दयाशंकर मिश्र
पानी कितना ही कीमती क्यों न हो एक सीमा के बाद घड़ा उसे लेने से इंकार कर देता है। मनुष्य के अलावा हर कोई इंकार कर देता है। हम मन को भरते ही जाते हैं। इच्छा, देखा-देखी, नित नए सुख की चाह हमें रिक्त होने ही नहीं देती!
घड़ा कितना ही बड़ा क्यों न हो, सीमा से अधिक पानी भरते ही हांफने लगता है। वह साफ-साफ कह देता है, बस! पानी कितना ही कीमती क्यों न हो, एक सीमा के बाद घड़ा उसे लेने से इंकार कर देता है। मनुष्य के अलावा हर कोई इंकार कर देता है। हम मन को भरते ही जाते हैं। इच्छा, देखा-देखी, नित नए सुख की चाह हमें रिक्त होने ही नहीं देती! हमारे आसपास प्रेम करुणा और अनुराग की कमी का बड़ा कारण मन का खाली न होना है। मन में जगह नहीं होगी, तो कोमलतम भावना, विचार, प्रेम को भी उसके भीतर रखना संभव नहीं। मन ऐसे भरे-भरे क्यों हैं! इससे अधिक इस पर बात होनी चाहिए कि मन को भरने से कैसे रोका जाए। खाली करने से सरल है, भरने की सीमा का पता होना। कितना भरना है इसका बोध हो, तो मन के अत्यधिक भर जाने और उतराने की समस्या नहीं आती। बड़े से बड़े बांध अत्यधिक बारिश से हांफ जाते हैं। उन्हें बचाने के लिए उनके द्वार खोलने होते हैं। जिससे पानी की वह मात्रा जिसे वह संजोकर नहीं रख सकते, उसे बाहर निकाला जा सके।
ठीक वैसे ही जैसे बांध को बचाने के लिए अतिरिक्त पानी को बाहर फेंकना जरूरी है, वैसे ही अपने को स्वस्थ और मन को उदार, स्नेहिल बनाए रखने के लिए मन को खाली करते रहना जरूरी है। मन को खाली करना एक प्रक्रिया है। एक पाठ्यक्रम है। जिससे हमारे ठीक होने की संभावना बनी रहती है। सफलता की दौड़ में हम ऐसे झोंक दिए गए हैं कि हर चीज का पैमाना केवल आर्थिक रह गया है। मन की आंखें अगर जीवन का मर्म नहीं देख पाती हैं, तो वह उसके लबालब होने और तटबंध टूटने की आशंका को भी समझ नहीं पाएंगी। बांध के द्वार कब खोले जाएंगे, इसकी बकायदा घोषणा होती है, जिससे आसपास के क्षेत्र सुरक्षित दूरी पर रहें। नदी, नालों से दूर रहें।
ठीक यही व्यवहार मन का भी है! यह समझना जरूरी है कि मन के भीतर क्या भरा है! बरस दर बरस ईष्र्या, प्रेम की कमी और दूसरों से आगे निकलने की होड़ के कारण मन में खरपतवार उग आते हैं। समय-समय पर इनकी सफाई मन की सेहत के लिए अनिवार्य है!
हमारी सोच, समझ, विचार उसी तरह से आगे बढ़ते हैं, जिस तरह का खाद-पानी उनको मिलता रहता है। मन के प्रति सजगता व्यक्ति को बाहर से आने वाली कुंठा, दुख की बौछार से सरलता से बचा लेती है, इसलिए मन पर सबसे अधिक ध्यान देना जरूरी है, कि मन का व्यवहार कहीं बदल तो नहीं रहा। पहले तो हर चीज मन सुन लेता था उसके बाद अपनी प्रतिक्रिया देता था। अब अगर ऐसा नहीं हो रहा है, तो क्या हो रहा है! हमें अधिक तेजी से गुस्सा आने लगा है। हम बिना पूरी बात सुने ही गुस्से से उबलने लगे हैं, तो हमें समझना चाहिए कि मन के भीतर कुछ ऐसा घट रहा है जो बाहर से नहीं दिख रहा है। बहुत से लोगों के लिए मन में प्रेम कम होता जा रहा है। करुणा कम होती जा रही है, तो थोड़ा ठहरकर मन को संभालना जरूरी है।
मन को चौबीस घंटे भरना बंद करना पड़ेगा। मनोविज्ञान की भाषा में इसे ऐसे समझें कि आटे की चक्की वाला ऊपर से गेहूं डालता जाता है और नीचे आटा गिरता जाता है। वह कहता है इस आटे को कैसे रोक कर रखूं। उसका ध्यान आटा रोकने पर है, जबकि उसे गेहूं डालना बंद करने के बारे में सोचना चाहिए। चक्की को खाली करने के लिए आटे पर नहीं गेहूं पर ध्यान देना है। मन को थोड़ा-सा विश्राम, आराम देकर हम जीवन के सुकून, प्रेम को उपलब्ध हो सकते हैं!
-दयाशंकर मिश्र