजों का एक एजेंडा भी होता है।
वस्तुत: जैसे अंग्रेज यह कहने की चेष्टा कर रहे हो कि हमने तुम्हें गुलाम बनाकर अहसान किया था। लगभग 580 पेज की इस किताब में अनेक खण्ड हैं जो बहादुर शाह जफर के शासन काल का वर्णन करते हैं। डैलरिम्पल ने इस बात पर दु:ख प्रकट किया है कि लालकिले के अंदर मौजूद प्रासाद को अंग्रेजों ने ध्वस्त कर दिया और उस प्रासाद का कोई रेखाचित्र भी मौजूद नहीं है। और वह संभवत: विश्व का श्रेष्ठ प्रासाद हो।
1857 के गदर को मुसलमानों द्वारा धर्म युद्ध बनाने पर भी जोर है। काफिरों को मारो का नारा इतना प्रचलित हुआ कि तत्कालीन हिन्दू भी अंग्रेजों के खिलाफ यह नारा लगाते प्रतीत होते हैं। इस किताब में इस बात पर काफी जोर है कि मुसलमान अंग्रेजों के खिलाफ धार्मिक स्पिरिट से लड़ रहे थे इसलिए गदर की विफलता के बाद अंग्रेजों ने मुसलमानों को दिल्ली से बाहर कर दिया और जामा मस्जिद में सिख सैनिक रहने लगे।
महीनों तक जामा मस्जिद में सिख रहे जो वहीं सुअर काटकर खाते थे। जब अंग्रेजों ने लालकिले पर कब्जा कर लिया तो अंग्रेजों का साथ देने वाले सिख, पठान सिपाहियों ने मुगलशाही वंश की 300 से ज्यादा महिलाओं के साथ लालकिले के अंदर बलात्कार किया और बाद में उन्हें रेड लाइट इलाकों में बेच दिया गया गया। वे स्वयं ही वेश्यावृत्ति करने लगी।
पठानों और सिखों को मुगलों से पहले से ही चिढ़ थी चूंकि मुगलों ने पठानों-अफगानों से हिंदुस्तान का तख्त छीना इसलिए उन्होंने पूरी भड़ास निकाली। सिखों ने संभवत: अपने गुरुओं की हत्या से चिढ़कर ऐसा किया। किताब में कुछ मसाला भी है। यथा एक मुगल शहजादा गर्मी के कारण यमुना में तैरने गया तो उसे एक मगरमच्छ ले गया। एक घटना का जिक्र है कि एक हिन्दू मुगल बादशाह जफर के पास आया और कहा कि उसे इस्लाम कबूल करना है लेकीन जफर ने उसे भगा दिया।
किताब का सबसे रोचक पक्ष है मुगल बादशाह के एकदम आखिरी के दिनों का वर्णन जो दिन बर्मा में गुजरे। यह बहुत रोचक है। डैलरिम्पल ने लिखा है कि बेगम जीनत महल ने अपने नौकर के साथ ही यौन संबंध बना लिए ऐसा कुछ अंग्रेजों ने शक जाहिर किया। कुल मिलाकर मसाला पढऩे वालों के लिए यह अच्छा है, यह सोशल इतिहास तो हो सकता है लेकिन राजनैतिक नहीं। इसका अनुवाद जकिया जहीर ने किया है और अच्छा हिंदुस्तानी अनुवाद है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह अच्छी बात है कि सरकार ने दिल्ली में कोरोना-मरीज़ों के इलाज की दरें घटा दी हैं। पिछले कई लेखों में मैं इसका आग्रह करता रहा हूं लेकिन पिछले तीन महीनों में अस्पतालों ने जो लूटपाट मचाई है, वह गजब की है। मरीजों से ढाई-तीन गुना पैसा वसूल किया गया। उनमें से कुछ बच गए, कुछ चल बसे लेकिन सब लुट गए। 10-10 और 15-15 लाख अग्रिम धरा लिए गए। जिनको कोरोना नहीं था, उन्हें भी सघन चिकित्सा (आईसीयू) या सांस-यंत्र (वेंटिलेटर) पर धर लिया गया।
हमारी सरकारों ने लोगों को मौत से पहले ही डरा रखा था, अब लोग मंहगे इलाज से भी डर गए। इसीलिए दुकानदार दुकानें नहीं खोल रहे हैं, खरीददार बाजारों में नहीं जा रहे हैं और हमारे मजदूर गांवों से वापस नहीं लौट रहे हैं। अब गृहमंत्री अमित शाह ने ठीक पहल की और एक कमेटी ने सारे मामले की जांच-पड़ताल करके इलाज की नई दरें घोषित की हैं। पता नहीं, इन दरों का निजी अस्पताल कहां तक पालन करेंगे ? अब कोरोना की जांच 4500 रु. की बजाय 2400 में होगी।
पहले अस्पताल में कमरे के 25 हजार रु. रोज लगते थे, अब 8 से 10 हजार लगेंगे। पहले सघन चिकित्सा के 24-25 हजार रु. रोज लगते थे, अब 13 से 15 हजार रोज लगेंगे। सांस-यंत्र के पहले 44 से 54 हजार रु. रोज लगते थे, अब 15 से 18 हजार रोज लगेंगे। दूसरे शब्दों में यदि किसी मरीज को अस्पताल में 10 से 12 दिन भी रहना पड़े तो उसका खर्च हजारों में नहीं, लाखों में होगा ? देश के 100 करोड़ से ज्यादा लोग तो इतना मंहगा इलाज करवाने की बात सोच भी नहीं सकते। जो 25-30 करोड़ मध्यम वर्ग के मरीज़ मजबूरी में अपना इलाज करवाएंगे, वे यही कहेंगे कि मरता, क्या नहीं करता ? वे अपने जीवन-भर की कमाई इस इलाज में खपा देंगे, कुछ परिवार कर्ज में डूब जाएंगे और कुछ को अपनी जमीन-जायदाद बेचनी पड़ेगी। इसमें शक नहीं कि सरकार द्वारा बांधी गई दरों से उन्हें कुछ राहत जरुर मिलेगी लेकिन यह राहत सिर्फ दिल्लीवालों के लिए ही क्यों है ? ये दरें पूरे देश के अस्पतालों पर लागू क्यों नहीं की जातीं ?
छोटे कस्बों और शहरों में तो इन्हें काफी कम किया जा सकता है। भारत के अपने घरेलू नुस्खों और मामूली इलाज से ठीक होनेवालों की रफ्तार बहुत तेज है। इन लाखों लोगों पर तो नाम-मात्र का खर्च होता है लेकिन गंभीर रुप से बीमार होनेवालों की संख्या कितनी है ? सब मिलाकर कुछ हजार ! क्या इन लोगों के इलाज की जिम्मेदारी केंद्र और राज्यों की सरकारें मिलकर नहीं ले सकतीं ? यह ठीक है कि इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार के मामले भी सामने आएंगे लेकिन एक लोक-कल्याणकारी राज्य को इस संकट-काल में लोक-सेवा की इस चुनौती को स्वीकार करना ही चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-मृगेन्द्र सिंह
गलवान घाटी में देश के 20 जवान शहीद हो गए। उनमें से एक जवान दीपक सिंह गहरवार रीवा जिले के फरेंदा गांव के रहने वाले थे। दीपक के बड़े भाई प्रकाश सिंह भी फौज में हैं। पिता गजराज सिंह किसान हैं। किसानी भी नाममात्र की महज एक एकड़ के लगभग ज़मीन है। पहले सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करते थे और बाद में जब बड़े बेटे ने आर्मी ज्वाइन किया, उन्होंने गार्ड की नौकरी छोड़ दी। पूरे परिवार का काफ़ी संघर्षों में जीवन गुजरा। गजराज सिंह के दोनों बेटों ने खूब मेहनत की और आर्मी में चले गए। दीपक जब 6 माह के थे तभी मां छोड़ गयीं और दादी व पिता ने ही पालन पोषण किया। पिता ने बेटों के लिए जीवन समर्पित कर दिया और बेटे भी पिताजी के समर्पण पर समर्पित भाव से आगे बढ़ते गये।
कर्जा-कुर्जा पटा के अभी दो साल पहले पक्का मकान बना। मकान का काम अभी बाकी है जैसे सामने की छोड़कर बाहर की दीवारों की छपाई नहीं हुई है। घर के सामने कीचड़ था, लेकिन शहीद के घर मुख्यमंत्री को आना था इसलिए प्रशासन ने मिट्टी, मुरुम डलवाकर पाट दिया।
6 महीने पहले ही दीपक की शादी हुई थी। गरीब किसान गजराज सिंह के घर में जबको खुशहाली आना शुरू ही हुई थी कि बेटा मात्रभूमि की रक्षा में बलिदान हो गया। यह किसी बाप के लिए गर्व की बात है, पर बाप के कांधे पर बेटे का शव दु:ख के पहाड़ से कम नहीं है। जब से दीपक के शहीद होने की खबर लगी, उनके न आंसू छिप पाये न दु:ख। वह किसी से कुछ बात भी नहीं कर रहे थे। शुक्रवार को जब सेना के बड़े अफसर उनसे मिले तो वह सिर्फ हाथ जोड़कर खड़े रहे और सिर हिलाते रहे बस। ताबूत को जब खोला गया तो एक बाप जो मौन था वह बच्चों की तरह चीखकर फफक-फफक कर रोने लगा। उनको देखकर जो भी था सबकी आंखें नम हो गईं। परिवार का मुखिया ही बेसुध होकर इस तरह दु:ख में डूब जाये तब उस दु:ख की कल्पना नहीं की जा सकती।
लोगों से बात करने पर कोई सरकार से बदले की बात करता, कोई शहीद की मूर्ति या स्मारक, कोई शहीद के नाम पर अस्पताल या भवन की बात करता। लेकिन शहीद के पिता व भाई ने कुछ नहीं कहा। किसी और से कहा हो पता नहीं, पर उनके दु:ख देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक पिता को बेटा और एक भाई को भाई चाहिए। बूढ़ी दादी को पोता व पत्नी को पति।
खैर मुख्यमंत्री ने शहीद के परिजनों के लिए घोषणा की और घर पहुंचकर ढाढ़स भी बंधाया। गौर करने वाली बात यह है कि शहीद का पार्थिव शरीर रात में ही इलाहाबाद पहुंच गया था। इलाहाबाद से शहीद के गांव की दूरी लगभग अस्सी-नब्बे किमी के आसपास होगी। इसके बावजूद दोपहर ढाई बजे के बाद पार्थिव शरीर घर पहुंचा। लोग कह रहे थे मुख्यमंत्री जी आ रहे हैं इसलिए देरी हो रही है। पिछले दो दिनों से जैसे ही ख़बर लगी शहीद के घर परिवार वाले व रिश्तेदार भूखे-प्यासे जवान बेटे के अंतिम दर्शन के लिए व्याकुल हैं। रो रोकर बुरा हाल है। हजारों की तादाद में लोग सुबह से इक_ा हैं, सबको यही मालूम है आ रहे हैं।
सही समय सिर्फ प्रशासन को मालूम था कि मुख्यमंत्री भोपाल में इतने बजे राज्यसभा चुनाव से निपटेंगे और फिर चलेंगे। इसी हिसाब से शहीद का शव घर पहुंचना चाहिए कि मुख्यमंत्री अंतिम समय में अर्थी को कंधा दे सकें। जनता को इतना लंबा इंतजार मात्र सियासत के मद्देनजर। मुख्यमंत्री के पास समय नहीं है तो क्या वह बाद में शहीद के घर नहीं जा सकता। बाद में जाने से उसे यह भी पता चलेगा कि उसकी घोषणाओं की पूर्ति हुई कि नहीं।
बहरहाल प्रधानमंत्री का इस तरह कहना कि न हमारी सीमाओं पर कोई घुसा था और न घुसा है। एक तरह से चीन को क्लीन चिट देते हुए शहीद जवानों की शहादत पर सवाल खड़े करना है कि जब चीनी सैनिकों ने कुछ किया ही नहीं तो ये निहत्थे जवान चीनी सैनिकों को समझाने क्यों गये थे? एक तरफ टीवी चैनलों पर चीन को धूल चटाने का शोर, दूसरी तरफ प्रधानमंत्री का बयान और शहीद के पिता का चेहरा। तीनों की तुलना करने पर पता चल जाएगा कि किसने क्या खोया व पाया है और क्या होना चाहिए।
नोट-चित्र में चेहरे पर हरा मास्क लगाये हुए शहीद के पिता हैं। जय हिन्द
-श्रवण गर्ग
ज़मीनी युद्धों को जीतने के लिए हमारे पास चाहे जितनी बड़ी और ‘सशक्त’ सेना हो, कूटनीतिक रूप से हारने के लिए बस एक ‘कमज़ोर’ बयान ही काफ़ी है ! क्या प्रधानमंत्री के केवल एक वक्तव्य ने ही देश को बिना कोई ज़मीनी युद्ध लड़े मनोवैज्ञानिक रूप से हरा नहीं दिया है ? क्या चीन ने अपना वह लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लिया है जिसे वह हमसे लड़कर कभी भी हासिल नहीं कर सकता था? पंद्रह जून की रात हमारे बहादुर सैनिक कथित तौर पर निहत्थे भी थे और साथ ही उनके हाथ अनुशासन ने बांध भी रखे थे वरना गलवान घाटी में स्थिति 1962 के मुक़ाबले काफ़ी अलग हो सकती थी।हम अपने सैनिकों की शहादतों का बदला लेने के लिए अब क्या करने वाले हैं ? क्या केवल चीनी वस्तुओं के बहिष्कार से ही हमारे सारे ज़ख़्म भर जाएँगे ?
पंद्रह जून की रात गलवान घाटी में हुई घटना के चार दिन बाद (19 जून को)विपक्षी दलों के नेताओं के साथ हुई वीडियो वार्ता में प्रधानमंत्री को यह कहते हुए प्रस्तुत किया गया कि :’ना वहाँ कोई हमारी सीमा में घुस आया है और ना कोई घुसा हुआ है ,न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के क़ब्ज़े में है ।’प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य के बाद बवाल मचना ही था और वह मचा भी हुआ है।पूछा जा रहा है कि अगर हमारी सीमा में कोई घुसा ही नहीं तो फिर हमारे बीस सैनिकों की शहादत कहाँ और कैसे हो गई ? क्या चीन के क्षेत्र में हो गई ? ऐसा है तो क्या हमने एल ए सी पर वर्तमान स्थिति को स्वीकार कर लिया है ? प्रधानमंत्री के वक्तव्य के कोई घंटे भर बाद ही नई दिल्ली स्थित चीनी दूतावास ने एक बयान जारी कर दिया कि गलवान घाटी एल ए सी में चीन के हिस्से वाले भाग में स्थित है। उसके बाद देर रात भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय की ओर से प्रधानमंत्री का संशोधित वक्तव्य जारी हुआ जिसमें सिर्फ़ इतना कहा गया कि :’ ना कोई घुसा हुआ है, न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के क़ब्ज़े में है।’ पर तब तक जो भी क्षति होनी थी हो चुकी थी। उल्लेखनीय यह भी है कि वक्तव्य में चीन का नाम लेकर कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया।
प्रधानमंत्री के दूसरे कार्यकाल की पहली वर्षगाँठ जब सत्तारूढ़ दल द्वारा उपलब्धियों का भारी गुणगान करते हुए मनाई रही थी तब चीनी सैनिक सीमा पर जमा हो चुके थे।गलवान घाटी की घटना ने उनके पिछले छह वर्षों के पूरे कार्यकाल को ही लहू लुहान कर दिया। दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम से एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि इस तरह के संवेदनशील मसलों पर वक्तव्य देने के लिए उन्हें सलाह कौन दे रहा है ! क्या विदेश मंत्री एस जयशंकर ,जो भारतीय विदेश सेवा में रहते हुए वर्ष 2009 से 2013 तक चीन में एक सफल राजदूत रहे, वहाँ की भाषा जानते हैं और चीनी नेताओं की ताक़त और कमज़ोरियां दोनों को बखूबी समझते हैं ! रक्षामंत्री राजनाथ सिंह जो अटलजी के जमाने से केंद्र की राजनीति में माहिर हैं और कई महत्वपूर्ण मंत्रालय सम्भाल चुके हैं ! राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित कुमार डोवाल जो 1999 के कंधार विमान अपहरण कांड में बातचीत करनेवाले तीन प्रमुख लोगों में एक थे और जिन्हें कभी भारतीय जेम्स बांड भी कहा जाता था या चीफ़ आफ़ डिफ़ेन्स स्टाफ़ बिपिन रावत या फिर गृह मंत्री अमित शाह ? या फिर कहीं ऐसा तो नहीं है कि प्रधानमंत्री सुनते तो सबकी हैं पर करते और कहते वही हैं जैसा कि वे चाहते हैं ,जैसी कि उनकी स्टाइल और उनका ‘राजधर्म’ उन्हें अंदर से निर्देशित करता है?
पूछा यह भी जा रहा है कि चीनी घुसपैठ के मामले में पाँच मई से पंद्रह जून तक पैंतालीस दिनों का धैर्य प्रधानमंत्री ने कैसे दिखा दिया? पुलवामा में तो कार्रवाई तत्काल की गई थी और उसके नतीजे भी चुनाव परिणामों में नज़र आ गए थे।विपक्ष को भी घटना के चार दिन बाद विश्वास में लेने का विचार उत्पन्न हुआ।देश की जनता को तो अभी भी सबकुछ साफ़-साफ़ बताया जाना शेष है।ऐसा होने वाला है कि जनता का ध्यान लद्दाख घाटी से हटाकर किसी नए संकट के लॉक डाउन में क़ैद कर दिया जाएगा ? प्रधानमंत्री के वक्तव्य के बाद सत्ता के गलियारों में इतना सन्नाटा क्यों पसरा हुआ है ? महामारी के साथ बिना किसी वैक्सीन से मुक़ाबला करने वाले देश को क्या अब आत्मग्लानि से बीमार पड़ने दिया जाएगा ?
इन दिनों यूरोप में ‘योग-जीवनदायी शक्ति’ नाम की एक ऐसी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म चल रही है जिसे योग से अपना लकवा ठीक करने वाले एक फ्रांसीसी पत्रकार ने बनाया है
-राम यादव
स्तेफान अस्केल एक फोटोग्राफर पत्रकार हैं। उस समय उनकी उम्र करीब 40 साल रही होगी जब वे अचानक गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। चलना-फिरना बहुत मुश्किल हो गया। डॉक्टरों ने कहा, रीढ़ का ऑपरेशन करना पड़ेगा। ऑपरेशन हुआ। लेकिन ऑपरेशन के बाद कमर से नीचे के पूरे शरीर को लकवा मार गया। डॉक्टरों से जो कुछ बन पड़ा, सब कुछ किया।कोई लाभ नहीं हुआ। अंतत: उन्हें कहना पड़ा कि अब तो जीवनपर्यंत लकवे के साथ ही जीना पड़ेगा।
फोटो-पत्रकार होने के नाते स्तेफान अस्केल बीमारी से पहले घूमने-फिरने के आदी थे। स्वाभाविक ही था कि शेष जीवन बिस्तर में पड़े-पड़े या पहियाकुर्सी में बैठे-बैठे निठल्ले बिताना उन्हें कतई स्वीकार नहीं था। संयोग से उन्हें योग करने के लाभकारी प्रभावों का पता चला और वे यौगिक-उपचार तथा योगाभ्यास द्वारा काफ़ी कुछ ठीक भी हो गये। ठीक होते ही उन्होंने लगभग आधी दुनिया की यात्रा की। हर जगह उनका ऐसे लोगों से मिलना-जुलना हुआ, जो योग और ध्यान के माध्यम से अपनी बीमारियों से या तो मुक्त हो गये थे या अपनी शारीरिक बाधाओं को पूरी तरह या काफी कुछ साध कर सामान्य जीवन बिता रहे थे।
दस वर्षों के विश्वभ्रमण का निचोड़
स्तेफान अस्केल की डेढ़ घंटे की फि़ल्म 'योग-जीवनदायी शक्ति' दस वर्षों तक चले उनके विश्वभ्रमण का सिनेमा के पर्दे के लिए आत्मकथा जैसा सांस्कृतिक-आध्यात्मिक चित्रण है। फिल्म अंतरराष्ट्रीय योग दिवस से ठीक पहले 13 जून से यूरोप के कई देशों में एक साथ दिखायी जा रही है।
अस्केल की यात्रा का अंतिम पड़ाव इसराइल का येरुसलेम शहर था। इस लंबी यात्रा ने एक समय लकवे से पंगु हो गये इस शख्स को जीवन को समर्पणभाव से जीने और दुनिया को सकारात्मक ढंग से देखने की एक नयी दृष्टि दी। फि़ल्म में वे कहते हैं, 'दस साल पहले मैं एक दूसरी दुनिया में बंधक था।' शराब की लत के कारण पत्नी छोड़कर चली गयी। 2006 में पैर संज्ञाशून्य हो गये। ऑपरेशन हुआ तो कमर से नीचे के अंगों को लकवा मार गया। जीवन घृणा और ईष्र्या से भर गया था।'
इन्हीं परिस्थितियों में स्तेफान अस्केल जब फ्रांस के एक प्रसिद्ध अस्पताल 'ओस्पिताल दे ला सालपेत्रियेर' में अपना इलाज करवा रहे थे तो वहां के एक डॉक्टर जौं-पियेर फार्सी ने उन्हें सलाह दी कि वे आज की आधुनिक चिकित्सा पद्धति से ठीक नहीं हो सकते। यौगिक उपचार की शरण लें, शायद ठीक हो जायेंगे। यह सलाह अत्यंत असामान्य थी क्योंकि आधुनिक चिकित्सापद्धति (एलोपैथी/ अंग्रेज़ी चिकित्सा) के फ्रांसीसी डॉक्टर हर प्रकार की वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति को केवल कोसना-धिक्कारना ही जानते हैं।
योगगुरू बीकेएस अयंगर से प्रेरणा
अस्केल ने जब इस दिशा में खोजबीन की, तो उन्हें पता चला कि भारत के योगगुरू बीकेएस अयंगर ने फिसलन-रोधी चटाइयों, रस्सियों, पट्टों और पीठ के बल लेटने लायक अर्धवृत्ताकार लकड़ी की काठियों की मदद से, गंभीर किस्म की शारीरिक बाधाओं वाले लोगों के लिए भी, योगासन संभव बनाने की विधियां विकसित की हैं। अस्केल ने पहली बार जब इन चीजों को देखा, तो वे सोचने लगे कि ये सब उपचार-सामग्रियां हैं या यातना-विधियां! तब भी उन्होंने अपना उपचार करवाया और जर्मनी में व्युत्र्सबुर्ग शहर के पास के एक ईसाई मठ में ध्यान साधना (मेडिटेशन) की जापानी 'जेन' विधि भी सीखी। 2003 से एक जर्मन ईसाई फादर विलीगिस यैगर बेनेडिक्ट पंथ के इस मठ में यह जापानी विधि सिखाते हैं।
उपचार के दौरान मिल रही राहतों से योग में स्तेफान अस्केल की रुचि बढ़ती गयी। उनका लकवा जब काफी कुछ ठीक हो गया, तो उन्हें विचार आया कि उन्हें योगविद्या के असीम और कई बार चमत्कारिक लाभों और अपने अनुभवों के बारे में एक फि़ल्म बनानी चाहिये। लकवे से उबरने के अपने कष्टमय संघर्ष की हल्की-सी झलक देने के बाद अस्केल दर्शक को सीधे अमेरिका में सैन फ्रांसिस्को के पास सेंट च्ेन्टिन की एक उच्चसुरक्षा जेल में ले जाते हैं। वहां गंभीर अपराध कर चुके कुछ ऐसे क़ैदियों से बातचीत करते हैं, जो कसरतों आदि के साथ-साथ योगाभ्यास भी करते थे। उन्हें मौत की सज़ा सुनायी गयी थी। अपने अंतकाल की प्रतीक्षा कर रहे उनमें से एक ने कहा, 'योग तनावमुक्त करने के साथ-साथ नये अनुभवों का धनी भी बनाता है।'
सफ़ारी करने गईं, योग सिखाने लगीं
एक दूसरे दृश्य में अमेरिका की पेज एलेन्सन बताती हैं कि वे अफ्रीकी वन्यजंतुओं को देखने के लिए अपने माता-पिता के साथ कीनिया की सफ़ारी-यात्रा पर गई थीं और वहीं रह गयीं। अब वे वहां राजधानी नैरोबी की गंदी बस्तियों के बच्चों और मसाई कबीले के लोगों को योग सिखाती हैं। इसराइल में अस्केल को कट्टरपंथी यहूदियों के शहर बेत शेमेह में एक ऐसा यहूदी दंपति मिला, जो पहले धार्मिक नहीं था, पर योग करने से उसमें अपने धर्म के प्रति नई आस्था जाग उठी। येरूसलेम में अस्केल ने देखा कि वहां तो फिलस्तीनी गृहणियां भी यहूदियों के साथ मिल कर योगाभ्यास करती हैं!
स्तेफ़ान अस्केल का कहना है कि योग हर प्रकार की संस्कृतियों, आयुवर्गों और शारीरिक बाधाओं वाले लोगों को लाभ पहुंचाता है। अमेरिका की पेज एलेन्सन नैरोबी के बधिर बच्चों को योग सिखाने के लिए सांकेतिक भाषा वाले एक नि:शब्द तरीके से काम लेती हैं, जबकि सामान्य बच्चों के लिए उनका अलग तरीका है। 80 साल के एरिक स्माल कई दशकों से 'मल्टिपल स्क्लेरोसिस' से पीडि़त हैं। यह बीमारी केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम) की एक बीमारी है, जो मस्तिष्क, रीढ़ की हड्डी और आंखों में प्रकाश ग्रहण करने वाली ऑप्टिक तंत्रिका (नर्व) को दुष्प्रभावित करती है। भारत के बीकेएस अयंगर द्वारा विकसित विधि को आधार बना कर एरिक स्माल ने इस बीमारी से पीडि़त लोगों का जीवन आसान बनाने का अपना एक अलग तरीका विकसित किया है। इससे स्वयं उनका अपना जीवन तो आसान बना ही, दूसरों का जीवन भी आसान बन रहा है।
अयंगर ने योग से असाध्य रोग भी साधे
बीकेएस अयंगर का 2014 में इस दुनिया से चले गये। उन्होंने लगभग 70 वर्षों तक स्वयं योगाभ्यास किया और अनगिनत लोगों को सिखाया भी। फिल्म में उनके साथ बातचीत का एक दृश्य भी है। असाध्य समझे जा रहे रोगों को भी योग द्वारा ठीक करने या उनसे काफी हद तक राहत दिलाने की उनकी विधियां आज ऐसे कई अस्पतालों आदि में अपनाई जाती हैं, जहां वैकल्पिक चिकित्सा की सुविधा भी है।
स्तेफान अस्केल मूलत: फ्रेंच भाषा में बनी अपनी फिल्म में योग के न केवल शारीरिक स्वास्थ्य संबंधी लाभों के ही उदाहरण दिखाते हैं, उसके अदृश्य, पर उतने ही सकारात्मक सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक पक्ष पर भी प्रकाश डालते हैं। वे विभिन्न देशों के ऐसे लोगों के मुंह से उनके अनुभव सुनाते हैं, जो जीवन से निराश हो चले थे, पर योग और ध्यान ने जिन्हें उनका खोया जीवन वापस लौटा दिया।
आध्यात्मिक अनुभूति
इन भुक्तभोगियों की आपबीतियां बताती हैं कि जब भी किसी के घोर कष्टमय जीवन में कोई सुखद चमत्कार होता है, तो इससे उसे जो आत्मिक तृप्ति मिलती है, वह सभी धर्मों-पंथों से परे एक अलौकिक आध्यात्मिक अनुभूति बने बिना नहीं रहती। इसीलिए आसन, प्रणायाम और ध्यान के रूप में अपने तीनों अंगों वाला योगाभ्यास, खुशहाल लोगों की 'वेलनेस' कहलाने वाली खुशफहमी से कहीं अधिक, भारत का दिया एक ऐसा अनुभवसिद्ध विज्ञान बनता जा रहा है जिस पर अनगिनत शोधकार्य हो रहे हैं और जिसे सुख, स्वास्थ्य और संतोष की सर्वांगीण कुंजी माने जाने लगा है।
योग से डीएनए की 'मरम्मत'
विज्ञान पत्रिका 'फ्रंटियर्स इन इम्यूनोलॉजी' में जुलाई 2017 में प्रकाशित एक खोज में यहां तक सिद्ध हुआ पाया गया है कि योग में तन और मन को जिस तरह जोडऩे का प्रयास किया जाता है, उससे हमारे डीएनए की शब्दश: 'मरम्मत' तक हो सकती है।
नॉर्वे में कुछ समय पहले हुए एक अध्ययन में दस लोगों को एक सप्ताह तक हठयोग के तीनों अंगों-यानी आसनों, प्राणायाम और ध्यानधारण का अभ्यास कराया गया। चार-चार घंटे चलने वाले अभ्यास-सत्रों से पहले और बाद में प्रतिभागियों के रक्त-नमूने लिये गए और प्रयोगशाला में उनकी तुरंत गहराई से जांच की गई। दस दिन बाद पाया गया कि इन लोगों की रोगप्रतिरक्षण प्रणाली की 'टी' कोशिकाओं के 111 जीन पहले की अपेक्षा बदले हुए थे। तुलना के लिए जो लोग दौड़ लगाते हैं या कोई पश्चिमी नृत्य करते हैं, उनमें ऐसे 38 जीन ही बदले हुए मिलते हैं।
योग यदि विज्ञान-सम्मत न होता, तो यूरोप-अमेरिका में हर साल योग पर सिनेमा फिल्में नहीं बनती और लाखों-करोड़ों की संख्या में ऐसे लोग योग-ध्यान सीख नहीं रहे होते, जिन्हें हिंदू धर्म में कोई रुचि नहीं है।(satyagrah.scroll.in)
पड़ोसी देशों से आए अल्पसंख्यकों को नागरिकता
नागरिकता कानून के पास हो जाने के बाद पाकिस्तान से आए हिंदू परिवार यहां ज्यादा खुश हैं. उनके मुताबिक वे अब आजादी से अपने धर्म का पालन कर सकते हैं.
सात साल पहले धर्मवीर सोलंकी, पाकिस्तान के हैदराबाद शहर में अपने घर को छोड़कर भारत आ गए और उन्होंने पलटकर वापस जाने के बारे में दोबारा कभी नहीं सोचा. सोलंकी बताते हैं कि जब उनकी ट्रेन सीमा पार करते हुए भारतीय जमीन में दाखिल हुई तो उन्हें इससे ज्यादा खुशी अब तक कभी नहीं हुई थी. बाहरी दिल्ली स्थित रिफ्यूजी कॉलोनी में सोलंकी और उनके जैसे सैकड़ों हिंदू मुस्लिम-बहुल पाकिस्तान से आकर यहां रह रहे हैं. सोलंकी कहते हैं, "मुझे ऐसा लगता है कि मेरा दोबारा जन्म हुआ है." पाकिस्तान से आए हिंदू परिवारों ने रिफ्यूजी कॉलोनी में अपना नया घर बना लिया है.
सोलंकी की तरह भारत में शरण चाहने वाले लोगों को पिछले साल पारित कानून के तहत सबसे ज्यादा लाभ मिला है. नए नागरिकता कानून के तहत हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाई समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता मिलेगी, जो साल 2015 के पहले भारत आए थे. अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में अल्पसंख्यक माने जाने वालों के लिए ही पिछले साल यह कानून बना था. हालांकि इस सूची में मुसलमानों को शामिल नहीं किया गया था. धर्म के आधार पर नागरिकता देने को लेकर भारत में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे. आलोचकों का कहना है कि यह कानून मुसलमानों के साथ भेदभाव और भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान को कमजोर करता है.
पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों की बस्ती.
लेकिन पाकिस्तान के हिंदुओं के लिए भारत में शरण देने की मोदी सरकार की प्रतिबद्धता के पहले से ही अधिक से अधिक हिंदू भारत आ रहे हैं. यह सिलसिला नया कानून बनने के पहले से ही जारी है. पिछले 15 महीनों में भारतीय गृह मंत्रालय को 16,121 पाकिस्तानी नागरिकों से लंबी अवधि के वीजा के लिए आवेदन मिले. इसके पहले के सालों में सैकड़ों आवेदन मिलते रहे हैं जो कि बढ़ते-बढ़ते हजारों में पहुंच गए.
इस बीच शरणार्थियों का भारत आना अस्थायी रूप से थम गया है, क्योंकि कोरोना वायरस से संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए सीमा सील कर दी गई है. सोलंकी कहते हैं कि कई लोग अब भी भारत आने के लिए बेताब हैं. पाकिस्तान से आने वाले अक्सर धार्मिक यात्रा का वीजा लेकर आते हैं और उसके बाद नागरिकता मिलने तक रुक जाते हैं. सोलंकी को अब भी भारतीय नागरिकता मिलने का इंतजार है. हालांकि कोरोना वायरस के कारण प्रक्रिया में विलंब हो चुका है.
मजनू का टीला में स्थित अपने घर पर बैठे सोलंकी समाचार एजेंसी रॉयटर्स से कहते हैं, "नागरिकता कानून पास हो चुका है. हमारे लोगों को जमीन मिलनी चाहिए और आम नागरिकों की तरह सुविधाएं भी मिलनी चाहिए." सोलंकी जहां रहते हैं वहां ईंट और बल्लियों के कच्चे मकान या फिर झोपड़ी है. कॉलोनी में ना तो बिजली और ना ही पानी की सप्लाई है. इस रिफ्यूजी बस्ती में 600 लोग इसी तरह से रहते हैं. कई युवा फेरी लगाने का काम करते हैं तो कुछ सोलंकी की तरह मजदूरी करते हैं. कई लोगों का कहना है कि वे पाकिस्तान में इससे बेहतर हालात में रहते थे लेकिन वे भारत में सुरक्षित महसूस करते हैं.
इस शरणार्थी कैंप से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर एक और कैंप है. सिग्नेचर ब्रिज के पास एक नई कॉलोनी हाल के सालों में बसी है. पिछले साल जुलाई तक यहां कुछेक ही झोपड़ियां थीं लेकिन अब यहां सैकड़ों लोग रहते हैं. आसपास के पेड़ों से इकठ्ठा की गई लकड़ी की मदद से झुग्गी तैयार की गईं. यहां भी बिजली और पानी की सप्लाई नहीं है. परिवार लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाते हैं. 35 साल की निर्मा बागरी कहती हैं, "कम से कम हमारी बेटियां तो यहां सुरक्षित हैं और हम यहां आजादी के साथ अपने धर्म को मान सकते हैं."
कई संस्थाएं इनकी मदद के लिए खाना, कपड़े, सोलर लालटेन और अन्य घरेलू सामान दान करती हैं.
एए/सीके (रॉयटर्स) (www.dw.com/hi)
सरकार की 50,000 करोड़ की योजना
लॉकडाउन के बाद कारखाने बंद हो गए, दिहाड़ी मजदूरों का काम छिन गया और उन्हें शहरों से पलायन कर गांवों की ओर जाना पड़ा. गांवों में रोजगार के अवसर पहले भी कम थे.
- आमिर अंसारी
भारत सरकार प्रवासी श्रमिकों को गांवों में आजीविका का साधन मुहैया करवाने के लिए 20 जून को 50,000 करोड़ रुपये के फंड के साथ "गरीब कल्याण रोजगार अभियान" की शुरुआत करने जा रही है. रोजगार की इस मेगा योजना की शुरुआत बिहार के खगड़िया जिले के एक गांव से होगी. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के मुताबिक यह योजना देश के छह राज्यों के 116 जिलों में शुरू की जाएगी. यह ऐसे जिले हैं जहां कोरोना काल के दौरान शहरों से वापस आने वाले मजदूरों की संख्या 25,000 से ज्यादा है.
वित्त मंत्री ने बताया कि इन 116 जिलों में बिहार के 32 जिले और उत्तर प्रदेश के 31 जिले शामिल हैं. सबसे ज्यादा श्रमिक उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर में लौटे हैं. सरकार के मुताबिक इस योजना के तहत प्रवासी मजदूरों को 125 दिनों तक रोजगार के अवसर मुहैया करवाए जाएंगे और इन सभी जिलों में रोजगार के इच्छुक श्रमिकों को काम मिलेगा. वित्त मंत्री के मुताबिक, "गरीब कल्याण रोजगार अभियान" के तहत 25 तरह के कार्यो को शामिल किया गया है.
वित्त मंत्री ने गुरुवार को कहा कि इस योजना के तहत जहां प्रवासी श्रमिकों को आजीविका का साधन मिलेगा वहीं दूसरी ओर आकांक्षी जिलों में बुनियादी संरचनाओं का विकास होगा. इसके तहत जल जीवन मिशन, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना समेत गांवों में संचालित कई योजनाएं शामिल हैं.
कोविड-19 के संक्रमण को रोकने के लिए शहरों से बड़े पैमाने पर लोग गांवों की तरफ पलायन कर गए थे. इनमें कुशल और अकुशल श्रमिक दोनों शामिल हैं. भारत सरकार ने राज्य सरकारों के साथ मिलकर उन जिलों को मैप किया है जहां पर ये प्रवासी श्रमिक बहुत हद तक लौट कर आ चुके हैं और यह पाया गया कि बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड और ओडिशा जैसे 6 राज्यों में लगभग 116 जिलों में घर लौटने वालों की संख्या पर्याप्त मात्रा में है, जिसमें 27 आकांक्षी जिले भी शामिल हैं.
केंद्र सरकार का कहना है कि उसने संबंधित राज्य सरकारों के साथ मिलकर इन प्रवासी श्रमिकों की कौशल मैपिंग की और उनमें से अधिकांश को किसी न किसी प्रकार के कार्य में कुशल पाया गया है. इसके आधार पर और 4 महीनों के दौरान उनकी कठिनाइयों को कम करने के लिए, भारत सरकार ने वापस लौटने वाले प्रवासी श्रमिकों और ग्रामीणों को आजीविका का अवसर मुहैया करने के इरादे से ग्रामीण लोक निर्माण योजना "गरीब कल्याण रोजगार अभियान" शुरू करने का फैसला किया.
गरीबों को कितना लाभ
125 दिनों तक चलने वाला यह अभियान मिशन मोड के रूप में काम करेगा, जिसमें एक ओर प्रवासी श्रमिकों को रोजगार देने और दूसरी ओर देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचा तैयार करने के लिए अलग-अलग तरह के 25 कार्यों का तेज और केंद्रित कार्यान्वयन किया जाएगा. इस योजना पर 50,000 करोड़ रुपये खर्च होंगे. सरकार का अनुमान है कि इस योजना से करीब एक तिहाई प्रवासी मजदूर लाभान्वित होंगे.
सरकार को उम्मीद है कि इस योजना से ग्रामीण इलाकों में रोजगार के अवसर तो पैदा होंगे ही साथ ग्रामीण क्षेत्र में बुनियादी ढांचा भी तैयार होगा. हालांकि यह आने वाले वक्त में देखने होगा कि इस तरह की योजना से गरीब अपने गांव ही में रहते हैं या फिर अधिक कमाई के लिए पहले की तरह शहरों की ओर रुख करते हैं.(www.dw.com/hi)
कोविड 19 महामारी फैलने के बाद केन्द्र सरकार ने देश में बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट्स के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये प्रोत्साहन देने की घोषणा की है। जिसके तहत केन्द्र सरकार 9,940 करोड़ रुपये खर्च करने जा रही है। केन्द्र सरकार देश के तीन राज्यों में तीन मेगा बल्कड्रग पार्क बनाने जा रही है जिसमें से हर एक में करीब 3000 करोड़ रुपये अगले 5 सालों में खर्च किये जायेंगे।
चीनी वस्तुओं के बहिष्कार की खबरों के बीच यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत आवश्यक तथा जीवनरक्षक दवाओं के उत्पादन के लिये चीन पर अत्यधिक निर्भर है। भारतीय दवा कंपनियां तकरीबन 60 ऐक्टिव फॉर्मास्युटिकल्स इनग्रेडियेंट या एपीआई चीन से मंगाती रही हैं, जो चीन के हेनान, हुबेई, गुआनडोंग, हुनान, वुहान, झेजेंग में बनते हैं। यह दिगर बात है कि बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट के लिए चीन पर निर्भर होने के बावजूद भारत यूरोप, इटली, अमरीका जैसे दुनिया के करीब 200 देशों को दवाओं की सप्लाई करता है तथा ‘फॉर्मेसी ऑफ वल्र्ड’ के नाम से जाना जाता है।
यदि भारतीय दवा कंपनियां चीन की बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट का बहिष्कार तुरंत कर दें तो भारत में दवाओं की आपूर्ति बाधित हो जायेगी। हालांकि, हाल ही में केन्द्र सरकार ने भारत में बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट के देश में ही उत्पादन के लिये कई कदम उठाए हैं लेकिन उसके बावजूद तुरंत ही इससे कोई नतीजा नहीं निकलने वाला है। इस कारण से जीवनरक्षक तथा आवश्यक दवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये सावधानी से कदम उठाने की जरूरत है न कि उन्माद में आकर बहिष्कार-बहिष्कार का नारा दिया जाए खासकर दवाओं के मामले में।
भारत सरकार के द्वारा जारी आकड़ों के अनुसार साल 2018-19 में देश में दवाओं का वार्षिक कारोबार 2 करोड़ 58 लाख 5 हजार 3 सौ 41 करोड़ रुपयों का था जिसमें से 1 करोड़ 28 लाख 2 सौ 82 करोड़ रुपयों के दवाओं तथा एंटरमीडियेट का निर्यात किया गया। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इससे देश को कितनी विदेशी मुद्रा की आय होती है।
चीन पर दवाओं के लिए निर्भरता का मामला साल 2016 में संसद में उठा था। भारतीय दवा कंपनियां दवा उत्पादन में लगने वाली 84 फीसदी बल्कड्रग का आयात करती हैं, जिसमें से 65 से 70 फीसदी चीन से आयात किया जाता है। दरअसल, इन बल्क ड्रग से ही जीवन रक्षक तथा आवश्यक दवाएं बनाई जाती हैं। दो साल पहले जब चीन की सरकार ने पर्यावरणीय कारणों से चीन के कई उत्पादन इकाई को बंद कर दिया था तब भारत में बल्क ड्रग के दाम बढ़ गए थे। मसलन बुखार की दवा पैरासीटामॉल के बल्कड्रग का दाम 45 फीसदी, एंटीबायोटिक एजिथ्रोमाइसिन का दाम 36 फीसदी, सिप्रोफ्लाक्सासिन का दाम 28 फीसदी बढ़ गया था।
इसके अलावा भी अल्सर की दवा रैबीप्राजॉल, इशमोप्रजॉल, पैन्टाप्रजॉल, नसों की दवा मिथाइलकोबाल्मिन, उच्च रक्तचाप की दवा लोसारटन, टेल्मीसारटान, हृदयरोग की दवा सिल्डनाफिल तथा सिफोलोस्पोरिन ग्रुप की दवा सीफेक्सिन, सैफपोडक्सोमिन और सेफ्युरोक्सिन के बल्क ड्रग की कीमत बढ़ गई थी। इससे यही साबित होता है कि आप लाख वैश्वीकरण के गुणों का बखान करे परन्तु जिस देश से आयात किया जाता है वहां पर होने वाली हर हलचल से हम प्रभावित हो जाते हैं। बता दें कि हमारे देश में दवाओं पर ढीला-ढीला ही सही, मूल्य नियंत्रण लागू है। ऐसी हालात में कौन सी निजी कंपनी घाटा सहकर जनता को दवा बेचेगी इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
मोदी सरकार-1 के समय वाणिज्य मंत्रालय और बीजिंग स्थित भारतीय दूतावास ने संयुक्त रूप से एक अध्ययन करवाया था। जिसे तत्कालीन वाणिज्य मंत्री सुरेश प्रभु ने जारी किया था जिसमें कहा गया था कि भारत दवाओं के एक्टिव फॉर्मास्युटिकल्स एंडग्रीडियेंट या एपीआई तथा एंडरमीडियेट्स के लिए चीन पर निर्भर है। इसके अनुसार भारत अपने पड़ोसी देशों से करीब 80 फीसदी (मात्रा के आधार पर) एक्टिव फॉर्मास्युटिकल्स एंडग्रीडियेंट या एपीआई तथा एंडरमीडियेट्स का आयात करता है।
इसी अध्ययन में पाया गया कि चीनी सरकार वहां की एक्टिव फॉर्मास्युटिकल्स एंडग्रीडियेंट या एपीआई तथा एंडरमीडियेट्स बनाने वाली निजी कंपनियों को भरपूर मदद करती तथा बैंकों से भी कम ब्याज पर कर्ज दिया जाता है। आश्चर्यचकित करने वाली बात यह है कि चीन की दवाओं को भारत में रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए 2-5 माह का समय लगता है जबकि चीन में भारतीय दवाओं को रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए -5 साल का समय लगता है। जाहिर है कि इस मामले में भारत कुछ ज्यादा ही खुला हुआ देश है।
दवाओं के लिये चीन पर अति निर्भरता पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने आगाह भी किया था। उसके बाद कटोच समिति का गठन किया गया, जिसने अपनी अनुशंसा में कहा कि देश में बल्कड्रग के उत्पादन को फिर से पुनर्जीवित करने के लिए निर्माताओं को कर सहित कई रियायतें दी जाए पर उसके बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है।
दो-ढाई दशक पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। तब बल्कड्रग का हमारे यहां उत्पादन होता था तथा उसे विदेशों को निर्यात भी किया जाता था। पर वैश्वीकरण की जंग में भारत इसमें पिछड़ गया, क्योंकि चीन से मंगाये जाने वाले बल्कड्रग सस्ते होने लगे।
दुखद यह है कि पिछले कई दशकों से सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियां सरकारी नीतियों के कारण बीमार हो गई हैं। सरकारों ने इस ओर ध्यान नहीं दिया कि देश का आत्मनिर्भर दवा उद्योग विदेशों पर निर्भरशील होता जा रहा है। पूरी दुनिया में भारत को ‘फॉर्मेसी ऑफ वल्र्ड’ माना जाता है। करीब 200 देशों को भारत से दवाओं का निर्यात किया जाता है। यहां तक कि जब से अमरीका में भारतीय कंपनियों ने एड्स की दवा सस्ते दामों में उपलब्ध कराई, तो मजबूरन वहां की दवा कंपनियों को भी अपनी दवाओं के दाम कम करने पड़े। इसका सीधा लाभ मरीजों को हुआ। दवा उद्योग की देश की जीडीपी में 1।75 फीसदी की भागीदारी है।
कोविड-19 महामारी फैलने के बाद केन्द्र सरकार ने देश में बल्कड्रग तथा एंटरमीडियेट्स के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये प्रोत्साहन देने की घोषणा की है। (बाकी पेज 8 पर)
जिसके तहत केन्द्र सरकार 9,940 करोड़ रुपये खर्च करने जा रही है। केन्द्र सरकार देश के तीन राज्यों में तीन मेगा बल्कड्रग पार्क बनाने जा रही है जिसमें से हर एक में करीब 3000 करोड़ रुपये अगले 5 सालों में खर्च किये जायेंगे। इन बल्कड्रग पार्को में कॉमन सॉल्वेंट रिकवरी प्लांट, डिस्टीलाइजेशन प्लांट, बिजली तथा भाप की व्यवस्था रहेगी। यहां पर बनाने के लिये 53 बल्कड्रग, 26 फरमेंटेशन बेस्ड बल्कड्रग तथा 27 केमिकल सिंथेसिस बेस्ड बल्कड्रग को चिन्हित किया गया है। इनके उत्पादन पर भारतीय बल्कड्रग कंपनियों को इसेंटिव भी दिया जायेगा।
जाहिर है कि बल्कड्रग के उत्पादन के मामलें में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिये मोदी सरकार द्वारा उठाये गये कदम सराहनीय हैं लेकिन जैसा कि घोषणाओं से ही जाहिर है कि यह योजना अगले 5 सालों के लिये बनाई गई है तथा इसमें एक-दो साल का समय लगने वाला है। तब तक बहिष्कार-बहिष्कार का नारा देने वालों को दिल थामकर बैठना पड़ेगा। आखिरकार दिल की दवाईयों के लिये भी हम वर्तमान में चीन पर ही निर्भर हैं।
विरोध के बावजूद प्रधानमंत्री ने 41 कोयला खदानों में खनन की नीलामी प्रक्रिया शुरू की और इस मौके पर सरकार की पीठ ठोकते हुए इसे कोयला क्षेत्र को ‘दशकों के लॉकडाउन’ से बाहर निकालने जैसा बताया जबकि इन कोयला खदानों के पास रहने वाले लाखों लोगों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को 41 कोयला खदानों के वाणिज्यिक खनन की नीलामी प्रक्रिया शुरू कर दी। सरकार के इस कदम से देश का कोयला क्षेत्र निजी कंपनियों के लिए खुल जाएगा। प्रधानमंत्री ने इसे आत्मनिर्भर भारत बनने की दिशा में एक बड़ा कदम बताया है। हालांकि देश के विभिन्न हिस्सों में इस कदम का विरोध हो रहा है। छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य क्षेत्र के 9 सरपंचों ने नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर खनन नीलामी पर गहरी चिंता जाहिर की है और कहा कि यहां का समुदाय पूर्णतया जंगल पर आश्रित है, जिसके विनाश से यहां के लोगों का पूरा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
ग्राम प्रधानों ने कहा था कि एक तरफ प्रधानमंत्री आत्मनिर्भरता की बात करते हैं, वहीं दूसरी तरफ खनन की इजाजत देकर आदिवासियों और वन में रहने वाले समुदायों की आजीविका, जीवनशैली और संस्कृति पर हमला किया जा रहा है। हालांकि इन चिंताओं को दरकिनार करते हुए नरेंद्र मोदी ने खनन नीलामी प्रक्रिया शुरू करने की मंजूरी दी है। उन्होंने कहा कि देश कोरोना वायरस संक्रमण से अपनी लड़ाई जीत लेगा और इस संकट को एक अवसर में बदलेगा। यह महामारी भारत को आत्मनिर्भर बनाएगी।
विवादास्पद निर्णय पर
कई सवाल उठे...
प्रधानमंत्री के भाषण से यह समझ में न आया कि यह महामारी देश को आत्मनिर्भर कैसे बनाएगी? उनका यह कहना कि कोयले की खदानों को अदानी, अंबानी, वेदांता जैसे कॉर्पोरेट को सौंपना कोरोना संकट को अवसर में बदलना कैसे है? बल्कि इस मामले में तो सरकार ने लॉकडाउन का भरपूर फायदा उठाया है। इतने बड़े निर्णय को बिना संसद की स्वीकृति के लॉकडाउन की आड़ लेकर निजी कंपनियों के लिए खोल दिया, क्या नीतिगत निर्णय लेने के पहले उन्हें देश के लोगों को विश्वास पर नहीं लेना चाहिए था?
सरकार को एक दिन
जवाब देना पड़ेगा?
जब देश में कोल इण्डिया जैसा पब्लिक सेक्टर मुनाफे में अच्छा काम कर रहा था तो बड़े कार्पोरेट हाउस को इस क्षेत्र में भी उपकृत करने की क्यों सूझी? इस नीलामी में जाहिर है कई विदेशी कंपनिया भी बोली लगाएंगी। और यहाँ खनन कर अपनी कमाई भी तो देश से बाहर ले जाएंगी। इसके अलावा सबसे बड़ा सवाल इतने बड़े पैमाने पर खनन से जंगल उजड़ जाएँगे और लाखों लोग बेदखल हो जाएँगे जो इन 42 खदानों के आसपास रह रहे है खेती-किसानी कर रहे... ऐसे कई वाजि़ब सवाल जो अभी लॉक हो गए हैं जरूर एक दिन उठेंगे और सरकार को पीएम मोदी को उनका जवाब देना पड़ेगा।
कोयला क्षेत्र को ‘दशकों के लॉकडाउन’ से बाहर निकालने
के उनके निहितार्थ...?
पीएम मोदी ने अपने भाषण में कहा कि नीलामी प्रक्रिया की शुरुआत होना देश के कोयला क्षेत्र को ‘दशकों के लॉकडाउन’ से बाहर निकालने जैसा है। उन्होंने कहा कि आज हम सिर्फ वाणिज्यिक खनन के लिए कोयला ब्लॉकों की नीलामी प्रक्रिया की शुरुआत नहीं कर रहे हैं, बल्कि कोयला क्षेत्र को ‘दशकों के लॉकडाउन’ से भी बाहर निकाल रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘जो देश कोयला भंडार के हिसाब से दुनिया का चौथा सबसे बड़ा देश हो और जो दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक हो। वो देश कोयले का निर्यात नहीं करता, बल्कि हमारा देश दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कोयला आयातक है। बड़ा सवाल ये है कि जब हम दुनिया के सबसे बड़े उत्पादक बन रहे हैं तो हम सबसे बड़े निर्यातक क्यों नहीं बन सकते?’
मोदी ने कहा, ‘वाणिज्यिक कोयला खनन के लिए निजी कंपनियों को अनुमति देना चौथे सबसे बड़े कोयला भंडार रखने वाले देश के संसाधनों को जकडऩ से निकालना है।’ प्रधानमंत्री ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से नीलामी प्रक्रिया का उद्घाटन किया। वेदांता समूह के चेयरमैन अनिल अग्रवाल और टाटा संस के चेयरमैन एन। चंद्रशेखरन भी इस कार्यक्रम में शामिल हुए।
किसकी और कैसी आत्मनिर्भरता?
वन-पर्यावरण नष्ट होने का खतरा?
अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने कोयला क्षेत्र को बंद रखने की पुरानी नीतियों पर सवाल उठाते हुए कहा कि कोयला नीलामी में पहले बड़े घोटाले हुए, लेकिन अब प्रणाली को ‘पारदर्शी’ बनाया गया है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि इन कोयला खदानों की नीलामी प्रक्रिया का शुरू होना ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ के तहत की गई घोषणाओं का ही हिस्सा है। यह राज्य सरकारों की आय में सालाना 20,000 करोड़ रुपये का योगदान करेगा।
केंद्र सरकार का दावा है कि इस नीलामी प्रक्रिया का लक्ष्य देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए आत्मनिर्भरता हासिल करना और औद्योगिक विकास को तेज करना है।मोदी ने कहा कि कोयला और खनन क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा, पूंजी और प्रौद्योगिकी लाने के लिए इसे पूरी तरह खोलने का बड़ा फैसला किया गया है।
(लेखक भोपाल स्थित पत्रकार हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले चार दिन से मैं सोच रहा हूं कि क्या वजह है कि हमारे प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री ने चीन के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोला जबकि भारत के आम लोगों का खून गरमाया हुआ है ? वे जगह-जगह चीन-विरोधी प्रदर्शन कर रहे हैं, मोदी के मित्र चीनी राष्ट्रपति शी चिन फिंग के पुतले जला रहे हैं, चीनी माल के बहिष्कार की मांग कर रहे हैं और चीन को सबक सिखाने की बात कह रहे हैं।
हमारे 20 जवानों की अंतिम-यात्रा के दृश्य टीवी चैनलों पर देखकर दिल दहल उठता है। हमारे नेताओं ने उनकी बहादुरी को सलाम किया और उन्हें श्रद्धांजलि दी, यह अच्छा किया लेकिन अभी तक सरकार ने स्पष्ट रुप से यह नहीं बताया कि भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच यह झड़प ठीक-ठाक कहां हुई, नियंत्रण रेखा से कितनी दूरी पर हुई और दोनों तरफ के सैनिकों के बीच ऐसी कौनसी बातें या कार्रवाइयां हुईं, जिनके कारण ऐसा कुछ हुआ, जैसा कि इस 3500 किमी की सीमा-रेखा पर पिछले 45 साल में कभी नहीं हुआ।
भारत-चीन सीमांत की इस शांति या मर्यादा की मिसाल मैं हमेशा पाकिस्तान के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और जनरलों को देता रहा हूं। उनसे कहता रहा हूं कि कश्मीर के मामले में भी हम इस परंपरा का पालन क्यों नहीं करें ? अब संतोष की बात यही है कि दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने एलान किया है कि सीमा पर शांति बनाए रखी जाएगी और सारे मामले बातचीत से हल किए जाएंगे।
इससे भी बड़ी पहेली यह है कि 15 जून की रात को शुरु हुआ यह खूनी संघर्ष सुबह 4 बजे तक चलता रहा और सुबह 7.30 बजे दोनों देशों के जनरल बातचीत करने बैठ गये। यह बड़ा रहस्य है। होना तो यह चाहिए था कि हमारे निहत्थे फौजियों की हत्या के बाद हमारी बंदूकें, तोपें और मिसाइल दगने शुरु हो जाने चाहिए थे। यदि चीनियों ने लाठियों में लोहे के कांटे लगाकर हमारे सैनिकों की हत्या की और सीमांत पर निहत्थे रहकर बात करने का समझौता भंग किया तो हमारी फौज क्या कर रही थी ? वह भी उसी तरह की लाठियां लेकर और कवच पहनकर वहां क्यों नहीं गई ? हमारे सैनिकों को चीनियों ने गिरफ्तार किया तो कहां से किया ? उनके क्षेत्र से किया या हमारे क्षेत्र से किया ? संसद में यह सब मांगें की जानी चाहिए और सरकार को पूरी जांच करके इसकी रपट देश के सामने पेश करनी चाहिए। हमारे एक-एक सैनिक की जान अमूल्य है। अभी ठीक से यह भी पता नहीं कि कितने चीनी सैनिक मारे गए ? चीन प्राय: अपने मृत सैनिकों की संख्या बताता कम, छिपाता ज्यादा है।
एक अमेरिकी जासूसी स्त्रोत के मुताबिक 40 चीनी सैनिक मारे गए हैं लेकिन एक भारतीय उपग्रह-बिम्ब विशेषज्ञ (सेटेलाइट इमेजेरी एक्सपर्ट) कर्नल भट्ट के अनुसार 15 जून को जहां यह मुठभेड़ हुई है, वह जगह चीन की तरफ 40 किमी अंदर थी, वास्तविक नियंत्रण रेखा (एल.ए.सी.) से ! यह सच है या झूठ ? इन सब रहस्यों के अनावरण के बाद ही हमें आगे की रणनीति बनानी होगी। भारत को यह रहस्य भी पता करना जरुरी है कि यह एक स्थानीय और अचानक घटना थी या यह चीनी नेताओं की सहमति से किया गया, ऐसा दुष्कर्म है, जिसके पीछे गहरी साजिश है। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
‘इंडियन डिफेन्स रिव्यू’ में 7 मार्च, 2015 को एक लेख छपा। यह लेख मेजर जनरल अफसिर करीम द्वारा लिखा गया था। इसमें उन्होंने भारत को चीन से होने वाले संभावित खतरों की ओर इशारा किया था। उन्होंने लिखा था, ‘अब समय आ गया है जब भारत को अपनी सैन्य क्षमताओं और नीतियों में सुधार करते हुए चीन को जवाब देने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।’
15 जून की रात को पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में जो हुआ उसे देखते हुए लगता है कि मेजर करीम ने खतरे को भांप लिया था। उस दिन भारत और चीन के सैनिकों के बीच हुई एक मुठभेड़ में 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए। चीन के भी 43 सैनिकों के मारे जाने या गंभीर रूप से घायल होने की खबरें आईं। हालात फिलहाल तनावपूर्ण बने हुए हैं।
लेकिन यदि भारत और चीन के राजनीतिक संबंधों को देखें तो स्थिति कुछ अलग नजर आती है। अपने 6 साल के कार्यकाल के दौरान अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ 18 बार मुलाकात कर चुके हैं। इनमें से कुछ तो बेहद गर्मजोशी भरे माहौल में हुई हैं।
ऐसा ही कुछ 1962 में भी हुआ था। उस वक्त भी हालात कमोबेश आज जैसे ही थे। सीमा पर जो क्षेत्र तब विवादास्पद थे वे आज भी वैसे ही हैं। तब भी कुछ सैन्य विशेषज्ञ चीन से संभावित खतरों के लिए चेतावनी दे रहे थे, जिन्हें तब भी नजरअंदाज किया जा रहा था। राजनीतिक यात्राएं और वार्ताएं तब भी जारी थीं। बल्कि उस दौर में तो ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ जैसे नारे भी खूब गूंजा करते थे। लेकिन तभी चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। इसीलिए 1962 का वह युद्ध आज तक एक रहस्य ही बनकर रह गया है।
बीते पचास सालों में आई कई रिपोर्टों और किताबों के जरिये 1962 के युद्ध को समझने में थोड़ी बहुत मदद जरूर मिलती है। लेकिन पक्के तौर पर आज भी नहीं कहा जा सकता कि चीनी हमले की वजह क्या थी। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में काफी विस्तार से उन परिस्तिथियों का जिक्र किया है जिनके चलते पंडित जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ की दोस्ती धीरे-धीरे फीकी पड़ी और अंतत: दोनों देश युद्ध में उलझ गए। भारत और चीन के बीच तिब्बत का मसला कैसे आया
तिब्बत के धर्म गुरू 1956 में भारत की आधिकारिक यात्रा पर आए थे और माना जाता है इस यात्रा ने उनके और नेहरू के बीच समझ बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
इन परिस्थितियों की शुरुआत गुहा ने 1950 के दशक के तिब्बत से की है। तिब्बत में चीनी सैनिकों का हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा था। इसके विरोध में 1958 में पूर्वी तिब्बत के खम्पा लोगों ने सशत्र विद्रोह छेड़ दिया। शुरुआत में खम्पा लोगों को कुछ सफलता भी मिली लेकिन अंतत: चीनी सैनिकों ने विद्रोहियों को समाप्त कर दिया। इसके बाद दलाई लामा को भी धमकियां मिलने लगीं। उन पर खतरा बढ़ गया था। ऐसे में उन्होंने भारत में शरण लेने का मन बनाया। भारत उन्हें शरण देने को तैयार हो गया। प्रधानमंत्री नेहरू से मिलकर दलाई लामा ने उन्हें खम्पा विद्रोह के बारे में जानकारी दी। नेहरू ने दलाई लामा को बताया कि भारत तिब्बत की आजादी के लिए चीन से युद्ध नहीं कर सकता। साथ ही नेहरू ने यह भी कहा कि ‘सारी दुनिया मिलकर भी तिब्बत को आजाद नहीं करवा सकती जब तक कि चीन ही पूरी तरह से नष्ट न हो जाए।’
इस वक्त तक भारत और चीन के संबंध और कारणों से भी बिगडऩे लगे थे। इसी समय भारत सरकार को सूचनाएं मिलने लगीं कि चीन सीमा के नजदीक बड़े पैमाने पर सडक़ निर्माण कर रहा है। जुलाई, 1958 में चीन की एक सरकारी पत्रिका ‘चाइना पिक्टोरिअल’ में कुछ विवादास्पद नक़्शे छापे गए। इन नक्शों में नेफा (नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी यानी आज का अरुणाचल प्रदेश) और लद्दाख के बड़े इलाके को चीन का हिस्सा दिखाया गया था। दिसंबर 1958 में जवाहरलाल नेहरू ने चीनी प्रधानमंत्री को इस संबंध में एक पत्र लिखा। इन नक्शों में जिस तरह से भारतीय इलाकों को चीन का हिस्सा दिखाया गया था उस पर नेहरू ने अपना विरोध दर्ज करते हुए लिखा था जब 1956 में उन दोनों की मुलाकात हुई थी तो चीनी प्रधानमंत्री ने मैकमोहन लाइन को स्वीकारते हुए मान्यता देने की बात कही थी। तब दोनों इस बात पर भी सहमत थे कि भारत और चीन के बीच कोई भी बड़ा सीमा विवाद नहीं है।
भारत के प्रधानमंत्री को एक महीने बाद ही जवाबी पत्र मिल गया। जवाब में चाऊ इन लाइ ने कहा कि मैकमोहन लाइन ब्रितानी हुकूमत की विरासत है जिसे चीन कभी भी मान्यता नहीं दे सकता। साथ ही उन्होंने कहा कि भारत और चीन के बीच हमेशा से रहे सीमा विवाद को कभी सुलझाया नहीं गया था। 22 मार्च, 1959 को नेहरू ने एक और पत्र लिखकर इस बात के कई प्रमाण दिए कि चीनी नक्शों में दर्शाए गए इलाके दरअसल भारत के अभिन्न अंग हैं। साथ ही उन्होंने अपने इस पत्र में यह भी उम्मीद जताई कि जल्द ही दोनों देशों इन मसलों पर किसी सहमति पर पहुंच जाएंगे। नेहरू के इस पत्र का जवाब आ पाता उससे पहले ही दलाई लामा भारत आ गए।
यहां से भारत और चीन के रिश्ते और भी ज्यादा बिगडऩे लगे। चीन ने आरोप लगाया कि भारत-चीन संबंधों को बिगाडऩे की पहल भारत की ओर से की जा रही है। भारतीय जनता का चीन के खिलाफ होना और सेना का असमंजस इसी दौरान मुंबई में भी एक घटना हुई जिसके कारण चीन को भारत पर निशाना साधने के कुछ और कारण मिल गए। मुंबई स्थित चीनी महावाणिज्य दूतावास के कार्यालय की दीवार पर कुछ प्रदर्शनकारियों ने माओ त्से तुंग की तस्वीर टांगकर उस पर अंडे और टमाटर फेंके। चीन ने इस घटना पर नाराजगी जताते हुए चेतावनी दी कि यदि भारत इस घटना पर उचित कार्रवाई नहीं करता तो इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं।
सेना के अधिकारियों के साथ जवाहरलाल नेहरू
भारत-चीन संबंध जिस तेजी से सीमा पर बिगड़ रहे थे लगभग उसी गति से भारतीय जनता में भी चीन के खिलाफ माहौल बन रहा था। विपक्षी पार्टियों के दबाव में भारत सरकार ने सितंबर, 1959 को एक श्वेत पत्र जारी किया। इसमें पिछले पांच वर्षों में चीन से हुए पत्राचार का पूरा ब्यौरा था। इस श्वेतपत्र के सार्वजनिक होने से भारतीय जनता को चीन द्वारा सीमा पर की जा रही गतिविधियों की पूरी जानकारी मिल गई।
रामचंद्र गुहा अपनी किताब में लिखते हैं, ‘यदि यह श्वेतपत्र जारी नहीं हुआ होता तो भारत-चीन सीमा विवाद को राजनीतिक या कूटनीतिक स्तर पर भी सुलझाया जा सकता था। लेकिन इनके सार्वजनिक होने के बाद जनता में चीन के प्रति आक्रोश था और तब राजनीतिक हल ढूंढना चीन के सामने घुटने टेकने जैसा हो गया था।’
उस दौर में वीके कृष्णा मेनन केन्द्रीय रक्षा मंत्री थे। वे प्रधानमंत्री के काफी करीबी माने जाते थे। लेकिन तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल केएस थिमैया से उनके संबंध अच्छे नहीं थे। जनरल थिमैया का मानना था कि उनकी सेना को चीन से होने वाले हमले के लिए तैयार रहना चाहिए। लेकिन रक्षामंत्री मेनन उनकी बात को नजरंदाज करते रहे। मेनन को लगता था कि भारत को असल खतरा चीन से नहीं बल्कि पकिस्तान से है इसीलिए सेना का बड़ा हिस्सा पाकिस्तानी सीमाओं पर ही तैनात था। रक्षामंत्री और सेनाध्यक्ष के बीच यह तनाव आगे जा कर और बढ़ गया। अगस्त, 1959 में मेनन ने बीएम कौल नाम के एक अधिकारी को लेफ्टिनेंट जनरल नियुक्त कर दिया। कौल को इस पद पर लाने के लिए उनसे वरिष्ठ 12 अधिकारियों को नजरंदाज किया गया था। जनरल थिमैया ने इसके विरोध में प्रधानमंत्री को अपना इस्तीफ़ा भेज दिया। हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू ने जनरल थिमैया को इस्तीफा देने से तो रोक लिया लेकिन इस घटना से सारे देश में रक्षामंत्री के खिलाफ माहौल बन गया। उन पर पहले से भी वामपंथी समर्थक होने के कारण चीन के प्रति सहानुभूति रखने के आरोप लगते रहते थे।
1959 में भी भारत-चीन सीमा पर दोनों सेनाओं के बीच झड़प की कई घटनाएं हुईं। इस समय दोनों देशों के बीच पत्राचार भी लगातार चल रहा था। 1960 में नेहरू ने चाऊ एन लाई को भारत आने का न्योता दिया। इससे पहले जब 1956 में चीनी प्रधानमंत्री भारत आ चुके थे। तब उनका बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया गया था। लेकिन 1960 में हालात बिलकुल अलग थे। हिन्दू महासभा ने चाऊ एन लाई के विरोध में काले झंडे दिखाए। जहां 1956 में उनकी भारत यात्रा के दौरान ‘हिंदी-चीनी भाई भाई’ जैसे नारे दिए गए थे वहीं इस बार यह नारे बदलकर ‘हिंदी-चीनी बाय बाय’ हो चुके थे। चाऊ एन लाई की इस यात्रा के बाद भी भारत-चीन सीमा विवाद जस का तस ही बना रहा। दोनों देश इस यात्रा और बातचीत के बाद भी किसी सहमति तक नहीं पहुंच पाए। युद्ध की शुरुआत और अंत 1962 के मई-जून में अचानक सीमा पर गोलीबारी की घटनाएं बढ़ गईं। चीनी सेना की कई टुकडिय़ां भारतीय सीमा के भीतर घुस आईं। भारतीय सेना के पास इनका मुकाबला करने के लिए न तो पर्याप्त हथियार थे और न ही सैनिक। युद्ध के बीच में ही जनरल कौल छाती में दर्द होने के कारण सीमा से लौट कर दिल्ली आ गए। बिना किसी नेतृत्व के सेना के जवान पांच दिनों तक लड़ते रहे जिसके बाद नेफा के तवांग के इलाके पर भी चीन कब्ज़ा हो गया। रक्षामंत्री मेनन को आखिरकार मंत्रिमंडल से निकाल दिया गया और भारत अब अमरीकी मदद लेने की दिशा में बढऩे लगा।
अब तक चीनी सैनिक नेफा में इतना आगे बढ़ चुके थे कि जल्द ही असम के भी उनके हाथ में जाने का खतरा पैदा हो गया। उधर दिल्ली और मुंबई के भर्ती केन्द्रों पर हजारों युवा सेना में भर्ती होने को तैयार थे। लेकिन 22 नवंबर को अचानक ही चीन ने युद्धविराम की घोषणा कर दी। इस युद्ध का अंत भी इसकी शुरुआत की ही तरह एक रहस्य था। नेफा में चीन ने अपने सैनिकों को मैकमोहन लाइन से पीछे कर लिया और लद्दाख क्षेत्र में भी वह उस स्थिति में वापस लौट गए जो युद्ध से पहले थी।
चीन ने अचानक ही अपने सैनिकों को वापस बुलाकर युद्धविराम की घोषणा क्यों की? इस सवाल के जवाब में भी सिर्फ कयास ही लगाए जाते रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि चीन इसलिए घबरा गया था कि अब वामपंथी पार्टियों समेत भारत की सभी विपक्षी पार्टियां सरकार के साथ एकजुट होकर चीन का विरोध कर रहीं थी। अमरीका और ब्रिटेन का भारत को समर्थन करना और हथियार भेजना भी एक कारण माना जाता है जिसने चीन को युद्धविराम पर मजबूर कर दिया था। वहीं एक तर्क यह भी दिया जाता रहा है कि सर्दियों में वह सारा इलाका बर्फ से ढक जाता है। ऐसे में चीन ज्यादा समय तक अपने सैनिकों को मदद नहीं पहुंचा सकता था इसलिए उसके पास लौट जाने का ही विकल्प बचा था।
रामचंद्र गुहा के अनुसार, ‘इस युद्ध के अंत को तो फिर भी कुछ हद तक समझा जा सकता है लेकिन इसकी शुरुआत को समझना बेहद जटिल है। चीन की तरफ से कभी-भी कोई श्वेतपत्र जारी नहीं किया गया। लेकिन इस युद्ध के बारे में यह जरूर कहा जा सकता है कि इतने सुनियोजित आक्रमण के पीछे कई साल का अभ्यास रहा होगा। इस युद्ध का समय भी चीन के लिए बिल्कुल सटीक था। उस वक्त विश्व की दोनों महाशक्तियां-सोवियत संघ व अमेरिका और इनके साथ ही संयुक्त राष्ट्र, क्यूबा के मिसाइल संकट में उलझे हुए थे। इस कारण चीन को बिना किसी डर के कुछ दुस्साहसिक करने की छूट मिल गई थी।’ (satyagrah.scroll.in)
युद्व को फैटेंसाइज, ग्लैमराइज मत कीजिए। पाकिस्तान, चीन या हम खुद भी मोहल्लों के गैंग नहीं हैं कि थोड़े ज्यादा लडक़े ले जाकर उन्हें पीटकर आ गए। या कभी वे ज्यादा हुए तो हम पिट गए।
दूध मांगोगे तो खीर देगे, कश्मीर मांगोगो तो चीर देंगे या हम एक सिर के बदले दस सिर लेकर आएंगे। ये जुमले और डायलॉग सिनेमा और चुनावी रैलियों में रोंगटे खड़े करने के लिए अच्छे हैं लेकिन इन्हें आप असली मत मान लीजिए। आप ये मानिए कि सनी देओल और नरेंद्र मोदी उस समय एक किरदार में थे, और एक किरदार के डायलॉग बोल रहे थे। सिनेमा और चुनाव युद्ध को भरपूर भुनाते हैं। उसमें एक थ्रिल इलीमेंट होता है आप उनका मजा लीजिए। लेकिन सच में युद्ध के करीब जहां तक संभव हो खुद को ले जाने से बचा लीजिए। सरकारों का अपना एक किरदार होता है, वे कभी युद्ध नहीं चाहती, आप भी मत चाहिए।
फस्र्ट और सेकेंड वल्र्ड वॉर की ज्यादातर वजहें उपनिवेश के विस्तार की और अपनी नस्ल को श्रेष्ठ साबित करने में छिपी हुई हैं। दूसरी नस्ल के लिए घृणा भी युद्ध की एक वजह रही है। शासकों ने युद्व इसलिए लड़े क्योंकि जनता युद्ध के लिए तैयार थी। जनता उसे अपने स्वाभिमान के साथ जोड़ चुकी थी। तो आपको युद्ध के लिए तत्पर दिखना सरकार के लिए युद्व में जाने के रास्ते खोलेगा।
युद्धों के परिणाम से आप वाकिफ हैं। ब्रिटेन जैसा मुल्क जिसके उपनिवेश हर महाद्वीप में फैले थे वह हमेशा के लिए खोखला हो गया। एक सनकी की सनक पर नाच रहा जर्मनी अपनी छाती पर दशकों तक एक दीवार लिए जीता रहा। कई सारे ताकतवर देश हमेशा के लिए किसी दूसरे देश पर आश्रित हो गए। कुछ देशों में अब तक अपाहिज नस्लें पैदा हो रही हैं। इन युद्वों के मुख्य किरदार जर्मनी और ग्रेट ब्रिटेन से आज पूछिए कि उन्हें युद्व में क्या हासिल हुआ?
हो सके तो सेकेंड वल्र्ड वॉर से जुड़ी तमाम सारी डाक्यूमेंट्रीज देखिए। उस पर रचे गए सिनेमा को देखिए। उससे जुड़ा साहित्य पढि़ए। अंतत: युद्व देश को खोखला करने और परिवारों को उजाड़ देने वाला ही साबित होता है। वाट्सअप पर मैसेज आते हैं कि हमारे 20 सैनिक मरे और चीन के 34। एक पल के लिए इस गणतीय जीत से हटकर उन 20 परिवारों के नजरिए से चीजों को देखिए। पता नहीं परिवार के मुखिया को हमेशा के लिए खो देने के कष्ट से आप निजी तौर पर कितना वाकिफ हैं लेकिन उस दर्द को महसूस करने की कोशिश कीजिए।
भारत, पाकिस्तान से लड़े या चाइना से भारत अकेले इन देशों से नहीं लड़ेगा। उसे परोक्ष रुप से कई देशों से भी लडऩा होगा। कोरोना की वजह से सिर्फ दो महीने ठप्प रही अर्थव्यवस्था से हम यह सहज अनुमान लगा सकते हैं कि यदि किसी देश को पूरी तरह से युद्व में जाना पड़ा तो सरकार की प्राथमिकताओं में हम कहां पर होंगे? नौकरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सडक़ जैसी बुनियादी जरूरतें कितनी पीछे दुबककर खड़ी हो जाएंगी। सेकेंड वल्र्ड वॉर के अंतिम तीन सालों में ब्रिटेन की हर फैक्ट्री में जहां तक संभव था सिर्फ युद्व से जुड़ी हुई चीजों का निर्माण होता था।
इन दिनों पाकिस्तान नहीं, चीन हमारे निशाने पर है। चीन का सामान आप खरीदें या ना खरीदें इसे वाट्सअप फॉरवर्ड में तो भेजना अच्छा या कुल लग सकता है लेकिन जब अपना मुल्क चीन से आयात और निर्यात बंद नहीं कर कर रहा है और ना ही इसकी संभावनाएं हैं तो चीनी उत्पादों को बंद करने का फैसला ना सिर्फ बचकाना है बल्कि यह एक किस्म की मनोरंजक प्रैक्टिस भर है।
ब्रिटेन को सेकेंड वर्ल्ड वॉर में जीत दिलाने वाले वेस्टन चर्चिल अपना अगला चुनाव हार गए थे। अमेरिका ने इसी युद्ध के बाद ब्रिटेन को हमेशा के लिए पीछे कर दिया। जर्मनी की सरकारें उन लोगों पर खोज खोजकर मुकदमा कर रही हैं जो उस समय यहूदियों की हत्या में परोक्ष रूप से शामिल थे। उसमें ज्यादातर लोग मर चुके हैं लेकिन उनके उत्ताराधिकारी कोर्ट में उनका पक्ष रखने के लिए पहुंचे। आप इन देशों से सीखिए।
कहा जाता है कि वो लोग समझदार होते हैं जो अनुभव से सीखते हैं, और वह लोग बहुत समझदार होते हैं जो दूसरों के अनुभव से सीखते हैं। हो सके तो आप सेकेंड वल्र्ड वॉर के ताकतवर देशों से सीखिए, इनके अनुभव से सीखिए।
कोई सरकार युद्ध नहीं चाहती। आप उसे चाभी मत लगाइए। सीमा के विवाद हर देश की स्वाभाविक समस्या हैं। ये गांव के नाली और गलियारे के जैसे मामले हैं। जब तब उखड़ आते हैं और कभी खत्म नहीं होते। लेकिन वह लोग मूर्ख कहलाते हैं जो नाली के विवाद में किसी की हत्या करके अपनी पूरी उम्र जेल में बिताते हैं। उसकी अगली ही बरसात नाली अपना रास्ता खुद बना लेती है...पर वे जेल में रहते हैं।
सेना और सरकार शरहदों के इस उबड़ खाबड़पन से वाकिफ होते हैं, वो इसे हैंडल कर लेंगे, प्लीज़ आप एक प्रेशर ग्रुप की तरह काम मत कीजिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत आठ साल बाद फिर आठवीं बार सुरक्षा परिषद का सदस्य चुन लिया गया है। यह पहले भी सात बार उसका सदस्य रह चुका है। यह सदस्यता दो साल की होती है। सुरक्षा परिषद में कुल 15 सदस्य हैं। उनमें से पांच-अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस-स्थायी सदस्य हैं। इनमें से प्रत्येक को वीटो का अधिकार है। शेष दस अस्थायी सदस्य किसी भी प्रस्ताव पर अपने निषेधाधिकार (वीटो) का इस्तेमाल नहीं कर सकते। लेकिन सुरक्षा परिषद की इस अस्थाई सदस्यता का भी काफी महत्व है, क्योंकि ये 10 अस्थायी सदस्य अपने-अपने महाद्वीपों- अफ्रीका, एशिया, लातीनी अमेरिका, यूरोप आदि का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारत की इस सदस्यता का समर्थन पाकिस्तान और चीन ने भी किया है। भारत को 192 वोटों में से 184 वोटों का प्रचंड बहुमत मिला है। जनवरी 2021 से भारत सुरक्षा परिषद का औपचारिक सदस्य बन जाएगा।
इस बार भारत का सुरक्षा परिषद का सदस्य बनना विशेष महत्वपूर्ण है। चीन और पाकिस्तान दोनों ने उसका समर्थन किया है। इन दोनों पड़ोसी देशों से आजकल जैसे संबंध चल रहे हैं, उन्हें देखते हुए यह भारत की विशेष उपलब्धि है। भारत को अपने राष्ट्रहितों की रक्षा तो करनी ही है लेकिन एशिया और प्रशांत क्षेत्र के प्रतिनिधि होने के नाते इस इलाके के सभी देशों का भी हित संवर्धन करना है। सबसे पहले, इस अपनी आठवीं बारी में उसकी कोशिश होनी चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र के मूल ढांचे में ही परिवर्तन हो। भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसे राष्ट्रों को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता मिल। यदि सुरक्षा परिषद के ढांचे में यह मूल परिवर्तन हो गया तो यह विश्व राजनीति को नई दिशा दे देगा। भारत को चाहिए कि अपने इस नए पद का इस्तेमाल वह कम से कम दक्षिण एशिया महासंघ बनाने के लिए करे, जैसा कि यूरोपीय संघ है। उससे भी बेहतर महासंघ हमारा बन सकता है, क्योंकि दक्षिण और मध्य एशिया के राष्ट्र सैकड़ों वर्षों से एक विशाल कुटुम्ब की तरह रहते रहे हैं। दक्षिण एशिया में भारत की जो स्थिति है, वैसी किसी भी क्षेत्रीय संगठन में किसी अन्य देश की स्थिति नहीं है। यदि महासंघ की यह प्रक्रिया शुरू हो जाए तो चीन और पाकिस्तान के साथ चल रहे विवाद भी अपने आप शांत हो सकते हैं। कश्मीर, तिब्बत, पख्तूनिस्तान और बलूचिस्तान की समस्याएं भी अपने आप हल होने लगेंगी। करोड़ों दुखी और वंचित लोगों को स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार की अपूर्व सुविधाएं मिलने लगेंगी। 21 वीं सदी की दुनिया को भारत चाहे तो नई दिशा दिखाने की कोशिश कर सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से) (www.nayaindia.com)
सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट भारत के बजाय चीन को मिल गई थी?
भारत आठवीं बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य चुन लिया गया है और इसके साथ ही एक पुरानी बहस फिर जिंदा हो गई है
- राम यादव
भारत आठवीं बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य चुना गया है. इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्व समुदाय के प्रति आभार जताया है. एक ट्वीट में उन्होंने कहा कि भारत सभी सदस्यों के साथ मिलकर दुनिया में शांति, सुरक्षा और बराबरी के लिए काम करेगा. सुरक्षा परिषद की अस्थायी सदस्यता के लिए बुधवार को हुए मत परीक्षण मेें भारत के साथ मैक्सिको, आयरलैंड और नॉर्वे को भी चुना गया. ये सभी देश दो साल तक सुरक्षा परिषद में रहेंगे.
इस खबर के बाद एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी दावेदारी को लेकर सोशल मीडिया पर बहस गर्म हो गई. फिलहाल संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी और 10 अस्थायी सदस्य हैं. स्थायी सदस्य हैं अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन. हर साल संयुक्त राष्ट्र महासभा दो साल के कार्यकाल के लिए पांच अस्थायी सदस्यों को चुनती है. भारत काफी समय से स्थायी सदस्यता की मांग कर रहा है. अमेरिका और फ्रांस जैसे कई देश उसका समर्थन कर चुके हैं.
उधर, एक बड़ा वर्ग सुरक्षा परिषद में भारत के न होने को देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की गलती मानता है. उसके मुताबिक अगर नेहरू ने खुद पीछे हटकर चीन को तरजीह नहीं दी होती तो भारत आज सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होता. तब उसका एक अलग रसूख तो होता ही, मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी बनाने में इतनी अड़चन भी नहीं आती.
सवाल उठता है कि यह बात कितनी सच है. जवाब जानने के लिए बात को शुरू से ही शुरू करते हैं.
भारत संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य है. जनवरी 1942 में बने पहले संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र (चार्टर) पर हस्ताक्षर करने वाले 26 देशों में उसका भी नाम था. 25 अप्रैल 1945 को सैन फ्रांसिस्को में शुरू हुए और दो महीनों तक चले 50 देशों के संयुक्त राष्ट्र स्थापना सम्मेलन में भारत के भी प्रतिनिधि भाग ले रहे थे. 30 अक्टूबर 1945 को भारत की ब्रिटिश सरकार ने इस सम्मेलन में पारित अंतिम घोषणापत्र की विधिवत औपचारिक पुष्टि भी की थी.
इस सारी प्रक्रिया के दौरान स्वतंत्रता के बाद भारत को भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिये जाने की चर्चा हुई थी. हवा का रुख भारत के अनुकूल ही था. लेकिन तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस संभावना पर पूर्णविराम लगा दिया. आइए, इस ऐतिहासिक चूक की कहानी जानते हैं.
चीन की सीट ताइवान को मिली
चीन उस समय च्यांग काई शेक की कुओमितांग पार्टी और माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच चल रहे गृहयुद्ध से लहूलुहान था. कम्युनिस्टों से घृणा करने वाले अमेरिका और उसके साथी ब्रिटेन तथा फ्रांस, किसी साम्यवादी चीन को सुरक्षा परिषद में नहीं चाहते थे. चीन के नाम की सीट 1945 में च्यांग काई शेक की राष्ट्रवादी चीन सरकार को दी गयी. लेकिन, गृहयुद्ध में अंततः चीनी कम्युनिस्टों की विजय हुई. एक अक्टूबर 1949 को चीन की मुख्य भूमि पर उन्हीं की सरकार बनी. च्यांग काई शेक को अपने समर्थकों के साथ भाग कर ताइवान द्वीप पर शरण लेनी पड़ी. वहां उन्होंने अपनी एक अलग सरकार बनायी. तभी से ताइवान, कम्युनिस्ट चीन के विरोधी चीनियों का ही एक अलग देश है.
इन्हीं परिस्थितियों के बीच 15 अगस्त 1947 को भारत जब स्वतंत्र हुआ तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अंतरिम सरकार को भी सबसे पहले देश के बंटवारे वाली उथल-पुथल से निपटना पड़ा. नेहरू ही भारत के प्रथम विदेशमंत्री भी थे. समाजवाद की रूसी और चीनी अवधारणाओं से काफ़ी प्रभावित उनके निजी आदर्श और विचार देश की विदेशनीति हुआ करते थे. यही कारण था कि चीन में माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट सरकार बनते ही उसे राजनयिक मान्यता देने वाले देशों की पहली पांत में भारत भी खड़ा था. जवाहरलाल ऩेहरू को आशा ही नहीं अटल विश्वास था कि ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ बनेंगे.
चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता देने के एक ही साल के भीतर, 24 अगस्त 1950 को, नेहरूजी को अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित का एक पत्र मिला. कुछ समय पहले तक वह अज्ञात था. विजयलक्ष्मी पंडित उस समय अमेरिका में भारत की राजदूत थीं.
विजयलक्ष्मी पंडित का पत्र
इस पत्र में विजयलक्ष्मी पंडित ने अपने भाई को लिखा था, ‘अमेरिका के विदेश मंत्रालय में चल रही एक बात तुम्हें भी मालूम होनी चाहिये. वह है, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट पर से (ताइवान के राष्ट्रवादी) चीन को हटा कर उस पर भारत को बिठाना. इस प्रश्न के बारे में तुम्हारे उत्तर की रिपोर्ट मैंने अभी-अभी रॉयटर्स (समाचार एजेंसी) में देखी है. पिछले सप्ताह मैंने (जॉन फ़ॉस्टर) डलेस और (फ़िलिप) जेसप से बात की थी... दोनों ने यह सवाल उठाया और डलेस कुछ अधिक ही व्यग्र लगे कि इस दिशा में कुछ किया जाना चाहिये. पिछली रात वॉशिंगटन के एक प्रभावशाली कॉलम-लेखक मार्क़िस चाइल्ड्स से मैंने सुना कि डलेस ने विदेश मंत्रालय की ओर से उनसे इस नीति के पक्ष में जनमत बनाने के लिए कहा है. मैंने हम लोगों का उन्हें रुख बताया ओर सलाह दी कि वे इस मामले में धीमी गति से चलें, क्योंकि भारत में इसका गर्मजोशी के साथ स्वागत नहीं किया जायेगा.’
जॉन फ़ॉस्टर डलेस 1950 में अमेरिकी विदेश मंत्रालय के एक शांतिवार्ता-प्रभारी हुआ करते थे. 1953 से 1959 तक वे अमेरिका के विदेशमंत्री भी रहे. फ़िलिप जेसप एक न्यायविद और अमेरिकी राजनयिक थे जो नेहरू से मिल चुके थे. विजयलक्ष्मी पंडित का यह पत्र और 30 अगस्त 1950 को जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिया गया उसका उत्तर कुछ ही समय पहले नयी दिल्ली के ‘नेहरू स्मृति संग्रहालय एवं पुस्तकालय’ (एमएमएमएल) में मिले हैं.
प्रथम प्रधानमंत्री का उत्तर
अपने उत्तर में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा, ‘तुमने लिखा है कि (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय, सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता वाली सीट पर से चीन को हटा कर भारत को उस पर बिठाने का प्रयास कर रहा है. जहां तक हमारा प्रश्न है, हम इसका अनुमोदन नहीं करेंगे. हमारी दृष्टि से यह एक बुरी बात होगी. चीन का साफ़-साफ़ अपमान होगा और चीन तथा हमारे बीच एक तरह का बिगाड़ भी होगा. मैं समझता हूं कि (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय इसे पसंद तो नहीं करेगा, किंतु इस रास्ते पर हम नहीं चलना चाहते. हम संयुक्त राष्ट्र में और सुरक्षा परिषद में चीन की सदस्यता पर बल देते रहेंगे. मेरा समझना है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा के अगले अधिवेशन में इस विषय को लेकर एक संकट पैदा होने वाला है. जनवादी चीन की सरकार अपना एक पूर्ण प्रतिनिधिमंडल वहां भेजने जा रही है. यदि उसे वहां जाने नहीं दिया गया, तब समस्या खड़ी हो जायेगी. यह भी हो सकता है कि सोवियत संघ और कुछ दूसरे देश भी संयुक्त राष्ट्र को अंततः त्याग दें. यह (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय को मनभावन भले ही लगे, लेकिन उस संयुक्त राष्ट्र का अंत बन जायेगा, जिसे हम जानते हैं. इसका एक अर्थ युद्ध की तरफ और अधिक लुढ़कना भी होगा.’
सोवियत संघ की अमेरिका से नाराज़गी
लेकिन नेहरू को तत्कालीन सोवियत संघ द्वारा संयुक्त राष्ट्र से मुंह फेर लेने और युद्ध की ओर लुढ़कने की आशंका क्यों थी? शायद इसलिए कि सोवियत संघ जनवरी 1950 से क़रीब आठ महीनों तक सुरक्षा परिषद की बैठकों में भाग नहीं ले रहा था. ऐसा उसने चीन के गृहयुद्ध में कम्युनिस्टों की विजय, और एक अक्टूबर 1949 को वहां उनकी सत्ता स्थापित होने के बाद भी, संयुक्त राष्ट्र में चीन वाली सीट उसे नहीं मिलने के प्रति अपना विरोध जताने के लिए किया था.
सोवियत संघ में उस समय तानाशाह स्टालिन का शासन था. चीन में माओ त्से तुंग की तानाशाही भी कुछ कम निर्मम नहीं थी. दोनों के बीच मतभेद तब तक आरंभिक अवस्था में थे. 25 जून 1950 को चीन के पड़ोसी और उसी के जैसे कम्युनिस्ट देश उत्तर कोरिया ने, ग़ैर-कम्युनिस्ट दक्षिण कोरिया पर हमला कर कोरिया युद्ध छेड़ दिया. सोवियत संघ द्वारा सुरक्षा परिषद का बहिष्कार उस समय भी चल रहा था. उसकी अनुपस्थिति में उसके वीटो का डर नहीं रहने से अमेरिका ने उत्तर कोरिया की निंदा का प्रस्ताव बड़े आराम से पास करवा लिया.
अमेरिका ने भारत में अपना समर्थक देखा
भारत भी उत्तर कोरिया द्वारा यु्द्ध छेड़ने का समर्थन नहीं कर सकता था, इसलिए उसने अमेरिका के प्रस्ताव को अपना समर्थन दिया. अमेरिका को यह बात पसंद आई. उसे लगा कि अन्यथा तटस्थता की पैरवी करने वाले नेहरू कम्युनिस्टों के होश ठिकाने लगाने के प्रश्न पर उसके निकट आ रहे हैं. कोरिया युदध छिड़ने से कुछ ही दिन पहले नेहरू दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ देशों में गये थे. वहां कही उनकी बातें भी अमेरिका को अच्छी लगी थीं.
जनसंख्या की दृष्टि से भारत उस समय भी संसार का दूसरा सबसे बड़ा देश था जो बहुदलीय लोकतंत्र के रास्ते पर चल रहा था. उधर, चीन के नाम वाली सीट पर बिठाया गया छोटा-सा ताइवान एक द्वीप देश था. समझा जाता है कि इन्हीं सब बातों को नापने-तौलने के बाद अमेरिका, सुरक्षा परिषद में ताइवान वाली सीट भारत को दिलवाने का कोई औपचारिक प्रस्ताव रखने से पहले, आश्वस्त होना चाहता था कि भारत भी यही चाहता है या नहीं.
‘चीन की क़ीमत पर नहीं’
अमेरिका को यह सावधानी भी बरतनी थी कि पाकिस्तान को कहीं यह न लगने लगे कि उसके सिर पर से अमेरिका का वरदहस्त उठने जा रहा है और उसके क़ब्ज़े वाला कश्मीर भी शायद उसके हाथ से निकल जायेगा. यह सब सोचे बिना प्रधानमंत्री नेहरू का अनौपचारिक उत्तर था, ‘भारत कई कारणों से सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के सुयोग्य है. किंतु हम इसे चीन की क़ीमत पर नहीं चाहते.’ कहा जाता है कि सोवियत और चीनी साम्यवाद की रोकथाम के लिए बने अमेरिकी सैन्य संगठनों ‘सीएटो’ (साउथ एशिया ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन) और ‘सेन्टो’ (सेन्ट्रल ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन) में 1954-55 में पाकिस्तान की भर्ती के पीछे भी जवाहरलाल नेहरू का यही रुख एक बड़ा कारण था.
नेहरू ने काफ़ी समय तक चीन के प्रति अपनी निजी भावनाओं और अपने निजी आदर्शों को देशहित से ऊपर रखा. उनका कहना था कि चीन एक ‘महान देश’ है, इसलिए उसे उसका उचित स्थान मिलना चाहिये. पता नहीं उन्होंने यह कैसे मान लिया कि महान चीन इतना दीन-हीन भी है कि अपने उचित स्थान के लिए स्वयं लड़ नहीं सकता! यह भला भारत का नैतिक कर्तव्य क्यों होना चाहिये था कि वह स्वयं भूखा रह कर भी चीन को न्याय दिलाने की लड़ाई लड़ता? भारत के स्वतंत्रता संग्राम में चीन ने ऐसा कोई ऐसा योगदान भी नहीं दिया था कि भारत पर उसके प्रति कृतज्ञता जताने का कोई नैतिक दायित्व रहा होता.
तिब्बत पर चीनी आक्रमण
नेहरू और अमेरिका में भारत की राजदूत उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित के बीच यह पत्रव्यवहार जब हुआ था, लगभग उन्हीं दिनों चीन तिब्बत पर आक्रमण की भूमिका रच रहा था. सितंबर 1950 में दलाई लामा का एक प्रतिनिधिमंडल दिल्ली में था. 16 सितंबर के दिन वह दिल्ली में चीनी राजदूत से मिला था. राजदूत ने कहा कि तिब्बत को चीन की प्रभुसत्ता स्वीकार करनी ही पड़ेगी. कुछ ही दिन बाद, सात अक्टूबर को चीनी सेना ने तिब्बत पर धावा बोल दिया. तिब्बत के साथ हुई ज़ोर-ज़बरदस्ती को जानते हुए भी नेहरू मान रह रहे थे कि भारत की चुप्पी-भरी भलमनसाहत का बदला चीन भलमनसाहत से ही देगा.
होना तो यह चाहिये था कि भारत के प्रति अमेरिकी सद्भावना की आहट पाते ही नेहरू एक अभियान छेड़ देते. कहते कि उपनिवेशवाद पीड़ितों, नवस्वाधीन देशों, अविकसित ग़रीब देशों तथा गुटनिरपेक्ष देशों का सुरक्षा परिषद में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है; भारत उनकी आवाज़ बनेगा. वे कहते कि ब्रिटेन और फ्रांस के रूप में अमेरिका के दो यूरोपीय साथी पहले ही सुरक्षा परिषद में विराजमान हैं, सोवियत संघ कम्युनिस्ट देशों के हितरक्षक की भूमिका निभा रहा है, इसलिए एक और कम्युनिस्ट देश चीन के बदले, उससे कुछ ही कम जनसंख्या वाले, कल तक ब्रिटेन का उपनिवेश रहे और अब विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बन रहे भारत को सुरक्षा परिषद की सदस्यता पाने का कहीं अधिक औचित्य बनता है. इसके बदले भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की रट बनी रही कि ‘पहले चीन’, तब भारत.
‘पहले चीन’, तब भारत’
यही रट उन्होंने 1955 में तब भी लगाई, जब तत्कालीन सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन ने, अमेरिका की ही तरह, उनका मन टटोलने के लिए सुझाव दिया कि भारत यदि चाहे तो उसे जगह देने लिए सुरक्षा परिषद में सीटों की संख्या पांच से बढ़ा कर छह भी की जा सकती है. नेहरू ने बुल्गानिन को भी यही जवाब दिया कि कम्युनिस्ट चीन को उसकी सीट जब तक नहीं मिल जाती, तब तक भारत भी सुरक्षा परिषद में अपने लिए कोई स्थायी सीट नहीं चाहता.
बुल्गानिन और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता निकिता ख्रुश्चेव, नवंबर 1955 में पहली बार, एक लंबी यात्रा पर एकसाथ भारत आये थे. दिल्ली के बाद वे पंजाब, कश्मीर, तत्कालीन बंबई, कलकत्ता, मद्रास, बंगलौर और दक्षिण भारत के प्रसिद्ध हिल स्टेशन ऊटी भी गये. बुल्गानिन कोयम्बटूर के एक निकटवर्ती गांव में नारियल-पानी पीने के लिए रुके. उस गांव का नाम ‘बुल्गानिन थोट्टम’ पड़ गया. भारत के प्रति सोवियत लगाव का उस समय इससे बड़ा कोई दूसरा प्रमाण नहीं हो सकता था.
भारत के लिए छठीं सीट
बुल्गानिन ने एक सम्मेलन में कहा, ‘हम सामान्य अंतरराष्ट्रीय स्थिति और तनावों में कमी लाने के बार में बातें कर रहे हैं और यह सुझाव देना चाहते हैं कि भारत को छठे सदस्य के रूप में सुरक्षा परिषद में शामिल किया जा सकता है.’ इस पर नेहरू की प्रतिक्रिया थी, ‘बुल्गानिन शायद जानते हैं कि अमेरिका में कुछ लोग सुझाव दे रहे हैं कि सुरक्षा परिषद में चीन की सीट भारत को दी जानी चाहिये. यह तो हमारे और चीन के बीच खटपट करवाने वाली बात होगी. हम इसके सरासर ख़िलाफ़ हैं. हम कोई आसन पाने के लिए अपने आप को इस तरह आगे बढ़ाने के विरुद्ध हैं, जो परेशानी पैदा करने वाला है और भारत को विवाद का विषय बना देगा.’
नेहरू ने जोर देकर कहा, ‘भारत को यदि सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाया जाता है तो पहले संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संशोधन करना होगा. हमारा समझना है कि ऐसा तब तक नहीं किया जाना चाहिये, जब तक पहले चीन की और संभवतः कुछ दूसरों की सदस्यता का प्रश्न हल नहीं हो जाता. मैं समझता हूं कि हमें पहले चीन की सदस्यता पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिये. (संयुक्त राष्ट्र) चार्टर में संशोधन करने के बारे में बुल्गानिन का क्या विचार है, हमारे विचार से इसके लिए सही समय अभी नहीं आया है.’
स्वयं एक कम्युनिस्ट नेता बुल्गानिन ने जब देखा कि नेहरू अब भी चीन समर्थक राग ही अलाप रहे हैं, तो वे इसके सिवाय और क्या कहते कि ‘हमने सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता का प्रश्न इसलिए उठाया, ताकि हम आपके विचार जान सकें. हम भी सहमत है कि यह सही समय नहीं है, सही समय की हमें प्रतीक्षा करनी होगी.’
नेहरू के उत्तर से अमेरिकी प्रस्ताव की पुष्टि हुई
बुल्गानिन को दिये गये नेहरू के उत्तर से इस बात की फिर पुष्टि होती है कि अमेरिका ने कुछ समय पहले सचमुच यह सुझाव दिया था कि सुरक्षा परिषद में चीन वाली सीट, जिस पर उस समय ताइवान बैठा हुआ था, भारत को दी जानी चाहिये. पुष्टि इस बात की भी होती है कि पहले अमेरिकी सुझाव और बाद में सोवियत सुझाव को भी साफ़-साफ़ ठुकरा कर नेहरू ने उस देशहितकारी दूरदर्शिता का परिचय नहीं दिया, जिसकी अपेक्षा तब वे स्वयं ही करते, जब देश का प्रधानमंत्री उनके बदले कोई दूसरा व्यक्ति रहा होता.
भारत में जो गिने-चुने लोग संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के बारे में अमेरिका और सोवियत संघ के इन दोनों सुझावों को जानते हैं, वे उस समय की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में जवाहरलाल नेहरू की प्रतिक्रिया को सही ठहराते हैं. पर देखा जाए तो नेहरू के जीवनकाल में ही घटी अंतरराष्ट्रीय घटनाओं ने चीन के प्रति उनके मोह या उसके साथ टकराव से बचने की उनकी भयातुरता को अतिरंजित ही नहीं, अनावश्यक भी ठहरा दिया. चीन ने नेहरू के सामने ही न केवल तिब्बत को हथिया लिया और वहां भीषण दमनचक्र चलाया, खुद अपने यहां भी ‘लंबी छलांग’ और उनके निधन के बाद ‘सांस्कृतिक क्रांति’ जैसे सिरफिरे अभियान छेड़ कर अपने ही करोड़ों देशवासियों की अनावश्यक बलि ले ली.
चीन ने भारत को कड़वा सबक सिखाया
नेहरू तो चीन की महानता का गुणगान करते रहे जबकि1962 में उसने भारत पर हमला कर भारत को करारी हार का कड़वा ‘सबक सिखाया.’ इस सबक का आघात डेढ़ साल के भीतर ही नेहरू की मृत्यु का भी संभवतः मुख्य कारण बना. लद्दाख का स्विट्ज़रलैंड जितना बड़ा एक हिस्सा तभी से चीन के क़ब्ज़े में है. अरुणाचल प्रदेश को भी वह अपना भूभाग बताता है. क्षेत्रीय दावे ठोक कर सोवियत संघ और वियतनाम जैसे अपने कम्युनिस्ट बिरादरों से युद्ध लड़ने में भी चीन ने कभी संकोच नहीं किया और अब तो वह ताइवान को भी बलपूर्वक निगल जाने की धमकी दे रहा है.
जो लोग यह कहते हैं कि 1955 में सोवियत प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन का यह सुझाव हवाबाज़ी था कि भारत के लिए सुरक्षा परिषद में छठीं सीट भी बनाई जा सकती है, वे भूल जाते हैं या नहीं जानते कि चीन में माओ त्से तुंग की तानशाही शुरू होते ही उस समय के सोवियत तानाशाह स्टालिन के साथ भी चीन के संबंधों में खटास आने लगी थी.
रूस और चीन के सैद्धांतिक मतभेद
माओ और स्टालिन कभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हुआ करते थे. स्टालिन की पांच मार्च 1953 को मृत्यु होते ही माओ त्से तुंग अपने आप को कम्युनिस्टों की दुनिया का ‘सबसे वरिष्ठ नेता’ मानने और सोवियत संघ को ही उपदेश देने लगे. दूसरी ओर सोवियत संघ के नये सर्वोच्च नेता निकिता ख़्रुश्चेव, स्टालिन के नृशंस अत्याचारों का कच्चा चिठ्ठा खोलते हुए उस स्टालिनवाद का अंत कर रहे थे जो अब चीन में माओ की कार्यशैली बन चुका था.
1955 आने तक माओ और ख्रुश्चेव के बीच दूरी इतनी बढ़ चुकी थी कि चीन उस समय के पूर्वी और पश्चिमी देशों वाले गुटों के बीच ख्रुश्चेव की ‘शांतिपूर्ण सहअस्तित्व’ वाली नीति को आड़े हाथों लेने लगा था. चीन इसे मार्क्स के सिद्धान्तों को भ्रष्ट करने वाला ‘संशोधनवाद’ बता रहा था. दोनों पक्ष एक-दूसरे की निंदा-आलोचना के नए-नए शब्द और मुहावरे गढ़ रहे थे. एक-दूसरे को ‘पथभ्रष्ट,’ ‘विस्तारवादी’ और ‘साम्राज्यवादी’ तक कहने लगे थे.
भारत में सोवियत संघ को अपना भला दिखा
इस कारण सोवियत नेताओं को इस बात में विशेष रुचि नहीं रह गयी थी कि सुरक्षा परिषद में चीन के नाम वाली स्थायी सीट भविष्य में माओ त्से तुंग के चीन को ही मिलनी चाहिये. वे चीन वाली सीट पर से ताइवान को हटा कर भारत को बिठाने के अमेरिकी प्रयास का या तो विरोध नहीं करते या कुछ समय के लिए विरोध का केवल दिखावा करते.
ताइवान को मिली हुई सीट भारत को देने पर संयुक्त राष्ट्र का चार्टर बदलना भी नहीं पड़ता. संयुक्त राष्ट्र महासभा में दो-तिहाई बहुमत ही इसके लिए काफ़ी होता. चार्टर में संशोधन की बात तभी आती, जब सीटों की संख्या बढ़ानी होती. बुल्गानिन के कहने के अनुसार, सोवियत संघ 1955 में इसके लिए भी तैयार था. यह संशोधन क्योंकि भारत के लिए होता, जिसे अमेरिका खुद ही 1953 तक सुरक्षा परिषद में देखना चाहता था, इसलिए बहुत संभव था कि वह भी संशोधन का ख़ास विरोध नहीं करता.
1950 वाले दशक में संयुक्त राष्ट्र चार्टर में संशोधन भी, आज की अपेक्षा, आसान ही रहा होता. उस समय आज के क़रीब 200 की तुलना में आधे से भी कहीं कम देश संयुक्त राष्ट्र के सदस्य थे. उन्हें मनाना-पटाना आज जितना मुश्किल नहीं रहा होता. सोवियत नेता भी ज़रूर जानते रहे होंगे– जैसा कि नेहरू ने 1955 में बुल्गानिन से स्वयं कहा भी– कि अमेरिका और उसके छुटभैये ब्रिटेन व फ्रांस भी कुछ ही साल पहले ताइवान को हटा कर उसकी सीट भारत को देना चाहते थे. अतः यह मानने के पूरे कारण हैं कि सोवियत नेता भारत की सदस्य़ता को लेकर गंभीर थे, न कि हवाबाज़ी कर रहे थे.
हेनरी किसिंजर की गुप्त यात्रा
ताइवान 1971 तक चीन वाली सीट पर बैठा रहा. उस साल अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर पाकिस्तान होते हुए नौ जुलाई को गुप्त रूप से बीजिंग पहुंचे. घोषित यह किया गया कि वे अगले वर्ष राष्ट्रपति निक्सन की चीन यात्रा की तैयारी करने गये हैं. बीजिंग में वार्ताओं के समय तय हुआ कि निक्सन की यात्रा से पहले ताइवान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट से हटा कर उसकी सीट कम्युनिस्ट चीन को दी जायेगी. इस निर्णय से यह भी सिद्ध होता है कि अमेरिका 1970 वाले दशक में भी सुरक्षा परिषद को अपनी पसंद के अनुसार उलट-पलट सकता था.
चीन को लाने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में 25 अक्टूबर 1971 को मतदान हुआ. संयुक्त राष्ट्र के उस समय के 128 सदस्य देशों में से 76 ने चीन के पक्ष में और 35 ने विपक्ष में वोट डाले. 17 ने मतदान नहीं किया. दो-तिहाई के अवश्यक बहुमत वाले नियम से प्रस्ताव पास हो गया. ताइवान से न केवल सुरक्षा परिषद में उसकी सीट छीन ली गयी, संयुक्त राष्ट्र की उसकी सदस्यता भी छिन गयी. उसकी सीट पर 15 नवंबर 1971 से चीन का प्रतिनिधि बैठने लगा.
नेहरू ने देशहित की चिंता की होती, तो कम से कम 60 वर्षों से भारत का प्रतिनिधि भी वीटो-अधिकार के साथ वहां बैठ रहा होता. कश्मीर समस्या भी शायद कब की हल हो चुकी होती. सोवियत संघ को भारत की लाज बचाने के लिए दर्जनों बार अपने वीटो-अधिकार का प्रयोग नहीं करना पड़ता.
सुनहरा अवसर हाथ से निकला
आज स्थिति यह है कि भारत चाहे जितनी एड़ी रगड़ ले, वह तब तक सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं बन सकता, जब तक इस परिषद का विस्तार नहीं होता और चीन भी उसके विस्तार तथा भारत की स्थायी सदस्यता की राह में अपने किसी वीटो द्वारा रोड़े नहीं अटकाता. चीन भला क्यों चाहेगा कि वह एशिया में अपने सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी भारत के लिए सुरक्षा परिषद में अपनी बराबरी में बैठने का मार्ग प्रशस्त करे? 1950 के दशक जैसा सुनहरा मौका अब शायद ही दोबारा आए. (satyagrah.scroll.in)
आज भी सीमा विवाद कमोबेश उसी स्थिति में है और यह रहस्य भी...
-राहुल कोटियाल
‘इंडियन डिफेन्स रिव्यू’ में सात मार्च, 2015 को एक लेख छपा. यह लेख मेजर जनरल अफसिर करीम द्वारा लिखा गया था. इसमें उन्होंने भारत को चीन से होने वाले संभावित खतरों की ओर इशारा किया था. उन्होंने लिखा था, ‘अब समय आ गया है जब भारत को अपनी सैन्य क्षमताओं और नीतियों में सुधार करते हुए चीन को जवाब देने के लिए तैयार हो जाना चाहिए.’
15 जून की रात को पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में जो हुआ उसे देखते हुए लगता है कि मेजर करीम ने खतरे को भांप लिया था. उस दिन भारत और चीन के सैनिकों के बीच हुई एक मुठभेड़ में 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए. चीन के भी 43 सैनिकों के मारे जाने या गंभीर रूप से घायल होने की खबरें आईं. हालात फिलहाल तनावपूर्ण बने हुए हैं.
लेकिन यदि भारत और चीन के राजनीतिक संबंधों को देखें तो स्थिति कुछ अलग नजर आती है. अपने छह साल के कार्यकाल के दौरान अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ 18 बार मुलाकात कर चुके हैं. इनमें से कुछ तो बेहद गर्मजोशी भरे माहौल में हुई हैं.
ऐसा ही कुछ 1962 में भी हुआ था. उस वक्त भी हालात कमोबेश आज जैसे ही थे. सीमा पर जो क्षेत्र तब विवादास्पद थे वे आज भी वैसे ही हैं. तब भी कुछ सैन्य विशेषज्ञ चीन से संभावित खतरों के लिए चेतावनी दे रहे थे, जिन्हें तब भी नजरअंदाज किया जा रहा था. राजनीतिक यात्राएं और वार्ताएं तब भी जारी थीं. बल्कि उस दौर में तो ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ जैसे नारे भी खूब गूंजा करते थे. लेकिन तभी चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया. इसीलिए 1962 का वह युद्ध आज तक एक रहस्य ही बनकर रह गया है.
बीते पचास सालों में आई कई रिपोर्टों और किताबों के जरिये 1962 के युद्ध को समझने में थोड़ी बहुत मदद जरूर मिलती है. लेकिन पक्के तौर पर आज भी नहीं कहा जा सकता कि चीनी हमले की वजह क्या थी. इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में काफी विस्तार से उन परिस्तिथियों का जिक्र किया है जिनके चलते पंडित जवाहरलाल नेहरु और तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ की दोस्ती धीरे-धीरे फीकी पड़ी और अंततः दोनों देश युद्ध में उलझ गए. भारत और चीन के बीच तिब्बत का मसला कैसे आया
तिब्बत के धर्म गुरू 1956 में भारत की आधिकारिक यात्रा पर आए थे और माना जाता है इस यात्रा ने उनके और नेहरू के बीच समझ बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
इन परिस्थितियों की शुरुआत गुहा ने 1950 के दशक के तिब्बत से की है. तिब्बत में चीनी सैनिकों का हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा था. इसके विरोध में 1958 में पूर्वी तिब्बत के खम्पा लोगों ने सशत्र विद्रोह छेड़ दिया. शुरुआत में खम्पा लोगों को कुछ सफलता भी मिली लेकिन अंततः चीनी सैनिकों ने विद्रोहियों को समाप्त कर दिया. इसके बाद दलाई लामा को भी धमकियां मिलने लगीं. उन पर खतरा बढ़ गया था. ऐसे में उन्होंने भारत में शरण लेने का मन बनाया. भारत उन्हें शरण देने को तैयार हो गया. प्रधानमंत्री नेहरू से मिलकर दलाई लामा ने उन्हें खम्पा विद्रोह के बारे में जानकारी दी. नेहरू ने दलाई लामा को बताया कि भारत तिब्बत की आज़ादी के लिए चीन से युद्ध नहीं कर सकता. साथ ही नेहरू ने यह भी कहा कि ‘सारी दुनिया मिलकर भी तिब्बत को आज़ाद नहीं करवा सकती जब तक कि चीन ही पूरी तरह से नष्ट न हो जाए.’
इस वक्त तक भारत और चीन के संबंध और कारणों से भी बिगड़ने लगे थे. इसी समय भारत सरकार को सूचनाएं मिलने लगीं कि चीन सीमा के नजदीक बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण कर रहा है. जुलाई, 1958 में चीन की एक सरकारी पत्रिका ‘चाइना पिक्टोरिअल’ में कुछ विवादास्पद नक़्शे छापे गए. इन नक्शों में नेफा (नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी यानी आज का अरुणाचल प्रदेश) और लद्दाख के बड़े इलाके को चीन का हिस्सा दिखाया गया था. दिसंबर 1958 में जवाहरलाल नेहरू ने चीनी प्रधानमंत्री को इस संबंध में एक पत्र लिखा. इन नक्शों में जिस तरह से भारतीय इलाकों को चीन का हिस्सा दिखाया गया था उस पर नेहरू ने अपना विरोध दर्ज करते हुए लिखा था जब 1956 में उन दोनों की मुलाकात हुई थी तो चीनी प्रधानमंत्री ने मैकमोहन लाइन को स्वीकारते हुए मान्यता देने की बात कही थी. तब दोनों इस बात पर भी सहमत थे कि भारत और चीन के बीच कोई भी बड़ा सीमा विवाद नहीं है.
भारत के प्रधानमंत्री को एक महीने बाद ही जवाबी पत्र मिल गया. जवाब में चाऊ इन लाइ ने कहा कि मैकमोहन लाइन ब्रितानी हुकूमत की विरासत है जिसे चीन कभी भी मान्यता नहीं दे सकता. साथ ही उन्होंने कहा कि भारत और चीन के बीच हमेशा से रहे सीमा विवाद को कभी सुलझाया नहीं गया था. 22 मार्च, 1959 को नेहरू ने एक और पत्र लिखकर इस बात के कई प्रमाण दिए कि चीनी नक्शों में दर्शाए गए इलाके दरअसल भारत के अभिन्न अंग हैं. साथ ही उन्होंने अपने इस पत्र में यह भी उम्मीद जताई कि जल्द ही दोनों देशों इन मसलों पर किसी सहमति पर पहुंच जाएंगे. नेहरू के इस पत्र का जवाब आ पाता उससे पहले ही दलाई लामा भारत आ गए.
यहां से भारत और चीन के रिश्ते और भी ज्यादा बिगड़ने लगे. चीन ने आरोप लगाया कि भारत-चीन संबंधों को बिगाड़ने की पहल भारत की ओर से की जा रही है. भारतीय जनता का चीन के खिलाफ होना और सेना का असमंजस इसी दौरान मुंबई में भी एक घटना हुई जिसके कारण चीन को भारत पर निशाना साधने के कुछ और कारण मिल गए. मुंबई स्थित चीनी महावाणिज्य दूतावास के कार्यालय की दीवार पर कुछ प्रदर्शनकारियों ने माओ त्से तुंग की तस्वीर टांगकर उस पर अंडे और टमाटर फेंके. चीन ने इस घटना पर नाराजगी जताते हुए चेतावनी दी कि यदि भारत इस घटना पर उचित कार्रवाई नहीं करता तो इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं.
सेना के अधिकारियों के साथ जवाहरलाल नेहरू
भारत-चीन सम्बन्ध जिस तेजी से सीमा पर बिगड़ रहे थे लगभग उसी गति से भारतीय जनता में भी चीन के खिलाफ माहौल बन रहा था. विपक्षी पार्टियों के दबाव में भारत सरकार ने सितंबर, 1959 को एक श्वेत पत्र जारी किया. इसमें पिछले पांच वर्षों में चीन से हुए पत्राचार का पूरा ब्यौरा था. इस श्वेतपत्र के सार्वजनिक होने से भारतीय जनता को चीन द्वारा सीमा पर की जा रही गतिविधियों की पूरी जानकारी मिल गई. रामचंद्र गुहा अपनी किताब में लिखते हैं, ‘यदि यह श्वेतपत्र जारी नहीं हुआ होता तो भारत-चीन सीमा विवाद को राजनीतिक या कूटनीतिक स्तर पर भी सुलझाया जा सकता था. लेकिन इनके सार्वजनिक होने के बाद जनता में चीन के प्रति आक्रोश था और तब राजनीतिक हल ढूंढना चीन के सामने घुटने टेकने जैसा हो गया था.’
उस दौर में वीके कृष्णा मेनन केन्द्रीय रक्षा मंत्री थे. वे प्रधानमंत्री के काफी करीबी माने जाते थे. लेकिन तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल केएस थिमैया से उनके सम्बन्ध अच्छे नहीं थे. जनरल थिमैया का मानना था कि उनकी सेना को चीन से होने वाले हमले के लिए तैयार रहना चाहिए. लेकिन रक्षामंत्री मेनन उनकी बात को नज़रंदाज़ करते रहे. मेनन को लगता था कि भारत को असल खतरा चीन से नहीं बल्कि पकिस्तान से है इसीलिए सेना का बड़ा हिस्सा पाकिस्तानी सीमाओं पर ही तैनात था. रक्षामंत्री और सेनाध्यक्ष के बीच यह तनाव आगे जा कर और बढ़ गया. अगस्त, 1959 में मेनन ने बीएम कौल नाम के एक अधिकारी को लेफ्टिनेंट जनरल नियुक्त कर दिया. कौल को इस पद पर लाने के लिए उनसे वरिष्ठ 12 अधिकारियों को नज़रंदाज़ किया गया था. जनरल थिमैया ने इसके विरोध में प्रधानमंत्री को अपना इस्तीफ़ा भेज दिया. हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू ने जनरल थिमैया को इस्तीफ़ा देने से तो रोक लिया लेकिन इस घटना से सारे देश में रक्षामंत्री के खिलाफ माहौल बन गया. उन पर पहले से भी वामपंथी समर्थक होने के कारण चीन के प्रति सहानुभूति रखने के आरोप लगते रहते थे.
1959 में भी भारत-चीन सीमा पर दोनों सेनाओं के बीच झड़प की कई घटनाएं हुईं. इस समय दोनों देशों के बीच पत्राचार भी लगातार चल रहा था. 1960 में नेहरू ने चाऊ एन लाई को भारत आने का न्योता दिया. इससे पहले जब 1956 में चीनी प्रधानमंत्री भारत आ चुके थे. तब उनका बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया गया था. लेकिन 1960 में हालात बिलकुल अलग थे. हिन्दू महासभा ने चाऊ एन लाई के विरोध में काले झंडे दिखाए. जहां 1956 में उनकी भारत यात्रा के दौरान ‘हिंदी-चीनी भाई भाई’ जैसे नारे दिए गए थे वहीं इस बार यह नारे बदलकर ‘हिंदी-चीनी बाय बाय’ हो चुके थे. चाऊ एन लाई की इस यात्रा के बाद भी भारत-चीन सीमा विवाद जस का तस ही बना रहा. दोनों देश इस यात्रा और बातचीत के बाद भी किसी सहमति तक नहीं पहुंच पाए. युद्ध की शुरुआत और अंत 1962 के मई-जून में अचानक सीमा पर गोलीबारी की घटनाएं बढ़ गईं. चीनी सेना की कई टुकड़ियां भारतीय सीमा के भीतर घुस आईं. भारतीय सेना के पास इनका मुकाबला करने के लिए न तो पर्याप्त हथियार थे और न ही सैनिक. युद्ध के बीच में ही जनरल कौल छाती में दर्द होने के कारण सीमा से लौट कर दिल्ली आ गए. बिना किसी नेतृत्व के सेना के जवान पांच दिनों तक लड़ते रहे जिसके बाद नेफा के तवांग के इलाके पर भी चीन कब्ज़ा हो गया. रक्षामंत्री मेनन को आखिरकार मंत्रिमंडल से निकाल दिया गया और भारत अब अमरीकी मदद लेने की दिशा में बढ़ने लगा.
अब तक चीनी सैनिक नेफा में इतना आगे बढ़ चुके थे कि जल्द ही असम के भी उनके हाथ में जाने का खतरा पैदा हो गया. उधर दिल्ली और मुंबई के भर्ती केन्द्रों पर हजारों युवा सेना में भर्ती होने को तैयार थे. लेकिन 22 नवंबर को अचानक ही चीन ने युद्धविराम की घोषणा कर दी. इस युद्ध का अंत भी इसकी शुरुआत की ही तरह एक रहस्य था. नेफा में चीन ने अपने सैनिकों को मैकमोहन लाइन से पीछे कर लिया और लद्दाख क्षेत्र में भी वह उस स्थिति में वापस लौट गए जो युद्ध से पहले थी.
चीन ने अचानक ही अपने सैनिकों को वापस बुलाकर युद्धविराम की घोषणा क्यों की? इस सवाल के जवाब में भी सिर्फ कयास ही लगाए जाते रहे हैं. कुछ लोगों का मानना है कि चीन इसलिए घबरा गया था कि अब वामपंथी पार्टियों समेत भारत की सभी विपक्षी पार्टियां सरकार के साथ एकजुट होकर चीन का विरोध कर रहीं थी. अमरीका और ब्रिटेन का भारत को समर्थन करना और हथियार भेजना भी एक कारण माना जाता है जिसने चीन को युद्धविराम पर मजबूर कर दिया था. वहीं एक तर्क यह भी दिया जाता रहा है कि सर्दियों में वह सारा इलाका बर्फ से ढक जाता है. ऐसे में चीन ज्यादा समय तक अपने सैनिकों को मदद नहीं पहुंचा सकता था इसलिए उसके पास लौट जाने का ही विकल्प बचा था.
रामचंद्र गुहा के अनुसार, ‘इस युद्ध के अंत को तो फिर भी कुछ हद तक समझा जा सकता है लेकिन इसकी शुरुआत को समझना बेहद जटिल है. चीन की तरफ से कभी-भी कोई श्वेतपत्र जारी नहीं किया गया. लेकिन इस युद्ध के बारे में यह जरूर कहा जा सकता है कि इतने सुनियोजित आक्रमण के पीछे कई साल का अभ्यास रहा होगा. इस युद्ध का समय भी चीन के लिए बिलकुल सटीक था. उस वक्त विश्व की दोनों महाशक्तियां - सोवियत संघ व अमेरिका और इनके साथ ही संयुक्त राष्ट्र, क्यूबा के मिसाइल संकट में उलझे हुए थे. इस कारण चीन को बिना किसी डर के कुछ दुस्साहसिक करने की छूट मिल गई थी.’(satyagrah.scroll.in)
लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी सैनिकों के साथ संघर्ष में भारतीय जवानों की मौत के ख़िलाफ़ बुधवार को भारत के अलग-अलग राज्यों में विरोध प्रदर्शन हुए।
पश्चिम बंगाल के एक प्रमुख औद्योगिक शहर सिलीगुड़ी में स्थानीय व्यापारियों ने मशहूर हॉन्गकॉन्ग मार्केट का नाम बदलने का भी फैसला किया।
यही हाल गुजरात के अहमदाबाद शहर का भी रहा। सोशल मीडिया पर एक वीडियो तेजी से वायरल हो रहा है जिसमें जनता चीन की कंपनी के टीवी को तोड़ते दिखाई दे रही है।
दिल्ली में कॉन्फ़ेडरेशन ऑफ आल इंडिया ट्रेडर्स ने भारतीय सामान हमारा अभिमान के नाम से नया कैंपेन लॉन्च कर दिया। इसके साथ ही फिल्मी सितारों से अपील की गई है कि वो चीनी सामान के विज्ञापन ना करें।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार चीनी मोबाइल कंपनी ओपो ने बुधवार को भारत में ऑनलाइन लॉन्चिंग कार्यक्रम रद्द कर दिया।
चीनी सामान को बाय-बाय कहना कितना संभव
क्या मेड इन चाइना को एक झटके में ऐसे बाय-बाय बोला जा सकता है?
इसको जानने और समझने के लिए ये जानना ज़रूरी है कि चीन, भारत को क्या बेचता है। और चीन भारत से क्या खऱीदता है।
चीन, भारत को जो चीज़ें बेचता है, वो हैं-
मशीनरी, टेलिकॉम उपकरण, बिजली से जुड़े उपकरण, ऑर्गैनिक केमिकल्स यानी जैविक रसायन और खाद।
भारत के रसोई घर, बेडरूम में, एयर कंडीशनिंग मशीनों की शक्ल में, मोबाइल फोन और डिजिटल वैलेट के रूप में चीन कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में मौजूद है।
कुछ नया मिला, कुछ सस्ता मिला और बहुत सुंदर मिल जाए जब हर ग्राहक की माँग ये होती है, तो व्यापारी के पास चीनी सामान के अलावा दूसरा विकल्प नहीं होता।
इसलिए चाहे दिल्ली का सदर बाजार हो या पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी का हॉन्गकॉन्ग मार्केट, सभी चीनी सामान से पटे पड़े होते हैं।
एक सच्चाई ये भी है कि चीनी स्मार्टफ़ोन ओप्पो, श्याओमी जैसे ब्रैंड्स भारत में हर दस में से आठ बिकने वाले स्मार्टफोन हैं।
ऐसे में जब भारतीय मीडिया में केंद्र सरकार के सूत्रों के हवाले से ये ख़बर चलती है कि बीएसएनएल और एमटीएनएल को आदेश दिया गया है कि 4 फीसदी के लिए चीनी उपकरणों का इस्तेमाल रोका जाए, तो एक सवाल तो उठता है कि वास्तव में ये कितना संभव है। इसलिए जान लीजिए कि चीन का भारत में निवेश कितना है।
चीनी निवेश
चीन ने भारत में छह अरब डॉलर से भी ज़्यादा का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कर रखा है जबकि पाकिस्तान में उसका निवेश 30 अरब डॉलर से भी ज़्यादा का है।
मुंबई के विदेशी मामलों के थिंक टैंक गेटवे हाउसने भारत में ऐसी 75 कंपनियों की पहचान की है जो ई-कॉमर्स, फिनटेक, मीडिया/सोशल मीडिया, एग्रीगेशन सर्विस और लॉजिस्टिक्स जैसी सेवाओं में हैं और उनमें चीन का निवेश है।
इसकी हालिया रिपोर्ट में जानकारी सामने आई है कि भारत की 30 में से 18 यूनिकॉर्न में चीन की बड़ी हिस्सेदारी है। यूनिकॉर्न एक निजी स्टार्टअप कंपनी को कहते हैं जिसकी कीमत एक अरब डॉलर है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि तकनीकी क्षेत्र में निवेश की प्रकृति के कारण चीन ने भारत पर अपना कब्जा जमा लिया है।
उदाहरण के लिए, बाइटडांस, टिकटॉक की मूल कंपनी है, जो चीन की है और यह यूट्यूब के मुकाबले भारत में काफी लोकप्रिय है।
सामरिक चीनी निवेश पर भारत सरकार थोड़ा सतर्क थी। हाल ही में उसने अपनी नई प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) नीति को यह कहकर टाल दिया कि भारत के साथ ज़मीनी सीमा से जुड़े देशों के सभी निवेशों को निवेश से पहले मंजूरी की आवश्यकता होगी।
कारोबार में चीन को ज़्यादा फ़ायदा
भारत और चीन के बीच कारोबार में किस तरह बढ़ोतरी हुई है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इस सदी की शुरुआत यानी साल 2000 में दोनों देशों के बीच का कारोबार केवल तीन अरब डॉलर का था जो 2008 में बढक़र 51.8 अरब डॉलर का हो गया।
इस तरह सामान के मामले में चीन अमरीका की जगह लेकर भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया।
2018 में दोनों देशों के बीच कारोबारी रिश्ते नई ऊंचाइयों पर पहुँच गए और दोनों के बीच 95.54 अरब डॉलर का व्यापार हुआ।
कारोबार बढ़ रहा है, इसका यह मतलब नहीं है कि फ़ायदा दोनों को बराबर हो रहा है।
भारतीय विदेश मंत्रालय के वेबसाइट के मुताबिक, 2018 में भारत चीन के बीच 95.54 अरब डॉलर का कारोबार हुआ लेकिन इसमें भारत ने जो सामान निर्यात किया उसकी क़ीमत 18.84 अरब डॉलर थी।
इसका मतलब है कि चीन ने भारत से कम सामान खऱीदा और उसे चार गुने से भी ज़्यादा सामान बेचा। ऐसे में इस कारोबार में चीन को फ़ायदा अधिक हुआ है।
चीन में भारत का सामान
भारत चीन को मुख्य रूप से जो चीज़ें बेचता है, वो हैं- कॉटन यानी कपास, कॉपर यानी तांबा, हीरा और अन्य प्राकृतिक रत्न, दवाइयां, आईटी सेवाएं, इंजीनियरिंग सेवाएं।
इसके अलावा चावल, चीनी, कई तरह के फल और सब्जिय़ां, मांस उत्पाद, सूती धागा और कपड़ा भी भारत बेचता है।
यहाँ एक और बात जो ध्यान देने वाली है वो ये कि कई सामान जो हम दूसरे देशों को बेचते हैं उनके लिए कच्चा माल भी हम चीन से खऱीदते हैं जैसे दवाइयाँ।
लेकिन ये भी सच है कि चीन और भारत के व्यापार में संतुलन की कमी है। भारत को अगर किसी देश के साथ सबसे ज़्यादा कारोबारी घाटा हो रहा है तो वह चीन ही है।
यानी भारत, चीन से सामान ज़्यादा खऱीद रहा है और उसके मुक़ाबले बेच बहुत कम रहा है।
2018 में भारत को चीन के साथ 57.86 अरब डॉलर का व्यापारिक घाटा हुआ।
साफ़ है कि चीनी सामान को बाय-बाय करने के पहले भारत को उनके दूसरे सस्ते विकल्प तलाशने पड़ेंगे। (बीबीसी)
आजकल चीन के उत्पादों के बहिष्कार का अभियान चल रहा है। कहा जा रहा है कि भारत के बाजार चीन के सस्ते उत्पादों से भरे हुए हैं और यह हमारे देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान कर रहे हैं। इसी प्रसंग पर मुझे याद आ गया कि एक जमाना वह भी था जब हम चीन को सॉफ्टवेयर यानी जीने का तरीका निर्यात किया करते थे। और मुझे याद आ गए विमलकीर्ति जिन्हें उनके शहर में भी बहुत कम लोग जानते हैं।
यह तस्वीर विमलकीर्ति की है। देखकर समझा जा सकता है कि इसे किसी चीनी पेंटर ने तैयार किया है। चीनी और जापान में उनके लिखे निर्देश सूत्र काफी पॉपुलर हैं। महायान और जेन बुद्धिज्म पर उनके शून्यवाद की गहरी छाप है। और तो और वहां के मठ के कमरे भी उसी आकार के बनते हैं, जिस आकार का कमरा विमलकीर्ति का था।
ह्वेनसांग जब भारत की यात्रा पर आए थे तो खास तौर पर विमलकीर्ति का घर देखने के लिए वैशाली गए थे। वहां ध्वस्त पड़े उनके कमरे का आकार उन्होंने मापा था और तभी से चीन में बौद्ध भिक्षु इसी आकार का यानी 10 बाई 10 फुट का कमरा बनाने लगे। जबकि मुझे नहीं लगता कि वैशाली में भी विमलकीर्ति को लोग ठीक से जानते होंगे।
विमलकीर्ति कोई बौद्ध भिक्षु नहीं थे। वे बुद्ध के समकालीन एक समृद्ध गृहस्थ थे। एक बार जब वे बीमार पड़े तो बड़ी संख्या में लोग उनकी बीमारी का हाल चाल पूछने उनके घर पहुंचने लगे। इस अवसर का लाभ उठाकर वे मिलने वालों को बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को अपने तरीके से बताने लगे। उनके निर्देशों में मौन का बड़ा महत्व बताया जाता है। कहते हैं इसी से शून्यवाद का जन्म हुआ। खासकर बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने इसे दुनिया भर में प्रतिष्ठा दिलाई। उनके निर्देशों की खासियत यह थी कि यह मठों में रहने वाले बौद्धों के साथ साथ गृहस्थों के लिए भी उतनी ही उपयोगी थी। इसी वजह से चीन और जापान के आम पारिवारिक बौद्धों ने इसे अपनाया।
जब विमलकीर्ति उपदेश दे रहे थे तब बुद्ध ने अपने दस प्रमुख शिष्यों को उन्हें सुनने के लिये बारी बारी से भेजा। मगर दसों ने उनके निर्देशों को अपूर्ण बताया। बाद में उन्होंने बौद्ध साधिका मंजूश्री को भेजा। उन्हें विमलकीर्ति की बातें पसंद आईं। विमलकीर्ति और मंजूश्री का वार्तालाप काफी महत्वपूर्ण माना जाता है।
विमलकीर्ति के अलावा नागार्जुन, कुमारजीव, बोधिधर्म जैसे कई भारतीय बौद्ध दार्शनिकों का चीन की संस्कृति पर गहरा प्रभाव रहा है। बोधिधर्म तो वहां के मार्शल आर्ट के भी संस्थापक माने जाते हैं। भले ही आज चीन में बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों की संख्या 20 फीसदी से कम ही है। मगर फिर भी यह काफी बड़ी संख्या है। और जो लोग बौद्ध धर्म को नहीं मानते उनपर भी इस धर्म और इसके बहाने भारतीय दर्शन का गहरा प्रभाव है।
दिलचस्प है कि जिस बौद्ध धर्म ने पूरे एशिया में भारतीय विचारों को स्थापित किया, जिसे लाइट ऑफ एशिया कहा जाता है, वह भारत में ही धीरे धीरे क्षीण हो गया। आज हम ताइवान द्वारा बनाये गए राम और ड्रेगन की तस्वीर को देख कर खुश होते हैं। मगर सम्राट अशोक के धम्म विजय अभियान को भूल जाते हैं। जिनकी वजह से पूरे एशिया में हमारे विचारों की जीत हुई थी। उसे स्वीकारा गया था। कहते हैं चीन के शासकों ने भारत से बौद्ध भिक्षुओं का अपहरण करवा लिया था, ताकि वे बुद्ध के विचारों से अवगत हो सकें।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जैसा कि मैंने कल ही लिखा था कि गलवान घाटी में हुए हमारे सैनिकों के हत्याकांड पर हमारी सरकार चुप क्यों है ? वह अभी तक चुप है। देर रात सिर्फ यह बताया गया कि हमारे 20 फौजी मारे गए और कुछ घायल भी हुए। चीनी सैनिक कितने हताहत हुए, इसके बारे में कोई आधिकारिक आंकड़ा अभी तक सामने नहीं आया है लेकिन भारतीय चैनल और अखबार अंदाज लगा रहे हैं कि चीन के 40 से अधिक फौजी मारे गए हैं।
मरने वाले चीनियों की संख्या दुगुनी है, इस खबर से हमारे घावों पर थोड़ा मरहम जरुर लग सकता है लेकिन एक बात पक्की है। वह यह कि सीमांत पर डटे हुए दोनों देशों के फौजियों के सोच में और दोनों देशों के नेताओं के सोच में काफी फर्क मालूम पड़ रहा है। हमारे नेता तो चुप हैं लेकिन चीनी नेता भी कुछ नहीं बोल रहे हैं। दोनों तरफ के प्रवक्ता जरुर बोल रहे हैं। दोनों एक-दूसरे के फौजियों पर सीमा के उल्लंघन का आरोप लगा रहे हैं।
यदि यह घटना बिल्कुल ऐसी ही है तो दोनों देशों की सरकारें इसे दुर्भाग्यपूर्ण दु:संयोग कह कर आपस में बातचीत शुरू कर सकती हैं। यह मामला इतना गंभीर है कि भारत के प्रधानमंत्री और चीन के राष्ट्रपति को कल ही बात कर लेनी चाहिए थी। यदि कोरोना या अन्य छोटे-मोटे अवसरों के बहाने विदेशी नेताओं से हमारी बातें होती रहती हैं तो यह मुद्दा ऐसा है कि इस पर पूरा भारत उबलने लगा है।
कोरोना के संकट में सरकार पहले से ही बेहाल है, अब विपक्ष को 56 इंच के सीने पर हमला बोलने का नया बहाना मिल गया है। यदि सरकार यह मानती है कि गलवान घाटी के इस कांड के पीछे चीन के शीर्ष नेतृत्व का हाथ है और उसे इसका कोई पश्चाताप नहीं है तो अब उसे विदेश नीति पर एक नई धार चढ़ाने की जरुरत है। चीन से सरकारी स्तर पर व्यापारिक और कूटनीतिक संबंध तो ज्यों के त्यों बनाए रखे जाएं लेकिन जनता सोच-समझकर चीनी माल का बहिष्कार शुरु करे। हम हांगकांग, तिब्बत, ताइवान और सिंक्यांग (उइगर मुसलमानों) का मामला भी उठाएं। ब्रिक्स, एससीओ और आरआईसी जैसे तीन-चार राष्ट्रों के संगठनों में भी, जहां भारत और चीन उनके सदस्य हैं, भारत अपना तेवर तीखा रखे।
पड़ौसी राष्ट्रों को ‘रेशम महापथ’ के जाल में फंसने और चीन के कर्जदार होने से बचाए। दलाई लामा पर लगे सभी प्रतिबंध हटाए। चीन यदि अरुणाचल को खुद का बताता है तो हम तिब्बत, सिंक्यांग और इनर मंगोलिया को आजाद करने की बात क्यों नहीं कहें? चीन यदि हमारे अरुणाचलियों को वीज़ा नहीं देता है तो हम तिब्बत, सिंक्यांग और इनर मंगोलिया के हान चीनियों को वीजा देना बंद करें। भारत में चीन ने 26 बिलियन डॉलर की पूंजी लगा रखी है। उसे हतोत्साहित किया जाए। लेकिन इस तरह के उग्र कदम उठाने के पहले हमारे विदेश मंत्रालय को चीन के असली इरादों की पहचान जरूर होनी चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)