दयाशंकर मिश्र
दुख को स्वीकार करने से वह सहज होने लगता है। जैसे ही दुख सहज होता है, मन सुख की ओर बढ़ जाता है... जीवन में आस्था और अपने अहंकार को समझने से हमारे बहुत सारे संकट, मन की गांठें खुलने लगती हैं, धीरे-धीरे।
इतना सारा कर्ज कैसे उतरेगा। सबकुछ बर्दाश्त है, लेकिन कोई अपना उधार मांगने जब आएगा, तो उसकी आवाज तो ऊंची होगी! सबकुछ सहा जा सकता है, लेकिन देनदार की तीखी और तेज आवाज सहन करने की मुझमें क्षमता नहीं। उनकी आवाज दर्द से भरी हुई थी। मैंने उनको कुछ कहने की जगह सुनने की कोशिश की। देर तक उनकी सिसकी और रुक-रुक कर बाहर आती उदासी, उनके मन के लिए हितकारी होगी, इस विश्वास के साथ मैंने उनके आंसुओं को बहने दिया। गुरुवार के अंक में जिस घटना का मैंने जिक्र किया था। आज का अंक उसका विस्तार है।
अपने को बहुत अधिक सुरक्षित रखने, बहुत तेजी से सबकुछ हासिल करने की चाहत में हम अपने बुजुर्गों के कुछ ठोस, बुनियादी नियमों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं। अपने लालच पर नियंत्रण, जो है पहले उसे ठीक से संभाल लिया जाए। कर्ज कैसा भी हो अच्छा नहीं होता। इन तीन चीजों को बीते बीस वर्षों में हमने भुलाने की यथासंभव कोशिश की है। अपने जिस मित्र का मैं यहां जिक्र कर रहा हूं, उसके लिए संघर्ष नया नहीं है, लेकिन सब तरफ से घिरने, अपनों से छले जाने की पीड़ा इस बार गहरी है। बाहरी दुनिया से मिले दुख, तनाव को सहना आसान हो जाता है, लेकिन इसका कारण घर के भीतर होने पर मन को समझाना मुश्किल है। इसी गांठ को सुलझाने की राह पर हमें आगे बढऩा है!
कोरोना के रूप में हमारे सामने जो संकट है वह हम सभी के लिए इस मायने में नया है कि किसी ने भी ऐसा संकट अब तक नहीं देखा, जिसमें हमारी सामाजिकता पर इतनी बड़ी पाबंदी हो।
हमारे अस्तित्व को हमारे मिलने से सीधे चुनौती हो। पूरी दुनिया एक ही तरह के डर का सामना कर रही हो। अब तक ऐसा केवल सिनेमा के पर्दे पर ही दिखाई देता था। इस अर्थ में दुनिया सचमुच एक जैसी हो गई है। लेकिन उसे असल में गांव जैसा होना होगा। गांव, जिसके संकट और सुख बहुत अधिक एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। वहां लोग जीवन-मृत्यु में एक-दूसरे के निकट सहभागी होते हैं। शहर और गांव यहीं आकर एक-दूसरे से बहुत अलग हो जाते हैं।
इस दोस्त की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। उसके पास गांव की तरह दुख का सामना करने का अभ्यास नहीं है। अब तक मैं उसे जो संभाल पाया हूं, तो केवल गांव की कहानियां सुनाकर। उसने मुझसे कहा कि पहले कभी तुमने यह क्यों नहीं सुनाईं, जबकि हम तो तीसरी कक्षा से साथ पढ़े। स्कूल, कॉलेज साथ में बीता। मैं केवल उससे इतना ही कह पाया कि पहली बार ही इनकी जरूरत तुम्हें महसूस हो रही है। कहानियां हमेशा मेरे लिए दवाइयों का काम करती हैं। खुद के लिए भी और उनके लिए भी जिनसे मुझे प्रेम है।
एक छोटी-सी कहानी कहता हूं आपसे सुख के बारे में। संभव है इससे मेरी बात और अधिक स्पष्ट हो सके।
एक राजा जिसके राज्य में हर प्रकार की सुख-सुविधाएं थी। उसे एक दिन एक फकीर ने कह दिया, ‘तुम सुखी नहीं लगते’। राजा ने पूछा, ‘सुख कैसे मिलेगा’! फकीर ने कहा, ‘तुम्हें किसी सुखी आदमी की कमीज चाहिए। उसके बिना तुम्हारे लिए सुख को पाना मुश्किल दिखता है’। राजा कई महीने तक राज्य में ऐसा व्यक्ति तलाशता रहा, जो स्वयं को सुखी कह सके, लेकिन उसे ऐसा कोई मिला नहीं। उसके सिपाही सुखी आदमी को खोज ही रहे थे कि एक दिन एक घने पेड़ के नीचे अपनी बैलगाड़ी के पास विश्राम करते व्यक्ति के मुंह से उन्होंने सुना, ‘जैसा मैं सुखी, वैसा सुख सबको मिले!’
राजा के सैनिक तुरंत उसकी ओर दौड़े और उससे पूछा कि क्या तुम सुखी हो! जब उसने कई बार अपना उत्तर दोहरा दिया, तो सैनिकों ने उससे कहा, ‘तुम्हें राजा के पास चलना होगा। राजा ऐसे आदमी की तलाश कर रहे हैं जो सुखी हो’। उसने जाने से मना कर दिया। सैनिकों ने उससे कहा, ‘तुम्हारे पास तो कमीज तक नहीं है। राजा सुखी आदमी की कमीज की तलाश में है’।
उस गाड़ीवान ने कहा, ‘मेरे सुख को किसी कमीज की जरूरत नहीं’। सैनिकों ने तुरंत राजा को जाकर यह बात बताई। राजा ने उसके लिए कई प्रलोभन भेजे, लेकिन उसने आने से इंकार कर दिया और कहा, ‘राजा को जरूरत है तो स्वयं आएं। मुझे राजा की जरूरत नहीं’।
राजा बड़े भारी लाव लश्कर के साथ उससे मिलने पहुंचा, लेकिन उसने राजा से मिलने से इनकार कर दिया। तीसरे प्रयास में जब वह अकेला गाड़ीवान से मिलने गया, तो गाड़ीवान ने उससे संवाद स्वीकार किया। राजा ने पूछा, ‘सुख कैसे मिलेगा’। उस बेहद सामान्य दिखने वाले बैलगाड़ी के मालिक ने कहा, ‘सुख भीतर है राजा। जैसे सुख को जीते हो, वैसे दुख को जियो। दोनों एक ही हैं। जैसे रात-दिन वैसे सुख-दुख। उसने राजा को कई कहानियां सुनाईं’। उन सबका सूत्रवाक्य केवल इतना ही था कि अगर जीवन में आस्था है। उसमें आस्था है, जिसके भरोसे तुम हो। तो दुख के लिए मन में जगह बनाओ। उसे स्वीकार करो। दुख को स्वीकार करने से वह सहज होने लगता है। जैसे ही दुख सहज होता है, मन सुख की ओर बढ़ जाता है।
गाड़ीवान की कहानियां ही मैंने अपने दोस्त को सुनाईं। मुझे यह कहते हुए बहुत संतोष है कि अब वह ठीक हो रहे हैं। बिना किसी दवाई के केवल अपने मन की ओर बढऩे से। जीवन में आस्था और अपने अहंकार को समझने से हमारे बहुत सारे संकट, मन की गांठें खुलने लगती हैं, धीरे-धीरे। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र