विचार/लेख
का हो मोदीजी महाराज, आपको सिक्किम, लद्दाख सब याद रहता है, हमारे बिहारे को भुला जाते हैं ?
क्या हुआ, सुशासन बाबू ? माथा इतना गर्म क्यों है ? आप तो हमारे एन.डी.ए के सबसे मजबूत सहयोगी हैं।
तो ओली जी का कुछ करते क्यों नहीं ? पहले उन्होंने बिहारियों पर गोली चलवाई। हमने बर्दाश्त कर लिया। अब वो बिहार को डुबा मारने पर तुल गए हैं। आपको पता हईए है कि हर बरसात में नेपाल से आने वाले पानी से हमारा आधा बिहार डूबता है। इस साल तो ओली जी नदी के आसपास की ज़मीन अपनी बताकर बांध की मरम्मत भी नहीं करने दे रहे। हमारे इंजीनियर और ठीकेदार सब को कूट-कूट के खदेड़ दे रहे हैं। बताईये, अब प्रलये नू आएगा बिहार में ?
तो इसमें समस्या क्या है ? वो नेपाल का पानी बिहार में घुसाते हैं। आप बिहार का पानी नेपाल में घुसा दीजिए। हिसाब बराबर।
ऐ महाराज, ई तक्षशिला वाला भूगोल मत पढाईए न हमको। बिहार में कोई पानी-वानी नहीं पैदा होता। इधर का पानी नेपाल के पहाड़ से उतरता है। दुनिया भर में आपकी डिप्लोमेसी का डंका बज रहा है। दो बित्ते के नेपाल के सामने आप हरदी-गुरदी काहे बोल गए हैं ?
अब क्या कहें नीतीश जी, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी पूरी तरह जिनपिंग के प्रभाव में है। हमारी कुछ सुन ही नहीं रहे हैं ओली जी।
तो सीधे जिनपिंगवा को ही काहे नहीं धरते हैं ? ससुरा को अहमदाबाद में झूला कवनो मंगनी में झुलाए थे का ? उसको फोन करके ओली जी के दिमाग का स्क्रू कसवाईए। और ऊ नार्थ कोरिया वाला किमवा जिंदा है कि मर गया ? उससे भी एक धमकी दिलवा सकते हैं। साफ कहे देते हैं कि अबकी बिहार को डुबाए तो बिहार में एन.डी.ए को भी डूबल ही समझिए!
जिनपिंग और किम ट्रंप की नहीं सुनते तो हमारी क्या सुनेंगे ? ऐसा कीजिए कि इस बार बिहार को डुब जाने दीजिए। अगले साल पूरे बिहार-नेपाल बॉर्डर पर हम पत्थरों की दस फीट ऊंची दीवार खड़ी कर देंगे। हमेशा के लिए बाढ़ का झंझट ही ख़त्म।
धन्य हैं प्रभु, लेकिन इतना सारा पत्थर कहां से उठावा कर लाईयेगा ? गलवान से कि नाथूला से?
अरे नीतीश जी, बाढ़ और बर्बादी के बाद अक्टूबर के बिहार चुनाव में प्रदेश भर के लोग जो ढेला-पत्थर फेकेंगे आपकी चुनाव सभाओं में, वो किस दिन काम आएगा ? कम से कम आपदा में अवसर खोजना तो सीख लीजिए हमसे!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह हमारे लोकतंत्र की मेहरबानी है कि इस संकट की घड़ी में चीन का मुकाबला करने की बजाय हमारे राजनीतिक दल एक-दूसरे के साथ दंगल में उलझे हुए हैं। टीवी चैनलों पर जैसी अखाड़ेबाजी हमारे राजनीतिक दलों के प्रवक्ता करते रहते हैं, वह उन टीवी चैनलों का स्तर तो गिराती ही है, हमारी जनता को भी गुमराह करती रहती है। जरा हम चीन की तरफ देखें। क्या गलवान घाटी की खूनी मुठभेड़ पर वहां नेताओं, टीवी चैनलों या अखबारों के बीच वैसा ही दंगल चलता है, जैसा हमारे यहां चल रहा है ?
इसका मतलब यह नहीं कि सरकार के हर कदम का आंख मींचकर समर्थन किया जाए या उसकी भयंकर भूलों की अनदेखी कर दी जाए लेकिन आजकल कांग्रेस के नेता भाजपा के नेताओं, खासकर प्रधानमंत्री के लिए जिस तरह के शब्दों का प्रयोग करते हैं, वैसा करके वे अपना ही अपमान करवाते हैं। (nayaindia.com)
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने मोदी को पत्र लिखकर उसमें सावधानी रखने का जो सुझाव दिया, वह ठीक ही था लेकिन सोनिया गांधी और राहुल गांधी जिस तरह से चीन को जमीन सौंपने के आरोप मोदी पर लगा रहे हैं, वे सर्वथा अनुचित हैं।
कोई कमजोर से कमजोर भारतीय प्रधानमंत्री जो हिमाकत नहीं कर सकता, उसे मोदी पर थोप कर कांग्रेसी नेता किसे खुश करना चाहते हैं ? गलवान की स्थानीय और तात्कालिक फौजी मुठभेड़ को भस्मासुरी रंग में रगना और जनता को उकसाना आखिर हमें कहां ले जाएगा ? क्या कांग्रेसी नेता यह चाहते हैं कि भारत और चीन के बीच युद्ध हो जाए ? क्या ऐसा होना भारत के हित में होगा ? यदि ऐसा न भी हो तो क्या जनता को भडक़ाना ठीक होगा ? देश कोरोना से लड़ेगा या चीन से ? भारत और चीन का मामला अभी बातचीत से सुलझ रहा है तो उसे क्यों नहीं सुलझने दिया जाए ? यदि कांग्रेस भाजपा पर प्रहार करेगी तो भाजपाई भी गड़े मुर्दे उखाडऩे में संकोच क्यों करेंगे ? वे नेहरु सरकार को डॉ. लोहिया की भाषा में राष्ट्रीय शर्म की सरकार कहेंगे और इंदिरा गांधी की सारी उपलब्धियों को ताक पर रखकर उन्हें आपात्काल की ‘काली’ कहेंगे और गरीबी हटाओ वाली ‘झांसे की रानी’ कहेंगे।
तात्कालिक मुद्दों पर घटिया बहस छेडक़र हम भारत की नई पीढिय़ों को गलत मार्ग पर ठेलने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा, दोनों के नेता आपस में मिलकर सार्थक संवाद क्यों नहीं करते? दोनों यदि इसी तरह सार्वजनिक दंगल करते रहे तो माना जाएगा कि वे कुल मिलाकर चीन के हाथ मजबूत कर रहे हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
राजेन्द्र माथुर को तो नहीं मगर उनके लेखन को 'नई दुनिया ' के माध्यम से तब से जानना शुरू किया,जब हायरसेकंडरी का छात्र था और अखबार और उसमें छपे संपादकीय को पढ़ने में रुचि जाग चुकी थी। तब इन्दौर से अखबार तो तीन या चार छपते थे- ' इन्दौर समाचार, '(कांग्रेसी), 'जागरण 'दैनिक वाला नहीं) तथा ' स्वदेश' (संघी) का स्पष्ट स्मरण है मगर पूरे प्रदेश में तूती केवल 'नई दुनिया' की बोलती थी। गुणवत्ता और छपाई- सफाई में हिंदी के दूसरे अखबारों से वह मीलों आगे था।भोपाल तक उसका राजनीतिक रसूख कायम था। उसमें राजनीतिक दृष्टि से क्या छपा, क्या नहीं छपा,यह ध्यान से देखा जाता था। यह और बात है कि दूसरे अखबारों की तरह यह भी सत्ता से पंगा नहीं लेता था।स्थानीय प्रशासन से भी यह बना कर रखता था।हाँँ परसाई जी और शरद जोशी अपने स्तंभों में जो चाहें,जिस प्रकार लिखें।
तब मेरे लिए ही क्या हम सबके लिए राजेन्द्र माथुर और 'नई दुनिया'' एकदूसरे के पर्याय थे।राहुल बारपुते संपादक थे और बाद में जाना कि बड़े दिलदिमाग के, संगीत-कला रसिक मनमौजी इनसान थे मगर नाम से लिखने में शायद उन्हें रुचि नहीं थी। वैसे उन्होंन' नई दुनिया ' से माथुर साहब को जोड़कर उनकी प्रतिभा को चमकने का मौका दिया था और अंततः माथुर साहब 'नई दुनिया' के प्रधान संपादक बनाने में सहायक बने। पाठक तो लेकिन उसीको पहचानता है,जो लिखता,छपता है और पढ़ा जाता है।तो छवि थी, माथुर साहब की थी।काफी अरसे तक वह इन्दौर के गुजराती कालेज में वह अंग्रेजी पढ़ाते रहे और पार्ट टाइम ' नई दुनिया' में काम भी करते रहे मगर ऐसा लगता है, शायद तब भी संपादकीय वही लिखा करते थे।।कभी दो या तीन संपादकीय होते थे,कभी एक ही सुदीर्घ संपादकीय।सप्ताह में एक दिन संभवतः रविवार को वह अपने नाम से आलेख लिखते थे।पहले सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय घटनाचक्र पर ,बाद में सभी विषयों पर।उनके संपादकीय और उनके आलेख पढ़े बिना मैं नहीं रह सकता था।वह तब विशुद्ध नेहरूवादी थे। । यह दुनिया, मध्य प्रदेश और भारत से आगे भी है,इसका आरंभिक समझ मुझे माथुर साहब से मिली। इस दुनिया में केवल अमेरिका और यूरोप नहीं है, अफ्रीका और लातीनी अमेरिकी देश भी हैं, उत्तर भारत ही नहीं, दक्षिण भारत भी है और दक्षिण भारतीय होना यानी मद्रासी होना नहीं है,यह समझ मिली।उन्होंने तब कहीं लिखा था कि जब भी अमेरिका में रिपब्लिकन राष्ट्रपति आता है, वह भारत के लिए अधिक सकारात्मक होता है।इस प्रस्थापना ने शायद चौंकाया था,इस कारण यह आज भी याद है।तब तो उनसे असहमत होने लायक समझ नहीं थी मगर जब असहमत होने लायक बुद्धि विकसित हुई, तब भी उन्हें पढ़ना जरूरी लगता रहा।उनकी बातों से सहमत हों या नहीं,उनके पास भाषा की जो रवानगी थी,बाद में किसी के पास नहीं दिखी।खासकर नवभारत टाइम्स के उनके वर्षों को याद करूँ तो उनकी अपनी जो सोच रही हो,उन्होंने संपादकीय पृष्ठ को लगभग हर विचारधारा के लोगों के लिए खुला रखा था- संघियों के लिए भी।
एक बार पता चला कि वह महाराष्ट्र मंडल के गणेशोत्सव कार्यक्रम में एक व्याख्यान देने वह शाजापुर आने वाले हैं तो मैं बहुत खुश हुआ मगर न जाने क्या हुआ कि वह नहीं आए।लिखने के अलावा वह तब अपने व्याख्यानों के लिए भी प्रसिद्ध थे।एक बार पता नहीं किस सिलसिले में उन्होंने गर्व से कहा था कि उनकी हैसियत मध्य प्रदेश में डे'मी गाड' की थी।
उनसे मेरी पहली मुलाकात 1970 में हुई,जब पत्रकारिता का भूत मेरे सिर पर सवार हो चुका था।योजना यह थी कि इन्दौर के किसी कालेज में पढ़ूँगा और 'नई दुनिया ' में काम करके खर्च निकालूँगा।नौकरी के लिए शाजापुर के वकील और कवि रामनारायण माथुर का पत्र माथुर साहब के पास ले गया था।शायद इन दोनों की शायद कोई दूर की रिश्तेदारी थी।माथुर साहब ने पत्र देखा।फिर अमेरिका की एक खबर का अनुवाद करने को दिया।माथुर साहब को अनुवाद में एक गलती नजर आई कि मैंने 'सेक्रेटरी आफ स्टेट' का अनुवाद' राज्य विभाग के सचिव' किया था।इसके बावजूद माथुर साहब मुझे रखने के पक्ष में थे।उन्होंने अखबार के मालिक अभय छजलानी से कहा कि इस लड़के के अनुवाद में बस एक गलती है मगर तब संसद या विधानसभा का सत्र चल रहा था और अभय जी ने कहा कि इस समय इनका अनुवाद देखने की फुरसत किसे होगी? मुझे एक महीने तक घर पर रह कर अनुवाद करने का अभ्यास करके आने के लिए कहा गया पर,इरादा बदल चुका था। वैसे भी ' नई दुनिया'' वाले मेरे लिए बेताब नहीं बैठे थे कि एक महीने बाद पूछते कि विष्णु नागर जी,तैयारी कर ली हो तो कृपया ज्वाइन कर लीजिए।आपके बगैर अखबार नहीं निकल पाएगा।
नवभारत टाइम्स में काम करने के दौरान इन्दौर में उनसे दो मुलाकातों की याद है।एक मुलाकात कवि सोमदत्त के निवास पर हुई थी और दूसरी 'नई दुनिया' कार्यालय में।सोम जी उस समय पशु चिकित्सा विभाग में वहाँ वरिष्ठ पद पर तैनात थे।माथुर साहब से उनका मैत्रीपूर्ण संबंध था।मैं सोमजी के यहाँ पहुँचा, तब वे माथुर साहब को अपने विषय से संबंधित कुछ तकनीकी बातें बता रहे थे और माथुर साहब अच्छे जिज्ञासु छात्र की तरह सुन रहे थे और बीच-बीच में कुछ सवाल भी करते जा रहे थे। 'नई दुनिया ' में उनसे न जाने दुनिया -जहान की न जाने क्या- क्या बातेंं आधा-पौन घंटे तक होती रहींं, याद नहीं। मैं जब वहाँ से रवाना होने लगा तो उनसे इतने कनिष्ठ को भी वह बाहर तक छोड़ने आए, जिस कारण मैं बहुत संकोच में पड़ा।मैंने मना किया बार बार मगर वे नहीं माने।
बाद में उनके रहते 1984 में दुबारा मैं नवभारत टाइम्स आया।तब ' नवभारत टाइम्स ' अपनी श्रेष्ठता के शिखर पर था।माथुर साहब के संपादन के वे वर्ष-जिसने भी तब उनके साथ काम किया- पत्रकारिता के स्वर्ण युग कहे जा सकते हैं।उनके दौर में जो अखबार में पहले से थे, काम जानते थे और जो काम करना चाहते थे,उनके लिए बेहतरीन अवसर थे।उस दौरान विभिन्न आयु और अनुभव के बहुत से लोग लाए गए। मधुसूदन आनंद दुबारा आए।राजकिशोर, आलोक मेहता, प्रकाश दुबे, विष्णु खरे, उर्मिलेश,शाहिद मिर्जा आदि कई आए। कुछ दिल्ली में,कुछ बाहर। मेहरुद्दीन खाँ भी उनमें थे।वह स्कूल मास्टरी छोड़कर तभी पत्रकार में आए थे और कृषि पर उन्होंने खूब लिखा।इसके अलावा मेहरुद्दीन खाँँ उस समय 'कबीर चौरा ' नाम से समसामयिक राजनीति पर रोज चुटीली कुंंडलियाँँ लिखते थे ।गुणाकर मुले विज्ञान पर लिखते थे। हिंदी की लगभग सभी श्रेष्ठ प्रतिभाएँ "तब छपती थीं।तब का संपादकीय पृष्ठ बहुत पठनीय था।' आठवां कालम' उसी समय शुरू हुआ। शरद जोशी का व्यंग्य स्तंभ ' प्रतिदिन' भी।और शायद यह पहला अखबार था,जिसके पाठक पहले पिछले पृष्ठ पर छपा शरद जी का स्तंभ पढ़ते थे ,बाद में प्रथम पृष्ठ पर आते थे।न जाने कितनी तरह की नई पहल उस समय हुई।मैंने भी उस दौर में खूब लिखा।एक समय तक संपादकीय पृष्ठ भी देखा,जिसमें पाठकों के पत्रों के चयन-संपादन तक ही मेरा अधिकार क्षेत्र सीमित था।तब पाठ खूब पत्र लिखते थे और अखबार में उनके लिए जगह भी बहुत होती थी।इस काम में मुझे खूब आनंद आया।बाद में विशेष संवाददाता का काम भी काफी समय तक किया।तब दिनभर घूम कर शाम को और कभी रात दस बजे तक भी खबर देते थे।आज की तरह हड़बड़ाहट नहीं थी।
संयोग से उसी दौर में कई पुराने लोग रिटायर हुए,इस कारण भी बहुत से नये लोगों को इस अखबार से जुड़ने का मौका मिला।उस समय प्रभाष जोशी के संपादन में ' जनसत्ता' नया- नया निकला था और वह भी अपने ताजे -टटकेपन के कारण ' नवभारत टाइम्स ' के अस्तित्व के लिए चुनौती बन रहा था। अगर उस समय माथुर साहब जैसा संपादक न होता,अखबार अपने पुराने ढर्रे पर चल रहा होता तो शायद डूब जाता।माथुर साहब से पहले और आपातकाल के बाद अज्ञेय जैसे बड़े नामी संपादक भी आए मगर वे अपनी कोई छाप न छोड़ पाए।विद्यानिवास मिश्र को भी माथुर साहब-एसपी सिंह के बाद न क्या सोच करलाया गया था जबकि यह उनका क्षेत्र नहीं थाः पत्रकारिता का क-ख भी नहीं आता था । माथुर साहब के समय काम करने का उत्साह बहुत था क्योंकि छूट भी बहुत थी।अखबार की बढ़ती प्रतिष्ठा भी उत्साह बढ़ाती थी।एक दो बार अखबार के संपादकीय पृष्ठ के कर्ताधर्ता ने बहुत आपत्तिजनक और मूर्खतापूर्ण चीजें छापीं और मैंने आपत्ति दर्ज की तो उस पर गौर करके उनके कदम उठाया। आतंकवाद के दौर में मैं पंजाब गया और मुझे तो समझ नहीं थी मगर माथुर साहब ने कंपनी से मेरा जीवन बीमा करवाया।
माथुर साहब की पत्रकारिता की योग्यता असंदिग्ध थी।उनमें विनम्रता और आत्मविश्वास दोनों की कमी नहीं थी।विनम्रता का यह हाल कि न्यूज डेस्क पर उनके आने तक कोई नहीं आया तो हायतौबा मचाने की बजाय उपमुख्य संपादक की कुर्सी पर बैठकर खुद खबरें छाँटने लगते थे।कोई बात करनी है तो किसी की भी सीट पर आकर, उसके सामने बैठ कर चर्चा करने में उन्हें समस्या नहीं थी।वह कम्युनिस्ट कभी नहीं रहे मगर व्यवहार में एक तरह की कामरेडरी थी। जब एस पी सिंह दिल्ली कार्यकारी संपादक बनाए गए तो यह समझा जाने लगा और यह झूठ भी नहीं था कि अब यहाँ दो पावर सेंटर बन जाएँगे।उन्हें समझाया गया कि एसपी उनके लिए खतरा बन सकते हैं मगर वह चिंतित नहीं हुए।वह जानते थे कि उनके लेखन और व्यक्तित्व में जो ताकत है,उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता।इस कारण कम से कम सीधे टकराव की स्थिति तो नहीं आई,अंदरूनी बात मुझे नहीं मालूम।दोनों अपने कार्यक्षेत्र में अपने ढँग से काम करते रहे।एसपी ने पिछड़ों को आरक्षण देने के विश्वनाथ प्रताप सिंह के फैसले के अलावा शायद ही कभी कुछ अपने अखबार में लिखना जरूरी नहीं समझा.हो।हाँ 'द इकनॉमिक टाइम्स' में वह जरूर साप्ताहिक स्तंभ लिखा करते थे।
कुछ समस्याओं के साथ, अखबार अच्छा चल रहा था। अंग्रेजी के बड़े पत्रकार भी 'नवभारत टाइम्स' का नोटिस लेने लगे थे,जबकि पहले कोई कौड़ियों के भाव भी नहीं पूछता था मगर नई पीढ़ी के मालिक संपादक की जगह प्रबंधन को हावी करने के रास्ते पर चल पड़े थे। दो -तीन घटनाएँ ऐसी हुईं,जो माथुर साहब के लिए अपमानजनक थीं,फिर भी वह हताश नहीं थे। एक बार उनके और सुरेन्द्र प्रताप सिंह के संयुक्त निर्णय और प्रबंधन की सहमति से शारजाह क्रिकेट कवर करने भेजे गए परवेज़ अहमद को बीच में वापिस बुलाने की जिद कंपनी के उपाध्यक्ष समीर जैन ने ठान ली और मजबूरन उन्हें बुलाना पड़ा।इससे दोनों वरिष्ठ काफी आहत हुए।फिर नवभारत टाइम्स का कद छोटा करने के लिए हिंदी में अनूदित 'द टाइम्स ऑफ इंडिया' प्रकाशित करने का निर्णय प्रबंधन ने लिया और विष्णु खरे के नेतृत्व में एक टीम भी खड़ी की गई।फिर एक वरिष्ठ सहयोगी ने उनके कक्ष में जाकर उनसे असहनीय व्यवहार किया,ऐसी खबर भी है।संस्थान में ओम्बड्समैन नियुक्त करने का आइडिया लागू किया गया। था। उस अवसर पर एक भव्य कार्यक्रम पाँँच सितारा होटल ओबेरॉय मेंं हुआ।उसमें कुछ महीनों के प्रधानमंत्री चंद्रशेखर मुख्य अतिथि थे।माथुर साहब जैसा गरिमामय आदमी किसी का भी अपमान करे,इसकी कल्पना करना मुश्किल है मगर माथुर साहब की हल्कीफुल्की मजेदार, टिप्पणी -जो प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के विलंब से आने पर थी- नागवार गुजरी।चंद्रशेखर ने मंच से ही कुछ ऐसा कहा कि क्या आप प्रधानमंत्री को अपमान करने के लिए यहाँ बुलाते हैं?इस टिप्पणी से माथुर साहब बहुत बेचैन हुए।उन्होंने मुझ समेत कई साथियों से पूछा कि क्या मैंंने कोई अपमानजनक बात कही थी?शायद प्रबंधन भी इस घटना से खुश नहीं था। ये सब सदमे उन्हें लगभग एकसाथ लगे। ये सब शायद माथुर साहब को दिल का दौरा पड़ने और अचानक मृत्यु के कारण बने होंगे।जब 9 अप्रैल,1991 को ग्यारह-बारह बजे उनके अस्वस्थ होने का संदेश अखबार के दफ्तर में आया तो कम से कम मैंने सोचा कि हो गया होगा छोटामोटा कुछ।इसके कुछ घंटे बाद उनके न रहने की खबर आई और यह साधारण खबर नहीं थी।तब उनकी उम्र ही क्या थी-मात्र 56 साल।उसके बाद एसपी सिंह ने कुछ समय के लिए कार्यभार संभाला।तब तक राजेन्द्र माथुर के 'नवभारत टाइम्स | की झलक मिलती रही।फिर तो प्रबंधन ही सबकुछ होता गया और आज पता नहीं कितनों को मालूम होगा कि इस. अखबार का संपादक कोई है या नहींं है?अब यही क्या बाकी बड़े अखबार भी प्राडक्ट हैं और संपादक, दरअसल संपादन प्रबंधक है। संपादक की नौकरी की तब तक गारंटी है,जब तक कि वह सार्वजनिक रूप से चुप रहे,लिखे नहीं,या सत्ता के समर्थन में लिखे,जो वास्तव में हो रहा है,उससे उदासीन रहे। और यह अब परंपरा सी बन गई है ।प्रबंधक के हाथों सुरक्षित ' नवभारत टाइम्स ' आदि कोरोना से पहले तक कमाई की दृष्टि से फलफूल खूब रहे थे यानी मालिकों की रणनीति कमाई की दृष्टि से सफल थी।आगे भी संभवतः यह इसी तरह फले -फूले ।अब किसी अखबार को राजेन्द्र माथुर नहीं चाहिए। दिनमान जैसा समाचार साप्ताहिक नहीं चाहिए, रघुवीर सहाय नहीं चाहिए, जिन्हें तभी अनुपयोगी समझा जाने लगा था।यह मान लिया गया है कि हिंदी के पाठक को हल्काफुल्कका मनोरंजक कुछ चाहिए।उसकी तार्किक-वैज्ञानिक समझ को विकसित करना व्यवसाय के लिए घातक है।उसे भांग और अफीम चाहिए। लगभग हर बड़ा अखबार यही दे रहा है और बड़ा बना हुआ है।एक बार टाइम्स समूह के एक बड़े अधिकारी ने बयान दिया था कि विज्ञापनों के बाद बची खाली जगह में जो चेंपा जाता है,उसे खबर कहते हैं।यही अब सिद्धांत है।उन्होंने यह बात बेधड़क होकर कह दी थी,दूसरे शायद इस तरह कहना नहीं चाहते मगर कर के दिखाना चाहते है और दिखा रहे हैं।
‘जनसत्ता’ के पूर्व संपादक प्रभाष जोशी ने यह लेख वर्ष 1996 में भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह से मुलाकात के बाद लिखा था
वह सर्दियों की शाम थी. एक, तीन मूर्ति के बंगले से बाहर निकलते हुए मुझे लगा कि अंदर से भर गया हूं. एक तरह की आत्मीयता से. लगा कि किसी दोस्त के साथ घंटा भर बतियाकर तनावमुक्त और प्रसन्न हूं. दिल्ली में ऐसे मौके आप कहें तो उंगलियों पर गिन सकता हूं.
नई दिल्ली के उस इलाके में पिछले अट्ठाइस सालों में कई नामी और सत्तावान लोगों से मिलना हुआ है. यह नहीं कि राजनीतिक लोगों से बात करना उनके साथ हमेशा शतरंज खेलना ही हो. अगर संवाद का सही तार मिल जाए तो जिनके बारे में कहा जाता है कि उनका दाहिना हाथ नहीं जानता कि बायां क्या कर रहा है, वे भी अपने अंदर की और ऐसे पते की बात कह जाते हैं कि आप को और सुनने वाले को लगे कि अरे ये तो अपने इतने आत्मीय हैं. लेकिन मिनट भर बाद ही लगता है कि वह तो कोई बिजली थी जो कौंध कर चली गई और अब आप अंधेरे में उस आदमी को ढूंढ़ रहे हैं जो पल भर पहले आपको इतना अपना लगा था.
मेरी उस शाम विश्वनाथ प्रताप सिंह से बात हुई थी. उस भूतपूर्व प्रधानमंत्री से नहीं जिसे कई लोग कपटी, कुटिल, काइयां और राजनीतिबाज कहते नहीं थकते. एक ऐसे वीपी सिंह से जिसे मैं पहले नहीं जानता था. जो कवि है, चित्रकार है और जीवन के बारे में ऐसी बोली और मुहावरे में बात कर सकता है जो हमारी राजनीति ही नहीं सार्वजनिक जीवन में भी सुनाई नहीं देती.
लेकिन वह शायद विश्वनाथ जी में एक कवि और चित्रकार का अविष्कार नहीं था जो मुझे भीतर से छू गया. वह शायद एक ऐसे व्यक्ति की रचनात्मक ऊर्जा थी जो देख चुका है कि शाम घिरने लगी है. उजाले की कुछ घड़ियां डूबता सूरज अपने लिए छोड़ गया है. इन घड़ियों में कुछ ऐसा करो जो पहले दूसरे कई बुलावों, दबावों और मजबूरियों के कारण कर नहीं पाए. लेकिन इस ‘सब करने’ में कहीं कोई हताशा, कोई जल्दबाजी या हड़बड़ी नहीं है. कोई भय या लालच नहीं है. सृजन की अपनी एक लय होती है. वह काल और स्थान से उतनी संचालित नहीं होती, जितनी कि रचना के अपने उत्स से. उस शाम विश्वनाथ प्रताप सिंह में एक ऐसे सर्जक से मुलाकात हुई जो अपने आसपास की उठापटक, गहमागहमी और उखाड़-पछाड़ से ही नहीं अपने से चिपकी सत्ता, प्रसिद्धि और कीर्ति से भी ऊपर उठ गया हो.
जिस कमरे में बैठे हम बात कर रहे थे उसकी दीवारों पर विश्वनाथ के बनाए स्केच और पेंटिंग टंगे हुए थे. बीच में उनने एक कविता सुनाई थी जो ‘मैं और मेरा नाम’ पर थी और कुछ ऐसे शुरू हुई थी कि - एक दिन मेरा नाम मुझसे अलग होकर पूछने लगा... - इसे सुनते हुए मुझे लगा कि जैसे वे विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपने से अलग हुआ देख चुके हैं और दुनिया के वीपी सिंह से अपने आत्म तत्व को अलग देखकर उससे संवाद कर रहे हैं.
थोड़ी बहुत कविता अपन ने पढ़ी है, उससे थोड़ी कम समझता भी हूं लेकिन सुख के हों या त्रास के, सबसे सघन क्षणों में मुझे कविता ही याद आती है. उस शाम विश्वनाथजी की वह कविता मुझे बहुत भायी और छू भी गई. वह शायद उनकी सबसे अच्छी कविता न हो. हाल ही में आए उनके कविता संग्रह ‘एक टुकड़ा धरती, एक टुकड़ा आकाश’ में वह है भी कि नहीं, मैंने देखने की कोशिश नहीं की. कई बार किसी मनःस्थिति विशेष में आप कोई कविता सुनें और तब उसका जो अर्थ आपके सामने खुले और वह आप को जितना छू जाए जरूरी नहीं कि वह हमेशा आप को वैसा ही लगे.
उस शाम मुझे मालूम था कि विश्वनाथ प्रताप सिंह को ऐसा रोग है जिसका कोई उपचार नहीं. जो इलाज है या किया जाता है वह भी शरीर को कष्ट देकर नष्ट करने वाला ही है. उस रोग को माइलोमा कहा जाता है. इसमें रक्त के सफेद और लाल सेल्स मरने लगते हैं. हड्डियों के जोड़ों में जो बोन मैरो होते हैं और जहां से सेल्स बनते हैं वही बिगड़ जाता है.
ढाई साल पहले अमेरिका के डॉक्टरों ने उनकी जांच करके कीमोथैरेपी जैसा करने को कहा था. लेकिन ब्रिटेन के डॉक्टरों ने उनकी जांच रपटें देखकर कहा कि जो उपचार रोग बहुत बढ़ जाने पर किया जाता है, उस बमबारी को आप अभी से क्यों करते हैं. गड़बड़ी तो हो गई है लेकिन जरूरी नहीं कि आपके शरीर में भी उतनी तेजी से फैले जैसी दूसरे किसी के बदन में बढ़ सकती है. इसलिए देखिए कि रोग क्या करता है. कीमोथैरेपी तो अंतिम उपचार है, उससे शुरुआत क्यों करनी चाहिए? हमारी राय है कि अभी आप निगरानी में रहें.
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने वापस लौटकर बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके बता दिया था कि उन्हें क्या रोग है और उन्हें क्या-क्या सावधानियां बरतने के लिए कहा गया है. लेकिन, राजनीति में रहते और करते हुए जीवन शैली इस तरह बदली तो नहीं जा सकती. अपने रोग के बारे में कितनी जानकारी उनने कर ली है इसका साक्षात दर्शन उस दोपहर को डॉक्टरों के सामने हुआ जब वे बाईपास के बाद मुझे देखने बंबई अस्पताल आए. कुछ जवान डॉक्टरों का उनकी मेडिकल जानकारी पर चकित होना जैसे उनके चेहरों पर छपा हुआ था.
उसी बातचीत के दौरान एक सीनियर डॉक्टर ने उस उपवास की बात बताई जिस पर वीपी सिंह मुंबई में बैठ गए थे. तब रक्त में उनकी शर्करा इकतालीस तक नीचे उतर गई थी जो कि खतरे का स्तर है. वे डॉक्टर दौड़े-दौड़े आए थे और उनने विश्वनाथजी को जबरदस्ती खिचड़ी खिलाई थी. तभी उनने राज की यह बात बताकर सबको स्तब्ध कर दिया था कि किसी ने उनसे टेलीफोन पर कहा था कि वीपी को मर जाने देने का वे कितना पैसा देंगे. वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री होते हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह के राज में कई व्यापार घरानों और व्यापारियों में आतंक छा गया था. कोई चाहता था कि वह आतंक फैलाने वाला हमेशा के लिए शांत हो जाए.
उस आमरण उपवास के दौरान ही वीपी सिंह की शर्करा इतनी कम हो जाने के कारण उनके गुर्दे स्थायी रूप से खराब हो गए. फिर हुआ प्लाज्म सेल डिसक्रिसिया जिसका दूसरा नाम माइलोमा है. फिर भी वे राजनीति में सक्रिय रहे और आंध्र-कर्नाटक में जनता दल के जीतने के बाद उनने चुनावी राजनीति से पांच साल के संन्यास की घोषणा की. फतेहपुर की अपनी लोकसभा सीट से भी इस्तीफा दे दिया. कहा कि जब हमारी पार्टी मुश्किल में थी तब नहीं छोड़ा उसे. जब उसकी हालत कुछ बेहतर हुई तभी चुनावी राजनीति से संन्यास लिया.
फिर भी पिछले साल अगर वे बिहार और ओडीशा आदि के चुनाव अभियान में नहीं लगते और जैसा डॉक्टरों ने बताया था वैसा संयमित और नियमित गतिविधियों वाला जीवन जीते तो कुल हालत संभली हुई रहती. लेकिन उस चुनाव अभियान में उन्हें लगना पड़ा. उसी के दौरान उनने कहा था कि बिहार में हम जीतेंगे और इस बार लालू अपने बहुमत से आएंगे. लेकिन हम ओडीशा में हार जाएंगे. तब सारे चुनाव सर्वेक्षण और भविष्यवाणियां इससे उलट बातें कर रही थीं. नतीजे आए तो विश्वनाथ प्रताप सिंह सही निकले.
इस साल के लोकसभा चुनाव में वे न अभियान में सक्रिय रह सकते थे, न उनकी इच्छा थी. फिर भी जितना बना, किया. चुनाव के पहले उनने कहा था कि कांग्रेस तो हार जाएगी, लेकिन भाजपा जीतेगी नहीं. और परिवर्तन की ताकतें भाजपा को सरकार नहीं बनाने देंगी. आप जानते हैं कि तेरह पार्टियों का संयुक्त मोर्चा बनाने और फिर पहले ज्योति बसु और फिर देवगौड़ा को उनका नेता बनाने में विश्वनाथ प्रताप सिंह की क्या भूमिका रही है. सही है कि यह मोर्चा उन्हीं को नेता बनाकर राजतिलक करना चाहता था. वे किसी भी सूरत में तैयार नहीं हुए. ‘नहीं, इस बार हम नहीं मानने वाले. पिछली बार जो हुआ सो हुआ. हम अपनी विश्वनीयता नहीं खोएंगे. फिर हंस कर कहा – आप ही लिखेंगे कि वीपी सिंह अविश्वसनीय है.’
‘वह तो वीपी सिंह ने मुझे बनवा दिया. नहीं तो अपनी तो कोई तैयारी थी ही नहीं. अपन कर्नाटक में ही ठीक थे’ – देवेगौड़ा ने विश्वास मत जीतने के बाद कहा. और अपन ने हंसकर सुझाया कि आप उत्तर भारत के लिए नए हैं. इसलिए राजनीति वीपी सिंह और चंद्रशेखर के लिए छोड़ दीजिए और स्वयं प्रशासन पर ध्यान दीजिए. बाद में वीपी सिंह को मैंने कहा कि देवेगौड़ा को मैं ऐसा कहकर आया हूं और उनने जवाब दिया कि देखिए, प्राइमिनिस्टिर को प्राइमिनिस्टर होना ही चाहिए. उनके लिए कोई और राज नहीं चला सकता. हमारी अब कतई इच्छा नहीं कि सरकार के काम में पड़ें. कोई काम करवाने, रुकवाने में हम नहीं पड़ेंगे. हम अपनी पेंटिंग करेंगे, कविता लिखेंगे और उन मामलों पर दो टूक बोलेंगे जो हमें ठीक लगते हैं. उन कामों में पड़ेंगे जो समाज को, राजनीति को बना सकते हैं.
लेकिन, अखबारों में पढ़ता हूं कि जिस सरकार को उनने बनवाया और जो उनके कहने से प्रधानमंत्री चुने गए - उस सरकार और प्रधानमंत्री से वे आजकल नाराज चल रहे हैं. क्योंकि देवेगौड़ा उनकी सुनते नहीं और सरकार उनका किया करती नहीं. इस उपेक्षा से चिढ़े हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार की आलोचना भी करते हैं और ऐसे मामले भी उठाते फिर रहे हैं जो इस सरकार और इस प्रधानमंत्री को शर्मिंदा करे. उन्हें सीख भी दी जा रही है कि जब वे संन्यास ले चुके तो राजनीति के मामलों पर अपने उच्च विचार क्यों प्रकट करते हैं. ‘मैंने चुनावी राजनीति से संन्यास लिया है. चुप होकर बैठ जाऊं तो क्या नागरिक होने की अपनी भूमिका भी निभा पाऊंगा?’ – वीपी सिंह पूछते हैं.
संन्यास एक तरह का, जेपी ने भी लिया था लेकिन वे भी राजनीति पर अपनी राय बेझिझक प्रकट करते थे. सत्ता राजनीति में लगे राजनेता और अखबार तब उनको भी ऐसी ही सीख देते थे. उनके संन्यास का मखौल उड़ाते थे. हमारे राजनीतिबाजों को यह रास नहीं आता कि कोई उससे बाहर रहते हुए भी उसे प्रभावित करे. इसीलिए सत्ता की तात्कालिक राजनीति इतनी खोखली और दिशाहीन है. जो दूर तक देख सकता है, दिशा दे सकता है, उसकी हमारी राजनीति में जगह नहीं है.
सन् नब्बे के बाद हमारी राजनीति को बुनियादी रूप से किसी ने बदला है तो वीपी सिंह ने. कांग्रेस को किसी एक राजनेता ने निराधार किया है तो उसी में से निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने. लेकिन वे एक असाध्य रोग से दिन बचाते हुए रचनात्मक ऊर्जा में जी रहे हैं. जो मृत्यु से, कविता और चित्र से साक्षात्कार करके उसे अप्रासंगिक बनाता हुआ उस के पार जा रहा हो, उसकी सर्जनात्मक स्थितप्रज्ञता को भी थोड़ा समझिए. वह प्रणम्य है. (satyagrah.scroll.in)
-श्रवण गर्ग
कुछ लोगों को ऐसा क्यों महसूस हो रहा है कि देश में आपातकाल लगा हुआ है और इस बार क़ैद में कोई विपक्ष नहीं बल्कि पूरी आबादी है ? घोषित तौर पर तो ऐसा कुछ भी नहीं है। न हो ही सकता है। उसका एक बड़ा कारण यह है कि पैंतालीस साल पहले जो कुछ हुआ था उसका विरोध करने वाले जो लोग तब विपक्ष में थे उनमें अधिकांश इस समय सत्ता में हैं। वे निश्चित ही ऐसा कुछ नहीं करना चाहेंगे।हालाँकि इस समय विपक्ष के नाम पर देश में केवल एक परिवार ही है।इसके बावजूद भी आपातकाल जैसा क्यों महसूस होना चाहिए ! कई बार कुछ ज़्यादा संवेदनशील शरीरों को अचानक से लगने लगता है कि उन्हें बुखार है।घरवाले समझाते हैं कि हाथ तो ठंडे हैं फिर भी यक़ीन नहीं होता।थर्मामीटर लगाकर बार-बार देखते रहते हैं।आपातकाल को लेकर इस समय कुछ वैसी ही स्थिति है।
देशअपने ही कारणों से ठंडा पड़ा हुआ हो सकता है पर कुछ लोगों को महसूस हो रहा है कि आपातकाल लगा हुआ है क्योंकि उन्हें लक्षण वैसे ही दिखाई पड़ रहे हैं।लोगों ने बोलना,आपस में बात करना, बहस करना ,नाराज़ होना सबकुछ बंद कर दिया है।किसी अज्ञात भय से डरे हुए नज़र आते हैं।मास्क पहने रहने की अनिवार्यता ने भी कुछ न बोलने का एक बड़ा बहाना पैदा कर दिया है।संसद-विधानसभा चाहे नहीं चल रही हो पर राज्यों में सरकारें गिराई जा रही हों ,पेट्रोल-डीज़ल के दाम हर रोज़ बढ़ रहे हों, अस्पतालों में इलाज नहीं हो रहा हो, किसी भी तरह की असहमति व्यक्त करने वाले बंद किए जा रहे हों और उनकी कहीं सुनवाई भी नहीं हो रही हो, जनता इस सबके प्रति तटस्थ हो गई है। वह तो इस समय अपनी ‘प्रतिरोधक’ क्षमता बढ़ाने में लगी है जो कि आगे सभी तरह के संकटों में काम आ सके।
अपवादों को छोड़ दें तो मीडिया की हालत तो असली आपातकाल से भी ज़्यादा ख़राब नज़र आ रही है ।वह इस मायने में कि आपातकाल में तो सूचना और प्रसारण मंत्री विद्या चरण शुक्ल का मीडिया पर आतंक था पर वर्तमान में तो वैसी कोई स्थिति नहीं है।जैसे-जैसे कोरोना के ‘पॉज़िटिव’मरीज़ बढ़ते जा रहे हैं वैसे-वैसे मीडिया का एक बड़ा वर्ग और ज़्यादा ‘पॉज़िटिव’ होता जा रहा है।आपातकाल के बाद आडवाणी जी ने मीडिया की भूमिका को लेकर टिप्पणी की थी कि :’आपसे तो सिर्फ़ झुकने के लिए कहा गया था ,आप तो रेंगने लगे।’ आडवाणी जी तो स्वयं ही इस समय मौन हैं,उनसे आज के मीडिया की भूमिका को लेकर कोई भी प्रतिक्रिया कैसे माँगी जा सकती है ?
हम ऐसा मानकर भी अगर चलें कि देश के शरीर में बुखार जैसा कुछ नहीं है केवल उसका भ्रम है तब भी कहीं तो कुछ ऐसा हो रहा होगा जो हमारे लिए कुछ बोलने और नाराज़ होने की ज़रूरत पैदा करता होगा ! उदाहरण के लिए करोड़ों प्रवासी मज़दूरों की पीड़ाओं को ही ले लें ! उसे लेकर व्यवस्था के प्रति जनता का गुमसुम हो जाना क्या दर्शाता है ? किसकी ज़िम्मेदारी थी उनकी मदद करना ? कभी ज़ोर से पूछा गया क्या ? सोनू सूद की जय-जयकार में ही जो कुछ व्यवस्था में चल रहा है उसके प्रति प्रसन्नता ढूँढ ली गई ?
सर्वोदय आंदोलन के एक बड़े नेता से जब पूछा कि वे लोग जो जे पी के आंदोलन में सक्रिय थे और आपातकाल के दौरान जेलों में भी बंद रहे इस समय प्रतिमाओं की तरह मौन क्यों हैं ? क्या इस समय वैसा ही ‘अनुशासन पर्व’ मन रहा है जैसी कि व्याख्या गांधी जी के प्रथम सत्याग्रही विनोबा भावेजी ने आपातकाल के समर्थन में 1975 में की थी ? वे बोले : ‘कोई कुछ भी बोलना नहीं चाहता।या तो भय है या फिर अधिकांश संस्थाएँ सरकारी बैसाखियों के सहारे ही चल रही हैं।’ किसी समय के ‘कार्यकर्ता’ इस समय ‘कर्मचारी’ हो गए हैं।सत्तर के दशक के अंत में जब कांग्रेस में विभाजन का घमासान मचा हुआ था ,मैंने विनोबा जी के पवनार आश्रम (वर्धा) में उनसे पूछा था देश में इतना सब चल रहा है ‘बाबा’ कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं देते ? उन्होंने उत्तर में कहा था :’ क्या चल रहा है ? क्या सूरज ने निकलना बंद कर दिया है या किसान ने खेतों पर जाना बंद कर दिया ? जिस दिन यह सब होगा बाबा भी प्रतिक्रिया दे देंगे।’
आपातकाल के दिनों और उसके ख़िलाफ़ किए गए संघर्ष का स्मरण करते रहना और उस समय के लोगों की याद दिलाते रहना इसलिए ज़्यादा ज़रूरी हो गया है कि इस समय दौर स्थापित इतिहासों को बदलकर नए सिरे से लिखे जाने का चल रहा है।आपातकाल के जमाने की कहानियों को किसी भी पाठ्यपुस्तक में नहीं बताया जाएगा।गांधी की प्रतिमाएँ इसलिए लगाई जाती रहेंगी क्योंकि दुनिया में हमारी पहचान ही उन्हीं की छवि से है। आज की सत्ता के लिए गांधी का नाम एक राजनीतिक मजबूरी है, कोई नैतिक ज़रूरत नहीं।गांधी के आश्रम भी इसीलिए ज़रूरी हैं कि हम पिछले सात दशकों में ऐसे और कोई तीर्थस्थल नहीं स्थापित कर पाए। डर इस बात का नहीं है कि हमें बुखार नहीं है फिर भी बुखार जैसा लग रहा है।डर इस बात का ज़्यादा है कि सही में तेज बुखार होने पर भी हम कहीं बर्फ़ की पट्टियाँ रख-रखकर ही उसे दबाने में नहीं जुट जाएँ। जब बहुत सारे लोग ऐसा करने लगेंगे तब मान लेना पड़ेगा कि आपातकाल तो पहले से ही लगा हुआ था। बुखार और आपातकाल दोनों ही सूचना देकर नहीं आते। लक्षणों से ही समझना पड़ता है।वैसे भी अब किसी आपातकाल की औपचारिक घोषणा नहीं होने वाली है।सरकार भी अच्छे से जान गई है कि दुनिया के इस सबसे लम्बे तीन महीने के लॉक डाउन के दौरान एक सौ तीस करोड़ नागरिक स्वयं ही देश की ज़रूरतों के प्रति कितने समझदार और अपने कष्टों को लेकर कितने आत्मनिर्भर हो गए हैं !
कुछ बहुत अच्छी, कंपनियों की शुरुआत बुरे दौर में ही हुई थीं
पैडरैग बेल्टन
बिज़नस रिपोर्टर
जनरल मोटर्स, बर्गर किंग, सीएनएन, उबर और एयरबीएनबी में आख़िर कौन सी बात है जो एक जैसी है?
इन सब की स्थापना ऐसे वक़्त में हुई थी, जब कारोबार और अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से बुरा समय चल रहा था.
जनरल मोटर्स की स्थापना साल 1908 में हुई थी, जब अमरीकी अर्थव्यवस्था साल 1907 के आर्थिक संकट के बाद उथल-पुथल के दौर से गुज़र रही थी.
इस बीच बर्गर किंग ने साल 1953 में पहली बार पैटी लॉन्च की. ये वो समय था, जब अमरीकी अर्थव्यवस्था एक बार फिर से मंदी का सामना कर रही थी.
साल 1980 में सीएनएन ने जब अपनी ब्रॉडकास्ट सर्विस शुरू की, तब भी अमरीका में महंगाई दर तक़रीबन 15 फ़ीसद की दर तक पहुंच चुकी थी.
ऊबर और एयरबीएनबी ने जब अपना कारोबार शुरू किया तो पूरी दुनिया 2007-09 के वित्तीय संकट से निकलने की कोशिश कर रही थी.
मुश्किल आर्थिक हालात
अमरीका के वॉशिंगटन स्थित बाइपार्टिज़न पॉलिसी सेंटर के फ़ेलो डैन स्ट्रैंगलर के अनुसार, ये वो उदाहरण हैं जो बताते हैं कि कुछ बहुत अच्छी, लंबे समय तक चलने वाली कंपनियों की शुरुआत बुरे दौर में ही हुई थीं.
उनका कहना है कि मुश्किल आर्थिक हालात ने उन्हें आने वाले सालों के लिए बेहद क़ाबिल बना दिया था.
वो कहते हैं, "अगर आप मंदी में काम शुरू करते हैं तो कंपनी को कामयाब बनाने के लिए आपको एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना होगा. आप ऐसे समय में ये कोशिश कर रहे होते हैं, जब आपको आसानी से पैसे का इंतज़ाम नहीं होता. जब बाज़ार में ग्राहक नहीं हों तो आप ग्राहक जुटाने की कोशिश कर रहे होते हैं."
हम यक़ीनन अर्थव्यवस्था और कारोबार के नज़रिये से एक बुरे वक़्त से गुज़र रहे हैं. इसके लिए ज़िम्मेदार कोरोना संकट और दुनिया भर में लगा लॉकडाउन है.
इतिहास गवाह है....
विश्व बैंक ने ये अनुमान लगाया है कि साल 2020 में वैश्विक अर्थव्यवस्था में 5.2 फ़ीसद की गिरावट आएगी. द्वितीय विश्व युद्ध और साल 1946 के बाद दुनिया की अर्थव्यवस्था ने ऐसा संकट नहीं देखा था.
अमरीका की अर्थव्यवस्था पहले से मंदी का सामना कर रही है और बैंक ऑफ़ इंग्लैंड का कहना है कि ब्रिटेन साल 1706 के बाद सबसे बड़ी आर्थिक गिरावट का गवाह बनने जा रहा है. इसका मतलब ये भी हुआ कि पिछले 314 सालों में ब्रिटेन ने ऐसे ख़राब आर्थिक हालात नहीं देखे थे.
लेकिन जैसा कि इतिहास बताता है, कामयाब कंपनियों की नींव बुरे वक़्त में ही रखी गई थी.
ऐसे में सवाल उठता है कि साल 2020 का उद्यमी वर्ग क्या ऐसी कंपनियों का नींव रख सकेगा जो आने वाले वक़्त में घर-घर में अपनी पहुंच बना सकेगा?
कोरोना संकट
कोविड-19 की महामारी के कारण या इसके बावजूद यक़ीनन कई नए कारोबार शुरू हो रहे हैं.
आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि अकेले अमरीका में नई कंपनियों के गठन के लिए सिर्फ़ मई के आख़िरी हफ़्ते में 67,160 आवेदन फ़ाइल किए गए.
साल 2019 के इन्हीं सात दिनों की अवधि में फ़ाइल किए गए आवेदनों से ये आंकड़े 21 फ़ीसद ज़्यादा हैं.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया सैंटा क्रूज़ में अर्थव्यवस्था के प्रोफ़ेसर रॉबर्ट फेयरली कहते हैं कि ये चलन कुछ हद तक इस वजह से भी बढ़ रहा है कि क्योंकि नौकरियों की तंगी है और बहुत से लोग इस वजह से कारोबार शुरू कर रहे हैं.
रॉबर्ट फेयरली इसे आवश्यकता से जन्मी उद्यमवृति कहते हैं, "अगर किसी को सैलेरी वाली नौकरी नहीं मिल रही है तो अपनी कंपनी शुरू के लिए मोटीवेट होने की एक वजह ये भी होती है."
आपदा में अवसर
मुमकिन है कि कारोबारियों का एक तबक़ा कुछ समय से अपने बिज़नेस आइडिया पर काम कर रहा हो.
प्रोफ़ेसर फेयरली कहते हैं, "लॉकडाउन की वजह से लोगों को सोचने के लिए वक़्त मिला है. हो सकता है कि बिज़ी शेड्यूल के समय भी उन्होंने इस बारे में सोचा हो लेकिन उन्हें लगा होगा कि चलो इस पर काम करके देखते हैं."
कुछ अन्य स्टार्ट-अप्स ने ये समझा कि कोरोना संकट ने उन्हें कारोबार का अवसर दिया है और इससे महामारी को मात देने में वे मदद कर सकते हैं.
पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट्स (पीपीई किट्स) बनाने वाले कारोबारियों के साथ ये बात ख़ास तौर पर खरी उतरती है.
पिछले कुछ महीनों में तो कई कंपनियां आपूर्ति की कमी को पूरा करने के लिए वजूद में आई हैं.
नए कारोबार
मैथ्यू कैम्पबेल-हिल और उनकी पत्नी लीडिया ने 'एरोसॉल शील्ड' का अपना बिज़नेस अप्रैल में शुरू किया था.
उनका ये उत्पाद मेडिकल स्टाफ़ को मरीज़ों के कफ़ से बचाने के लिए है.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्मिंघम के क्लिनिकल साइंस इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो मैथ्यू कहते हैं, "कारोबार शुरू करने के छह दिन के भीतर ही हमें बड़ी मात्रा में ऑर्डर मिलने लगे थे."
ये शील्ड बनाने के लिए मैथ्यू और लीडिया ने सेना और दूसरी सहायता एजेंसियों के लिए टेंट बनाने वाली एक कंपनी के साथ कुछ दिनों तक काम किया था.
ब्रिटेन में कोरोना संकट के दौर में 'हिडेन स्माइल' नाम से एक फ़ेस मास्क लॉन्च किया गया. बिज़नेसमैन नील कॉटन की कंपनी के इस फ़ेस मास्क में कॉटन के दो सतहों के बीच मुड़ा हुआ पेपर फ़िल्टर लगाया गया है.
नील कॉटन बताते हैं, "आपको बार-बार फ़िल्टर बदलने की ज़रूरत नहीं पड़ती है क्योंकि न तो ये मुंह से निकलने वाले भाप से और न ही बाहर की हवा से इसका ज़्यादा संपर्क होता है."
लॉकडाउन
कोरोना संकट के दौर में कुछ और भी उद्योग हैं जिनके कारोबार में तेज़ उछाल देखने में आया. इनमें घरेलू सुविधाओं और डिलेवरी सेक्टर में सेवाएं मुहैया कराने वाले स्टार्ट-अप्स शुरू हुए.
साल 2018 में अमरीका में पेंट का कारोबार शुरू करने वाली निकोल गिबंस का धंधा लॉकडाउन के दौरान चमक गया.
वे कहती हैं, "आम तौर पर सप्ताहांत में लोग खाने-पीने का कार्यक्रम बनाते हैं न कि घरों को पेंट करने का. लेकिन अब वे कुछ करना चाहते हैं और उन्हें घर सजाने का बुख़ार चढ़ गया है."
लंदन की कूरियर कंपनी गोफ्र का बिज़नेस पिछले दो महीने में सबसे व्यस्त रहा. कंपनी का कहना है कि लॉकडाउन के दौर में लोगों को ऑनलाइन शॉपिंग का चस्का लग गया है.
वे लोग जो अपना बिज़नेस शुरू करने की सोच रहे हैं, मैनेजमेंट कंसल्टेंसी फ़र्म मैकिंज़े के पार्टनर मार्कस बर्गर डे लियोन उन्हें सलाह देते हैं कि फ़ैसला करने से पहले सोचने के लिए पूरा वक्त लें. और अगर आप बिज़नेस शुरू करने का फ़ैसला लेते हैं तो फुर्ती से काम करें.(www.bbc.com)
-सिन्धुवासिनी
आइसलैंड की मशहूर पॉप गायिका बियर्क ने एक बार कहा था, “मुझे लगता है कि पुरुष और महिला में से एक को चुनना केक और आइसक्रीम में से किसी एक को चुनने जैसा है. इनके इतने अलग-अलग तरह के फ़्लेवर उपलब्ध होने के बावजूद सबको न आज़माना बेवकूफ़ी होगी.
बियर्क ने जो कहा वो कुछ लोगों के लिए थोड़ा 'बेमतलब' हो सकता है लेकिन यहां उनका इशारा ‘बाइसेक्शुअलिटी’ की तरफ था.
जो लोग पुरुषों और महिलाओं दोनों से यौन आकर्षण महसूस करते हैं उन्हें बाइसेक्शुअल कहा जाता है.
जब हम एलजीबीटीक्यूआई समुदाय की बात करते हैं तो इसमें शामिल ‘बी’ का मतलब बाइसेक्शुअल होता है.
एक लड़की का बाइसेक्शुअल होना
दिल्ली में रहने वाली 26 साल की गरिमा भी ख़ुद को बाइसेक्शुअल मानती हैं. वो लड़कियों और लड़कों से समान यौन आकर्षण महसूस करती हैं और दोनों को डेट कर चुकी हैं.
गरिमा बताती हैं, 'जब मैंने पहली बार एक लड़की को किस किया तो मुझे वो लम्हा उतना ही ख़ूबसूरत लगा जितना पहली बार लड़के को किस करने पर लगा था. मैंने सोचा कि अगर ये इतना सहज है तो लोग इसे अप्राकृतिक क्यों कहते हैं!'
गरिमा ने ख़ुद को तो बड़ी आसानी और निडरता के साथ स्वीकार कर लिया था लेकिन इसे दूसरों को समझाना उनके लिए उतना ही मुश्किल था.
वो कहती हैं, “हमारे समाज में लड़कियों का अपनी सेक्शुअलिटी ज़ाहिर करना अपने-आप में ही काफ़ी मुश्किल होता है. आपसे ऐसे बर्ताव करने की उम्मीद की जाती है, जैसे आपमें यौन इच्छाएं ही नहीं हैं. ऐसे में आपके लड़के और लड़की दोनों को पसंद करने की बात तो लोग बिल्कुल स्वीकार नहीं कर पाते.”
गरिमा को लड़कियां किशोरावस्था से ही अच्छी लगती थीं लेकिन वो कभी इस बारे में ज़्यादा सोच नहीं पाईं.
वो कहती हैं, 'हमारे आस-पास के माहौल में किसी और सेक्शुअलिटी का न तो कोई ज़िक्र होता है और न कोई चित्रण. फ़िल्मों और कहानियों से लेकर विज्ञापनों तक, हर जगह सिर्फ़ एक महिला और पुरुष को ही साथ दिखाया जाता है. ऐसे में हम ये मान लेते हैं कि सिर्फ़ वही सही है और सिर्फ़ वही नॉर्मल.”
कॉलेज के फ़र्स्ट इयर में आते-आते गरिमा एलजीबीटीक्यू समुदाय के बारे में काफ़ी कुछ पढ़ और समझ चुकी थीं. उन्हें ये भी पता चल चुका था कि लड़कों और लड़कियों दोनों से आकर्षित होना नॉर्मल है. इसी बीच अपने पहले बॉयफ़्रेंड से ब्रेकअप होने के बाद उन्होंने एक लड़की को डेट करना शुरू किया और तब जाकर वो अपनी सेक्शुअलिटी को स्वीकार कर पाईं.
मगर गरिमा फिर दुहराती हैं कि एक संकुचित समाज में किसी लड़की का बाइसेक्शुअल पहचान के साथ जीना आसान नहीं है.
बाहरी दुनिया तो दूर, ख़ुद एलजीबीटी समुदाय के भीतर बाइसेक्शुअल लोगों को लेकर कई तरह की शंकाएं और ग़लत अवधारणाएं हैं. नतीजन, उन्हें समुदाय के भीतर भी कई तरह के भेदभाव का शिकार होना पड़ता है.
वफ़ादारी और चरित्र पर सवाल
गरिमा कहती हैं कि एलजीबीटी समुदाय के बहुत से लोगों को भी ये लगता है कि बाइसेक्शुअल लोग रिश्ते में वफ़ादार नहीं होते. लोग मानते हैं कि बाइसेक्शुअल लोगों को पुरुषों और महिलाओं दोनों से आकर्षण होता है इसलिए वो अपनी सुविधा के हिसाब से रिश्ते तय करते हैं.
उन्होंने बताया, 'आम तौर पर लेस्बियन लड़की किसी बाइसेक्शुअल लड़की के साथ रिश्ते में नहीं आना चाहती क्योंकि उसे लगता है कि बाइसेक्शुअल लड़की उसे डेट ज़रूर करेगी लेकिन जब शादी करने या ज़िंदगी भर साथ निभाने की बात आएगी तो वो अपनी सुविधा और समाज के उसूलों के मुताबिक़ किसी लड़के का हाथ थाम लेगी. ऐसा ही कुछ बाइसेक्शुअल लड़कों के बारे में भी सोचा जाता है.”
इतना ही नहीं, बाइसेक्शुअल लोगों को कई बार ‘लालची’ और ऐसे व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है जो रिश्ते में कमिटमेंट नहीं करना चाहते, किसी एक जगह टिकना नहीं चाहते लेकिन डेट सबको करना चाहते हैं.
गरिमा कहती हैं, 'हमसे ये भी कहा जाता है कि हम अपनी सेक्शुअलिटी के लेकर भ्रमित हैं और ये महज एक दौर है जो बीत जाएगा. हम जैसे हैं, हमें वैसे स्वीकार नहीं किया जाता बल्कि हमेशा शक़ भरी निगाहों से देखा जाता है.'
बाइसेक्शुअल लड़कियों को पुरुष वर्ग कई बार महज सेक्शुअल फ़ैंटेसी से जोड़कर देखता है.
गरिमा बताती हैं, 'मैं अपनी सेक्शुअलिटी के बारे में खुलकर बात करती हूं और इसी वजह से लोग मेरे बारे में कई धारणाएं गढ़ लेते हैं. लड़के मुझे सोशल मीडिया पर भद्दे मैसेज भेजते हैं. शायद उन्हें लगता है कि बाइसेक्शुअल लड़की किसी के भी साथ सोने को तैयार हो जाएगा. वो सहमति और पसंद-नापसंद के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते.'
सोनल ज्ञानी
फ़िल्ममेकर और एलजीबीटी राइट्स एक्टिविस्ट सोनल ज्ञानी (32 साल) का मानना है कि एलजीबीटी समुदाय के भीतर लोगों पर किसी न किसी रूप में ये दबाव होता है कि या तो वो ख़ुद को गे मानें या लेस्बियन.
सोनल कहती हैं कि बाइसेक्शुअलिटी के बारे में बात करने में लोग बहुत ज़्यादा सहज नहीं होते. इसीलिए कई बार बाइसेक्शुअल लोग दबाव के कारण ख़ुद को गे या लेस्बियन बताते हैं.
समुदाय के भीतर बाइसेक्शुअलिटी को यूं जानबूझकर नज़रअंदाज़ करने को जेंडर स्टडी की भाषा में बाइसेक्शुअल इरेज़र (Bisexual erasure) कहते हैं.
ख़ुद को बाइसेक्शुअल मानने वाली सोनल कहती हैं कि एलजीबीटी समुदाय के लोग भी इसी समाज का हिस्सा हैं और वो भी भेदभाव की भावना से मुक्त नहीं हैं.
वो कहती हैं, 'मीडिया और पॉपुलर कल्चर में बाइसेक्शुअलिटी को ना के बराबर जगह मिलती है. समलैंगिकता के मुद्दे पर अब धीरे-धीरे फ़िल्में और वेबसिरीज़ बनने लगी हैं लेकिन बाइसेक्शुअलिटी अभी इस चर्चा से बहुत दूर है.'
सोनल अपना अनुभव साझा करते हुए बताती हैं कि कैसे बहुत बार उन्हें अपनी महिला पार्टनर के साथ देखकर लेस्बियन बता दिया गया जबकि वो खुले तौर पर ख़ुद को बाइसेक्शुअल बताती हैं.
वो कहती हूं, 'कई अख़बारों और चैनलों ने मुझे लेस्बियन लिखा जबकि मैंने उन्हें बार-बार बताया कि मैं बाइसेक्शुअल हूं. अगर मैं किसी पुरुष के साथ दिखूंगी तो वो मुझे स्ट्रेट समझेंगे और महिला के साथ नज़र आने पर मुझे लेस्बियन कहा जाएगा. मेरी बाइसेक्शुअलिटी को कहीं न कहीं नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है.'
बाइसेक्शुअल मतलब पॉर्न और फ़ैटेंसी नहीं
सोनल का मानना है किसी लड़की के लिए ख़ुद की बाइसेक्शुअल पहचान को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना बहुत साहस भरा कदम होता है.
वो कहती हैं, “कई बार लोग बाइसेक्शुअल लड़कियों को पॉर्न से जोड़कर देखते हैं और उनके चरित्र पर सवाल उठाते हैं. ऐसे में ये लड़कियों की सुरक्षा से जुड़ा मसला भी बन जाता है. यही वजह है कि बाइसेक्शुअल लड़कियां अब भी खुलकर सामने नहीं आ पातीं.''
युवा क्वियर एक्टिविस्ट धर्मेश चौबे एक और महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान दिलाते हैं.
वो मानते हैं कि समाज बड़ी चतुराई से बाइसेक्शुअल पुरुषों और महिलाओं की यौनिकता को अपनी सुविधा के हिसाब से और अलग-अलग दलीलें देकर ख़ारिज करने की कोशिश करता है.
धर्मेश कहते हैं, “बाइसेक्शुअल लड़कियों के बारे में ये माना जाता है कि वो स्ट्रेट ही हैं, बस थोड़ा ‘सेक्शुअल एडवेंचर’ कर रही हैं. वहीं, बाइसेक्शुअल पुरुषों के बारे में माना जाता है कि वो गे हैं लेकिन अपनी समलैंगिकता छिपाने के लिए बाइसेक्शुअल होने के बहाना कर रहे हैं. इसका मतलब ये हुआ कि पितृसत्तात्मक समाज में औरतों की यौनिकता कुछ ख़ास मायने नहीं रखती. कुल मिलाकर उनसे यही उम्मीद की जाती है कि वो पुरुषों की इच्छाओं का ख़याल रखें.'
गे होना बीमारी नहीं, इसका 'इलाज' मत खोजिए
सुप्रीम कोर्ट जाने वाला 19 साल का गे लड़का
गे होना बीमारी नहीं, इसका 'इलाज' मत खोजिए
क्या परिवार का मतलब सिर्फ़ मियां-बीवी और बच्चे हैं?
‘टेक मी ऐज़ आई एम’
इतनी मुश्किलों के बाद भी भारत में बाइसेक्शुअल लड़कियां धीरे-धीरे ही सही मगर खुलकर बाहर आने लगी हैं. ख़ासकर, जून के इस महीने (प्राइड मंथ) में कई लड़कियों ने सोशल मीडिया पर बेहिचक अपनी सेक्शुअलिटी को कबूला है.
जून महीने को एलजीबीटी समुदाय ‘प्राइड मंथ’ के तौर पर मनाता है. इस दौरान वो अपने संघर्षों, इच्छाओं और उपलब्धियों के बारे में बात करते हैं.
यही वजह है कि इस समय युवा बाइसेक्शुअल लड़कियां भी कई सामाजिक बेड़ियों को तोड़ती हुई नज़र आ रही हैं. वो मांग कर रही हैं कि उनकी बाइसेक्शुअलिटी को स्वीकार किया जाए, वो जैसी हैं, उन्हें वैसे ही स्वीकार किया जाए.
सितंबर, 2018 में जब भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक सम्बन्धों को अपराध ठहराने वाली आईपीसी की धारा 377 को निरस्त कर दिया था. तब तत्कालीन सीजेआई जस्टिस दीपक मिश्रा ने अदालत का फ़ैसला पढ़ते हुए जर्मन लेखक योहन वॉफ़गैंग को याद किया था. जस्टिस मिश्रा ने कहा था-आई एम वॉट आई एम, सो टेक मी ऐज़ आई एम (I am what I am, so take me as I am). (bbc.com/hindi)
-श्रवण गर्ग
पच्चीस जून, 1975 का दिन। पैंतालीस साल पहले।देश में 'आपातकाल' लग चुका था। हम लोग उस समय 'इंडियन एक्सप्रेस' समूह की नई दिल्ली में बहादुरशाह जफ़ऱ मार्ग स्थित बिल्डिंग में सुबह के बाद से ही जमा होने लगे थे।किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या होने वाला है। प्रेस सेंसरशिप भी लागू हो चुकी थी। इंडियन एक्सप्रेस समूह तब सरकार के मुख्य निशाने पर था। उसके प्रमुख रामनाथ गोयंनका इंदिरा गांधी से टक्कर ले रहे थे। वे जे पी के नज़दीकी लोगों में एक थे। उन दिनों मैं प्रभाष जोशी, अनुपम मिश्र, जयंत मेहता, मंगलेश डबराल आदि के साथ 'प्रजनीति' हिंदी साप्ताहिक में काम करता था।शायद उदयन शर्मा भी साथ में जुड़ गए थे। जयप्रकाशजी के स्नेही प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त' प्रधान सम्पादक थे पर काम प्रभाष जी के मार्गदर्शन में ही होता था। मैं चूँकि जे पी के साथ लगभग साल भर बिहार में काम करके नई दिल्ली वापस लौटा था, पकड़े जाने वालों की प्रारम्भिक सूची में मेरा नाम भी शामिल था। वह एक अलग कहानी है कि जब पुलिस मुझे पकडऩे गुलमोहर पार्क स्थित एक बंगले में गैरेज के ऊपर बने मेरे एक कमरे के अपार्टमेंट में पहुँची तब मैं साहित्यकार रमेश बक्षी के ग्रीन पार्क स्थित मकान पर मौजूद था।वहाँ हमारी नियमित बैठकें होतीं थीं। कमरे पर लौटने के बाद ही सबकुछ पता चला।मकान मालिक 'दैनिक हिंदुस्तान' में वरिष्ठ पत्रकार थे।उन्होंने अगले दिन कमरा खाली करने का आदेश दे दिया।वह सब एक अलग कहानी है। बहरहाल, अगले दिन एक्सप्रेस बिल्डिंग में जब सबकुछ अस्तव्यस्त हो रहा था और सभी बड़े सम्पादकों के बीच बैठकों का दौर जारी था, जे पी को नजऱबंद किए जाने के लिए दिए गए डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के आदेश की कॉपी अचानक ही हाथ लग गई। उस जमाने में प्रिंटिंग की व्यवस्था आज जैसी आधुनिक नहीं थी। फोटोग्राफ और दस्तावेजों के ब्लॉक बनते थे। जे पी की नजरबंदी के आदेश के दस्तावेज का भी प्रकाशन के लिए ब्लॉक बना था। मैंने चुपचाप एक्सप्रेस बिल्डिंग के तलघर की ओर रुख़ किया जहाँ तब सभी अख़बारों की छपाई होती थी।वह ब्लॉक वहाँ बना हुआ रखा था। मैंने हाथों से उस ब्लॉक पर स्याही लगाई और फिर एक कागज को उसपर रखकर आदेश की प्रति निकाल पॉकेट में सम्भाल कर रख लिया।पिछले साढ़े चार दशक से उस कागज को सहेजे हुए हूँ।इस बीच कई काम, मालिक, शहर और मकान बदल गए पर जो कुछ कागज तमाम यात्राओं में बटोरे गए वे कभी साथ छोड़कर नहीं गए।बीता हुआ याद करने के लिए जब लोग कम होते जाते हैं, ये कागज के कीमती पुर्जे ही स्मृतियों को सहारा और सांसें देते हैं। नीचे चित्र में जे पी की नजरबंदी के आदेश की फोटो छवि।
उसके बिना दवा कहां से लाएगा भारत ?
नितिन श्रीवास्तव बीबीसी संवाददाता
क्या आपको डायबिटीज़, ब्लड-प्रेशर, थाइरॉइड या गठिया जैसे किसी बीमारी के लिए दवा खानी पड़ती है?
क्या आपके किसी जानने वाले का कोलेस्ट्रोल बढ़ने पर डॉक्टर ने उसे चंद हफ़्तों की दवा का कोर्स कराया है क्योंकि इसका बढ़ना हार्ट के लिए अच्छा नहीं होता.
आपमें बहुतों ने सर्दी, खाँसी या बुखार के दौरान पैरासिटामोल वाली कोई न कोई दवा ज़रूर खाई होगी. ज़्यादा दिन वायरल या इंफ़ेक्शन रहने पर डॉक्टर ने आपको एंटिबायोटिक का कोर्स कराया होगा.
हो सकता है आपके घर, रिशेतदारी, पड़ोस या दफ़्तर में किसी को कैंसर हुआ हो और उनके इलाज में कीमोथेरेपी का सहारा लिया गया हो.
अगर किसी में भी हाँ, है तो इस बात की संभावना ज़्यादा है कि इनमें से कई दवाओं में भारत के पड़ोसी चीन का भी गहरा योगदान हो.
भारत-चीन विवाद
ये पड़ताल इसलिए हो रही है क्योंकि एक-दूसरे से गहरे व्यापारिक संबंध रखने वाले इन दोनों पड़ोसियों में इन दिनों अप्रत्याशित तनाव चल रहा है.
पिछले कई हफ़्तों से लद्दाख क्षेत्र में दोनों देशों की सीमा- वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी), पर जारी तनाव बढ़ता गया और आख़िरकार गलवान घाटी में भारत-चीन सैनिकों के बीच 'घंटों चली हाथापाई और झड़प में 20 भारतीय सैनिकों की मौत हुई और 76 अन्य घायल हुए.
चीन की तरफ़ से अभी तक हताहतों या घायलों पर कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है.
मामला गर्म इसलिए भी हुआ कि पूरे 45 साल बाद एलएसी पर दूसरे देश की फ़ौज के हाथों किसी भारतीय सैनिक की जान गई.
भारत में घटना की निंदा होने के साथ ही चीन से आयात होने वाली वस्तुओं के बहिष्कार और बैन की मांग बढ़ने लगी जबकि केंद्र सरकार ने अभी इस तरह के किसी फ़ैसले की बात नहीं कही है.
भारत के रेल और टेलिकॉम मंत्रालयों ने भविष्य में होने कुछ आयात पर रोक लगाने की ओर इशारा ज़रूर किया है.
इस बीच कन्फ़ेडरेशन ऑफ़ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (सीएआईटी) ने बहिष्कार किए जाने वाले 500 से अधिक चीनी उत्पादों की सूची भी जारी की है.
भारत के कई शहरों में चीनी सामान का बहिष्कार करने वाले विरोध-प्रदर्शन भी हुए.
चीन की दवाई भारत में
पिछले दो दशकों में भारत और चीन के बीच का व्यापार 30 गुना बढ़ा है. यानी जहाँ 2001 में कुल व्यापार तीन अरब डॉलर का था तो 2019 आते-आते ये 90 अरब डॉलर छू रहा था.
इस व्यापार में जिन चीज़ों की मात्रा तेज़ी से बढ़ी है उनमें दवाइयाँ शामिल हैं. ख़ासतौर से पिछले एक दशक के दौरान जब दवाइयों के आयात में 28% का उछाल दर्ज किया गया.
भारतीय वाणिज्य मंत्रालय के आँकड़े बताते हैं कि 2019-20 के दौरान भारत ने चीन से 1,150 करोड़ रुपए के फ़ार्मा प्रॉडक्ट्स आयात किए जबकि इसी दौरान चीन से भारत आने वाले कुल आयात क़रीब 15,000 करोड़ रुपए के थे.
बात दवाओं की हो तो जेनेरिक दवाएं बनाने और उनके निर्यात में भारत अव्वल है. साल 2019 में भारत ने 201 देशों से जेनेरिक दवाई बेची और अरबों रुपए की कमाई की.
लेकिन आज भी भारत इन दवाओं को बनाने के लिए चीन पर निर्भर है और दवाओं के प्रोडक्शन के लिए चीन से एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (API) आयात करता है. इसे दवाइयां बनाने का कच्चा माल या बल्क ड्रग्स के नाम से जाना जाता है.
इंडस्ट्री के जानकार बताते हैं कि भारत में दवा बनाने के लिए आयात होने वाली कुल बल्क ड्रग्स या कच्चे माल में से 70% तक चीन से ही आता है.
चीन की निर्यात स्ट्रैटिजी पर "कम्पिटिटिव स्टडीज़: लेसन्स फ़्रोम चाइना" नाम की किताब के लेखक और गुजरात फ़ार्मा एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉक्टर जयमन वासा का मानना है, "इस तथ्य को स्वीकार कर लेना चाहिए कि चीन से आयात किए बिना हमें दिक्क़त हो सकती है."
उन्होंने बताया, "भारत सरकार जब तक ज़्यादा से ज़्यादा फ़ार्मा पार्क या ज़ोन नहीं बनाएगी तब तक चीन की बराबरी करना मुश्किल है क्योंकि उनका शोध बेहद ठोस है. इस बराबरी तक पहुँचने में हमें कई साल लग जाएंगे."
हक़ीक़त यही है कि भारत में एपीआई (API) का उत्पादन बहुत कम है और जो एपीआई भारत में बनाया जाता है उसके फ़ाइनल प्रोडक्ट बनने के लिए भी कुछ चीज़ें चीन से आयात की जाती हैं.
यानी भारतीय कंपनियां एपीआई या बल्क ड्रग्स प्रोडक्शन के लिए भी चीन पर निर्भर हैं.
अंतरराष्ट्रीय फ़ार्मा एलायंस के सलाहकार और जायडस कैडिला ड्रग कंपनी के पूर्व मैन्यूफ़ैकचरिंग प्रमुख एसजी बेलापुर के मुताबिक़, "चीन से बल्क ड्रग (API) आयात करने की प्रमुख वजह कम क़ीमत है. वहाँ से आने वाली बल्क ड्रग की क़ीमत दूसरे देशों को तुलना में 30 से 35% कम होती है (इसमें भारत भी शामिल है) और ऐंटिबयोटिक या कैंसर के इलाज की दवाओं के मामले में तो भारत चीन पर ज़्यादा निर्भर है".
तो डायबिटीज़, ब्लड-प्रेशर, थाइरॉड, गठिया, वायरल इंफ़ेक्शंस के लिए कच्चा माल या फिर कई प्रकार के सर्जिकल औजार और मेडिकल मशीनें, चीन से भारत आयात होने वाले फ़ार्मा उत्पादों की फ़ेहरिस्त लंबी है.
विशेषज्ञों की मानें तो भारत में पेनसिलिन और ऐजिथ्रोमायसीन जैसी एंटिबायोटिक्स के उत्पादन में इस्तेमाल होने वाली 80 फ़ीसदी बल्क ड्रग या कच्चे माल का आयात चीन से होता है.
बिजली की भूमिका
चीन में दवाओं के निर्माताओं से लगातार मिलने वाले और ड्रग रिसर्च मैन्युफ़ैक्चरिंग के विशेषज्ञ डॉक्टर अनुराग हितकारी का कहना है कि, "चीन से बल्क ड्रग्स या कच्चे माल के आयात की बड़ी वजह दवा के दामों को प्रतिस्पर्धी बनाए रखना है."
उन्होंने कहा, "एपीआइ या बल्क ड्रग्स के उत्पादन में बिजली का बड़ा योगदान रहता है. हाल कुछ समय पहले तक चीन में बिजली की क़ीमत भारत की तुलना में बहुत कम थी जिससे पूरी लागत कम आती थी. दूसरे, चीन की फ़ार्मा इंडस्ट्री देश की यूनिवर्सिटीज में होने वाले निरंतर शोध से जुड़ी रहती हैं जो दवा बनाने की रीढ़ की हड्डी माना जाता रहा है. किसी नई रिसर्च के होते ही उसे उत्पादन के उपयोग में लाने में उन्हें महारथ है."
ज़ेज़ियांग, गुआंगडांग, शंघाई, जियांगसू, हेबेयी, निंगशिया, हारबिन जैसे कुछ चीनी प्रांत है जहाँ से दवाओं को बनाने वाली बल्क ड्रग्स भारत आयात करता है.
डॉक्टर अनुराग ने बताया, "इस कच्चे माल को इन प्रांतों से बीजिंग, शंघाई या हॉन्ग कॉन्ग के बंदरगाहों से ज़रिए भारत लाया जाता है".
रहा सवाल चीन से आने वाली 'सस्ती बल्क ड्रग्स' और उनकी क्वालिटी का, तो जायडस कैडिला ड्रग कम्पनी के पूर्व मैन्यूफ़ैकचरिंग प्रमुख एसजी बेलापुर ने कहा, "पहले तो कोई दिक्क़त नहीं होती थी लेकिन अब भारतीय ख़रीदारों को इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता है कि वेंडर्स कौन हैं".
उनके मुताबिक़, "ऐहतियात न बरतने पर कभी-कभी कच्चे माल की गुणवत्ता बेहद ख़राब भी हो सकती है."
ऐसा नहीं है कि सीमा पर तनाव के चलते भारत में चीन से आयात होने वाली चीज़ों पर निर्भरता कम करने की मांग पहली बार उठ रही है.
2017 में भी दोनों देशों के सैनिकों के बीच डोकलाम में अच्छी-ख़ासी हाथापाई होने के बाद सीमा पर तनाव फैल गया था. तब भी चीन पर इस तरह की पाबंदी लगाने की बात होने लगी थी.
भारत के फ़ार्मा उद्योग से भी इस तरह के स्वर सुनाई दिए थे जिनमें कहा गया था कि देश में एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (API) आत्म-निर्भरता लाने की ज़रूरत है लेकिन आँकड़े इशारा करते हैं कि आयात में कोई कमी नही आई.
2019 में जब चीन के वुहान प्रांत से कोरोना वायरस के संक्रमण और फिर लॉकडाउन की ख़बरें आनी शुरू हुईं तो भारतीय फ़ार्मा क्षेत्र में भी हड़कंप मच गया था क्योंकि बिना बल्क ड्रग्स या कच्चे माल के आयात के जेनेरिक दवाओं का उत्पादन भी संभव नहीं.
गुजरात फ़ार्मा एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉक्टर जयमन वासा की राय साफ़ है, "अगर मैं कहूँ कि कोविड-19 की चुनौती मुश्किल समय में भारतीय फ़ार्मा सेक्टर के लिए एक बड़ा मौक़ा है तो ग़लत नहीं होगा. दवाओं के मामले में हमें चीन पर निर्भरता काम करनी है और इसके लिए सरकार की मदद भी ज़रूरी है."
एक सवाल ये भी उठता है कि अगर भारत को बल्क ड्रग्स आत्म-निर्भर बनने में एक लंबा समय लगता है तो क्या तब तक चीन के अलावा दूसरे विकल्प मौजूद हैं?
अंतरराष्ट्रीय फ़ार्मा एलायंस के सलाहकार एसजी बेलापुर की राय है कि, "अगर भारत को दवाई के क्षेत्र में चीन से आयात कम करना है तो स्पेन, इटली, स्विटज़रलैंड और कुछ दक्षिण अमरीकी देशों से इन ही आयात करना पड़ेगा. अब क्योंकि वो महँगे हैं तो दवाओं की क़ीमत भी बढ़ेगी."
आख़िरकार, भारत में एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (API) यानी बल्क ड्रग्स के भूत और भविष्य पर बात करते हुए ड्रग रिसर्च मैन्युफ़ैक्चरिंग विशेषज्ञ डॉक्टर अनुराग हितकारी ने कहा, "भारत में प्रदूषण संबंधी क्लियेरेंस कई स्तर पर लेने पड़ते थे जिसमें राज्य, केंद्र सरकार, पर्यावरण मंत्रलाय सभी के पास जाना पड़ता था".
उन्होंने आगे बताया, "कच्चा माल या बल्क ड्रग बनाने की सोचने वाले छोटे और लघु उद्योग इस जटिल प्रक्रिया से बचते रहे. अब चीज़ें बेहतर हो रहीं हैं क्योंकि प्रदूषण क्लियेरेंस लेने की प्रक्रिया में ज़रूरी संशोधन हुए हैं". (www.bbc.com)
‘सबको सूचित कर दीजिए कि अगर मासिक लक्ष्य पूरे नहीं हुए तो न सिर्फ वेतन रुक जाएगा बल्कि निलंबन और कड़ा जुर्माना भी होगा। सारी प्रशासनिक मशीनरी को इस काम में लगा दें और प्रगति की रिपोर्ट रोज वायरलैस से मुझे और मुख्यमंत्री के सचिव को भेजें।’
यह टेलीग्राफ से भेजा गया एक संदेश है। इसे आपातकाल के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव ने अपने मातहतों को भेजा था। जिस लक्ष्य की बात की गई है वह नसबंदी का है। इससे सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि नौकरशाही में इसे लेकर किस कदर खौफ रहा होगा।
आपातकाल के दौरान संजय गांधी ने जोर-शोर से नसबंदी अभियान चलाया था। इस पर जोर इतना ज्यादा था कि कई जगह पुलिस द्वारा गांवों को घेरने और फिर पुरुषों को जबरन खींचकर उनकी नसबंदी करने की भी खबरें आईं। जानकारों के मुताबिक संजय गांधी के इस अभियान में करीब 62 लाख लोगों की नसबंदी हुई थी। बताया जाता है कि इस दौरान गलत ऑपरेशनों से करीब दो हजार लोगों की मौत भी हुई।
1933 में जर्मनी में भी ऐसा ही एक अभियान चलाया गया था। इसके लिए एक कानून बनाया गया था जिसके तहत किसी भी आनुवंशिक बीमारी से पीडि़त व्यक्ति की नसबंदी का प्रावधान था। तब तक जर्मनी नाजी पार्टी के नियंत्रण में आ गया था। इस कानून के पीछे हिटलर की सोच यह थी कि आनुवंशिक बीमारियां अगली पीढ़ी में नहीं जाएंगी तो जर्मनी इंसान की सबसे बेहतर नस्ल वाला देश बन जाएगा जो बीमारियों से मुक्त होगी। बताते हैं कि इस अभियान में करीब चार लाख लोगों की नसबंदी कर दी गई थी।
लेकिन संजय गांधी के सिर पर नसबंदी का ऐसा जुनून क्यों सवार हो गया था कि वे इस मामले में हिटलर से भी 15 गुना आगे निकल गए?
दरअसल ऐसा कई चीजों के समय के एक मोड़ पर मिलने से मुमकिन हुआ था। इनमें पहली थी संजय की कम से कम समय में खुद को प्रभावी नेता के तौर पर साबित करने की महत्वाकांक्षा। दूसरी, परिवार नियोजन को और असरदार बनाने के लिए भारत पर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से पड़ता दबाव। तीसरी, जनसंख्या नियंत्रण के दूसरे तरीकों की बड़ी विफलता और चौथी आपातकाल के दौरान मिली निरंकुश शक्ति।
25 जून 1975 को आपातकाल लगने के बाद ही राजनीति में आए संजय गांधी के बारे में यह साफ हो गया था कि आगे गांधी-नेहरू परिवार की विरासत वही संभालेंगे। संजय भी एक ऐसे मुद्दे की तलाश में थे जो उन्हें कम से कम समय में एक सक्षम और प्रभावशाली नेता के तौर पर स्थापित कर दे। उस समय वृक्षारोपण, दहेज उन्मूलन और शिक्षा जैसे मुद्दों पर जोर था, लेकिन संजय को लगता था कि उन्हें किसी त्वरित करिश्मे की बुनियाद नहीं बनाया जा सकता।
राजनीति में नए-नए आए संजय गांधी एक ऐसे मुद्दे की तलाश में थे जो उन्हें कम से कम समय में एक सक्षम और प्रभावशाली नेता के तौर पर स्थापित कर दे।
संयोग से यही वह दौर भी था जब दुनिया में भारत की आबादी का जिक्र उसके अभिशाप की तरह होता था। अमेरिका सहित कई पश्चिमी देश मानते थे कि हरित क्रांति से अनाज का उत्पादन कितना भी बढ़ जाए, सुरसा की तरह मुंह फैलाती आबादी के लिए वह नाकाफी ही होगा। उनका यह भी मानना था कि भारत को अनाज के रूप में मदद भेजना समंदर में रेत फेंकने जैसा है जिसका कोई फायदा नहीं। ऐसा सिर्फ अनाज ही नहीं, बाकी संसाधनों के बारे में भी माना जाता था।
अपनी किताब द संजय स्टोरी में पत्रकार विनोद मेहता लिखते हैं, ‘अगर संजय आबादी की इस रफ्तार पर जरा भी लगाम लगाने में सफल हो जाते तो यह एक असाधारण उपलब्धि होती। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी चर्चा होती।’ यही वजह है कि आपातकाल के दौरान परिवार नियोजन कार्यक्रम को प्रभावी तरीके से लागू करवाना संजय गांधी का अहम लक्ष्य बन गया। इस दौरान उन्होंने देश को दुरुस्त करने के अपने अभियान के तहत सौंदर्यीकरण सहित कई और काम भी किए, लेकिन अपनी राजनीति का सबसे बड़ा दांव उन्होंने इसी मुद्दे पर खेला। उन्हें उम्मीद थी कि जहां दूसरे नाकामयाब हो गए हैं वहां वे बाजी मार ले जाएंगे।
25 जून 1975 से पहले भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर इस बात का दबाव बढऩे लगा था कि भारत नसबंदी कार्यक्रम को लेकर तेजी दिखाए। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और एड इंडिया कसॉर्टियम जैसे संस्थानों के जरिये अपनी बात रखने वाले विकसित देश यह संदेश दे रहे थे कि भारत इस मोर्चे पर 1947 से काफी कीमती समय बर्बाद कर चुका है और इसलिए उसे बढ़ती आबादी पर लगाम लगाने के लिए यह कार्यक्रम युद्धस्तर पर शुरू करना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते भारत में काफी समय से जनसंख्या नियंत्रण की कई कवायदें चल भी रही थीं। गर्भनिरोधक गोलियों सहित कई तरीके अपनाए जा रहे थे, लेकिन इनसे कोई खास सफलता नहीं मिलती दिख रही थी।
आपातकाल शुरू होने के बाद पश्चिमी देशों का गुट और भी जोरशोर से नसबंदी कार्यक्रम लागू करने की वकालत करने लगा। इंदिरा गांधी ने यह बात मान ली। (बाकी पेज 8 पर)
जानकारों के मुताबिक यह उनकी मजबूरी भी थी क्योंकि वे खुद कुछ ऐसा करना चाह रही थीं जिससे लोगों का ध्यान उस अदालती मामले से भटकाया जा सके जो उनकी किरकिरी और नतीजतन आपातकाल की वजह बना। उन्होंने संजय गांधी को नसबंदी कार्यक्रम लागू करने की जिम्मेदारी सौंप दी जो मानो इसका इंतजार ही कर रहे थे।
इसके बाद कुछ महीनों तक इतने बड़े कार्यक्रम के लिए कामचलाऊ व्यवस्था खड़ी करने का काम हुआ। संजय गांधी ने फैसला किया कि यह काम देश की राजधानी दिल्ली से शुरू होना चाहिए और वह भी पुरानी दिल्ली से जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है। उन दिनों भी नसबंदी को लेकर कई तरह की भ्रांतियां थीं। मुस्लिम समुदाय के बीच तो यह भी धारणा थी कि यह उसकी आबादी घटाने की साजिश है। संजय गांधी का मानना था कि अगर वे इस समुदाय के बीच नसबंदी कार्यक्रम को सफल बना पाए तो देश भर में एक कड़ा संदेश जाएगा। यही वजह है कि उन्होंने आपातकाल के दौरान मिली निरंकुश ताकत का इस्तेमाल करते हुए यह अभियान शुरू कर दिया। अधिकारियों को महीने के हिसाब से टारगेट दिए गए और उनकी रोज समीक्षा होने लगी।
होना यह चाहिए था कि इतना बड़ा अभियान छेड़े जाने से पहले लोगों में इसको लेकर जागरूकता फैलाई जाती। जानकार मानते हैं कि इसे युद्धस्तर की बजाय धीरे-धीरे और जागरूकता के साथ आगे बढ़ाया जाता तो देश के लिए इसके परिणाम क्रांतिकारी हो सकते थे। लेकिन जल्द से जल्द नतीजे चाहने वाले संजय गांधी की अगुवाई में यह अभियान ऐसे चला कि देश भर में लोग कांग्रेस से और भी ज्यादा नाराज हो गए। माना जाता है कि संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम से उपजी नाराजगी की 1977 में इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करने में सबसे अहम भूमिका रही। (satyagrah.scroll.in)
देश की भौगोलिक अखंडता पर खतरे को लेकर झूठ बोलना बेहद कमजोर नेता की निशानी है। कोई अतिक्रमण नहीं हुआ है, यह कहने के बाद भी इस झूठ को अब छुपाना मुश्किल हो गया है।
पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल एचएस पनाग की मानें तो तीन अलग-अलग इलाकों में भारतीय क्षेत्र के कुल 40 से 60 वर्ग किलोमीटर हिस्से पर चीन कब्ज़ा जमा चुका है। जनरल पनाग का कहना है कि भारत को ये सुनिश्चित करना है कि एलएसी पर 1 अप्रैल 2020 से पूर्व की स्थिति कायम हो। यदि ये कूटनीतिक तरीकों से नहीं हो पाता तो फिर बलपूर्वक करना होगा। लेकिन एक स्पष्ट रणनीति बनाने और उसे राष्ट्र के साथ साझा करने के बजाय मोदी सरकार और सेना, मौजूदा स्थिति के लिए एलएसी संबंधी धारणाओं में अंतर को दोष देते हुए, अपनी ज़मीन गंवाने की बात को ‘नकारने’ में जुट गई है।
जमीन कोई जुमला नहीं है। वह एक भौतिक सत्य है। अगर भारत अपनी जमीन गंवाता है तो यह आज नहीं तो कल सबके सामने आएगा। भौगोलिक अखंडता को हुआ नुकसान झूठ के पर्दे से नहीं ढंका जा सकता।
यह कहकर कब तक काम चलेगा कि नेहरू ने भी तो ऐसा किया था। नेहरू के बाद किसने क्या किया, इसका हिसाब भी समय करेगा ही।
राजनीति में अपनी छवि को चमकाने का हर प्रयास जायज माना जाता है, लेकिन क्या तब भी इसे जायज माना जाएगा जब देश पर ऐतिहासिक संकट हो, जैसा कि तालाबंदी के दौरान पलायन से उपजा? क्या तब भी इसे जायज माना जाएगा जब देश की अखंडता पर दुश्मन देश की ओर से खतरा हो?
शी जिनपिंग से पीएम मोदी 18 बार मिल चुके हैं। झूला झूलते हुए, साथ चलते हुए, गाइड बनते हुए, दोस्ती गांठते हुए विभिन्न मुद्राओं में हास्यास्पद तस्वीरों के अलावा, इन 18 मुलाकातों का हासिल क्या रहा? महाबलीपुरम में जब शी जिनपिंग पधारे थे, तब कहा गया कि वह दौरा आधिकारिक था ही नहीं। ऐसी मुलाकातों का क्या फायदा?
नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही जनता को चमत्कृत करने के लिए विदेश नीति के मोर्चे पर भी स्टंट किए। उन्होंने ऐसा प्रचारित किया कि भारतीय प्रधानमंत्री कई देशों में अब तक गए ही नहीं थे, लेकिन हम जा रहे हैं और इतिहास रच रहे हैं।लेकिन यह कारनामा मोर का नाच साबित हुआ। भारत के पास विदेश नीति के मोर्चे पर ऐतिहासिक असफलता के अलावा कुछ नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है नेपाल। जिस नेपाल में आधे बिहारियों की ससुराल और मायका है, वहां भी भारत को फजीहत और विफलता के सिवाय कुछ हासिल नहीं है।
सरकार को चाहिए कि देश के लिए कम से कम अब जनता से झूठ बोलना बंद कर दे। सरकार का झूठ चीन को ताकत देगा। आप कहेंगे कि कोई घुसपैठ नहीं हुई, तो जहां घुसपैठ हुई है, वह वैधता पा लेगी।
नेता बयानों से कभी मजबूत नहीं हो सकता। नेता अपने कारनामों से मजबूत होता है और फिलहाल प्रधानमंत्री मोदी एक बेहद कमजोर नेता के रूप में दिख रहे हैं जो जनता से अपनी नाकामी छुपाने के लिए झूठ बोल रहे हैं।
एक मित्र किसी तरह का ध्यान करते हैं, किन्हींं बाबाजी ने बरसों पहले उन्हें सिखाया था। ध्यान पर मेरी पोस्ट पढक़र उन्होंने मुझे फोन किया। पूछने लगे कि क्या आप मोक्ष या निर्वाण को मानते हैं?
मैने कहा कि हां मोक्ष और निर्वाण होता है। सभी को होता है और रोज़ ही होता है।
उन्होंने पूछा कि कैसा होता है?
मैंने कहा कि मान लो कि आपके दिमाग में कोई बेकार की झक्क चल रही थी, आपको खिडक़ी के बाहर अंधेरे में भूत नजर आता था और आपने एक दिन टार्च जलाकर देखा तो वहां किसी का कुर्ता सूख रहा था। बस यही मोक्ष या निर्वाण है। आप भूत से मुक्त हो गए।
वे बोले बस इतना ही?
मैंने कहा हां इतना ही!! और नहीं तो क्या?
तब वे असल मुद्दे पर आए, बोले कि सुनते हैं कि वहां परम् आनन्द है अनन्त आनन्द है।
मैंने कहा कि पहली बात तो यह कि मनोवैज्ञानिक रूप से परम् आनन्द अनन्त काल के लिए असंभव है। कोई चीज़ शुरुआत में ही परम लगती है फिर वह सामान्य हो जाती है, सो परमानन्द इत्यादि की बकवास भूल जाइए। दूसरी बात कि मोक्ष या निर्वाण एक स्टेट ऑफ माइंड है जो व्यर्थ की विचारणा के थम जाने से जन्मी शांति या स्थायित्व है। वहां कोई आनन्द इत्यादि नहीं है। यह आनन्द की बकवास बाबाओं ने बना रखी है अपना धंधा चलाने के लिए। जब तक मन और जीवन है तब तक ही यह शांति है। उसके बाद सब तरह की शांति-अशांति दोनों मिट्टी में मिल जाती हैं।
वे तपाक से बोले कि अगर अनन्तकाल तक परमानन्द नहीं है या अवागमन से मुक्ति नहीं है तो फिर ध्यान करें ही क्यों?
मुझे हंसी आ गई, मैंने कहा कि ध्यान करके आप किस पर एहसान कर रहे हैं? मत कीजिये, आप यदि यह मानते हैं कि ध्यान से बरसों बाद कोई परमानन्द मिलेगा तो आप गलती में हैं। अगर ध्यान से तत्काल शांति नहीं मिलती तो आपको ध्यान समझ ही नहीं आया आज तक और हां आपको जिसने ध्यान सिखाकर अनन्तकाल तक परमानन्द का आश्वासन दिया है जरा उसके साथ हफ्ते भर रह आइये, आपको उनके जीने के ढंग में उनके मोक्ष की असली शक्ल नजर आ जायेगी।
यह सुनकर वे मित्र कुछ नाराज से हो गए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गलवान घाटी में हुए हत्याकांड पर विरोधी नेता हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तीखे आरोप लगा रहे हैं तो चीनी अखबार उनके संयम की तारीफें पेल रहे हैं। कांग्रेसी युवराज राहुल गांधी ने कहा है कि यह ‘नरेन्दर’ मोदी नहीं, ‘सरेन्डर’ मोदी है याने मोदी ने चीनियों के आगे आत्म-समर्पण कर दिया है।
मोदी ने जान-बूझकर भारतीय जमीन चीन को सौंप दी है। राहुल की इस जुमलेबाजी पर मुझे खास आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि आस-पास बैठे किसी आदमी ने जैसी चाबी भरी, गुड्डे ने वैसा नाच दिखा दिया। हां, यह तो मानना पड़ेगा कि ‘नरेन्दर’ को ‘सरेन्डर’ कहकर तुकबंदी में राहुल ने मोदी को मात कर दिया है। बेहतर होता कि हमारे नेता सार्वजनिक रुप से इस तरह के बयान देने की बजाय इस राष्ट्रीय दुख और अपमान की घड़ी में घर में बैठकर समयानुकूल सलाह-मश्विरा करते और आगे की रणनीति बनाते। यदि मोदी भी चाहते तो जवाहरलाल नेहरु की तरह अकड़ दिखा सकते थे। जैसे नेहरु ने 1962 में श्रीलंका-यात्रा पर जाते हुए कहा था कि मैंने भारतीय फौजों को आदेश दे दिया है कि चीनियों को अपनी सीमा में से मार भगाएं। ऐसा आदेश वर्तमान सरकार दे देती तो उसके परिणाम क्या होते ?
वैसा आदेश जारी करने की बजाय मोदी ने सारी कूटनीति का बोझ अपने ही कंधों पर डाल लिया है। उन्होंने कह दिया कि भारत की सीमा में कोई घुसा ही नहीं। भारत की जमीन पर किसी का भी कब्जा नहीं हुआ है। यदि ऐसा ही है तो यह सारा बवाल हुआ ही क्यों है ? इस संबंध में 16 जून से ही मैं कई सवाल कर चुका हूं। उन्हें अब दोहराने की जरुरत नहीं है लेकिन उन सवालों में से एक का जवाब तो रक्षामंत्री राजनाथसिंह ने दे दिया है। उन्होंने फौज से कहा है कि अब वह सीमांत पर देख-रेख और बातचीत के लिए जाए तो निहत्थे न जाए। हथियारबंद होकर जाए। चीनियों को भी समझ में आ गया होगा कि अब वे 15 जून की रात दुबारा दोहरा नहीं पाएंगे लेकिन मोदीजी का क्या होगा ? वे तो नेहरुजी से भी ज्यादा फंस गए। नेहरु ने 1962 में इतनी हिम्मत तो दिखाई कि चीनियों को निकाल बाहर करने का आदेश उन्होंने दे दिया था, यहां तो बात करने की भी हिम्मत का अभाव है।
चीन के सरकारी अखबारों और विदेश नीति विशेषज्ञों ने गलवान-कांड पर मोदी की नरमी और संयम की तारीफ की है। अब भी मौका है कि मोदी पहल करके इस अत्यंत दुखद कांड से आगे बढ़ें। अपनी दुविधा को खत्म करें। या तो जवाबी हमला करें या शी चिन फिंग से बात करें! मामले को सुलझाएं वरना जो जनता आज चीन के खिलाफ उठ खड़ी हुई है, वह कल मोदी के खिलाफ उठ खड़ी हो सकती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग इस समय जिस परेशानी को महसूस कर रहे हैं, क्या मोदी को उसका अंदाज है? (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
भारतीय जनसंघ के संस्थापक और इसके पहले अध्यक्ष डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आज 67वीं पुण्यतिथि है।
23 जून 1953 को उनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी। भारतीय जनता पार्टी इस दिन को बलिदान दिवस के रूप में मनाती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुखर्जी को याद करते हुए ट्वीट किया है, मां भारती के महान सपूत डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को उनकी पुण्यतिति पर शत-शत नमन।
डॉक्टर मुखर्जी अनुच्छेद 370 के मुखर विरोधी थे और चाहते थे कि कश्मीर पूरी तरह से भारत का हिस्सा बने और वहां अन्य राज्यों की तरह समान क़ानून लागू हो।
अनुच्छेद 370 के विरोध में उन्होंने आज़ाद भारत में आवाज़ उठाई थी। उनका कहना था कि एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान नहीं चलेंगे।
33 साल की उम्र में बने कुलपति
डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म छह जुलाई 1901 को कलकत्ता के एक संभ्रांत परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम आशुतोष मुखर्जी था, जो बंगाल में एक शिक्षाविद् और बुद्धिजीवी के रूप में जाने जाते थे।
कलकत्ता विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करने के बाद 1926 में सीनेट के सदस्य बने। साल 1927 में उन्होंने बैरिस्टरी की परीक्षा पास की।
33 साल की उम्र में कलकत्ता यूनिवर्सिटी के कुलपति बने थे। चार साल के कार्यकाल के बाद वो कलकत्ता विधानसभा पहुंचे।
कांग्रेस से मतभेद होने के बाद उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दिया और उसके बाद फिर से स्वतंत्र रूप से विधानसभा पहुंचे।
यह माना जाता है कि वो प्रखर राष्ट्रवाद के अगुआ थे।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने डॉ। श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपनी अंतरिम सरकार में मंत्री बनाया था। बहुत छोटी अवधि के लिए वो मंत्री रहे।
उन्होंने नेहरू पर तुष्टिकरण का आरोप लगाते हुए मंत्री पद से इस्तीफा दिया था। वो इस बात पर दृढ़ थे कि एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान नहीं चलेंगे।
वो चाहते थे कि कश्मीर में जाने के लिए किसी को अनुमति न लेनी पड़े। 1953 में आठ मई को वो बिना अनुमति के दिल्ली से कश्मीर के लिए निकल पड़े।
दो दिन बाद 10 मई को जालंधर में उन्होंने कहा था कि हम जम्मू कश्मीर में बिना अनुमति के जाएं, ये हमारा मूलभूत अधिकार होना चाहिए।
11 मई को वो श्रीनगर जाते वक्त गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें वहां के जेल में रखा गया फिर कुछ दिनों बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
22 जून को उनकी तबीयत खराब हो गई और 23 जून को उनका रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई।
जनसंघ का गठन
तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कई मतभेद रहे थे।
यह मतभेद तब और बढ़ गए जब नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के बीच समझौता हुआ। इसके समझौते के बाद छह अप्रैल 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर-संघचालक गुरु गोलवलकर से परामर्श लेकर मुखर्जी ने 21 अक्टूबर 1951 को राष्ट्रीय जनसंघ की स्थापना की, जिसका बाद में जनता पार्टी में विलय हो गया और फिर पार्टी के बिखराव के बाद 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ।
1951-52 के आम चुनावों में राष्ट्रीय जनसंघ के तीन सांसद चुने गए जिनमें एक मुखर्जी भी थे।
जब नेहरू ने मांगी माफी
टाईम्स ऑफ इंडिया के पूर्व संपादक इंदर मल्होत्रा ने कुछ साल पहले बीबीसी को एक दिलचस्प किस्सा सुनाया था, श्यामा प्रसाद मुखर्जी नेहरू की पहली सरकार में मंत्री थे। जब नेहरू-लियाकत पैक्ट हुआ तो उन्होंने और बंगाल के एक और मंत्री ने इस्तीफ़ा दे दिया। उसके बाद उन्होंने जनसंघ की नींव डाली।
आम चुनाव के तुरंत बाद दिल्ली के नगरपालिका चुनाव में कांग्रेस और जनसंघ में बहुत कड़ी टक्कर हो रही थी। इस माहौल में संसद में बोलते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कांग्रेस पार्टी पर आरोप लगाया कि वो चुनाव जीतने के लिए वाइन और मनी का इस्तेमाल कर रही है।
इस आरोप का नेहरू ने काफ़ी विरोध किया। इस बारे में इंदर मल्होत्रा ने बताया था, जवाहरलाल नेहरू समझे कि मुखर्जी ने वाइन और वुमेन कहा है। उन्होंने खड़े होकर इसका बहुत जोर से विरोध किया।
मुखर्जी साहब ने कहा कि आप आधिकारिक रिकॉर्ड उठा कर देख लीजिए कि मैंने क्या कहा है। ज्यों ही नेहरू ने महसूस किया कि उन्होंने गलती कर दी। उन्होंने भरे सदन में खड़े होकर उनसे माफी मांगी। तब मुखर्जी ने उनसे कहा कि माफ़ी मांगने की कोई जरूरत नहीं है। मैं बस यह कहना चाहता हूँ कि मैं गलतबयानी नहीं करूँगा। (bbc.com)
सरकारें स्वतंत्र मीडिया को ऐसे माध्यम की तरह देख सकती हैं जो इस महामारी से जल्दी और ज्यादा प्रभावी रूप से निपटने में उनकी मदद करे, पर वे उलट राह पर चल रही हैं
-रामचंद्र गुहा
1824 की बात है. बंगाल सरकार (जिसकी कमान तब ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ में थी) ने एक अध्यादेश पारित करते हुए प्रेस की आजादी पर कड़ी बंदिशें लगा दीं. नये नियमों के तहत सरकार कोई भी स्पष्टीकरण दिए बगैर किसी भी अखबार का लाइसेंस खत्म कर सकती थी. इस अध्यादेश से कोलकाता के बुद्धिजीवी समाज में आक्रोश फैल गया जो बांग्ला और हिंदी में कई अखबारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन कर रहा था. अध्यादेश रद्द करवाने के लिए सरकार को एक ज्ञापन भेजा गया. इसका मसौदा प्रख्यात बुद्धिजीवी राम मोहन राय ने तैयार किया था. राम मोहन राय ने इस पर टैगोर परिवार के सदस्यों सहित कई लोगों के हस्ताक्षर भी करवाए थे.
मैंने कई साल पहले राम मोहन राय का वह ज्ञापन पढ़ा था जिसमें इस घटना का जिक्र था. आज भारत में जिस तरह से पत्रकारों पर हमले बढ़ रहे हैं उसे देखते हुए मुझे इसे एक बार फिर देखने की उत्सुकता हुई. एक ऐसे समय में जब स्वतंत्र भारत की सरकार प्रेस की आजादी की उसी तरह दुश्मन दिखने लगी है जैसी कि औपनिवेशिक सरकार हुआ करती थी, राम मोहन राय के शब्द सचेत करते हैं.
ईस्ट इंडिया कंपनी को भेजे गए इस ज्ञापन में इस महान शख्सियत ने ब्रिटिश शासकों से आग्रह किया है कि वे उस राजनीतिक नीति पर न चलें जो एशिया के दूसरे शासकों द्वारा अक्सर अपनाई जाती है, जिसका आधारभूत सिद्धांत यह है कि लोगों को जितने ज्यादा अंधेरे में रखा जाएगा, शासकों को उनसे उतना ही फायदा होगा. राममोहन राय का कहना था, ‘यह सर्वविदित है कि निरंकुश सरकारें स्वाभाविक रूप से ऐसी किसी भी अभिव्यक्ति की आजादी का दमन करना चाहती हैं जो उनके कृत्यों को उजागर कर उनके लिए अपयश का कारण बन सकती हो.’
राम मोहन राय को उम्मीद थी कि पुराने शासकों की तुलना में नए शासक खुले दिमाग वाले होंगे. जैसा कि उन्होंने लिखा, ‘मानव की प्रकृति अपूर्ण है और यह मानने वाले हर अच्छे शासक को जानना चाहिए कि एक विशाल साम्राज्य को चलाने में गड़बड़ी हो सकती है. इसलिए वह ऐसे हर व्यक्ति को वे साधन देने के लिए उत्सुक होगा जो उसके ध्यान में कोई भी ऐसी चीज ला सकें जहां पर उसके हस्तक्षेप की जरूरत है. प्रकाशन की निर्बाध स्वतंत्रता ही वह अकेला और प्रभावी तरीका है जिससे यह काम लिया जा सकता है.’
राम मोहन राय का तर्क था कि सुशासन के लिए जानकारी का मुक्त प्रवाह जरूरी है. उन्होंने यह भी कहा कि अगर कोई शासक बुद्धिमत्ता के साथ अच्छा शासन करना चाहता है तो उसे अपनी प्रजा को इसकी इजाजत देनी चाहिए कि वह देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रशासन के मोर्चे पर हो रही भूलों की तरफ उसका ध्यान खींचे. बल्कि उसे तो लोगों को इसके लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.
19 सदी के इस उदारवादी की बातें 20वीं सदी में हुए उसके उत्तराधिकारी अमर्त्य सेन से मेल खाती हैं. 1977 में आई अपनी चर्चित किताब पॉवर्टी और फैमिन्स (गरीबी और अकाल) में अमर्त्य सेन ने कहा था कि निरंकुश सत्तावादी शासन की तुलना में लोकतंत्र में अकाल की संभावना कहीं कम होती है. इसके पीछे उनका तर्क था कि लोकतंत्र वाली व्यवस्था में अगर किसी जिले या राज्य में खाने-पीने की चीजों की कमी हो तो यह खबर तुरंत प्रेस में आ जाती है और सरकार वहां जल्द इन चीजों की आपूर्ति के लिए बाध्य हो जाती है. किसी भी लोकतंत्र में वैसा भयानक अकाल नहीं पड़ा है जैसा 1960 के दशक में चीन में पड़ा था. तब वहां पार्टी के निचले स्तर के अधिकारी डर के मारे खाने-पीने की चीजों की कमी की बात बीजिंग में बैठे अपने शीर्ष नेतृत्व को बताते ही नहीं थे.
राम मोहन राय और अमर्त्य सेन के शब्द और काम उस संकट में अनिवार्य रूप से प्रासंगिक हैं जो कोविड-19 महामारी के चलते पैदा हुआ है. सरकारें स्वतंत्र मीडिया को खबरों के एक ऐसे मूल्यवान स्रोत की तरह काम में ले सकती हैं जो इस महामारी से जल्दी और ज्यादा प्रभावी रूप से निपटने में उनकी मदद करे. लेकिन इसके बजाय कई सरकारें पत्रकारों के साथ दुश्मन जैसा बर्ताव कर रही हैं. एक हालिया रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त ने कोविड-19 संकट के दौरान एशिया में अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमलों के प्रति आगाह किया है. इस रिपोर्ट में भारत का जिक्र भी है. इसमें कहा गया है कि भारत में कई पत्रकारों और कम से कम एक डॉक्टर पर इसलिए मामला दर्ज हो गया कि उन्होंने कोविड-19 को लेकर व्यवस्था की प्रतिक्रिया की सार्वजनिक रूप से आलोचना की थी. पिछले दिनों मुंबई पुलिस ने एक आदेश पर भी काफी विवाद हुआ. इसमें कहा गया था, ‘कोई भी व्यक्ति ऐसी जानकारी शेयर न करे जिससे सरकारी कर्मचारियों में लोगों का भरोसा कम हो या फिर कोविड-19 महामारी को रोकने के उनके काम में बाधा पैदा हो, और न ही ऐसी जानकारी शेयर करे जिससे किसी की जान को ख़तरा हो या समाज में अशांति फैले.’
अपनी रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयुक्त ने चेतावनी दी कि इस तरह का दमन नीतियों को प्रभावी बनाने के बजाय इस काम में बाधा पैदा करेगा. उन्होंने कहा, ‘असाधारण अनिश्चितता के इस दौर में स्वास्थ्यकर्मियों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और आम लोगों को जनहित से जुड़े अहम मुद्दों पर अपने विचार प्रकट करने की आजादी दी जानी चाहिए. रिपोर्ट में स्वास्थ्य सेवा से जुड़े नियम-कायदों, सरकार द्वारा सामाजिक-आर्थिक संकट के प्रबंधन और राहत सामग्री के वितरण को इन मुद्दों के तौर पर गिनाया गया.
इस रिपोर्ट में आगे कहा गया, ‘इस संकट को सूचनाओं के प्रवाह या उन पर चर्चा को रोकने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. नजरिये में विविधताओं से उन चुनौतियों के बारे में समझ बनाने और उनसे बेहतर तरीके से निपटने में मदद मिलेगी जिनका हम सामना कर रहे हैं. इससे कई देशों को समस्या की जड़ों के अलावा इसके दीर्घकालिक सामाजिक-आर्थिक संकटों और अन्य प्रभावों से निपटने के उपायों पर एक जीवंत बहस खड़ी करने में भी मदद मिलेगी. संकट के बाद खुद को फिर से खड़ा करने के लिहाज से ऐसी बहस बहुत अहम है.’
इसकी संभावना कम ही है कि केंद्र या फिर राज्यों की सत्ता में बैठे लोगों ने इन शब्दों पर ध्यान दिया होगा. कुछ ही दिन पहले दिल्ली स्थित राइट्स एंड रिस्क एनैलिसिस ग्रुप ने एक रिपोर्ट जारी की थी. इसमें कहा गया कि मौजूदा महामारी पर अपनी रिपोर्टिंग के चलते करीब 55 पत्रकारों को सरकार या राजनीतिक तत्वों से उत्पीड़न और धमकी का सामना करना पड़ा है. इनमें से कई पत्रकार गिरफ्तार किए गए, कइयों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई तो कइयों के साथ मारपीट भी हुई. यानी सरकार साफ तौर पर सभी पत्रकारों को संदेश देना चाहती है कि या तो चुप रहिए या फिर जो हम चाहते हैं करिए, नहीं तो हम आपको छोड़ेंगे नहीं.
ऊपर जिन 55 पत्रकारों के मामलों का जिक्र हुआ उनमें से 11 भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में हैं और छह जम्मू-कश्मीर में जहां केंद्र का शासन है. पांच हिमाचल प्रदेश में हैं. यहां भी भाजपा की सरकार है. लेकिन इस सूची में गैरभाजपा शासित राज्य भी हैं. तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और महाराष्ट्र में भी चार-चार मामले हैं. ताजा मामला स्क्रोल.इन की पत्रकार सुप्रिया शर्मा का है जिनके खिलाफ उत्तर प्रदेश में एफआईआर दर्ज हुई है. उन्होंने प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में लॉकडाउन के दौरान गरीबों को हुई परेशानियों पर रिपोर्टों की एक सीरीज की थी.
इन पत्रकारों पर आईपीसी की औपनिवेशिक दौर की धाराओं के तहत आरोप दर्ज किए गए हैं.. उदाहरण के लिए धारा 124ए (राजद्रोह), 153ए (धार्मिक आधार पर दो समुदायों के बीच द्वेष भड़काना), 182 (गलत जानकारी देना), 188 (किसी लोकसेवक के आदेश की अवज्ञा), 504 (शांति भंग भड़काने के इरादे से जानबूझकर किसी का अपमान), 505(2) (विभिन्न समुदायों के बीच शत्रुता, घॄणा या वैमनस्य की भावनाएं पैदा करने के आशय से झूठे बयान देना) आदि. ये वही धाराएं हैं जिनका सहारा लेकर कभी ब्रिटिश सरकार लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी महान और देशभक्त पत्रकारों को जेल में डाला करती थी.
सच्चाई को खुलेआम दबाने की ये कोशिशें देखकर राम मोहन राय के शब्द याद आते हैं जिन्होंने कहा था कि निरंकुश सत्तावादी ताकतें स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्ति की आजादी को दबाना चाहती हैं. यह वास्तव में सच है कि इस सोच पर चलने वाली सरकारों को इस विचार से प्रोत्साहन मिलता है कि लोगों को जितना ज्यादा अंधेरे में रखा जाएगा, उनके शासकों को उनसे उतना ही फायदा होगा.
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स नाम का चर्चित संगठन प्रेस की आजादी से जुड़ी जानकारियां इकट्ठी कर हर साल एक सूचकांक यानी इंडेक्स जारी करता है. 2010 में भारत इस इंडेक्स में 105वें स्थान पर था. एक दशक बाद यह आंकड़ा बड़ा गोता लगाते हुए 142 तक पहुंच गया है. हम यह सोचकर तसल्ली कर सकते हैं कि हमारे कुछ पड़ोसियों का हाल इससे भी बुरा है. पाकिस्तान 145वें स्थान पर है तो बांग्लादेश 151वें. हालांकि नेपाल (112) और श्रीलंका (127) जैसे पड़ोसी भी हैं जिनका प्रदर्शन हमसे बेहतर है.
प्रेस की आजादी के मामले में भारत के प्रदर्शन में आई इस गिरावट का अहसास मुझे निजी तौर पर भी हुआ है. मैं 30 साल से अलग-अलग अखबारों और वेबसाइटों के लिए लिख रहा हूं. इस दौरान मैंने उनके मालिकों और संपादकों पर दबाव लगातार बढ़ते हुए देखा है. एक वक्त था जब मालिकों को ताकतवर राजनेताओं की तुलना में बड़े विज्ञापनतादाओं की नाराजगी की ज्यादा चिंता रहती थी. अब मामला बिल्कुल उल्टा है. हमारे प्रधानमंत्री को प्रेस की आजादी से लगाव नहीं है, लेकिन यही बाद ज्यादातर (बल्कि सभी) मुख्यमंत्रियों के बारे में कही जा सकती है. बीते कुछ सालों के दौरान पूरे भारत में संपादकों को राजनेताओं से धमकी भरे कॉल मिलना आम बात हो चुकी है. और अब पत्रकारों को डराने के लिए उनके खिलाफ एफआईआर भी सामान्य बात होती जा रही है.
हालांकि अब भी भारत मे कुछ हिम्मती, स्वतंत्र अखबार और वेबसाइटें सक्रिय हैं. यही बात पत्रकारों के बारे में भी कही जा सकती है. लेकिन समग्र रूप में देखें तो तस्वीर धूमिल है. भारतीय पत्रकारिता आपातकाल के बाद से इतनी कम स्वतंत्र और राज्य व्यवस्था के उत्पीड़न की इतनी ज्यादा शिकार कभी नहीं हुई थी. आज राम मोहन राय जिंदा होते तो निश्चित रूप से वे सत्ताधारियों के नाम एक नया ज्ञापन तैयार करना चाहते. हालांकि इस पर दूसरी तरफ से चुप्पी ही रहती, या हो सकता है कि लेखक पर राजद्रोह के आरोप में मुकदमा दर्ज हो जाता. (satyagrah.scroll.in)
समाजशास्त्रियों का ऐसे मानना है कि महामारी के समय में दुनिया एकजुट होगी; जातिवाद, वर्ग संघर्ष और नस्लवाद का असर कुछ कम होगा। परंतु आज कोविड-19 के दौर में पूरी दुनिया में इसके ठीक विपरीत घटनायें हो रही है। इस संकट की घड़ी में भी भारतीय समाज और राष्ट्र ने अपने कई रंग दिखाए हैं।
अमेरिका के मिनियापोलिस में इसी दरमियान एक अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की मौत श्वेत पुलिस ऑफिसर डेरिक शॉविन के हाथों हुआ। शॉविन ने दिनदहाड़े भरी सडक़ में फ्लॉयड के गर्दन पर अपने घुटने आठ मिनट से अधिक समय तक दबाये रखा, जिससे दम घुटकर फ्लॉयड की मौत हुई। इस आधार पर अमेरिका से लेकर पूरे दुनिया में ब्लैक लाईव्स मैटर्स के नारे लगाते हुए रंग भेद के खिलाफ आंदोलन हो रहा है। इसपर गंभीर वैचारिक और बौद्धिक विमर्श टीवी व समाचार आदि के माध्यम से चल रहा है। इसे ब्लैक वर्ग के लोग रंगभेद के खिलाफ हक-अधिकार के निर्णायक और अंतिम लड़ाई मान रहे हैं। इस पर अभी टीका टिप्पणी करना संभव नहीं है, क्योंकि यह तो समय ही बताएगा की यह आंदोलन दुनिया के इतिहास में क्या बुनियादी परिवर्तन लाता है। पर यह तो सच है कि इतनी बड़ी महामारी के काल में भी अश्वेत लोगों ने अपने ताकत और धर्य का इम्तिहान दिया।
इसी दरमियान भारत में देखे तो इससे भी भयानक कई घटनाएं हमारे सामने आयी। कोरोना महामारी जैसे संकटकाल में जब पूरे देश में लॉकडाउन रहा, तब जातिगत उत्पीडऩ कम होने की उम्मीद थी, लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत और सभी समाजशास्त्रीय भ्रम भी टूट गया। भारतीय समाज की नस-नस में फैला हुआ जातिवाद का जहर इस दौरान पहले से भी अधिक शक्ति से अपने रंग रूप दिखाती रही। भेदभाव, जातिवाद, छुआछुत की कई पुरानी पद्धतियों के अलावा नये आधुनिक स्वरूप भी देखने को मिला।
देश भर में कई जगह दलितों की हत्या, बलात्कार, मारपीट, भेदभाव आदि लॉकडाउन के पहले से अधिक तेवर के साथ इस दौरान उभरकर आया। कुछेक भेदभाव के स्वरुप तो अब समाज में एकदम नॉर्मल यानी बहुत सामान्य हो चुके हैं। उदाहरण से गांव में जाति आधारित पारा-मोहल्ला का सीमांकन, जातिगत गाली-गलौज, सिंचाई के पानी का पहला हक़, हैण्डपंप का पहला हक़, तालाबों में नहाने के अलग-अलग घाट, उच्च जाति के लोगों के गली-मोहल्ले में दलितों का नहीं जाना, दलित महिलाओं के साथ छेडख़ानी, आदि नॉर्मल दिनचर्या बन चुका है। इस पर गांव के दलितों को भी कुछ असामान्य सा महसूस नहीं होता है। कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति यदि ऐसे जातिगत प्रवित्तियों पर सवाल उठाये तो पूरा समाज मिलकर उसे ही जातिवादी घोषित कर देती है।
बाबासाहेब आंबेडकर ने जाति के विनाश में ठीक ही कहा है कि जाति एक धारणा है, यह मन की स्थिति है। जाति का विनाश आंबेडकर का सर्वाधिक चर्चित ऐतिहासिक व्याख्यान है, जो उनके द्वारा लाहौर के जातपात तोडक़ मंडल के 1936 के अधिवेशन के लिए अध्यक्षीय भाषण के रूप में लिखा गया था, पर विचारों से असहमति के कारण अधिवेशन ही निरस्त हो गया। यह व्याख्यान आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि जाति का सवाल भारतीय समाज का आज भी सबसे ज्वलंत प्रश्न है। डॉ. आंबेडकर पहले भारतीय समाजशास्त्री थे, जिन्होंने हिन्दू समाज में जाति के उद्भव और विकास का वैज्ञानिक अध्ययन किया था।
कोरोना लॉकडाउन के दरमियान यही भारतीय मन की स्थिति बार-बार सामने आती रही। वैसे इस प्रकार की खबरें एक समाचार से बढक़र बौधिक, वैचारिक या नीतिगत बहस नहीं बन पाती। हाल की कुछ घटनाओं में से कुछेक का जिक्र इस बिंदु को समझने हेतु रख रहा हूं। मई के महीने में नागपुर के एक दलित युवक की हत्या हुई, वहीं ओडिशा के कालाहांडी में इस दौरान एक दलित युवती की बलात्कार और हत्या का मामला प्रकाश में आया।
कुछ दिन पहले मीडिया में खबर आई थी कि नैनीताल जिले के ओखलकांडा ब्लॉक के भुमका गांव में हिमाचल प्रदेश और हल्द्वानी से आए चाचा-भतीजे को स्कूल में बने क्वारंटाइन सेंटर में रखा गया था। सेंटर में भोजन बनाने की जिम्मेदारी स्कूल की भोजनमाता को दी गई, जो एक दलित समुदाय से है। क्वारंटाइन के दौरान दोनों चाचा-भतीजे ने इस महिला के हाथों से बना हुआ खाना खाने से इंकार कर दिया। साथ ही उन्होंने महिला को अभद्र जातिगत गली-गलौज कर डेस्क को महिला के पैरों में उल्टा दिया। इस घटना के उपरांत, ये दोनों क्वारंटाइन सेंटर में अपने घर से खाना बनवाकर मंगाए और खाए।
इस बीच इसी तरह की घटनाएं उत्तरप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान से भी मीडिया में आती रही। मध्यप्रदेश में तो एक दलित दंपत्ति को शौचालय में क्वारेंटाइन किया गया और भोजन भी वहीं दिया गया। मीडिया से खबर सामने आने के बाद उन्हें स्कूल भवन ले जाया गया। बिहार में सवर्ण जाति की लडक़ी से शादी करने वाले विक्रम की संदिग्ध परिस्थितयों में मौत होती है। उसकी मौत की जांच की मांग करने वाले संतोष को पुलिस के मार-पीट का सामना करना पड़ता है।
समाचार पत्रों के मुताबिक दक्षिण भारत के तमिलनाडु में कोविड-19 लॉकडाउन के बीच राज्य में सामान्य से अधिक दलित अत्याचार की रिपोर्टिंग हुई। आंध्रप्रदेश के विजयवाड़ा जिले की पहाड़ी इलाकों में पडऩे वाला एक गांव का टोला, जिसमें दलित समुदाय के 57 परिवार निवासरत हैं। उन पर नीचे मैदानी इलाकों में रहने वाले ऊंचे जातियों ने पहाड़ से उतरने पर रोक लगा रखी है। इन दबंग जातियों के अनुसार दलित समुदाय के लोग कचरा चुनते हैं, जिनकी वजह से गांव में बीमारी फैल सकती है।
लॉकडाउन के बहाने उन पर ऐसी सख्तियां लगा दी गई जो बाकी गांव वाले खुद पर लागू नहीं करते हैं। उन्हें कोई सामान तक लेने नहीं दिया गया। सामाजिक संगठनों के माध्यम से जब यह मामला उजागर हुआ, तब लोगों को सरकार ने कुछ राहत उपलब्ध करवाया। कर्नाटक में भी कई तरह के भेदभाव और छुआछुत के अनेक मामले सामने आए हैं। हैदराबाद के एक तेलुगु गीतकार ने कोरोना लॉकडाउन पर जाति व्यवस्था को सही ठहराते हुए एक गीत भी लिखकर सोशल मीडिया में प्रसारित किया। और इसी दौरान दलित लेखक एवं बुद्धिजीवी आनंद तेलतुंबडे की गिरफ्तारी भी हुई।
यह एक सत्य है कि संकटकाल में व्यक्ति, समाज और देश की सबसे बड़ी सामाजिक एवं राजनीतिक विरोधाभास उभरकर सामने आती है और इस दौरान वे दरारें और चौड़ी हो जाती हैं जो पहले से मौजूद होती है। कोरोना के बहाने जातिवादी सामंती तत्व लगातार दलितों पर हमला कर रहे हैं और ऐसे समय में सरकार का अपराधियों को अप्रत्यक्ष संरक्षण देना और ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है।
डॉ आंबेडकर ने सही ठहराया था कि जाति के जहर इंसानों को इतना घिनौना बना देती है कि वह स्वनिर्मित गुलामगिरी की भंवर में फंस जाता है, जहां से निकलना ना केवल असंभव सा है, बल्कि नामुमकिन जैसा है। स्वतंत्र भारत में संवैधानिक संरक्षण के बावजूद दलित समुदाय के लोग आज तक स्वयं को एक संपूर्ण स्वतंत्र, समतामूलक नागरिक के रूप में न ही समझ पाए और न ही स्थापित कर पाए। यही वजह है कि कोरोनाकाल में भी अमेरिका से कई अधिक घटनायें होने के बावजूद ब्लैक लाईव्स मैटर्स की तजऱ् में दलित लाईव्स मैटर्स पर कोई आवाज नहीं उठ पाया।
(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता है, तथा वर्तमान में फॉरवर्ड प्रेस नई दिल्ली में सलाहकार संपादक है)
जब जंगलों को उजाड़े बिना देश की जरूरत पूरा करने के लिए पर्याप्त कोयला भंडार मौजूद हैं, तो जैव-विविधता से भरपूर इस खजाने को क्यों उजाड़ा जाए?
मोदी सरकार द्वारा 18 जून को देश की 41 कोयला खदानों की नीलामी के ऐलान के बाद झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने शनिवार को सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। सोरेन ने इससे पहले केंद्र सरकार को चि_ी लिखकर मांग की थी कि कोरोना महामारी के वक्त आनन-फानन में घने जंगलों वाले इलाके कोयला खनन के लिए न खोले जाएं। अब झारखंड सरकार ने सर्वोच्च अदालत में केंद्र सरकार के इस कदम को चुनौती दी है। इसके अलावा छत्तीसगढ़ के वन और पर्यावरण मंत्री ने भी केंद्र सरकार से कहा है कि वनों और पर्यावरण की सुरक्षा और भविष्य में मानव-हाथी द्वंद रोकने के लिए राज्य के हसदेव अरण्य जैसे घने जंगल क्षेत्र में खनन न किया जाए। कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने इस बारे में केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को पत्र लिख कर कहा है कि इस नीलामी को निरस्त किया जाए।
क्या चाहती है केंद्र सरकार?
केंद्र सरकार ने बीते गुरुवार देश के पांच राज्यों की 41 कोयला खदानों की नीलामी का ऐलान किया। ये खदानें कमर्शियल माइनिंग के लिए खोली जा रही हैं। यानी खनन करने वाली निजी कंपनियां भी अब कोयले को खुले बाजार में किसी को भी बेच सकती हैं। कुल 41 में से 29 खदानें तो देश के तीन राज्यों झारखंड, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में ही हैं। बाकी तेरह खदानें ओडिशा और महाराष्ट्र में हैं।
प्रधानमंत्री ने कहा कि इस नीलामी के जरिए कोरोना महामारी से पैदा संकट को अवसर में बदला जाएगा। उन्होंने कहा कि कोल माइनिंग से भारत का कोयला आयात घटेगा जिससे विदेशी मुद्रा बचेगी और वह आत्मनिर्भर बनेगा। गृहमंत्री अमित शाह ने एक ट्वीट में कहा कि इस फैसले से 2।8 लाख से अधिक नौकरियां मिलेंगी, 33,000 करोड़ रुपये का निवेश आएगा और राज्यों को सालाना 20,000 करोड़ रुपये की कमाई होगी।
घने वन क्षेत्र हो जाएंगे बर्बाद
मोदी सरकार के इस फैसले पर जिन वजहों से सवाल उठे हैं उनमें पहली बड़ी चिंता पर्यावरण का विनाश होने की है क्योंकि जिन जंगलों को नीलामी के लिए खोला जा रहा है वह नदियों, झरनों और जैव विविधता से भरपूर हैं जहां वन्य जीवों की भरमार है। मिसाल के तौर पर छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य में चार कोयला खदानें नीलाम हो रही हैं जिनका कुल 87 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रफल घना जंगल है।
इसी तरह महाराष्ट्र के बंदेर और मध्यप्रदेश के गोटीटोरिया (पूर्व) कोयला खान क्षेत्र 80 फीसदी जंगलों से ढका है। झारखंड के चकला में 55त्न जंगल हैं और यह दामोदर और बकरी जैसी नदियों का जलागम क्षेत्र है। जानकार कहते हैं कि यूपीए सरकार के वक्त घने जंगलों में खनन प्रतिबंधित करने की ‘गो' और ‘नो-गो' कोल एरिया नीति धीरे-धीरे कमजोर होती गई है और इसी कारण अब प्रचुर वन संपदा वाले जंगल खनन के लिए दिए जा रहे हैं। सदेव अरण्य का यह इलाका न केवल अमूल्य जैव विविधता का भंडार है बल्कि सिंचाई की जरूरत पूरा करने वाली नदियों का जलागम क्षेत्र भी है।
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता आलोक शुक्ला कहते हैं कि हसदेव अरण्य में खनन से न केवल अमूल्य वन संपदा खत्म होगी, बल्कि पानी का गंभीर संकट भी पैदा हो जाएगा, टेयर की सिंचाई होती है। यह क्षेत्र हाथियों का प्राकृतिक बसेरा और कॉरिडोर भी है। साथ ही ये गोंड आदिवासियों का घर है और उनकी आजीविका और संस्कृति इसके साथ जुड़ी है। इसी आधार पर साल 2009 में सरकार ने ही इस इलाके को नो-ग क्षेत्र घोषित किया था। यह खुद सरकारी दस्तावेजों में कहा गया है कि अगर हसदेव अरण्य को छोड़ भी दिया जाए तो कोयला उपलब्धता पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
जानकार सवाल उठाते हैं कि जब भारत जलवायु परिवर्तन से लडऩे के लिए प्रतिबद्ध है तो फिर वह घने जंगलों को काट कर कोयला कैसे निकाल सकता है। पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने इस नीलामी को रोकने की मांग करते हुए कहा, जैव विविधता से भरे इलाकों में कोल-ब्लॉक्स की नीलामी और ‘गो और ‘नो-गो वर्गीकरण की अनदेखी से तीन-तरफा विनाश होगा। (बाकी पेज 7 पर)
इसे (नीलामी को) तुरंत रद्द किया जाना चाहिए। राजनीतिक रूप से मजबूत बिजली कंपनियों का असर दिख रहा है। प्रधानमंत्री को जलवायु परिवर्तन पर किए वादे को पूरा करना चाहिए। हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने कोल ब्लॉक्स की नीलामी के वक्त कहा है कि खनन की इस प्रक्रिया में पर्यावरण संरक्षण का पूरा ध्यान रखा जाएगा।
कोयले की जरूरत का गणित
सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रहे झारखंड के मुख्यमंत्री सोरेन ने जहां राज्यों की सहमति के बिना नीलामी को संघीय भावना का खुला अपमान बताया है, वहीं जानकार यह सवाल भी उठा रहे हैं कि क्या भारत को कोयले के किए ज रूरत पूरा करने के लिए उन जंगलों में घुसने की जरूरत है जहां कोयले की मौजूदगी की पूरी जांच नहीं की गई है।
साल 2019-20 में भारत का कुल कोयला उत्पादन 72.1 करोड़ टन रहा और उसने 24.29 करोड़ टन आयात किया गया। यानी उत्पादन और आयात मिलाकर कुल 97.2 करोड़ टन। जबकि इस साल कोयले की कुल खपत 88.71 करोड़ टन रही है। कोयला मंत्रालय के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि देश में अभी कुल 14,800 करोड़ टन का कोयला भंडार (प्रूवन कोल) ऐसा है जिसके लिए नए जंगलों (नो-गो क्षेत्र) को काटने की जरूरत नहीं है। कोल इंडिया की रिपोर्ट कोल विजन-2030 के मुताबिक साल 2030 तक देश में 150 करोड़ टन कोयले की सालाना जरूरत का अनुमान है। इस हिसाब से अभी उपलब्ध 14,800 करोड़ टन का भंडार तो अगले कई दशकों तक भारत की जरूरतों के पर्याप्त है।
सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर के नंदीकेश शिवलिंगम कहते हैं, देश में अभी भले ही 600 से अधिक कोल ब्लॉक हैं लेकिन 50 या 60 कोल ब्लॉक ही हैं जहां से अधिकांश कोयला निकाला जाता है। ये सारे बड़े कोल ब्लॉक हैं और इनकी उत्पादन क्षमता अधिक है। बहुत सारी खानें प्रोडक्टिव नहीं हैं। इसलिए हमें सिर्फ जंगलों को खोलने पर ही जोर नहीं देना चाहिए, बल्कि अगर हम समझदारी के साथ माइनिंग करें, तो अगले कई दशकों तक बहुमूल्य जंगलों को बचा सकते हैं।
साफ ऊर्जा का बढ़ता ग्राफ
घने जंगलों में कमर्शियल कोयला खनन के खिलाफ एक अहम तर्क भारत की साफ ऊर्जा पॉलिसी से जुड़ा है। कोयला बिजलीघर अभी भारत के कुल उत्पादन का करीब 65फीसदी पॉवर देते हैं और आने वाले वक्त में भी कोयले पर भारत की निर्भरता बनी रहेगी लेकिन पिछले एक दशक में देश में साफ ऊर्जा (मुख्य रूप से सोलर पावर) का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। इससे यह सवाल भी उठता है कि आने वाले दिनों में क्या कोल पावर का हिस्सा नहीं घटेगा।
अपनी ताजा रिपोर्ट में सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी यानी सीईए ने कहा है कि साल 2030 तक भारत में सोलर पावर जनरेशन, कोल पावर को पीछे छोड़ देगा। अभी साफ ऊर्जा (सौर, पवन, बायोमास, हाइड्रो और न्यूक्लीयर) कुल पॉवर जनरेशन का करीब 22 प्रतिशत है। सीईए की रिपोर्ट के मुताबिक 2030 तक यह आंकड़ा 44 प्रतिशत से अधिक हो जाएगा। दिल्ली स्थित द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट (टेरी) का अध्ययन बताता है कि 2030 तक सौर ऊर्जा 2.30 से 1.90 रुपये प्रति यूनिट तक सस्ती हो सकती है और इसकी स्टोरेज का खर्च भी 70 फीसदी घटेगा।
जलवायु परिवर्तन पर नजर रखने वाली कंपनी क्लाइमेट ट्रेंड की आरती खोसला कहती हैं, सोलर पॉवर लगातार सस्ती हो रही है और कोयला बिजली कंपनियों के लिए कीमतों का कम्पटीशन झेलना मुश्किल हो रहा है। अगर हम इसके साथ कोयला बिजलीघरों से निकलने वाले धुएं का सेहत पर पड़ रहा दुष्प्रभाव जोड़ दें तो साफ नजर आता है कि यह भारत के लिए आने वाले दिनों का रास्ता नहीं है। सरकार को उन स्वस्थ जंगलों को काटने से पहले कई बार सोचना चाहिए जो ग्लोबल वॉर्मिंग के खिलाफ एक महत्वपूर्ण ढाल तैयार करते हैं।
उद्योगों को चाहिए कोयला
यह सच है कि कोयले की जरूरत पावर सेक्टर के अलावा स्टील, सीमेंट, कंस्ट्रक्शन और खाद जैसे उद्योगों के लिए भी है और नई खदानों के पीछे यह तर्क है कि इंडस्ट्री को इसके लिए सौर ऊर्जा के बजाय कोयला ही चाहिए औद्योगिक क्षेत्र के जानकार कहते हैं कि कोरोना महामारी की वजह से अभी उद्योग-धंधे भले ही ठंडे पड़े हैं लेकिन जल्द ही इन उद्योगों को कोयला चाहिए होगा।
लेकिन स्टील उद्योग में इस्तेमाल होने वाला कोकिंग कोल भारत में बहुत कम पाया जाता है और ज्यादातर कंपनियों को इसे आयात ही करना पड़ता है। सरकार ने इस नीलामी में 4 खदानें कोकिंग कोल की भी रखी हैं लेकिन भारत में कोकिंग कोल की क्वॉलिटी बहुत अच्छी नहीं है। इसके अलावा समुद्र तटीय इलाकों में पावर प्लांट हों या कोई औद्योगिक कारखाना, कई बार उनके लिए देश के भीतर से कोयला खरीदने के बजाय समुद्री रास्ते से विदेश से कोयला आयात करना सस्ता पड़ता है। यह देखना दिलचस्प रहेगा कि क्या इस नीलामी में हिस्सा लेने वाली माइनिंग कंपनियां इस तथ्य पर विचार करेंगी। (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गालवान घाटी में हुई मुठभेड़ के बाद भारत में कितना कोहराम मचा हुआ है। हमारे विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री को सफाइयों पर सफाइयां देनी पड़ रही हैं, प्रधानमंत्री कार्यालय को प्रधानमंत्री की सफाई को और भी साफ-सूफ करना पड़ रहा है, विरोधी दल ऊटपटांग और भोले-भाले सवाल किए जा रहे हैं और भारत की जनता है कि उसका पारा चढ़ा जा रहा है। वह जगह-जगह प्रदर्शन कर रही है, चीनी राष्ट्रपति के पुतले जला रही है, चीनी माल के बहिष्कार की आवाज़ें लगा रही हैं।
हमारे कई टीवी एंकर गुस्से में अपना आपा खो बैठते हैं। हमारे 20 जवानों की अंतिम-यात्राओं के दृश्य देखकर करोड़ों लोगों की आंखें आसुओं से भर जाती हैं। लेकिन हम जरा देखे कि चीन में क्या हो रहा है ? चीन के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने गलवान के हत्याकांड पर अपना मुंह तक नहीं खोला है। उसके विदेश मंत्री ने हमारे विदेश मंत्री के आरोप के जवाब में वैसा ही आरोप लगाकर छोड़ दिया है कि भारतीय सैनिकों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया है। वे वैसा न करें। दोनों विदेश मंत्रियों ने अपनी संप्रभुता की रक्षा की बात कही और सीमा पर शांति बनाए रखने की सलाह एक-दूसरे को दे दी ?
चीन में न तो भारत-विरोधी प्रदर्शन हो रहे हैं, न ही वहां के टीवी चैनल और अखबारों ने इसे अपनी सबसे बड़ी खबर बनाया है और न ही भारतीय माल के बहिष्कार की बात कोई चीनी संस्था कर रही है। चीनी सरकार तो बिल्कुल चुप ही है। आपने जरा भी सोचा कि ऐसा क्यों हैं ? इसका जवाब ढूंढिए, हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान में, जो उन्होंने बहुदलीय बैठक में दिया था।
उन्होंने कहा था कि हमारी सीमा में कोई नहीं घुसा है और हमारी जमीन के किसी भी हिस्से पर किसी का कब्जा नहीं है। मोदी ने चीन के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला। याने चीन ने कुछ किया ही नहीं है। यह बयान नरेंद्र मोदी का नहीं, चीनी राष्ट्रपति शी चिन फिंग का-सा लगता है। उन्होंने नहीं लेकिन उनके प्रवक्ता ने यही कहा है कि चीन ने किसी रेखा का उल्लंघन नहीं किया है। याने अभी तक देश को यह ठीक-ठाक पता ही नहीं है कि गालवान घाटी में हुआ क्या है ? यह सवाल मैंने पहले दिन ही उठाया था। जब मोदी अपनी सफाई पेश कर रहे थे, तब नेता लोग क्या खर्राटे खींच रहे थे ?
मोदी को चाहिए था कि प्रमुख नेताओं के साथ बैठकर वे सब बातें सच-सच बताते और जरूरी होता तो उन्हें गोपनीय रखने का प्रवाधान भी कर देते। अब भी स्थिति संभाली जा सकती है। मोदी चीनी राष्ट्रपति शी से सीधी बात करें। इस स्थानीय और अचानक झड़प पर दोनों नेता दुख और पश्चाताप व्यक्त करें। यदि वे यह नहीं करते तो माना जाएगा कि दोनों के व्यक्गित संबंध शुद्ध नौटंकी मात्र थे। यह स्थिति शी के लिए नहीं, मोदी के लिए बहुत भारी पड़ जाएगी। नेहरू पर उठी भाजपा की उंगली सदा के लिए कट जाएगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
भाषा के अभाव में भेदभाव से इंसान को नहीं प्यार से इंसान को समझिए
-सैयद रज़ा हुसैन ज़ैदी
जैसा कि पीके ने बोला था कि उसके गोले में लोग एक दुसरे से बात करने के लिए अल्फाजो का इस्तेमाल नहीं करते बल्कि एक दूसरे को समझ जाते है।’ सोचने वाली बात है अगर सिर्फ हाथ पकड़कर हमारे गोले मतलब हमारी धरती पर भी ऐसा होता की हमको अलफ़ाज़ इस्तेमाल ना करने पड़ते तो क्या आपस में जो इतनी असमानताए हैं जेंडर को लेकर शायद वो न होती। लेकिन वास्तव में ये एक नामुमकिन ख़्वाब जैसा ही है कि इंसान अल्फाज को खल्क ना करता तो आज क्या होता?
खैर इंसान ज़मीन पर आया और विकास के क्रम में लफ्जो को भी बनाता चला गया और जैसे की हमारे समाज में सत्ता हमेशा से पुरुषों के हाथो में रही तो लफ़्ज़ भी हमेशा ऐसे है बने, जो कमज़ोर वो ‘ज़नाना’ कहलाया और जो कद्दावर वो ‘मर्दाना।’ ये हमेशा से चला आ रहा है कि भाषा किस तरह से भेदभाव करती है और आज ये बात हिंदी भाषा में करना इसलिए भी अहम् है क्योंकि हम उस देश में रहते है जहां सेन्सस 2011 के अनुसार 52 करोड़ से ज्यादा जनता हिंदी को अपनी मातृभाषा मानती है और सिर्फ 2,59,678 लोग हैं जो कि अंग्रेजी को अपनी पहली भाषा मानते हैं। इसके अलावा जितने लोग हैं वह हमारी स्थानीय भाषाओं को इस्तेमाल करते है, चाहे वो मराठी हो, गुजराती हो, भोजपुरी हो या पंजाबी या कोई और स्थानीय भाषा। खैर इस लेख में हम ये जानने की कोशिश करेंगें कि कैसे भाषा की वजह से एल जी बी टी क्यू + समुदाय मुश्किल झेलता है।
लॉकडाउन में मैंने अपने दोस्त को फोन किया और बोला ये बता जेंडर को हिंदी में क्या कहते है, वो बोला लिंग, मैंने बोला और सेक्स को, बोला लिंग। मैंने कहा मतलब हिंदी में जेंडर और सेक्सुअलिटी में कोई फर्क ही नहीं है, उसने बोला फर्क है मगर शब्द नहीं है और ये तो सिर्फ एक जेंडर की बात है जिसका स्थानीय भाषा में शब्द नहीं है। ऐसे में सोचने वाली बात है कि अब तक 30 से ज्यादा जेंडर की खोज करी है, तो हम उन सबको क्या कहेंगे?
नारीवादी कमला भसीन ने जेंडर का हिंदी शब्द बनाया हैं, इसे ‘सामाजिक लिंग’ बोलते हैं जो की बिलकुल ही प्रचलन में नहीं है, हम में से 90 फ़ीसद लोगों को नहीं पता है क्योंकि ये अधिकारिक नहीं है।
ऐसे में जब भी सशक्तिकरण की बात शुरु होती है तो बात हमेशा शब्दों पर भाषा पर और शिक्षा पर आती है, क्योंकि हम शिक्षा की बात तब तक नहीं कर सकते हैं, जब तक कि हमारे पास कुछ हो ना शिक्षा देने के लिए। यानी कि अगर विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रम ही नहीं है तो शिक्षा किस बात की दी जाएगी और अगर हिंदी का पाठ्यक्रम अंग्रेजी में है तो कैसे पढ़ाया जाएगा। अब बात घूम फिर कर आती है हमारी ‘शब्दावली’ पर। हमारे ‘लफ्जों।’ पर हमारी ‘बातचीत’ पर।
और हिंदुस्तान को ध्यान देते हुए स्थानीय भाषा और भी अहम् हो जाती है। मुझे आज भी याद है की पिछले साल प्राइड परेड से पहले लखनऊ में प्रेसवार्ता थी। वहाँ पर एक पत्रकार ने सवाल किया कि क्या समलैंगिक और किन्नर एक होते है? मुझे एक पल को तो गुस्सा आया, मगर अपनी जगह को समझते हुए मैंने उसे समझाया। वहाँ मैंने ये सोचा कि स्थानीय भाषा का विकास जब तक नहीं होगा तब तक लोगों के दिलों से डर नहीं जाएगा।
सत्रह मई को ई-डा-हो-ट-बी (इंटरनेशनल डे अगेंस्ट होमोफोबिया, ट्रांस्फोबिया और बाईफोबिया) होता है और इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि मैं इस शब्द को ही हिंदी या उर्दू में नहीं लिख सकता हूं। क्योंकि होमोफोबिया का कोई हिंदी, उर्दू शब्द नहीं है। ट्रांस्फोबिया का कोई हिंदी या उर्दू शब्द नहीं है।
आप ज़्यादा से ज़्यादा यह कह सकते हैं कि समलैंगिकता से भय के लिए ‘भाषा’ भी ज़िम्मेदार है। सही शब्दावली का ना होना एक बहुत बड़ा कारण है कि छोटे प्रांतों, शहरों, कस्बों और प्रदेशों में लोगों को लगता है कि ये ‘बड़े लोगों की बीमारी’ है, क्योंकि उनके पास खुद के स्थानीय शब्द नहीं है। बहुत ज्यादा हुआ तो वह लड़कों को हिजड़ा बोल देते हैं और घर से निकाल देते है। अगर कोई लड़की समलैंगिक है तो उसे अक्सर चुड़ैल कह देते है या फिर रूपांतरण चिकित्सा (कन्वर्सन थेरेपी) के लिए ले जाते है।
सही भाषा और शब्दावली के न होने से छोटे प्रांतों, शहरों, कस्बों और प्रदेश के लोगों में समलैंगिकता को लेकर भय रहता है, जिससे वे असहज रहते हैं।
इसी तरीके से एक गलतफहमी यह है कि हिजरा या किन्नर पैदा होता है। मानो कि ये प्राकृतिक पहचान है। हिजरा और किन्नर दोनों ही पूर्वी एशिया के कल्चरल पहचान है और अगर यह प्राकृतिक पहचान होती पूर्वी एशिया में ही क्यों मिलती है पूरी दुनिया में क्यों नहीं हो आपको हिजड़ा समुदाय के लोग सिर्फ और सिर्फ पूर्वी एशिया में ही मिलेंगे हिंदुस्तान, पाकिस्तान बांग्लादेश और नेपाल के कुछ हिस्सों में बाकी पूरी दुनिया के किसी भी हिस्से में किन्नर समाज नहीं मिलेगा, क्योंकि यह प्राकृतिक पहचान और बॉर्न आईडेंटिटी नहीं है।
अब सवाल है कि फिर यह क्या है? तो जैसा मैंने कहा कि ये एक कल्चरल पहचान है। कोई भी इंसान जो अपने आपको उस समाज का हिस्सा महसूस करता है, उसका हिस्सा हो सकता है, उनकी खुद की अलग भाषा है, अलग पहचान है। हमारी एक बहुत अज़ीज़ किन्नर मित्र ज़ैनब एक सवाल के जवाब में कहती है की हमने खैरात घर नहीं खोला है जो आप कहते है की किन्नर बच्चों को घर से उठा ले जाते है। आप लोगो को ज्ञान और समझ ना होने की वजह से उस मासूम बच्चे को जिसको कोई मेडिकल कंडीशन है आप किन्नर समझ रहे हो। अब बात आती है कि जन्म के वक़्त अगर योनि और लिंग विकसित नहीं है, तो वो बच्चे को हम क्या कहेंगे? क्या इसके लिए हमारी लोकल भाषा में कोई शब्द है? इसका सीधा सा जवाब है-नहीं।
इंग्लिश में जरूर है हम ऐसे बच्चो को जिनके जननांगों में कुछ अलग है तो उसे इंटरसेक्स कहते है। कहीं-कहीं पर हिंदी में इसे उभयलिंगी कहा जाता है। मगर ये प्रचलित नहीं है, सामाजिक लिंग की तरह तो अब फिर से हम वहीं आ गए। अगर शब्द नहीं है तो बच्चा ‘हिजड़ा।’ शायद भाषा की ये खीचातानी कभी ख़त्म न हो या हो भी जाए तो हमें उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए।
और सबसे आखिर में किसी शायर ने कहा है –
“लफ़्ज़ तासीर से बनते है, तलफ़्फ़ुज़ से नहीं,
अहले दिल आज भी है, अहले ज़ुबान से आगे…“
तो बस अल्फाजो, जज्बातों और मुहब्बतों की चुप्पी तोड़िए और अगर हमारे लिए या किसी के लिए भी कोई लफ़्ज़, अल्फ़ाज़ कुछ भी नहीं समझ आ रहा तो भागने के बजाए दिल में पीके की तरह मुहब्बत रखिए। क्योंकि इश्क़ से बेहतर कोई ज़ुबान नहीं होती।
(यह लेख पूर्व में फेमिनिज्म इंडिया में प्रकाशित किया जा चुका है ) (hindi.feminisminindia.com)
-मनजीत कौर बल
विगत दो दिन पहले सपने में एक सांप से लंबी चर्चा हुई। सुबह उठने पर थोड़ा परेशां रही कि सपना था या मेरा अपराधबोध। पिछले एक साल से स्नेक रेस्क्यू के कॉल में मेरा जाना कम ही हो रहा है। व्यस्तता बढ़ रही है और टीम भी जाने को तैयार रहती है। शायद इसलिए ही लेकिन कई बार जाना जरूरी होता है जब विशेष रूप से समझाना हो कि हम रेस्क्यू करने वाले लोग नहीं हैं। पर्यावरण के हर घटक के साथ रहने की आदत बनाने वाले लोग हैं। ऐसे ही दो कॉल में जाना हुआ और पहुँचने पर मेंढक या चूहे के साथ ही सांप मिले। घरवालों को बहुत मनाने के प्रयास में विफल रहे कि उसे खाने दिया जाए और थोड़ा इंतजार करके जाने दिया जाए। लेकिन जब मारने को तैयार होने लगे तो उन्हें वहां से हटाना पड़ा।
अब सारी चर्चा तो सांप को मालूम नहीं होती। उनकी भाषा हमारी तरह नहीं है, तो संवाद की बेहद कमी सी लगती ही है।
ऐसे में जब उसको हटाने लगी तो क्यों ऐसा लगा उस दिन कि सांप जोरों से चिल्ला रहा हो। बस यही सोचते हुए घर पहुंची और उस रात के सपने का वाकया कुछ इस तरह से याद है।
सांप चिल्लाते हुए बोल रहा हो अभी तो आया था। किसको समस्या हो रही। मुझे तो किसी से कोई मतलब नहीं रहता। अब मैं क्या करूं अगर वो चूहे लोगों के घरों में घुस जाते हैं। मैं तो उन चूहों के लिए घुसता हूँ और पता नहीं घर के लोग ऐसे इधर-उधर दौड़ते हैं। मानो मैं उनसे मिलने पहुंचा हूँ, बिन बुलाए मेहमान की तरह। शुरू में तो लगता था कि लोग मुझे देखकर खुशी में उछल रहे, धीरे-धीरे समझ आया कि डरते हैं क्यों, नहीं मालूम?
जो भी हो ऐसे सामने खाने को मिले और आप जैसे लोग उठाने आ जाते हो। लोगों को समझाते क्यों नहीं कि अगर मुझे ले जाओगे तो कोई दूसरा आएगा और आखिर चूहे को खाकर हम सबका भला ही तो करते हैं। फिर क्यों इतना हंगामा। मेरा एरिया बदलकर नए तरीके से पूरा माहौल समझना भी तो एक बड़ी चुनौती, इसके बारे में क्यों नहीं सोचते? नई जगह ले जाने पर नए दुश्मन नई रुकावटें। कुछ तो मेरे जीवन को समझो। आजकल सब गूगल में उपलब्ध है। एक बार समय निकालकर पढ़ ही लेते, आप लोग ही समय निकालकर लोगों को बताओ कि पूरे शहर में कितने साँपों ने कितनों को काटा और कितने मरे? फिर क्यों इतना डरना। साँपों को कौन सा शौक होता है कि मनुष्य को काटने जाएँ। न हमारे हाथ, पैर और न ही कान कि कुछ सुन पाएं कि हमारे बारे में चर्चा क्या हो रही है? दिखाई भी पूरा आदमी नहीं देता, उसके बाद पैर और कुछ लाठियां ही रहतीं हैं। उसके भी विपरीत ही भागना ठीक समझते हैं..फिर भी इतना हंगामा।
आपके बच्चे के सामने भूख में थाली हटाएंगे तो कैसा लगेगा? सोचकर देखिए और अगली बार फिर मेरा खाना छिनिये। थोड़ा संवेदनशील तो बनिए। तभी कुछ बेहतर होगा, पर्यावरण में और फायदा मिलेगा आपको।
इतने में नींद खुल गई। आसपास देखा तो कोई सांप नहीं था लेकिन मेरा अपराधबोध मेरे भीतर ही था। तब तक रहेगा जब तक इस सांप की बातों तो लोगों तक न पहुंचा दिया जाए और भोजन करते साँपों को परेशां न करने का संदेश सबको दिया जाए।
- लक्ष्मण सिंहदेव
7 दिवसीय पुस्तक समीक्षा चुनौती श्रृंखला में पहली पुस्तक जिसकी मैं समीक्षा कर रहा हूँ आखिरी मुगल का हिन्दी अनुवाद। इसे विलियम डैलरिम्पल ने लिखा है। मुगल बादशाह जफर के आखिरी दिनों का दिल्ली का वर्णन है, और बादशाह के आखिरी बर्मा वाले दिनों का। पुस्तक का आधार राष्ट्रीय अभिलेखागार में मौजूद दस्तावेज एवम तत्कालीन जासूसों के पत्राचार है। डैलरिम्पल ने इन्हें अपने सहायक फारुकी की सहायता से पढ़ा और निष्कर्ष निकालकर अपने हिसाब से इतिहास की विवेचना की। ये दस्तावेज 1857 के गदर के आसपास के हैं। और बादशाह के पत्राचार के, जासूसों के खतों के।
वैसे मुझे पता चला कि असल काम फारूकी ने किया, डैलरिम्पल, मजा ले गया। जैसे आजकल कोई भी बिना समाज शास्त्र के बेसिक सिद्धांत जाने कुछ-कुछ सामाजिक मुद्दों पर विशेषज्ञ के समान राय प्रकट कर देता है और पॉप सोशियोलॉजी उभरी है, वैसे ही यह किताब पॉप हिस्ट्री का एक अनुपम उदाहरण है। पॉप हिस्ट्री मतलब ज्यादा नहीं सोचना, इतिहास को मेरठ में छपने वाले उपन्यास की भांति पढ़ो, ज्यादा दिमाग न लगाओ और इसके पीछे अंग्रेजों का एक एजेंडा भी होता है।
वस्तुत: जैसे अंग्रेज यह कहने की चेष्टा कर रहे हो कि हमने तुम्हें गुलाम बनाकर अहसान किया था। लगभग 580 पेज की इस किताब में अनेक खण्ड हैं जो बहादुर शाह जफर के शासन काल का वर्णन करते हैं। डैलरिम्पल ने इस बात पर दु:ख प्रकट किया है कि लालकिले के अंदर मौजूद प्रासाद को अंग्रेजों ने ध्वस्त कर दिया और उस प्रासाद का कोई रेखाचित्र भी मौजूद नहीं है। और वह संभवत: विश्व का श्रेष्ठ प्रासाद हो।
1857 के गदर को मुसलमानों द्वारा धर्म युद्ध बनाने पर भी जोर है। काफिरों को मारो का नारा इतना प्रचलित हुआ कि तत्कालीन हिन्दू भी अंग्रेजों के खिलाफ यह नारा लगाते प्रतीत होते हैं। इस किताब में इस बात पर काफी जोर है कि मुसलमान अंग्रेजों के खिलाफ धार्मिक स्पिरिट से लड़ रहे थे इसलिए गदर की विफलता के बाद अंग्रेजों ने मुसलमानों को दिल्ली से बाहर कर दिया और जामा मस्जिद में सिख सैनिक रहने लगे।
महीनों तक जामा मस्जिद में सिख रहे जो वहीं सुअर काटकर खाते थे। जब अंग्रेजों ने लालकिले पर कब्जा कर लिया तो अंग्रेजों का साथ देने वाले सिख, पठान सिपाहियों ने मुगलशाही वंश की 300 से ज्यादा महिलाओं के साथ लालकिले के अंदर बलात्कार किया और बाद में उन्हें रेड लाइट इलाकों में बेच दिया गया गया। वे स्वयं ही वेश्यावृत्ति करने लगी।
पठानों और सिखों को मुगलों से पहले से ही चिढ़ थी चूंकि मुगलों ने पठानों-अफगानों से हिंदुस्तान का तख्त छीना इसलिए उन्होंने पूरी भड़ास निकाली। सिखों ने संभवत: अपने गुरुओं की हत्या से चिढ़कर ऐसा किया। किताब में कुछ मसाला भी है। यथा एक मुगल शहजादा गर्मी के कारण यमुना में तैरने गया तो उसे एक मगरमच्छ ले गया। एक घटना का जिक्र है कि एक हिन्दू मुगल बादशाह जफर के पास आया और कहा कि उसे इस्लाम कबूल करना है लेकीन जफर ने उसे भगा दिया।
किताब का सबसे रोचक पक्ष है मुगल बादशाह के एकदम आखिरी के दिनों का वर्णन जो दिन बर्मा में गुजरे। यह बहुत रोचक है। डैलरिम्पल ने लिखा है कि बेगम जीनत महल ने अपने नौकर के साथ ही यौन संबंध बना लिए ऐसा कुछ अंग्रेजों ने शक जाहिर किया। कुल मिलाकर मसाला पढऩे वालों के लिए यह अच्छा है, यह सोशल इतिहास तो हो सकता है लेकिन राजनैतिक नहीं। इसका अनुवाद जकिया जहीर ने किया है और अच्छा हिंदुस्तानी अनुवाद है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह अच्छी बात है कि सरकार ने दिल्ली में कोरोना-मरीज़ों के इलाज की दरें घटा दी हैं। पिछले कई लेखों में मैं इसका आग्रह करता रहा हूं लेकिन पिछले तीन महीनों में अस्पतालों ने जो लूटपाट मचाई है, वह गजब की है। मरीजों से ढाई-तीन गुना पैसा वसूल किया गया। उनमें से कुछ बच गए, कुछ चल बसे लेकिन सब लुट गए। 10-10 और 15-15 लाख अग्रिम धरा लिए गए। जिनको कोरोना नहीं था, उन्हें भी सघन चिकित्सा (आईसीयू) या सांस-यंत्र (वेंटिलेटर) पर धर लिया गया।
हमारी सरकारों ने लोगों को मौत से पहले ही डरा रखा था, अब लोग मंहगे इलाज से भी डर गए। इसीलिए दुकानदार दुकानें नहीं खोल रहे हैं, खरीददार बाजारों में नहीं जा रहे हैं और हमारे मजदूर गांवों से वापस नहीं लौट रहे हैं। अब गृहमंत्री अमित शाह ने ठीक पहल की और एक कमेटी ने सारे मामले की जांच-पड़ताल करके इलाज की नई दरें घोषित की हैं। पता नहीं, इन दरों का निजी अस्पताल कहां तक पालन करेंगे ? अब कोरोना की जांच 4500 रु. की बजाय 2400 में होगी।
पहले अस्पताल में कमरे के 25 हजार रु. रोज लगते थे, अब 8 से 10 हजार लगेंगे। पहले सघन चिकित्सा के 24-25 हजार रु. रोज लगते थे, अब 13 से 15 हजार रोज लगेंगे। सांस-यंत्र के पहले 44 से 54 हजार रु. रोज लगते थे, अब 15 से 18 हजार रोज लगेंगे। दूसरे शब्दों में यदि किसी मरीज को अस्पताल में 10 से 12 दिन भी रहना पड़े तो उसका खर्च हजारों में नहीं, लाखों में होगा ? देश के 100 करोड़ से ज्यादा लोग तो इतना मंहगा इलाज करवाने की बात सोच भी नहीं सकते। जो 25-30 करोड़ मध्यम वर्ग के मरीज़ मजबूरी में अपना इलाज करवाएंगे, वे यही कहेंगे कि मरता, क्या नहीं करता ? वे अपने जीवन-भर की कमाई इस इलाज में खपा देंगे, कुछ परिवार कर्ज में डूब जाएंगे और कुछ को अपनी जमीन-जायदाद बेचनी पड़ेगी। इसमें शक नहीं कि सरकार द्वारा बांधी गई दरों से उन्हें कुछ राहत जरुर मिलेगी लेकिन यह राहत सिर्फ दिल्लीवालों के लिए ही क्यों है ? ये दरें पूरे देश के अस्पतालों पर लागू क्यों नहीं की जातीं ?
छोटे कस्बों और शहरों में तो इन्हें काफी कम किया जा सकता है। भारत के अपने घरेलू नुस्खों और मामूली इलाज से ठीक होनेवालों की रफ्तार बहुत तेज है। इन लाखों लोगों पर तो नाम-मात्र का खर्च होता है लेकिन गंभीर रुप से बीमार होनेवालों की संख्या कितनी है ? सब मिलाकर कुछ हजार ! क्या इन लोगों के इलाज की जिम्मेदारी केंद्र और राज्यों की सरकारें मिलकर नहीं ले सकतीं ? यह ठीक है कि इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार के मामले भी सामने आएंगे लेकिन एक लोक-कल्याणकारी राज्य को इस संकट-काल में लोक-सेवा की इस चुनौती को स्वीकार करना ही चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-मृगेन्द्र सिंह
गलवान घाटी में देश के 20 जवान शहीद हो गए। उनमें से एक जवान दीपक सिंह गहरवार रीवा जिले के फरेंदा गांव के रहने वाले थे। दीपक के बड़े भाई प्रकाश सिंह भी फौज में हैं। पिता गजराज सिंह किसान हैं। किसानी भी नाममात्र की महज एक एकड़ के लगभग ज़मीन है। पहले सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करते थे और बाद में जब बड़े बेटे ने आर्मी ज्वाइन किया, उन्होंने गार्ड की नौकरी छोड़ दी। पूरे परिवार का काफ़ी संघर्षों में जीवन गुजरा। गजराज सिंह के दोनों बेटों ने खूब मेहनत की और आर्मी में चले गए। दीपक जब 6 माह के थे तभी मां छोड़ गयीं और दादी व पिता ने ही पालन पोषण किया। पिता ने बेटों के लिए जीवन समर्पित कर दिया और बेटे भी पिताजी के समर्पण पर समर्पित भाव से आगे बढ़ते गये।
कर्जा-कुर्जा पटा के अभी दो साल पहले पक्का मकान बना। मकान का काम अभी बाकी है जैसे सामने की छोड़कर बाहर की दीवारों की छपाई नहीं हुई है। घर के सामने कीचड़ था, लेकिन शहीद के घर मुख्यमंत्री को आना था इसलिए प्रशासन ने मिट्टी, मुरुम डलवाकर पाट दिया।
6 महीने पहले ही दीपक की शादी हुई थी। गरीब किसान गजराज सिंह के घर में जबको खुशहाली आना शुरू ही हुई थी कि बेटा मात्रभूमि की रक्षा में बलिदान हो गया। यह किसी बाप के लिए गर्व की बात है, पर बाप के कांधे पर बेटे का शव दु:ख के पहाड़ से कम नहीं है। जब से दीपक के शहीद होने की खबर लगी, उनके न आंसू छिप पाये न दु:ख। वह किसी से कुछ बात भी नहीं कर रहे थे। शुक्रवार को जब सेना के बड़े अफसर उनसे मिले तो वह सिर्फ हाथ जोड़कर खड़े रहे और सिर हिलाते रहे बस। ताबूत को जब खोला गया तो एक बाप जो मौन था वह बच्चों की तरह चीखकर फफक-फफक कर रोने लगा। उनको देखकर जो भी था सबकी आंखें नम हो गईं। परिवार का मुखिया ही बेसुध होकर इस तरह दु:ख में डूब जाये तब उस दु:ख की कल्पना नहीं की जा सकती।
लोगों से बात करने पर कोई सरकार से बदले की बात करता, कोई शहीद की मूर्ति या स्मारक, कोई शहीद के नाम पर अस्पताल या भवन की बात करता। लेकिन शहीद के पिता व भाई ने कुछ नहीं कहा। किसी और से कहा हो पता नहीं, पर उनके दु:ख देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक पिता को बेटा और एक भाई को भाई चाहिए। बूढ़ी दादी को पोता व पत्नी को पति।
खैर मुख्यमंत्री ने शहीद के परिजनों के लिए घोषणा की और घर पहुंचकर ढाढ़स भी बंधाया। गौर करने वाली बात यह है कि शहीद का पार्थिव शरीर रात में ही इलाहाबाद पहुंच गया था। इलाहाबाद से शहीद के गांव की दूरी लगभग अस्सी-नब्बे किमी के आसपास होगी। इसके बावजूद दोपहर ढाई बजे के बाद पार्थिव शरीर घर पहुंचा। लोग कह रहे थे मुख्यमंत्री जी आ रहे हैं इसलिए देरी हो रही है। पिछले दो दिनों से जैसे ही ख़बर लगी शहीद के घर परिवार वाले व रिश्तेदार भूखे-प्यासे जवान बेटे के अंतिम दर्शन के लिए व्याकुल हैं। रो रोकर बुरा हाल है। हजारों की तादाद में लोग सुबह से इक_ा हैं, सबको यही मालूम है आ रहे हैं।
सही समय सिर्फ प्रशासन को मालूम था कि मुख्यमंत्री भोपाल में इतने बजे राज्यसभा चुनाव से निपटेंगे और फिर चलेंगे। इसी हिसाब से शहीद का शव घर पहुंचना चाहिए कि मुख्यमंत्री अंतिम समय में अर्थी को कंधा दे सकें। जनता को इतना लंबा इंतजार मात्र सियासत के मद्देनजर। मुख्यमंत्री के पास समय नहीं है तो क्या वह बाद में शहीद के घर नहीं जा सकता। बाद में जाने से उसे यह भी पता चलेगा कि उसकी घोषणाओं की पूर्ति हुई कि नहीं।
बहरहाल प्रधानमंत्री का इस तरह कहना कि न हमारी सीमाओं पर कोई घुसा था और न घुसा है। एक तरह से चीन को क्लीन चिट देते हुए शहीद जवानों की शहादत पर सवाल खड़े करना है कि जब चीनी सैनिकों ने कुछ किया ही नहीं तो ये निहत्थे जवान चीनी सैनिकों को समझाने क्यों गये थे? एक तरफ टीवी चैनलों पर चीन को धूल चटाने का शोर, दूसरी तरफ प्रधानमंत्री का बयान और शहीद के पिता का चेहरा। तीनों की तुलना करने पर पता चल जाएगा कि किसने क्या खोया व पाया है और क्या होना चाहिए।
नोट-चित्र में चेहरे पर हरा मास्क लगाये हुए शहीद के पिता हैं। जय हिन्द
-श्रवण गर्ग
ज़मीनी युद्धों को जीतने के लिए हमारे पास चाहे जितनी बड़ी और ‘सशक्त’ सेना हो, कूटनीतिक रूप से हारने के लिए बस एक ‘कमज़ोर’ बयान ही काफ़ी है ! क्या प्रधानमंत्री के केवल एक वक्तव्य ने ही देश को बिना कोई ज़मीनी युद्ध लड़े मनोवैज्ञानिक रूप से हरा नहीं दिया है ? क्या चीन ने अपना वह लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लिया है जिसे वह हमसे लड़कर कभी भी हासिल नहीं कर सकता था? पंद्रह जून की रात हमारे बहादुर सैनिक कथित तौर पर निहत्थे भी थे और साथ ही उनके हाथ अनुशासन ने बांध भी रखे थे वरना गलवान घाटी में स्थिति 1962 के मुक़ाबले काफ़ी अलग हो सकती थी।हम अपने सैनिकों की शहादतों का बदला लेने के लिए अब क्या करने वाले हैं ? क्या केवल चीनी वस्तुओं के बहिष्कार से ही हमारे सारे ज़ख़्म भर जाएँगे ?
पंद्रह जून की रात गलवान घाटी में हुई घटना के चार दिन बाद (19 जून को)विपक्षी दलों के नेताओं के साथ हुई वीडियो वार्ता में प्रधानमंत्री को यह कहते हुए प्रस्तुत किया गया कि :’ना वहाँ कोई हमारी सीमा में घुस आया है और ना कोई घुसा हुआ है ,न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के क़ब्ज़े में है ।’प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य के बाद बवाल मचना ही था और वह मचा भी हुआ है।पूछा जा रहा है कि अगर हमारी सीमा में कोई घुसा ही नहीं तो फिर हमारे बीस सैनिकों की शहादत कहाँ और कैसे हो गई ? क्या चीन के क्षेत्र में हो गई ? ऐसा है तो क्या हमने एल ए सी पर वर्तमान स्थिति को स्वीकार कर लिया है ? प्रधानमंत्री के वक्तव्य के कोई घंटे भर बाद ही नई दिल्ली स्थित चीनी दूतावास ने एक बयान जारी कर दिया कि गलवान घाटी एल ए सी में चीन के हिस्से वाले भाग में स्थित है। उसके बाद देर रात भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय की ओर से प्रधानमंत्री का संशोधित वक्तव्य जारी हुआ जिसमें सिर्फ़ इतना कहा गया कि :’ ना कोई घुसा हुआ है, न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के क़ब्ज़े में है।’ पर तब तक जो भी क्षति होनी थी हो चुकी थी। उल्लेखनीय यह भी है कि वक्तव्य में चीन का नाम लेकर कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया।
प्रधानमंत्री के दूसरे कार्यकाल की पहली वर्षगाँठ जब सत्तारूढ़ दल द्वारा उपलब्धियों का भारी गुणगान करते हुए मनाई रही थी तब चीनी सैनिक सीमा पर जमा हो चुके थे।गलवान घाटी की घटना ने उनके पिछले छह वर्षों के पूरे कार्यकाल को ही लहू लुहान कर दिया। दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम से एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि इस तरह के संवेदनशील मसलों पर वक्तव्य देने के लिए उन्हें सलाह कौन दे रहा है ! क्या विदेश मंत्री एस जयशंकर ,जो भारतीय विदेश सेवा में रहते हुए वर्ष 2009 से 2013 तक चीन में एक सफल राजदूत रहे, वहाँ की भाषा जानते हैं और चीनी नेताओं की ताक़त और कमज़ोरियां दोनों को बखूबी समझते हैं ! रक्षामंत्री राजनाथ सिंह जो अटलजी के जमाने से केंद्र की राजनीति में माहिर हैं और कई महत्वपूर्ण मंत्रालय सम्भाल चुके हैं ! राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित कुमार डोवाल जो 1999 के कंधार विमान अपहरण कांड में बातचीत करनेवाले तीन प्रमुख लोगों में एक थे और जिन्हें कभी भारतीय जेम्स बांड भी कहा जाता था या चीफ़ आफ़ डिफ़ेन्स स्टाफ़ बिपिन रावत या फिर गृह मंत्री अमित शाह ? या फिर कहीं ऐसा तो नहीं है कि प्रधानमंत्री सुनते तो सबकी हैं पर करते और कहते वही हैं जैसा कि वे चाहते हैं ,जैसी कि उनकी स्टाइल और उनका ‘राजधर्म’ उन्हें अंदर से निर्देशित करता है?
पूछा यह भी जा रहा है कि चीनी घुसपैठ के मामले में पाँच मई से पंद्रह जून तक पैंतालीस दिनों का धैर्य प्रधानमंत्री ने कैसे दिखा दिया? पुलवामा में तो कार्रवाई तत्काल की गई थी और उसके नतीजे भी चुनाव परिणामों में नज़र आ गए थे।विपक्ष को भी घटना के चार दिन बाद विश्वास में लेने का विचार उत्पन्न हुआ।देश की जनता को तो अभी भी सबकुछ साफ़-साफ़ बताया जाना शेष है।ऐसा होने वाला है कि जनता का ध्यान लद्दाख घाटी से हटाकर किसी नए संकट के लॉक डाउन में क़ैद कर दिया जाएगा ? प्रधानमंत्री के वक्तव्य के बाद सत्ता के गलियारों में इतना सन्नाटा क्यों पसरा हुआ है ? महामारी के साथ बिना किसी वैक्सीन से मुक़ाबला करने वाले देश को क्या अब आत्मग्लानि से बीमार पड़ने दिया जाएगा ?
इन दिनों यूरोप में ‘योग-जीवनदायी शक्ति’ नाम की एक ऐसी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म चल रही है जिसे योग से अपना लकवा ठीक करने वाले एक फ्रांसीसी पत्रकार ने बनाया है
-राम यादव
स्तेफान अस्केल एक फोटोग्राफर पत्रकार हैं। उस समय उनकी उम्र करीब 40 साल रही होगी जब वे अचानक गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। चलना-फिरना बहुत मुश्किल हो गया। डॉक्टरों ने कहा, रीढ़ का ऑपरेशन करना पड़ेगा। ऑपरेशन हुआ। लेकिन ऑपरेशन के बाद कमर से नीचे के पूरे शरीर को लकवा मार गया। डॉक्टरों से जो कुछ बन पड़ा, सब कुछ किया।कोई लाभ नहीं हुआ। अंतत: उन्हें कहना पड़ा कि अब तो जीवनपर्यंत लकवे के साथ ही जीना पड़ेगा।
फोटो-पत्रकार होने के नाते स्तेफान अस्केल बीमारी से पहले घूमने-फिरने के आदी थे। स्वाभाविक ही था कि शेष जीवन बिस्तर में पड़े-पड़े या पहियाकुर्सी में बैठे-बैठे निठल्ले बिताना उन्हें कतई स्वीकार नहीं था। संयोग से उन्हें योग करने के लाभकारी प्रभावों का पता चला और वे यौगिक-उपचार तथा योगाभ्यास द्वारा काफ़ी कुछ ठीक भी हो गये। ठीक होते ही उन्होंने लगभग आधी दुनिया की यात्रा की। हर जगह उनका ऐसे लोगों से मिलना-जुलना हुआ, जो योग और ध्यान के माध्यम से अपनी बीमारियों से या तो मुक्त हो गये थे या अपनी शारीरिक बाधाओं को पूरी तरह या काफी कुछ साध कर सामान्य जीवन बिता रहे थे।
दस वर्षों के विश्वभ्रमण का निचोड़
स्तेफान अस्केल की डेढ़ घंटे की फि़ल्म 'योग-जीवनदायी शक्ति' दस वर्षों तक चले उनके विश्वभ्रमण का सिनेमा के पर्दे के लिए आत्मकथा जैसा सांस्कृतिक-आध्यात्मिक चित्रण है। फिल्म अंतरराष्ट्रीय योग दिवस से ठीक पहले 13 जून से यूरोप के कई देशों में एक साथ दिखायी जा रही है।
अस्केल की यात्रा का अंतिम पड़ाव इसराइल का येरुसलेम शहर था। इस लंबी यात्रा ने एक समय लकवे से पंगु हो गये इस शख्स को जीवन को समर्पणभाव से जीने और दुनिया को सकारात्मक ढंग से देखने की एक नयी दृष्टि दी। फि़ल्म में वे कहते हैं, 'दस साल पहले मैं एक दूसरी दुनिया में बंधक था।' शराब की लत के कारण पत्नी छोड़कर चली गयी। 2006 में पैर संज्ञाशून्य हो गये। ऑपरेशन हुआ तो कमर से नीचे के अंगों को लकवा मार गया। जीवन घृणा और ईष्र्या से भर गया था।'
इन्हीं परिस्थितियों में स्तेफान अस्केल जब फ्रांस के एक प्रसिद्ध अस्पताल 'ओस्पिताल दे ला सालपेत्रियेर' में अपना इलाज करवा रहे थे तो वहां के एक डॉक्टर जौं-पियेर फार्सी ने उन्हें सलाह दी कि वे आज की आधुनिक चिकित्सा पद्धति से ठीक नहीं हो सकते। यौगिक उपचार की शरण लें, शायद ठीक हो जायेंगे। यह सलाह अत्यंत असामान्य थी क्योंकि आधुनिक चिकित्सापद्धति (एलोपैथी/ अंग्रेज़ी चिकित्सा) के फ्रांसीसी डॉक्टर हर प्रकार की वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति को केवल कोसना-धिक्कारना ही जानते हैं।
योगगुरू बीकेएस अयंगर से प्रेरणा
अस्केल ने जब इस दिशा में खोजबीन की, तो उन्हें पता चला कि भारत के योगगुरू बीकेएस अयंगर ने फिसलन-रोधी चटाइयों, रस्सियों, पट्टों और पीठ के बल लेटने लायक अर्धवृत्ताकार लकड़ी की काठियों की मदद से, गंभीर किस्म की शारीरिक बाधाओं वाले लोगों के लिए भी, योगासन संभव बनाने की विधियां विकसित की हैं। अस्केल ने पहली बार जब इन चीजों को देखा, तो वे सोचने लगे कि ये सब उपचार-सामग्रियां हैं या यातना-विधियां! तब भी उन्होंने अपना उपचार करवाया और जर्मनी में व्युत्र्सबुर्ग शहर के पास के एक ईसाई मठ में ध्यान साधना (मेडिटेशन) की जापानी 'जेन' विधि भी सीखी। 2003 से एक जर्मन ईसाई फादर विलीगिस यैगर बेनेडिक्ट पंथ के इस मठ में यह जापानी विधि सिखाते हैं।
उपचार के दौरान मिल रही राहतों से योग में स्तेफान अस्केल की रुचि बढ़ती गयी। उनका लकवा जब काफी कुछ ठीक हो गया, तो उन्हें विचार आया कि उन्हें योगविद्या के असीम और कई बार चमत्कारिक लाभों और अपने अनुभवों के बारे में एक फि़ल्म बनानी चाहिये। लकवे से उबरने के अपने कष्टमय संघर्ष की हल्की-सी झलक देने के बाद अस्केल दर्शक को सीधे अमेरिका में सैन फ्रांसिस्को के पास सेंट च्ेन्टिन की एक उच्चसुरक्षा जेल में ले जाते हैं। वहां गंभीर अपराध कर चुके कुछ ऐसे क़ैदियों से बातचीत करते हैं, जो कसरतों आदि के साथ-साथ योगाभ्यास भी करते थे। उन्हें मौत की सज़ा सुनायी गयी थी। अपने अंतकाल की प्रतीक्षा कर रहे उनमें से एक ने कहा, 'योग तनावमुक्त करने के साथ-साथ नये अनुभवों का धनी भी बनाता है।'
सफ़ारी करने गईं, योग सिखाने लगीं
एक दूसरे दृश्य में अमेरिका की पेज एलेन्सन बताती हैं कि वे अफ्रीकी वन्यजंतुओं को देखने के लिए अपने माता-पिता के साथ कीनिया की सफ़ारी-यात्रा पर गई थीं और वहीं रह गयीं। अब वे वहां राजधानी नैरोबी की गंदी बस्तियों के बच्चों और मसाई कबीले के लोगों को योग सिखाती हैं। इसराइल में अस्केल को कट्टरपंथी यहूदियों के शहर बेत शेमेह में एक ऐसा यहूदी दंपति मिला, जो पहले धार्मिक नहीं था, पर योग करने से उसमें अपने धर्म के प्रति नई आस्था जाग उठी। येरूसलेम में अस्केल ने देखा कि वहां तो फिलस्तीनी गृहणियां भी यहूदियों के साथ मिल कर योगाभ्यास करती हैं!
स्तेफ़ान अस्केल का कहना है कि योग हर प्रकार की संस्कृतियों, आयुवर्गों और शारीरिक बाधाओं वाले लोगों को लाभ पहुंचाता है। अमेरिका की पेज एलेन्सन नैरोबी के बधिर बच्चों को योग सिखाने के लिए सांकेतिक भाषा वाले एक नि:शब्द तरीके से काम लेती हैं, जबकि सामान्य बच्चों के लिए उनका अलग तरीका है। 80 साल के एरिक स्माल कई दशकों से 'मल्टिपल स्क्लेरोसिस' से पीडि़त हैं। यह बीमारी केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम) की एक बीमारी है, जो मस्तिष्क, रीढ़ की हड्डी और आंखों में प्रकाश ग्रहण करने वाली ऑप्टिक तंत्रिका (नर्व) को दुष्प्रभावित करती है। भारत के बीकेएस अयंगर द्वारा विकसित विधि को आधार बना कर एरिक स्माल ने इस बीमारी से पीडि़त लोगों का जीवन आसान बनाने का अपना एक अलग तरीका विकसित किया है। इससे स्वयं उनका अपना जीवन तो आसान बना ही, दूसरों का जीवन भी आसान बन रहा है।
अयंगर ने योग से असाध्य रोग भी साधे
बीकेएस अयंगर का 2014 में इस दुनिया से चले गये। उन्होंने लगभग 70 वर्षों तक स्वयं योगाभ्यास किया और अनगिनत लोगों को सिखाया भी। फिल्म में उनके साथ बातचीत का एक दृश्य भी है। असाध्य समझे जा रहे रोगों को भी योग द्वारा ठीक करने या उनसे काफी हद तक राहत दिलाने की उनकी विधियां आज ऐसे कई अस्पतालों आदि में अपनाई जाती हैं, जहां वैकल्पिक चिकित्सा की सुविधा भी है।
स्तेफान अस्केल मूलत: फ्रेंच भाषा में बनी अपनी फिल्म में योग के न केवल शारीरिक स्वास्थ्य संबंधी लाभों के ही उदाहरण दिखाते हैं, उसके अदृश्य, पर उतने ही सकारात्मक सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक पक्ष पर भी प्रकाश डालते हैं। वे विभिन्न देशों के ऐसे लोगों के मुंह से उनके अनुभव सुनाते हैं, जो जीवन से निराश हो चले थे, पर योग और ध्यान ने जिन्हें उनका खोया जीवन वापस लौटा दिया।
आध्यात्मिक अनुभूति
इन भुक्तभोगियों की आपबीतियां बताती हैं कि जब भी किसी के घोर कष्टमय जीवन में कोई सुखद चमत्कार होता है, तो इससे उसे जो आत्मिक तृप्ति मिलती है, वह सभी धर्मों-पंथों से परे एक अलौकिक आध्यात्मिक अनुभूति बने बिना नहीं रहती। इसीलिए आसन, प्रणायाम और ध्यान के रूप में अपने तीनों अंगों वाला योगाभ्यास, खुशहाल लोगों की 'वेलनेस' कहलाने वाली खुशफहमी से कहीं अधिक, भारत का दिया एक ऐसा अनुभवसिद्ध विज्ञान बनता जा रहा है जिस पर अनगिनत शोधकार्य हो रहे हैं और जिसे सुख, स्वास्थ्य और संतोष की सर्वांगीण कुंजी माने जाने लगा है।
योग से डीएनए की 'मरम्मत'
विज्ञान पत्रिका 'फ्रंटियर्स इन इम्यूनोलॉजी' में जुलाई 2017 में प्रकाशित एक खोज में यहां तक सिद्ध हुआ पाया गया है कि योग में तन और मन को जिस तरह जोडऩे का प्रयास किया जाता है, उससे हमारे डीएनए की शब्दश: 'मरम्मत' तक हो सकती है।
नॉर्वे में कुछ समय पहले हुए एक अध्ययन में दस लोगों को एक सप्ताह तक हठयोग के तीनों अंगों-यानी आसनों, प्राणायाम और ध्यानधारण का अभ्यास कराया गया। चार-चार घंटे चलने वाले अभ्यास-सत्रों से पहले और बाद में प्रतिभागियों के रक्त-नमूने लिये गए और प्रयोगशाला में उनकी तुरंत गहराई से जांच की गई। दस दिन बाद पाया गया कि इन लोगों की रोगप्रतिरक्षण प्रणाली की 'टी' कोशिकाओं के 111 जीन पहले की अपेक्षा बदले हुए थे। तुलना के लिए जो लोग दौड़ लगाते हैं या कोई पश्चिमी नृत्य करते हैं, उनमें ऐसे 38 जीन ही बदले हुए मिलते हैं।
योग यदि विज्ञान-सम्मत न होता, तो यूरोप-अमेरिका में हर साल योग पर सिनेमा फिल्में नहीं बनती और लाखों-करोड़ों की संख्या में ऐसे लोग योग-ध्यान सीख नहीं रहे होते, जिन्हें हिंदू धर्म में कोई रुचि नहीं है।(satyagrah.scroll.in)