दयाशंकर मिश्र
जब हमारे सरोकार सबसे हटकर केवल स्वयं पर आकर टिक जाते हैं, तो हम अक्सर क्रोधित और बात-बात पर अपमानित महसूस करने लगते हैं। जिनका सारा ध्यान अपने पर रहता है उनके साथ यह अक्सर होता है!
एक-दूसरे से बात करते, सहमत-असहमत होते हुए हम एक-दूसरे को ऐसा बहुत कुछ कह जाते हैं, जो असल में कहना नहीं चाहते, लेकिन बहुत कुछ भीतर उमड़-घुमड़ तो रहा ही होता है। बारिश होने से पहले बादल भारी होते ही हैं। भीतर के बिना कुछ भी बाहर नहीं आता। बाहर से कितना भी प्रेम दिखाएंगे, लेकिन अगर वह भीतर बनना बंद हो गया है, तो बाहर कहां से आएगा। कारण कुछ भी हो सकते हैं। बहुत छोटी-छोटी बात पर हम एक-दूसरे से नाराज बने रहते हैं, लेकिन नाराजगी को बाहरी तल पर नहीं ले जाते। बाहर केवल उसे रखते हैं जो दिखाना होता है। घर का कचरा भी दो-चार दिन घर के भीतर रह जाए, तो परेशानी पैदा करने लगता है। फिर यह तो मन का कचरा है। अगर इसे सरलता से निकलने का रास्ता नहीं मिला, तो यह दूसरे रास्ते खोज लेता है।
गुस्से में चिल्लाना, अतीत की बातों को दोहराना, अव्यक्त को कह देना। इस बात को बताते हैं कि भीतर हम कुछ भरते गए हैं। संभव है हमारी नजर उस पर न पड़ी हो, लेकिन गया तो कुछ होगा ही। यह जो भीतर हलचल मच जाती है, उसका कारण भीतर की उठापटक में ही होता है। जब हमारे सरोकार सबसे हटकर केवल स्वयं पर आकर टिक जाते हैं, तो हम अक्सर क्रोधित और बात-बात पर अपमानित महसूस करने लगते हैं। जिनका सारा ध्यान अपने पर रहता है उनके साथ यह अक्सर होता है!
आपने सिगमंड फ्रायड का नाम सुना होगा। मन के विज्ञान को सरलता से समझाने वाले फ्रायड से एक बार किसी ने पूछा, आप इतने सारे लोगों की मानसिक बीमारियों का अध्ययन करते हैं। प्रश्नों के जवाब देते हैं। सुबह से शाम हो जाती है। इतने सारे लोगों के जटिल प्रश्नों के उत्तर देते हुए आपका दिमाग खराब नहीं होता! आप पागल नहीं हो जाते!
बुजुर्ग फ्रायड ने मुस्कराते हुए कहा, अपने पर ध्यान देने का समय ही नहीं मिलता। अपने पर ध्यान दिए बिना पागल होना बहुत मुश्किल है। सुबह से लग जाता हूं, दूसरों की चिंता में। अपने पर ध्यान देने का अवसर नहीं मिलता।
कितनी सुंदर बात कही है, फ्रायड ने। उनकी इस बात की पुष्टि, हमें बड़े-बड़े वैज्ञानिकों, आविष्कारकों, डॉक्टरों और शोधार्थियों के जीवन में भी देखने को मिलती है। अक्सर ऐसे लोग फ्रायड की तरह ही होते हैं। उनका ध्यान अपने पर नहीं, अपने काम पर होता है। जिसका ध्यान अपने पर जाएगा, वह मान-अपमान और अहंकार की पकड़ में आए बिना नहीं रह सकता। हम अपने मन को इतना कमजोर बना लेते हैं कि छोटी-छोटी बातों को अपने पर हमले के रूप में देखने लगते हैं। छोटी-छोटी असहमतियों को स्वाभिमान और ‘सेल्फ रिस्पेक्ट’ के टूटने से जोडक़र देखने लगते हैं। ऐसे समय में सबसे जरूरी यही है कि ध्यान कहां है! जब ध्यान अपने से हटकर रचनात्मकता, सृजन पर चला जाएगा, अपमान के भाव हल्के होते जाएंगे।
सुपरिचित कवि भवानीप्रसाद मिश्र की सुंदर कविता है, ‘अपमान’...
अपमान का
इतना असर
मत होने दो अपने ऊपर
सदा ही
और सबके आगे
कौन सम्मानित रहा है भू पर
मन से ज्यादा
तुम्हें कोई और नहीं जानता
उसी से पूछकर जानते रहो
उचित-अनुचित
क्या-कुछ
हो जाता है तुमसे
हाथ का काम छोडक़र
बैठ मत जाओ
ऐसे गुम-सुम से!
क्या आपके साथ भी यह होता है? अपमान असल में गुस्से, चलते हुए विचारों के परिणाम के रूप में हमारे सामने आता है। यह सोचना भी जरूरी है कि हम अक्सर अपमान की शिकायत किससे करते हैं! उनसे ही जिनके हम प्रेम में हैं। प्रेम पर कभी जरूरत से ज्यादा जोर मत दीजिए। नहीं तो, वह भी आपको निराशा की ओर ले जाएगा। हमें जीवन को ऐसी जगह ले जाना होगा, जहां वह केवल जीवन रह जाए। सुख-दुख की छाया जब जीवन पर एक जैसा असर करने लगे, तो समझिए जीवन अपने होने को उपलब्ध हो रहा है। अपमान की परतें मन को बदलापुर में बदलने का काम करती हैं। इसलिए, उनके प्रति सजग रहिए। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
एक उम्र के बाद अपने से बड़ों से कोई शिकायत नहीं करनी चाहिए। केवल उनसे प्रेम किया जाना चाहिए, क्योंकि जिंदगी इतनी भी लंबी नहीं, जितनी हम माने बैठे हैं। इसलिए, जितना संभव हो उसे जीवन में भर लेना चाहिए। कल का क्या भरोसा!
उनकी आवाज बहुत मीठी थी। मीठे से अधिक उसमें प्यार की खुशबू थी। लगा कोई बरगद अपनी छांव में बैठे यात्री को मीठी हवा के झूले झुला रहा है। उनके शब्दों से प्रेम बरस रहा था। सच तो यह है कि मेरा मन भी उनके शब्दों के लिए कई बरस से तरस रहा था। जीवन उतना सरल नहीं, जितना हम मान लेते हैं। यही इसकी चुनौती, रस है। सारे अरमान निकल जाएं, तो जीने का रस कम न हो जाए! इसलिए आज जो उपलब्ध है, उसे पूरी तरह जीना होगा।
असल में केवल अभी जो मिला है, उसी क्षण को जीना ही सच्चा आनंद है। लाओत्से कहते हैं, यही जीवन-मार्ग है। मुझ पर अपने शब्दों से प्रेम और स्नेह की वर्षा करने वाले पिता सरीखे बुजुर्ग की उम्र अस्सी बरस के आसपास है। मुझे उनकी बातों के बाद देर तक वसीम बरेलवी साहब की याद आती रही। वो लिखते हैं-
‘वो मेरे घर नहीं आता मैं उसके घर नहीं जाता
मगर इन एहतियातों से तअल्लुक़ मर नहीं जाता।’
कभी-कभी शब्द कैसे जिंदगी में उतर आते हैं। जिन्होंने मुझे फोन किया था उनके साथ मेरा एकदम यही रिश्ता है। मैं उनके घर नहीं जाता और वह मेरे घर नहीं आते। ऐसा नहीं कि हम ऐसा नहीं चाहते, लेकिन कभी-कभी चाहना ही काफी नहीं होता।
इसलिए, मैंने निवेदन किया कि कभी-कभी जिंदगी में दोनों में से किसी की भी गलती न होने पर भी सजा जिंदगी को ही मिलती है। उस पिता की विवशता, प्रेम देखिए। अपने बेटे से वह नहीं पूछते कि मैं उनके घर क्यों नहीं आता। मुझसे भी नहीं कहते कि क्यों नहीं आते। लेकिन जानते सब हैं। फोन पर उन्होंने कोई गिला-शिकवा नहीं किया। केवल आशीर्वाद दिया। एक प्यारभरा गीला चुंबन जैसे मेरे माथे पर देर रात तक ताजा है। बात सुबह की है और लिख मैं देर रात को रहा हूं।
जीवन की मोहब्बत यही है। कई बरस तक वह मुझसे इसलिए बात नहीं कर पाए, क्योंकि वह डायरी नहीं मिल रही थी, जिसमें मेरा नंबर लिखा था। कैसा जीवन है! उनके घर में हर किसी के पास मेरा नंबर है, लेकिन वह किसी से मांगना नहीं चाहते थे। वह फोन न करते, तो भी हमें उनसे कोई शिकायत नहीं।
एक उम्र के बाद अपने से बड़ों से कोई शिकायत नहीं करनी चाहिए। केवल उनसे प्रेम किया जाना चाहिए, क्योंकि जिंदगी इतनी भी लंबी नहीं, जितनी हम माने बैठे हैं। इसलिए, जितना संभव हो उसे जीवन में भर लेना चाहिए। कल का क्या भरोसा!
जिनके बारे में लिख रहा हूं, उनके और हमारे रिश्ते का विरोधाभास देखिए। चाहते सब प्रेम ही हैं, लेकिन मन की दीवार कभी-कभी हम इतनी ऊंची उठा लेते हैं कि प्रेम की सारी सीढिय़ां छोटी पड़ जाती हैं। हम चाह करके भी बहुत कुछ नहीं कर पाते। बस, इतना ही कर सकते हैं कि प्रेम बना रहे, उसकी तने, पत्तियां कुछ कमजोर हो सकती हैं, लेकिन जड़ का ख्याल सबसे जरूरी है। यह जो मुझे फोन किया गया था, वह जड़ को सींचने जैसा ही था। यह हुनर सजगता से संभालने योग्य है। प्रेम न सही, प्रेम के पुल तो बने रहें।
यह किस्सा इसलिए भी आपसे साझा कर रहा हूं, क्योंकि ‘जीवनसंवाद’ को बहुत से प्रश्न रिश्तों की जटिलता पर मिलते हैं। मैं कहना चाहता हूं कि जीवन केवल सही-गलत के बीच का चुनाव नहीं। दोनों के बीच बहुत कुछ शेष रहता है। जो प्रेम में होते हैं, सुख को पाना चाहते हैं, उनको दोनों के बीच उतरना ही होगा। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
अनियंत्रित गति केवल सडक़ पर ही हमें नुकसान नहीं पहुंचाती। जीवन, रिश्ते और आत्मीयता के पुलों को भी तोड़ती चलती है! इसलिए जरूरी है कि सबकुछ जल्दी-जल्दी हासिल करने के सपने के बीच हमें सुरक्षित गति का बोध रहे।
हम कितने भी परेशान क्यों न हों, कोई बस इतना भर कह दे, ‘मुझे तुम्हारी चिंता है’। इससे मन हल्का हो जाता है। मैं हूं ना तुम्हारे साथ, कोई जरूरत पड़े तो बेधडक़ मुझे याद करना। कितने कम शब्द हैं, और कितने प्रबल भाव! लेकिन हमने जिंदगी की गति इतनी अधिक बढ़ा दी है कि हमारे पास किसी चीज के लिए समय नहीं। स्पीड-ब्रेकर सडक़ों के साथ जिंदगी में भी होने चाहिए। इनसे जीवन में दूसरों के लिए हमदर्दी, स्नेह, आत्मीयता बनी रहती है! अनियंत्रित गति केवल सडक़ पर हमें नुकसान नहीं पहुंचाती। जीवन, रिश्ते और आत्मीयता के पुलों को भी तोड़ती चलती है! इसलिए जरूरी है कि सबकुछ जल्दी-जल्दी हासिल करने के सपने के बीच हमें सुरक्षित गति का बोध रहे।
यह जो गहरे भाव हैं मन के- ‘तुम्हारी फिक्र है। अपने को अकेला मत समझो। हम हर हालत में तुम्हारे साथ हैं।’ इन्हें केवल शब्द मत समझिए। हमसे पहले जो लोग धरती पर सुखी जीवन व्यतीत करके गए, जीवन के आनंद को साथ लेकर गए। उन्होंने इन्हें केवल शब्द नहीं समझा था। भावना से अलग होते ही शब्द अपना महत्व खो देते हैं। भावविहीन शब्दों का कोई अर्थ नहीं। हां, केवल औपचारिकता हैं। किसी भी रिश्ते की जड़ में अगर औपचारिकता समा जाए, तो हमें सजग हो जाना चाहिए कि रिश्ता कभी भी टूट सकता है। इसलिए सच्चे मन और हृदय से उपजे भाव को पहचानिए।
जैसे-जैसे हमारी आर्थिक क्षमता बढ़ती जाती है, असल में हम भीतर से उतने ही असुरक्षित, कमजोर और आत्मकेंद्रित होते जाते हैं। जबकि होना ठीक इसके उलट चाहिए। हमें आत्मविश्वासी, मजबूत और दूसरों के लिए तत्पर होना चाहिए। इसका परिणाम यह होता है कि भीतर निरंतर उथलपुथल चलती रहती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस पेशे में हैं। किस पद पर हैं। सारा अंतर केवल इससे पड़ता है कि जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण कैसा है। अगर हमारे मन में कोमलता है, तो दूसरों के लिए जगह अपनेआप बनती जाती है। अगर कठोरता है, तो एक अनुभव को हम पकड़े बैठे रहते हैं। किसी ने आपको धोखा दिया। रिश्ते को तोड़ा। प्रेमसंबंध टूट गए। नाजुक मोड़ पर रिश्ते छूट गए। यह जीवन का एक मोड़ है, जीवन नहीं!
अगर एक स्टेशन पर हमसे रेलगाड़ी छूट जाए, तो हम क्या करते हैं? उसके बाद हम रेल में सफर बंद कर देते हैं/ रेलवे स्टेशन जाना छोड़ देते हैं? नहीं, हम ऐसा कुछ नहीं करते। जिस वजह से समय पर रेलगाड़ी नहीं पकड़ पाए, उन वजहों को दूर करने की कोशिश करते हैं। जीवन, रेलगाड़ी से बहुत अलग नहीं है। मिलना-बिछडऩा, नाराजगी हमारे और रेल के रिश्ते जैसे हैं। व्यक्तिगत रूप से मुझे तो रेलयात्रा ने बहुत कुछ सिखाया है। एक-दूसरे को सहने की क्षमता। नाराजगी का प्रेम में बदलना, जबकि हम जानते हैं कि सफर में मिला साथ केवल कुछ ही घंटे का है। जीवन का अनुभव बताता है कि इस सफर में मिले लोग जीवन में बहुत कम मिलते हैं, क्योंकि दुनिया इतनी छोटी भी नहीं है।
इसलिए, जीवन संवाद में हम निरंतर सबसे अधिक जोर अपने मन की कड़वाहट, गुस्सा और हिंसा को दूर करने पर देते हैं। मन के असली मैल यही हैं। दूसरे की चिंता छोडि़ए, उसे बदल पाना हमारे वश में नहीं। हमारे बस में केवल इतना है कि हम खुद को बदल लें। अपने को दूसरे की मर्जी से न चलने दें। जिंदगी को बदलने के लिए इतना ही पर्याप्त है। भवानी प्रसाद मिश्र ने बड़ी सुंदर बात कही है, ‘हर व्यक्ति फूल नहीं हो सकता, लेकिन सुगंध सब फैला सकते हैं।’
अपने कहे गए शब्दों को निभाना, सुगंध फैलाने जैसा ही है। जब आप दूसरों की मदद कर रहे हैं, तो बिल्कुल मत सोचिए कि आप दूसरे की मदद कर रहे हैं, असल में आप अपने लिए दुनिया में थोड़ी-सी कोमलता बढ़ा रहे हैं। प्रेम का बीज गहरा कर रहे हैं! (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
कोरोना ने हमारी सोचने समझने और प्रेम करने की क्षमता को एक साथ प्रभावित किया है। कोरोना के कारण सब कुछ सीमित करने का भाव गहरा होता दिख रहा है। इसलिए मन के भीतर करुणा, प्रेम और आनंद की मात्रा जांचते रहिए।
हम सुख में अधिक खिलते हैं/ मुश्किल में ज्यादा मजबूत होते हैं/ उस समय साहस रखते हैं, जब इसे सहेजना मुश्किल हो/ करुणा और प्रेम से कभी दूर नहीं होते! इनमें से किन पलों में हम सबसे सुंदर, स्वस्थ और कोमल होते हैं। अपने-अपने सुझाव हो सकते हैं। मेरे ख्याल में वही पल सबसे बेहतर है, जब हम कठिनतम पलों में भी स्वयं को प्रेम, करुणा से दूर न करें। कोरोना के कारण ‘शरीर और मन’ दोनों पर एक साथ भारी संकट आ गया है।
कोरोना ने हमारी सोचने समझने और प्रेम करने की क्षमता को एक साथ प्रभावित किया है। कोरोना के कारण सब कुछ सीमित करने का भाव गहरा होता दिख रहा है। इसलिए मन के भीतर करुणा, प्रेम और आनंद की मात्रा जांचते रहिए। संवाद का दायरा बढ़ाते रहिए। कभी-कभी डॉक्टर जब बहुत अधिक भरोसे के होते हैं तो हम न चाहते हुए भी उनके कहने पर कुछ दवाइयां, परहेज कर लेते हैं। कुछ वैसा ही अपने मन के साथ करने का समय है।
मन को भरोसे में लेने का समय है। मन करुणा, स्नेह और प्रेम से दूर जाने को कह सकता है, लेकिन हमें संवाद बनाए रखना है। संवाद ही वह पुल है, जो जीवन को इनसे जोड़े रखता है। इस बात को समझने का समय है कि अगर इस समय कोई हमसे दूर चला गया तो उसकी भरपाई कभी संभव नहीं होगी। हम मानसिक रूप से कमजोर हो रहे हैं। निराशा दिमाग पर हावी होती जा रही है। अनिश्चितता का भाव कहीं गहरा होता जा रहा है।
अंतत: प्रेम ही बचाएगा। प्रेम मन में दूसरे के लिए नमी, कोमलता बनाए रखने से अधिक हमारे लिए करुणा की परत बिछाए रखता है। जिसके मन में जितना अधिक प्रेम बाकी रहेगा, उसके जीवन में कोमलता, स्नेह को उपलब्ध होने के उतने ही अधिक अवसर होंगे।
एक छोटी सी कहानी आपसे कहता हूं। संभव है, इससे मेरी बात अधिक स्पष्ट हो सके।
जापान के क्योतो प्रांत में ज़ेन गुरू कीचू से मिलने वहां के नए राजा पहुंचे। मठ के दरवाजे पर पहुंचकर राजा ने अपने सेवक को भीतर संदेश देने को भेजा। सेवक ने गुरू से कहा, क्योतो के राजा आपसे मिलने आए हैं। कीचू ने भोलेपन से कहा, लेकिन मुझे तो उनसे कोई काम नहीं। और न ही मैं राजा के किसी काम का हूं। इसलिए उनको आदरपूर्वक वापस भेज दीजिए।
घबराए सेवक ने लौटकर राजा से यह बात कही। राजा के मन में प्रेम की कोपलें फूटीं थी। राजा होने के बाद भी उसके भीतर अहंकार की बेल नहीं उपजी थी। उसने अपने सेवकों को मठ से दूर भेज दिया। अपनी भव्य सवारी से उतरा। नंगे पांव कीचू की झोपड़ी के बाहर पहुंचकर उसने आवाज दी। मैं कितागाकी (उसका नाम) हूं, आपसे मिलना चाहता हूं। ज़ेन गुरू ने प्यार से उत्तर देते हुए कहा, कितागाकी ! बाहर क्यों ठहरे हो मेरे भाई, भीतर आ जाओ!
अब थोड़ी देर ठहरकर, कितागाकी और अपने मन के बारे में सोचिए। हम कैसे-कैसे कवच अपने अहंकार को पहना देते हैं। न जाने क्या-क्या कहानियां अपने होने के बारे में पाल लेते हैं। अपने भीतर प्रेम बढ़ रहा है या अपने कुछ होने का अहंकार! इस बात को हमेशा जांचते रहिए। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
‘जीवन संवाद’ मनुष्य और मनुष्यता के बिना अधूरा है। अपनेपन के पराग के बिना जीवन का शहद तैयार नहीं होता। हमें ध्यान से देखना होगा कि हमारी बातचीत का कितना हिस्सा हमारी जरूरत और कितना हमारे मन से जुड़ा है!
हर वक्त हम किसी की मदद को उपलब्ध रहें यह जरूरी नहीं कि संभव हो पाए, लेकिन इतना तो किया ही जा सकता है कि उसके दर्द को महसूस कर पाएं। उससे कह सकें कि तुम अकेले नहीं हो! हम तुम्हारे साथ हैं, डूबते को तिनके का सहारा नहीं, बल्कि उसे नाव में बिठाने जैसा है। हमारे जीवन की गति इस समय इतनी तेज है कि हमदर्द होना भी आसान नहीं। जिंदगी की चाही-अनचाही जरूरतों के बीच हम उलझे हुए हैं। हमारा ध्यान केवल स्वयं पर केंद्रित है। दूसरों के मन को समझना, टटोलना भी भारी काम लगता है!
कोरोना के कारण पहले लॉकडाउन, उसके बाद घर पर अघोषित कैद से जिंदगी के दायरे बहुत सीमित हो गए हैं। सामाजिकता का रस हमारे जीवन का जरूरी हिस्सा था। पहले तकनीक और अपनी व्यक्तिगत व्यस्तता में फंसे होने के कारण हमारे पास सबके लिए समय नहीं था। अब समय तो बढ़ता दिख रहा है, लेकिन अवसर नहीं हैं। हर किसी का फोन व्यस्त है। हर कोई अपने संकट से अकेले-अकेले लड़ रहा है। संकट, हमारी समझ, क्षमता के मुकाबले कहीं गहरा है। अगर हम मिलकर इसका मुकाबला करते, तो संभव है कि इसे सरलता से पराजित किया जा सकता था, लेकिन अब अकेले-अकेले लडऩे के कारण हमारी क्षमता घटती जा रही है।
अगर हम सब एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग के लिए तैयार हों, तो हम समझ पाएंगे कि हमारी जीवनशैली कहां जा रही है। हर दिन अपने स्मार्टफोन से होने वाली बातचीत का खुद ही एक ब्योरा तैयार कीजिए। आप जो कह रहे हैं। घंटों-घंटों बातचीत कर रहे हैं। उसकी विषयवस्तु क्या है? वह बातचीत क्या है! इससे हम समझ पाएंगे कि हमारा ध्यान पूरी तरह उन चीजों पर है जो हमें समझाई गई हैं कि हमारे जीवन के लिए उपयोगी हैं।
उदाहरण के लिए दो दोस्त अपनी नई कार पर एक घंटे तक बात करते हैं। बच्चों को किस तरह की चीजें पसंद हैं, इस पर खूब बात होती है। बहुत बात होती है बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर। उनके स्कूल और कॉलेज को लेकर। यह सब जरूरी तो है, लेकिन यह अपनेपन से दूरी का संवाद है। यह जीवन संवाद नहीं। ‘जीवन संवाद’ मनुष्य और मनुष्यता के बिना अधूरा है।
अपनेपन के पराग के बिना जीवन का शहद तैयार नहीं होता। हमें ध्यान से देखना होगा कि हमारी बातचीत का कितना हिस्सा हमारी जरूरत और कितना हमारे मन से जुड़ा है!
अहमदाबाद से एक महीने पहले देवेंद्र शाह ने हमें लिखा कि दिनभर व्यापार के सिलसिले में लोगों से बातचीत करते रहते हैं। कोरोना के दौरान यह बातचीत कई गुना बढ़ गई, लेकिन तभी उनको एहसास हुआ कि कुछ ऐसा है जो छूट रहा है। मेरा सुझाव था कि उनको अपने कुछ मित्रों से नियमित रूप से अपने मन, जीवन और व्यापार से अलग विषयों पर बात करनी चाहिए। इससे मन के भीतर की पीड़ा बाहर आएगी। मन का ठीक तरह से स्नेहन (लुब्रिकेशन) करना होगा।
यह लिखते हुए प्रसन्नता हो रही है कि उन्होंने हर दिन होने वाली बातचीत में जबसे मन का हिस्सा बढ़ाया, तब से वह आनंदित हैं। खुश हैं। हम अपने मन, भीतर की घुटन को अक्सर ही टालते रहते हैं। आज नहीं, कल।
यह जानते हुए भी कि जो अभी नहीं हो सकता, उसका कभी होना तय नहीं। हमें अपने मन, जीवन को ऐसे लोगों का सहारा देना है जिनके भीतर हमदर्दी और करुणा का भंडार हो। जब तक हम दूसरों से प्रेम, करुणा और आनंद साझा नहीं करेंगे। हमारी ओर यह लौटकर नहीं आएगा।
हमदर्द, बनने में कुछ नहीं जाता। कुछ नहीं मिलता। बस, जीवन की जड़ों को वह शक्ति मिलती है, जिससे जीवन आस्था गहरी होती है। एक भी आदमी का हमदर्द होना अपने आसपास प्रेम की मात्रा का बढ़ जाना है। आइए, हमदर्द बनकर देखते हैं !
-दयाशंकर मिश्र
कोरोना वायरस ने हमें जहां लाकर खड़ा कर दिया है, वहां से हमारा अकेले सकुशल लौटना मुश्किल होता जा रहा है। हां, यह आसान हो सकता है, अगर हम साथ मिलकर खड़े हो जाएं।
हमारे ज्यादातर फ़ैसले परिवार के नाम पर होते हैं, लेकिन असल में वह परिवार के लिए नहीं होते। परिवार का अर्थ हर दिन छोटा होता जा रहा है। हम समय के उस टुकड़े में हैं, जहां एक भाई दूसरे भाई को ‘उनके’ परिवार की मंगलकामना के संदेश भेजते हैं। परिवार के दायरे को बढ़ाए बिना प्रेम, स्नेह, आत्मीयता को उपलब्ध होना संभव नहीं! संयुक्त परिवार का संबंध एक साथ रहने से नहीं, होने से है। हम एक जगह रहकर भी एक-दूसरे से अलग हो सकते हैं, अलग-अलग रहकर भी एक-दूसरे के बहुत करीब हो सकते हैं। कोरोना वायरस ने हमें जहां लाकर खड़ा कर दिया है, वहां से हमारा अकेले सकुशल लौटना मुश्किल होता जा रहा है। हां, यह आसान हो सकता है, अगर हम साथ मिलकर खड़े हो जाएं।
पश्चिम के समाज के मुकाबले हमारी सामाजिकता हमेशा से गहरी रही है। एक दशक पहले भारत में आए भीषण आर्थिक संकट में इसीलिए हम कहीं अधिक सुरक्षित रहे। हमारे पास बचत थी, लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण था एक-दूसरे का साथ। एक दशक में परिवार हमारी कल्पना के मुकाबले कहीं अधिक तेजी से बिखर गए। हमने संयुक्त परिवार को केवल साथ रहने से जोड़ दिया। हम भूल गए कि बदली हुई परिस्थितियों में अब एक ही शहर में रह पाना परिवार के सभी सदस्यों के लिए संभव नहीं। एक ही शहर में रहते भी साथ रहना संभव नहीं। लेकिन अलग-अलग रहकर भी साथ निभाना मुश्किल नहीं।
हमारी अधिकांश मुश्किलें मानसिक होती हैं। जब तक हम मन से किसी चीज के लिए तैयार नहीं होते, उसका होना कठिनतम होता जाता है। हमें इस बात को समझने की जरूरत है कि संकट मुश्किल है, लेकिन हमारे साथ होने से उसकी शक्ति आधी हो जाती है।
मैं पिछले पंद्रह दिन में ‘जीवन संवाद’ को मिले एक अनुभव का जिक्र करना चाहता हूं। किस्सा है मध्यप्रदेश के इंदौर से विवेक वासवानी का। वहां पांच भाइयों के भरे-पूरे परिवार में एक भाई को कोरोना के कारण घाटा उठाना पड़ा। इतना अधिक कि उसे अपना सारा काम समेटना पड़ा। उसके बाद दूसरे शहर जाकर उसने अपनी यात्रा आरंभ करने का फैसला किया। उसे दूसरे शहर जाना ही इसलिए पड़ा, क्योंकि उसके परिवार ने उसकी किसी भी तरह की मदद से इंकार कर दिया। क्योंकि सभी का मानना है कि वह एक नहीं, पांच परिवार हैं। मदद तो दूर, उल्टे वह मुश्किल के समय भाई के साथ हिसााब-किताब करने से भी पीछे नहीं रहे, जबकि परिवार के सबसे छोटे सदस्य विवेक ने हमेशा दूसरों के लिए रास्ता बनाने में मदद की है!
विवेक के मन में ऐसे विचार आ रहे थे कि जब उन्होंने किसी का नुकसान नहीं किया तो उनके साथ यह क्यों हो रहा है। उस समय मैंने केवल उनसे इतना ही कहा था कि स्वयं को थोड़ा समय दीजिए। जल्दबाजी मत कीजिए, दुनिया के बारे में अपनी राय बनाने में! मुझे यह लिखते हुए बहुत प्रसन्नता हो रही है कि दूसरे शहर में विवेक के दोस्तों ने बाहें फैलाकर उनका स्वागत किया, क्योंकि उनका मानना है कि वह सब एक ही परिवार के हैं। परिवार की यह वही परिभाषा है, जिसका हमने आज के संवाद में जिक्र किया। विवेक की कहानी अपने ऊपर विश्वास, प्रेम और मनुष्यता की कहानी है। जिंदगी एक दरवाजा बंद करती है, अनेक खिड़कियां खोल देती है। हां, हमें खिड़कियों से नीचे उतरने का हुनर मालूम होना चाहिए। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
जीवन नींद में होने से उतने संकट में नहीं है, जितना नींद का नाटक करने में है। जो नींद में है, संभव है किसी तरह जाग जाए, लेकिन जो नाटक कर रहा है, उसने तो मन के सारे दरवाजे बंद कर लिए हैं। जिसने दरवाजे बंद कर लिए वह कैसे बाहर आएगा?
हम बहुत सारी बातें जानते हैं। सुनते रहते हैं। अनसुना करते रहते हैं। यह ऐसा सिलसिला है, जो जीवनभर चलता ही रहता है। जीवन ऐसे ही गुजर जाए, जैसे किसी गहरी नींद में हम होते हैं। हमें कई बार पता भी होता है कि उठना है, जागना है, लेकिन नींद कहां टूटती है! जिंदगी की कहानी इससे कुछ अलग नहीं! जापान में बौद्ध धर्म की एक शाखा जेन परंपरा के रूप में बहुत लोकप्रिय है। जेन का सारा मामला तुरंत घटने पर है। इसी समय। बिना किसी तैयारी के। वहां जेन परंपरा के दो रूप हैं। इनमें से एक की चर्चा आज दूसरे की फिर किसी दिन। यह परंपरा है, तत्क्षण संबोधि! इसे अंग्रेजी में सडन इनलाइटनमेंट कहते हैं। भाषा को थोड़ा और सरल करें, तो इसी समय। इसी पल जो घटता है वही असल में घटता है।
इस परंपरा के एक ख्यात गुरु को एक बार जापान के सम्राट ने अपने महल में आमंत्रित किया। गुरु का आना हुआ। भव्य आसन बनाया गया उनके लिए। सम्राट उनके चरणों में बैठा। बड़ी संख्या में लोग उनके वचन सुनने के लिए तत्पर बैठे थे। गुरु जी ने थोड़ी देर इधर-उधर देखा, उसके बाद एक टेबल पर जोर से दो-चार मुक्के मारकर चले गए। उनको वहां बुलाने वाले वजीर से सम्राट नाराज हो गया। उसने कहा, ‘मैंने इतने प्रबंध किए। लेकिन यह कैसे गुरु हैं। आए और बिना कुछ कहे चले गए।’ वजीर अनुभवी था। उसने सम्राट से कहा, ‘यह उनका सबसे महत्वपूर्ण भाषण था। इतना सुंदर भाषण, तो उन्होंने कभी दिया ही नहीं।’
सम्राट का गुस्सा सातवें आसमान पर था। उसने कहा, ‘एक टेबल पर दो-चार मुक्के मार देना और बिना कुछ कहे चले जाना। तुम इसे भाषण कह रहे हो!’ वजीर ने कहा, ‘वह ऐसे ही हैं। वह केवल हमें नींद से जगाने की कोशिश करते हैं। मैंने इन गुरु के और भी अनेक व्याख्यान सुने हैं, लेकिन इतना स्पष्ट व्याख्यान कहीं और नहीं था।’
सम्राट को कुछ बात समझ न आई। उसने कहा, ‘मैं नींद में था ही कब। मैं तो बचपन से ही जागा हुआ हूं।’ वजीर समझ गया कि अब संकट उस पर ही है। उसने कहा, ‘आप चिंतित न हों, क्योंकि मैंने इनके बहुत व्याख्यान सुने हैं, लेकिन मैं भी अभी तक जागा नहीं। आपने तो एक ही सुना है! आप पर इसका कोई प्रभाव नहीं होगा।’
सम्राट और वजीर की तरह हम भी गहरी नींद में हैं। जो चला आ रहा है उसकी खुमारी बड़ी प्रिय होती है। उससे प्रिय कुछ नहीं होता। किसी नशे की तरह हमें इसके अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। अहंकार को सबसे अधिक ऊर्जा ऐसे ही मिलती है! राजा है या रंक। वर्तमान, वैभव की आकांक्षा में हम इतने अधिक डूबे हुए हैं कि हम में कतई भी जागने की इच्छा नहीं। यह कुछ-कुछ ऐसा है, जैसे कोई बच्चा नींद में नहीं है, लेकिन नींद में होने का नाटक कर रहा है। जो नींद में होने का नाटक कर रहा है, उसे उठाना आसान नहीं होता। हमारे मन और चेतना को इसी तरह का खाद-पानी दिया गया है, जिसमें नींद में होने का हमें गहरा अभ्यास हो चला है।
जीवन नींद में होने से उतने संकट में नहीं है, जितना नींद का नाटक करने में है। जो नींद में है, संभव है किसी तरह जाग जाए, लेकिन जो नाटक कर रहा है, उसने तो मन के सारे दरवाजे बंद कर लिए हैं। जिसने दरवाजे बंद कर लिए, वह कैसे बाहर आएगा?
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कौन हैं और क्या कर रहे हैं। सारा अंतर इस बात से पड़ता है कि जीवन के प्रति दृष्टि कैसी है। सुख-दुख को लेकर हम कितने सहज हैं। जीवन हमारे कुछ होने से अधिक हमारी जीवन आस्था और ऊर्जा से शक्ति लेता है। कोशिश करें जीवन के अर्थ को उपलब्ध होने की और अपनी बनी हुई दुनिया से बाहर निकलकर जीवन को समझने की। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
दुख का सामना करने की हमारी कोई तैयारी नहीं। काश! जीवन को हमने शिक्षा से इतना अलग न किया होता। अगर हममें तनाव, दुख सहने, संभालने की शक्ति नहीं, तो हमें ऐसी शिक्षा, समाज को बदलने के लिए तैयार होना होगा!
कोरोना वायरस के हमारे सामाजिक-आर्थिक जीवन पर जो प्रभाव पड़ रहे हैं, उनका ठीक-ठीक अध्ययन होना बाकी है, लेकिन इतना तो स्पष्ट रूप से दिख रहा है कि दुख का सामना करने की हमारी कोई तैयारी नहीं। काश! जीवन को हमने शिक्षा से इतना अलग न किया होता। अगर हममें तनाव, दुख सहने, संभालने की शक्ति नहीं, तो हमें ऐसी शिक्षा, समाज को बदलने के लिए तैयार होना होगा! कोरोना वायरस के कारण हमारी आर्थिक स्थिति पर निश्चित रूप से प्रभाव पड़ रहा है। बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिन पर इसकी छाया पडऩी शुरू हो गई है। व्यापार, नौकरी सबमें कटौती की तलवार लटक रही है। जीवन संवाद को नियमित रूप से ई-मेल और संदेश मिल रहे हैं। जीवन से जुड़े सभी प्रश्नों पर आपके प्रिय कॉलम में नियमित रूप से चर्चा होती रहती है। दुख के बारे में भी हमने बहुत विस्तार से बात की है।
आज दुख पर चर्चा करने का एक बड़ा कारण कोरोना वायरस का हमारे ऊपर पडऩे वाला मानसिक प्रभाव है। हमें इस बात को समझना होगा कि केवल हम ही परेशान नहीं। केवल हमीं दुखी नहीं हैं। पूरी दुनिया पर दुख की छाया है। इस दुख को सहना तब और अधिक मुश्किल हो जाता है जब हम यह मान लेते हैं कि ऐसा केवल मेरे साथ ही हो रहा है। इस बारे में मेरा सुझाव है कि अगर हम इन दो बातों को मन में बैठा लें, तो हमारे बहुत से संकट सुलझ सकते हैं! सबसे जरूरी और पहली बात। यह केवल आपके साथ नहीं हो रहा। कोरोना के कारण करोड़ों लोगों के जीवन में उथल-पुथल है। सब अपने-अपने तरीके से इस संकट से निकलने की कोशिश कर रहे हैं। कोई भी संकट कितना भी गहरा क्यों न हो, बहुत देर तक हमारे साथ नहीं रहता, इसलिए जीवन की आस्था को मजबूत कीजिए। जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण और नजरिए को ठोस और गहरा बनाइए।
दूसरी बात। मैं ही क्यों! मैंने कभी किसी का बुरा नहीं किया! पति के साथ दूसरे शहर में विस्थापित होने के लिए विवश हुई एक युवा कारोबारी की पत्नी ने आंखों में आंसू लिए हुए मुझसे पूछा। मैंने उनके पति की आंखों में देखते हुए कहा, ‘क्या आपने इनके साथ केवल सुख का वादा किया है?’ पत्नी ने तुरंत उत्तर दिया, ‘मैं हर दुख में इनके साथ हूं।’ मैंने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘आप हर दुख में अगर साथ हैं, तो इन शब्दों को अपने जीवन में उतार लीजिए- जीवन बहुत बड़ी संभावना है। यात्रा है। हम परिवार के साथ केवल सुख के लिए नहीं हैं। दुख की तैयारी जीवन में वैज्ञानिकता का प्रमाण है। अगर हम इसके लिए तैयार रहें, तो अवसाद, तनाव और? भीतर की व्याकुलता से सहज दूर रहेंगे। दुख सहने का बोध जीवन की यात्रा में हमारे मन का सबसे बड़ा साथी है!’
एक छोटी-सी कहानी आपसे कहता हूं। गुरु नानक का काफिला एक बार एक गांव के बाहर रुका, तो उनकी शिक्षा से असहमत गांव के कुछ लोगों ने उनको वहां से जाने के लिए विवश किया। स्वागत-सत्कार तो बहुत दूर की बात है। उनके शिष्य ने पूछा, ‘इनके लिए क्या कहेंगे।’ नानक ने आसमान की ओर देखते हुए कहा, ‘इनको मेरा आशीर्वाद है कि यह सदा यही रहें। यहीं बस जाएं और फले फूलें।’
जल्द ही दूसरे गांव के बाहर उनका गहरी आत्मीयता और प्रेम के साथ सत्कार किया गया। ऐसा स्वागत जिसमें प्रेम ही प्रेम टपक रहा था। आनंदित थे, लोग वहां अपने बीच नानक को पाकर! वहां से जाते हुए भी जब उसी शिष्य ने पूछा, ‘इनके लिए क्या आशीर्वाद है।’ नानक ने अपने करुणामयी स्वर में कहा, ‘यह लोग जल्द ही बिखर जाएंगे। गांव का हर व्यक्ति अलग-अलग दिशा में चला जाएगा।’
शिष्य को बात समझ में नहीं आई। उसने कहा, ‘जिन्होंने कष्ट दिया वह वहीं रहें। जिनके मन में प्रेम है वह बिखर जाएं। मुझे यह बात समझ नहीं आ रही’। नानक ने समझाया, ‘अगर ऐसे लोग दुनिया में फैल गए, जो दूसरों को कष्ट देते हैं, तो यह खूबसूरत दुनिया नष्ट हो जाएगी, लेकिन इस दुनिया को खतरा तब भी है, जब सारे प्रेम और करुणा में डूबे लोग एक ही जगह बस जाएं।’
जीवन में आस्था, सबसे बड़ा मानवीय गुण है। मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि मैंने जो कुछ सीखा जीवन में, ऐसे लोगों से ही सीखा है जो लगातार संघर्ष करते रहे। लेकिन उनके मन में कभी जीवन के प्रति कठोरता नहीं आई। जीवन के प्रति निराशा नहीं आई। यह जो संकट आया है, जाने के लिए ही आया है। कहना निश्चित रूप से सरल है और इसे भोगना उतना ही अधिक कष्टदायक। लेकिन जीवन की आस्था इसे जीने में ही है। जीवन की शुभकामना सहित... (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
हमें मन के उस कोने की खोज करनी है, जो हमारी पूरी शक्ति का सबसे बड़ा केंद्र है। उसके बाद पूरी सजगता से उसे संभालना है। जीवन के लिए गति जरूरी है, लेकिन ठहराव उससे भी जरूरी है!
अपने लिए हम क्या करते हैं। कुछ ऐसा जिसका संबंध विशुद्ध रूप से हमारे भीतर से हो। कुछ होने या न होने से नहीं। ऐसी कोई एक गतिविधि जो हमें आत्मिक आनंद से भर दे। ऐसा कुछ जिससे मन पूरी तरह झूम उठे। जीवन से जुड़ी हमारी अधिकांश शिक्षाएं अब केवल डायरी और किताबों में ही मिलेंगी, क्योंकि हमने सबकुछ पाने की आशा में अपने जीवन का बहुत जरूरी हिस्सा विश्राम खो दिया है। आनंद खो दिया है, क्योंकि सबकुछ नतीजे पर केंद्रित हो गया! ऐसा करने से क्या हासिल होगा! किसलिए! किसलिए! किसलिए!
हमने अपने दिमाग को कुछ इस तरह से प्रशिक्षित किया है कि वह केवल यही दोहराता रहता है कि इस काम का हासिल क्या है। जीवन में श्रेष्ठता की ओर यात्रा अच्छा विचार है, लेकिन कोई भी रास्ता अगर दुनिया के दूसरे रास्ते से कट जाता है, तो वह अंतत: अकेला ही हो जाता है। ऐसा रास्ता, हमें केवल भटकाता है! कहीं पहुंचाता नहीं। कहीं पहुंचने के लिए दिमाग का ठीक तरह से समावेशी होना जरूरी है। उसका टुकड़े में बंटा होना, हमारे जीवन के लिए अच्छा नहीं है। पिछले कुछ दिनों में लखनऊ और पटना से दो युवा उद्योगपतियों से संवाद हुआ। दोनों ही तनाव को ठीक से नहीं संभाल पा रहे हैं। आपको जानकर आश्चर्य हो सकता है कि दोनों का ही संकट आर्थिक नहीं है। हां, इस संकट के कारण अवश्य उनकी पूरी अर्थव्यवस्था मुश्किल में पड़ गई है।
दोनों के व्यक्तित्व में सबसे बड़ी समस्या उनका पूरी तरह से पूर्ण होना है। इतने पूर्णता से भरे हुए हैं कि प्रेम, स्नेह के लिए कोई जगह ही नहीं। परिवार, पत्नी और बच्चों के साथ होते हुए भी दूर हैं। जीवन संवाद में हम इस बात पर सबसे अधिक जोर देते आए हैं कि धन में इतनी शक्ति जरूर है कि वह हमारी सुविधाएं बढ़ा दे। कुछ कष्ट कम कर दे, लेकिन वह हमें सुखी करने के लिए पर्याप्त रूप से शक्तिशाली नहीं है। हमने महत्वाकांक्षाओं के चक्कर में धन को बहुत अधिक शक्तिशाली समझ लिया। सुख, मन के शांत और समभाव होने से उपजा भाव है। इतना दुर्लभ कि किसी से भी पूछ लीजिए कि वह सुखी है, तो वह घबरा जाता है। सुख की बात सुनकर घबराने वाला मन सुखी कैसे होगा! ऐसे प्रश्न के उत्तर में संभव है, कुछ यह कह दें कि वह तो सुखी हैं, लेकिन तुरंत ही संभाल लेंगे कि अगर यह हो जाता, तो मैं सुखी हो जाता। मेरा सुख अभी यहां अटका हुआ है!
जीवन में अतृप्ति का यह अभाव ही हमारे संकट का सबसे बड़ा कारण है। खुद से दूरी का सबसे बड़ा कारण यही है। जब हम खुद को हमेशा स्वयं से ही घेरे रहेंगे तो धीरे-धीरे हम अपने आसपास से आने वाली ऊर्जा, ताजे विचार और प्रेम से खुद को वंचित करते जाएंगे! अपने को केवल ऐसी चीजों से व्यस्त रखना जिनसे नौकरी/कारोबार/आजीविका चलती हो, वास्तव में एक ऐसी कोठरी में बंद कर लेना है, जहां पर केवल चारों ओर आप ही की तस्वीर लगी हो। ऐसा व्यक्ति धीरे-धीरे समाज और दुनिया से दूर खिसकता जाता है!
इसलिए बहुत जरूरी है कि हम अपने को वक्त दें। स्वयं को कुछ ऐसी चीजों से जोड़ें, जो हमारे आंतरिक मन को ऊर्जा, आनंद से भर सकें। सबके लिए यह काम अलग-अलग हैं। हमें मन के उस कोने की खोज करनी है, जो हमारी पूरी शक्ति का सबसे बड़ा केंद्र है। उसके बाद पूरी सजगता से उसे संभालना है। जीवन के लिए गति जरूरी है, लेकिन ठहराव उससे भी जरूरी है! (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
हमारी विचार प्रक्रिया के हिसाब से केवल हम ही निर्दोष हैं। सारी दुनिया हमें सता रही है। केवल हम ही सबसे भले हैं। अपने प्रति यह अतिरिक्त उदारता, भावुकता ही हमें दूसरों के प्रति कठोरता प्रदान करती है।
हम आजीविका के लिए जरूरी साक्षरता पर इतना अधिक जोर देते गए कि धीरे-धीरे हमारे भीतर शिक्षा के मूल्य, नैतिकता के बोध पीछे छूटते चले गए। जीवन के प्रति समझ कमजोर होती गई। एक-दूसरे को हम चुनौती मानने में इतने अधिक व्यस्त हो गए कि सहज प्रेम की डोर उलझने लगी। जिन मूल्यों के सहारे हम मजबूती से कठिनतम समय में भी टिके रहते थे, अब उनके सहारे एक दिन कटना भी मुश्किल हो जाता है! हमेशा जीवन को अपने ही दृष्टिकोण से समझने के प्रयास में रहते हैं। अपने नजरिए को ही अपनी नजर बना लेते हैं, जबकि जीवन एकतरफा नहीं। हम जीवन नदी के तट पर भी समन्वय को नहीं आने देते। नाव में साथ सफर की बात तो बहुत दूर की कौड़ी है! दूसरे की जगह खड़े होकर देखने की कोशिश कीजिए, जीवन के उत्तर स्वयं मिलने लगेंगे!
महात्मा बुद्ध से जुड़ा संवाद आपसे साझा करता हूं। संभव है, इससे मेरी बात अधिक स्पष्ट हो पाएगी। बुद्ध सुबह प्रार्थना करते, तो रोज वह क्षमा मांगते, संसार से। एक दिन आनंद ने उनसे पूछा, ‘आप तो किसी को कष्ट देते नहीं, फिर किस बात की क्षमा! आप तो किसी को चोट भी नहीं पहुंचाते। फिर किस बात की माफी मांगते हैं’। बुद्ध ने बड़ी सुंदर बात कही। वह कहते हैं, ‘मुझे अपने अज्ञान के दिनों की याद है। कोई मुझे चोट नहीं भी पहुंचाता था, तो भी पहुंच जाती थी। आज जब मैं इस बात से परिचित हूं कि हर तरफ अज्ञान के समूह हैं। इन समूहों को मेरे बिना पहुंचाए भी अनेक बार मेरी बातों से चोट पहुंच रही होगी। फिर मैंने पहुंचाई या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनको तो तकलीफ पहुंच रही होगी। मैं उसी तकलीफ की क्षमा चाहता हूं’!
आनंद ने कहा, ‘चोट उन्हें भले पहुंच रही हो, लेकिन पहुंचाने वाले तो आप नहीं हैं’! बुद्ध ने फिर बात दोहराई, ‘निमित्त तो मैं ही हूं! अगर मैं न रहूं, तो मुझसे चोट नहीं पहुंचेगी। मेरा होना ही काफी है। इसलिए मैं क्षमा मांगता रहूंगा। यह क्षमा किसी किए गए अपराध के लिए नहीं, बल्कि हो गए अपराध के लिए है। और हो गए अपराध में मेरा कोई योगदान न हो, उसके लिए भी है’!
महात्मा बुद्ध के उलट हमारी विचार प्रक्रिया के हिसााब से केवल हम ही निर्दोष हैं। सारी दुनिया हमें सता रही है। केवल हम ही सबसे भले हैं। अपने प्रति यह अतिरिक्त उदारता, भावुकता ही हमें दूसरों के प्रति कठोरता प्रदान करती है। जीवन के प्रति अपनी दृष्टि को बदले बिना हमारा बदलना संभव नहीं। केवल कपड़े बदल लेने से हम नहीं बदल जाते। हां, नए और सुंदर कपड़ों से संभव है दुनिया को हम कुछ और नजर आने लगें, लेकिन जिस तरह हमारे माता-पिता हमें पहचानने में गलती नहीं करेंगे, ठीक उसी तरह हमारा मन कपड़ों से नहीं बदलता। हां, शरीर की भाषा बदल सकती है। संभव है दूसरों का हमारे प्रति व्यवहार बदल जाए, लेकिन इन सबसे हम खुद को बहुत अधिक नहीं संभाल सकते।
असली बात तो वही है जो भीतर है। अपने भीतर को सहेजना सबसे जरूरी है। हमारे जीवन में सबसे अधिक संकट इससे ही आते हैं कि हम खुद को हमेशा, दुखी, पीडि़त और संघर्षशील बताते रहते हैं। बताते हुए मानने लगते हैं, जबकि अपने अतिरिक्त सबको दोषी, अपराधी, अन्यायपूर्ण साबित करने में जुटे रहते हैं। इसे बंद करना होगा। हम दूसरों को समझने की जितनी अधिक कोशिश करेंगे, हमारे भीतर करुणा और कोमलता उतनी ही बढ़ती जाएगी। वहां से जो सुंदर, सुलझी और सुगंधित शांति जीवन में प्रवेश करेगी, वह उन सभी संकटों को संभालने में सक्षम होगी जिनके कारण अभी हमको अनावश्यक संघर्ष करना होता है। इस अनावश्यक मानसिक संघर्ष से जीवन की आस्था और ऊर्जा का बहुत नुकसान होता है! (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
क्षमा तो ऐसे मांगी जाती है, जैसे खूब प्यासे होने पर किसी पानी पिलाने वाले के प्रति गहरी श्रद्धा/स्नेह हो मन में! क्षमा जब तक मन में उतरकर नहीं मांगी जाएगी, अतीत का मैल सरलता से साफ नहीं होगा!
हम अक्सर एक-दूसरे की कमजोर कड़ी खोजते रहते हैं। कमियों/ गलतियों को मन की तिजोरी में संभाले रखते हैं। कितने निर्मम होते जा रहे हैं हम! अतीत की गली में हम एक-दूसरे को लेकर जितना जाएंगे, जीवन को उतनी ही बेचैनी मिलेगी। जीवन संवाद को देश के अलग-अलग हिस्सों से पाठकों की ईमेल और संदेश मिलते रहते हैं। इनमें हम पति-पत्नी/ दांपत्य जीवन के प्रश्नों पर विचार करने पर पाते हैं कि आज के सुख से अधिक हमारा ध्यान उन कमियों/गलतियों पर अधिक रहता है जो जाने अनजाने घटित होती रहीं।
आज से दस बरस पहले दो लोगों के बीच जो कुछ भी हुआ हो उसे हमेशा आज की नजर से देखने पर दुख ही मिलेगा। हम सभी जिस रिश्ते में भी हों समय के साथ एक-दूसरे के प्रति समझ बेहतर होती है। ऐसे में बीते समय में क्या हुआ, उस पर हमारा दृष्टिकोण कैसा रहा, केवल इन बातों को ही दोहराना जीवन के पांव को जंजीरों से बांधने जैसा है।
रांची से धर्मेंद्र झा ने लिखते हैं, ‘कुछ वर्षों पहले तक उनके घर में सबसे अधिक बहस इस बात पर होती थी कि कैसे अनेक अवसरों पर कभी उनकी पत्नी का ससुराल में अपमान हुआ, तो कब-कब पत्नी के मायके में धर्मेंद्र जी को ठीक से सम्मान नहीं मिला।’
धर्मेंद्र कहते हैं कि ‘जीवन संवाद’ ने करुणा, प्रेम और स्नेह के प्रति जागरूक करने में मदद की। जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण को बदला! हम उनकी ईमानदार प्रतिक्रिया का सम्मान करते हैं। सामने आकर ऐसा कहने के लिए भीतर जीवन के प्रति गहरी आस्था और समझ का होना बहुत जरूरी है!
भारत में अक्सर रिश्ते अतीत की गलियों में टहलते हुए कमजोर होते रहते हैं। हर छोटी-छोटी बात में अपने अहंकार को ले आना, हमारे स्वभाव का हिस्सा बनता जा रहा है।
कभी-कभी तो यह लगता है कि हम इस प्रतीक्षा में ही रहते हैं कि कैसे कुछ ऐसा घटे, जिससे सामने वाले के अहंकार पर चोट की जा सके। हमें उसके अहंकार की इतनी चिंता नहीं, जितनी असल में अपने अहंकार की है। हमारा अहंकार इस बात से ही खाद-पानी पाता है कि कैसे हम अपने तर्कों से सामने वाले (जो हमारा ही है। पति/पत्नी/भाई/ बहन/पड़ोसी/रिश्तेदार) को उसकी गलती का अहसास करा दें। ? इसे ही जीवन संवाद में हम ‘दुखी करने की आदत कहते हैं’।
बीस/दस/पांच साल पहले जो भी घटा था, उसे पकड़े रहने से कुछ नहीं मिलेगा। अगर कुछ मिलेगा तो वह केवल मन/आत्मा के लिए अहितकारी ही होगा। उससे कुछ अमृत नहीं निकलने वाला।
जब शाम होने को आती है, तो हम इस बात में नहीं उलझते कि घर में कल किसने रोशनी की थी। हमारा ध्यान तो केवल इस पर रहता है कि कोई उठकर आज दीया जला दे। जिस रूप में भी उजाला उपलब्ध है, उस उजाले तक हमें पहुंचा दे। फिर छोटी मोटी बातों पर अतीत की यात्राओं के लिए मन में इतनी व्याकुलता किसलिए!
एक छोटा-सा उपाय आपसे कहता हूं । जब कभी, किसी से भी संवाद में हों, मन अतीत को जाने लगे तो केवल इतना कहिए, आज नहीं कल! इससे भी बात न बने, तो बिना उलझे केवल क्षमा मांगिए। क्षमा से मैल धुलता है, मन का! लेकिन क्षमा ऐसे मत मांगिए, जैसे कोई एहसान किया जा रहा हो। क्षमा तो ऐसे मांगी जाती है, जैसे खूब प्यासे होने पर किसी पानी पिलाने वाले के प्रति गहरी श्रद्धा /स्नेह हो मन में! क्षमा जब तक मन में उतरकर नहीं मांगी जाएगी, अतीत का मैल सरलता से साफ नहीं होगा! (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
एक हरा-भरा पेड़ तने और पत्तियों के सहारे नहीं होता। उसकी शक्ति जड़ में होती है। हमने बचत की भारतीय जीवनशैली के उलट जाकर कर्ज से अपने को लहलहता पेड़ बनाने का प्रयास किया। इसका नतीजा यही होना है। जिसे हम अर्थव्यवस्था समझ रहे हैं उसका हमारे सुख-चैन से कोई रिश्ता नहीं।
एक छोटी-सी कहानी से संवाद शुरू करते हैं। जैन आश्रम में भूकंप आया। पूरा आश्रम कांपने लगा। कुछ कमजोर कुटिया तो गिर ही गईं। थोड़ी देर बाद भूकंप थम गया। आश्रम के सबसे वरिष्ठ साधक सामने आए और उन्होंने कहा, आज आपको यह देखने का मौका मिला होगा कि एक सच्चा जैन साधक संकटकाल में भी विचलित नहीं होता। आपने देखा कि भूकंप शुरू होते ही सब घबरा गए थे, पर मैंने आत्मनियंत्रण बिल्कुल भी नहीं खोया। मैं शांत और स्थिर भाव से सबकुछ देखता रहा। जैसा हमें सिखाया गया है, मैं इसके अनुकूल बना रहा।
मैंने ठंडे दिमाग से सोचा कि सबकी सुरक्षा के लिए क्या करना है और सभी डरे घबराए लोगों को एक साथ आश्रम के बड़े रसोई घर में ले गया, क्योंकि उसकी इमारत काफी पक्की, मजबूत है। उसके गिरने का डर नहीं था, लेकिन मैं यह स्वीकार करता हूं कि आत्मनियंत्रण के बाद भी दूसरों की चिंता में मैं थोड़े तनाव में आ गया था, इसलिए रसोई घर में पहुंचते ही मैंने एक गिलास पानी पिया। जिसकी सामान्य स्थिति में मुझे जरूरत न होती। ऐसा कहकर अपनी अभिमानपूर्ण मुस्कान के साथ उन्होंने सबके चेहरे पर नजर दौड़ाई। तभी पीछे से गुरुजी निकलकर आए और हंसने लगे।
साधक ने अपने गुरुजी से पूछा, आप हंस क्यों रहे हैं? क्या मुझसे कुछ गलती हुई? गुरुजी ने शांत भाव से उत्तर दिया, तुमने जो पिया, वह पानी नहीं सिरके से भरा गिलास था। हम घबराहट के मामले में इस साधक के बहुत नजदीक हैं। संकट में दिखाते तो ऐसे हैं जैसे भीतर कोई खलबली न हो, लेकिन पानी की जगह सिरके से भरा गिलास अक्सर पीते रहते हैं।
संकट आने पर घबराहट स्वाभाविक है। हम बस इतना कर सकते हैं कि धैर्य, सरलता, सहजता बनी रहे। घबराहट गहरे न उतरे। वह आए, लेकिन घर की दहलीज से ही गुजर जाए। भीतर प्रवेश न करने पाए। बीते दस-पंद्रह बरस में समाज में तीन चीजें बहुत तेजी से बढ़ीं। पहली, कर्ज (ईएमआई) को आसान मानना। दूसरी, हर चीज ईएमआई पर खरीदना। तीसरी, वर्तमान में रहने की जगह हर समय भविष्य के आधार पर सपने बुनना। यह सपना बुनते समय भी अपनी बचत से अधिक कर्ज की क्षमता पर भरोसा करना!
अगर आप ध्यान से देखेंगे, तो पाएंगे कि इन तीन चीजों में सबसे बड़ी भूमिका ईएमआई का सामान्य बुद्धि में सहज होते जाना है। ‘जीवन संवाद’ को कोरोनावायरस, लॉकडाउन के हमारे जीवन में आने के बाद से घबराहट, गुस्सा, गहरी चिंता और डिप्रेशन के सवाल बड़ी संख्या में मिल रहे हैं। लोग अपने भविष्य को लेकर बेचैन हो रहे हैं। जिनके सामने संकट नहीं आया है वह उसकी आशंका में अपने दिल को परेशान किए हुए हैं। दूसरी ओर जिनके सामने संकट आ गया है, वह ऐसे पेश आ रहे हैं जैसे यह संकट पहली बार आया हो। वैसे उनकी परेशानी एकदम सही है।
पिछली बार लगभग एक दशक पहले जब आर्थिक मंदी दुनियाभर में अपने पैर पसार रही थी, तो भारत में उसका मुकाबला पारिवारिक शक्ति ने किया था। बचत ने किया था। सांझा चूल्हा ने किया था। घर के बड़े-बुजुर्गों की देखरेख में संकट का सामना किया गया था। अब एक दशक में ही हमारा समाज बचत से अधिक कर्ज की ओर बढ़ गया है। हर चीज़ ईएमआई पर है। वेतन का अस्सी प्रतिशत कर्ज में लौटाने वाला सुखी कैसे हो सकता है!
एक हरा-भरा पेड़ तने और पत्तियों के सहारे नहीं होता। उसकी शक्ति जड़ में होती है। हमने बचत की भारतीय जीवनशैली के उलट जाकर कर्ज से अपने को लहलहता पेड़ बनाने का प्रयास किया। इसका नतीजा यही होना है। जिसे हम अर्थव्यवस्था समझ रहे हैं उसका हमारे सुख-चैन से कोई रिश्ता नहीं। हमारे सुख-चैन में हमारी जीवनशैली की भूमिका कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, इसीलिए भूटान इतना सुखी है। आनंदित है। प्रसन्नता और आनंद के मानकों पर खरा उतरता है।
जीवन सुविधा से नहीं अपने चुनाव से अपनी गति को प्राप्त होता है। मैंने सुना है लोग वहां केवल वर्तमान की छांव में रहते हैं। भूटान जीवन के स्तर को सकल राष्ट्रीय खुशी (जीएनएच) से नापता है, न कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से। सरकार का कहना है कि इसमें भौतिक और मानसिक रूप से ठीक होने के बीच संतुलन कायम किया जाता है। हमें भी अब इन रास्तों पर जाने के बारे में गंभीरता से विचार करना होगा।
-दयाशंकर मिश्र
आत्महत्या, उदासी के खयाल मन को सताएं, तो सबसे पहले अकेलेपन की दीवार तोडि़ए। बात शुरू कीजिए। मन की गिरह खोलिए। मत सोचिए आंसुओं से आपको कमजोर समझा जाएगा। यह दुनिया कोमलता, आंसू पर ही टिकी है!
संतोष, आनंद और थोड़े को बहुत समझने वाले भोपाल से आत्महत्या की खबरों का बढऩा, जीवन का गहरे संकट की ओर बढ़ जाना है। हमें समझना होगा कि बाढ़ का पानी बहुत दूर नहीं है, बस घर तक पहुंचने ही वाला है! मध्य प्रदेश के सुपरिचित पत्रकार, लेखक और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति दीपक तिवारी ने मंगलवार की सुबह भोपाल में तनाव और आत्महत्या से जीवन पर उपजे संकट के बारे में सोशल मीडिया पर जरूरी टिप्पणी की है। ‘जीवन संवाद’ का उन्होंने सहृदयता और आत्मीयता से उल्लेख किया है। इसके लिए उनका आभार।
मध्य प्रदेश से छपने वाले अखबारों में भोपाल में आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं को आसानी से देखा जा सकता है। मैं अपने सभी पाठकों को बताना चाहूंगा कि लगभग दस दिन पहले देर रात मुझे भोपाल से एक फोन आया था। फोन करने वाले मित्र गहरे आर्थिक संकट से घिरे हुए थे। फोन पर वह लगभग आधा घंटा रोते रहे। अपने कर्ज में फंसे व्यापार, व्यक्तिगत लेनदारों का दबाव उनके ऊपर बहुत भारी पड़ता जा रहा था। लगभग एक सप्ताह के संवाद के बाद मुझे यह कहते हुए संतोष हो रहा है कि वह तनाव, आत्महत्या के खतरे से काफी हद तक दूर हैं! अब वह रास्ते तलाशने पर ध्यान दे रहे हैं, जीवन को समाप्त करने पर नहीं!
हम सबको यह समझने की जरूरत है कि जब कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, तो निश्चित रूप से उसके भीतर बहुत कुछ टूट रहा होता है। वह अकेला पड़ता जाता है। संघर्ष, रास्ता तलाशने की कोशिश में। हम सब जो उसके आसपास हैं, कई बार साथ रहकर भी उसके भंवर में होने को नहीं समझ पाते।
कोरोना वायरस के हमारे जीवन में संक्रमण से पहले एक-दूसरे से मिलना इतना मुश्किल नहीं था, लेकिन उस मिलने के दौरान भी हमारी निकटता में दरार तो पड़ ही गई थी। कोरोना वायरस के हमले ने हमारी सामाजिकता, प्रेम, स्नेह को खुली चुनौती दी है।
हम इस चुनौती को स्वीकार करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकते। मैं ऐसे सभी लोगों से यह बात दोहराता हूं कि जिसे हम जीकर नहीं बदल सकते, वह हमारे मरने से नहीं बदलेगा। लोग आत्महत्या का निर्णय ऐसे मोड़ पर आकर करते हैं, जहां से दूसरा उपाय दिखाई नहीं देता। बस यहीं आकर हमें अपने लोगों का खयाल रखना है। खयाल रखने का मतलब केवल सांत्वना नहीं है, बल्कि सांझा चूल्हे, संयुक्त परिवार और मिल-जुलकर एक ही रोटी के दो हिस्से कर लेना है। यह जो आर्थिक संकट आ रहा है। यकीन मानिए थोड़े समय में जाने वाला नहीं। यह रुकेगा, ठहरेगा और मनुष्यता की परीक्षा लेगा। इसलिए अपने खर्चों को ध्यान से देखिए। अपनी संचित निधि को केवल अपने लिए नहीं, उनके लिए भी बचाइए जिनके साथ आप जीवित रहना चाहते हैं!
आत्महत्या, उदासी के खयाल मन को सताएं, तो सबसे पहले अकेलेपन की दीवार तोडि़ए। बात शुरू कीजिए। मन की गिरह खोलिए। मत सोचिए आंसुओं से आपको कमजोर समझा जाएगा। यह दुनिया कोमलता, आंसू पर ही टिकी है! इसलिए, जितना संभव हो अपनों को संवाद के दायरे में लाइए। जिनको आप हर कीमत पर अपने जीवन में रखना चाहते हैं, उनसे नियमित संवाद कीजिए। कोरोनावायरस का टीका पता नहीं कब आएगा, लेकिन प्रेम का टीका तो हमारे पास ही है। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
प्रेम, क्षमा, करुणा और स्नेह को दुर्लभ मत बनाइए। इनका अधिकतम उपयोग कीजिए, यह उस सुख की नींव हैं, जिसकी तमन्ना में हम जिए जा रहे हैं!
अक्सर हम यह सवाल करते रहते हैं, सबसे अच्छा कौन है! किसका व्यवहार, आचरण सबसे अच्छा है। कबीर का इस बारे में सुंदर प्रसंग है। कबीर से एक बार किसी ने पूछा, इस गांव में सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति कौन है। उत्तर मिला, वही जो तेरे पड़ोस में रहता है। पूछने वाले ने कहा, उस पर तो कभी मेरा ध्यान ही नहीं गया। वह बड़ा सीधा-सादा आदमी है। चुपचाप अपनी मस्ती में रहता है।
उसने गलत नहीं कहा था, हम सब सीधे-सच्चे लोगों पर कहां ध्यान देते हैं। हमारा ध्यान ही उन लोगों पर होता है, जो कोई न कोई गड़बड़ करते रहते हैं। पूछने वाले का पड़ोसी भी अपनी दुनिया में मग्न रहने वाला था। अगले दिन वह पड़ोसी से मिले, तो देखा उसके चेहरे पर एक अलग तरह की चमक है। उन्होंने कबीर से कहा, ‘मैं हमेशा इस आदमी की पूजा करूंगा। आज से वह मेरा गुरु हुआ’!
फिर उन्होंने कबीर से कहा, ‘बस एक और सवाल है, इस गांव का सबसे बुरा आदमी कौन है, जिससे मैं बचने की कोशिश करूं’। कबीर का जवाब पुराना वाला ही था- वही तेरा पड़ोसी! पूछने वाले का माथा चकरा गया। उसने कहा, ‘यह तो उलझन हो गई। थोड़ी रोशनी डालिए’। कबीर ने कहा, ‘मैं क्या करूं। कल जब तुमने पूछा था, तुम्हारा पड़ोसी उस समय अच्छे भाव में था। उसके भीतर प्रेम उमड़ रहा था। मनुष्यता की लहर बड़ी ऊंची थी। आज जब तुमने पूछा, तो वह एकदम उल्टे विचार में था। मैं कुछ नहीं कर सकता। यह हर पल, हर क्षण बदलता मन है। कल सुबह मैं नहीं कह सकता कि क्या हालत होगी, संभव है, तुम्हारा पड़ोसी फिर अच्छे भाव में आ जाए’!
कबीर समझाते हैं, ‘हम वही होते हैं, जो इस समय होते हैं। हमारा मन हर पल बदलता है। इसलिए अच्छे-बुरे का फैसला लंबे हिसाब-किताब से नहीं किया जा सकता। जो है, सो अभी है। जैसे हवा जो बह रही है अगले क्षण वह नहीं होगी। नदी जो बह रही है अगले ही पल में बदल जाती है। ठीक ऐसे ही हमारे विचार हमें प्रतिपल बदलते रहते हैं! अच्छे-बुरे के फेर में हम सबसे अधिक नुकसान अपना करते हैं, क्योंकि हम अपनी धारणाएं इसके अनुसार बनाते हैं। हम भावनाओं का बोझ अपने मन पर डालते हैं। किसी को अच्छा मानने से मन को उतनी प्रसन्नता नहीं मिलती, जितना किसी को बुरा मानने से निंदा का रस आता है। इसलिए लोगों की छोड़ो, अपने मन पर ध्यान केंद्रित करो। स्वयं को देखो’।
इसीलिए कबीर कहते हैं-
‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय, जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।’
दूसरों के लिए बहुत सारे नकारात्मक विचार मन में रखते हुए हम अपने मन को ही दूषित करते हैं। घर में कचरा जमा हो, तो उसकी गंध असहज करती है। मन भी ऐसे ही परेशान होता है, उस कचरे से जो दूसरों का है, लेकिन हम उसे अपने मन में दबाए बैठे हैं। दूसरे के शब्द/व्यवहार के लिए स्वयं को सजा देना ठीक नहीं!
इसलिए, दूसरे को सजा देने का ख्याल असल में स्वयं को सजा देने जैसा है। किसी को सुधारना अगर इतना आसान होता, तो यह दुनिया अब तक कब की बदल गई होती। हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम कम से कम स्वयं को वैसा बना सकें, जैसा हम दूसरे के बारे में बातें करते हैं। प्रेम, क्षमा, करुणा और स्नेह को दुर्लभ मत बनाइए। इनका अधिकतम उपयोग कीजिए, यह उस सुख की नींव हैं, जिसकी तमन्ना में हम जिए जा रहे हैं! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
कभी मत सोचिए कि दूसरे के दुख / संकट को अपना समझने में आपका अहित है, क्योंकि आज उसका दुख / संकट छोटा हो सकता है, लेकिन कल आपका संकट इतना बड़ा हो सकता है कि उसे सहने के लिए बहुत सारे साहस, साथ की जरूरत हो।
एक छोटी-सी कहानी। मन के स्वभाव, व्यवहार के बारे में मुझे खूब कहानियां सुनने को मिलीं। मां की सुनाई अधिकतर कहानियां मन में सुरक्षित हैं। हरिश्चंद्र, नल-दमयंती से लेकर राजा ढोलना तक। जीवन की आस्था और संघर्ष ही इनके किरदार हैं। जीवन संवाद में आपसे जो कहानियां कहता हूं, उनकी जड़ें गर्मियों की चांदनी, शीतल रातों में हैं। लौटते हैं आज की कहानी में!
एक राजा को अपनी छवि से बहुत प्यार था। वैसे तो सुंदरता को लेकर पागलपन साधारण मनोरोग है, लेकिन राजाओं में कुछ ज्यादा होता है। स्वयं पर मुग्धता, राजा होने का पहला प्रमाण है। लक्षण है। इस राजा को भी वैसा ही था। उसे खुद को देखना, अपनी तारीफ सुनना बहुत प्रिय था, इसलिए उसने एक महल बनवाया। इसके भीतर केवल चारों ओर कांच लगे थे। बड़े-बड़े आईने। अलग-अलग कोण पर लगाए गए थे। राजा को यहां आकर बहुत अच्छा लगता। इसके भीतर प्रवेश करने की अनुमति राजा के अतिरिक्त किसी को न थी। दूसरा कोई इन छवियों को देखकर करता भी क्या! हां, राजा के पास इस तरह का अवकाश होता था। उसे सुख मिलता था। अपने मन के शीशमहल में, स्वयं को देखने का। खुद पर इठलाने का!
राजा को अपने कुत्ते से भी बहुत प्रेम था। एक ही कुत्ता था उसके पास। जिसकी देखभाल में थोड़ी सी भी लापरवाही राजा को बर्दाश्त न थी। जानवर का एक बड़ा लाभ यह होता है कि आप तो उससे सब कुछ कह सकते हैं, लेकिन वह जो कहना चाहता है, आपसे पूरी तरह नहीं कह सकता। इसलिए उसकी नाराजगी में भी हमें प्रेम मालूम होता है।
एक दिन राजा अपने शीशमहल में गया तो गलती से अपने कुत्ते को भी ले गया। वह शीशमहल पहुंचा ही था कि उसे किसी बहुत जरूरी काम से लौटना पड़ा। तब तक कुत्ता शीशमहल के भीतर चला गया था। जल्दबाजी में राजा उसे अपने साथ ले जाना भूल गया! उधर शीशमहल में कुत्ते को चारों ओर अपनी ही आकृति दिखी। उसे लगा अवश्य ही राजा ने उससे नाराज होकर दूसरे कुछ कुत्ते भी अपने मनोरंजन के लिए रख लिए हैं। उसने तुरंत ही उन पर भौंकना, चिल्लाना, गुस्सा करना शुरू कर दिया। बात यहीं नहीं रुकी, कुछ ही घंटों में उसने आईनों में दिख रहे कुत्तों पर हमला शुरू कर दिया। रातभर यह सब चलता रहा। सुबह-सुबह जब राजा को उसकी याद आई तो वह शीशमहल की ओर दौड़ा।
भीतर जाकर देखा तो उसका प्रिय कुत्ता अपनी प्रतिध्वनि, आईनों से लड़ता हुआ संसार से विदा हो गया था। गुस्से में राजा ने सारे आईने तुड़वा दिए। लेकिन आईने तुड़वाने से क्या होता है। असली आईने तो मन में बने हैं। असली दुविधा तो मन की है।
यह कथा केवल राजा के कुत्ते के संकट की नहीं है। असल में हम सबकी यही कहानी है। यह कहानी हमारी जीवनशैली, सोच-विचार के खंडहर हो जाने की कहानी है। हम भूल रहे हैं कि जीवन केवल पेड़ नहीं है। जीवन गहरी छाया भी है। पेड़, जितना अपने लिए है, उतना ही दूसरे के लिए! हमारे सुख-दुख आपस में मिले हुए हैं। इनको अलग करते ही संकट बढ़ता है! जबकि इसे समझते ही सारे संकट आसानी से छोटे होते जाते हैं। सुलझते जाते हैं।
कभी मत सोचिए कि दूसरे के दुख / संकट को अपना समझने में आपका अहित है, क्योंकि आज उसका दुख / संकट छोटा हो सकता है, लेकिन कल आपका संकट इतना बड़ा हो सकता है कि उसे सहने के लिए बहुत सारे साहस, साथ की जरूरत हो। इसलिए अपने-अपने शीशमहल से बाहर निकलकर हम सबको एक-दूसरे का साथ अधिक आत्मीयता और प्रेम से निभाने की जरूरत है। कोरोना का संकट उतना छोटा भी नहीं है, जितना हम उसको मान बैठे हैं!
-दयाशंकर मिश्र
जैसी धारणा वैसे परिणाम। धारणा को परिणाम बनते देर नहीं लगती। इसीलिए रिश्ते बिगड़ते हैं, तो बिगड़ते ही चले जाते हैं। हम सारी शक्ति मन के बाहर लगाते हैं, जबकि धारणा तो मन के भीतर दुबकी है!
मन इतना शक्तिशाली है कि अगर हम ठीक से उसे न संभालें, समझें तो बहुत संभव है कि वह हमें ऐसे भंवर में उलझा दे, जिसकी हमने कल्पना भी न की हो। आज संवाद की शुरुआत एक छोटे से मनोवैज्ञानिक प्रयोग से करते हैं। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर रहे थे। एक दिन वह एक बड़ी-सी बोतल जो अच्छी तरह से सील बंद थी, अपनी क्लास में लेकर पहुंचे। विद्यार्थियों से उन्होंने कहा, ‘इस बोतल में अमोनिया गैस है। मैं यह प्रयोग करना चाहता हूं कि कक्षा के अंतिम विद्यार्थी तक पहुंचने में यह कितना समय लेती है। जैसे ही मैं इसका ढक्कन खोलूंगा, आपको अपनी जगह बैठे-बैठे हाथ उठाना है। जैसे ही आपको इसकी गंध महसूस हो तुरंत हाथ उठा दीजिए। जैसे-जैसे पहले विद्यार्थी से अंतिम विद्यार्थी तक यह गंध पहुंचे वह हाथ उठाता चले।’
विद्यार्थी तैयार। सारी दुनिया से मन काटकर उन्होंने गंध महसूस करने में लगा दिया। मनोवैज्ञानिक ने बोतल से तेजी से ढक्कन उठाया और उतनी ही फुर्ती से अपनी नाक पर रूमाल रख ली। दो सेकंड में ही सबसे आगे बैठे विद्यार्थी ने हाथ उठा दिया, फिर उसी के अनुसार दूसरे, तीसरे और कुछ ही पलों में सबसे आखिरी में बैठे विद्यार्थी ने भी बता दिया कि अमोनिया गैस उस तक पहुंच रही है। पंद्रह-बीस सेकंड में पूरी कक्षा ने अमोनिया की गंध महसूस कर ली। कुछ विद्यार्थियों ने तो यहां तक बताया कि उनकी तबीयत ठीक नहीं होने के कारण वह ठीक से गंध महसूस नहीं कर पा रहे हैं।
प्रोफेसर चुपचाप अपनी कुर्सी पर बैठ गए। कुछ मिनट बाद बोतल को चारों ओर घुमाते हुए जोरदार ठहाका लगाया। उन्होंने कहा, इसमें कोई अमोनिया नहीं है। इस बोतल में कोई गैस नहीं है। अमोनिया की गंध आपके मन के भीतर है। जैसी धारणा वैसे परिणाम। धारणा को परिणाम बनते देर नहीं लगती। इसीलिए रिश्ते बिगड़ते हैं, तो बिगड़ते ही चले जाते हैं। हम सारी शक्ति मन के बाहर लगाते हैं, जबकि धारणा तो मन के भीतर दुबकी है!
मत सोचिए कि यह मनोवैज्ञानिक प्रयोग केवल किसी विश्वविद्यालय में घटते हैं। हमारा मन हर जगह एक जैसा ही है। असली बात तो यह है कि जीवन से बड़ी कोई दूसरी प्रयोगशाला नहीं। जीवन में तो ऐसे प्रयोग हर दिन ही करते रहते हैं। जिस तरह इस कक्षा में बिना गंध के भी विद्यार्थी गंध महसूस करने लगे, ठीक उसी तरह से हम जीवन में जिस दिशा में विचार करते जाते हैं, धारणाएं बनाते जाते हैं। उसके अनुकूल ही हमारे परिणाम आते हैं और हम उसी दिशा में आगे बढ़ते जाते हैं।
जीवन संवाद को ‘लॉकडाउन’ और उसके बाद पैदा हुए आर्थिक सामाजिक संकट के कारण जीवन में आ रहे प्रभावों के बारे में हर दिन इसी तरह के अनुभव मिल रहे हैं। बहुत से लोगों के संकट वास्तविक हैं, लेकिन लगभग उतने ही लोगों के संकट मनोवैज्ञानिक हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि जिनके संकट वास्तविक हैं, वह कहीं मजबूती से अपने सीने में संघर्ष का लोहा लेकर चल रहे हैं। उनकी इच्छाशक्ति मजबूत है। जीवन के प्रति आस्था गहरी है। लेकिन, जिस तक संकट नहीं आया। आने को है, लेकिन आया नहीं। उसका मन सबसे अधिक घबराहट में है।
इस दौरान मैं तीन तरह के लोगों से नियमित रूप से संवाद कर रहा हूं। पहले वे जिनका कोरोना-वायरस के कारण बहुत अधिक नुकसान हुआ, नौकरी चली गई। आर्थिक संकट घर में प्रवेश कर गया। दूसरे वे जो थोड़े-थोड़े प्रभावित हुए। नौकरी गई तो नहीं, लेकिन वेतन बहुत कम हो गया। तीसरे और सबसे अधिक वह, जिनको लग रहा है कि संकट गहराने को है। आया नहीं है, उसके आने की गंध आ रही है। उस गंध से बेचैनी महसूस हो रही है।
सबसे खतरनाक असली संकट नहीं है। जो आ गया है वह संकट भी नहीं है। सबसे अधिक संकटपूर्ण स्थिति मानसिक है। संकट आ गया, तो क्या करेंगे! आया नहीं, लेकिन सपनों में आ गया है। जो मन में आया है उसका भय उसके प्रकट होने से कहीं अधिक ज्यादा है। इसी कारण ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो निराशा, संकट आने की आहट के कारण अपना जीवन दांव पर लगा रहे हैं।
दीये तूफान से पहले मन निराश नहीं करते। उनका जीवन उजाले के प्रति समर्पित है। वह पहले हार नहीं मानते। कोरोना से लड़ाई दीये और तूफान जैसी है। निर्बल की लड़ाई बलवान से! सबसे जरूरी मन का साहस है। मन का साहस सबसे पहले। उसे संभालिए। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
आंसू मन के आसमां पर आनंद के बादल हैं। उनको केवल दुख से मत जोडि़ए। कोमलता, करुणा, सहज स्वभाव से समझिए। जिस मन में कोमलता नहीं, वहां सुख के बीज नहीं उगते। जहां बीज नहीं, वहां आनंद के पौधे नहीं लगेंगे!
कोमलता, जीवन का पर्यायवाची है! कोमलता है, तो जीवन है। फूल का खिलना/बच्चे का संसार में आना/ओस की बूंद का पत्तों पर ठहरना/ आंसुओं का मन के पहाड़ तोडक़र गालों पर छलकना, सब कोमलता के निशान हैं। पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सकता है कि पुरुष अवश्य ही पहले रोते रहे होंगे। इसीलिए कोमलता मनुष्यता के लंबे सफर के बावजूद कायम है। हां, यह कम होती जा रही है, क्योंकि पुरुष अब रोते नहीं। वह मन के सहज उपचार, सुख से दूर होते जा रहे हैं।
आंसुओं का अर्थ केवल दुख नहीं है। करुणा, प्रेम, आनंद भी है। आंसू इनके भी प्रतिनिधि हैं। जो आंसू को कमजोरी समझ लेते हैं, वह जीवन की कोमलता से दूर होते जाते हैं। हम आए दिन घर-परिवार में सुनते हैं, ‘लड़कियों की तरह रोना बंद करो’, ‘तुम बहादुर लडक़े हो, लडक़े कभी रोते नहीं।’ कितनी अजीब बात है, हम नन्हें बच्चों के मन को करुणा और कोमलता से दूर करते जा रहे हैं।
आंसू मन के आसमां पर आनंद के बादल हैं। उनको केवल दुख से मत जोडि़ए। कोमलता, करुणा, सहज स्वभाव से समझिए। जिस मन में कोमलता नहीं, वहां सुख के बीज नहीं उगते। जहां बीज नहीं, वहां आनंद के पौधे नहीं लगेंगे!
एक छोटी-सी घटना आपसे कहता हूं। बात थोड़ी पुरानी है। भोपाल के सभागार में महात्मा का प्रवचन चल रहा था। बड़ी संख्या में लोग उनको सुन रहे थे। उनकी शिक्षा, कहने का ढंग ऐसा अनूठा था कि लोग रोने लगे। बड़ी संख्या में लोग भावुक हो गए। कार्यक्रम के अंत में मेजबान के साथ कुछ लोग उनसे मिलने पहुंचे, तो एक नौजवान ने कहा, प्रवचन के समय अनेक लोग फूट-फूटकर रो रहे थे। यह आपकी वाणी का असर है या सुनने वालों का कमजोर मन।
महात्मा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘रोनेवालों का तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन ऐसा लगता है, आप कठोर मन के हैं। आंसू केवल उनकी आंखों में नहीं होते, जिनका मन मरुस्थल हो जाता है। रेगिस्तान हो जाता है! जो रोते हैं, उनके भीतर दूसरों के मुकाबले कहीं अधिक प्यार, करुणा, आनंद का गहरा भाव होता है।
आज अनेक वर्षों के बाद मुझे उनकी यह बात इसलिए याद आई, क्योंकि किसी पाठक ने अपने आंसुओं को कमजोरी से जोड़ लिया। आंसू मन की कोमलता, करुणा के प्रतीक हैं। पुरुष अगर स्त्रियों की तरह रोने लग जाएं, तो धरती न जाने कितने युद्धों से बच जाएगी। प्रेम से भर जाएगी। संसार के सारे युद्ध पुरुषों के ही रचे हुए हैं। पुरुष समाज (जानबूझकर समाज लिखा) के कठोरता की ओर निरंतर बढ़ते जाने के कारण ही हिंसा इतनी बढ़ी है।
‘जीवन संवाद’ जीवन के प्रति प्रार्थना है। जीवन में बढ़ते तनाव, संकट को केवल प्रेम से ही हल किया जा सकता है। प्रेम अगर फल है, तो कोमलता वह धरती है, जिस पर प्रेम के उगने की संभावना है। आंसू, धरती और बीज के बीच सबसे जरूरी कड़ी है, जिससे गुजरकर प्रेम और कोमलता एक-दूसरे को उपलब्ध हो पाते हैं!
आइए, मिलकर कोशिश करते हैं कि हमारे समीप जो भी पुरुष इतने कठोर हो चले हैं कि आंसू उनकी आंखों में नहीं उतरते। उन्हें रोना सिखाना जरूरी है। उनकी आंखों में करुणा, उदारता का उतरना जरूरी है। आंसू हमारे चित्त की उदारता का आईना हैं। इनको कमजोरी से जोडक़र देखना मनुष्यता के विरुद्ध अपने को खड़ा करना है। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
हमने मन को बहुत अधिक कमजोर नाजुक, जरा-सी धूप में कुम्हलाने वाला बना लिया है। हमें समझने की जरूरत है कि हर चीज के लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं।
कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूढ़ै वन माहि! कबीर की यह सीख जितनी पुरानी है उतनी ही पुरानी हमारी जिद है, भीतर को अनदेखा करने की। मृग का भटकना तो फिर भी समझ में आता है, क्योंकि हम मनुष्य तो स्वयं ही यह मानते हैं कि हम जीवधारियों में सबसे बेहतर हैं। यह बात और है कि सारे फैसले हम स्वयं ही कर लेते हैं। क्या कभी हमने यह समझने की कोशिश की है कि मृग तो अपनी कस्तूरी के लिए बाहर भटकता, दौड़ता है, लेकिन उसकी यह बात पूरे जगत को बताने वाले हम उसकी स्थिति जानने के बाद भी उसके ही जैसा कर रहे हैं। यह तो कुछ ऐसा ही है जैसे बच्चे से हम कह रहे हैं कि तुम देखकर चलो और खुद आंखों में पट्टी बांधकर घर से निकलते हैं!
हमारे चारों तरफ अदृश्य अकेलापन है। हम भीड़ में हैं, लेकिन अकेले पड़ते जा रहे हैं। अकेले पड़ते जाने से भीतर बेचैनी बढ़ती जाती है। गुस्सा बढ़ता जाता है। टेलीविजन पर इन दिनों जो आप गुस्सा देख रहे हैं, वह गुस्सा असल में हमारे भीतर की कुंठा का है। किसी भी कीमत पर सबकुछ हासिल कर लेने के लिए तैयार होने के बाद भी कुछ हासिल न होने का है। हम बड़े घरों में शांति, सुकून, आनंद की खोज में जुटते गए। पुराना सबकुछ बेकार था, नए में आनंद है। नया ही सबसे अच्छा है। हमारा नए के प्रति आग्रह इतना तीव्र होता गया कि पुराने की महक पीछे छूटती गई। प्रेम, विनम्रता, दूसरों को साथ लेकर चलने जैसी बातें हमें पुरानी लगने लगीं, क्योंकि हम हर कीमत पर जीतना चाहते थे। जीतने में कोई बुराई नहीं, लेकिन हर कीमत का अर्थ क्या है? बहुत से लोग यह कहते हुए मिल जाते हैं कि प्रेम और जंग में सबकुछ जायज है। मुझे लगता है यह बिना जाने-समझे केवल शब्दों को दोहराते जाना है। दोहराव है। प्रेम और जंग में सबकुछ कभी जायज नहीं हो सकता। किसी के लिए भी सबकुछ जायज नहीं हो सकता। इसीलिए तो जंग के भी नियम बनाए जाते हैं। उनका पालन करने वालों का नाम दुनिया लेती है, जो इनको नहीं मानते, उनकी आलोचना होती है।
आपको याद होगा एक जमाने में ऑस्ट्रेलियाई टीम ने एक ऐसी संस्कृति विकसित की थी, जिसमें जीत ही सबकुछ थी। आगे चलकर डेविड वॉर्नर और स्टीव स्मिथ जैसे खिलाडिय़ों पर ऑस्ट्रेलिया को प्रतिबंध केवल इसलिए लगाना पड़ा ताकि समाज में नैतिक मूल्यों की साख बनी रहे। यूएस ओपन में जोकोविच जैसे शांत समझे जाने वाले खिलाड़ी ने भी अनजाने में ही जब लाइन रेफरी को चोट पहुंचा दी, तो उनकी लोकप्रियता के बावजूद उन्हें टूर्नामेंट से बाहर कर दिया गया।
भारत में हम नैतिक नियमों का गुणगान तो बहुत करते हैं, लेकिन थोड़ा ठहरकर सोचेंगे, तो पाएंगे कि इस मामले में दुनिया हमसे अच्छा प्रदर्शन कर रही है। अमेरिका का नागरिक समाज, ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट बोर्ड का प्रदर्शन, जोकोविच का इतने बड़े टूर्नामेंट से बाहर किया जाना, इसके सहज प्रमाण हैं। हम बच्चों को सिखाते हैं कि आंखों में शर्म होनी चाहिए। मन में अपनी गलती का एहसास गहरा होना चाहिए, लेकिन यह दोनों खूबसूरत बातें उम्र बढऩे के साथ भूलने लगते हैं।
बाहर जो इतना तनाव दिख रहा है। घुटन, आत्महत्या दिख रही है। वह भीतर की सुगंध न होने के कारण ही तो है। एक छोटी-सी कहानी कहता हूं आपसे। संभव है, मेरी बात आप तक अधिक सरलता से पहुंच सके।
एक दिन एक युवा निराश होकर आत्महत्या के विचार से नदी किनारे पहुंचा। वहीं एक साधु धूनी रमाए बैठा था। समय रहते उसकी नजर पड़ गई और उसने नौजवान को रोक लिया। नौजवान उसकी बातों से बिल्कुल प्रभावित नहीं हुआ और कहा कि उसे अपने जीवन का कोई उद्देश्य नजर नहीं आता। साधु ने कहा, ‘दो दिन इंतजार करो। तीसरे दिन अगर मैं न समझा पाया, तो मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा’। दो दिन बीतते-बीतते साधु ने अपनी योजना तैयार कर ली। तीसरे दिन सुबह-सुबह उसके दो शिष्य एक मरीज को लेकर आए और साधु से कहा कि इसकी एक किडनी खराब है और इसके लिए किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत है, जो अपनी किडनी दान दे सके। इसका जीवन बच जाएगा। इसके कोई निकट संबंधी इस बात के लिए तैयार नहीं।
साधु ने उस युवक की ओर इशारा करके कहा, ‘इसकी किडनी ले लीजिए’। उन लोगों ने बताया कि इसके बदले वह पर्याप्त रकम देने को भी राजी हैं। उसके बाद भी वह युवक तैयार न हुआ। उसने कहा, ‘मेरी किडनी की कीमत आप कैसे लगा सकते हैं’। दो दिन पहले जो मरने को राजी था, आज वह अपने अंगों की कीमत पर बहस कर रहा है। साधु ने कहा, ‘जब तुम्हारी किडनी अनमोल है, तो शरीर के बाकी अंगों का भी कुछ हिसाब तय करो। परमात्मा ने तुम्हें कितना अनमोल बनाया है, जरा यह भी तो सोचो’!
नौजवान साधु के कदमों में अपना सिर रखकर रोने लगा। साधु ने उसे उठाते हुए कहा, ‘जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं के लिए ईश्वर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। एक जैसी बारिश में भीगने पर सबको अलग-अलग अनुभूति होती है, तो इसमें दोष बरसात का नहीं। हमने मन को बहुत अधिक कमजोर नाजुक, जरा-सी धूप में कुम्हलाने वाला बना लिया है। हमें समझने की जरूरत है कि हर चीज के लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं। हमें छोटे-छोटे संकटों में जीवन को दांव पर लगाने से बचना चाहिए। फूलों की तरह निर्दोष होकर खिलने की कोशिश करनी चाहिए। खिलते वह हैं, सुगंध संसार को मिलती है। फूल कांटों से नहीं घबराते, उनका उपयोग करते हैं! जीवन भी कुछ इसी तरह होना चाहिए।
-दयाशंकर मिश्र
नेता की पत्नी ने कहा, ‘अब चलो भी! तुम्हारी प्रसन्नता का कोई अर्थ मुझे समझ नहीं आता। तुम भूल गए हो कि तुम मर गए’। नेता ने कहा, ‘अगर मुझे पता होता कि मरने पर इतनी भीड़ आती है, तो मैं बहुत पहले मर जाता। कौन इतने चकल्लस में पड़ता!’
आज संवाद की शुरुआत एक छोटे-से मजेदार किस्से से। एक राजनेता की मृत्यु हो गई। तीन वर्ष पहले उनकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी। जैसे ही मरकर वह दूसरे लोक को पहुंचे, पत्नी ने द्वार पर ही उनका स्वागत किया। उन्हें भीतर चलने को कहा, लेकिन राजनेता राजी न हुए। उन्होंने कहा, ‘पहले जरा देख तो लूं, कितने लोग विदा करने आए हैं’। पत्नी ने कहा, ‘अरे! अब इस बात का क्या मतलब। शरीर तो मिट्टी था पीछे छूट गया। अब हम देह से मुक्त हैं’। नेता ने कहा, ‘यह तो मैं भी जान गया हूं, फिर भी नए लोक में जाने से पहले चलो देख लें एक बार कौन-कौन आए और कितनी भीड़ जुटी है’।
दोनों अदृश्य थे। उनको कोई देख नहीं सकता था। दोनों अर्थी के आगे-आगे चलने लगे। कितनी भीड़ इक_ा हो गई थी। फूल ही फूल। तोपों की सलामी। अमरता का जयघोष। चारों ओर जिंदाबाद के नारे। नेता की पत्नी ने कहा, ‘अब चलो भी! तुम्हारी प्रसन्नता का कोई अर्थ मुझे समझ नहीं आता। तुम भूल गए हो कि तुम मर गए’। नेता ने कहा, ‘अगर मुझे पता होता कि मरने पर इतनी भीड़ आती है, तो मैं बहुत पहले मर जाता। कौन इतने चकल्लस में पड़ता’। नेताजी ने मरने के बाद ही सही, लेकिन सुंदर बात कही, मरने पर भीड़ आए, इसके लिए ही तो हम जीते हैं!
कितनी मेहनत करनी पड़ती है, तब जाकर यह मान, प्रतिष्ठा और सम्मान दूसरों की आंखों में आकर उमड़ता है। जिसके लिए मेहनत करनी पड़े, वह कभी स्वाभाविक नहीं होता। असल में वह रचा हुआ पाखंड है, लेकिन हम सब स्वाभाविक से रूप खुद को दूसरों के अनुकूल रचने में व्यस्त हैं! नेताओं का तो फिर भी काम चल जाता है। उनका जीवन दूसरे प्रकार का है, लेकिन हम सामान्यजन पूरे जीवन दूसरों के लिए दौड़ते-भागते रहते हैं। बस, दर्शक बनकर रह जाते हैं। कोई कह देता है कि बुद्धिमान हो, तो मान लेते हैं। लोग आकर कह दें कि तुम सफल हुए तो सफल मान लेते हैं। कुछ लोग द्वार पर आकर कह दें कि तुम्हारे जैसा सुंदर और क्रांतिकारी कोई दूसरा नहीं दिखता, तो फूलकर कुप्पा हो जाते हैं! सबकुछ दूसरे की आंखों से होता है। दुनिया जैसी हमें देखना चाहती है, हम वैसे ही होते जाते हैं। इससे हम दुनिया के अनुकूल होते जाते हैं, लेकिन स्वयं से दूर!
इसीलिए आपने देखा होगा कि जब हम दुनिया की नजर में सफल हो रहे होते हैं, तो ऐसे लोगों से घिर जाते हैं, जो हमारी महानता का ढोल रात-दिन पीटते रहते हैं। हम अपने आसपास एक घेरा बना लेते हैं खुशामद करने वालों का। उनकी नजरों में खुद को देवता बनाकर बैठा देते हैं। जिस दिन सफलता की परत उतरनी शुरू होती है, हम अकेले ही पड़ते जाते हैं।
अगर खुद को जानना हो, तो लोगों की आंखों में छवि का मोह छोडऩा पड़ेगा। दूसरों की ओर देखना बंद करना होगा। दूसरे के चश्मे से स्वयं को कभी नहीं समझा जा सकता। मन अपने प्रकाश से आलोकित होना चाहिए। चंद्रमा की तरह सबका काम दूसरे के उजाले से नहीं चल सकता!
हम अक्सर लोग क्या कहेंगे, लोकमत से ही संचालित होते हैं। दूसरों को प्रसन्न करने, उनकी नजर में छवि बनाए रखने के फेर में हम एक नकली जीवन जीने की ओर बढ़ते जाते हैं। अपने स्वभाव के विपरीत। अपनी सहजता से दूर। हम ऐसी दुनिया, रास्ते बनाते जाते हैं, जिसमें दूसरों की कही बातें ही हम अपने बारे में सत्य मानते जाते हैं। जब तक हम अपने सत्य से परिचित नहीं होते। दुनिया तो बहुत दूर की कौड़ी है, हमें अपने ही मन का आनंद उपलब्ध नहीं होगा! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
एक राजा ने एक बार अपने मंत्रियों, विद्वानों को बुलाया। उनसे कहा, ‘मैं जानना चाहता हूं कि मैं राजा क्यों हूं’। मैं ऐसे अनेक व्यक्तियों से मिलता हूं, जो मुझसे अधिक योग्य दिखते हैं, लेकिन उसके बाद भी मैं ही राजा हूं। मुझे पांच दिन के भीतर इस प्रश्न का उत्तर चाहिए...
हम कई बार कहना कुछ और चाहते हैं, कह दूसरा जाते हैं! एक बार स्वभाव में यह बात बैठ जाए, तो आसानी से दूर नहीं होती। फिर चाहे हम प्रार्थना करें, क्रोध करें या फिर किसी से सामान्य संवाद। शब्दों के अर्थ गहरे होते हैं। जो उनको समझ जाते हैं वह सरलता से जीवन को उपलब्ध होते रहते हैं। अपने शब्दों को कभी व्यर्थ न जाने दें। हम बहुत व्याकुल, गुस्सैल और आत्मकेंद्रित हो रहे हैं। दूसरों के प्रति सहयोग और जीवन के प्रति आस्था को मजबूत कीजिए। प्रेम, अनुराग और सहृदयता जीवन मूल्य हैं। इनको केवल शब्द समझने से बचना होगा।
छोटी-सी कहानी आपसे कहता हूं। संभव है इससे मेरी बात सरलता से आप तक पहुंच जाए। एक राजा ने एक बार अपने मंत्रियों, विद्वानों को बुलाया। उनसे कहा, ‘मैं जानना चाहता हूं कि मैं राजा क्यों हूं’। मैं ऐसे अनेक व्यक्तियों से मिलता हूं, जो मुझसे अधिक योग्य दिखते हैं, लेकिन उसके बाद भी मैं ही राजा हूं। मुझे पांच दिन के भीतर इस प्रश्न का उत्तर चाहिए। आप सभी लोग अगर ऐसा नहीं कर पाए, तो आपके पद समाप्त कर दिए जाएंगे।’
राजा की घोषणा के बाद मंत्रियों और विशेषज्ञों में हडक़ंप मच गया। जिन लोगों को बुलाया गया उनमें राजा का एक माली भी था, जिसकी सहज बुद्धि से राजा प्रभावित था, इसलिए माली होने के बाद भी उसे दरबार में प्रमुख स्थान प्राप्त था। जब चार दिन बीत गए, तो सभी को बड़ी चिंता हुई। माली ने घर पहुंचकर रात भोजन नहीं किया। उसकी बेटी ने पूछा, पिताजी क्या बात है। माली ने चिंता का कारण बता दिया। बेटी ने कहा, कोई बात नहीं।
कल मुझे राजमहल ले चलना। मैं राजा से बात करूंगी! उसकी बेटी से राजा भी परिचित था। माली को उसकी बात पर भरोसा तो न हुआ, लेकिन थोड़ी सांत्वना मिल गई। ठीक वैसे जैसे रेगिस्तान में प्यास से जूझते किसी यात्री को कुछ बूंदें मिल जाएं। माली ने सुकून के साथ भोजन किया और विश्राम को चला गया। अगले दिन वह बेटी को लेकर राजमहल पहुंचा।
बेटी ने राजा से कहा, ‘इस प्रश्न का उत्तर महल में नहीं मिल सकता। आपको मेरे पीछे-पीछे आना होगा’। राजा, मंत्रियों सहित प्रजा भी उसके पीछे चल दी। कुछ किलोमीटर दूर जाने पर एक कुएं के पास एक मेंढक प्यास से तड़प रहा था। माली की बेटी ने पूछा, ‘बताओ मेंढक, राजा राजा क्यों है’! मेंढक ने कहा, ‘यह मेरे बस की बात नहीं। यहां से कुछ मील दूर जाओ। ऐसे ही एक कुएं के पास धूल में लोटता मेंढक मिलेगा, उसके पास तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है’।
गर्मियों के दिन थे, लेकिन चिलचिलाती धूप में भी कारवां अगले कुएं की ओर बढ़ गया। कुएं के पास जाकर धूल में लोटता हुआ मेंढक मिला। इस मेंढक से भी वही प्रश्न दोहराया गया। मेंढक ने कहा, ‘पिछले जन्म की कहानी सुनाता हूं। हम तीन भाई थे। बहुत गरीबी और मुश्किल के दिन थे। किसी तरह हम लोगों को थोड़ा-थोड़ा भोजन मिला। हम लोग भोजन कर ही रहे थे, उसी समय एक भूखा बुजुर्ग व्यक्ति आ गया। हमारे पास बहुत ही थोड़ा भोजन था। मैं सबसे बड़ा था, उसने मुझसे खाना मांगा, तो मैंने उससे कहा, मैं तुम्हें दे दूंगा, तो क्या मैं धूल खाऊंगा।
फिर उसने दूसरे भाई से कहा, तो उसने कहा, तुमको अपना भोजन देकर क्या मैं भूख-प्यास से मर जाऊं। जब उसने तीसरे और सबसे छोटे भाई से भोजन मांगा, तो उसने अपने हिस्से का सारा भोजन चुपचाप भूखे बुजुर्ग को यह कहते हुए दे दिया कि मैंने तो कल भी खाया था! जबकि वह स्वयं दो दिन से भूखा था। यह राजा, इसलिए राजा है, क्योंकि यही वह तीसरा भाई है। इसके शब्दों के अर्थ का महत्व है। कहते तो बहुत से लोग हैं, लेकिन करते नहीं। इसने शब्द के महत्व को व्यर्थ नहीं किया। उसे कर्म में भी बदल दिया’!
यह राजा के राजा होने के कारण से अधिक हमारे व्यवहार और जीवन मूल्य की कहानी है। इसको इसी भाव से स्वीकार कीजिए!
-दयाशंकर मिश्र
सरलता को उपलब्ध होना, सबसे कठिन काम है। यह सरलता कुछ और नहीं, सुख-दुख में अपने मन की एक जैसी दशा को प्राप्त कर लेना है। अपने मन को ऐसी जगह ले जाकर खड़ा कर देना जहां से वह लाभ-हानि और सुख-दुख को समान भाव से देख पाए।
जीवन संवाद की शुरुआत एक छोटी-सी कहानी से। सूफी फकीर से किसी ने पूछा, ‘मुझे ईश्वर से बहुत शिकायत है। मैं बहुत धार्मिक व्यक्ति हूं, लेकिन फिर भी ऐसा लगता है कि ईश्वर मेरी बात नहीं सुनता। मेरी मन्नतों के प्रार्थना पत्र लगता है वह देखता ही नहीं! मेरी बात की उसके यहां सुनवाई नहीं। ऐसा क्यों होता है जबकि मैं तो किसी के साथ कुछ भी गलत नहीं करता। मेरी छोटी से छोटी ख्वाहिश भी अधूरी रह जाती है’।
फकीर ने बड़े प्रेम से उसे अपने पास बैठने का संकेत करते हुए कहा, ‘मुझे ऐसा नहीं लगता, फिर भी चलो परख लेते हैं। तुम्हारे परिवार में तुम्हारे पिता, तुम और तुम्हारे बच्चे सभी लोग सेहतमंद हैं। किसी को कोई शारीरिक अक्षमता नहीं। बीमारी नहीं। कोई भूखा नहीं। कोई विवाद नहीं। अब तुम्हें ईश्वर की प्रसन्नता का क्या सबूत चाहिए।
अपनी हर परेशानी के लिए किसी और को दोष देना, भले ही वह ईश्वर क्यों न हो, ठीक नहीं लगता! इससे मन में असंतोष बढ़ता रहता है। अपने कामों के प्रति निष्ठा कम होती है। जीवन के प्रति आस्था प्रभावित होती है। नन्हा पौधा उगते हुए खराब मौसम की शिकायत नहीं करता। स्वयं को हवा, मौसम के अनुकूल बनाता है। हंसते हुए कष्ट सहता है। सब सहते हुए पेड़ बनने की यात्रा पर होता है। हमारी जीवन आस्था भी ऐसी ही हो, तो संकट सरलता से बीतते हैं’।
आप जिस किसी को भी जानते हैं अगर उससे हर छोटी-छोटी बात की शिकायत करेंगे। हर काम उसके ऊपर टालेंगे, तो धीरे-धीरे वह भी आपकी बातों से परेशान होने लगेगा। जब मनुष्य की यह हालत है, तो आप जिसे ईश्वर कहते हैं उसके पास तो प्रार्थना पत्रों का अंबार है।
सूफी फकीर ने यह कहते हुए अपनी बात खत्म की, ‘अपने उन प्रश्नों को ईश्वर की ओर मत भेजो, जिनका उत्तर तुम खुद हासिल कर सकते हो। अपनी हर तकलीफ को भाग्य से मत जोड़ो। जीवन को समझने की कोशिश करो, हम सब सरलता-सरलता कहते हैं, लेकिन सरलता को उपलब्ध होना, सबसे कठिन काम है। यह सरलता कुछ और नहीं, सुख-दुख में अपने मन की एक जैसी दशा को प्राप्त कर लेना है। अपने मन को ऐसी जगह ले जाकर खड़ा कर देना जहां से वह लाभ-हानि और सुख-दुख को समान भाव से देख पाए, सबसे बड़ा काम है।
हमारी प्रार्थना हमसे अलग हटकर होगी, तो उसके पूर्ण होने की संभावना कहीं अधिक है। असल में हम मांगना ही नहीं जानते। घर, गाड़ी, कपड़े, नौकरी, प्रमोशन, तबादले, यही सब तो मांगते रहते हैं! जबकि यह सुख नहीं हैं, सुख के साधन हैं। ऐसे छोटे-छोटे प्रार्थना पत्र जब हमें परेशान करते रहते हैं और हम स्वयं उन पर बहुत अधिक ध्यान नहीं देते, तो जिसके पास हम यह एप्लीकेशन भेज रहे हैं वह तो और अधिक व्यस्त है। इसलिए ईश्वर से कुछ मांगना है तो बड़ा मांगिए। महाभारत में पांडवों की कहानी इसका सबसे सरल और सहज उदाहरण है।’
कोरोना के कारण इस समय समाज पर गहरा संकट है। आर्थिक, शारीरिक, मानसिक। इन संकटों को हम जितना अधिक साझा कर सकते हैं। हमें करना चाहिए। यह सोचकर नहीं कि दूसरे के लिए किया जा रहा है, बल्कि यह सोचते हुए कि ऐसा करके हम अपने संकट कम कर रहे हैं। अपने लिए फूल चाहने वालों को, दूसरों के रास्ते के कांटे निकालते चलना चाहिए। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
पानी कितना ही कीमती क्यों न हो एक सीमा के बाद घड़ा उसे लेने से इंकार कर देता है। मनुष्य के अलावा हर कोई इंकार कर देता है। हम मन को भरते ही जाते हैं। इच्छा, देखा-देखी, नित नए सुख की चाह हमें रिक्त होने ही नहीं देती!
घड़ा कितना ही बड़ा क्यों न हो, सीमा से अधिक पानी भरते ही हांफने लगता है। वह साफ-साफ कह देता है, बस! पानी कितना ही कीमती क्यों न हो, एक सीमा के बाद घड़ा उसे लेने से इंकार कर देता है। मनुष्य के अलावा हर कोई इंकार कर देता है। हम मन को भरते ही जाते हैं। इच्छा, देखा-देखी, नित नए सुख की चाह हमें रिक्त होने ही नहीं देती! हमारे आसपास प्रेम करुणा और अनुराग की कमी का बड़ा कारण मन का खाली न होना है। मन में जगह नहीं होगी, तो कोमलतम भावना, विचार, प्रेम को भी उसके भीतर रखना संभव नहीं। मन ऐसे भरे-भरे क्यों हैं! इससे अधिक इस पर बात होनी चाहिए कि मन को भरने से कैसे रोका जाए। खाली करने से सरल है, भरने की सीमा का पता होना। कितना भरना है इसका बोध हो, तो मन के अत्यधिक भर जाने और उतराने की समस्या नहीं आती। बड़े से बड़े बांध अत्यधिक बारिश से हांफ जाते हैं। उन्हें बचाने के लिए उनके द्वार खोलने होते हैं। जिससे पानी की वह मात्रा जिसे वह संजोकर नहीं रख सकते, उसे बाहर निकाला जा सके।
ठीक वैसे ही जैसे बांध को बचाने के लिए अतिरिक्त पानी को बाहर फेंकना जरूरी है, वैसे ही अपने को स्वस्थ और मन को उदार, स्नेहिल बनाए रखने के लिए मन को खाली करते रहना जरूरी है। मन को खाली करना एक प्रक्रिया है। एक पाठ्यक्रम है। जिससे हमारे ठीक होने की संभावना बनी रहती है। सफलता की दौड़ में हम ऐसे झोंक दिए गए हैं कि हर चीज का पैमाना केवल आर्थिक रह गया है। मन की आंखें अगर जीवन का मर्म नहीं देख पाती हैं, तो वह उसके लबालब होने और तटबंध टूटने की आशंका को भी समझ नहीं पाएंगी। बांध के द्वार कब खोले जाएंगे, इसकी बकायदा घोषणा होती है, जिससे आसपास के क्षेत्र सुरक्षित दूरी पर रहें। नदी, नालों से दूर रहें।
ठीक यही व्यवहार मन का भी है! यह समझना जरूरी है कि मन के भीतर क्या भरा है! बरस दर बरस ईष्र्या, प्रेम की कमी और दूसरों से आगे निकलने की होड़ के कारण मन में खरपतवार उग आते हैं। समय-समय पर इनकी सफाई मन की सेहत के लिए अनिवार्य है!
हमारी सोच, समझ, विचार उसी तरह से आगे बढ़ते हैं, जिस तरह का खाद-पानी उनको मिलता रहता है। मन के प्रति सजगता व्यक्ति को बाहर से आने वाली कुंठा, दुख की बौछार से सरलता से बचा लेती है, इसलिए मन पर सबसे अधिक ध्यान देना जरूरी है, कि मन का व्यवहार कहीं बदल तो नहीं रहा। पहले तो हर चीज मन सुन लेता था उसके बाद अपनी प्रतिक्रिया देता था। अब अगर ऐसा नहीं हो रहा है, तो क्या हो रहा है! हमें अधिक तेजी से गुस्सा आने लगा है। हम बिना पूरी बात सुने ही गुस्से से उबलने लगे हैं, तो हमें समझना चाहिए कि मन के भीतर कुछ ऐसा घट रहा है जो बाहर से नहीं दिख रहा है। बहुत से लोगों के लिए मन में प्रेम कम होता जा रहा है। करुणा कम होती जा रही है, तो थोड़ा ठहरकर मन को संभालना जरूरी है।
मन को चौबीस घंटे भरना बंद करना पड़ेगा। मनोविज्ञान की भाषा में इसे ऐसे समझें कि आटे की चक्की वाला ऊपर से गेहूं डालता जाता है और नीचे आटा गिरता जाता है। वह कहता है इस आटे को कैसे रोक कर रखूं। उसका ध्यान आटा रोकने पर है, जबकि उसे गेहूं डालना बंद करने के बारे में सोचना चाहिए। चक्की को खाली करने के लिए आटे पर नहीं गेहूं पर ध्यान देना है। मन को थोड़ा-सा विश्राम, आराम देकर हम जीवन के सुकून, प्रेम को उपलब्ध हो सकते हैं!
-दयाशंकर मिश्र
अपनों के प्रेम, अनुराग पर भरोसा कीजिए। संकट साथ मिलकर सहने से कम होता जाता है। हर अंधेरी रात की सुबह है। बस रात से डरना नहीं और सुबह में यकीन रखना है।
आसान नहीं है, बनी-बनाई लकीर के पार चले जाना! आसान नहीं है, जो दिमाग सोच ले, उससे बाहर जाकर कुछ सोच लेना। जिंदगी में धारणा के विपरीत जाना सबसे मुश्किल काम है। जीवन फूल की तरह हो, बस खिलने पर जोर, दूसरे से होड़ नहीं! हम जो कुछ एक बार सोच लेते हैं, उसमें स्वादानुसार नमक मिलाते जाते हैं! धारणा के विपरीत जाना साहस का काम है, इसे बढ़ाने के बारे में सोचना है! ‘जीवन संवाद’ को राजस्थान के जोधपुर से एक ईमेल मिला है। इसमें कोरोना के कारण अपने व्यापार में भारी घाटा उठा रहे युवा उद्योगपति ने अपने संकट का जिक्र करते हुए सुझाव मांगे हैं। वह जीवन से उतने अधिक निराश नहीं थे, जितने इस बात से निराश थे कि अचानक आए संकट ने उन्हें कई दशक पीछे धकेल दिया। उनके साथ के लोग कहीं आगे निकल गए। भारी आर्थिक कर्ज के बीच उनका मानसिक स्वास्थ्य निरंतर अस्थिर हो रहा है।
उनसे लंबी बातचीत से लग रहा था कि वह इस बात के लिए व्याकुल हैं कि किसी तरह शहर से कुछ दिनों के लिए अपना कारोबार समेटकर बाहर चले जाएं। जिससे उधार मांगने वालों से किसी तरह खुद को बचा सकें। उनकी चिंता स्वाभाविक है। वह संकट को हल करने में लगे थे, लेकिन उनका दिमाग धीरे-धीरे सारे रास्ते बंद करता जा रहा था। उनका कहना था कि उनकी पत्नी बहुत कमजोर हैं और आर्थिक संकट, कर्ज-वसूली करने वालों के सामने संभावित अपमान से वह अपने आपको संभाल नहीं पाएंगी। मैं भी उनकी चिंता से कुछ-कुछ सहमत था, लेकिन मैं इस बात के लिए राजी नहीं था कि बिना उनको बताए अचानक शहर से बाहर आने की योजना बनाई जाए। वह मुझे तरह-तरह के तर्क देते रहे, लेकिन मैं सहमत नहीं था।
कल अंतत: मेरे कई बार अनुरोध के बाद उन्होंने अपनी पत्नी से मेरी बात कराई। मैं उनकी पत्नी की बातें सुनकर प्रसन्नता और आनंद से भर गया। उनकी पत्नी ने जो कुछ कहा, वह मेरी अपेक्षा से बहुत आगे बढक़र था। उन्होंने कहा, हम जोधपुर छोडक़र कहीं नहीं जाना चाहते।
हम संघर्ष करना चाहते हैं, क्योंकि सामने संघर्ष की मिसाल रखना चाहते हैं। नए शहर में इतना कुछ नया होगा कि हमें अपनी जड़ें जमाने में बरसों बीत जाएंगे। हम कर्ज में जरूर हैं, लेकिन हम हारना नहीं चाहते। वह भी बिना लड़े।
लगभग 60 मिनट की बातचीत में 55 मिनट उनकी पत्नी बोलती रहीं। मैं चुपचाप आनंद से सुनता रहा। उनकी पत्नी के पास पति के हर संकट की जानकारी थी। बस तनाव नहीं था। जबकि उनके पति निरंतर मुझसे यही कहते, वह बहुत कमजोर हैं। संकट का सामना नहीं कर पाएंगी। मुश्किल को सह नहीं पाएंगी। बिना कुछ कहे हम कितना कुछ दिमाग में ‘घर’ कर लेते हैं। दो महीने से यह युवा उद्योगपति मन ही मन घुट रहा था। जीवन के बहुत ही खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुका था। केवल यही सोचकर कि उसकी पत्नी कमजोर हैं। वह तनाव और संघर्ष को नहीं सह पाएंगी। कितना कम जानते हैं हम अपने परिवारवालों को!
सोशल मीडिया के जमाने में हम रात-दिन दुनिया को जानने का दावा करते रहते हैं, लेकिन अपने ही लोगों के प्रेम, शक्ति से अपरिचित रहते हैं। इस अपरिचय के कारण बहुत सारा तनाव ओढ़ लेते हैं। अपनों के प्रेम, अनुराग पर भरोसा कीजिए। संकट साथ मिलकर सहने से कम होता जाता है। हर अंधेरी रात की सुबह है। बस रात से डरना नहीं और सुबह में यकीन रखना है। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
संबंधों में प्रेम, करुणा को स्थायी भाव दें। जब तक हम अपने मूल्य से परिचित नहीं होंगे, अपने होने को हासिल करना बहुत मुश्किल होगा।
हमारे आस-पास इस समय तरह तरह के संकट तैर रहे हैं। आर्थिक-मानसिक और इन सबसे बढक़र स्वयं के प्रति दुविधा। अपने होने पर संदेह। अपनी काबिलियत पर तरह-तरह के प्रश्न स्वयं ही करने लगते हैं। इसके कारण हमारे मन में अनिश्चितता, संशय के बादल गहरे होने लगते हैं। इसका असर यह होता है कि हम अपने होने पर सवाल खड़े करने लगते है। एक छोटी-सी कहानी इस बारे में आपसे कहता हूं। संभव है, इससे मेरी बात अधिक स्पष्टता से आप तक पहुंच सके।
एक बार एक व्यक्ति अपने होने पर बहुत अधिक दुविधा से घिर गया। उसके भीतर तक यह बात घर कर गई कि उसके होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। बहुत दिनों तक परेशान रहने के बाद किसी ने उसे महात्मा बुद्ध के पास जाने की सलाह दी। वह बुद्ध के पास पहुंचा। उनसे निवेदन किया, ‘मैं किसी काम का नहीं हूं। संसार को मेरी कोई जरूरत नहीं। मेरा कोई मूल्य नहीं। कुछ ऐसा कीजिए, जिससे मैं अपने होने को महसूस कर सकूं। अभी तो ऐसा लगता है कि मेरे होने से दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं अपनी कीमत खो चुका हूं।’
महात्मा ने उसे प्यार से अपने पास बुलाया और एक चमकदार पत्थर (जो असल में कीमती रूबी रत्न था) देते हुए कहा, ‘इसे किसी को बेचना नहीं। बस चार अलग-अलग तरह के लोगों से इसकी कीमत पूछकर आओ। किसी भी हालत में इसे किसी को देना नहीं!’ उसने ऐसा ही करने का भरोसा दिया।
उस व्यक्ति को कुछ दूरी पर ही एक सब्जी वाला मिला। उसने अपनी हथेली पर चमकदार पत्थर रखते हुए, सब्जी वाले से कहा कि इसका मूल्य बताओ। उसने कहा, ‘मुझे इसकी कीमत तो नहीं पता, लेकिन चमक रहा है, तो कुछ काम आ सकता है। तुम इसके बदले में पांच किग्रा मनचाही सब्जियां ले लो।’ जब उस व्यक्ति ने ऐसा करने से मना कर दिया, तो उसने कुछ और सब्जियां देने का प्रस्ताव किया। लेकिन दूसरे का उद्देश्य तो कीमत पता करना था। आगे चलकर उसे अनाज का व्यापारी मिला। उसने बदले में एक बोरी गेहूं की पेशकश कर दी। क्योंकि उसे लगा यह अवश्य कोई कीमती पत्थर है। कुछ दूर और जाने पर उसे एक थोड़े पढ़े-लिखे सज्जन दिखे। उनके सामने भी जब यही प्रस्ताव रखा गया, तो उन्होंने कहा, मैं इसके बदले सौ स्वर्ण मुद्राएं दे सकता हूं!
कीमत पता करने निकले व्यक्ति को लगा कि अब और अधिक लोगों से पूछने का अर्थ नहीं। इसका मूल्य किसी जौहरी से पूछना चाहिए। वह सीधे जौहरी की दुकान पर गया। पारखी जौहरी देखते ही समझ गया कि यह कीमती रूबी रत्न है, लेकिन उसने सोचा कहीं ऐसा न हो कि इसे लालच आ जाए। इसलिए उसने उसकी कीमत दस हजार रुपये बताई। कीमत सुनकर वह जाने को हुआ तो व्यापारी को लगा अच्छा सौदा हाथ से निकल जाएगा। उसने दो गुना दाम बता दिया। उसके बाद भी जब उसने कहा कि वह तो केवल कीमत पूछने आया था, तो व्यापारी उसके सामने जाकर खड़ा हो गया और उससे कहा, ‘तुम इसकी मुंहमांगी कीमत मुझसे ले लो, क्योंकि यह तुम्हारे काम का नहीं है। यह मेरे काम का है।’ कीमत पूछने निकले व्यक्ति ने किसी तरह उससे पीछा छुड़ाया!
बुद्ध के पास पहुंचकर उसने सारा किस्सा सुनाया। बुद्ध ने मुस्कराते हुए कहा, ‘ठीक इस रत्न की तरह ही मनुष्य की कीमत है। जिसे लोग अपनी समझ, जरूरत और अवसर के अनुरूप तय करते हैं। यह तय करते हुए असल में हमारी कीमत कम और उनकी जरूरत अधिक होती है। जो ऐसा नहीं करते, असल में वही सच्चा प्रेम रखते हैं! इसलिए, दूसरों के मूल्यांकन से दुखी नहीं होना है। अपने होने का एहसास दूसरों से अधिक खुद के भीतर सहेजना होगा। ऐसा न होने पर हम हर किसी को खुद को दुखी करने का अवसर देते रहेंगे!’
इस कहानी को जीवन से जोडक़र देखें, तो हम पाते हैं कि इसके किरदार जरूर बदल गए, लेकिन संकट जस का तस है।
जैसे ही हमारे बीच किसी की अच्छी नौकरी लगती है। हमारे लिए उसका मूल्य बदल जाता है। जैसे ही उसकी नौकरी छूटी, हम तुरंत कीमत घटाने लग जाते हैं! जितना संभव हो ऐसा करने से बचें। संबंधों में प्रेम, करुणा को स्थायी भाव दें। जब तक हम अपने मूल्य से परिचित नहीं होंगे, अपने होने को हासिल करना बहुत मुश्किल होगा।
-दयाशंकर मिश्र
दुख को स्वीकार करने से वह सहज होने लगता है। जैसे ही दुख सहज होता है, मन सुख की ओर बढ़ जाता है... जीवन में आस्था और अपने अहंकार को समझने से हमारे बहुत सारे संकट, मन की गांठें खुलने लगती हैं, धीरे-धीरे।
इतना सारा कर्ज कैसे उतरेगा। सबकुछ बर्दाश्त है, लेकिन कोई अपना उधार मांगने जब आएगा, तो उसकी आवाज तो ऊंची होगी! सबकुछ सहा जा सकता है, लेकिन देनदार की तीखी और तेज आवाज सहन करने की मुझमें क्षमता नहीं। उनकी आवाज दर्द से भरी हुई थी। मैंने उनको कुछ कहने की जगह सुनने की कोशिश की। देर तक उनकी सिसकी और रुक-रुक कर बाहर आती उदासी, उनके मन के लिए हितकारी होगी, इस विश्वास के साथ मैंने उनके आंसुओं को बहने दिया। गुरुवार के अंक में जिस घटना का मैंने जिक्र किया था। आज का अंक उसका विस्तार है।
अपने को बहुत अधिक सुरक्षित रखने, बहुत तेजी से सबकुछ हासिल करने की चाहत में हम अपने बुजुर्गों के कुछ ठोस, बुनियादी नियमों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं। अपने लालच पर नियंत्रण, जो है पहले उसे ठीक से संभाल लिया जाए। कर्ज कैसा भी हो अच्छा नहीं होता। इन तीन चीजों को बीते बीस वर्षों में हमने भुलाने की यथासंभव कोशिश की है। अपने जिस मित्र का मैं यहां जिक्र कर रहा हूं, उसके लिए संघर्ष नया नहीं है, लेकिन सब तरफ से घिरने, अपनों से छले जाने की पीड़ा इस बार गहरी है। बाहरी दुनिया से मिले दुख, तनाव को सहना आसान हो जाता है, लेकिन इसका कारण घर के भीतर होने पर मन को समझाना मुश्किल है। इसी गांठ को सुलझाने की राह पर हमें आगे बढऩा है!
कोरोना के रूप में हमारे सामने जो संकट है वह हम सभी के लिए इस मायने में नया है कि किसी ने भी ऐसा संकट अब तक नहीं देखा, जिसमें हमारी सामाजिकता पर इतनी बड़ी पाबंदी हो।
हमारे अस्तित्व को हमारे मिलने से सीधे चुनौती हो। पूरी दुनिया एक ही तरह के डर का सामना कर रही हो। अब तक ऐसा केवल सिनेमा के पर्दे पर ही दिखाई देता था। इस अर्थ में दुनिया सचमुच एक जैसी हो गई है। लेकिन उसे असल में गांव जैसा होना होगा। गांव, जिसके संकट और सुख बहुत अधिक एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। वहां लोग जीवन-मृत्यु में एक-दूसरे के निकट सहभागी होते हैं। शहर और गांव यहीं आकर एक-दूसरे से बहुत अलग हो जाते हैं।
इस दोस्त की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। उसके पास गांव की तरह दुख का सामना करने का अभ्यास नहीं है। अब तक मैं उसे जो संभाल पाया हूं, तो केवल गांव की कहानियां सुनाकर। उसने मुझसे कहा कि पहले कभी तुमने यह क्यों नहीं सुनाईं, जबकि हम तो तीसरी कक्षा से साथ पढ़े। स्कूल, कॉलेज साथ में बीता। मैं केवल उससे इतना ही कह पाया कि पहली बार ही इनकी जरूरत तुम्हें महसूस हो रही है। कहानियां हमेशा मेरे लिए दवाइयों का काम करती हैं। खुद के लिए भी और उनके लिए भी जिनसे मुझे प्रेम है।
एक छोटी-सी कहानी कहता हूं आपसे सुख के बारे में। संभव है इससे मेरी बात और अधिक स्पष्ट हो सके।
एक राजा जिसके राज्य में हर प्रकार की सुख-सुविधाएं थी। उसे एक दिन एक फकीर ने कह दिया, ‘तुम सुखी नहीं लगते’। राजा ने पूछा, ‘सुख कैसे मिलेगा’! फकीर ने कहा, ‘तुम्हें किसी सुखी आदमी की कमीज चाहिए। उसके बिना तुम्हारे लिए सुख को पाना मुश्किल दिखता है’। राजा कई महीने तक राज्य में ऐसा व्यक्ति तलाशता रहा, जो स्वयं को सुखी कह सके, लेकिन उसे ऐसा कोई मिला नहीं। उसके सिपाही सुखी आदमी को खोज ही रहे थे कि एक दिन एक घने पेड़ के नीचे अपनी बैलगाड़ी के पास विश्राम करते व्यक्ति के मुंह से उन्होंने सुना, ‘जैसा मैं सुखी, वैसा सुख सबको मिले!’
राजा के सैनिक तुरंत उसकी ओर दौड़े और उससे पूछा कि क्या तुम सुखी हो! जब उसने कई बार अपना उत्तर दोहरा दिया, तो सैनिकों ने उससे कहा, ‘तुम्हें राजा के पास चलना होगा। राजा ऐसे आदमी की तलाश कर रहे हैं जो सुखी हो’। उसने जाने से मना कर दिया। सैनिकों ने उससे कहा, ‘तुम्हारे पास तो कमीज तक नहीं है। राजा सुखी आदमी की कमीज की तलाश में है’।
उस गाड़ीवान ने कहा, ‘मेरे सुख को किसी कमीज की जरूरत नहीं’। सैनिकों ने तुरंत राजा को जाकर यह बात बताई। राजा ने उसके लिए कई प्रलोभन भेजे, लेकिन उसने आने से इंकार कर दिया और कहा, ‘राजा को जरूरत है तो स्वयं आएं। मुझे राजा की जरूरत नहीं’।
राजा बड़े भारी लाव लश्कर के साथ उससे मिलने पहुंचा, लेकिन उसने राजा से मिलने से इनकार कर दिया। तीसरे प्रयास में जब वह अकेला गाड़ीवान से मिलने गया, तो गाड़ीवान ने उससे संवाद स्वीकार किया। राजा ने पूछा, ‘सुख कैसे मिलेगा’। उस बेहद सामान्य दिखने वाले बैलगाड़ी के मालिक ने कहा, ‘सुख भीतर है राजा। जैसे सुख को जीते हो, वैसे दुख को जियो। दोनों एक ही हैं। जैसे रात-दिन वैसे सुख-दुख। उसने राजा को कई कहानियां सुनाईं’। उन सबका सूत्रवाक्य केवल इतना ही था कि अगर जीवन में आस्था है। उसमें आस्था है, जिसके भरोसे तुम हो। तो दुख के लिए मन में जगह बनाओ। उसे स्वीकार करो। दुख को स्वीकार करने से वह सहज होने लगता है। जैसे ही दुख सहज होता है, मन सुख की ओर बढ़ जाता है।
गाड़ीवान की कहानियां ही मैंने अपने दोस्त को सुनाईं। मुझे यह कहते हुए बहुत संतोष है कि अब वह ठीक हो रहे हैं। बिना किसी दवाई के केवल अपने मन की ओर बढऩे से। जीवन में आस्था और अपने अहंकार को समझने से हमारे बहुत सारे संकट, मन की गांठें खुलने लगती हैं, धीरे-धीरे। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र